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________________ ( १९०८ ) कुमति तिसकी करी पूजा को मिथ्यादृष्टिपणे में ठहराता है सो मिथ्या है क्योंकि तिसने इंद्रपणे पैदा होके जिनप्रतिमा की पूजा करके तत्कालही भगवंत महावीर स्वामी के समीप जाके प्रश्न किया और भगवंतने आराधक कहा, पूर्व भवमें तो वो तापसं था इसवास्ते इस भव उत्पन्न होके तत्काल करी जिनप्रतिमा की के कारण से ही आराधक कहा है ऐसे समझना - पूजा अभव्यकुलक में कहा है कि अभव्यंका जीव इंद्र न होवे इस बाबत जेठमल कहता है कि "इंद्रसे नवग्रैवेयक वाले अधिक ऋद्धि वाले हैं अहमिंद्र हैं और वहां तक तो अभव्य जाता है तो इंद्र न होवे तिसका क्या कारण?" उत्तर - यथा कोई शाहुकार बहुत धनाढ्य अर्थात् गामके राजासे भी अधिक धनवान् होवे राजासे こ नहीं मिलता है, तथैव अभव्यका जीव इंद्र न होवे और ग्रैवेयक में -देवता होवे तिसमें कोई बाधक नहीं, ऐसा स्पष्ट समझा जाता है, जैसे देवता चयके एकेंद्रिय होता है परंतु विकलेंद्रिय नहीं होता - है ( जोकि विकलेंद्रिय एकेंद्रिय से अधिक पुण्य वाले हैं) तथा एकेद्वियसे निकलके एकावतारी होके मोक्ष जाते हैं परंतु विकलेंद्रिय कि जिसकी पुण्याई एकेंद्रियसे अधिक गिनी जाती है, तिस में से fresh कोईभी जीव एकावतारी नहीं होता है, इसवास्ते जैसी जिसकी स्थिति बंधी हुई है तैसी तिसकी गति आगति होती है | अभव्यकुलक में इंद्रका सामानिक देवता अभव्य न होवे ऐसे कहा है तो संगम अभव्य का जीव इंद्रका सामानिक क्यों हुआ?" ऐसे जेठमल लिखता है तिसका उत्तर- जैन शास्त्रकी रचना विचित्र 66 " * "यह जिनपूजा थी आराधक ईशान इन्द्रकायाजी " ऐसा पूर्व महात्माओं का वचन भी है।
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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