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________________ सो जैनमुनि मानने, मंगल सो धर्म गिनना, ओच्छव सो धर्मके अठाई महोत्सवादि महोत्सव समझने; परंतु इस बाबत निकम्मी कुतकें नहींकरनी,जेकर पूजामें हिंसा होवे और पूजा ऐसा हिंसाका नाम होवे तो उसी सूत्रमें हिंसाके नाम हैं,उनमें पूजा ऐसा शब्द क्यों नहीं है? सो आंख खोलकर देखना चाहिये ॥ .. __श्रीमहानिशीथसूत्रका जो पाठ नवानगरके बेअकल ढूंढकों की तफले आया हुआ था समकितसार (शल्य) के छगनेवाले बुद्धिहीन नेमचंद कोठारीने जैसा था वैसाहीइस प्रश्नोत्तरके अंतमें पृष्ठ १६९में लिखा है, परंतु उसमें इतनी विचार भी नहीं करी है कि यह पाठ शुद्ध है या अशुद्ध ? खरा है कि खोटा ? और भावार्थ इसका क्या है ? प्रथम तो वोह पाठही महा अशुद्ध है,और जो अर्थ लिखा है सो भी खोटा लिखा है, तथा उसका भावार्थ तो साधुने द्रव्यपूजा नहीं करनी ऐसा है, परंतु सो तो उसकी समझ में विलकुल आयाही नही है; इसीवास्ते उसने यह सूत्रपाठ श्रावकके संवेबमें लिख मारा है । जब ढूंढिय श्रीमहानिशीथसूत्र को मानते नहीं हैं तो उसने पूर्वोक्त सूत्रपाठ क्यों लिखा है ? जेकर मानते हैं तोइसी सूत्रके तीसरे अध्ययनमें कहा है कि- "जिनमंदिर वनवाने वाले श्रावक यावत् चारमें देवलोक जावें"यह पाठ क्यों नहीं लिखा है ? इसबास्ते निश्चय होता है कि ढूंढियोंने फकत भद्रिक जीवोंके फंसाने वास्ते सनिकतसार (शल्य) पोथीरूप जाल गूंथाहै, परंतु उस जालमें न फंसने वास्ते और फंसे हुएके उद्धार वास्ते हमने यह उद्यम कियाहे,सो बांचकर यदि ढूंढिकपक्षी,निष्पक्ष न्यायसे विचार करेंगे तो उनकोभी सत्यमार्गकी पिछान होजावेगी। ॥ इति ॥ . . . . .
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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