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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ इनकी स्तवना करी है.
__ अब भव्य जीवोंकू विचारणा चाहियें की जब श्रीजिनेश्वरसूरिके उपदेशसें तथा पूर्वाचार्योकी परंपरायसें, पूर्वाचार्यसम्मत चौथी थुइ है तो तिस्का निषेध करणा यह जिनाज्ञाधारक प्रामाणिक पुरुषका लक्षण नहीं है. क्योंकि जो पुरुष पूर्वाचार्योकी आचरणाका उच्छेद करे सो जमालिकी तरें नाशकों, प्राप्त होवे. जैसा कथन श्रीसूयगडांग सूत्रकी नियुक्तिमें श्रीभद्रबाहु स्वामीने करा है. सो पाठ यहां लिखते है । आयरिए परंपराए, आगयं, जो च्छेय बुद्धिए। कोइ वोच्छेय वाइ, जमालिनासं स नासेइ ॥१॥
अर्थ :- आचार्योकी परंपरायसें जो आचरणा चली आती होवे तिसको उच्छेद करने अर्थात् न माननेकी जो बुद्धि करे, सो जमालिकी तरें नाशकों प्राप्त होवे.
तथा श्रीठाणांगकी टीकामें श्रुतज्ञानवृद्धिके सात अंग कहे है. सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, परंपरा, अनुभव, इनकों जो कोइ छेदे सों दूरभव्य अर्थात् अनंतसंसारी है, जैसा कथन पूर्वपुरुषोंने करा है.
इस वास्ते श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजी जेकर जैनशैली पाकर आपना आत्मोद्धार करणेकी जिज्ञासा रखनेवाले होवेगे तो मेरेकों हितेच्छु जानकर और क्वचित् कटुक शब्दके लेख देखके उनके पर हित बुद्धि लाके किंवा जेकर बहुते मानके अधीन रहा होवे तो मेरेकों माफी बक्षीस करके मित्र भावसे इस पूर्वाक्त सर्व लेखकों बांचकर शिष्ट पुरुषोंकी चाल चलके धर्मरुपवृक्षकों उन्मूलन करनेवाला जैसा तीन थुइयोंका कदाग्रहको छोडके, किसी संयमि गुरुके पास चारित्र उपसंपत् लेके शुद्ध प्ररुपक होकर इस भरतखंडकी भूमिकों पावन करेंगे तो इन दोनोका कल्याण शीघ्रही हो जावेगा यहा हमारा आर्शीवाद है, बहु लिखनेन किम् ॥
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