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________________ ( ३३५ ) करते हैं, और अन्य सूत्र तथा ग्रंथोंको विरोधी मानके नहीं मान्य करते हैं तो उपर लिखे बिरोध जोकि बत्तीस सूत्रोंके मूल पाठ में ही हैं तिनका नियुक्ति तथा टीका प्रमुखकी मदद के बिना निराकरण कर देना चाहिये, हमको तो निश्चय ही है कि ढूंढीये जोकि जिनाज्ञासे प्राङ्मुख हैं वे इनका निराकरण बिलकुल नहीं कर सकतेह, क्योंकि इनमें कोईतो पाठांतर, कोई अपेक्षा, कोई उत्सर्ग, कोई अपवाद, कोई नय, कोई विधिवाद, और कोई चरितानुवाद इत्यादि सूत्रों के गंभीर आशय हैं, उनको तो समुद्र सरीखी बुद्धिके धनी टीकाकार प्रमुखही जानें और कुल विरोधोंका निराकरण करसकें, परंतु ढुंढीयोंने तो फकत जिनप्रतिमा के द्वेषसे सर्व शास्त्र उत्थापे हैं तो इनका निराकरण कैसे करसकें ? ॥ इति ॥ (२६) सूची में श्रावकों ने जिनपूजा करी कही है इस बाबत २६ में प्रश्नोत्तरमें जेठमल लिखता है कि " सूत्रमें किसी श्रावकने पूजाकरी नहीं कही है ” उत्तर- जेठमलने आंखें खोलके देखा होता तो दीख पड़ता कि सूत्रों में तो ठिकाने२ पूजाका और श्री जिनप्रतिमाका अधिकार है जिनमें से कितनेक अधिकारोंकी शुचि (फैरिस्त) दृष्टांत तरीके भव्य जीवोंके उपकार निमित्त इहां लिखते हैं । श्री आचारांग सूत्र में सिद्धार्थ राजाको श्रीपार्श्वनाथका सतानीय श्रावक कहा है, उन्होंने जिनपूजा के वास्ते लाख रूपैये दीयं तथा अनेक जिनप्रतिमा की पूजाकरी ऐसे कहा है इस अधिकारमें सूत्रके अंदर "जायेअ" ऐसा शब्द है जिसका अर्थ याग (यज्ञ) होता है और याग शब्द देवपूजा वाची है "यज- देवपूजायामिति वचनात् ” तथा उनको
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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