________________
(१९३); केशीमुनिके प्रत्यनीक ब्राह्मणके पुत्रों को यक्षने मारा तिस बाबत हरिकेशीमुनिने कहा कि मेरी वेयावच्च करने वाले यक्षने किया है तो यक्षने तो ब्राह्मणके पुत्रों की हिंसा करी और मुनिने तो वेयावच्च कही; और मुनिका वचन असत्य होवे नहीं। तथा शास्त्रकार भी असत्य न लिखे । इसवास्ते अन्नपाणी उपधि प्रमुख देना ही वेयावच्च ऐसे एकांत कहते हो सो मिथ्या है । पूर्वोक्त पाठ में खुलासा पंदरां बोल हैं और पंदरां ही बोलों के साथ जोड़ने का 'अर्थे' शब्द पंदरमें बोल के अंत में है, तथापि जेठमलने चौदह बोल ठहराए हैं और "चेइय?" अर्थात् ज्ञानके अर्थे वेयावच्च करे ऐसे लिखा है सो दोनों ही मिथ्या हैं, क्योंकि ज्ञानका नाम चैत्य किसीभी शास्त्रमें या किसीभी कोष में नहीं है । तथा सूत्रों में जहां जहां ज्ञानका अधिकार है वहां वहां सर्वत्र “नाण" शब्द लिखा है परंतु "चेइय" शब्द नहीं लिखा है इसवास्ते जेठमल का; किया अर्थ खोटा है, और धर्मशी नामा ढूंढकने प्रश्नव्याकरणके टब्बेमें इसी चैत्य शब्दका अर्थ साधु लिखाहै, इससे मालूम होता है कि इन मूढमति ढूंढकों का आपसमें भी मेल नहीं है परंतु इस में कुछ आश्चर्य नहीं, मिथ्यादृष्टियों का यही लक्षण है । और "चेइय?" तथा "निज्जरठ्ठी” 'इन दोनों शब्दों का एक सरीखा अर्थात् ज्ञानके अर्थे और निर्जराके अर्थे ऐसा अर्थ जेठेने लिखा है, परंतुसूत्राक्षर देखनेसें मालूम होगा कि पाठके अक्षर और लगमात्र अलग अलग और तरह के हैं, एकके अंतमें “अछे" अर्थात् अर्थे ' है सो. चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में निपात है,तिसका अत्यंत बालके अर्थे, दुर्बल के अर्थे, ग्लानके अर्थे, यावत जिन प्रतिमा के अर्थे ऐसा अर्थ होता है दूसरे पदके अंतमें “अठ्ठी” अर्थात् अर्थी'