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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ जैनतत्त्वादर्शमें तीनही थुइ कही है, जैसा कथन करके भोले लोकोंसें प्रतिक्रमणके आद्यंतकी चैत्यवंदनामें चोथी थुइ छोडावते फिरते है । तो हमारा अभिप्रायके जाने विना हि लोकोंके आगें जूठा हमारा अभिप्राय जाहेर करना यह काम क्या सत्पुरुषोंको करणा योग्य है ? जेकर आप दोनोंको परभव बिगडनेका भय होवेगा, तब इस कल्पभाष्यकी गाथाकों आलंबके प्रतिक्रमणकी आद्यंत चैत्यवंदनामें चोथी थुइका कदापि निषेध न करेंगे, अन्यथा इनकी इच्छा, हमतो जैसा शास्त्रोमें लिखा है, तैसा पूर्वाचार्योंके वचन सत्यार्थ जानके यथार्थ सुना देते है, जो भवभीरु होवेगा, तो अवश्य मान्य लेवेगा । इति कल्पभाष्य गाथा निर्णयः ॥
(१५) जेकर कोइ कहेगें श्रीहरिभद्रसूरिजीने पंचाशकजीमें तीनही प्रकारकी चैत्यवंदना कही है, परंतु नवप्रकारकी नही कही है, इस वास्ते हम नव भेद नही मानेंगे । तिनकी अज्ञता दूर करणेकू कहते है।
भाष्यं ॥ एएसिं भेयाणं, उवलक्खणमेव वनिया तिविहा ॥ हरिभद्यसूरिणा विहु, वंदण पंचासए एवं ॥६५॥ णवकारेण जहन्ना, दंडय थुइ जुअल मज्जिमा नेया ॥ संपुन्ना उक्कोसा, विहिणा खलु वंदणा तिविहा ॥६६॥ णवकारेण जहन्ना, जहन्नयजहन्निया इमाखाय ॥ दंडय एगथुइए, विनेया मज्झमज्झमिया ॥६७॥ संपुन्ना उक्कोसा, उक्कोसुक्कोसिया इमा सिट्ठा ॥ उवलक्खणंखु एयं, दोण्ह दोण्ह सजाईए ॥६८॥ इनका अर्थ कहते हैं।
अर्थः- इन पूर्वोक्त नव भेदोंके उपलक्षण रुप तीन भेद चैत्यवंदनाके, वंदना पंचाशकमें श्रीहरिभद्रसूरिजीने भी कथन करे है ॥६५॥ तिसमें एकतो नमस्कार मात्र करणे करके जघन्य चैत्यवंदना ॥१॥ दूसरी एक दंडक अरु एक स्तुति इन दोनोके युगलसें मध्यम चैत्यवंदना जाननी ॥२।। तीसरी संपूर्ण उत्कृष्टी चैत्यवंदना जाननी ॥३|| विधि करकें वंदना तीन
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