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________________ (१७) अंबडस्सणं परिवायगस्स नो कप्पडू अण्ण उथिएवाअण्णउथ्थिय देवयाणि वाअण्णउध्यियपरिग्गहियाई अरिहंत चेहयाई वा वंदित्तए वानमंसित्तएवा गण्णथ्य अरिहंते वा अरिहंतचेइआणिवा ॥ अर्थ-अंबड परिव्राजक को न कल्पेअन्यतीर्थी,अन्यतीर्थी के देव और अन्यतीर्थी के ग्रहण किये अरिहंत चैत्य जिनप्रतिमा को वंदना नमस्कार करना, परंतु अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमाको वंदना नमस्कार करना कल्पेश्॥ इस पूर्वोक्त पाठ को आनंद के पाठ के सदृश जेठमल ठहराता हैपरंतुआनंद गृहस्थी था और अंबड संन्यासीअर्थात् परिव्राजकथा, इसवास्ते इन दोनोंका पाठ एकसरिखानहीं हो सकता,तथा आनंदका पाठ हमने पूर्व लिखदिया है तिसकेसाथ इसपाठ को मिलानेसे मालूम होजवेगा कि आनंद के पाठमें अन्य दर्शनीको अशन, पान, खादम, स्वादम देना नहीं,वारंवार देना नहीं, विना बुलाये बुलाना नहीं,वारंवार बुलाना नहीं,यह पाठ है और इसमें वोह पाठ नहीं है टीका-अन्नउथिएवत्ति अन्ययूथिका अर्हत्संघापेक्षया अन्ये शाक्यादयः चेइयाइंति अर्हच्चैत्यानि जिनप्रतिमा इत्यर्थः णणण थ्थ अरिहंतेवत्ति न कल्पते इह योयं नेति प्रतिषेधः सोन्यत्राहगाः अहंतो वर्जयित्वेत्यर्थः सहि किल परिव्राजक वेषधार कोतोन्ययथिक देवतावन्दनादिनिषेधेअर्हतामपिवन्दनादि निषेधो माभूदितिकृत्वा णण्णथ्थे त्याद्यधीतम् ॥
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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