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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ निरर्थक होवेगी ॥२७॥ संविग्न गीतार्थ विधिके रसिये अतिशय करके गीतार्थसूरि पुरुष जे पूर्वे होगए है, ते सूत्र विरुद्ध नवभेद चैत्यवंदनाकी समाचारी कैसे प्ररुपणा करते ॥२८|| इस वास्ते हे सौम्य इस तेरी कही गाथासें चौथी थुइका निषेध और तीन थुइकी चैत्यवंदना सिद्ध नही होती है. तो फेर तुं क्युं हठ रुपीये जालमें फसता है।
(१८) तथा पक्षांतरें इस तिन्निवा इत्यादि गाथाका अर्थ श्रीसंघाचार भाष्यवृत्तिमें श्रीधर्मघोषाचार्य जैसा करा है । तथा च संघाचार वृत्तिः ॥ दुब्भिगंधमलस्सावि, तणु रप्पे सएहाणिया ॥ उभउवा उवहोचेव, तेण छंतिनचेइए ॥१॥ तिन्निवा कट्टई जाव, थुइउ तिसि लोइआ ॥ ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेणवि ॥२॥ एतयोर्भावार्थः साधवश्चैत्यगृहे न तिष्ठति अथवा चैत्यवंदनांते शक्रस्तवाद्यनंतरं तिस्त्रः स्तुतीः श्लोकत्रयप्रमाणाः प्रणिधानार्थं यावत्कुर्वते. प्रति क्रमणानंतरं मंगलार्थं स्तुतित्रयपाठवत् तावच्चैत्यगृहे साधूनामनुज्ञातं निष्कारणं न परतः ॥
भाषा :- इन दोनो गाथांका भावार्थ यह है ॥ साधुका शरीर दुर्गंधरुप दुर्गंधवाला होनेसें चैत्यगृहमें मर्यादा उपरांत न रहे । सो मर्यादा यह है के, चैत्यवंदनाके अंतमें शक्रस्तवादिके अनंतर जो तीन थुई तीन श्लोक परिमाण प्रणिधानके वास्ते प्रतिक्रमणाके अनंतर मंगलार्थ स्तुति तीनके पाठवत् कही है, तहां ताई चैत्यजिनमंदिरमे रहनेकी आज्ञा है कारणविना उपरांत न रहे । तात्पर्य यह है के, संपूर्ण चैत्यवंदनाके करें पीछे विना कारण साधु जिनमंदिरमें न रहै इस व्याख्यान रुप वन्हिने हे सौम्य तेरे चोथी थुईके निषेध करणे रुप इंधनकों भस्मसात् करमाला है, इस वास्ते तेरा तीन थुईका मत पूर्वाचार्योंके मतसें विरुद्ध है, तो अब तुंभी इसमतकों जलांजली दे। इति व्यवहार भाष्य गाथा निर्णयः ॥
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