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कम्मति कटु णो आढाइ णोपरियाणाइणी अभुढेइ ॥
अर्थ- जब नारद आया तब द्रौपदी देवी कच्छुलनामा नवमें नारदको असंजती, अविरती, नहीं हणे,नहीं पच्चखे पापकर्म जिसने ऐसे जानके न आदर करे, आयाभी नजाने,और खड़ीभी न होवे।।
अब विचार करोकि द्रौपदीने नारद जैसे को असंजती जानके पंदना नहीं करी है तो इससे निश्चय होता है कि वोश्राविका थी,
और तिसका सम्यक्त्ववत आनंदश्रावक सरीखाथा,तथा अमरकंका नगरी में पद्मोत्तरराजा द्रौपदीको हरके लेगया उस अधिकार में श्री ज्ञातासूत्र में कहा है किः
तएणं सा दोवदेवी छठं छ?णं अणिखित्तेणं आयंबिल परिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणो विहरडू ॥
अर्थ- पनोत्तर राजाने द्रौपदी को कन्याके अंतेउरमें रखा,तब वो द्रौपदी देवी छठ छठके पारणे निरंतर आयंबिल परिगृहीत तप कर्म करके अर्थात् बले बेलेके पारणे आयंबिल करती हई आत्माको - भावती हुई विचरती है,इससे भी सिद्ध होता है कि ऐसे जिनाज्ञायुक्त तपकी करने वाली द्रौपदी श्राविकाही थी।। - "द्रौपदीको पांच पतिका नियाणाथा सोनियाणा पूरा होनेसे पहिले द्रौपदीने पूजा करी है इसवास्ते मिथ्यादृष्टि पणेमें पूजाकरी है" ऐसे जेठमलने लिखा है तिसका उत्तर- श्रीदशाश्रुतस्कंध में नवप्रकारके नियाणे कहे हैं, तिनमें प्रथमके सात नियाणे काम भोग के हैं, सो उत्कृष्ट रससे नियाणा किया होवे तो सम्यक्त्व प्राप्ति न