Book Title: Samyaktva Shalyoddhara
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार कर्ता तपगच्छाचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि (श्री आत्मारामजी) महाराज ॥ -~NORCASगुजरातीसे हिंदुस्तानी प्रसिद्ध कर्ता NIWHAANANASIANAMAMAllahabaleshArnalaisakableARMANAMANAVARATRA श्रीआत्मानन्द जैन सभा पंजाब। serons श्रीवीर संवत् २४२९ ॥ आत्मसंवत् ७ विक्रमसंवत१९६० ॥ सन्१९०३ ___लाहौर पम्जाब एकानोमीकल यन्त्रालयमें प्रिण्टर लाता लालमणि नैनीके प्रबन्धसे छपवाया। WWE Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उपोदघात के नित्यानंदपदप्रयाणसरणी श्रेयोविनिः सारिणी। संसाराणवतारणेकनरणी विश्वद्धिविस्तारिणी ॥ पुण्यांकरभरपरोहधरणी व्यामोहसंहारिणी। प्रीत्यैस्ताज्जिनतेऽखिलार्तिहरणी मतिर्मनोहारिणा ॥१॥ अनंत ज्ञानदर्शनमय श्रीसिद्ध परमात्मा को तथा चार रक्षेपायुक्त श्रीअरिहंत भगवंतको और शाश्वती अशाश्वती असंख्य ग्नप्रतिमाको त्रिकरण शुद्धिसे नमस्कार करके इस ग्रंथके प्रारंभ मालूम किया जाता है कि प्रथम प्रश्नोत्तरमें लिखे मूजिव ढूंढक अढाईसौ वर्ष से निकला है जिसमें अयापि पर्यंत कोई भी पक्ज्ञानवान् साधु अथवा श्रावक होया होवे ऐसे मालूम नहीं ता है, कहांसे होवे ? जैनशास्त्रसे विरुद्ध मतमें सम्यकज्ञान का संभवही नहींहै,उत्पत्ति समयमें इस मतकी कदापि कितनेक तक अच्छी स्थिति चली हो तो आश्चर्य नहीं परंतु जैसे इंद्र लकी वस्तुघनेकाल तक नहीं रहती है तैसे इस कल्पित मतका : वर्षसे दिन प्रतिदिन क्षय होता देखने में आता है, क्योंकि जानपनसे इस मतमें साधु अथवा श्रावक बने हुए घने प्राणी न शास्त्रके सच्चे रहस्य के ज्ञासा होते हैं तो जैसे सर्प कुंजको चला जाताहै ऐसेइस मतको त्याग देते हैं और जैनमत जो छमें शुद्धरीति देशकालानसार प्रवर्तताहै उसको अंगीकार Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतेहैं, इसी प्रकार इस ग्रंथके कर्ता महामुनिराज १००८ श्री मद्विजयानंदसूरि(आत्मारामजी)महाराजभीजैनसिद्धांतको वांचकर ढूंढकमतको असत्य जानकर कितनेही साधुओंके साथ ढूंढकपंथको त्यागकर पूर्वोक्त शुद्ध जैनमतके अनुयायी बने, जिनके सदुपदेश से पंजाब मारवाड़ गुजरात आदि देशों में घने ढुंढियोंने ढूंढक मत को छोड़कर तपागच्छ शुद्ध जैनमत अंगीकार किया है । तपागच्छ यह बनावटी नाम नहीं है परंतु गुणनिष्पन्न है क्योंकि श्रीसुधर्मास्वामीसे परंपरागत जैनमतके जोधनाम पडे. हैं उनमेंसे यह ६ छठा नामहै जिन ६ नामोंकी सविस्तर हकीकत तपागच्छकी पदावलिमें है * जिससे मालूम होता है कि तपागच्छ नाम मूलशुद्ध परंपरागत है और दूंडकमत विनागुरुके निकला हुआ परंपरा से विरुद्ध है ॥ इस ढूंढक मतमें जेठमल नामा एक रिख साधु हुआ है उसने महा कुमतिके प्रभावसे तथागाढ मिथ्यात्वके उदयसं स्वपर को अर्थात् रचनेवाले और उसपर श्रद्धा करनेवाले दोनोंको भव समुद्र में डबोनेवाला समकितसार (शल्य) नामा ग्रंथ १८६५ में बनाया था परंतु वोहग्रंथ और ग्रंथका कर्ता दोनोंही अप्रमाणक होनेसे कितनेक वर्षतक वोह ग्रंथ जैसाका तैसाही पड़ा रहा, संवत् १९३८ में गोंडल (काठियावाड़) निवासी कोठारी नामचंद हरीचंदने अपनी दर्गतिकी प्राप्तिमें अन्यको साथी बनानेके वास्ते राजकोट (काठियावाड़) में छपाकर प्रसिद्ध किया। . पूर्वोक्तं ग्रंथको देखकर शुद्ध जैनमताभिलाषी भव्यजावोंके उद्धारके निमित्त पूर्वोक्त ग्रंथके खंडन रूप सम्यक्त्वशल्योद्धार '* देखो जैन तस्यादर्शका बारवां परिच्छेद । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामा यह ग्रन्थ श्रीतपगच्छाचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदसरि प्रसिद्ध नाम आत्माराम जी महाराजने संवत् १९४० में बनाया जिसको संवत् १९४१ में भावनगर (काठियावाड़) की श्रीजैनधर्म प्रसारक सभाने अहमदाबादमें गुजराती बोलीमें और गुजराती ही अक्षरोंमें छपवाकर प्रसिद्ध किया, परंतु पंजाब मारवाड़ादि अन्य देशोंमें उसका प्रचार न होनेसे बंडौदास्टेटनिवासी परमधर्मी शेठ गोकल भाईने प्रयास लेकर शास्त्री अक्षरों में संवत् १९४३में छपाकर जैसाका वैसाही प्रसिद्ध किया, तथापि बोलीका फरक होनेसे अन्य देशोंके प्रेमी भाइयोंको यथायोग्य लाम नहीं मिला इसवास्ते शेठ गोकलभाईकी खास प्रेरणासे श्रीआत्मानंद जैनसभा पंजाबकी आज्ञानुसार अपने प्रेमो शुद्धजैनमताभिलाषी भाइयोंके लिये यथाशक्ति यथामति इस ग्रंथको सरल भाषामें छपवानेका साहस उठाया है, और इससे निश्चय होता है कि आप लोग इस ग्रंथको संपूर्ण पढ़कर मेरे उत्साहकी वृद्धि जरूर ही करेंगे। . यद्यपि पूर्वे बहुत बुद्धिमान आचार्योंने इस ढूंढकमतका सविस्तर खंडन पृथक् २ ग्रंथोंमें लिखा है। श्रीसम्यक्त्वपरीक्षा नामक ग्रथ अनुमान दशहजार श्लोक प्रमाण है उसमें ढूंढकमती की बनाई ५८ बोलकी हुंडीका सविस्तर उत्तर दिया है। श्रीप्रचनपरीक्षा नामा ग्रंथ अनुमान वीस हजार श्लोक है उसमें ढूंढकमत की उत्पत्ति सहित उनके किये प्रश्नोंके उत्तर दिये हैं। श्रीमद यशो विजयोपाध्यायजीने लींबड़ी (काठीयावाड़) निवासी मेघजी दोसी जो दंढिये थे उनके प्रतिबोध निमित्त श्रीवीरस्तुतिरूप हुंडीस्तवन बनाया है। जिसका बालावबोध सूत्रपाठ सहित सविस्तर पंडित शिरोमणि श्रीपप्रविजयजी महाराजने बनाया है। जिसकी इलोक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) संख्या अनुमान तीन हजार है उसमें भी संपूर्ण प्रकार ढूंढकमत काही खंडन है । ढूंढकमतखंडननाटक 'इस नामका ग्रंथ गुजराती में छपा प्रसिद्ध है जिसमेंभी ३२ सूत्रों के पाठोंसे ढूंढकपक्षका हास्य रस युक्त खंडन किया है ॥ इत्यादि अनेक ग्रंथ ढूंढ कमतके खंडन विषयिक विद्यमान् हैं तो उसी मतलब के अन्य ग्रंथ बनानेका वृथा प्रयास करना योग्य नहीं है ऐसा विचारके केवल समकितसारके कर्त्ता जेठमलकी स्वमति कल्पनाका कुयुक्तियों के उत्तर लिखने वास्तेही ग्रंथकारने इस ग्रंथ के बनाने का प्रयास किया है ॥ ढूंढियों के साथ कई बार चर्चा हुई और ढूंढियों को ही पराजय होती रही पंडितवर्य श्रीवीरविजयजी के समय में श्रीराजनगर ( अहमदाबाद) में सरकारी अदालतमें विवाद हुआ था जिसमें ढूंढिये हार गये थे इस विवादका सविस्तर वृत्तांत "ढूंढियानोरासड़ो” इस नामसे किताब छपी है उसमें है । पूर्वोक्तचचके समय समकित - सारका कर्त्ता जेठमल भी हाजर था परंतु पराजय कोटि में आकर वह भी पलायन कर गया था, इसतरह वारंवार निग्रह कोटि में आकर अपने हृदय में अपनी असत्यताको जानकर भी निज दुर्मतिकल्पना से कुयुक्तियों का संग्रह करके समकितसार जैसा ग्रंथ बनाना यह केवल अपनी मूर्खताही प्रकट करनी है ॥ आधुनिक समय में भी कितनेही ठिकाने जैनी और ढूंढियोंकी चर्चा होती है वहां भी ढूंढिये निग्रहकोटिमें आकर पराजयको ही प्राप्त होते हैं * तथापि अपने हठको नहीं छोड़ते हैं, यही इनकी * अमृतसर, होश्यारपुर, फनवाडा, बगीयां, जेकों प्रमुख स्थानों में जोजो कार्य - बाई हुई यो प्रायः पंजाब के सर्व जैनी और ढूंढिये जानते है कई क्षत्री ब्राह्मण वगैर भी जानते हैं कि सभा मंजूर करके संभाके समय ढूंढिये हार नहीं हुए. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है कि प्रत्येक जैनी जिनप्रतिमाको मानते और वंदना नमस्कार पूजा.सेवा भक्ति करते थे। तो फेर तुम लोक किसवास्ते हठ पकड़के जिनप्रतिमाका निषेध करते हो? इसवास्ते हठको छोड़कर श्रावकोंकोश्रीजिनप्रतिमा पूजने का निषेध मतकरो जिससे तुमारा और तुमारे श्रावकोंका कल्याण होवे ॥ · यद्यपि सत्यके वास्त मेरेजीमें आवे वैसा लिखनेमें कोई हरकत नहीं है तथापि इस पुस्तकमें जो कोई कठिन शब्द लिखा गया होवे तो उसमें समकितसार ही कारणभूत है क्योंकि 'याशे तादृशमा चरेत्' इस न्यायसे समकितसारमें लिखी बातोंका यथायोग्य ही उत्तर दिया गया होगा, न किसीके साथ द्वेष हैऔरन कठिन शब्दों से कोई अधिक लाभ है यही विचारके समकितसारकी अपेक्षा इस ग्रन्थमें कोई कठिन शब्द रहनेनहीं दिया है,यदि कोई होवेगा भी,तो वोहफक्त समकितसारके मानने वालोंको हित शिक्षारूप हीहोगा। इस पथके छपानेका उद्देश्य मात्र यहीहै कि जो अज्ञानताकेप्रसंग से उन्मार्गगामी हुए हों वोह भव्यजीव इसको पढ़कर हेयोपादेयको समझ कर सूत्रानुसार श्रीतीर्थंकर गणधर पूर्वाचार्यप्रदर्शित सत्य मार्गको ग्रहण करें और अज्ञानी प्रदर्शित उन्मार्गका त्याग कर देवें, परंतु किसीकी वृथा निंदा करनेका अभिप्राय नहीं है इसवास्ते इस पुस्तकको वांचने वालोंने सज्जनता धारन करके और द्वेष भावको त्यागके आदिले अंत पर्यंत वांचके हंसचंचू होकरसारमात्र ग्रहण करना, मनुष्यजन्म प्राप्तिका यही फल है जो सत्य को अंगीकार करना परंतु पक्षपात करके झूठाहठ नहीं करना यही अंतिम प्रार्थना है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफसोस है कि ग्रन्थकर्ताके हाथकी लिखी इस ग्रन्धकीखास संपूर्ण प्रति हमको तलायश करनेसे भी नहीं मिली तथापि जितनी मिली उसके अनुसार जो प्रथमावृतिमें अशुद्धता रह गई थी इसमें प्रायः शुद्धकी गई है और बाकीका हिस्सा जैसाका वैसा गुजराती प्रतिके ऊपरसे यथाशक्ति उलथा किया गया है इस बात में खास करके मुनिश्रीवल्लभविजयजीकी मदद लीगई है इसलिये इस जगह मुनिश्रीका उपकार माना जाता है साथमें श्रीभावनगर की श्रीजैनधर्मप्रसारक सभाका भी उपकार माना जाता है कि जिस ने गुजराती में छपाकर इस ग्रन्थको हयात बना रखा जिससे आज यह दिनभी आगया जो निजभाषामें छपाकर अन्य प्रेमी भाइयों को इसका लाभ दिया गया। दृष्टिदोषान्मतेमाद्या, दादशुद्धं भवेदिह । तन्मिथ्यादुष्कृतं मेस्तु, शोध्यमा रनुप्रहात्॥ श्रीवीर संवत् २४२९ । विक्रम संवत् १९५९ । ईसविसन १९०३ आत्म संवत् ।७ श्रीसंघकादास जसवंतरायजैनी, लाहौर श्रीआत्मानंद जैनसभा पंजाबके हुकमसे। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ श्रीसम्यक्त्वशल्योद्धार ग्रंथस्य विषयानुक्रमणिका। नं० विषयाः पृष्टांकाः मंगलाचरणम् हूंढकमतकी उत्पत्ति वगैरह ३ ढूंढकमतकी पट्टावली ढूंढियोंके ५२ प्रश्नोंके उत्तर .... द्वंढियोंके प्रति १२८ प्रश्न - बत्तीससूत्रों के बाहिरके २०४ बोल ढूंढिये मानते हैं २८ बत्तीससूत्रों से कितनेक बोलढूंढिये नहीं मानते हैं ३७ ८ नियुक्ति वगैरह मानना शास्त्रोंमें कहा है .... ४० ९ आर्यक्षेत्रकी मर्यादा ... ... .... ४५ १० प्रतिमाकी स्थितिका अधिकार .... .... ४६ आधाकर्मी आहारकी बाबत ... .... ४९ १२ मुहपत्ती बांधनेसे सन्मूछिम जीवकी हिंसा होती है ५२ १३ यात्रा तीर्थ कहे हैं इसबाबत.... १४ श्रीशत्रुजय शाश्वता है ... .... १५ कयबलिकम्मा शब्दका अर्थ .... सिद्धायतन शब्दका अर्थ ... गौतमस्वामी अष्टापदपर चढे नमुथ्थुणंके पाठकी बाबत १९ चारों निक्षेपे अरिहंत वंदनीक हैं .... १६ सय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नः .. विषयाः पृष्टांकाः २० नमूना देखके नाम याद आता है ... ... ८९ २१ नमो बंभीए लिवीए इसपाठका अर्थ' . .... ९४. जंघाचारणविद्याचारण साधुओंनेजिनप्रतिमावांदी है ९७ २३ आनंद श्रावकने जिनप्रतिमा वांदी है ... १०६ २४ अंबड श्रावकने जिनप्रतिमा वांदी है .. ११६ २५ सांतक्षेत्रमें धन खरचना कहा है .... ... १२० २६, द्रौपदीने जिनप्रतिमा पूजी है ... ... १२८ २७ सूर्याभने तथा विजयपोलीएने जिनप्रतिमा पूजी है १४८ २८ देवता जिनेश्वरकी दाढा पूजते हैं ... ..... १७१ २९ - 'चित्रामकी मूर्ति नहीं देखनी चाहिये इसबाबत' १३ . ३० जिनमंदिर करानेसे ताजिनप्रतिमा.भरानेसे १२वें । देवलोक जावे ..... ... ... ... १८६ ३१ श्रीनंदिसूत्रमें सर्व सूत्रोंकी नोंध है १९४ साधु या श्रावक श्रीजिनमंदिर न जावे तो दंड आवे "इसबाबत श्रीमहाकल्पसूत्रके पाठ सहितवर्णन, १९७ ३३ जेठमल्लके लिखे ८५ प्रश्नोंके उत्तर .... २०३ ३४ "दूढियोंकों कितनेक प्रश्न ..... ....' २२२ "सूत्रोंमें श्रावकोंने जिनपूजाकरी कहाँ है इसबाबत २२५ ३६ सावध करणी बाबत ... ... ... २३० ३७ द्रव्यनिक्षेपा वंदनीक है ... .... २३५, ३८ स्थापना निक्षेपा वंदनीक है . .... .... २३६ ३९ शासनके प्रत्यनीकको शिक्षादेनी ........ २३८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ४० ४१ ૪૨ ४३ ४४ ४५ ટ્ १७ ૪૮ ४२ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ 1 विषयाः वीस. विहरमान के नाम ..: चैत्यशब्दका अर्थ साधु तथा ज्ञान नहीं जिनप्रतिमा पूजने के फल सूत्रों में कहे हैं महिया शब्दका अर्थ छीकायाके आरंभ बाबत ( ग ) 2004 CIDE 8008 ... श्रावक सूत्र न पढ़े इसबाबत ढूंढिये हिंसा धर्मी हैं इसबाबत ग्रंथ की पूर्णाहुति । ढूंडक पचविशी सवैय्ये समतिप्रकाश बारह मास जीवदया के निमित्त साधुके वचन आज्ञा सो धर्म है इसबाबत पूजा सो दया है इसबावत प्रवचनके प्रत्यनीकको शिक्षा करने बाबत.... देवगुरुकी यथायोग्य भक्ति करने बाबत .... जिनप्रतिमा जिनसरीखी है इसबाबत ढूंढकमतिका गोशालामती तथा मुसलमानोंके साथ ०१० ००८ ... *** ... *** *** *** मुकाबला २७२ मुंहपर मुहपत्ती बंधी रखनी सो कुलिंग है २७८ देवता जिनप्रतिमा पूजते हैं सो मोक्षके वास्ते है २८१ २८२ *** *** 07.0 .... *** .... ... 412 450 444 ... **** **** .ins 1000 14.0 पृष्ठकाः ... २४१ २४२ २४८ २५१ २५३ २५६ २५८ २६१ ... २६६ २६७ २६९ , २८९ २९४ २९७ २९९ ३०१ Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ उोम् ॥ सम्यक्त्व शल्योद्धार Desco || श्री जैनधर्मोजयति ॥ मूर्ति निधाय जैनेंद्री सयुक्तिशास्त्रको टिभिः । भव्यानां हृद्विहारेषु लुम्पढुण्ढककिल्विषम् ॥ १ ॥ सम्यक्त्व गात्रशल्यानां व्याप्यानां विश्वदुर्गतेः । कङ्कुर्वक उद्धारं नत्वा स्याद्वाद ईश्वरम् ॥ २ ॥ युग्मम् ॥ ॥ ॐ ॥ श्री वीतरागायनमः ॥ ( १ ) ढुंढक मत की उत्पत्ति वगैरह ॥ प्रथम प्रश्न में ढुंढकमती कहते हैं ''भस्मग्रह उतरा और दया धर्म प्रसरा" अर्थात् भस्मग्रह उतरे बाद हमारा दया धर्म प्रकट हुआ, इस कथन पर प्रश्न पैदा होता है कि क्या पहिले दया धर्म नहीं था ? उत्तर- था ही परंतु श्रीकल्पसूत्र में कहा है कि श्री महावीर स्वामी के निर्वाण बाद दो हजार वर्ष की स्थिति वाला तीसमा भस्मग्रह प्रभु के जन्म नक्षत्र पर बैठेगा जिससे दो हजार वर्ष तक साधु साध्वी की उदय उदय पूजा नहीं होगी, और भस्मग्रह उतरे बाद साधु साध्वी की उदय उदय पूजा होगी । भस्मग्रह के प्रभाव से जिनकी पूजा मंद होगी उनकी ही पूजा प्रभावना , Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भस्मग्रह के उतरे बाद विशेष होगी, इसी मुजिब श्री आनंद विमल सूरि,श्रीहेमविमलसूरि,श्रीविजयदानसूरि,श्रीहीरविजयसूरि और खरतर गच्छीय श्रीचिनचंद्रसूरि वगैरहने क्रियाउद्धार किया तब से लेके आज तक त्यागी संवेगी साधु साध्वी की पूजा प्रभावना दिन प्रति दिन अधिक अधिकतर होती जाती है और पाखंडियों की महिमा दिन प्रति दिन घटती जाती है यह बात इस वक्त प्रत्यक्ष दिखाइदेती है,इसवास्ते श्रीकल्पसूत्र का पाठ अक्षर अक्षर सत्य है, परंतु जेठमल्ल ढुंढक के कथनानुसार श्रीकल्पसूत्र में ऐसे नहीं लिखा है कि गुरु बिना का एक मुख बंधों का पंथं निकलेगा जिसका आचार व्यवहार श्रीजैनमत के सिद्धांतों से विपरीत होगा उस पंथ वाले की पूजा होगी और तिसका चलाया दयोमार्ग दीपेगा ! इसवास्ते जेठमल्ल का कथन सत्यका प्रति पक्षी है। लौकिक दृष्टांत भी देखो (१) जिस आदमी को रोग होया हो उस रोगकी स्थिति के परिपक्क हुए रोग के नाश होने पर वोही आदमी निरोगी होवे या दूसरा ? (२) जिस स्त्री को गर्भ रहा हो गर्भ की स्थिति परिपूर्ण हुए वोही स्त्री पुत्र प्रसूत करे या दूसरी? (३)जिस बालक की कुड़माई (मांगनी) हुई हो विवाह के वक्त वोही बालक पाणिग्रहण करे या दूसरा? इन हष्टातों मंजिब भस्मग्रह के प्रभाव सें जिन साधु साध्वी की उदय उदय पूजा नहींहोती थी,भस्मग्रह के उतरे बाद तिनकी ही उदय उदय पूजा होती है, परंतु ढुंढक पहिले नहीं थे कि, भस्मग्रह के उतरे बाद तिनकी उदय उदय पूजा होवे इस वास्ते जेठमल्ल का लिखना सत्य नहीं है ॥ .. .. तथा श्रीवग्गचूलिया सूत्रमें कहा हे किबाईस(२२) गोठिल्ले पुरुष काल करके संसार में नीच गति में और बहुत नीच कुल में Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा के तोड़ने वाले, हीलना करते हुए, खींसना करते हुए, निंदा करते हुए, गरहा करते हुए, पराभव करते हुए, चैत्य (जिन प्रतिमा) तीर्थ, और साधु साध्वा को उत्थापेंगे॥ है तथा इसी सूत्र में कहा है कि श्रीसंघ की राशि ऊपर ३३३ वर्ष की स्थिति वाला धूमकेतु नामा ग्रह बैठेगा,ओरतिसके प्रभाव से कुमत पंथ प्रकट होगा,इस मूजिब ढुंढकों का कुमत पंथ प्रकट हुआ है.और तिस ग्रहकी स्थिति अब पूरी हो गई है, जिससे दिन 'प्रति दिन इस पंथ का निकंदन होता जाता है ! आत्मार्थी पुरुषों ने यह वात वग्ग चूलिया सूत्र में देख लेनी॥ समाकतसार (शल्य) नामा पुस्तक के दूसरे पृष्ट की १९मी 'पंक्ति में जेठमल्ल ने लिखा है कि "सिद्धांत देखके संबत् (१५३१) में दयाधर्म प्रवृत हुआ” यह बिलकुल झूठ है क्योंकि श्रीभगवती सूत्र के २० मे शतक के टमे उद्देशे में कहा है किभगवान महावीर स्वामी का शासन एक बीस हजार (२१०००) वर्ष तक रहेगा सो पाठ यह है ॥ गोयमा जंबुद्दीव दीवे भारहेवासे इमीसे उस्सप्पिणीए मम एकवीसं वाससहस्साइं तिथ्थे अणुसिज्जिस्सत्ति ॥भ श०२० उ०८ भावार्थ:-हे गौतम ! इस जंबूद्वीप के विषे भरतक्षेत्र के विषे इस उत्सर्पिणी में मेरातीर्थएकबीसहजार(२१०००)वर्षतकप्रवर्तेगा . इस से सिद्ध होता है कि कुमतियों ने दया मार्ग नाम रख के मुख वंधों का जो पंथ चलाया है, सो वेश्या पुत्र के समान है, जैसे वेश्या पुत्र के पिता का निश्चय नहीं होता है, ऐसे ही इस पंथ के देव गुरु का भी निश्चय नहीं है, इस से सिद्ध होता है कि यह सन्मूर्छिम-पंथ हुंडा अवसप्पिणी का पुत्र है ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र के २५में शतक के ६ छठे उद्देशे में कहा है कि व्यावहारिक छेदोपस्थापनीय चारित्र विना गुरु के दिये आता नहीं है और इस पंथ का चारित्र देने वाला आदि गुरु कोई है नहीं क्योंकि ढुंढक पंथ सूरत के रहने वाले लवजी जीवा जी तथा धर्मदास छींबे का चलाया हुआ है तथा इस का आचार और वेष वतीस सूत्र के कथन से भी विपरीत है, क्योंकि श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र के पांच में संवर द्वार में जैन साधके यह उपकरण लिखे हैं, तथा च तत्पाठः-पडिग्गहो पायबंधण पाय केसरिया पायठवणं च पडलाइंतिन्निव रयत्ताणं गोच्छओ तिन्निय पच्छागा रओहरण चोल पहक मुहणंतगमाइयं एयं पिय संजमस्स उबवूहट्टयाए॥ भावार्थ-पात्र १ पात्र बंधन २ पात्र के शरिका ३ पात्रेस्थापन ४ पडले तीन ५ रजस्त्राण ६ गोच्छा ७ तीन प्रच्छादक १० रजोहरण ११ चोलपट्टा १२ मुखवस्त्रिका १३ वगैरह उपकरण संजम की वृद्धि के वास्ते जानने॥ ऊपर लिखे उपकरणों में ऊन के कितने, सूतके कितने, लंबाई वगैरह का प्रमाण कितना, किस किस प्रयोजन के वास्ते और किस रीति से वर्त्तने, वगैरह कोई भी ढुंढक जानता नहीं है, और न यह सर्व उपकरण इन के पास है, तथा. सामायिक, प्रतिक्रमण दीक्षा, श्रावक व्रत, लोच करण, छेदोपस्थापनीय चारित्र, वगैरह जिस विधि से करते हैं, सो भी स्वकपोल कल्पित है, लंबा रजोहरण, विना प्रमाण का चोलपट्टा, और कुलिंग की निशानी रूप दिन रात मुख वांधना भीजेनशास्त्रानुसार नहीं है, मतलब प्रायः कोई भी क्रिया इस पंथ की जैन शास्त्रानुसार नहीं है, इस वास्ते Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येह दासी पुत्र तुल्य हैं,इन में लेठाइका कोई भी चिन्ह नहीं है, अनंते तीर्थंकरों के अनंते शास्त्रों की आज्ञा से विरुद्ध इनका पंथ है इस वास्ते किसी भी जैनमतानुयायी को मानना न चाहिये। और जो संघपट्टे का तीसरा काव्य लिखा है, तिस में तेरां (१३) खोट हैं, और तिसके अर्थ में जो लिखा है"नवा नवा कुमत प्रगट थाशे'सो सत्य है वो नवीन कुमतपंथ तुमारा ही है,क्योंकि जैन सिद्धान्त से विरुद्ध है,और जो इस काव्य के अर्थ में लिखा है "छकायना जीव हणीने धर्म प्ररूपसे” इत्यादि यह सर्व महा मिथ्या है क्योंकि काव्याक्षरों में से यह अर्थ नहीं निकलता है इस वास्ते जेठा ढुंढक महामृषा वादी था,और तिसको झूठ लिखने का बिलकुल भय नहीं था,इस वास्ते इस का लिखा प्रतीति करणे योग्य नहीं है ॥ - तथा चौथा काव्य लिखा तिल में तेवीस (२३) खोट है, इस काव्य के अर्थ में जो लिखा है "हिंसा धर्म.को राज सूर मंत्रधारीनी दीपती"इत्यादि सम्पूर्ण काव्यका जो अर्थ लिखा है सो महा मिथ्या और किसी की समझ में न आवे ऐसाहै,क्योंकि काव्याक्षरों में से यह अर्थ निकलता नहीं है,इसी वास्ते मुंहबंधे महा मृषावादी अज्ञानी पशु तुल्य हैं,बुद्धिमानों को इनका लिखना कदापि मानना न चाहिये ॥ - सतारवां काव्य लिखा तिसमें (१७) खोट हैं और इसके अर्थ में जो लिखा है “छ काय जीव हणीनेहींस्थायें धर्म कहे छे सूत्र वाणी ढांकीने कुपंथ प्रकरण देखी कारण थापी चेत्य पोसाल करावी अधो मार्गे घाले छे कीहाइ सूत्र मध्ये देहरा कराव्या नथी कह्या" यह अर्थ महा मिथ्या है क्योंकि काव्याक्षरों में है नहीं इस वास्ते Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंहबंधों की पंथ नि केवल मृषावादियों का.चलाया हुआ है। __ तथा वीसमें काव्य में सात ७ खोट है और इसका जो अर्थ लिखा है सो सर्व ही महा मिथ्या लिखा है एक अक्षर भी सच्चा नहीं ऐसे मृषावादीयों के धर्म को दया, धर्म कहते हैं ? ऐसा झूठ तो म्लेछ (अनार्य ) भंगी भी लिखते बोलते नहीं हैं। तथा इक्कीसमें ( २१) काव्य में बारां (१२) खोट है तिस में ऐसा अधिकार है,वेष धारी जिन प्रतिमा का चढावाखाने वास्ते सावध काम का आदेश देते हैं,यह तो ठीक है परंतु जेठे ढुंढक ने जो अर्थ इस काव्य का लिखा है, सो झूठा निःकेवल स्वकपोल कल्पित है। तथा तीसमा काव्य लिखा है तिस में ( १३) तेरां खोट हैं इसका अर्थ जेठ ने सर्व झूठ ही लिखा है संशय होवे तो वैयाकरण पंडितों को दिखा के निश्चय कर लेना। पूर्वोक्त छी काव्य के लिखे अर्थों को देखने से सिद्ध होता है कि समकित सार ( शल्य) के कर्ता ने अपना नाम जेठ मल्ल नही किंतु झूठ मल्ल ऐसा सार्थक नाम सिद्ध कर दिया है अब विचार करना चाहियेकि जिस को पद पदसे झूठ बोलने का,उलटे रस्ते च लनेका,झूठे अर्थकरने का,और झूठे अर्थ लिखने का,भय नहीं तिस के चलाए पंथ को दया धर्म कहना औरतिसधर्म को सच्चामानना यह विना भारी कर्मी जीवोंके अन्य किसी का काम है ? ॥ जो ढुंढक पंथ की उत्पति जेठमल्ल ने लिखी है सो सर्व झूठी मिथ्या बुद्धि के प्रभाव से लिखी है,और भोले भव्य जीवों को फसाने वास्ते विना प्रयोजन,तिस में सूत्र की गाथा लिख मारी है परंतु इस ढुंढक पंथ की खरी उत्पत्ति श्री हीरकलश मुनि विरचित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) कुमति विध्वंसन चौपई तथा अमरसिंह ढुंढक के पडदादे अमोलक चंद के हाथ की लिखी हुई ढुंढक पट्टावलि के अनुसार नीचे मूजिब है ॥ ढुंढकमत की पट्टावली गुजरात देश के अहमदावाद नगर में एक लुंका नामक लि खारी ज्ञान जी यति के उपाश्रय में पुस्तक लिखके आजीविका करता था एक दिन उस के मन में बेइमानी आने से एक पुस्तक के सात पत्रे बीच मेसे लिखने छोड दीये, जब पुस्तक के मालक ने पुस्तक अधूरा देखा, तव लुंके लिखारी की बहुत भंडी करके उपाश्रय में से निकाल दिया, और सब को कह दिया कि इस बेइमान से कोइ भी पुस्तक न लिखवावें, इसतरह लुंकाआजीविका भंग होने से बहुत दुःखी होगया और इस्से वो जैनमत का द्वेषी बन गया, जब अहमदावाद में लुंके का जोर न चला तब वो वहां से चल के लींबडी गाम में गया, तहां लुकेका संबंधी लखमशी वाणीया राज्य का कारभारी था, तिस को जाके कहा, भगवंत का धर्म लुप्त हो गया है, मैने अहमदावाद में सच्चा उपदेश करा परंतु मेरा कहना नमान के उलटा मुझ को मार पीट के तहां से निकाल दीया, तब मैं तेरे तरफ से सहायता मिलेगी ऐसे धार के यहां आया हूं, इस वास्ते जेकर तूं मुझ को सहायता करे तो मैं सच्चे दया धर्म की प्ररूपणा करू इस तरह हलाहल विषप्रायः असत्य भाषण कर के बिचारे कलेजाविनाके मूढमति लखमशी को समझाया, तब उस ने उसकी बात सच्ची मान के लुंके कों कहा कि तू लींबडी राज्य में बेधडक प्ररूपणा कर, मैं तेरे खान पानकी खबररखुंगा, इसतरह Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) सहायता मिलने से लुंके ने संवत १५०८ में जैन मार्ग की निंद्या करनी शुरू करी,परंतु अनुमान छब्बीस वर्ष तक तो उसका उन्मार्ग किसी ने अंगी कार नही करा, संवत १५३४ में एक अकल का अंधा भूणा नानक वाणीया लुंके को मिला,तिसने महा मिथ्यात्व के उदय से लुंके का मृषा उपदेश माना और लुंके के कहने से विना गुरु के भेष पहनके मूढ अज्ञानी जीवों को जैन मार्ग से भ्रष्ट करना शुरू कीया।। लुकेने इकतीस सूत्र सच्चे माने और व्यवहार सूत्र सच्चा नहीं माना,और जहां जहां मूल सूत्रका पाठ जिन प्रतिमा के अधिकार का था,तहां तहां मनःकलित अर्थलगाके लोगोंको समझाने लगा। भूणे (भाणजी ) का शिष्य रूपजी संवत १५६८ में हुआ तिल का शिष्य संवत् १५७८ महा सुदि पंचमी के दिन जीवाजी नामक हुआ,तिसका शिष्य संवत १५८७ चैत्रवदि चौथ को वृद्धवर सिंहजी हुआ, तिसका शिव्य संवत १६०६ में वरसिंहजी हुआ, तिसका शिष्य संवत १६४९ में जसवंत हुआ, इसके पीछे सवत १७०९ में वजरंगजी नामक लुपकाचार्य हुआ, उस वजरगजी के पास सरत के वासी वोहरा वीरजी की बेटी फूलां बाइ के गोद लिये बेटे लवजी नामक ने दीक्षा लीनी दीक्षा लिये पीछे जब दो वर्ष हुए तब दशवकालिक सूत्र का टवा वांचा वांचकर गुरु को कहने लगा कि तुम तो साधु के आचार से भ्रष्ट हो इस तरह कहने से जब गुरु के साथ लडाई हुई तब लवजी ने लुंपकमत और गुरु को त्याग के थोभणरिख वगैरह को साथ लेकर स्वयमेव दीक्षालीनी और मुंह के पाटी बाँधी,उस लवजी का शिष्य सोमजी * इस का दूसरा नाम भूग्णा है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा कानजी हुआ, कानजी के पास गुजरात का रहने वाला धर्मदास छींबा दीक्षा लेने को आया परंतु वो कानजी का आचार भ्रष्ट जान कर स्वयमेव साधु बन गया, और मुंह के पोटी बांध ली, इन के (ढूंढकों के) रहने का मकान ढूंढ अर्थात् फूटा हुआथा इस वास्ते लोकों ने ढूंढक नाम दीया, और लुंपकमति कुंवर जी के चेले धर्मसी, श्रीपाल और अमीपाल ने भी गुरु को छोड़ के स्वयमेव. दीक्षा लीनी तिन में धर्मसी ने आठ कोटी पंच्चक्खाण का पंथ चलाया सो गुजरात देश में प्रसिद्ध है। धर्मदास छीपी का चेला धनाजी हुआ,तिस काचेला भुदरजी हुआ, और तिस के चेले रघुनाथ, जैमलजी और गुमानजी हुए इनका परिवार मारवाड देश में विचरता है,तथा गुजरात मालवे में भी है ॥ रघुनाथ के चेले भीखम ने तेरापंथी मुंह बंधों का पंथ चलाया। लवजी ढूंढकमत का आदि गुरु (१) तिसका चेला सोमजी (२) तिसका हरिदास (३) तिस का वृंदावन (8) तिसका भुगानीदास (५) तिसका मलूकचंद(६)तिसका महासिंह(७)तिसका कुशालराय (८)तिसका छजमल्ल (९) तिसका रामलाल (१०) तिसका चेला अमरसिंह (११) मी पीढी में हुआ, अमरसिंह के चेले पंजाब देश में मुंहबांधे फिरते हैं। कानजी के चेले मालवा औरगुजरात देश में हैं। समकितसार जिस के जवाब में यह पुस्तक लिखा जाता है तिसका कर्ता जेठ मल्ल धर्मदास छींके के चेलों में से था और वो ढूंढकके आचरण से भी भ्रष्ट था इसबास्ततिसके चेले देवीचंद और मोतीचंददोनों तिसको छोड़के दिल्ली में जोगराजके चेले हजारीमल्लके पास आ रहे थे दिल्ली के श्रावक केसरमल्ल जोकि हजारीमल्ल का Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१ ) सेवक था. तिसके मुंह से हमने देवीचंद मोतीचंद के कथनानुसार सुना है कि जेठमल्ल को झूठ बोलने का विचार नहीं था इतनाही नहीं किंतु तिसके ब्रह्मचर्य का भी ठिकाना नहीं था इसवास्ते जेठ मल्ल ने जो लंपकमत की उत्पत्ति लिखी है बिलकुल झूठी और स्वकपोल कल्पित है, और हमने जो उत्पत्ति लिखा है सो पूर्वोक्त ग्रंथों के अनुसार लिखीहै इसमें जो किसी ढूंढक या लंपकको असत् मालुम होवे तो उसने हमारे पास से पूर्वोक्त ग्रंथ देख लेने ११में पष्टमें जेठमल्ल ने (५२) प्रश्न... - लिखे हैं तिनके उत्तर.. . पहिले ओरदूसरे प्रश्न में लिखा है कि चेला मोल लेते हो(१) छोटे लड़कोंको विना आचार व्यवहार सिखाए दीक्षा देते हो (२), जवाब-हमारे जैनशास्त्रों में यह दोनों काम करनेकी मनाई लिखी है और हम करते भी नहीं हैं,पूज्य- (डेरेदारयति) करते हैं तो चे अपने आप में साधुपनेका अभिमान भी नहीं रखते हैं परंतु ढूंढक के गुरु लुकागच्छ में तो प्रायः हर एक पाट मोल के चेले से ही चलो आया है और ढूंढक भी यह दोनों काम करते हैं तिनके दृष्टांतजेठमल्ल के टोले के रामचंद ने तीन लड़के इस रीति से लिये (१) मनोहरदास के टोले के चतुर्भुज ने भर्तानामा लड़का लिया है (२) धनीराम ने गोरधन नामा लडका लिया है (३) संगलसेन ने दो लड़के लिये हैं (४) अमरसिह के चेले ने अमीचंद नामा लड़का लिया है (५) रूपांढूंढकणी ने पांच वर्ष की दुर्गी नामा लड़की ला है (६) राजा ढुंढणीने तीन वर्ष का जीया नामा * इस ढूंढक मत को पटावती का विस्तार पूर्वक वर्णन ग्रंथकर्ता ने श्रीजैनतत्त्वार्थ में करा सवारते यहां संप से मतलब जितनाही लिया। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) लड़की (७) यशोदा ढुंढणीनें मोहनी और सुंदरी लड़की सात वर्ष की (८) हीरा ढुंढणी ने छी वर्ष की पार्वती नामा लड़की (९) अमरसिंहकेसाधुने रामचंदनामालड़काफीरोजपुरमें लियाजिस के बदले में उसके बाप को २५०) रुपये दिये (१०) बालकराम ने आठ वर्ष का लालचंद नामा लड़का (११) बलदेव ने पांच वर्ष का लड़का (१२) रूपचंद ने आठ वर्ष का पालीनामा डकौत का लड़का (१३) भावनगर में भीमजी रिखके शिष्य चूनीलाल तिस के शिष्य उमेदचंद ने एक दरजी का लडका लियाथा जिसकी माता ने श्रीजिनमंदिर में आके अपना दुःख जाहिर किया था आखीर में अदालत की मारफत वो लड़का तिसकी माताको सपूर्द किया गया था (१४) इत्यादि सैंकड़ों ढूंढियों ने ऐसे काम किये हैं भोर सैंकड़ों करते हैं। इस वास्ते संवेगी जैन मुनियोंको कलंक देने वास्तेजेठमल्ल ने जो असत्य लेख लिखा है सो अपने हाथ से अपना मुख स्याही से उज्वल किया है ! तीसरे प्रश्नका उत्तर-पंचवस्तुक नामा शास्त्र में लिखाहै कि दीक्षा वक्त मुल का नाम फिराके दूसरा अच्छा नाम रखना। *संवत् १९५१ चैत्रवदि ११ सहस्पतिवार के रोज जब सोमलाल को यवराज पदवी दी तब सवत् १९५२ चैत्र सदि १ को रोज लधिहाना नगर में ढूंढियों ने ६२ वोल बनाये हैं उन में ३५ में वोन्त में लिखा है कि "माझा बिना चेन्ना चेली करना नही वारसी को खबर कर देनी बिना खबर महना नहीं तथा दाम दिवा के तथा बेपरतीते को करना नहीं दीक्षा महोत्सव में सलाह देनी नहीं दीक्षा वाले को ऊठ, बैठ, खाना दाना देना, दिवाना शास्त्री इरफ सिखाने नहीं"। . श्रीउत्तराध्ययन सूत्र के नवमे अध्ययन में लिखा है कि नमिराजर्षि प्रत्येक दर की माता मदनरेखा ने जब दीक्षा धारण करी तब उसका नाम सुव्रता स्थापन करा सो पाठ यह है "तीएवि तासिं साहणौणं समौवे गहिया दिक्खाकय सुव्वयनामा तव संजमकामाणी बिहरडू" इत्यादि । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) (४) चौथे प्रश्न में लिखा है कि “कान पड़वाते हो" उत्तरयह लेख मिथ्या है क्योंकि हम कान पड़वाते नहीं हैं कान तो कान फटे योगी पड़वाते हैं। (५) खमासमणे वहोरते हो (६) घोडा रथ बैहली डोली में बैठते हो (७) गृहस्थ के घर में बैठके वहोरते हो (८) घरों में जाके कल्पसूत्र बांचते हो (९) नित्यप्रति उस ही घर वहेरते हो (१०) अंघोल करते हो (११) ज्योतिष निमित्त प्रयुंजते हो (१२) कलवाणी करके देते हो (१३)मंत्र,यंत्र,झाडो,दवाई करते हो इन नव प्रश्नोंके उत्तर में लिखने का कि जैन मुनियों को यह सर्व प्रश्न कलंक रूप हैं क्योंकि जैन संवेगी साधु ऐसे करते नहीं हैं,परंतु अंतके प्रश्नमें लिखे मूजिव मंत्र,यंत्र,झाड़ा,दवाई वगैरह ढूंढक साधु करते हैं,यथा (१) भावनगर में भीमजी रिख तथा चूनीलाल (२) बरवाला में रामजी रिख (३) बोटाद में अमरशी रिख (४) ध्रांगधरा में शाम जी रिख वगैरह मंत्र यंत्र करते हैं यंत्र लिख के धुलाके पिलाते हैं कच्चे पाणीकी गड़वीयां मंत्रकर देते हैं अपने पासों दवाई की पुडीयां देते हैं बच्चों के शिर पर रजोहरण फिराते हैं वगैरह सब काम करते हैं इस वास्ते यह कलंक तो ढूंढकों के ही मस्तकों पर है (१४) में प्रश्नमें जो लिखा है सो सत्य है क्योंकि व्यवहारभाष्य श्राद्धविधिकौमुदी आदि ग्रंथों में गुरुको समेला करके लाना लिखाहै और ढूंढक लोकभीलाने वक्त और पहुंचाने वक्त वर्जितर बजवाते हैं भावनगर में गोबर रिख के पधारने में और रामजी ऋष के वि. हार में वर्जितर बजवाये थे और इस तरां अन्यत्र भी होता है * ॥ * रावलपिंडी शहरमें पार्वतीढूंढनीके चौमासे में दर्शनार्थ आए बाइरले भाइयों को Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) मे प्रश्न में "लड्डुप्रतिष्ठाते हो"लिखा है सो असत्य है (१६) सात क्षेत्रों निमित्त धन कढाते हो (१७) पुस्तक पूजाते हो (१८) संघ पूजा कराते हो और संघ कढाते हो (१९) मंदिर की प्रतिष्ठा कराते हो (२०) पर्युषणा में पुस्तक देके रात्रि जागा कराते हो यह पांच प्रश्न सत्य हैं क्योंकि हमारे शास्त्रों में इस रीति से करना लिखा है जैसे ढूंढक दीक्षा ढूंढक मरण में तुम महोत्सव करते हो ऐसे ही हमारे श्रावक देवगुरु . संघ श्रुत की भक्ति करते हैं और इस करने से तीर्थंकर गोत्र बांधता है यह कथन श्राज्ञाता सूत्र बगैरह शास्त्रों में है इसको देख के तुमारे पेट में क्यों शूल उठता है ? इन कामों में मुनि का तो उपदेश है, आदेश नहीं ॥ . . (२१) में प्रश्न में लिखा है"पुस्तक पात्र वेचते हो"इसकाउत्तर- हमारा कोई भी साधु यह काम नहीं करता है, करे तो वो साधु नहीं; परंतु मुंह बंधे ढूंढक और ढूंढकनीयां करती हैं, दृष्टांत (१) अजमेर में ढूंढनीयां रोटीयां वेचती हैं (२) जयपुर में चरखा 'कांतती हैं (३) बलदेव गुलाब नंदराम और उत्तमचंद प्रमुख रिख कपड़े वेचते हैं (४) भियाणी में नवनिध ढूंढक दुकान करता है (५) दिल्ली में गोपाल ढूंढक हुके का तमाकु बनाके वेचता है (६) बीकानेर और दिल्ली में ढूंढनीयां अकार्य करती हैं (७) कनीराम के चेले राजमल ने कितने ही अकार्य किये सुने हैं (८)कनीराम का चेला जयचंद दो ढूंढक श्राविकायों को लेके भाग गया ओर कुकर्म करता रहा (१) बोटाद में केशवजी रिख पछम महोत्सव पूर्वक नगरमें शहरवाले लायेथे तथा एशियारपुर में सोहनलाल ढूंटक के चौमा से में मोनी के परिवार में पुत्रोत्पत्ति के हर्ष में महोत्सव पूर्वक स्वामी जी के दर्शनार्थ भाए ये पुत्र को चरणों पर लगा के सबू वांटके बडी पुसी मनाई थी। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाम की बनीयाणी को लेके भाग गया है * यह तुमारे (ढुंढकके) दया धर्म की उदय उदय पूजा हो रही है ? । (२२) माल उगटावते हो (२३) आधाकर्मी पोसाल में रहते हो (२४) मांडवी (विमान) कराते हो (२५) टीपणी (चंदा) कराके रुपैये लेते हो (२६)गौतम पढघा कराते हो यह पांचों प्रश्न असत्य हैं, क्योंकि संवेगी मुनि ऐसे नहीं करते हैं, परंतु २३ में तथा २४ में प्रश्न मूजब ढुंढकों के रिख करते हैं । (२७) संसार तारण तेला कराते हो (२८) चंदन बाला का तप करते हो, यह दोनों प्रश्न ठीक है; जैसे शास्त्रों में मुक्तावलि कनकावलि, सिंहनिः क्रीडितादि तप लिखे हैं; तैसे यह भी तप है, और इस से कर्म का क्षय, और आत्मा का कल्याण होता है। (२९)तपस्या कराके पैसा लेने हो(३०)सोना रूपाकी निश्रेणी (सीढी) लेते हो(३१)लाखा पड़वा कराते हो,यह तीनों ही प्रश्न मिथ्या हैं। (३२) उजमणां कराते हो लिखा है,सो सत्य है, यह कार्य उत्तम है, क्योंकि यह.श्रावक का धर्म है,और इस से शासन की उन्नति होती है,तथा श्राद्धविधि,संदेहदोलावलि वगैरह ग्रंथों में लिखा है ॥ (३३) पूज ढोवराते हो-सो श्रावक की करणी है,और श्रीजिन मंदिर की भक्ति निमित्त करते हैं। (३४) श्रावक के पास मुंडका दिलाके डुंगर पर चढते हो। यह असत्य है, क्योंकि अद्याप पर्यंत किसी भी जैनतीर्थ पर साधु का मुंडका नहीं लिया गया है । * जगगवा जिम्मा लधियाना में रूपचद के दो साधु और अमरसिंह की साध्वी का संयोग एपा और पाधान रह गया मुना है, तथा बनड में एक साधु में अपना पकायें गोपने के वास्ते छप्पर को पाग नगादो ऐसे मना है और समाणे में एक टुंट क साध को अकार्य की शका से श्रावकों ने बारी में बैठने से रोक दिया पट्टी में एक परमानंद के चेले के प्रकार्य से टुंदक श्रावक रात्रि के वक्त थानक को तामा सगाते थे। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) माला रोपण कराते हो। यह सत्य है मालारोपण करानी श्री महा निशीथ सूत्र में कही है। (३६) अशोक वृक्ष बनाते हो, यह श्रावक का धर्म है। (३७) अष्टोत्तरा स्नात्र कराते हो। यह श्रावक की करणी है, और इस सें अरिहंत पदका आराधन होता है, यावत् मोक्ष सुख की प्राप्ति होतीहै, श्रीरायपसेणी सूत्र प्रमुख सिद्धांतोंमें सतरां भेद . सें यावत् अष्टोत्तरशत भेद तक पूजा करनी कही है। (३८) प्रतिमा के आगे नैवेद्य धराते हो यह उत्तम है, इस सें अनाहार पद की प्राप्ति होती है। श्रीहरिभद्रसूरि कृत पूजापंचाशक, तथा श्राद्ध दिन कृत्य बगैरह ग्रंथों में यह कथन है । (३९) श्रावक और साधु के मस्तकोपरि वासक्षेप करते हो, यह सत्यहे कल्पसूत्रवृत्ति वगैरह शास्त्रों में कहाहै परंतु तुम(ढंढक) दीक्षा के समय में राख डालने हो सो ठीक नहीं है, क्योंकि जैन शास्त्रों में राख डालनी नहीं कही है। (१०) नांद मंडाते हो लिखा है, सो ठीक है, नांद मांडनी शास्त्रों में लिखी है । श्री अंगचूलिया सूत्र में कहा है कि व्रत तथा दीक्षा श्रीजिनमन्दिर में देनी-- यतः तिहि नखत्त महत्त रविजोगाइय पसन्न दिवसे अप्पा वोसिरामि। जिणभवणाइपहाणखित्ते गुरू वंदित्ता अणडू इच्छकारि तुम्हे अम्हपंच महत्वयाई राइभोयणवेरमण छट्ठाई आरोवावणिया ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त, रविजोग आदि जोग, ऐसे प्र. शस्त दिनमें,आत्माको पापसे वोसिरावे,सो जिनभवन आदि प्रधान क्षेत्रमें गुरुको वंदना करके कहे-प्रसाद करके आप हम को पांच महा व्रत और छठा रात्रि भोजन विरमण आरोपण करो (देओ)॥ (४१) पदीकचाक वांधते हो लिखा है, सो मिथ्या है। (४२) वंदना करवाते हो,वंदना करनीसोभावकोंका मुख्यधर्म है। (४३) लोगोंके शिर पर रजोहरण फिराते हो, यह काम हमारे संवेगी मुनि नहीं करते हैं, परंतु तुमारे रिख यह काम करते हैं, सो प्रथम लिख आए हैं। (१४)गांठमें गरथ रखते हो अर्थात् धन रखतेहो,यह महा असत्य है, इस तरह लिखने से जेठेने तेरखें पापस्थानक का बंधन किया है। (४५) डंडासण रखते हो लिखा, सो ठीक है, श्रीमहानिशीथ सूत्र में कहा है * ___ (१६) स्त्री का संघटा करते हो लिखा है, सो,मिथ्या है ॥ " (४७) पगों तक नीची पछेबड़ी ओढते हो लिखा है,सोमिथ्या है,क्योंकि संवेगी मुनि ऐसे नहीं ओढते हैं,परन्तु तमारेरिख पगकी पानी (अड्डियों) तक लंबा घघरे जैसा चोलपट्टा पहिरते हैं। (४८) सरिमंत्र लेते हो लिखा है,सो गणधर महाराज की परंपराय से है, इस वास्ते सत्य है। , (४९) कपड़े धुलवाते हो लिखा है, सो असत्य है ।। (५०) आंबिल का ओलि कराते हो लिखा है,सो सत्य है,महा उत्तम है, श्रीपालचरित्रादि शास्त्रों में कहा है, और इस से नव पड़ का आराधन होता है, यावत् मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है । "श्रीव्यवहार सूत्र भाष्यादिकामें भी डंडास ए रखना लिखा है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ (५१) यति मरे बाद लड्डु, लाहते हो लिखा है, सो असत्य है, हमने तो ऐसा सुना भी नहीं है, कदापि तुमारे ढूंढक करते हों, और से याद आगया हो ऐसे भासता है * इस (५२) यति के मरेबाद थूभ करानेहो - यह श्रावक की करणीह, गुरु भक्ति निमित्त करना यह श्रावक का धर्म है; श्रीआवश्यक, आचार दिनकरादि सूत्रों में लिखा है और इसमें साधुका उपदेश है, आदेश नहीं ॥ ऊपर मूजिब (५२) प्रश्न जेठमलनें लिखे हैं, सो महा मिथ्यात्व के उदयसे लिखे हैं, परंतु हमने इनके यथार्थ उत्तर शास्त्रानुसार दीये हैं, सो सुज्ञ पुरुषों ने ध्यान देकर वांच लेने ॥ अब अज्ञानी ढूंढिये शास्त्रों के आधार बिना कितनेक मिथ्या आचार सेवते हैं तिनकावर्णन प्रश्नों की रीति से करते हैं । (१) सारादिन मुंह बांधे फिरते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (२) बैठकी पूंछ जैसा लंबा रजोहरण लटका कर चलते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (३) भीलों के समान गिलती बांधते हो, सो किस शा० ? (४) चेला चेली मोल का लेते हो, सो किस शा० ? (५) जूठे वरतनों का धोवण समूच्छिम मनुष्योत्पत्ति युक्त लेते हो और पीते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (६) पूज्य पदवी की चादर ओढते हो, सो किस शा ० ? ॥ (७) पेशाब से गुदा धोते हो, सो किस शा० ? #सुनने में आया है कि अमृतसर में एक ढूंढनी के मरे बाद सेवकों ने पिंड भराये थे तथा पंजाब में जब किसी ढूंढीये या ढूंढनी के मरने पर लोक एकत्र होते हैं तो खूब मिठाईयों पर हाथ फेरते हैं ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) (४०) दया पाले तो दर्श ब्रतका फल बताते हो, सो किस ? (४१) सम्यक देते हो तब (२५) व्रत कराते हो,सो किस ? (४२)बड़ी सम्यक देते हो तब(१८०)व्रत कराते हो,सो कि.? (४३) ब्रत बेला इत्यादि के पारणे पोरसी करे तो दूना फल कहते हो,सो किस शास्त्रानुसार ? (४४) वेले से लेकर आगे पांच गुने व्रत फलकी संख्या कहते हो, सो किस शास्त्रानुसार?* (४५) चार चार महीने आलोयणा करते हो, सो किस ? (४६) पोसह करे तो ११ ग्यारवां बड़ा ब्रत कहके उच्चराते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? . .(४७) ११ ग्यारवां छोटा ब्रत कहके पोसह पारना कहते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (४८) सामायिक करे तो नवमा ब्रत कहके उच्चारना कहते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (१९) सामायिक करने वक्त एक दो मुहूर्त तथा दो चार 'घड़ीयां ऐसे कहना, किस शास्त्रानुसार? . (५०) सामायिक पारने वक्त नवमा सामायिक व्रत कहके पारना, सो किस शास्त्रानुसार? ..... . (५१) व्रत करके पानी पीना होवे तो पोसह न करे, संवर करे, कहते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? ' * इस प्रश्न का मतलब यह है कि लगातार दो व्रत करेतो पांचव्रतका फसहोवे, तीन करे तो पच्चीस, चार करे तो सवासी, पांच करे तो सपाईसो, छ ब्रत करे तो मवा इकतीस सौ ३१२५ ब्रतका फन्त होवे इत्यादि । गुजरात मारवाड़ के कितनेक टिद्वंयों में यह रिवाल है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) (५२) जब कोई दीक्षा लेने वाला होवे तब उसके नाम से पुस्तक तथा वस्त्र पात्र लेते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (५३) जब आहार करतेहो तब पात्रोंके नीचे कपड़ा बिछाते हो, जिसका नाम मांडला कहते हो, सो किस शास्त्रानुसार? (५४) सामायिक जिस विधि से करते हो,सो किस? (५५) सामायिक पारने का विधि किस शास्त्रानुसार ? (५६) पोसह करने का विधि किस शास्त्रानुसार ? (१७) पोसह पारने का विधि किस शास्त्रानुसार ? (५८) दीक्षा देने का विधि किस शास्त्रानुसार ? (५९) संथारा करने का विधि किस शास्त्रानुसार ? (६०) श्रावक को व्रत देने का विधि किस शास्त्रानुसार ? (६१) देवसी पडिकमणेका विधि किस शास्त्रानुसार ? (६२) राइ पडिकमणेका विधि किस शास्त्रानुसार ? (६३) पक्खी पडिकमणेका विधि किस शास्त्रानुसार ? (६४) चौमासी पड़िकमणेका विधि किस शास्त्रानुसार? (६५) संवच्छरी पड़िकमणे का विधि किस शास्त्रानुसार ? (६६) चौमासे पहिले एक महीना आगे आना कहते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? __(६७) सांझको पंचमी लग्यां संवच्छरी करनी, सो किस०१ (६८) पूज्य पदवी देने का विधि किस शास्त्रानुसार ? (६९) अनन्त चौबीसी पड़िकमणे में पढनी किस ? (७०) ढालां तथा चौपइयां बांचनीयां और थेइया २ मानना, सो किस शास्त्रानुसार ? - (७१) श्रावण दो होवें तो दजे श्रावणमें पYषण करने किस०? Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ , (७२) भादों दो हो। तो पहिले भादों में पर्युषण करने,किस०? (७३) नावा में बैठके ऊतरे तेलेका दण्ड कहते हो,सो किस.? (७४) लस्सी (छास) और शरबत (मीठापानी) पीकर एक दो मास तक रहना और कहना कि महिने दो महिने के ब्रत किये है,सो किस शास्त्रानुसार ? (७५) एक साधुको महिने से ज्यादा तपस्या कराके सव साध एक ठिकाने कल्पसे ज्यादा रहते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (७६) जब लोच करते हो, तब गृहस्थी को व्रत वगैरह कराके चढ़ावा लेते हो, सो लोच आप करना और दंड गृहस्थी को देना,सो किस शास्त्रानुसार ? (७७) रजोहरण की डंडीपर कपडा लपेटना सो जीव रक्षा के निमित्त कहते हो, सो किस शास्त्रानुसार ? (७८) सफेद नवीन कपड़े पहनने किस शास्त्रानुसार ? (७९) हमेशां सूर्य उदय होवे तब आज्ञा लेते हो, और पच्चक्खाण कराते हो सो किस शास्त्रानुसार ? . (८०) बुढेको डंडारखना,और को नहीं रखना कहतेहो,सो किस०? (८१) मुहपत्ती बांधनेसे वायुकाय की रक्षा होती है ऐसे कहते हो सो किस शास्त्रानुसार ? (८२) हाथमें लटकाके गौचरी लाते हो, सो किस शा०? (८३) अन्यतीर्थी के वास्ते भोजन करा होवे उसको कहना कि तुमको शंका न होवे तो दे दो, सो किस शास्त्रानुसार ? (८४) रात्रि को सूई रखे तो एक ब्रतका दंड कहते हो, सो? (८५) सूई टूट जावे तो बेले (दो व्रत)का दंड कहतेहो, सोकिस? (८६)सई खोई जावे तो तेले (३व्रत)का दंड कहतेहो, सो किस? Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) पांच पदकी तथा आठ पदकी खमावणा कहते हो सो किस शास्त्रानुसार ? (८८) शास्त्रोंमें साधुओंके समूहको कुल गण संघ कहे हैं और तुम टोला कहते हो सो किस शास्त्रानुसार ? (८९) मुहपत्तीमें डोरा डालना और मुहके साथ बांधना सो किस शास्त्रानुसार ? (९०) ओघेकी डण्डी मर्यादा विनाकी लंबी रखनी सो किस० (९१) बड़े वारां व्रत बैठक बोलने सो किस शास्त्रानुसार ? (९२) छोटे पारां व्रत खड़े होके बोलने सो किस शास्त्रानुसार ? (१३) जब नमुत्थुणं कहना तंब पहिले थइ थुइ तथा नमस्कार नमुत्थुणं कहना सो किस शास्त्रानुसार ? (९४)नदी उतरके बेले तेलेका दंड लेना सो किस शास्त्रानुसार ? (९५) रस्तेमें नदी आती होवे तो दो चार कोसके फेरमें जाना। परंतु नदी नहीं उतरनी सो किस शास्त्रानुसार ? - (९६) जंगल जाना तब खंडीये ( कपड़ के टुकडे ) से गुदा पोछनी सो किस शास्त्रानुसार ? (९७) सामायिकमें सोहागण स्त्री पंचरंगी मुस्पत्ती बांधे, और विधवा एक रंगी वांधे, सो किस शास्त्रानुसार ? (९८) दीवालीके दिनोंमें उत्तराध्ययन सुनाना सो किस? (९९) भगवान महावीर स्वामीने दीवालीके दिन उत्तराध्ययन कहा कहते हो सो किस शास्त्रानुसार ?.. (१.२) ओघेके ऊपर डोरेके तीन बंधन देने सो किसा? (१.१)ओघेकी दशियोंमें जंजीरी पावना सो किसा? (१.२)रजोहरण मोंढे(कंधे)पर डालके विहार करना सो कित.? Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) (१३) प्रथम बड़ा साधु- पांचपदकी खमावना करे पीछे छोटे साधु करे सो किस शास्त्रानुसार ? (१६४) कंडरीकने एक हजार वर्षतक बेले बेले पारणा किया कहते हो सो किस शास्त्रानुसार ? (१०१) गोशालेके ११ लाख श्रावक कहतेहो सो किसा? (१०६) साधु चोलीसमान और गृहस्थी दावन समान सो किस ०? (१००) पंडिकमणा आया पीछे बड़ी दीक्षा देनी सौ किसी (१०८) सोलो दिनकी अथवा तेरो दिनकी पाखी नहीं करनी सो किस शास्त्रानुसार ? (१०९) पांचवें आरके अंतमें चार अध्ययन. दशवकालिकके रहेंगे ऐसे कहते हो सो किस शास्त्रानुसार.?. (११०) पूनीया श्रावककी सामायिक कहते हो.सो किस० (१११) बेलेसे उपरांत पारिहावनीया आहार नहीं देना सो किस शास्त्रानुसार ?. (११२) सूत्रोंका त्याग कर देना, अपनी निश्राय नहीं रखने, सो.किस शास्त्रानुसार ? (११३) छोटी पूंजणी रखनी सो किस शास्त्रानुसार? (११४) पोथीपर रंगदार डोरा नहीं रखना कहते हो सो किस०१ (११५). आप चिट्ठी नहीं लिखनी, गृहस्थी से लिखाना सो किस शास्त्रानुसार ? (१.१६) कपड़े, सज्जीसे नहीं धोने,पानीसे धोने,सो किस०? (११५) ध्यान पार कर मनचला, वचनं चला, काया चली, कहते हो सो किस शास्त्रानसार ? 1Arrr. - - - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२७ ) (११८) पशमका कपड़ा नहीं लेना सो किस शास्त्रानुसार *? (११९) कई जगह श्रावक पडिकमणेमें श्रमणसूत्र कहते हैं सो किस शास्त्रानुसार, क्योंकि श्रमणसूत्र में तो साधुके पांच महाव्रत और गौचरी वगैरह की आलोयणा है ॥ (१२०) कई जगह ढुंढक श्रावक सामायिक बाँधु ऐसे कहते हैं-सो किस शास्त्रानुसार ? (१२१) विहार करनेके बदले उठ कहते हो सौ किसा ? (१२२) एक जना लोगस्स पढलेवे और सबकी काउसंग हो जावें सो किस शास्त्रानुसार ? (१२३ पर्यंषणापर्व में अंतगडदशांग सूत्र वाचना किस । (१२४) कई जगह कल्पसूत्र वांचते हो और मानते नहीं हो “सो किस शास्त्रानुसार? (१२५) कई जगह पर्यषणामें गोशालेको अध्ययन वाचते हो सो किस शास्त्रानुसार ? (१२६) कोई रिख मरजावे तो पुस्तकं वगैरह गृहस्थीकी तरह हिस्ले करके वाटलेते हो सोकिस शास्त्रानुसार ? दृष्टान्त लोपड़ी में देवजी रिखके बहुत झगडे के बाद बारां हिस्से में बांटा गया है। (१२५) धोलेरा तथा लींबड़ी वगैरह में पैसावगैरह डालने के भंडारे बनाये हैं सो किस शास्त्रानुसार ? ___*लुधीहाना नगर में निकाले दंटियों के नूतन र योन्तों में लिखा है कि "पम का कपड़ा दिनमें नहीं पोटना रातकी बात न्यारी'। पंजाब देश शहर हुशियारपुरमें संवत् १८५८ के माघ महीने में पुस्तकों के भंडार के नामसे क्यैये एकत्र किये थे जिम में कितने क बाहिर नगरके लोग पीछेसे भेजने को कर गए ये,लितनेकने उसी वक्त दे दिये थे, अब सुनते हैं कि दे जाने वाले पश्चातापकरते हैं, पौर भेनमे वालेमौनकर बेठे और लेने वाले माई पार भारदीनाकारजम कर गये । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८,२८ ) (१२८) धोलेरा में वोड़ी बनाई है सो ? ऊपर के प्रश्न ढूंढकोंके आचार वगैरह के संबंध में लिखे हैं इन पर विचार करने से प्रगटपणे मालूम होगा कि इनका आचार व्यवहार जैन शास्त्रोंसें विरुद्ध है। . - सुज्ञजनो ! संवेगी जैन मुनि देश विदेशमें विचरते हैं, तिन के उपकरण और क्रिया वगैरह प्रायः एक सदृश ही होती है और ढूंढकोंके मारवाड़, मेवाड़, पंजाब, मालवा, गुजरात, तथा काठियावाड़ वगैरह देशों में रहने वाले रिखों (ढूंढक साधओं) के उपकरण, पोसह, प्रतिक्रमण वगैरहका विधि और क्रिया वगैरह प्रायःपृथक् पृथक-ही होते हैं,इससे सिद्ध होता है कि इनकी क्रिया वगैरह स्वकपोल कल्पित है, परन्तु शास्त्रानुसार नहीं है। ढूंढक लोक मिथ्यात्वके उदयसे बत्तीस ही सूत्र मान के शेष सूत्र पंचांगी तथा धर्म धुरंधर पूर्वधारी पूर्वाचार्यों के बनाये ग्रन्थ प्रकरण वगैरह मानते नहीं हैं तो हम उन ( ढूंढकों) को पूछते हैं कि नीचे लिखे अधिकारों को तुम मानते हो, और तुमारे माने बत्तीस सूत्रों के मूल पाठमें तो किसी भी ठिकाने नहीं है तो तुम किसके आधारसे यह अधिकार मानते हो ? बत्तीस सूत्रों के बाहिरके जो जो बोल दिये मानते हैं वे बोल यह हैं (१) जंबू स्वामी की आठ स्त्री॥. . (२) पांचसौ सत्ताईस की दीक्षा। । (३). महावीर स्वामीके सत्ताईस भव । (४) चंदनवालाने उड़दके बाकुले विहराए । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((२८) (५) चंदनबाला दधिवाहन राजाकी बेटी, (६).चंदनबाली धन्नो शेठ के घर रही। (७) चंदनबालाने छ महीनेका पारणा कराया ॥... (८) संगम देवताका उपसर्ग। (९) श्रीमहावीरस्वामी के कानमें कीले ठोके । (१०) श्रीमहावीरस्वामी ने(१४)चौमासे नालंदे के पाड़े कीए । (११).श्रीमहावीरस्वामीको पूरण शेठने उड़दके बाकुलेदीने। - (१२) श्रीमहावीरस्वामीसे गौतमने वाद किया। (२३) श्रीमहावीरस्वामीने चंडकोसीया समझाया। (१४) श्रीमहावीरस्वामीने मेरुपर्वत कंपाया। (१५) चेड़ा राजाकी सातों बेटी सती। (१६) अभयकुमारने महिल जलाए। (१७) श्रेणिक राजा चार वोल करे तो नरकंमें न जावे। (१८) श्रेणिक के समझाने को अगडबंब बनाया॥ (१९) प्रसन्नचंद राजाका अधिकार । (२०) दीवाली के दिन अठारह देशके राजाओं ने पोसंह किया। (२१) श्रीमहावीरस्वामीका कुल त। (२२) श्रीमहावीरस्वामी का-जमाली भाणेजा। (२३) श्रीमहावीरस्वामीका जमाली जवाई। (२४) त्रिशला राणी चेड़ा राजा की बहिनं ॥ (२५) करकंडु पदमावतीका बेटा। (२६) नमिराजा मदनरेखा और जुगवाहका चरित्र । (२७) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति की कथा। (२८) सगर चक्रवर्ति की कथा। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) (२९) सुभूम चक्रवत्ति सातवा खंड साधने गया । (३०) मेघरथ राजाने परेवड़ा (कबूतर ) बचाया ॥ (३१) श्री नेमिनाथ राजेमतीके नवं भव । (३२) राजेमतीके बापका नाम: उग्रसेन । (३३) श्रीपार्श्वनाथस्वामीने नाग नागनी बचाये । (३४) श्री पार्श्वनाथस्वामीको कमठ ने उपसर्ग किया 1, (३५) श्री पाश्र्वनाथ स्वामीके दश भव । (३६) श्री ऋषभदेव के जीवने धन्नाशेठ के भव में घतकी दान दिया (३७) श्रीढंढण मुनिका अधिकार 1 (३८) श्रीवलभद्र मुनिने वन में मृगको प्रतिबोध किया। (३९) श्रीमेतारज मुनिका अधिकार | (४०) सुभद्रा सतीका अधिकार । (४१) सोलां सतियों के नाम । (४२), श्रीधन्ना, शालिभद्रका अधिकारः । (४३) श्रीथूलभद्रका अधिकार ।' (४४) निरमोही - राजा का अधिकार ! (४५) गुणठाणा द्वार (४६) उदयाधिकार : १२२ प्रकृतिका त (४७) बंधाधिकार १२० प्रकृतिका । (४८) सत्ताधिकार १४८ प्रकृतिका । (४९) दश प्राण । (५०) जीवके - ५६३ भेदकी बडी गतागती । (५१) बासठीये की रचना | (५२) भृगुपुरोहितादिके पूर्व जन्म का वृत्तान्त Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) भृगुपुरोहितने अपने बेटोंको बहकाया। (५४) रामायणका अधिकार। (५५) श्रीगौतमस्वामी देव शर्मा को प्रति बोधने वास्ते गये। (५६) पैंतीस वाणी न्यारी न्यारी। (५७) अरिहंतके यारां गुण। (५८) आचार्य के छत्तीस गुण । (५९) उपाध्याय के पच्चीस गुण । (६०) सामायिकके ३२ दोष। (६१) काउसग्गके १९ दोष । (६२) श्रावकके २१ गुण।" . (६३) लोक १४ रज्जु प्रमाण। (६४) पहली नरक.१ रज्जु की। (६५) दूसरी नरकसे एक एक रज्जुको वृद्धि (६६) सम्यक्त्वके ६७चोल। (६७) पाखी पडिकमणेमें बारह लोगस्स का काउसग्ग करना। (६८) चौमासी पडिकमणेमें बीस लोंगस्सको काउसंग्ग करना। (६९) संवच्छरीको ४० लोगस्सका काउसग्ग करना। (७०) संवच्छरीको पैंठका तेला। (७१) पातरे लाल काले धौले रंगने । (७२) रोज पडिकमणेमें चार लोगस्सका काउसग करना। (७३) मरुदेवी माता हाथीके हौद में मोक्ष गई। (७४) ब्राह्मी सुंदरी कुमारीरही। (७५) भरत बाहुबलका युद्ध । (७६) दश चक्रवर्ति मोक्ष गये। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) (७७) नंदिषणका अधिकार । (७८) सनतकुमार चक्रवर्तिका रूप देखने को देवते आये। (७९) छटे महीने लोच करनी। (८०) भरतजीके दश लाख मण लूण नित्य लगे। (८१)बाहुबलिकोब्राह्मीसुंदरीने कहा“वीरामोरा गजयकी उतरो" (८२) बाहुबलि १ वर्ष काउसग्ग रहा। (८३) सगर चक्रवर्त्तिके साठ हजार बेटे। (८४) भगीरथ गंगा लाया। (८५) बारां चक्रवर्तिकी स्थिति। (८६) बारांचक्रवर्तिकी अवगाहना। . (८७) नव वासुदेव बलदेवोंकी स्थिति। (८८) नव वासुदेव बलदेवोंकी अवगाहना। (८९) नव प्रतिवासुदेवोंकी स्थिति। (९०) नव प्रतिवासुदेवोंकी अवगाहना। (९१) नव नारद के नाम: (१२) चौवीस तीर्थकरके अंतरे (९३) एकादश.रुद्र (९४) स्कंदक मुनिकी खाल उतारी (९५) स्कंदक मुनिके ४९९ चेले पाणी में पीडे (64) अरणिक मुनिका अधिकार (९७) आषाढभूति मुनिका अधिकार (९८) आषाढभूति नटणी वाले का अधिकार (९९) सुदर्शनशेठ अभया राणीका अधिकार (१००) आठदिन के पर्यषणा करने Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) (१०१) चेलणा राणी छल करके श्रेणिकने व्याही | (१०२) छप्पनकोड़ यादव | (१०३) द्वारका में ७२ कोड़ घर । (१०४) द्वारका के बाहिर ६० कोड़ घर । (१०५) रेवतीने कोलापाक बहराया। (१०६) श्रीपार्श्वनाथकी स्त्रीका नाम प्रभावती । (१०७) श्रीमहावीरस्वामी की बेटीकोढंक नामाश्रावकने समझाया (१०८) भगवानकी जन्मराशि ऊपर दो हजार वर्षका भस्मग्रह (१०९) भगवान के निर्वाणसे दीवाली चली । (११०) हस्तपाल राजा वीनती करे चरम चौमासा यहां करो * (१११) शालिभद्र ने पूर्व जन्म में खीरका दान दिया (११२) कयवन्ना कुमारकी कथा (११३) अभयकुमारकी कथा (११४) जंबूस्वामी की आठ स्त्रियोंके नाम (११५) जंबूकुमारका पूर्वभवमें भवदेव नाम और स्त्रीका नागीला नाम (११६) जंबूकुमारके माता पिताका नाम धारणी तथा ऋषभदत्त (११७) अठारह नाते एक भव में हुए तिसकी कथा | ( ११८) जंबूकुमारकी स्त्रियोंने आठ कथा कहीं ॥ (११९) जंबूकुमारने आठ कथा कहीं । (१२०) प्रभवा पांचसौ चोरों सहित आया । (१२१) जंबूकुमारके दायजे में ९९ क्रोड़ सुनैये आये । (१२२) सीता सतीको रावण हरके लेगया । (२२३) रावण के भाइयों का नाम कुंभकरण विभीषण था । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) रावणकी बहिनका नाम सुर्पनखा। (१२५) रावणका बहनोई खरदूषण । (१२६) रावणकी राणीका नाम मंदोदरी। (१२७) रावणके पुत्रका नाम इंद्रजीत । (१२८) रावणकी लंका सोनेकी। (१२९) पवनंजय तथा अंजना सतीका पुत्र हनुमान और .:. इनका चरित्र।। (१३०) लक्ष्मणजीकी माताका नाम सुमित्रा। (१३१) सीताने धीज करी। (१३२) जरासंधकी बेटी जीवजसा। (१३३) जराविद्या नेमिनाथ चर्ण जलसे भाग गई। (१३४) कुंतीका बेटा कर्ण।। (१३५) पांडवोंने जूएमें द्रौपदी हारी। (१३६) वसदेवकी ७२००० स्त्री। (१३७) वसुदेव पूर्वभवमें नंदिषण था और तिसने साधुकी वैयावच्च करी। (१३८) हरकेशी मुनिका पूर्वभव । (१३९) पांचवें आरेमें सौ सौ वर्षे ६ महीने आयु घटे। (१४०) पांचवें आरेका जव (जौं) का आकार ! (१४१) पांचवें आरे लगते १२० वर्षका आय । (१४२) संपूर्ण पदवी द्वार । (१४३) भरतजीकी आरीसे भवनमें अंगठी गिरी। (१४४) भरतजीको देवंताने साधुका भेष दिया। (१४५) साधुका भेष देखकर राणीयां हसने लगी। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) (१४६) श्री ऋषभदेवजीने पारणेमें १०८घड़े इक्षुरसके पीए । (१४७) मरुदेवी माताने ६५००० पीड़ीयां देखीं । (१४८) मरुदेवी माताको रोते रोते आंखों में पड़ल आगए । (१४९) श्री ऋषभदेव तथा श्रेयांस कुमारका पूर्वभव | ( १५०) भरतजीने पूर्वभवमें पांचसौ मुनियोंकों आहार लाकर दिया । (१५१) बाहुबलिने पूर्वभव में पांचसो मुनियोंकी वैयावच्च करी (१५२) श्री ऋषभदेवजीने पूर्वभवमें बैलोंको अंतराय दीना इस वास्ते एक वर्ष तक भूखे रहे । (१५३) प्रद्युम्न कुमार हरा गया । (१५१) शांव कुमारका चरित्र | (१५५) जरासंध काली कुमारादि पांचसौ बेटे यादवों के पीछे आए ॥ (१५६) यादवोंकी कुलदेवीने काली कुमार छला (१५०) रावण चौथी नरकमें गया । ( १५८) कुंभकर्ण तथा इंद्रजीत मोक्ष गए । (१५९) कौरव पांडवोंका युद्ध । (१६०) रहनेमिने ५० स्त्रियां त्यागी * । .. - (१६१) चेड़ाराजाकी पुत्री चेलणाने जोगियोंको जत्तीयां कतर के खिलाई (१६२) शालिभद्रकी ३२ स्त्रियां । (१६३) शालिभद्रकी नाताका नाम भद्रा । (१६४) शालिभद्र के पिताका नाम गोभद्र तिनेंक ५०० भी कहते है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) (१६५) शालिभद्रकी बहिन सुभद्रा । (१६६) शालिभद्र का बहनोई धन्ना। (१६७) शालिभद्र रोज एक एक स्त्री छोड़ता था। (९६८) धन्नाजीकी आठ स्त्रियां । (१६९) धन्नाजीने एकही दिनमें आठ स्त्रियां त्यागी (१७०) धन्ना और शालिभद्रने संथारा किया। (१७१) संथारेकी जगह पर शालिभद्रकी माता गई। (१७२) धन्नाजीने आंख नहीं टमकाई सो मोक्ष गया। (१७३) शालिभद्र ने आंख टमकाई सो मोक्ष नहीं गया। (१७४) एवंती सुकुमालका चरित्र । (१७५) विजय शेठ और विजया शेठाणीका अधिकार। (१७६) प्रभुके निर्वाण बाद ९८० वर्षे सूत्र लिखे गये। (१७७) बारां वरसी काल पड़ा। (१७८) चंद्रगुप्तराजाको सोला स्वप्न आए। (१७९) पांचवें आरेके छेहडे. दुप्पसह साधु । (१८०) पांचवें आरके छेहडे. फल्गुश्री साध्वी । (१८१) पांचवें आरेके छेहडे. नागील श्रावक । (१८२) पांचवें आरके छेहडे. सत्यश्री श्राविका। (१८३) एक आर्या (साध्वी) महाविदेहसे मुहपत्ती लेआई। (१८४) थूलिभद्र वेश्याके घर रहा। (१८५) सिंह गुफा वासी साधु नेपाल देशसे रत्नकंबल लाया । (१८६) दिगंबर मत निकला। (१८७) विष्णु कुमारका संबंध। (१८८) सलाका, प्रतिसलाका, महासलाका और अनवस्थित Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन चार प्यालोंका अधिकार । (१८९) वीस विहरमानका अधिकार। (१९०) दश प्रकारका कल्प। (१९१) जंबूस्वामीके निर्वाण पीछे दश बोल व्यवच्छेद हुए। (१९२) गौतमस्वामी तथा अन्य गणधरोंका परिवार । (१९३) अठावीस लब्धियोंके नाम तथा गुण। (१९४) असझाइयोंका काल प्रमाण । - (१९५)वारह चक्री, नव बलदेव, नव वासुदेव, नव प्रतिवसु. देव,किस किस प्रभुके वक्त में और किस किस प्रभु के अंतर में हुए ॥ (१९६) सर्व नारकियों के पाथडे,अंतरे,अवगाहना तथास्थिति (१९७) सीझना द्वार बड़ा। (१९८) नरककी ९९ पड़तला (प्रतर) । (१९९) जंवूस्वामीकी आयु। (२००) देवलोककी ६२ पड़तलां । (२०१) पक्खीको पैंठका व्रत। (२०२) लोच कराके सब साधुओंको वंदना करनी। (२०३) दीक्षा देतां चोटी उखाड़ना । (२०४) अधिक मास होवे तो पांच महीनेका चौमासा करना अब बत्तीस सूत्रोंमें जो जो बोल कहे हैं और ढूंढक मानतेनहींहैं,तिनमेंसे थोड़े बोल निष्पक्षपाती, न्याय वान,भगवान्की वाणी सत्य मानने वाले,और सुगति में जानेवाले भव्य जीवोंके ज्ञानके वास्ते लिखते हैं। (१) श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्रके पांचवें संवरद्वारपमें साधुके उप Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) (१४) श्रीनंदीसूत्रमें १४०००सूत्र कहे हैं,ढूंढिये नहीं मानते हैं, ऊपर लिखे मूजिब अधिकार सूत्रोंमें कहे हैं, इनकी भी ढूंढकोंको खबर नहीं मालूम देती है, तो फेर इनको शास्त्रोंके जाणकार कैसे मानीए ? __ अब कितनेक अज्ञानी ढूंढक ऐसे कहते हैं, कि हमतो सूत्र मानते हैं नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका नहीं मनते हैं। इसका उत्तर (१)सूत्र में कहा है किः-“अत्थं भासेइ अरहा सुत्तं गुत्थंति गणहरा निउणा" । ___ अर्थ-सूत्र तो गणधरोंके रचे हैं और अर्थ अरिहंतके कहे हैं तो सूत्र मानना, और अर्थ बताने वाली नियुक्ति,भाष्य, चूर्णि,टीका नहीं माननी यह प्रत्यक्ष जिनाज्ञा विरुद्ध नहीं हैं ?:जरूर है ___ (२) श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है कि व्याकरण पढे बिना सूत्र वांचे तिसको मृषा बोलने वाला जाणना सो पाठ यह है, नामक्खाय निबाय उवसग्ग तडिय समास संधि पय हेउ जोगिय उणाइ जिरिया विहाण धाउसर विभित्तिवन्नजत्ततिकालंदसविहं पि सच्चजह भणियंतह कम्मुणा होइ दुवा लस विहाय होइ भासा वयणंपियहोइ सोलसविहं एवं अरिहंत मणुन्नायं समिक्खियं संजएणं कालंमिय वत्तव्वं॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ), अर्थ-नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, संधि पद, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रिया, निधान, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण युक्त, तीन काल,दश प्रकार का सत्य, वारों प्रकार की भाषा, सोलां प्रकारका वचन जाणना, इस प्रकार अरिहंतने आज्ञा करी है, ऐसे सम्यक् प्रकारसे जानके, बुद्धि द्वारा विचार के साधुने अवसर अनुसार बोलना ॥ इस प्रकार सूत्रमें कहा है, तोभी ढूंढीये व्याकरण पढे.बिना सूत्र बांचते हैं,तो अब विचारणाचाहिये,कि पूर्वोक्त वस्तुओंका ज्ञान विना व्याकरण के पढे कदापि नहीं हो सक्ता है, और व्याकरणका पढना दंडीये अच्छा नहीं समझते हैं,तो पूर्वोक्त पाठका अनादर करनेसे जिनाज्ञाके उत्थापक इनको समझना चाहिये कि नहीं ? जरूर समझना चाहिये। (३) श्रीसमवायांग सूत्र तथा नंदिसूत्रमें कहा है कि:आया रेणं परित्ता वायणा संक्खिज्जा अण ओगदारा संक्खिज्जा वेढा संक्खिज्जा सिलोगा संक्खिज्जाओ निज्जत्तिओ संक्खिज्जाओ पडिवत्तिओ संक्खिज्जाओ संघयगोओ इत्यादि। यद्यपि सूत्रोंमें कहा है तोभी ढूंढक नियुक्ति प्रमुखको नहीं मानते हैं, इस वास्ते येह सूत्रों के विराधक हैं ॥ - (४) श्रीठाणांग सूत्रके तीसरे ठाणेके चौथे उद्देशे में सूत्र Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) प्रत्यनीक,अर्थ प्रत्यनीक और तदुभयप्रत्यनीक एवं तीन प्रकार के प्रत्यनीक कहे हैं-यतःसयं पडुच्च तो पडिणीया पण्णता सुत्त पडिणीए अत्थपडिणीए तदुभयपडिणीए । ढूंढक इस प्रकार नहीं मानते हैं इसवास्ते येह जिन शासन के प्रत्यनीक हैं। . (५) श्रीभगवती सूत्रमें कहा है कि जो नियुक्ति न माने, तिसको. अर्थ प्रत्यनीक जाणना ढूंढक नहीं मानते हैं, इसवास्ते येह अर्थ प्रत्यनीक हैं। . (६) श्रीअनुयोग द्वार सूत्रमें दोप्रकारका अनुगम कहा है यतःसुत्ताणुगमे निज्जत्ति अणुगमेय-तथा-निज्जुत्ति अणुगमेतिविहे पणत्त उवघायनिज्जत्ति अणुगमे इत्यादि-तथा-उसे नि सेनिग्गमेखित्तकाल पूरिसेय।इत्यादिदोगाथ हैं . .. ढूंढिये पंचांगीको नहीं मानते हैं तो इससूत्र पाठका अर्थ क्या करेंगे। (७ श्रीभगवतीसूत्रके२५ में शतकके तीसरे उद्देशेमें कहाहै-किःसुत्तत्थो खलु पढमो बीपी निज्जत्ति मिस्सिओ भणिनी। तइओय निरविसेसी।एस विही होइ अणु ओगो * ॥ १ ॥ *श्रीनं दिसूत्रमें भी यह पाठ हैं। - - Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) अर्थ- प्रथम निश्चय सूत्रार्थ देना, दूसरा निर्युक्ति सहित देना और तीसरा निर्विशेष (संपूर्ण) देना यह विधि अनुयोग अर्थात् अर्थ कथनकी है - इस सूत्र पाठसें तीसरे प्रकार की व्याख्या में भाष्य चूर्णि और टीका इनका समावेश होता है और ढूंढिये नहीं मानते हैं तो पूर्वोक्त पाठको कैसे सत्य कर दिखावेंगे ? (८) श्रीसूयगडांग सूत्रके २१ में अध्ययन में कहा है कि: अहागडाई भुजंति अण्ण मणे सकम्मुग्णा उवलित्ते वियाणिज्जा अणुवलित्तेति वा ॥ १ । पुणो एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो न विज्जइ एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं तु जांग ॥२॥ ढूंढिये टीकाको नहीं मानते हैं तो इन दोनों गाथाओंका अर्थ क्या करेंगे ? कितनेक कहते हैं कि टीकामें परस्पर विरोध है इस वास्ते हम नहीं मानते हैं इसका उत्तर- यदि शुद्ध परं परागत गुरुकी सेवा कर के तिनके समीप अध्ययन करें तो कोइ भी विरोध न पड़े, और जेकर विरोधके कारण से ही नहीं मानना कहते हो, तो बत्तीस सूत्रों के मूल पाठ में भी परस्पर बहुत विरोध पडते हैं-जैसे कि:: (१) श्रीजंबूद्वीप पन्नति सूत्रमें ऋषभ कूटका विस्तार मूल में आठ योजन, मध्य में छी योजन, और ऊपर चार योजन कहा है, फेर उसीमें ही कहा है कि ऋषभ कूटका विस्तार मूलमें बारी योजन मध्य में आठ योजन, और ऊपर चार योजन है बताइये एक ही सूत्र में दो बातें क्यों ? Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) . (२) श्रीसमवायांग सूत्रमें श्रीमल्लिनाथ प्रभुके (५७००) मन पर्यवज्ञानी कहे हैं, और श्रीज्ञातासूत्रमें (८००) कहे हैं,यह क्या ? - (३) श्रीसमवयांग सूत्रमें श्रीमल्लिनाथजीके (५९००) अवधि ज्ञानी कहे हैं और श्रीज्ञातासूत्र में (२०००) कहे हैं सो क्या ? - (४) श्रीज्ञातासूत्र में श्रीमल्लिनाथजीकी दीक्षाके पीछे ६ मित्रों की दीक्षा लिखी है, और श्री ठाणांगसूत्रमें श्रीमल्लिनाथजी के साथ ही लिखी है सो क्या ? (५) श्रीउत्तराध्ययन सूत्रके ३३ में अध्ययनमें वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्तकी कही है,और श्री पन्नवणा सूत्रके ३३ में पद में बारां मुहूर्तकी कही हैं, सो क्या ? . इस तरह अनेक फरक हैं, जिनमें से अनुमान (९०) श्रीमद्यशोविजयजी कृत वीरस्तुतिरूप हुंडोंके स्तवन के बालावबोध में पंडित श्रीपदमविजयजीने दिखलाए हैं, परंतु यह फरक तो अल्प बुद्धिवाले जीवोंके वास्ते हैं,क्योंकि कोई पाठांतर, कोई अपेक्षा, कोई उत्सर्ग, कोई अपवाद, कोई नयवाद, कोई विधिवाद, कोई चरितानुवाद, और कोई वाचनाभेद हैं,सो गीतार्थ ही जानते हैं, जिनमेंसे बहुतसे फरक तो नियुक्ति,टीका प्रमुखसे मिटजाते हैं क्योंकि नियुक्तिके कर्ता चतुर्दश पूर्वधर समुद्र सरिखी बुद्धिके धनी थे, ढूंडकों जैसे मूढमति नहीं थे ? . . - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार केअनाचारी,भ्रष्ट, दुराचारी,कुलिंगीयोंको, जैनमतके, चतुर्विध संधके तथा देव गुरु शास्त्र के निंदकों को, तथा दैत्य सरिखे रूप धारनेवाले स्वच्छंदमतियोंको,साधु माननेको और इनके धर्मकी उद्धयर पूजाकहनी तथा लिखनी महामिथ्या दृष्टियों का काम है ? Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) और जो सूयगडांग सूत्रकी गाथा लिखके जेठेने अपनी परंपराय बांधी है सो असत्य है, क्योंकि इन गाथायोंमें सिद्धांतकारने ऐसा नहीं लिखा है कि पंचम कालमें मुहबंधे ढूंढक मेरी परंपरायमें होवेंगे, इसवास्ते इन गाथायोंके लिखनेसे ढूंढक पंथ सच्चा नहीं सिद्ध होता है, परंतु ढूंढक पंथ वेश्यापुत्र तुल्य है यह तो इस ग्रंथमें प्रथम ही सावित करचुके हैं ? ॥ इति प्रथम प्रश्नोत्तर खंडनम् ॥ (२) आर्यक्षेत्र की मर्यादा विषय। दूसरे प्रश्नोत्तर में जेठा रिख लिखता है कि " तारा तंबोल में जैनी जैनमतके मंदिर मानते हैं” उसपर श्रीबृहत्कल्प सूत्र का पाठ लिखके आर्यक्षेत्रकी मर्यादा वताके पूर्वोक्त कथनका खंडन किया है; परन्तु जेठे का यह पूर्वोक्त लिखना महा मिथ्या है, क्योंकि जैनशास्त्रों में तारातंवोल में जैनमत, वा जैनमन्दिर लिखे नहीं हैं, और हम इस तरह मानते भी नहीं हैं यह तो जेठे के शिर में विनाही प्रयोजन खुजली उत्पन्न हुई है, इसवास्ते यह प्रश्नो तर ही झूठाहै और श्रीबृहत्कल्पसूत्रका पाठ तथा अर्थलिखाहै सो भी झूठा है, क्योंकि प्रथम तो जो पाठ लिखा है सो खोटों से भरा हुआ है, और उसका जो अर्थ लिखा है सो महा भ्रष्ट स्वकपोल - कल्पित झूठा लिखा है,उसने लिखा है कि " दक्षिण में कोसंबी नगरी तक सो तो दक्षिण दिशा में समुद्र नजदीक है आगे समुद्र जगती तक है तो समुद्र का क्या कारण रहा,” अब देखिये जेठेकी मूर्खता ! कि कोशांबी नगरी प्रयागके पास थी, जिस जगे अब Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोसम ग्राम बसता है और आवश्यक सूत्रमें लिखा है कि कोशांबी नगरी यमुना नदी के कनारे पर है जेठा मूढमति लिखता है कि कोशांबी दक्षिण देश में समुद्र के कनारे पर है, यह कोशांबी कौन से ढुंढक ने वसाइ है ? इससे तो अंग्रेज सरकार की ही समझ ठीक है कि जिन्होंने भी कोशांबी प्रयाग के पास ही लिखी है; इस वास्ते जेटे का लिखना सर्व झूठ है शेष अर्थ भी इसी तरह झूठे हे ॥इति ॥ (३) प्रतिमा की स्थिति का अधिकार। तीसरे प्रश्नोत्तरमें जेठेने " प्रतिमा असंख्याते काल तक नहीं रह सक्ती है" तिस पर श्रीभगवती सूत्रका पाठ लिखा है, परन्तु तिस पाठ तथा अर्थ में बहुत खोट हैं ; तथा-इस लेखसे मालूम होता है कि जेठा महा अज्ञानी था, और- दही के भुलावे कपास खाता था क्योंकि हमतो प्रतिमा का असंख्याते काल तक रहना देव साहाय्यसे मानते हैं, और श्रीभगवती सूत्र में जो स्थिति लिखी है सो देव साहाय्य बिना स्वाभाविक स्थिति कही है, और देव शक्ति तो अगाध है। ___ और ढुंढियेभी कहते हैं कि चक्रवर्ती छी खंड साधके अहंकार युक्त होके ऋषभकूट पर्वत ऊपर नाम लिखनेके वास्ते जाता है, वहांतिसपर्वत पर बहुतसे नाम दृष्टिगोचर होनेसें अपना अहंकार उतर जाता है;पीछे एक नाम मिटाके अपना नामालखता है अब विचार करो,कि भरत चक्री हुआ तब अठारी कोटाकोटि सागरो 'पमका तो भरतक्षेत्र में धर्म विरह था, तो इतने असंख्याते काल पहिले हुए चक्रवर्तियोंके कृत्रिम नाम असंख्याते काल तक रहे तो Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ ) देव सानिध्यसें श्रीशंखेश्वर पाश्र्वनाथ की प्रतिमा तथा श्रीअष्टापद तीर्थ वगैरह रहे इसमें कुछ भी असंभव नहीं है, तथा श्री जंबूद्वीप पन्नत्तिसूत्रमें प्रथम आरे भरतक्षेत्रका वर्णन नीचे मूजिब है, :तीसेणं समए भारहवासे तत्थ २ बहवे ब शाराइओ पणणत्ताओ किराहाओ कियहाभासाओ जाबमणोहराओरयमत्तछप्पय कोरग भिंगारग कोडलग जीव जीवगदिमहकविल पिंगल लखग कारंडक चक्कवाय कलहंस सारस अणेग सउणगण मिहुगा विरियाओसङ्ण णत्तिए महुर सरणादि ताउ संपिडिय गाणाविहा गच्छवावी पुरकरिणी दीहियासु इत्यादि। अर्थ-तिस समय भरतक्षेत्र में तहां तहां वहुत बनराज हैं, कृष्ण कृष्णवर्णशोभावत् यावत् मनोहरहै मद करके रक्त ऐसे भ्रमर, कोरक. भींगारक, कोडलक, जीव जीवक, नंदिमुख, कपिल,पिंगल, लखग, कारंडक,चक्रवाक, कलहंस,सारस अनेक पक्षियोंके मिथुन (जोडे) तिनों करके सहित है वृक्ष मधुर स्वर करके इकठे हुए हैं, नानाप्रकारके गुच्छे वोडीयां पुष्करिणी, दीर्घिका वगैरह में पक्षी विचरते हैं, ऊपर लिखे सूत्रपाठमें प्रथम आरे भरतक्षेत्रमें बौडी, पुष्करिणी प्रमुखका वर्णन किया है तो विचारो कि वौड़ी किसने कराई ? शाश्वती तो है नहीं, क्योंकि सूत्रोंमें वे बौडीयां शाश्वती कही नहीं हैं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) और तिस कालमें तो युगलिये नव कोटाकोटि सागरोपमसे भरत क्षेत्रमें थे, उनको तो यह बौडी प्रमुखका करना है नहीं, तो तिस से पहिले की अर्थात् नव कोटाकोटी सागरोपम जितने असंख्यातेकाल की वे वोडीयां रही, तो श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिमा तथा अष्टापद तीर्थोपरि श्रीजिनमंदिर देव सानिध्यसें असंख्याते कालतक रहे इसमें क्या आश्चर्य है ? प्रश्न के अंतमें जेठा लिखता है कि "पृथिवीकायकी स्थिति तो बाइसहजार (२२०००)वर्षकी उत्कृष्टी है, और देवतायों की शक्ति कोई आयुष्य बधानेकी नहीं" इसतरां लिखनेसे लिखने वालेने निःकेवल अपनी मूर्खता दिखलाईहै क्योंकि प्रतिमा कोई पृथिवीकायके जीवयुक्त नहीं है, किंतु पृथ्वीकायका दल है तथा जेठा लिख . ता है कि “पहाडतो पृथ्वीके साथ लगे रहते हैं इसवास्ते अधिकवर्ष रहते हैं, परंतु उसमेंसे पत्थरका टुकडा अलग किया होवे तो बाइस हजारवर्ष उपरांत रहे नहीं" इस लेखसेतो-वो पत्थर नाश होजावे अर्थात् पुदगल भी रहे नहीं ऐसा सिद्ध होता है, और इससे जेठे की श्रद्धा ऐसीमालूम होतीहै कि किसी ढूंढकका सौ (१००)वर्ष का आयुष्य होवे तो वो पूर्ण होए तिसका पुदगलेभी स्वमेवही नाश हों जाताहै, उसको अग्निदाह करना ही नहीं पड़ता ! ऐसे अज्ञानी के लेखपर भरोसा रखना यह संसार भ्रमणका ही हेतु है ॥ इति ॥ इति तृतिया प्रश्नोतर खंडनम् ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) (४) आधाकर्मो आहार विषयिक चौथे प्रश्नोत्तरमें लिखा है कि"देवगुरु धर्मके वास्ते भाधाकर्मी आहार देनेमें लाभ है” जेठे ढूंढकका यह लिखना निःकेवल झूठ है, क्योंकि हमारे जैनशास्त्रोंसें ऐसा एकांत किसीभी ठिकाने लिखा नहीं है,और न हम इसतरह मानते हैं।' ___ और जेठेने लिखा है कि "श्रीभगवती सूत्रके पांचमें शतक के छठे उद्देशेमें कहा है कि जीव हणे,झूठ बोले, साधु को अनेषणीय आहार देवे,तो अल्प आयुष्य बांधे" यह पाठ सत्य है, परंतु इस पाठमें जीव हणे, झठ बोले, यह लिखा है,सो आहार निमित्त समझना,अर्थात् साधु निमित्त आहार बनातेजो हिंसा होवेसोहिंसाऔर साधु निमित्त बनाके अपने निमित्त कहनासो असत्य समझना,तथा . इसही उद्देशके इससे अगले आलावेमें लिखा है कि जीवदयापाले, असत्य न बोले,साधुको शुद्ध आहार देवे,तो दीर्घ आयुष्य बांधे,इस आलावेकी अपेक्षा अल्प आयुष्यभी शुभबांधे, अशुभ नहीं, क्योंकि इसही सूत्रके आठमें शतकके छठे उद्देशमें लिखा है कि समणोवासगस्सणं मंतेतहारुवं समणंवा माहणंवा अफासुगणं अर्णसणिज्जेणं असणं पाणं जावपडिलाभमाण किं कज्जइ ? गोयमा ! बहुतरियासे निज्जरा कज्जइ अप्पतराएसे पावे कम्मे कज्जड़ · अर्थ-हेभगवन् ! तथारूप श्रमण माहनको अप्राशूक अनेषणीय अशन पान वगैरह देनेसे श्नमणोपासकको क्या होवे? Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) हे गौतम! पूर्वोक्त काम करनेसे उसको बहुतर निर्जरा होवे, और अल्पतर पापकर्म होवे, अव विचारोकि साधु को अप्राशूक अनेषणीय आहारादि देनेसेअल्पतर अर्थात् बहुतही थोडा पाप, और बहुतर अर्थात् बहुत ज्यादा निर्जरा होवे तो बहुनिर्जरावाला ऐसा अशुभ आयुष्य जीव कैसे बांधे ? कदापि न बांधे, परंतु ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभावसे यह पाठ जेठेको दिखाई दिया मालूम नहीं होता है, क्योंकि उत्सूत्र प्ररूपक शिरोमणि, कुमतिसरदार जेठा इस प्रश्नोतर के अंत में "मांसके भोगी और मांसके दाता, दोनोंही नरकगामी होते हैं, तैसेही आधाकर्मीका भी जान लेना” इस तरां लिखता है, परंतु पूर्वोक्त पाठ में तो अप्राशूक अनेषणीयं दाताको बहुत निजरा करने वाला लिखा है, पृष्ट (१८) पंक्ति (१३) में जेठेने अप्राशक अनेषणीयका अर्थ आधाकर्मी लिखा है, परंतु आधाकर्मींतो अनेषणीय आहारके (४२) दूषणों में से एक दूषण है, क्याकरे ? अकल ठिकाने न होने से यह बात जेठेकी समझ में आई नहीं मालूम देती है ॥ तथा ढूंढिये पाट, पातरे, थानक वगैरह प्रायः हमेशां आधाकर्मी ही बरतते हैं; क्योंकि इनके थानक प्रायः रिखों के वास्ते ही होते हैं, श्रावक उनमें रहते नहीं हैं, पाटभी रिखों के वास्ते ही होते हैं, श्रावक उनपर सोते नहीं हैं और पातरे भी रिखोंके वास्ते ही बनानेमें आते हैं, क्योंकि श्रावक उनमें खाते नहीं है, तथा ढूंढिये अहीर, छींबे, कलाल, कुंभार, नाई, वगैरह जातियों का प्रायः आहार ल्याके खाते हैं, सो भी दोष युक्त आहारका ही भक्षण करते हैं क्योंकि श्रावक लोकतो प्रसंगसे दषणों के जाणकार प्रायः होते हैं, परंतु वे अज्ञानी तो इस बातको प्रायः स्वप्नमेंभी नहीं जानते हैं, इस वास्ते जेठे के दीये मांसके दृष्टांत मूजिब ढूंढियों के रिखोंको Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उनको आहार पानी वगैरह देने वालोंको अनंता संसार परिभ्रमण करना पड़ेगा,हाय !अफशोस! विचारे अनजान लोक तुमारे जैसे कुपात्रको आहार पानी वगैरह देवें, और उसमें पुण्य समझें, उनकी स्थितितो उलटी अनंत संसार परिभ्रमणकी होती है, तो उससे तो बेहतर है कि उन रिखों को अपने घरमें आनेही न देवें कि जिससे अनंत संसार परिभ्रमण करना न पडे.॥ ___ और श्रीसूयगडांगसूत्र के अध्ययन (२१) में तथा श्रीभगवती सूत्रके शतक (८) में रोगादि कारणमें आधाकर्मी आहारकी आज्ञा है, कोरम विना नहीं, सो पाठ प्रथम लिख आए हैं, जेठे ढूंढकने यह पाठ क्यों नहीं देखा ? भाव नेत्र तो नहीं थे, परंतु क्या द्रव्य भी नहीं थे ? तथा श्रीभगवती सूत्रमें कहा है कि रेवती श्राविकाने प्रभुका दाहज्वर मिटाने निमित्त बीजोरापाक कराया, और घोडे के वास्ते कोलापाक कराया,प्रभु केवलज्ञानके धनीने तो अपने वास्ते बनाया बीजोरापाक लेना निषेध किया और कोलापक लानेकी सिंहा अणगारको आज्ञाकरी, वो ले आया, और प्रभुने रागद्वेष रहित पणे अंगीकार कर लिया,परंतु बीजोरापाक प्रभु निमित्त बनाके रेवती श्राविका भावे तो "करेमाणे करे” की अपेक्षा विहराय चुकी थी,तो तिसने कोई अल्प आयुष्य वांधा मालूम नहीं होता है, किंतु तीर्थकर गोत्र बांधा मालूम होता है * इसवास्ते श्रीजैनधर्मकी स्याहादशैलि समझे विना एकांत पक्ष खेंचना यह सम्यग्दृष्टि जीवका लक्षण नहीं है ॥ इति ॥ *देखो ठापांगसूच तथा समवायाग सूत्र । - - - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) (५) मुहपत्ती बांधने से सम्मूर्च्छिम जीवकी हिंसा होती है इस बाबत ! पांचवें प्रश्नोत्तर में जेठेने "वायुकायके जीवकी रक्षा वास्ते मुह पत्ती मुंहको बांधनी " ऐसे लिखा है, परंतु यह लिखना ठीक नहीं है क्योंकि मुंह से निकलते भाषा के पुद्गलसे तो वायुकायके जीव हणे नहीं जाते हैं, और यदि मुख से निकले पवनसे वे हणे जाते हैं, तो तुम ढूंढिये काष्टकी, पाषाणकी, या लोहेकी, चाहे कैसी मुहपत्ती बांधों, तोभी वायुकायके जीव हने विना रहेंगे नहीं, क्योंकि मुखका पवन बाहिर निकले बिना रहता नहीं है, यदि मुखका पवन बाहिर न निकले, पीछा मुखमें ही जावे तो आदमी मरजावे, इस वास्ते यह निश्चय समझना, कि मुंहपत्ती जो है सोत्रस जीवकी यत्ना वास्ते है, सो जब काम पड़े तब मुखवस्त्रिका मुख आगे देकं बोलना श्रीओघनिर्युक्ति में कहा है यतः संपाइमरयरेणुपमज्जगट्ठावयंति मुहपोत्तिं इत्यादि अर्थ- संपातिम अर्थात् मांखी मछरादि त्रस जीवोंकी रक्षावास्ते जब बोले, तब मुखवस्त्रिका सुख आगे देकर बोले इत्यादि । • तथा जेठेने पूर्वोक्त अपने लेखको सिद्ध करने वास्ते श्रीभगती सूत्रका पाठ तथा टीका लिखी है, सो निःकेवल झूठ है, क्योंकि श्रीभगवती सूत्रके पाठ तथा टीकामें वायुकायका नाम भी नहीं है, तो फेर जेठमल मृषावादीने वायुकायका नाम कहां से निकाला ? तथा यह अधिकार तो शकेंद्रका है, और तुम ढूंढिये तो देवताको अधर्मी मानतेहो, तो फेर उसकी निरवद्यभाषा धर्मरूप क्योंकर मानी ? Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ). जब देवताको तुमने धर्म करने वाला समझा, तो श्रीजिन प्रतिमा पूजनेसे देवताको मोक्षफल जो श्रीरायपसेणा सूत्र में कहा है, सो क्यों नहीं मानते ? तथा ढूंढकोंकी तरां मुहपत्ती सारादिन मुंहको बांध छोड़नी किसी भी जैनशास्त्रमें लिखी नहीं है, प्रथम तो सारादिन मुहपाटी बां धनी कुलिंग है, देखने में दैत्यका रूप दीखता है, गौयां, भैसा, बालक,स्त्रियां प्राय देखके डरते हैं,कुत्ते भौंकते हैं,लोक मश्करी करते हैं, ऐसा वेढंगा भेष देखके कई हिंदु, मुसलमान, फिरंगी, बड़े बड़े वद्धिमाना हेरान होते, और सोचते हैं कि यह क्या सांग है ? तात्पर्य जितनी जैनधर्मकी निधाजगतमें लोक प्रायः आजकाल करते हैं, सो ढूंढकोंने मुखपाटी बांधके ही कराई है,तथा दंढकोंने मुंहके तो पाटीबांधी,परंतु नाक,कान,गुदा,इनके ऊपर पाटी क्यों नहीं बांधी? इन द्वाराभी तो वायुकायके जीव भाफसे सरते होंगे ? तथा शास्त्र में लिखा है कि जो स्त्री हिंसा करती होवे,तिसके हाथसे साधुभिक्षा लेवे नहीं; तब तो ढूंढकोंकी जिन श्राविकायों ने मुख, नाक, कान गुदाके पाटीवांधी होवे,तिनके ही हाथसे दंढियोंको भिक्षा लेनी चाहिये, क्योंकि ना चांधनेसे. ढूंढिये हिंसा मानते हैं और मुखसे निकले थूकके स्पर्शसे दा घड़ाबाद सन्मूच्छिम जीवकी उत्पत्ति शास्त्र में कही है, तबतो महा अज्ञानी ढूंढक मुहपत्ती बांधके असंख्याते सन्मूच्छिम जीवोंकी हिंसा करते हैं; सो प्रत्यक्ष है ॥ ___ तथा श्रीआचारांगसूत्रके दूसरे श्रुतस्कंधके दूसरे अध्ययनके तीसरे उद्देश में कहा है यतः से भिक्खु वा भिक्खुणी वा ऊसास माणेवा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) निसासमाणे वा कासमाण वा छीयमाणे वा जंभायमाणेवा उड्डुवाएवा वायणिसग्गे वा करेमाणेवा पुवामेव आसयंवा पोसयं वापाणिणा परिपेहित्ताततो संजयामेव ओसा सेज्जाजाव वायणिसग्गेवा करेज्जा ॥ भावार्थ-उच्छ्वास निश्वास लेते,खांसी लेते,छींक लेते,उवासी लेते,डकार लेते, हुए साधुने हस्त करके मुंह ढांकना-अब विचारो कि मुंह बांधा हुआ होवे तो ढांकना क्या 2 तथा जठेने लिखा है, कि “नाक ढांकना किसीभी जगह कहा नहीं है तो मुख बांधनाभी कहां कहा है,सो बताओ। - तथा शास्त्रमें मुंहपत्ती और रजोहरण त्रस जीवकी यत्नावास्ते कहे हैं, और तुम तो मुहपत्ति वायुकायकी रक्षा वास्ते कहतेहो तो क्या रजोहरण वायुकायकी हिंसा वास्ते रखते हो ? क्योंकि रजो हरणतो प्रायः सारादिन वारंवार फिरानाही पड़ता हैं,प्रश्न के अंत में जेठा लिखता है कि "पुस्तककी आशातना टालने वास्ते मुंहपत्ती कहते हैं,वे झूठ कहते है'जेठेका यह पूर्वोक्त लिखना असत्य है, क्योंकि खुले मुंह बोलनेसे पुस्तकोंपर थूक पड़नेसे आशातना होती है, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है * तथा जेठेने लिखा है कि "पु ___ *पार्वती ढूंढकनी भी अपनी बनाई ज्ञानदीपिकामें लिखती है कि "पाठक तोकीको विदित हो कि इस परमोपकारी ग्रंथको मुख के पागे वस्त्र रखकर अर्थात् मुख ढांपकर पटना चाहिये क्योंकि खुले मुखसे बोलने में सूक्ष्म जीवोंको हिंसा होजाती है और पारण पर (पुस्तकपर) थूक पड़जाती है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तक तो महावीरस्वामी के निर्वाणवाद लिखे गए हैं तो पहिलेतो कुछ पुस्तककी आशातना होनी नहीं थी” यह लिखनाभी जठेका अज्ञानयुक्त है,क्योंकि अठारां लिपि तोश्रीऋषभदेवके समयसे प्रगट हुई हुई है तथा तुमारे किस शास्त्रमें लिखा है कि महावीरके निवीण वाद अमुक संवत्में पुस्तक लिखे गए हैं, और इससे पहिले कोई भी पुस्तक लिखे हुए नहीं थे ? और यदि इससे पहिले बिल कुल लिखत ही नहीं थी,तो श्रीठाणांगसूत्रमें पांचप्रकारके पुस्तक लेनेकी साधुको मनाकरी है, सो क्या बात है ? जरा आंखें मीदके सोच करो॥ ॥इति ॥ (६) यात्रातीर्थ कहे हैं तद्विषयिक छठे प्रश्नोत्तरमें जेठेने भगवतीसूत्रमेंसे साधुकी यात्रा जो लिखी है,सो ठीक है, क्योंकि साधु जब शत्रुजय गिरनार आदि तीर्थो की यात्रा करता है, तब तीर्थभूमिके देखने से तप, नियम, संयम स्वाध्याय, ध्यानादि अधिक वृद्धिमान होते हैं, श्रीज्ञातासूत्र तथा अंतगडदशांगसूत्र में कहा है कि-जाव सित्तुंजे सिद्धा-इस पाठ से सिद्ध है कि तीर्थ भूमिका शुभ धर्मका निमित्त है, नहीं तो क्या अन्य जगह मुनियोंको अनशन करनेके वास्ते नही मिलती थी ? तथा श्रीआचारांगसूत्रकी नियुक्तिमें घणे तीर्थोकी यात्रा करनी लिखी है * और नियुक्ति माननी श्रीसमवायांगसूत्र तथा श्रीनंदि * श्रीआचारांग सूत्रकी नियुक्तिका पाठ यह है यतःदसण णाण चरित्ते तव वेरग्गेय होइ पसत्था। जाय जहा ताय तहा लक्खण वोच्छं सलक्खणओ।। ४६ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रके मूलपाठमें कही है, परंतु ढूंढिये नियुक्ति मानते नहीं हैं। इस वास्ते यह महा मिथ्या दृष्टि अनंत संसारी हैं। तित्थगराण भगवओ पवयण पावयणि अइसढीणं अहिगमण णमण दरिसण कित्तणओ पूयणा थुणणा ॥ ४७॥ जम्माभिसेय णिक्खमण चरण णाणुप्पत्तीय णिव्वाणे। दियलोय भवणमंदर गंदीसर भोम णगरेसु ॥४८॥ अट्ठावय मुज्जते गयग्गपएय धम्मचक्केय । पास रहावन्तणयं चमरुप्यायं च वंदामि ॥ १९ ॥ गणियं णिमित्त जुत्ती संदिठी अवितह इमं गाणं। इय एगत मुवगया गुणपच्चइया इमे अत्था ॥ ५० ॥ गुणमाहप्पं इसिणाम कित्तणं सुरणरिंद पयाय। पोराण चेइयाणियइइ एसा दसणे होइ ॥ ५१।। भावार्थ-भावना दो प्रकार की है,प्रशस्त भावना और अप्रशस्त भावना; तिनमें प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान,मधुन और परिग्रह तथा क्रोध,मान,माया और लोभ में प्रप्रशस्त भावना जाननी। यदुक्तं-"पाणवह मुसावाए अदत्तमेहुण परिग्गहे चेव। कोहेमाणे माया लोभेय हवंति अपसत्था॥" पौर दर्शन, धान, चारिच, तप, वैराग्यादिको प्रशस्तभावना जाननी तिनमे प्रथम दर्शनभावना जिससे दर्शन (सम्यक्त्त्व)कीशुद्धिहोती है,उसका वर्णन यास्त्रकार करते है। तित्थगराण भगवओ इत्यादि:तीर्थंकर भगवंत, प्रवचन, प्राचार्याटि युगप्रधान, अतिशय ऋवि मत-केवलज्ञानी मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वधारी, तथा आमर्पोषध्यादि ऋद्धिवाले, इनके सन्मुख जाना, नमस्कार करना, दर्शन वारना गुणेत्कीर्तन करना, गंधादिकसे पूजन करना,स्तोवादिकसे स्तवन करना इत्यादि दर्शनभावनाजाननी; निरंतर इसदर्शनभावना के भावनेसे दर्शनशुद्धि होती है,तथा तीर्थंकरोंकी जन्मभमिमें तथा निःक्रमण, दीक्षा, भामोत्पत्ति, पौर निर्वाण भूमिमें, तथा देवलोक भवनों में मंदिर (मेरुपर्वत) ऊपर, तथा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो प्रकारके तीर्थ शास्त्रमें कहे हैं (१) जंगमतीर्थ और (२) स्थावरतीर्थ,जंगमतीर्थ साधु,साध्वी,श्रावक और श्राविका चतुर्विध संघको कहते हैं और स्थावरतीर्थ श्रीशनुजय, गिरनार, आबु, अप्टापद, सम्मेदशिखर, मेरुपर्वत, मानुषोत्तरपर्वत, नंदीश्वरद्वीप, रुचकद्वीप वगैरह हैं,और तिनकी यात्राजंघाचारण विद्याचारणमुनि भी करते हैं, और तीर्थयात्रा का फल श्रीमहा कल्पादि शास्त्रों में लिखा है; परंतु जिसके हृदयकी आंख नहोवे उसको कहांसे दिखे और कौन दिखलावे ? जेठा लिखता है कि "पर्वत तो हट्टीसमान है वहां हुंडी शीकारने वाला कोई नहीं है" वाह ! इस लेखसे तो मालूम होता है कि अन्य मतावलंबी मिथ्याप्टियों की तरां जेठाभी अपने माने भगवान्को फल प्रदाता मानता होगा ! अन्यथा एसा लेख कदापि न नदीश्वर भादि दोषोम, पाताल भवनो में जो गास्वते चैत्य हे, तिन को में बदना करता , तथा इसी तरह प्रष्टापद उज्जयतगिरि (शत्रुजय तया गिरनार) जाग्रपद (दगार्णकूट) धर्मचक तक्षशिला नगरी में, तथा पहिच्छत्रा नगरी जहां धरणेंद्रने श्रीपार्श्वनाथ स्वामी की महिमा पारी थी, रथावर्त पर्वत जहा श्रीवजस्वामीने पादपोपगमन अनशन करा था, और जहा श्रीमहावीरस्वामीका शरण ले कर चमरेंद्रने इत्यतन करा था,इत्यादि स्थानोमें यथा संभव अभिगमन, बदम, पजन, गणोत्कीर्तनादि क्रिया कारनेसे दर्शन शुरि होती है तथा यह गणित विषय में बीजगणितादि (गणितान योग) का पारगामी है,पष्टांगे निमित्त का पारगामी है, दृष्टिपातोमा नाना विध युक्ति द्रव्य संयोगका जानकार है, तथा इमको सम्यकवसे देवता भी चलायमान नही कर मकते है,इसका जान यथार्थ है जैसे कथन करे हैं तैसे ही होता है इत्यादि प्रकार प्रावचनिक अर्थात् प्राचार्यादिक की प्रशसा करने से दर्शन शुधिहोती है इस तरह औरभी भाचार्यादिके गप्प महात्म्यके वर्णन करने से, तथा पूर्व मार्षियों के नामोत्कीर्तन करनेसे, तथा सरनरेंद्रादिकी करी तिगकी पूजाका वर्णन करने से,तथा चिरंतन चैत्याको पूजा करने से इत्यादि पाता क्रिया करने वाले जीवकी तथा पूर्वोक्त क्रिया की वासनासे वासित है अतःकरण जिमका उस प्राणी की सम्यक् शुषिोती है यह प्रशस्त दशन (सम्यक्व) सबंधी भावना जागनी, इति, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) लिखता,जैनशास्त्रमें तो लिखा है किजहांजहां तीर्थंकरोंके जन्मादि कल्पाणक हुए हैं सो सो भूमि श्रावकको प्रणाम शुद्धिका कारण होनेसे फरसनी चाहिये-यदुक्तं॥ निक्खामण नाण निव्वाण जम्मभूमीओ वंदडू जिणाणं। णय वसइ साहुजणविरहियम्मिदेसे बहगणेवि ॥ २५॥ . अर्थ-श्रावक जिनेश्वर संबंधी दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण और जन्म कल्याणक की भूमिको वंदन करे; तथा साधुके विहार रहित देशमें अन्य बहुत गुणोके होए भी वसे नहीं,यह गाथा श्रीमहावीरस्वामी के हस्त दीक्षित शिष्य श्रीधर्मदास गणिकी कही हुई है। . . __और जेठा लिखता है कि "संघ काढ़नेमें कुछ लाभ नहीं है, और संघ काढ़ना किसी जगह कहा नहीं है"इसके उत्तरमें लिखते है, कि जैनशास्त्रोंमें तो संघ निकालना बहुत ठिकाने कहा है, पूर्वकालमें श्रीभरतचक्रवर्ति, डंडवीर्यराजा,सगरचक्रवति,श्रीशांति जिनपुत्र चक्रायुध, रामचन्द्रतथा पांडवों वगैरहने और पांचवें आरे में भी जावडशाह, कुमारपाल, वस्तुपाल,तेजपाल,बाहडमंत्रि वगैरहने बडे आडबरसे संघनिकालकेतीर्थयात्रा करी है,और सो कल्याणकारिणी शुद्धपरंपरा अब तक प्रवर्तती है,तीर्थयात्रा निमित्त संघ निकलते हैं, श्रीजैनशासनकी प्रभावना होती है, शीशा आंखों वालेको उपयोगी होता है, आंधको नहीं, पालणपुर और पाली में दही,छाछ, खा पीके तपस्वी नामधारन करन हारे ऋखोंकीयात्रा करने वास्ते हजारों आदमी चौमासेके दिनो में हरि सबजी निगोद वगैरहके अनंते जीवोंकी हानि करते गये थे, और अद्यपि पर्यंत Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) घणे ठिकाने लोक ढूंढिये और ढूंढनियोंके दर्शनार्थ जाते हैं, तथा aasti देवजी रिखको वंदना करने वास्ते कच्छ मांडवीसे जानकी बाई संघ निकालके आई थी, उस वक्त उसको छैणे बजाते हुए, गुलाल उडाते हुए, बडी धूमधाम से सामेला करके नगर में ले आये थे, इस तरां कितने ही ढूंढीये श्रावक संघ निकाल निकालके जाते है, इसमें तो तुम पुण्य मानते हो कि जिसकी गतिका भी कुछ ठिकाना नहीं (प्रायः तो दुर्गति ही होनी चाहिये) और श्रीवीतराग भगवान् तो निश्चय मोक्ष ही गये हैं जिनका अधिकार शास्त्रों में ठिकाने ठिकाने है, तिनका सघ वगैरह निकालके यात्रा करनेमें पाप कहते हो सो तुमारा पाप कर्मका ही उदय मालूम होता है ॥ इति ॥ (७) श्री शत्रु जय शाश्वता है । सातवें प्रश्नोत्तर में जेठेने लिखा है कि "जम्बूद्वीप पन्नति सूत्र में कहा है कि भरतखंड में वैताढ्य पर्वत और गंगा सिन्धु नदी वर्जके सर्व छट्टे आरे में विरला जायेंगे, तो शत्रुंजय तीर्थ शाश्वता किस तरां रहेगा" इस का उत्तर - यह पांठ तो उपलक्षण मात्र है क्योंकि गंगासिन्धुके कुंड, ऋषभकूट पर्वत, (७२) बिल, गंगासिंधु की वेदिका प्रमुख रहेंगे तैसे शत्रुंजय भी रहेगा ! जेठा लिखता है कि "कि पर्वत नहीं रहेगा, ऋषभकूट रहेगा वाहरे दिनमें आंधे जेठे ! सूत्र में तो लिखा है उस भकूड पव्वय अर्थात् ऋषभकूट पर्वत ! और जेठालिखता है, ऋषभकूट पर्वत नहीं ! वाह ! धन्य है दुढियो तुमारी बुद्धि को ! और जो जेठेने लिखा है " शाश्वती वस्तु घटती बढ़ती नहीं है सो भी झूठ है क्योंकि गंगा सिंधुका पाट, भरतखंडकी भूमिका, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) गंगा सिंधु की वेदिका, लवण समुद्रका जल वगैरह बंधते घटते हैं; परन्तु ज्ञाश्वते हैं तैसे शत्रुंजय भी शाश्वता है जरा मिथ्यात्व की नींद छोड़के जागो और देखो !. फेर जेठा लिखता है " सब जगह सिद्ध हुए हैं तो शत्रुंजय की क्या विशेषता है " इसका उत्तरः तुम गुरु के चरणों की रज मस्तक को लगाते हो और सर्व जगत् की धूड़ (राख) तुमारे गुरु के चरणों करके रज होके लग चुकी है, इस वास्ते तुमारे मानने सूजिब सर्व धूड़ खाक टोकरी भर भरके तुमको अपने शिर में डालनी चाहिये; क्यों नहीं डालते हो ? हमतो जिस जगह सिद्ध हुए हैं, और जिनके नाम ठाम जानते हैं, तिनको तीर्थ रूप मानते हैं, और श्रीशत्रुंजय ऊपर सिद्ध होने के अधिकार श्री ज्ञातासूत्र तथा अन्तगड दशांग सूत्रादि अनेक जैन शास्त्रों में हैं ॥ तथा श्रीज्ञांतासूत्र में गिरनार और सम्मेदशिखर ऊपर सिद्ध होने के अधिकार हैं । इस चौबीसी के बीस तीर्थंकर सम्मेदशिखरऊपर मोक्ष पद को प्राप्त हुए हैं; श्रीजम्बूद्वीपपन्नन्ति में श्री ऋषभ देवजी का अष्टापद ऊपर सिद्ध होनेका अधिकार है ; श्री बासुपूज्य स्वामी चंपानगरी में और श्रीमहावीर स्वामी पात्रापरी में मोक्ष पधारे हैं इत्यादि सर्व भूमिका को हम तीर्थ रूप मानते हैं । P तथा तुमभी जिस जगह जो मुनि सिद्ध हुए होवें उनके नाम वगैरहका कथन बताओ, हम उस जगहको तीर्थ रूप मानेंगे क्योंकि हमतो तीर्थ मानते हैं, नहीं मानने वालेको मिथ्यात्व लगता है इति ॥ * विचारे कहा बतावें जिन चौबीस तीर्थंकरो को मानते हैं, उनका ही सार वर्णन इनके माने वत्तस शास्त्रों में नहीं है तो अन्यका तो क्याडी कहना, उ. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) कयबलिकम्मा शब्द का अर्थ आठवें प्रश्नोत्तरमें जेठेमूढमति ने 'कयबलिकम्मा'शब्द जो देवपूजाका वाचक है,तिसकाअर्थफिरानेके वास्तेजैसे कोई आदमी समुद्रमेंगिरे बाद निकलनेको हाथ पैर मारता है तैसे निष्फल हाथ पैर मारे हैं और अनजान जीवोको अपने फदेखें फंसानेके वास्ते विना प्रयोजन सूत्रोंके पाठ लिख लिख कर कागज काले किये है, तथापि इससे इसकी कुछभी सिद्धि होती नहीं है, क्योंकि तिसके लिखे (११) प्रश्नों के उत्तर नीचे मूजिव हैं। प्रथम प्रश्नमें लिखा है कि "भद्रा सार्थवाही ने बौड़ीमें किस की प्रतिमा पूजी" इसका उत्तर-बौडी में ताक आला गोख वगैरहमें अन्यदेव की मूर्तियां होंगी,तिसकी पूजा करी है, और बाहिर निकल के नाग भूतादि की पूजा करी है; इस में कुछ भी विरोध नहीं है, आज कालभी अनेक वौडियों में ताक वगैरहमें अन्यदेवों की मूर्तियां वगैरह होती हैं तथा वैश्नव ब्राह्मण बगैरह अन्य मतावलंबी स्नान करके उसी ठिकाने खडे. होके अंजलि करके देवको जल अर्पण करते हैं, सो बात प्रसिद्ध है, और यह भी बलि कर्म है दूसरे तीसरे प्रश्नमें लिखा है कि "अरिहंतने किसकी प्रतिमा पूजी" अरे मूढ टुढको ! नेत्र खोल के देखोगे, तो दिखेगा, कि सूत्रों में अरिहंत ने सिद्धको नमस्कार किये का अधिकार है, और गृहस्थावस्था में तीर्थंकर सिद्ध की प्रतिमा पूजते है इसी तरह यहां भी श्रीमल्लिनाथ स्वामीने कय बलिक्रम्मा शब्द करके सिद्ध की प्रतिमा की पूजा करी है। ४-५-६-७ में प्रश्न के अधिकार में लिखा है कि “मज्जन घर में किसकी पूजा करी" इसका उत्तर-जहां मज्जन घर है तहां Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ही देव गृह है, और तिसमें रही देवकी प्रतिमा पूजी है, देहरासर (मंदिर) दो प्रकार के होते हैं, घर देहरासर (घर चैत्यालय) और बड़ा मंदिर, तिनमें द्रोपदी ने प्रथम घर चैत्यालय की पूजा करके पीछे बडे मन्दिर में विशेष रीति से सतारां प्रकार की पूजा करी है आज काल भी यही रीति प्रचलित है बहुत श्रावक अपने घर देहरासर में पूजा करके पीछे बडे मंदिर में बन्दना पूजा करने को जाते हैं द्रोपदी के अधिकार में वस्त्र पहिनने की बाबत जो पीछे से लिखाहै सो बड़े मंदिरमें जाने योग्य विशेष सुन्दर वस्त्र पहिने हैं परन्तु "प्रथम वस्त्र पहिने ही नहीं थे, नग्नपणे ही स्नान करने को बैठी थी” ऐसा जेठेने कल्पना करके सिद्ध किया है, सो ऐसी महा विवेकवती राजपुत्री को संभवेही नहीं है, यह रूढी तो प्रायः आज कलकी निर्विकेकिनी स्त्रियों में विशेषतः है ।। * - ८ में प्रश्न में लिखा है कि "लकड़हारेने किसकी पूजा करी". इसका उत्तर साफ है कि बनमें अपनामाननीय जो देव होगातिस की उसने पूजा करी ॥ . ९ में प्रश्न में लिखा है कि " केशी गणधर ने परदेशी राजा को स्नान करके बलिकर्म करके देव पूजा करने को जावे,इसतरह कहा,तो तहां प्रथम किसकीपूजा करी" इसका उत्तर-प्रथम अपने घर में (जैसे बहुते वैश्नव लोक -अबभी देव सेवा रखते हैं तैसे ) _* कई विवेकवती स्त्रिया गाज कालभी नग्नपणें स्नान नहीं करती हैं, विशेष करके पूजा करनेवाली स्त्रियों को तो इस बात का प्रायः जरूर ही ख्याल रखना पड़ता है। और श्राद्ध विधि विवेक बिलासादि शास्त्रोंमे नग्नपणे स्नान करने की मनाई भी लिखी है दक्षिणी लोकों की औरतें प्रायः कपडे माहित ही स्नान करती हैं, अधिक वेपडद होना तो प्रायः पंजाब देश में ही मालूम होता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखे हुए देव की पूजा करके पीछे बाहिर निकलेकर बडे. देवस्थान में पूजा करने का कहा है ॥ १०-११ में प्रश्न में “कोणिक राजा और भरत चक्रचर्ति के अधिकार में कयबलिकम्मा शब्द नहीं है तो उन्होंने देव पूजा क्यों नहीं करी" इसका उत्तर-अरे देवानां प्रियो ! इतना तो समझो कि बन्दना निमित्त जाने की अति उत्सुकता के लिये उन्होंने देव पूजा उस वक्त न करी होवे तो उस में क्या आश्चर्य है ? तथा इस तुमारे कथन सेही कयवलिकम्मा शब्दका अर्थ देव पूजा सिद्ध होता है, क्योंकि कयवलिकम्मा शब्द का अर्थ तुम ढुढिये पाणी की करलियां करी' ऐसा करते हो तो क्या स्नान करते हुए उन्हों ने कुरलियां न करी होगी?नहीं करलियांतो जरूर करी होंगी,परन्तु पूर्वोक्त कारणमें देव पूजा न करी होगी; इसीवास्ते पूर्वोक्त अधिकार में कयवलिकम्मा शब्द शास्त्रकार ने नहीं लिखा है इसतरह हरएक प्रश्नमें कयबलिकम्मा शब्द का अर्थ देव पूजा ऐसा सिद्ध होता है तथा टीका में और प्राचीन लिखत के टव्वे में भी कयबलिकम्मा शब्द का अर्थ देव पूजा ही लिखा है तथा अन्यदृष्टान्तों से भी यही अर्थ सिद्ध होता है-यथाः-- (१) श्रीरायपसेणी सूत्र में सूर्याभ के अधिकार में जब सूर्याभ देवता पूजा करके पीछे हटा तब बधा हुआ पूजाका सामान उस ने बलिपीठ ऊपर रक्खा, ऐसा सूत्र पाठ है, तिस जगह भी पूजो पहार की पीठि का, ऐसा अर्थ होता है । . ...(२)यति प्रति क्रमणसूत्र(पगाम सिष्झाय)में मंडि पाहुडियाए वलि पाहुडियाए य हपाठहै,इसका अर्थभिखारियोंके वास्ते चपप्पणी वगैरहमें रखा हुआ अन्न साधुको नहीं लेना;तथा देवकैआगेधराया Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैवेद्य, अथवा तिसके निमित्त निकला अन्न साधु को नहीं लेना ऐसे होता है। (३) नाममाला वगैरह कोश ग्रन्थो में भी बलि शब्द का अर्थ पूजा कहा है-यतः- पूजाहणासपांचों उपहार बली समौ। ' (४) निशीथ चूर्णि तथा आवश्यक नियुक्ति में भी,बलि शब्द से देव के आगे धरने का नैवेद्य कहा है ॥, (५) वास्तुक शास्त्र में तथा ज्योतिःशास्त्र में भी घर देवता की पूजा करके भूतबलि देके घरमें प्रवेश करना कहा है-यतः गृह प्रवेशं सुविनीत वेषः सौम्येयने वासर पूर्व आगे। कुर्याद् विधा आलय देवताची कल्याणधिर्भत बलिक्रियां च । १॥ इस पाठ में भी बलि शब्द करके नैवेद्य पूजा होती है। ऊपर लिखे दृष्टान्तों से 'कयबलिकम्मा' (कृत बलि कर्मा) शब्द का अर्थ देव पूजा सिद्ध होता है , परन्तु मुर्ख शिरोमणि जेठे ने कय बलिकम्मा अर्थात् 'पाणी की करलियां करी' ऐसा अर्थ करो है सो महा मिथ्या है,तथा कय को उय मंगल अर्थात् "कौतुकमंगलीक पाणी की अंजलि भरके कुरलियां करी"ऐसा अर्थ करा . है, सो भी महा मिथ्या है, किसी भी कोष में ऐसा अर्थ करा नहीं है और न कोई पंडित ऐसा अर्थ करताभी है परन्तु महा मिथ्या दृष्टि ढूंढिये व्याकरण, कोष, काव्य,अलंकार,न्याय, प्रमुखके ज्ञाने बिना अर्थ का अनर्थ करके उत्सूत्र प्ररूप के अनन्त संसारी होते हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा नाममालामें कौयेको बलिभुक कहा है, तो क्या ढूंढियों के कहने मूजिव कोये पाणी की कुरलियां खाते हैं ? या पीठी खाते हैं ? नहीं, ऐसे नहीं है, किन्तु वे देवके आगे धरी हुई वस्तुके खाने वाले हैं; इस वास्ते इसका नाम बलिभुक है,और इस से भी बलिकम्मा शब्द का अर्थ देव पूजा सिद्ध होता है तथा जेठेने द्रौपदीके अधिकार में लिखा है कि "स्नान करके पीछे वटणा मला" देखो कितनी मूर्खता! स्नान करके वटणा मलना, यह तो उचित ही नहीं,ऐसी कल्पना तो अज्ञ बालक भी नहीं कर सकता है; परन्तु जैसे कोई आदमी एक वार झूठ बोलता है, उसको तिस झूठके लोपने वास्ते बारंबार झूठ बोलना पड़ता है, तैसेकेवल एक अर्थ के फिराने वास्ते जैसे मनमे आया तैसे लिखते हुए जेठे ने संसार वनेका जरासा भी डर नहीं रखा ॥ तथा जेठेने लिखा है कि "सम्यग्दृष्टि अन्य देवको पूजते हैं" सो मिथ्या है, क्योंकि अन्य देवको श्रावक पूजते नहीं हैं, मिथ्या दृष्टि पूजते हैं और जिस श्रावकने गुरुमहाराजके मुखसे षट् आगार सहित सम्यक्त्व उच्चारण करा होवे, सो शासन देवता प्रमुख सम्यग् दृष्टिकी भक्ति करता है, चोहसाधर्मीके संबंध करके करता है; और वो अन्य देव नहीं कहाता है, और जो कोई सम्यग्दृष्टि किसी अन्य देवको मानेगा तो वो यातोसम्यग्दृष्टिही देवता होगा. या कोई उपद्रव करने वाला देवता होगा, और उस उपद्रव करने वाले देवता निमित्त श्रावककों 'देवाभिओगणं' यह आगार है, परंतु तुंगीयानगरीके श्रावकोंवोच्चा कस्ट आनपड़ाथा,जो उन्होंने अन्य देवकी पूजाकरी ? जेठा वहता है “गांत्र देवताकी पूजाकरी" से किस पाठका अर्थ है ? गोत्र देवताकी किसी भी श्रावकने Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) पजाकरी होवे,तो सूत्रपाठ दिखाओ,मतलब यह कि जेठेने तुगीया. नगरीके श्रावकने घरके देवकी पूजाकरी, इस विषयमें जो कुतकें करी हैं, सो सर्व तिस की मूढता की निशानी है; तुंगीया नगरी के श्रावकने अपने घरमें रहे जिनभवनमें अरिहंतदेवकी पूजाकरी यह तो निःसंदेह है, श्रीउपासक दशांगसूत्र में आनंद श्रावकके अ. धिकारमें जैसापाठ है, तैसा सर्व श्रावकोके वास्ते जानलेना इस वास्ते मूढमति जेठने जो गोत्रदेवताकी पूजा तो श्रावकके वास्ते सिद्धकरी, और जिनप्रतिमाकी पूजा निषेधकरी, सो उसका महा मिथ्यादृष्टि पणेका चिन्ह है। इति॥ (e) सिद्धायतन शब्दका अर्थ नवमें प्रश्नोत्तर में जेठे मूढमति ने 'सिद्धायतन' शब्दके अर्थको फिराने वास्ते अनेक युक्तियां करी हैं, परंतु वे सर्व झूठी हैं क्योंकि 'सिद्धायतन' यह गुण निष्पन्न नाम है, सिद्ध कहिये शा. श्वती अरिहंतकी प्रतिमा, तिसका आयतन कहिये घर,सोसिद्धाय तन । यह इसकायथार्थ अर्थ है जेठेने सिद्धायतन नामगुण निष्पन्न नहीं है, इसकी सिद्धिके वास्ते ऋषभदत्त और संजति राजा प्रमुख का दृष्टांत दिया है, किजैसे यह नामगुण निष्यन्नमालूम नहीं होते हैं, तैसे सिद्धायतन भी गुण निष्पन्न नाम नहीं है, यह उसका लिखना असत्य है, क्योंकि शास्त्रकारीने सिद्धांतों में वस्तु निरूपण जो नाम कहे हैं वे सर्व नाम गुण निष्पन्न ही हैं, यथाः-- (१) अरिहंत, (२) सिद्ध, (३) आचार्य, (४) उपाध्याय, (५) साधु, (६) सामायिकचारित्र, (७) छेदों स्थापनीयचारित्र, (८) परि हार विशुद्धिचारित्र, (९) सूक्ष्मसंपरायचारित्र, (१०) यथाख्यातचा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रित्र, (११) जंबूद्वीप, (१२) लवणसमुद्र, (१३) धातुकीखंड, (१४) कालोदधिसमुद्र,(१५) घृतवरसमुद्र, (१६) दधिवरसमुद्र,(१७) क्षीर वरसमुद्र, (१८) वारुगीसमुद्र,(१९)श्रावकके बारहवत, (३१) श्राव' ककी एकादश पडिमा, (४२) एकादश अंगके नाम, (५३) बारह उपांगके नाम, (६५) चुल्लहिमवान् पर्वत, (६६) महाहिमवान् पर्वत, (६७) रूपीपर्वत, (६८) निषधपर्वत, (६९) नीलवंत पर्वत, (७०) नम्मुक्कार सहियं इत्यादि दश पञ्चक्खाण,(८०)छैलेश्या,(८६) आठ कर्म इत्यादि वस्तुयों के नाम जैसे गुणनिष्पन्न हैं, तैसे सिद्धायतन भी गुणनिष्पन्न ही नाम है ॥ . दूसरे लौकिक नाम कथा निरूपण ऋषभदत्त,संजतिराजा प्रमुख कहे हैं, वे गुणनिष्पन्न होवे भी और ना भीहोवे, क्योंकि वे नाम तो तिन के माता पिताके स्थापन किये हुए होते हैं। महापुरुष बावत लिखा है, सो वे महा पापके करनेशले थे, इसवास्ते महा पुरुष कहे हैं,तिसमें कुछ बाधा नहीं है,परंतु इसबात का ज्ञान जो जैनशैलिके जानकार होवें और अपेक्षा को समझने वाले होवें,उनको होता है, जेठमल सरिखे मृषावादी और स्वमति कल्पनासे लिखने वालेको नहीं होता है। अनुत्तर विमान के नाम गुण निष्पन्न ही हैं, और तिनका द्वीप समुद्र के नामों साथ संबंध होनेका कोई कारण नहीं है। श्रीअनुयोग द्वार सूत्रमें कहे गुणनिष्पन्न नामके भेदमें सिद्धा. यतन नामका समावेश होता है। ___ भरतादि विजयों में मागध१ वरदामर और प्रभास ३ यह तीर्थ कहे हैं, सो तो लौकिक तीर्थ हैं; इनको माननेका सम्यग् दृष्टि को क्या कारण है ? अरे मूढ ढूंढीयो ! कुछ तो विचार करो कि जसं Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) अन्यदर्शनियों में आचार्य, उपाध्याय, साध, ब्रह्मचारी आदि कहते है; और शास्त्रकारभी तिनको साधु कहकर बुलाता है, तो क्या इस से वे जैन दर्शन के साधु कहावेंगे? और वे वंदना करने योग्य होंगे? नहीं, तैसे ही मागधादि तीर्थ जान लेने। __ श्रीऋषभानन, (१) चंद्रानन, (२) वारिषेण, (३) और वर्द्धमान . (४) यह चार ही नाम शाश्वती जिन प्रतिमाके हैं, क्योंकि प्रत्येक चौवीसी में पंदरह क्षेत्रोंमें मिलाके यह चार नाम जरूर ही पाये जाते हैं, इस वास्ते इस बाबत का जेठेका लिखाण झूठा है। ___ तथा जेठा लिखता है कि "द्रोपदीके मंदिरमें प्रतिमा थी तो तिसको सिद्धायतन न कहा और जिन घर क्यों कहा" उत्तर-अरे मूढ ! जिनगृह तो अरिहंत आश्री नाम है, और सिद्धायतन सिद्ध आश्री नाम है। इसमें बाधा क्या है ? । फिर जेठा लिखता है “धर्मास्ति अधर्मास्ति वगैरह अनादि सिद्धके नाम कहकर तिनको सिद्ध ठहराके तुम वंदना क्यों नहीं करते हो" उत्तर-सिद्धायतन शब्दके अर्थ के साथ इनका कुछ भी संबंध नहीं है तो तिनको बंदना क्यों कर होवे ? कदापि ना होवे; परंतु तुम ढूंढिये नमोसिद्धाण'कहतहो तबतो तुम धर्मास्ति अधर्मा स्तिकोही नमस्कारकरतेहोगे! ऐसा तुमारेमत मूजिव सिद्ध होताहै । फिर जेठेने लिखाहै कि "अनंते कालकी स्थिति है, और स्वयं सिद्ध,विनाकरहुए,इस वास्तसिद्धायतन कहिये"उत्तर-अनादिकाल की स्थितिवाली और स्वयंसिद्ध ऐसी तो अनेक वस्तु यथा विमान, नरकावास, पर्वत, द्वीप, समुद्र, क्षेत्र, इनको तो किसी जगह भी सिद्धायतन नहीं कहा है। इस वास्ते जठेका लिखा अर्थ सर्वथा ही मारवती अमारवती.लिन प्रतिमा भात्री मामांतर भेद परतु प्रयोजन एकही है। - - - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) झूठा है । यदि ढूंढीय हृदय चक्षुको खोल के देखेंगे, तो मालूम हो जावेगा, कि केवल शाश्वती जिन प्रतिमाके भुवनको ही शास्त्रों में सिद्धायतन कहा हुआ है,और इसीवास्ते सिद्धायतन शब्दकाजोअर्थ टीकाकारोंने करा है,सो सत्य है और जेठेकाकरा अर्थसत्य नहीं है। और जेठे ने लिखा है कि "वैताढय पर्वतके ऊपरके नव कूटों में सेएकको ही सिद्धायतन कहाहै,शेष आठको नहीं;तिसका कारण यह है कि शेष क्ट देव देवी अधिष्ठित हैं,इस लिये उनके नाम और और कहे हैं और इस कूट ऊपर कुछ नहीं है, इसवास्ते इसको सिद्धायतन कूट कहा है"इसका उत्तर-अरे कुमतिओ ! बताओ तो सही, कहां कहाहै कि दूसरे कूटों पर देव देवियां हैं, और इसकूट ऊपर नहीं हैं, मनः कल्पित बाते बनाके असत्य स्थापन करना चा हते हो सोतो कभी भी होना नहीं है, परंतु ऊपरके लेखसे तो सिडायतन नामको पुष्टि मिलती है। क्योंकि जिस कूटके ऊपर सिद्धायतन होता है, उसही कूटको शास्त्रकारने सिद्धायतन कुट कहा है। तथा श्रीजीवाभिगम सूत्रमें सिद्धायतनको विस्तारपूर्वक अधिकार है, सो जरा ध्यान लगाके वांचोंगे तो स्पष्ट मालूम होजावेगा कि उसमें(१०८) शाश्वते जिनबिंबहै, और अन्यभी छत्रधार चामरधार वगैरह बहुत देवताओं की मूर्तियां हैं इससे यही निश्चित होता है कि सिद्ध प्रतिमाके भुर्वनको ही सिद्धायतन कहा है ॥ . __तथा कई ढूंढीये सिद्धायतनमें शाश्वती जिन प्रतिमा मानते हैं, और तिसको सिद्धायतन ही कहते हैं, परंतु जेठेने तो इसबात का भी सर्वथा निषेध करा है, इससे यही मालूम होता है कि बेशक जेठमल्ल महा भारी कर्मी था॥ इति ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) गौतम स्वामी अष्टापद पर चढे. दशवे प्रश्नमें जेठा कुमति लिखता है कि 'भगवंतने गौतमस्वामीको कहाकि तुम अष्टापद की यात्रा करो तो तुमको केवलज्ञान होवे " यह लिखना महा असत्य है शास्त्रों में तो ऐसे लिखा है कि "एकदा श्रीगौतमस्वामीभगवंतसे जुदे किसी स्थान में गये थे, वहां से जब भगवंतके पास आए तब देवता परस्पर बातें करते थे कि भगवंतने आज व्याख्यानावसरे ऐसे कहा है कि जो भूचर अपनी लब्धिसे श्रीअष्टापद पर्वतकी यात्राकरे सो उसी भवमें मुक्तिगामी होवे,यह बात सुनकर श्रीगौतमस्वामीने अप्टापद जानेकी भगवंतके पास आज्ञा मांगी तब भगवंतने बहुत लाभका कारण जानकर आज्ञा दीनी; जब यात्रा करके तापसोंको प्रतिबोध के भगवंतके समीप आए तब( १५०० ) तापसोंको केवलज्ञान प्राप्त हुआ जानकर श्रीगौतमस्वामी उदास हुए कि मुझे केवलज्ञान कब होगा ? तब श्रीभगवंतने द्रूमपत्रिका अध्ययन तथाश्रीभगवतीसूत्र में चिरसंसिटोसि मे गोयमा इत्यादि पाठोक्त कहके गौतमको स्वस्थ किया" यह अधिकार श्रीआवश्यक, उत्तराध्ययन नियुक्ति, तथा भगवतीवृत्तिमें कहा है,परंतु भाग्यहीन जेठेको कैसे दिखे?कौएका स्वभावही होता है कि द्राक्षाको छोड़कर गंदकीमें चुंजदेनी, जेठा लिखताहै कि भगवंतने पांच महावतऔर पंचवीस भावनारूप धर्म श्रेणिक,कोणिक, शालिभद्र,प्रमुखके आगे कहाहै परंतु जिनमंदिर बनवानेका उपदेश दिया नहीं है" यह लिखना मुर्खताईका है क्या इनके पाससे मंदिर बनवानेका इनकोहीउपदेश देना भगवंतकाकोई जरूरी काम था ? तथापि उनके बनाये जिनमंदिरोंका अधिकार सूत्रोमें बहुत जगह है तथा हि : Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआवश्यकसूत्र तथा योगशास्त्र में श्रेणिकराजाके बनाये जिनमंदिरोंका अधिकार है ।। श्रीमहानिशीथ सूत्र में कहा है कि जिनमंदिर बनवाने वाला वारवें देवलोक तक जाता है यत: काउंपिजिणाययणहिं, मंडियसव्वमेयणीव । दाणाइचउक्केग, सट्ठीगच्छेज्जअच्चुयंजावनपरं ॥ भावार्थ-जिनमंदिरों करके पृथिवी पट्टको मंडित करके और दानादिक चारों (दान, शील, तप, भावना) करके श्रावक अच्युत (वार) देवलोक तक जावे इससे उपरांत न जावे ।। श्रीआवश्यकसूत्रमें वरंगुर श्रावकने श्रीपुरिमतालनगरमें श्री मल्लिनाथजीका जिनमंदिर बनवाके घने परिवार सहित जिनपूजा करी ऐसा अधिकार है,यतःतत्तोयपरिमताले,वग्गरसाणअच्चएपडिमं। मल्लिजिणाययणपडिमा,अन्नाएवं सिबहुगोठ्ठी। श्रीआवश्यकमें भरतचक्रवर्त्तिके बनवाये जिनमंदिरका अधि कार है, यतःथभसयभाउगाणं, चौबीसं चेव जिणघरेकासि। सम्वजिणाणं पडिमा।वरण पमाणे हिंनियएहिं भावार्थ-एकसौ भाईके एकसौ स्तूप और चौवीस तीर्थकरके जिनमदिर उसमें सर्व तीर्थकरकी प्रतिमा अपने अपने वर्ण तथा शरीरके प्रमाणसहितभरतचक्रवर्तिनश्रीअष्टापदपर्वत ऊपरबनाई Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी सूत्र में उदायनराजाकी प्रभावती राणीने जिनमंदिर बन वाया और नाटकादि जिनपूजा करी ऐसा अधिकार है, यतःअंतेउरचयहरं कारियं पभावतिएगहातातिसंभंअच्चेइअन्नयादेवीणच्चरायावीणंवायेइ भावार्थ-प्रभावती राणीने अंतेउर (अपने रहने के महल) में चैत्यघर अर्थात् जिन मंदिर कराया, प्रभावती राणी स्नान करके प्रभात मध्यान्ह सायंकाल तीन वक्त तिस मंदिर में अर्चा (पूजा) करती है एकदा राणी नृत्य करती है और राजा आपवीणा वजाताहै, प्रथमानुयोगमें अनेक श्रावक श्राविकायोंका जिन मंदिर बनाने का तथा पूजा करनेका अधिकार है ।। इसी सूत्र में द्वारिका नगरी में श्रीजिनप्रतिमा पूजने का भी अधिकार है। शालिभद्र के घरमें जिनमंदिर तथा रत्नोंकी प्रतिमा थीं और वो मंदिर शालिभद्र के पिताने अनेक द्वारों करके सुशोभित देव वि. मान करके सदृश्य बनाया था। "यतः शालिभद्र चरित्रे" प्रधानानेकधारत्न मयाईविम्बहेतवे। देवालयं च चक्रसौ निजचैत्य गृहोपमम्॥५० ऊपर मुजिब कथन है तो क्या जेठेमूढमतिने शालिभद्रका चरित्र नहीं देखा होगा ? कदापि दूढिये कहें कि हम शालिभद्र का।चरित्र नहीं मानते हैं * तो बत्तीस सूत्रमें शालिभद्रका अधिकार * बत्से टूढियशान्ति ट्रमा अधिकार मानते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवार कहा है सो तो दीक्षा लेने समयका है परंतु ग्रंथों में५०००० केवली की कुल संपदा गौतमस्वामीकी वर्णन करी है। (११) नमत्थणं के पीछले पाठकी बाबत जेठा मूढमति ११ वें प्रश्नमें लिखता है कि "नमुत्थुणंमें अधिक पद डाले हैं यह लिखना जेठमलका असत्य है, क्योंकि हमने नमुत्थुणं में कोई भी पद वधाया नहीं है, नमुत्थुणंतो भाव अरिहंत विद्यमानों की स्तुति है,और जो अंतकी गाथा है सो द्रव्य अरिहंतकी स्तुति है ढूंढिये द्रव्य अरिहंतको बंदना करनी निषेध करते हैं, क्योंकि दुढिये उनको असंजती समझते हैं इससे मालूम होता है कि ढूंढियोंकी बुद्धिही भ्रष्ट होई हुई है। - श्रीनंदिसूत्रमें २६ आचार्य जिनमें २४ स्वर्गमें देवता हुए हैं तिनको नमस्कार करा है तो नमुत्थुणके पिछले पाठमें क्या मिथ्या है ? जेकर ढूंढिये इसीकारणसे नंदिसूत्रको भी झूठा कहेंगे,तो जरूर उन्होंने मिथ्यात्व रूप मदिरापान करके झूठा बकवाद करना शुरु किया है ऐसे मालूप्न होवेगा, तथा अपने गुरु को जो मरभए हैं और जो जिनाज्ञाके उत्थापकनिन्हवहोनेसे हमारी समझ मुजिब तो नरक तिर्यंचादि गतिमें गये होवेंगे, मूर्ख दढिये उन को देवगति में गये समझ कर उनको वंदना क्यों करते हैं ? क्योंकि वो तो असंयती, अविरति, अपञ्चरवाणी हैं ! कदापि ढूंढिये कहें, कि हमतो गुरुपदको नमस्कार करते हैं, तो अरे मूढों हमारी बंदना भी तो तीर्थंकर पदको ही है और सो सत्य है तथा इसीसे द्रव्य निक्षेपाभी बंदनीक सिद्ध होता है ।। श्रीआवश्यकसूत्रमें नमुत्थुणंकी पिछली गाथा सहित पाठ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है,और उसी मूजिब हम कहते हैं,इसवास्ते जेठे कुमतिका लिखना विलकुल मिथ्या है ॥ प्रश्नके अंतने नमुत्थुणं इंद्रने कहा है,इस बाबत निःप्रयोजन लेख लिखकर जेठमलने अपनी मूढता जाहिर करी है। प्रश्नके अंतर्गत द्रव्य निक्षेपा बंदनीक नहीं है ऐसे जेठेने ठहराया है सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि श्रीठाणांगसूत्रके चौथे ठाणेमें चार प्रकारके सत्य कह हैं यतःचउठिवह सच्चे पराणत्ते।नामसच्चे, ठवणा सच्चे, दव्वसच्चे, आवसच्चे। अर्थ-चार प्रकारके सत्य कहे हैं (१) नामसत्य, (२)स्थापना सत्य, (३) द्रव्यसत्य (४) भावसत्य इस सूत्रपाठमें द्रव्य सत्यकहा है और इससे द्रव्य निक्षेपा सत्य है ऐसे सिद्ध होता है। जेठमल ने लिखा है कि "आगामी काल के तीर्थंकर अब तक अविरति,अपच्चक्खाणो चारों गतिमें होवें उनको बंदना कैसे होवे ?"उत्तर-श्रीमदेवजीक समय में आवश्यक में चउविसस्था था या नहीं ? जेकर था,तो उसमें अन्य २३ तीर्थकरोंको श्रीऋषभ देव जी के समय के साधु श्रावक नमस्कार करते थे कि नहीं? ढूंढियों के कथनानुसार तो वो अन्य २३ तीर्थकर बंदनीक नहीं हैं ऐसे ठहरता है और श्रीअभदेव भगवान् के समय के साधु श्रावक तो चउविसत्था कहते थे और होनेवाले २३ तीर्थकरोंको नमस्कार करतेथे,यह प्रत्यक्ष है, इसवास्ते अरे मढदंडियों! शास्त्रकारने द्रव्य निक्षेपा बंदनीक कहा है इस में कोई शक नहीं है, जरा अंतान हो कर विचार करो और कुमत जाल को तजो॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२)चारोंनिक्षेपेअरिहंत बंदनीक हैं इसबाबत। बारवें प्रश्न की आदि में मूढमति जेठमलने अरिहंत आचार्य और धर्म के ऊपर चार निक्षेपे उतारे हैं सो बिलकुल झूठे हैं,इस तरह शास्त्रों में किसी जगह भी नहीं उतारे हैं। और नाम अरिहंतकी बाबत ऋषभोशांतो नेमोवीरो” इत्यादि नाम लिख कर जेठे ने श्रीवीतराग भगवंत की महा अवज्ञा करी है सो उसकी महा मूढ़ताकी निशानी है और इसी वास्ते हमने उसको मदमति का उपनाम दिया है ।। . जेठमल ने लिखा है, कि "केवल भाव निक्षेपा ही बंदनीक है अन्य तीन निक्षेपे बंदनीक नहीं हैं परंतु यह उसका लिखना सिद्धांतों से विपरीत है,क्योंकि सिद्धांतों में चारों निक्षेपे बंदनीक जेठे निन्हवने लिखा है कि "तीर्थंकरोंके जो नाम हैं सो नाम । संज्ञा है नाम निक्षेपा नहीं,नाम निक्षेपा तो तीर्थंकरोंके नाम जिस अन्य वस्तु में होवे सो है" इस लेख से यही निश्चय होता है कि जेठे अज्ञानीको जैनशास्त्रोंकाकिंचितमात्रभी बोध नहीं था,क्योंकि श्रीअनुयोगद्वार सूत्र में कहा है, यतः:_जत्थ य ज जाणज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्थविय न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ॥६॥ अर्थ-जहां जिस वस्तुमें जितने निक्षेपे जाने वहां उस वस्तु में उतने निक्षेपे करे, और जिस वस्तुमें अधिक निक्षेप नहीं जान Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( e) सके तो उस वस्तुमें चार निक्षेपे तो अवश्य करे॥ अब विचारना चाहिये कि शास्त्रकारने तो वस्तुमें नाम निक्षेपा कहा है और जेठा मूढमति लिखता है कि जो वस्तुका नाम है सो नाम निक्षेपा नहीं, नाम संज्ञा है तो इस मंदमतिको इतनी भी समझ नहीं थी,कि नाम संज्ञामें और नाम निक्षेपेमें कुछ फरक नहीं है ? श्रीठाणांगसत्रके चौथे ठाणेमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव यह चार प्रकारकी सत्यभाषा कही है जो प्रथम लिख आए है __श्रीठाणांगसूत्रके दशमें ठाणेमें दशप्रकारका सत्य कहा है तथा श्री पन्नवणाजीसूत्रके भाषा पदमें भी दश प्रकारके सत्य कहे हैं उनमें स्थापना सच्च कहा है सो पाठ यह है ॥ दसविई सच्चे पण्णत्ते तंजहा । जणवय सम्मय ठवणा, नामे रुवे पडुच्चसच्चेया वव हार भाव जोए, दसमे उवम्मसच्चेय। अर्थ-दश प्रकारके सत्य कहे हैं, तद्यथा । (१) जनपदसत्य (२) सम्मतसत्य, (३) स्थापनासत्य, (४) नामसत्य, (५) रूपसत्य, (६) प्रतीतसत्य, (७) व्यवहारसत्य, (८) भावसत्य, (९) योगसत्य और (१०) दशमा उपमासत्य ॥ इस सत्र पाठसे स्थापना निक्षेपासत्य और बंदनीक ठहरता है, तथा चौवीस जिनकी स्तवना रूप लोगस्सका पाठ उच्चारण करते हुए ऋषभादि चौवीस प्रभुके नाम प्रकटपने कहते हैं और बंदना करते हैं सो बंदना नाम निक्षेपेको है । तथा श्रीऋषभदेव भगवान्के समयमें चौवीसत्या पढ़ते हुए अन्य २३ जिनको द्रव्य Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप बंदना होतीथी और काउसग करनेके आलावेमें “अरिहंतः चेइयाणं करेमिकाउसग्गं बंदणवत्तिआए" इत्यादि पाठ पढते हुए स्थापना निक्षेपा बंदनीक सिद्ध होता है और यह पाठ श्रीआवश्यक सूत्रमें है, इस आलावे को ढूडिये नहीं मानते हैं इस वास्ते उन के मस्तक पर आज्ञाभंग रूप वज्रदंडका प्रहार होता है ॥ श्रीभगवतीसूत्रकी आदिमें श्रीगणधरदेवने ब्राह्मी लीपिको नमस्कार करा है सो जैसे ज्ञानका स्थापना निक्षेपाबंदनीक है तैसे हीश्रीतीर्थंकरदेवका स्थापनानिक्षेपाभीबंदना करने योग्य है। तथा अरे दढियो ! तुम जब "लोगस्सउज्जोअगरे” पढते हो तब "अरिहंते कित्तइस्सं इस पाठसे चौवीस अरिहंतकी कीर्तः ना करतेहो,सो चौवीस अरिहंत तो इस वर्तमानकालमें नहीं हैं तो तुम बंदना किनको करतहो ? जेकर तुम कहोगे कि जो चौवीस प्रभु मोक्षमें हैं उनकी हम कीर्तना करते हैं तो वो अरिहंत तो अब सिद्ध है इसवास्ते “सिद्धे कित्तइस्लं" कहना चाहिये परंतु तुम ऐसे कहते नहीं हो ? कदापि कहोगे कि अतीत कालमें जो चौवीस तीर्थंकर थे उनको बंदना करते हैं तो अतीत कालमें जो वस्तु हो गई सो द्रव्य निक्षेपा है और द्रव्यनिक्षेपे को तो तुम बंदनीक नहीं मानते हो, तो बतावो तुम बंदना किनको करते हो ? जेकर ऐसे कहोगे कि अतीत कालमें जैसे अरिहंत थे तैसे अपने मनमें कल्पना करके बंदना करते है, तो वो स्थापना निक्षेपा है, और स्थापना निक्षेपा तो तुम मानते नहीं हो, तो बताओ तुम बंदना किन को करते हो ? अंतमें इस बात का तात्पर्य इतना ही है कि ढूंढिये अज्ञानके उदयसेऔर द्वेष बुद्धिसे भाव निक्षेपे बिना अन्य निक्षेपे बंदनीक नहीं मानते हैं परंतु उनको बंदना जरूर करनी पड़ती है .. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a) और स्थापना अरिहंत को आनंद श्रावक, अंबड तापस, महासती द्रौपदी, वग्गुर श्रावक, तथा प्रभावती प्रमुख अनेक श्रावक श्राविकाओं ने ओर श्रीगौतमस्वामी, जंघाचारण, विद्याचारणादि अनेक मुनियोंने, तथा सूर्याभ, विजयादि अनेक देवताओंने वंदना करी है, तिनके अधिकार सूत्रों में प्रसिद्ध हैं, श्रीमहानिशीथ सूत्रमें कहा है कि साधु प्रतिमाको वंदना न करे तो प्रायश्चित्त आवे, इस तरह नाम और स्थापना वंदनीक हैं, तो द्रव्य और भाव वंदनीक हैं इस में क्या आश्चर्य ! जेठमल लिखता है कि "कृष्ण तथा श्रेणिक को आगामी चौवीसी में तीर्थंकर होने का जब भगवंतने कहा तब तिनको द्रव्य जिन जानकर किसीने वंदना क्यों नहीं करी ?" - यह लिखना बिलकुल विपरीत है क्योंकि उस ठिकाने वंदना करने वा न करने का अधिकार नहीं है, तथापि जेठे ने स्वमति कल्पना से लिखा है, कि किसी ने वंदना नहीं करी है तो बताओ ऐसे कहां लिखा है ?* और मल्लिकुमारी स्त्री वेषमें थी इस वास्ते वंदनीक नहीं, तैसे ही तिसकी स्त्रीवेष की प्रतिमा भी वंदनीक नहीं तथा स्त्री तीर्थंकरी का होना अछेरे में गिना जाता है, इस वास्ते सो विध्यनुवाद में नहीं आता है ॥ तथा जेठे ने भद्रिक जीवों को भूलाने वास्ते लिखा है, कि * " श्रीप्रथमानुयोग" शास्त्र जिसमें इतनी बातों का होना "श्रीसमवायांगसूत्र” तथा "श्रीनंदिसूत्र” मैं फरमाया है । तथा हि सेकित मूलढमाणुओगे पत्थण अरहंताणं भगवंताणं पूव्व भवा देवलो गगमणाणि आउचवणाणि जम्मणाणिअ अभिसेय रायवरसिरीओसीआओ पव्वज्जाओतवोयभत्ता केवलणाणुपाओतित्थपवत्तणा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) उपकरणादि भेष रखते हो, परंतु शुद्ध परंपराय वाले सम्यग्दृष्टि श्रावक तुमको मानते नहीं हैं;तैसे ही जमाली गोशाला प्रमुख का भी जान लेना,तथा तुमारे कुपंथ में भीजो फंसे हुए है,जब उनको यथार्थ शुद्ध जैनधर्मका ज्ञान होताहै,उसी समय जमालीके शिष्यों कितरांतुमको छोडके शुद्ध जैन मार्ग को अंगीकार कर लेते हैं, और फेर वोह तुमारे सन्मुख देखना भी पसंद नहीं करते हैं। फेर जेठा लिखता है कि "जैसे मरे भरतार की प्रतिमा से स्त्री की कुछ भी गरज नहीं सरती है,तैसे जिन प्रतिमा से भी कुछ गरज नहीं सरती है,इसवास्ते स्थापना निक्षेपा वंदनीक नहीं है" इस का उत्तर-जिस स्त्री का भरतार मरगया होवे,वोह स्त्री जेकर आसन बिछा कर अपने पति का नाम लेवेतो क्या उसकी भोगवा पुत्रोत्पत्ति आदि की गरज सरे? कदापि नहीं, तबतो तुम ढूंढकों को चउवीस तीर्थंकरों का जाप भी नहीं करना चाहिये,क्योंकि इस से तुमारे मत मूजिब तुमारी कुछ भी गरज नहीं सरेगी, वाहरे जेठे मूढमते ! तैंने तो अपने ही आप अपने पगमें कुहाड़ा मारा इतना ही नहीं,परंतु तेरा दिया हष्टांत जिन प्रतिमा को लगताही नहीं है। फेर जेठमलजी कहते हैं कि " अजीव रूप स्थापना से क्या फायदा होवे?" उत्तर-जैसे संयम के साधन वस्त्र पात्रादिक अजीव हैं, परंतु तिससे चारित्र साध्या जाता है, तैसे ही जिन प्रतिमा की स्थापना ज्ञान शुद्धि तथा दर्शन शुद्धि प्रमुखका हेतु है जिसका अनु. भव सम्यग् दृष्टि जीवों को प्रत्यक्षहै, तथा जैन शास्त्रों में कहा है कि लड़के रस्ते में लकड़ीका घोड़ा बनाके खेलते होवें, तहां साधु जा निकलें, तो "तेरा घोड़ा हटा ले" ऐसे उसको घोड़ा कहे,परंतु लकड़ी ना कहे,यदि लकड़ी कहे तो साधुको असत्य लगे, इस बात Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) को प्रायः ढूंढिये भी मानते हैं तो विचारना चाहिये कि इस में घोड़ा पन क्या है ? परन्तु घोड़े की स्थापना करी है तो उस को घोड़ा ही कहना चाहिये, इसवास्ते स्थापना सत्य समझनी । तथा तुम ढूंढिये खंड के कुत्ते, गौ, भैंस, बैल, हाथी, घोडे., सुअर, आदमी, वगैरह खिलौने खाते नहीं हो, तिन में जीव पना तो कुछ भी नहीं है, परंतु जीवपने की स्थापना है, इस वास्ते खाने योग्य नहीं है, * क्योंकि इस से पंचेंद्री जीव की घात जितना पाप लगता है, ऐसे तुम कहते हो तो इस कथनानुसार तुमारे मानने मूजिब ही स्थापना निक्षेपा सिद्ध होता है। तथा श्री समवायांग सूत्र, दशाश्रुतस्कंध सूत्र, दशवैकालिकादि अनेक सूत्रों में तेतीस आशातना में गुरु सबंधी पाट, पीठ, संथारा प्रमुखको पैरलग जावे,तो गुरुकी आशातना होवे,ऐसे कहा है, इस पाठ से भी स्थापना निक्षेपा वंदनीक सिद्ध होता है, क्योंकि यह वस्तु भी तो अजीव हैं,जैसे पर्वोक्त वस्तुओं में गुरुकी स्थापना होने से अविनय करने से शिष्य को आशातना लगती है, और विनय करनेसे शिष्यको शुभफल होताहै;एसेही श्रीजिन प्रतिमाकी स्थापना से भी जानलेना ॥ तथा देवताओंने प्रभु की वंदना पूजा करी उस को जीत आचार में गिनके उस से देवता को कुछभी पुण्य बंध नहीं होताहै ऐसा सिद्ध किया है, परंतु अरे मूर्ख शिरोमणि ढूंढको! जीत आचार किसको कहतेहै?सो भी तुम समझते नहीं हो, ___कितनेक अज्ञानी हँढिये जिन प्रतिमा के हेष से आज काल इस बात को भी मानने से इनकारी होते हैं, यथा जिला लाहौर मुकाम माझा पट्टी में सिरीचद नामा ढूंढक साधुको एक मुगल ने पूछा कि आप कुत्ते, गो, भैस; वैत, वगैरह खड के खिलौने खाते हैं ? जवाब मिला कि बड़ी खुशी से वाह ! अफसोस !!! Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) और कुछ भी न बन आवे, तो इतना तो अवश्यमेव करना तिसका नाम "जीत आचार" जैसे श्रावकों का जीत आचार है कि मदिरा का पान नहीं करना, दो वक्तप्रतिक्रमण करना वगैरह अवश्यकरणीय है, तो उस से पुण्य बंध नही होता है, ऐसे किस शास्त्र में है ? इस सेतो अधिक पुण्यका बंध होता है, यह बात निःसंशय है। तथा श्री जंबूद्वीपपन्नत्ति में तीर्थकरके जन्म महोत्सव करने को इंद्रादिक देवते आए हैं, तहां एकला जीत शब्द नहीं है, किंतु वंदना, पूजना भक्ति, धर्मादिको जानके आए लिखा है; और उववाइ सूत्रमें जब भगवान् चपानगरी में पधारे थे तहां भी इसी तरे का पाठ है परंतु जेठेमूढ़ मतिको दृष्टि दोष से यह पाठ दिखा मालूम नहीं होता है ॥ तथा मूर्ख शिरोमणि जेठा लिखता है कि " बनीये लोग अपना कुलाचार समझ के मांस भक्षण नहीं करते हैं, इसवास्ते तिनको पुण्य बंध नहीं होता है" इस लेखसे जेठेने अपनी कैसी मूर्खतादिखलाई है सो थोडे से थोड़ी बुद्धि वाले को भी समझ में आजा वे ऐसी है । अरे ढूंढियो ! तुमारे मन से तुमको तिस वस्तु के त्यागने से पुण्य का बंध नहीं होता होगा. परंतु हमतो ऐसे समझते हैं कि जितने सुमार्ग और पुण्य के रस्ते हैं वे सर्व धर्म शास्त्रानुसारही हैं, इसवास्ते धर्म शास्त्रानुसारही मांस मदिरा के भक्षणमैं पापहै, यह स्पष्ट मालूम होता है, और इस वास्ते सर्व श्रावक तिनका त्याग करते हैं, और पूर्वोक्त अभक्ष्य वस्तुके त्यागने से महा पुण्य बांधते हैं। तथा नमुथ्थुणं कहने से इंद्र तथा देवताओंने पुण्यका बंध किया है यह बात भी निःसंशय है तथा इंद्र ने भी शुभ कराके महा पुण्य उपार्जन करा है, और Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (द ) अन्य श्रावकोंने तथा राजाओं ने भी जिनमंदिर कराये हैं, और उस से सुगतिप्राप्त करी है; जिसका वर्णन प्रथम लिख चुके हैं, फेर जेठा लिखताहै कि जिन प्रतिमा देखके शुभ ध्यान पैदा होता है, तो मल्लिनाथजी को तथा तिनकी स्त्रीरूपकी प्रतिमा को देख के राजे कामतुर क्यों होए ? इस वास्ते स्थापना निक्षेपा वंदनीक नहीं " उत्तर- महासती रूपवंती साध्वी को देखके कितने ही दुष्ट पुरुषों के हृदय में काम विकार उत्पन्न होता है, तो इस करके जेठे की श्रद्धा के अनुसार तोसाध्वी भी वंदनीक न ठहरेगी ? तथा रूपवान् साधु को देख के कितनीक स्त्रियों का मन आसक्त हो जाता है बलभद्रादिमुनि वत्, तो फेर जेठे के माने मूजिब तो साधु भी वंदनीक न ठहरेगा? और भगवान् ने तो साधु साध्वी को वंदना नमस्कार करना श्रावक श्राविकाओं को फरमाया है; इस वास्ते पूर्वोक्त लेखसेंजेठा जिनाजाका उत्थापक सिद्ध होता है परंतु इसवात में समझने का तो इतनाही है कि जिन दुष्ट पुरुषों को साध्वी को देखके तथा जिन दुष्ट स्त्रियों को साधु को देखके काम उत्पन्न होताहै,सो तिन को मोहनी कर्म का उदय और खोटी गतिका बंधन है; परंतु इससे कुछ साधु, साध्वी अदनीक सिद्ध नहीं होते हैं, तैसेहीमल्लिनाथजीको तथातिनकी स्त्रीरूपकी प्रतिमा को देखके ६ राजे कामातुर होए, सो तिन को मोहनी कर्म का उदय है; परंतु इससे कुछ द्रव्य निक्षेपा तथा स्थापना निक्षेपो अवं दनीक सिद्ध नहीं होता है,तथा अनार्य लोकोंको प्रतिमा देखके शुभ ध्यान क्यों नहीं होताहै? ऐसे जठेने लिखा है,परंतु तिसका कारण तो यह है कि तिसने प्रतिमाको अपने शुद्ध देवरूप करके जानी नहीं है, यदि जानलेवेतो तिनको शुभ ध्यान पैदा होवे,और वे आशातना Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) भी करे नहीं साधुवत् ॥ तथा श्रीउववाइ सूत्र में कहा है कितं महाफलं खलु अरिहंताणं भगवंताणं नाम गोयस्सवि सवण्याए ॥ अर्थ - अरिहंत भगवंत के नाम गोत्र के भी सुनने से निश्चय महाफल होता है इत्यादि सूत्र पाठ से भी नाम निखेपा महाफल दायक सिद्ध होता है | अरेढूंढो ! ऊपर लिखी बातोंको ध्यान देकर वांचोगे, और विचार करोगे तो स्पष्ट मालूम होजावेगा कि चारों ही निक्षेपे वंदनीक हैं; इस वास्ते जेठमल जैसे कुमतियों के फंदे में न फंसके शुद्ध मार्ग को पिछान के अंगीकार करो, जिससे तुमारे आत्माका कल्याण होवे ॥ ॥ इति ॥ 10 (१३) नमुना देखके नाम याद आता है । जेठा मूढमति तेखें प्रश्नोत्तर में लिखता है कि "भगवंतकी प्रतिमा को देखके भगवान् याद आते हैं, इसवास्ते तुम जिनप्रतिमा को पूजते हो तो करकडु आदिक बैल प्रमुख को देखके प्रतिबोध होए है, तो उन बैल प्रमुखको वंदनीक क्यों नहीं मानते हो ? तिसका उत्तरअरे ढूंढको ! हम जिसके भाव निक्षेपे को वांदते पूजते हैं, तिसके ही नामादि को पूजते हैं; और शास्त्रकारों ने भी ऐसे ही कहा है, हम भाव बैलादि को पूजते नहीं हैं; और न पूजने योग्य मानते हैं, इसी वास्ते तिनके नामादिको भी नहीं पूजते हैं परंतु तुमारे माने बत्तीस सूत्रों में तो करकंडु, दुमुख, नमिराजा, और नगइ राजा, क्या क्या * श्री रायप सेषी सूत्र तथा श्री भगवती सूत्र में भी ऐसे ही कहा है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2 ) देखके प्रतिबोध हाय; सो है नहीं और अन्य सूत्र तथा ग्रंथों को तो तुम मानते नहीं हो तो यह अधिकार कहांसे लाके जेठेने लिखा है सो,दिखाओ? तथा जेठा लिखता है कि " सूत्रोंमें चंपा प्रमुख नगरियों की सर्व वस्तुयों का वर्णन करा, परंतु जिन मंदिर का वर्णन क्यों नहीं करा? यदि होता तो करते,इसवास्ते उसवक्त जिनमंदिरथेही नहीं" तिसकाउत्तर-श्रीउववाइ सूत्रमें लिखा है कि चंपानगरी में "बहुला अरिहंत चेइआई" अर्थात् चंपानगरीमें बहुत अरिहंत के मंदिर हैं। तथा श्रीसमवायांग सूत्र में आनंदादिक दशश्रावकोंके जिन मंदिर कहे हैं,और आनंदादिकों ने वांदे पूजे हैं इत्यादि अनेक सूत्रपाठ हैं; तथापि मिथ्यात्वके उदयसे जेठको दीखा नहीं है तो हम क्या करें? फेर जेठो लिखता है "आज काल प्रतिमाको वंदने वास्ते संघ निकालते हो तोसाक्षात भगवंतको वंदने वास्ते किसीश्रावकने संघ क्यों नहीं निकाला"? तिसका उत्तर-भगवंतको वंदना करने पूजा करने को इकठे होकर जाना उसका नाम संघ है,सो जब भगवंत विचरते थे तब जहां जहां समवसरे थे तहां तहां तिस तिस नगरके राजा,राजपुत्र, सेठ,सार्थवाह प्रमुख बड़े.आडंबरसे चतुरंगिणी सेना सजके प्रभुको वंदना करने वास्ते आयेथे; सो भी संघही है जिनके अनेक दृष्टांत सिद्धांतों में प्रसिद्ध हैं तथाभगवंत श्रीमहावीरस्वामी पावापरीमें पधारे तब नव मलेच्छी जातिके और नवलेच्छी जातिके एवं अठारां देशके राजे इकठे होकर प्रभु को वंदना करने वास्ते आये हैं तिनको भी संघही कहते हैं, परंतु जेठेको संघशब्द के अर्थ की भी खबर नहीं मालूम देती है, तथा प्रभु जंगम तीर्थ थे ग्रामानुग्राम विहार करते थे, एक ठिकाने स्थायी रहना नहीं था। इससे तिनको Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णेगमेषीकी प्रतिमाकी आराधना करने से हरिणैगमेषीदेव अराध्य हुआ, तैसेही जिनप्रतिमाको वंदन पूजनादिकसे आराधनेसेसो भी सम्यग्दृष्टि जीवों को आराध्य होता है। तथा जेठमल लिखता है कि "प्रतिमाको वदना करने वास्ते संघ निकालना किसी जगह भी नहीं कहा है" तिस का उत्तर तो हम प्रथम लिख चुके हैं परंतु जब तुमारे साधु साध्वी आते हैं तब तुम इकठे होके लेनेको जाते हो और जब जाते हैं तब छोड़ने को जाते हो, तथा मरते हैं तब विमान वगैरह बना के घणे आदमी इकठे होकर दुसाले डालते हो, जलाने जाते हो तथा कई जगह पूज्य की तिथि पर इकठे होकर पोसह करते हो, इस तरां आनंद कामदेवादि श्रावकोंने, सिद्धांतों में किसी जगह करा कहा होवे तो बताओ ? और हमारे श्रावकजो करते हैं,सो तो सूत्र पंचांगी तथा सुविहिताचार्य कृत ग्रंथों के अनुसार करते हैं। ॥इति ॥ (१४)नमो बंभीए लिवीए इस पाठ का अर्थ। . चौदहमें प्रश्नोत्तर में जेठे मूढमति ने लिखा है कि "भगवती सूत्र की आदि में (नमो बंभीए लिवीए) इस पाठ करके गणधरदेव ने ब्राह्मीलिपीके जाणनहार श्रीऋषभदेव को नमस्कार करा है, परंतु अक्षरोंको नमस्कार नहीं करा है। इस बात ऊपर अनुयोगद्वार सूत्रकी साख दी है कि जैसे अनुयोगद्वारमें पाथेका जाणनहार पुरुष सोही पाथा,ऐसे कहा है; तैसे ही इस ठिकाने भी लिपी का जाणनहार पुरुष, सो लिपी कहिये,और तिसको नमस्कार करा है" उत्तर-जो लिपी के जाणनहार को नमस्कार करा होवे तब तोभंगी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमार,फरंगी,मुसलमानादिक सर्व ढुंढकोंके बंदनीकठहरेंगे,क्योंकि वोह सर्व ब्राह्मीलिपीको जानते हैं, यदि नैगमनयकी अपेक्षाकहोगे कि ब्राह्मीलिपी के बनानेवालों को नमस्कार करा है तो शुद्ध नैगम नयके मतसे सर्व लिखारी तुमको वंदनीक होंगे,जेकर कहोगे इस अवसर्पिणी में ब्राह्मीलिपी के आदि कर्ता को नमस्कार करा है, तब तो जिस वक्त श्रीऋषभदेव जी ने ब्राह्मीलिपी बनाई थी,उस वक्त तो वो असंयती थे और असंयतिपने में तो तुम वंदनीक मानते नहीं हो तो फेर 'नमो बंभीए लिवीए' इस पाठका तुम क्या अर्थ करोगे सो वताओ? और हम तो अक्षर रूप ब्राह्मीलिपी को नमस्कार करते हैं, जिस से कुछ भी हमको बाधक नहीं है, तथा तुम ब्राह्मीलिपी के आदि कर्ता को नमस्कार है ऐसे कहते हो सो तो मिथ्या ही है, क्योंकि 'बंभीए लिवीए' इस पद का ऐसा अर्थ नहीं है, यह तो उपचार कर के खींच के अर्थ नीकालीए तो होते, परंतु विना प्रयोजन उपचार करने से सूत्रदोष होता है, तथा तुमारे कथनानुसार ब्राह्मालिपी के कर्ताको इस ठिकाने नमस्कार करा है तो प्रभु केवल एक ब्राह्मीलिपी के ही कर्ता नहीं है, किंतु कुल शिल्पके आदि कर्ता हैं, और यह अधिकार श्रीसमवायांगसूत्र में है तो वहां नमों 'सिप्पसयस्स' अर्थात् शिल्पके कर्त्ताको नमस्कार होवे ऐसा भ्रान्ति रहित पद गणधर महाराज ने क्यों न कहा ? इस वास्ते इस से यही निश्चय होता है कि तुम जो कहते हो, सो सूत्र विरुद्ध ही है, तथा 'नमो अरिहंताणं' इस पद में क्या ऋषवदेव न आये जो फेर से 'बंभीए लिवीए'यह पद कहके पृथक् दिखलाए ? कदापि तुम कहोगे कि ब्राह्मीलिपी की क्रिया इन्होंने ही दिखलाई है, इस वास्ते क्रिया गुण करके वंदनीक है। तब तो ऋषभदेव जी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __(e ) को बंदना करने से ब्राह्मीलिपी को तो वंदना अवश्यमेव हो गई, क्योंकि क्रियाका कर्ता वंद्य तो क्रिया भी वंद्य हुई। फेर जेठा लिखता है कि “अक्षर छापना तो सधर्मास्वामी के वक्त में नहीं, था सो तो श्रीवीर निर्वाण के नवसो अस्सी (९८०) वर्ष पीछे पुस्तक लिखे गए तब हुआ है"॥ उत्तर-अरे मूढ ! सुधर्मास्वामीके वक्त में अक्षरस्थापना ही नहीं थी तो क्या श्री ऋषभदेव जी ने अठारां लिपी दिखलाई थी तिनका व्यवच्छेद ही होगया था ? और तैसेथा,तो गृहस्थोंका लैन, देन, हुण्डी, पत्री, उगराही, पत्र लेखन, व्याज वगैरह लौकिक व्यवहार कैसे चलता होगा ? जरा विचार करके बोलो ! परंतु इस से हमको तो ऐसे ही मालूम होता है कि जेठमल को और तिस के ढुंढकों को सूत्रार्थ का ज्ञान ही नहीं है, क्योंकि श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि-दव्वसुअंजं पत्तय पौथ्थयलिहियं अर्थ-द्रव्य श्रुत सो जो पत्र पुस्तक में लिखा हुआ हो, तो अरे कुमतियो ! यदि उन दिनों में ज्ञान लिखा हुआ,और लिखा जाता न होता तो गणधर महाराज ऐसे क्यों कहते ? इस वास्ते मतलब यही समझनेका है कि उन दिनों में पुस्तक थे; अठारां लिपी थी; परंतु फकत समग्र सूत्र लिखे हुए नहीं थे, सो वीर निर्वाण के ९८० वर्षे पीछे लिखे गए; आखीर में हम तुमको इतना ही पूछते हैं कि तुम जो कहते हो कि श्री वीर निर्वाण के बाद (९८०) वर्षे सूत्र पुस्तकारूढ़ हुए हैं, सो किस आधार से कहते हो ? क्योंकि तुमारे माने बत्तीस सूत्रों में तो यह बात ही नहीं है। तथा जेठमल लिखता है कि “अठारां लिपी अक्षर रूप बंदनीक मानोगे तो तुमको पुराण कुरान वगैरह सर्व शास्त्र वंदनीक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होंगे"। उत्तर-श्रीनंदिसूत्र में अक्षर को श्रुतं ज्ञान कहा है, और ज्ञान नमस्कार करने योग्य है;परंतु तिस में कहा।भावार्थ-वंदनीक नहीं है श्रीनंदि सूत्र में कहा है कि अन्य दर्शनियों के कुल शास्त्र जो मिथ्या श्रुत कहाते हैं, वे यदि सम्यग्दृष्टि के हाथ में हैं तो सम्यक् ' शास्त्रही हैं,और जैनदर्शनशास्त्र यदि मिथ्यादृष्टिके हाथमें तो वे मिथ्या श्रुत ही हैं इस वास्ते अक्षर वंदना करने में कुछ भी वाधक नहीं है; और जेठमल ने लिखा है कि-"जिनवाणी भावश्रुत है" परंतु यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि जिन वाणी को श्रीनंदि सूत्र में द्रव्यश्रुत कहा है और श्रीभगवती सूत्र में "नमोसुअ देव. याए" इस पाठ करके गणधरदेवने जिनवाणी को नमस्कार किया है, तैसे ही ब्राह्मीलीपि नमस्कार करने योग्य है, जैसे जिनवाणी भाषा वर्गणा के पुद्गल रूप करके द्रव्य है, तैसे ब्राह्मीलीपि भी अक्षर रूप करके द्रव्य है । अरे ढूंढको ! जब तुम आदिकर्ता को नमस्कार करने की रीति स्वीकार करते हो, तो तीर्थंकरों के आदि कर्त्ता तिन के माता पिता हैं, तिनको नमस्कार क्यों नहीं करते हो? अरे भाइयो! जरा ध्यान दे कर देखो तो ऊपर कुल दृष्टांतों से “नमो बंभीए लीवीए" का अर्थ ब्राह्मीलीपि को नमस्कार हो ऐसा ही होता है इसवास्ते जरा नेत्र खोलके देखो जिससे तीर्थंकर गणधर की आज्ञा के लोपक न बनो॥ इति ॥ (१५) जंघाचारण विद्याचारण साधओं ने जिन प्रतिमा वांदी है। पंदरमें प्रश्नोत्तर में जेठमल लिखता है कि "जंघाचारण तथा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( द ) विद्याचरण मुनियोंने जिनप्रतिमा नहीं बांदी है" यह लिखना सर्वथा असत्य है, क्योंकि श्रीभगवती सूत्र शतक २० उद्देशे ९ में जंघाचारण तथा विद्याचारणमुनियोंका अधिकार है, जिसमें उन्होंने जिनप्रतिमा बांदी है, ऐसे प्रत्यक्षरीतिसे कहा है तिसमें से थोड़ासा सूत्रपाठ इस ठिकाने लिखते हैं । यतः जंघाचारस्त्रणं भंते तिरियं केवइए गति बिसए पन्नत्ता गोयमा सेणं इत्ती एगेणं उप्पा एणरुचगवरे दीवे समोसरणं करेड करइत्ता तहिं चेइआई वंद वंदइत्ता तओ पडिनियत्त माणे बीइरणं उप्पारणं गंदीसरे दीवे समोस रण करेद्र तहिं चेइआई वंदइ बंदत्ता इह मागछइ इह चेइयाइं वंदइ जंघाचारस्सचं गोयमा तिरियं एवइए गतिविसए पन्नत्ता । जंघाचारस्सणं भंते उद्धं केवइए गई विसए पन्नत्ता गोयमा सेणं इत्तो एगेणं उप्पाएगं पंडगवणे समोसरणं करेइ करइत्ता तहिं चेह्न आइंवंदइ वंदइत्ता तपडिनियत्तमाणे बि तिएां उप्पारगं गंदणवणे समोसरणं करइ करइत्तातहिंचेइआइं वंदइ वंदइत्ताइह माग Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्छडू इह मागच्छइता इह चेहआई वंद जंघाचारस्सणं गोवमाउदंएवइए गतिविसए पन्नत्ता। __अर्थ-हे भगवन् ! जंघाचारण मुनिका तिरछी गतिका विषय कितना है? गौतम ! सो एक डिगले रुचकवर जो तेरमाद्वीप है तिसमें समवसरण करे,करके तहांके चेत्य अर्थात्-शाश्वते जिनमंदिर(सि. द्धायतन ) में शाश्वती जिनप्रतिमा को वांदे, वांदके तहां से पीछे निवर्तता हुआदूसरे डिगले नंदीश्वरद्वीप में समवसरण करे, करके तहांके चैत्योंको वांदे वांदके यहां अर्थात् भरतक्षेत्र में आवे,आकरके यहांक चैत्य अर्थात् अशाश्वती जिनप्रतिमाको वांदे; जंघाचारणका तिरछी गतिका विषय इतना है तो हे भगवन् !जंघाचारण मुनि का ऊर्ध्व गतिका विषय कितना है ? गौतम ! सो एक डिगलमें पांडुक वन में समवसरण करे, करके तहां के चैत्यों को बांदे; वांद के वहां से पीछे फिरता हुआ दूसरे डिगल में नंदन वन में समवसरण करे, करके तहांके चैत्य वांदे वांदके यहां आवे, आकर के यहां के चैत्य वांदे; हे गौतम! जंबाचारण की ऊर्ध्व गतिका विषय इतना है। जैसे जंघाचारणकी गतिका विषय पूर्वोक्त पाठ में कहां है तैसे विद्याचारण मुनि की गति का विषय भी इसी उद्देश में कहा है विद्याचारण यहांसे एक डिगलमें मानुषोत्तर पर्वत परजाके तहांके चैत्य वांदते है,और दूसरे डिगलने नंदीश्वर द्वीपमें जाके तहांके चैत्य वांदते हैं;पीछे फिरते हुए एक ही डिगल में यह। आकरके यहां के चैत्य वांदते हैं इस सूजिन विद्याचारण की तिरछी । गतिका विषय है,ऊर्ध्वगति में एक डिगलमें नंदनवन में जाके तहां Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) के चैत्य वांदे हैं; और दूसरे डिगल में पांडुकवनमें जाके वहांके चैत बांदे हैं, पीछे फिरते हुए एक ही डिगल में यहां आकर के यहां के चैत्य वांदे हैं, इस मूजिव विद्याचारण की ऊर्ध्व गतिका विषय है, सो पाठ यह है : विद्याचारणस्सणं भन्तेतिरयं के वइ ए गइविसएपन्नत्तेगोयमासे इत्तोए गेण उप्पाएं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेइ करइत्ता तहिं चेद्रआई वंद वंदइत्ता बीएणं उप्पाणं गंदिसरवरदीवे समोसरणं करेइ करइत्ता तहिं चे आई वंदन वंदइत्तात पडिनि यत्त इह मागच्छइ इह मागच्छत्ता इह चेइआई वंदइ विद्याचारणस्सगं गोयमातिरियं एव इए गइ विसए पन्नते । विद्याचारणस्सणं भंते उट्टं के वहुए गइ विसएपन्नत्ते गोयमा सेणं इत्ती एगेणं उप्पाएणं गंदणवणे समोसरणं करेइ करइत्ता तहिं चेइ आइं वंद दत्ता बितिएगं उप्पारणं पंडगवणे समोसरणं करेइकरइत्ता तहिं चेइआई वंदई वंदइत्ता तओ पडिनियत्त इह मागच्छ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) इहमागच्छत्ता इह चेइआई वंदइ विद्या चारणस्सणं गोयमा उढ एवइएगइ विसए पन्नत्ते ॥ इति ॥ जेठमल, लिखता है कि "जंघाचारण तथा विद्याचारणमुनियोंने श्रीरुचकद्वीप तथा मानुषोत्तर पर्वत पर सिद्धायतन वांदे कहते हो परंतु दोनों ठिकाने तो सिद्धायतन बिलकुल है नहीं तो कहांसे वांदे ? उत्तर- श्रीमानुषोत्तर पर्वत पर चार सिद्धायतन हैं ऐसे श्रीद्वीप सागर पन्नत्तिसूत्र में कहा है तथा श्रीरत्न शेखरसूरि जो कि महा धुरंधर पंडितथे उन्होंने श्रीक्षेत्रसमास नामा ग्रंथ में ऐसे कहा है - यतः सुवि इसुयारे इक्कीक्वं नरनगंमि चत्तारि । कूडोवरि जिणभवणा कुलगिरि जिणभवण परिमाणा ।। २५७ ।। अर्थ - चार इषुकार में एक एक और मानुषोत्तर पर्वत में चार कूट पर चार जिनभवन हैं सो कुलगिरि के जिन भवन प्रमाण है ॥ तत्तो दुगुणपमाणा चउदारात्त वणिय सुरुवा | नंदीसर बावण्णाच कुंडलिकयगि चत्तारि ॥ २५८ ॥ 11 अर्थ - पूर्वोक्त जिनभवन से दुगुने प्रमाण के चार द्वार वाले और पूर्वाचार्यों ने वर्णन किया है स्वरूप जिन का ऐसे नंदीश्वर में (५२) कुंडलगिरि में चार (४) और रुचक पर्वत पर चार ( ४ ) एवं कुल साठ (६०) जिनभवन हैं। इत्यादि अनेक जैन शास्त्रों में Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथन है,इस वास्ते मानुषोत्तर तथा रुचकद्वीप पर जिनभवन नहीं है ऐसा जेठमल का लेख बिलकुल असत्य है । पुनः जेठा लिखता ह कि-"नंदीश्वरद्वीप में संभूतला ऊपर तो जिनभवन कहे, नहीं हैं, और अंजनगिरि तो चउरासी (८४) हजार योजन ऊंचा है, तिस पर चार सिद्धायतन हैं, तहां तो जंघाचारण विद्याचारण गये नहीं है। इस का उत्तर-सिद्धायतन को वंदना करने वास्ते ही चारण मुनि तहां गये हैं तो जिस कार्य के वास्ते तहां गये हैं, सो कार्य नहीं किया ऐसे कहाही नहीं जाता है,क्योंकि श्रीभगवती सूत्र मेंतहां के चैत्य वांदे ऐसे कहा है; तथा तिन की ऊर्ध्वगति पांडुकवन जो समभूतला से निनानवे (९९) हजार योजन ऊंचा है तहां तक जाने की है, ऐसे भी तिस ही सूत्र में कहा है, और यह अंजनगिरि तो चउरासी (८४) हजार योजन ऊंचा है तो तहां गये हैं उस में कोई भी बाधक नहीं है और जेठमल ने नंदीश्वरद्वीपमें चार सिद्धा. यतन लिखे हैं,परंतु अंजनगिरि चारके ऊपर चार हैं,और दधिमुख तथा रतिकर ऊपर मिलाके ५२ हैं,और पूर्वोक्त पाठमें भी ५२ ही कहे हैं, इस वास्ते जेठमल का लिखना बिलकुल असत्य है। तथा जेठमल ने लिखा है- "प्रतिमा वादी है तहां (चेइ आई वंदित्तए) ऐसा पाठ है परंतु (नमस्सइ)ऐसाशब्द नहीं है इसवास्ते प्रतिमा को प्रत्यक्ष देखी होवे तो नमस्सइ शब्द क्यों नहीं कहा ?" तिस का उत्तर-वंदा और नमस्सइ दोनों शब्दोंका भावार्थ-एक ही है इस वास्ते केवल वंदइ शब्द कहा है तिसमें कोई विरोध नहीं हैं परंतु वंदइ एक शब्द है वास्तेतहां प्रतिमावांदीही नहीं है,ऐसे कथन से जेठमल श्रीभगवती सूत्रके पाठको विराधने वाला सिद्ध होता है। : पुनः जेठमल लिखता है कि-" तहां चेइआई' शब्दकरके Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) चारणमुनिने प्रतिमा वादी नहीं है, किंतु इरिया वही पडिकमने वक्त लोगस्स कहकर अरिहंतको वांदा है सो चैत्यवंदना करी है" - उत्तरअरे भाई चैत्य शब्दका अर्थ अरिहंत ऐसा किसीभी शास्त्रमें कहा नहीं है, चैत्य शब्दका तो जिनमंदिर, जिनबिंब और चोतरा बन्द्ध वृक्ष यहतीन अर्थ अनेकार्थसंग्रहादि ग्रंथों में करे है और इरियावही पडिकमने में लोगस्स कहा सो चैत्य बंदना करी ऐसे तुम कहते हो तो सूत्रों में जहां जहां इरियावही पडिकमनेका अधिकार है तहां तहां इरिया वही पडिक में ऐसें तो कहा है, परंतु किसी जगहभी चैत्यवंदना करे ऐसे नहीं कहा है; तो इस ठिकाने अर्थ फिराने के वास्ते मन में आवे तैसे कुतर्क करते हो सो तुमारा मिथ्यात्व का उदय है | फेर " चे आई वंदितए " इस शब्द का अर्थ फिराने वास्ते जेठमल ने लिखा है कि " तिस वाक्यका अर्थ जो प्रतिमा वांदी ऐसा है तो नंदीश्वरद्वीप में तो यह अर्थ मिलेगा परंतु मानुषोत्तर पर्वत पर और रुचकद्वीप में प्रतिमा नहीं है तहां कैसे मिलेगा" ? तिसका उत्तर- हमने प्रथम तहां जिनभवन और जिनप्रतिमा हैं ऐसा सिद्ध कर दिया है, इस वास्ते चारण मुनियों ने प्रतिमाही वांदी है ऐसे सिद्ध होता है, और इससे ढूंढकों की धारी कुयुक्तियां निरर्थक है । तथा जेठमल ने लिखा है कि "जंघा चारण विद्याचरण मुनि प्रतिमा वांदने को बिलकुल गये नहीं हैं क्योंकि जो प्रतिमा वांदने को गये हो तो पीछे आते हुए मानुषोत्तर पर्वत पर सिद्धायतन हैं तिनको वंदना क्यों नहीं करी" ? इसका उत्तर - चारणमुनि प्रतिमा वादनेको ही गये हैं, परंतु पीछे आते हुए जो मानुषोत्तर के चैत्य " - किसी ठिकाने चैत्य शब्द का प्रतिमा मात्र पर्थ भी होता है, अन्य कई कोष में देवस्थान देवावासादि पर्थ भी लिखे हैं, परन्तु चैश्य शब्द का अर्थ परित्तो कहीं भी नहीं मालूम होता है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) नहीं वाद है सो तिनकी गतिका स्वभाव है। क्योंकि बीचमें दसरा विसामा ले नहीं सक्त हैं, यह बात श्रीभगवती सूत्र में प्रसिद्ध है, परंतु पूर्वोक्त लेखसे जेठमल महामृषावादी उत्सूत्र प्ररूपक था ऐसे प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रश्नोत्तर में वो आपही लिखता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर चैत्यनहीं हैं और इस प्रश्न में लिखता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर चैत्य क्यों नहीं वांदे ? इससे सिद्ध होता है कि मानुषोत्तर पर्वतपर चैत्यजरूर हैं परंतु जहां जैसाअपने आपकोअच्छालगा वैसाजेठमलने लिखदिया है, किंतु सूत्रविरुद्ध लिखने का भय बिलकुल रक्खामालूम नहीं होता है,पुनः जेठमल ने लिखा है कि "चारणमुनियों को चारित्रमोहनीका उदय है इस वास्ते उनकोजाना पड़ा है" परंतु अरेमूढ ! यह तो प्रत्यक्ष है कि उनको तो इसकार्य से उलटी दर्शनशुद्धि है,परंतु चारित्र मोहनीका उदय तो तुम ढूंढकों को है,ऐसे प्रत्यक्ष मालूम होता है ॥ फेर जेठमल लिखता है कि "चारणमुनियों ने अपने स्थान में आनके कौनसे चैत्य वांदे" उत्तर-सूत्रपाठ में चारणमुनि"इह मागच्छइ"अर्थात् यहां आवे ऐसे कहा है,तिसका भावार्थ-यह है कि जिस क्षेत्रसे गयेहोवे तिस क्षेत्र में आवे, आनके " इह चेइ आई वंदइ " अर्थात् इस क्षेत्रके चैत्य अर्थात् अशाश्वती जिन प्रतिमा तिनको वांदे ऐसेकहाहै,परंतु अपने उपाश्रये आवेऐसे नहीं कहाहै, इस बाबत में जेठमल कुयुक्ति करके लिखता है कि "उपाश्रयमें तो चैत्यहोवे नहीं इसवास्ते तहां कौनसे चैत्यवांदे?यह केवल जेठमल की बुद्धिका अजीर्ण है, अन्य नहीं,और श्रीभगवती सूत्र के पाठ से तो शाश्वती अशाश्वती जिन प्रतिमा सरीखी ही है, और इन दोनों में अंशमात्र भी फेर नहीं है,ऐसे सिद्ध होता है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. १०५ ) . . जेठमल ने लिखा है कि "चारणमुनि वो कार्य करके आनके आलोये पडिकमे विना काल करे तो विराधक होवे ऐसे कहा है,सो चक्षु इंद्रिय के विषय की प्रेरणा से द्वीप समुद्र देखनेको गये हैं इस वास्तेसमझना" यह लिखना जेठमलका बिलकुल मिथ्या हैक्योंकि तिन को जोआलोचना प्रतिक्रमणा करना है सो जिनवंदनाका नहीं है, किंतु उस में होए प्रमाद का है; जैसे साधु गोचरी करके आनके आलोचना करता है सो गोचरीकी नहीं, किंतु उसमें प्रमाद वश से लगे दृषणों की आलोचना करता है, तैसे ही चारमुनियों को भी लब्ध्युपजीवन प्रमाद गति है । और दूसरा प्रमादका स्थानक यह है कि जो लब्धिके बल से तीरके वेगकी तरेंशीघ्रगतिसेचलतेहए रस्ते में तीर्थयात्राप्रमुख शाश्वते अशाश्वते जिनमंदिर विना वांदे रह जाते हैं, तत्संबंधी चित्त में बहुत खेद उत्पन्न होता है; इस तरह तीरके वेगकी तरें गये सोभा आलोचना स्थानक कहिये ॥ फेर जेठमल ने अरिहंत को चैत्य ठहराने वास्ते सूत्रपाठलिखा है तिस में"देवयं चेइयं” इस शब्द का अर्थ "धर्म देव के समान ज्ञानवंत की" ऐसे किया है सोझूठा है क्योंकि देवयं चेइय-दैवतं चैत्यं इव-अर्थ-देवरूप चैत्य अर्थात जिन प्रतिमा की जैसे पज्जु वासामि-सेवा करता हूं,यह अर्थ खरा है,जेठा और तिस के ढूंढक इन दोनों शब्दों को द्वितीयाविभक्ति का वचन मात्र ही समझते हैं, परंतु व्याकरण ज्ञान विना शुद्ध विभक्ति,और तिसके अर्थ का भान । कहां से होवे ? केवल अपनी असत्य बात को सिद्ध करनेके वास्ते जो अर्थ ठीक लगेसो लगा देना ऐसा तिनका दुराशय है,ऐसा इस बात से प्रत्यक्ष सिद्ध होता है। . फिर समवायांग सूत्र का चैत्य वृक्ष संबंधी पाठ लिखा है सो Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) इस ठिकाने विना प्रसंग है, तैसे ही तिस पाठके लिखनेका प्रयोजन भी नहीं है, परंतु फक्त पोथी बड़ी करनी, और हमने बहुत सूत्र पाठ लिखे हैं, ऐसे दिखा के भद्रिक जीवों को अपने फंदे में फंसाना यही मुख्य हेतु मालूम होता है, और उस जगह चैत्यवृक्ष कहे हैं सो ज्ञान की निश्राय नहीं कहे है, किंतु चौतराबंध वृक्ष का नाम ही चैत्यवृक्ष है, और सो हम इसी अधिकार में प्रथम लिखआये हैं । भगवान् जिस वृक्ष नीचे केवल ज्ञान पाये हैं, सो वृक्ष चौतरा सहित थे, और इसी वास्ते उन को चैत्यवृक्ष कहा है, ऐसे समझना, परंतु 'चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान नहीं समझना । तथा तुम ढूंढक बत्तीससूत्रों 'केविना अन्य कोई सूत्र तो मानते नहीं हो तो अर्थ करते होसो किस 'के आधार से करते हो ? सो बताओ, क्योंकि कुल कोषों में प्रायः 'हमारे कहे मूजिब ही चैत्य शब्द का अर्थ कथन किया है, परंतु तुम चैत्य शब्द का अर्थ साधु तथा ज्ञान वगैरह करते हो सो केवल स्वकपोलकल्पित है; और इस से स्पष्ट मालूम होता है कि निः केवल असत्य बोलके तथा असत्य प्ररूपणा करके बिचारे भोले लोगों को अपने कुपंथ में फंसाते हो ॥ इति (१६) आनंद श्रावक ने जिनप्रतिमा वांदी है | सोलवें प्रश्नोत्तर में आनंद श्रावक ने जिनप्रतिमा वांदी नहीं है, ऐसे ठहराने के वास्ते जेठमल ने उपासक दशांग सूत्र का पाठ लिख के तिस का अर्थ फिराया है इस वास्ते सोही सूत्र पाठ सच्चे यथार्थ अर्थ सहित नीचे लिखते हैं, श्रीउपासक दशांग सूत्र प्रथमाध्ययने, यतः नो खलु मे भंते कप्पइ अज्जप्पभिचणं COOR Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :( १९०) अन्नउथ्थिया वा अन्नउथ्थियदेवयाणि वा अन्नउथ्थिय परिग्गहियाई अरिहंतचेइयाई वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुग्विं अणा लत्तेणंबालवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा दाउंवा अणुप्पदाउं वा णण्णथ्य रायाभिोगेणं गणाभिओगेणंबलाभित्रोगेणंदेवयाभिओगेणं गरुनिग्गहेणं वित्तिकतारणं कप्पड़ मे समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेण असण पाण खाइम साइमेण वध्यपडिग्गह कंबल. पाय पछणणं पाडिहारिय पीढफलग सेज्जासंथारएणं ओसहभेसज्जेणय पडिलामेमाणस्स विहरित्तएत्ति कटुइमंएयाणुरूवं अभिग्गहं अभिगिरह ॥ अर्थ--हे भगवन् ! मुझको न कल्पे क्या न कल्पेसो कहते हैं, आजसे लेके अन्य तीर्थी चरकादि,अन्यतीर्थी के देव हरि हरादिक, और अन्य तीर्थीके ग्रहण किये अरिहंतके चैत्य-जिनप्रतिमा इनको बदना करना, नमस्कार करना,तथा प्रथमसे विना बुलाये बुलाना,वारं वार बुलाना,यहसर्वन कल्पे,तथा तिनको अशन,पान,खादिम,और Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१० ) स्वादिम,यह चारप्रकारका आहार देना,वारंवार देना,न कल्पे परंतु इतने कारणविनासो कहते हैं,राजाकी आज्ञासे,लोक के समुदाय की आज्ञासे, बलवान् के आग्रहसे, क्षुद्रदेवताके आग्रहसे, गुरु-माता पिता कलाचार्य वगैरह के आग्रहसे, इन ६ छिंडी (आगार ) से पूर्व कहे तिनको वंदनादि करने से दोष न लागे; यह न कल्पे सो कहा, अब कल्पे सो कहते हैं, मुझको कल्पे, जैन श्रमण निग्रंथ को फासु अर्थात जीव रहित, और एषणीय अर्थात् दोष रहित, अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, और वरत के पीछे देने ऐसे बाजोठ (चोकी ) पट्टादि पटडा वसती वृणादिक संथारा तथा औषध भेषज से प्रतिलाभता थका विचरना ऐसे कहके एतद्रूप अभिग्रह ग्रहण करे *॥ ऊपर लिखेसूत्रपाठके अर्थ में जेठमल ढूंढक लिखता है कि "आनंदश्रावकने न कल्पे में अन्य तीर्थी के ग्रहण किये चैत्य - * टीकाकर श्रो प्रभय देवसूरि महाराजगे यही अर्थ करा है-तथाहि- . नोखलु इत्यादि नोखलु मम भदंत भगवन् कल्पते युज्यते अय प्रभृति इतः सम्यक्त्त्वप्रतिपत्तिदिनादारभ्य निरतिचारसम्यक्त्त्वपरिपालनार्थं तद्यतनामाश्रित्य अन्नउथिएत्ति जैनयूथायदन्यथूथं संघा न्तरतीर्थान्तर मित्यर्थस्तदस्तियेषांतेन्यवृथिकाश्चरकादिकुतीर्थिका स्तानअन्ययूथिकदैवतानिवाहरीहरादीनि अन्ययथिकंपरिगृहीतानि वाअहंच्चैत्यानि अर्हत्प्रतिमालक्षणानि यथाभौतपरिगृहीतानिवीरभद्र महाकालादीनि वन्दितुं वा अभिवादनं कर्तुं नमस्यतुंबाप्रणाम पूर्वक 'प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनं कर्तुं तद्भक्तानां मिथ्यात्व स्थिरी करणा दिदोष प्रसङ्गादित्यभिप्रायः तथा पूर्व प्रथम मनालप्तेन सता अन्य तीर्थिकस्तानेवालपितुंवासकृत्सम्भाषितुसंलपितुवा पुनःपुनःसंलापं Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) अर्थात् भ्रष्टाचारी साधुको वोसराया है। परंतु अन्य तीर्थी की ग्रहण करीजिनप्रतिमा नहीं वोसराई है,क्योंकि अन्य तीर्थीकी ग्रहण करी प्रतिमा वोसराई होती तो स्वमतेगृहीत जिन प्रतिमा वांदनी रही सोकल्पेके पाठमें कहता" इसका उत्तर-अरे भाई ! कल्पेके पाठ में तो अरिहंत देव और साधुको वंदना नमस्कार करना भी नहीं कहा है,केवल साधुको ही आहार देना कहा है, तो वोभी क्या तिस कत्यतस्ततप्ततरायोगोलककल्पा:खल्वासनादिक्रियायांनियुक्ताभ वन्तितत्प्रत्ययश्चकर्मबन्धःस्यात्तथालापादेस्सकाशात्परिचयेन तस्यैवतत्परिजनस्य वा मिथ्यात्वप्राप्तिरितिप्रथमालप्तेनत्वसंभ्रमलो कापवादर्भयाकीहशस्त्वमित्यादिवाच्यमितितथातेभ्योन्ययथिकेभ्यो शनादि दातुंवासकृत्अनुप्रदातुंवापुनः पुनरित्यर्थः,अयंचनिषेधोधर्म 'बुद्धेगव करुणयातुदद्यादपिकिंसर्वथा न कल्पते इत्याह नन्नथ्थ राया भिओगेणं तितृतीयायाःपञ्चम्यर्थत्वात् राजाभियोग वर्जयित्वेत्यर्थः राजाभियोगस्तु राजपरतन्त्रता गणः समुदायस्तद भियोगो वश्यता गणाभियोगः तस्मात् बलाभियोगो नाम राजगण व्यतिरिक्तस्य बल वतः पारतंत्र्यं देवताभियोगो देवपरतंत्रता गुरुनिग्गहोमातापितृ पार वश्यं गुरूणां वा चैत्यसाधुनांनिग्रहः प्रत्यनीककृतोपद्रवो गुरुनिग्रह स्तत्रोपस्थिते तद्रक्षार्थमन्ययूथिकादिभ्यो दददपिनातिकामति सम्य कमिति वित्तीकतारेणंति वृत्ति विकातस्याः कान्तारमरण्यं तदिव कान्तार क्षेत्र कालो वा वृत्तिकान्तारं निर्वाहाभाव इत्यर्थः तस्मादन्य तन्निषेधो दानप्रणामादे रितिप्रकृतमिति पडिगाहंतिपात्रं पीढंति पट्टा दिकं फलगंति अवष्टंभादिकं फलकं भेसज्जति पथ्यमित्यादि। तथा बंगालेकी रॉयल एसीयाटिक सुसाइटीके सेक्रेट्री डाक्टर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दिने योग्य नहीं थे? परंतु जब अन्यतीर्थी को वंदना करने का निषेध किया, तब मुनिको वंदना करनी यह भावार्थ निकले ही हैं, तथा अन्य तीर्थी के देवकी प्रतिमा को वंदनाका निषेध किया तब जिन प्रतिमा को वंदना करनी ऐसा निश्चय होता है, और अंबड के आलावे अन्य तीर्थीका निषेध, और स्वतीर्थी को वंदना वगैरह करनी ऐसा डबल आलावा कहा है,तथा जो मुनि परतीर्थीने ग्रहण ए,एफ, रुडॉल्फ हार्नलसाहिबने भी यही अर्थ लिखा है तथाहि : ____58. : Then the householder Ananda, in the presence of the Samana, the blessed Mahavira, took on himself the twelvefold dare of a householder, consisting of the five lesser rows and the seven disciplinary vows; and having done so, he praised and worshipped the Samana, the blessed Mahavira, and then spake to Tim thus: “Truly, Reverend Sir, it does not befi.t-me, from this day forward, to praise and worship, any man of a heterodox community, * or any of the devas tot a heterodos community, or any of the objects of reverence of a heterodox community; or without being first addrešsed by them, to address them or converse with them; or to give them or supply them with food:or drurik;or delicacnes or relishes except it be by the command of the king, or by the command of the priesthood, or by the command of any. powerful man, or by the command of a deva, or by the order of one's- elders, or by the exigencies of living. On the other hand it behoves me, to devote myself to providing the Samanas of the Niggantha faith with pure and acceptable food, drink, delicacies and relishes, with clothes, blankets, alms-bowls, and brooms, with stool, plank and bedding, and with spices and medicines. ** Sach as the churaka (Charbadi-Kutirthikah, comm.); Bea Bhag, pp. 163,214. - ' t such as Hari (Vishnu) and,Hara (Shiva), (comm) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((. ) किया अर्थात् अन्य तीर्थी में गया सो मुनितो परतीर्थी ही कहिये इस वास्ते अन्यतीर्थी को वंदना न करूं इसमें सो आगया, फेर कहनेकी कोईजरूरत न थी, और चैत्य शब्दकाअर्थसाधु करते होसो निःकेवल खोटा है, क्योंकि श्रीभगवती सूत्रमें असुर कुमार देवता सौधर्म देव लोक में जाते हैं, तब एक अरिहंत, दूसरा चैत्य अर्थात् जिन प्रतिमा, और तीसरा अनगार अर्थात् साधु, इन तीनोंका शरण करते हैं; ऐसे कहा है, यतःनन्नथ्य अरहित वा अरिहंत चेडूयाणि वा भावीअप्पणो अणंगारस्स वाणिस्साए उढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। इस पाठमें (१) अरहित, (२) चैत्य, और (३) अनगार,यह तीन कहे हैं, यदि चैत्य शब्द का अर्थ साधु होवे तो अनगार पृथक् क्यों कहा, जरा ध्यानदेके विचार देखो! इसवास्ते चैत्य शब्दका अर्थ मुनि करते हो सो खोटा है, श्रीउपासक दशांगके पाठका सच्चा अर्थ पूर्वाचार्य जो कि महाधुरंधर केवली नहीं परंतु केवली सरिखे थे, वे कर गये हैं,सो प्रथम हमने लिख दिया है; परंतु जेठमल भाग्य हीन था, जिस से सच्चा अर्थ उसको नहीं भान हुआ, और चैत्य साधुका नाम कहते हो सो तो जैनेंद्र व्याकरण, हैमीकोष, अन्य व्याकरण,कोष, तथा सिद्धांत वगैरह किसी भी ग्रंथमें चैत्य शब्द का अर्थ साधु नहीं है, ऐसा धातु भी कोई नहीं है कि जिससे चैत्य शब्द साधु वाचक होवे,तो जेठमलने यह अर्थकिस आधारसे करा? परंतु इस से क्या ! जैसे कोई कुंभार,अथवा हजाम (नाई) ज्वाहिर के परीक्षक जौहरी को झूठा कहे,तो क्या बुद्धिमान पुरुष उस कुंभार, Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5,१९२) वा हजाम को जौहरी मान लेंगे ? कदापि नहीं, तैसे ही ज्ञान वान् पूर्वाचार्यों के करे अर्थ असत्य ठहराक अक्षर ज्ञानसे भी भ्रष्ट जेठमल के करे अर्थ को सम्यक दृष्टि पुरुष सत्य नहीं मानेंगे * इसवास्ते भोले लोकोंको अपन फंदे में फंसानेके वास्ते जितना उद्यम करते हो उस से अन्य तो कुछ नहीं परंतु अनंत संसार रुलने का फल मिलेगा तथा ढूंढकों को हम पूछते हैं कि आनंद श्रावकने *पूर्वाचार्गाने जैन सिद्धातोंमें चैत्य शब्दका अर्थ ऐसे प्रतिपादन किया है-तथाहिः अरिहंतचेइयाणति अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यरूपां पूजा महन्तीत्यर्हन्तस्तीर्थकरास्तेषां चैत्यानि प्रतिमालक्षणानि अहंचैत्यानि इयमत्र भावना चित्तमन्तःकरणं तस्यभावे कर्मणि वा वर्णदृढादिलक्षणे घनि कृते चैत्यंभवति तत्रार्हता प्रतिमाः प्रशस्तसमाधिचित्तोत्पादनादर्हच त्यानि भण्यंते इत्यवशकसूत्रपंचमकायोत्सर्गाध्ययने ॥ ... तथा अरिहंतचेझ्याणिं तेसिंचव पडिमाओ तथा चिति सज्ञाने संज्ञानमुत्पाद्यते काष्ठकर्मादिषु प्रतिकृति दृष्ट्वा जहा अरिहंत पडिमा एसा इत्यावश्यकसूत्रचूर्णौ ॥ चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्मवाचैत्यंतच्चसंज्ञाशब्दत्वात् देवताप्रतिबिम्ब प्रासद्धं ततस्तदाश्रयभूतं यद्देवतायागृहं तदप्युपचाराचत्य मिति सूर्यप्रज्ञप्ति वृत्तौ द्वितीयदले॥ चित्तस्य भावाः कर्माणिवा वर्णदृढादिभ्यः ष्यण्वेति ष्यङि चैत्यानि जिनप्रतिमास्ता हि चन्द्रकान्त सूर्यकान्त मरकत मुक्ता शैलादि दलनिर्मिता अपि चित्तस्य भावेन कर्मणा वा साक्षात्तीर्थकरबुद्धि जनयन्तीति चैत्या न्यभिधीयन्ते इति प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) अन्यतीर्थीके देवके चारों निक्षेपे को बंदना त्यागी है कि केवल भाव निक्षेपा ही त्यांगा है ? यदि कहोगे कि अन्य तीर्थी के देव के चारों निक्षेपे को वंदना करनी त्यागी है तो अरिहंत देवके चारों निक्षेपे वंदनी ठेहरे, यदि कहोगे कि अन्यतीर्थी के देव के भावनिक्षेपको ही वंदने का त्याग किया है तो तिनके अन्य तीन निक्षेप अर्थात् अन्य तीर्थी देवकी मूर्त्ति वगैरह आनंद श्रावक को वंदनीक ठहरेंगे, इस वास्ते सोच विचार के काम करना, जेठमल लिखता है "जिन प्रतिमा का आकार जुदी तरहका है इस वास्ते अन्यतीर्थी तिसको अपना देव किस तरह माने ? " उत्तर - श्रीपार्श्वनाथ की प्रतिमाको अन्य दर्शनी बद्रीनाथ करके मानते हैं, शांतिनाथ की प्रतिमा को अन्य दर्शनी जगन्नाथ करके मानते हैं, कांगडे के किलेमें ऋषभदेवकी प्रतिमाको कितने लोक भैरव करके मानते हैं; तथा पहिले की प्रतिमा होवे जो कि कालानुसार किसी कारण से किसी ठिकाने जमीन में भंडारी होवे वोह जगह कोई अन्य दर्शनी मोल लेवे और जब वोह प्रतिमा उस जगह में से उस को मिलती है तो अपने घर में से प्रतिमा के निकालने से वो अपने ही देव की समझ कर आप अन्य दर्शनी हुआ हुआ भी तिसप्रतिमा की अर्चा-पूजा करता है, और अपने देव तरीके मानता है, इस वास्ते जेठमल का लिखना कि अन्य दर्शनी जिन प्रतिमाको अपना देव करके नहीं मान सक्ते हैं सो बिलकुल असत्य है ॥ फेर लिखा है कि " चैत्यका अर्थ प्रतिमा करोगे तो तिस पाठ में आनंद श्रावकने कहा कि अन्यतीर्थी को, अन्यतीर्थी के देवको और अन्यतीर्थी की ग्रहणकरी जिन प्रतिमाको बांदू नहीं, बुलाऊं नहीं, दान देऊं नहीं, सो कैसे मिलेगा ? क्योंकि जिन प्रतिमाको बुलाना Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दान देना ही क्या ?" उत्तर-अरे ढूंढको ! सिद्धांतकी शैलि ऐसी है कि जिसकोजो संभवे तिसके साथ सो जोड़ना, अन्यथा बहुत ठिकाने अर्थ का अनर्थ होजावे,इसवास्ते वंदना नमस्कारतो अन्यतीर्थी आदि सबके साथ जोड़ना, और दानादिक अन्यतीर्थी के साथ जोड़ना, परंतु प्रतिमाके साथ नहीं जोड़ना, जैसे श्रीप्रश्न व्याकरण सूत्र में तीसरे महाव्रतके आराधने निमित्त आचार्य,उपाध्याय प्रमुख की वस्त्र, पात्र, आहारादिक सेवैयावृत्य करनेका कहा है सो जैसे सर्व की एक सरिखी रीतिसे नहीं परंतु जैसे जिसकी उचित होवे और जैसा संभव होवेतैसे तिसकी वेयावच्च समझने की है; तैसे इस पाठमें भी बुलाऊं नहीं, अन्नादिक देऊ नहीं, यह पाठ अन्यतीर्थी के गुरुकेही वास्ते है,यदि तीनों पाठ की अपेक्षामानोगे तो श्रीमहावीर स्वामी समयमें अन्यतीर्थी के देव हरि, हर,ब्रह्मा वगैरह कोई साक्षात् नहीं थे, तिनकी मूर्तियां ही थी; तो तुमारे करे अर्थानुसार आनंद श्रावक का कहना कैसे मिलेगा ? सो विचार . लेना! कदापि तुम कहोगे कि कितनीक देवीयां अन्नादिक लेती हैं तिनकी अपेक्षा यह पाठ है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि देवीकी भी स्थापना अर्थात् मूर्ति के पासही अन्नादिक चढ़ाते हैं, तोभी कदाचित् साक्षात् देवी देवताको किसी ढूंढक श्रावक श्राविकायाजेठमल वगैरह ढूंढकोंकेमातापितानेअन्नादिक चढ़ाया होवे अथवा साक्षात् बुलाया होवे तो बताओ? फेर जेठमल लिखताहै कि "जिनप्रतिमा को अन्यमतिने अपने मंदिर में स्थापनकर लिया, तो तिससे जिन प्रतिमा काक्या बिगड़ गया कि जिससे तुम तिसको मानने योग्य नहीं कहते हो" उत्तरयदि कोई ढूंढकनी या किसी ढूंढक की बेटी या कोई ढूंढक का साधु Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदिरा पीनेवाली, मांस खानेवाली, कुशील सेवने वाली वेश्या के घर में अथवा मांसादि वेचने वाले कसाई के घर में जारहे, तो तुम ढूंढक तिसको जाके वंदना करो कि नहीं? अथवा न्यातमें लेवो के नहीं ? यदि कहोगे कि न वंदना करेंगे और न न्यात में लेंगे तो ऐसे ही जिन प्रतिमा संबंधि समझ लेना । फेरजेठमलने लिखा है कि "तुमारे साधु अन्य तीर्थीके मठ में उतरे होवे तो तुमारे गुरु खरे या नहीं? "-उत्तर-अरे, बुद्धि के दुश्मनो! ऐसे दृष्टांत लिखके बिचारे भोले भद्रिक जीवों को फसाने का क्यों करते हो ? अन्यतीर्थों के आश्रम में उतरने से वोह साधु अवंदनीक नहीं हो जाते हैं, क्योंकि वोह स्वेच्छाले वहां उतरे हैं,और स्वेच्छा से ही वहांसे विहार करने हैं,और उनसाधुओं को अन्य दर्शनियों ने अपने गुरु करके नहीं माना है, तैले ही अन्य तीर्थीयों की ग्रहण करी जिनप्रतिमा से जिनप्रतिमा पणा चला नहीं जाता है, परंतु उस स्थान में वोह वंदने पूजने योग्य नहीं है ऐसे समझना॥ पुनः जेठमलने लिखा है कि "द्रव्य लिंगी पासथ्था वेषधारी निन्हव प्रमुख को किस बोल में आनंदने वोसराया है?" उत्तर साधु दीक्षालेता है तब करोमि भंते' कहता है, और पांच महाव्रत उचरता है तिसको भी पासथ्था, वेषधारी,निन्हव प्रमुखको वंदना नमस्कार करने का त्याग होना चाहिये, सो पांच सहावत लेने समय तिसने तिनका त्याग किल बोलमें किया है सो बताओ ? परंतु अरे अकलके दुश्मनो! सम्यगहष्टि श्रावकों को जिनाज्ञा से वाहिर ऐसे पासथ्थे, वेषधारी,निन्हव प्रमुख को वंदना नमस्कार करने का त्यागतो है ही,इस बाबत पाठमें नहीं कहा तो इसमें क्या Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोध है? प्रश्न के अंत में जेठमलने लिखा है कि आनंद श्रावक ने अरिहंत के चैत्य तथाप्रतिमाकोवंदनाकरी होवे तो बताओ"इस का उत्तर-प्रथम तो पूर्वोक्त पाठसेही तिसने अरिहंतकी प्रतिमाकीवंदना पूजाकरी हैऐसे सिद्ध होता है तथाश्रीसमवायांग सूत्रमेंसूत्रोंकी हुंडी है तिसमें श्रीउपासक दशांग सूत्रकी हुंडी में कहा है कि - से कितं उवासगदसाउ उवासगदसासणं उवासयाणं नगराई उज्जाणाईचेइयाइवणखंडारायाणो अम्मापियरोसमोसरणाइंधम्मा यरिया ॥ अर्थ-उपासक दशांगमें क्याकथन है? उत्तर-उपासक दशांगमें श्रावकों के नगर, उद्यान, 'चेइआई'चैत्य अर्थात् मंदिर, वनखंड, राजा, माता, पिता, समोसरण,धर्माचार्यादिकों का कथन है। इसले समझना कि आनंदादि दश श्रावकोंके घरमें जिनमंदिर थे और उन्होंने जिनमंदिर कराये भी थे,और वोह पूजा वंदना प्रमुख करते थे, यद्यपि उपासक दशांग में यह पाठ नहीं है, क्योंकि पूर्वाचार्योने सूत्रों को संक्षिप्त करदिया है, तथापि समवा यांगजी में तो यह बात प्रत्यक्ष है; इस वास्तेजरा ध्यान देकर शुद्ध अंतःकरण से तपास करोगे तो मालूम होजावेगा कि आनंदादि अनेक श्रावकोंने जिन प्रतिमा पूजी है सो सत्य है ॥ इति ॥ (१७) अंबड श्रावक ने जिन प्रतिमा वांदी है। (१७) वें प्रश्नोत्तर में जेठमलने अंबड तापस के अधिकारका पाठ आनंद श्रावक के पाठके सहश ठहराया है सो असत्य है इसलिये श्री उववाइसूत्र का पाठ अर्थसहित लिखते हैं -तथाहि - । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) अंबडस्सणं परिवायगस्स नो कप्पडू अण्ण उथिएवाअण्णउथ्थिय देवयाणि वाअण्णउध्यियपरिग्गहियाई अरिहंत चेहयाई वा वंदित्तए वानमंसित्तएवा गण्णथ्य अरिहंते वा अरिहंतचेइआणिवा ॥ अर्थ-अंबड परिव्राजक को न कल्पेअन्यतीर्थी,अन्यतीर्थी के देव और अन्यतीर्थी के ग्रहण किये अरिहंत चैत्य जिनप्रतिमा को वंदना नमस्कार करना, परंतु अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमाको वंदना नमस्कार करना कल्पेश्॥ इस पूर्वोक्त पाठ को आनंद के पाठ के सदृश जेठमल ठहराता हैपरंतुआनंद गृहस्थी था और अंबड संन्यासीअर्थात् परिव्राजकथा, इसवास्ते इन दोनोंका पाठ एकसरिखानहीं हो सकता,तथा आनंदका पाठ हमने पूर्व लिखदिया है तिसकेसाथ इसपाठ को मिलानेसे मालूम होजवेगा कि आनंद के पाठमें अन्य दर्शनीको अशन, पान, खादम, स्वादम देना नहीं,वारंवार देना नहीं, विना बुलाये बुलाना नहीं,वारंवार बुलाना नहीं,यह पाठ है और इसमें वोह पाठ नहीं है टीका-अन्नउथिएवत्ति अन्ययूथिका अर्हत्संघापेक्षया अन्ये शाक्यादयः चेइयाइंति अर्हच्चैत्यानि जिनप्रतिमा इत्यर्थः णणण थ्थ अरिहंतेवत्ति न कल्पते इह योयं नेति प्रतिषेधः सोन्यत्राहगाः अहंतो वर्जयित्वेत्यर्थः सहि किल परिव्राजक वेषधार कोतोन्ययथिक देवतावन्दनादिनिषेधेअर्हतामपिवन्दनादि निषेधो माभूदितिकृत्वा णण्णथ्थे त्याद्यधीतम् ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) जेठमल लिखताहै कि"आनंदादिक श्रावकोंने व्रत आराधे,पडिमा अंगीकार करी, संथारा किया, यह सर्व सूत्रों में कथन है, परंतु कितना धन खरचा और किस क्षेत्र में खरचा सो नहीं कहा है ॥ उत्तर-अरे भाई ! सूत्र में जितनी बात की प्रसंगोपात जरूरत थी, उतनी कही है, और दूसरा नहीं कही है, और जो तुम विना कही कुल वातोंका अनादर करतेहो तो आनंदादिक दश ही श्रावकों ने किस मुनिको दान दिया, वो किस मुनिको लेने के वास्ते सामने गये, किस मुनिको छोड़ने वास्ते गये, किस रीति से उन्होंने प्रति क्रमण किया इत्यादि बहुत बातें जोकि श्रावकोंक वास्ते सभवितहैं कहीनहीं हैं,तो क्या वो उन्होंने नही करी है ? नही जरूर करी हैं, तैसे ही धन खरचने संबंधी बातभी उसमें नहीं कहीहै, परंतु खरचा तो जरूर हा है, और हम पूछते हैं कि आनंदादि श्रावकों ने कितने उपाश्रय कराये सो बात सूत्रों में कही नहीं है, तथापि तुम ढूंढक तथा श्रोठाणागमूत्रके चौधे ठाणेके चौथे उद्देशेमें श्रावक शब्द का अर्थ टीकाकार महाराज ने किया है, उसमें भी सात क्षेत्रमें धन लगाने से श्रावक बनता है, अन्यथा नही तथाहि: श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थ श्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्रास्ताथावपन्ति गुणवत्सप्तक्षत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति कास्ततःकर्मधारये श्रावका इतिभवति॥ यदाह ! श्रद्धालुतां श्राति पदार्थ चिन्तनद्धानानि पात्रेषु वपत्यनारतं । किरत्यगुण्यानि सुसाधु संबनादथापि तं श्रावक माहुरंजसा । तथा थीदानकुलझमे मातक्षेत्र में बीजा धन यावत् मोक्षफलका देनेवान्ना कहाहै तथाधिःजिणभवणबिंब पुत्थय संघसरूवेसु सत्त खित्तेसु। वविअंधणपि जायइ सिवफलयमहो अणंतगणं ॥ २०॥ इत्यादि पनेशमानों में सप्तक्षेत्र विषयिक वर्णन,परंतु भानष्टिविना कैसे दिखे ! Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) लोग उपाश्रय कराते हो सो किल शास्त्रानुसार कराते हों सोदिखाओ *! और जेठमल लिखता है कि "आनंदादिक श्रावकों ने संघ निकाला, तीर्थ यात्रा करी, मंदिर बनवाये, प्रतिमा प्रतिष्ठी वगैरह बातें सूत्र में होवे तो दिखाओ " उत्तर - आनंदादिक श्रावकों के जिनमंदिरों का अधिकार श्रीसमवायांग सूत्र में है, आवश्यक सूत्र में तथा योग शास्त्रमें श्रेणिक राजाके बनवाये जिनमंदिर का अधिकार है, वग्गुर श्रावक ने श्री मल्लिनाथजी का मंदिर बंधाया सो अधिकार श्री आवश्यक सूत्र में है, तथां उसी सूत्र में भरत चक्र वर्ती के अष्टापद पर्वत पर चउवीस जिनबिंबस्थापन कराने का अधिकार है, इत्यादि अनेक जैनशास्त्रों में कथन है, तथापि जैसे नेत्र विना के आदमी को कुछ नहीं दिखता है, वैसे ही ज्ञानचक्षु विना के जेठमल और उसके ढूंढकों को भी सूत्र पाठ नहीं दिखता है, तथा जेठमल ने कुयुक्तियों करके सात क्षेत्र उथापे हैं तिनं का अनुक्रम से उत्तर- १-२ क्षेत्र जिनबिंब तथा जिन भवन - इसकी बाबत जेठमल ने लिखा है कि " मंदिर प्रतिमा तो पहलेथे ही नहीं, और जो थे ऐसे कहोगे तो किसने कराये वगैरह अधिकार सूत्र में दिखाओ" इसका उत्तर प्रथम हमने लिख दिया है, और उस से दोनों क्षेत्रसिद्ध होते हैं ॥ ३ क्षेत्र शास्त्र - इसकी बाबत जेठमल लिखता है कि " पुस्तक तो महावीर स्वामी के पीछे (९८०) वर्षे लिखे गये हैं इससे पहिले तो पुस्तक ही नहीं थे, तो पुस्तक के निमित्त द्रव्य निकालने का क्या कारण ?” उत्तर- इस बात का निर्णय प्रथम हम कर आए हैं, तथा * पंजाब देशमें थानवा, जैनसभा वगैरह नाम से मकान बनाये जाते हैं; जिनके निमित्त धानक या जैनसभा, या धर्म के नाम से चढ़ावा भी लोगों से लिया जाता है ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . १२३.) श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि "दव्वसुयं जं पत्तय पुथ्थय लिहियं " द्रव्य श्रुत सो जो पाने पुस्तक में लिखा हुआ है, इससे सूत्रकार के समय में पुस्तक लिखे हुए सिद्ध होते हैं, तथा तुमारे कहे मूजिब उस समय बिलकुल पुस्तक लिखे हुए थे ही नहीं तो श्रीऋषभदेव स्वामी की सिखलाई अठारां प्रकार की लिपी का व्यवच्छेद होगया था ऐसे सिद्ध होगा और सो बिलकुल झूठ है, और जो अक्षर ज्ञान उस समय होवे ही नहीं तो लौकिक व्यवहार कैसे चले ? अरे ढूंढको ! इससे समझो कि उस समय में पुस्तक तो थे, फक्त सूत्रही लिखे हुए नही थे और सो देवढी गणि क्षमाश्रमण ने लिखे हैं परंतु (९८०) वर्षे पुस्तक लिखेगये हैं, ऐसे तुमारे जेठमल ने लिखा है सो किस शास्त्रानुसार लिखा है ? क्योंकि तुमारे माने (३२) सूत्रों में तो यह बात है ही नहीं ॥ ४-५ मा क्षेत्र साधु, और साध्वी इस की बाबत जेठमल ने लिखा है कि “साधु के निमित्त द्रव्य निकाल के तिसका आहार, अनुयोगद्वार सूत्र के पाठ की टीका - तृतीयभेद परिज्ञानार्थमाह सेकिंतमित्यादि अत्र निर्वचनं जाणगसरीर भवियसरीर वइरितं दव्वसुतमित्यादि यत्र ज्ञशरीर भव्यशरीरयाः सर्वधि अनन्तरोक्त स्वरूपं न घटत तत्ताभ्या व्यतिरिक्तं भिन्न द्रव्यश्रुतं किं पुनस्तदित्याह पत्तययुध्थय लिहियंति पत्र काणि तलताल्यादिसंबंधीनि तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकास्ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाश्च तेषु लिखतं पत्रकपुस्तक लिखतं अथवा पोथ्ययंति पोतं वस्त्रं पत्रकाणिच पोतंच तेषु लिखतं पत्रकपोत लिखितं ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतं अत्रच पत्रकादि लिखितश्रुतस्य भावश्रुत कारणत्वात् द्रव्यत्वमवसेयमिति ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) उपधि, उपाश्रय, करावे तो सो साधुको कल्पे नहीं, तो उस निमित्त धन निकालने का क्या कारण ? इस बात पर श्री दशवकालिक, आचारांग, निशीथ वगैरह सूत्रों का प्रमाण दिया है" तिसका उत्तर-साधुसाध्वी के निमित्त किया आहार, उपधि, उपाश्रय प्रमुख तिनको कल्पता नहीं है, सो बात हमभी मान्य करते हैं; साधु अपने निमित्त वना नहीं लेते हैं और सुज्ञ श्रावक देतेभीनहींहै, परंतुश्रावक अपनी शुद्ध कमाई के द्रव्य में से साधु,साध्वा को आहार, उपधि, वस्त्र, पात्र प्रमख से प्रतिलाभते हैं, परंतु साधु साध्वी के निमित्त निकाले द्रव्य में से प्रतिलाभते नहीं हैं, और साधु लेते भी नहीं हैं, इन दोक्षेत्रके निमित्त निकाला द्रव्य तो किसी मुनिको महाभारत व्याधि होगया होवे उसके हटाने वास्ते किसी हकीम आदिको देना पड़े,अथवा किसी साधुने काल किया होवेतिस में द्रव्य खरचना। पड़े इत्यादि अनेक कार्यों में खरचा जाता है तथा पूर्वोक्त काम में भी जो धनाढय श्रावक होते हैं तो वो अपने पास सं ही खरचते हैं, परंतु किसी गाममें शक्ति रहित निर्धन श्रावक रहते होवें और वहां ऐसा कार्य आनपड़े तो उसमें से खरचा जाता है । ६-७ मा क्षेत्र श्रावक, और श्राविका इनकी बाबत जेठमल लिखता है कि 'पुण्यवान् होवे सो खैरात का दान लेवे नहीं" परंतु अकल के बारदान ढूंढक भाई! समझो तो सही सब जीव एक सरीखे पुण्यवान् नहीं होते हैं,कोई गरीब कंगालभी होते हैं कि जिन को खाने पीने की भी तंगी पड़ती है तो तैसे गरीब सधर्मीको द्रव्य देकर मदद करनी तिनको आजीविकामें सहायता देनीयह धनाढा श्रावकों का फरज है इस वास्ते धनी गृहस्थी अपने सह धम्मियों को मदद करते हैं, और जो अपने में शक्ति न होवे तो तिस क्षेत्र Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (1 ) निमित्त निकाले धन में से सहायता करते हैं और सहधर्मी को सहायता करे, यह कथन श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अठाईसमें अध्ययन में है * जेठपल लिखता है कि श्रावक दीन अनाथ को अंतराय देवे नहीं" यह वात सत्य है, परंतु पूर्वोक्त लेखको विचार के देखोगे तो मालूम हो जावेगा कि इससे दीन अनाथ को कोई अंतराय नही होती है, तथा इस रीति से श्रावकों को दिया द्रव्य खैरायतका भी नहीं कहाता है ऊपरके लेखसे शास्त्रोंमें सात क्षेत्र कहे हैं, तिनमें द्रव्य लगाने से अच्छे फल की प्राप्ति होती है, और सुश्रावकों का द्रव्य उन क्षेत्रों में खरच होता था,और हो रहा है,ऐसे सिद्ध होता है । *श्रीउत्तराध्ययन सूत्रका पाठ यह है :निस्तंकिय निक्कंखिय निवितिगिच्छा अमूढ दिठ्ठीय । उववह थिरी करणे वच्छल्ल पभावणे अकृ॥३१॥ टीका-निःशंकित देशतःसर्वतश्चकारहितत्वंपुनर्निःकक्षितत्वं शाक्याद्यन्यदर्शनग्रहणवाञ्छारहितत्वं निर्विचिकित्स्य फलं प्रति सन्देहकरणं विचिकित्सा निर्गता विचिकित्सा निर्विचिकित्सा तस्य भावोनिर्विचिकित्स्यं किमेतस्य तपःप्रभूनिक्लेशस्य फलं वर्त्तते नवेति लक्षणं अथवा विदन्तीति विदः साधवस्तेषां विजुगुप्सा किमते मल मलिनदेहाः अचित्तपानीयेन देहं प्रक्षालयतांको दोषः स्यादित्यादि निन्दा तदभावो निर्विजुगुप्संप्राकृतार्षत्वात्सूत्रे निर्विचिकित्स्यं इति पाठः अमूटा दृष्टि रमूढदृष्टिः ऋद्धिमत्कुतीथिकानां परिव्राजकादी नामृद्धिं दृष्टा अमूढा किमस्माकं दर्शनं यत्सर्वथादरिद्राभिभूतं इत्यादि मोहरहिता दृष्टिर्बुद्धिरमूटहष्टिः यत्परतीर्थिनांभूयसीमृद्धिं दृष्ट्रापिस्वकीयेऽकिञ्चने धर्ममतेः स्थिरीभावः।अयंचतुर्विधोप्याचार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रसंग में जेठमल ने श्रीदशवैकालिकसूत्रः की यह गाथा लिखी है-तथाहिःपिंड सिज्जंच वश्यं च चउथ्थं पायमेवय। अकप्पियन इच्छेज्जापडिगाहिंचकप्पियंांठा - इस इलोकका अर्थ प्रकट पणे इतना ही है कि आहार,शच्या वस्त्रऔर चौथा पात्र यह अकल्पनिक लेने की इच्छा न करे, और कल्पनिक लेलेवे तथापि जेठमल ने दंडे को अकल्पनिक ठहराने वास्ते पूर्वोक्त श्लोक के अर्थमें 'दंडा' यह शब्द लिख दिया है और तिससे भी जेठमल दडे को अकल्पनिक सिद्ध नहीं कर सका है, बलकि जेठमल के लिखने से ही अकल्पनिक दंडे का निषेध काने से कल्पनिक दंडा साधुको ग्रहण करना सिद्ध होगया,आहार, शय्या, वस्त्र, पात्रवत् । तो भी साधुको दंडा रखना सूत्र अनुसार है, सो ही लिखते हैं:' श्री भगवतीसूत्र में विधिवादे दंडा रखना कहा है सो पाठ प्रथम प्रश्नोत्तर में लिखा है। .. 'श्री ओघनियुक्ति सूत्र में दंडे की शुद्धता निमित्त तीन गाथा कही हैं। अन्तरंग उक्तोऽथवाह्याचारमाह । उपबृंहणा दर्शनादिगुणवतांप्रशंसा पुनः स्थिरीकरणं धर्मानुष्ठानं प्रति सीदतां धर्मवतां पुरुषाणां साहाय्यकरणेनधर्मेस्थिरीकरणं पुनर्वात्सल्यं साधर्मिकाणां भक्तपानायेभक्तिकरणं पुनः प्रभावनाच स्वतीर्थोन्नतिकरणमेतेऽष्टौ आचाराः सम्यकस्य ज्ञेया इत्यर्थः ॥३१॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) " श्री दशवकालिक सूत्र में विधिवादे 'दंडगंसिवा' इसशब्द करके दंडा पडिलेहना कहा है। . . - श्रीप्रश्न व्याकरण सूत्र में पीठ, फलक, शय्या, संथारा, वस्त्र, पात्र, कंबल, दंडा, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका, पाद प्रोंछन इत्यादि मालिक के दिये विना अदत्ता दान, साधु ग्रहण न करे ऐसे लिखा है। इससे भी साधु को दंडा ग्रहण करना सिद्ध होता है, अन्यथा विना दिये दंडे का निषेध शास्त्रकार क्यों करते ? श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रका पाठ यह है । अवियत्त पीढ फलग सेज्जा संथारगवत्थ पाय कंबल दंडगर ओहरण निसज्ज चोलपट्टग महपोत्तिय पादपंछणादि भायणंभंडोवहिउवगरणं ॥ . ... इत्यादि अनेक जैन शास्त्रों में दंडेका कथन है,तो भी अज्ञानी ढूंढक विना समझे विलकुल असत्य कल्पना करके इस बातका खंडन करते हैं, (जो कि किसी प्रकार भी हो नहीं सकता है ) सो केवल उनकी मूर्खता का ही सूचक है । प्रश्नके अंतमें जेठमल ढूंढकने “सात क्षेत्रों में धन खरचाते हो उससे चहुट्टेके चोर होतेहो" ऐसा महा मिथ्यात्वके उदयसे लिखाहै परन्तु उसका यह लिखना ऊपरके दृष्टांतों से असत्य सिद्ध होगया है क्योंकि सूत्रों में सात क्षेत्रों में द्रव्य खरचना कहा है, और इसी मूजिव प्रसिद्ध रीते श्रावकलोगद्रव्य खरचते हैं, और उससे वो पुण्यानुबंधि पुण्य वांधते हैं, इतना ही नहीं, बलकि बहुत प्रशंसाके पात्र होते हैं यह बात कोई छिपी हुई नहीं है परन्तु असलीतहकीकात करनेसे Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ ) मालूम होता है कि चहुद्दे के चोर तो वोही हैं जो सूत्रों में कही हुई बातों को उत्थापते हैं,सूत्रों को उत्थपाते हैं,अर्थ फिरा लेते हैंशात्रोक्त भेषको छोड़के विपरीत भेष में फिरते हैं इतनाहीनहीं, परन्तु शासन के अधिपति श्रीजिनराज के भी चोर हैं और इस से इनको निश्चय राज्यदंड (अनंत संसार)प्राप्तहोनेवाला है। ----*ORNON(१९) द्रौपदी ने जिन प्रतिमा पूजी है। १९ में प्रश्नोत्तर में द्रौपदीके जिनप्रतिमा पूजने का निषेध करने वास्ते जेठमल ने बहुत कुतर्के करी हैं, परन्तु वे सर्व झूठ हैं इस वास्ते क्रम से तिनके उत्तर लिखते हैं। श्रीज्ञाता सूत्रमें द्रौपदी ने जिन मंदिर में जाकर जिन प्रतिमा की १७ सतरे भेदे पूजा करी, नमोथ्थुणं कहा, ऐसा खुलासा पाठ है-यतः तएणंसा दोवड्रायवर कन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छ मज्जणघर मणुप्पविसद् राहाया कयबलि कम्मा कयकोउय मंगल पायंच्छित्ता सुद्ध पावसाइंवत्थाई परिहियाई मज्जण घरात्री पडिणिक्खमइजेणव जिनघरे तेणेव उवागच्छद्द जिनधरमणु पविसह पविसइत्ता आलोए जिणपडिमाणं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) पणामं करेइ लोमहत्थयं परामुसइ एवं जहा सुरियाभो जिणपडिमाओ अच्चे तहेव भाणियव्वं जावधुवं डहइ धुवं डहइत्ता वाम जाणु अंचेइ अंचइत्ता दाहिण जाणु धरणी तलंसिनिहट्ट तिखत्तो मुद्धाणं धरणीतलंसि निवेसेइ निवेसद्वत्ता इसिं पच्चुणमइ करयल जाव कट्ट एवं वयासि नमोध्थणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदह नमंस जिन घरानो पडिणिक्खमइ ॥ अर्थ-तब सो द्रौपदी राजवरकन्या जहां स्नान मज्जन करने का घर (मकान ) है तहां आवे, मज्जन घर में प्रवेश करे, स्नान करके किया है वलिकर्म पूजाकार्य अर्थात् घरदेहरे में पूजा करके कौतुक तिलकादि मंगल दधि दूर्वा अक्षतादिक सो ही प्रायश्चित्त दुःस्वप्नादि के घातक किये हैं जिसने शुद्ध और उज्ज्वल बड़े जिन मंदिर में जाने योग्य ऐसे वस्त्र पहिर के मज्जन घर में से निकले,जहां जिनघर है वहां आवे, जिन घर में प्रवेश करे, करके देखते ही जिनप्रतिमा को प्रणाम करे पीछे मोरपीछी ले, लेकर जैसे सूर्याभ देवता जिन प्रतिमाको पूजे तैसे सर्व विधि जाणना, सो सूर्याभका अधिकार यावत् धूपदेने तक कहना।पीछे धूप देके बामजानु (खब्बा गोड़ा ) ऊंचा रखे, जिमणा जानु (सज्जा गोड़ा)धरती पर स्थापन करे, करके तीन वेरी मस्तक पृथ्वी पर स्थापे, स्थापके थोड़ीसी नीचे Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३० झुक के, हाथ जोड़के,दशों नखों को मिलाके मस्तक पर अंजली करके ऐसे कहे, नमस्कार होवे अरिहंत भगवंत प्रति यावत् सिद्धिगतिको प्राप्त हुए हैं, यहाँ यावत् शब्दसे संपूर्ण शक्रस्तव कहना, पीछे वंदना नमस्कार करके जिन घरसे निकले। पूर्वोक्त प्रकारके सूत्रोंमें कथन हैं तो भी मिथ्यादृष्टि ढूंढिये जिन प्रतिमा की पूजा नहीं मानते हैं सो तिनको मिथ्यात्वका उदय है। - जेठमल ने लिखाहै कि किसीने वीतरागकी प्रतिमा पूजी नहीं है और किसी नगरी में जिनचैत्य कहे नहीं है ” इसका उत्तर-श्री उक्वाइ सूत्र में चंपा नगरी में "बहुला अरिहंत चेइयाई " अर्थात् बहुते अरिहंतके चैत्य हैं एसे कहा है, और अन्य सब नगरीयों के वर्णन में चंगनगरी की भलावणा सूत्रकार ने दी है, तो इससे ऐसे निर्णय होता है कि सब नगरीयों में महल्ले महल्ले चंपान गरी की तरह जिन मंदिर थे, तथा आनंद, कामदेव,शंख, पुष्कली प्रमुख श्रावकों तथा श्रेणिक, महाबल प्रमुख राजाओं की करी पूजाका अधिकार सूत्रोंमें बहुत जगह है इसवास्ते जिस जगह पूजा का अधिकार है 'उस जगह जिनमंदिर तो है ही इस में कोई शक नहीं तथा तिन श्रावकों के पूजा के अधिकार में “ कयबलि कम्मा" शब्द खलासा है जिसका अर्थस्वपर सब दर्शन में 'देवपूजा' ही होता है, इसवास्ते बहुत श्रावकों ने जिन प्रतिमा पूजी है और बहुत ठिकाने जिन मंदिर थे ऐसे खुलासा सिद्ध होता है। - जेठमल ने लिखाहैकि" फकत द्रौपदी ने ही पूजा करी है और सोभी सारी उमर में एक हीवार करी है" उत्तर-इस कुमति के कथन • का सार यह है कि पूजा के अधिकार में स्त्री कही तो कोई श्रावक क्यों नहीं कहा ? अरे मूर्यो के भाई ! रेवती, श्राविकाने औषध Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहराया तो किसी श्रावक ने विहराया क्यों नहीं कहा.! तथा इस अवसर्पिणी में प्रथम सिद्ध मरुदेवी माता हुई, श्री वीर प्रभुका अभिग्रह पांच दिन कम ६ महीने चंदन बालाने पूर्ण किया, संगम के उपसर्ग से ६ महीने वत्सपाली बुढिया क्षीर से प्रभु को प्रतिलाभती भई, तथा इस चउवीसी में श्रीमल्लिनाथ जी अनंती चउवीसीयां पीछे स्त्री पणेतीर्थंकर हुए,इत्यादिक बहुत बड़े २ काम इस चउवीसी में स्त्रियोंने किये हे प्रायः पुरुष तो शुभ कार्य करे उसमें क्या आश्चर्य है ! परंतु स्त्रियों को करना दुर्लभ होता है,पुरुष को तो पूजाकी सामग्री मिलनी सुगम है, परंतु स्त्री को मुश्कल है, इसवास्ते द्रौपदी का अधिकार विस्तार से कहा है, यदि स्त्रीने ऐसे पूजा करी तो पुरुषों ने बहुत करी हैं इस में क्या संदेह है ? कुछ भी नहीं । और जो कहा है कि एक ही वार पूजाकरी कही है पीछे पूजा करी कहीं भी नहीं कही है इस का उत्तर-प्रतिमा पूजनी तो एक वार भी कही है, परतु द्रौपदी ने भोजन किया ऐसे तो एक वार भी नहीं कहा है तो तुमारे कहे मजब तो तिसने ग्वाया भी नहीं होवेगा! तथातुंगीया नगरीक श्रावकों नेसाधुको एक ही समय वंदना करी कही है, तो क्या दूसरे समय चंदना नहीं करी होगी ? जरा विचार करो कि लग्न (विवाह) लमय मोहकी प्रबलता में भी ऐसे पूर्णोल्लाससे जिन पूजा करी है तो दूसरे समय अवश्य पूजा करीही होवेगी इसमें क्या संदेह है? परंतु सूत्रकार को ऐसे अधिकार वारवार कहने की जरूरत नहीं है, क्योकि आगमकी शेली एसी ही है, और उस को जानकार पुरुष हा समझते हैं; परंतु तुमारे जैसे बुद्धिहीन मूर्ख नहीं समझते है, सो तुमारामिथ्याव का उदय है। .. जेठमलने लिखा है कि “पयोत्तर राजा के वहां द्रौपदीने बेले Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) लेके पारणे आयंबिलका तप कियापरंतु पूजातो नहीं करी" उत्तरअरेभाई! इतना तो समझो कि तपस्या करनी हो तो स्वाधीन बात है और पूजा करने में जिनमंदिर तथा पूजाकी सामग्री आदि का योग मिलना चाहिये, सो पराधीन तथा संकट में पड़ी हुई द्रौपदी उसः स्थल में पूजा कैसे कर सक्ती ? सो विचार के देखो ! जेठमल ने लिखा है कि "द्रौपदी ने पूर्व जन्म में सात काम अयोग्य करे,इसवास्ते तिसकी करी पूजा प्रमाण नहीं"उत्तर-इससे तो ढूंढक और बुद्धिहीन ढूंढक शिरोमणि जेठमल श्रीमहावीर स्वामीको भी सञ्चेतीर्थकर नहीं मानत होवेंगे ! क्योंकि श्री महावीरस्वामी के जीवने भी पूर्व जन्म में कितनेक अयोग्य काम करे धे-जैसे कि (१) मरीचिके भवमें दीक्षा विराधी सो अयोग्य। (२)त्रिदंडीका भेष बनाया सो अयोग्य । (३) उत्सूत्र की प्ररूपणा करी सो अयोग्य । (४) नियाणा किया सो अयोग्य। (५) कितनेही भवों में संन्यासी होके मिथ्यात्व की प्ररूपणा ___ करी सो अयोग्य। (६) कितनेही भवों में ब्राह्मण होके यज्ञ करे सो अयोग्य । (७) तीर्थंकर होके ब्राह्मणके कुलमें उत्पन्न हुए सो अयोग्य। इत्यादि अनेक अयोग्य काम करतो क्या पूर्वादि जन्म में इन कामों के करनेसे श्रीमन्महावीर अरिहंत भगवंत को तीर्थंकर न मानना चाहिये ? मानना ही चाहिये, क्योंकि कर्मवशवर्ती जीव अनेक प्रकार के नाटक नाचता है, परंतु उससे वर्तमान में तिसके उत्तमपणे को कुछभी बाधा नहीं आती है ; तैसे ही द्रौपदी की करी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) जिनप्रतिमा की पूजा श्रावक धर्मकी रीतिके अनुसार है, इसवास्ते सोभी मानना ही चाहिये, न माने सो सूत्रविराधक है। जेठमल ने लिखा है कि"द्रौपदीकी पूजा में भलामणभी सूर्याभ कृत जिनप्रतिमा की पूजाकी दी है परंतु अन्य किसी की नहीं दी है " उत्तर-सूर्याभ की भलामण देने का कारण तो प्रत्यक्ष है कि जिन प्रतिमाकी पूजाका विस्तार श्रीदेवर्धिगणि क्षमाश्रमणजी ने रायपसेणी सूत्रमें सूर्याभ के अधिकारमें ही लिखा है,सोएक जगह लिखासब जगह जान लेना,क्योंकि जगह जगह विस्तारपूर्वक लिखने से शास्त्रभारी हो जाते हैं, और आनंद कामदेवादि की भलामण नहीं दी, तिस का कारण यह है कि तिनके अधिकार में पूजा का पूरा विस्तार नहीं लिखा है तो फेर तिनकी भलामण कैसे देखें ? तथा यह भलामणा तीर्थंकर गणधरों ने नहीं दी है, किंतु शास्त्र लिखने वाले आचार्यने दी है, तीर्थंकर महाराजनेतो सर्व ठिकाने विस्तार पूर्वक ही कहा होगा परंतु सूत्र लिखने वालेने सूत्र भारी हो जाने के विचार से एक जगह विस्तार से लिख कर और जगह तिस की भलामणा दी है *। तथा आनंद श्रावक को सूत्र में पूर्ण बाल तपस्वी की भला *जैसे ज्ञातासूत्र में श्रीमल्लिनाथ स्वामी के जन्म महोत्सवकी भलामण जंबूदीप पन्नति सूत्रकी दी है सो पाठ यह है तेणं कालेणं तेणं समएणं अहोलोगवत्थव्वाओअहदिसाकमारिय महत्तरियाओ जहा जंबूद्दीवपण्णत्तिए सव्वं जम्मणं भाणियव्वं णवरं मिहिलियाए गयरीए कुंभरायस्स भवणंसि पभावइए देवीए अभिलावो जोएयवो जाव गंदीसरवर दीवे महिमा॥ इत्यादि अनेक पापों में भनेक शास्त्रों की मनमाया दी है। " Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणा दी है, तो इससे क्या आनंद मिथ्या दृष्टि हो गया ? नहीं ऐसे कोई भी नहीं कहेगा, ऐसेही यहां भी समझना * ॥ , जेठमलने लिखा है कि"द्रौपदीसम्यग दृष्टिनी नहीं थी तथा श्राविका भी नहीं थी क्योंकि तिसने श्रावक व्रत लिये होते तो पांच भर्तार (पति) क्यों करती?" उत्तर- द्रौपदीने पूर्वकृत कर्म के उदय से पंचकी शाक्षासे पांच पति अंगीकार करे हैं परंतु तिसकी कोई पांच पति करनेकी इच्छा नहीं थी और इस तरह पांच पति करनेसे भी तिसके शील ब्रतको कोई प्रकारकी भी बाधा नहीं हुई है,और शास्त्रकारोंने तिसकोमहासती कहा है,तथा बहुतसे ढूंढीयेभीतिसकोसती मानते हैं, परंतु अकलके दुश्मन जेठमल की ही मति विपरीत हुई है जो तिसने महासतीको कलंक दिया है, और उससे महा पाप का बंधन किया है, कहाहै कि "विनाशकाले विपरीत बुद्धिः" श्रीभगवती सूत्र में कहाहै कि जघन्यसे चाहे कोई एक व्रत करे तोभी वो श्रावक कहाता है, पुनः तिसही सूत्र में उत्तर गुण पञ्चक्खाण भा लिखे हैं तथा श्रीदशाश्रुतस्कंध सूत्र में "दसण सावए" अर्थात सम्यक्त्व धारी को भी श्रावक कहा है श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्रवृत्ति में भी द्रौपदी को श्राविका कहा है, श्रीज्ञाता सूत्रमेंकहाहैकि तएणं सा दोवडू देवी कच्छल्लणारयं असंजय अविरय अप्पडिय अप्पच्चक्खाय पाव. . *श्रीमातासूत्रमें श्रीमल्लिनायस्वामी के दोक्षानिर्गमन को जमालि को भलामणा दी है तो क्या प्रोमशिनाथस्वामी जमालि सरीखेहो गये ? कदापि नही,तथा इमी प्रातासभके पाठसे सूमि मन्तामणा, लिखने वाले पाचार्य ने दो यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता नहीं तो जमालिजी श्रीमहावीरस्वामी के समय मे हुमा उसके निर्गमनकीमला. मला श्रीमशिनाथस्वामीके पधिकार में कैसेहो सकेगी? श्रीज्ञाता सबका पाठ या "एवं विणिग्गमो जहा जमालीस्स" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मति कटु णो आढाइ णोपरियाणाइणी अभुढेइ ॥ अर्थ- जब नारद आया तब द्रौपदी देवी कच्छुलनामा नवमें नारदको असंजती, अविरती, नहीं हणे,नहीं पच्चखे पापकर्म जिसने ऐसे जानके न आदर करे, आयाभी नजाने,और खड़ीभी न होवे।। अब विचार करोकि द्रौपदीने नारद जैसे को असंजती जानके पंदना नहीं करी है तो इससे निश्चय होता है कि वोश्राविका थी, और तिसका सम्यक्त्ववत आनंदश्रावक सरीखाथा,तथा अमरकंका नगरी में पद्मोत्तरराजा द्रौपदीको हरके लेगया उस अधिकार में श्री ज्ञातासूत्र में कहा है किः तएणं सा दोवदेवी छठं छ?णं अणिखित्तेणं आयंबिल परिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणो विहरडू ॥ अर्थ- पनोत्तर राजाने द्रौपदी को कन्याके अंतेउरमें रखा,तब वो द्रौपदी देवी छठ छठके पारणे निरंतर आयंबिल परिगृहीत तप कर्म करके अर्थात् बले बेलेके पारणे आयंबिल करती हई आत्माको - भावती हुई विचरती है,इससे भी सिद्ध होता है कि ऐसे जिनाज्ञायुक्त तपकी करने वाली द्रौपदी श्राविकाही थी।। - "द्रौपदीको पांच पतिका नियाणाथा सोनियाणा पूरा होनेसे पहिले द्रौपदीने पूजा करी है इसवास्ते मिथ्यादृष्टि पणेमें पूजाकरी है" ऐसे जेठमलने लिखा है तिसका उत्तर- श्रीदशाश्रुतस्कंध में नवप्रकारके नियाणे कहे हैं, तिनमें प्रथमके सात नियाणे काम भोग के हैं, सो उत्कृष्ट रससे नियाणा किया होवे तो सम्यक्त्व प्राप्ति न Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवे, और मंद रसले नियाणा किया होवे तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जावे,जैसे कृष्णवासुदेव नियाणा करके होये हैं तिनकोभी सम्यक्त्व कीप्राप्ति हुई है, जेकर कहोगे कि" वासुदेव की पदवी प्राप्त होने पर नियाणा पूर होगया इसवास्ते वासुदेवकी पदवी प्राप्तिहुए पीछे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है, तैसे द्रौपदी कोभी पांच पति की प्राप्ति से नियाणा पूरा होगया पीछे विवाह (पाणिग्रहण)होनेके पीछे द्रौपदी ने सम्यक्त्व की प्राप्ति करी" तो सोअसत्य है; क्योंकि नियाणातो सारेभवतक पहुंचताहै,श्रीदशाश्रुतस्कंध में हीनवमानियाणा दीक्षा का कहा है,सो दीक्षा लेनसे नियाणा पूराहोगया ऐसे होवेतो तिस ही भवमें केवलज्ञान होना चाहिये,परंतु नियाणेवालेको केवलज्ञान होनेकी शास्त्रकारने ना कही है। इसवास्ते नियाणा भवपूरा होवे वहां तक पहुंचे ऐसे समझना और मंद रस से नियाणा किया होवे तो सम्यक्त्व आदि गुण प्राप्त हो सकते हैं, एक केवलज्ञान प्राप्त न होवे, ऐसे कहा है; तो द्रौपदी का नियाणा मंद रस से ही है इस वास्ते बाल्यावस्था में सम्यक्त्व पाई संभवे है ॥ ' जैसे श्रीकृष्णजीने पूर्व भवमें नियाणा किया था तो वासुदेव का पदवी सारे भव पर्यंत भोगे विना छुटका नहीं, परंतु सम्यक्त्व को वाधा नहीं; तैसे ही द्रौपदी ने पांच पतिका नियाणा किया था तिससे पांचपति होए विना छूटका नहीं, परंतुसोनियाणा सम्यक्त्व को.बाधा नहीं करता है ॥ .. इस प्रसंगमें जेठमलने नियाणेके दो प्रकार (१) द्रव्यप्रत्यय (२) भवप्रत्यय कहे हैं,सो झूठ है,क्योंकि दशाश्रुतस्कंधसूत्रमें ऐसा कथन नहीं है, दशाश्रुतस्कंधके नियाणे मूजिव तो द्रौपदी को सारे जन्ममें केवली प्ररूप्या धर्म भी सुनना न चाहिये और द्रौपदी ने तो Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) संयम लिया है, इसवास्ते द्रौपदी का नियाणा धर्मका घातक नहीं था और चक्रवर्ती तथा वसुदेवको भवप्रत्यय नियाणा जेठमल ने कहा है और जब तक नियाणेका उदय होवे तबतक सम्यक्त्वकी प्राप्ति न होवे ऐसे भी कहा है, तो कृष्ण वासुदेव को सम्यक्त्वकी प्राप्ति कैसे हुई सो जरा विचार कर देखा ! इसले सिद्ध होता है कि जेठमल का लिखना स्वकपोल कल्पित है, यदि आम्नाय विना और गुरुगम विना केवल सूत्राक्षर मात्र को ही देख के ऐसे अर्थ करोगे तो इसही दशाश्रुतस्कंधमें तीसस्थानके महामोहनी कर्म वांधे ऐसेकहाहै और महामोहनी कर्मकीउत्कृष्टी स्थिति(७० कोटा कोटी सागरोपमकीहै तो परदेशी राजाने घने पंचेंद्रीजीवोंकी हिंसा करी, ऐसे श्रीरायपसेणी सूत्र में कहा है तो तिसको अणुव्रत की प्राप्ति न होनीचाहिये तथा महामोहनी कर्म बांधके संसार में रुलना चाहिये, परंतु सो तो एकावतारी है, तो सूत्रकी यह बात कैसे मिलेगी? इसवास्ते सूत्र वांचना और तिसका अर्थ करना सो गरुगम से ही करना चाहिये,परंतु तुम ढूंढकों को तो गुरुगम है ही नहीं, जिससे अनेक जगा उलटा अर्थ करके महा पाप बांधते हो और सूत्रमें द्रौपदीने पूजा करी वहां सूर्याभ की भलामणा दी है, इससे भी द्रौपदी अवश्यमेव सम्यक्त्ववंती सिद्ध है ; तथा विवाह की महामोहका गिरदी धूम धाम में जिनप्रतिमा की पूजा याद आई, सोपकीश्रद्धावंती श्राविका ही का लक्षण है इसवास्ते द्रौपदी सुलभ बोधिनी ही थी ऐसे सिद्ध होता है। जेठमल ने लिखा है कि "द्रौपदी के माता पिता भी सम्यग दृष्टि नहीं थे क्योंकि उनोंने मांस मदिरा का आहार बनवाया था" तिसका उत्तर-जेठमलका यह लिखना बिलकुल बेहुदा है, क्योंकि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (( ११६ ) -कृष्ण वासुदेव प्रमुख घने राजे उसमें शामिलथे, पांडव भी तिन के बीच में थे, इससे तो कृष्ण पांडवादि कोई भी सम्यग्दृष्टि न हुए चाहरेजेठमल ! तुमने इतना भी नहीं समझा कि नौकर चाकर जोकाम करते हैं सो राजाहीका करा कहा जाता है, इस वास्ते द्रौपदीके पिता मांस नहीं दीया, जेकर उसका पाठ मानोगे तो कृष्ण वासुदेव, पांडव वगैरह सर्व राजायों ने मांस खाया तुमको मानना पड़ेगा ? तथा श्रीउग्रसेन राजाके घर में कृष्ण वासुदेव, प्रमुख बहुत राजाओं के वास्ते मांसमदिराका आहार बनवाया गया था तिसमें पांडवभीथे, तो क्या तिससे तिनका सम्यक्त्व नाश हो जावेगा ? नहीं, श्रेणिक राजा, कृष्ण वासुदेव प्रमुख सम्यक्त्वदृष्टि थे, परंतु तिनको एकभी अणुव्रत नहीं था तो तिससे क्या तिन को सम्यक्त्व विना कहना चाहिये ? नहीं कदापि नहीं, इसवास्ते इसमें समझने का इतना ही है कि उस समय विवाहादि महोत्सव गौरी आदिमें उस वस्तु के बनाने का प्रायः कितनेक क्षत्रियोंके कुलका रिवाज था, इस वास्ते यह कहना मिथ्या है, कि द्रौपदी के माता पिता सम्यग्दृष्टि नहीं थे तथा इस ठिकाने जेठमलने लिखा है कि " ६ प्रकार का आहार बनाया " परंतु ज्ञाता सूत्रमें ६ आहार का सूत्रपाठ है नहीं; तिस - सूत्रपाठ में चार आहारसे अतिरिक्त जो कथन है सो चार आहार का विशेषण है, परंतु ६ आहार नहीं कहे हैं, इससे यही सिद्ध होता है कि जेठमल को सूत्रका उपयोग ही नहीं था, और उसने जो जो बातें लिखी हैं सो सर्व स्वमति कल्पित लिखी है। - जेठमल लिखता है कि " द्रौपदीने प्रतिमा पूजी सो तीर्थंकर की प्रतिमा नहीं थी क्योंकि तिसने तो प्रतिमाको वस्त्र पहिनाए थे और तुम हालकी जिनप्रतिमाको वस्त्र नहीं पहिनाते हो" तिसका उत्तर Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) जिस समय द्रौपदीने जिनप्रतिमा की पूजा करी तिस समय में जिन प्रतिमाको वस्त्र युगल पहिरानेका रिवाज था सो हम मंजूर करते हैं परंतु वस्त्र पहिराने का रिवाज अन्यदर्शनियों में दिन प्रतिदिन अधिक होने से जिनप्रतिमा भी वस्त्र युक्त होगी तो पिछानमें न आवेगी ऐसे समझ के सूत प्रमुख के वस्त्र पहिराने का रिवाज बहुत वर्षो से बंद हो गया है, परंतु हाल में वस्त्र के बदले जिनप्रतिमाको सोना, चांदी हीरा, माणक प्रमुख की अंगीयां पहिराई जाती हैं, तथा जामा और कबजा - फतुइ कमीज - प्रमुख के आकार की अंगीयां होती हैं, जिन को देखके सम्यग्दृष्टि जीव जिनको कि जिनदर्शनकी प्राप्ति होती है, तिनको साक्षात् वस्त्र पहिराये ही प्रतीत होते हैं, परंतु महा मिथ्यादृष्टि ढूंढिये जिनको कि पूर्व कर्म के आवरण से जिन दर्शन होना महा दुर्लभ है तिनको इस बातकी क्या खबर होवे !! तिनको खोटे दूषण निकालने की ही समझ है, तथा हालमें सतरांभेद्रीपूजा में भी वस्त्र युगल प्रभुके समीप रखने में आते हैं, हमेशां शुद्धवस्त्र से प्रभुका अंग पूंजा जाता है, इत्यादि कार्यों में जिन प्रतिमाके उपभोग में वस्त्र भी आते हैं, तथा इस प्रसंग में जेठमल ने लिखा है कि "जिस रीति से सूर्याभने पूजा करी है तिसही रीतिसे द्रौपदीने करी" तो इससे सिद्ध होता है कि जैसे सूर्याभने सिद्धायतन में शाश्वती जिनप्रतिमा पूजी है तैसे इस ठिकाने द्रौपदी की करी पूजा भी जिन प्रतिमा की ही है । - " और जेठमल ने भद्रा सार्थवाही की करी अन्यदेव की पूजा को द्रौपदीकी करी पूजाके सदृश होने से द्रौपदी की पूजाभी अन्यदेव की ठहराई है, परंतु वो मूर्ख सरदार इतना भा नहीं समझता है क़ि कितनीक बातों में एक सरीखी पूजा होवे तो भी तिसमें कुछ बांधा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. १४.). नहीं है जैसे हालमें भी अन्य दर्शनी, श्रावक की कितनीक रीति अनुसार अपने देवकी पूजा करते हैं तैसे इस ठिकाने भद्रा सार्थवाही ने भी द्रौपदीकी तरां पूजा करी है तोभी प्रत्यक्ष मालूम होता है किं द्रौपदीने 'नमुथ्थुणं 'कहा है. इसवास्ते तिसकी करी पूजा जिन प्रतिमा की ही है, और भद्रा सार्थवाही ने 'नमुथ्थुणं' नहीं कहा है इसवास्ते तिनकी करी पूजा अन्य देवकी है। .. - * तथा.द्रौपदीने 'नमुथ्थुणं' जिनप्रतिमाके सन्मुख कहा है यह बात सूत्र में है, और जेठमल यह बात मंजूर करता है, परंतु यह . प्रतिमा अरिहंतकी नहीं ऐसा अपना कुमत स्थापन करनेके वास्ते लिखताहै कि “अरिहंतके सिवाय दूसरोंके पासभी नमुथ्थुणं' कहा जाता है,गोशालेके शिष्य गोशालेको नमुथ्थुणं कहते थे; तथा गोशाले के श्रावक षडावश्यक करते थे तब गोशाले को नमुथ्थुणं कहतेथे" यह सब झूठ है, क्योंकि नमुथ्थणं के गुण किसी भी अन्यदेव में नहीं है, और न किसी अन्यदेवके आगे नमुथ्थुणं कहा जाता है। तथा न किसी ने अन्यदेव के आगे नमुथ्थुणं कहा है। तोभी जेठमल नेलिखा है कि "अरिहंत के सिवाय दुसरे (अन्यदेवों) के पास भी नमुथ्थुणं कहा जाताहै " तो इस लेख से जेठमलने वीतराग देवकी अवज्ञा करी है, क्योंकि इस लिखने से जेठमलने अन्यदेव और वीत. राग देव को एक सरीखे ठहराया है,हा कैसी मूर्खता!अन्यदेव और, वीतरागजिनमें अकथनीय फरक है,अपनामत स्थापन करने के वास्ते तिनकोएक सरीखे ठहराता हैऔर लिखताहै कि 'नमुथ्थण' अरिहंत केसिवाय अन्यदेवोंके पासभी कहा जाता है, सो यह लेख जैनशैली से सर्वथा विपरीत है, जैनमत के किसी भी शास्त्र में अरिहंत और अरिहंतकी प्रतिमा सिवाय अन्य देवके आगे नमुथ्थुणं कहना, या Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५) किसीने कहा लिखा नहीं है। जेठमलने इस संबंध जो जों दृष्टांत लिखे हैं और जो जो पाठ लिखे, तिनमें अरिहंत या अरिहंतकी प्रतिमा के सिवाय किसी अन्यदेव के आगे किसीने नमुथ्थुणं कहा होवे ऐसा गठ तो है ही नही, परंतु भोले लोकों को फंसाने और अपने कुमत को स्थापन करन के लिये विना ही प्रयोजन सूत्रपाठ लिखके पोथी बड़ी करी है, इस से मालूम होता है कि जेठमल महामिथ्या दृष्टि और मृषावादी था और उसने द्रौपदी कृत-अरिहंत की प्रतिमाकी पूजालोपने के वास्ते जितनीकुयुक्तियां लिखी हैं सो सर्व अयुक्त और मिथ्या है ॥ . . ... · तथा जेठमल जिनप्रतिमा को अवधिजिनकी प्रतिमा ठहराने वास्ते कहता है कि "सूत्र में अवधिज्ञानी को भी जिन कहा है. इसवास्ते -यह प्रतिमा अवधि जिनकी संभव होती है" उत्तरसत्र में अवधि जिन कहा है सो सत्य है परंतु 'नमुथुणं' केवली अरिहंत या अरिहंतकी प्रतिमा सिवाय अन्यकिसी देवताके आगेकहे का कथन सूत्रमें किसी जगा भी नहीं है, और द्रौपदी ने तो 'नमु. थ्थुणं' कहा है इसवास्ते वो प्रतिमा केवली अरिहंतकी ही थी, और तिसकी ही पूजा महासती द्रौपदी श्राविका ने करी है ॥ . · फेर जेठमल कहता है कि " अरिहंतने दीक्षा ली तब घर का त्याग किया है इसलिये तिसका घर होवे नही" उत्तर-मालूम होता है कि मूखों का सरदार जेठमल इतना भी नहीं समझता है कि भावतीर्थंकर का घर नहीं होता है, परंतु यह तो स्थापना तीर्थकर की भक्ति निमित्त निष्पन्न किया हुआ घर है, जैसे सत्रों में सिद्ध प्रतिमा का आयतन. यानि घर अर्थात् सिद्धायतन कहा है तैसे ही यहभी जिन घर है,तथा सूत्रोंमें देवछंदा-कहाहै, इसवास्ते Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ( v ) जेठमलकी सब कुयुक्तियां झूठी हैं। तथा इस प्रसंगमें जेठमलने विजय चोर का अधिकार लिख के बताया है कि विजय चोर राजगृही नगरी में प्रवेश करने के मार्ग, निकलने के मार्ग, मद्यपान करने केमकान,वेश्या के मकान, चोरों के ठिकाने,दों तीन तथा चार रास्ते मिलने वाले मकान, नाग देवता के, भूत के तथा यक्ष के मंदिर इतने ठिकाने जानता है ऐसे सत्र में कहा है तो राजगृही में तीर्थंकर के मंदिर होवें तो क्यों न जान"? उत्तर-प्रथम तो यह दृष्टीत ही निरुपयोगी है, परंतु जैसे मूर्ख अपनी मुर्खताई दिखाये विना ना रहे, तैसे जेठमलने भी निरुपयोगी लेखसे अपनी पूर्ण मूर्खताई दिखाई है। क्योंकि यह दृष्टांत बिलकुल तिसके मत को लगता नहीं है ,एक अल्पमतिबाला भी समझ सक्ता है, कि इस अधिकार में चोर के रहने के, छिपनेके, प्रवेश करने के निकलने के, जो जो ठिकाने तथा रस्ते हैं सो सवै विजयचोरं जानताथा ऐसे कहा है। सत्य है क्योंकि ऐसे ठिकानें जानती न होवे तो चोरी करनी मुश्किल हो जावे, सो जैसे सेठ शाहुंकारों की हवेलीया, राज्यमंदिर, हस्तिशाला, अश्वशाला, और पोषधशाला(उपाश्रय) वगैरह नहीं कहे हैं, ऐसे ही जिन मन्दिरभी नहीं कहें हैं क्योंकि ऐसे ठिकाने प्रायःचोरों के रहने लायक नहीं होते हैं। इससे इन के जानने की उसको कोई प्रयोजन नहीं था; परंतु इससे यह नहीं समझना कि उसनगरी में उस समय जिनमदिर, उपाश्रय वगैरह नहीं थे,परंतु इस नगरी में रहने वाले श्रावक हमेशा जिन प्रतिमाकी पूजा करते थे, इसवास्ते बहत जिनमंदिर थे ऐसा सिद्ध होता है। कोशिक रोजाने भगवत को वंदना करी तिसका प्रमाण Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देके जेठमल ऐसे. ठहराता है कि" तिसने, द्रौपदी की.तरह पूजा क्यों नहीं करी- ? :क्योंकि प्रतिमासे तो भगवान् अधिक थे" उत्तर-भगवान् भाव तीर्थंकर थे, इसवास्ते तिनकी वंदना स्तुति वगैरह ही होती है, और तिनके समीप सतरां प्रकारी पूजामें से वाजिंत्रपूजा, गीतपूजा, तथा नृत्यपूजा वगैरह भी होती है, चामर होते हैं, इत्यादि जितने प्रकार की भक्ति भावतीर्थंकर की करनी उ. चित है उतनीही होती है, और जिनप्रतिमा स्थापना तीर्थंकर है इस वास्ते तिनकी सतरां प्रकार आदि पूजा होती है,तथा भावतीर्थकर को नमुथ्थुणं कहा जाता है तिस में “ ठाणं संपाविउं कामे" ऐसा पाठ है अर्थात् सिद्धगति नाम स्थानकी प्राप्ति के कामी हो ऐसे कहा जाता है और स्थापना तीर्थंकर अर्थात् जिनप्रतिमा के आगे द्रौपदी वगैरहने जहां जहां.नमुथ्थुणं कहा है वहां वहां सूत्र में "ठाणं संपत्ताणां" अर्थात् सिद्धगति नाम स्थानको प्राप्त हुए हो ऐसे जिनप्रतिमा को सिद्ध गिना है, इस अपेक्षा से भावतीर्थंकर से भी जिन प्रतिमा की अधिकता है,दुर्मति ढूंढ़िये तिसको उत्थापते हैं तिस से वोह महामिथ्यात्वी हैं ऐसे सिद्ध होता है। .... .., तथा 'जिन' किस किस को कहते हैं इस बाबत जेठमल ने श्रीहेमचंद्राचार्य कृत अनेकार्थीय हैमी नाममाला का प्रमाण दिया है,परंतु यदि वह ग्रंथ तुम ढूंढ़िये मान्य करतेहो तो उसी ग्रंथमें कहा है कि-" चैत्यं जिनौक स्तबिम्ब चैत्यो जिनसभातरुः” सो क्यों नहीं मानते हो? तथा वलि शब्द का अर्थ भी तिस ही नाममाली में 'देवःपूजा' करा है तो वोह भी क्यों नहीं मानते हो यदि ठीक ठीक मान्य करोंगे तो किसी भी शब्द के अर्थ में कोई भी बाधान आवेगी, दंद्रिये सारा ग्रंथ मानना छोड़ के फकत एक शब्द Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि जिस के बहुत से अर्थहोते होवें तिनमें से अपने मन माना एक ही अर्थ निकाल के जहां तहां लगाना चाहते हैं परंतु ऐसे हाथ पैर मारने से खोटामत साचा होने का नहीं है। . : . तथा जेठमल और तिसके कुमति ढूंढिये कहते हैं, कि द्रोपदीने विवाहके समय नियाणेके तीव्र उदयसे पतिकी वांछासे विषयार्थ पूजा करी है " उत्तर--अरे मूढो ! यदि पतिकी वांछासे पूजा करीहोती,तो पूजा करने समय अच्छाखूबसूरत पतिमांगना चाहिये था, परंतु तिसनेसो तो मांगाहीनहीं है, उसने तो शक्रस्तवन पढ़ा है जिस में " तिन्नाणं तारयाणं" अर्थात् आपतरेहो मुझ को तारो इत्यादि पदों करके शुद्ध भावना से मोक्ष मांगा है; परंतु जैसे मिथ्यात्वी योग्य पति पाऊंगी,तो तुम आगे याग भोग करूंगी इत्यादि स्तुतिमें कहती हैं, तैसे उसने नहीं कहा है, इसवास्ते फकत अपने कुमत को स्थापन करने वास्ते ऐसी सम्यग्दृष्टिनी श्राविका के शिरखोटा कलंक चढ़ाते हो सो तुमको संसार वधानेका हेतु है; और इसतरां महासति द्रौपदीके शिर अणहोया कलंक चढ़ाने से तथा उस सम्यक्तवति श्राविकाके अवर्णवाद बोलनेसें तुम बड़ेभारी दुःख के भागा होगे, जैसे तिस महासति द्रौपदी को अति दुःख दिया, भरी सभा के बीच निर्लज्ज होके तिस की लज्जा लेने की मनसा करी, इत्यादिअनेक प्रकारका तिसके ऊपर जुलम करा जिससे कौरवों का सह कुटुंब नाश हुआ; कैयाश्चिक भी उस मूजब करनेसे अपने एक सो भाइयों के मृत्युका हेतु हुआ; पद्मोत्तर राजाने तिस को कुदृष्टिसे हरण किया जिससे आखीर तिसको तिसके शरणे जाना पड़ा और तबही वो बंधनसे मुक्त हुआ,तैसे तुमभी उस महासती के अवर्णवाद बोलने से इस भवमें तो. जैनबाह्य हुएहो, इतनाही नहीं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंतु परभव में अनंत भव रुलने रूप शिक्षाके पात्र होवोगे इसमें कुछ ही संदेह नहीं है, इसवास्ते कुछ समझो और पापके कुयेमें न डूब मरो, किंतु कुमतको त्यागके सुमतकों अंगीकार करो। : "अरिहंतका संघद्या स्त्री नहीं करती है तो प्रतिमाका संघद्या. स्त्री कैसे करे" तिसका उत्तर-प्रतिमा जो है सो स्थापनारूप है इस वास्ते तिसके स्त्री संघ में कुछभी दोष नहीं है, क्योंकि वो कोई भाव अरिहंत नहीं है किंतु अरिहंतकी प्रतिमा है, यदि जेठमल स्थापना और भाव दोनोंको एक सरीखेही मानता है तो सूत्रों में सोना; रूया, स्त्री, नपुंसकादि अनेक वस्तु लिखी हैं; और सूत्रों में जो अक्षर हैं वे सर्व सोना रूपा स्त्री. नपुंसकादि क़ी स्थापना है; इसलिये इनके वांचने से तो किसी भी ढूंढक ढूंढकनी कॉ. शील महावत रहेगा नहीं, तथा देवलोक की मूर्तियां; और नरक के चित्र, वगैरह ढूंढकों के साधु,तथा साध्वी, अपने पास रखते हैं और ढूंढकों को प्रतिबोध करन वास्ते दिखाते हैं, उन.. चित्रों में देवांगनाओं के स्वरूप, शालिभद्रका, धन्नेका तथा तिन की स्त्रियों वगैरह के चित्राम भी होते हैं ; इस वास्ते जैसे उन चित्रों में स्त्री तथा पुरुषपणे की स्थापना है तैसे ही जिनप्रतिमा भी अरिहंतकी स्थापना है, स्थापना को स्त्रीका संघट्टा होना न चाहिये ऐसे जो जेठमल और तिसके कुमति ढूंढक मानते हैं तो पूर्वोक्त कार्यों से. ढूंढकों के साधु साध्वीयों का शीलवत (ब्रह्मचर्य ) कैसे रहेगा.? सो विचार करना है। और जेठमलने लिखा है कि गौतमादिक मुनि तथा आनं। सोहनलाल, गैंडेराय, पार्वती, वगैरह का फोटो पंजाब के ढूंढिये अपने पासरखत *ससे तो . सोहनता पार्वती वगैरहके ब्रह्मचर्य का फका भी न रहा होगा !!! Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादक श्रावक प्रभुसे दूर बैठे परंतु प्रभुको स्पर्श करना न पाये", उत्तर-मुर्ख जेठमल इतना भी नहीं समझता कि बहुत लोगोंके समक्ष धर्म देशनाश्रवण करने को बैठना मर्यादा पूर्वक ही होता है, परंतु सो इसमें जेठमल की भूल नहीं है, क्योंकि ढूंढिये मर्यादा के बाहिर ही हैं; इसवास्ते यह नहीं कहा जा सकता है कि गौतमादिप्रभु को स्पर्श नहीं करते थे और तिनको स्पर्श करने की आज्ञाही नहीं थी क्योंकि श्रीउपासकदशांग सूत्र में आनंद श्रावकने गौतमस्वामीके चरण कमलको स्पर्श कियेका अधिकार है, और तम ढूंढिये पुरुषोंका संघट्टा भी करना वर्जते हो तो उसकाशास्त्रोक्त कारण दिखाओ? तथा तुम जो पुरुषों का संघट्टा करते हो सोत्याग दो, । तथा जेठमलने लिखा है कि "पांच अभिगम में सचित्तवस्त त्यागके जाना लिखा है" सो सत्य है, परंतु यह सचित्त वस्तु अपने शरीर के भोगकी त्यागनीकही है, पूजाकी सामग्री त्यागनी नहीं लिखी है क्योंकि श्रीनंदिसूत्र, अनुयोग द्वारसूत्र, तथा उपासकदशांग सूत्र में कहा है कि तीनलोकवासी जीव " महिय पूइय" अर्थात् फूलोंसे भगवान्की पूजा करते हैं,। जेठमल लिखता है कि "अभोगी देवकी पूजा भोगीदेवकी तरह करते हैं" उत्तर-भगवान् अभोगी थे तो क्या आहार नहीं करते थे ? पानी नहीं पीते थे ? बैठते नहीं थे ?इत्यादि कार्य करते थे,या नहीं ? करते ही थे.परंतु तिनका यह करना निर्जराका हेतु है, और दूसरे अज्ञानीयों का करना कर्म बंधनका हेतु है, तथा प्रभु जब - * ढूंढिये श्रावक, श्राविका, अपने गुरु गुरणी के चरणों कोहाथ लगाके वदना करते सोभी जेठमलकी अकल मजिव प्राज्ञा बाहिर और बेप्रकल मालूम होते हैं। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) साक्षात् विचरते थे तब तिनकी सेवा, पूजा, देवता आदिकोंने करी है सो भोगीकी तरह या अभोगीकी तरह सो विचार लेना ? प्रभु को चामर होतेथे, प्रभु रत्न जडित सिंहासनों पर बिराजने थे, प्रभु के समवसरण में जलथलके पैदा भये फुलों की गोड़े प्रमाण देवते वृष्टि करते थे, देवते तथा देवांगना भगवंत के समीप अनेक प्रकार के नाटक तथा गीत गान करते थे; इसवास्ते प्यारे ढूंढियों ! विचार करो कि यह भक्ति भोगी देवकी नहीं थी किंतु वीतरागदेव की थी और उस भक्ति के करने वाले महापुण्यराशि बंधनके वास्ते ही इस रीति से भक्ति करते थे और वैसेही आज भी होती है प्यारे ढूंढियो ! तुम भोगी अभोगी की भक्ति जुदी जुदी ठहराते हो परंतु जिस रीति से अभोगी की भक्ति, वंदना, नमस्कारादि होती है तिस ही रीति से भोगी राजा प्रमुख की भी करने में आती है, जब राजा आवे तब खड़ा होना पडता है, आदर सत्कार दिया जाता है इत्यादि बहुत प्रकार की भक्ति अभोगीकी तरह ही होनी है और तिसही रीति से तुमभी अपने ऋषि-साधुओं की भक्ति करते हो तो वे तुमारे रिख भोगी हैं कि अभोगी ? से विचार लेना ! फेर जेठमल लिखना है कि "जैसे पिता को भूल लगने से पुत्रका भक्षण करे यह अयुक्त कर्म है तैस तीर्थंकर के पुत्र समाने षट् काय के जीवों को तीथकर की भक्ति निमित्त हणते हो साभी अयुक्त है " उत्तर - तीर्थंकर भगवन अपने मुखसे ऐसे नहीं कहते हैं कि मुझको वंदना, नमस्कार करो, स्नान कराओ, और मेरी पूजा करो, इसंवास्ते वे तो षट् काया के रक्षक ही हैं, परंतु गणधर महाराजा की बताई शास्त्रोक्त विधि मूजिव सेवकजन तिनकी भक्ति करते हैं तो आज्ञायुक्त कार्य में जो हिंसा है सो स्वरूपसे हिंसा है, परंतु अनुबंध से Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया है. ऐसे सूत्रोंमें कहा है, इसंवांस्ते सो कार्य कदापि अयुक्त नहीं कहाजाता है तथा हम तुमको पूछते हैं कि तुमारे रिख-साधु,तथा साध्वी,त्रिविध त्रिविधजीव हिंसाका पञ्चक्खाण करके नदीयां उतरते है, गोचरी करके लेआते हैं, आहार, निहार, विहारादि अनेक कार्य करते हैं जिनमें प्रायः षटकाया की हिंसा होती है तो वे तुमारे साधु साध्वी षर्ट काया के रक्षक हैं कि भक्षक हैं ? सो विचारके देखो! जेठमलके लिखने मूजिव और शास्त्रोक्त रीति अनुसार विचार करने से तुमारे साधु साध्वी जिनाज्ञा के उत्थापक होनेसे पट कायाकै रक्षक तो नहीं है परंतु भक्षक ही हैं ऐसे मालूम होता है और उससे वे संसार में सलनेवाले हैं ऐसा भी निश्चय होता है। प्रश्नके अंतमें मुर्ख शिरोमणि जेठमल ने ओघनियुक्ति की टीकाका पाठ लिखा है सो बिलकुल झूठा है, क्योंकि जेठमल के लिखे पाठ में से एक भी वाक्य औधनियुक्ति की टीका में नहीं, है जेठमलको यह लिखना ऐसा है कि जैसे कोई स्वेच्छा से लिखदेवे कि "जेठमल ढूंढक किसानीच कुल में पैदा हुआ था इसंवास्ते जिन प्रतिमा का निदकथा ऐसा प्राचीन ढूंढक नियुक्ति में लिखा है" ॥इति ॥ (२०) सूर्याभने तथा विजयपोलीए ने जिनप्रतिमा पूजी है वीशमें प्रश्नोत्तर में जेठमलने सूर्याभ देवता और विजय .... * स्वरूपसे जिनमें हिंसा, और अनुबध से दया, ऐसे अनेक कार्य करने कीसाधु साध्वीयोंको शास्त्री में प्राज्ञा दी है, देखो श्री पाचारांग, ठाणांग, उत्तराध्ययन, देशवैकालिक प्रमुख जैन शास्त्र तथा पाठ प्रकारकी दयाकास्वरूप भाषा में देखना होवे तो देखो श्री जैन तत्वादर्शका सप्तम परिच्छेद। ' Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ove) पोलीएकी करी जिन प्रतिमाकी पूजाका निषेध करने वास्ते अनेक कयुक्तियां करी हैं तिन सर्वका प्रत्युत्तर अनुक्रम से लिखते हैं। (१) आदिमें सूर्याभ देवताने श्रीमहावीर स्वामी को आमल केल्पा नगरी के बाहिर अंवसाल वन' में देखा तब संन्मुख जाके नमुथ्थुणं कहा तिसमें सूत्रकारने " ठाणसंपत्ताणं" तक पाठ लिखा है इसवास्ते जेठमल पिछले पद कल्पित ठहराता है,परंतुयहजेठमल का लिखना मिथ्याहै, क्योंकि वेद कल्पित नहीं है किंतु शास्त्रोक्त है इस बाबत ११ में प्रश्नोत्तर में खुलासा लिख आए हैं। ... , (२) पीछे सूर्याभने कहा कि प्रभुको वंदना नमस्कार करनेका महाफल है, इस प्रसंगमें जेठमलने जोसूत्रपाठलिखा है सो संपूर्ण नहीं है, क्योंकि तिस सूत्रपाठ के पिछले पदों में देवता संबंधी चैत्यकी तरह भगवंतकी पर्युपासना करूंगा ऐसे सुर्याभने कहा है, सत्यासत्य के निर्णय वास्ते वो सूत्रपाठ, श्रीरायपसेणी सूत्र.से. अर्थ सहित लिखते हैं,- यतः श्रीराजप्रश्नीयसूत्रे-॥ .. .. - : तं महाफलं खल तहारुवाणं अरहंताणं भग: वंताणं नामगोयस्सविसवणयाए कि मंग पण अभिगमणवंदणनमंसणपंडिपच्छणपज्जवासणयाए एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए तं गच्छामिणं समणं भगवं महावोरंवंदामि नमसामि सक्कारमिसम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेयं पज्जुवा न . . . . १C Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामि एयं मे पेच्चा हियाएं सुहाए खमाए निस्सेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सइ॥ .. अर्थ--निश्चय तिसका महाफल है, किसका सो कहते हैं, तथारूप अरिहंत भगवंत के नाम गोत्रके भी सुनने का परंतु तिसका तो क्याही कहना?-जो सन्मुख जाना वंदना करनी नमस्कार करना, प्रतिपृच्छा करनी, पर्युपासनासेवा करनी, एकभी आर्य (श्रेष्ठ) धार्मिक वचन का सुनना इसका तो महाफल होवेही और विपुल अर्थकाग्रहण करना तिसके फलका तो क्याही कहना इस वास्ते में जाऊ, श्रमण भगवंत महावीरको वंदना करूं नमस्कार करू,सत्कार करूं,सन्मानकरूं,कल्याणकारी मंगलकारी देवसंबंधि चैत्य (जिन प्रतिमा) तिसकी तरह सेवाकरूं,यह मुझको परभवमें हितकारी, सुखंके वास्ते, क्षेमके वास्ते, निः श्रेयस् जो मोक्ष तिसके वास्ते,और अनुगमन करनेवाला अर्थात् परंपरासे शुभानुबंधि-भव भंव में साथ जाने वाला होगा ॥ पूर्वोक्त पाठ में देवके चैत्यकी तरह सेवा करू ऐसे कहा इस से 'स्थापना जिन और भावजिन' इन दोनों की पूजा प्रमुख का समान फल सूत्रकारने बतलाया है। जेठमल कहता है कि " वंदना वगैरह का मोटा लाभ कहा परंतु नाटक का मोटा (बड़ा)लाभ सुर्याभनेचिंतवन नहीं किया, इस बास्ते नाटक भगवंतकी आज्ञाका कर्तव्य मालुम नहीं होता है" उत्तर-जेठमलका यह लिखना असत्य है, क्योंकि नाटक करना अरिहंत भगवंत की भावपूजामें है और तिसका तो शास्त्रकारों ने अनंत फल कहा है, इसवास्ते सो जिनाज्ञाका ही कर्तव्य है, . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५); ममदोमालामा श्रीनंदिसूत्रमें भी ऐसे ही कहा है, और सुर्याभने भी बड़ा लाभ चितवन करके ही प्रभुके पास नाटक किया है। (३) “पेचा" शब्दका अर्थ परभव है ऐसा जेठमलने सिद्ध किया है सो ठीक है इस वास्ते इसमें कोई विवाद नहीं है। (४) सर्याभने अपने सेवक देवता को कहा यह बात जेठमल ने, अधूरी लिखी है, इसवास्ते श्रीरायपसेणी सूत्रानुसार यहां विस्तार से लिखते हैं। सुर्याभ देवताने अपने सेवक देवता को बुला कर कहा कि हे देवानु प्रिय ! तुम आमलकल्पा नगरीमें अंबसाल वनमें जहां श्री महावीर भगवंत समवसरे हैं तहां जाओ जाके भगवंत को वंदना नमस्कार करो, तुमारा नाम गोत्र कह के सुनाओ, पीछे भगवंत के समीप एक योजन प्रमाण जगह पवन करके तृण, पत्र, काष्ठ, कंडे, कांकरे (रोड़े ) और अशुचि वगैरह से रहित (साफ) करो, करके गंधोदक की वृष्टि करो, जिस से सर्व रज शांत होजाचे अर्थात् बैठ जावे, उडे. नहीं ; पीछे जल थल के पैदा भये फूलों की वृष्टि, दंडी नीचे और पांखडी ऊपर रहे तैसे जानु (गोड़े)प्रमाण करो करके अनेक प्रकारकी सुगंधी वस्तुओं से धूप करो यावत् देवताओंके अभिगमन करने योग्य (आने लायक) करो॥ - सुर्याभ देवताका ऐसा आदेश अंगीकार करके आभियोगिक देवता वैक्रियसमुद्घात करे, करके भगवंतके समीप आवे, आयके वंदना नमस्कार करके कहे कि हम सुर्याभ के सेवक हैं और तिसके. आदेशसे देवके चैत्यकी तरह आपकी पर्युपासना करेंगे ऐसे वचन सुनके भगवंत ने कहा यतः श्रीराजप्रश्नीयसूत्रेपोराणमेयं देवा जीयमेयं देवा कियमेयं देवा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( * १५२ ) J 'कर णिज्जमेयं देवा आचीन्नमेयं देवा अम्भ गुन्नाय मेयं देवा ॥ # } अर्थ - चिरंतन देवतायोंने यह कार्य किया है है देवताओं के प्यारे ! तुमारा यह आचार है तुमारा यह कर्त्तव्य है, तुमारी यह करणी है, तुम को यह आचारने, योग्य है और मैंने तथा सर्व: तीर्थंकरों ने भी आज्ञा दी है। इस मूजिब भगवंता के कह पीछे वे आभियोगिक देवते प्रभुको वंदना नमस्कार करके पूर्वोक्त, सर्व कार्य करते भये,इस पाठ में जेठमल कहता है कि" सुर्याभने देवता के अभि गमन करने योग्य करो ऐसे कहा परंतु ऐसे नहीं कहाकि भगवंत के रहने योग्य करो" तिसका उत्तर- देवताक आने योग्य करो ऐसे कहा तिसका कारण यह है कि देवताके अभिगमन करने की जगह अति सुंदरहोती है मनुष्यलोक में तैसी भूमि नहीं होती है इसवास्ते सुर्याभ का वचनतो भूमि का विशेषण रूप है और तिस में भगवंत का ही बहुमान और भक्ति है ऐसे समझना * ॥ ise Ha -- 1 (५) " जलय थलय " इन दोनों शब्दो का अर्थ जलके पैदा भये और थल के पैदा भये ऐसा है जिसको फिराने के वास्ते - जेठमल कहता है कि “सुर्याभक सेवकने पुष्पकी वृष्टि करी वहां (पुरफवद्दलं विउब्वइ) अर्थात् फूलका बादल विकुर्वे ऐसे कहा है इसवास्ते वे फल वैकिय ठहरते हैं और उससे अचितभी हैं " यह कहना जेठमलका मिथ्या है, क्योंकि फुलोंकी वृष्टि योग्य वादल विकुर्वन: यहां तो देवताके योग्य कहा, परंतु चौतीस अतिशय में, जो सुगंध जलदृष्टि, पुष्प टि F पादिक लिखी है सो किस के वास्ते लिखी है ? जग हृदय नेत्र खोलके समवायांग सूत्रके चौतीस में समवाय में चौतीस प्रतियों का वर्णन देखो। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३) करा है परंतु फूल विकुर्वे नहीं हैं, इसवास्ते वे फूल सचित ही हैं तथा जेठमल लिखता है कि "देवकृत वैक्रिय फूल होवे तो वे सचित्त नहीं" सोभी झूठ है क्योंकि देवकृत वैक्रिय वस्तु देवता के आत्म प्रदेश संयुक्त होती है इस वास्ते सचितही है, अचित नहीं, तथा चौतीस अतिशय में पुष्पवृष्टि का अतिशय है सो जेठमल "देवकृत नहीं प्रभु के पुण्य के प्रभाव से है " ऐसे कहता है सो झूठ है, क्योंकि (३४) अतिशय में ( ४ ) जन्म से (११) घातिकर्म के क्षयसे और (१९) देवकृत है तिस में पुष्पवृष्टि का अतिशय देवकृत में कहा है इसमूजिब अतिशयकी बात श्रीसमवायांग सूत्र में प्रसिद्ध है कितनेक ढूंढीये इस जगह 'जलयथलय, इनदोनों शब्दों का अर्थ 'जलथलके जैसे फूल' कहते हैं परंतु इन दोनों शब्दोंका अर्थ सर्वशास्त्रोंके तथा व्याकरण की व्युत्पत्ति के अनुसार जल और थल में पैदा हुए हुए ऐसा ही होता है जैसे ' पंकय ' पंक नाम कीचड तिसमें जो उत्पन्न हुआ होवे सो पंकय (पंकज) अर्थात् कमल और ' तनय ' तन नाम शरीर तिससे उत्पन्न हुआ होवे सो तनय अर्थात् पुत्र ऐसे अर्थ होते हैं; ऐसे (तनुज, आत्मज अंडय, पोयय, जराउय इत्यादि) बहुत शब्द भाषा में (और शास्त्रों में) आते हैं तथा ' ज ' शब्दका अर्थभी उत्पन्नहोना यही है, तो भी अज्ञान ढूंढीये अपना कुमत स्थापन करने वास्ते मन घड़त अर्थ करते हैं परंतु वे सर्व मिथ्या हैं ॥ , (६) जेठमल कहता है कि " भगवंतके समवसरण में यदि सचित फूल होवेतो सेठ, शाहुकार, राजा, सेनापति प्रमुखको पांच अभिगम कहे हैं तिनमें सचिन्त बाहिर रखना और अचित्त अंदर लेजाना कहा है सो कैसे मिलेगा ?” तिसका उत्तर- सचित्त वस्त बाहिर रखनी कहा है सोअपने उपभागकी समझनी, परंतु पूजा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण करनेको जावे और आमंत्रण करे तब वोधनी ना न कहे अर्थात् मौन रहे तो सो आमंत्रण मंजर किया गिना जाता है, तैसेही प्रभुने नाटक करनेका निषेध नहीं किया मौनरहे,तो सोभी आज्ञा ही है तथा नाटक करनासोप्रभुकी सेवाभक्तिहै,यतः श्रीरायपसेणी सूत्रे अहण्णमंते देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वयंगोय माइणं समणाणं निग्गंथाणं बत्तिसइबई नट्ट विहिं उवदंसमि॥ अर्थ-सुर्याभ ने कहा कि हे भगवन् ! मैं आपकी भक्ति पूर्वक गौतमादिक श्रमण निग्रंथोंको बत्तीस प्रकारकानाटक दिखाऊ? इस मूजब श्रीरायपसेणी सूत्रके मूलपाठ में कहा है, इसवास्ते मालूम होता है कि सुर्याभको भक्ति प्रधान है और भक्तिका फल श्रीउत्तराध्ययन सूत्रके २९, में अध्ययन में यावत् मोक्षपद प्राप्ति कहा है, तथा नाटक को जिनराजकी भक्ति जब चौथे गुणठाणेवाले सुर्याभ न मानी है तो जेठमल की कल्पना से क्या होसक्ता है ? क्योंकि चौथे गुणठाणसे लेके चउदमें गुणठाणे वाले तककी एकही श्रद्धा है जब सर्वसम्यक्त्व धारियोंकी नाटकमें भक्तिकी श्रद्धाहै तब तोसिद्ध होता है कि नाटक में भक्ति नहीं मानने वाले ढूंढक जैनमत से बाहिर है, तथा इस ठिकाने सूत्रपाठ में प्रभुकी भक्ति पूर्वक ऐसेकहा हुआ है तोभी जेठमलने तिसपाठको लोपदिया है इससे जेठमलका कपट जाहिर होता है। (१३) जेठमल लिखता है कि " नाटक करने में प्रभुने ना न कही तिसका कारण यह है कि सुर्याभ के साथ बहुतसे देवता हैं, तिनके निज निज स्थान में नाटक जुदे जुदे होते हैं इसवास्ते Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५ ) सूर्याभके नाटक को यदि भगवंत निषेध करेंतो सर्व ठिकाने जुदेजुदे नाटक होवें और तिससे हिंसा वध जावे" तिसका उत्तर-जेठमल की यह कल्पना बिलकुल झूठी है, जब सुर्याभ प्रभुके पास आया तब क्या देवलोक में शून्यकार था ? और समवसरण में बार में देवलोक तकके देवता और इंद्रथे क्या उन्होंने सुर्याभ जैसा नाटक नहीं देखा था ? जो वो देखने वास्ते बैठे रहे, इसवास्ते यहां इतनाही समझनेका है कि इंद्रादिक देवते बैठते हैं सो फकत भगवंतकी भक्ति समझ के ही बैठते हैं, तथा सुर्याभ देवलोक में नाटयारंभ बंद करके आया है ऐसे भी नहीं कहा है इसवास्ते जेठमलका पूर्वोक्त लिखना व्यर्थ है, और इस पर प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि जब ढूंढिक रिख-साधु-व्याख्यान वांचते हैं तवं विना समझे 'हाजीहा' 'तहत वचन'करने वालेढूंढियेतिनके आगे आबैठते हैं,जबतक वोव्याख्यान 'वांचते रहेंगे तबतक तो वे सारे बैठे रहेंगे परंतु जब वो व्याख्यान बंदकरेंगे तब स्त्रियें जाके चुल्हेमें आग पावेंगी,रसोईपकाने लगेंगी, पानी भरने लगजावेंगी, और आदमी जाके अनेक प्रकार के छलकपट करेंगे,झूठबोलेंगे,हरी सबजी लेनेको चले जावेंगे, षटकाय का आरंभ करेंगे, इत्यादि अनेक प्रकारके पाप कर्म करेंगे, तो वो सर्व पाप व्याख्यान बंद करने वाले रिखों (साधुओं) के शिर ठहरें या अन्यके ? जेठमलजी के कथन मूजिब तो व्याख्यान बंद करने वाले रिखियों केही शिर ठहरता है! . (१४) जेठमल लिखता है कि "आनंद कामदेव प्रमुख श्रावकों ने भगवंतके आगे नाटक क्यों नहीं किया?" उत्तर-तिनमें सुर्याभ जैसी नाटक करने की अद्भुत शक्ति नहीं थी। . (१५) जेठमल लिखता है कि "रावणने अष्टापदपर्वत ऊपर Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) जिनप्रतिमाके सन्मुख नाटक करके तीर्थंकरगोत्र बांधा कहतेहो परंतु श्रीज्ञातासूत्र में बीस स्थानक आराधने से ही जीव तीर्थंकरगोत्र बांधता है ऐसे कहा है तिस में नाटक करनेसे तीर्थंकरगोत्र बांधनेका तो नहीं कथन है"उत्तर-इसलेखसे मालूम होता है कि जेठे निन्हव को जैनधर्म की शैलि की और सूत्रार्थ की विलकुल खबर नहीं थी, क्योंकि वीस स्थानक में प्रथम अरिहंत पद है और रावणने नाटक किया सो अरिहंत की प्रतिमा के आगे ही किया है, इसवास्ते ___ रावणने अरिहंतपद आराधके तीर्थकरगोत्र उपार्जन किया है। (१६) जेठमल लिखता है कि "सुर्याभ के विमानमें बारह बोलके देवता उत्पन्न होते हैं ऐसे सुर्याभने प्रभुको किये ६ प्रश्नों से ठहरताहै इसवास्ते जितने सुर्याभविमानमें देवतेहुए तिन सर्वने जिन प्रतिमाकी पूजाकरी है" उत्तर-जेठमल का यह लेख स्वमंति कल्पना का है,क्योंकि वो करणीसम्यग्दृष्टि देवता की है मिथ्यात्वीकी नहीं श्रीरायपसेणीसूत्र में सुर्याभ के सामानिक देवता ने सुर्याभ को पूर्व और पश्चात् हितकारी वस्तु कही है वहां कहा है यतः अन्नेसिंचबहुणं वैमाणियाणं देवाणय देवीणय अच्चणिज्जाओ। अर्थात् अन्य दूसरे बहुत देवता और देवियोंके पूजा करने लायक है, इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टिकी यह करणी है;यदि ऐसे न होवे तो “सव्वेसिवेमाणियाण" ऐसे पाठ होता इसवास्ते विचारके देखो॥ (१७) जेठमल कहता है कि "अनंते विजय देवता हुए तिन में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही प्रकारके थे और तिन सर्व ने सिद्धायतन में जिनपूजा करी है, परतु प्रतिमा पूंजने से भव्य : Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्य सर्व जीव सम्यग्दृष्टि हुए नहीं और सिद्धि भी नहीं पाये।" उत्तर-अपना मतसत्य ठहराने वालेने सूत्रमें किसीभी मिथ्या दृष्टि देवताने सिद्धायतनमें जिनप्रतिमाकी पूजा करी ऐसा अधि. कार होवे तो सो लिखके अपना पक्ष दृढ़ करना चाहिये । जेठमल ने ऐसा कोई भी सूत्रपाठ नहीं लिखा है किंतु मनः कल्पित बातें लिख के पोथी भरी है,इसवास्ततिसका लिखना बिलकुल असत्य है, क्योंकि किसी भी सूत्र में इस मतलबका सूत्रपाठ नहीं है। और जेठमलने लिखा है कि " प्रतिमा पूजने से कोईअभव्य सम्यग्दृष्टि न हुआ इसवास्ते जिनप्रतिमा पूजनेसे फायदा नहीं है" उत्तर-अभव्य के जीव शुद्ध श्रद्धायुक्त अंतःकरण विना अनंतीवार गौतमस्वामी सदृश चारित्र पालते हैं और नवमें ग्रेवेयक तक जाते हैं,,परंतु सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं; ऐसे सूत्रकारोंका कथन है, इस वास्ते जेठमलके लिखे मुजिब तो चारित्र पालने से भी किसी ढूंढक को कुछ भी फायदा नहीं होगा ॥ (१८) पृष्ठ (१०२) में जेठमलने सिद्धायतन में प्रतिमा की पूजा सर्व देवते करते हैं ऐसे सिद्ध करनेके वास्ते कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं सो सर्व तिसके प्रथमके लेखके साथ मिलती हैं तो भी भोले लोगोंको फंसाने वास्ते वारंवार एककी एक ही बात लिख के निकम्मे पत्रे काले करे हैं। (१९) जेठमल लिखता है कि "सर्व जीव अनंतीवार विजय पोलीए पणे उपजे हैं तिन्होंने प्रतिमाकी पूजाकरी तथापिअनंतेभव क्यों करने पड़े ? क्योंकि सम्यक्त्त्ववान् को अनंते भव होवे नहीं ऐसा सूत्रका प्रमाण है" उत्तर-सम्यक्त्ववान् को अनंते भव होवे नहीं ऐसे जेठमल मूढमति लिखता है सो बिलकुल जैन शैलिसे Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरीत और असत्य है, और " ऐसा सूत्रका प्रमाण है" ऐसे जो लिखा है सो भी जैसे मच्छीमारके पास मछलियां फसाने वास्ते जाल, होताहे तैसे भोले लोगों को कुमार्गमें डालने का यह जाल है क्योंकि सूत्रों में तो चारज्ञानी, चौदपूर्वी, यथाख्यातचारित्री, एका'दशमगुणठाणेवाले को भी अनते भव होवे ऐसे लिखा है तो सम्यग् दृष्टिको होवे इसमें क्या आश्चर्य है ? तथा सम्यक्त्त्व प्राप्तिके पीछे उत्कृष्ट अर्द्धपुद्गल परावर्त्त संसार रहता है और सो अनंताकाल होने से तिसमें अनंते भव हो सकते हैं * ॥ . . .. (२०) जेठमल लिखता है कि “एक वक्त राज्याभिषेक के समय प्रतिमा पूजते हैं परंतु पीछे भव पर्यत प्रतिमा.नहीं पूजते हैं" उत्तर-सुर्याभने पूर्व और पीछे हितकारी क्या है ? ऐसे पूछा तथा पूर्व और पीछे करने योग्य क्या है? ऐसे भी पूछा,जिसके जवाबमें तिस के सामानिक देवताने जिनप्रतिमाकी पूजा पूर्व और पीछे.. हित: कारी और करने योग्य कही जोपाठ श्रीरायपसेणी सूत्र में प्रसिद्ध है। इसवास्ते सुर्याभ देवताने जिनप्रतिमा की पूजा नित्यकरणी तथा सदा हितकारी जानके हमेशां करी ऐसे सिद्ध होता है। . श्रीजीवाभिगम सूत्र में लिखा है यत - सम्मदिहिस्स अंतरं सातियस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं सातियस्स सपज्जवसियस्त जहण्णेणं अतो मुहत्तं उक्कोसेणं अणंत कालं जाव अवठ्ठपोग्नलपरियह देसूणं ॥ " श्री राय पत्तणी सूत्र का पाठ यह है:• "तएंणं तस्स सरियाभस्स पंचविहाए पज्जत्तिए पज्जत्तिभावं गयस्ससमाणस्सईमयारूवेअभस्थिएचिंतिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था किं मे पुव्विं करणिज्ज किं मे पच्छा करणिज्जं कि मे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) जेठा लिखता है कि "सर्याभने धर्म शास्त्र वांचे ऐसे सूत्रोंमें कहा है सो कुलधर्मके शास्त्र समझने क्योंकि जो धर्मशास्त्र होवे तो मिथ्यात्वी और अभव्य क्यों वांचे ? कैसे सद्दहे ? और जिनवचन सच्चे कैसे जाने ?" उत्तर-सुर्याभने वांचे सो पुस्तक धर्मशास्त्र के ही हैं ऐसे सूत्रकारके कथन से निर्णय होता है 'कुल' शब्द जेठेने अपने घरका पाया है सूत्र में नहीं है और लौकिक में भी कुलाचार के पुस्तकों को धर्मशास्त्र नहीं कहते हैं, धर्मशास्त्र वांचने का अधिकार सम्यग्दृष्टि का ही है, क्योंकि सर्व देवता पुवि सेयं किंमे पच्छा सेयं किंमे पुट्विं पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्साए अणुगामित्ताए भविस्सइ तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्त सामाणियपरिसोववण्णगा देवा सरियाभस्त देवस्स इमेयारूव मप्भत्थियंजाव समुप्पण्णं समभिजाणित्ताजेणेव सूरियाभे देवतेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सूरियाभं देवं करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थएअंजलिं कह जएणविजएणंबद्धावेंतिरत्ता एवंवयासी एवंखलु देवाणुप्पियाणं सूरियाभे विमाण सिद्धाययणे असयंजिणपडिमाणं जिणुस्सेह पमाणमेत्ताणं सपिणखित्तं चिठति सभाएणं सुहम्माए माणवए चेइए खंभेवइरामए गोलवदृ समुग्गएबहूओजिण सकहाओ सणिखित्ताओ चिति ताओणं देवाणुप्पियाणं अण्णेसिंच वहणं वेमाणियाणं देवाणय देवीणय अच्चणिज्जाओ जाव वंदणिज्जाओ णमंसणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयंचेइयं पज्जुवासणिज्जाओ तं एयणं देवाणप्पियाणं पुव्विं करणिज्ज एयणं देवाणप्पियाणं पच्छाकरणिज्जं एयणं देवाणुप्पियाणं पुब्बिं सेयं एयणं देवणुप्पियाणं पच्छा सेयं एयणं देवाणुप्पियाणं पुविं पच्छावि हियाए सुहाए-खमाए णिस्सेसाए अणुगामित्ताएभविस्सई" Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1) इसमें जेठमलने “साधुको पांच प्रकारके रजोहरण रखने शास्त्र में कहे हैं तिनमें मोरपीछी का रजोहरण नहीं कहा है" ऐसे लिखा है, परंतु तिसका इसके साथ कोई भी संबंध नहीं है। क्योंकि मोरपीछी प्रभुका कोई उपगरण नहीं है, सोतो जिनप्रतिमा के ऊपरसे बारीक जीवोंकी रक्षाके निमित्त तथा रज प्रमुख प्रमार्जने के वास्ते भक्ति कारक श्रावकों को रखने की है ॥ (५) सर्याभने प्रतिमाको वस्त्र पहिराये इस बाबत जेठमल लिखता है कि "भगवंत तो अचेल हैं इसवास्ते तिन को वस्त्र होने नहीं चाहिये" यह लिखना बिलकुल मिथ्या है क्योंकि सूत्र में वावीस तीर्थंकरों को यावत् निर्वाण प्राप्तहुए तहांतक सचेल कहा है और वस्त्र पहिरानेका खुलासा द्रौपदीके अधिकारमें लिखा गया है। (६) प्रभुको गेहने न होवे इस बावत "आभरण पहिराये सो जुदे और चढ़ाये सो जुदे” ऐसे जेठमल कहता है, परंतु सो असत्य है; क्योंकि सूत्र में “आभरणारोहणं " ऐसा एक ही पाठ है, और आभरण पहिराने तो प्रभुकी भक्ति निमित्त ही है। . (७) स्त्रीके संघ बाबतका, प्रत्युत्तर द्रौपदीके अधिकार में लिख आए हैं। (८) “सिद्धायतन में जिनप्रतिमाके आगे धूप धुखाया और साक्षात् भगवंतके आगे न धुखाया" ऐसे जेठमल लिखता है परंतु सो झूठ है; क्योंकि प्रभुके सन्मुख भी सुर्याभ की आज्ञा से तिस के आभियोगिक देवताओं ने अनेक सुगंधी द्रव्यों करी संयुक्त धूप धुखाया है ऐसे श्रीरायपसेणी सूत्र में कहा है। ...(२५) जेठमल कहता है कि “सर्व भोगमें स्त्री प्रधान है, इसवास्ते स्त्री क्यों प्रभुको नहीं चढ़ाते हो?" मंदमति जेठमल Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (us")' का यह लिखना महा अविवेक का है, क्योंकि जिनप्रतिमा कीभक्ति जैसे उचित होवे तैसे होती है, अनुचित नहीं होती है ; परंतु सर्व भोगमें स्त्री प्रधान है ऐसाजो ढूंढिये मानते हैं तो तिनके बेअकल श्रावक अशन,पान,खादिम, स्वादिम प्रमुख पदार्थों से अपने गुरुओं की भक्ति करते हैं परंतु तिनमें से कितनेक ढूंढियों ने अपनी कन्या अपने रिख-साधुओं के आगे धरी हैं और विहराई हैं तो दिखाना चाहिये ! जेठमलके लिखे मूजिवतों ऐसे जरूर होना चाहिये !!! तथा मुर्ख शिरोमणि जेठे के पूर्वोक्त लेखसे ऐसे भी निश्चय होता है कि तिसजेठेके हृदयसे स्त्री की लालसा मिटी नहीं थी इसीवास्ते उसने सर्व भोगमें स्त्री को प्रधान माना है इसबात का सबूत ढूंढक पट्टावलिमें लिखागया है। " (२६) जेठमल लिखता है कि “चैत्य, देवता के परिग्रह में गिना है तो परिग्रहको पूजे क्या लाभहोवे ?” उत्तर-सूत्रकारने साधुके शरीर कोभी परिग्रह में गिना है तो गणधर महाराजको तथा मुनियोंको वंदना नमस्कार करनेसे तथा तिनकी सेवा भक्ति करने से जेठमलके कहने मूजिबतो कुछ भीलाभ न होना चाहिये और सूत्र में तो बड़ाभारी लाभ बताया है, इसवास्ते तिसका लिखना मिथ्या है,क्योंकि जिसको अपेक्षा का ज्ञान न होवे तिसको जैनशास्त्र समझने वहुत मुशकिल हैं, और इसीवास्ते चैत्यको देवता के परिग्रह में गिना है तिसकी अपेक्षा जेठमलके समझने में नहीं आई है इस तरह अपेक्षा समझे विना सूत्रपाठके विपरीत अर्थ करके भोले लोगों को फंसाते हैं इसीवास्ते तिनको शास्त्रकार निन्हव कहते हैं । (२७) नमुथ्थुणं की बाबत जेठमलने जो कुयुक्ति लिखीह और तीन भेद दिखाये हैं सो बिलकुल खोटहैं,क्योंकि इस प्रकारके तीन Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. १६८ ) भेद किसी जगह नहीं कह हैं, तथा किसी भी मिथ्यादृष्टिने किसी भी अन्य देवके आगे नमुथ्थुणं पढ़ा ऐसेभी सूत्रमें नहीं कहा है, क्योंकि नमुथ्थुणं में कहे गुण सिवाय तीर्थंकर महाराज के अन्य किसी में नहीं हैं, इसवास्ते नमुथ्थुणं कहना सो सम्यग्दृष्टिकी ही करणी है ऐसे मालूम होता है। 7 (२८) जेठमल कहता है कि-"किसी देवताने साक्षात् केवली भगवंतको नमुथ्थुणं नहीं कहा है.” सो असत्य है, सुर्याभ देवताने वीर प्रभुको नमुथ्थुणं कहा है ऐसे श्रीरायपसेणीसूत्रमें प्रकट पाठ है। ... - (२९)जेठमल जीत आचार ठहराके देवतो की करणी निकाल देता है परंतु अरेढूंढिये ! क्या देवता की करणी से पुण्य पापका बंध नहीं होता है ? जो कहोगे होता है तो सुर्याभने पूर्वोक्त रीतिसे श्रीवीर प्रभु की भक्ति करी उससे तिसको पुण्यका बंध हुआ या पाप का? जो कहोगे कि पुण्य या पाप किसी का भी बंध नहीं होता है तो जीव समयमात्र यावत् सातकर्म बांधे विनानहीं रहे ऐसे सूत्रमें कहा है सो कैसे मिलाओगे ? परंतु समझनेका तो इतनाही है,कि सुर्याभ तथा अन्यदेवतेजो पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर भगवंत कीभक्ति करते हैं,सो महापुण्य राशि संपादन करते हैं, क्योंकि तीर्थंकर भगवंतकी इस कार्य में आज्ञा है। (३०) जेठमल “पुब्बिं पच्छा" का अर्थ इस लोक संबंधी ठहराता है और “पेच्चा"शब्दका अर्थ परलोक ठहराता है सो जेठमल की मूढ़ता है, क्योंकि 'पुब्धि पच्छा'का अर्थ पूर्व जन्म' और 'अगला जन्म' ऐसा होता है; 'पेच्चा' और 'पच्छा' पर्यायी शब्द है, इन दोनोंका एकही अर्थ है जेठे ने खोटा अर्थ लिखा है इससे निश्चय होता है कि जेठमलको शब्दार्थ की समझ ही नहीं थी, श्री आचा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ६ ) रांग सूत्र में कहा है कि " जस्ल नथि पुट्विं पच्छा मज्झे तस्स कउसिया” अर्थात् जिसको पूर्व भव और पश्चात् अर्थात् अगले भवमें कुछ नहीं है तिसको मध्यमें भी कहांसे होवे? तात्पर्य जिस को पूर्व तथा पश्चात् है तिसको मध्यमें भी अवश्य है, इसवास्ते सुर्याभ की करी जिनपूजा तिसको त्रिकाल हितकारिणी है, ऐसे श्रीरायपसणी सूत्रके पाठका अर्थ होता है। और श्री उत्तराध्ययन सूत्र में मृगापुत्रके संबंध में कहा है कि:अम्मत्ताय मए भोगा भत्ता विसफलोवमा ॥ पच्छा कडुअविवागा अणुबंध दुहावहा ॥१॥ अर्थ-हे माता पिता ? मैंने विष फल की उपमा वाले भोग भोगे हैं, जो भोग कैसे हैं ? 'पच्छा' अर्थात् अगले जन्म में कड़वा है फल जिनका और परंपरासे दुःख के देनेवाले ऐसे हैं। इस सूत्र पाठमें भी 'पच्छा' शब्द का अर्थ परभव ही होता है। किं बहुना ॥ (३१) जेठमल सुर्याभके पाठमें बताये जिन पूजाके फल की वावत "निस्सेसाए"अर्थात् मोक्षके वास्ते ऐसा शब्द है तिस शब्द का अर्थ फिराने वास्ते भगवतीसूत्रमें से जलते घरसे धन निकालने का तथा वरमी फोंडके द्रव्य निकालनेका अधिकार दिखाता है, और कहता है कि "इस संबंध भी” (निस्सेसाए ) ऐसा पद है इसवास्ते जो इसपदका अर्थ 'मोक्षार्थे' ऐसा होवे तो धन निकालने से मोक्ष कैसे होवे ? तिसका उत्तर-धनसे सुपात्रमें दानदेवे, जिन, मंदिर, जिनप्रतिमा बनवावे, सातों क्षेत्रों में, तीर्थयात्रा में, दयामें तथा दानमें धन खरचे तो उससे यावत् मोक्षप्राप्त होवे इसवास्ते सूत्र में जहाँ जहां "निस्सेसाए " शब्द है तहां तहां तिस शब्दका Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ मोक्ष के वास्ते ऐसा ही होता है और सो शब्द जिन प्रतिमा के पूजने के फल में भी है तो फकत एक मूढमतिजेठमलके कहने से महाबुद्धिमान् पूर्वाचार्य कृत शास्त्रार्थ कदापि फिर नहीं सकता है* . (३२) जेठमल निन्हवने ओघनियुक्ति की टीका का पाठ लिखा है सो भी असत्य है,क्योंकि ऐसा पाठ ओघनियुक्तिमें तथा तिसकी टीकामें किसी जगह भी नहीं है। यह लिखना जेठमलका ऐसा है कि जैसे कोई स्वेच्छासे लिख देवे कि "मुंह बंधों का पंथ किसी चमार का चलाया हुआहै क्योंकि इनकाकितनाक आंचार व्यवहार चमारोंसे भी बुरा है ऐसा कथन प्राचीन ढूंढकनियुक्तिमें है" (३३) इस प्रश्नोत्तर में आदि से अंत तक जेठमल ने सर्याभ जैसे सम्यग्दृष्टि देवताकी और तिस की शुभ क्रिया की निंदा करी है,परंतु श्रीठाणांग सूत्रके पांचमें ठाणे में कहा है कि पांच प्रकार से जीव दुर्लभ बोधि होवे अर्थात् पांच काम करने से जीवों को जन्मांतर में धर्मकी प्राप्ति दुर्लभ होवे यतःपंचहिं ठाणे हिं जीवा टुल्लहबोहियत्ताए कम्मंपकरेंतिातंजहा।अरिहंताणंअवगणं वय ___*जो ढूंढिये "निस्से साए" शब्द का अर्थ मोक्षके वास्ते ऐसा नहीं मानते हैं तो श्रीरायपसेणीसत्रमे परिहंत भगवंतको वंदना नमस्कार करने का फल सुर्याभने चिंतन किया वहां भी "निस्सेसाए" शब्द है जो पाठ इसी प्रश्नोत्तर की आदिमें लिखा भी है, और अन्य शास्त्रों में भी है तो ददियों के माने मजिब तो परिस्त भगवंतको वंदना नमस्कारका फल भी मोक्ष न होगा। क्योंकि वहा भी निस्सेसाए' फल लिखा है। इस भारते सिद्ध होता है कि जिनप्रतिमाके साथ ही दढियो का रेष है और इसीसे पर्थ का पनर्थ करते हैं,परंतु यह इनका उद्यम अपने हाथों से अपना मुंह काला करने सरीखा है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) माणे १ अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवगणं वयमाणे२ आयरिय उवझायाणं अवगणं वय माणे ३ चाउवरणस्स संघस्स अवगणं वयमाणे ४ विविक्कतवबंभचेराणं देवाणं अवगणं वयमाणे ५ ॥ ऊपरके सूत्रपाठ के पांच में बोलमें सम्यग्दृष्टि देवताके अव. र्णवाद बोलने से दुर्लभ बोधि होवे ऐसे कहा है इसवास्ते अरे ट्रॅडियो ! याद रखना कि सम्यग्दृष्टि देवता के अवर्णवाद बोलने से महा नीचगति के पात्र होवोगे और जन्मांतर में धर्म प्राप्ति दुर्लभ होगी॥ इति ॥ (२१) देवताजिनेश्वर की दाढा पूजते हैं। एकवीसमें प्रश्नोत्तर में सुर्याभ देवता तथा विजय पोलिया प्रमुखों ने जिनदाढ़ा पूजी हैं तिसका निषेध करने वास्ते जेठमल ने कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं, परंतु तिनमें से बहुत कुयुक्तियों के प्रत्युत्तर वीसमें प्रश्नोत्तर में लिखे गये हैं,बाकी शेष कुयुक्तियों के उत्तर लिखते हैं । श्रीभगवती सूत्रके दशमें शतक के पांच में उद्देशे में कहा है कि :पभूणमंते चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमर चंचाए रायहाणिए सभाए सुहम्माए चमरंसि सिंहासणंसि तुडियणं सद्धिं दिवाई भोग Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७ ) "चार इंद्र चार दादा लेवे, पीछे कितनेक देवते अंगोपांगके अस्थि प्रमुख लेते हैं,तिनमें कितनेक जिनभक्ति जानके लेते हैं, और कितः नेक धर्म जानके लेते हैं" इसवास्ते जेठमलका लिखना मिथ्या है, श्रीजंबूद्वीप पन्नत्ती का पाठ यह है : केई जिणभत्तिए केई जीयमयंतिकट्ट कई धम्मोत्तिकट्ट गिरहंति ॥ जेठमल लिखता है,कि“दादा लेनेका अधिकार तो चार इंद्रोंका हे और दाढ़ाकी पूजातोबहुत देवते करते हैं ऐसे कहा है, इसवास्ते शाश्वते पुद्गल दाढ़ा के आकार परिणमते हैं" तिसका उत्तर-एक पल्योपम कालमें असंख्याते तीर्थंकरों का निर्वाण होता है इसवास्ते सर्व सुधर्मा सभाओं में जिन दाढ़ा होसक्ती हैं, और महा विदेह के तीर्थंकरों की दाढ़ा सर्व इंद्र और विमान,भुवन, नगराधिपत्यादिक लेते हैं, परंतु भरतखंड की तरें चार ही इंद्र लेवें यह मर्यादा नहीं है तथा श्री जंबूद्वीपपन्नत्ति सूत्र की वृत्ति में श्री शांतिचंद्रो पाध्यायजी ने “ जिनसक्काहा" शब्द करके " जिनास्थीनि" अर्थात् जिनेश्वर के अस्थि कहे हैं तथा तिसही सूत्र में चारइंद्रों के सिवाय अन्य बहुते देवता जिनेश्वर के दांत, हाड प्रमुख अस्थि लेते हैं ऐसा अधिकार है, इसवास्ते जेठमल की करी कुयक्तियां खोटी हैं और जेठमल दादाकों शाश्वते पुद्गल ठहराता है परंतु सत्रों में तो खुलासा जिनेश्वर की दाढा कही हैं, शाश्वती दाढ़ा तो किसीजगह भी नहीं कही है इसवास्तेजेठमलका लिखनामिथ्या है। जेठमल लिखता है कि "जो धर्म जानके लेते होवें तो अन्य इंद्र लेवे और अच्युतेंद्र क्यों न लेवे ?" Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । उत्तर-वीरभगवान् दीक्षा पर्याय में विचरते थे उस अवसर में तिनको अनेक प्रकार के उपसर्ग हुए तब भगवंतकी भक्ति जानके धर्म निमित्त सौधर्मेंद्रने वारंवार आनके उपसर्ग निवारण किये तैसे अच्युतेंद्र ने क्यों नहीं किये ? क्या वो जिनेश्वर की भक्ति में धर्म नहीं समझते थे ? समझते तो थे तथापि पूर्वोक्त कार्य सौधर्मेंद्रने ही किया है तैसेही भरतादि क्षेत्रके तीर्थंकरों की दाढ़ा चार इंद्र लेते हैं, और महा विदेह के तीर्थंकरों की सर्व लेते हैं इसवास्ते इसमे कुछ भी बाधक नहीं है, जेठमल लिखता है कि "दाढा सदा काल नहीं रहसक्ती हैं इसवास्ते शाश्वते पुद्गल समझने"इसतरह असत्य लेख लिखने में तिस को कुछ भी विचार नहीं हुआ है सो तिसकी मृढता की निशानी है, क्योंकि दाढा सदाकाल रहती हैं ऐसे हम नहीं कहते हैं, परंतु वारंवार तीर्थंकरों के निर्वाण समय दाढ़ा तथा अन्य अस्थि देवता लेते हैं इसवास्ते तिनको दाढ़ाकी पूजा में बिलकुल विरह नही पड़ता है ॥ . - जेठमल कहता है कि "जमालि तथा मेघ कुमारकी माताने तिनके केश मोहनी कर्म के उदय से लिये हैं, तैसे दाढ़ा लेने में मोहनी कर्म का उदय है" उत्तर प्रभुकी दाढ़ा देवता लेते हैं सो धर्म बुद्धि से लेते हैं तिसमें तिनको कोई मोहनीकर्म का उदय नहीं है जमालि प्रमुखके केश. लेने वाली तो तिनकी माता थीं तिसमें तिनको तो मोह भी होसक्ता है परंतु इंद्रादि देवते दाढ़ा प्रमुख लेते हैं वे कोई भगवंतके सक्के संबंधी नहीं थे जोकि जमालि प्रमुखकी माताक़ी तरह मोहनी कर्म के उदयसे दाढ़ा लेवे, वे तो प्रभुके सेवक हैं और धर्म बुद्धि से ही प्रभुकी दादा प्रमुख लेते हैं ऐसे स्पष्ट मालूम होता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेठमल लिखता है कि "देवता जो दाढ़ा प्रमुख धर्म बुद्धिसे लेते होवें तो श्रावक रक्षाभी क्यों नहीं लेवे ?" उत्तर- . . जिसवक्त तीर्थंकरका निर्वाण होता है उसवक्त निर्वाण महोत्सव करनेवास्ते अगणिदेवता आते हैं और अग्निदाह किये पीछे वे दाढ़ा प्रमुख समग्र लेजाते हैं शेष कुछ भी नहीं रहता है तो इतने सारे देवताओं के बीच मनुष्य किस गिनती में हैं जो तिनके बीच जाके रक्षा प्रमुख कुछ भी ले सकें? ॥ जेठमल कहना है, कि "कुलधर्म जानके दाढ़ा पूजते हैं " सो भी असत्य है क्योंकि सूत्रों में किसी जगह भी कुलधर्म नहीं कहा है,जेठाइसको लौकिक जीतव्यवहार की करणी ठहराता है,परंतु यह करणी तो लोकोत्तर मार्गकी है "जिनदाढ़ा कीआशातना टालने वास्ते इंद्रादिक सुधर्मा सभामें भोग नहीं भोगते हैं तथा मैथुन संज्ञासे स्त्रीके शब्दका भी सेवन नहीं करते हैं " ऐसे पूर्वोक्त सूत्र पाठ में कहा है तथापिविना अकल के बेवकूफ आदमी की तरह जेठ मल ने कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं सो मिथ्या है, इस प्रसंग में जेठे ने कृष्णकी सभा की बात लिखी है कि “ कृष्णकी भी सुधर्मा सभा है तो तिस में क्या भोग नहीं भोगते होंगे?" उत्तर-सत्रों में ऐसे नहीं कहा है कि कृष्णकी सभा में विषय सेवन नहीं होता है इस प्रकार लिखने से जेठे का यह अभिप्राय मालूम होता है कि ऐसी ऐसी कुयुक्तियां लिखके दादा की महत्वता घटा दे परंतु पूर्वोक्त पाठमें सिद्धांतकारने खुलासा कहाहै कि दाढ़ाकी आशातनाटालने के निमित्त ही इंद्रादिक देवतेसुधर्मा सभा में भोग नहीं भोगते हैं,तामलि तापस ईशानेंद्र होके पहले प्रथम जिनप्रतिमा की पूजा करताहुआ सम्यक्त्व को प्राप्तहुआ है इस बाबतमें जेठा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०८ ) कुमति तिसकी करी पूजा को मिथ्यादृष्टिपणे में ठहराता है सो मिथ्या है क्योंकि तिसने इंद्रपणे पैदा होके जिनप्रतिमा की पूजा करके तत्कालही भगवंत महावीर स्वामी के समीप जाके प्रश्न किया और भगवंतने आराधक कहा, पूर्व भवमें तो वो तापसं था इसवास्ते इस भव उत्पन्न होके तत्काल करी जिनप्रतिमा की के कारण से ही आराधक कहा है ऐसे समझना - पूजा अभव्यकुलक में कहा है कि अभव्यंका जीव इंद्र न होवे इस बाबत जेठमल कहता है कि "इंद्रसे नवग्रैवेयक वाले अधिक ऋद्धि वाले हैं अहमिंद्र हैं और वहां तक तो अभव्य जाता है तो इंद्र न होवे तिसका क्या कारण?" उत्तर - यथा कोई शाहुकार बहुत धनाढ्य अर्थात् गामके राजासे भी अधिक धनवान् होवे राजासे こ नहीं मिलता है, तथैव अभव्यका जीव इंद्र न होवे और ग्रैवेयक में -देवता होवे तिसमें कोई बाधक नहीं, ऐसा स्पष्ट समझा जाता है, जैसे देवता चयके एकेंद्रिय होता है परंतु विकलेंद्रिय नहीं होता - है ( जोकि विकलेंद्रिय एकेंद्रिय से अधिक पुण्य वाले हैं) तथा एकेद्वियसे निकलके एकावतारी होके मोक्ष जाते हैं परंतु विकलेंद्रिय कि जिसकी पुण्याई एकेंद्रियसे अधिक गिनी जाती है, तिस में से fresh कोईभी जीव एकावतारी नहीं होता है, इसवास्ते जैसी जिसकी स्थिति बंधी हुई है तैसी तिसकी गति आगति होती है | अभव्यकुलक में इंद्रका सामानिक देवता अभव्य न होवे ऐसे कहा है तो संगम अभव्य का जीव इंद्रका सामानिक क्यों हुआ?" ऐसे जेठमल लिखता है तिसका उत्तर- जैन शास्त्रकी रचना विचित्र 66 " * "यह जिनपूजा थी आराधक ईशान इन्द्रकायाजी " ऐसा पूर्व महात्माओं का वचन भी है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( e) प्रकारकी है,श्रीभगवती सूत्रके प्रथमशतकके दूसरे उद्देशे में विराधित संयमी उत्कृष्ट सुधर्म देवलोक में जावे ऐसे कहा है और ज्ञाता सूत्रके सोलमें अध्ययन में विराधित संयमी सुकुमालिका ईशान देवलोक में गई ऐसे कहाहै,तथा श्रीउववाइ सूत्रमें तापस उत्कृष्ट ज्योतिषि तक जाते हैं ऐसे कहा है और भगवती सूत्र में तामलि तापस ईशानेंद्र हुआ ऐसे कहा है, इत्यादिक बहुत चर्चा है परंतु ग्रंथ बंध जानेके कारण यहां नहीं लिखी है, जब सूत्रोंमें इस तरह है तो ग्रंथों में होवे इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है, सुर्याभने प्रभुको ६ वोल पूछे इससे बारह वोलवाले सुर्याभ विमान में जाते हैं ऐसे जेठ मलने ठहराया है परंतु सो झूठ है,क्योंकि छद्मस्थ जीव अज्ञानता अथवा शंकासे चाहो जैसा प्रश्न करतो तिसमें कोई आश्चर्य नहीं है, तथा “ देवता संबंधी बारह वोलकी पृच्छा सूत्र में है परंतु मनुष्य संबंधी नहीं है इसवास्ते बारह बोलके देवता होते हैं "ऐसे जेठेने सिद्ध किया है तो मनुष्य संबंधी बारह बोलकी पृच्छा न होने से जठेके लिखे मृजिब क्या मनुष्य बारह बालके नहीं होते हैं ? परतु जेठमलने फकत जिनप्रतिमाके उत्थापन करने वास्ते तथा मंदमति जीवों को अपने फंदेमें फंसानेके निमित्तही ऐसी मिथ्या कुयुक्तियां करी हैं। और देवताकी करणीको जीत आचार ठहराके जेठमल तिस करणी को गिनतीमें से निकाल देता है अर्थात् तिसका कुछभा फल नहीं ऐसे-ठहराता है, परंतु इसमें इतनी भी समझ नहीं; कि इंद्रप्रमुख सम्यग्दृष्टि देवताओं का आचार व्यवहार कैसा है ? वो प्रभुके पांचों कल्याणकों में महोत्सव करते हैं, जिनप्रतिमा और जिनदाढाकी पूजा करते हैं, अठमे नंदीश्वरदीपमें अहाई महोत्सव Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं मुंनि महाराजा को वंदना करने वास्ते आते हैं, इत्यादि सम्यग्दृष्टिकी समग्र करणी करते हैं परंतु किसी जगह अन्य हरिहरादिक देवों को तथा मिथ्यात्रियों को नमस्कार करने वास्ते गये, पूजने वास्ते गये, तिनके गुरुओं को वंदना करी, तिनका महोत्सव किया इत्यादि कुछ भी नहीं कहा है, इसवास्ते तिनकी-करी सर्व करणी सम्यग्दृष्टि की है, और महापुण्य प्राप्तिका कारण है, और जीत आचार से पुण्यबंध नहीं होता है ऐसे कहां कहा है ? ॥ - जेठमल केवलकल्याणक का महोत्सव जीतं आचार में नहीं लिखता है,इससे मालूम होता है कि तिसमें तो जेठमलं पुण्य बंध समझता है, परंत श्रीजंबूद्वीपपन्नत्ती सूत्र में तो पांचों ही कल्याणकों के महोत्सव करने वास्ते धर्म और जिनभक्ति जानके आते हैंऐसे कहा है, इसवास्ते जेठेने जो अपने मन पसंद के लेख लिखे हैं सोसर्व मिथ्या है, श्रीजंबूद्वीपपन्नत्ती सूत्रके तीसरे अधिकार में कहा है कि: अप्पेगइया वंदणवत्तियंएवंप्यणवत्तियं सक्कार सम्माण दंसण कोउहल्ल अप्पे सक्कस्स वयणुयत्तमाणा अप्पे अण्ण मण्णमणु. यत्तमाणा अप्पेजीयमेतं एवमादि ॥ . अर्थ-कितनेक देवतावंदना करने वास्ते,कितनेक पूजा वास्ते, सत्कार वास्ते, सन्मान वास्ते, दर्शन वास्ते, कतुहल वास्ते,कितनेक शकेंद्र के कहने से, कोई कोई परस्पर एक दूसरे के कहने से और कितनेक हमारा यह उचित काम है ऐसा जानके आते हैं । जेठमल लिखता है कि "श्रीअष्टापद जा ऊपर ऋषभ देव Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) चित्तभित्तिंण णिज्जाए नारौं वासुअलंकियं भक्खरंपिव दळुणं दिठिंपडि समाहरे॥१॥ . अर्थ-चित्रामकी भीत नहीं देखनी तिस पर स्त्री आदि होवे सो विकार पैदा करने का हेतु है इसवास्ते जैसे सूर्य सन्मुख देखके दृष्टि पीछेमोड़ लेते हैं तैसे ही चित्राम देखके दृष्टि मोड़ लेनी,जिस तरह चित्रामकी मूर्ति देखने से विकार उत्पन्न होता है इसी तरह जिनप्रतिमा के दर्शनकरने से वैराग्य उत्पन्न होता है क्योंकि जिन बिंब निर्विकार का हेतु है,इस ऊपर जेठमल ढूंढक, श्रीप्रश्नव्याकरण का पाठ लिखके तिसके अर्थ में लिखता है कि "जिन मूर्तिभी देखनी नहीं कही है" परंतु यह तिसका लिखना मिथ्या है,क्योंकि श्रीप्रश्नव्याकरण में जिनप्रतिमा देखने का निषेध नहीं है, किंतु जिस मर्तिके देखने सेविकार उत्पन्न होवे तिसके देखनेका निषेध है, पूर्वोक्त सूत्रार्थ में जेठमल चैत्य शब्दका अर्थ जिनप्रतिमा कहता है और प्रथम उसने लिखा है "चैत्य शब्दका अर्थ जिनप्रतिमा नहीं होता ही है परंतु साधु अथवा ज्ञान अर्थ होता है ” अरे ढूंढियो ! विचार करो कि चैत्यशब्द का अर्थ जो साधु कहोगे तो तुम्हारे कहने मुजिब साधु के सन्मुख नहीं देखना,और ज्ञान कहोगे तो ज्ञान अर्थात् पुस्तक अथवा ज्ञानी के सन्मुख नहीं देखना ऐसे सिद्ध होवेगा! और पूर्वोक्त पाठ में घर, तोरण,स्त्री प्रमुख के देखने की ना कही है तो ढूंढिये गौचरी करने को जाते हो वहां घर तोरण, स्त्री प्रमुख सर्व होते हैं तिनको न देखने वास्ते जैसे मुंहको पट्टी बांधते हो तैसे आखों को पट्टी क्यों नहीं बांधते हो ? जेठमल ने प्रत्येकबुद्धि प्रमुखकी हकीकत लिखी है तिसका प्रत्युत्तर १३में प्रश्नोत्तर में लिखा गया है, वहां से देखलेना ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) - जेठमल लिखता है कि "जिनप्रतिमा को देखके कोई प्रति बोध नहीं पाया" उत्तर-श्री ऋषभदेव की प्रतिमाको देखके आर्द्र कुमार प्रतिबोध हुआ और श्रीदशवकालिक सूत्रके कर्ता श्रीशय्यंभवसूरि शांतिनाथजीकी प्रतिमाको देखके प्रतिबोध हुए। यत:सिजभवं गणहरंजिणपडिमादंसणणपडिबुद्धं जेकर मूढ़मति ढूंढिये ऐसे कहें कि “यह पाठ तो नियुक्ति का है और नियुक्ति हम नहीं मानते हैं"तिनको कहना चाहिये कि श्री समवायांगसूत्र, श्रीविवाहप्रज्ञप्ती (भगवती) सूत्र, श्रीनंदिसूत्र तथा श्रीअनुयोगद्वार सूत्रके मूलपाठमें नियुक्ति माननी कही है और तुम नहीं मानते हो तिलका क्या कारण ? जेकर जैनमतके शास्त्रों को नहीं मानते हो तो फेर नीच लोकों के पंथको भानों! क्योंकि तुमारा कितनाक आचार व्यवहार उनके साथ मिलता आवेगा॥ ॥इति ॥ भ्यदुक्तं श्रीसूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययने । पीतीय दोण्ह दूओ पुच्छणमभयस्स पच्छवेसोउ । तेणावि सम्मदिहित्ति होज्जपडिमारहमिगया। दटुं संबुद्धो रक्खिओय ॥ व्याख्या-अन्यदाकपित्रा जनहस्तेन राजगृहे श्रेणिकराज्ञः प्राभृतं प्रेषितं आर्द्रककुमारेण श्रेणिकसुतायाभयकुमाराय स्नेह करणार्थ प्राभृतं तस्वैव हस्तेन प्रेषितं जनो राजगृहेगत्वा अणिक राज्ञः प्राभृतानि निवेदितवान् संमानितश्च राज्ञा आर्द्रक प्रहितानि प्राभृतानि चाभयकुमाराय दत्तवान् कथितानि स्नेहोत्पादकानि वचः नानि अभयेनाचिंति नूनमसौ भव्यःस्यादासन्नसिद्धिको यो मया Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) (२३)जिनमंदिर करानेसे तथा जिनप्रतिमाभराने से बारमें देवलोक जावे इस बाबत। श्रीमहानिशीथ सूत्रमें कहा है कि जिनमंदिर बनवाने से सम्यग्दृष्टि श्रावक यावत् बारमें देवलोक तक जावे-यतः साई प्रीति मिच्छतीति ततोऽभयेन प्रथम जिनप्रतिमा वहुप्रामृत युताऽऽककुमाराय प्रहिता इदं प्राभृतमेकांते निरूपणीयमित्युक्तं जनस्य सोप्याकपुरं गत्वा यथोक्तं कथयित्वा प्राभूतमार्पयत् प्रतिमा निरूपयतः कुमारस्य जातिस्मरणमुत्पन्नं धर्मे प्रतिबुद्धं मनः अभयं स्मरन् वैराग्यात्कामभोगेष्वनासक्तस्तिष्ठति पित्रा ज्ञातं मा क्वचिदसौ यायादिति पंचशत सुभटैनित्यं रक्ष्यते इत्यादि॥ . भाषार्थः-एक दिन प्रार्द्रकुमारक पिताने दूतके हाथ रानगृह नगरीमें श्रेणिक राजाको प्राभत (नजर-तोसा) भेजा, पार्द्रकुमारने श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार के ताई स्नेह करने वास्ते उसी दूत के साथ प्राभूत भेजा, इतने राजगृह में जाकर श्रेणिक राजाको प्राभत दिये, राजाने भी दूतका यथायोग्य सन्मान किया, और पाई कुमारके भेजे प्राभत अभयकुमारको दिये तथा स्नेह पैदा करन के वचन कहे, तब अभयकुमारने सोचा कि निश्चय यह भव्य है, निकट मोक्षगामी है, जो मेरे साथ प्रीति इच्छता है। तब अभयकुमार ने बहुत प्राभत सहित प्रथमजिन श्रीऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा पार्द्रकुमार के ताई भेजी और दूतको कहा कि यह प्राभत भाई कुमारको एकांतमे दिखाना, दूतने भी प्रार्द्रकपुर में जाके यथोल कथन करके प्राभूत दे दिया। प्रतिमाको देखते हुए पार्द्र कुमारको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुभा, धर्म में मन प्रतिबोध हुआ; अभय कुमारको याद करता हुआ वैराग्य से काम भोगों में पासल नहीं होता हा पार्दकुमार रहता है, पिताने जाना मत कधी या कहीं चला जावे इसवास्ते पांच सौ सुभटों करके पिता हमेशा उसकी रक्षा करता इत्यादि ॥ . यह कथन श्रीमयगडांग सबके दसरे अतस्कंध के छठे अध्ययन में है। ट्रंटिये इस ठिकाने करते हैं कि अभयकुमारने पार्द्रकुमार को प्रतिमी नहीं भेजी है, मुईपत्ती भेजी है तो हम पूछते हैं कि यह पाठ किस-ट्रंढक पुराए में क्योंकि जैनमत कि किसी भी शास्त्र में ऐसा.कथन नहीं है। जनमतके शास्त्रों में तो पूर्वोत श्रीऋषभदेव स्वामी की मतिर्मा भेजने का भी धिकार है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) काउंपिं जिणाययणेहिं मंडियं सव्वमेयणीवट्ट' दागाइच उक्केणं सढ्ढो गच्छेज्जअच्चुअंजाव इसको असत्य ठहराने वास्ते जेठमलने लिखा है कि "जिन मंदिर जिनप्रतिमा करावे सो मंदबुद्धिया दक्षिण दिशाका नारकी होवे " उत्तर - यह लिखना महामिथ्या है। क्योंकि ऐसा पाठ जैनमत के किसी भी शास्त्रमें नहीं है, तथापि जेठमलने उत्सूत्र लिखतेहुए जरा भी विचार नहीं करा है जेकर जेठमल ढूंढक वर्त्तमान समय में होता तो पंडितों की सभा में चर्चा करके उसका मुंहकाला कराके उसके मुखमें जरूर शक्कर देते ! क्योंकि झूठ लिखने वाले को यही दंड होना चाहिये ॥ जेठमल लिखता है कि "श्रेणिक राजाको महावीर स्वामी ने कहा कि कालकसूरिया भैंसे न मारे, कपिलादासी दान देवे, पुनीया श्रावककी सामायिक मूल लेवे अथवा तू नवकारसीमात्र पच्चक्खाण करे तो तू नरकमें न जावे, यह चार बातें कहीं परंतु जिनपूजा करे तो नरक में न जावे ऐसे नहीं कहा " उत्तर - ढूंढिये जितने शास्त्र मानते हैं तिनमें यह कथन बिलकुल नहीं है तो भी इस बातका संपूर्ण खलासा दशमें प्रश्नोत्तर में हमने लिख दिया है ॥ जेठमलने श्री प्रश्नव्याकरण का पाठ लिखा है जिस से तो जितने ढूंढिये, ढूंढनियां, और उनके सेवक हैं वे सर्व नरक में जावेंगे ऐसे सिद्ध होता है । क्योंकि श्रीप्रश्नव्याकरण के पूर्वोक्त पाठ में लिखा है कि जो घर, हाट, हवेली, चौतरा, प्रमुख बनावे सो मंद बुद्धिया और मरके नरक में जावे । सो ढूंढिये ऐसे बहुत काम करते हैं। तथा ढूंढक साधु, साध्वी, धर्मके वास्ते विहार करते हैं, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस्तेमें नदी उतरते हुए त्रस स्थावर की हिंसा करते हैं, पडिलहण में वायुकाय हणते हैं, नाक के तथा गुदा के पवनसे वाय काय मारते हैं,सदा मुंह बांधने से असंख्याते सन्मर्छिम जीव मारते हैं, मेघ वरसते में सञ्चित्त पानीमें लघु नीति तथा बड़ी नीति परठवते हैं, तिससे असंख्याते अपकायको मारते हैं, इत्यादि सैंकड़ों प्रकार से हिंसा करते हैं, इसवास्ते सो मंदबुद्धि यही हैं, और जेठे के लिखे मूजिब मरके नरक में ही जाने वाले हैं, इस अपेक्षा तो क्या जाने जेठे का यह लिखना सत्य भी हो जावे ! क्योंकि ढूंढकमत दुर्गति का कारण तो प्रत्यक्ष ही दखाई देता है। और जेठमलने "दक्षिण दिशा का नारकी होवे" ऐसे लिखा है, परंतु सूत्रपाठ में दक्षिण दिशा का नाम भी नहीं है, तो उसने यह कहां से लिखा ? मालूम होता है कि कदापि अपने ही उत्सूत्र भाषण रूप दोष से अपनी वैसी गति होनेका संभव उसको मालूम हुआ होगा और इसीवास्ते ऐसा लिखा होगा !! और शुद्ध मार्ग गवेषक आत्मार्थी जीवों को तो इस बात में इतना हीसमझने का है कि श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र का पूर्वोक्त पाठ मिथ्यादृष्टि अनार्यों की अपेक्षा है, क्योंकि इस पाठ के साथही इस कार्य के अधिकारी माछी, धीवर, कोली, भील,तस्कर,प्रमुखही कहे हैं, और विचार करोकि जो ऐसे न होवे तो कोई भी जीव नरकविना अन्य गति में न जावे, क्योंकि प्रायः गृहस्थी सर्व जीवों को घर, दुकान वगैरह करना पड़ता है, श्री उपासकदशांग सूत्रमें आनंद प्रमुख श्रावकोंके घर,हाट,खेत,गड्ड', जहाज, गोकुल,भष्ठियांप्रमुख आरंभ *कितनेक जूं लीय प्रमुख को कपड़े की टांकी में बांध के संथारा पच्चलाते पर्यात् मारते हैं तथा कितनेक गूगकोईटों से पीससे हैं, तिममें चूरणीये मारते हैं। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (e) का.अधिकार वर्णन किया है,तथापि वो काल करके देवलोक में गये हैं, इसवास्ते अरे मूर्ख ढियो! जिन मंदिर कराने से नरक में जावे ऐसे कहते हो सो तुमारी दुष्टवुद्धिका प्रभाव है और इसीवास्ते सूत्रकारका गंभीर आशय तुम बेगुरेनहीं समझ सक्ते हो। जेठमलने लिखा है कि "जैनधर्मी आरंभमें धर्म मानते हैं"। उत्तर-जैनधर्मी आरंभ को धर्म नहीं मानते हैं, परंतु जिनाज्ञा तथा जिनभक्ति में धर्म और उस से महापुण्य प्राप्ति यावत् मोक्ष फल श्रीरायपसेणीसूत्र के कथनानुसार मानते हैं। . .. . जेठमल जिनमंदिर और जिनप्रतिमा कराने बाबत इस प्रश्नोत्तर में लिखता है,परंतु तिसकाप्रत्युत्तर प्रथम दो तीनवारलिखचुके हैं। . जेठमलने "देवकुल" शब्द.का अर्थ सिद्धायत करा है, परंतु देवकुल शब्द अन्य तीथिदेवके मंदिर में बोला जाता है, जिनमदिर के बदले देवकुल शब्द लौकिक में नहीं बोला जाता है । और सूत्रकारने किसी स्थल में भी नहीं कहा है, सूत्रकारने तो सूत्रों में जिनमंदिर के बदले सिद्धायतन, जिनघर,अथवा चैत्य कहा है, तोभी जेठेने खोटी खोटी कुयक्तियां लिखके स्वमति कल्पनासे जो मनमें आया सो लिख मारा है सो उसके मिश्वात्वके उदयका प्रभाव है,सिद्धायतन शब्द सिद्ध प्रतिमाके घर आश्री है, और जिन घर शब्द अरिहंतके मंदिर आनी द्रोपदीके आलावे में कहा है, इस वास्ते इन दोनों शब्दों में कुछभी प्रतिकूलभाव नहीं है,भावार्थ में तो दोनों एकही अर्थ को प्रकाशते हैं । इति ।। . . . (२४) साधजिनप्रतिमा की वेयावच्च करे। श्रीप्रश्न व्याकरण सूत्रके तीसरे संवर द्वारमें साधु पंदरां बोल Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) की वैयावच्च करे ऐसा कथन है तिनमें पंदरमा बोल जिनप्रतिमा का है तथापि जेठे निन्हवने चउदां बोल ठहराक पंदरमें बोलकाअर्थ विपरीत कियाहै इसवास्ते सो सूत्रपाठ अर्थसहित लिखते हैं।यतः अह करिसए पुण आराहए क्यमिणं जेसे उवही भत्तपाणे संगहदाण कुसले अच्चंत बाल,१,दुम्बल,२, गिलाण,३,बुढ्ढ, ४,खवगे, ५,पवत्त,६,आयरिय,७, उवझाए, ८, सेहे, साहम्मिए,१०,तवस्सी,११, कुल,१२, गण, १३, संघ,१४, चेइयढे,१५,निज्जरी वेयावच्चे अणिस्सियं दसविहं बहुविहं पकरे ॥ - अर्थ-शिष्य पूछता है " हे भगवन् ! कैसा साधु तीसरा बत आराधे ?” गुरु कहते हैं "जो साधु वस्त्र तथा भातपाणी यथोक्त विधिसे लेना और यथोक्त विधिसे आचार्यादिकको देना तिनमें कुशल होवे सो साधु तीसरा व्रत आराधे । अत्यंत बाल (१) शक्ति हीन (२) रोगी (३) वृद्ध (४) मास क्षपणादि करने वाला(५)प्रवर्तक (६) आचार्य (७) उपाध्याय (८) नव दीक्षित शिष्य (९) सार्मिक (१०) तपस्वी(११)कुलचांद्रादिक (१२)गण कुलका समुदाय कौटिकादिक (१३) संघ कुलगणका समुदाय चतुर्विध संघ (१४) और चैत्य जिनप्रतिमा इनका जो अर्थतिनमें निर्जराका अर्थी साधु कर्म क्षय वांछता हुआ यश मानादिककी अपेक्षा विना दश प्रकारसे तथा बह विधसे वेयावच्च करे सो साधु तीसरा व्रत आराधे। इस Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में तो भातपाणा श्राविकारूप वावच्च नहीं; (१५) बाबत जेठमल भातपाणी तथा उपधि देनी तिसको ही वेयावच्च कहता है सो मिथ्या है। क्योंकि बाल, दुर्बल, वृद्ध, तपस्वी प्रमुख में तो भातपाणी का वेयावच्च संभव हो सक्ता है परंतु कुल, गण, और साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ, तथा चैत्य जो अरिहंत की प्रतिमा इनको भातपाणी देनेसे ही वेयावच्च नहीं; किंतु वेयावच्च के अन्य बहु प्रकार हैं। जैसे कुल, गण, संघ तथा अरिहंत की प्रतिमा इनका कोई अवर्णवाद बोले, इनकी हीलना तथा विराधना करे तिसको उपदेशादिक देके कुल गण प्रमुख की विराधना टाले और इनके (कुल गण प्रमुख के) प्रत्यनीकका अनेक प्रकारसे निवारण करे सो भी वेयावच्चमें ही शामिल है तैसे अन्य भी वेयावच्चके बहुत प्रकार हैं* ॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमें हरिकेशी मुनिके अध्ययनमें लिखा है कि "जक्खाहु वेयावडियं करेति" मतलब श्रीहरिकेशीमुनि की वेयावच्च करने वाले यक्ष देवताने मुनिको उपसर्ग करने वाले ब्राह्मणोंके पुत्रों को जब मारा और ब्राह्मण हरिकेशी मुनि के समीप आकर क्षमा मांगने लगा तब श्रीहरिकेशी मुनिने कहा कि “मैंने कुछ नहीं किया है परंतु यक्षमेरी वेयावच्च करता है उससे तुमारे पुत्र मारे गये हैं।" देखो कि यक्ष ने हरिकेशी मुनिकी वेयावच्च किस रीतिसे करी है ? ढूंढियो ! जो, अन्न पाणी से ही वेयावच्च होती है ऐसे कहोगे तो देवपिंड. तो सर्वथा साधुको अकल्पनिक है और इस ठिकाने तो प्रत्यक्ष रीति,से. हरि *मूनसूत्रकारने भी-“दसविहं बहुविहं पकरेइ- दस प्रकार से तथा डा विधमे. वेयावच्छ करे, ऐसे फरमाया है। इसवास्ते वेयावच्च कुछ पन्नाशी वरण पाचादिके देने का ही नाम नहीं है, प्रत्यनीक का निवारचा भी वेयावच की। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३); केशीमुनिके प्रत्यनीक ब्राह्मणके पुत्रों को यक्षने मारा तिस बाबत हरिकेशीमुनिने कहा कि मेरी वेयावच्च करने वाले यक्षने किया है तो यक्षने तो ब्राह्मणके पुत्रों की हिंसा करी और मुनिने तो वेयावच्च कही; और मुनिका वचन असत्य होवे नहीं। तथा शास्त्रकार भी असत्य न लिखे । इसवास्ते अन्नपाणी उपधि प्रमुख देना ही वेयावच्च ऐसे एकांत कहते हो सो मिथ्या है । पूर्वोक्त पाठ में खुलासा पंदरां बोल हैं और पंदरां ही बोलों के साथ जोड़ने का 'अर्थे' शब्द पंदरमें बोल के अंत में है, तथापि जेठमलने चौदह बोल ठहराए हैं और "चेइय?" अर्थात् ज्ञानके अर्थे वेयावच्च करे ऐसे लिखा है सो दोनों ही मिथ्या हैं, क्योंकि ज्ञानका नाम चैत्य किसीभी शास्त्रमें या किसीभी कोष में नहीं है । तथा सूत्रों में जहां जहां ज्ञानका अधिकार है वहां वहां सर्वत्र “नाण" शब्द लिखा है परंतु "चेइय" शब्द नहीं लिखा है इसवास्ते जेठमल का; किया अर्थ खोटा है, और धर्मशी नामा ढूंढकने प्रश्नव्याकरणके टब्बेमें इसी चैत्य शब्दका अर्थ साधु लिखाहै, इससे मालूम होता है कि इन मूढमति ढूंढकों का आपसमें भी मेल नहीं है परंतु इस में कुछ आश्चर्य नहीं, मिथ्यादृष्टियों का यही लक्षण है । और "चेइय?" तथा "निज्जरठ्ठी” 'इन दोनों शब्दों का एक सरीखा अर्थात् ज्ञानके अर्थे और निर्जराके अर्थे ऐसा अर्थ जेठेने लिखा है, परंतुसूत्राक्षर देखनेसें मालूम होगा कि पाठके अक्षर और लगमात्र अलग अलग और तरह के हैं, एकके अंतमें “अछे" अर्थात् अर्थे ' है सो. चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में निपात है,तिसका अत्यंत बालके अर्थे, दुर्बल के अर्थे, ग्लानके अर्थे, यावत जिन प्रतिमा के अर्थे ऐसा अर्थ होता है दूसरे पदके अंतमें “अठ्ठी” अर्थात् अर्थी' Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) हैसो प्रथमा विभक्ति है तिसका अर्थ "निर्जराका अर्थी"जो साधे सो वेयावच्च कर ऐसा होता है,परंतुजेठेने सत्य अर्थ छोड़के दोनों शब्दों का एक सरीखा अर्थ लिखा है इसलिये मालूम होता है कि जेठेको व्याकरणका ज्ञान बिलकुल नहीं था, तथा जैसा सूत्रपाठ है वैसा उसको नहीं दिखा है,इससे यह भी मालूम होता है कि उसके नेत्रोंके भी कुछक आवरण था । ___ श्रीठाणांगसूत्र तथा व्यवहारसूत्रप्रमुख सूत्रोंमें दश प्रकारकी वेयावच्चकही है, जिसका समावेश पूर्वोक्तपंदरह बोलोमें हो गया है, इसवास्ते तिन दश भेदोंकी बाबत जेठेकी लिखी कुयुक्ति खोटी है। प्रश्नके अंतमें जेठे निन्हवने लिखाहै कि “उपधि और अन्न पाणीसे ही वेयावच्च करनी" यह समझजेठे ढूंढककी अकल विना की है, क्योंकि जो इन तीन भेदसे ही वेयावच्च करनी होवे तो चतुर्विध संघकी वेयावच्च करनेका भी पूर्वोक्त पाठमें कहा है, और संघमें तो श्रावक श्राविका भी शामिल हैं तो तिनकी वेयावच्च साधु किस तरह करे ? जो आहार तथा उपधिसे करे ऐसे ढूंटक कहते हैं तो क्या आप भिक्षा लाकर श्रावक श्राविकाको देवेंगे ? नहीं,क्योंकि ऐसे करना तिनका आचार नहीं है। तथा श्रावक श्राविकातो देने वाले हैं, लेना उनका आचार ही नहीं है; इस. वास्ते अरे ढूंढको ! जबाब दो कि तीसरे व्रतकोआराधने के उत्साह वाले साधुने चतुर्विध संघकी वेयावच्च किस रीतिसेकरनी? आखीर लिखने का यह है कि वेयावच्चके अनेक प्रकार हैं जिसकी जैसी संभवहोतेसीतिसकी वेयावच्च जाननी । इसलिये साधु जिनप्रतिमा की वेयावच्च करे सो बात संपूर्ण रीतिसे सिद्ध होती है । दूढिये इस Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४ ) मजिब नहीं मानते हैं इससे तिनको निविड मिथ्यात्वका उदय मालमे होता है। . ॥इति ॥ (२५)श्रीनंदिसत्र में सर्व सूत्रोंकी नोध है॥ बारह अंगके नाम। (१) आचारांग, (२) सूयगडांग,(३) ठाणांग,(४)समवायांग, (५) भगवंती, (६) ज्ञाता, (७) उपासकदशांग, (८) अंतगड, (९) अनुत्तरोवाइ, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक, (१२) दृष्टिवाद (१) अावश्यकासन। (२९) उत्कालिक सूत्रके नाम । (१) दशवेकालिक,(२) कपिण्याकप्पिय,(३)चुल्लकल्प (१)महा कल्प, (५) उववाइ, (६) रायपसेणी, (७) जीवाभिगम, (८) पन्नवणा, (९) महापन्नवणा, (१०) पमायणमाय, (११) नंदि,(१२)अनु. योगद्वार, (१३) देवेंद्रस्तव, (१४) तंदुलक्यालिय, (१५) चंद्रविजय (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति,(१७) पौरुषी मंडल, (१८) लेडल प्रवेश, (१९) विद्याचारण विनिश्चय, (२०) गणिविद्या, (२१)ध्यानविभक्ति,(२२) मरणदिभक्ति, (२३) आयविसोही, (२४) वीतरागश्रुत, (२५) सले. खनाश्रुत, (२६) विहारकल्प, (२७) चरणविधि, (२८) आउपरच्चक्खाण, (२९) महापच्चदखाण ॥ . एवमाइ शब्दसे श्रीच उसरणसूत्र तथा श्रीभक्तपरिज्ञासूत्र प्रमुख चउदां हजारमें से कितनेक उत्कालिकसूत्र समझने ॥ - (३१) कालिक सूत्रके नाम --- (१) उत्तराध्ययन, (२) दशाश्रुतस्कंध, (३) कल्पसूत्र,(४)व्यवहारसूत्र (५) निशीथ, (६) महानिशीथ, (७) ऋषिभाषित, (८)जंबू Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) द्वीपपन्नत्ति, (९) द्वीपसागरपन्नत्ति, (१०) चंदपन्नत्ति, (११) खुड्डियाविमाणपविभत्ति, (१२) महल्लियाविमाणपविभत्ति, (१३) अंगचूलिया, (१४) वग्गचूलिया, (१५) विवाहचूलिया,(१६)अरुणोबाइ, (१७) वरुणोववाइ, (१८) गरुडोववाइ,(१९) धरणोक्वाइ,(२०) वेसमणोववाइ, (२१) वेलंधरववाइ, (२२) देविंदोषवाइ, (२३) उत्थान श्रुत, (२४) समुत्थानश्रुत, (२५) नागपरियावलिया, (२६) निर्याव लिया, (२७) कप्पिया, (२८) कप्पवडंसिया, (२९) पुफिया, (३०) पुप्फचूलिया, (३१) वन्हीदशा ॥ ___ एवमाइ शब्दसे ज्योतिष्करंडसूत्र प्रमुख चौदहहजार में से कितनेक कालिकसूत्र समझने। ___ कुल ७३ के नाम लिखके एकमाइ शब्दले आदि लेके १४००० प्रकीर्णकसूत्र कहे हैं,तिनमें ले जो व्यवच्छेद होगय है सो तो भरत खंड में नहीं हैं। और शेष जो हैं लो सर्व आगम नामसे कहे जाते हैं। तिनमेंसे कितनेक पाटण,खंबायत (Cambay) जैसलमेर प्रमुख नगरोंके प्राचीन भंडारों में ताडपत्रों ऊपर लिखे हुए विद्यमान हैं। जेठमल लिखता है कि "वत्तील उपरांत सर्व सूत्र व्यवच्छेद हो गए और हाल में जो हैं सो नये बनाये है"उत्तर-जेठमलका यह लिखना झूठ है। यदि यह नये बनाये गये होंगे तो बत्तीससूत्र भी नये वनाये सिद्ध होंगे क्योंकि बत्तीससूत्र वोही रहे और दूसरे नये बनाये गये इसमें कोई प्रमाण नहीं है,और जेठेने इस बाबत कोई भी प्रमाण नहीं दिया है इसवास्ते उसका लिखना मिथ्या है ॥ बत्तीस उपरांत (४५) सूत्रांतर्गत (१३) सूत्रोंमें से आठसूत्रोंके नाम पूर्वोक्त नंदिसूत्रके पाठमें हैं तथापि जेठा तिनको आचार्यके बनाये कहता है सो मिथ्या है ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) तथा श्रीमहानिशीथसूत्र आठ आचार्गाने मिलके रचा कहता है,सो भी मिथ्या है,क्योंकि आचार्योंने एकत्र होकर यहसूत्र लिखा है परंतु नया रचा नहीं है । ४५ विचले पांचसूत्रोंके नाम पूर्वोक्त पाठमें नहीं हैं परंतु सो आदि शब्दसे जाननेके हैं इसवास्ते इसमें कुछ भी बाधक नहीं है। और कितनेक सूत्र, जिनमें से कितनेक ढूंढिये नहीं मानते हैं और कितनेक मानते हैं तिनमें भी आचार्योके नाम हैं, सो "सूत्र कर्ताके नाम हैं ऐसे जेठमल ठहराता है, परंतु सो मिथ्या है, क्योंकि वो नाम बनाने वालेका नहीं है;जेकर किसीमें नाम होगा तो वो वीरभद्रवत् श्रीमहावीरस्वामीके शिष्यका होगा जैसे लघु निशीथमें विशाखगणिका नाम है और श्रीपन्नवणासूत्रमें श्यामाचार्यका नाम है। जेठमल लिखता है कि "नंदिसूत्र चौथे आरेका बना हुआ है" सो मिथ्या है, क्योंकि श्रीनंदिसूत्र तोश्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमण का बनाया हुआ है और तिसके मूलपाठमें वज्रस्वामी, स्थूलभद्र चाणाक्यादिक पांचों आरेमें हुए पुरुषोंके नाम हैं। श्रीआवश्यक तथा नंदिसूत्र में कहा है, कि द्वादशांगी गणधर महाराजाने रची सो रचना अति कठिन मालूम होनेसे भव्य जीवों के बोध प्राप्तिके निमित्त श्रीआर्यरक्षितसरि तथा स्कंदिलाचार्यने हाल प्रवर्तन हैं, इसमूजिब सुगम रचना युक्त गुंथन किया इसवास्ते कुल सूत्र द्वादशांगी के आधारसे आचार्योंने गुंथन किये हैं ऐसे समझना ।। मूढमति ढूंढिये मिथ्यात्वके उदयसे वत्तीससूत्रही मानकर अन्य सूत्र गणधर कृत नहीं है ऐसे ठहराके तिनका निषेध करते हैं,परंतु Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) इसमूजिव निषेध करनेका तिनका असली सबब यह है कि अन्य सूत्रों में जिन प्रतिमा संबंधी ऐसे ऐसे खुलासा पाठहैं कि जिससे ढूंढक मतका जड़मूलसे निकंदन होजाता है जिसकी सिद्धिमें दृष्टांत तरीके श्रीमहाकल्पसूत्रका पाठ लिखते हैं-यत: से भयवं तहारूवं समणं वा माहणं वा चेद्रय घरे गच्छेज्जा ? हंता गोयमा ! दि दिणे गच्छेज्जा से भयवं जत्थ दिये गण गच्छेज्जा तओ किं पायच्छित्तं हवेज्जा ? गोयमा!पमायं पड़च्च तहारूवं समणं वा माहणं वा. जो जिणघरं न गच्छेज्जातओ क अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेज्जा से भयवं समणो वासगस्स पोसहसालाए पोसहिए पोसह बंभयारी किं जिणहरं गच्छेज्जा' हंता गोयमा ! गच्छेज्जा | से भयवं केागां गच्छेन्जा' गोयमा ! गाण दंसण चरणइयाए गच्छेज्जा । जे केइ पोसहसालाए पोसह बंभयारी जश्री जिणहरेन गच्छेज्जा तओ पायच्छित्तं हवेज्जा ? गोयमा ! जहा साहू तहा भाणियन्वं छठ्ठे अहवा दुवालसमं पायच्छितं हवेज्जा । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) - अर्थ-"अथ हे भगवन् ! तथारूप श्रमण अथवा माहणतपस्वी चैत्यघर यानि जिनमंदिर जावे?"भगवंत कहते हैं "हे गौतम रोज रोज अर्थात् हमेशां जावे" गौतमस्वामी पूछते हैं "हे भगवन् ! जिस दिन न जावे तो उस दिन क्या प्रायश्चित्त होवे ?" भगवंत कहते हैं "हे गौतम प्रमादके वशसे तथारूप साधु अथवा तपस्वी जो जिनगृहे न जावे तो छठ अर्थात् बेला दो उपवास,अथवादुवालस अर्थात् पांच उपवास (व्रत)का प्रायश्चित्त होवे" गौतमस्वामी पूछते हैं "हे भगवन् ! श्रमणोपासक श्रावक पोषधशालामें पोषध में रहा हुआ पोषधब्रह्मचारी क्या जिनमंदिरमें जावे ?" भगवंत कहते हैं "हां हे गौतम ! जावे" गौतमस्वामी पूछते हैं “हे भगवन् किसवास्ते नावे?" भगवंत कहते हैं "हे गौतम! ज्ञालदर्शनचारित्रार्थे जावे ?" गौतमस्वामी पूछते हैं “जोकोई पोषधशाला में रहा हुआ पोषध ब्रह्मचारी श्रावक जिनमंदिरमें न जावे तो क्या प्रायश्चित्त होवे ?" भगवंत कहते हैं "हे गौतम ! जैसे साधुको प्रायश्चित्त तैसे श्रावकको प्रायश्चित्त जानना, छछ अथवा दुवालसका प्रायश्चित्त होवे" पूर्वोक्त पाठ श्रीमहाकल्पसूत्रमें हैं,* और महा कल्पसूत्रका नाम पूर्वोक्त नंदिसूत्रके पाठमें है। जेठे निन्हवने यह पाठ जीतकल्पसूत्रका है ऐसे लिखा है परंतु जेठेका यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि जीतकल्पसूत्रमें ऐसा पाठ नहीं है । . . , “ तथा तुंगीया, सावत्धी, आलंभिका प्रमुख नगरियोंके जो शंखजी, शतकजी, पुष्कलीजी, पानंद और कामदेवादिक जैनी श्रावक थे वे सर्व प्रतिदिन तीन वा श्री जिनप्रतिमाकी पूजा करते थे। तथा जो जिनपूजा करे सो सम्यक्त्त्वी और जो न करे सो मिथ्यात्वी जागना इत्यादि कथनभी इसी सूत्रमें है-तथाच तत्पाठः- . . " , "तणं कालेणं तेणंसमएणं जाव तुंगीया नयरीए बहवे सम Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) जेठमल लिखता है कि "श्रावक प्रमादके वशसे भगवंतको और साधुको वंदना न कर सके तो तिसका पश्चात्ताप करे परंत श्रावकको प्रायश्चित्त न होवे" उत्तर-पोसहवाले श्रावककी क्रिया प्रायः साधु सदृश है इसवास्ते जैसे साधुको प्रायश्चित्त होवे- तैसे श्रावकको भी होवे॥ जेठमल लिखता है कि "बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ ,तथा आचारांगमें प्रायश्चित्तके अधिकारमें मंदिर न जानेका प्रायश्चित्त नहीं कहा है” उत्तर-कोई अधिकार एकसूत्रमें होता है, और कोई अधिकार अन्य सूत्रमें होताहै,सर्व अधिकार एकही सूत्रमेंनहीं होते हैं। जैसे निशीथ, महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प प्रमुख सूत्रोंमें प्रायश्चित्तका अधिकार है, तैसे श्रीमहाकल्पसूत्रमें भी प्रायश्चित्तका अधिकार है । सर्वसूत्रों में जुदा जुदा अधिकार णोवासगा परिवसंति संखे सयए सियप्पवाले रिसीदत्ते दर्मगे पुक्खली निवद्धे सुप्पइछे भाणुदत्ते सोमिले नरवम्मे आणंद कामदेवाइणो अन्नत्थंगामे परिवसति अढा दित्ता विच्छिन्न विपुल वाहणा जाव लट्टा गहिया चाउद्दसमुदिठ पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह पालेमाणा निग्गंथाण निग्गंथिणय फासु एसणिज्जेणं असणादि ४ पडिलाभे माणा चेइयालएसु तिसंझं चंदणपुर्यफधूववत्थाइहिं अञ्चणं कुणमाणाजाव जिणहरे विहरंति से तेणठेणं गोयमा जो जिण पडिमं पूएइ सो नरो सम्मदिछि जाणियव्वो जो जिणपडिमं न पूएइ सो मिच्छादिहि जाणियव्यो मिच्छेदिहिस्स नाणं न हबइ चरणं न हवइ मुक्खं न हवइ सम्मदिहिस्स नाणं चरणं मुक्खं च हबइ से तेणठेणं गोयमा सम्मदिहि सढेहिं जिणपडिमाणं सुगंध पुप्फचंदण विलेवणेहिं पया कायवा"॥ इति Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, इसवास्ते मंदिर न जानेके प्रायश्चित्तका अधिकार श्रीमहा कल्पसूत्रमें है और अन्यमें नहीं है इतनेमात्रसेजेठेकी करी कुयुक्ति कुछ सच्ची नहीं हो सक्ती है । श्रीहरिभद्रसूरि जोकि जिनशासन को दीपानेवाले महाधुरंधर पंडित १४४४ ग्रंथके कर्ता थे तिनकी जेठमलने व्यर्थ निंद्याकरी है सो जेठमलकी मूर्खताकी निशानी है। ___अभव्यकुलकमें अभव्यजीव जिस जिस ठिकाने पैदा नहीं होसक्ता है सो दिखाया है इसबाबत जेठमल लिखता है कि "भव्य अभव्य सर्व जीव कुल ठिकाने पैदा होचुके ऐसे सूत्रमें कहा है इस वास्ते अभव्यकुलक सूत्रोंसे विरुद्ध है" जेठे ढूंढकका यह लिखना महामिथ्यादृष्टि पणेका सूचकहे यद्यपि शास्त्रोंमें ऐसाथकनहै कि न सा जादू न सा जोणी नतं ठाणं नतं कुलं । नजायान मुया जत्थ सवे जीवा अणंतसो? परंतु यह सामान्य वचन है । विचार करोकि मरुदेवीमाताने कितने दंडक भोगे हैं? सो तो निगोदमेंसे निकलके प्रत्येकमें आकर मनुष्य जन्म पाकर मोक्षमें चली गई हैं, और शास्त्रकारतो सर्व जीव सर्व ठिकाणे सर्व जातिपणे अनंतीवार उत्पन्न हुए कहते हैं ।जेकर जेठ मल ढूंढक इस पाठको एकांत मानता है तो कोई भी जीव सर्वार्थ सिद्ध विमान तक सर्वजाति सर्वकल भोगे विना मोक्ष में नहीं जाना चाहिये और सूत्रोंमें तो ऐसे बहुत जीवोंका अधिकार है जो कि अनुत्तरविमानमें गये विना सिद्धपदको प्राप्त हुए हैमतलब यह किटूंढक सरीखे अज्ञानी जीव विना गुरुगमके सूत्रकारकी शैलिको कैसे जाने ? सूत्रकी शैलि और अपेक्षा समझनी सो तो गुरुगममें ही रही हुई है,इसवास्ते अभव्यकुलक सूत्रके साथ मुकाबला करने Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१. ) में कुछभी विरोध नहीं है और इसीवास्ते यह मान्य करने योग्य है* जो जो ग्रंथ अद्यापि पर्यन्त पूर्व शास्त्रानुसार बने हुए हैं सो सत्य है, क्योंकि जैनमतके प्रमाणिक आचार्योंने कोईभी ग्रंथ पूर्व ग्रंथों की छाया विना नहीं बनाया है, इसवास्ते जिनको पूर्वाचार्योंके वचन में शंका होवे उन्होंने वर्तमान समयके जैनमुनियों को पूछ लेना वोह तिसका यथामति निराकरण करदेवेंगे, क्योंकि जो पंडित ओर गुरुगमक जानकार हैं वोह ही सूत्रकी शैलिको और अपेक्षाको ठीक ठीक समझते हैं। जेठमल लिखता है कि "जो किसी वक्त भी उपयोग न चूका होवे तिसके किये शास्त्र प्रमाण हैं "जेठेके इस कथन मुजिब तो गणधर महाराजाके वचन भी सत्य नहीं ठहरे ! क्योंकि जब श्रीगौतमस्वामी आनंद श्रावक के आगे उपयोग चुके तो सुधर्मा स्वामी क्यों नहीं चूके होवेंगे ? * यदि ढूंढिये अभव्यकुकल का अनादर करके "नसाजाइ” इत्यादि पाठको ही मंजर करते हैं तो उनके प्रति हम पूछते हैं कि आप बताए कि-पांच अनतरविमान में देवता तीर्थ कर, चक्रवती,वासुदेव,प्रतिवामदेव बलदेव, नारद, केवल ज्ञानी और गणधर के हायसे दीना तीर्थ कर का वार्षिक दान, लोकान्तिक देवता, इत्यादि अवस्थाभी की प्राप्ति प्रभव्य के जीवको होती है ? क्योंकि तुम तो भव्य अभव्य सर्व को स्थान जाति कुन्त योनि में उत्पन्न हए मानते हो तो तु सारे माने मूजिव तो पूर्वोक्त सर्व अवस्था प्रभन्यजीव की प्रोनी चाहिये परन्त होती कभी भी नहीं हैं, और यही वर्णन प्रभव्य कुलकमे है, तथा प्रभव्यकुलक की वर्णन करी कई बातें ढूंढिये लोका मानते भी हैं तो भी पभव्यकुन्नक का अनादर करते हैं जिसका असली मतलब यह है कि प्रभव्यकुलक में लिखा है कि तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजादि सामग्रीमें जो पृथिवी पाणी धूप चदन पुष्पादि काम पाते हैं उनमें भी अभव्य के जीव उत्पन्न नहीं होसक्त है अर्थात् जिम चीन में प्रभध्यका जीव होगा वो चीज जिनप्रतिमार्क निमित्त या जिनप्रतिमा को पूजाके निमित काम में न पायेगी,सो यही पाठ रनको दुःखदाई होरहा है उल्लू को सूर्यवत् । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. २०२ ) तथा जेठमल के लिखे मूजिब जब देवर्द्धि गणिक्षमाश्रमण के लिखे शास्त्रोंकी प्रतीति नहीं करनी चाहिये ऐसे सिद्ध होता है तो फिर जेठे निन्हव सरीखे मूर्ख निरक्षर मुहबंधेके कहे की प्रतीति कैसे करनी चाहिये ? इसवास्ते जेठमल का लिखना बेअकल, निर्विवेकी, तो मंजूर कर लेवेंगे, परंतु बुद्धिमान विवेकी और सुज्ञ पुरुषतो कदापि मंजूर नहीं करेंगे ॥ जेठमल लिखता है कि " पूर्वघर धर्मघोषमुनि, अवधिज्ञानी सुमंगल साधु, चारज्ञानी केशीकुमार तथा गौतमस्वामी प्रमुख श्रुत केवली भी भूले हैं" उत्तर- जिन्होंने तीर्थकर की आज्ञा से काम करा जेठा उनकी भी जब भूल बताता है तो तीर्थंकर केवली भी भूल गये होंगे ऐसा सिद्ध होगा ! क्योंकि मृगालोढीयेको देखने वास्ते गौतमस्वामीने भगवंतसे आज्ञा मांगी और भगवंतने आज्ञा दी उस मूजिब करने में जेठमल गौतमस्वामी की भूल हुई कहता है, तो सारे जगत् में मूढ़ और मिथ्यादृष्टि, जेठाही एक सत्यवादी बन गया मालूम होता है; परंतु तिसका लेख देखने से ही सो महादुर्भवी बहुलसंसारी और असत्यवादी था ऐसे सिद्ध होता है, क्योंकि अपने कुमत को स्थापन करने वास्ते उसने तीर्थंकर तथा गणधर महाराजा को भी भूलगए लिखा है इसवास्ते ऐसे मिथ्यादृष्टि का एक भीवचन सत्य मानना सो नरकगति का कारण है ॥ श्रीकालिक सूत्रकी गाथा लिखके तिसका जो भावार्थ जेठमलने लिखा है सो मिथ्या है, क्योंकि उस गाथा में तो ऐसे कहा है कि जेकर दृष्टिवाद का पाठी भी कोई पाठ भूलजावे तो अन्य साधु तिसकी हांसी न करे, यह उपदेश वचन है, परंतु इससे उस गाथा का यह भावार्थ नहीं समझना कि दृष्टिवाद का पाठी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुकजाता है, जेठमल को इसका सत्यार्थ भासन नहीं हुआ है, विना पाठके टीका है इस बाबत जेठमलने जो कुयुक्ति लिखीहै सो खोटी है, क्योंकि टीका में सूत्रपाठ की सूचनाका ही अधिकार है अरिहंतने प्रथम अर्थ प्ररूप्याउस ऊपर से गणधरने सूत्र रचे,तिनमें गुप्तपणे रहे आशयको जाननेवाले पूर्वाचार्य जो महाबुद्धिमान् थे उन्होंने उसमें से कितनाक आशय भव्यजीवोंके उपकारके वास्ते पंचांगी करके प्रकट कर दिखलाया है; परंतु कुंभकार जवाहर की कीमत क्या जाने,जवाहर की कीमत तो जौहरी ही जाने, मूलपाठ के अक्षरार्थ से पाठकी सूचना का अर्थ अनंत गुण है और टीका कारोंने जो अर्थ करा है सो नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और गुरुमहाराजा के बतलाए अर्थानुसार लिखा है और प्राचीन टीका के अनुसारही है इसवास्ते सर्व सत्य है, और चूर्णि, भाष्य तथा नियुक्ति चौदह पूर्वी और दशपूर्वीयोंकी करी हुई हैं, इसवास्ते सर्व मानने योग्य है; इसवावत प्रथम प्रश्नोत्तरमें दृष्टांत पूर्वक सविस्तर लिखा गयाहै। जेठमलानयुक्ति, भाष्य,चूर्णि,टीका,ग्रंथ तथा प्रकरणादिको सूत्र विरुद्ध ठहराता है सो उसकी मूढताकी निशानी है इस बावतं उसने ८५पचासी प्रश्न लिखे हैं तिनके उत्तर क्रमसे लिखते हैं। (१) "श्रीठाणांग सूत्रमें सनतकुमार चक्री अंतक्रिया करके मोक्ष गया ऐसे लिखाहै,और तिसकी टीका तीसरेदेवलोकगया, ऐसे लिखा है" उत्तर-श्रीठाणांग सूत्रमें सनतकुमार मोक्ष गया नहींकहाहे परंतु उसमें उसका दृष्टांत दीया है कि जीव भारी कर्मके उदयसे परिसहवेदना भोग के दीर्घायु पालके सिद्ध होवे,जैसे सनत कुमार,यहां कर्म परिसह वेदनाऔर आयुके दृष्टांतमें सनतकुमारका प्रहण कियाहै,क्योंकि दृष्टांत एक देशी भी होता है,इसवास्ते सनतं Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमार तीसरे देवलोक गया, टीकाकारका कहना सत्य है ॥ (२) "भगवती सूत्र में पांचसौ धनुष्यसे अधिक अवगाहना वाला सिद्ध न होवे ऐसा कहा है और आवश्यक नियुक्ति में मरुदेवी ५२५ सवापांच सौ धनुष्य की अवगाहना वाली सिद्ध हुई ऐसे कहा है" उत्तर-यह जेठेका लिखना मिथ्या है, क्योंकि आवश्यक निर्युक्तमें मरुदेवीकी सवापांचलौ धनुष्यकीअवगाहना नहींकही है। (३) “समवायांग सूत्रमें ऋषभदेवका तथा बाहुबलिका एक सरीखा आयुष्य कहा है, औरआवश्यक नियुक्ति में अष्टापद पर्वत ऊपर श्रीऋषभदेवकेसाथ एकही समय में बाहुबलि भी सिद्ध हुआ ऐसेकहा है" उत्तर-बाहुबलिका आयुष्य ६ लाख पूर्व टूट गया। इस आयुका टूटना सोअच्छेरा है। पंचवस्तु शास्त्र लिखाहै किदश अच्छेरे तो उपलक्षण मात्र हैं, परंतु अच्छेरे बहुतह १ __*यदि ढूंढिये बाहुबलिका श्रीऋषदेवके साथ एकही समय में सिद्ध होनान मानते है तो उनको चाहिये कि अपने माने बत्तीस सूत्रों में से दिखा देवें कि श्रीबाहुबसिने अमुकसमयदीक्षा ली और अमुक वजा केवल ज्ञान हुआ और अमुक वक्त सिद्धाभा तथा श्रीठाणांग सूत्रकेदश में ठाण में दस अच्छरे लिखे है उन का स्वरूप,तथा किस किमतीर्थंकर के तीर्थ में कौनसार अच्छेरा हा इसका वर्णन,विना नियुक्ति,भाष्य,चूर्णि,टीकापौर प्र. करणादि ग्रंथों के अपने माने बतीस शास्त्रों के मन्न पाठमें दिखानाचाहिये,जबतकानका पूरा २ स्वरूप नहीं दिखायोगे वहां तक तुमारी कोई भी कुयक्ति काम न पावेगी दम पच्छरों का पाठ यह है ॥ "दस अच्छेरगा पण्णत्ता तंजहा॥ उवसंग्ग गम्भहरणं इत्थी तीत्थं अभाविया परिसा । कण्हस्स अवरकका उत्तरणं चंद सूराण॥१॥ हरिवंसकुलुप्पत्ति चमरुप्याओय असय सिद्धा । अस्संजएस पूया दसवि अणंतेण कालेणं ॥२॥" Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) करके करनीजिससे बहुते फलकी प्राप्ति होवे जैसे श्रीठाणांगसूत्रके दशमें ठाणेमें कहा है कि दश नक्षत्रों में ज्ञान पढ़े तो वृद्धि होवे "दस णक्खत्ता णाणस्स बढढीकरा पण्णत्ता" यहांभी ऐसेही समझना। इसवास्ते जेठमलकी करी कुयुक्ति खोटी है। जिनवचन स्याद्वाद है एकांत नहींजोएकांतमाने उनको शास्त्रकारने मिथ्यात्वी कहाहै ॥ (३२-३३) "श्रीजंबूद्वीप पन्नत्तिमें पाँचमे आरे ६ संघयण और ६ संस्थान कहे और भीतंदुलवियालिय पयन्नेमें सांप्रतकाले सेवार्त संघयण और हुंडक संस्थान कहा है "उत्तर-श्रीजबूद्वीप पन्नत्ति में पांच में आरे मुक्ति कही है, तथापि सांप्रतकाले जैसे किसी को केवलज्ञान नहीं होता है, तैसे पांचमें आरेके प्रारंभमें ६ संघयण और ६ संस्थान थे परंतु हाल एक छेवठा संघयण और हुंडक संस्थान है। जेकर ही संघयण और दही संस्थान हाल हैं ऐसे कहोगे तो जंबूद्वीपपन्नत्तिमें कहे मुजिव हाल मुक्तिभी प्राप्त होनी चाहिये, जेकर इसमें अपेक्षा मानोगे तो अन्यवातोंमें अपेक्षा नहीं मानते हो और मिथ्या प्ररूपणा करते हो तिसका क्या कारण ? ॥ (३४) "श्रीभगवतीसूत्र में आराधनाके अधिकारमें उत्कृष्ट पंदरह भव कहे और चंद्रविजयपयन्नेमें तीन भव कहउत्तरचंद्रविजयपयन्नेमें जो आराधना लिखी है तिसके तो तीन ही भव हैं और जो पंदरे भव हैं सो अन्य आराधनाके हैं। (३५) "सूत्रमें जीव चक्रवर्तीपणा उत्कृष्टा दो वक्त पाता है, * यी समवायाग चूत्रमें भी यही काधन है ।। - - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) ऐसे कहा और श्रीमहापच्चरखाण पयन्नेमें अनंतीवार चक्रवर्ती होवे ऐसे कहा" उत्तर-श्रीमहापच्चरखाण पयन्लेमें तो ऐसे कहा है कि जीवने इंद्रपणा पाया,चक्रवर्तीपणा पाया,और उत्तम भोग अनंतवार पाये तोभी जीव तृप्त नहीं हुआ, परंतु तिस पाठमें चक्रवर्तीपणा अनंतवार पाया ऐसे नहीं कहा है। इससे मालूम होता है कि जेठमलको शास्त्रार्थका बोध ही नहीं था। (३६) "श्रीभगवतीसूत्र में कहा है कि केवलीको हंसना,रमना, सोना, नाचना इत्यादि मोहनीकर्मका उदय न होवे और प्रकरणमें कपिल केवलीने चोरोंके आगे नाटक किया ऐसे कहा" उत्तर-कपिल केवलीने ध्रुपद छंदप्रमुख कहके चोर प्रतिबोधे और तालसंयुक्त छंद कहे तिसका नाम नाटक है, परंतु कपिलकेवली नाचे नहीं हैं। (३७) "श्रीदशबैकालिकासूत्र में साधुको वेश्याक पाड़े (महल्ले) जाना निषेधकियाऔर प्रकरण में स्थूलभद्रने वेश्याके घरमें चौमासा करा एसे कहा" उत्तर-स्थूलभद्रके गुरु चौदहपूर्वी थे इसवास्तेस्थूलभद्र आगमव्यवहारी गुरुकी आज्ञा लेकर वेश्याके घरमें चौमासा रहे थे, और दशवकालिकसूत्र तो सूत्रव्यवहारियोंके वास्ते हैं, इसवास्ते पूर्वोक्तबानमें कोई भी विरोध नहीं है ॥ (३८) "श्रीआचारांगसूत्रमें महावीर स्वामी 'संहरिज्जमाणे जाणई' ऐसे कहा और श्रीकल्पसूत्रमें 'न जाणई' ऐसे कहा"उत्तर जेठामूढमति कल्पसूत्रका विरोध बताता है परंतु श्रीकल्पसूत्रतोश्री इससे यहभी मालूम होता है कि टूढिये स्थूलभद्र का अधिकार मानते नहीं 10वेंगे ! वेशक इनके माने बत्तीस शास्त्रों में श्रीस्थूलभद्रका वर्णनही नहीं है तो फिर यह भोले कोको स्थूलभद्रका वर्णन शीलके ऊपर सुनार कर क्यों धोखे में डालते हैं। तथा झूठा बकवाद करके अपना गला क्यों सूवाते हैं ? Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) दशाश्रुतस्कंधका आठमा अध्ययन है इसवास्ते जकर दशाश्रुतस्कंधको ढूंढिये मानते हैं तो कल्पसूत्रभी उनको मानना चाहिये, तथापि कल्पसूत्र में कहे वचनकी सत्यता वास्ते मालूम हो कि कल्पसूत्रमें प्रभु न जाने ऐसे कहा है सो हरिणगमेषीदेवताकी चतुराई मालूम करने वास्ते और प्रभुको किसी प्रकारकी बाधा पीड़ा नहीं हुई इसवास्ते कहा है; जैसे किसी आदमीके पगमें कांटा लगा होवे उसको कोई निपुण पुरुष चतुराईसे निकाल देवे तव जिसको कांटा लगा था वो कहे कि भाई ! तुमने मेरे पैरमें से ऐसे कांटा निकालाजोकि मुझको खवरभी न हुई। ऐसे टीकाकारोंने खुलासा किया है तोभी वेअकल ढूंढिये नहीं समझते हैं सो उनकीभूल है। (३९) "सूत्र में मांसका आहार त्यागना कहा है और भगवती की टीकामें मांस अर्थ करते हो” उत्तर-श्रीभगतीसूत्रकी टीकामेंजो अर्थ करा है सो मांसका नहीं है, परंतु कदापि जेठा अभक्ष्य वस्तु खाता होवे और इसवास्ते ऐसे लिखा होवे तो बन सकता है,क्योंकि जैनमतके तो किसी भी शास्त्रमें मांस खाने की आज्ञा नहीं है। (४०) "श्रीआचारांगसूत्रमें "मंसखलंबा और मच्छखलंवा" इस शब्दका 'मांस' अर्थ करते हो" उत्तर-जैनमतके साधु किसी भी जगह मांस भक्षण करनेका अर्थ नहीं करते हैं, तथापि जेठेने इसमूजिव लिखा है सो उसने अपनी मतिकल्पनास लिखा है ऐसे मालूम होता है। यीठायागसूत्रके दयमे ठाणे में दशाश्रुतस्कंधके दश्य अध्ययन कहे तिनमें पन्जोमवणाकप्पे अर्थात्कल्पसूपका नाम लिखा है तथापि ढूंढिये नहीं मानते है जिस का कारण यही कि कल्पसूत्रमे पूजा वगैरहका वर्णन पाता है।॥ . ___ ढियो ! तुम टीकाको मानते नही हो तो श्रीभगवती तथा पाचारागसत्रके इन पाठीका भयं कैसे करते हो? क्योकि तुमतो मूल पक्षरमात्रको ही मानते ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) (४१) "सबसे जैसे मांसका निषेध है तैसे मदिराकाभी निषेध है और श्रीज्ञातासूत्रमें शेलकराजऋषिने मद्यपान किया ऐसे कहते हो” उत्तर-जैनमतके मुनि पूर्वोक्त अर्थ करते हैं सो सत्यही है, क्योंकि शेलकराजर्षिके तीन वक्त मद्यपान करनेका अधिकार सूत्र पाठमें है तो तिस अर्थमेंकुछभी बाधक नहीं है क्योंकि सूत्रकारनेभी उसवक्तशेलकराजर्षिको पासथ्था,उसन्ना और संसक्त कहा है,इस वास्ते सच्चे अर्थको झूठा अर्थ कहना सो मिथ्यात्वीका लक्षण है ॥ (४२) "श्रीभगवतीसूत्र में कहा कि मनुष्यका जन्म एकसाथ एकयोनिसेउत्कृष्टा पृथक्त्त्व जीवका होवे और प्रकरणमें सगर चक्रवर्तीके साठहजार पुत्र एकसाथ जन्मे कहे हैं" उत्तर-श्रीभगवतीसूत्रमें जो कथन है सो स्वभाविक है सगरचक्रवर्ती के पुत्र जो एकसाथ जन्मे हैं सो देवकारणसे जन्मे हैं।। । .. (४३) “सूत्रमें कहा है कि शाश्वती पृथिवीका दल उतरे नहीं और प्रकरणमें कहा कि सगरचक्रवर्तीकेपुत्रोंने शाश्वतादल तोडा" उत्तर-सगरचक्रवर्तीके पुत्र श्रीअष्टापद पर्वतोपरि यात्रा निमित्ते गये थे, उन्होंने तीर्थरक्षा निमित्ते चारों तर्फ खाई खोदने वास्ते विचार करा, इससे तिनके पिता सगरचक्रवर्ती के दिये दंडरत्नसे खाई खोदी और शाश्वता दल तोडा; परंतु दंडरत्नके अधिष्टायक एक हजार देवते हैं । ओर देवशक्ति अगाध है इसवास्ते प्रकरणमें कही बात सत्य है ॥ . . । (४४) "सूत्र में तीर्थंकरकी तेतीस आशातनाटालनीकही और प्रकरणमें जिनप्रतिमाकी चौरासी आशातना कही ह” उत्तरतीर्थकरकी तेतीस आशातना जैनमतके किसीभी शास्त्रमें नहीं Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कही है, जैनशास्त्रोंमें तो तीर्थंकरकी चौरासी आशातना कही है। और उसी मूजिव जिनप्रतिमा की चौरासी आशातना है ॥ , (१५) "उपवास (बत) में पानी विना अन्य व्यके खानेका निषेधहे और प्रकरणमें अणाहार वस्तु खानी कही है।" उत्तरजेठमल आहार अणाहारके स्वरूपका जानकार मालूम नहीं होता है क्योंकि व्रतमें तो आहारका त्याग है, अणाहार का नहीं तथा क्या क्या वस्तु अणाहार है, किस रीति से और किस कारण से वर्तनी चाहिये, इसकीभी जेठमल को खबर नहीं थी ऐसे मालूम होता है दंडिये व्रतमें पानी विनाअन्य द्रव्यके खानेकी मनाई समझते हैं तो कितनेक ढूंढिये साधु तपस्या नाम धरायके अधरिडका तथा गोहड़ी मठे सरीखी छास (लस्सी)प्रमुख अशनाहारका भक्षण करते हैं सो किसशास्त्रानुसार? । ... (४६) "सिद्धांतमें भगवंतको “सयंसंबद्धाणं" कहा और कल्पसूत्रमें पाठशालमें पढ़ने वास्ते भेजे ऐसे कहाहै" उत्तरभगवंत तो "सयंसंबुद्धाणं अर्थात् स्वयंबुद्ध ही हैं,वो किसीके पास पढ़े नहीं हैं, परंतु प्रभुके माता पिताने मोह करके पाठाशालामें भेज तो वहांभी उलटे पाठशालाके उस्ताद के संशय मिटाके उसको पढ़ा आए हैं ऐसे शस्त्रोंमें खुलासा कथन है तथापि जेठमलने ऐसे खोटे विरोध लिखके अपनी मूर्वता जाहिर करीहै। (४७)"सूत्रमें हाडकी असझाई कहींहै और प्रकरणमें हाडके स्थापनाचार्य स्थापने कहे" उत्तर-असझाई पंचेंद्रीके हाडकी है अन्यकी नहीं,जैसेशंख हाडहै तोभीवाजिंत्रोंमें मुख्य गिना जाताहै, और सूत्रमें बहुत जगह यह बात है,तथा जेकर ढूंढिये सर्व हाडकी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) असझाइ गिनते हैं तो उनकी श्राविका हाथमें चूड़ा पहिरके ढूंढ़िये साधुओंके पास कथा वार्ता सुननेको आती हैं सोवो चूड़ा भी हाथी दांत हाथीके हाड़का ही होता है इसवास्ते ढूंढक साधुको चाहिये कि अपने ढंढक श्रावकोंकी औरतोंको हाथमें से चूड़ा उतारे बादही अपने पास आने देवें! (४८)"श्रीपन्नवणाजीमें आठसौ योजनकी पोलमें वाणव्यंतर रहते हैं ऐसे कहा और प्रकरणमें अस्सी(८०)योजनकी पोल अन्य कही" उत्तर-श्रीपन्नवणासूत्रमें समुच्चय व्यंतरका स्थान कहा है और ग्रंथों में विशेश खुलासा करा है। (४९) "जैनमार्गी जीव नरकमें जाने के नामसे भी डरता है, ऐसे सूत्रमें कहा है,और प्रकरणमें कोणिक राजाने सातमी नरकमें जाने वास्ते महापापके कार्य किये ऐसे कहो'उत्तर-जैनमार्गी जीव नरकमें जानेके नामसे भी डरता है सो बात सामान्य है एकांतनहीं और कोणिकके प्रश्न करनेसे भगवंतने तिसको छठी नरकमें जावेगा ऐसे कहा तब छठी नरकमें तो चक्रवर्तीका स्त्रीरत्न जाता है ऐसे समझके छठी से सातमीमें जाना अपने मन में अच्छा मानके तिस * यह हास्यरस सयुक्त लेख गुजरात काठीयावाड़ मारवाडादि देशों के टूटिंयों पाश्री है, क्योंकि उस देशमें रंडी विधवा दो सिवाय कोई भी औरत कबीभी हाथ चडे. से खाली नहीं रखती है, कितनाही सोग होवे परंतु सोहागका चूडा तो जरूर ही हाथमे रहता है, औरतों के हाथ से चूडा तो पति के परलोको सधाये वादही उतरता है तो दंढिये साधको सोहागन औरतों को अपने व्याख्यानादिमें कनीभी नहीं पाने देना चाहिये ! और पजाबदेशकी औरतों के भो नाथा कान वगैरह के कितनेही गहने हाड़के होते हैं, हँढिय श्रावक श्राविकायोंके कोट कमीज फतुझ्या वगैरह को गुदा भी प्रायः हाडके ही लगे हुए होते हैं, इसवास्ते उनको भी पास नहीं बैठने देना चाहिये ! वारे भाई ढूंढ़ियो !! सत्य है । विनागुरुगमके यथार्थ बोध कहां से होवे ! Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) ने वहुत आरंभके कार्य करे हैं। तथा ढूंढिये भी जैनमार्गी नाम धराके अरिहंतके कहे वचनों को उत्थापते हैं, जिन प्रतिमाको निंदते हैं, सूत्रविराधते हैं; भगवंतने तो एक वचनके भी उत्थापक को अनंत संसारी कहा है, यह बात दूढिये जानते हैं तथापि पूर्वोक्त कार्य करते हैं और नरकमें जानेसे नहीं डरते हैं,निगोदमें जाने से भी नहीं डरते हैं, क्योंकि शास्त्रानुसार देखनेसे मालूम होता है कि इनकी प्रायः नरक निगोदके सिवाय अन्यगति नहीं है। (५०) “कूर्मापुत्र केवलज्ञान पाने पीछे ६ महीने घरमें रहे कहा है" उत्तर-जो गृहस्थावासमें किसी जीवको केवलज्ञान होवे तो उसको देवता साधुका भेष देते हैं और उसके पीछे वो विचरते तथा उपदेश देते हैं। परंतु कुर्मापुत्रको ६ महीने तक देवत्ताने ' साधुका भेष नहीं दिया और केवलज्ञानी जैले ज्ञान में देखे तैसे करे परंतु इस वातसे जेठमलके पेटमें क्यों शूल हुआ ? सो कुछ समझमें नहीं आता हे॥ . (५१) “सूत्रमें सर्वदानमें साधुको दान देना उत्तम कहा है और प्रकरणमें विजयसेठ तथा विजयासेठानी को जीमावने से ८४००० साधुको दान दिये जितना फल कहा" उत्तर-विजयसेठ और विजयासेठानी गृहस्थावासमें थे, उनकी युवा अवस्था थी, तत्कालका विवाह हुआ हुआथा, और काम भोग तो उन्होंने दृष्टि से भी देखे नहीं थे ऐसे दंपतीने मन वचन काया त्रिकरण शुद्धिसे एक शय्यामें शयन करके फेरभी अखंड धारासे शील (ब्रह्मचर्य) बत पालन किया है,इसवास्ते शोलकी महिमा निमित्त पूर्वोक्त प्रकार । कथन करा है। और उनकी तरह शील पालना सो अति दुष्कर . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( २१६ ) (५२) "भरतेश्वरने ऋषभदेव और ९९ भाइयोंके मिलाकर सौ स्थूभ कराये ऐसे प्रकरणमें कहा है और सूत्रमें यह बात नहीं है"उत्तर-भरतेश्वरके स्थूभ करानेका अधिकार श्री आवश्यक सूत्रमें है यतःथभसय भाउयाणं चउविसं चेव जिणघरे कासी। सम्वजिणाणं पढिमा वरणपमाणहिं नियएहिं ॥ ८॥ और इसी मूजिब श्रीशत्रुजयमहात्म्यमें भी कथन है * (५३) “पांडवोंने श्रीशजय ऊपर संथारा करा ऐसे सूत्रमें कहा है परंतु पांडवोंने उद्धार कराया यह बात सूत्र में नहीं है"उत्तरसूत्र में पांडवोंने संथारा करा यह अधिकार है और उद्धार कराया यह नहीं है इससे यह समझना कि इतनी बात सूत्रकारने कमती वर्णन करी है परंतु उन्होंने उद्धार नहीं कराया ऐसे सूत्रकारने नहीं कहा है इसवास्ते उन्होंने उद्धार कराया यह वर्णन श्रीशत्रुजयानहाम्यादि ग्रंथों में कथन करा है सो सत्य ही है। (५४) "पंचमी छोड़के चौथको संवत्सरी करते हो" उत्तरहम जो चौथकी संवत्सरी करते हैं सो पूर्वाचार्योंकी तथायुगप्रधान की परंपरायसे करते हैं, श्रीनिशीथचूर्णिमें चौथकी संवत्सरी करनी कही है। और पंचमीकी संवत्सरी करने का कथन सूत्रमें किसी जगह जेकर ढूंढिये कहें कि यह नियुक्ति प्रादिका पाठ है, हम नहीं मंजूर करते हैं तो इन देवानां प्रियों को हम यह पूछते हैं कि तुमारे माने सूत्रों में तो भरतेश्वरका संपूर्ण वर्णन की नहीं है तो तुम कैसे कह सकते हो कि भरतेश्वर के स्थूभ कराये का पधिकार सूबमें नहीं है? Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९ ) भी नहीं है। सूत्र में तो आषाढ चौमासेके आरंभसे एक महीना और वीस दिन संवत्सरी करनी, औरएकमहीना वीसदिन के अंदर संवत्सरी पडिकमनी कल्पती है परंतु उपरांत नहीं कल्पती है,अंदर पडिकमनेवाले आराधक है, उपरांत पडिकमनेवाले विराधक हैं ऐसे कहा है तो विचार करो कि जैनपंचांग व्यवच्छेद हुए हैं जिससे पंचमीके सार्यकालको संवत्सरी प्रतिक्रमण करने समय पंचमी है कि छठ होगई है तिसकी यथास्थित खबर नहीं पड़ती है,और जो छठमें प्रतिक्रमण करीये तो पूर्वोक्त जिनाज्ञाका लोप होता है इस। वास्ते उस कार्य में बाधकको संभव है। परंतु चौथकी सायं को प्रति क्रमणके समय पंचमी हो जावे तो किसी प्रकारका भी बाधक नहीं . है। इसवास्ते पूर्वाचार्योंने पूर्वोक्त चौथकी संवत्सरी करनेकी शुद्ध रीति प्रवर्तन करी है सो सत्य ही है। परंतु ढूंढिये जो चोथके दिन संध्याको पंचमी लगती होवे तो उसी दिन अर्थात् चौथको संवत्सरी करते हैं सो न तो किसी सूत्रके पाठसे करते हैं और न युगप्रधान की आज्ञासे करते हैं किंतु केवल स्वमतिकल्पनासे करते हैं। (५५) “सूत्रमें चौवीसही तीर्थकर वंदनीक कहे हैं और विवेक विलासमें कहा है कि घर देहरेमें २१ इक्कीस तीर्थंकरकी प्रतिमा स्थापनी" उत्तर-जैनधर्मीको तो चौवीसही तीर्थकर एक सरीखे हैं, और चौवीसही तीर्थंकरोंको वंदन पूजन करनेसे यावत मोक्षफलकी प्राप्ति होती है। परंतु घर देहरेमें २१ तीर्थकरकी प्रतिमा स्थापनी ऐसे जो विवेकविलासग्रंथमें कहा है सो अपेक्षा वचन है,जैसे सर्व शास्त्र एक सरीखे हैं तोभी कितनेक प्रथम पहरमें ही पढे जाते हैं, दूसरे पहरमें नहीं । तैसे यह भी समझना। तथा घरदेहराऔर बड़ा मंदिर कैसा करना, कितने प्रमाणके ऊंचे जिनबिंब स्थापन करने, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) कैसे वर्ण स्थापने, किस रीति से प्रतिष्ठा करनी, किस किस तीर्थकरकी प्रतिमा स्थापन करनी इत्यादि जो अधिकार है सो जो जिनाज्ञामें वर्त्तते हैं तथा जिनप्रतिमा के गुणग्राहक हैं उनके समझने का है, परंतु ढूंढको सरीखे मिथ्यादृष्टि, जिनाज्ञासे पराङ्मुख और 'श्रीजिनप्रतिमाके निंदकोंके समझनेका नहीं है। (५६) "श्रीआचारांग सूत्र के मूलपाठ में पांच महाव्रतकी २५ भावना कही हैं और टीकामें पांचभावना सम्यक्त्वकी अधिक कही" उत्तर - श्रीआचारांगसूत्र के मूलपाठ में चारित्रकी २५ भावना कही हैं और नियुक्ति में पांच भावना सम्यक्त्वकी अधिक कही हैं सो सत्य है, और नियुक्ति माननी नंदिसूत्र के मूलपाठमें कही है, और सम्यक् सर्व व्रतों का मूल है। जैसे मूल विना वृक्ष नहीं रह . सकता है तैसे सम्यक्त्व विना व्रत नहीं रह सकते हैं। ढूंढिये व्रत की पच्चीस भावना मान्य करते हैं और सम्यक्त्वकी पांच भावना मान्य नहीं करते हैं इससे निर्णय होता है कि उनको सम्यक्त्वकी प्राप्ति ही नहीं है | (५७) “कर्मग्रंथ में नवमें गुणठाणे तक मोहनी कर्मका जो उदय लिखा है सो सूत्रके साथ नहीं मिलता है" उत्तर - कर्मग्रन्थ में कही बात सत्य है । जेठमलने यह बात सूत्रके साथ नहीं मिलती है ऐसे लिखा है, परंतु बत्तीससूत्रों में किसीभी ठिकाने चौदह गुणठाणे ऊपर किसीभी कर्म प्रकृतिका बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता प्रमुख गुणठाणेका नाम लेकर कहा ही नहीं है, इसवास्ते जेठमलका लिखना मिथ्या है ॥ -: (५८) "श्रीआचारांगकी चूर्णि में- कणेरकी कांबी (छटी) फिराइ f Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) ऐसे लिखा है" उत्तर-जेठमलका यह लिखना मिथ्या है। क्योंकि आचारांगकी चूर्णिमें ऐसा लेख नहीं है ॥ ( ५९ से ७९.पर्यत ) इक्कीस बोल जेठमलने निशीथचूर्णिका नाम लेकर लिखे हैं वो सर्व वोल मिथ्या है, क्योंकि जेठमलके लिखे मूजिव निशीथचूर्णिमें नहीं हैं ।। (८०) श्रीआवश्यकसूत्रके भाष्यमें श्रीमहावीरस्वामीके २७ भव कहे तिनमें मनुष्यसे कालकरके चक्रवर्ती हुए ऐसे कहा हैं' उत्तर-मनुष्य कालकरके चक्रवर्ती न होवे ऐसा शास्त्रका कथन है तथापि प्रभु हुए इससे ऐसे समझनाकि जिनवाणी अनेकांत है, इसवास्ते जिनमार्गमें एकांत खींचना सो मिथ्यादृष्टिका काम है। और ढूंढियोंके माने वत्तीससूत्रोमें तो वीरभगवंतके २७ भवों का वर्णन ही नहीं है तो फेर जेठमलको इसबातके लिखनेका क्या प्रयोजन था ? (८१) सिद्धांतमें अरिष्टनेमिके अठारां गणधर कहे और भाष्य में ग्यारह कहे सो मतांतर है । (८२) सूत्र में पार्श्वनाथके (२८) गणधर कहे और नियुक्तिमें (१०) कहे ऐसे जेठमलने लिखा है, परंतु किसीभी सूत्र या नियुक्ति प्रमुखमें श्रीपार्श्वनाथके (२८) गणधर नहीं कहे हैं, इसवास्ते जेठमलने कोरी गप्प ठोकी है ॥ (८३) “गृहस्थपणेमें रहे तीर्थंकरको साधु वंदना करे सो सूत्र । विरुद्ध है"उत्तर-जबतक तीर्थकर गृहस्थपणेमें होवे तबतक साधुका उनके साथ मिलाप होताही नहीं है ऐसी अनादि स्थिति है। परंत साधु द्रव्य तीर्थंकरको वंदना करे यह तो सत्य है। जैसे श्रीऋषभ देवके साधु चउविसथ्था (लोगस्त) कहते हुए श्रीमहावीर पर्यंतको भाजन था? Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१) द्रव्यनिक्षेपे वंदना करते थे। तथा हालमें भी लोगस्स कहते हुए उसी तरह द्रव्य जिनको वंदना होती है । * (८४-८५) "श्रीसंथारापयन्नामें तथा .चंद्रविजयपयन्नामें एवंती सुकुमालका नाम है और एवंती सुकुमाल तो पांचों आरेमें हुआ है इसवास्ते वो पयन्ने चौथे आरके नहीं" उत्तर-श्रीठाणांग सूत्र तथा नंदिसूत्रमें भी पांचों आरके जीवोंका कथन है तो यह सूत्रभी चौथे आरेके बने नहीं मानने चाहिये ॥ ऊपर भूजिब जेठमल ढूंढकके लिखे(८५)प्रश्नोंके उत्तर हमने शास्त्रानुसार यथास्थित लिखे हैं, और इससे सर्व सूत्र, पंचांगी ग्रंथ,प्रकरण प्रमुख मान्य करने योग्य हैं ऐसे सिद्ध होता है। क्योंकि समदृष्टिकरके देखनेसे इनमें परस्पर कुछ भी विरोध मालूम नहीं होता है,परंतु जेकर जेठमल प्रमुख ढूंढिये शास्त्रों में परस्पर अपेक्षा पूर्वक विरोध होनेसे मानने लायक नहीं गिनते हैं तो तिनके माने वत्तीससूत्र जोकि गणधर महाराजाने आप गूथे हैं ऐसे वो कहते हैं, उनमें भी परस्पर कितनाक विरोध है । जिसमें से कितनेक प्रश्नों के तौरपर लिखते हैं। (१) श्रीसमवायांगसूत्र में श्रीमल्लिनाथजीके (५९००) अवधि ज्ञानी कहे हैं, और श्रीज्ञातासूत्रमें (२०००) कहे हैं यह किस तरह? (२) श्रीज्ञातासूत्रके पांचमें अध्ययनमें कृष्णकी (३२०००) स्त्रियां कही हैं,और अंतगडदशांगके प्रथमाध्ययनमें (१६०००) कही हैं यह कैसे ? *पगामसझाय (साधुप्रतिक्रमण) में भी द्रव्यजिनको वदना होती है। . . "नमो चउवीसाए तिथ्थयराणं उसभाइ महावीर पज्जवसाणाण" इतिवचनात् ॥ - - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) (३) श्रीरायपसेणीसूत्रमें श्रीकेशीकुमारको चार ज्ञान कहे हैं, और श्रीउत्तराध्ययनसूत्र में अवधिज्ञानी कहासो कैसे? (४) श्रीभगवतीसूत्र में श्रावक होवे सो त्रिविध त्रिविध कमा दानका पञ्चक्वाण करे ऐसे कहा, और श्रीउपासकदशांगसूत्रमें आनंदश्रावकने हल चलाने खुले रखे यह क्या ? | (५) तथा कुम्हार श्रावकने आवे चढाने खुले रखे। (६) श्रीपन्नवणासूत्रमें वेदनीकर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहर्तकी कही,और उत्तराध्ययनमें अंतमुहूर्त्तकी कही। (७) श्रीउत्तराध्ययनमें 'लसन' अनंतकाय कहा, और श्रीपन्नवणाजीमें प्रत्येक कहा॥ (८) श्रीपन्नवणासूत्रमें चारों भाषा बोलने वालेको आराधक कहा, और श्रीदशवैकालिकसूत्रमें दो ही भाषा बोलनी कहीं॥ (९) श्रीउत्तराध्ययनमें रोगके होये साधु दवाई न करे ऐसे कहा, और श्रीभगवतीसूत्र में प्रभुने बीजोरापाक दवाई के निमित्त लिया ऐसे कहा॥ (१०) श्रीपन्नवणाजीमें अठारवें कायस्थिति पदमें स्त्रीवेदकी कायस्थिति पांच प्रकारे कही तो सर्वज्ञके मतमें पांच बातें क्या ? (११) श्रीठाणांगसूत्र में साधुको राजपिंड न कल्पे ऐसे कहा, और अंतगडसूत्र में श्रीगौतमस्वामीने श्रीदेवीके घरमें आहार लिया ऐसे कहा ॥ (१२) श्रीठागांगसूत्र में पांच महानदी उतरनी ना कही,और दूसरे लगते ही सूत्रमें हां कही यह क्या ? . (१३) श्रीदशवेकालिक तथा आचारांगसूत्रमें साधु त्रिविध Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) त्रिविध प्राणातिपातका पच्चक्खाण करें ऐसे कहा,और समवायांग तथा दशाश्रुतस्कंधमें नदी उतरनी कही यह क्या ? (१४) श्रीदशवैकालिकमें साधुको लूण प्रमुख अनाचीर्ण कहा, और आचारांगसूत्रके द्वितीय श्रुतस्कंधके पहिले अध्ययनके दशमें उद्देसमें साधुको लुण किसीने विहराया होवे तो वो लूण साधु आप खालेवे, अथवा सांभोगिकको बांटके देखें ऐसे कहा, यह क्या ? (१५) श्रीभगवतीसूत्र में नींव तीखा कहा, और उत्तराध्ययन सूत्रमें कौडा कहा यह क्या ? . (१६) श्रीज्ञातासत्रमें श्रीमल्लिनाथजीने(६०८)के साथ दीक्षा ली ऐसे कहा, और श्रीठाणांगसूत्रमें ६ पुरुष साथ दीक्षा ली ऐसे कहा यह क्या ? ॥ (१७) श्रीठाणांगसूत्रमें श्रीमल्लिनाथजीके साथ ६ मित्रोंन दीक्षा ली ऐसे कहा,और श्रीज्ञातासूत्रमें श्रीमल्लिनाथजी को केवल ज्ञान होए बाद ६ मित्रोंने दीक्षा ली ऐसे कहा यह क्या (१८) श्रीसूयगडांगसूत्रमें कहा है कि साधु आधार्मि आहार लेता.हुआ कर्मों से लिपायमान होवे भी, और नहीं भी होवे, इस तरह एकही गाथामें एक दूसरेका प्रतिपक्षी ऐसे दो प्रकारका कथन है, यह क्या ? ऊपर मूजिब सूत्रोंमें भी बहुत विरोध हैं परंतु ग्रंथ अधिक हो जाने केभयसे नहीं लिखे हैं तोभी जिनको विशेष देखने की इच्छा होवे उन्होंने श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायकृत वीरस्तुति रूप हुंडीके स्तवनका पंडित श्रीपद्मविजयजी का करा बालावबोध देख लेना। ... जेकर ढूंढिये बत्तीससूत्रोंको परस्पर अविरोधी जानके मान्य Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५ ) करते हैं, और अन्य सूत्र तथा ग्रंथोंको विरोधी मानके नहीं मान्य करते हैं तो उपर लिखे बिरोध जोकि बत्तीस सूत्रोंके मूल पाठ में ही हैं तिनका नियुक्ति तथा टीका प्रमुखकी मदद के बिना निराकरण कर देना चाहिये, हमको तो निश्चय ही है कि ढूंढीये जोकि जिनाज्ञासे प्राङ्मुख हैं वे इनका निराकरण बिलकुल नहीं कर सकतेह, क्योंकि इनमें कोईतो पाठांतर, कोई अपेक्षा, कोई उत्सर्ग, कोई अपवाद, कोई नय, कोई विधिवाद, और कोई चरितानुवाद इत्यादि सूत्रों के गंभीर आशय हैं, उनको तो समुद्र सरीखी बुद्धिके धनी टीकाकार प्रमुखही जानें और कुल विरोधोंका निराकरण करसकें, परंतु ढुंढीयोंने तो फकत जिनप्रतिमा के द्वेषसे सर्व शास्त्र उत्थापे हैं तो इनका निराकरण कैसे करसकें ? ॥ इति ॥ (२६) सूची में श्रावकों ने जिनपूजा करी कही है इस बाबत २६ में प्रश्नोत्तरमें जेठमल लिखता है कि " सूत्रमें किसी श्रावकने पूजाकरी नहीं कही है ” उत्तर- जेठमलने आंखें खोलके देखा होता तो दीख पड़ता कि सूत्रों में तो ठिकाने२ पूजाका और श्री जिनप्रतिमाका अधिकार है जिनमें से कितनेक अधिकारोंकी शुचि (फैरिस्त) दृष्टांत तरीके भव्य जीवोंके उपकार निमित्त इहां लिखते हैं । श्री आचारांग सूत्र में सिद्धार्थ राजाको श्रीपार्श्वनाथका सतानीय श्रावक कहा है, उन्होंने जिनपूजा के वास्ते लाख रूपैये दीयं तथा अनेक जिनप्रतिमा की पूजाकरी ऐसे कहा है इस अधिकारमें सूत्रके अंदर "जायेअ" ऐसा शब्द है जिसका अर्थ याग (यज्ञ) होता है और याग शब्द देवपूजा वाची है "यज- देवपूजायामिति वचनात् ” तथा उनको Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२९ ) उनकी आराधना निमित्त साधु तथा श्रावक कायोत्सर्ग करे। (२७) श्रीव्यवहारसूत्र में प्रथम उद्देशे जिनप्रतिमाके आगे आलोयणा करनी कही है। (२८) श्रीमहानिशीथसूत्रमें जिनमंदिर बनवावे तो श्रावक उत्कृष्टा घारमें देवलोक पर्यत जावे ऐसे कहा है । (२९) श्रीमहाकल्पसूत्रमें जिनमंदिरमें साधु श्रावक वंदना करनेको न जावे तो प्रायश्चित्त लिखा है। (३०) श्रीजीतकल्पसूत्र में भी प्रायश्चित्त लिखा है। (३१) श्रीप्रथमानुयोगमें अनेक श्रावक श्राविकायोंने जिनमंदिर बनवाए तथा पूजा करी ऐसा अधिकार है। इत्यादि सैकड़ो ठिकाने जिनप्रतिमाकी पूजा करनेका तथा जिनमंदिर बनवाने वगैरह का खुलासा अधिकार है । और सर्व सूत्र देखके सामान्यपणे विचार करने से भीमालूम होता है कि चौथे आरेमें जितने जिनमंदिर थे उतने आजकल नहीं हैं, क्योंकि सूत्रों में जहां जहां श्रावकोंका अधिकार है वहां वहां “पहायाकयबलिकम्मा" अर्थात् स्नान करके देवपूजा करी ऐसा प्रत्यक्ष पाठ है। इससे सर्व श्रावकोंके घर जिनमंदिर थे और वे निरंतर पूजा करते थे ऐसे सिद्ध होता है। तथा दशपूर्वधारीके श्रावक संप्रतिराजाने सवालाख जिनमंदिर और सवाकोड जिनबिंब बनवाए हैं जिनमें से हजारों जिनमंदिर और जिनप्रतिमा अद्यापि पर्यंत विद्यमान हैं रतलाम,नाडोल आदि नगरोंमें तथा शत्रुजय गिरनारादि तिों में बहुत ठिकाने संप्रतिराजाके बनवाए जिनमंदिर दृष्टिगोचर होते हैं, और भी अनेक जिनमंदिर हजारों वर्षों के बने हुए दीखलाइ देते हैं, तथा आबुजी ऊपर विमलचंद्र तथा वस्तुपालतेजपालके बनवाए Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०१) क्रोड़ों रुपैयेकी लागतके जिनमंदिर जिनकी शोभा अवर्णनीय है यद्यपि विद्यमान हैं । तोभी मंदमति जेठमल ढूंढकने लिखा है कि "किसी श्रावकने जिनप्रतिमा पूजी नहीं है तो इससे यही मालूम होता है कि उसके हृदय चक्षुतो नहीं थे परंतु द्रव्यका भी अभाव ही था ! क्योंकि इसी कारण से उसने पूर्वोक्त सूत्रपाठ अपनी दृष्टि से देखे नहीं होवेंगे।॥ ॥ इति ॥ (२७) सावधकरणी बाबत - सत्ताइसमें प्रश्नोत्तरमें जेठमल लिखता है कि "सावधकरणी में जिनाज्ञा नहीं है" यह लिखाण एकांत होनेसे जेठमलने अज्ञानताके कारण किया होवे ऐसे मालूम होता है, क्योंकि सावध निर वद्यकी उसको खबर ही नहीं थी ऐसे उसके इस प्रश्नोत्तरमें लिखे २४ बोलोंसे सिद्ध होता है । जेठमल जिस २ कार्यमें हिंसा होती होवे उन सर्व कार्यों को सावधकरणीमें गिनता है परंतु सो झूठ है। क्योंकि जिनपूजादि कितनेक कार्यों में स्वरूपसे तो हिंसा है परतु जिनाज्ञानुसार होनेसे अनुबंधे दया ही है परंतु अभव्य, जम लिमती औरदिये प्रमुख जो दया पालते है,सो स्वरूपे दया है परंतु जिनाज्ञा बाहिर होनेसे अनुबंधे तो हिंसा ही है इसवास्ते कितनेक धर्म कार्यों में स्वरूपे हिंसा और अनुबंधे दया है और तिसका फलभी दयाका ही होता है तथा ऐसे कार्य में जिनेश्वर भगवंतने आज्ञाभी दी हैं, जिनमेंसे कितनेक बोल दृष्टांत तरीके लिखते हैं। ५ (१) श्रीआचारांगसूत्रके दूसरे श्रुतस्कंधके ईर्या अध्ययनमें लिखा है कि साधु खाडेमें पड़जावेतो घांस वेलडी तथा वृक्षको पकड कर बाहिरनिकल आवे ॥ .. . . . . . .. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (२) इसी सूत्रमें लिखा है कि साधु खंड शर्कराके बदले लूण ले आया होवे तो वो खाजावे,अपने आप न खाया जावे तो सांभोगिक को बांटे देवे॥ (३) इसी सूत्र में लिखा है कि मार्गमें नदी आवे तो साधु इस तरह उतरे॥ () इसी सूत्रमें कहा है कि साधु मृगपृच्छामें झूठ बोले। (५) श्रीसूयगडांगसूत्रके नवमें अध्ययनमें कहाहै कि मृगपृच्छा के विना साधु झूठ न बोले, अर्थात् मृगपृच्छामें बोले ॥ (६) श्रीठाणांगसूत्रके पांचौ ठाणे में पांचकारणे साधु साध्वी को पकडलेवे ऐसे कहा है, तिनमें नदी में बहती साध्वी को साधु बाहिर निकाले ऐसे कहा है ॥ (७) श्रीभगवतीसूत्रमें कहा है कि श्रावक साधुको असुझता और सचित्त चार प्रकारका आहार देवे तो अल्य पाप और बहुत निर्जरा करे॥ (८) श्रीउवाइसूत्र में कहा है कि साधु शिष्यकी परीक्षावास्ते दोष लगावे ॥ (९) श्रीउत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि साधु पडिलेहणा करे उसमें अवश्य वायुकायकी हिंसा होती है। (१०) श्रीबृहत्कल्पसूत्र में चरबीका लेप करना कहा है। (११) इसी सूत्रमें कारणे साध्वीको पकडना कहा है। ' इत्यादि कितनेही कार्य जिनको एकांत पक्षी होनेसे जेठमल ढूंढक सावध गिनता है परंतु इनमें भगवंतकी आज्ञा है, इस वास्ते कर्मका वंधन नहीं है। श्रीआचारांगसूत्रके चौथे अध्ययनके दुसरे उद्देश में कहा है कि देखने में आश्रवका कारण है परंतु, शुद्ध Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२. ) . प्रणामले निर्जरा होती है, और देखने में संवरका कारण है परंतु अशुद्ध प्रणामसे कर्मका बंधन होता है। तथा सम्यग्दृष्टि श्रावकोंने पुण्य प्राप्तिके निमित्त कितनेक कार्य करे हैं, जिनमें स्वरूप हिंसा है परंतु अनुबंधे दया है, और उनको फल भी दयाका ही प्राप्त हुआ है, ऐसे अधिकार सत्रोंमें बहुत हैं जिनमें से कुछक अधिकार लिखते हैं। (१) श्रीज्ञातासूत्रनें कहा है कि सुबुद्धि प्रधानने राजाके समझाने वास्ते गंदी खाइका पाणी शुद्ध करा॥ (२) श्रीमल्लिनाथजीने ६ राजाके प्रतिबोधनेवास्ते मोहनघर कराया ॥ (३) उन्होंने ही ६ राजाओंका अपने ऊपरका मोह हटानेवास्ते अपने स्वरूप जैसी पूतली में प्रतिदिन आहारके ग्रास गेर जिससे उनमें हजारों त्रस जीवोंकी उत्पत्ति और विनाश हुआ॥ (४) उववाइसूत्रमें कोणिक राजाने भगवान्की भक्ति वास्ते बहुत आडंबर करा॥ (५) कोणिकराजाने रोज भगवंतकी खवर मंगवानेवास्ते आदमियोंकी डाक बांधी ॥ (६) प्रदेशी राजाने दानशाला मंडाइ जिसमें कई प्रकारका आरंभ था, परंतु केशीकुमारने उसका निषेध नहीं करा, किंतु कहा कि राजन् ! पूर्व मनोज्ञ होके अब अमनोज्ञ नहीं होना ॥ (७) प्रदेशीराजाने केशीगणधरको कहा कि हे स्वामिन् ! कल को मैं समय अपनी ऋद्धि और आडंबरके साथ आकर आपको वंदनाकरुंगा,और वैसेही करा,परंतु केशीगणधरने निषेध नहीं करा॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) ' (८) चित्रसारथी ने प्रदेशी राजाको प्रतिबोध कराने वास्ते श्री केशीगणधरके पास लेजाने वास्ते रथ घोडे, दौड़ाये। . . (९) सूर्याभ देवताने जिनभक्ति के वास्ते भगवंतके समीप नाटक करा॥ (१०) द्रौपदीने जिनप्रतिमाकी सतरे भेदी पूजा करी॥ मंदमति जेठमलने इस प्रश्नोत्तरमें जो जो बोल लिखे हैं उन में 'अपनी इच्छा' ऐसा शब्द उन कार्योंको जिनाज्ञा विनाके सिद्ध करने वास्ते लिखा है; परंतु उनमें से बहुते कृत्य तो पुन्य प्राप्तिके निमित्त ही करे हैं जिनमेंसे कितनेक कारण सहित नीचे लिखे जाते हैं। (१) कोणिकराजाने प्रभुको वधाई में नित्यप्रति साढे. बारह हजार रुपैये दीये सो जिनभक्तिके वास्ते ॥ (२) अनेक राजाओं ने तथा श्रावकोंने दीक्षा, महोत्सव कीये सो जैनशासनकी प्रभावना वास्ते॥ (३) श्रीकृश्नमहाराजाने दीक्षाकी दलाली वास्ते द्वारिकामें पडह फेरेया सो धर्मकी वृद्धिवास्ते॥ (४) इंद्र तथा देवतादिकोंने जिनजन्ममहोत्सव करे सो धर्म प्राप्तिके वास्ते ऐसा श्री जंबुद्वीपपन्नत्तीसूत्रका कथन है । . (५) देवते नंदीश्वरद्वीपमें अठाई महोत्सव करते हैं सो धर्म प्राप्तिके वास्ते॥ (६) जंघाचारण तथा विद्याचारण लब्धि फोरते हैं सो जिन प्रतिमाके वांदने वास्ते॥ (७) शंख श्रावकने सधर्मीवात्सल्य किया सो सम्यक्त्वकी. शुद्धिके वास्ते । इस मूजिब अद्यापि पर्यंतसधर्मीवात्सल्यका रिवाज Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 488 ) चलता है, बहुते पुण्यवंत श्रावक सथर्मोकी भक्ति अनेक प्रकारसे करते हैं । जेकर जेठमल इसका अर्थातः सधर्मीवात्सल्य करनेका निषेध करता है और लिखता है कि इस कार्य में उसकी इच्छा है, जिनाज्ञा नहीं है तो ढूंढिये अपने सधर्मीको जीमाते हैं, संवत्सरीका पारणा कराते हैं, पूज्यकी तिथिमें पोसह करके अपने सधर्मीको जीमाते हैं इनमें जेठमल और ढूंढिये साधु पाप मानते होवेंगे, क्योंकि इन कार्यों में हिंसा जरूर होती है। जब ऐसे कार्य में पाप मानते हैं तो ढूंढिये तेरापंथी भीखमके भाई बनके यह कार्य किसवांस्ते करते हैं ? क्या नरक में जाने वास्ते करते हैं ? 1 (८) तेतली प्रधानको पोट्टीलदेवताने समझाया सो धर्म के वास्ते ॥ (९) तीर्थंकर भगवंतने वर्षोदान दीया सो पुण्यदान धर्म प्रकट करने वास्ते ॥ (१०) देवता जिनप्रतिमा तथा जिनदाढ़ा पूँजते हैं सो मोक्ष फल वास्ते ॥ (११) उदयनराजा वडे. आडंबरसे भगवंतको वंदना करने वास्ते गया सो पुण्य प्राप्ति वास्ते ॥ Q इत्यादिक अनेक कार्य सम्यग्दृष्टियोंने करे हैं जिनमें महापुण्य प्राप्ति और तीर्थंकरकी आज्ञाभी है । जेकर जेठमल एकांत दयासे ही धर्म मानता है तो श्रीभगवतीसूत्र के नवमें शतक में कहा है कि जमालिने शुद्ध चारित्र पाला है, एक मक्खी की पांख भी नहीं दुखाई है, परंतु प्रभुका एकही वचन उत्थापनसे उसको अहिंसा के फलकी प्राप्ति नहीं हुई किंतु हिंसा के फलकी प्राप्ति हुई। इस वास्ते यह समझना, कि जिनाज्ञाविनाकी दया तो स्वरूपे दया है; परंतु अनुबंधतो हिंसा ही है, और इसीवास्ते जमालिकी दया साफल्यता Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राप्त नहीं हुई तो अरे इंढियो ! उस सरीखी या तुम्हारे से पलती नहीं है मात्र दया दया मुखे से पुकारते हो परंतु दयाक्या है सो नहीं जानते हो, और भगवंतके वचन तो अनेक ही लोपते हो इसवास्ते तुमारा निस्तारा कैसे होवेगा सो विचार लेना?॥ इति ॥ (२८)द्रव्यनिक्षपा वंदनीक है इसबाबत । अठ्ठाइसमें प्रश्नोत्तरमें "द्रव्यनिक्षेपा वंदनीक नहीं है। ऐसे सिद्ध करनेवास्ते जेठमल लिखता है कि "चौवीसथ्थेमें जो द्रव्य जिनको वंदना होती हो तो वोह तो चारों गतियों में अविरतीअपउचक्खाणी हैं उनको वेदना कैसे होवे?" उत्तर-श्राऋषभदेवके समयमें साधु चौवीसथ्था करते थे उसमें द्रव्यतीर्थकर तेइस को तीर्थकरकी भावावस्थाका आरोप करके वंदना करते थे,परंतु चारों गतिमें जिस अवस्थामें थे उस अवस्थाको वंदना नहीं करते थे। जेठमल लिखता है कि "पहिले हो चुके तीर्थंकरोंके समय में : चौवीसथ्था कहने वक्त जितने तीर्थकर होगये और जो विद्यमान थे उतने तीर्थंकरोंकी स्तुति वंदना करते थे"जेठमलका यह लिखना मिथ्या है। क्योंकि चौबीसथ्थेमें वर्तमान चौवीसीके चौबीस तीर्थकरके बदले कम तीर्थकरको वंदना करे ऐसा कथन किसीभी जैन शास्त्रमें नहीं है। ........: __. जेठमल लिखता है, कि श्रीअनुयोगद्वारसूत्रमें आवश्यक के ६ अध्ययन कहे हैं उनमें दूसरा अध्ययन उत्कीर्तना नामा है तो उत्कीर्तना नाम स्तुति वंदना करनेका है सो किंसका उत्कीर्तन करना ? इसके उत्तरमें चौवीसथ्थाअर्थात् चौवीस तीर्थंकरका करना Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( m) ऐसे समझना, परंतु जेठे अज्ञानी के लिखे मूजिव चौवीसका मेल नहीं है ऐसे नहीं समझना; क्योंकि चौवीस न होवे तो चौवीसथ्या न कहा जावे। ऊपर लिखी बातमें दृष्टांत तरीके जेठमल लिखता है कि "श्रीमहाविदेहमें एक तीर्थकरकी स्तुति करे चौवीसथ्था होता है" यह लिखनो जेठमलका बिलकुल ही अकल विनाका है, क्योंकि इस मूजिव किसी भी जैनसिद्धांतमें नहीं कहा है। और महाविदेह में चौवीसथ्था भी नहीं है । क्योंकि वहां तो जब साधुको दोष लगे तब पडिक्कमते हैं। इससे जेठमलका लेख स्वमतिकल्पना का है परंतु शास्त्रोक्त नहीं ऐसे सिद्ध होता है। इस बावत बारमें प्रश्नोत्तर में खुलासा लिखके द्रव्यनिक्षेपा बंदनीक सिद्ध करा है । ॥इति ॥ (२६) स्थापना निक्षेपा वंदनीक है इस बाबत। २९में प्रश्नोत्तरमें जेठमलने स्थापना निक्षेपा वंदनीक नहीं, ऐसे सिद्ध करनेवास्ते कितनीक मिथ्या कुयुक्तियां लिखी हैं । ___ . आद्यमें श्रादशवकालिकसूत्रकी गाथा लिखी है परंतु उस गाथासे तो स्थापना निक्षेपा अच्छी तरह सिद्ध होता है यतःसंघट्टइत्ता कारणं अहवा उवहिणामवि। खमेह अवराहं में वएज्जन पुणोत्तिया१८॥ अर्थ-कायाकरके संघहा होवे, तथा उपधिका संघद्या होवे तो शिष्यं कहे-मेरा अपराध क्षमो और दूसरीवार संघटादिअपराध नहीं करूंगा ऐसे कहे॥ - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RBE - - (20) • इस गाथाके अर्थसे प्रकट सिद्ध होता है कि गुरुके वस्त्रादि तथा पाटादिकके संघट करनेसे पाप है। यहां यद्यपि पाटादिक अजीव है तोभी यह आचार्यके हैं इसवास्तै इनकी आशोतना टालनी इससे स्थापना निक्षेपा सिद्ध होता है, इसवास्ते जेठमल की करी कल्पना मिथ्या है। क्योंकि जिनप्रतिमा जिनवर अर्थात् तीर्थकरकी कहाती है, और वस्त्रादि उपाधि गुरु महाराजकी कही जाती है, इसवास्ते इन दोनोंकी जो भक्ति करनी सो देवगुरुकी ही भक्ति है, और इनकी जो आशातना करनी सो देवगुरुकी आशातना है। इससे स्थापना माननी तथा पूजनी सत्य सिद्ध होती है। ___ जेठमल लिखता है कि "उपकरण प्रयोग परिणम्या द्रव्य है" सो महामिथ्या है। उपकरणका प्रयोग परिणम्या युगल किसीभी जैनशास्त्रमें नहीं कहा है, परंतु उसको तो मीसा पुगल कहा है। इसवास्ते मालूम होता है कि जेठमलको जैनशास्त्रकी कुछभी खबर नहीं थी। और जेठमल लिखता है कि "जिस पृथ्वी शिलापट्ट ऊपर बैठके भगवंतने उपदेश करा है उसी शिलापट्ट ऊपर बैठ के गौतम सुधर्मास्वामीप्रमुखने उपदेश करा है"उत्तर-ऐसा कथन किसीभी जैनसिद्धांतमें नहीं है, इसवास्ते जेठमल ढूंढक महामृषा वादी सिद्ध होता है ॥ जेठमल गुरुके चरण बाबत कुयुक्ति लिखके अपना मत सिद्ध · करना चाहता है, परंतु सो मिथ्या है । क्योंकि गुरुके चरणकी रजभी पूजने योग्य है तो धरती ऊपर पडे. गुरुके चरणोंका तो क्या ही कहना ? कितनेक ढूंढिये अपने गुरुके चरणोंकी रज मस्तकों पर चढ़ाते हैं, और जेठातो उनके साथभी नहीं मिलता है तो इस से यही सिद्ध होता है कि यह कोई महादुर्भवी था। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रश्नोत्तरके अंतमें कितनेक अनुचित वचन लिखके जेठे ने गुरुमहाराजकी आशातना करी है, सो उसने संसार समुद्रमें हलनेका एक अधिक साधन पैदा कस है बारमें प्रश्नोत्तरमें इस वावत विशेष खुलासा करके स्थापना निक्षेपा वंदनीक-सिद्ध करा है इसवास्ते यहां अधिक नहीं लिखते हैं ॥ इति ॥ (३०) शासनके प्रत्यनीकको शिक्षा देनी इसबाबत ! .. तीसमें प्रश्नोत्तरमें जेठमलने लिखा है कि “धर्म अपराधीको मारनेसे लाभ है ऐसा जैनधर्मी कहते हैं"जेठेका यह लेख मिथ्या है। क्योंकि जैनमतके किसीभी शास्त्रमें ऐसे नहीं लिखा है कि धर्म अपराधीको मारनेसे लाभ है। परंतु जैनशास्त्रमें ऐसेतो लिखा है कि जो दुष्टपुरुष जिनशासनका उच्छेद करनेवास्ते, जिनप्रतिमा तथा जिनमंदिरके खंडन करने वास्ते मुनिमहाराजके घात करने वास्ते तथा साध्वीके शील भंग करनेवास्ते उद्यत होवे, उस 'अनु. चित काम करने वालेको प्रथम तो साधु उपदेश देकर शांत करे जेकरवों पुरुष लोभी होवे तो उसको श्रावकजनधन देकर हटावे,जब किसी तरहभी न माने तो जिस तरह उसका निवारण होवे उसी तरह करें। जो कहा है श्रीवीरजिनहस्तदीक्षित धर्म दासगणिकृत ग्रंथम-तथाहिसाहूण चेइयाणय पडिणीय तह अवरणवायं च जिण पक्यणस्स अहियं सम्वध्यामेण वारे २४१ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . mam . (ife ) और गुर्वादिक अपराधिका निवारण करना सो वैयावच्च है; सोई श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमें श्रीहरिकेशी मुनिने कहा है तथाहि-- पव्विं च इरिहं च अणागयं च मणप्पदोसो. न में अस्थि कोइाजक्खा हुवेयावडियं करेंति तम्हा हु एए निहया कुमारा॥ ३१ ॥ ... इस काव्यके तीसरे तथा चौथे पादमें हरिकेशीमुनिने कहाहै कि यक्ष मेरी वेयावच्च करता है, उसने मेरी वेयावच्च के वास्ते . कुमारों को हणा है ॥. -. . : : : * इस बाबत जेठमल लिखता है कि "हरिकेशीमुनि छप्रस्थ चारभाषाका बोलने वालाथा उसका वचन प्रमाण नहीं ऐसे वचन पुण्यहीन मियादृष्टिके विनाअन्य कौन लिखे. या बोले ? बड़ा आश्चर्य है कि सूत्रकार जिसकी महिमा और गुण वर्णन-करतेहैं, जिसको पांच समिति और तीन गुप्ति सहित लिखते हैं, ऐसे महामुनिका वचन प्रमाण नहीं ऐसे जेठा लिखताहै ! परंतु ऐसे लेखसे जेठमलकुमतिका वचन किसी भी मार्गानुसारीको मान्यः करने योग्य नहींहै ऐसे सिद्ध होता है। . : " . - जेठमल लिखता है कि "गुरुको वाधाकारी जू,लीखे,मांगण आदि बहुत सुक्ष्म जीवभी होतेहै तो उनका भी निराकरण करना चोहिये" उत्तर-अकल जेठे का यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि वो जीव कुछ द्वेषबुद्धिसे साधुको असांता पैदा नहीं करते हैं, परंत उनका जाति स्वभावही ऐसा है, और इससे गुरु महाराजको कछं i. विशेष असाता होनेका भी संभव नहींहै । इसवास्ते इनकनिवारण Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (१४.) की भी कुछ जरूरत नहीं है। परंतु पूर्वोक्त दुष्ट पुरुषों के निवारणकी तो अवश्य जरूरतहै। जेठमल सरीखे बेअकल रिखोंके ऐसे लेख तथा उपदेशसे यह तो निश्चय होताहै कि उनकी आर्या अर्थात् ढूंढिनी साध्वी का कोई शील खंडन करे अथवा ढूंढिये साधुओं को कोई प्रहार करे यावत् मरणांतकष्ट देवे तो भी अकलके दुश्मन ढंढियेश्रावक उस कार्य करने वाले को अपराधी न गिनें, शिक्षा न करें,और उसका किसी प्रकार निवारणभी न करें, इससे ढूंढिये तेरापंथी भीखमके भाई हैं ऐसा जेठमलही सिद्ध कर देता है क्योंकि उसकी श्रद्धा उन जैसी ही है। यहां सत्यके खातर मालूम करना चाहते हैं कि कितनेक ढूंढियों की श्रद्धा पूर्वोक्त जेठे सहश नहीं है, क्योंकि वो तो धर्मके प्रत्यनीकका निवारण करना चाहिये ऐसे समझते हैं। इसवास्ते जेठेकी श्रद्धा समस्त जैनशास्त्रोंसे विपरीतहै इतना ही नहीं बलकि ढूंढियों से भी विपरीत है , इस बाबत जेठेने लिखा है "जो ऐसी भक्ति करनेका जिन शासनमें कहा होवे तो दो साधुओंको जालने वाला गोशाला जीता क्यों जावें?" उत्तर-यह मूढ इतनाभी नहीं समझता कि उस समय वीर भगवान् प्रत्यक्ष विराजते थे, और उन्होंने भावी भाव ऐसाही देखा था।इसवास्ते ऐसीऐसी कतकें करना सो महा मिथ्यादृष्टि अनंत संसारी का काम है। इस प्रश्नोत्तरके अंतमें जेठेने श्रीआचारांगसूत्रका पाठालखाह जिसका भावार्थ यहहै कि साधुको कोई उपसर्ग करे तो साधु उस का घात न चिंते । सो यह बात तो हमभी मंजूर करते हैं । क्योंकि पूर्वोक्त पाठमें कहे मूजिब हरिकेशी मनिने अपने मनमें ब्राह्मणों Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) के पुत्रकी थोड़ी भी घांत चितवन नहीं करी थी। और साधुको अपने वास्ते परिसह सहने का तो धर्मही है,परंतु जो कोई शासन को उपद्रवकरे तो साधु तथा श्रावक जिनाज्ञा पूर्वक यथाशक्ति उस के निवारण करने में ही उद्युक्त होवे ॥ इति॥ SIRAVEENAaNews.- -. (३१) बीस विहरमान के नाम बाबत। ढूंढियों के माने बत्तीस सूत्रोंमें बीस विरहमानके नाम किसी ठिकानेभी नहीं हैं परंतु ढूंढिये मानते हैं सो किस शास्त्रानुसार ? इस प्रश्न के उत्तरमें जेठमल ढूंढक लिखता है कि तुम कहते हो वोही बीस नाम है ऐसा निश्चय मालूम नहीं होता है, क्योंकि श्री विपाक सूत्रमें कहा है कि भद्रनंदी कुमारने पूर्वभवमें महाविदेह क्षेत्रमें पुण्डरगिणी नगरीमें जुगबाहुजिनको प्रतिलाभा, और तुमतो पुंडरगिणी नगरीमें श्रीसीमंधरस्वामी कहते हो सो कैसे मिलेगा ?" उत्तर-श्रीसीमंधरस्वामी पुष्कलावती विजयमें पुंडरगिणी नगरीमें जन्मे हैं सो सत्य है, परंतु जिस विजयमें जुगबाहु जिन विचरते हैं, उस विजयमें क्या पुंडरगिणी नामा नगरी नहीं होवेगी ? एकनामकी बहुत नगरियां एक देशमें होती हैं जैसे काठियावाड़ सरीखे छोटेसे प्रांत(सूबा)में भी एक नामके बहुतशहर विद्यमान हैं तो वैसे देशमें जुदीरविजयमें एक नामकी कई नगरियां होवें तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है,इसवास्ते जेठमलजी की करी कुयुक्ति झूठी है, और जैन शास्त्रानुसार बीस विहरमानके नाम कहलाते हैं सो सच्चे हैं, जेकर जेठा हालमें कहलाते वीस न म सच्चे नहीं मानता है तो कौनसे बीस नाम सच्चे हैं ? और वो क्यों नहीं लिखे ? बिचारा कहां से लिखे ? फकत जिनप्रतिमा के - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२) द्वेषसे ही सर्व शास्त्र उत्थापे उनमें विरहमानकी बातभी गई तो अब लिखे कहां से ? जब बोलने का कोई ठिकाना न रहा तो सच्चे नाम को खोटे ठहराने के वास्ते धुयें की मुठियां भरी हैं; परंतु इस से उसके झूठे पंथकीकुछ सिद्धि नहीं हुईहै,और होनेकीभी नहीं है। तथाढूंढिये बत्तीस सूत्रोंमें जो बात नहीं है सो तो मानतेहीनहीं हैं तो यह बातभी उनको माननी न चाहिये,मतलब यह कि वीस विरहमान भीनहीं मानने चाहिये;परंतु उलटे कितनेक ढूंढिये बीस विरहमानानकी स्तुति करते हैं, जोडकला बनाते हैं, परंत किसके आधारसे बनाते हैं इसके जबावमें उनकेपास कुछभी साधन नहीं है। अंतमें जेठमलने लिखा है कि "इस बातमें हमारा कुछभी पक्षपात नहीं है" यह लेख उसने ऐसा लिखा है कि जब कोई हथियार हाथमें नहीं रहा दोनों हाथ नीचे पड़गये तब शरण आने वास्ते जीजी करता है परंतु यह उसने मायाजालका फंद रचाहै । (३२) चैत्यशब्दका अर्थ साधु तथा ज्ञान नहीं इस बाबत। बत्तीसमें प्रश्नोत्तरकी आदिमें चैत्यशब्दका अर्थ साधु ठहराने वास्तेजेठमलने चौवीसबोल लिखे हैं सो सर्व झूठे हैं। क्योंकि चैत्य शब्दका अर्थ सूत्रोंमें किसी ठिकाने भी साधु नहीं कहा है। चौवीस ही बोलोंमें जेठेने चैत्यशब्दका अर्थ "देवयं चेइयं” इसपाठके अर्थ में साधु और अरिहंत ऐसा करा है, परंतु यह दोनों ही अर्थ खोटे हैं। किसीभी सूत्रकी टीकामें अथवा टब्बेमें ऐसा अर्थ नहीं करा है।। उसको अर्थती इष्टदेवजो अरिहत तिसकी प्रतिमाकी तेरह “पज्जु Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासामि" अर्थात् सेवा करूं ऐसा करा है, परंतु कितनेक ढूंढियों ने हडतालसे मेटके नवीन कितनेक पुस्तकों में जो मन मानासो अर्थ लिख दिया है, इसवास्ते वो मानने योग्य नहीं है। - किसी कोषमें भी चैत्यशब्दका अर्थ साधु नहीं करा है और तीर्थंकरभीनहीं करा है; कोषमें तो "चैत्यं जिनौकस्तदिवं चैत्यो जिनसभातरुः” अर्थात् जिनमंदिर और जिनप्रतिमाको 'चैत्यं' कहा है और चौतरेवन्ध वृक्षका नाम 'चैत्य' कहा है इनके उपरांत और किसी वस्तुका नाम चेत्य नहीं कहा है। तथा तेइसमें और चौवीसमें वोलमें आनंद तथा अंबडका अधिकार फिराकर लिखा है, उस वावत सोलवें तथा सतारवें प्रश्नमें हम लिख आए हैं । ढूंढिये चैत्यशब्दका अर्थ साधु कहते हैं परंतु सूत्रमें तो किसी ठिकाने भी साधुको चैत्य कहकर नहीं बुलाया है । "निग्गंथाणवा निग्गंथिणका" ऐसे कहा है, "साहुवा साहुणीवा" ऐसे कहा है, और "भिक्खुवा भिक्खुणीवा" ऐसे भी कहा है, परंतु “चैत्यंवा चैत्यानिवा" ऐसे तो एक ठिकाने भी नहीं लिखा है । तथा जेकर चैत्यशब्दका अर्थ साधु होवे तो सो चैत्यशब्द स्त्रीलिंगमें तो बोलाही नहीं जाता है तो साध्वीको क्या कहना ? . ' तथा श्रीमहावीरस्वामीके चौदह हजार साधु सूत्रमें कहेहैं परंत चौदह हजार चैत्य नहीं कहे, श्रीऋषभदेवस्वामीके चौरासी हजार -साधु कहे परंतु चौरासीहजार चैत्य नहीं कहे, केशीगणधरका - पांचसौ साधुका परिवार कहा-परंतु चैत्यका परिवार नहीं कहा इसी तरह सूत्रोंमें अनेक ठिकाने आचार्यके साथ इतने साधु विचरते हैं, ऐसेतो कहा है परंतु किसी ठिकाने इतने चैत्य विचरते हैं ऐसे नहीं Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा है । फकत ढूंढिये स्वमतिकल्पनासे ही चैत्य शब्दका अर्थ साधु करते हैं परंतु सो झूठा है ॥ और जेठेने जिस जिस बोलमें चैत्यशब्दका अर्थ साधु करा है सो अर्थ फकत शब्दके यथार्थ अर्थ जानने वाले पुरुष देखेंगे तो मालूम होजावेगा कि उसका करा अर्थ विभक्ति सहित वाक्य योजनामें किसी रीतिसे भी नहीं मिलता है। तथा जब सर्वत्र देवयं चेइयं" का अर्थ साधुअथवा तीर्थंकर ठहराता है तो श्रीभगवती सूत्रमें दाढ़ाके अधिकारमें भगवंतने गौतमस्वामीको कहा कि जिन दाढ़ा देवताको पूजने योग्य हैं यावत् "देवयं चेइयं पज्जुवासामि" ऐसा पाठ है उस ठिकाने ढूंढिये "चेइयं"शब्दका क्या अर्थ करेंगे; यदि 'साधु' अर्थ करेंगे तो यह उपमा दाढाके साथ अघटित ह.और यदि तीर्थंकर' ऐसा अर्थ करेंगे तो दाढ़ा तीर्थकर समान सेवा करने योग्य होवेंगी। जो कि दाढ़ा तीर्थंकरकी होनेसे उनके समान सेवाके लायक है तथापि उस ठिकाने तो दाढ़ा जिन प्रतिमाके समान सेवा करने योग्य' कही हैं इसवास्ते 'चेइयं' शब्द का अर्थ पूर्वोक्त हमारे कथन मूजिब सत्य है । क्योंकि पूर्वाचार्यों ने यही अर्थ करा है ॥ - २५से २९ तक पांचबोलोंमें चैत्यशब्दका अर्थ ज्ञान ठहरानं वास्ते जेठमलने कुयुक्तियां करी हैं परंतु सो मिथ्या हैं, क्योंकि सूत्रमें ज्ञानको चैत्यनहीं कहा है। श्रीनंदिसूत्रादि जिसजिस सूत्रमें ज्ञानका अधिकार है वहां सर्वत्र ज्ञानार्थ वाचक "नाण" शब्द लिखा है जैसे "नाणं पंचविहं पण्णत्त" ऐसे कहा है परंतु "चेइयं पंचविहं पण्णत्तं" ऐसे नहीं कहा है। तथा सूत्रोंमें जहां जहां ज्ञानी मनिमहाराजा का अधिकार है वहां वहां "मइनाणी, सुअनाणी, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओहीनाणी; मंणपज्जवणाणी,केवलनाणी" ऐसे कहा है परंतु एक ठिकाने भी “मइचैत्यी, सुअचैत्यी, ओहीचैत्यी, मणपज्जवचैत्यी, केवलचैत्यी" ऐसे नहीं कहा है। " तथा जहां जहां भगवंतको तथा साधुओंको अवधिज्ञान,मनपर्यवज्ञान, परमावधिज्ञान, तथा केवलज्ञान उत्पन्न होनेका अधिकार है, वहां वहां ज्ञान उत्पन्न हुआ ऐसे तो कहा है, परंतु अवधि चेत्य उत्पन्न हुआ, मनपर्यव चैत्य उत्पन्न हुआ, या केवल चैत्य उत्पन्न हुआ,इत्यादि किसी ठिकाने भी नहीं कहा है। और सम्यग् दृष्टि श्रावक प्रमुखको जातिस्मरणज्ञान तथा अवधिज्ञान उत्पन्न होनेका अधिकार सूत्र में जहां जहां है वहां वहां भी अमुक ज्ञान उत्पन्न हुआ ऐसे तो कहा है, परंतु जातिस्मरण चैत्य पैदा भया,अवधिचैत्य पैदाभया ऐसे नहीं कहा है । इत्यादि अनेक प्रकार से यही सिद्ध होता है कि सूत्रोंमें किसी ठिकानेभी ज्ञानको चैत्य नहीं कहा है, इसवास्ते जेठेका कथन मिथ्या है ! चैत्य शब्दका अर्थ ज्ञान ठहरानेवास्ते जो बोल लिखे हैंउनको पुनः विस्तार पूर्वक लिखने से मालूम होता है कि २६ में बोलमें जंघाचारण मुनिके अधिकारमें 'चेइयाई वंदित्तए ऐसा शब्द है उसका अर्थ जेठमलने वीतरागको वंदना करी ऐसा करा है सो खोटा है,वीतरागकी प्रतिमा को जंघाचारणने वंदना करी यह अर्थ सच्चा है इसबाबत पंदरवें प्रश्नोत्तरमें खुलासा लिखा गया है । . २७ में बोलमें जेठमलने चमरेंद्र के अलावे में “अरिहंते वा अरिहंत चेझ्याणिवा" और "अणगारेवा" ऐसा पाठ है ऐसे लिखा है इस पाठसे तो प्रत्यक्ष "चेइये" शब्दका अर्थ 'प्रतिमा सिद्धहोता है, क्योंकि इस पाठमें साधुभी जुदे कहे हैं, और अरिहंत भी जुदे Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) कहे हैं, तथा 'इ' अर्थात् जिनप्रतिमाभी जुदी कही है, इसबाते इस अधिकार में अन्य कोई भी अर्थ नहीं हो सक्ता है, तथापि जेठेने तीनों ही बोलोंका अर्थ अकेले अरिहंतही जानना ऐसा करा है, सो उसकी मूर्खताकी निशानी है, कोई सामान्य मनुष्य फकत शब्दार्थ के जानने वालाभी कह सक्ता है कि इन तीनों बोलोंका अर्थ अकेले अरिहंत ऐसा करनेवाला कोई मूर्ख शिरोमणिहीहोवेगा । जेठमलजी लिखते हैं कि "पूर्वोक्तपाठ में चैत्य शब्दसे जिनप्रतिमा होवे और उसका शरण लेकर चमरेंद्र सुधर्मा देवलोक तक जा सक्ता होवे तो तीरछे लोक में द्वीपसमुद्र में शाश्वती प्रतिमा थीं; ऊर्ध्वलोक में मेरुपर्वत ऊपर तथा सुधर्मा विमान में सिद्धायतनमें नजदीक शाश्वती प्रतिमा थीं तो जब शक्रेंद्रने तिसके (चमरेंद्र के ऊपर वज्र छोडा तब वो जिनप्रतिमा शरणे नहीं गया और महावीरस्वामी के शरणे क्यों आया ?” इसका उत्तर- जेठमलने भद्रिक जीवोंको फंसाने वास्ते यह प्रश्न जाल रूपगूंथा है, परंतु इसका जबाब ' तो प्रत्यक्ष कि जिसका शरण लेकर गया होवे उसीकीशरण पीछा आवे । चमरेंद्र श्री महावस्वामीका शरण लेकर गया था, इसवास्ते पीछा उनके शरण आया है । जेठमलके कथनका आशय ऐसा है कि "उसके आते हुए रस्तेमें बहुत शाश्वती प्रतिमा और सिद्धायतन थे तोभीचमरेंद्रउनकेशरण नहीं गया इसवास्ते चैत्य शब्दकाअर्थजिनप्रतिमा नहीं और उसका शरण भी नहीं" | वाह रे मूर्खशिरोमणि! रस्ते में जिन प्रतिमा थीं उनके शरण चमरेंद्र नहीं गया परंतु रस्ते में श्रीसीमंधर स्वामी तथा अन्य विरहमानजिन विचरते थे उनके शरणभी चमकेंद्र नहीं गया, तब तो जेठेके और अन्य ढूंढियोंके कहे मूजिब विर हमान तीर्थंकरभी उसको शरण करने योग्य नहीं होवेंगे ! समझने 4 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की तो बात यह है कि अरिहंतका शरण लेकर गया हौवे तो अरिहंतके समीप पीछा आजावे,अरिहंतकी प्रतिमाका शरण लेकर गया होवे तो अरिहंतकी प्रतिमाके समीप आजावे,और भावितात्मा अणगारका शरण लेकर गया होवे तो उसके समीप आजावे, इस वास्ते सिद्ध होता है कि जेठेने जिनप्रतिमाके निषेध करने वास्ते झठे अर्थ करने काही व्यापार चलाया है । तथा जेठेकी अकलका नमूना देखो कि इस अधिकारमें तो बहुत ठिकाने सिद्धायतन हैं, और उनमें शाश्वती जिनप्रतिमा है, ऐसे कबूल करता है; और पूर्वोक्त नवमें प्रश्नोत्तरमें तो सिद्धायतन ही नहीं हैं ऐसे कहता है। अफसोस ! २८में वोलमें "वनको भी चैत्य कहा है ' ऐसे जेठमल लिखता है,उत्तर-जिस वनमें यक्षादिकका मंदिर होता है,उसी वनको सूत्रों में चेत्य कहा है,अन्य वनको सूत्रोंमें किसी ठिकाने भी चैत्य नहीं कहा है। इससे भी चैत्यशब्दका ज्ञान अर्थ नहीं होता है। .२९में वोलमें जेठमल जी लिखते हैं कि “यक्षको भी चैत्य कहा है"उत्तर-यह लेख भी मिथ्या है,क्योंकि सूत्र में किसी ठिकाने भी यक्षको चैत्य नहीं कहा है। जेकर कहा होवे तो अपने मतकी स्थापना करने की इच्छा वाले पुरुषको सूत्रपाठ लिखकर उस का स्थापन करना चाहिये,परंतु जेठमलजी ने सूत्रपाठ लिखे विना जो मनमें आया सो लिख दिया है। - ३० तथा ३१में वोलमें दुर्मति जेठा लिखता है,कि "आरंभ के ठिकाने तो चैत्य शब्दका अर्थ प्रतिमा भी होता है ” उत्तरआहा ! कैसी द्वेषबुद्धि !! कि जिस जिस ठिकाने जिनप्रतिमाकी भक्ति, वंदना तथा स्तुति वगैरहके अधिकार सूत्रोंमें प्रत्यक्ष हैं उस Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) उस ठिकाने तो चैत्य शब्दको अर्थ प्रतिमा नहीं ऐसे कहता है, और आरंभके स्थानमें चैत्य अर्थात् प्रतिमा ठहराता है, यह तो निःकेवल जिनप्रतिमा प्रति द्वेष दर्शाने वास्ते ही उसकी जबान ऊपर खर्ज (खुजली) हुई होवेगी ऐसे मालूम होता है । क्योंकि जिन तीन बातोंमें चैत्यशब्दका अर्थ प्रतिमा ठहराता है उन तीनों बातोंका प्रत्युत्तर प्रथम विस्तार से लिखा गया है। ३२में बोलमें चैत्य शब्दका अर्थ प्रतिमा है ऐसे जेठमलने मंजूर करा है । सो इस बातमें भी उसने कपट करा है । इसलिये ऐसी बातोंमें लिखान करके निकम्मा ग्रंथ वधाना अयोग्य जान कर कुछ भी नहीं लिखते हैं । पूर्वोक्त सर्व हकीकत ध्यानमें लेकर निष्पक्षपाती होकर जो विचार करेगा उसको निश्चय होजावेगा कि ढूंढिये चैत्य शब्दका अर्थ साधु और ज्ञान ठहराते हैं सोमिथ्या है। ॥इति ॥ . .. -~ -- (३३)जिनप्रतिमा पूजनके फल सूत्रों में कहे हैं इस बाबत। ३३मै प्रश्नोत्तरमें जेठमल लिखता है कि "सूत्रोंमें दश सामाचारी, तप, संयम, वेयावच्च वगैरह धर्मकरणीके तो फल कहे हैं;परंतु जिनप्रतिमाको वंदन पूजन करने का फल सूत्रोंमें नहीं कहा है" उत्तर-जेठमलका यह लिखना बिलकुल असत्य है, सूत्रों में जिनप्रतिमाको वंदन पूजन करनेका फल बहुत ठिकाने कहा है। तीर्थकर भगवंतको वंदन पूजन करनेसे जिस-फलका प्राप्ति होती है उसी फलकी प्राप्ति जिनप्रतिमा के वंदन पूजनसे होती है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि जिनप्रतिमा जिनवर तुल्य है, तथा प्रतिमाद्वारा तीर्थकर भगवंतकी ही पूजा होतीहै। इस तरह जिनप्रतिमाकीभक्ति करने से फलप्राप्तिकदृष्टांतसूत्रोंमें बहुतहैं,जिनमेंसे कितनेक यहां लिखतह? . (१) श्रीजिनप्रतिमाकी भक्तिसे श्रीशांतिनाथ जी के जीवने तीर्थकर गोत्र बांधा, यह कथन प्रथमानुयोगमें है.॥ .. .. (२) श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा करनेसे सम्यक्त्व शुद्धहोती है, यह कथन श्रीआचारांग की नियुक्ति में है। (३) “थय थूइय मंगल" अर्थात् स्थापनाकी स्तुति करने से जीव सुलभबोधी होता है । यह कथन श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमें है। (४) जिनभक्ति करनेसे जीव तीर्थकरगोत्र बांधता है। यह कथन श्रीज्ञातासूत्र में हैं। जिनप्रतिमाका जो पूजा है सो तीर्थकरकी ही है, और इससे वीस स्थानकमें से प्रथमस्थानकी आराधना होती है । (५) तीर्थकरके नाम गोत्रके सुनने का महाफल है ऐसे श्री भगवती सत्रमें कहा है,और प्रतिमामें तो नाम और स्थापना दोनों हैं। इसवास्ते तिसके दर्शनसे तथा पूजासे अत्यंत फल है ॥ . (६) जिनप्रतिमाकी पूजासे संसारका क्षय होता है,ऐसे श्री आवश्यकसूत्रमें कहा है ॥ (७) सर्व लोकमें जो अरिहंतकी प्रतिमाह तिनका कायोत्सर्ग बोधिबीजके लाभ वास्ते साधु तथा श्रावक करे, ऐसे श्रीआवश्यक सूत्र में कहा है॥ (८) जिनप्रतिमाके पूजनेसे मोक्ष फलकी प्राप्ति होती है, ऐसे श्रीरायपसेणीसूत्र में कहा है ॥ (९) जिनमंदिर बनवाने वाला बारमें देवलोक तक जावे, ऐसे श्रीमहानिशीथ सूत्रमें कहा है ॥ . Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) श्रेणिक राजाने जिनप्रतिमाके ध्यानसे तीर्थकरगोत्र बांधा है। यह कथन श्रीयोगशास्त्र में है। (१२) श्रीगुणवर्मा महाराजाके सतारां पुत्रोंने सतरां भेदमें से एक एक प्रकारसे जिनपूजाकरी है, और उससे उसी भवमें मोक्ष गये हैं। यह अधिकार श्रीसतरां भेदी पूजाके चरित्रोंमें है, और सतरा भेदी पूजा श्रीरायपसेणी सूत्रमें कही है। इत्यादि अनेक ठिकाने जिनप्रतिमा पूजनेका महाफल कहा है, इसवास्ते जेठे की लिखी सर्व बातें स्वमतिकल्पनाकी हैं। । जेठेने द्रौपदी की करी जिनप्रतिमाकी पूजा बाबत यहां कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं,परंतु तिन सर्वका प्रत्युत्तर प्रथम(१२)वें प्रश्नोत्तरमें खुलासा लिख आये हैं। 1. 'जेठा लिखता है कि पानी, फल, फूल, धूप, दीप वगैरहके भगवंत भोगी नहीं हैं, जेठे के सहश श्रद्धा वाले ढूंढियों को हम पूछते हैं कि तुम भगवंतको वंदना नमस्कार करते हो तो क्या प्रभु वंदना नमस्कार के भोगी हैं ? क्या प्रभु ऐसे कहते हैं कि मुझं वंदना नमस्कार करो? जैसे भगवंत वंदनानमस्कारके भोगी नहीं हैं और आप कहते भी नहीं है कि तुम मुझे वंदना नमस्कार करों; तैसे ही पानी, फल,फूल, धूप, दीप बगैरहके प्रभु भोगीनहीं है, आप कहते नहीं है कि मेरी पूजा करो, परंतु उस कार्यमें तो करने वालेकी भक्तिहे,महालाभका कारण है,सम्यक्त्व की प्राप्ति होतीहै, और उससे बहुत जीव भवसमुद्रसे पार होगए हैं, ऐसे शास्त्रोंमें कहा है । इसलिये इसमें जिनेश्वरकी आज्ञा भी है। ॥ इति ॥ -deas Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) महिया शब्द का अर्थ। :: " श्रीलोगस्समें "कित्तिय वैदिय महिया" ऐसा पाठश्रीआवश्यक सत्रका है,इनमें प्रथमके दो शब्दोंका अर्थ"कीर्तिताः-कीर्तनाकरी और वंदिताः-वंदनाकरी"ऐसा है अर्थात् यह दोनों शब्द भावपूजा वाचीह, और तीसरे शब्दका अर्थ-'महियाः पुष्पादिभिः'-पुष्पादिक से पूजा करी है, अर्थात् महिया शब्द द्रव्य पूजा वाची है, टीकाकारोंने तथा प्रथम टम्बा बनाने वालोंने भी ऐसाही अर्थ लिखा है परंतु कितनीक प्रतियोंमें ढूंढियोंने सच्चा अर्थ फिराकर मनः कल्पित अर्थ लिख दिया है, उस मूजिब जेठमल भी इस प्रश्नमें 'महिया' शब्द का अर्थ "भावपूजा" ठहराता है सो मिथ्या है। ___ जेठमल फूलोंसे श्रावक पूजा करते हैं उसमें हिंसा ठहराता है सो असत्य है, क्योंकि पुष्पधूजासे तो श्रावकोंने उन पुष्पों की दयापाली है, विचारो कि माली फूलोंकी चंगेर लेकर बेचनेको बैठा है, इतने में कोई श्रावक आनिकले और विचारे कि पुष्पोंको वेश्या ले जावेगी तो अपनी शय्यामें विछाके उसपर शयन करेगी, और उसमें कितनीक कदर्थना भी होगी,कोई व्यसनीले जावेगा तो फूल के गुच्छे गजरे बनाकर सूंघेगा, हार बनाकर गले में डालेगा, या उनका मर्दन करेगा,कोई धनी गृहस्थी लेजावेगा तो वोभी उनका यथेच्छभोग करेगा, और स्त्रियोंके शिरमें गूथे जावेंगे, जो अतर के व्यापारी लेजावेंगे तो चुल्हेपर चढ़ाके उनका अतर निकालेंगे तेलके व्यापारी लेजावेंगे तो फुलेल वगैरह बनानेमें उनकी बहुत विटंबना करेंगे, इत्यादिअनेक विटंबनाका संभव होनेसे प्राप्त होने वाली विटंबनाके दूर करने वास्ते और अरिहंतकी भक्तिरूप शुद्ध Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) भावना निमित्त वोह पुष्प श्रावक खरीद करके जिनप्रतिमाको चढ़ावे तो उससे अरिहंतदेवकी भक्ति होती है, और फूलोंकी भी दया पलती है हिंसा क्या हुई? . .. जेठमल लिखता है कि "गणधरदेव सावध करणीमें आज्ञा न देखें" उत्तर-सावयकरणी किसको कहना ? और निर्वद्यकरणी किसको कहना ? इसका जेठको और अन्य टूढियों को ज्ञान होवे ऐसा मालूम नहीं होता है, जिन पूजादि करणीको वेसावय गिनते हैं, परंतु यह उनकी मूर्खता है, क्योंकि मुनियों को आहार,विहार निहारादिक क्रिया और श्रावकोंको जिनपूजा साधर्मिवात्सल्य प्रमुख कितनीक धर्म करणीयोंमें तीर्थंकरदेवनेभी आज्ञा दी है,और जिसमें आज्ञा होवे सो करणी सावध नहीं कहलाती है । इसबाबत २७में प्रश्नोत्तरमें खुलासा लिखा गया है। तथा गणधरमहाराजाओं ने भी उपदेश में सर्व साधु श्रावकोंको अपना अपना धर्म करनेकी आज्ञा दी है। ढूंढियोंके कहे मुजिब गणधरदेव ऐसी करणीमें आज्ञा न देते होवे तो साधुको नदी उतरनेकी आज्ञा क्यों देते? वरसते वरसादमें लघुनीति वड़ीनीतिपरिठवनेकी आज्ञा क्यों देते? साध्वी नदीमें रुडती जाती होवे तो उसको निकाल लेनेकी साधु को आज्ञा क्यों देते ? इसी तरह कितनी ही आज्ञा दी है; इस वास्ते यह समझना कि जिस जिस कार्यमें उन्होंने आज्ञा दी है, हिंसा जानकर नहीं दी हैं । इसवास्ते इसबाबत जेठे मूढमतिका लेख बिलकुल मिथ्या सिद्ध होता है । - ___“सामायिकमें साधु तथा श्रावक पूर्वोक्त महिया शब्दसे पुष्पादिक द्रव्यपूजाकी अनुमोदना करते हैं। साधुको द्रव्यपूजा करनेका Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) जीवदयाके निमित्त साधुके वचन बाबत - ३६में प्रश्नोत्तरमें जेठमलने श्रीआचारांग सूत्रका पाठ और अर्थ फिराकर खोटा लिखकर प्रत्यक्ष उत्सूत्रकी प्ररूपणा करी है, इसवास्ते वो सूत्रपाठ यथार्थ अर्थ सहित तथा पूर्ण हकीकत सहित लिखते हैं। ... श्रीआचारांग सूत्रके दूसरे श्रुतस्कंधमें ऐसे कहा है कि साधु ग्रामानुग्राम विहार करता जाता है, रस्ते में साधुके आगे होकर मृगांकी डार निकल गई होवे, और पीछे से उन हिरणोंके पीछे वधक (अहेड़ी) आजावे, और वो साधुको पूछे कि हे साधो ! तेने यहां से जाते हुए मृग देखे हैं ? तब साधु जो कहेसो पाठ यह है"जाणं वा नो जाणं वदेज्जा"-अर्थ-साधु जाणता होवे तो भी कह देवे कि मैं नहीं जानता हूं,अर्थात् मैंने नहीं देखे हैं तथाश्रीसूयगडांग सूत्रके नवमें अध्ययन में कहा है कि-"सादियं न मुसं. बूया एस धम्मे चुसिमओ"-अर्थ-मृग पृच्छादि विना मृषा न बोले,यह धर्म संयमवंतका है, तथा श्रीभगवतीसूत्रके आठमें शतकके पहिले उद्देशे में लिखा है कि-"मणसच्च जोग परिणया वयमोस जोग परिणया"-अर्थ-मृग पृच्छादिकमें मनमें तो सत्य है, और वचनमें मृषा है, इन तीनों पाठों का अर्थ हड़तालसे मिटाके ढूंढकोंने मनः कल्पित औरका और ही लिख छोड़ा है,इसवास्ते ढूंढिये महामिथ्या दृष्टि अनंतसंसारी है, तथा जेठमल ढूंढकने जो जो सूत्रपाठ मृषावाद बोलनेके निषेध वास्ते लिखे हैं, उन सर्वमें उत्सर्ग मार्गमें मृषा बोलने का निषेध करा है,परंतु अपवादमें नहीं, अपवादमें तो मृषा बोलनेकी आज्ञा,भी है,सोपाठ ऊपर लिख आए हैं। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) जेठा मूढमति लिखता है कि पांचोंही आश्रवका फल सरीखा है" तब तो जेठा प्रमुख सर्व ढूंढक जैसे कारणसे नदी उतरते हैं, मेघ वर्षते में लघुनीति परिठवते हैं, और स्थंडिल जाते हैं, प्रतिलेखनाप्रतिक्रमण करते वायुकायकी हिंसा करते हैं, ऐसेही कारण से मैथुन भी सेवते होंगे, परिग्रह भी रखते होंगे, मूली गाजरभी खालेते होंगे, तथा जैसा ढूंढकोंका श्रद्धान है, ऐसाही इनके श्रावकोंका भी होगा, तवतो तिनके श्रावक ढूंढिये भी जैसा -पाप अपनी स्त्रीसे मैथुन सेवनेसे मानते होवेंगे, वैसाही पाप अपनी माता, बहिन, बेटीसे मैथुन सेवनेसे मानते होवेंगे ? "स्त्रीत्वाविशेषात्". स्त्री पणेमें विशेष न होने से, मूर्ख जेठेका “पांचों ही आश्रवका फल सरीखा है"यह लिखना अज्ञानताका और एकांत पक्षका है,क्योंकि वह जिनमार्गकी स्याद्वादशैलिको समझाही नहीं है जेठा लिखता है, कि "तीर्थकर भी झूठ बोलते हैं ऐसा जैन धर्मी कहते है" उत्तर-यह लिखना विलकुल असत्य है, क्योकि .तीर्थकर असत्य बोले ऐसा कोई भी जैनधर्मी नहीं कहता है,तीर्थंकर कभी भी असत्य न बोले ऐसा निश्चय है, तोभी इसतरह जेठा तीर्थकर भगवंतके वास्ते भी कलंकित वचन लिखिता है तो इससे यही निश्चय होता है कि वह महामिथ्याष्टि'था॥ ___ श्रीपन्नवणासूत्रमें ग्यारमें पदे-सत्य, असत्य,सत्यामृषा और असत्यामृषा यह चारों भाषा उपयोगयुक्त बोलतेको आराधक कहा है इस बाबत जेठा लिखता है कि "शासनका उड्डाह होता होवे, चौथा आश्रव सेव्या होवे तो झूठ बोले ऐसे जैनधर्मी कहते हैं" उत्तर-यह लेख असत्य है, क्योंकि शासनका उड्डाह होता होवे तब तो मुनि महाराजा भी असत्य बोले, ऐसा पन्नवणा सूत्र के Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) पूर्वोक्त पाठकी टीकामें खुलासा कहा है,परंतु 'चौथा आश्रय सेव्या होवे तो झूठ बोले' इस कथनरूप खोटा कलंक जेठा निन्हव जैन धर्मियों के सिर पर चढ़ाता है सो असत्य है, क्योंकि इसतरह हम नहीं कहते हैं । परंतु कदापि जेठेको ऐसा प्रसंग आबनाहोवे और उससे ऐसा लिखा गया होवे तो वो जाने और उसके कर्म ? इस प्रश्नोत्तरके अंतमें जेठा लिखता है कि " सम्यग् दृष्टिको चार भाषा बोलनेकी भगवंतकी आज्ञा नहीं है और वह आपही समकितसार(शल्य)के पृष्ठ१६५की तीसरी पंक्ति में सम्यग दृष्टि चार भाषा बोलते आराधक है ऐसा पन्नवणाजीके ग्यारमें पदमें कहा है" ऐसे लिखता है। इसतरह एक दूसरेसे विरुद्ध वचन जेठेने वारंवार लिखे हैं । इसलिये मालूम होता है कि जेठे ने नशे में ऐसे परस्पर विरोधी वचन लिखे हैं। श्रीपन्नवणाजीका पूर्वोक्त सूत्रपाठ साधु आश्री है, ऐसे टीका कारोंने कहा है, जब साधुको उपयोगयुक्त चार भाषा बोलते आराधक कहा, तब सम्यग्दृष्टि श्रावक उसी तरह चारभाषा . बोलते आराधक होवें उसमें क्या आश्चर्य है ? इसवास्ते जेठेकी कल्पना मिथ्या है। इति ॥ . (३७)आज्ञा यह धर्म है इस बाबत । सेंतीसमें प्रश्नोत्तरके प्रारंभ में ही जेठेने लिखाहै कि "आज्ञा यह धर्म, दया यह नहीं ऐसे कहते हैं" यह मिथ्या है, क्योंकि दया यह धर्म नहीं ऐसा कोई भी जैनधर्मी नहीं कहता है, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५ ) परंतु जिनाज्ञा युक्त जो दया है उसमें ही धर्महै, ऐसा शास्त्रकार लिखते हैं । जेठा लिखता है कि "दयामें ही धर्म है, और भगवंतकी आज्ञा भी दयामें ही है, हिंसामें नहीं" उत्तर-जेकर एकांत दयाही में धर्म है तो कितनेक अभव्यजीव अनंतीवार तीनकरण तीनयोग से दया पालके इकीसमें देवलोक तक उत्पन्न हुए परंतु मिथ्या दृष्टि क्यों रहे? और जमालिने शुद्ध रीति दयापाला तोभी निन्हव क्यों कहाया? और संसारमें पर्यटन क्यों किया? इसवास्ते ढूंढियो ! समझो कि अभव्य तथा निन्हवोंने दया तो पूरी पाली परंतु भगवंतकी आज्ञा नहीं आराधी इससे उनकी अनंतसंसार रुलने की गति हुई इसवास्ते आज्ञाहीमें धर्म है ऐसे समझना । (१) जेकर भगवंतकी आज्ञा दयाहीमें है तो श्रीआचारांग सूत्रके द्वितीय श्रुतस्कंधके ईर्याध्ययनमें लिखा है कि साधु ग्रामानुग्राम विहार करता रस्तेमें नदी आजाये तब एक पग जलमें और एक पग थल में करता हुआ उतरे सो पाठ यह है : "भिक्ख गामाणगामं दृइज्जमाणे अंतरा से नई आगच्छेज्ज एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवएहं संतर"] यहां भगवंतने हिंसा करनेकी आज्ञा क्यों दीनी ? (२) श्रीठाणांगसूत्रमें पांचमें ठाणे में कहा है । यतःणिग्गंथे णिग्गंथिं सेयंसिवा पंकसिवा पणगंसिवा उदगंसिवा उक्कस्समाणिं वा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जमाणिं वा गिरहमाणे अवलंबमाणे णातिक्कमति ॥ अर्थ-काठाचीकड़,पतला चीकड़ पंचवरणी फूलन और पाणी इनमें साध्वी खूच जावे, अथवा पाणीमें बही जाती होवे, उसको साधु काढ लेवे तो भगवंतकी आज्ञा न अतिक्रमें ॥ . इस पाठमें भगवंतने हिंसाकी आज्ञा क्यों दी? . (३) ढूंढिये भी धर्मानुष्ठानकी क्रिया करते हैं, मघ वर्षतेमें स्थंडिल जाते हैं, शिष्योंके केशोंका लौच करते हैं, आहार विहार निहारादिक कार्य करते हैं, इन सर्व कार्यों में जीव विराधना होती है, और इनसर्व कार्यों में भगवंतने आज्ञा दी है। परंतु जेठा तथा अन्य इंढियों को आज्ञा, अनाज्ञा, दया, हिंसा, धर्म, अधर्मकी कुछ भी खबर नहीं है; फकत मुखसे दया दया पुकारनी जानते हैं, इस वास्ते हम पूछते हैं कि पूर्वोक्त कार्य जिनमें हिंसाहोने का संभव है ढूंढिये क्यों करते हैं ? . . . . (2) धर्मरुचि अणगारने जिनाज्ञामें धर्म जानके और निर-, वद्य स्थंडिल का अभाव देखके कड़वे सूबे का आहार किया है, इस बाबत जेठेने जो लिखा है सो मिथ्या है, धर्मरुचि अणगारने तो उस कार्यके करनेसे तीर्थंकर भगवंतकी तथा गुरुमहाराजकी आज्ञा आराधी है, और इससेही सर्वार्थसिद्ध विमानमें गयाहे ॥ (५) श्रीआचारांगसत्रके पांचमें अध्ययनमें कहा है ॥ यतःअणाणाए एगे सोवठ्ठाणे आणाए एगे निरुवहाणे एवं ते मा होउ ॥ . . Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-जिनाज्ञासे वाहिर उद्यम,और जिनाज्ञामें आलस,यह दोनों ही कर्मबंधके कारण हैं, हे शिष्य! यह दोनोंही तुझको न होवें। इस पाठसे जो मूढमति जिनाज्ञासे वाहिर धर्म मानते हैं,वो महामिथ्या दृष्टि हैं, ऐसे सिद्ध होता है। (६) जेठा लिखनाहै कि "साधु नदी उतरते हैं सोतो अशक्य परिहार है" यह लिखना उसका स्वमतिकल्पनाका है, क्योंकि सूत्रकारने तो किसी ठिकाने भी अशक्य परिहार नहीं कहा है; नदी उतरनी सो तो विधिमार्ग है, इसवास्ते जेठे का लिखना स्वयमेव मिथ्या सिद्ध होता है। (७) जेठा लिखता है कि "साधु नदी न उतरे तो पश्चात्ताप नहीं करते हैं, और जैनधर्मी श्रावक तो जिन पूजा न होवे तो पश्चाताप करते हैं" उत्तर-जैसे किसी साधुको रोगादि कारणसे एक क्षेत्र में ज्यादह दिन रहना पड़ता है तो उसके दिलमें मेरे से विहार नहीं हो सका, जुदे जुदे क्षेत्रों में विचरके भव्यजीवोंको उपदेश नहीं दिया गया, ऐसा पश्चात्ताप होता है;परंतु विहार करते हिंसा होती है सो न हुई उसका कुछ पश्चात्ताप नहीं होता है। तैसे ही श्रावकों को भी जिनभक्ति न होवे तो पश्चात्ताप होता है, परंतु स्नानादि न होनेका पश्चात्ताप नहीं होता है, इसवास्ते जेठेकी कुयुक्ति मिथ्या है। इति ॥ (३८) पूजा सो दयाहै इस बाबता ३८ में प्रश्नोत्तरमें पूजा शब्द दयावाची है, और जिनपूजा अनुबंधे दयारूपही है, इसका निषेध करने वास्ते जेठेने कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं सो मिथ्या है, क्योंकि जिनराजकी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो जैनमुनि मानने, मंगल सो धर्म गिनना, ओच्छव सो धर्मके अठाई महोत्सवादि महोत्सव समझने; परंतु इस बाबत निकम्मी कुतकें नहींकरनी,जेकर पूजामें हिंसा होवे और पूजा ऐसा हिंसाका नाम होवे तो उसी सूत्रमें हिंसाके नाम हैं,उनमें पूजा ऐसा शब्द क्यों नहीं है? सो आंख खोलकर देखना चाहिये ॥ .. __श्रीमहानिशीथसूत्रका जो पाठ नवानगरके बेअकल ढूंढकों की तफले आया हुआ था समकितसार (शल्य) के छगनेवाले बुद्धिहीन नेमचंद कोठारीने जैसा था वैसाहीइस प्रश्नोत्तरके अंतमें पृष्ठ १६९में लिखा है, परंतु उसमें इतनी विचार भी नहीं करी है कि यह पाठ शुद्ध है या अशुद्ध ? खरा है कि खोटा ? और भावार्थ इसका क्या है ? प्रथम तो वोह पाठही महा अशुद्ध है,और जो अर्थ लिखा है सो भी खोटा लिखा है, तथा उसका भावार्थ तो साधुने द्रव्यपूजा नहीं करनी ऐसा है, परंतु सो तो उसकी समझ में विलकुल आयाही नही है; इसीवास्ते उसने यह सूत्रपाठ श्रावकके संवेबमें लिख मारा है । जब ढूंढिय श्रीमहानिशीथसूत्र को मानते नहीं हैं तो उसने पूर्वोक्त सूत्रपाठ क्यों लिखा है ? जेकर मानते हैं तोइसी सूत्रके तीसरे अध्ययनमें कहा है कि- "जिनमंदिर वनवाने वाले श्रावक यावत् चारमें देवलोक जावें"यह पाठ क्यों नहीं लिखा है ? इसबास्ते निश्चय होता है कि ढूंढियोंने फकत भद्रिक जीवोंके फंसाने वास्ते सनिकतसार (शल्य) पोथीरूप जाल गूंथाहै, परंतु उस जालमें न फंसने वास्ते और फंसे हुएके उद्धार वास्ते हमने यह उद्यम कियाहे,सो बांचकर यदि ढूंढिकपक्षी,निष्पक्ष न्यायसे विचार करेंगे तो उनकोभी सत्यमार्गकी पिछान होजावेगी। ॥ इति ॥ . . . . . Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३)प्रवचनके प्रत्यनीकको शिक्षा करने बाबत "जैनधर्मी कहते हैं कि प्रवचनके प्रत्यनीकको हननमें दोषनहीं" ऐसा ३९में प्रश्नोत्तरमें मूढमति जेठेने लिखाहै, परंतु हम इस तरह एकांत नहीं कहते हैं इसवास्ते जेठेका लिखना मिथ्या है, जैनशास्त्रों में उत्सर्गमार्गमें तो किसीजीवको हनना नहीं ऐसे कहा है, और अपवाद मार्गमें द्रव्य,क्षेत्र, काल, भाव देखके महालन्धिवंत विश्नुकुमारकातरह शिक्षाभी करनी पड़जाती है क्योंकि जैन शास्त्रोंमें जिनशासन के उच्छेद करनेवालेको शिक्षा देनी लिखी है श्रीदशाश्रुतस्कंध सूत्रके चौथेउद्देश में कहा है कि "अवण्णवाइणं पडिहणित्ता भवइ" जब ढूंढिये प्रवचनके प्रत्यनीकको भी शिक्षा नहीं करनी ऐसा कहकर दयावान् बनना चाहते हैं तो ढूंढिये साधु रेच(जुलाब)लेकरहजारांकृमियोंको अपने शरीरके सुखवास्ते मारदेते हैं तो उस वक्त दया कहां चली जाती है ? जेठने श्री निशीथचूर्णिका तीन सिंहके मरनेका अधिकार लिखा है परंतु उस मुनिने सिंहको मारने के भावसे लाठी नहीं मारी थी, उसने तो सिंहको हटाने वास्ते यष्ठिप्रहार कियाथा, इसतरह करते हुए यदि सिंह मरगये तो उसमें मुनि क्या करे ? और गरुमहाराजानेभी सिंहको जानसे मारनेका नहीं कहाथा, उन्होंने कहा था कि जो सहजमें न हटे तो लाठी से हटादेना; इसतरह चूर्णिमें खुलासा कथन है तथापि जेठे सरीखे ढूंढिये कुयुक्तियां करके तथा झठे लेख लिखके सत्यधर्मकी निंदा करते हैं सो उनकी मुर्खता है । , इसकी पुष्टि वास्ते जेठेने,गोशालेके दो साधु जालनेका दृष्टांत लिखा है, परंत सो मिलता नहीं है, क्योंकि उन मुनियोंने तो काल Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) किया था, और पूर्वोक्त दृष्टांत में ऐसे नहीं था, तथा पर्वो दृष्टांत में साधुने गुरुमहाराजाकी आज्ञासे यष्ठिप्रहार किया है, और गोशालेकी बाबत प्रभुने आज्ञा नहीं दी है, इसवास्ते गोशा लेके शिक्षा करनेका दृष्टांत पूर्वोक्त दृष्टांत के साथ नहीं मिलता है | फिर जेठेने गजसुकमालका दृष्टांत दिया है परंतु जब गजसुकुमाल काल कर गयातोपीछे उसने उपसर्ग करने वालेका निवारणही क्या करना था ? अगर कृष्ण महाराजाको पहले मालूम होताकि सोमिल इसतरह उपसर्ग करेगा तो जरूर उसका निवारण करता, तथा गजसुकुमाल के काल करने पीछे कृष्णजीके हृदयमें उसको शिक्षा करनेका भाव था, परंतु उपसर्ग करने वाले को तो स्वयमेव शिक्षाहो चुकी थी, क्योंकि उस सोमिलने कृष्णजीको देखतेही काल करा है, तो भी देखो कि कृष्णजीने उसके मृतक (मुरदे ) को जमीन ऊपर घसीटा है, और उसकी बहुत निंदा करी हैं और उस मृतक को जितनी भूमिपर घसीटा उतनी जमीन उस महादुष्ट के स्पर्शसे अशुद्ध होई मानके उसपर पाणी छिडकाया है ऐसा श्रीअंतगडदशांग सूत्र में कहा है, इसवास्ते विचार करोकि मृत्यु हुए बाद भी इस तरहकी विटंबना करी है तो जीता होता तो कृष्णजी उसकी कितनी विटंबना करते ! इसवास्ते प्रवचन के प्रत्यनीकको शिक्षा करनी शास्त्रोक्तरीतिसे सिद्ध हैं विशेष करके तीसमें प्रश्नोत्तर में लिखा है | ॥ इति ॥ (४०) देवगुरुकी यथायोग्य भक्ति करने बाबत चालीसवें प्रश्नोत्तर में जेठा लिखता है कि " जैनधर्मी गुरु महाव्रती और देव अत्रती, मानते हैं" उत्तर - यह लेख लिखके Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (), जेठेने जैनधर्मियोको झूठा कलंक दीया है, क्योंकि ऐसी श्रद्धा किसी भी जैनीकी नहीं है जेठा इस बातमें भक्तिकी भिन्नताको कारण बताता है परंतु जैनी जिसरीतिसे जिसकी भक्ति करनी उचित है उसरीतिसे उसकी भक्ति करते हैं,देवकी भक्ति जल,कुसुम से करनी उचित है, और गुरुकी भक्ति बंदना नमस्कारसे करनी उचित है, सो उसीरीतिसे श्रावकजन करते हैं। - अक्षकी स्थापना का निषेध करने वास्ते जेठेने अक्षको हाड लिखके स्थापनाचार्यकी अवज्ञा,निंदा तथा आशातनाकरी है, सो उसकी मूर्खता है; क्योंकि आवश्यक करने समय अक्षके स्थापनाचार्यकी स्थापना करनी श्रीअनुयोगद्वारसूत्रके मूल पाठ में कही है कि "अक्खेवा" इत्यादि "ठवण ठविज्जइ” अर्थात् अक्षादिकी स्थापना स्थापनी; सो उस मुजिब अक्षकी स्थापना करते हैं, तथा श्री विशेषावश्यक सत्र में लिखा है कि “गुरु विरहम्मिय ठवणा" अर्थात् गुरु प्रत्यक्ष न होवे तो गुरुकी स्थापना करनी और तिसको द्वादशावर्त वंदना करनी, जेठेने स्थापनाचार्यको हाड कह कर अशातना करी है, हम पूछते भी है कि ढूंढिये अपने गुरुको वंदना नमस्कार करते हैं उसका शरीर तो हाड, मास, रुधिर,तथा विष्टा से भरा हुआ होता है तो उसको वंदना नमस्कार क्यों करते हैं.? इसवास्ते प्यारे ट्रॅडियो ! विचार करो, और ऐसे कुमतियों के जालमें फंसना छोड़के सत्यमार्गको अंगीकार करो॥ इंढिये शास्त्रोक्त विधि अनुसार स्थानाचार्य स्थापे विनाप्रतिक्रमणादि क्रिया करते हैं उनको हम पूछते हैं कि जब उनको प्रत्यक्ष गुरु का विरह होता है, तब वोह पडिकमणेमें वंदना किसको करते हैं? तथा "अहोकायं कार्य संफासं" इस पाठसे गुरुकी अधोकाया Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ae ) चरणरूपको फरसना है, सो जब गुरुही नहीं तो अधोकाया कहींसे आई ? तथा जब गुरु नहीं तो ढूंढिये वंदना करते हैं । तब किसके साथ मस्तकपात करते हैं ? और गुरुके अवग्रहसे बाहिर निकलते हुए "आवश्यही” कहते हैं तो जव गुरुही नहीं तो अवग्रह कैसे होवे ? इससे सिद्ध होता है कि स्थापनाचार्य विना जितनी क्रिया ढूंढिये श्रावक तथा साधु करते हैं, सो सर्व शास्त्र विरुद्ध और निष्फल है। श्रावकजन द्रव्य और भाव दोनों पूजा करते हैं, उनमें जिनेश्वर भगवंतकी जल, चंदन, कुसुम, धूप, दीप, अक्षत, फल और नैवेद्य प्रमुखले द्रव्यपूजा जिस रीतिसे करते हैं उसीरीतिसे स्थापनाचार्यकी भी जल, चंदन, वरास, वासक्षेप प्रमुखसे पूजा करते हैं; इसबास्ते जेठे ढूंढक का लिखना कि " स्थापनाचार्यको जल,चंदन धूप, दीर कुछभी नही करते हैं" सो झूठ है, और साधु मुनिराज जैसे अरिहत भगवंतकी भावपूजा ही करतेहैं,तैसे स्थापनाचार्यकी भी भावपूजाही करते हैं;इलवास्ते जेठे की करी कुयुक्ति वृथा है । इस प्रश्नोत्तरके अंतमें जेठा लिखता है " सचित्तका संघद्दा देव जो तीर्थंकर उनको कैसे घटेगा ?" उत्तर-जो भावतीर्थकर हैं उनको सचितका संघट्टानहीं है और स्थापनातीर्थंकरको सचित संघट्टा कुछभी वाधक नहीं है,ऐसे प्रश्नोंके लिखनेसे सिद्ध होता है कि जेठे को चार निक्षेपेका ज्ञान बिलकुल नहीं था॥ इति ॥ (४१)जिनप्रतिमा जिनसरीखी है इस बाबत। 4. इकतालीसवें प्रश्नोत्तरमेंजठे-हीनपुण्यीने जिनप्रतिमा ज़िन Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७. ) सरीखी नहीं" ऐसे सिद्ध करने वास्ते कितनीक कुयुक्तियां लिखी है परंतु सो सर्व मिथ्या हैं क्योंकिसूत्रोंमें बहुत ठिकाने जिनप्रतिमा को जिनसरीखी कहाहै,जहांरभाव तीर्थंकरको वंदना नमस्कारकरने पास्ते आनेका अधिकार है वहां वहां "देवयं चेइयं पज्जुवासामि" अर्थात् देव संबंधी चैत्य जो जिनप्रतिमा उसकी तरह पर्युपासना करूंगा ऐसे कहा है, तथा श्रीरायपसेणी सूत्रमें कहाहै "धूवंदाऊण जिणवराणं" यहपाठ सूर्याभ देवताने जिनप्रतिमापूजी तब धूपकरा उस वक्तका है, और इसमें कहा है कि जिनेश्वरको धूप करा 'और इसपाठमें जिनप्रतिमाको जिनवर कहा इससे तथा पूर्वोक्त दृष्टांतसे जिनप्रतिमा जिनसरीखी सिद्ध होती है, इसवास्ते इसबातक निषेधनेको जेठे मढमतिने जो आल जाल लिखा है सो सर्व झूठ और स्वकपोलकल्पित है। _जेठा लिखता है कि "प्रभु जल, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र, भूषण वगैरहके भोगी नहींथे और तुम भोगी ठहराते हो"उत्तर-यह लेख अज्ञानताकाहै,क्योंकि प्रभु गृहस्थावस्था तो सर्व वस्तु के भोगी थे,इस मुजिव श्रावकवर्ग जन्मावस्थाका अरोप करकेस्नान कराते हैं, पुष्पचढ़ाते हैं,यौवनावस्था का आरोपके अलंकारपहनाते हैं,और दीक्षावस्थाका आरोप करके नमस्कार करतेहैं, इसवास्तेअरिहंतदेव भोगाअवस्थामभोगी हैं,और त्यागीअवस्थामें त्यागी, भोगी नहीं, परंतभोगी तथास्यागी दोनोंअवस्थाओंमें तीर्थंकरपमा तो है ही,और उससे तीर्थंकरदेवगर्भसे लेकर निर्वाण पर्यंत पूजनीक ही हैं, इस वास्ते जेठेके लिखे दूषण जिनप्रतिमाको नहीं लगते हैं तथा ढंदियोंको हम पूछते हैं किसमवसरणमें जब तीर्थंकर भगवंत विराजते थे तब रत्न जड़ित सिंहासन ऊपर बैठते थे, चामर होते थे, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिर ऊपर तीन छत्रथे, इत्यादि कितनीक संपदा थी, तो वो अवस्था त्यागीकी हैं कि भोगीकी ? जो त्यागीहै तो चमरादि क्यों ? और भोगी है तो त्यागी क्यों कहते हो ? इसमें समझनेका तो यही है कि भगवंत तो त्यागी ही हैं, परंतु भक्तिभावसे चामरादि करते हैं, ऐसे ही जिनप्रतिमाकी भी भक्तजन पूजा करते हैं तो उसको देखे के ढूंढियोंके हृदयमें त्यागी भोगीका शूल क्यों उठता ? जेठा लिखता है कि “भगवंतको त्यागी हुई वस्तुका तुम भोग कराते हो तो उसमें पाप लगताहै तथा इसबाबत अनाथी मुनिका दृष्टांत लिखा है, परंतु उसदृष्टांतका जिनप्रतिमाके साथ कुछभी संबंध नहीं है, क्योंकि जिनप्रतिमा है सो स्थापनातीर्थकर है उसको भोगने न भोगने से कुछ भी नहीं हैं, फक्त करने वालेकी भक्ति है, त्यागी हुई वस्तु नहीं भोगनी सो तो भावतीर्थकर आश्री बात है, इसवास्ते यह बात वहाँ लिखनेकी कुछभी जरूरत नहीं थी,तोभी जेठे ने लिखी है सो वृथा है, वस्त्र बाबत जेठने इस प्रश्नोत्तरमें फिर लिखा है,सो इसका प्रत्युत्तर द्रौपदीके अधिकारमें लिखा गया है इसवास्ते यहां नहीं लिखते हैं। जेठेने लिखा है कि "जिनप्रतिमा जिन सरीखी है, तो भरत ऐरावतमें पांचवें आरे तीर्थकरका विरह क्यों कहाहै ?"उत्तर यह लेखभीजेठेकी बेसमझीका है,क्योंकि विरह जो कहाता है सो भावतीर्थंकर आश्री है जेठा ढूंढक लिखता है कि "एक क्षेत्रमें दो इकठे नहीं होवें, होवें तो अच्छेरा कहाजावे, और तुमतो बहुत तीथंकरोंकी प्रतिमा एकत्र करते हो" उत्तर-मूर्ख जेठको इतनी भी समझ नहीं थी कि दो तीर्थकर एकटे नहीं होनेकी बात तो भाव तीर्थंकर आश्री है और हम जो जिन प्रतिमा एकही स्थापत हैं सो Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२ ) स्थापना तीर्थंकर है, जैसे सर्व तीर्थंकर निर्वाणपदको पाकर सिद्ध होत े हैं तब वे द्रव्य तीर्थंकर होए हुए अनंत इकट्ठे होत े हैं त से स्थापनातीर्थंकर भी इकट्ठे स्थापे जाते हैं, तथा सिद्धायतनका विस्तारसे अधिकार श्रीजावाभिगम सूत्रमें कहा है, वहां भी एक सिद्धायतनमें एक सौ आठ जिनप्रतिमा प्रकटतया कही हैं, इस वास्ते जेठेका लिखा यह प्रश्न बिलकुल असत्य है, जेकर स्थापनासे भी इका होना होवे तो जंबूद्वीप में (२६९) पर्वत न्यारे न्यारे (जुदे जुदे) ठिकान हैं, उन सबको मांडलेमें एकत्र करकेअरेढूंढियों ! पोथी में क्यों बांधी फिरत हो ? तथा वो चित्राम लोगोंको दिखाते हो, समझाते हो, और लोग समझत े भी हैं, तो वे पर्वत जुदे २ हैं और शाश्वती वस्तुओं के एकत्र होने का अभाव है तो तुम इकट्ठे क्यों करते हो सो बताओ ? जेठा लिखता है कि "तीर्थंकर यहां विचरे वहां मरी और स्वचक परचक्रका भय न होवे तो जिन प्रतिमाके होते हुए भय क्यों होता है ? " - इसतरहके कुवचनों करके जेठा और अन्य ढूंढिये जिनप्रतिमाका महत्व घटाना चाहते हैं, परंतु मूर्ख ढूंढिये इतना भी नहीं समझते हैं कि वे अतिशय तो सिद्धांतकार ने भावतीर्थंकर के कहे हैं, और प्रतिमातो स्थापना तीर्थंकर है; इस वास्ते इस बाबत तुमारी कोई भी कुयुक्ति चल नहीं सक्ती है ॥ इति ॥ ४२-ढूंढक मतिका गोशालामती तथा मुसलमानोंके साथ मुकाबला । ४२ में प्रश्नोत्तर में जेठे निन्हवने जैन संवेगी मुनियों को गोशाले समान ठहराने वास्ते ( ११ ) बोल लिखे हैं परंतु उनमें से एक Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोल भी जैन संवेगी मुनियोंको नहीं लगाता है, वे सर्व बोल तो ढूंढियोंके ऊपर लगते ह और इससे वे गोशालामति समान हैं ऐसे निश्चय होता है। (१) पहिले बोलमें जेठेने मूर्खवत् असंबद्ध प्रलाप करा है, परंतु उसका तात्पर्य कुछ लिखा नहीं है, इसबास्ते उसके प्रत्युत्तर लिखनेकी कुछ जरूरत नहीं है। ... (२) दूसरे बोलमें जेठा लिखता है कि-"ढूंढियोंको जैनमुनि तथा-श्रावक सताते हैं"उत्तर-जेले सूर्य को देखके उल्लूकी आंखें बंद हो जाती हैं,और उसके मनको दुःख उत्पन्न होता है तैसेही शुद्ध साधुको देखके गोशालामति समान ढूंढियोंके नेत्र मिलजाते हैं, और उनके हृदय में स्वमेव सताप उत्पन्नहोता है, मुनिमहाराजा किसीको संताप करनेका नहीं इच्छते हैं,परंतु सत्यके आगे असत्य का स्वयमेव नाश होजाता है। (३) तीसरे बोलमें "जैनर्मियोंने नये ग्रंथ बनाये हैं। ऐसे , जेठा लिखता है, परंतु जो जो ग्रंथ बने हैं, वो सर्व ग्रंथ गणधर महाराजा,पूर्वधारो तथा पूर्वाचार्योंकी निश्रायसे बने हैं,और उनमें कोई भी बात शास्त्रविरुद्ध नहीं है; परंतु इंढियोंको ग्रंथ वाचने ही नहीं आते हैं तो नये बनाने की शक्ति कहां से लावें ? फकत ग्रंथकर्ताओंकी कीर्ति सहन नहीं होनेसे जेठेने इसतरह लिखके पूर्वाचार्यों की अवज्ञा करी है। (१)चौथेबोलमें"मंत्रजंत्रज्योतिष वेदक करके अजीविका करते हो" ऐसे जेठेने लिखा है, ओ असत्य है क्योंकि संवेगी मुनि तो मंत्र जंत्रादि करते ही नहीं है ढूंढियेसाधु मंत्र,जत्र,ज्योतिष,वैद्यक Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) वगैरह करते हैं नाम लेकर विस्तारसे प्रथम प्रश्नोत्तरमें लिखा गया है इसवास्ते ढूंढियोंका मत आजीविकमत ठहरताहै। . (५) पांचवें बोलमें “१४४४-बौद्धोंको जलादिया" ऐसे जेठा लिखता है, परंतु किसीभी जैनमुनिने ऐसा कार्य नहीं करा है और किसी ग्रंथमें जलादिये ऐसे भी नहीं लिखा है, 'इसवास्ते जेठेका लिखना झूठ है, जेठा इसतरह गोशालेके साथ जैनमतिकी सादृश्यता करनी चाहता है, परंतु सो नहीं होसक्ता है, किंतु ढूंढिये वासी सड़ा हुआ आचार, विदल वगैरह अभक्ष्य वस्तु खाते हैं,जिससे बेइंद्रिय जीवोंका भक्षण करते हैं इससे इनकीतो गोशाला मतिके साथ सादृश्यता होसक्ती है। (६) छठे बोलमें “गोशालेको दाह ज्वरहुआ तब मिट्टी पाणी छिटकाके साता मानी" एसे जेठा लिखता है। उत्तर-यह दृष्टांत जैनमुनियोंको नहीं लगता है, परंतु ढूंढियों से संबंध रखता है । क्योंकि ढूंढिये लघुनीति (पिशाब) से गुदा प्रमुख धोते हैं और खुशीयां मनाते हैं ॥ (७) सातवें बोलमें जेठा लिखताहै कि गोशालेने अपना नाम तीर्थंकर ठहराया अर्थात् तेईस होगये और चौबीसवां मैं ऐसे कह इसीतरह जैनधर्मीभी गौतम, सुधर्मा, जंबू वगैरह अनुक्रमसं पाट बताते हैं" उत्तर-जेठेका यह लेखस्वयमेव स्खलनाको प्राप्त होता है, क्योंकि गोशाला तो खुद वीर परमात्माका निषेध करके तीर्थंकर बन बैठा था, और हम तो अनुक्रमसे परपराय पाटानुपाट ...यह तो प्रकट ही है कि जब रात्रिको पानी नहीं रखते तो कभी बड़ी नीति (पाखाना) हो तो जकर पियाब से ही गदा धोकर अशुचि टालते होंगे । बलिहार इसीतरह हराया अर्थात् तसा लिखनाहै कि गोली इस शुचिके। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26 ) वताके शिष्यपणो धारण करते हैं, इसवास्ते हमारी बाततो प्रत्यक्ष सत्य है; परंतु ढूंढकमती जिनाज्ञा रहित नवीन पंथके निकालनेसे गोशाले सदृश सिद्ध होते हैं। (८) आठमें बोलमें जेठा लिखता है कि "गोशालेने मरने समय कहा कि मेरा मरणोत्सव करीयो और मुझे शिबिकामें रखकर निकालियो, इसीतरह जैनमुनि भी कहते हैं" उत्तर-जेठेका यह लिखना बिलकुल झूठ है, क्योंकि जैनमुनि ऐसा कभी भी नहीं कहते हैं; परंतु ढूंढियेसाधु मर जाते हैं तब इसतरह करनेका कह जाते होंगे कि मेरा विमान बनाके मुझे निकालीयो,पांच इंडे रखीयो इसवास्तेही जेठे आदि ढूंढियोंको इसतरह लिखनेका याद आगया होगा ऐसे मालूम होता है, इंद्रने जिस तरह प्रभुका निर्वाण महो त्सव करा है जैनमति श्रावक तो उसीतरह अपने गुरुकी भक्तिके निमित्त स्वेच्छासे यथाशक्ति निर्वाणमहोत्सव करते हैं । (९) नवमें बोलमें स्थापना असत्य ठहराने वास्ते जेठेने कु. युक्ति लिखी है, परंतु श्रीठाणांगसूत्र वगैरहमें स्थापना सत्य कही है । तोभी सूत्रोंके कथनको ढूंढिये उत्थापते हैं इसलिये वह गोशालेमती समान हैं ऐसे मालूम होता है ॥ (१०) दशमें बोलमें जेठा लिखता है कि "क्रिया करने से मुक्ति नहीं मिलती है, भवस्थिति पकेगी तब मुक्ति मिलेगी, ऐसे जैनधर्मी कहते हैं” यह लेख मिथ्या है, क्योंकि जैनमुनि इसतरह नहीं कहते है । जैनमुनियोंका कहना तो जैनसिद्धांतानुसार यह है कि ज्ञान सहित क्रिया करनेसे मोक्ष प्राप्त होता है, एरनु जो एकांत खोटी क्रियासही मोक्षमानते हैं वो जैनसिद्धांतकी स्याद्वाद Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) शैलिसे विपरीत प्ररूपणा करने वाले हैं, और इसीवास्ते ढूंढिये गोशालामतीसह सिद्ध होते हैं | (११) ग्यारह में बोल में जेठा लिखता है कि “जैनधर्मी जिनप्रतिमाको जिनवर सरीखी मानते हैं इससे ऐसे सिद्ध होता है कि अजिनको जिनतरीके मानते हैं" उत्तर - पुण्यहीन जेठेका यह लेख महामुर्खता युक्त है, क्योंकि सूत्रमें जिनप्रतिमा जिनवर सरीखी कही है, और हम प्रथम इसबाबत विस्तारसे लिख आए हैं; जब इंढिये देवीदेवलाकी मूर्त्तियों को तथा भूतप्रेतको मानते हैं, तो मालूम होता है कि फकत जिनप्रतिमाके साथ ही द्वेष रखते हैं, इससे वे तो गोशालामतिके शरीक सिद्ध होते हैं ॥ ऊपर मूजिब जेठेके लिखे (११) बोबों के प्रत्युत्तर हैं । अंब ढूंढिये जरूरही गोशाले समान हैं यह दर्शाने वास्ते यहां और (११) बोल लिखते हैं | (१) जैसे गोशाला भगवंतका निंदक था, तैसे ढूंढियेभी जिन प्रतिमाके निंदक हैं | (२) जैसे गोशाला जिनवाणीका निंदक था, तैसे ढूंढियेभी जिनशास्त्रोंके निंदक हैं ॥ (३) जैसे गोशाला चतुर्विधसंघका निंदक था, तैसे ढूंढिये भी जैनसंघ निंदक हैं ॥ (४) जैसे गोशाला कुलिंगी था, तैसे ढूंढिये भी कुलिंगी हैं। क्योंकि इनका वेष जैनशास्त्रोंसे विपरीत है ॥ (५) जैसे गोशाला झूठा तीर्थंकर बन बैठा था, तैसे ढूंढियेभी खोटे साधु बन बैठे हैं ॥ -(६) जैसे गोशालका पंथ सन्मूच्छिम था बैसे ढूंढियोंका पंथ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) भी सन्मूछिम है क्योंकि इनकी परंपराय शुद्ध जैनमुनियों के साथ नहीं मिलती है। (७): जैसे गोशाला-स्वकपोलकल्पित वचन बोलता था, तैसे इंढिये भी स्वकपोलकल्पित शास्त्रार्थ करते हैं।-- " .. (८) जैसे गोशाला धूर्त था, तैसे ढूंढिये भी धूर्त हैं। क्योंकि यह भद्रिक जीवोंको अपने फंदेमें फंसाते हैं। . . . . .... . (९)जैसे गोशाला अपने मन में अपने आपको झूठा जानता था परंतु बाहिर से अपनी रूढी तानता था, तैसे कितनेक दंढियेभी अपने मनमें अपने मतको झूठा जानते हैं परंतु अपनी रूढीको नहीं छोड़ते॥ - (१०) जैसे गोशालेके देवगुरु नहीं थे, तैसे ढूंढियोंकेभी देवगुरु नहीं हैं । क्योंकि इनका पंथतो गृहस्थीका निकाला हुआ है। -- (११) जैसे गोशाला महा अविनीत था,तैसे ढूंढियेभी जैनमत में महा अविनीत हैं । इत्यादि अनेक बातोंसे ढूंढिये गोशाले सुल्य सिद्ध होते हैं । तथा ढूंढिये कितनेक कारणोंसे मुसलमानों सरीखे भी होसक्ते हैं, सो वह लिखते हैं। ____(१) जैसे मुसलमान नीला तहमत पहनते हैं, तैसे कितनेक ढूंढिये भी काली धोती पहनते हैं ।। (२) जैसे मुसलमानोंके भक्ष्याभक्ष्य खानेका विवेक नहीं है, तैसे ढूंढियेके भी वासी, संधान (आचार) वगैरह अभक्ष्य वस्तुके. भक्षणका विवेक नहीं है ॥ (३) जैसे मुसलमान मूर्तिको नहीं मानते हैं, तैसे ढूंढियभी जिनप्रतिमाको नहीं मानते हैं । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( शब्द ) (४) जैसे मुसलमान पैरोंतक धोती करते हैं, तैसे ढूंढिये भी पैरोंतक धोती (चोलपट्टा) करते हैं ॥ (५) जैसे मुसलमान हाजीको अच्छा मानते हैं, तैसे ढूंढिये भी वंदना करने वालेको 'हाजी' कहते हैं ॥ (६) जैसे मुसलमान लसण डुंगली अर्थात् प्याज कांदा गंडे खाते हैं, तैसे ढूंढिये भी खाते हैं ॥ (७) जैसे मुसलमानोंका चालचलन हिंदुओंसे विपर्यय है, तैसे ढूंढियों का चालचलन भी जैनमुनियों से तथा जैनशास्त्रों से विपरीत है ॥ (८) जैसे मुसलमान सर्व जातिके घरका खा लेते हैं, तैसे ढूंढिये भी कोली, भारवाड़, छींबे, नाई, कुम्हार वगैरह सर्व वर्णका | खाते हैं । 4 -इत्यादि बहुत बोलों करके ढूंढिये मुसलमानों के समान सिद्ध होते हैं । और ढूंढियेश्रावक तो स्त्रीके ऋतुके दिन न पालने से उन से भी निषिद्ध सिद्ध होते हैं* ॥ ॥ इति ॥ (४३) मुंह पर मुहपत्ती बंधी रखनी सो कुलिंग है इसबाबत । ४३ में प्रश्नोत्तर में मुंहपर मुहपत्ती बांध रखनी सिद्ध करने वास्ते जेठने कितनी युक्तियां लिखी हैं, परंतु उन्हीं युक्तियोंसे वो झूठा होता है, और मुहपत्ती मुंहको नहीं बांधनी ऐसे होता है । क्योंकि जेठेने इसबाबत मृगाराणीके पुत्र मृगालोढीएको देखने * ढूंढनियां अर्थात् ढूंढक साध्वीयां- धारना भी ऋतुके दिन नहीं पालती हैं ! Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८ ) वास्ते श्रीगौतमस्वामी को जानेका दृष्टांत दिया है, तो उस संबंध में श्रीविपाकसूत्रमें खुलासा पाठ है कि मृगाराणीने श्रीगौतमस्वामी को कहा कि : "तुगां भंते मुहपत्तियाए मुहं बंधह" - अर्थ- तुम हे भगवान्! मुख वस्त्रिका करके मुख बांध लेवो इस पाठसे सिद्ध है कि गौतमस्वामीका मुख मुखवस्त्रिका करके बांधा हुआ नहीं था, इससे विपरीत ढूंढिये मुख बांधते हैं औरवह विरुद्धाचरणके सेवन करने वाले सिद्ध होते हैं। जेठा लिखता है " जो गोतमस्वामीने उस वक्तही मुहपती वांधी तो पहिले क्या खुले मुखसे बोलते थे ? " उत्तर - अकलके दुइन ढूंढियो में इतनी भी समझ नहीं है कि उघाडे (खुले ) मुखसे बोलतथे ऐसे हम नहीं कहते हैं, परंतु हम तो मुहपत्ती मुखके आगे हस्तमें रख कर यत्नों से वोलते थे ऐसे कहते हैं श्रीअंगचूलिया सूत्रमें दीक्षाके समय मुहपत्ती हाथमें देनी कही है यतः तओ सूरिहं तदानुणएहिं पिट्टोवरि परि विठ्ठिएहिं रहरणं ठावित्ता वामकरानामियाए मुहपत्तिलवंधरित्तु ॥ अर्थ-तत्र आचार्यकी आज्ञा के होये हुए कूणी ऊपर रजोहरण रखे, रजो हरण की दशीयां दक्षिण दिशी (सज्जे पासे) रखे, और वामें हाथमें अनामिका अंगुली ऊपर लाके सुहपत्ती धारण करे । पूर्वोक्त सूत्रमें सूत्रकारने, मुहपत्ती हाथ में रखनी कही है, परंतु मुंहको बांधनी नहीं कही है, ढूंढिये मुंहपत्ती मुंह को बांधते हैं W Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) परंतु " लइ सुत्ता गहिय सुत्ता?" ऐसे नहीं कहा है तथा श्री व्यवहारसूत्र के दशमें उद्देशे में कहा है यतः तिवास परियागस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारकप्पे नामंअभ्यणे उद्दिसित्तएवाचउवास परियागस्स निग्गंधस्स कप्पति सूयगडे नामं अंगे उद्दित्तिए पंचवासपरियागस्स समणस्स कप्पति दसाकप्पववहारा नामकयणे उद्दिसित्तए अट्ठवास परियागस्स समणस्स कम्पति ठाण समवाए नामं अंगे उहिसितर दसवास परियागस्स कंप्पति विवाहेनाम अंगे उद्दिसित्तए एक्कारस वास परियागस्स कप्पति खुड्डियाविमाणपविभत्ति महल्लिया विमाणपविभत्ति अंगचूलिया वग्गचूलिया विवाहचूलिया नामं उहिसित्तए बारसवास परियागस्स कम्पति अरुणोववाए वरुणोववाए गरुलोववाए धरणोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए अभ्यर्ण उद्दित्तिए तेरसवास परियाए कप्पति उट्ठाण सुए समुट्ठाण सुए देविदोaare नागपरियावलिया नाम अभ्यणे Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) उद्दिसित्तएचउदसवास कप्पतिसुवरण भावणा नामं अझयणं उद्दिसित्तए पन्नरसवास० कप्पति चारणभावणानाम अझयणे उद्दिसित्तए सोलसवास कप्पति तेयणिसग्गं नामं अझयण उद्दिसित्तए सत्तरसवास कप्पति आसीविस नामंअझयणे उद्दिसित्तए अट्ठारस वास कप्पति दिठिविसभावणानाम अझयण उद्दिसित्तए एगुण वीसइवास परियागस्स कप्पति दिठिवाए नाम अंगेउद्दिसित्तए वीस वास परियाए समणे निग्गंथे सव्वसूआण वाइ भवति॥ ' अर्थ-तीन वर्षकी दीक्षापर्यायवाले साधुको आचारप्रकल्प अर्थात् आचारांगसूत्र पढ़ना कल्प है,चारवर्षकी दीक्षावालेको श्रीसूयगडांग सूत्र पढ़ना कल्पे है,पांच वर्षके दीक्षितको दशा कल्प तथा व्यवहार अध्ययन पढ़नेकल्प हैं,आठ वर्षकी पर्यायवालेकोठाणांगसमवायांग पढ़ना कल्पे हैं,दशवर्षकी पर्यायवालेको श्रीभगवतीसूत्र पढ़ना कल्पे है,इग्यारह वर्षकी पर्यायवालासाधुखुड्डियाविमान प्रविभक्ति,महल्लिया विमानप्रविभक्ति, अंगचूलिया, वग्गचूलिया और विवाहचूलिया पढे बारह वर्षकी पर्यायवाला अरुणोपपात,वरुणोपपात,गरुडोपपात, धरणोपपात,वैश्रमणोपपात और वेलंधरोपपात पढे,तरांवर्षकीपर्याय वाला उवहाणभूत समुट्ठाणश्रुत देवेंद्रोपपातऔरनागपरियावलिया Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) अध्ययन पढ़े चौदह वर्षकी पर्यायवाला सुवर्णभावना अध्ययन पड़े, पंदरह वर्षकी पर्यायवालाचारणभावना अध्ययन पढे,सोलह वर्षकी पर्यायवाला तेयनिसग अध्ययन पढे, सतरह वर्षकीपर्यायवाला आशीविष अध्ययन पढे, अठारह वर्षकी पर्यायवाला दृष्टिविष भावना अध्ययन पढे, उन्नीस वर्षकी पर्याय वाला दृष्टिवाद पढे. और वीस वर्षकी, पर्यायवाला सर्व सूत्रों का वादी होवे। - मूढमति ढूंढिये कहते हैं कि श्रावक सूत्र पढ तो उन श्रावकोंके चारित्रकी पर्याय कितने कितने वर्षकी हैसो कहो ? अरे मूढमतियो! इतनाभी विचार नहीं करते हो कि सूत्रमें साधुकोभी तीनवर्ष दीक्षा पर्याय पीछे आचारांग पढ़ना कल्पे ऐसे खुलासा कहा है तो श्रावक सर्वथाही न पढे. ऐसा प्रत्यक्ष सिद्ध होता है। - - - - .... श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्रके दूसरे संवरद्वारमें कहा है कि-." तंसच्चं भगवंत तित्थगर सुभासियं दसविहं चउदस पुन्वीहिं पाहुडत्थवेइयं महरिसि गय समयप्प दिन्नं देविंद नरिंदे भासियत्थं। भावार्थ यह है कि भगवंत वीतरागने साधु सत्य वचन जाने और बोले इसवास्ते सिद्वांत उनको दिये,और देवेंद्र तथा नरेंद्र को सिद्धांतका अर्थ सुनके सत्य वचन बोलें इसवास्ते अर्थ दिया इस पाठमेंभी खुलासा साधुको सूत्रपढ़ना और श्रावकको अर्थसुनना एसे भगवंतने कहाहे जेठा-लिखनाहै कि श्रावक सूत्र वांचे तो अनंत संसारी हो। ऐसा पाठ किस सत्रमें है ?” उत्तर- श्रीदशकालिक सूत्रके षट्जीवनिका नामा चौथे अध्ययन तक श्रावक पढे, आगे नहीं; ऐसे श्री आवश्यकसूत्र में कहाहै इसके उपरांत आचारांगादि Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रोंके पढ़नेकीआज्ञाभगवंतने नहीं दी है, तोभी जोश्रावक पढ़ते हैं वे भगवंतकी आज्ञाका भंग करते हैं, और आज्ञा भंग करनेवाला यावत् अनंत संसारी होवे ऐसे सूत्रोंमें बहुत ठिकाने कहा है, और ढूंढिये भी इस बातकों मान्य करते हैं; जेठा लिखनाहै कि"श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमें श्रावकको 'कोविद' , कहा है,तो सूत्र पढे. विना कोविद कसे कहा जावे ?" - उत्तर-कोविद का अर्थ 'चतुर-समझवाला' ऐसा होता है तो श्रावक जिनप्रवचन में चतुर होता है, परंतु इससे कुछ सूत्र पढे हुए नहीं सिद्ध होते हैं जेकर सूत्र पढे होवे तो अधित" क्यों नहीं कहा ? जेठा मंदमति लिखता है कि "श्रीभगवती सूत्रमें केवली प्रमुख दशके समीप केवली प्ररूप्या धर्म सुनके केवलज्ञान प्राप्त करे उनको 'सुच्चा केवली' केवली कहीये ऐसे कहा है उन दश बोलोंमें श्रावक श्राविका भी कहे हैं तोउनके मुखसे केवली प्ररूप्या धर्म सने सो सिद्धांत या अन्य कुछहोगा?इसवास्तसिद्धांत पढनेकी आज्ञासबको मालूमहोती है"उत्तर-सिद्धांत वांचके सुनाना उसका नामही फकत केवला प्ररूप्या धर्म नहीं है परंतु जो भावार्थ केवली भगवंतने प्ररूप्या है सो भावार्थ कहना उसका नाम भी केवली प्ररूप्या धर्मही कहलाता है इसवास्ते जेठेकी करी कल्पना असत्य है तथा श्रीनिशीथ सूत्र में कहा है किसे भिक्खुअण्णउत्थियंवा गारत्थियंवावाए वायंतंवा साइजजडू तस्सणं चउमासियं ॥ - अर्थ-जो कोई साधु अन्य तीर्थ को वांचना देवे,तथा गृहस्थी को वांचना देवे अथवा वांचना देतां साहाय्य देवे,उसको चौमासी प्रायश्चित आवे ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८० ) इस बाबत जेठा लिखता है कि इस पाठमें अन्य तीर्थी तथा अन्य तीर्थीके गृहस्थ का निषेध है, परंतु वो मूर्ख इतना भी नहीं समझा है कि अन्य तीर्थीके गृहस्थ तो अन्य तीर्थीमें आगये तो फेर उसके कहने का क्या प्रयोजन ? इसवास्ते गृहस्थ शब्दसे इस . पाठमें श्रावकही समझने।। जेकरश्रावक सूत्रपढ़ते होवें तो श्रीठाणांग सूत्रके तीसरे ठाणेमें साधुके तथा श्रावकके तीन तीन मनोरथ कहे हैं, उनमें साधु श्रुत पढ्नेका मनोरथ करे ऐसे लिखा है, श्रावक श्रुतपढ़नेको मनोरथ नहीं लिखा है, अब विचारना चाहिये कि श्रावक सूत्र पढ़ते हो। तो मनोरथ क्यों न करें ? सो सूत्रपाठ यह है.-यत: तिहिं ठाणे हिं समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवडू कयाणं अहं अप्पंवा बहुं वा सुअंअहिज्जिस्सामि कयाणं अहं एकल्लविहारं पडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरिस्सामि कयाणं अहं. अपच्छिममारणंतियं संलेहणा झसणा झसिए भत्तपाण पडियाइक्खिए पाओवगमं कालमणवक्कखेमाणे विहरिस्सामि एवं समणसा सवयसा सकायसा पडिजागरमाणे निग्गंथे महाणि ज्जरे पज्जवसाणे भव॥ अर्थ-तीनस्थानके श्रमणनिग्रंथ महानिर्जरा और महापर्यवसान Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) करे (वें तीन स्थान कहते हैं) कब मैं अल्प (थोड़ा) और बहुत श्रृंत सिद्धांतपढूंगा? १, कब मैं एकल्लविहारी प्रतिमा अगीकार करके विचरूंगा?२,और कब मैं अंतिममारणांतिक संलेषणा जोतप उस कासेवन करके रुक्षहोकरभातपाणीका पञ्चक्खाण करके पादोपगमअनशन करके मृत्युकी वांच्छा नहीं करताहुआ विचरूंगा?- ३,इस. तरह साधु मन वचन काया तीनों करण करके. प्रतिजागरण करता हुआ महा निर्जरा पर्यवसान करे॥ अब श्रावक के तीन मनोरथों का पाठ कहते हैं। तिहिं ठाणेहिं समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवई तंजहा कयाणं अहं अप्पंवा बहुंवा परिग्गहं चइस्सामि कयाणं अहं मुंडेभवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्व इस्सामि कयाणं अहं अपच्छिममारणंतियं संलहणा झसिय भत्तपाणपडिया इक्खिए पाओवगमं कालमण वक्कंखेमाणे विहरिस्सा मि एवं समणसा सवयसा सकायसा पडिजागर माण समनोवासए महाणिज्जरे महापज्जव साणे भवई ॥ ... अर्थ-तीन स्थान के श्रावक महा निर्जरामहा पर्यवसान करें तद्यथा कब मैं धन धान्यादिक नव प्रकार का परिग्रह थोड़ा और बहुता.त्यागन करूगा? १, कब में मुंड होकर आगार जो गृहवास Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८ ) उसको त्यागके अणगारवास साधुपणा अंगीकार करूंगा? २, तीसरी संलेषणाकामनोरथ पूर्ववत् जानना। .. इससेभी ऐसे ही सिद्ध होता है कि श्रावक सूत्र वांचे नहीं इत्यादि अनेक दृष्टांतों से खुलासा सिद्ध होता है कि मुनि सिद्धांत पढें और मुनियों को ही पढ़ावें,श्रावकों को तो आवश्यक, दशकालिकके चार अध्ययन और प्रकरणादि अनेक ग्रंथ पढ़ने,परंतु श्रावकको सिद्धांत पढनेकी भगवंतने आज्ञा नहीं दी है ॥ इति ॥ o casokacaco.. - (४६) दंढिये हिंसा धर्मों हैं इस बावत। इस ग्रंथको पूर्ण करते हुए मालूम होता हैकि जेठे ढूंढकको बनायां समकितसार नामा ग्रंथ गोंडल (सूवा काठीयावाड) वाले कोठारी नेमचंद हीराचंदने छपवाया है उसमें आदिसे अंततक जैन शास्त्रानुसार 'और जिनाज्ञा मूजिव वर्त्तने वाले परंपरागत जैन मुनि तथाश्रावकोंको(हिंसा धर्मी)ऐसाउपनाम दियाहै औरओप देया धर्मीवनगये हैं,परंतुशास्त्रानुसारदेखनेले तथा इनढूंढीयोंका आचार व्यवहार,रीतिभांति और चालचलन देखनेसे खुलासा मालूमहोता है कि यह ढूंढीयेही हिंसाधर्मी हैं और दयाका यथार्थ स्वरूप नहीं समझते हैं। . सामान्यदृष्टिसे भी विचार करें तो जैसे गोशाले जमालि प्रमुख कितनेक निन्हवोंने तथा कितनेक अभव्य जीवोंने जितनी स्वरूपदया पाली है । उतनी तो किसी ढूंढेकसे भी नहीं पल सक्ती है; फकत मुंह से दया दया पुकारना ही जानते हैं, और जितनी थह स्वरूपदया पालते हैं उतनी भी इनको निन्हवोंकी तरह जिनाज्ञाके विराधक होने से हिंसाका ही फल देनेवाली है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६. ) . निन्हवों ने तो भगवतका एक एकही वचन उत्थाप्या है और उन को शास्त्रकारने मिथ्यादृष्टि कहा है यत :· पयमक्खरंपि एक्कंपि जो नरोएइ सुत्तनिद्दिठं। सेसं रोयंती विहु मिच्छदिठी जमालिव्व ॥१॥ ___ मूढमति ढूंढियोंने तो भगवंतके अनेक वचन उत्थापे ह, स्त्र विराधे हैं,सूत्रपाठ फेरदिये हैं, सूत्रपाठ लोपे हैं,विपरीत अर्थ लिखे हैं, और विपरीत ही करते हैं; इसवास्ते यह तो सर्व निन्हवोंमें शिरोमणि भूत हैं। ___ अब ढूंढिये दयाधर्मी बनते हैं परंतु वे कैसी दया, पालते हैं, गरज दयाका नाम लेकर किस किस तरहकी हिंसा करते हैं, सो दिखानेवास्ते कितनेक दृष्टांत लिखके वे हिंसाधर्मी हैं, ऐसे सत्यासत्य के निर्णय करने वाले सुज्ञपुरुषोंके समक्ष मालूम करते हैं। (१) सूत्रोंमें उष्णपाणीका स्यालमें तथा चौमासेमें जुदाजुदा काल कहा है,उस काल के उपरांत उष्ण पाणी भी सचित्तपणेका संभव है,तो भीढूंढीये कालके प्रमाण विना पाणीपाते हैं इसवास्ते काल उल्लंघन करा पाणी कच्चाही समझना * ॥ - (२) रात्रिको चुल्हे पर धरा पाणी प्रातः को लेकर पीते हैं, जो पाणी रात्रि को चुल्हा खुला न रखने वास्ते धरने में आता है (प्रायः यह रिवाजगुजरात मारवाड़ काठीयावाड़ में है)जोकि गरम तो क्या परंतु कवोष्ण अर्थात् थोडासा गरम होना भी असंभव है इस वास्ते वो पाणी भी कच्चा ही समझना ॥ ' .. * टूढीये धोवणका पाणी शास्त्रोक्त मर्यादारहित कच्चाही पीते हैं। ' - - Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) " (३) कुम्हार के घर से मिट्टी सहित पाणी लाकर पीते हैं जिसमें मिट्टी भी सचित्त और पाणी भी सचित्त होनेसे अचित्त तो क्या होना है परंतु जेकर अधिक समय जैसेका वैसा पड़ा रहे तो उसमें वेइंद्रि जीवकी उत्पत्ति होने का संभव है। (१) पाथीयां थापनेका पाणी लाकर पीते हैं जोकि अचित्त तो नहीं होता है परंतु उसमें बेइंद्रि जीवकी उत्पत्ति हुई दृष्टि गोचर होती है। __ (५) स्त्रियोंके कंचुकी (चोली) वगैरह कपड़ोंका धोवण लाकर पीते हैं जिसमें प्रायः जूवां अथवा मरी हुई जूबांके कलेवर होने का संभव है ऐसा पाणी पीनेसे ही कई रिखों को जलोदर होने का समाचार सुणने में आया है। * (६) पूर्वोक्त पाणीमें फकत एकेंद्रि का ही भक्षण नहीं है,परंतु बेइंद्रिका भी भक्षण है क्योंकि ऐसे पाणी में प्रायः पूरे निकलते हैं तथापि ढूंढियोंको इस वातका कुछभी विचार नहीं है । देखोइनका दया धर्म !!! (७) गत दिनकी अथवा रात्रिकीरखी अर्थात वासी,रोटी,दाल, खीचड़ी वगैरह लाते हैं और खाते हैं। शास्त्रकारोंने उसमें बेइंद्रि जीवोंकी उत्पत्ति कही है। (८) मर्यादा उपरांतका सड़ा हुआ आचार लाकर खाते हैं, उसमें भी बेइंद्रि जीवोंकी उत्पत्ति कही है। 'झूठे वर्तनों का धोव'प,अन्तवार्ड की कडायोंका पाणी जिसमेसे कई दफा कुत्ते भी पीनाते हैं जिसमें मरी हुई ममिया भी होती हैं,मुना के कुंडों का पाणी जिसमें गहने पादि धोये नाते प्रतारो के परकनिकालने का पानी इत्यादि अनेक प्रकारका गदा पापी भी लेते। ___ अठवर्तनों के धोषण में अन्नादिकी लाग होने से तथा बाटी पादिके पापी में पायपादिके मैल पादि पशुधि होनेसे सन्मूर्छिम पंचेंद्रि की भी खूब दया पतती है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) (९) विदल अर्थात कच्चीछास, कच्चादूध, तथा कच्चीदही में कठोल *खाते हैं, जिसको शास्त्रकारले अभक्ष्य कहा है और उसमें बेइंद्रि जीवकी उत्पत्ति कही है । ढूंढकोंको तो विदलका स्वाद अधिक आताहै क्योंकि कितनेक तो फकत मुफतकी खीचड़ी और छास वगैरह खानेके लोभसेही प्रायः ऋषजी बनते हैं,परंतु इससे 'अपने महाव्रतोंका भंग होता है उसका विचार नहीं करते हैं। (१०) पूर्वोक्त बोलोंमें दर्शाये मुजिब ढूंढीये वेइंद्रि जीवोंका 'भक्षण करते हैं देखीये इनके दयाधर्म की खूबी! . . (११) सूत्रों में बाईस अभक्ष्य खाने वर्जे हैं तो भी ढूंढियेसाधु तथा श्रावक प्रायः सर्व खाते हैं श्रीअंगचूलिया सूत्रके मूलपाठमें कहा है यतः एवं खलु जंबु महाणुभावहिं रिवरेहिं मिच्छत्तकुलाओ उस्सग्गोववाएणं पडिबोहिउण जिणमए ठाविया बत्तीस अणंतकाय भक्खणाओ वारिया महु मज्ज मंसाईबावीस 'अभक्खणाओ णिसेहिया ॥ . . - अर्थ-ऐसे निश्चय हे जंबु ! महानुभाव प्रधानाचार्योंने मिथ्यात्वीयों के कुलसे उत्सपिवाद करके प्रतिबोधके जिनमतमें स्थापन करे, बतीस अनंतकाय खानेसे हटाये, और सहत, शराब मांस वगैरह बाईस अभक्ष्य खानेका निषेध किया, शास्त्रकारोंने * जिस अनाजके दो फोड होजावें और जिसके पीडनेसे तेन्त न निकाले, ऐसा को कठोल; माह, मुगी, मोठ, चने, परवें,मैथे, मसर, हरर प्रादि मिस्सा अनाज, उसको विदल' संचाहै। . . . . .. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) वाईस अभक्ष्यमें एकेंद्रि, बेइंद्रि तेइंद्रि और निगोंदिये जीवोंकी उत्पत्तिकही है तोभी ढूंढीये इनको भक्षण करते हैं। - (१२) ढूंढीये अपने शरीरसे अथवा वस्त्रमेंसे निकली जूओंको अपने पहने हुए वस्त्रमेही रखते हैं जिनका नाश शरीरकी दाबसे प्रायःतत्कालही होजाता है यहभी दयाका प्रत्यक्ष नमूनाहै!! (१३) ढूंढीये साधु साध्वी सदा मुंहके मुखपाटीबांधीरखते हैं उसमें वारंवार बोलनेसे थूकके स्पर्शसे सन्मूर्छिम जीवकी उत्पत्ति होती है और निगोदिये जीवोंकी उत्पत्ति भी शास्त्रकारोंने कही है निर्विवेकी ढूंढीये इसवातको समझते हैं तोभी अपनी विपरीत रूढिका त्यागनहीं करते हैं इससे वे सन्मूर्छिम जीवकीहिंसा करने वाले निश्चय होते है॥.. (१४) कितनेक ढूंढीये जंगल जाते हैं तव अशुचिको राखमें मिला देते हैं जिसमें चूर्णिये जीवोंकी हिंसा करते हैं ऐसे जाननेमें आया है यही इनके दया धर्मकी प्रशंसाके कारण मालूम होते हैं! ... - (१५) ढूंढीये जब गौचरी जाते हैं तब कितनीक जगह के श्रावक उनको चौकसे दूर खड़े रखते हैं मालूम होताहै कि चौकमें आनसे वे लोक भ्रष्ट होना मानते होंगे,*.दूर खड़ा होकर रिखर्जा • सुझते हो ? ऐसे पूछकर जो देवे सो ले लेता है इससे मालूम हो ___ है कि ढूंढीये असूझता आहार ले आते हैं . . . - बेशक उन मतों की की बिलकन्त नादानी मालूम होती है जो इन को पपने चौके 'में पाने देते हैं क्योकि प्रथम तो इन टूटीरों में प्रायः जाति भातिका कुछ भी पररेज नही है, नाई, कुम्हार, छोये, झीवर वगैरह परेक जातिको साधु बना लेते हैं, दूसरे रापि पानी न होमेसे गुदा न धोते हो तो अशुचि ! ..... Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) (१६)खेंढीये शहत खा लेते हैं,परंतु शास्त्रकारने उसमें तद्वर्ण वाले सन्मूछिम जीवों की उत्पति कही है। ___(१७) ढूंढीये मक्खण खाते हैं उसमें भी शास्त्रकार ने तवणे जीवों की उत्पति कही है। . . (१८) ढूंढीये लसण की चटनी भावनगर आदि शहरोंमें दुकान दुकानसे लेते हैं देखो इनके दया धर्मकी प्रशंसा? इत्यादि अनेक कार्यों में ढूंढीये प्रत्यक्ष हिंसा करते मालूम होतेहै इसवास्ते दयाधर्मी ऐसा नाम धराना बिलकुल झूठा है थोडे. ही दृष्टांतोंसे बुद्धिमान और निष्पक्षपाती न्यायवान् पुरुष समझ जावेंगे और ढूंढीयोंके कुफंदे को त्याग देवेंगे ऐसे समझकर इसविषयको संपूर्ण करा है ॥ इति ॥ ग्रंथकी पूर्णाहुति । शार्दूल विक्रीडित वृत्तम् स्वांतं ध्वांतमयं मुखं विषमयं हग धूमधारामयी तेषांयननता स्तता नभगवन्मतिनवाप्रेक्षिता देवश्चारणपुंगवैः सहृदयै रानंदितवंदिता। येत्वेतां समुपासते कृतधियस्तेषां पवित्रजनुः॥१ भावार्थ-सम्यग्दृष्टि देवताओंने और जंघाचारण विद्याचार. णादि मुनि पुंगवोंने शुद्ध हृदय और आनंदकरके वंदना करी है जिसको, ऐसी श्रीजिनेश्वर भगवंतकी मृत्तिको जिन्होंने नमस्कार नहीं करा है, उनका स्वांत जो हृदय सो अंधकारमय है, जिन्होंने उसकी स्तुति नहीं करी है, उनका मुख विषमय है, और जिन्होंने Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) - मूर्त्तिका दर्शन नहीं करा है, उनके नेत्र धूयेंकी शिखा समान है; अर्थात् जिनप्रतिमासे विमुख रहने वालोंके हृदय, मुख और नेत्र निरर्थक हैं; और जो बुद्धिमान् भगवंतकी प्रतिमाकी उपासनाअर्थात् भक्ति पूजा प्रमुख करते हैं उनका मनुष्यजन्म पवित्रअर्थात् सफल है । इस पूर्वोक्त काव्य के सारको स्वहृदयमें आंकत करके और इस ग्रंथको आद्यंत पर्यंत एकाग्रचित्त से पढ़कर ढूंढकमती अथवा जो कोई शुद्धमार्ग गवेशक भव्यप्राणी सम्यक् प्रकारसे निष्पक्षपात दृष्टिसे विचार करेंगे तो उनको भ्रांतिसे रहित जैनमार्ग जो संवेग पक्ष में निर्मलपणे प्रवर्त्तमान है सो सत्य और ढूंढक वगैरह जिनाज्ञा से विपरीतमत असत्य है ऐसा निश्चय हो जावेगा; और ग्रन्थ बनाने का हमारा प्रयत्न भी तबही साफल्यताको प्राप्त होगा ॥ शुद्धमार्ग गवेशक और सम्यक्त्वाभिलाषी प्राणियोंका मुख्य लक्षण यही है कि शुद्ध देव गुरु और धर्मको पिछानके उनका अंगीकार करना और अशुद्ध देव गुरु धर्मका त्याग करना, परंतु चित्तमें दंभ रखके अपना कक्का खरा मान बैठके सत्यासत्यका विचार नही करना, अथवा विचार करनेसे सत्यकी पिछान होनेसे अपना ग्रहण किया मार्ग असत्य मालूम होनेसे भी उसको नहीं छोड़ना, और सत्यमार्गको ग्रहण नही करना, यह लक्षण सम्यक्त्व प्राप्तिकी उत्कंठावाले जीवोंका नहीं है, और जो ऐसे होवे, तो हमारा यह प्रयत्नभी निष्फल गिनाजाचे इसवास्ते प्रत्येक भव्य प्राणीको हठ छोड़के सत्यमार्गके धारण करनेमें उद्यत होना चाहिये ॥ यह ग्रन्थ हमने फक्त शुद्धबुद्धिसे सम्यकदृष्टिजीवों के सत्यासत्य के निर्णय वास्ते रचा है, हमको कोई पक्षपात नहीं है, और किसी पर द्वेषबुद्धि भी नहीं है इसवास्ते समस्त भव्यजीवों The ० Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) ने यह ग्रंथ निष्पक्षपणे लक्षमें लेकर इसका सदुपयोग करना, जिस सेवांचनेवालेकी और रचना करने वालेकी धारणा साफल्यताको प्राप्त होवे ॥ तथास्तु ॥ इति न्यायांभोनिधितपगच्छाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरि (आत्मारामजी) विरचितः सम्यक्त्वशल्योद्धार ग्रंथः समाप्तः ।। ---CAOENS Last Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((२८७ :) ..: . . ढूंढक पचविशी। श्रीजिनप्रतिमा स्युं नहीं रंग,तेनो कवु न कीजें संग; ए आंकणी. .. सरस्वती देवी प्रणभी कहेस्युं,जिनप्रतिमा अधिकार; नवी माने तस वदन चपेटा, माने तस शणगार । श्री जिन. १ केवल नाणी नहिं.चउनाणी, एणे समे भरत मोझार; जिनप्रतिमा जिन प्रवचन जिननो, ए मोटो आधार । श्री जिन० २१ एणे मुढे जिनप्रतिमा उथापी, कुमति हैया फुट; ते बिना किरिया हाथ न लागे; ते तो थोथा कुट । श्री जिन० ३१ जिनप्रतिमा दर्शनथी देसण, लहीये व्रत- मूल; तेहीज मूलकारण उथापे, शुं थयु ए जगशूल । श्री जिन० ४ । अभयकुमारे मुकी प्रतिमा, देखी आर्द्रकुमार; प्रति बुझ्या संजम लइ सीध्या,ते साचो अधिकार । श्रीजिन०५ प्रतिमा आकारे मच्छ निहाली, अवर मच्छ सवी बुझेसमकित पामे जाति स्मरणी, तस परवभव सूझे । श्री जिन०६। छठे अंगे ज्ञाता सूत्रे द्रौपदिए जिन पूज्या; एवा अक्षर देखे तोपिण,मूढमति नवी बुझ्या। श्री जिन० ७।चारणमुनिए चेत्यज वांद्या,भगवति अंगे रंगे, मरड़ी अर्थ करे तेणे स्थानक,कुमतितणे प्रसंगे। श्रीजिन०८१भगवतिअंगे श्रीगणधरजी, ब्राह्मीलिपि वंदे;एवा अक्षर देखे तोपिण,कुमति कहो केम निंदे । श्री जिन० ९१ चैत्य विना अन्यतीर्थी मुजने, वंदन पूजा निषेधे; सातमें अगे शाह आणंदे, समकित कीधु शुद्धे । श्रीजिनक १० सुर्याभदेवे वीरजिन आगल, नाटक की रंगे; समकितद्रष्टी तेह वखाणे, रायपशेणी उपांगे। श्री जिन० ११ समकितद्रष्टी श्रावकनी करणी, जिनवर बींव भरावे; ते तो बारमे देवलोक पहोंचे महानिसीथे लावे । श्री जिन० १२॥ अष्टादगिरि उपरभरते,मणी Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सुमतिप्रकाश बारहमास। .. कुंडलीछंद-आदि ऋषभजिन देव थी महावीर अरिहंत । जिनशासन चौवीस जिन पूजो वार अनंत । पूजो वार अनंत संत भव भव सुखकारी।संकट बंधन टूट गए निर्मल समधारी। जिन पडिमा जिन सारषी श्रावकवतनुसाध,महावीर चौवीसमें ऋषभदेवजीआद - सवैया तेतीसा-चैत चित नु सुधार प्रभु पूजा का विचार समकितका आचार वीतरागजो वखानी है। लखस्तरकी सार ठाम ठामअधिकार वस्तु सतरां प्रकार अष्टद्रव्यसे सुजानी है। देख सूतर उवाइ पाठ अंबड बताई पूजा ऐसी करो भाई ये तो मोक्ष की निशानी है । जेडे. कुमति हैं धीठ प्रभु मुखड़ा ना दीठ फिरें बसते अतीत मारे कुगुरु अज्ञानी है । १ । ___ कुंडलीछंद-कारण विन कारज नहीं कारण कारज दोइ,कारण तज कारज करे मूल गवावे सोइ, मूल गवावे सोई नहीं आवश्यक जाने,खूला फूलों पूज प्रभु ये पाठ बखाने,जो कुमतिनर धीठ मुखों नहीं पाठ उच्चारण, सो रुलंदे संसार करे कारज विन कारण ॥' ___ सवैया-वैसाख विसरो ना भाई प्रीतपूजाकी बनाई पूजा मोक्ष की सगाई सब सूत्रकी सेली हैं,चंबा मोतिया रवेली कुंगु चंदन घसे ली प्रभु पूजो मनमेली पूजा मोक्षकी सहेली है,वीतरागजो वखानी प्राणी भव्य मन मानी वाणी सूतरमें ठानी पूजे धन सो हथेली है,जैसे मेघमें पपीया पिया पिया बोले जीया छप्पे किरले खुड्डिया पूजा दुष्ट'नुं दुहेली है।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलीछंद-मानो आज्ञा धर्म जिन आज्ञाधर्मसुमीत, जो आज्ञा हृदये धरे सो सुमति की रीत,सो सुमतिकी रीत नीत उववाई भाषी, श्रावक घणे प्रमाण नगरी चंपा जी दाषी, जिनमंदिर जिनचेत्य घणे विध पूजा ठानो,अर्थ सूत्र नित सुनो धर्म जिन आज्ञा मानों। सवैया-देख जेठकी जुदाई पाठ रखदे छिपाई करें कूडकी कमाई राह उलटा बतावदे, रुले पापी सो अपार करें खोटा जो आचार वगी धरम कीमार साध श्रावक कहांवदे,झूठे बैनकहे जग सेवकासे लैंदे ठग सठ हठ कठ झग प्रभु मनमें न लावदे,जैसे रविका प्रकाश नर नारी से हुलास नैन उल्ल के विनाश देख पूजा नस जावदे ।३। __कुंडलीछंद-छाया जिनतरु बैठके काटे तरु अविनीत,पूजासे हिंसा कहे उलटी. पकडे रीत, उलटी पकडे रीत धीठ. दुर्गति को जावें,प्रभु मुख से वो चोर अर्थ सूत्र नहीं पावें,जिनपडिमा स्वीकार उपासकदसा बताया,श्रावक देख अनंद बैठके तरु जिम छाया॥ सवैया-हाढ बोलदे हवान नहीं सुतर परमाण करें उलटा ज्ञान पंथ आपनाचलांवदे,प्रभु आज्ञा न माने वोह कुलिंग रूप ठाने उत सूतर बखाने मिथ्या दृष्टिकोवधांवदे, मुखों कहें हम साध करें ऐसे अपराध बैठे डोबके जहाज पारदधिका न पांवदे,जैसे मिसरी मिठाई मन गधे के ना भाइ प्रभु पूजा की रसाई बिन जनम गवांवदे । ४ कुंडलीछंद-मीतसु आचारंगकी नियुक्तिका ज्ञान, पूर्ण सतगुरु हम मिले तिमर गए चढभान,तिमर गए चढ़ भान अर्थ जब पूर्ण पाये, पूजा यात्रा भेद सभी ये अर्थ बताये,दूध बडो रस जगत में कुमति ज्वर ना पीत, पीवत वो प्राण न हरे आचारंग समीत ॥ . . सवैया-सुन सावण नकारेजैनसूतरोंसे न्यारेकहे जैनीहम भारे ये पखंड क्या मचाया है। कहें वीरके हुं साध करे सूतरा पराध वीर Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा विराध ऐसी दुरदस छाया है। जिन सूतर बनाये एकअखर मिटाये तो नरकगतिपाये पाप सठने बंधाया है। जिना सूतर हटाये पाठ उलटे सुनाये हड़तालसे मिटाये तांका कौन छेड़ाआया है । ५ ____ कुंडलीछंद-देख खुलासापाठ जो सूत्रमहानिसीथ, जिनपडिमा से पूजिये उच्ची पदवी लीध, उच्ची पदवी लीध अच्युतासुर पद पाये, दशवेकालिक देख पाठ क्यों नैन छपाये,साधु उस थां नहीं रहे नारी मूरत लेख,ये अवगुण पडिमा सगुण पाठ खुलासा देख। सवैया-देख भादरोजी भारी लगी कर्मकी कटारी करें नरक तैयारी खोटे रंगसंग दीन है, समकित बन जारी शुद्ध बुद्धगई मारी टेर टरदी न टारी ऐसे जग में मलीन हैं । ऐसे उदय खोटे भाग स्वय देव से त्याग अन्न देव करे राग जिन राज से वो छीन हैं, देखो सठ की सठाई काक कारण उड़ाई हाथे रतनचलाई ऐसे प्रतिमासो हीन है ॥६॥ कुंडलीछंद-धीर सतगुरु सिमरिये मारग दीयो बताय । ज्ञान करण संशयहरण वंदो ते चित्तलाय । वंदो ते चित्तलाय उत्तराध्य यन अनंदे, नियुक्तिका पाठ चैत अष्टापद वंदे । चरमशरीरी कथन करेत्रिभुवनस्वामीवीर गौत्तमगिरगढपरचढे सिमरिये गुरुसतधीर ।। ___ सवैया-अस्सुं पुछ तुं असानुं असी दस्सीये तुसार्नु भ्रम भू. लियों तु कानुं ऐसे पूजाप्रभु पाइहै। जेडे सुगुरु हैं प्यारे रस टीका का विचारे निरजक्ति मल सारे भासचूरणदिखाइहै । देख पंचअंग बानी बीतराग जो वखानी गणधरदेव मानी भव्यजीव मन भाई है। सोध सुगुरुतुजानी गुरु ग्यानकी निशानी बुद्धिविजय बतानी प्रभु पूजा चित्त लाइ है ॥७॥ . कुंडली छंद-ऐसा पाठ वखानियामहाकल्पकीसार। साधु नित Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर वंदना मंदिर जिन स्वीकार । मंदिर जिन स्वीकार आलसी जो ना जावें,तो बेलेका दंड साधु श्रावक से आवे । लखे न सतरसार जीव तव माने कैसा,कुगुरु न दसदे भेद वखाने पाठ ना ऐसा॥ . सवैया-कत्ते कुगुरु कमाई मुखपटी जो बंधाई किसे ग्रंथ न बताई ये कुगुरुकी चलाई है । देखो कुमतिकी फाई भोले जीव ले फसाई रीती धरम गवाई ऐले नैनके अधाई है। धागा कानमें तनाई रूप दैतका बनाई देख कूकर भुकाई आग्यावीर ना दुहाई है। पूजा हीरानग.सार जौरी रखदे सुधार फेके मुरख गवार सठ पूजा सो न ‘पाई है॥८॥ कुंडली छंद-देखो नैन निहारके अर्थ सुनो श्रुतिदोय बुद्धि विजय मुनीसजी विजयानद जगजोय । विजयानंदजगजोय पाठ का अर्थ बतायें,ज्ञाताजीमें कहा द्रोपदी पूजा पावें,जिनचैत्यादि पूज स्वर्गमें लीनो लेखो,ये समदिष्टन भई निहारं नयन जब देखो.॥ - सवैया देख मगर अभिमानी सार धर्मकी न जानी व्हे नावा विना प्राणा दधि कौन पार लावेगा। ऐसे प्रभुकीनिंदाई जब नासतक आई डुबे आप जो संगाई तुझे कोई न घडावेगा। जैसे जगमें सलारा जब पृथवीमें डारा तब होतभार भारा फेरे उडना न पावेगा। दाल खुशीमन भाई प्रभु पूजो चितलाई करो खिमत खिमाई ऐसा कारण बचावेगा ९॥. . .. कुंडली छंद-करो सुगुरुका संग जो जानों सूतर सार। भगत करी सुरियाभने पडिमा पूजाधार । पडिमा पूजा धार राय प्रसैनी भाषी, देवसुंरासुर इंदचंद प्रभु पूजा साखी। पावो तब संमदिष्टि भगत जिन दाढा धरो,सवी देवसे कहा सुगुरुकी संगत करो ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) सवैया-पोष पूजा कर प्यारी चढ़ हाथ की अंधारी त्याग गधेकी सवारी राम आतमा मिलाइये, देख विजयजी आनंद चढ़े जगतमें चंद तेरे काटे पापफंद मिल सम्यक् सुहाइये, मुनि संतके महंत है अनंत गुणकत प्रभु आज्ञा सुहंत ऐसे सतगुरु ध्याइये, घटामेघ की वरष मन मोरके हरष स्वान जाने न परष कैसे सतगुरु पाइयो१० ___ कुंडलीछंद-जानो आवश्यक कहे राय उदायन भाष राणी तस परभावतीनिजघर मंदिरसाष,निजघरमंदिर सावआयनितपूजाकरदे पुष्पालंकृत धूप दीप नैवेद सुधरदे, ऐसा मरम सूत्र क्यों कुमत ना मानो राय उदायन पाठ कहे आवश्यक जानो सवैया-महां कुमति महंत हिये जरा बी ना संत करे पाप सो अनंत मुखें दया दया आखदे, दयाका न जाने मरम छोड बैठे जैन धर्म ऐसे करे दुष्ट करम मरम न चाखदे। मुखों पंडित कहा- पाठ छोड छोड जावें अर्थ वाचना न आवे सो मनुक्त बैन आखदे। जैसे चंदकी चदाई चामचिड़ नैन खाई सो चकोर मन भाई पजा सुगुरु प्रकासदे। कुंडली छंद-कमला केतक भ्रमर जिम सूतर प्रीति आधार। मूंड कुमति जाने नहीं कमल सूत्रकी लार । कमलसूत्रकी सार चार निखेप खाने,ये अनुयोग दुवार नय सागर नही जाने,भत्त पइन्ना पाठ जैनमंदिर कर अमला,श्रावक जो बनवायें भ्रमरसे जैसे कमला ___ सवैया-फागण जो फूली वारी मिलीबाणी सुधा प्यारी फली सम्यक् उजारी ज्ञान बन सरकाईये, नैन जैनके जगावो संग सुगुरु का चावो वाना मर्म युत पावो नैन नींद की खुलाईये,साखी सूतर की दाखी कछुनिंदिया न भाखी जेडे जैन अभिलाषी साखी भाखी Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ( ३०६ ) न भूलाइये। करो सुगुरु संगाइ रूप शिक्षा वरताई कुछ डरो न डराइ दास खुशी मन भाईये ॥१२॥ कुंडलीछंद-दरवदरव सब जग दिसे भाव दिसे नहीं सोय विना दरव थी ज्ञान कब ज्ञान दरव थी होय,ज्ञान दरव थी होय दरख मुनि धार चरित्तर, दरव सामायक ठवें दरव पुजा इम मितर, अंत भाव जिन केवली जाने मन की सरव, भावचिन्ह कछु नहिं दिसे दिसे जगत सब दरव॥ सवैया-मास आदित्य आनंद ऐसे संवतका छंद भूत वन्ही ग्रह चंद कृष्ण त्रोदशी वैशाखकी आदि अंतसे विचार सबी दोष वमडार भव्य सूतर आधार वानी सुधारल चाषकी । सुमत बन सरकी कुमतमत हरकी युगत ज्ञान करकी भली हे शुभभाषकी। छोड झूठते जंजाल धरसूत्रमें ख्याल शहर गुजरांजोवाल दासखुशी कहे लापकी ___कुंडलीछंद-देख कमति मन खिजो मत करो न रोस गुमान जैसासूत्रमें कहा तैसा दियो बखान, तैसा दिया बखान जास नर मरम न भासे, करे सुगुरु का संग नैन जग संसै नासै । पक्ष पात तज देखिये खुशी सूतर की रेख,ज़िनआज्ञा धर भालपर खिजो न कुमति देख ॥ __ सोरठा-रामबखशकेसाथ शेरू जाती बानिया लुदहानेवास बारमास सठ भाषियो ॥ उलट ज्ञान की रीत जब हम वो अवणे सनीजो सूत्रकी रीत तब हम भाषा ये करी ॥ इतिश्रीसुमतिप्रकाशबारहमास सम्पूर्णम् शुभमस्तु ॥ . Page #270 --------------------------------------------------------------------------  Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रयार्थ पुस्तकें। श्री मन्महामुनिराज श्रीमद्विजयानंद सूरि(श्रीआत्मारामजी) / विरचित जनमत वृक्ष। .... कीमत ) श्रीजैनगायनसंग्रह। श्रीसनात्र पूजा गप्प दीपिका समीर .... ... सम्यक्त्वशल्योछार गुजराती भाषा ..... , ढूंढकमत समीक्षा जैनवालोपदेश-बहुत उपयोगी .... पैंतीस का थोकड़ा .... .... .... , , , जैनस्तोत्र रत्नाकर-इसमें भक्तामर, कल्याणमंदिर, शांतिये एकीभाव, विषापहार, जिनपंजर, मंत्राधिराज आदि 16 स्तोत्र हैं मुंबईका छपा हुआ .... ... -' मूल्य / / गुलदस्तह. आत्मप्रकाश उर्दू .... .... , / ) जैन इतिहास उर्दू में ...... .... .... , 1) रात्रीभोजन निषेध उई ..... .... .... गणधर श्रीगौतमस्वामीकी रंगीनमूर्ति-दर्शनकेलायक है , =) श्री मन्महामुनिराज श्रीआत्मारामजी की रंगीन मूर्ति , ) श्रामुनि अमरविजय और श्रीमुनिबालविजयकी रंगीन मूर्ति, / / श्रीमुनि वल्लभविजयजी की फोटो अति मनोहर .... , .) मासिक पत्र श्रीआत्मानंद जैनपत्रिका-वर्षभरका .... , 1) मिलने का पताः-पंजाब संस्कृत बुकडिपो, लाहौर।