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( १५८ ) जिनप्रतिमाके सन्मुख नाटक करके तीर्थंकरगोत्र बांधा कहतेहो परंतु श्रीज्ञातासूत्र में बीस स्थानक आराधने से ही जीव तीर्थंकरगोत्र बांधता है ऐसे कहा है तिस में नाटक करनेसे तीर्थंकरगोत्र बांधनेका तो नहीं कथन है"उत्तर-इसलेखसे मालूम होता है कि जेठे निन्हव को जैनधर्म की शैलि की और सूत्रार्थ की विलकुल खबर नहीं थी, क्योंकि वीस स्थानक में प्रथम अरिहंत पद है और रावणने नाटक किया सो अरिहंत की प्रतिमा के आगे ही किया है, इसवास्ते ___ रावणने अरिहंतपद आराधके तीर्थकरगोत्र उपार्जन किया है।
(१६) जेठमल लिखता है कि "सुर्याभ के विमानमें बारह बोलके देवता उत्पन्न होते हैं ऐसे सुर्याभने प्रभुको किये ६ प्रश्नों से ठहरताहै इसवास्ते जितने सुर्याभविमानमें देवतेहुए तिन सर्वने जिन प्रतिमाकी पूजाकरी है" उत्तर-जेठमल का यह लेख स्वमंति कल्पना का है,क्योंकि वो करणीसम्यग्दृष्टि देवता की है मिथ्यात्वीकी नहीं श्रीरायपसेणीसूत्र में सुर्याभ के सामानिक देवता ने सुर्याभ को पूर्व और पश्चात् हितकारी वस्तु कही है वहां कहा है यतः
अन्नेसिंचबहुणं वैमाणियाणं देवाणय देवीणय अच्चणिज्जाओ। अर्थात् अन्य दूसरे बहुत देवता और देवियोंके पूजा करने लायक है, इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टिकी यह करणी है;यदि ऐसे न होवे तो “सव्वेसिवेमाणियाण" ऐसे पाठ होता इसवास्ते विचारके देखो॥
(१७) जेठमल कहता है कि "अनंते विजय देवता हुए तिन में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही प्रकारके थे और तिन सर्व ने सिद्धायतन में जिनपूजा करी है, परतु प्रतिमा पूंजने से भव्य
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