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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १
है. सुयदेवयाए आसायणाए व्याख्या श्रुतदेवतायाः आशातनयाः । क्रिया तु पूर्ववत् । आशातना तु श्रुतदेवता न विद्यते अकिंचित्कारी वा । न ह्यनधिष्ठितोमौनींद्र खल्वागमः अतोऽसावस्ति नचाकिंचित्करी तामालंब्य प्रशस्तमनसः कर्मक्षयदर्शनात् ॥
अब इसकी भाषा लिखते है. श्रुतदेवताकी आशातना ऐसें होती है कि जो कहे श्रुतदेवता नही है अथवा जेकर है तो कुछभी नही कर शक्ति है ऐसें कहनेवाला आशातना करने वाला है क्योंकि श्रीभगवंतके कहे आगम अनधिष्ठित नहीं है. इस वास्ते श्रुतदेवताकी अस्ति है. श्रुतदेवता "अकिंचित्करी" ऐसा कहना मिथ्या है. क्योंकि जो कोइ श्रुतदेवताका आलंबन करके कायोत्सर्गादि करता है तिस्के कर्मक्षय होते है. इस वास्ते श्रुतदेवताकी आशातना त्यागके चतुवर्णसंघको कर्मक्षय करणे वास्ते अवश्यमेव प्रतिदिन श्रुतदेवताका कायोत्सर्ग करना और थुइभी अवश्य कहनी चाहियें.
( ७२ ) प्रश्न :- सम्यग्दृष्टि वैयावृत्त्यादि करनेवाले देवतायोंका कायोत्सर्ग करना और चोथी थुइमें तिनकी स्तुति करणी तिस्सें क्या फल होता है.
उत्तर :- पूर्वोक्त कृत्य करनेंसें जीव सुलभबोधि होनेके योग्य महा शुभकर्म उपार्जन करता है. और तिनकी निंदा करनेसें जीव दुर्लभबोधि होने योग्य महा पापकर्म उपार्जन करता है. औसा पाठ श्रीठाणांग सूत्र जिसकों श्रीरत्नविजयजी, श्रीधनविजयजी मान्य करते है तिसमें है सो इहां लिख देते है | पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोहियत्ताए कम्मं पकरेंति तं जहा अरहंताणमवन्नं वदमाणे अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे आयरियउवज्झायाणं अवन्नं वदमाणे चउवन्नसंघस्स अवन्नं वदमाणे वि विक्कतवबंभचेराणं देवाणं अवन्नं वदमाणे पंचहिं ठाणेहिं जीवा
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