________________
देके जेठमल ऐसे. ठहराता है कि" तिसने, द्रौपदी की.तरह पूजा क्यों नहीं करी- ? :क्योंकि प्रतिमासे तो भगवान् अधिक थे" उत्तर-भगवान् भाव तीर्थंकर थे, इसवास्ते तिनकी वंदना स्तुति वगैरह ही होती है, और तिनके समीप सतरां प्रकारी पूजामें से वाजिंत्रपूजा, गीतपूजा, तथा नृत्यपूजा वगैरह भी होती है, चामर होते हैं, इत्यादि जितने प्रकार की भक्ति भावतीर्थंकर की करनी उ. चित है उतनीही होती है, और जिनप्रतिमा स्थापना तीर्थंकर है इस वास्ते तिनकी सतरां प्रकार आदि पूजा होती है,तथा भावतीर्थकर को नमुथ्थुणं कहा जाता है तिस में “ ठाणं संपाविउं कामे" ऐसा पाठ है अर्थात् सिद्धगति नाम स्थानकी प्राप्ति के कामी हो ऐसे कहा जाता है और स्थापना तीर्थंकर अर्थात् जिनप्रतिमा के आगे द्रौपदी वगैरहने जहां जहां.नमुथ्थुणं कहा है वहां वहां सूत्र में "ठाणं संपत्ताणां" अर्थात् सिद्धगति नाम स्थानको प्राप्त हुए हो ऐसे जिनप्रतिमा को सिद्ध गिना है, इस अपेक्षा से भावतीर्थंकर से भी जिन प्रतिमा की अधिकता है,दुर्मति ढूंढ़िये तिसको उत्थापते हैं तिस से वोह महामिथ्यात्वी हैं ऐसे सिद्ध होता है। .... .., तथा 'जिन' किस किस को कहते हैं इस बाबत जेठमल ने श्रीहेमचंद्राचार्य कृत अनेकार्थीय हैमी नाममाला का प्रमाण दिया है,परंतु यदि वह ग्रंथ तुम ढूंढ़िये मान्य करतेहो तो उसी ग्रंथमें कहा है कि-" चैत्यं जिनौक स्तबिम्ब चैत्यो जिनसभातरुः” सो क्यों नहीं मानते हो? तथा वलि शब्द का अर्थ भी तिस ही नाममाली में 'देवःपूजा' करा है तो वोह भी क्यों नहीं मानते हो यदि ठीक ठीक मान्य करोंगे तो किसी भी शब्द के अर्थ में कोई भी बाधान आवेगी, दंद्रिये सारा ग्रंथ मानना छोड़ के फकत एक शब्द