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( १९१ ) जेठमल लिखता है कि "श्रावक प्रमादके वशसे भगवंतको और साधुको वंदना न कर सके तो तिसका पश्चात्ताप करे परंत श्रावकको प्रायश्चित्त न होवे" उत्तर-पोसहवाले श्रावककी क्रिया प्रायः साधु सदृश है इसवास्ते जैसे साधुको प्रायश्चित्त होवे- तैसे श्रावकको भी होवे॥
जेठमल लिखता है कि "बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ ,तथा आचारांगमें प्रायश्चित्तके अधिकारमें मंदिर न जानेका प्रायश्चित्त नहीं कहा है” उत्तर-कोई अधिकार एकसूत्रमें होता है, और कोई अधिकार अन्य सूत्रमें होताहै,सर्व अधिकार एकही सूत्रमेंनहीं होते हैं। जैसे निशीथ, महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प प्रमुख सूत्रोंमें प्रायश्चित्तका अधिकार है, तैसे श्रीमहाकल्पसूत्रमें भी प्रायश्चित्तका अधिकार है । सर्वसूत्रों में जुदा जुदा अधिकार णोवासगा परिवसंति संखे सयए सियप्पवाले रिसीदत्ते दर्मगे पुक्खली निवद्धे सुप्पइछे भाणुदत्ते सोमिले नरवम्मे आणंद कामदेवाइणो अन्नत्थंगामे परिवसति अढा दित्ता विच्छिन्न विपुल वाहणा जाव लट्टा गहिया चाउद्दसमुदिठ पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह पालेमाणा निग्गंथाण निग्गंथिणय फासु एसणिज्जेणं असणादि ४ पडिलाभे माणा चेइयालएसु तिसंझं चंदणपुर्यफधूववत्थाइहिं अञ्चणं कुणमाणाजाव जिणहरे विहरंति से तेणठेणं गोयमा जो जिण पडिमं पूएइ सो नरो सम्मदिछि जाणियव्वो जो जिणपडिमं न पूएइ सो मिच्छादिहि जाणियव्यो मिच्छेदिहिस्स नाणं न हबइ चरणं न हवइ मुक्खं न हवइ सम्मदिहिस्स नाणं चरणं मुक्खं च हबइ से तेणठेणं गोयमा सम्मदिहि सढेहिं जिणपडिमाणं सुगंध पुप्फचंदण विलेवणेहिं पया कायवा"॥ इति