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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ यह कहनेसें उत्कृष्ट जघन्य सातमा भेद ॥७॥ आठ थुई, दो वार, चैत्यस्तवादि दंडक, यह कहनेसें उत्कृष्ट मध्यम आठमा भेद ॥८॥ स्तोत्र, प्रणिपात दंडक, प्रणिधान तीन, इनो करके सहित आठ थुई, दो वार चैत्यस्तवादि दंडक, यह कहनेसें उत्कृष्टोत्कृष्ट नवमा भेद ॥९॥ (१२) भाष्यं ॥एसा नवप्पयारा, आइन्ना वंदणा जिणमयंमि ॥
कालोचियकारीणं, अणग्गहाणं सुहा सव्वा ॥१६०॥
अस्यार्थ :- यह पूर्वोक्त नव प्रकारें, नवभेदें, चैत्यवंदना श्रीजिनमतमें आचीर्ण है । आग्रहरहित पुरुष उचित कालमें जिसकालमें जैसी चैत्यवंदना करे, तो सर्व नवभेद शुभ है, मोक्षफलके दाता है ॥६०॥
भाष्यं ॥उक्कोसा तिविहाविहु, कायव्वा सत्तिउ उभय कालं ॥ सड्डेहिउ सविसेसं, जम्हा तेर्सि इमं सुत्तं ॥१६१॥
अर्थ :- उत्कृष्ट तीन भेदकी चैत्यवंदना, शक्तिके हूए अभय कालमें करनी योग्य है । पुनः श्रावकोंनें तो सविसेस अर्थात्, विशेष सहित करनी चाहियें, क्योंके ? श्रावकोंके वास्ते जैसा सूत्र कहा है ॥६१॥
भाष्यं ॥वंदइ उभयउ कालं, पि चेइयाइं थयथुई परमो॥ जिण वर पडिमागरधू, व पुप्फगंधच्चणुज्जुतो ॥१६२॥
अर्थ :- श्रावकजन उभयकालमें स्तोत्र स्तुति करके उत्कृष्ट चैत्यवंदना करे, कैसा श्रावक जिनप्रतिमाकी अगर, धूप, पुष्प, गंध करके पूजा करनेमें अति उद्यम संयुक्त होवे ॥६२॥
भाष्यं ॥सेसा पुणछब्भेया कायव्वा देस काल मासज्ज ॥ समणेहिं सावएहि, चेइय परिवाडि माईसु ॥१६३॥
अर्थ :- शेष जघन्यके तीन अरु मध्यमके तीन मिलके छ भेद चैत्यवंदनाके जो रहे है, सो देश काल देखके साधु श्रावकनें चैत्य परिवाडी आदिमें करणे आदि शब्दसें मृतक साधुके परठव्या पीछे जो चैत्यवंदना
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