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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ भाषा ॥ तथा प्रवचनदेवता सम्यग्दृष्टि देवता तिनके स्मरणार्थे वैयावृत्त्यकर इत्यादि विशेषणो द्वारा तिनकी उपबृंहणा करणेके अर्थं क्षुद्रोपद्रवकें दूर करणे वास्ते तिसके ते ते गुणोंकी प्रशंसा करके तिसके उत्साह उत्पन्न करणे वास्ते अथवा तिनके करणे योग्य वैयावृत्त्यादि कृत्योंके प्रमादादिसें तिनके करणेमें सिथिल हूआंकों प्रवृत्त्य करणेवास्ते, और उद्यमवंतोकी स्थिरताके वास्ते, तिनके जनावने वास्ते, अथवा प्रवचनकी प्रभावनादि हितकार्यमें प्रेरणार्थे कायोत्सर्ग चरम होता है. यह पूर्वोक्त निमित्त प्रयोजन फल है, यह चैत्यवंदनका तात्पर्यार्थ है.
यहां यद्यपि वैयावृत्त्यकरादि देवता तिनके स्मरणाद्यर्थे क्रियमाण कायोत्सर्ग वे नही जानते है, तोभी तिन विषयिक कायोत्सर्ग करणसें वसुदेव हिंडयुक्त कायोत्सर्ग करने वाले श्रीगुप्त श्रेष्ठीकी तरें विघ्नोपशमादिकोमें शुभसिद्धि होती ही है. आप्तका जो कहना है सो व्यभिचारी नही है. इस वास्ते जैसे थंभनी विद्याकों आप्तोपदेशसें थंभनादि कर्ममें प्रयुंज्या इष्टफलकी सिद्धि तिन विद्याकी अधिष्ठाताके विना जानेभी होती है.
चूर्णिमें कहा है. तिन वैयावृत्त्यकरादिकोंके विना जाण्याभी कायोत्सर्गका फल विघ्नजय पुण्यबंधादिक होते है. संतताएणत्ति ॥ जनाता खबर देता है. यही कायोत्सर्गप्रवर्तक वेयावच्चगराणं. इत्यादि सूत्र अन्यथा मनोवांछित सिद्धयादिमें प्रवर्तक न होवेगा ललितविस्तरामें कहा है के, यद्यपि जिनका कायोत्सर्ग करीयें है, वे कायोत्सर्ग करतेकों नही जानते है, तोभी तिसके करणेसें शुभसिद्धि होती है. इस कथनमें वैयावृत्त्यकराणं यही सूत्र ज्ञापक प्रमाण भूत है.
(४०) अब बुद्धिमानोकों विचारणा चाहिये के संघाचारवृत्तिके इन पूर्वोक्त दोनो लेखोसें सम्यग्दृष्टि देवताका कायोत्सर्ग करणा, और इनकी
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