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________________ (१३) दशाश्रुतस्कंधका आठमा अध्ययन है इसवास्ते जकर दशाश्रुतस्कंधको ढूंढिये मानते हैं तो कल्पसूत्रभी उनको मानना चाहिये, तथापि कल्पसूत्र में कहे वचनकी सत्यता वास्ते मालूम हो कि कल्पसूत्रमें प्रभु न जाने ऐसे कहा है सो हरिणगमेषीदेवताकी चतुराई मालूम करने वास्ते और प्रभुको किसी प्रकारकी बाधा पीड़ा नहीं हुई इसवास्ते कहा है; जैसे किसी आदमीके पगमें कांटा लगा होवे उसको कोई निपुण पुरुष चतुराईसे निकाल देवे तव जिसको कांटा लगा था वो कहे कि भाई ! तुमने मेरे पैरमें से ऐसे कांटा निकालाजोकि मुझको खवरभी न हुई। ऐसे टीकाकारोंने खुलासा किया है तोभी वेअकल ढूंढिये नहीं समझते हैं सो उनकीभूल है। (३९) "सूत्र में मांसका आहार त्यागना कहा है और भगवती की टीकामें मांस अर्थ करते हो” उत्तर-श्रीभगतीसूत्रकी टीकामेंजो अर्थ करा है सो मांसका नहीं है, परंतु कदापि जेठा अभक्ष्य वस्तु खाता होवे और इसवास्ते ऐसे लिखा होवे तो बन सकता है,क्योंकि जैनमतके तो किसी भी शास्त्रमें मांस खाने की आज्ञा नहीं है। (४०) "श्रीआचारांगसूत्रमें "मंसखलंबा और मच्छखलंवा" इस शब्दका 'मांस' अर्थ करते हो" उत्तर-जैनमतके साधु किसी भी जगह मांस भक्षण करनेका अर्थ नहीं करते हैं, तथापि जेठेने इसमूजिव लिखा है सो उसने अपनी मतिकल्पनास लिखा है ऐसे मालूम होता है। यीठायागसूत्रके दयमे ठाणे में दशाश्रुतस्कंधके दश्य अध्ययन कहे तिनमें पन्जोमवणाकप्पे अर्थात्कल्पसूपका नाम लिखा है तथापि ढूंढिये नहीं मानते है जिस का कारण यही कि कल्पसूत्रमे पूजा वगैरहका वर्णन पाता है।॥ . ___ ढियो ! तुम टीकाको मानते नही हो तो श्रीभगवती तथा पाचारागसत्रके इन पाठीका भयं कैसे करते हो? क्योकि तुमतो मूल पक्षरमात्रको ही मानते ॥
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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