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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - १ सिद्धराज जयसिंहकी सभामें कुमुदचंद्र दिगंबरकूं जित्या जिनके आगे साढे तीनकोडी ग्रंथका कर्त्ता श्रीहेमचंद्रसूरिजी बालक पुत्रकी तरें बैठे थे. और जिन श्रीदेवसूरिजीने चौरासी हजार श्लोकप्रमाण स्याद्वादरत्नाकर ग्रंथ रचा था तिनके शिष्य श्रीरत्नप्रभसूरिजीने रत्नाकरावतारिका लघुवृत्ति रची, जिनके वचनोकें जैनमतमें कोइभी विद्वान् अप्रमाणिक नही कही शक्ता है, और यह श्रीदेवसूरिजीके गुरु श्रीमुनिचंद्रसूरि थे तिन जावज्जीव आचाम्ल तप करा है, जिनकी रची योगबिंदु, धर्मबिंदु उपदेशपद प्रमुख अनेक ग्रंथोकी टीका है, तिनोने ललितविस्तराकी पंजिकामें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है, जैसे महान्पुरुषोके कथन करेकी जेकर श्रीरत्नविजयजी और श्रीधनविजयजीकूं प्रतीति नही तो इन स्तोक मात्र यद्वा तद्वा पठन करे हूए श्रीरत्नविजयजी श्रीधनविजयजीके कहनेकूं कौन बुद्धिमान सत्य मानेगा. क्यों के श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजीकूं समजावने वास्ते जेकर महाविदेह क्षेत्रसें केवलीभगवान् आवे औसा तो संभव नही है परंतु पूर्वाचार्योंके वचन उपर प्रतीति रखनी चाहियें सो तो इन दोनोकों नही है तब इनका मत सम्यद्दष्टी पुरुषतो कोइभी नही मानेगा.
(३०) तथा श्रीअणहिल्लपुर पाटण नगरें फोफलवाडा भांडागारे प्राचीनाचार्य्यकृत सामाचार्योका पुस्तक है, तिनका पाठ यहां लिखते है |
जिणमुणिवंदण अइआ, रुस्सग्गो पुत्तिवंदणालोए ॥ सुत्तेवंदण खामण वंदण चरणाइ उस्सग्गो ॥४॥ उज्जोअदुइक्किक्का, अखिउस्सग्ग पुत्ति वंदणाए || थुइ तिअ नमुत्थत्तं, पत्थि तुस्सग्गु सज्जाउ ॥५॥ पुनरपि अणहिल्लपुरपट्टननगरे कोकलवाडा भांडागारे कालिकाचार्य संतानीय भावदेवसूरि विरचित यतिदिनचर्यायां अथ दैवसिक प्रतिक्रमणस्य स्वरुपं निरूप यति । चेइय वंदणभयवं, सूरि उवष्भाय मुणि खमासमणा ॥ सव्वसवि सामाइय, देवसिय अईयार
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