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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ दिनप्रति जो क्षेत्रदेवतादिकका कायोत्सर्ग करते है तिसका कारण यह है की सांप्रतकालमें तिन देवताके सांनिध्याभावसें अर्थात् पूर्वकालमें यदा कदा एकवार कायोत्सर्ग करणेसें वे देव वे शासनकी प्रभावना निमित्त उपद्रवनाशनादि करते थे, और सांप्रतकालमें कालदोषसें यदा कदा कायोत्सर्ग करनेसें वे देव वे सांनिध्य नही करते है, इस वास्ते तिनकों नित्य प्रतिदिन कायोत्सर्ग द्वारा जागृत करे हूए सांनिध्य करते है. इस वास्ते नित्य कायोत्सर्ग करते है. तिस नित्य कायोत्सर्गके करणेसें विशिष्ट अतिशयवान् वैयावृत्त्यकरादि देव जो है सो जागृत होते है. निःकेवल वैयावृत्त्य करनेवाले प्रसिद्ध देवताका कायोत्सर्गही नही करते है. किंतु शांतिकराणं इत्यादिकोंकाभी ग्रहण करना. तथा प्रभूतकाल अर्थात् बहुत दिनोसें पूर्वधरोके समयसें इन पूर्वोक्त देवतायोंका नित्य प्रतिदिन पूर्वाचार्य कायोत्सर्ग करते आए है. इस वास्ते पूर्वोक्त देवतायोंका नित्य कायोत्सर्ग करते हैं. इति गाथार्थः ॥
जैसें स्थित सिद्ध हूए तो फेर क्या करना चाहियें सो कहते हैं. विग्घविघायण इत्यादि १००४ गाथाकी व्याख्या ॥ विघ्नविघातके वास्ते आत्माके उपसर्गनिवारक होनेसें, और श्रीजिनमंदिरकी रक्षा करनेसें देवभवनकी पालना करनेसें, नित्यप्रति इन देवतायोंकी पूजा करनी चाहियें. आदिशब्दसें दिन प्रतिदिन तिन देवतायोंका कायोत्सर्ग करना चाहियें. किनकों करना चाहियें ? धर्मिजनोकों करना चाहियें. यहां अभिप्राय यह हैकि जेकर मोक्षके अर्थे इन पूर्वोक्त देवतायोंकी पूजादि करे जबतो अयुक्त है. परंतु विघ्न निवारणादिकके निमित्त करे तो कुछभी अयुक्त नही है. उचित प्रवृत्तिरुप होनेसें पूजा, कायोत्सर्ग करना युक्तही है. किंच शब्द अभ्युच्चयार्थमें है ।। इति गाथार्थः ।।
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