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________________ ( ५० ) हे गौतम! पूर्वोक्त काम करनेसे उसको बहुतर निर्जरा होवे, और अल्पतर पापकर्म होवे, अव विचारोकि साधु को अप्राशूक अनेषणीय आहारादि देनेसेअल्पतर अर्थात् बहुतही थोडा पाप, और बहुतर अर्थात् बहुत ज्यादा निर्जरा होवे तो बहुनिर्जरावाला ऐसा अशुभ आयुष्य जीव कैसे बांधे ? कदापि न बांधे, परंतु ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभावसे यह पाठ जेठेको दिखाई दिया मालूम नहीं होता है, क्योंकि उत्सूत्र प्ररूपक शिरोमणि, कुमतिसरदार जेठा इस प्रश्नोतर के अंत में "मांसके भोगी और मांसके दाता, दोनोंही नरकगामी होते हैं, तैसेही आधाकर्मीका भी जान लेना” इस तरां लिखता है, परंतु पूर्वोक्त पाठ में तो अप्राशूक अनेषणीयं दाताको बहुत निजरा करने वाला लिखा है, पृष्ट (१८) पंक्ति (१३) में जेठेने अप्राशक अनेषणीयका अर्थ आधाकर्मी लिखा है, परंतु आधाकर्मींतो अनेषणीय आहारके (४२) दूषणों में से एक दूषण है, क्याकरे ? अकल ठिकाने न होने से यह बात जेठेकी समझ में आई नहीं मालूम देती है ॥ तथा ढूंढिये पाट, पातरे, थानक वगैरह प्रायः हमेशां आधाकर्मी ही बरतते हैं; क्योंकि इनके थानक प्रायः रिखों के वास्ते ही होते हैं, श्रावक उनमें रहते नहीं हैं, पाटभी रिखों के वास्ते ही होते हैं, श्रावक उनपर सोते नहीं हैं और पातरे भी रिखोंके वास्ते ही बनानेमें आते हैं, क्योंकि श्रावक उनमें खाते नहीं है, तथा ढूंढिये अहीर, छींबे, कलाल, कुंभार, नाई, वगैरह जातियों का प्रायः आहार ल्याके खाते हैं, सो भी दोष युक्त आहारका ही भक्षण करते हैं क्योंकि श्रावक लोकतो प्रसंगसे दषणों के जाणकार प्रायः होते हैं, परंतु वे अज्ञानी तो इस बातको प्रायः स्वप्नमेंभी नहीं जानते हैं, इस वास्ते जेठे के दीये मांसके दृष्टांत मूजिब ढूंढियों के रिखोंको
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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