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________________ RBE - - (20) • इस गाथाके अर्थसे प्रकट सिद्ध होता है कि गुरुके वस्त्रादि तथा पाटादिकके संघट करनेसे पाप है। यहां यद्यपि पाटादिक अजीव है तोभी यह आचार्यके हैं इसवास्तै इनकी आशोतना टालनी इससे स्थापना निक्षेपा सिद्ध होता है, इसवास्ते जेठमल की करी कल्पना मिथ्या है। क्योंकि जिनप्रतिमा जिनवर अर्थात् तीर्थकरकी कहाती है, और वस्त्रादि उपाधि गुरु महाराजकी कही जाती है, इसवास्ते इन दोनोंकी जो भक्ति करनी सो देवगुरुकी ही भक्ति है, और इनकी जो आशातना करनी सो देवगुरुकी आशातना है। इससे स्थापना माननी तथा पूजनी सत्य सिद्ध होती है। ___ जेठमल लिखता है कि "उपकरण प्रयोग परिणम्या द्रव्य है" सो महामिथ्या है। उपकरणका प्रयोग परिणम्या युगल किसीभी जैनशास्त्रमें नहीं कहा है, परंतु उसको तो मीसा पुगल कहा है। इसवास्ते मालूम होता है कि जेठमलको जैनशास्त्रकी कुछभी खबर नहीं थी। और जेठमल लिखता है कि "जिस पृथ्वी शिलापट्ट ऊपर बैठके भगवंतने उपदेश करा है उसी शिलापट्ट ऊपर बैठ के गौतम सुधर्मास्वामीप्रमुखने उपदेश करा है"उत्तर-ऐसा कथन किसीभी जैनसिद्धांतमें नहीं है, इसवास्ते जेठमल ढूंढक महामृषा वादी सिद्ध होता है ॥ जेठमल गुरुके चरण बाबत कुयुक्ति लिखके अपना मत सिद्ध · करना चाहता है, परंतु सो मिथ्या है । क्योंकि गुरुके चरणकी रजभी पूजने योग्य है तो धरती ऊपर पडे. गुरुके चरणोंका तो क्या ही कहना ? कितनेक ढूंढिये अपने गुरुके चरणोंकी रज मस्तकों पर चढ़ाते हैं, और जेठातो उनके साथभी नहीं मिलता है तो इस से यही सिद्ध होता है कि यह कोई महादुर्भवी था।
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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