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( २९६ ) ने यह ग्रंथ निष्पक्षपणे लक्षमें लेकर इसका सदुपयोग करना, जिस सेवांचनेवालेकी और रचना करने वालेकी धारणा साफल्यताको प्राप्त होवे ॥ तथास्तु ॥
इति न्यायांभोनिधितपगच्छाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरि (आत्मारामजी) विरचितः सम्यक्त्वशल्योद्धार ग्रंथः समाप्तः ।।
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