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(३६) जीवदयाके निमित्त साधुके वचन बाबत - ३६में प्रश्नोत्तरमें जेठमलने श्रीआचारांग सूत्रका पाठ और अर्थ फिराकर खोटा लिखकर प्रत्यक्ष उत्सूत्रकी प्ररूपणा करी है, इसवास्ते वो सूत्रपाठ यथार्थ अर्थ सहित तथा पूर्ण हकीकत सहित लिखते हैं। ... श्रीआचारांग सूत्रके दूसरे श्रुतस्कंधमें ऐसे कहा है कि साधु ग्रामानुग्राम विहार करता जाता है, रस्ते में साधुके आगे होकर मृगांकी डार निकल गई होवे, और पीछे से उन हिरणोंके पीछे वधक (अहेड़ी) आजावे, और वो साधुको पूछे कि हे साधो ! तेने यहां से जाते हुए मृग देखे हैं ? तब साधु जो कहेसो पाठ यह है"जाणं वा नो जाणं वदेज्जा"-अर्थ-साधु जाणता होवे तो भी कह देवे कि मैं नहीं जानता हूं,अर्थात् मैंने नहीं देखे हैं तथाश्रीसूयगडांग सूत्रके नवमें अध्ययन में कहा है कि-"सादियं न मुसं. बूया एस धम्मे चुसिमओ"-अर्थ-मृग पृच्छादि विना मृषा न बोले,यह धर्म संयमवंतका है, तथा श्रीभगवतीसूत्रके आठमें शतकके पहिले उद्देशे में लिखा है कि-"मणसच्च जोग परिणया वयमोस जोग परिणया"-अर्थ-मृग पृच्छादिकमें मनमें तो सत्य है, और वचनमें मृषा है, इन तीनों पाठों का अर्थ हड़तालसे मिटाके ढूंढकोंने मनः कल्पित औरका और ही लिख छोड़ा है,इसवास्ते ढूंढिये महामिथ्या दृष्टि अनंतसंसारी है, तथा जेठमल ढूंढकने जो जो सूत्रपाठ मृषावाद बोलनेके निषेध वास्ते लिखे हैं, उन सर्वमें उत्सर्ग मार्गमें मृषा बोलने का निषेध करा है,परंतु अपवादमें नहीं, अपवादमें तो मृषा बोलनेकी आज्ञा,भी है,सोपाठ ऊपर लिख आए हैं।