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________________ (२८० ) इस बाबत जेठा लिखता है कि इस पाठमें अन्य तीर्थी तथा अन्य तीर्थीके गृहस्थ का निषेध है, परंतु वो मूर्ख इतना भी नहीं समझा है कि अन्य तीर्थीके गृहस्थ तो अन्य तीर्थीमें आगये तो फेर उसके कहने का क्या प्रयोजन ? इसवास्ते गृहस्थ शब्दसे इस . पाठमें श्रावकही समझने।। जेकरश्रावक सूत्रपढ़ते होवें तो श्रीठाणांग सूत्रके तीसरे ठाणेमें साधुके तथा श्रावकके तीन तीन मनोरथ कहे हैं, उनमें साधु श्रुत पढ्नेका मनोरथ करे ऐसे लिखा है, श्रावक श्रुतपढ़नेको मनोरथ नहीं लिखा है, अब विचारना चाहिये कि श्रावक सूत्र पढ़ते हो। तो मनोरथ क्यों न करें ? सो सूत्रपाठ यह है.-यत: तिहिं ठाणे हिं समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवडू कयाणं अहं अप्पंवा बहुं वा सुअंअहिज्जिस्सामि कयाणं अहं एकल्लविहारं पडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरिस्सामि कयाणं अहं. अपच्छिममारणंतियं संलेहणा झसणा झसिए भत्तपाण पडियाइक्खिए पाओवगमं कालमणवक्कखेमाणे विहरिस्सामि एवं समणसा सवयसा सकायसा पडिजागरमाणे निग्गंथे महाणि ज्जरे पज्जवसाणे भव॥ अर्थ-तीनस्थानके श्रमणनिग्रंथ महानिर्जरा और महापर्यवसान
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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