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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२
प्रतिक्रमणादि सत्क्रियासे श्रद्धा भ्रष्ट कर दीइ है, और कितनेक जनोने हमारे आगे आलोचना करके प्रायश्चित लीना है. इसमें हम इसका शील संतोष आत्मध्यानीपणा भी जैसा है तैसा जानते ही है, विशेष करके इसके चेले चिदानंदने संवत् १९४३ में एक अखबार (छापा) छपवा कर इसकी कर्तृतां जाहिर करी थी, सो तो बहोतसें प्राणियोंको मालूम ही है. उपसंपदा भी इसने नही लीनी है, हमारे साधुके सन्मुख इसने यह बात कहीथी के, जे कर मेरेमें शक्ति होवे तो एक भी तपगच्छीय संवेगी यतिको जीता न रहने देऊ. हमारी रुबरु इसने ऋषभदेवजीकी प्रतिमाजीकी निंदा करी है । इसको जिनप्रतिमाकी श्रद्धा नही है, जिनमतके शास्त्रोकी निंदा करता है, परंतु यह भी तीन थुइ माननेवाले कुमतियोका दम मारता है, इसी वास्ते रतलाममें तीन थुइ माननेवालों के उपाश्रयमें रहा था, और खरतर गच्छके श्रावकोने रतलाममें इसकी मानता नही करी थी, तीन थुइके माननेसें ही कुमतीयोंने इसकी महिमा लिखी है। आप जैसा होता है तैसेकी महिमा लिखता ही है।
(१५) पृष्ट ४१ में लिखता है कि "राणाजीए बहु बिनती करी, तथा त्यां चोमासु रह्या । ते अवसरे कास्मीर देश ना एक पंडिते आवी राजसभाना पंडितोने जीती जयपताका मांगी त्यारे राणाजीए का के अमारा गुरु साथे वाद करतां जीत थाशे तो जीतपाताका आपीशं; त्यारे ते पंडित अभिमान करी आचार्य साथे वाद करवा आव्यो, ने वादमां नियम कर्यो के जे धर्मनो वाद करवो ते ते धर्मना शास्त्रथी जवाब देवो. एम वाद करतां २१ दहाडा थया तोय पण कोइ हार्या जीत्या नही; त्यारे आचार्यजीना मनमां चिंता थइ के, ए पंडित जैनमत अने परमतनो जाण छे ते केम जीताय ? त्यारे रात्रे श्री मणिभद्रनामा यक्षे आवीने कह्यु के, तमे शाने चिंता करो छो? आपने फारसी आवडे छे, ते पंडितने आवडती नथी । एम कही अदृश थया । त्यारे आचार्य हर्ष पाम्या, बीजे दहाडे वादमां कुराननी कीताब कही, त्यारे
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