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कहा है । फकत ढूंढिये स्वमतिकल्पनासे ही चैत्य शब्दका अर्थ साधु करते हैं परंतु सो झूठा है ॥
और जेठेने जिस जिस बोलमें चैत्यशब्दका अर्थ साधु करा है सो अर्थ फकत शब्दके यथार्थ अर्थ जानने वाले पुरुष देखेंगे तो मालूम होजावेगा कि उसका करा अर्थ विभक्ति सहित वाक्य योजनामें किसी रीतिसे भी नहीं मिलता है। तथा जब सर्वत्र देवयं चेइयं" का अर्थ साधुअथवा तीर्थंकर ठहराता है तो श्रीभगवती सूत्रमें दाढ़ाके अधिकारमें भगवंतने गौतमस्वामीको कहा कि जिन दाढ़ा देवताको पूजने योग्य हैं यावत् "देवयं चेइयं पज्जुवासामि" ऐसा पाठ है उस ठिकाने ढूंढिये "चेइयं"शब्दका क्या अर्थ करेंगे; यदि 'साधु' अर्थ करेंगे तो यह उपमा दाढाके साथ अघटित ह.और यदि तीर्थंकर' ऐसा अर्थ करेंगे तो दाढ़ा तीर्थकर समान सेवा करने योग्य होवेंगी। जो कि दाढ़ा तीर्थंकरकी होनेसे उनके समान सेवाके लायक है तथापि उस ठिकाने तो दाढ़ा जिन प्रतिमाके समान सेवा करने योग्य' कही हैं इसवास्ते 'चेइयं' शब्द का अर्थ पूर्वोक्त हमारे कथन मूजिब सत्य है । क्योंकि पूर्वाचार्यों ने यही अर्थ करा है ॥ - २५से २९ तक पांचबोलोंमें चैत्यशब्दका अर्थ ज्ञान ठहरानं वास्ते जेठमलने कुयुक्तियां करी हैं परंतु सो मिथ्या हैं, क्योंकि सूत्रमें ज्ञानको चैत्यनहीं कहा है। श्रीनंदिसूत्रादि जिसजिस सूत्रमें ज्ञानका अधिकार है वहां सर्वत्र ज्ञानार्थ वाचक "नाण" शब्द लिखा है जैसे "नाणं पंचविहं पण्णत्त" ऐसे कहा है परंतु "चेइयं पंचविहं पण्णत्तं" ऐसे नहीं कहा है। तथा सूत्रोंमें जहां जहां ज्ञानी मनिमहाराजा का अधिकार है वहां वहां "मइनाणी, सुअनाणी,