________________
२६२
श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ सती छिनाल नही होती है, इस श्रीधनविजयजीके गुरुके गुरु कितनी ही पेढियों तक परिग्रह धारी षट्कायके हिंसक अनाचारी असंयमी थे। इसके गुरु श्रीरत्नविजयजीने अपने आपही संयमी गुरुके हाथकी दीक्षा विना मिथ्यात्व क्रिया उद्धार करी है। और इस श्रीधनविजयजीने तो मिथ्यात्व अनंतानुबंधी कषाय और मृषावाद छल कपट दंभका उद्धार करा है, परंतु क्रिया का उद्धार नही करा है, यह श्रीधनविजयकी रची हुइ पोथी आदिसे अंत तक मृषावादसे भरी है, जेकर में इसका सर्व झूठ लिखने लगुंतो इस पोथीसे भी बडी पोथी हो जावे, इस वास्ते सुज्ञजन इस श्रीधनविजयजीकी रची पोथीकों वांचके आपही मृषावादीका मृषा लेख जान लेवेंगे।
(९) ॥ पृष्ट १ ॥ में श्रीधनविजयजी लिखता है कि "आत्मारामजी आनंदविजयजीए सूत्रागम, अर्थागम, पूर्वधरादि आचार्योनी परंपरागत आवेली त्रण थूइ तथा पूजा प्रतिष्ठादि कारणे पूर्वाचार्योए आचरण करेली चोथी थूइ जिनचैत्यमा निषेध करी, एकांते प्रतिक्रमण सामायिकमां चोथी थूई स्थापन करी" प्रथम तो यही लेख श्रीधनविजयजीके मृषावादका सूचक है, क्यों कि पूर्वाचार्य रचित किसी ग्रंथमें भी ऐसा लेख नहि है कि, पूजा प्रतिष्ठादि कारणमें चौथी थूई आचरण करी है, परंतु जिनचैत्यमें चौथी थूई पढनी निषेध है, तथा देवसिक राइ प्रतिक्रमणकी आद्यंतमें चार थुइकी चैत्यवंदना करनी निषेध है, परंतु तपगच्छके भट्टारक श्री जयचंद्रसूरिजीने अविच्छिन्न परंपरागतसें चली आइ दोनो प्रतिक्रमणके आद्यंतमें चार थुइकी चैत्यवंदना करनी प्रतिक्रमण हेतु ग्रंथमें लिखि है, तिसका पाठ चतुर्थस्तुति निर्णयके ५७ पृष्ट पर देख लेना । तथा श्री वादीवेताल शांतिसूरिजी उत्तराध्ययन बृहवृत्तिके कर्त्ताने चैत्यवंदन भाष्यमें नव प्रकारे चैत्यवंदना पूर्वाचार्य आचरित कथन करी है, सो भी पूर्वोक्त ग्रंथसे देख लेनी । तथा संघाचारवृत्तिमें श्री धर्मघोषसूरिजीने भी ऐसे ही कथन करा है. किसी ग्रंथमें भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org