SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २६४ ) (१६)खेंढीये शहत खा लेते हैं,परंतु शास्त्रकारने उसमें तद्वर्ण वाले सन्मूछिम जीवों की उत्पति कही है। ___(१७) ढूंढीये मक्खण खाते हैं उसमें भी शास्त्रकार ने तवणे जीवों की उत्पति कही है। . . (१८) ढूंढीये लसण की चटनी भावनगर आदि शहरोंमें दुकान दुकानसे लेते हैं देखो इनके दया धर्मकी प्रशंसा? इत्यादि अनेक कार्यों में ढूंढीये प्रत्यक्ष हिंसा करते मालूम होतेहै इसवास्ते दयाधर्मी ऐसा नाम धराना बिलकुल झूठा है थोडे. ही दृष्टांतोंसे बुद्धिमान और निष्पक्षपाती न्यायवान् पुरुष समझ जावेंगे और ढूंढीयोंके कुफंदे को त्याग देवेंगे ऐसे समझकर इसविषयको संपूर्ण करा है ॥ इति ॥ ग्रंथकी पूर्णाहुति । शार्दूल विक्रीडित वृत्तम् स्वांतं ध्वांतमयं मुखं विषमयं हग धूमधारामयी तेषांयननता स्तता नभगवन्मतिनवाप्रेक्षिता देवश्चारणपुंगवैः सहृदयै रानंदितवंदिता। येत्वेतां समुपासते कृतधियस्तेषां पवित्रजनुः॥१ भावार्थ-सम्यग्दृष्टि देवताओंने और जंघाचारण विद्याचार. णादि मुनि पुंगवोंने शुद्ध हृदय और आनंदकरके वंदना करी है जिसको, ऐसी श्रीजिनेश्वर भगवंतकी मृत्तिको जिन्होंने नमस्कार नहीं करा है, उनका स्वांत जो हृदय सो अंधकारमय है, जिन्होंने उसकी स्तुति नहीं करी है, उनका मुख विषमय है, और जिन्होंने
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy