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होता है कि प्रत्येक जैनी जिनप्रतिमाको मानते और वंदना नमस्कार पूजा.सेवा भक्ति करते थे। तो फेर तुम लोक किसवास्ते हठ पकड़के जिनप्रतिमाका निषेध करते हो? इसवास्ते हठको छोड़कर श्रावकोंकोश्रीजिनप्रतिमा पूजने का निषेध मतकरो जिससे तुमारा और तुमारे श्रावकोंका कल्याण होवे ॥ · यद्यपि सत्यके वास्त मेरेजीमें आवे वैसा लिखनेमें कोई हरकत नहीं है तथापि इस पुस्तकमें जो कोई कठिन शब्द लिखा गया होवे तो उसमें समकितसार ही कारणभूत है क्योंकि 'याशे तादृशमा चरेत्' इस न्यायसे समकितसारमें लिखी बातोंका यथायोग्य ही उत्तर दिया गया होगा, न किसीके साथ द्वेष हैऔरन कठिन शब्दों से कोई अधिक लाभ है यही विचारके समकितसारकी अपेक्षा इस ग्रन्थमें कोई कठिन शब्द रहनेनहीं दिया है,यदि कोई होवेगा भी,तो वोहफक्त समकितसारके मानने वालोंको हित शिक्षारूप हीहोगा।
इस पथके छपानेका उद्देश्य मात्र यहीहै कि जो अज्ञानताकेप्रसंग से उन्मार्गगामी हुए हों वोह भव्यजीव इसको पढ़कर हेयोपादेयको समझ कर सूत्रानुसार श्रीतीर्थंकर गणधर पूर्वाचार्यप्रदर्शित सत्य मार्गको ग्रहण करें और अज्ञानी प्रदर्शित उन्मार्गका त्याग कर देवें, परंतु किसीकी वृथा निंदा करनेका अभिप्राय नहीं है इसवास्ते इस पुस्तकको वांचने वालोंने सज्जनता धारन करके और द्वेष भावको त्यागके आदिले अंत पर्यंत वांचके हंसचंचू होकरसारमात्र ग्रहण करना, मनुष्यजन्म प्राप्तिका यही फल है जो सत्य को अंगीकार करना परंतु पक्षपात करके झूठाहठ नहीं करना यही अंतिम प्रार्थना है।