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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २
चैत्यवंदन करते है, और तिस मतके त्यागी साधु भी कच्छेके रंगे कपडे रखते है । इस वास्ते श्रीधनविजयजीने खरतर गच्छके सर्व आचार्य साधुयोंकी, निंदक उत्सूत्र भाषी कुलिंगी आदि शब्दोसें बहुत निंदा करी है । परंतु यह नही मनमें समजता कि मेरे गुरु अनाचार सेवी गृहस्थ तुल्यने संवत् १९२५ मे स्वयमेव त्यागी व्रती गुरुके विना क्रिया उद्धार अनंत तीर्थकरों की आज्ञा भंग करके करा. तिसके पहिलां वीर प्रभुके शासनमें कोइ साधु नही था। क्योंकि, इन कुमतियोंका पंथ तो पहिले तपगच्छमें नही था । इस वास्ते इनोने क्रिया उद्धार नही करा, किंतु मिथ्यामतका उद्धार करा है I जब इनोने तपगच्छके देवेंद्रसूरि प्रमुख अनेक आचार्योको उत्सूत्र भाषी निन्हव लिखे है, तो बिचारे आत्मारामके वास्ते ये मिथ्यामति निंदा लिखे, तो इनकों लज्झा भय विवेक कहांसे आवे ? तथा श्रीरविसागरनेमसागरजीकों भी ये कुलिंगी, उत्सूत्र भाषी निन्हव लिखता है क्यों कि श्रीनेमसागरजी रविसागरादि भी सर्व साधु कच्छेके रंगे वस्त्र चार थूइ ईर्यापथ पूर्वक श्रावकोंकी सामायिक प्रमुख श्रीआत्मारामानंदविजयजीकी तरे ही करते और मानते है । तथा श्रीराजेंद्रसूरि धनविजयजी महाकृतघ्नी है, क्यों कि रविसागरजी बहुत भद्रीक सुसाधु है । तिनोने इनकी कपट क्रिया देखके पालणपुरमें अपने पास चतुर्मास कराया, और इसी सबबसे इनकों अहमदावाद साणंद वीरमगाममे रहनेको उनके श्रावकोंने जगा दीनी और इनोने उनहीके श्रावकोंकी श्रद्धा जिनमतसें भ्रष्ट करी तथा इनका झूठा लेख २७ मे पृष्ट पर लिखा है कि श्रीमयासागरजीए विना योग वह्या दीक्षा स्वयमेव लीनी । यह झूठ ॥१॥ पृष्ट ॥ २८ ॥ श्रीआत्मारामजीने नवीन दीक्षा नही लीनी यह झूठ ||२|| पृष्ट ||२९|| श्रीमणिविजयजीकों पारिग्रह धारी लिखे है सो झूठ ॥ ३ ॥ श्री बूटेरायजीने श्रीमणिविजयजी के पास दीक्षा नही धारण करी यह झूठ ||४|| पृष्ट ||३०|| मणिविजयजी श्वेतांबर लिंग छोडकें
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