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( २१९ ) भी नहीं है। सूत्र में तो आषाढ चौमासेके आरंभसे एक महीना और वीस दिन संवत्सरी करनी, औरएकमहीना वीसदिन के अंदर संवत्सरी पडिकमनी कल्पती है परंतु उपरांत नहीं कल्पती है,अंदर पडिकमनेवाले आराधक है, उपरांत पडिकमनेवाले विराधक हैं ऐसे कहा है तो विचार करो कि जैनपंचांग व्यवच्छेद हुए हैं जिससे पंचमीके सार्यकालको संवत्सरी प्रतिक्रमण करने समय पंचमी है कि छठ होगई है तिसकी यथास्थित खबर नहीं पड़ती है,और जो
छठमें प्रतिक्रमण करीये तो पूर्वोक्त जिनाज्ञाका लोप होता है इस। वास्ते उस कार्य में बाधकको संभव है। परंतु चौथकी सायं को प्रति
क्रमणके समय पंचमी हो जावे तो किसी प्रकारका भी बाधक नहीं . है। इसवास्ते पूर्वाचार्योंने पूर्वोक्त चौथकी संवत्सरी करनेकी शुद्ध रीति प्रवर्तन करी है सो सत्य ही है। परंतु ढूंढिये जो चोथके दिन संध्याको पंचमी लगती होवे तो उसी दिन अर्थात् चौथको संवत्सरी करते हैं सो न तो किसी सूत्रके पाठसे करते हैं और न युगप्रधान की आज्ञासे करते हैं किंतु केवल स्वमतिकल्पनासे करते हैं।
(५५) “सूत्रमें चौवीसही तीर्थकर वंदनीक कहे हैं और विवेक विलासमें कहा है कि घर देहरेमें २१ इक्कीस तीर्थंकरकी प्रतिमा स्थापनी" उत्तर-जैनधर्मीको तो चौवीसही तीर्थकर एक सरीखे हैं, और चौवीसही तीर्थंकरोंको वंदन पूजन करनेसे यावत मोक्षफलकी प्राप्ति होती है। परंतु घर देहरेमें २१ तीर्थकरकी प्रतिमा स्थापनी ऐसे जो विवेकविलासग्रंथमें कहा है सो अपेक्षा वचन है,जैसे सर्व शास्त्र एक सरीखे हैं तोभी कितनेक प्रथम पहरमें ही पढे जाते हैं, दूसरे पहरमें नहीं । तैसे यह भी समझना। तथा घरदेहराऔर बड़ा मंदिर कैसा करना, कितने प्रमाणके ऊंचे जिनबिंब स्थापन करने,