________________
१२८
चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ करनेसें तुमारी सम्यक्त्व मलीन क्यों नही होवेगी? अपि तु होवेगी ही.
उत्तर :- वो देवता हमकों मोक्ष देवेंगे इस वास्ते हम तिनकी प्रार्थना बहुमान नही करते है, किंतु धर्मध्यानके करणेमें जो कदापि विघ्न आ कर पडे तो तिनको विघ्न दूर करते हैं. इस वास्ते प्रार्थना करते है. पूर्व श्रुतधारीयोंने इसकों आचरणेसें, और आगममें कहनेसें, ऐसे करणेमें कोइभी दोष नही है.
आवश्यक चूर्णिमें श्रीवज्रस्वामिकें चरित्रमें ऐसें कहा है. वहां निकट अन्य पर्वतथा वाहां गए तहां देवताका कायोत्सर्ग करा, सो देवी जागृत भइ, अरु कहने लगीकी तुमने मेरे पर बडा अनुग्रह करा जैसें कहके आज्ञा दीनी.
तथा आवश्यक कायोत्सर्ग नियुक्तिमेंभी कहा है कि चातुर्मासी संवत्सरिके प्रतिक्रमणेमें क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणा. और पक्षिप्रतिक्रमणेमें भवनदेवताका कायोत्सर्ग करणा, केइक चातुर्मासीमें भी भवनदेवताका कायोत्सर्ग करते है.
बृहद्भाष्यमें भी कहा है की कायोत्सर्ग पारके, और पंचपरमेष्ठिकों नमस्कार करके, "वेयावच्चगराणं," वैयावृत्त्यादि करणेवाले यक्ष देवताकी थुई कहे.
तथा चौदहसें चुंवालीस १४४४ प्रकरणके कर्त्ता श्रीहरिभद्रसूरिजीनेंभी ललितविस्तरा ग्रंथमें कहा है कि चौथी थुइ वैयावृत्य करनेवाले देवतायोंकी कहनी इस वास्ते प्रार्थना करणेमें कोइभी अयुक्ति नही है. इति संतालीशमी ४७ गाथाका अर्थ है, यह श्रावककें आवश्यकके पाठकी टीका है - अब जो कोइ इसकों न माने तिसकों दीर्घ संसारिके शिवाय और क्या कहियें ?
(४३) तथा विधिप्रपाग्रंथका पाठ लिखते है. पुव्वोलिंगिया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org