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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१
अवप्पिणी कालमें पूर्वेभी जो आज यह जैनमतमें बहोत बहोत मत दिखनेमें आता है सो सब जैसेही कदाग्रही जिनोंसें निकला है जिस्से आज सेकडा मत प्रचलित हो रहा है क्योंकि किस विकारी पुरुषने जो अपने डाहापण चतुराइ बतानेके वास्ते सौ पच्चास आदमीकी सभामें बात निकालीकि यह अमुक बात इसी रीतीसें चलनी चाहियें जैसा शास्त्रों देखनेसें मालुम होता है इसी तरेंकी कोई बात उनके मुखमेंसें निकली गइ तो फेर उस बातकों सिद्ध करनेके वास्ते उक्त पुरुषके मनमें हजारों कुयुक्तियों उत्पन्न होती है पीछे उसकों कुछ सत्यासत्य भाषण करनेका भानही रहता नही है. उनकों यहही विकार अपने हृदयमें भरपूर हो रहेता है कि किसीतरेभी मेरा वचन सत्य करके सिद्ध करना चाहीयें परंतु कुयुक्ति करनेसें मेरा जनम बिगड जावेगा ऐसा विचार उनकों किंचित् मात्रभी आता नही है, वो अपना कथन सत्य करनेका हठ कभी छोडता नही. ऐसीही उनकी प्रकृति हो जाती है. ऐसा होनेसेंही दिगम्बर और ढूढीयें प्रमुख बहुत मनकल्पित मतों प्रचिलत हो गया है. कितनेक लोकभी ऐसेही होता है कि जिसके वचन पर उनको विसवास बैठ गया तो फेर वो चाहो जूठा हो चाहो सच्चा हो परंतु वो लोकतो उनकेही वचनके अनुजाइ चलते है तिस्सें फेर वो हठग्राही, पुरुषकोंभी मजबुत नाद लग जाता है कि अब मैरी बातही सिद्ध करके लोकोंमें चलानी चाहियें जेकर मेरेकों लोकभी कहेंगेंकी यह खरा तत्त्ववेत्ता, अरु शास्त्रशोधक है. देखो बडे बडे आचार्योकी भूलभी यह पुरुषनें दिखायदीनी ! यह कैसा विद्वान, शास्त्रज्ञ है ! ऐसें असें विकल्प उनके हृदयमें हर हमेस हो रहता है तिस्सें जिन वचन उत्थापन करनेका भय तो उसको रहता ही नही है. इसी वास्ते हम श्रावक भाइयोंको सत्य सत्य कहते हैं कि अपने जैनमतमें बहोत पंथ प्रचलित हो गया है तो अब कोइ
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