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( ) चित्तभित्तिंण णिज्जाए नारौं वासुअलंकियं भक्खरंपिव दळुणं दिठिंपडि समाहरे॥१॥ .
अर्थ-चित्रामकी भीत नहीं देखनी तिस पर स्त्री आदि होवे सो विकार पैदा करने का हेतु है इसवास्ते जैसे सूर्य सन्मुख देखके दृष्टि पीछेमोड़ लेते हैं तैसे ही चित्राम देखके दृष्टि मोड़ लेनी,जिस तरह चित्रामकी मूर्ति देखने से विकार उत्पन्न होता है इसी तरह जिनप्रतिमा के दर्शनकरने से वैराग्य उत्पन्न होता है क्योंकि जिन बिंब निर्विकार का हेतु है,इस ऊपर जेठमल ढूंढक, श्रीप्रश्नव्याकरण का पाठ लिखके तिसके अर्थ में लिखता है कि "जिन मूर्तिभी देखनी नहीं कही है" परंतु यह तिसका लिखना मिथ्या है,क्योंकि श्रीप्रश्नव्याकरण में जिनप्रतिमा देखने का निषेध नहीं है, किंतु जिस मर्तिके देखने सेविकार उत्पन्न होवे तिसके देखनेका निषेध है, पूर्वोक्त सूत्रार्थ में जेठमल चैत्य शब्दका अर्थ जिनप्रतिमा कहता है और प्रथम उसने लिखा है "चैत्य शब्दका अर्थ जिनप्रतिमा नहीं होता ही है परंतु साधु अथवा ज्ञान अर्थ होता है ” अरे ढूंढियो ! विचार करो कि चैत्यशब्द का अर्थ जो साधु कहोगे तो तुम्हारे कहने मुजिब साधु के सन्मुख नहीं देखना,और ज्ञान कहोगे तो ज्ञान अर्थात् पुस्तक अथवा ज्ञानी के सन्मुख नहीं देखना ऐसे सिद्ध होवेगा! और पूर्वोक्त पाठ में घर, तोरण,स्त्री प्रमुख के देखने की ना कही है तो ढूंढिये गौचरी करने को जाते हो वहां घर तोरण, स्त्री प्रमुख सर्व होते हैं तिनको न देखने वास्ते जैसे मुंहको पट्टी बांधते हो तैसे आखों को पट्टी क्यों नहीं बांधते हो ? जेठमल ने प्रत्येकबुद्धि प्रमुखकी हकीकत लिखी है तिसका प्रत्युत्तर १३में प्रश्नोत्तर में लिखा गया है, वहां से देखलेना ॥