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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ इस उपरके पाठमें देवसि पडिक्कमणा करतां प्रथम बारा अधिकारसहित चैत्यवंदना करनी कही है. तिसमें चोथा कायोत्सर्ग वेयावच्चगराणंका करणा तिसकी थुइ कहनी कही है ।। तथा दूसरे पाठमें, श्रुतदेवता और क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणा कहा है. इसी तरें राइप्रतिक्रमणेके अंतमें चार थुइकी चैत्यवंदना करनी कही है।
यह श्रीयशोविजयजी उपाध्यायका पंडितत्त्व जो था सो आज तक सब जैनमति साधु श्रावकोंमें प्रसिद्ध है मात्र जिनके रचे हूवे ग्रंथोकों बाचनेसेंही तो शंका करनेवाले वादी प्रतिवादीयोंका मद दूर हो जाता है, यह पंडितने सेंकडो ग्रंथोकी रचना करी है तिसमें कोइभी ग्रंथके बिच कोइभी शंकित बात दिखनेमें नही आई है, सब शंकायोंका समाधान करके रचना करी है. यह बात कोइभी समजवान जैनीसें नामंजूर नही होती है.
(५९) ऐसे ऐसे महापंडितोने जब चार थुइकी चैत्यवंदना और श्रुतदेवता क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग प्रतिक्रमणेमें करना लिखा है, तो फेर श्रीरत्नविजयजीकों अरु श्रीधनविजयजीकों पूर्वाचार्योंके मतसें विरुद्ध तीन थुइके पंथ चलाने में कुछभी लज्जा नही आती होवेगी ? वे अपने मनमें ऐसे विचार नहीकरते होवेगे कि ? हमतो पूर्वाचार्योकी अपेक्षासें बहुत तुच्छ बुद्धिवाले हैं. तो फेर पूर्वाचार्योके परंपरासें चले आए मार्गकी उत्थापना करके कौनसी गतिमें जावेंगे. थोडीसी जिंदगीवास्ते वृथा अभिमान पूर्ण होके निःप्रयोजन तीन थुइका कदाग्रह पकडके श्रीसंघमें छेद भेद करके काहेकों महामोहनीय कर्मका उत्कृष्ट बंध बांधना चाहीयें ? हमारा अभिप्राय मुजब इनोकें हृदयमें यह विचार निश्चेसेंही नही आता होवेगा. जेकर आता होवे, तो फेर पूर्वाचार्योके रचे हूए सेकडों ग्रंथोरुप दीपोकी माला हाथमें लेकर काहेंकों तीन थुइरुप कदाग्रहके खाडेमें पडनेकी इच्छा रखते है ? यह देखनेसें औसा सिद्ध होता है के इनोकों यह बिचार नही आता है.
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