SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१० ) स्वादिम,यह चारप्रकारका आहार देना,वारंवार देना,न कल्पे परंतु इतने कारणविनासो कहते हैं,राजाकी आज्ञासे,लोक के समुदाय की आज्ञासे, बलवान् के आग्रहसे, क्षुद्रदेवताके आग्रहसे, गुरु-माता पिता कलाचार्य वगैरह के आग्रहसे, इन ६ छिंडी (आगार ) से पूर्व कहे तिनको वंदनादि करने से दोष न लागे; यह न कल्पे सो कहा, अब कल्पे सो कहते हैं, मुझको कल्पे, जैन श्रमण निग्रंथ को फासु अर्थात जीव रहित, और एषणीय अर्थात् दोष रहित, अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, और वरत के पीछे देने ऐसे बाजोठ (चोकी ) पट्टादि पटडा वसती वृणादिक संथारा तथा औषध भेषज से प्रतिलाभता थका विचरना ऐसे कहके एतद्रूप अभिग्रह ग्रहण करे *॥ ऊपर लिखेसूत्रपाठके अर्थ में जेठमल ढूंढक लिखता है कि "आनंदश्रावकने न कल्पे में अन्य तीर्थी के ग्रहण किये चैत्य - * टीकाकर श्रो प्रभय देवसूरि महाराजगे यही अर्थ करा है-तथाहि- . नोखलु इत्यादि नोखलु मम भदंत भगवन् कल्पते युज्यते अय प्रभृति इतः सम्यक्त्त्वप्रतिपत्तिदिनादारभ्य निरतिचारसम्यक्त्त्वपरिपालनार्थं तद्यतनामाश्रित्य अन्नउथिएत्ति जैनयूथायदन्यथूथं संघा न्तरतीर्थान्तर मित्यर्थस्तदस्तियेषांतेन्यवृथिकाश्चरकादिकुतीर्थिका स्तानअन्ययूथिकदैवतानिवाहरीहरादीनि अन्ययथिकंपरिगृहीतानि वाअहंच्चैत्यानि अर्हत्प्रतिमालक्षणानि यथाभौतपरिगृहीतानिवीरभद्र महाकालादीनि वन्दितुं वा अभिवादनं कर्तुं नमस्यतुंबाप्रणाम पूर्वक 'प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनं कर्तुं तद्भक्तानां मिथ्यात्व स्थिरी करणा दिदोष प्रसङ्गादित्यभिप्रायः तथा पूर्व प्रथम मनालप्तेन सता अन्य तीर्थिकस्तानेवालपितुंवासकृत्सम्भाषितुसंलपितुवा पुनःपुनःसंलापं
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy