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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १
है, तिसकों छोड़कें स्वकपोलकल्पित समाचारीकों सुधर्मगच्छकी समाचारी कहनी यहभी उत्तम जनोके लक्षण नही है |
भला. और जिनकों अपने पट्टावलीमें नाम लिखकर अपना बडे गुरु करके मानना, फेर तिनोकीही समाचारीको जब जूठी माननी तबतो गुरुभी जूठे सिद्ध हूवे ? जब श्रीरत्नविजयजी श्रीधनविजयजीका गुरु जूठे थें ततो इन दोनोकी क्या गति होवेगी ?
(४९) तथा नवांगी वृत्तिकार जो श्री अभयदेवसूरिजी तिनके शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजीने रची हुइ समाचारीका पाठ लिखते है ॥ पुण पणवीसुस्सासं, उस्सग्गं करेइ पारए विहिणा ॥ तो सयल कुसल किरिया, फलाणसिद्धाणं पढइ थयं ॥ १४ ॥ अह सुयसमिद्वि हेडं, सुयदेवीए करेइ उस्सग्गं ॥ चिंतेड़ नमुक्कारं, सुणइ देइ तिए थुइ ॥ १५ ॥ एवं खित्तसुरीए, उस्सग्गं करेइ सुणइ देइ थुई || पढिऊण पंचमंगल, मुवविस पमज्झ संडासे ॥ १६ ॥ इत्यादि ॥
भाषा ॥ श्रीजिनवल्लभसूरि विरचित समाचारी में प्रथम पडिक्कमणेंमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी पीछे प्रतिक्रमणेकें अवसानमें श्रुतदेवता अरु क्षेत्र देवताका कायोत्सर्ग करणा, और इनोंकी थुइयां कहनी, यह कथन पंदरावी अरु सोलावी गाथामें करा है. जब श्रीअभयदेवसूरि नवांगी वृत्तिकारक के शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजीकी बनवाइ समाचारीमें पूर्वोक्त लेख है तब तो श्रीअभयदेवसूरिजीसें तथा आगु तिनकी गुरु परंपरासें चार थुइकी चैत्यवंदना और श्रुतदेवता अरु क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणा और तिनकी थुइ कहनी निश्चयही सिद्ध होती है, तो फेर इसमें कुछभी वाद विवादका जगडा रह्या नही, इस वास्ते श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजी तीन थुइका कदाग्रह छोड देंवे, तो हम इनेकों अल्पकर्मी मानेंगे ||
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