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________________ ( २५८ ) पूर्वोक्त पाठकी टीकामें खुलासा कहा है,परंतु 'चौथा आश्रय सेव्या होवे तो झूठ बोले' इस कथनरूप खोटा कलंक जेठा निन्हव जैन धर्मियों के सिर पर चढ़ाता है सो असत्य है, क्योंकि इसतरह हम नहीं कहते हैं । परंतु कदापि जेठेको ऐसा प्रसंग आबनाहोवे और उससे ऐसा लिखा गया होवे तो वो जाने और उसके कर्म ? इस प्रश्नोत्तरके अंतमें जेठा लिखता है कि " सम्यग् दृष्टिको चार भाषा बोलनेकी भगवंतकी आज्ञा नहीं है और वह आपही समकितसार(शल्य)के पृष्ठ१६५की तीसरी पंक्ति में सम्यग दृष्टि चार भाषा बोलते आराधक है ऐसा पन्नवणाजीके ग्यारमें पदमें कहा है" ऐसे लिखता है। इसतरह एक दूसरेसे विरुद्ध वचन जेठेने वारंवार लिखे हैं । इसलिये मालूम होता है कि जेठे ने नशे में ऐसे परस्पर विरोधी वचन लिखे हैं। श्रीपन्नवणाजीका पूर्वोक्त सूत्रपाठ साधु आश्री है, ऐसे टीका कारोंने कहा है, जब साधुको उपयोगयुक्त चार भाषा बोलते आराधक कहा, तब सम्यग्दृष्टि श्रावक उसी तरह चारभाषा . बोलते आराधक होवें उसमें क्या आश्चर्य है ? इसवास्ते जेठेकी कल्पना मिथ्या है। इति ॥ . (३७)आज्ञा यह धर्म है इस बाबत । सेंतीसमें प्रश्नोत्तरके प्रारंभ में ही जेठेने लिखाहै कि "आज्ञा यह धर्म, दया यह नहीं ऐसे कहते हैं" यह मिथ्या है, क्योंकि दया यह धर्म नहीं ऐसा कोई भी जैनधर्मी नहीं कहता है,
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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