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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ गुरु और तुं दोनो ही मिथ्यादृष्टि अनार्य सिद्ध होते हो । हमको यह मालूम नही था कि तुमारा मत मुसलमानोका है । जे कर मालूम होता तो चतुर्थस्तुति ग्रंथ तुमारे उपकारके वास्ते हम काहेकों रचते ? खैर हमारा करा हुआ परिश्रम तो सार्थक हो गया ! क्यों कि, उस ग्रंथके आश्रय हो कर बहोते भव्य प्राणी तुमारी छल कपट पाखंडरुपी फांसीसें बच गये है। और हमको भी अब निश्चय हुआ है कि, तुम असली जैन धर्मी नही हो । किंतु नवाबकी गांडगुलामी करके अपने आपकों नरकका अधिकारी बनाके तेरे गुरुने मोहर परवाने सहित आपदागिरि किरणीया प्रमुख लीया है, और वास्तवीकमें जैनाभास धारण करा है । वाह रे ! श्रीधनविजयजी अकलकेखाविंद ! तेरे गुरुकी करतूत वाह ! खूब गुरुकी स्तुति कीनी के जिस स्तुति द्वारा अपने ही गुरुकों मुसलमान सिद्ध करता है.
(१८) और पृष्ट १६ में श्रीधनविजयजी लिखता है कि "त्यारे महाराज साहेबे कडं के संवत् १९४३ नी सालमां श्रीथरादथी अमो राघनपुर गया, त्यारे श्री तपगच्छ खरतरगच्छना अपक्षपाती श्रावक घणा कालथी त्रण थुइ करता आवेला, तथा श्री आगमिक गच्छना श्रावक, धनजीसाजीनी तरफना, तथा श्री पायचंदगच्छना श्रावकोए त्रण तथा चार थुइ बाबतनी वार्ता चलावीने कडं के आपना शिष्य श्री श्रीधनविजयजी आवेला त्यारे इहांना वासी नामे गोडीदास पण धर्मठग धर्मोपजीवी गुणे करी रोडीदास नामनो श्रावक श्री धनविजयजी साथे चर्चा करतां भुंठो पड्यो"
___अब सुझ जनोकों विचार करना चाहिये कि, इन साध्वाभासोने कितनी बडी गप्प मारी ? क्यों कि, हमने श्री राघनपुरमें संवत् १९४४ का चतुर्मास करा था, परंतु हमने तपगच्छ तथा खरतरगच्छका कोइ भी श्रावक तीन थूइका करनेवाला नही देखा । इस वास्ते श्रीधनविजयजी तथा इसका गुरु यह सर्व मृषावादी एकत्र हुए है, और बिचारे भोले लोकोंकों ज्युं त्यु समझा समझाकर अपनी आजीविका करते है । तथा ऐसे काम करनेसें यह
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