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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ अभाव होवेगा. क्योंके सूत्रमें चैत्यवंदनाका ऐसा क्रम कहा नही है. और ललितविस्तरा बिना चैत्यवंदनाके क्रमका अन्यग्रंथमें व्याख्यानके अभावसें कदाचित् किसी ग्रंथमें व्याख्यान कराभी होगा. सोभी ललितविस्तराके अनुसारी होनेसें पीछेही करा है, और नवीनव्याख्यान, जेकर कोई अच्छाभी करे तोभी सो व्याख्यान, संसारकी वृद्धि करनेवाला है, और जो ललितविस्तरामें व्याख्यान है, सो गुरुपरंपराके उपदेशसें आया है इस वास्ते स्वच्छंद कल्पनासें नहीं है. यहां मध्यस्थ होके विचार करणा योग्य है, सूक्ष्म बुद्धि करके सूत्रका रहस्य चिंतन करणा, और श्रुतवृद्धोंकी सेवा करणी योग्य है, कदाग्रहरहित प्रवर्त्तना चाहियें. और अपनी शक्त्यनुकूल यत्न करना चाहियें ॥
ऐसें दूसरा, दसवा अरु अग्यारहवा यह तीन वर्जके शेष प्रथमादिसें लेकर बारमे अधिकार पर्यंत नव अधिकार गुरु परंपराके उपदेशसें आये हुए ललितविस्तरामें व्याख्यान कर गए है.
तहां सिद्धा इति सिद्धं आदि शब्दसें पाक्षिक सूत्रकी चूादि ग्रहण करनी, तहां पाक्षिकसूत्रमें ऐसा सूत्र है "देवसक्खियत्ति" || अत्र चूर्णिः ॥ विरतिके अंगीकार करणके कालमें चैत्यवंदनादि उपचारकें अर्थात्
चैत्यवंदनामें सम्यकदृष्टि देवताका कायोत्सर्ग करणे और थुइके पठनरुप उपचारके करणेसें अवश्यमेव यथा संनिहित देवता निकट होता है, इस वास्ते देवसक्खियं ऐसा पाठ पढते हैं, यह इहां भावार्थ है.
गणधरोंने प्रथम दृढताके वास्ते पांचकी साक्षिसें धर्मानुष्ठान प्रतिपादन करा है. लोकमेंभी दृढ व्यवहार, पंचोंकी साक्षिसें करा देखनेमें तैसेही आता है. तहां पाक्षिकसूत्रमें देवताभी साक्षी कहे हैं, ते देवता जे चैत्यवंदनादिकके उपचारसें निकट हुए हैं. वे देवता साक्षिपणा अंगीकार करते है. क्योंके चैत्यवंदनामें तिन देवतायोंका कायोत्सर्ग करणा और
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