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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१
है, सो तुं सुणके विचार ॥
भाष्यं ॥ सुत्ते एग विहच्चिय, भणियातो भेय साहण मज्जुत्तं ॥ इयथूलमईकोई, जं पइ सुत्तं इमं सरिउ ॥२२॥ तिन्निवा कट्टई जाव, थुइउ तिसि लोइया । ताव तत्थ अणुन्नायं कारणेण परेणवि ॥२३॥ भणइ गुरुतं सुत्तं, चियइ वंदणविहि परुवगं न भवे ॥ निकारणजिण मंदिर, परिभोग निवारगत्तेण ॥२४॥ जं वा सद्दो पयडो, परकंतर सूयगो तर्हि अच्छि ॥ संपुनं वा वंदइ, कट्ठइ वा तिन्निउथुई ॥२५॥ एसोवि हु भावच्छो, संभवद्यइ इमस्स सुत्तस्स ॥ ता अनच्छं सुत्तं, अन्नच्छन जोइउं जुत्तं ॥२६॥ जइ एत्तिमेत्तंविय, जिणवंदण मणुमयं सुएइंतं ॥ थुइथोत्ताइ पवित्ती, निरच्छिया होद्य सव्वावि ॥२७॥ संविग्गा विहि रसिया, गीयच्छ तमाय सूरिणो पुरिसा ॥ कहते सुत्त विरुद्धं समायारी परुवेंति ॥२८॥ इनका अर्थ कहते है, सूत्रमें एक प्रकारेही चैत्यवंदना कही है, इस वास्ते नव भेद कहने अयुक्त है. औसा अर्थ कोइ स्थूलबुद्धि वाला इस सूत्रका स्मरण करके कहता है ॥२२॥ तीन थुइ तीन श्लोक परिमाण जहांतक कहियें तहांतक जिन चैत्यमें साधुकों रहनेकी आज्ञा है, कारण होवे तो उपरांतभी रहे ॥२३॥
___ अब गुरु उत्तर देते हैं | तिन्निवा इत्यादि जो सूत्र है सो चैत्यवंदनाके विधिका प्ररुपक नही है, किंतु विना कारण जिनमंदिरके परिभोग करनेका निषेध करनेवाला है इस हेतु करके चैत्यवंदनाके विधिका प्ररुपक नही है ॥२४॥ तथा जो इस गाथामें वा शब्द है सो प्रगट पक्षांतरका सूचक तिहां है, इस वास्ते संपूर्ण चैत्यवंदना करे, अथवा तीन थुइ कहे ।।२५।। यहभी भावार्थ इस सूत्रका संभवे है, तिस वास्ते अन्यार्थका प्ररुपक सूत्र अन्यत्रार्थमे जोडना युक्त नही है ॥२६॥ जेकर तीन थुइ मात्रही चैत्यवंदना करनेकी सूत्रमें आज्ञा होवे, तब तो थुइ स्तोत्रादिककी प्रवृत्ति सर्व
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