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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ स्वस्थपणा द्यो, क्योंकि समाधिही सर्व धर्मोंका मूल है, जैसे शाखायोंका ? फूल, फलका, बीज अंकूरका मूल, स्कंध है तैसें यहभी जान लेना चित्तके स्वास्थ्य विना सर्वानुष्ठान कष्टतुल्य है. वैधूर्यताका निरोध करणा, उसकों समाधि कहना सो वैधूर्याताका हेतु जो उपसर्ग है तिसके निवारण करणेसें होती है इस वास्ते तिसकी प्रार्थना है.
तथा बोधि जो है सो परलोकमें जिनधर्मकी प्राप्तिका नाम है. कहा भी है कि मैं परभवमें श्रावकके घरमें ज्ञान दर्शन संगुक्त जो दासभी हो जाऊं तो अच्छा है. परंतु मिथ्या मोहमतिवाला चक्रवर्तीराजाभी न होउं. इहां कोई प्रश्न करता है. ते देव जो है वो समाधि अरु बोधि देनेकों समर्थ है वा नही है ? जेकर कहोगे कि असमर्थ है तबतो तिनसें जो प्रार्थना करनी है सो व्यर्थ है, जेकर कहोगे कि समर्थ है तो दूरभव्य और अभव्योंकों क्यों नही देते है ? जेकर हे आश्चर्य तूं ऐसे मानेगाके योग्य पुरुषोंकों देते हैं. तबतो योग्यताही प्रमाणभूत हुइ. तब बकरीके गलेके थणासमान निरुपयोगी तिन देवतायोंकी कल्पना करणेसें क्या फल है ?
अत्रोत्तरं ॥ सर्वत्र योग्यताही प्रमाण है, परंतु तर्कसहने असमर्थ होणहार वादीके मत मानने वालोंकी तरें हम एकांतवादी नहीं है, किंतु सर्व न्यायात्मक स्याद्वादवादी है, सामग्रीही जनक है, इस वचनके प्रमाणसे जानना. सोई दिखाते है.
जैसे घट निष्पत्तिमें माटीको योग्यताभी है तोभी कुंभार, चक्र, चीवर, डोरा, दंभादिकभी सहकारी करण होवे तबही घट बनता है. तैसे यहांभी जे का जीवमें योग्यताके हूएभी तथा तथा विघ्न समूहोंके दूर करणेसे मेतार्यमुनिके पूर्व जीवके मित्रदेवताकी तरें देवताभी समाधि अरु बोधि देनेमें समर्थ है, इस वास्ते तिनोंकी प्रार्थना बलवती है.
फेर वादी तर्क करता है कि देवादिकोंके विषे प्रार्थना बहुमानादि
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