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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१
वंदनाके अधिकारमें आचरणाकी सहायता लेते हो ॥१६।।
गुरु कहते है कि शिष्य सूत्रमें चैत्यवंदनाका विधिके भेद सामान्यमात्र संक्षेपमात्र करके कहे हैं । तिस चैत्यवंदनाके करनेका जो क्रम है सो विशेष करके आचरणासें जाना जाता है ।।१७।। क्योंके सूत्र जो है सो सूचना मात्र है। च पुनः आचरणा सें तिस सूत्रका अर्थ जाना जाता है, जैसें शिल्पशास्त्रभी शिष्य अरु आचार्य के क्रम करके जाना जाता है; परंतु स्वयमेव नही जाना जाता है ॥१८॥
तथा अन्य एक बात है ॥ अंगोपंग प्रकीर्णक भेद करके श्रुतसागर जो है सो निश्चय करके अपार है कौन तीस श्रुतसागरके मध्यकू अर्थात् श्रुतसागरके तात्पर्यकू जान सकता है । अपणे ताइं चाहो कितनाही पंडितपणा क्यो न मानता होवे ? ॥१९॥ किंतु जो अनुष्टान शुभ ध्यानका जनक होवे और कर्मोके क्षय करनेवाला होवे, सो अनुष्ठान अवश्यमेव शास्त्रअंग शास्त्ररुप समुद्रके विस्तारमें कह्या हूआही जानना । जिस वास्ते शास्त्रमै ऐसे कहा है ॥२०॥ सर्व शुभानुष्ठानके कहनेवाले द्वागशांग है क्योंके द्वादशांग जे है वे रत्नाकर समुद्र अथवा रत्नकी खानितुल्य है, तिस वास्ते जो शुभानुष्ठान है सो सर्व वीतरागकी आज्ञा होनेसें सुंदर है तिस श्रुतरत्नाकरमें ॥२१॥ मूल सूत्रोंके व्यवच्छेद हुए, और बिंदु मात्र संप्रतिकालमें धारण करते हुए अर्थात् बिंदु मात्र मूल सूत्रके रहे, तिस सूत्रसें सर्वानुष्ठानकी विधि क्योंकर जानी जावे, इस वास्ते आचरणासेंही सर्व कर्त्तव्यमें परमार्थ जाना जाता है ॥२२॥
कहाभि है के बहु श्रुतोंके क्रम करके जो प्राप्त हुइ है आचरणा सो आचरणा सूत्रके विरहमें सर्वानुष्ठानकी विधिकों धारण करती है, जैसें दीपकके प्रकाशसें भली दृष्टीवाले पुरुषोंने कोइक घटादिक वस्तु देखी है सो वस्तु दीपकके बूजगये पीछेभी स्वरुपसें भूलती नहीं हैं, जैसे ही आगम रुप
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