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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २ श्री आत्मारामजीनुं एकांते सिद्ध थतुं नथी. पुस्तकान्तरनो लेख छे पण प्रबोधचिंतामणि आत्मप्रबोधादिक ग्रंथोमां श्रीवर्धमानसूरिजीनी शिष्य परंपरामें पण थया शोभनाचार्य लखे छे" इत्यादिक छलके लेख भव्य जीवोंकों भ्रमजालमें पाडनेके लिये लिखे है । परंतु हम पूछते है कि, हे श्रीधनविजयजी ! तुम जो लिखता है कि, यह लेख पुस्तकान्तरका है, तो क्या पुस्तकान्तरका पाठ मानने योग्य नही है ? जे कर है तो, इसमें तैने अपनी चतुराई क्या छांटी ? जेकर तुम कहेगा कि, एकांत कहां लिखा है ? तथा तुम जो लिखता है कि, आत्मप्रबोधमें लिखा है कि, श्री वर्द्धमानसूरिकी शिष्य परंपरामें शोभनाचार्य हुए लिखा है । हम जानते है कि, झूठ लिखनेमें तेरी अंतरदृष्टितो नाश हो गइ है, परंतु बाह्यदृष्टिसें भी नही दीखता है। क्योंकि, आत्मप्रबोधमें जो पाठ है सो हम पूर्वे लिख आये है और तुम उस पाठसे और ही प्रकारका पाठ जाहिर करता है । इसी तरे हे भव्यो ! इस श्रीधनविजयजीने सर्व पोथी अपनी कल्पना लिखके भर दीनी है । इस वास्ते मैं इस मृषावादीके लेखका क्या क्या उत्तर लिखुं ? जेकर यह सत्यवादी होवे तो अपनी कल्पना समान जैनशास्त्रमें लेख दिखलावे ।
(२४) पृष्ट १४९ में श्रीधनविजयजी लिखता है कि " चोथी केटलीक थूइयोंमां तो पोतानुं परनुं शरीरनुं रक्षण तथा सुख वली शत्रुना समुदायनो नाश करवो इत्यादिक याचना अने नमस्कार तथा ते देवनो जय बोलवो ने पोतानुं ऐश्वर्यादिक वधारवा प्रमुख याचनाओ करी छे ते सामायिकादिकमां एवी याचना करतां व्यवहारे सावद्य लागे"
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यह भी लिखना श्रीधनविजयजीका महा मिथ्या है । क्यों कि, ऐसा लेख किसी भी जैनशास्त्रमें नही है । अपरं च येह लिखता है कि, पूर्वोक्त चौथी थुइ कहने व्यवहारमें सावद्य लगे, हम पूछते है कि, ऐसा लेख कौनसे जैनशास्त्रमें है ? तथा व्यवहारमें सावद्य लगे, इस लेखमें यह भी
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