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________________ ( * १५२ ) J 'कर णिज्जमेयं देवा आचीन्नमेयं देवा अम्भ गुन्नाय मेयं देवा ॥ # } अर्थ - चिरंतन देवतायोंने यह कार्य किया है है देवताओं के प्यारे ! तुमारा यह आचार है तुमारा यह कर्त्तव्य है, तुमारी यह करणी है, तुम को यह आचारने, योग्य है और मैंने तथा सर्व: तीर्थंकरों ने भी आज्ञा दी है। इस मूजिब भगवंता के कह पीछे वे आभियोगिक देवते प्रभुको वंदना नमस्कार करके पूर्वोक्त, सर्व कार्य करते भये,इस पाठ में जेठमल कहता है कि" सुर्याभने देवता के अभि गमन करने योग्य करो ऐसे कहा परंतु ऐसे नहीं कहाकि भगवंत के रहने योग्य करो" तिसका उत्तर- देवताक आने योग्य करो ऐसे कहा तिसका कारण यह है कि देवताके अभिगमन करने की जगह अति सुंदरहोती है मनुष्यलोक में तैसी भूमि नहीं होती है इसवास्ते सुर्याभ का वचनतो भूमि का विशेषण रूप है और तिस में भगवंत का ही बहुमान और भक्ति है ऐसे समझना * ॥ ise Ha -- 1 (५) " जलय थलय " इन दोनों शब्दो का अर्थ जलके पैदा भये और थल के पैदा भये ऐसा है जिसको फिराने के वास्ते - जेठमल कहता है कि “सुर्याभक सेवकने पुष्पकी वृष्टि करी वहां (पुरफवद्दलं विउब्वइ) अर्थात् फूलका बादल विकुर्वे ऐसे कहा है इसवास्ते वे फल वैकिय ठहरते हैं और उससे अचितभी हैं " यह कहना जेठमलका मिथ्या है, क्योंकि फुलोंकी वृष्टि योग्य वादल विकुर्वन: यहां तो देवताके योग्य कहा, परंतु चौतीस अतिशय में, जो सुगंध जलदृष्टि, पुष्प टि F पादिक लिखी है सो किस के वास्ते लिखी है ? जग हृदय नेत्र खोलके समवायांग सूत्रके चौतीस में समवाय में चौतीस प्रतियों का वर्णन देखो।
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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