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वास्ते श्रीगौतमस्वामी को जानेका दृष्टांत दिया है, तो उस संबंध में श्रीविपाकसूत्रमें खुलासा पाठ है कि मृगाराणीने श्रीगौतमस्वामी को कहा कि :
"तुगां भंते मुहपत्तियाए मुहं बंधह" -
अर्थ- तुम हे भगवान्! मुख वस्त्रिका करके मुख बांध लेवो इस पाठसे सिद्ध है कि गौतमस्वामीका मुख मुखवस्त्रिका करके बांधा हुआ नहीं था, इससे विपरीत ढूंढिये मुख बांधते हैं औरवह विरुद्धाचरणके सेवन करने वाले सिद्ध होते हैं।
जेठा लिखता है " जो गोतमस्वामीने उस वक्तही मुहपती वांधी तो पहिले क्या खुले मुखसे बोलते थे ? " उत्तर - अकलके दुइन ढूंढियो में इतनी भी समझ नहीं है कि उघाडे (खुले ) मुखसे बोलतथे ऐसे हम नहीं कहते हैं, परंतु हम तो मुहपत्ती मुखके आगे हस्तमें रख कर यत्नों से वोलते थे ऐसे कहते हैं श्रीअंगचूलिया सूत्रमें दीक्षाके समय मुहपत्ती हाथमें देनी कही है यतः
तओ सूरिहं तदानुणएहिं पिट्टोवरि परि विठ्ठिएहिं रहरणं ठावित्ता वामकरानामियाए मुहपत्तिलवंधरित्तु ॥
अर्थ-तत्र आचार्यकी आज्ञा के होये हुए कूणी ऊपर रजोहरण रखे, रजो हरण की दशीयां दक्षिण दिशी (सज्जे पासे) रखे, और वामें हाथमें अनामिका अंगुली ऊपर लाके सुहपत्ती धारण करे ।
पूर्वोक्त सूत्रमें सूत्रकारने, मुहपत्ती हाथ में रखनी कही है, परंतु मुंहको बांधनी नहीं कही है, ढूंढिये मुंहपत्ती मुंह को बांधते हैं
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