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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ तथा श्रीउपदेशपदकी टीकामें श्रीमुनिचंद्रसूरिजी जैसा लिखते है । तत्र मार्गो ललितविस्तराया- मनेनैव शास्त्रकृतेत्थंलक्षणो न्यरुपि मग्गदयाणमित्यादि ॥ अस्यभाष्य ॥ तिहां मार्ग है सो ललितविस्तरामें इसही उपदेशपद शास्त्रके कर्ता श्रीहरिभद्रसूरिजीने इस प्रकारके लक्षणवाला कहा है, इस कथनसे जौनसैं श्रीहरिभद्रसूरिजीने उपदेशपद ग्रंथ करा है, तिसही श्रीहरिभद्रसूरिजीने ललितविस्तरावृत्ति करी है, यह सिद्ध होता है।
(१०) प्रश्नः- उपमितभवप्रपंचकी आदिमें जो सिद्धऋषिजीने लिखा है, के यह ललितविस्तरावृत्ति मेरे श्रीगुरु हरिभद्रसूरिने मेरे प्रतिबोध करने वास्ते रची है इस लेखसे तो ललितविस्तरावृत्तिका कर्ता प्राचीन श्रीहरिभद्रसूरि सिद्ध नहीं होते है ? उत्तर:- हे भव्य उपमितभवप्रपंचकी आदिमें सिद्धऋषिजीने 'अनागतं च परिज्ञाय' इत्यादि श्लोकमें जैसे लिखा है के श्रीहरिभद्रसूरिजीने मुजकों अनागत कालमें होनेवाला जानके मार्नु मेरेही प्रतिबोध करने वास्ते यह ललितविस्तरावृत्ति रची है। और जो सिद्धऋषिजीने श्रीहरिभद्रसूरिकू गुरु माना है, सो आरोप करके माना है। जैसा कथन ललितविस्तरावृत्तिकी पंजिकामें करा है, इस वास्ते ललितविस्तरावृत्तिके रचनेवाले १४४४ ग्रंथ कर्ता श्रीहरिभद्रसूरिजी हुए है; इति आचरणास्वरुप ॥
पूर्वपक्ष ॥ श्रीबृहत्कल्पका भाष्यकी गाथामें तीन थुइकी चैत्यवंदना करनी कही है, जैसेही पंचाशकवृत्ति तथा श्राद्धविधि तथा प्रतिमाशतक, संघाचारवृत्ति धर्मसंग्रह और तुमारा रचा हुआ जैनतत्त्वादर्शादि अनेक ग्रंथोमें यही कल्पभाष्यकी गाथा लिखके तीन थुइकी चैत्यवंदना कही है, तो फेर तुम क्यों नही मानते हो? उत्तरः- हे सौम्य हमतो जो शास्त्रमें लिखा है तथा जो पर्वाचार्योकी आचरणा है इन दोनोंकों सत्य मानते हैं; परंतु तेरेकों बृहत्कल्पका भाष्यकी
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