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श्रीगजेन्योति
प्रभश्रामद राजेन्द्र सरीश्वरजन्मसाधशताब्दांग्रथ
प्रकाशन
अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद
Vain Education into
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भक्ति का प्रतीक है यह ग्रन्थ
'राजेन्द्र-ज्योति' ग्रन्थ का प्रकाशन प्रत्येक सुज्ञजन के लिए प्रसन्नता का विषय एवं उल्लास का वर्द्धक है। श्री वीर परमात्मा के शासन में सुविहित परम्परा के संवाहक परम योगीन्द्राचार्य विश्व-पूज्य प्रातःस्मरणीय पू. पा. गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के अवतरण से निश्चित रूप से समाज, संघ और राष्ट्र में चेतना आई और उन्हीं के जीवन से विकास के नये क्षितिज भी उन्मुक्त-उद्घाटित हुए।
उनकी साहित्य-साधना उन्हें साहित्य-मनस्वी के रूप में प्रकट करती है और उनकी उदारता उन्हें महर्षि के महोत्तम पद पर आसीन करती है। उनकी तपःपूतता उनमें तेजस्वी ज्योतिर्मय स्थिति का प्रकटन करती है और उनकी त्यागश्रेष्ठता उनके त्याग-वीरत्व का स्पष्ट दर्शन कराती है।
विश्ववंद्य गुरुदेव प्रभश्री के प्रति विद्वज्जगत् नतशीश श्रद्धावनत है और प्रत्येक उपासक उनके चरणों में समर्पित है। उनके जन्म से जो ज्योति प्रकाशमान हुई वह अद्यापि पर्यन्त अखण्ड रूप से प्रकाश देती रही है। गुरुदेव के जन्म को एक सौ पचास वर्ष अर्थात् सार्द्ध शताब्दी व्यतीत हो चुकी है। मानव-जगत् के लिए पू. पा. गुरुदेवश्री का जन्म जागृति और जीवन्तता का द्योतक है, और उनका संयम व क्रियोद्धार भाववर्द्धक एवं सत्य मार्गदर्शन वरदान स्वरूप रहा है, उन्होंने यावज्जीवन संघ. शासन की प्रभावना के कार्य किये हैं।
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की ओर से उन परम उपकारी सरस्वती-पुत्र की जन्म सार्द्ध शताब्दी के उपलक्ष्य में श्री राजेन्द्र-ज्योति ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है । यह एक सामयिक एवं अपने सद् गुरुदेव के प्रति सच्ची भक्ति का प्रतीक है।
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शताब्दीग्रन्थ सुनि जयन्तविजय मधुकर
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प.अ.भा.श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद केन्द्र- श्रीमोहनरखेड़ा तीर्थ
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विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
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" णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स" विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय सूरिशक्रचक्रवर्ती प्रभुश्री राजेन्द्र सूरीश्वर गुरुभ्यो नमः
श्री राजेन्द्र ज्योति
( श्रीमद् राजेन्द्रसूरि जन्म- सार्द्धशताब्दी ग्रन्थ )
आशीर्वचन श्रीमद्विजयविद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. प्रेरणा : मुनिश्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' म
संपादक - मण्डल
डा. प्रेमसिंह राठौड़
प्रधान सम्पादक
सौभाग्यमल सेठिया, भंवरलाल छाजेड़ सुरेन्द्र कुमार लोढ़ा, वी. टी. वजावत
अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
वी. नि. सं. २५०३
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मंत्री, अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़ (धार) मध्यप्रदेश
श्री राजेन्द्र-ज्योति विश्ववन्द्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. जन्म सार्द्ध-शताब्दी ग्रन्थ
वी.नि.संवत् २५०३ वि.संवत् २०३४ सन् १९७७ ई.
मूल्य : इकतीस रुपये
आवरण एवं अन्य सज्जा: तोलाराम शर्मा, अहमदाबाद
मुद्रण : नई दुनिया प्रेस, इन्दौर-४५२००२, मध्यप्रदेश
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भक्ति का जीवन्त प्रतीक यह ग्रन्थ
'राजेन्द्र ज्योति' ग्रन्थ का प्रकाशन प्रत्येक सुज्ञजन के लिए प्रसन्नता का विषय एवं उल्लास का वर्द्धक है। श्री वीर परमात्मा के शासन में सुविहित परम्परा के संवाहक परम योगीन्द्राचार्य विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय पू. पा. गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सुरीश्वरजी म. के अवतरण से निश्चित रूप से समाज, संघ और राष्ट्र में चेतना आई और उन्हीं के जीवन से विकास के नये क्षितिज भी उन्मुक्त उद्घाटित हुए ।
उनकी साहित्य-साधना उन्हें साहित्यर्षि के रूप में प्रकट करती है और उनकी उदारता उन्हें महर्षि के महोत्तम पद पर आसीन करती है। उनकी तपःपूतता उनमें तेजस्वी ज्योतिर्मय स्थिति का प्रकटन करती है और उनकी त्याग-श्रेष्ठता उनके त्याग-वीरत्व का स्पष्ट दर्शन कराती है।
विश्ववंद्य गुरुदेव प्रभुश्री के प्रति विद्वज्जगत नतशीश श्रद्धावनत है और प्रत्येक उपासक उनके चरणों में समर्पित है । उनके जन्म से जो ज्योति प्रकाशमान हुई वह अद्यापि पर्यन्त अखण्ड रूप से प्रकाश देती रही है । गुरुदेव के जन्म को एक सौ पचास वर्ष अर्थात् सार्द्ध शताब्दी व्यतीत हो चुकी है । मानव जगत् के लिए पू. पा. गुरुदेव श्री का जन्म जागृति और जीवन्तता का द्योतक है, और उनका संयम व क्रियोद्धार भाववर्द्धक एवं सत्यमार्गदर्शन वरदान स्वरूप रहा है। उन्होंने यावज्जीवन संघ शासन की प्रभावना के कार्य किये हैं। .
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की ओर से उन परम उपकारी सरस्वती पुत्र की जन्म सार्द्ध शताब्दी के उपलक्ष्य में श्री "राजेन्द्र ज्योति" ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है यह एक सामयिक एवं अपने सद् गुरुदेव के प्रति सच्ची भक्ति का प्रतीक है।
स्व. पू. पा. गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. के द्वारा परिषद् को स्थापित किया गया और परिषद् अपने लक्ष्य में गतिशील है यह सर्वविदित है । अनेक विध प्रवृत्तियों में परिषद् का इस ग्रन्थ प्रकाशन का कार्य समाज के इतिहासपृष्ठों पर अमिट रूप से अंकित रहेगा। इस कार्य को सम्पन्न करने में सम्पादक-मण्डल ने सराहनीय पुरुषार्थ किया है यह तो स्पष्टतः विदित है ही किन्तु इसमें परिषद् के कर्मठ कार्यकर्ता एवं भू. पू. अ. भा. परिषद् के अध्यक्ष डॉ. श्री प्रेमसिंह राठोड़ एवं परिषद् के कोषाध्यक्ष श्रीशान्तिलालजी सुराणा का अभिनन्दनीय सहयोग, लगन एवं दक्षता को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
डॉ. श्री नेमीचन्दजी जैन, परिषद् के महामंत्री श्री सी. बी. भगत एवं श्री ओ. सी. जैन का सहयोग अविस्मरणीय रहेगा।
परिषद् की गतिविदियों से समाज का प्रत्येक गुरुभक्त सुपरिचित है, उसकी उत्तरोत्तर प्रगति की प्रक्रिया चल रही है। गुरुदेवजी ने जिन विचारों को साकार रूप देने का कहा था उन्हें लक्ष्य में रखकर यह संस्था इसी प्रकार से उल्लेखनीय स्मरणीय कार्यों को करने के लिए भी अपने को जागृत चेता बनाये रखेगी ऐसी आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है।
ग्रन्थ-प्रकाशन में परिषद् शाखाओं ने एवं परिषद् प्रेमी गुरुभक्तों ने जो लाभ लिया है, अवश्य उन्होंने धन्यवादाह लाभ लिया है। शुभम्
-जयन्त विजय 'मधुकर'
नीमबाला उपाश्रय,
रतलाम ज्ञान पंचमी, २०३४
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प्रकाशकीय
चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी का धर्म मार्ग प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी है और आत्मोन्नयन की शुभ प्रेरणा देनेवाला है। वह आत्मशुद्धि का प्रेरक है और आज के इस संत्रस्त, दूषित, कलुषित वातावरण में जीवन को एक मंगलकारी, निर्मल और निष्कलुष राह दिखानेवाला है। इतिहास से पता चलता है कि गत शताब्दी न केवल जैन समाज के लिए वरन् संपूर्ण देश के लिए आचार की शिथिलता की शताब्दी थी। जैनाचार कई शताब्दियों से धूमिल, रूढ़िग्रस्त और अन्धविश्वासी हो उठा था। अनेक उन्मार्ग सन्मार्ग को दूषित करने लगे थे। इसी शिथिलाचार के विरुद्ध एक रचनात्मक क्रान्ति का सूत्रपात किया प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म. ने। उनके अवतरण से समाज में आचरण-शुचिता की जो निर्मल राहें खुलीं उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता । परम पूज्य गुरुदेव ने साधन-साध्य की पवित्रता का प्रतिपादन कर सारे जगत् में जैनधर्म की निर्मलताओं का प्रचार-प्रसार किया और उसकी एक लोकमंगलकारी छबि स्थापित की। उन्होंने अपनी अपरिमित ज्ञान-ज्योति में समस्त विश्व को जगमगा दिया । अकेला "श्री अभिधान राजेन्द्र विश्वकोश" ही त्रिस्तुतिक समाज की एक ऐसी मशाल है, जो सदियों तक प्राच्यविद्या के जिज्ञासुओं का मार्ग प्रशस्त एवं आलोकित करती रहेगी।
परमपूज्य गुरुदेव की इस यशस्विनी परम्परा में हुए प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी म., जिन्होंने भगवान् महावीर द्वारा आलोकित धर्ममार्ग को तो प्रशस्त किया ही, पूज्यपाद गुरुदेव द्वारा प्रवर्तित क्रान्ति को भी अग्रसर किया। उन्होंने श्रीसंघ और समाज को एक सुदृढ़ धरातल प्रदान करने की दृष्टि से श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ पर "अखिल भारतीय श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्" की स्थापना की। उनके पुण्यशाली करकमलों से वपित यह भाग्यशाली बीज आज एक विशाल वटवृक्ष बन गया है, जिसकी शाखा-प्रशाखाएँ देश में दूरदूर तक फैल गयी हैं और जो आज एक महान् संजीवनी-शक्ति की भाँति उत्साहपूर्वक सक्रिय है । परिषद् के प्रमुख उद्देश्य हैं--१. समाज का संगठन, २. धार्मिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार, ३. समाज-सुधार, ४. समाज का आर्थिक विकास । उक्त लक्ष्यों की पूर्ति के लिए परिषद्-कार्यकर्ता दृढ़ संकल्पपूर्वक पुरुषार्थरत हैं; हमें विश्वास है इस कार्य में सबका व्यापक सहयोग सहज ही प्राप्त होगा और हम सफल होंगे।
परिषद्-शाखाएँ इतनी भाग्यशालिनी हैं कि उन्हें वर्तमानाचार्य परमपूज्य श्रीमद्विजयविद्याचन्द्र सूरीश्वर म. के शुभाशीष तो प्राप्त हैं ही श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी के सुशिष्य मुनिराज श्रीजयन्तविजयजी 'मधुकर' म, का अनर्थ्य मार्गदर्शन भीसहज उपलब्ध है। उक्त दोनों विभूतियों के तथा अन्य सभी पूज्य मुनिवरों के शुभाशीष ही हमारी पूंजी हैं, जिसके बल पर हम यह सारा कार्य कर पा रहे हैं।
प्रस्तुत स्मृति-ग्रन्थ परमपूज्य वर्तमानाचार्यश्री के शुभाशीर्वाद तथा मुनिश्री ‘मधुकर' जी म.सा. की पुण्यप्रेरणा से परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के १५० वें जन्म-संवत्सर पर उनके प्रति एक अकिंचन श्रद्धांजलिस्वरूप समाज को सौंपते हुए हमें अत्यधिक हर्ष हो रहा है। स्पष्ट है, यदि इस बृहद् ग्रन्थ के प्रकाशन में
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हमें मनीषी मुनिवरों, यशस्वी विद्वानों और उत्साहनिष्ठ परिषद्-कार्यकर्ताओं तथा पदाधिकारियों तथा नई दुनिया प्रेस, इन्दौर का सहयोग नहीं मिलता तो इतनी स्वल्पावधि में इसका प्रकाशन लगभग असंभव ही था, अतः हम उक्त सबके हृदय से अत्यन्त कृतज्ञ हैं। उन सबके भी हम अत्यधिक ऋणी हैं जिन्होंने अपनी शुभकामनाएँ भेजकर हमें उत्साहित किया है और हमारी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में सहायता की है।
हम राजेन्द्र-ज्योति के संपादक-मण्डल के भी हृदय से कृतज्ञ हैं, जिसने कम-से-कम समय में अधिकाधिक उपयोगी सामग्री जुटाकर इस ग्रन्थ को उस परम विभूति के प्रति एक बहुमुल्य श्रद्धाञ्जलि के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रधान संपादक डा.प्रेमसिंहजी राठौड़ के भी हम आभारी हैं, जिन्होंने प्राप्त सामग्री को व्यवस्थित और संपादित किया, तथा हर कदम पर हमारा सहयोग किया है। इसी तरह हम भाई श्री बसन्तीलालजी पारेख के भी आभारी हैं, जिन्होंने सही वक्त पर सही कागज उपलब्ध कराकर हमारी कठिनाई को आसान किया है। श्री राजेन्द्र-ज्योति के कोषाध्यक्ष भाई श्री शान्तिलालजी सुराणा की बहुमूल्य सेवाओं को तो हम कभी विस्मृत कर ही नहीं सकते, जिन्होंने आठों प्रहर यह काम बड़े समर्पित भाव और निष्ठा से किया है।
ज्ञातव्य है कि प्रकाशन के क्षेत्र में परिषद् का यह सर्वप्रथम चरण है। हम नहीं जानते हमें इस कार्य में कितनी सफलता प्राप्त हुई है, किन्तु हमें विश्वास है कि हमारा यह पुण्यशाली आरंभ समाज को प्रतिक्षण आगे बढ़ायेगा और आत्मोन्नयन में सहायक सिद्ध होगा।
हम आश्वस्त हैं कि समाजरूपी दीपक में स्थापित यह "श्री राजेन्द्र-ज्योति" हमारा भावी मार्ग प्रशस्त करेगी और हम अधिक उत्साह के साथ आगामी सेवाकार्य कर सकेंगे।
कार्तिक शुक्ल ५,
वी.नि.सं.२५०३
सी.बी. भगत,
महामन्त्री, अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
राजेन्द्र-ज्योति
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सम्पादकीय
परम ज्ञानी परमात्मा श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी का शासन अविच्छिन्न गति से प्रवहमान है। इस शासन की पावनता, समग्रता एवं विश्व-कल्याण की भावना सदैव-सर्वत्र अद्वितीय रही है। श्रमण भगवन्त के संजीवनी-सम उपदेशसूत्रों में अभिव्यक्त-प्रकट स्थिति नि:संदेह प्राणिमात्र के लिए समादरणीय और समाचरणीय है।
जीव-जगत् की असाधारण ज्ञातव्यता इस शासन की अपनी मौलिक और अलौकिक है; तत्त्व-व्याख्या एवं निरूपण अनन्य, अप्रतिम और शाश्वत है। कर्मवाद की अचुक-अमोघ व्यवस्था मानव-मात्र को आत्मोन्मुख करने का कल्याणकारी, उत्कृष्ट मार्गदर्शन है; दर्शन जगत् को आलोकित करनेवाली अपूर्व दार्शनिकता आश्चर्य में डालनेवाली है, अनेकान्त और स्याद्वाद की अदृप्त दीप्ति मनुज-मात्र को सत्य की खोज में प्रवृत्त करनेवाली है, नयनिक्षेपप्ररूपण भी वस्तु के यथार्थ व्यक्तित्व को समझने-समझाने में अप्रतिम-बेजोड़ सिद्ध हुआ है। योग-प्रयोग को साधनाभूमिका को खोजने में भगवन्त वर्द्धमान के प्रावचनिकों ने अनवरत-अबाध मंगलकारी पथ-प्रदर्शन किया है, ध्यानोपासना के विविध रूप- स्वरूप-निदर्शन में भी इसका चिरस्मरणीय योगदान है।
जीवन-विज्ञान एवं जीवन-साधना के अन्वेषणपरक दिशाबोध ने जिन-शासन की अट-अविचल परम्परा को ज्वलन्त-जीवन्त बनाया है, विश्व को सत्य की ओर उन्मुख किया है, तथा मानव-समाज की शालीनता को समृद्ध किया है। इसी गौरवशालिनी परम्परा में उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दियों में समर्थ प्रभावक, विश्ववन्द्य, अभिधान राजेन्द्र बृहद् विश्व-कोश के प्रणेता पू.पा. गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज हुए हैं, जिनको उत्कृष्ट तपश्चर्या, त्याग और विशुद्ध क्रियापालन, ज्ञान-ध्यानमयी परमोज्ज्वल आत्मसाधना सदैव अखण्ड-अमर बनी रहेगी। पू.पा. गुरुदेव के जीवन में जिन जोवनोद्धारक गुणों ने स्थान पाया था, वे आज भी समूचे विश्व को अपनी गुणवत्ता के अपराभूत आलोक से प्रेरित कर रहे हैं। उनकी बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था के कृतित्व में श्रीमद् के इस गुण-गौरव-समृद्ध व्यक्तित्व का प्राञ्जल-प्रखर प्रतिबिम्बन हुआ है।
परम पूज्य श्रीमद् का अवतरण उस युग में हुआ था जिस युग में संपूर्ण मानव-जगत् एक व्यापक कान्तिउत्क्रान्ति के दौर से गुजर रहा था। जहाँ एक ओर राष्ट्रीय क्षेत्र में अनेक देशभक्त संस्कृति-रक्षण एवं “स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" का नारा देकर देशवासियों में अपूर्व राष्ट्रीय चेतना का शंखनाद कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर सामाजिक, धार्मिक एवं नैतिक क्षेत्रों में त्यागिवर्ग अपने ज्ञान का प्रकाश उत्कीणित कर सदियों से व्याप्त उदासी, अन्धविश्वास और अज्ञान-अंधकार को समाप्त करने के लिए समाज में अलख जगा रहा था, उसमें नवीन प्राण-प्रतिष्ठा कर रहे थे। उसकी तत्परता और लक्ष्य के प्रति अविचल दृढ़ता धार्मिक जीवन को नयी करवट और अंगड़ाई के लिए उत्साहित कर रहा था।
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महान् योगीन्द्राचार्य पू.पा. श्रीमद् गुरुदेवश्री ऐसे मूर्धन्य महापुरुषों में प्रमुख थे; उन्होंने निबिड अन्धकार से प्रकाश की और गतिमान किया संपूर्ण मानव-समाज को। दिशा-भ्रष्ट भ्रान्त जन-मानस को उन्होंने अपनी दिव्य प्रतिभा से सत्य के मार्ग पर प्रतिष्ठित किया। श्रीमद् गुरुवर न केवल एक उद्भट-प्रखर विद्वान् हो थे अपितु एक सशक्त, दृढ़संकल्पी शास्ता और प्रशासक भी थे। उन्होंने जिन-शासन की वास्तविकता का वस्तुनिष्ट मूल्यांकन किया था और उसे अपने चरित्र में अक्षरशः आचरित किया था। उनका उद्घोष था कि हमने जिन-मार्ग की मर्यादाओं का मंजन किया है, हम त्याग को छोड़ राग की ओर तेजी से कदम उठा रहे हैं, वीतरागी महापुरुषों के अनुयायी का जामा पहने हुए हम वीतराग-भाव की महत्ता को विस्मृत किये जा रहे हैं; अतः हमें वस्तुस्थिति को पहचानना चाहिये और सत्य की ओर संकल्पपूर्वक मुड़ना चाहिये। उनका स्पष्ट कथन था कि सत्य हमारी मुट्ठी से छट गया है और हम भ्रम में सत्याभास के पीछे दौड़ रहे हैं, ऐसा करने से क्या कभी सत्य तक हमारी पहुँच बन पायेगी ?
परमात्मा भगवन्त महावीर देव के पंचम गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी की पट्टपरम्परा में आपने जो प्रकाशस्तम्भ स्थापित किये हैं, वे चिरस्मरणीय हैं। श्रीमद् गुरुदेव अखण्ड ब्रह्मचारी एवं वीर-वचनानुसारी जीवन-यापन करने वाले थे। मेडियाधसान की तरह सामाजिकों में आयी अधार्मिक विकृतियों को आपने अयोग्य और अकल्याणकारी घोषित किया था, और गगनभेदी स्वर में कहा था कि इन विकृतियों के लिए तत्कालीन तनावी मावुक हो उत्तरदायी हैं। आपने बिना किसी पूर्वाग्रह और संकोच के अभयपूर्वक शुद्धिकरण को अत्यन्त आवश्यक बताया। आपके "नवकलमी क़लमनामे" ने समाज को एक नवोत्थान दिया और जिनवाणी की सत्यता को पुनः प्रतिष्ठित किया।
जिनशासन-प्रभावक, सत्यमार्ग-प्रचारक पू.पा श्रीमद्गुरुदेव का जन्म सं. १८८३ में भरतपुर नगर में हुआ था और स्वर्गवास वि.सं १९६३, पौष शुक्ला ७ को राजगढ़ में। पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज, जो परिषद् के संस्थापक हैं, के पावन-पुनीत नेतृत्व एवं प्रेरणा से श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ पर वि.सं. २०१३ में दिवंगत अर्द्धशताब्दी-उत्सव भव्य-मनोज्ञ रूप में संपन्न किया गया। इस शुभ अवसर पर पूज्यपाद श्रीमद् गुरुदेवजी का स्मारक-ग्रन्थ भी समाज के तत्त्वावधान में प्रकाशित किया गया, जो गुरुदेव की अमर कीर्ति का शाश्वत स्मारक आज भी बना हुआ है।
अपने परम गुरुदेव के अनन्य उपकार और शासन-प्रभावना को अमर कृति को विश्व में प्रकाशित करने वाले गुरुप्रवर श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की चिरस्मरणीय शासन-सेवा साहित्य-समृद्धि एवं सत्य-सिद्धान्तों के उद्घोषण-स्थापन की उदात्त-मंगलकारी सेवा को संघ-समाज कैसे विस्मृत कर सकता है ? आत्मोपकारी गुरुदेवश्री की दीक्षा सं. १९५४ में खाचरौद के प्रांगण में उन समर्थ कर-कमलों से संपन्न हुई, जिनकी महिमा सर्वत्र व्याप्त है तथा जिनको पावन-पुनीत स्मृति में प्रस्तुत ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के दीक्षाग्रहण को ६० वर्ष की सुदीर्घावधि हो चुकी थी; अतः वर्तमानाचार्य श्रीमद् विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. की प्रेरणा से “हीरक जयन्त्युत्सव” खाचरौद नगर में संपन्न किया गया और एक विशाल ग्रन्थ "श्रीमद् यतीन्द्र सुरि अभिनन्दन ग्रन्थ" उन्हें समर्पित किया गया, जो विविध भाषाओं और खण्डों में विद्यमान है।
व्या.वा. गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के करकमलों से सं. २०१६, कार्तिक शुक्ला १५ को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर “श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की स्थापना समाज के लिए एक महती आवश्यकता की पूर्ति के रूप में हुई, आज जिसका कार्यक्षेत्र अखिल भारतीय रूप में समाज के सम्मुख समुपस्थित है।
परम योगिराज गुरुदेवश्री का पुनीत नाम उक्त संस्था के साथ जुड़ना एक परम आशीर्वाद रूप बना है। उन्हींके उस प्रेरक-पुण्यशाली नाम से प्रत्येक परिषद्-कार्यकर्ता में जागृति, स्फूर्ति, और अदम्य उत्साह विद्यमान
राजेन्द्र-ज्योति
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है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपने लक्ष्यबिन्दुओं पर सजग परिषद् का सर्वत्र प्रसार हुआ है। यह उस नाम की महिमा है और एक मंगलमय संकेत है। हमारा कर्तव्य है कि हम इसे और व्यापक, प्रबुद्ध और प्रगतिशील बनायें ।
पूज्यपाद शासन प्रभावक कविरत्न वर्तमानाचार्य श्रीमद् विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. के शुभाशीर्वादों से परिषद् की निरन्तर प्रगति हो रही है। इन्हीं वर्तमानाचापेथी की शुनामा से इस वर्ष मुनिराज श्री जयन्तविजयजी "मधुकर", मुनिश्री विनयविजयजी म., मुनिश्री नित्यानन्द विजयजी का रतलाम नगर में चातुर्मास हुआ। यह योग अनेक शुभ योगों का सुखद संयोग लेकर आया ।
परिषद् का केन्द्रीय कार्यालय श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ है, किन्तु उपकेन्द्र रतलाम होने से पूज्य मुनिश्री का चातुर्मास परिषद् के लिए विशेष वरदान रूप सिद्ध हुआ ।
पूज्य मुनिश्री के नगर प्रवेश के बाद हमने उनसे परिषद् के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से विचार-विमर्श किया, अतः हमें उनका मार्गदर्शन एवं सहयोग अबाध - अनवरत रूप में मिलता रहा। पूज्य मुनिश्री "मधुकर" जी ने ज्ञान- संवर्द्धन की योजनाओं को विशेषतः अपनाने और क्रियान्वित करने की प्रेरणा दी। परिषद् ने उनके सत्परामर्श को मूर्त रूप देने का सुदृढ़ संकल्प भी प्रस्तुत किया। विविध आयोजनाओं और संकल्पनाओं में एक यह भी थी कि पू. पा. श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के जन्म को १५० वर्ष हो रहे हैं अतः परिषद् के माध्यम से इस अवसर पर एक स्मारक ग्रन्थ क्यों न प्रकाशित किया जाए ? बात सम्मान्य और अनुकरणीय थी अतः योजना बनायी गयी और तदनुसार कार्यक्रम को मूर्तरूप देने के लिए परिषद की ओर से हमें इस कार्य हेतु नियुक्त किया गया।
पूज्यपाद वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म. के शुभाशीर्वाद एवं मुनिश्री जयन्तविज"मधुकर" की बलवती प्रेरणा के साथ हमने उक्त गुरुतर कार्य का सूत्रपात किया । प्रसन्नता है कि परिषद् ने हममें योग्यता एवं विश्वास रख जो कार्य सौंपा था, उसका निर्वाह हमने यथामति, यथाशक्ति किया है। वह कैसा रहा, इसका मूल्यांकन प्रस्तुत ग्रन्थ के माध्यम से ही संभव होगा ।
प. पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी "मधुकर" को तो हम कदापि विस्मृत नहीं कर सकेंगे, जिन्होंने हमारे इस गुरुवार कार्य में अनुपम, अनुक्षण उल्लेखनीय मार्गदर्शन एवं सहयोग प्रदान किया है। उसी के फलस्वरूप आज हम अपने गन्तव्य तक पहुँच सके हैं, कहें, सफलतापूर्वक पहुँच सके हैं ।
यहाँ हम उन्हें नहीं भुला सकते, जिन्होंने हमारे इस गुरुतर, गहन कार्य को संस्था का आदेश मानकर अपना अभूतपूर्व सहयोग दिया है। ऐसे व्यक्तियों में प्रमुख हैं "श्री राजेन्द्र- ज्योति" के कोषाध्यष श्री शान्तिलालजी सुराणा, जिन्होंने हमारे उत्साह को प्रतिपल, प्रतिपग बनाये रखा और इस कार्य को संपन्न करने में अपूर्व योगदान किया ।
परिषद् के उपाध्यक्ष श्री जे. के. संघवी एवं श्री रमेश झवेरी को भी हम इन क्षणों में नहीं बिसार सकते, जिन्होंने यहाँ एवं बम्बई रहकर श्रीराजेन्द्र ज्योति के गुजराती-खण्ड के प्रकाशन में अभिनन्दनीय सहयोग प्रदान किया ।
जैन समान के अग्रणी और 'प्रबुद्ध जीवन' जैसे प्रशस्त गुजराती पाक्षिक (बम्बई) के विद्वान सम्पादक श्री चिमनलाल चकुभाई शाह के भी हम हृदय से कृतज्ञ हैं जिन्होंने गुजराती खण्ड के भुद्रण में हमें तत्पर एव अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया है।
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हम परिषद् के वरिष्ठ कार्यकर्ता एवं शाखा परिषद् के उन उत्साही नवयुवकों को भी नहीं भुला सकते, जिन्होंने तन-मन-धन से भरपूर सहयोग देकर हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में अपना बहुमूल्य सहयोग दिया है।
पूर्वक स्वजन समस्त विनान लेखकों के भी हम अत्यन्त कृताश हैं जिन्होंने हमारे अत्या
उन समस्त विद्वान् लेखकों के भी हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं, जिन्होंने हमारे अत्यल्पावधिक निमंत्रण को आत्मीयता पूर्वक स्वीकार कर अपनी मूल्यवान रचनाएँ भेजने की उदारता दिखायी है।
डा. नेमीचन्दजी जैन को हम कभी भी विस्मृत नहीं कर सकेंगे, जिन्होंने श्रीमद् गुरुदेव के प्रति अत्यन्त समर्पित भाव से इस ग्रन्थ की प्रकाशन-व्यवस्था में शब्दातीत कार्य किया है।
बागरा-निवासी भाई बसन्तीलालजी, रतलाम निवासी श्री ओ. सी. जैन, भू. पू. सहा. महामंत्री, एवं स्थानीय शाखा परिषद् के सहयोगियों को भी भूला नहीं जा सकता, जिन्होंने हमारे इस कार्य में यथेच्छ सहयोग दिया है।
आर्थिक दानदाताओं में श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय संघ अहमदाबाद, जोधपुर, थराद, तणुकु एवं जैनधर्मानुरागी श्री जैन शिक्षण समिति, मन्दसौर का सहयोग उत्साहवर्द्धक रहा है। शाखा परिषद् एवं अन्य दानदाताओं ने इस पुण्यकार्य में हमें जो सहयोग प्रदान किया है तदर्थ हम उन सबके हृदय से कृतज्ञ हैं।
नई दुनिया प्रेस, इन्दौर के संचालक-मण्डल के प्रबन्धक महोदय श्री हीरालाल झांझरी के भी हम आभारी हैं, जिन्होंने अत्यल्प अवधि में सुरुचिपूर्वक इस ग्रंथ का कलात्मक मुद्रण किया है।
अन्त में हम उन समस्त महानुभावों के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने “श्री राजेन्द्र-ज्योति" के प्रकाशन में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हमें अपना मूल्यवान सहयोग दिया है।
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, कार्यालय, रतलाम, मध्यप्रदेश
डा. प्रेमसिंह राठौड़, प्रधान सम्पादक,
कार्तिक शुक्ला १, वि. सं. २०३४, वी. नि. सं. २५०३ खीस्ताब्द १९७७
सहयोगी संपादक सौभाग्यमल सेठिया, भंवरलाल छाजेड़, सुरेन्द्र कुमार लोढ़ा, वी. टी. वजावत
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राजेन्द्र-ज्योति
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भक्ति का जीवन्त प्रतीक यह ग्रन्थ
प्रकाशकीय
सम्पादकीय
विषय-सूची
शुभ कामना ान
गुरु-भक्ति भावना (कविता) प-पाति (कविता) कुसुमाञ्जलि (कविता) श्री राजेन्द्र स्तवन (कविता) मेरे गुरु राजेन्द्र को (कविता) गुरु अन्य-भूमि वर्णन (कविता) अध्यात्मवादी कवि श्रीमद् राजेन्द्र सूरि श्रीमद् राजेन्द्र सूरीणां साहित्यिक जीवनम् रत्नज्योति
वचनसिद्धि पूज्य गुरुदेव की
ज्योतिष एवं श्रीमद् राजेन्द्र सूरि
श्रद्धाञ्जलि
विराट
श्रीमद् की साहित्य साधना
श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय गुर्वावली
सम्पूर्ण राजेन्द्रसूरि वाडमय
श्री कल्पसूत्र बालावबोधिनी वार्ता एक अध्ययन
बी. नि. सं. २५०३
विषय-सूची
द्वितीय खण्ड : गुरुदेव / कृतित्व, व्यक्तित्व, परम्परा
प्रथम खण्ड
श्रीमद् विद्याचन्द्रसूरि हीरालाल शास्त्री शितिकण्ठ शास्त्री
मुनि धर्मविजय
मानमल पारख
मन्नालाल चौपड़ा श्रीमद्वचन्द्रसूरि शितिकण्ठ शास्त्री शशि भण्डारी
जे. के. संघवी
मुनि जयन्तविजयजी कुन्दनलाल डांगी डॉ. अमरा जैन बसन्तीलाल जैन
संकलन
तीर्थ कर विशेषांक से साभार
डॉ. नेमीचन्द जैन
११
१७
२३
বষ yo yo g g us 9 m
१०
११
१३
१५
१६
१७
१९
२०
२३
११
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कवियर प्रमोद और उनका ऐतिहासिक 'विनतिपत्र' आत्मषि पू. पा. श्रीमद् राजेन्द्र सूरि
तपोधन श्रीमद् राजेन्द्र रि
गुरुदेव के बढ़ते चरण गुदेव द्वारा सम्पन्न प्रतिष्ठाएँ भरतपुर का कोहिनूर
पूज्य श्री गुरूदेव एवं समाधि स्थान श्री मोहनखेड़ा
श्रीमद् गुरुदेव और पांच तीर्थ
धन्य धनचन्द्र सूरि आचार्य विजय भूपेन्द्र पूरि
समता सागर भूपेन्द्र सूरि
श्री प्रकाश पुञ्ज यतीन्द्र श्रीमद् राजेन्द्र सूरि : एक जीवन गाथा एक जीवन गाथा: विजय यतीन्द्र सूरि
विजय विद्याचन्द्र सूरि जीवन गाथा शान्तमूर्ति उपाध्याय श्री मोहनविजयजी उपाध्याय श्री गुलाब विजयजी
श्रीमद् का प्रमुख श्रमणी वृन्द विश्ववंद्य राजेन्द्र सूरि और हम कुक्षी और गुरुदेव
"तीनथुइ" आम्नाय : मान्यताओं का एक निष्पक्ष मूल्यांकन मुनिश्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' की साहित्य-साधना
तृतीय खण्ड: समाज-दर्शन
समाज दर्शन-- रतलाम, कवनारा, नयागांव, मद्रास, सायला, आलोट, रिंगनोद, खाचरोद
त्रिस्तुतिक संघ इन्दौर विगत ५० वर्ष
:
जैन शिक्षण प्रसार समिति, मन्दसौर
श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक श्री संघ, बाग (धार)
मन्दसौर और गुरुदेव
गुड़ा बालोतान रेवड़ा
बेंगलोर स्थित जैन श्वेताम्बर धार्मिक संस्थाएं 'सामाजिक क्रान्ति करें !
नवयुवक
रतलाम का ऐतिहासिक चातुर्मास एक अवलोकन
रतलाम के समीपवर्ती दर्शनीय स्थल
चतुर्थ खण्ड जैन तत्व/ज्ञान/दर्शन
पाये और महावीर का
भेद
महावीर : जीवन और मुक्ति के सूत्रकार
महावीर की महिमा
महावीर की वाणी
कविता
अमीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
तीन मुक्तक
कविता आचार्य सिद्धसेनगण और तत्वार्थभाष्य वृत्ति
इन्द्रमल भगवानजी रमेश आर. जवेरी
कनकमल लुणावत
चम्पालाल गांधी
श्री महेन्द्रश्रीजी महेन्द्र भण्डारी शांतिलाल डूंगरवाल
मुनिराज पुण्यविजयजी
सोनेरी संभारण से अनूदित
मुनिन्द्र वर
बसन्तीलाल जैन
मुनि नित्यानन्द विजय मुनि अयन्त विजय मधुकर' विनोद संघवी तिम्
ओ. सी. जैन मनोहरलाल जैन
मुनि जयंती मधुकर' डा. नेमीचन्द जैन
मोतीलाल संघवी
भंवरलाल चौपड़ा
प्रकाशचन्द्र कांठेड़
ललितकुमार संघ
मुनि नथमलजी
प्रो. जयकुमार 'जल' लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' कैलास 'तरल'
उपाध्याय विद्यानन्द मुनि दिलीप जैन डॉ. अमरा जैन
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राजेन्द्र ज्योति
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वर्तमान समाज और भगवान महावीर का सनेकान्त सिद्धान्त तत्त्वामिव्यक्ति निर्बाध शैली : स्याद्वाद जैन दर्शन के मूल तत्त्वों का संक्षिप्त स्वरूप व्यवहार, निश्चयनय व अनेकान्तवाद हम और हथकड़ी (गद्यगीत) अपरिग्रह : एक अनुचिन्तन अपरिग्रह भगवान् महावीर की वाणी में अपरिग्रह जैन, बौद्ध और गीतादर्शन में मोक्ष का स्वरूप : एक तुलनात्मक अध्ययन कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप जैन दर्शन में कर्मवाद की महत्ता जैन दर्शन में पुद्गल का स्वरूप जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक विवेचन जैन दर्शन का तात्त्विक पक्ष : वस्तु स्वातन्य आध्यात्मिक विकास के सोपान कर्मणाधर्म; समाजवाद (कविता) रीता दिन (गद्यगीत) गुणस्थान-आत्मोत्थान के सोपान जैन धर्म में स्त्रियों के अधिकार आत्म विश्वास का तुलनात्मक अध्ययन ध्यान साधना : आधुनिक सन्दर्भ आत्मा आनन्द धन स्वरूप है वैराग्य उपवास और आध्यात्मिक विकास खुशियों के अम्बार सजाऊँ नमस्कार-ज्योति कुछ मुक्ताएँ जैन धर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान जैन साहित्य : श्वेताम्बर, दिगम्बर जैन साहित्य में लोक कथा के तत्त्व जैन गणित की अप्रितम धाराएँ मालव का जैन वाङमय चतुर्विंशति पट्ट या चौबीसी महावीर पूर्व जैन धर्म की परम्परा : आत्मानुसन्धान की यात्रा समाज क्या प्रगति के पथ पर है ? कामनाओं का अन्त करना ही दुःख का अन्त करना है महावीर युगीन काल भारतीय कला में पुराण-कथाएँ शेखावटी में जैन इतिहास के अनुसन्धान की आवश्यकता रामायण की लोकप्रियता अमरीकी संग्रहालयों एवं निजी संग्रहों में जैन प्रतिमाएँ जैन योग : एक चिन्तन महिला समाज को महावीर-दर्शन की देन अकार का महत्त्व ओसवाल जाति का इतिहास
श्रीचन्द्र चौरड़िया रमेशमुनि शास्त्री साध्वी धर्मशीला फूलकुंवर जैन वापूलाल सकलेचा आचार्य आनन्द ऋषि डॉ. वीणा जैन प्रो. श्रीचन्द्र जैन डॉ. सागरमल जैन उपाध्याय अमर मुनि साध्वी प्रियदर्शनाश्रीजी चन्द्रकान्त संघवी डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल मुनि यतीन्द्रविजयजी बशीर अहमद 'मयूख' दिनकर सोनवलकर मुनि महेन्द्रकुमारजी पं. परमेष्ठीदास जैन साध्वी सुदर्शनाश्रीजी डॉ. नरेन्द्र भानावत रतनलाल कांठेड स्वामी शिवानन्द शास्त्री मानकलाल गिरिया कोकिला भारतीय मफतलाल संघवी पं. शान्तप्रकाश बालचन्द कोठारी डॉ. रमेशचन्द्र राय डॉ. बसंतीलाल बम प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन डॉ. तेजसिंह गौड़ शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी डॉ. महावीर सरन जैन मुनि विचक्षणविजयजी मानव मुनि डॉ. एस. एम. पहाड़िया प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी डॉ. मनोहर शर्मा वर्द्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री डॉ. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा देवेन्द्रमुनि शास्त्री डॉ. शान्ता भानावत बद्रीलाल जैन अगरचन्द नाहटा
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जैन समाज की दिशा उत्थान या पतन जन समाज द्वारा धार्मिक शिक्षण-व्यवस्था जैन कौन? साधना और सम्यग्दर्शन जैन धर्म का मूलाधार : सम्यग्दर्शन श्री तीर्थकर परमात्माओं की लोकोत्तर चार उपमाएँ तीर्थंकरों के लांछन और शासन देवता महाराष्ट्र की संस्कृति पर जैनियों का प्रभाव जैन कथा साहित्य : एक पर्यवेक्षण जैन विद्वानों द्वारा हिन्दी में रचित कुछ वैद्यक ग्रन्थ जैन धर्म जीवरक्षा : सुष्ठि सन्तुलन के लिए आवश्यक जैन योग : एक चिन्तन अध्यात्म वैभव ललित विस्तारगत वस्तु विचार : तत्कर्तुश्च समासतः परिचय :
सी.बी. भगत सौभाग्यमल जैन सौ. पारसरानी मेहता मुनि अजितकुमारजी डॉ. प्रेमसिंह राठौड़ श्री विजयसुशील सूरि बालचन्द जैन रिषभदास रांका मुनि जयन्त विजय 'मधुकर' आचार्य राजकुमार यशवन्तकुमार नांदेचा हुकमचन्द पारेख देवेन्द्र मुनि शास्त्री मुनि नरेन्द्र विजयजी श्री भद्रंकर सूरि
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पंचम खण्ड : जैन तीर्थ/शिल्प/कथाएं
रेगिस्तान का प्राचीन तीर्थ श्री भांडवाजी चमत्कारों की दुनिया में श्री महरि पार्श्वनाथ तीर्थ क्षेत्र श्री लक्ष्मणीजी सांडेराव के जैन मन्दिर जैसलमेर जैन मन्दिर एवं उनकी कलात्मक समृद्धि चित्र और सम्भूति मुनि
भूरचन्द्र जैन मुनि राजरत्नसागरजी मुनि जयंतविजय 'मधुकर' वैद्य चुन्नीलाल विजयशंकर श्रीवास्तव राजमल लोढ़ा
पष्ठम खण्ड : परिषद्-दर्शन
प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण
श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरि प्रदत्त आशीर्वाद श्रीमद्यतीन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा प्रदत्त रतलाम अधिवेशन संदेश श्रीमद् यतीन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा प्रदत्त शुभ प्रेरणा श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् रतलाम अधिवेशन संघ प्रमुख श्री विद्याविजयजी द्वारा प्रदत्त खाचरौद अधिवेशन में परिषद् के प्रति
शुभ कामना मेवाड़ प्रान्तीय राजेन्द्र नवयुवक परिषद् तृतीय अधिवेशन संघ प्रमुख विद्याविजयजी द्वारा प्रदत्त संदेश चतुर्थ अधिवेशन विजय विद्याचन्द्र सूरि का शुभ सन्देश अ. भा. राजेन्द्र नवयुवक परिषद् मोहनखेड़ा अधिवेशन विजय विद्याचन्द्र सूरि द्वारा प्रदत्त अधिवेशन संदेश अ. भा. राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् नवम् अधिवेशन विजय विद्याचन्द्र सूरि का समाज के नाम संदेश विजय विद्याचन्द्र सुरि का परिषद शाखाओं के नाम संदेश विजय विद्या चन्द्र सूरि की नवयुवकों के प्रति शुभ कामना विजय विद्याचन्द्र सूरि द्वारा निम्बाहेड़ा अधिवेशन के प्रति संदेश
प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण प्रति मुद्रण
राजेन्द्र-ज्योति
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न. भा. नवयुवक परिषद् एकादश अधिवेशन भ. भा. नवयुवक परिषद् के निमित्त प्राप्त शुभ सन्देश वकास के चौखटे में : परिषद् की तस्वीर 'मधुकर" मधुमय जीवन कर दो (कविता) पार्थना (कविता) नात्म शुद्धि गीत (कविता) संगल गीत (कविता) 1. भा. राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् T. भा. राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के उद्देश्य रिषद् की उपलब्धियां राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का उद्गम एवं विस्तार परिषद् की समाज में आवश्यकता परिषद् कान्ति का शंखनाद समाज में परिषद् का आर्थिक योगदान परिषद् क्यों? रे मान मत कर (कविता) परिषद् की चौखट से परिषद् : उद्भव, प्रेरणा, प्रगति परिषद् की उपादेयता परिषद् शाखाएं आचार्य श्री यतीन्द्र और परिषद् परिषद के अधिवेशन परिषद् कार्य समिति की बैठक केन्द्रीय अधिवेशन प्रतियोगिताएँ : एक रपट शाश्वत धर्म परिषद् के चार उद्देश्य यज्ञ का घोड़ा हमें गन्तव्य पर पहुंचना है जैन दर्शन : वार्तालाप ग्रन्थ प्रकाशन के सहयोगी दानदाता
प्रति मुद्रण श्री कल्याण विजयजी केन्द्रीय कार्यालय निर्मल सकलेचा म नि लक्ष्मण विजय 'शीतल' महेन्द्र भंडारी 'शलम' डॉ. शोभनाथ पाठक मुनि लेखेन्द्र शेखर विजय कांतिलाल जैन सौभाग्यमल सेठिया भंवरलाल छाजेड़ जुगराज के. जैन डॉ. प्रेमसिंह राठोड़ शान्तिलाल सुराणा बालचन्द जैन मांगीलाल बुरड़ सुरेन्द्र लोढ़ा हस्ति सी. कर्नावट सुजानमल जैन केन्द्रीय कार्यालय सुजानमल सोनी कार्यालय द्वारा
नलिनकुमार संघवी सुरेन्द्र लोढ़ा शाश्वत धर्म से साभार भंवरलाल नांदेचा फकीरचन्द जैन चन्द्रकान्ता भंडारी
सप्तम खण्ड : गुजराती
मुनि जयन्तविजयजी 'मधुकर'
परम योगी श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरिजी महाराज स्वावलम्बननी प्रेरणामूर्ति पू. गुरुदेवनी स्मृतिथी सर्जन श्रेयमार्गी श्राविका अने आदर्श आराधिका-सुलसा जैन धर्मना प्रचार माटे नाटक-कलानो उपयोग श्री जिनागम अने जैन साहित्य द्वादशार नयचक्र : एक चिन्तन जय श्री स्थंमन पार्श्वनाथ : एक परिचय भगवान महावीरे चौधेलोमूल मार्ग कर्मवादनी सामान्य रूपरेखा
कीतिलाल वोरा पूनमचन्द दोशी मुनि शीलचन्द्र विजयजी कपूरचन्द वारेया मुनि विक्रम सूरीश्वरजी
संकलन मुनि अमरेन्द्र विजयजी खूबचन्द पारेख
वी. नि. सं. २५०३
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साधना मानो सक्रिय शुभारम्भ अर्थात् देशविरती धर्म (बार व्रतो) राजनगर अने गुरुदेव गौरववन्ती धरती-थरादनी
साध्वी स्वयंप्रभाश्रीजी बचुभाई धारू चन्द्रकान्त वोरा ..
.
अष्टम खण्ड : अंग्रेजी ।
1. Role of Jainism in Modern India 2. Jainism in South India
Jainism in Tamilnad 4. The Attendant Devis of Jinas 5. Evolution of the Sanskrit Stage
6. Jainism in South India . 7. Rajendra Suri: A Reformer and Revivalist
R. H. Kapadia T. K. Tukol S. Gajpathi C. L. Prabhakar N. P. Unni G. V. Raju B. N. Luniya
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परमपूज्य जैनाचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वर जी म. के
— शुभाशीर्वचन
राजे-ज्योतिसरे अनूठी Che2/10dhराजनराजयोग हास (21 ( Meli पहा) देतान आलोवास जनाको है।वेकोलीन यह यक्ष धा। 30 मेरी यह स4 11 न।
विमा सरि
A
राजेन्द्र ज्योति वी.नि.सं. २५०३
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संयमवयः स्थविर मुनिराज श्री लक्ष्मीविजय जी म.
ज्योतिषरत्न स्व. मुनिराज श्री सागरानन्द विजय जी म.
(
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श्री ' राजेन्द्र ज्योति' के संपादन में व्यस्त प्रेरक मुनिराज श्री जयन्त विजय जी 'मधुकर' एवं प्रधान संपादक डा. प्रेमसिंह राठौड़
श्री सुरेन्द्रकुमार बोड़ा
- श्री बी. टी. बजावत
श्री भंवरलाल छाजेड़
श्री सोभाग्यमल सेठिया
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परिषद् की प्रकाशन-शाखा प्रमुख पदाधिकारी
अध्यक्ष
महामंत्री
श्री भंवरलाल जी छाजेड़
श्री सी. बी. भगत
कोषाध्यक्ष (परिषद् एवं राजेन्द्र-ज्योति)
श्री शान्तिलाल सुराणा
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शुभकामना सन्देश
गला परापत
उपराष्ट्रपति, भारत
नई दिल्ली
मुझे प्रसन्नता है कि श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के तत्त्वावधान में आचार्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी के १५० वें जन्म दिवस के उपलक्ष में 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। आचार्य श्री को मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ तथा आपके सुखद प्रयास की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएं भेजता हूँ। जुलाई ३०, १९७७
-ब. दा. जत्ती (उपराष्ट्रपति, भारत)
निजी सचिव, रक्षामंत्री
नई दिल्ली दिनांक ३० जुलाई '७७
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, राजगढ़ (धार) द्वारा 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है, यह आपके पत्र दिनांक २४ जुलाई, १९७७ से माननीय रक्षामंत्री, श्री जगजीवनरामजी को ज्ञात हुआ।
माननीय मंत्रीजी की शुभकामना है कि ग्रंथ अपने लक्ष्य में सफल सिद्ध हो ।
-धर्मचन्द गोयल निजी सचिव, रक्षामंत्री
वी. नि.सं. २५०३
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नवीपेठ अहमदनगर, ४१४००१
( महाराष्ट्र)
दिनांक २५-७-७७ नवयुवक संस्कार एवं धर्म-भावना से ओतप्रोत बने । इस प्रकार के लेखा का यह प्रकाशन इष्ट एवं प्रशंसनीय है। खोजपूर्ण लेखों का संचय करके 'राजेन्द्र-ज्योति' अखण्ड धर्म-ज्योति को प्रकटित करे । जहाँ-जहाँ धर्म-भावना, परस्पर सामंजस्य तथा समाज-भावना की वृद्धि का प्रयास होता हो, वहां हमारी मंगल कामनाएँ हमेशा उपस्थित ही रहेंगी।
----आचार्य आनंद ऋषि
वीरायतन राजगृह दिनांक ३०-८-७७
महान् दिव्य आत्माओं के स्मृति-ग्रंथ उनकी स्मृति के उज्ज्वल चित्र जन-जीवन के समक्ष उपस्थित करने के एकमात्र उदात्त हेतु है। अतः नवयुवक परिषद् के इस आदर्श आयोजन का हृदय से स्वागत करता हूँ। आशा है, यह ज्योतिर्मय प्रयास भविष्य की परम्परा को सूचिर प्रकाश देता रहेगा।
--उपाध्याय अमरमुनि
राजेन्द्र भवन, राजगढ़ (धार)
दिनांक ३०-८-७७
यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई कि आपकी सत्प्रेरणा से रतलाम से 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रंथ शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है।
'राजेन्द्र-ज्योति' अपने ज्ञानालोक से अज्ञानान्धकार का नाश करती हुई जन-मानस को कल्याणकारी ज्ञान रूपी प्रकाश से आलोकित कर अपने नाम को सार्थक करे और इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हो, यही शुभकामना है ।
-मुनि शान्ति विजय
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शाही बाग,
अहमदाबाद ता०२-८-७७
गत शताब्दी के ऐसे महान् प्रभावक जैनाचार्य के जन्म को डेढ़ सौ वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। इस निमित्त को लेकर अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् ने 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रंथ प्रकाशित करने की योजना बनाई है, यह जानकर प्रसन्नता हई । मैं आपके इम कार्य की सफलता चाहता हूं।
-श्रेणिक कस्तुर भाई
निर्मल' थर्ड फ्लोअर नरिमान पाइण्ट बम्बई : ४०००११ ४ अगस्त, ७७
आपके पत्र से यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आचार्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी के १५० वें जन्म-दिवस के अवसर पर परिषद् द्वारा 'राजेन्द्र-ज्योति' ग्रंथ प्रकाशित कर रहे हैं ।
मैं इस प्रयास की सराहना करता हूँ और आशा करता हूँ कि ग्रंथ विविध शोधपूर्ण सामग्री से परिपूर्ण होगा। इस प्रकाशन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
-श्रेयांसप्रसाद जैन
बरार हाउस, २३९ अब्दुल रहमान स्ट्रीट, बम्बई, ४००००३. दिनांक ४-८-७७
युवक परिषद् पूज्य आचार्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के जन्म-दिवस के उपलक्ष में ‘राजेन्द्र-ज्योति' ग्रंथ का प्रकाशन कर रही है-जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई।
मैं अस्वस्थ हूँ। अतः रचना भेजना संभव नहीं है; किन्तु अपनी हार्दिक शुभकामनाएं भेज रहा हूँ।
-शादोलाल जैन
वी. नि.सं. २५०३
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सस्ता साहित्य मण्डल,
प्रधान कार्यालय एन-७७ कनॉट सर्कस,
नई दिल्ली
दिनांक ४-८-७७ यह जानकर हर्ष हुआ कि आप श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के जन्म के डेढ़ सौ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रंथ प्रकाशित कर रहे हैं। मैं आपके इस आयोजन का हार्दिक स्वागत करता हूँ और कामना करता है कि ग्रंथ उपयोगी तथा प्रेरणादायक बने ।
मेरी मान्यता है कि वर्तमान समय में जैन-समाज का बड़ा भारी दायित्व है। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, आदि सिद्धान्तों को जीवन में लाने के लिए आज स्वर्णिम अवसर है। हमारा राष्ट्र अब गांधीजी के सिद्धान्तों पर अपना शासन चलाने के लिए वचनबद्ध है। यदि जैन-समाज अहिंसा आदि सिद्धान्तों पर स्वयं अमल करके उनकी तेजस्विता प्रकट करे तो कोई भी कारण नहीं कि अन्य समाज उससे प्रेरित न हो।
वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को शुद्ध तथा प्रबुद्ध करने के लिए श्रद्धेय राजेन्द्र सूरीश्वर महाराज ने बहुत कुछ किया था। हमें उनके कृतित्व का स्मरण करना और उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना है।
मैं आशा करता हूं कि आपका ग्रंथ इस दिशा में पाठकों को मूल्यवान सामग्री प्रदान करेगा। मैं आपकी परिषद् की उत्तरोत्तर उन्नति के लिए भी कामना करता हूँ।
-यशपाल जैन
कसरावद, प. निमाड़ -दिनांक ५-७-७७
मुझे पूर्ण आशा है कि इस ग्रंथ से मानव-समाज को एक नई चेतना मिलेगी। पूज्य आचार्य देव श्री राजेन्द्र रिजी ने समाज को क्रान्तिकारी मार्ग दर्शन दिया है।
उक्त ग्रंथ के लिए पूज्य मुनिराज जयन्त विजयजी 'मधुकर' के मार्गदर्शन से और भी विशेषताएँ आयेंगी।
ग्रंथ के लिए शुभ कामनाएँ करते हुए पूज्य आचार्य देव श्रीराजेन्द्र सूरिजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
-चांदमल लूणिया
श्री जिनेश्वर भगवान् के प्रसाद से 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रन्थ श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर म.सा. की उज्ज्वल कीति के मर्वथा अनुरूप हो, यही मेरी शुभ कामनाएँ हैं।
-मेघराज बेगानी
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सेठ मूलचन्द सोनी मार्ग अनोप चौक, अजमेर
२-८-७७
'राजेन्द्र-ज्योति' के प्रकाशन के लिए मेरी हार्दिक शुभ कामनाएँ ।
-भागचन्द सोनी
यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के जन्म-दिवस के १५० वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में आप श्री राजेन्द्र जैन नव युवक परिषद् ने 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रंथ प्रकाशित करने का जो संकल्प किया है, यह जैन समाज के प्रति बड़ा ही उत्साही व सराहनीय कदम है।
-सुमेरमल हजारीमलजी लुंकड़
जोधपुर, २०-८-७७
परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. सर्व जगत् के लिए प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। उनका रचित श्री राजेन्द्र-कोष भारत में ही नहीं, वरन् विदेशों में भी एक महान् ग्रंथ माना गया है। श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् द्वारा ऐसी महान् आत्मा के १५० वर्ष के समापन पर 'राजेन्द्र-ज्योति' नामक ग्रंथ प्रकाशित करना ही एक महान् व गुरुदेव के प्रति श्रद्धा का विषय है। आशा ही नहीं वरन् पूर्ण विश्वास है कि ऐसा ग्रंथ अवश्य ही सप्त राजेन्द्र-कोष की गरिमा को बढ़ाने में सहायक होगा।
-इन्दरमल मेहता (एडव्होकेट)
वी.नि. सं. २५०३
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बैंगलोर १ अगस्त, ७७
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि परम पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के जन्म के १५० वर्ष पूर्ण होने के इस अवसर पर राजेन्द्र-ज्योति' ग्रंथ का प्रकाशन करने का निश्चय किया गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि उक्त ग्रंथ में जैन धर्म के सिद्धान्तों से संबंधित विपुल सामग्री का समावेश होगा।
मैं प्रकाशन की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रकट करता हूँ।
-सी. बी. भगत (महामंत्री)
सिरोही (राज.) दिनांक ५-८-७७
आप 'राजेन्द्र-ज्योति' ग्रंथ प्रकाशित कर रहे हैं, यह एक सराहनीय कदम है ।
-पुखराज सिंघी (एडवोकेट)
कठोतिया भवन, सब्जी मण्डी
दिल्ली दिनांक १६-९-७७
प्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की स्मृति में 'राजेन्द्र-ज्योति' के प्रकाशन का स्वागत करता हूँ।
-मोहनलाल कठोतिया
0
राजेन्द्र-ज्योति
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श्रद्धाञ्जलि
यह एक अत्यन्त ही गौरव का विषय है कि श्रीमद् १००८ श्री आचार्यदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. के १५० वें जन्म-दिवस के उपलक्ष में 'राजेन्द्र ज्योति' नामक ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है। जैन साहित्य वाङ्मय में श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का अद्वितीय स्थान है। उन्होंने अपने अनुपम ज्ञान भण्डार और अद्वितीय लेखन कला से जैन साहित्य को जो ज्ञान-निधि प्रदान की है, वह युग-युग तक आचार्यश्रीजी की याद दिलाती रहेगी।
आचार्यजीजी का अभिधान राजेन्द्र कोष तो ऐसी अभूतपूर्व रचना है, जिसका उपयोग केवल जैन-विद्वान् ही नहीं, अपितु अन्य विद्वान भी करते हैं । यद्यपि आचार्यजी का पार्थिव शरीर इस संसार में नहीं है, तथापि उनके द्वारा रचित ५८ ग्रंथ आज भी मौजूद हैं जिनके द्वारा आचार्यजी ने ज्ञान का मार्ग दर्शाया था। ऐसे महान् आचार्यजी महाराज जिन्होंने अपनी त्याग, तपस्या और ज्ञान निधि से न केवल अपना जीवन सफल बनाया, परन्तु विश्व को सम्यग्ज्ञान का मार्ग दर्शाया, दिवंगत होने पर भी अमर हैं। कहा भी है:
दिल्ली
'स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् । परिवर्तिनि संसारे मृत को वा न जायते ।।
शत-शत प्रणाम ।
जैन धर्म के इतिहास में यति परम्परा में जो आचार की शिथिलता थी वह जैन धर्मावलंबियों को भली प्रकार विदित है । उसी परम्परा में दीक्षित हुए श्री रत्न विजयजी ने कीचड़ में कमल उत्पन्न होने वाले तथ्य का साक्षात्कार किया। तीव्रगति से अवरोहण करने वाली आत्माओं के लिए परम्पराएँ बहुत नीचे रह जाती है और वे अपने पुरुषार्थ के आधार पर 'स्व' पर के कल्याण उच्च भूमिका तक पहुँच जाती हैं। इसी प्रकार श्री रत्न विजयजी वैराग्य से वैभव को ठुकराते हुए अध्यात्म-साधना द्वारा श्री विजय राजेन्द्र सूरि बने । उन्होंने अपने जीवनकाल में न केवल अनेकों धर्म-स्थानों का उद्धार किया और जन-जन को धर्म का मार्ग दिखाया, बल्कि योग साधना में लीनता और अभय की भव्य भावना द्वारा जंगली पशुओं तक की प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त की। विक्रम संवत् १९६३ में अपने पार्थिव शरीर को अनशन द्वारा त्यागने के पूर्व अपनी विशाल विद्वत्ता का एक विशिष्ट प्रमाण 'अभिधान राजेन्द्र कोष, के रूप में प्रस्तुत कर गए; जिससे उनके नाम को अमरत्व प्राप्त हो गया ।
बी. नि. सं. २५०३
सात भागों में यह बृहद् ग्रंथ जैन आगमों के अध्ययन व जैन दर्शन के तत्त्वानुसंधान में अपूर्व योगदान सदियों तक करता रहेगा ।
-डॉ. वीणा जैन
- मोहनलाल कठोतिया
२३
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श्री राजेन्द्र सूरिजी ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' को निर्मित कर शिक्षित समाज पर महान् उपकार किया है। वे शिक्षित हैं, विद्वान हैं, उन्होंने हर क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उन्होंने धर्म और समाज के लिए बहुत कुछ किया है। आप ‘राजेन्द्र-ज्योति का प्रकाशन कर रहे हैं यह उचित है। इतनी कृतज्ञता तो होनी ही चाहिए। साधु-सन्त इससे अधिक क्या चाहते हैं ?
__ उनके कार्यों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं । शोलापुर
-वर्धमान पा. शास्त्री
बैंगलोर
दिनांक १ अगस्त, '७७
निर्भय, निडर, अजातशत्रु रत्नगर्भा भारत-भूमि के अनमोल रत्न, रत्नसम्राट् परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के जन्म के १५० वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में उनको मेरी नतमस्तक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।
-सी. बी. भगत,
(महामंत्री)
पूज्य श्री राजेन्द्र सूरिजी म. सा. का जीवन साधु-समाज के लिए प्रेरणात्मक रहा है। वे शिथिलाचार के विरुद्ध थे और इसी वजह से वे आचार्य धरणेन्द्र सूरिजी से अलग होकर धाणेराव श्री प्रमोद विजयजी के पास आहोर गए और वहाँ उन्हें संवत् १९३० वैशाख सुदी ५ को आचार्य पद से अलंकृत किया गया ।
त्यागी जीवन के साथ उन्होंने तप को भी अधिक महत्व दिया और अभिग्रह लिए। तपस्या के साथ-साथ उन्होंने योग-राधना भी की, जिसके चमत्कार के कई उदाहरण उनके जीवन से प्राप्त होते हैं।
परमपूज्य आचार्यश्री ने अनुपम साहित्य-सेवा की है। उन्होंने जो ‘राजेन्द्र-कोष' बनाया है, वह संस्कृत व प्राकृत के अध्ययन के लिए एक आवश्यक पूर्ति है। इस ग्रंथ की महिमा अत्यधिक है, जिसका कोई सानी नहीं है ।
पूज्य आचार्यजी का व्यक्तित्व इतना प्रमावशाली था कि जो उनके सम्पर्क में आता वह अपने को धन्य ही नहीं मानता था, वरन् वह जो मुख-प्रेरणा पाता था, वह उसके लिए व उसके सम्पर्क में आने वालों के लिए 'ज्योति' का काम करती थी।
कुछ वर्ष पूर्व मैं सहकुटुम्ब अपनी कार द्वारा मध्यभारत के तीर्थों के दर्शनार्थ गया था। राजगढ़ में कुछ मित्रों से मिलकर रात्रि विश्राम श्री मोहनखेड़ा किया। वहाँ के शान्त वातावरण ने हमें अत्यन्त मुग्ध कर दिया। समाधि-स्थल के दर्शन से इस महान् विभूति के जीवन का दिग्दर्शन प्राप्त हुआ और हम कृतार्थ हुए।
विश्व के कल्याण के लिए ऐसी दिव्य आत्माओं के जन्म के होते रहें-यह एक अभिलाषा है।
-पुखराज सिंघी
सिरोही (राज.) दिनांक ५-८-७७
राजेन्द्र-ज्योति
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राजेन्द्र-ज्योति
द्वितीय खण्ड
गुरुदेव कृतित्व, व्यक्तित्व, परम्परा
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जो असंयम को दूर कर देते है और फिर कभी उसके फन्दै में नहीं फंसते, वे संयम में आरूढ़ रह कर अक्षय सुख को प्राप्त करते हैं; इतना ही नहीं, उनके सहारे अन्यों को भी आत्मविकास का अवसर मिलता है।
-राजेन्द्र सरि
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गुरु-भक्ति भावना
बसन्ततिलका
संसार सागर महा उससे उबारो दादा गुरो श्रमण मंडल आप तारो हो कीर्तिवान सबला व्रत की क्रिया में यों भावना कर रहा शिशु सूरि विद्या
राजेन्द्र राजवर की यशकीर्ति . छाई भव्यात्मा के हृदय-मंदिर में समाई तत्काल दें सुमति को सुख शांति दाई गावें सदा सकल भक्त सुचित्त लाई
(२) राजेन्द्र सूरिवर का अभिधान कोष : विद्वान मान्य करते लख शब्दमाला शंकाविहीन बन के शुभ ज्ञान पाते आचार्य चारु पुरुषोत्तम को प्रणाम :
वितमच्चिा -रुरि
मोहनखेड़ा तीर्थ, २० जुलाई '७७
वी.नि.सं. २५०३
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पद्य-पुष्पाञ्जलि पण्डित हीरालाल शास्त्री
सकल गुणालंकृतानाम् गुर्जर-मालव-राजस्थान प्रदेशेषु गुरुगरिमा प्रपूजितानाम्। गुरुवराणाम् विद्वद्वन्दानण्य धुरंधराणाम् त्रिस्तुति तपागच्छदेव तुल्यानाम्, नाना तीर्थ चैत्य मन्दिरेषु शास्त्रोक्तेन विधानेन कृताञ्जनशलाकाप्रतिष्ठादि सुमुहूर्त प्राप्त कीर्तियुतानाम् जैनाराम सदन भवन मन्दिरेषु संशोभमानाञ्च प्रपूजितानाम् साहित्याम्भोधि मंथनानन्तर प्राप्त ‘राजेन्द्र कोश' रत्नालंकृतानाम् श्री १००८ श्रीमद् राज राजेन्द्रसूरीश्वराणाम् पञ्चाशतोत्तरशत स्वर्णजपन्त्यावसरे महोत्सवे कोटिशः प्रणिपात पूर्वकं पद्यपुष्पाञ्जलिम् गुरोः पादारविन्देषु समर्पयामि ।
लोके लोके भविभविजने पूज्यभक्तिः त्वदीया । जैनाकाशे त्वमरगुरो ! भास्यसि सूरिराजः ।।४।।
जयं वदन्तु पदमानमन्तु । पुण्यं लभन्तः गुणमुगिरन्तु । नित्यं जनाः स्वागतमाचरन्तु ।
राजेन्द्र सूरिम् हृदये स्मरन्तु ।।५।। वन्दे विश्वविख्यातं, सद्गुरुं चित्तमोहकम् ॥ आगमाख्यान तत्वज्ञ, राजेन्द्र त्रिस्तुतीश्वरम् ।।६।।
जिन हृदयविभूतिः कर्म संमर्दनेन्द्रः ।
रचित सरसग्रन्थः येन राजेन्द्र कोशः ।। सकल गुण सुधीन्द्रः, श्रीमतां यः वरेण्यः । जयतु जयतु देवः राज राजेन्द्र सूरिः ।।७।। तेषाम् पट्टधरः ख्यातः तपस्वी संयमी व्रती । सूरीश्वरः गुरोर्भक्तः श्रीयतीन्द्रो पुनातु व ।।८।।
आचार्य सेवा परितुष्ट चेताः । सम्मोहमामास गुरुम् स्वकीयम् ।। विराजते सम्प्रति तस्य शिष्यः । 'विद्यासुरीशः' वितनोतु कीर्तिम् ।।९।।
श्रीमतां पूज्य पादानाम् आचार्याणां महात्मनाम् । राजेन्द्र सूरिवर्याणाम्, गुरूणां सुतपस्विनाम् ॥१॥ अतिप्रभावके पुण्ये शुभे जन्म महोत्सवे । 'राजेन्द्र ज्योति' ग्रन्थाख्यः योऽसौ संपादितोऽधुना ॥२॥ ध्वंसयज्जगतां पापान् सदाश्रेयांसि लम्भयेत् । कुर्वन् जीवहितं नित्यं जायतां शरदः शतम् ।।३।। ग्रामे ग्रामे नगर भवने कोशकीति त्वदीया । प्रान्ते प्रान्ते तवतपयशः कीर्तनमस्ति शाश्वतम् ।।
कुसुमाञ्जलिः
शितिकण्ठ शास्त्री, साहित्याचार्य
'मन्दाक्रान्ता भोगासक्ति हृदयकमले त्यागिनामप्य काण्डे । दृष्टवा लोके व्यथित हृदयस्त्यागमार्गे प्रवृत्तः ।। कृत्वा साधुन् नियममहितान् संविधानं विरच्य । सक्तो भूतस्तपसि सुतरां त्यागमूर्तिः स सिद्धः ।।१॥
इन्द्रवज्रा संसारदावानलदग्धलोका ।
नुद्धत् काम: करुणार्णवो यः ।।
आविर्बभूवाऽऽमरकीर्तिशाली ।
राजेन्द्र रिर्जयताज्जगत्याम् ।।२॥ अनुत्तमं निर्मितवान् स लोकेऽ
भिधानकोषं सुविशालरूपम् ।। बुधाग्रगण्योऽखिललोकपूज्यो ।
राजेन्द्रसूरिर्जयताज्जगत्याम् ।।३।।
राजेन्द्र-ज्योति
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श्री राजेन्द्र स्तवन मुनि धर्मविजय ॥ दोहा ॥
अर्हन्मुख उत्पन्न भई, भारती ब्रह्म सुताय । जस स्मरण संक्षेप थी, लीला अधिक लहाय || १ || पथ पंकज प्रणमुं सदा, गुण गण रयण भंडार । ज्ञान नयनदाता गुरु, उतारें भवपार ॥२॥ श्रीमद्वीर जिनेश्वरू, तस कुल सोहमस्वाम पाट परंपर पेखतां ऊग्यो दिनकर धाम ॥३॥ तेह तणा सुपसायथी, प्रगट्यो पुण्य अंकुर | दुःख दुर्गतिदूरेटली भयो आनंद भरपूर ॥ ४ ॥
।। ढाल ।।
शम-दम गुणना आगरू रे लाल;
नर;
लाल;
नर;
ভূ७
लाल;
नर-भविजन ॥१॥
गुरु गिरुआ गणधार रे सुगुण पंच महाव्रत पालता रे संयम सतरे प्रकार रे सुगुण भविजन सेवो भावसुं प्रणम्या पातिक जाय रे सुगुण बारा भेदे तप तपे रे पाले पंचाचार रे-गुण भय साते भड भांजिया रे तेरे कर्या निरधार रे सुगुण विद्या चऊद सुशोभता लान; पट् शास्त्रोना जाण रे-सुगुण नर; मंत्रे तंत्र नवि केलवे रेलाल; निशि-दिन रहे जिन आण रे सुगुण नर-भविजन. ॥३॥
रे
नर - भविजन ॥४॥
बावीस परिग्रह त्यागिया रे लाल; जाग्यो अनुभव जोर रे सुगुण नर; समता सखी संग खेलता रे लाल; मार्यो मोह-मद-चोर - रे सुगुण अनुभव रस प्याला पिये रे भोगवे निजगुण भोग - अप्रमत्त भारंड परे रे लाल; साधे सूधो जोग रे-मुगुम गर भविजन ॥५॥ निदा-स्तुति श्रवणे सुणी रे लाल ; न धरे राग न रोष रे सुगुण नर; शूरा परिषह जीतवा रे लाल; चारित्र में नहि दोष रे सुगुण नर-भविजन ॥ ६ ॥ तेजवन्त दिनकर जिसा रे उदधिसम गंभीर रे-सुगुण अडिग मेरु पर्वत जिसा रे लाल; शशि सो अमल शरीर रे सुगुण नर-मविजन ॥७॥ राजपुताने पूर दिशि रे लाल; नगर भरतपुर ठाम रे सुगुण नर; ओसवंश कुल दिनमणि लाल; राजेन्द्रसूरि जसु नाम रे सुगुण नर-भविजन. ||८||
लाल;
नर;
लाल; नर; लाल;
नर- भविजन. ॥२॥
वी. नि. सं. २५०३
सुर नर आवे प्रमोदसुं रे लाल; धन धन तस अवतार र सुगुण नर; धरम विजय मोहे दीजिये रे लाल; भवदधि पार उतार रे-सगुण नर
लाल;
नर
भविजन सेवो भाव सुं रे लाल ॥९॥
मेरे गुरु राजेन्द्र को
मानमल पारखे 'बसन्त'
शत शत बार है नमन मेरा,
मेरे गुरु राजेन्द्र को ।
सप्तकोष के निर्माता को,
उस जैन जगत महेन्द्र को || १ || अनुवादित हुई जिनकी वाणी,
कई देश और विदेश में 1
तस्वीर में देखो जरा,
महामूर्ति किस देश में ॥
राजेन्द्र ज्योति जल रही,
है कोटि कोटि प्रणाम उस शैलेन्द्र को || २ ||
शत शत
उज्ज्वल सितारा हो गया,
भारत के इतिहास में । नव प्रेरणा का फूंका
लाखों की जन सांस में || क्या सुमन श्रद्धा चढ़ाऊँ,
अवनि दमकते चन्द्र को ॥३॥ शत शत
प्रेरणा की अनुभूतियाँ दी, विश्व विभूति निराली थी । सरस्वती की कठ विराजे,
वाणी अमृत प्याली थी ।
दलित जाति दल दल निर्वारक,
तंत्र मंत्र ज्ञाता उस धर्मेन्द्र को || ४ ||
शत शत
दिव्य ज्योति आज उनकी,
विद्या चन्द्रसूरि के हाथ है।
सान्निध्य में आचार्य श्री के,
'मधुकर' जयन्त विराट है ।
सुश्रावकों से शोभित सारे,
है नमन मुनिवर्ग उन देवेन्द्र को ||५||
शत शत
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गुरु जन्म-भूमि वर्णन
कविवर श्री मन्नालाल चौपड़ा
।। दोहा ॥ धन्यनगर शुभस्थान में, जन्म लियो गुरुराज । किंचित् वरणन मैं करूँ, शुभमंगल के काज ।।
॥चौपाई देशी रामायण ।। आगरा शहर के पास सुहाया, भरतपुर एक रमणीक छाया । नरनारी बसे सब सुख दाया, हाँट हवेली महल चुनाया ।। जाट है राय रैयत मन भम्या, निजनिज धर्म करे मन चाया । शहर चौ तरफी किल्ला झुल आया, गोल बाग देखत चकराया ।।
॥ दोहा ।। ओगणी अड़सठ सम्मते, शुक्ल आषाड़ सोहाय । चलकर आगरे शहर से, आया भरतपुर माय ।।
।। चौपाई देशी रामायण ।। उत्तम ठास मुकाम कराया, खानपान जलदी निपटाया । शहर की शोभा देखन मन भाया, शहर भरतपुर देख लो भाया ।। एक सज्जन दाना जिहाँ पाया, छन्नुवरस का नुक गई काया । उनका णाम ठिकाना लगाया, बातें कर बाँका मन समझाया ।।
॥ दोहा ।। पूछा दाना सेठ से, ऋषभजी का घरबार । दाना कहे एक रतनचंद, हो गये गुण भण्डार ।।
॥ चौपाई देशी रामायण ।। ठीक ठिकानो जिहाँ नहिं पायो, तब मन माँही अति अकुलायो । ढूढत ढूढत खी अथमायो, शशी ने आया उजास करायो । जाकर नींद से नेह लगायो, रात्रि समय एक स्वप्न दिखायो । एक मनुष्य आ काज घोरायो, काज होसे थारो राज में चायो॥
॥ दोहा ।। प्रात: समय से उठ कर लीनी काय सुधार । ध्यान करी नवकार को, गयो राज दरबार ।।
॥ चौपाई देशी रामायण ।। कामदार का नाम पुछायो, मिलकर सबहि बयान सुनायो । कामदार जना चोपड़ा लयो, ढूंढ ऋषभजी को नाम बतायो । दाय पुत्र नो जे तात कहायो, ऋद्धिवंत सात लाख कमायो । माणकचंद कंवर हतो डाठयो, रतनचंद लघुपुत्र जतायो ।।
॥ दोहा । लक्ष्मी पैदा करण में, माणकचंद लयलीन । छोटी वय में रतनचंद, विद्यागुण परवीन ।।
॥ चौपाई देशी रामायण ॥ सात मजल हती सेठ हवेली, व्यापार चालतो आगय देहली। कोई जन आयके थापण मेली, यह सहुराज में बात लिखेली।। रायने सेठ के प्रत जमेली, नगर में महिमा सेठ की फैली। इस्यों सेठ हवो इहांपेली, कामदार लेख देख कहेली ।।
॥ दोहा ॥ सांभलता इस कथनुकु, आनन्द रस उभराय । भोजन उस दिन नहिं कियो, अजीर्ण को डर लाय ।।
॥ चौपाई देशी रामायण ।। जैसीहि महिमा कुल की भाई, जैसे ही प्रगटे गुरु जग आई । संसारी नाम रतनचंद पाई, विद्या रत्न भण्डार भराई ।। संयम सूरि राजेन्द्र थपाई, सबके राजेन्द्र जो धर्म दीपाई। सूरि राजेन्द्र भविक सुखदाई, विश्व में जिनकी ज्योति सवाई।
॥ दोहा ॥ सुनी हुई मैं नहिं कही, देखी भरतपुर जाय । जैसी शोभा शहर की, दीनि गाय सुनाय ।।
॥ चौपाई देशी रामायण ॥ शहर भरतपुर तीर्थ कहीजे, मोका लगे तो जरूर जाईजे । जैन मंदिर का दरसन कीजे, पौषधशाला में जाय ठहरीजे ।। कामदार से सर्व पुछीजे, गुरुकुल सांभली अमीरस पीजे । मनालाल उत्तम फल लीजे, सरि राजेन्द्र जन्म भूमि फर सीजे।।
. राजेन्द्र-ज्योति
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अध्यात्मवादी कवि श्रीमद्राजेन्द्रसूरि
पू. पा. आचार्य देव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
जिस देश में, जिस राष्ट्र में, जिस जाति में, जिस समाज में साहित्य की कमी है, वहां समी बातों की कमी है । वह देश, वह राष्ट्र, वह जाति, वह समाज साहित्य के बिना संसार में जीवित नहीं रह सकता है। मनुष्य को प्रगतिशील बने रहने के लिए साहित्य का ही आलम्बन श्रेयस्कर है और जनता के उत्थान का साहित्य ही आलोकित साधन है।
बच्चों का प्रतिपालन जैसे माता करती है उसी भांति मानव की रक्षा साहित्य करता है। साहित्य दो भागों में विभाजित हैगद्य और पद्य । गद्य उसे कहते हैं कि जो छंदविहीन भाषा में होता है । पद्य की प्रणाली इस तरह से नहीं होती । पद्य की रचना से कवि मनोभावों को व्यक्त करता है और दूरदर्शी बनकर एक पद्य में सारा चित्र खींच लेता है। पिंगल के विविध छंदों के नियमों को ध्यान में रखकर जो रचनाएँ की जाती हैं वे सुन्दर, मधुर और कलात्मक होती हैं।
कवि का हृदय कोमल, निर्मल एवं सरल होता है । इसी से कवि कविता में सरस रस भर देता है । अपने हृदय की बात इस ढंग से जनता में रख देता है कि उसके प्रभाव से जनगण के हृदय में अलौकिक भावनायें जागृत हो उठती हैं।
मानव के जीवन का उत्थान साहित्य से होता आया है और होता जा रहा है। रास, चौपाई, दोहा, कुण्डलियां, छप्पय आदि मात्रिक छंद हैं । छन्दशास्त्र में तीन वर्षों का समूह बनाकर लघु, गुरु क्रम के अनुसार आठ गण माने गये हैं । जैसे-मगण, ( ) यगण, ( ) रगण, ( ) सगण, ( ) तगण, ( ) जगण, ( ) भगण, ( ) तथा नगण, ( )। इन आठ गणों के नियमों को ध्यान में रखकर जो कविता होती है वह विध्यनुसारी रचना है । जैन
साहित्य भी नौ रसों से ओतप्रोत एवं सुसज्जित है । जैन महाकवि आनंदघनजी, विनयविजयजी, यशोविजयजी, देवचंदजी आदि महाकवियों की प्रभु-गुण कृतियां जब पढ़ने में आती है, तब पढ़ने वाला मानो प्रभु के सम्मुख ही बैठा है ऐसा लीन हो जाता है। कवि भक्ति के मार्ग में निशंक होकर चलता है। उसके लक्ष्य को प्राप्त करने में इतनी उड़ान करता है कि "जहां न ही पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि" यह चरितार्थ हो उठता है । अनुभवी कवि वही है जो साहित्य वाटिका के काव्य कुंज की सरस, शीतल छाया में अनुभव करता रहता है और काव्यों का रस पान करके अपने जीवन को सफल बना लेता है। रस की दृष्टि से काव्य के नौ रसों के स्थायी भाव इस प्रकार से हैं-शृंगार का रति, हास्य का हँसी, करुण का शोक, रोद्र का क्रोध, वीर का उत्साह, भयानक का भय, वीभत्स का जुगुप्सा, अद्भुत का विस्मय और शांति का शांति है। जो कवि इन नौ रस का ज्ञाता है वह साहित्य की वृद्धि करता है। कविता करना यह कुदरत की देन है । एक कवि वह है जो स्वाभाविक भावों से काव्य कला अपने हृदय के उद्गारों से बाहर निकालता है और वह कविता, कविता दिखाई देती है । दूसरा कवि वह है जो अपनी रचना साहित्य को इधर उधर टटोल कर बनाता है। स्वाभाविक कविता को पढ़ने से जो मन को आनन्द प्राप्त होता है वह कृत्रिम कविता से नहीं। यहां शांत रस का स्रोत किस भांति स्व० कविवर श्रीमद् राजेन्द्र सूरि महाराज ने बहाया है। इस दृष्टिकोण को रखते हुए उनके बनाये हुये कुछ गीतों के अंश पाठकों के सामने रखना है।
मोह तणी गति मोटी हो मल्लि जिन,
मोह तणी गति मोटी।। बाहिर लोकमां मगनता दीसे, अंतर कपट कसाई । भेख देखाड़ी जन भरमावे, पुद्गल जाको भाई हो।। म०१।।
वी. नि. सं. २५०३
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जाके उदय पण्डित जन पिता, आगम अर्थ बिगोड़े। शिवनारीना सुखअति सुन्दर, छिनमा तेह बिखोड़े हो ।। म०२ ।। लागे लोक प्रवाहमां मूरख, भाषे जीतुं मोह। बखतर बिन संग्राम निश्चे, गात्र होने जोह हो।।म०३ ।। जिहा रस लंपट जस किरति, छोड़े जगतनी पूणा । आशा पास तजे जो जोगी, जाके नहीं कहुं दूजा हो।।म४।। भोयणी नगर में मल्लि जिननी, यात्रा जुगते कीनी। सूरि राजेन्द्र सूत्र संभालो, संवर संगति लीनी हो।।म०५।।
__ मोह की शितर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति वाली गति बड़ी विचित्र है जो आत्मा को भवमुक्त होने में बाधा पहुंचाती है।
अंत में श्री राजेन्द्र सूरिजी कहते हैं कि भव्यो। भोयणी नगर में मल्लि जिनेश की भावपूर्ण यात्रा करते हुए सूत्रों को संभालो और संवर के साथ संगति करो।
साहित्य वाटिका की रम्य स्थली पर मोद प्रमोद में विचरण करने वाले कवि ने भक्ति रस का सुन्दर रचना द्वारा आत्म विभूति को जगाने का कितना सरल साधन दिखाया है।
अबूध आतम ज्ञान में रहना,
किसी कुं कुछ नहीं कहना। आतम ध्यान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी।
परम भाव लहे न घट अंतर, देखे देखे पक्ष दुरंगी।। और भी आगे चलकर कवि ने परमात्मा के साथ किस प्रकार प्रेम प्रकट किया है। प्रभु के साथ लाड़ लड़ाने की कितनी उत्सुकता भावुकता दिखाई है।
श्री शांतिजी पिऊ मारा, शांति सुख सिरदार हो। प्रेमे पाम्या प्रीतडी पिऊ मोरा,
प्रीतिनी रीति अपार हो ।। परमात्मा को अपना पतिदेव मानकर आप उनकी नायिका का स्थान ले रहे हैं। प्यारे सज्जनो! प्रभु भक्ति में कितना प्रेम उनकी आत्मा में उमड़ता रहता था। इन पंक्तियों से स्पष्ट मालम होता है कि उनका हृदय प्रभु को रिझाने में तल्लीन रहता था किसी प्रकार की शंका न रखते हुए ईश्वर को पिऊ के संबोधन से पुकारा है । आनन्दघनजी ने भी तो इसी प्रकार प्रभु स्तवना की है। पाठकगण उनके गीत का भी रसपान करें।
निशदिन जोऊं तारी वाटडी, घर आवो रे ढोला । निश०।। मुझ सरिखीतुझ लाख है,
मेरे तुंही ममोला।। निश० । आनंदघनजी 'ढोला' शब्द से ईश्वर को संबोधित करके उसको पतिदेव मानकर आप नायिका बन जाते हैं। यह प्रियतम को बुलाने की कितनी विह्वलता भरी रीति है।
गुरुदेव के काव्य ग्रंथों में यति, गति, ताल, स्वर, यमक, दमक अद्भुत ढंग से सच्चे हुए दिखायी देते हैं। भाण्डवपुर के तीर्थपति श्री महावीर प्रभु के चैत्यवंदन से यही बात प्रकट होती है।
वर्द्धमान जिनेसर, नमत सुरेसर अतिअलवेसर तीर्थपति, सुख संपत्ति दाता, जगत विख्याता, सर्वं विज्ञाता शुद्ध यति । जस नामथी रोगा, सोग वियोगा, कष्ट कयोगा लहि रांका। भाण्डवपुर राजे, सकल समाणे, वीर विराजे अति बंका ॥१॥
डायण ने शायण, प्रेत, परायण, भूत भयावण सहु मांजे, चुड़ेल चंडाला, अति विकराला, सकल सियाला नहीं गाजे। दुस्मण ने दाटे, कुष्ट हि कांटे, भय नहीं वाटे बलि रंका, भाण्डवपुर राजे, सकल समाजे, वीर विराजे अति बंका ।।२।। सब काम समारे, सर्प निवारे, कुमति वारे, अरिहन्ता, जल-जलन-भगन्दर, मंत्र वशंकर, वारण शंकर समरन्ता। ए सूरि राजेन्द्रा, हरे भव फन्दा, नाम महन्दा जस डंका, भाण्डवपुर राजे, सकल समाजे, वीर विराजे अति बंका ।। ३ ।।
इन छंदों को जो मनष्य श्रद्धापूर्वक प्रभात में नित्य स्मरण के रूप में पाठ करता है उसको स्वयं ज्ञात होगा कि वास्तव में इन छंदों के पढ़ने से आत्मा को कितनी शांति प्राप्त होती है। गुरुदेव ने प्रभुस्तव की संस्कृत में भी रचना की है-जो कितनी रोचक, मधुर . व भावपूर्ण है।
ओम् ह्रीं श्री मंत्रयुक्तं सकल सुखकर पार्श्वय क्षेपशोभं, कल्याणानां निवासं शिवपदसुखदं दुःखदार्भाग्यनाशाम् । सौम्यकारं जिनेन्द्रं मुनिहुदिरमणं नीलवर्ण प्रतीतम्,
आहोरे संघचैत्ये सबल हितकरं ग डिपार्श्व तमीडे ।। १ ।। भस्याङघ्रौ नित्यपूजां भजति सुखरो नागराजः सुयुक्त्या, सर्वेन्द्र भक्तियुक्ता नरपति निवहा यस्य शोभा स्वभावात्। तन्वन्ती स्नेहरक्तः शुभमतिविभवः स्तोतीयं धर्मराज, आहोरे संघचैत्ये सबलहितकरं गोडियावं तमीडे ॥२॥ वामेयं तीर्थनाथं सुमतिसुगतिदं ध्वस्तकर्मप्रपंचम्, योगीन्द्रोगगम्यं प्रभुवरमनीशं विश्ववंद्यं जिनेशम् योडदात्सत्सौख्यमाला गदित सुसमयं श्री राजेन्द्रसूरेः आहोरे संघ चैत्ये सबल हितकरं गोडिपावं तमीडे ।।३॥
अलंकारमयी रचनायें एवं कृतियां ही काव्य नहीं कही जाती, जिसके पढ़ने से चित्त वृत्ति स्थिर बन जाती है, अनुपम भावों की लहर उठती है, वह कृति उत्तर रचना अथवा काव्य होती है, उत्तम भक्ति भाव मुक्तिपथ प्रदर्शन और प्रभुभक्ति रसास्वादन कर होता है। तभी तो तुलसी, सूर, कबीर आदि कवियों की कृतियों से भारतवासी जन समूह में ईश्वर के प्रति आस्तिक भावना जागृत होती है । जैन महाकवियों की कृतियों में भी आध्यत्मिक, वैराग्य, त्याग भावनाओं से गुंथित काव्य ही अधिकतर पाये जाते हैं। यहां तक देखा गया है कि जब हमारे सामने उनके गीत आते हैं, हम उनको गाते हैं तो उनको सुननेवाले भाई भी बोल उठते हैं 'संसार असार है-घरद्वार, पुत्र, मित्र, कुटुम्ब मिथ्या है।'
परमपूज्य गुरुदेव राजेन्द्रसूरिजी महाराज ने नवपद ओली, देववंदन, पंचकल्याणक महावीर पूजा, जिनचौबीसी, अघटकुमार चौपाई, स्तवन, सज्झाय आदि विविध राग-रागिणियों में भावपूर्ण अच्छे ढंग से स्व करके अपना अमूल्य समय प्रभु के गुणगान में व्यतीत किया है। इन रचनाओं को भावुक जन साज-बाज के साथ गाते हैं और स्वर्गीय सुखानुभव करते हैं। आत्मा की तल्लीनता जब प्रभु के चरणाविद में होती हैं तब कही कोई भव-बंधन से मुक्त होने का पुण्य अर्जन करता है।
राजेन्द्र-ज्योति
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श्रीमद् राजेन्द्र सूरीणां साहित्यिक जीवनम्
प. शितिकण्ठ शास्त्री
जैन जगदाकाशे प्रोग्वलजनक्षत्रमिव श्रीमद्विजय राजेवर महाराजानां विशुद्धजीवनं धर्मानुरागिणा सत्पुरुषाणां कृते दिशाबोधकमस्ति ।
तपः पूतात्मानां श्रीसूरीश्वरमहाराजानां जीवनं संयमत्यागमयन्त्वासी देव परं तेषां साहित्यिकजीवनमपि महत्त्वपूर्णमासीत् । गृहस्थावरवायां सूरीश्वराणां "रत्नराज" इति नामासीत् । अल्पायुष्येव पितरो पुरन्दरपुरातिथी बभूवतुः ।
एते सं. १९०३ वैक्रमाब्दस्य वैशाख शुक्लपक्षस्य पञ्चम्यां तिथौ श्रीप्रमोदसूरिमहाराजानां ज्येष्ठगुरुभ्रातॄणां श्रीमविजयमहाराजाना सनिधी यतिदीक्षाणगृहगन् । तदा ते "रत्नविजय" इति नाम्ना प्रसिद्धिमाप्नुवन् ।
इमे वतिदीक्षाग्रहणानन्तरं मनोयोगपूर्वकमध्ययनं प्रारभन्त । एते श्रीप्रमोदरिमहाराजानामध्यापकत्वं संस्कृतभाषाया: प्राकृतभाषायाश्चाध्ययनं प्रारब्धवन्तः ।
एते कुशाग्रबुद्धयः सुबोधाश्चासन्नतः कतिपयदिनेष्वेव प्रारम्भिक जैन पुस्तकानामध्यवनम
तदनन्तरम् च्चशिक्षणप्राप्तये श्रीसूरिमहाराजेन खरतरगच्छीय श्रीसागरचन्द्र महाराजस्य सन्निधाविमे प्रेषिताः ।
तस्मिन् काले श्रीसागरचन्द्रमहाराजा जैनागमानां ज्ञातृषु संस्कृतप्राकृतविद्वत्सु च अग्रगण्य आसन् ।
उक्त यतिवर्याणां निधायामुपमे कियत् वर्षेयेव व्याकरणज्योतिष न्याय निरुतालंकार-दसामध्ययनमकार्षुः । एवं संस्कृत - प्राकृतभाषारचितानां प्रमुखचन्धानामपि सम्यगध्ययनं
कृतवन्तः ।
अनन्तरमेते तपागच्छीय श्रीपूज्य श्रीदेवेन्द्रसूरीणां सेवायां जैनागमानां शास्त्राणाञ्चाध्ययनार्थं प्रेषिताः ।
वी. नि. सं. २५०३
श्रीदेवेन्द्रसूस्य एषां स्वाध्यायतत्परतामध्ययनरुचि मोहक - स्वरूपं विनयादिसद्गुणांश्चालोक्याकृष्टा अभूवन् ।
एतेऽपि तेषां निश्रायामेव स्थायिरूपेण निवसन्तस्तेषां भक्तिभावपूर्वक सेवामाज्ञापालनम् कुर्वन्तस्तेषामेव तत्वावधाने जैनागमानां प्रसिद्ध जैनब्रन्थानां जनेतर दर्शनानां जैनेतरावश्यक ग्रन्थानाञ्चाध्ययनं कृतवन्तः ।
एवं कुशाग्रबुद्ध्यैकाग्रतोत्तमसंयोगवशादयसमय एवैते प्रकाण्डविद्वांसोऽभवन् । शास्त्राणामध्ययन-मनन-मन्थन - परिशीलन करणानन्तरमनुभवमपि लब्धवन्तः ।
ज्योतिषशास्त्रेऽप्येतेषां विद्वत्ताऽऽन्युनाऽऽसीत् । एतेषां निर्धारितमुहूर्तेषु कापि विवाधानाऽभूत् एतेः कृता भविष्यवा सत्य एवं सिद्धा अभवन् कुर्दहन-महमदाबादस्य स्थिताया नगरमेष्ठिनालिकायामन्निप्रकोप इत्यादयो भविष्य निदर्शन रूपाः सन्ति ।
एवं दीक्षाग्रहणानन्तरं वर्जनार्थमेते विद्याध्ययन माध्यम मरीकृत्य कतिपय वर्षपर्यन्तं साहित्यजीवनं व्ययः ।
अधुने धार्मिकजीवनेन सहैव सर्जनात्मक साहित्यजीवने पि
प्रविशन्
एतेषां साहित्यिकजीवनमपि, अनुपममादर्शञ्चाभूत् । अध्ययन कालत एवैतेषां ग्रन्थरचनायां प्रवृत्तिरासीत् ।
सं. १९०५ वैक्रमाब्दे यस्मिन् समय एते केवलं द्वाविंशति वर्ष - वयस्का आसन्, एतेषां 'करणकामधेनुसारिणी' नामक पुस्तकं प्रकाशितम् । तत आरभ्य १९६० चैत्रमाब्दपर्यन्तमेवेषां साहित्यप्रणयनसाधनाप्राचलत् । तस्मिन्नब्द एवंतेषां "अभिधान राजेन्द्रकोष" इत्याख्यस्य सुप्रसिद्धस्य बृहद्विशालस्य ग्रन्थस्य पूर्णताऽऽभूत् ।
इथे पञ्चपञ्चाशद्वर्षपर्यन्तमेतेोऽविरल रूपेण साहित्य सेवामकार्षुः ।
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श्रीसूरीश्वरेणानेन राजस्थानप्रान्तीय सियाणानगरे १९४६ वैक्रमाब्दस्याश्विनमासस्यशुक्लपक्षस्य द्वितीयायां तिथौ" अभिधानराजेन्द्रकोषस्य लेखनमारब्ध, पूर्णता च १९६० वैक्रमाब्दस्य चैत्रमासस्य शुक्लपक्षस्य त्रयोदश्यां तिथौ गुर्जरप्रान्तीयसूरतनगरेऽभवत् ।
अभिधानराजेन्द्रकोषस्यरचना तु सर्वथाऽऽपूर्वेवास्ति । अयं बृहद्ग्रन्थो विशालकायेषु सप्तखण्डेषु विभक्तोऽस्ति ।
अस्मिन्नभिधानराजेन्द्रकोषे जैनागमानामर्धमागधी शब्दाना मकारादिक्रमेण संकलनं विधाय तान् संस्कृतभाषायामनूद्य तेषां लिङ्गव्युत्पत्त्यर्थान् विलिख्य मूलसूत्र इमे शब्दा: कुत्र कस्मिन्नर्थे प्रयुक्ता इत्यपि सप्रमाणं दर्शितमस्ति । संकलनदृष्ट्या सप्तसु खण्डेषु १०५६३ पृष्ठसंख्या: सन्ति। मूल्यं च प्रतिभागस्य पञ्चविंशति मुद्रा: २५) सन्ति । भारश्च ३५ पञ्चविशद् किलोपरिमितमस्ति।
इत्थं ग्रन्थ रत्नमिदं सार्धचतुर्दशवर्षेषु पूर्णतामगात् । वैशिष्टयमिदं यद्ग्रन्थस्यास्य रचनायाः सार्धचतुर्दशवर्षेष्वेते कुत्राप्येकस्मिन् स्थाने न स्थिता एवमेतेषां स्वीयान्यान्यानि धार्मिककार्याण्यपि यथावत् प्राचलन् पदयात्राऽ (विहारः) पियथापूर्वमभवत् । धार्मिकसामाजिक कार्याणां प्रत्युद्यततायां मनागपि शैथिल्यं नाऽऽभूत् ।
प्रतिदिनं धार्मिकप्रवचनैर्जनताया ध्यानमात्मकल्याणं प्रत्याकर्षयित सयत्ना अभवन् ।
अस्मिन् पंचपञ्चाशत् (५५) वर्षात्मक साहित्यजीवन एभिः सुरिभिविविधविषयेष्वेकषष्टि (६१) ग्रन्थानां रचना कृता । कस्मिन्नपि समाजे जाग्रतेः कान्तेश्च विस्तारस्य श्रेयोभाक् तस्य साहित्यमस्ति ।
जनेषु कान्तेराविर्भावकरण एतेषां साहित्यं प्रभूतं साहाय्यत्मकरोत् । सं. १९२५ वैक्रमाब्दे मालवा प्रान्तीय जावरा नगरे क्रियोद्धारं विधाय स्तुत्यां क्रियात्मकक्रान्तिमप्यकार्षुः ।
साहित्यक्षेत्रे एतन्निभमहाविद्वान् जैनसमाज एतेषामनन्तरं दृष्टिगोचरो न भवति ।।
एतेषां रचनासु सर्वश्रेष्ठरचना "अभिधान राजेन्द्र कोषः” . अस्ति । यस्य प्रशंसा विश्वस्य विद्वद्भिर्मुक्तकण्ठं कृता ।
एभिः सर्वतोमुखी विकासः कृतः । स्वकीयं सम्पूर्ण जीवनश्च साहित्यसेवायां समर्पितम् ।
जयन्ति कृतिनो येषां, श्रीमद्राजेन्द्रसूरयः ।। जरामरणजाभीतिर्यश: काये न विद्यते ।।१।।
रत्न-ज्योति अवनितल पर जब तमने किया वसेरा, मानव जीवन में तब आ गया अन्धेरा । भरतपुर में तब उदय हुआ रत्न दिवाकर, किया दूर तम को सबको ला दिया सतपथ पर ।।१।।
वैराग्य भावना थी उनके रग रग में, रत्नराज से बने रत्न विजय उमंग में, ज्ञान की प्रचुरता पासी अल्प समय में,
विचरते प्रतिबोधते प्रमोदसूरि संग में ।।२।। विवाद हुआ एक दिन इस विषय पर, ललकार दिया धरेणन्द्रसूरि को इस पर । तब श्री प्रमोदसूरि ने संघ सहमति पर, विषय राजेन्द्रसूरि नाम से शोभे गुरुवर ।।३।।
दिया तब बना राजेन्द्र कोष चौदह वर्ष में, समग्र जगत का प्रतिबिम्ब है उसमें । अनुपम है यह स्वर्णिम इतिहास जैन जगत में,
आमंत्रित हुए सोपान से देश विदेश में ॥४॥ हृदय सिन्धु में थे गुणों के अनमोल मोति, जिनसे जग सारा पाये राजेन्द्र ज्योति । युग प्रेरक स्वरूपज्ञ त्यागी गुरु का, रहे शशि पर सदा साया उन्हीं का ।।५।।
-शशि, भण्डारी
राजेन्द्र-ज्योति
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वचनसिद्धि : पूज्य गुरुदेव की
जे. के.संघवी
करा लो, अगले साल तो चारों ओर भीषण दुःभिक्ष पड़ेगा । श्री संघ ने बात मान ली और सं. १९५५ में ९०० जिनबिम्बों की अंजनशलाका व प्रतिष्ठा महोत्सव बड़ी ही धूमधाम पूर्वक संपन्न हुवा। उस समय यहां करीबन ५० हजार समुदाय इकट्ठा हुवा था । राजस्थान में यह पहला अवसर था जबकि इतने लोग एक जगह पधारे थे । इतनी मानव मेड़नी में किसी को कोई प्रकार की तकलीफ नहीं हुई।
अगले साल गुरुदेव की वाणी सत्य प्रतीत हुई। १९५६ में जो दुर्भिक्ष पड़ा आज भी कहावतों में 'छपनीयाकाल" के नाम से प्रसिद्ध है।
पंचपरमेष्ठी में तीसरे पद पर स्थित आचार्य का जिन शासन में अनूठा महत्व है । इस पंचम काल में जबकि अरिहंत व सिद्ध भगवान का विरह है शासन की बागडोर इन्हीं के हाथों में है।
शास्त्रानुसार आचार्य भगवंत ३६ गुणधारी होते हैं-पाँच इंद्रियों (चमड़ी, जीभ, कान, आँख, नाक) को अपने वश में रखने वाले ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों को धारण करने वाले, चार कषायों (क्रोध, मान, माया लोभ) से दूर रहने वाले, पाँच महाव्रतों (हिंसा, झूठ, चोर, अब्रह्म, परिग्रह के त्याग) से युक्त पाँच आचार (ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार) के पालन में उद्यमशील, पाँच समिति (इर्यासमिति, भाषासमिति, एषणा समिति, आदान मण्डमतनिक्षेपणा समिति, पारिष्ठापनिका समिति) व तीन गुप्तियों (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति) का पालन करने वाले-३६ गुणों से युक्त थे पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ।
उनके द्वारा सात भागों में रचित "अभिधान राजेन्द्र कोष" उनकी ज्ञान साधना का जीता-जागता उदाहरण है जिसे देखकर बड़े-बड़े दार्शनिक भी दांतों तले अंगुली दबाते हैं । गुरुदेव की ध्यानावस्था उत्कृष्ट कोटि की थी। ध्यान के बल पर वे भविष्य को जानते थे ।
(१) संवत् १९५५ की बात है । पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी आहोर में विराजमान थे । श्री संघ की भावना यहां प्रतिष्ठा व अंजन शलाका महोत्सव कराने की अगले साल की थी। पूज्य गुरुदेव ने कहा, "प्रतिष्ठा इसी साल
(२) दूसरी तरफ इसी अवसर पर अन्य संघ ने आदिनाथ आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा दूसरे मंदिर में करने की ठानी। प्रतिष्ठा सम्पन्न कराने के लिए जयपुर जाकर खरतरगच्छीय श्री पूज्यजी जिनमुक्तिसूरीजी से विनंती की। उन्होंने कहा-"वहां विराजमान राजेन्द्रसूरीजी को ज्योतिष आदि का अच्छा ज्ञान है । जब उनके द्वारा यह कहा गया कि इस प्रतिष्ठा के लिए मुहूर्त अच्छा नहीं है फिर वहां जाना अशुभ ही है" लेकिन श्रावकों द्वारा ज्यादा आग्रह करने पर लोभवश वे आहोर गये । आते ही कर्मयोग से वे रोग पीड़ित हो गये । यहां रात तीसरे पहर उठकर राजेन्द्रसूरीजी ध्यान में बैठे पश्चात् प्रतिक्रमणादि नित्यक्रिया से निवृत्त हो अपने शिष्यों से बोले कि मैंने ध्यान में आज गतप्राण श्री पूज्यजी को देखा है । कुछ समय बाद गांव से किसी व्यक्ति ने आकर यही समाचार कहे । गुरुदेव द्वारा ध्यान से यही बात पहले जानकर सब दंग रह गये।
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सुबह होने पर आप वहां से पांजरापोल के उपाश्रय में पधार गये । सेठियों ने वहां आने का कारण पूछा। गुरुदेव ने अपने ध्यान में देखा हुवा दृश्य कह सुनाया। उनके कथनानुसार बात सत्य निकली । उसी दिन अग्नि का भयंकर प्रकोप हुवा। आग की लपटें हवेली होकर मार्केट होते हुए वाघनपोल तक जाकर महामुश्किल से काबू में आयी । आज भी अहमदाबाद में स्थित नगरसेठ की वह हवेली बलेली हवेली के नाम से प्रसिद्ध है।
सं. १९५८ में पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की निश्रा में सियाना में अंजनशलाका व प्रतिष्ठामहोत्सव का कार्यक्रम चल रहा था । वहां समारोह में चूने के ६०-७० हाथ ऊंचे समवसरण की रचना की जा रही थी। समवसरण बनाते समय किसी त्रुटि के कारण वह ढह गया और ७-८ मजदूर नीचे दब गये । लोग घबरा गये । गुरुदेव को समाचार मिले । गुरुदेव ने कहा-"कोई बात की फिक्र न करो, किसी को भी कुछ नहीं होगा।" सचमुच ही लोगों ने देखा इतनी ऊंचाई से गिरने व इतना वजन उनपर आने पर भी किसी को कोई प्रकार की आंच न आयी । गरुदेव की वचनसिद्धि देखकर सब हर्षित होकर जय जयकार करने लगे।
कोटि-कोटि वंदन हो कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के चरणों में ।
वाघनपोल के नाके पर ही श्री महावीर स्वामी जी का जिनालय स्थित है । अग्निकाण्ड के समय जलने के भय से वहां से श्री महावीर स्वामीजी आदि की मूर्तियां उठाली गई थी। उन प्रतिमाओं को फिर से स्थापित करने के लिए एक प्रसिद्ध जैनाचार्य से वहां के सेठियों ने मुहुर्त निकलवाया । गुरुदेव को भी वह मुहुर्त बताया गया । गुरुदेव ने अच्छी तरह देखकर कहा कि यह मुहुर्त अच्छा नहीं है । इसमें कई विघ्नों के साथ सबसे बड़ा दोष तो यह है कि मूलनायक भगवान को विराजमान करने वाला व्यक्ति छः मास के अन्दर मृत्यु को पावेगा । बात को अनसुनीकर प्रतिष्ठा कार्य किया गया । नाना प्रकार के विघ्नों के दरम्यान कार्यक्रम सम्पन्न हुवा और प्रतिमा संस्थापन करने वाला व्यक्ति छः मास में ही मृत्यु को प्राप्त हुवा ।
आपके कथन की सत्यता देखकर लोग आश्चर्यचकित रह गये।
एक बार पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने अपनी साधना जालोर के पहाड़ में पूरी करने की ठानी । उस पहाड़ में एक शेर रहता था यह जानकर भक्तों ने उनसे विनंती की कि आप साधना के लिए कोई अन्य स्थान निश्चित् करें, यहां तो डरावना शेर रहता है । गुरुदेव ने कहा-"आप कोई चिंता न करें । गुरुकृपा से कुछ नहीं होगा" और उसी पहाड़ में ध्यान करने की ठानी। ___ यहां लोगों को कहां शांति थी । उन्होंने कुछ राजपूतों को रात्रि रक्षणार्थ भेजे । गुरुदेव के निकट ही वृक्ष पर वे छुपकर बैठ गये । रात्रि को शेर वहां आया और गुरुदेव के पास कुछ ही दूरी पर शांत होकर बैठ गया फिर कुछ समय पश्चात् शांति के साथ चला गया । सुबह जाकर उन लोगों ने यह बात' गांव के लोगों को बताई जिसे सुनकर गुरुदेव के अडिग ध्यानावस्था के आगे सभी नतमस्तक हो गये।
पूज्य गुरुदेव एक बार विहार करते-करते गांव मोडरा (राजस्थान) पधारे। गांव के पास का जंगल चामुण्ड वन के नाम से जाना जाता है। उस वन में शेर, चीता, भालू आदि सभी प्रकार के पशु रहते थे । गुरुदेव उस जंगल में ध्यानस्थ मुद्रा में रहे । उनके आध्यात्मिक व संयम के बल से सभी पशु अपना आपसी वैर भुलाकर एक साथ सामने आकर बैठ गये।
(७) संवत् १९५५ में आहोर में आपकी निश्रा में प्रतिष्ठा व अंजनशलाका महोत्सव चल रहा था। भगवान महावीर की विशालकाय मूर्ति २५-३० आदमियों द्वारा तो हिल भी नहीं सकती थी उसे विराजमान करने के लिए सभी सोच में पड़ गये। गुरुदेव ने ध्यान मग्न होकर अपने हाथ से उस मूर्ति को अंजन किया और अब उठाने को कहा । यह देखकर लोग ताज्जुब करते रह गये कि इतनी भारी मूर्ति को सिर्फ चार लोगों ने उठाया और वह भी जैसे फूल उठा रहे हों। सारा वातावरण जय जयकार के नारों से गूंज उठा।
(८) एक बार की बात है गुरुदेव किसी जंगल में ध्यान में खड़े थे। उस समय एक भील जंगल में शिकार के लिए आया । उसने दूर से देखा कि कोई सफेद जानवर होगा। यह सोचकर वह वहीं से तीर छोड़ने लगा । लेकिन सभी निशाने व्यर्थ जाते देख कर वह वहां से चलकर निकट आया । आकर देखा तो कोई महात्मा पुरुष ध्यानावस्था में खड़े थे। उसी समय वह गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ा और क्षमायाचना कर चला गया।
सं. १९४० में गुरुदेव अहमदाबाद में हठीभाई की वाडी में विराजमान थे । वहां रात्रि काल में अपने ध्यान दरमियान रतनपोल में स्थित नगर सेठ की हवेली को जलते देखा । अग्नि की लीला नगरसेठ मार्केट होती हई वाप्पन पोल के नाके पर महावीर जिनालय के पास आकर शांत होती दिखाई दी।
राजेन्द्र ज्योति
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ज्योतिष एवं श्रीमद्राजेन्द्रसूरि
मुनि जयन्तविजय 'मधुकर'
ज्योतिष एक ऐसा विज्ञान है, ऐसा तथ्य-विश्लेषण, जिससे कोई भी मनुष्य अछूता नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समस्याएँ हैं और प्रत्येक समस्या का इस विज्ञान में समाधान सन्निहित है।
मुहर्त प्रकरण के विज्ञाता तत्कालीन बलाबल की समीक्षा कर उसका सम्यक् निरूपण करते हैं और तदनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलता का निर्णय देते हैं ।
सूय, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र एवं तारकावलि इत्यादि ज्योतिश्चक्र विश्व-प्रांगण में अनादिकाल से गतिशील हैं । संक्रान्तियों में कभी इनकी रश्मियाँ घटती हैं, कभी बढ़ती हैं; कभी इनकी गति मन्द हो जाती है, कभी तेज एवं कभी इनका बल बढ़ जाता है तो कभी कम हो जाता है । इसका प्रभाव सर्वत्र कुछन-कुछ होता ही है। ज्योतिष को मुख्यत: दो भागों में बांटा गया है-गणित और फलित । फलादेश द्वारा ज्योतिष दीपक की भूमिका का निर्वाह करता है । भविष्य के सघन अन्धकार में सावधानी की किरण इससे मिल जाती है; ज्योतिष गणित है, अन्धविश्वास नहीं; जो इसे अन्धविश्वास की भांति मानते हैं उनकी बात अलग है किन्तु जिन मनीषियों ने इसे गणित और विज्ञान की तरह विकसित किया है, वे इसे कार्य-कारण की श्रृंखला से मूलबद्ध एक तर्क-संगत भूमिका पर प्रस्तुत करते हैं।
मुहर्त-प्रकरण ज्योतिष का एक महत्त्वपूर्ण अनुभाग है । फलितादेश भी उतने ही महत्त्व का है । सम्पूर्ण दिन में व्यतीत घड़ियाँ भिन्नताओं और वैविध्यों से भरी होती हैं । परिज्ञान सम्भव है; किन्तु इनके गहरे तल में उतरने के बाद ही । अनुमान की भूमि पर खड़ा ज्योतिष खतरनाक होता है, किन्तु तर्क और गणित की जमीन पर अपना पाँव जमाये ज्योतिष अधिकांशतः दिग्दर्शक होता है।
कुछ घटिकाएँ देवताओं की हैं, कुछ दानवों की, कुछ मानवों की; ब्रह्म-मुहूर्त, विजय मुहूर्त और गोधूलि-बेला इसी ओर संकेत करते हैं । प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व और पश्चात् ३०/३० मिनिट ब्रह्ममुहूर्त, मध्याह्न कालोत्तर पूर्व ३०/३० मिनिट विजय मुहुर्त; तथा सूर्यास्तोत्तर-पूर्व ३०/३० मिनिट गोधूलि-मुहूर्त होता है ।
ज्योतिविज्ञान के परिज्ञान के लिए जैनाचार्यों ने संस्कृतप्राकृत में अनेक ग्रंथ लिखे हैं । 'दिनशुद्धिदीपिका", "भद्रबाहु संहिता", ''लग्नशुद्धि", "ज्योतिष हीर", "हीर कलश", "जैन ज्योतिष", "आरंभ-सिद्धि", यन्त्रराज" आदि ग्रंथ इस तथ्य के परिचायक हैं कि इस क्षेत्र में जैनाचार्यों का कितना अपूर्व योगदान रहा है।
श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी-जैसे इस विज्ञान के परम ज्ञाता थे, जिन्होंने जन्म-पत्रिका देखते ही राजकुमार की क्षणजीवी स्थिति की घोषणा कर दी थी। भारत के सांस्कृतिक इतिहास को देखने से पता चलता है कि ज्योतिर्विज्ञान एक महत्त्वपूर्ण विज्ञान रहा है जिसे देश के विद्वानों ने निरन्तर आगे बढ़ाया है । इन समर्थ ज्योतिर्विज्ञानियों ने ग्रह-संचरण, प्रत्येक जीव के निजी जीवन, विभिन्न गतियों में मार्गी-वक्री के रूप में; सम, विषम या चर; स्थिर द्वि-स्वभाव की स्थिति में कर, शान्त या सहवासजन्य स्वरूपता का समीचीन और स्पष्ट समीक्षण किया है ।
श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी का जीवन भी इस विज्ञान से अछूता नहीं रहा। उन्होंने मात्र इसे जाना ही नहीं, इसका गहन अध्ययन
वी.नि. सं. २५०३
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मनन भी किया। उन्होंने सदैव इसका एक सहज साधन के रूप में उपयोग किया।
विक्रम संवत् १९४५ में श्रीमद् राजनगर-अहमदाबाद में थे। वहाँ वाघणपोलस्थित श्री महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा के मुहूर्त को सदोष बताते हुए कहा : “इस प्रतिष्ठा-मुहूर्त से प्रतिकूल स्थिति बनेगी। अग्नि-प्रकोप का योग प्रतीत होता है। इसे बदलकर कोई और कर लीजिए।" आग्रही व्यक्तियों ने श्रीमद् की सलाह मानने से इन्कार कर दिया । अन्तत: भयंकर अग्निकाण्ड हुआ । इस तथ्य से राजेन्द्रसूरिजी के ज्योतिष-संबंधी ज्ञान की पुष्टि होती है। __ श्रीमद् का ज्योतिष के दोनों पक्षों पर अधिकार था। विक्रम संवत् १९५५ में जब आप प्रतिष्ठांजनशलाका सम्पन्न करवा रहे थे तब प्रतिपक्षी वर्ग भी अपने यहाँ उत्सव आयोजित करने के लिए तत्पर हुए । श्रीमद् ने सम्पूर्ण सद्भाव से उन्हें तथा प्रतिष्ठाकारक को समझाया कि "यह मुहुर्त उनके अनुकूल नहीं है । इसमें ग्रहगति और संगति विपरीत बैठती है ।" किन्तु किसी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया और अपनी जिद पर अडिग रहे । अन्तत : जो दुष्परिणाम हुआ, वह सर्वविदित है। इस तरह श्रीमद् परामर्श देते थे, किसी को उसे मानने पर विवश नहीं करते थे।
श्रीमद् राजेन्द्रसरि के संबंध में अभी पूरी तरह अनुसंधान नहीं हुआ है, किन्तु वे महासमुद्र थे; उन्होंने कहाँ, कितना और किन-किन विषयों पर लिखा है इसकी प्रामाणिक जानकारी अभी अनुपलब्ध है । ज्यों-ज्यों उनकी रचनाएँ मिलती जाती हैं, कई तथ्य प्रकट होते जाते हैं । उनकी कई स्फुट रचनाएँ यत्र-तत्र ग्रंथागारों में अरक्षित और अप्रकाशित पड़ी हैं । इनका व्यापक सर्वेक्षण और अध्ययन-विश्लेषण होना चाहिए । महर्त-प्रकरण और फलादेश पर श्रीमद् की जो प्रभावक पकड़ थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने सैकड़ों प्राण-प्रतिष्ठाएँ करवायीं किन्तु कहीं कोई विघ्न उपस्थित नहीं हुआ। वे 'ठीक समय पर ठीक काम करना पसन्द करते थे और इस दृष्टि से उन सारे भारतीय विज्ञानों का उपयोग करना चाहते थे जो अन्धविश्वास नहीं तर्क और गणित की धरती पर विकसित हुए थे।
उनका स्पष्ट लक्ष्य था कि ज्ञान को जनता-जनार्दन तक उसी की भाषा और उसी के सहज माध्यमों द्वारा पहुँचाया जाए। इस दृष्टि से उन्होंने कई स्तोत्र, कई वन्दनाएँ और कई ज्योतिष संबंधी दोहे लिखे हैं । मुहुर्त-प्रकरण से संबंधित कुछ दोहे इस प्रकार
पुनर्वसु मघा तथा, हस्तविशाखा सार। मूल श्रवण पू.-भाद्र में, कुमार योग विचार ॥ दूज तीज सप्तमी तथा, द्वादशी पूर्णिम जान । रवि मंगल बुध शुक्र में, भरणी मृगशिर मान ॥ पुष्य पु. फा. चित्रा उ.षा. ङ भा. अनुराधा देख । धनिष्ठादि नक्षत्र में, राजयोग का लेख ॥ चौथ आठम चतुर्दशी, नौमि तेरस शनिवार । गुरु कृतिका आर्द्रा उ. फा. अश्लेषा सुविचार ॥ स्वाति उ.षा. ज्येष्ठा तथा शतभिषा संयोग ।
रेवती नक्षत्रादि में, कहते हैं स्थिर योग ॥" योग की स्थिति को मात्र सात दोहों में वर्णित करना एक कठिन काम है, किन्तु ज्ञानवर्द्धन की दृष्टि से इसे आम आदमी के लिए सुलभ किया है।
जन्म-पत्रिका में जो कुण्डली बनायी जाती है, उसमें १२ स्थानों पर नियमानुसार राशि-अंकों को स्थापित किया जाता है, ताकि तत्कालीन प्रवर्तमान ग्रहों को बिठाकर उनके फलादेश जाने जा सके । व्यक्ति के जीवन में ये फलादेश मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं । श्रीमद् ने इस सन्दर्भ में कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं, जो इस प्रकार हैं--
"सातमा भवन तणो धणी, धन भवने पड्यो होय । परण्या पूंठे धन मिले, इम कहे पण्डित लोय ॥ पंचमेश धन भवन में, सुत पूंठे धनवन्त । धन तन स्वामी एक हो, तो स्वधन भोगन्त ॥ लग्न धनेश चौथे पड्या, कहे मातानी लच्छ । क्रूर ग्रह लग्ने पड्यो, प्रथम कन्या दो बच्छ । भोम त्रिकोणे जो हए, तो लहे पुत्रज एक । मंगल पूजा दृष्टि सुं, होवे पुत्र अनेक ॥ भोम फर्क क्रूर सातमे, पड़े मँडी स्त्री हाथ । भोम अग्यारमे जो पड़े, परणे नहीं धन नाथ ॥ शनि चन्द्र अग्यारमे, पडे स्त्री परणे दोय । चन्द्र भोम छठे पडे, षट् कन्या तस जोय ॥ अग्यारमे क्रूर ग्रह तथा, पंचम शुक्र जो थाय। पेली पुत्री सुत पछे, माता कष्ट सुणाय ।। क्रूर ग्रह हुए सातमे, कर्कसा पाये नार । बुध एकलो पाँचमें, तो जोगी सिरदार ।। शनिसर दशमे पडे, वाघ चित्ताथी तेह । मरे दशमे वली शुक्र जो, अहि डसवा थी तेह ॥ राहु दसमे जो हुए, मरे अग्नि में जाण । राजेन्द्र सूरि इम भणे, जोतक ने अहिनाण ॥"
"सूर्य नक्षत्र से गिनो, चउ छ नव दस आय । तेरा बीस नक्षत्र में, रवियोग समझाय ॥ प्रतिपद छठ पंचमी दसम, एकादसी तिथि होय । बुध मंगल शशि शुक्र दिन, अश्विनी रोहिणी जोय ॥
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राजेन्द्र-ज्योति
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वस्तुतः फलित ज्योतिष इतना गम्भीर विषय है कि उसके मर्म को तद्विषयक विद्वान् ही समझ सकता है। इस दृष्टि से श्रीमद् की उक्त पद्य-रचना उनके तत्सम्बन्धी गम्भीर ज्ञान की द्योतक है। श्रीमद् की ज्ञान-पिपासा अबुझ थी । वे आध्यात्मिक साधना, दुर्द्धर तप, गहन अध्ययन और सामाजिक मार्गदर्शन के साथ अन्य कई विषयों का ज्ञान प्राप्त करते रहते थे । उनकी प्रवृत्ति थी दैनंदिन जीवन की हर आवश्यक प्रवृत्ति को परखना और उसे स्पष्टता के साथ औरों के लिए उपलब्ध करना । ज्योतिषसम्बन्धी उनका ज्ञान विशद था । इतना होते हुए भी उन्होंने कभी किसी पक्ष को अपमानित नहीं किया । उनके मन में प्रतिपक्ष के लिए गहरी सम्मान भावना थी। निन्दक के लिए
उन्होंने एक पद में लिखा : "निन्दक तुं मर जावसी रे, ज्युं पाणी में लूण । 'सूरिराजेन्द्र' की सीखड़ी रे, दूजो निन्दा करेगा कोण ।।" (निन्दका तू उसी तरह मर जाएगा जैसा पानी में नमक धुल जाता है । सन्तों की प्रगाढ़ मैत्री तुझे आत्मसात् कर लेगी; तुझे स्वयं में पचा लेगी। राजेन्द्रसूरि की सीख है, उनकी चिन्ता भी है, कि फिर दूसरा निन्दा कौन करेगा?) .. इस तरह राजेन्द्रसूरिजी ने चिन्तन और आचार-शुद्धि के लिए प्रतिपक्ष को उत्कृष्टः समीक्षक की भूमिका में रखा है और
उसे पूरा सम्मान दिया है । ज्योतिष जानने के पीछे भी उनके ___मन में सबके लिए यही वात्सल्य और औदार्य तरंगायित था।
श्रद्धांजलि
भरतपुर की पुण्य भूमि पर, गुरुवर तुमने जन्म लिया । पौष शुक्ल सप्तमी शुभ दिन था, जिस दिन तुम अवतार लिया । ऋषभदासजी पिता तुम्हारे, केसरदेवी महतारी । जिनकी रत्न कुक्षि से तुमने, अपनी अनुपम देहधारी ।।
तेरह वर्ष की कोमल वय में, धुलेव यात्रा को आए । डाकन का दु:ख हर कन्या का, उपकारी गुरु कहलाए।। ज्ञानी गुरु प्रमोदसूरि से, सत्य ज्ञान तुमने पाया ।
विनय मूल है सभी धर्म का, जिसको तुमने अपनाया ।। घूमे धरणेन्द्रसूरि के संग में, यति वेष को धारण कर । त्याग धर्म का मार्ग बता कर, लाए सच्चे मारग पर । आखिर त्याग किया सभी परिग्रह, छत्तीम गण के धारी ने । शुभ मारग अपनाया सब तज, उसी बाल ब्रह्मचारी ने ।।
गुरुवर तुमने जैन धर्म का, जो उद्यान लगाया था । सत्य अहिंसा निर्मल जल ही, तुमने उसे पिलाया था ।। उत्तराधिकारी गुरुवरश्री, यतीन्द्र ने अपनाया ।
सुरभित सदा रहेगा तेरा, यह जो बाग लगाया ।। चरनन वन्दन कुन्दन करके, यह श्रद्धांजलि धरता । शाश्वत धर्म परिवार हृदय से, अञ्जली अर्पित करता ।।
-कुन्दनमल, डाँगी
वी.नि.सं. २५०३
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विराट व्यक्तित्त्व
डॉ. अमरा जैन
"जहा ससी को मुई जोग जुत्तो, नक्खत्त तारागण पखिडप्पा । खे सोहइ विमले अबममुक्के, एवं सोहइ भिक्खुमज्झे ।। दशैवैकालिक सूत्र प्र० ९, उ० १ का १५
पूज्यपाद आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने अपने जीवन के ज्ञान और क्रिया द्वारा साधुत्व का महान आदर्श उपस्थित किया है अथवा यूँ कहना अनुचित न होगा कि वे महापुरुष उस युग में अपनी उपमा स्वयं थे ।
"मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्"
आचार्य श्री का जीवन एक सच्चे महात्मा का जीवन था, वहां न छल था, न कपट था, न माया थी, न किसी प्रकार का दुराव छिपाव था। उनमें ज्ञान था पर ज्ञान का अहंकार न था, त्याग था पर त्याग का दर्प न था ।
बाल्यावस्था में ही अंतर्मन के त्याग और वेराग्य की जो लहर जागी उसी वैराग्य रस से आप्लावित तन मन को लेकर वे सदगुरु के चरणारविन्दों में पहुंचे और आगार से अनगार बनने की प्रार्थना की । मनोमार्ग के चितेरे संत ने कहा- "वत्स ! अनगार बनना हंसी खेल नहीं है, यह असिधारा पर चलना है, जलते अंगारों पर बढ़ना है और अभी तुम कुसुम से कोमल हो।" पर बालक का वैराग्य रंग कच्चा नहीं था, सच्चा था वह साधना के शूलों से भयभीत होने वाला नहीं था । गुरुदेव ने परीक्षा की कसौटी पर कसने के पश्चात् उन्हें दीक्षा दी।
योग्य गुरु के योग्य शिष्य ने जैनागमों का गहरा अध्ययन प्रारंभ किया । अल्पकाल में ही शिष्य ने गंभीर अध्ययन कर अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया ।
साधना के कठोर मार्ग पर बढ़ने के पश्चात् अनेक विघ्न आए बाधाएं आई, जवानी का तूफान आया पर आचार्य श्री एक वीर सैनिक की भांति आगे बढ़ते रहे, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले यही उनके जीवन का मूलमंत्र था। भविष्य की चिन्ता छोड़ भविष्य
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के निर्माण में एक जुट रहे । उर्दू के एक शायर की ये पंक्तियां आचार्य श्री पर पूर्णतया चरितार्थ होती हैं -
"जिन्दगी हर मोड़ पर मुझसे यह देती है सदा । फिक्रे फर्दा छोड़िए तामीरे फर्दा कीजिए || "
ऐ मनुष्यो ! भविष्य की चिन्ता छोड़कर भविष्य के निर्माण में जुट जाओ यही तुम्हारी मौजूदगी का संसार में एक निशान रहेगा।
आचार्यश्री ने अपने स्नेह, वात्सल्य तथा दूरदर्शिता के आधार पर जैन समाज का जिस दीर्घं दृष्टि से उद्धार तथा निर्माण किया है वह वास्तव में ही उनका सफल कृतित्व है ।
संसार एक विष वृक्ष है इस विष वृक्ष पर अनेक कटु विष फल लगते हैं । उन अनेक विष फलों में दो अमृत फल भी लगते हैं । उन दो अमृत फलों में से एक है- सत्संगति और दूसरा है - सत्साहित्य | विश्व-विभूति आचार्यश्री ने ये दोनों अमृतफल संसार के विषवृक्ष पर पैदा किए हैं। अपने उच्च चरित्रसंपन्न जीवन के समागम द्वारा लोगों को सत्संगति का लाभ उन्होंने दिया है लेकिन यह अमृत फल वे कुछ समय तक ही जनता को दे सके पर उन्होंने जो साहित्य सृजन किया उस अमृतफल का लाभ जनता को हजारों वर्षों तक मिलता रहेगा । प्राकृत तथा संस्कृत के किसी भी ग्रंथ का अध्ययन श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी महाराज कृत “अभिधान राजेन्द्र कोय" का संदर्भ लिए बिना पूर्ण नहीं होता है। इस विराट कार्य को पूरा करने में गुरुदेव ने अपने जीवन के चौदह अमूल्य वर्ष लगाये। यह कोश गागर में सागर है । यह कार्य पूज्यश्री का जीवित स्मारक है ।
आचार्य श्री का जीवन इतना व्यापक और विराट है कि उनकी परिचय प्रशस्ति को शब्दों में बांधना मानो सूर्य को दीपक दिखाना है इसी दृष्टि को समक्ष रखते हुए पाश्चात्य दार्शनिक हेगले ने कहा हैWhat is well known is not necessarily known merely because it is well known.
बस, केवल इसी आंकाक्षा के साथ कि संत जीवन की मधुर सुवास हमारे मन मस्तिष्क में सदा धर्म की ओर साधना की ताजगी बनाए रखे मैं अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी के चरणों में अर्पण करती हुई स्वयं को कृतकृत्य समझती हूं ।
राजेन्द्र-पोति
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पूज्य श्रीमद् के वृद्धावस्था के तीन चित्र
विजय
जैनाचार्य-श्री
नश्चरेभ्योनमः
श्री विजय राजेंद्रमरिजी थराद (उत्तर गुजरात) वि. सं. १९४८
आहोर, वि.सं. १९५५
विजय राजेद्रमुरिजी
सूरत, वि.सं. १९५९
वी.नि. सं.२५०३
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सिगास्पा अवस्तिसविरीयअथावानराकारोजलस्य एवनाशराश्यतारेशशत-पाकाशपातादीAIAARI १५ प्राशराध्यतावश्वासरवदेव्यजिताऽतिप्रलादमतारमधोरुभियंसिसिपिआरज्ञाविद्यमानस्ता
क्षमापधःअरसाशेवानिरस्तावस्ततमित्यर्थः अतenaaaaaiiaरावरंवारजित अरुबाश्रमास्थविरुवयंवत्सविसदासयंतत.मशिरयोऽतरसत्रमाकारोंदालाक्षणिकाए। वाश्त्यघवामाधोटातातरतारस्वनाथ लोकशित्यधिकारादेवेदमादाअशितानित्यादि।अन्ततःअजीवा
दंताविश्सेतेसाहेबांजावजीदा कमसंगदिया मेजदावाकेश्वरिसेलिमविश्कीया को ५२मामतारमवासियंसिदगसिंगाप्रासेपहला गोयमा सेस्सेि तरसपानवायरस नमितविरुदता6ि5ववाहविक्षा जोयहिवाजाजीवाकमसंगदिया लिलाजते। जीवावोगालायमनमानब अन्तामता अन्तमन्तमोगाडा मासिलवरिश
ग जीवठियाइत्यादवदवउध्यस्थलावनार्थमिदमादप्रतियामित्यादिवोगालेसिकिमारी रादिजला अलमलिामन्योन्यजीवाचलानालालजीवानासंबंधात्यधः कधबाश्त्या दामनमन:तिश्वस्पर्शनामाघेलान्योन्यस्पछारततोऽन्योनबा गाउतरंसबझाश्त्यधानमना प्रोगातलिपिरस्परालोसीना चंगता अन्योनास्त्रोदक्षिााश्त्यचरागादिस्खास्ते यदादोहास्य शारीरमारेकनाधिपतीयशवरायदेषाकितस्यकबिधीतक्त्येति॥ai
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पूज्य श्रीमद् गुरुदेव के स्वहस्तलिपि
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पूज्य श्रीमद् एवं उनका मुनिमण्डल
वी.नि.सं. २५०३
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कियोद्धार प्रशस्ति-ताम्रपत्र
वि.सं. १९२५ आषाढ़ कृ. १० को क्रियोद्धार के समय त्यागे हए छड़ी, चामर, पालखी
आनि लो आज भी राजेन्द्र भवन, जावरा (मध्यप्रदेश) में संपूर्णतः सुरक्षित हैं
।।सदी। जावरानगरे । ।ईगात्राजितायन मः। संस।२५वा वारण जात्री रिजटय राजेंसूर नि:कियोकारक ततिःलीमादिश्व रखाशा।रातानिव स्तनित्तावाव तानिारयावरण ववरशसूरजमवि शबनधासुबासना
विजनिटमिनि श्रीषनवजारें। यवस्तमारसुजोकी इश्वेिदेवादिनांगे!
नेतथावाने घेलेतेफनेश्रीचौविसी जीनाल।। दजीपालमाश जयगानाक्षेत्रीजर
जावरा, वी.नि.सं. १९२५
क्रिोद्धार-स्थल श्री राजेन्द्रवट, जावरा
राजेन्द्र-ज्योति
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श्रीमद् भट्टारक विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपने मनि मण्डल के साथ, जावरा संवत् १९६२
पूज्यपाद वर्तमान आचार्य देवेश श्रीमद्विजयविद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज एवं उनका मुनि-मण्डल
बी. नि.सं. २५०३
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श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वर जी महाराज विभिन्न
चिन्तन-मुद्राओं में
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वर्तमान आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सरीश्वर जो भ.
विभिन्न मद्राओं में
वी. नि. सं. २५०३
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श्री अट्ठाई महोत्सव, रतलाम वि. सं. १९५४
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श्रीमद् की साहित्य-साधना
बसन्तीलाल जैन
विश्वपुरुष श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने साहित्यिक दृष्टि से क्या किया और क्या नहीं, इसका अभी तक कोई व्यवस्थित और वस्तुपरक अध्ययन नहीं हो पाया है । इस नज़र से उनकी साहित्य साधना क्रान्तिधर्मी है कि उन्होंने जो भी लिखा वह मात्र बैयक्तिक नहीं है, उसका सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष भी है। उनके पदों में जो लोक मंगल की भावना है, उसकी सराहना किये बिना कोई रह नहीं सकता। सर्वधर्म समन्वय की एक उन्मुक्त प्राणधारा उनके इन पदों में धड़क रही है। सब धर्मों का समन्वय करते हुए सत्य और सम्यक्त्व की खोज उनकी स्पष्ट जीवनचर्या है। उदाहरणार्थ निम्नलिखित पद अवलोकनीय है--
सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा । सर्व उपाधि से वजित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ।। ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा । शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रुद्र है करम संहारा रे ।। अल्ला आतम आप ही देखो, राम आतम रमनारा। कर्म जीत जिनराज प्रकासे, नय थी सकल विचारा रे ।।
उन्होंने लगभग संपूर्ण जैन वाङमय का संप्रदायातीत पारायण किया और एक वैज्ञानिक की तरह उसे व्यवस्थित और आकलित करने के प्रयत्न किये। जहां आवश्यक हुआ उन्होंने कुछ दुर्लभ ग्रंथों का पुनर्लेखन भी करवाया। उन्होंने खुद तो जैन श्रुत का पुनर्व्यवस्थापन किया ही, अपने समकालीन श्रमणों और श्रावकों को भी इस दिशा में प्रवृत्त किया। अभिधान राजेंद्र और पाइय सहबुही उनकी दो ऐसी कृतियां हैं जिन्हें 'यावच्चंद्रदिवाकरौं' नहीं भुलाया जा सकेगा। इनके द्वारा प्राकृत, मागधी और संस्कृत भाषाओं को जो समृद्धि मिली है वह कई शताब्दियों में भी संभव नहीं थी। प्रायः सभी विद्वानों ने 'अभिधान राजेंद्र' की व्यापक
उपयोगिता को स्वीकार किया है। इसके अलावा उन्होंने कई पूजाएँ, कई स्तोत्र और कई पद लिखे हैं जिनका अन्तर्तल रससिक्त है।
श्रीमद् ने छोटे बड़े कुल मिलाकर इकसठ ग्रंथों की रचना की है। उनमें से कतिपय ग्रंथों का सामान्य परिचय नीचे दिया जा रहा है : १. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश
शब्दकोशों की परंपरा में 'अभिधान राजेंद्र' यथार्थ में एक विशिष्ट उपलब्धि है। श्रीमद् की जीवन साधना का यह ज्वलंत उदाहरण है। जब इस कोश का पहला अक्षर लिखा गया तब वे तिरसठ वर्ष के थे। कहा जाता है कि साठ के ऊपर आदमी की सारी शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। वह जीने को जीता है, किन्तु उसका शरीर टूट जाता है, उसकी स्फूर्ति चुक जाती है, संपूर्ण प्राणवत्ता रीत जाती है, किन्तु श्रीमद् के साथ कुछ अलग ही हुआ। ६३ का आंकड़ा उनके जीवन में शरीर और आत्मा की शक्तियों की अमोघ मैत्री का वर्ष सिद्ध हुआ। उन्होंने अपार श्रम आरंभ किया। जैन जैनेतर सभी ज्ञान स्रोतों का महामंथन आरंभ किया और ९७ स्रोतों का दोहन कर उन्हें व्यवस्थित किया। तिरसठ संख्यागत अंकों का योग नौ होता है। नौ का अंक अखंड ही है। उस अखंड योग के वर्ष में श्रीमद् द्वारा एक अखंड कृति का सृजन आरंभ हुआ जो कि श्रीमद् की विश्व कल्याण की अखंड वृत्ति का स्पष्ट परिचायक है। __ सात भागों में तथा दस हजार पांच सौ छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोश के समान है, जिसमें जैनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रंथों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया है। इस महान कोश का संकलन कार्य मरुधर प्रान्त स्थित सियाणा नगर में वि. सं. १९४६ की आश्विन शुक्ला दूज के दिन प्रारंभ किया गया था। यह विक्रम संवत् १९६०
बी.नि.सं. २५०३/ख-२
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चैत्र शुक्ला १३ भगवान महावीर जयन्ती के दिन सूर्यपुर (सूरत) गुजरात में निर्मित होकर संपूर्ण हुआ है। लगभग साढ़े चौदह वर्षों की अविधान्त अनवरत साधना के परिणामस्वरूप यह आज बृहत् कोश के रूप में विद्यमान है। इसमें साठ हजार शब्दों का संकलन है। अधिकतर शब्दों की व्याख्या तथा निरुक्ति की गई है। इसमें केवल श्रीमद् की विशिष्ट ज्ञान साधना ही नहीं वरन् श्रीमद् धनचंद्रसूरिजी, श्रीमद् भूपेंद्रसूरिजी और श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी आदि की दीर्घ साधना भी परिलक्षित होती है। अभिधान राजेंद्र का प्रथम भाग १९१३ ई. में और सप्तम भाग १९३४ ईस्वी में रतलाम से प्रकाशित हुआ। सूरिजी का समग्र जीवन और उसका जीवन्त प्रतिनिधि 'अभिधान राजेंद्र विश्वसंस्कृति का अविस्मरणीय मंगलाचरण है।
२. पाइय सदृबुही
यह एक प्रकार से अभिधान राजेंद्र का ही लघुरूप है। इसमें प्रथम वर्णानुक्रम से प्राकृत शब्द, उसका संस्कृत अनुवाद, पश्चात् लिंग निर्देश और हिन्दी में अर्थ है। यह ग्रंथ अभी तक प्रकाशन की राह देख रहा है।
३. श्री कल्पसूत्र बालावबोध
मूलतः कल्पसूत्र श्री भद्रबाहुस्वामी द्वारा १२१६ श्लोकों में लिखा गया है। श्रीसंघ के अत्याग्रह से श्रीमद् ने यह बालावबोध वार्ता लिखी। यह टीका गुजराती भाषा में और देवनागरी लिपि में सचित्र प्रकाशित है। असल में कल्पसूत्र की यह टीका एक ऐसी कृति है जिसे उपन्यास की उत्कंठा के साथ पढ़ा जा सकता है। इसमें वे सारी विशेषताएँ हैं जो एक माता में हो सकती है। श्रीमद् का मातृत्व इसमें उभर-उभर कर अभिव्यक्त हुआ है। कथा के कुछ हिस्सों को छोड़कर यदि हम इसके सिद्धान्त भाग पर ही ध्यान दें तो यह सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक क्रान्ति का बहुत अच्छा आधार बन सकता है।
इस टीका में कई अन्य विषयों के साथ चार तीर्थंकरों के संपूर्ण जीवनवृत्त दिये गये हैं। वे हैं- भगवान महावीर, भगवान पार्श्वनाथ, भगवान नेमिनाथ और भगवान ऋषभदेव। इनके पूर्वभवों, पंच कल्याणकों तथा अन्य जीवन प्रसंगों का बड़ा जीवन्त वर्णन हुआ है।
५. श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी
यह कल्पसूत्र की संस्कृत टीका है। श्रीकल्पसूत्र की इतनी सरल, विस्तृत और रोचक टीका दूसरी नहीं है । 'गद्यं कवीनां निकष' इस टीका में सही अर्थ में सिद्ध हुआ है। ६. अक्षय तृतीया कथा ___ इसमें भगवान ऋषभदेव के वर्षीतप और इक्षुरस के पारणे का वर्णन है। श्रेयांसकुमार ने भगवान को इक्षुरस से पारणा कराया और लोगों को दान धर्म का एवं आहारदान का महत्त्व समझाया। इसका विवेचन प्रस्तुत ग्रंथ में है। ७. खर्परतस्कर प्रबंध
इसमें महाराजा विक्रमादित्य और खर्पर चोर की कथा है। ८. पर्यषणाष्टान्हिका व्याख्यान
श्री क्षमाकल्याणजी वाचक प्रणीत मूल संस्कृत ग्रंथ का यह सरस मारवाड़ी-मालवी-गुजराती मिश्रित भाषांतर है। ६. श्री गच्छाचारपयन्ना-वृत्ति-भाषांतर
इस ग्रंथ के तीन अधिकार हैं-आचार्य स्वरूप, यति स्वरूप और साध्वी स्वरूप । यह ग्रंथ श्रमण जीवन के आचार विचारों का मुख्य रूप से विवेचक है। १०. श्री तत्त्व विवेक ____ इसमें सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का सुन्दर बाल भोग्य भाषा में विवेचन है। ११. श्री देववन्दनमाला
इसमें ज्ञानपंचमी, चौमासी, दीवाली, सिद्धाचल और नवपदजी की देवनंदन विधि का विवेचन है। आराधकों के लिए यह अतीव उपयोगी है। १२. श्री जिनोपदेश मंजरी
इसमें रोचक कथाओं के माध्यम से धर्मतत्व समझाने का प्रयत्न हुआ है। १३. घनसार अघटकुमार चौपाई
इसमें चैत्य भक्तिफल और पुण्य फल का विवेचन है। चैत्यभक्ति की ग्यारह ढालें और पुण्य फल की बारह ढालें हैं। १४. प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका
इसमें प्रश्नोत्तरों के माध्यम से शास्त्रीय प्रमाण देकर धर्मतत्त्व समझाया गया है। १५. सकलैश्वयं स्तोत्र
इसमें पांच महाविदेहों में विहरमान सीमंधरादि बीस तीर्थकरों की स्तवना की गई है।
४. श्री सिद्ध हैम प्राकृत टीका
श्री सिद्धहैम का आठवाँ अध्याय प्राकृत व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी वर्तमान में उपलब्ध टीकाओं में राजेंद्रीय प्राकृत टीका वैशिष्ट्य पूर्ण है। इसके पढ़ने से विद्यार्थियों को मल सूत्र के साथ-साथ संस्कृत श्लोकों से सारी बातों का पर्याप्त ज्ञान हो जाता है। श्लोक में ही सूत्रों की वृत्ति उदाहरण के साथ एवं शब्द प्रयोग की सिद्धि सरल ढंग से की गई है। सामान्य संस्कृतज्ञाता भी इस टीका से प्राकृत का ज्ञान भलीभाँति कर सकता है।
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श्री सौधर्म बृहदागच्छीय गुर्वावली शासनपति-श्री महावीरस्वामी
१६. होलिका व्याख्यान
इसमें लौकिक पर्व होलिका की उत्पत्ति की कथा दी गई है। १७. प्रभुस्तवन सुधाकर
चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति, सज्झाय आदि का संग्रह इसमें किया गया है। सारा काव्य श्रीमद् ने ही रचा है। श्रीमद् के काव्य में अर्थगांभीर्य और आध्यात्मिक भाव पूर्ण रूप से विद्यमान है। १८. श्री सिद्धचक्र पूजा और श्री महावीर पंच कल्याणक
पूजा
श्रीमद् द्वारा रचित दो पूजाओं का यह संग्रह है। प्रसाद और माधुर्य गुण से ये पूजाएं युक्त हैं, इसमें रूपकादि अलंकार भी विद्यमान हैं और कहीं-कहीं वीर रस भी नजर आता है। १६. एक सौ आठ बोल का थोकड़ा
इसमें मननीय एक सौ आठ बातें बताई गई हैं। २०. श्री राजेंद्र सूर्योदय
श्रीमद् का संवत् १९६० का सूरत चातुर्मास विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा। इस चातुर्मास में चारथुई बालों से महत्त्वपूर्ण वार्ता हुई। यह ग्रंथ उस चातुर्मास की ऐतिहासिक स्मृति है। इसमें तमाम शंकाओं का शास्त्रादि के प्रमाणों से समाधान किया गया है।
२१. कमलप्रभा-शुद्ध रहस्य
स्थानकवासी साध्वी श्री पार्वती ने अपने सत्यार्थ चंद्रोदय ग्रंथ में श्रीमहानिशीथ सूत्रोक्त कमलप्रभाचार्य के बारे में जो असत्प्रलाप किया था उसका खंडन श्रीमद् ने उपरोक्त ग्रंथ लिख कर किया।
१. श्री सुधर्म स्वामीजी २. श्री जम्वू स्वामीजी ३. श्री प्रभव स्वामीजी ४. श्री शय्यंभव सूरिजी ५. श्री यशोभद्र सूरिजी ६. श्री संभूति विजयजी
श्री भद्रबाहु स्वामीजी ७. श्री स्थूलिभद्र सूरिजी ८. श्री आर्यमहागिरीजी
श्री आर्य सुहस्ति सूरिजी ९. श्री सुस्थितसूरिजी
श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी १०. श्री इन्द्रदिन्न सूरिजी ११. श्री दिन्नसूरिजी १२. श्री सिंहगिरि सूरिजी १३. श्री वज्रस्वामीजी १४. श्री वज्रसेन सूरिजी १५ श्री चन्द्र सूरिजी १६. श्री सामंतभद्र सूरिजी १७. श्री वृद्धदेव सूरिजी १८. श्री प्रद्योतन सुरिजी १९. श्री मानदेव सूरिजी २०. श्री मानतुंग सूरिजी २१. श्री वीर सूरिजी २२. श्री जयदेव सूरिजी २३. श्री देवानन्द सूरिजी २४. श्री विक्रम सूरिजी २५. श्री नरसिंह सुरिजी २६. श्री समुद्र सूरिजी २७. श्री मानदेव मूरिजी २८. श्री विबुधप्रभ सूरिजी २९. श्री जयानन्द सूरिजी ३०. श्री रविप्रभ सूरिजी ३१. श्री यशोदेव सुरिजी ३२. श्री प्रद्युम्न सूरिजी ३३. श्री मानदेव सूरिजी ३४. श्री विमलचन्द्र सूरिजी ३५. श्री उद्योतन सूरिजी ३६. श्री सर्वदेव सूरिजी
३७. श्री देव सूरिजी ३८. श्री सर्वदेव सूरिजी ३९. श्री यशोभद्र सूरिजी
श्री नेमिचन्द्र सूरिजी ४०. श्री मुनिचन्द्र सूरिजी ४१. श्री अजितदेव सूरिजी ४२. श्री विजयसिंह सूरिजी ४३. श्री सोमप्रभ सूरिजी
श्री मणिरत्न सूरिजी ४४. श्री जगच्चन्द्र सूरिजी ४५. श्री देवेन्द्र सुरिजी
श्री विद्यानन्द सूरिजी ४६. श्री धर्मघोष सूरिजी ४७. श्री सोमप्रभ सूरिजी ४८. श्री सोमतिलक सूरिजी ४९. श्री देवसुन्दर सूरिजी ५०. श्री सोमसुन्दर सूरिजी ५१. श्री मुनिसुन्दर सूरिजी ५२. श्री रत्नशेखर सूरिजी ५३. श्री लक्ष्मीसागर सूरिजी ५४. श्री सुमति साधु सूरिजी ५५. श्री हेमविमल सूरिजी ५६. श्री आनन्द विमल सूरिजी ५७. श्री विजयदान सूरिजी ५८. श्री हीरविजय सूरिजी ५९. श्री विजयसेन सूरिजी ६०. श्री विजयदेव सूरिजी ६१. श्री विजयसिंह सूरिजी ६२. श्री विजयप्रभ सूरिजी ६३. श्री विजयरत्न सूरिजी ६४. श्री वृद्धक्षमा सूरिजी ६५. श्री विजयदेवेन्द्र सूरिजी ६६. श्री विजयकल्याण सूरिजी ६७. श्री विजयप्रमोद सूरिजी ६८. श्री विजय राजेन्द्र सूरिजी ६९. श्री विजयधनचन्द्र सूरिजी ७०. श्री विजय भूपेन्द्र सूरिजी ७१. श्री विजय यतीन्द्र सूरिजी ७२. श्री विजय विद्याचन्द्र सूरिजी
इस प्रकार थीमद् ने अपने ज्ञान के वितरण में किसी प्रकार की कंजूसो नहीं की। वे जितना दे सकते थे, देते ही गये। 'अभिधान राजेंद्र उनकी विश्वसंस्कृति को इतनी बड़ी देन है कि उसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। इस प्रकार जिस व्यक्ति ने अपने तपोनिष्ठ आचरण से शस्त्रागारों को शास्त्रागारों में बदला हो, संचार
और यातायात की सुविधाएँ होते हुए भी जिसने अपनी चारित्रिक निर्मलताओं से अंधविश्वासों, अरक्षाओं, रूढ़ियों और अंधी परंपराओं में धंसी मानवता को पैदल घूम-घूम कर निर्मल और निष्कलंक बनाया हो, उसके प्रति यदि वंदना में हमारी अंजुलियां नहीं उठती और उसके जीवन से यदि हम प्रेरणा नहीं लेते तो न तो हमसे बड़ा कोई कृतघ्नी होगा और न कोई अभागा। श्रमण संस्कृति के उज्ज्वल और जीवन्त प्रतीक के रूप में सूरिजी ने विश्व संस्कृति को जो दिया है वह अविस्मरणीय है और अमूल्य भी। ऐसी विषपायी और अमृतवर्षिणी आत्मा को बार-बार प्रणाम।
वी.नि.सं. २५०३
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संपूर्ण राजेन्द्रसूरि-वाङ्मय
अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग १ से ७) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी
चन्द्रिका-धातुपाठ तरंग (पद्य) रचना-काल : सन् १८८९-१९०३ १८९७, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ८९
अमुद्रित, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९४ अमरकोश (मूल) कल्याणमन्दिर स्तोत्रवृत्ति (त्रिपाठ)
चन्द्रिकाव्याकरण (२ वृत्ति) १८६९ अरा को-१ परिप१४-अ १८६१, अ. रा. को-१, परि, पृ.१४-अ कल्याण (मन्दिर) स्तोत्र प्रक्रिया टीका
१८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ अघटकुँवर चौपाई
१८७८, अ रा को-१, परि. पृ. १४ संकलित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४
४ चैत्यवन्दन चौवीसी
चत्यवन्दन काव्यप्रकाशमूल
संकलित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ अष्टाध्यायी
१८९६, अ. रा. को-१, परि. प. १४-अ चौमासी देववन्दन विधि १८७२, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ कुवलयानन्दकारिका
अ. रो. को-१, परि. पृ. १४ अष्टाह्निका व्याख्यान भाषान्तर
१८६६, अ. रा. को-१, परि. पु.१४-अ चौवीस जिनस्तुति अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ केसरिया स्तवन
संकलित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ अक्षयतृतीया कथा
१८९७, रा. स्मा. ग्रं., पृ. १२२
चौवीस स्तवन संस्कृत, १८८१, रा. स्मा. ग्र. पृ. ८९ खापरिया तस्कर प्रबन्ध (पद्य)
संकलित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ आवश्यक सूत्रावचूरी टब्बार्थ
अमुद्रित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ ज्येष्ठस्थित्यादेशपट्टकम् १८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ गच्छाचारपयन्नावृत्ति भाषान्तर उत्तमकुमारोपन्यास
१८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-
१८६१, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ
जम्बद्रीपप्रज्ञप्ति बीजक (सूची) संस्कृत, अमुद्रित, रा. स्मा. ग्रं. पृ. ९४ गतिष्ठ्या-सारणी
अमुद्रित, १८९४, अ. रा. को-१, परि. उपदेशरत्नसार गद्य
१८४८, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ
पृ. १४-अ संस्कृत, अमुद्रित, १८९४, अ. रा. को-१, ग्रहलाघव
१८५८, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ
जिनोपदेश मंजरी परि. पृ. १४-अ.
मारवाड़ी, १८९७, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९१ चार (चतुः) कर्मग्रन्थ-अक्षरार्थ उपदेशमाला (भाषोपदेश)
तत्त्वविवेक १८७९, अ. रा. को-१, परि. पू. १४-अ
-
अमुक
अमुद्रित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ उपधानविधि
१८८८, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ १८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ
तर्कसंग्रह फक्किका
तीsaini Jaaician उपयोगी चौवीस प्रकरण (बोल)
१८६०, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ टांतीदिजिलाटो'नमीक्षामन्ना १८९२, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ किवलीलामीसक्वल
तेरहपंथी प्रश्नोत्तर विचार उपासकदशाङ्गसूत्र भाषान्तर (बालावबोध ) टमीप्रसवकैक्नीला
१८९७, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ नमीमाक्वश्ववारी'Ja अमुद्रित, १८९३, अ. रा. को-१, परि
द्वाषष्ठिमार्गणा-यंत्रावली
माउसचीनोक्स पृ. १४-अ
छाला 'मोरकारसंगी एं
अमुद्रित, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९४ एक सौ आठ बोल का थोकड़ा
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रचूर्णी १८७७, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४
१८८५, अ. रा. को-१, परि, पृ. १४-अ
सं० १९२६ मार्गशीर्षशुक्ला १० कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार
दीपावली (दिवाली) कल्पसार (गद्य) अ. रा. को-१, परि. पृ. १४
अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ कसम्ममाटामा कमलप्रभा शुद्ध रहस्य
वकनिकासा गaिl दीपमालिका कथा (गद्य)
तशादसाaanana १९०६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४
संस्कृत, अमुद्रित, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९४
काल मदेवादिदेवास कर्तुरीप्सिततम कर्म (श्लोक व्याख्या)
समयबासरतमा दीपमालिका देववन्दन अमुद्रित, १८९६, अ. रा. को-१, परि. समाशसंवन्नईतवादक १९०५, रा. स्मा. ग्रं., पृ. १२३ lanजिअसंविनानुस्मजन
देववन्दनमाला करणकामधेनुसारिणी
रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९१ - १८४८, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी की लिखावट; धनसार-अघटकुमार चौपाई कल्पसूत्र बालावबोध (सविस्तर)
मार्गशीर्ष शुक्ला १०, सं.१९२६ को लिखा संकलित, १८७४-७५, रा. स्मा. अं.. १८८३, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ.. गया स्थापनाचार्य' का पृष्ठ ।
२०
.. राजेन्द्र-ज्योति
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ध्रष्टर चौपाई
पंचाख्यान कथासार संकलित, अमुद्रित, अ. रा. को-१, परि. अमुद्रित, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९४
पञ्चकल्याणक पूजा धातुपाठ श्लोकबद्ध
संकलित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ संकलित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ पञ्चमी देववन्दन विधि धातुतरंग (पद्य)
अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ १८७६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ पर्युषणाष्टाह्निका-व्याख्यान भाषान्तर नवपद ओली देववन्दन विधि
रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९१ अ. रा. को-१, परि. पु. १४
पाइयसद्दम्बुही कोश नवपद पूजा
प्राकृत, अमुद्रित, १८९९, रा. स्मा. ग्रं., १८९३, अ. रा. को-१, परि. पु. १४-अ
A
JER: बाल ले जाने की
mmaratana सारेर मनोधाम मिच
+
का निरस्त करने मरना नाम mumy
प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार
१८७८, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका
मारवाड़ी, १८७९, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९१ प्रश्नोत्तर मालिका __ अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ प्रज्ञापनोपाङ्गसूत्र सटीक (त्रिपाठ)
१८६२, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ प्राकृत व्याकरण विवृत्ति
अ. रा. को-१, परि. प. १४ प्राकृत व्याकरण (व्याकृति) टीका
१९०४, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ८८ प्राकृत शब्द रूपावली
१९०४, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९० बारेवत संक्षिप्त टीप
१८९२, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ बृहत्संग्रहणीय सूत्र चित्र (टब्बार्थ)
१८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ भक्तामर स्तोत्र टीका (पंचपाठ)
१८५५, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ भक्तामर (सान्वय-टब्बार्थ)
१८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ भयहरण स्तोत्र वृत्ति
१८५६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ भतरोशतकत्रय
१८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ महावीर पंचकल्याणक पूजा
१९०६, रा. स्मा. ग्रं., पृ. १२३ महानिशीथ सूत्र मूल (पंचमाध्ययन)
१८७०, अं. रा. को.१, परि. पू. १४-अ मर्यादापट्टक
१८९९, रा. स्मा. ग्रं., पृ. १२२ . मुनिपति (राजर्षि) चौपाई। ___संकलित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ स्तुति प्रभाकर - ___ अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ स्वरोदयज्ञान-यंत्रावली
अमुद्रित, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ सकलैश्वर्य स्तोत्र सटीक -
१८७९, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४ सद्य गाहापयरण (सूक्ति-संग्रह)
अमुद्रित, रा. स्मा. ग्रं., पृ. ९४ सप्ततिशत स्थान यंत्र
अमुद्रित, १८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ सर्वसंग्रह प्रकरण (प्राकृत गाथाबद्ध)
सदासर । मनु सम्म व
कापा कम करने
मेलन
MPARENSAHARANPATA
N
EKISCREDITNERATE
आहोर-स्थित 'श्री राजेन्द्र जैनागम वृहद् ज्ञान भण्डार' के सौजन्य से प्राप्त श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर की दुर्लभ अप्रकाशित कृति 'पाइयसहबुहि' (सन् १८९९ ई.)
का प्रथम पृष्ठ। जिसे अभिधान-राजेन्द्र' का लघुरूप माना जाता है। नवपद पूजा तथा प्रश्नोत्तर
पुण्डरीकाध्ययन सज्झाय १८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ १८८९, रा. स्मा. ग्रं., पृ. १२१ नीतिशिक्षा द्वय पच्चीसी
प्रक्रिया कौमुदी (१; २-३ वृत्ति) १८९७, रा. स्मा. अं., पृ. १२२
१८५८, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ पंचसप्ततिशत स्थान चतुष्पदी
प्रभु-स्तवन-सुधाकर १८९६, अ. रा. को-१, परि. पृ. १४-अ संकलित, १९७३
बी. नि. सं. २५०३
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अ. रा. को १, परि. पू. १४ वैराग्याचार सज्झाय
साधु
१८८९, रा. स्मा. ग्रं., पृ. १२१ सारस्वत व्याकरण ( ३ वृत्ति)
भाषा टीका, अमुद्रित, १८६७, अ. रा. को-१. परि. पू. १४
सारस्वत व्याकरण सूत्रानुक्रम
१८६६, अ. रा. को- १, परि. पू. १४-अ सारस्वत व्याकरण स्तुबुकार्थ ( १ वृत्ति) १८७५, अ. रा. को- १, परि. पृ. १४-अ सिद्धचक पू
संकलित, १८७२, अ. रा. को- १, परि. पृ. १४
सिद्धाचल नवाणुं यात्रा देववन्दन विधि अ. रा. को- १, परि. पू. १४ सिद्धान्त प्रकाश ( खण्डनात्मक )
अमुद्रित, अ. रा. को-१. परि. १४ सिद्धान्तसार सागर ( बोल - संग्रह )
अमुद्रित, १८८४ अ. रा. को- १, परि. पृ. १४
सिद्धम प्राकृत टीका
रा. स्मा. ग्रं., पृ. १०६
सिंदूर प्रकर सटीक
१८५६, अ. रा. को- १, परि. पू. १४ अ सेनप्रश्नबीजक
२२
अमुद्रित, १८७०, रा. स्मा. ग्रं., पद्रव्य चर्चा
अ. रा. को- १, परि. पू. १४ षडावश्यक अक्षरार्थ
अमुद्रित, अ. रा. को-१. परि. पू. १४ शब्दकौमुदी (श्लोक)
अ. रा. को १, परि. पू. १४ 'शब्दाम्बुधि' कोम
अ. रा. को- १, परि. शान्तिनाथ स्तवन १८८५, रा. मा. ग्रं.,
अ. रा. को १, परि. पू. १४
शंकोद्धार प्रशस्ति व्याख्या
१८९६, अ. रा. को- १, परि. पू. १४ अ हीर प्रश्नोत्तर बीजक षड्द्रव्य विचार
पृ. १३
पृ. १२१
आदामास (विक्रम राणी प
पृ. ९४
दर्शन
आ
भग
भूतक
स्कृति यामिन
ध
निि
परि.
म
जन
पुरानी
अनियमि
काय पण गुगुरलाइ नि किन भरम शुरु भइलपति
पा
उ
उ
पृ. १४-अ
न
'पाइ सदबुहि' (सन् १८९९ ई.) का मध्य पृष्ठ
१८६१, अ. रा. को-१.१४ अमुद्रित, १८९५, अ. रा. को १, परि. ललित विस्तरा पृ. १४-अ
१८७२, अ. रा. को- १, परि. पू. १४ अ वर्णमाला (पक्का)
हेमल प्रक्रिया (व्यंजन संधि)
१८९६, अ. रा. को- १, परि. पू. १४- अ होलिका प्रबन्ध (गद्य)
१८९७, अ. रा. को- १, परि. पू. १४-अ
वाक्य-प्रकाश
अमुद्रित, १८५९, म. रा. को-१, परि पृ. १४-अ होलिका व्याख्यान
संस्कृत, रा. स्मा. ग्रं. पू. ९२ रसमञ्जरी काव्य
१८६६, अ. रा. को- १, राजेन्द्र सूर्योदय
१९०३, अ. रा. को- १, परि. पू. १४ लघु संघयणी (मूल)
१८५९, अ. रा. को- १, परि. पू. १४ अ वासठ मार्गणा विचार
अ. रा. को- १, परि. विचार-प्रकरण
पृ. १४
१८५२, अ. रा. को- १, परि. पू. १४ अ विहरमाण जनपदी
१८८९, रा. स्मा. ग्रं. पू. १२१ लोकायंत्रावली अमुद्रित, अ. रा. को- १, पू. १४
सीकर के राजेन्द्रसूरीश्वर विशेषांक से साभार
राजे-पोति
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• ॥नबारक वीराजेंज्मृरिकृता 5 श्रीकल्पसूत्रस्य बालावबोधिनी वार्ता ॥ एक अध्ययन ॥ नेमीचन्द जैन ।।
मध्यकाल में संस्कृत, प्राकृत और मागधी में लिखे ग्रन्थों की सरल टीकाएँ लिखने की परम्परा बनी। इसके कई स्पष्ट कारण थे। लोग इन भाषाओं को भूलने लगे थे और जीवन की अस्तव्यस्तता के कारण इनसे सहज सांस्कृतिक सम्पर्क टूट गया था; अतः सहज ही ये भाषाएँ विद्वद्भोग्य रह गयीं और सामान्य व्यक्ति इनके रसावबोध से वंचित रहने लगा। वह इन्हें सुनता था, भक्तिविभोर और श्रद्धाभिभूत होकर, किन्तु उसके मन पर अर्थबोध की कठिनाई के कारण कोई विशेष प्रभाव नहीं होता था। 'कल्पसूत्र' की भी यही स्थिति थी।
मूलतः कल्पसूत्र श्रीभद्रबाहुसूरि द्वारा १२१६ श्लोकों में मागधी में लिखा गया है (प्र. पृ. ५) । तदनन्तर समय-समय पर इसकी कई टीकाएँ हुई, जिनमें पण्डित श्रीज्ञानविमलसूरि की भाषा टीका सुबोध और सुगम मानी जाती थी, यह लोकप्रिय भी थी
और विशेष अवसरों पर प्रायः इसे ही पढ़ा जाता था। जब श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि से 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका करने का निवेदन किया गया तब उन्होंने यही कहा था कि पण्डित ज्ञानविमलसूरि की आठ ढालवाली टीका है अतः अब इसे और सुगम करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर श्रीसंघ की ओर से आये हुए लोगों ने कहा : "श्रीपूज्य, इस ग्रन्थ में थविरावली तथा साधुसमाचारी नहीं है अतः एक व्याख्यान कम है तथा अन्य बातें भी संक्षेप में कही गयी हैं अतः यह ग्रन्थ अधूरा है । कहा भी है कि 'जो ज्ञान अधूरा है, वह ज्ञान नहीं है; जो आधा पढ़ा है, वह पढ़ा हुआ नहीं है। अधूरी रसोई, रसोई नहीं है; अधूरा वृक्ष फलता नहीं है; अधूरे फल में पके हुए फल की भाँति स्वाद नहीं होता, इसलिए सम्पूर्णता चाहिये।' आप महापुरुष हैं, परम उपकारी हैं अतः श्रीसंघ पर कृपादृष्टि करके हम लोगों की अर्जी कबूल कीजिये।"
(प्र. पृ. ६)। इसे सुनकर श्रीमद् ने श्रावकों के माध्यम से ४-५ ग्रन्थागारों में से काफी प्राचीन लिखित चूणि, नियुक्ति, टीकादि की दो-चार शुद्ध प्रतियाँ प्राप्त की और कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका का सूत्रपात किया। इसके तैयार होते ही कई श्रावकों ने मूल प्रति पर से कुछ प्रतियाँ तैयार की किन्तु पांच-पचास से अधिक नहीं की जा सकीं। लिपिकों (लेहियों) की कमी थी और एक प्रति ५०-६० रुपयों से कम में नहीं पड़ती थी अतः संकल्प किया गया कि इसे छपाया जाए (पृ. ६)।
इस तरह 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका अस्तित्व में आयी। टीका रोचक है, और धार्मिक विवरणों के साथ ही अपने समकालीन लोकजीवन का भी अच्छा चित्रण करती है। इसके द्वारा उस समय के भाषा-रूप, लोकाचार, लोकचिन्तन इत्यादि का पता लगता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें भी श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के क्रान्तिनिष्ठ व्यक्तित्व की झलक मिलती है। वस्तुतः यदि श्रीमद् हिन्दी के कोई सन्त कवि होते तो वे कबीर से कम दर्जे के बागी नहीं होते। कहा जा सकता है जो काम कबीर ने एक व्यापक पटल पर किया, करीब-करीब वैसा ही कार्य श्रीमद् ने एक छोटे क्षेत्र में अधिक सूझबूझ के साथ किया। कबीर की क्रान्ति में बिखराव था किन्तु श्रीमद् की क्रान्ति का एक स्पष्ट लक्ष्य-बिन्दु था। उन्होंने मात्र यति-संस्था को ही नहीं आम आदमी को भी क्रान्ति के सिंहद्वार पर ला खड़ा किया। मात्र श्रीमद् ही नहीं उन दिनों के अन्य जैन साधु भी क्रान्ति की प्रभाती गा रहे थे। 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका लिखे जाने के दो साल बाद संवत् १९४२ में सियाणा में श्रीकीर्तिचन्द्रजी महाराज तथा श्रीकेशर विजयजी महाराज आये। दोनों ही शुद्ध चरित्र के साधु थे। उन्होंने सियाणा में ही वर्षावास
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किया। अकस्मात् कोई ऐसा प्रसंग आया कि बागरा-निवासी किसी विवाद को लेकर सियाणा आये । यह एक अच्छा अवसर उपस्थित हुआ। इस समय जैन लोग तो एकत्रित हुए ही कई अन्य जातियों के बन्धु-बान्धव भी वहाँ उपस्थित हुए। 'कल्पसूत्र' की प्रस्तावना में एक स्थान पर लिखा है : "तेमां बली ते वखतमा विशेष आश्चर्य उत्पन्न करनारी आ वात बनी के ते गामना रेहवासी क्षत्री, चौधरी,
घांची, कुंभारादि अनेक प्रकारना अन्य दर्शनीऊ तेमा बली यवन लोको अने ते गमना ठाकोर सहित पण साथे मली सम्यक्त्वादि व्रत धारण करवा मंडी गया।" इससे इस तथ्य का पता चलता है कि जैन साधु का जनता-जनार्दन से सीधा सम्पर्क था और उन्हें लोग श्रद्धा-भक्ति से देखते थे। अन्य जातियों के लोगों का एकत्रित होना और वधनिमित्त लाये गये पशुओं को छोड़ना तथा अहिंसा व्रत को धारण
क.सू. बा. टी, चित्र ५४
पार्श्वनाथ
RWAR
'भो तपसी यह काठ न चीर, यामें जुगल नाग हैं बीर ।'
-पार्श्वनाथ ; भूधर; ७६१ करना कुछ ऐसी घटनाएँ हैं, जो आज से लगभग नब्वे वर्ष पूर्व संत्रस्त थे। ऐसे समय में ज्ञान का सन्देशवाहक 'कल्पसूत्र' और घटित हुई थीं। यह जमाना ऐसा था जब सामाजिक और सांस्कृ- पर्युषण में उसका वाचन बड़ा क्रान्तिकारी सिद्ध हुआ। श्रीमद् की तिक दृष्टि से काफी उथल-पुथल थी और लोग घबराये हुए थे। इस टीका में कथाएँ तो हैं ही उसके साथ ही विचार भी हैं, ऐसे सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक ढकोसलों के शिकंजे में लोग काफी विचार जो जीवन को जड़-मूल से बदल डालने का सामर्थ्य रखते हैं।
क. सू. बा. टी. चित्र ६६
'दिव्य भव्य थी बनी बरात नेमिराज की जा रही नरेन्द्र उग्रसेन सद्म पास में।
-श्री शिवानन्दन काव्य ; विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी; सर्ग. ६, वृ. २४
राजेन्द्र-ज्योति
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आरम्भ से ही श्रीमद् का बल स्वाध्याय पर था। यति-क्रान्ति के “कलमनामे' में नवीं कलम स्वाध्याय से ही सम्बन्धित है। उन्होंने सदैव यही चाहा कि जैन साधु-साध्वियां और श्रावकधाविकाएँ स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त हों अत: विद्वानों के लिए तो उन्होंने “अभिधान-राजेन्द्र” कोश तथा “पाइयसबुहि" जैसी कृतियों की रचना की और श्रावक-श्राविकाओं के लिए 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका जैसी सरल किन्तु क्रान्तिकारी कृतियाँ लिखीं। ज्ञान के एक प्रबल पक्षधर के रूप में उन्होंने कहा : “एमज केटलाएक विवाहादिकमां वरराजाने पहेरवा माटे कोइ मगावा आवशे तो जरूर आपवा पडशे । एवो संकल्प करीने नवनवा प्रकारना सोना रूपा हीरा मोती आदिकाना आभूषणो घडावी राखे छ, तथा वस्त्रोना वागा सिवरावी राखे छे, तेम कोइने भणवा वाचवाने माटे ज्ञानना भंडारा करी राखवामां शु हरकत आवी नडे छ ? पण एवी बुद्धि तो भाग्येच आवे।” (प्र. पृ. १५) । उक्त अंश का अन्तिम वाक्य एक चुनौती है। श्रीमद् ने इन अप्रमत्त चुनौतियों के पालनों में ही क्रान्ति-शिशु का लालन-पालन किया। उन्होंने पंगतों में होने वाले व्यर्थ के व्यय का भी विरोध किया और लोगों को ज्ञानोपकरणों को सञ्चित करने तथा अन्यों को वितरण करने की दिशा में प्रवृत्त किया; इसीलिए धार्मिक रूढ़ियों के उस युग में 'कल्पसूत्र' के छापे जाने की पहल स्वयं में ही एक बड़ा विद्रोही और क्रान्तिकारी कदम था। इसे छापकर तत्कालीन जैन समाज
ने, न केवल अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया वरन् आने वाली पीढ़ियों के लिए आधुनिकता के द्वार भी खोल दिये।
सभी जानते हैं “पर्युषण" जैनों का एक सर्वमान्य धर्म-पर्व है। इसे प्रायः सभी जैन सम्प्रदाय बड़ी श्रद्धाभक्तिपूर्वक मनाते हैं। पर्युषण के दिनों में दिगम्बरों में “मोक्षशास्त्र" और श्वेताम्बरों में "कल्पसूत्र" के वाचन की परम्परा है। "मोक्षशास्त्र' के दस और "कल्पसूत्र" के आठ वाचन होते हैं। "कल्पसूत्र" की बालावबोध टीका इस दृष्टि से परिवर्तन का एक अच्छा माध्यम साबित हुई। इसमें कई विषयों के साथ कुछेक ऐसे विषय भी हैं जिनका आम आदमो से सीधा सरोकार है। वाचक कैसा हो, वाचन की क्या विधि हो, शास्त्र-विनय का क्या स्वरूप हो; साधु कैसा हो, उसकी संहिता क्या हो, चर्या क्या हो इत्यादि कई विषय 'कल्पसूत्र' में सैद्धान्तिक और कथात्मक दोनों रूपों में आये हैं। असल में 'कल्पसूत्र' की यह टीका एक ऐसी कृति है जिसे उपन्यास की उत्कण्ठा के साथ पढ़ा जा सकता है। इसमें वे सारी विशेषताएँ हैं जो किसी माता में हो सकती हैं। श्रीमद् का मातृत्व इसमें उभर-उभर कर अभिव्यक्त हुआ है। हम इसे क्रान्तिशास्त्र भी यदि कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कथा के कुछ हिस्सों को छोड़कर यदि हम इसके सिद्धान्त-भाग पर ही ध्यान दें तो यह सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक क्रान्ति का बहुत अच्छा आधार बन सकता है। प्रश्न यह है कि हम इसका उपयोग किस तरह करते हैं ?
जयजयस्तस्य, प्रमोदय प्रमोदयुक्॥सोधखामिनो गडे, संति राजेंसरयः ॥ तेने काम बाला
सूत्रस्य, वार्ता बादावबोपिनी ॥ ५ रुता सूत्रपदेयुक्ता, सर्वसारांशसंयुता ॥ मायोगोपहनं ।। येन, न रुत तस्य हेतवे ॥ अब्दे खवेदनदेद, (१९५०) माधवे च सितेतरे ॥ पक्षे दिने ॥हितीयायां, मंगजे लिखिता विपम् ॥३॥ इति श्रीराजेंसूनिविरचितायो प्रारूतनापायां बाजाय। बोधिनी टीका पापत्रस्य समाशा ॥ श्रीरस्तु, कल्याणमस्तु ।। संवत १४४० ना वेशारवयदि।। बीजना विवसें बालावबोधिनीटीका संपूर्ण चई॥जांबुवा नगरे ।
।
क. सू. की बा. टी. का अन्तिम पृष्ठ (२४८); जिसमें इसकी समापन-तिथि तथा स्थान का उल्लेख है; समापनतिथि : वैशाख वदी २; संवत् १९४०; स्थान जांबुआ नगर । सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य 'कल्पसूत्र' के भाषिक व्यक्तित्व का
के लिए सम्भव था ही नहीं; अतः श्रीमद् प्राचीन भाषाओं के साथ है। यह मूलतः जांबुवा नगर में संवत् १९३६ में शुरू हुई और वहीं मारवाड़ी, मालवी, गुजराती और हिन्दुस्तानी भी भली-भाँति संवत् १९४० में सम्पन्न हुई। जांबुआ नगर की स्थिति बड़ी उप- जानते थे और अपने प्रवचन बहुधा इनके मिले-जुले भाषारूप में योगी है। यहाँ गुजरात और मारवाड़ के लोग भी आते-जाते रहते ही दिया करते थे। रोचक है यह जानना कि 'कल्पसूत्र' की बालाहैं। इस तरह यहाँ एक तरह से त्रिवेणी संगम का सुख मिलता है। वबोध टीका मूलतः मारवाड़ी, मालवी, गुजराती और हिन्दुस्तानी मालवा, गुजरात और मारवाड़ तीन आंचलिक संस्कृतियों के संगम की सम्मिश्रित भाषा-शैली में लिखी गयी थी। जब इसे शा. भीमसिंह ने जांबुआ को भाषा-तीर्थ ही बना दिया है। श्रीमद् के कारण यहाँ माणक को प्रकाशनार्थ सौंपा गया तब इसका यही रूप था; किन्तु आसपास के लोग अधिकाधिक आते रहे। यातायात और संचार पता नहीं किस भाषिक उन्माद में शा. भीमसिंह माणक ने इसे के साधनों की कमी के दिनों में लोगों का इस तरह एकत्रित होना गुजराती में भाषान्तरित कर डाला और उसी रूप में इसे प्रकाशित और सांस्कृतिक मामलों पर विचार-विमर्श करना एक महत्त्वपूर्ण करवा दिया। उस समय लोग इस तथ्य को गम्भीरता को नहीं तथ्य था । यद्यपि श्रीमद् कई भाषाओं के जानकार थे तथापि मागधी, जानते थे; किन्तु बाद में उन्हें अत्यधिक क्षोभ हुआ। सुनते हैं प्राकृत और संस्कृत पर उन्हें विशेष अधिकार था। राजस्थानी वे 'कल्पसूत्र' का मूलरूप भी प्रकाशित हुआ था (?) किन्तु या तो वह जन्मजात थे, अतः मारवाड़ी एक तरह से उन्हें जन्मघुटी के रूप दुर्लभ है या फिर सम्भवतः वह छपा ही नहीं और शा. भीमसिंह में मिली थी, मालवा में उनके खूब भ्रमण हुए, गुजरात से उनके माणक के साथ ही उस पांडुलिपि का अन्त हो गया। टीका के जीवन्त सम्पर्क रहे; और हिन्दुस्तानी से उन दिनों बच पाना किसी प्रस्तावना-भाग के ११ वें पृष्ठ पर, जिसका मूल इस लेख के साथ
वो.नि. सं. २५०३/ख-२
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प.
जज इतीज नदी तेमज पीजी पण टवामा लखेती प्रनो साये मेणवतो केटजिक पानो प्रस्ताव
न्यूनाधिक वीनामा यावी माटे बीजीयेत्रण कल्पसूत्रोना टयानी प्रतोनो वाधार जश्ने हेमा । 10 गपनार श्रावक जीमसिंह मापो वधारो को तेषी था मैथ लगना श्रगीआर हजार ।
श्लोक संख्या जेटलो पइ गयो. इजी पण थविरायली पटावजी वगेरेमा घणी वात वधारे || लखवानी इती पण घोडा विवसना व्याख्याना पूर्ण अशके नही तेना जपची पडती मूकी वेदी परी जया बली श्रीपार्वनागस्वामीना चरित्रमा तेमज बीजे केटप्लेक स्थानके अन्य प्रतोमा लखेली वातोचीतवन जुदीज रोतें थने यति दिपा महाराज साहेवे वातो जखी। काहाडी हती ते मादजी पणा स्थले तो फेरवी नाखेजी के, परंतु केटलाएक स्थानके संशय होवाथी तथा महाराजने कागल जरखी जुबाब मगाववाथी यणा दिवस गपवानु.काम बंध।
राखवु पडे तेम न पनी शकदाची एमंज रेहेबा वीधी ने. तेमज वापवाने पणी वावज हिती माटे बधारे शोधन पण य नथी, तथापि जेटनुबनी शक्यु लेटतुं यत्कंचित शोधन पण कर्पु . वली मारवाड, गुर्जर तथा हिंदुस्थानी मनी प्रण भाषायें मिश्रित या पंथ महाराज || साहेवे बनावेजो हतो, परंतु तेर्मा घणा वाचनार साहेबोने वांचा कंटालो उपजे कवाचित | कोइने वयार्थ अर्थ न पेशे, तेची ते जापा सुधारीने श्रावक शा. जीमसिंद माणके घणु करी । एकज गुर्जर जापामा जखीने गप्पु . तोपण हजी को कोई स्थाने मारवादावि पेशोनी ।
जापायें मिभित बयेली जापा रहेली बशे तथा कोई कोई बातो पण अपूर्ण रहेली दशे. ते॥ सामज पुनरुक्ति पण पणा स्थानकें वीतामा वावशे ते सर्व बांधनार सानोयें सुधारी बोच. .
भट्टारक श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर कृत कल्पसूत्र की बालावबोध टीका (वैशाख कृष्णा २, संवत् १९४०; सन् १८८३) का ११ वां पृष्ठ, जिसकी१२, १३, १४ और १५ वीं पंक्तियों में इस तथ्य का उल्लेख है कि उक्त टीका मूलतः मारवाड़ी, गुजराती और हिन्दुस्तानी के मिले-जुले किसी भाषारूप में लिखी गयी थी किन्तु जिसे श्रावक शा. भीमसिंह माणक ने गुर्जरी में लिखकर नागरी लिपि में छपवा डाला। इतना होने पर भी मारवाड़ी आदि देशी भाषाओं का प्रभाव इसमें यत्र-तत्र स्पष्ट दिखायी देता है।
क. सू. बा. टी. चित्र ४
च्यापारी
विसुदेव
'एक दिवस नाटक थातं हतं तेवामां राजावें निद्रा आवना लागी तेवारें शय्यापालकनें कहयु के मने निद्रा आदी जाय तेवारें ए नाटक करनाउने शीख आपी वारी राखजो तो पण ते शय्यापालके थोत्रंद्रियना रसें करी तेमने गीत गान करतां वारी राख्या नहीं एटलामा त्रिपृष्ठ जागृत थइनें बोल्यो के अरे आ नाटकी आने शा वास्तें रजा आपी नहीं तेवारें शय्यापालक कह युं के 'हे प्रभु ! श्रोत्रंद्रियना रसें करी हुँ रजा आपता चूकी गयो' ते सांमली त्रिपृष्ठनें क्रोध चड्यो पछी सीशुं गरम करी तेनो उनो-उनो रस ते शय्यापालकना कानमां रेडाव्यो।
-क. सू. बा. टी. पृ. २४
राजेन्द्र-ज्योति
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क. सू. बा. टी. चित्र ६७
IIIIIIIIIIIIITTIशायर
HALA
ALTHRASIR
Walbuwal
'त्राहि त्राहि बोलते अबोध जीव थे जहाँ. नेमिराज आज आप प्राणदान दीजिये।
-श्री शिवानन्दन काव्य ; विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी; सर्ग ६; वृ. २४ अन्यत्र छापा जा रहा है, इसके मौलिक और भाषान्तरित रूपों की
टीका की एक विशेषता उसके रेखाचित्र हैं जो विविध कथाजानकारी दी गयी है। श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छ के श्रावकों को इस प्रसंगों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कतिपय चित्र प्रस्तुत लेख के प्रति का पता लगाना चाहिये और उसे व्यवस्थित सम्पादन और साथ पुनर्मुद्रित हैं। इन्हें भ्रमवश जैन चित्रकला का प्रतिनिधि नहीं पाठालोचन के बाद प्रकाश में लाना चाहिये । इससे उस समय के मान लिया जाए। वस्तुतः १९ वीं सदी के उत्तरार्ध में मद्रणकला भाषारूप पर तो प्रकाश पड़ेगा ही साथ में श्रीमद् के भाषाधिकार के समन्वय से भारतीय चित्रकला का जो रिश्ता बना था, उसका को लेकर भी एक नये अध्याय की विवृत्ति होगा।
ही एक उन्मेष यह था। वहीं प्रतिबिम्ब यहां तलाशना चाहिये। टीका में कई अन्य विषयों के साथ ४ तीर्थंकरों के सम्पूर्ण
इनके माध्यम से भगवान महावीर या तीर्थंकर ऋषभदेव की समजीवनवृत्त भी दिये गये हैं; ये हैं--भगवान महावीर, भगवान
कालीन संस्कृति की अभिव्यक्ति का सहज ही कोई प्रश्न नहीं है। पार्श्वनाथ, नेमीश्वर तथा तीर्थंकर ऋषभनाथ। इनके पूर्वभवों,
शा. भीमसिह माणक ने स्वयं अपनी कई भूलों को प्रस्तावना में पंचकल्याणकों तथा अन्य जीवन-प्रसंगों का बड़ा जीवन्त वर्णन
माना है; इसलिए ग्रन्थ में सामान्यत: जो भी आयोजन है वह हुआ है। स्थान-स्थान पर लोकाचार का चित्रण भी है। अन्त में
सौंदर्यवृद्धि की दृष्टि से हो है; क्योंकि मध्ययुग में जैन चित्रकला
का इतना विकास हो चुका था कि उसकी तुलना में ये चित्र कहीं स्थविरावली इत्यादि भी हैं।
नहीं ठहरते । तथापि कई चित्र अच्छे हैं आर इसी दृष्टि से इन्हें टीका के आरम्भिक पृष्ठों में श्रीमद् ने अपने आकिंचन्य को
यहाँ पुनः मुद्रित किया गया है। प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है : “हुँ मंदमति, मूर्ख, अज्ञानी, महाजड़ छतां पण श्रीसंघनी समक्ष दक्ष थइने आ कल्पसूत्रनी व्याख्या
___ इस टीका की एक अन्य विशेषता यह है कि यह गुजरातो भाषा करवान साहस करुं छु। व्याख्यान करवाने उजमाल थयो छु ।
में प्रकाशित है, किन्तु नागरी लिपि में मुद्रित है। जिस काम को ते सर्व श्रीसद्गुरुमनो प्रसाद अने चतुर्विध श्रीसंघनु सानिध्यपणुं
सन्त विनोबा भावे आज करना चाहते हैं; वह काम आज से करीब जाणवं जेम अन्य शासनमां कहेलु छ के श्रीरामचन्द्रजी सेनाना ९२ वर्ष पूर्व कल्पसूत्र की इस बालावबोध टीका के द्वारा शुरू हो गया वांदराय महोटा-महोटा पाषाण लइने समुद्रमा राख्या ते पथरा था। सम्पूर्ण टीका न.गरी लिपि में छपी हुई है। इससे इसकी पहुँच पोते पण तऱ्या अने लोकोने पण तऱ्या ते काइ पाषाण नो तथा तो बढ़ ही गयी है साथ ही साथ उस समय के कुछ वर्षों का क्या समुद्रनो अने वांदराऊनो प्रताप जाणवो नहीं परंतु ते प्रताप श्रीराम- मद्रण-आकार था इसकी जानकारी भी हमें मिलती है। इ, भ, उ, चन्द्रजीनो जाणवो केमके पत्थरनो तो एवो स्वभाव छ जे पोतें द, द्र, ल, छ, क्ष इत्यादि के आकार दृष्टव्य हैं। अब इनमें काफी पण बूडे अने आश्रय लेनारने पण बूडाडे तेम हुं पण पत्थर सदृश अन्तर आ गया है। इस तरह यह टीका न केवल धार्मिक महत्त्व छता श्री कल्पसूत्रनी व्याख्या करूं छु तेमा माहारो कांइ पण गुण रखती है वरन् भाषा, लिपि और साहित्य ; चिन्तन और सद्विचार जाणवो नहीं।"--(क. सू. बा. टी., पृष्ठ १)। इस तरह अत्यन्त की दृष्टि से राष्ट्रीय महत्त्व की भी है। हमें विश्वास है 'कल्पसूत्र' विनयभाव से श्रीमद् ने इसका लेखन आरम्भ किया और जैन समाज की मूल पाण्डुलिपि के सम्बन्ध में पुनः छानबीन आरम्भ होगी और को नवधर्मशिक्षा के क्षितिज पर ला खड़ा किया।
उसे प्राप्त किया जा सकेगा।
वी. नि. सं. २५०३
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कविवर प्रमोदरुचि और उनका ऐतिहासिक 'विनतिपत्र'
इन्द्रमल भगवानजी
सम्यक्त्व और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए श्रीमद्राजेन्द्रसूरीश्वर ने जो कदम उठाये थे, कविवर का मन उन पर मुग्ध था। परम्परा से मिली धार्मिक विकृतियों और कुरीतियों, मिथ्यात्व और पाखण्ड के निरसन में उन्होंने आत्मनिरीक्षण करते हुए परिशद्धि का जो शंखनाद किया था, कविवर प्रमोदरुचिजी ने उसे प्रत्यक्ष देखा था। कवि का मन क्रांति की इस अपूर्व चेतना से पुलकित था। उन्हें लगा था जैसे हठाग्रह, पाखण्ड, पोंगापन्थ और अन्धे ढकोसलों का जमाना लद गया है और श्रीमद् के रूप में धर्म का एक नवसूर्योदय हुआ है।
कविवर प्रमोदरुचि भींडर (मेवाड़, राजस्थान) के विख्यात उपाश्रयाधीश यतिवर्य श्री अमररुचि से १८८६ ई. में दीक्षित हुए थे । इस परम्परा के अन्तर्गत मेवाड़-वर्तुल के अनेक उपाश्रय विशाल ग्रन्थागारों से संयुक्त थे। उपाश्रयाधीशों की इस पीढ़ी में कई मेधावी विद्वान् हुए, जिन्होंने स्वयं तो विपुल साहित्य-रचना की ही अन्य अनेक विद्वानों और लिपिकों (लेहियाओं) को भी आश्रय दिया। उनकी इस सत्प्रवृत्ति का सुफल यह हुआ कि कई मौलिक ग्रन्थ लिखे गये और लेहियाओं द्वारा उपाश्रयों से जुड़े ग्रन्थागार व्यवस्थित रूप में समृद्ध हुए। श्रीपूज्यों की परिष्कृत रुचियों के कारण ये ग्रन्थागार व्यवस्थित हुए और इन्होंने विद्वानों की एक अटूट पीढ़ी की रक्षा की । वैसे अधिकांश यति खुद अच्छे लेखक होते थे और समय-समय पर विविध विषयों पर अपनी लेखनी उठाते थे, किन्तु साथ ही वे अपने निकटवर्ती क्षेत्र के विद्वानों को भी साहित्य-सृजन के लिए प्रेरित करते थे। वे लेखन-सम्बन्धी उपकरणों की निर्माण विधियों, ग्रन्थों के संरक्षण, उनके अलंकरण, उनके आकल्पन तथा उनकी कलात्मक सज्जा-रचना में निष्णात होते थे, यही कारण है कि उन्नीसवीं शताब्दी तक लेखन और चित्रकलाएं परस्पर एक-दूसरे की पूरक विद्याएँ रहीं और एक-दूसरे को समृद्ध करती रहीं। १९वीं सदी में, जबकि सारा मुल्क राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक
उथल-पुथल का शिकार था, लेखन और चित्रकला के मर्मज्ञ यतियों ने हस्तलिखित ग्रन्थों की परम्परा का संरक्षण किया और उसे अटूट बनाए रखने के प्रयत्न किये; किन्तु देश में मुद्रण के सूत्रपात के साथ ही इस कला का ह्रास होने लगा और चित्रकला से संयुक्त लेखनकला मात्र इतिहास में उल्लेख की वस्तु रह गयी।
श्री प्रमोदरुचि अच्छे कवि तो थे ही, एक मर्मी संगीतज्ञ, अप्रमत्त लेखक और कुशल ग्रन्थागार-संरक्षक भी थे। उनके समय में भींडर का शास्त्र-भण्डार अपने ग्रन्थ-वैभव के कारण सुप्रसिद्ध था । घाणेराव (मारवाड़) के चातुर्मास में, जिसने यति-संस्था को जड़मूल से ही बदल डाला, आप भी श्रीमद्राजेन्द्रसूरि के साथ थे। उन्हें श्रीमद् की सम्यक्त्व-चिन्तना और समाजोद्धार के भावी संकल्पों में यतिसंस्था एवं थावक-वर्ग के कल्याण का उन्मेष स्पष्ट दिखायी दे रहा था । उन्होंने श्रीमद् में एक विलक्षण सांस्कृतिक नेतृत्व को अंगड़ाई लेते अनुभव किया था। श्रीपूज्य ने इत्र की घटना को लेकर जब श्रीमद् की अवमानना की और उन्हें चेतावनी दी, तब कविवर भी राजेन्द्रसूरिजी के साथ उस कंटीली डगर पर चल पड़े जो उस समय अनिश्चित थी और जिस पर चलने में कई सांस्कृतिक खतरे स्पष्ट थे। श्रीपूज्य के आश्रय में उपलब्ध यतिसुलभ सुखोपभोगों को तिलांजलि देकर प्रमोदरुचिजी ने जिस साहस का परिचय दिया, वह ऐतिहासिक था और उसने श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी की योजनाओं को एक संकीर्ण डगर से निकालकर एक निष्कण्टक राजमार्ग पर लाने में बहुत बड़ी सहायता की । अन्य शब्दों में प्रमोदरुचिजी राजेन्द्रसूरिजी के दाहिने हाथ थे। श्रीमद् के साथ कविवर ने भी सन् १८७३ में जावरा में क्रियोद्धार के अवसर पर दीक्षोपसंपद ग्रहण की। कविवर का व्यक्तित्व विलक्षण था; वे सद्गुणग्राही, नीर-क्षीर-विवेकी और पण्डितजीवन के आकांक्षी थे। श्रीमद् के प्रति उनके हृदय में अपरिसीम श्रद्धा-भक्ति थी, जिसका परिचय "विनतिपत्र" से सहज ही मिलता है। श्रीमद् को सम्बोधित प्रस्तुत 'विनतिपत्र' कविवर ने अपने
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दोहद-वर्षायोग (१८७३ ई.) में लिखा था । मूल 'विनतिपत्र' विस्तृत है, अतः यहां हम उसके कुछ अंश ही उद्धृत कर रहे हैं :
'परमगुरु प्रण, सदा, रतनावत जस भास । राजेन्द्रसूरि रत्नगुण, गच्छपति गहर निवास ।। ना कछु चित्त विभ्रम पणे, ना कछु लोकप्रवाह । परतिख गुण सरधा विषे, धारित भयो उछाह ।। मुनि जंगम कल्पद्रुमा, वांछित पूरण आस । भव-भव के अघ हरन को, फल समकित दे खास ।।
उपकारी अवतार हो, प्रभु तुम प्रवर निधान । भविपंकज पडिबोहने, विकसित उदयो भान ।। त्यागी बड़भागी तुमे, सूरवीर ससधीर । जिनशासन दिग्विजयति, वादीमद-जंजीर ।। वादि-दिग्गज कैहरी, कुमतिन को करवाल ।
स्याद्वाद की युक्तियुक्त, बोधे सहु मति बाल ।। सागर समता के सही, उदधि जिसा गंभीर । अडग मेरु जिम आचरहि, पंचमहावत धीर ।। अप्रमत्त विचरे दुनि, भारंड परे भविकाज । निरलेपी-निरलालची, पय कमलोपम आज ।।
कविवर ने श्रीमद् के साथ रहते हुए जिस गुण-वैशिष्ट्य का अनुभव किया, उसकी उन्होंने अपने "विनतिपत्र" में बड़ी काव्योचित विवृति की है। इस दृष्टि से “विनतिपत्र" एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो श्रीमद् के महान व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने के साथ ही उनकी समकालीन सांस्कृतिक स्थितियों का भी विश्वसनीय विवरण प्रस्तुत करता है। "विनतिपत्र" में कविवर ने श्रीमद् से कृपा-पत्र की अपेक्षा की है, लेकिन सम्यक् मुनि-मर्यादा में; उन्होंने लिखा है--
"कृपापत्र मुनिराज के देने की नहीं रीत। अनुमोदन प्रभु राखिने, उवरासो समचित॥ । कृपा महिर भवि जीव पै, राखो धर्म सनेह ।
तेहथी जादा राखसो, जिम भुविशस्य सुमेह ।। यद्यपि साध्वाचार में परस्पर पत्र-लेखन पहले निषिद्ध था तथापि तब भी क्षमापनार्थ ऐसे 'विनतिपत्र" अपने श्रद्धास्पदगच्छनायक को देने की रीत थी। ये विनतिपत्र खूब सजावट के साथ लिखे जाते थे। इन्हें तैयार करने में प्रचुर चित्रकारीयुक्त शोभन प्रसंग-चित्र भी अंकित किये जाते थे। स्थानीय विवरण, संघ-समदाय, धर्मक्षेत्र, ऐतिहासिक विशेषताएँ, माहित्यिक एवं धार्मिक गतिविधियों का ब्यौरे इन विनतिपत्रों में समाविष्ट होते थे। कई संग्रहालयों में इस तरह के विनतिपत्र उपलब्ध हैं, जो अध्ययन-अनुसंधान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, और जिनका विशद अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। कविवर प्रमोदरुचि के 'विनतिपत्र" को भी व्यवस्थित पाठालोचन और सम्पादन के साथ प्रकाशित किये जाने की आवश्यकता है।
कविवर के "विनतिपत्र" में अनेक उपयोगी विषयों का समावेश है। साध्वाचार के पगाम सज्झाय, गौचरी के नियम दिनचर्या,
समता, हिम्मत, विहार इत्यादि अनेक विषयों का इसमें उल्लेख है। गच्छाधिप और उसके आज्ञानुवति मुनिगण के पारस्परिक व्यवहारसम्बन्धों का भी विवरण इसमें है। इस सबके उपरान्त कठोर, अविचल मनिचर्या में निरत एक सहृदय कवि के सरस कवित्व की चन्दन सुरभि की गमक भी इसमें है . श्रीमद् के विषय में प्रमोदरुचि लिखते हैं
पंकज मध्य निगूढ़ रहयो अलि चाहे दिवाकर देखनकुं । मेघ-मयूर मराल सुवांछित, पद्म-सरोवर सेवनकुं। सम्यग् दृष्टि सुदृष्टि थिरादिक, ध्यावहि व्रत सुलेवनकुं । मनिनाय राजेन्द्र गणाधिप के, सहुसंघ चहे पय सेवनकुं ।। पीरहरै षट काय कृपानिधि, भाव उभे धर संजम नीको । बाहिर-अन्तर एक बाबर, पोर हरै भव फेरज नीको ।। आप तरै पर तारक जंगम है उदधि तरणीवर नीको । सुरविजय राजेन्द्र यतिसम, संपइ और न गुरु अवनीको ।। __ श्रीमद् में आदर्श मुन्युपम समग्र गणों का समवेत योग पाकर ही कविवर ने श्रीमद् राजेन्द्रसूरि से ही दीक्षोपसंपद् स्वीकर की थी। यति दीक्षा के उपरान्त वे किसी योग्य गरु की तलाश में अविश्रान्त प्रयत्नशील रहे थे।
दीक्षोपसंपद् ग्रहण करने के पश्चात् कविवर को श्रीमद् की सेवा का पर्याप्त अवसर मिला था । मरुधर की ओर विहार करने से पहले १८७३ ई. तक वे श्रीमद् के साथ छाया की भांति रहे । १८७१ ई. में श्रीमद् ने मांगीतुंगी में आत्मोन्नति के निमित्त छह माह की कठोर तप-आराधना की थी। उस वर्ष कविवर ने श्रीमद् की अतीव भक्ति की, वे निरन्तर उनकी छत्रछाया में रहे तथा ज्ञान, ध्यान और विशुद्ध मुनिचर्या द्वारा आत्मोन्नति की परम साधना का अमूल्य मार्ग-दर्शन लेते रहे । श्रीमद् की निश्रा में उन्हें विशिष्ट आत्मतोष था। १८७९ ई. का वर्षावास श्रीमद् के साथ न होने के कारण उनमें श्रीमद् की दर्शनउत्कण्टा और विह्वलता बनी रही। धर्म-वात्सल्य की यह विकलता अनेक साधक शिष्यों में प्रायः देखी गयी है; यथा--
'एह गरु किम बीसर, जहसुं धर्म सनेह । रात-दिवस मन सांभरे, जिम पपइया मेह ।। सद्गुरु जाणी आपसु, मांड्यो धर्मसनेह । अवरन को स्वप्नान्तरे, नवि धारु ससनेह ।।
मास वरस ने दिन सफल, घड़ीन लेखे होय । श्रीगुरुनाथ मेलावडो, जिणवेला अम होय।। धन्न दिवस ने धन घड़ी,धन बेला धन मास ।
प्रभु-वाणी अम सांभला बसी तुमारे पास ।। स्नेह भलो पंखेरुआ, उड़ने जाय मिलंत ।
माणस तो परबस हुआ, गुरुवाणीन लहंत ।। कविवर में कई भाषाओं में काव्य-रचना की क्षमता थी । छन्द अलंकार इत्यादि काव्यांगों पर भी उनका अच्छा अधिकार था । मेवाड़ के राजवंशों के सम्पर्क में रहने के कारण उन्हें दरबारी सामन्तों
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और राज्याश्रयी कवियों की भाँति डिंगल आदि प्राचीन भाषाओं का गहरा ज्ञान था ।
डिंगल भाषा के ओजस्वी प्रयोग का एक उदाहरण श्रीमद् के साहस वर्णन में मिलता है। कविवर ने "कमलछंद" के माध्यम से वह "हिम्मत वर्णन किया है
'अच्छन अकच्छ, समरत्थ गणनत्थ 1 पतत्थ न समत्थ, दसमच्छ सुत मच्छरन ॥ सघन नद्दहनन नद्द अनहद्द, बल सद्दल विरद्द | अनवद्द जस गगन मद्दलन नद्दन मरद्दन ॥ गरद्द कर रद्द दर हद्द दलबद्दल मरुदलन । ध्यान समरत्थ जनऋच्छ जन अच्छ । मनदच्छ जयलच्छ गणनाथ जयसूरिगन || इसी प्रवाह में श्रीमद की वाणी महिमा 'अमृतच्छन्द में वर्णित
है
" आई आद्य अरिहन्त के प्रगटी वदन सुवट्ट । वाणीविरचित विश्व में, गणधर ज्ञानी विघट्ट || रानी विष अच्छविछट्ट, सुसविठट्ट, मिले सिसट्ट निक्षेप निपट नपति नवट्ट, चनक्कय चट्ट न्यायनिघट्ट, पड़े सह पट्ट, जहागिरजनवतत सुभट्ट, मिच्छा करे डट्ट, थकिधरवट्टचलावइ अट्ट, राजेन्द्र सुझट्ट, सूरिराज सुबट्ट । आई आद्य अरिहन्त के प्रगटी वदन सुवट्ट ।
गुरुदेव की प्रभावक वाणी का निदर्शन उक्त डिंगल- मिश्रित पद्य में कविवर प्रमोदरुचि ने विलक्षण रूप में किया है, जो आपके भाषा-भाव- वैभव और शब्द ऐश्वर्य का सन्तुलित प्रतिनिधित्व करता है ।
श्रीमद के प्रत्येक धर्म-व्यापार के प्रति कविवर में अपार श्रद्धा थी। वे श्रीमद् के पुनीत चरणों में स्वयं को समर्पित कर पूर्ण आश्वस्त थे । ऐसे आदर्श मुनि जीवन में अपना कालयापन देख वे विपुल धन्यता का अनुभव करते थे। सम्यक्त्व और सांस्कृतिक युगान्तर के लिए श्रीमद् ने जो कदम उठाए थे, कविवर का मन उन पर मुग्ध था। परम्परा से मिली धार्मिक विकृतियों और कुप्रथाओं, मिथ्यात्व और पाखण्ड के निरसन में श्रीमद् ने आत्म निरीक्षण करते हुए परिशुद्धि का जो शंखनाद किया था, प्रमोदचिजी ने उसे प्रत्यक्ष देखा था । कवि का मन क्रान्ति की इस चेतना से पुलकित था । उन्हें लगा था जैसे हठाग्रह, पाखण्ड, पोंगापन्थ और अन्धे ढकोसलों का जमाना बीत गया है और श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर के रूप में धर्म का एक नवसूर्योदय हुआ है। समाज सुधार के अभियान में श्रीमद् ने अपूर्व शूरता का परिचय दिया-
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'ममता' नहिं को गच्छ की सुविहित सो हम साधु । पंचांगी भाषी भली, लहे मग लीन अगाधु || लहे मग लीन अगाधु, पूर्व प्राचीन परक्खी। आधुनिक जे उक्त जुत, सुत्त न विसम सरक्खी ॥
न्याय नये निरधार, खडग चौधार सुसमता । सुरि विजय राजेन्द्र यति, छोड़ी सहु ममता ॥
गड़बड़ता गहरी हुई, अवसरपणि पणकाल । भांति-भांति के भेद में, खातपात प्रतिचाल ॥ खातपात प्रतिचाल टाल मुनिमारग सोध्यो । उज्जड घाटकुवाट फैलफैलन को रोध्यो ।
वादी मंद झरी आप, तेज लखि भागे पड़पड़ । सूरि विजय राजेन्द्र, छुड़ा दीनी सब गड़बड़
समाजोत्थान के महान संघर्ष में जातिवाद और गच्छवाद की दीवारें श्रीमद् की क्रांति का अवरोध नहीं कर सकीं। जिस अपूर्व बल और संकल्प से श्रीमद ने सामाजिक और चारित्रिक कांति के इस काम को उठाया था, वह निरन्तर सफल होता गया। श्री चूलगिरि तीर्थ के वर्षों तक चले विवाद के संदर्भ में श्रीमद् के लिखित वक्तव्य ने उसे जैनों को उपलब्ध कराया था। जालोर दुर्ग स्थित प्राचीन जैन मंदिरों को राठोरी शासन से मुक्त कर उन्हें श्रीमद् ने जैन समाज को सुपुर्द कराया। इन मंदिरों का सरकार द्वारा वर्षों से शस्त्रागारों के रूप में उपयोग हो रहा था । इस तरह अत्याचार और अन्याय से पीड़ित समाज को मुक्त कराने में श्रीमद् ने महान तत्परता व्यक्त की थी । मन्दिरों का जीर्णोद्धार श्रीमद् की क्रांति का एक महत्त्वपूर्ण अंग था ।
पर उपकारी प्राणि ने निष्कारण निरन् भवसिन्धु विच पतित को, तारक प्रवर दुणिन्दु ||
निग पूरे यति दशविधधर्म के धार वर्तमान विचरे जयो, दुर्द्धरव्रत भरी भार ॥ दुर्द्धर व्रत घरी भार, लोष्टसम कंचन पेखे । रागे वर वडभागि, विषय न विलोचन देखे ||
स्तुति निन्दा चिहुं समगिणि विहरे शमदमता दुनि । पंचम काल सुचालसूं प्रतपे रवि राजेन्द्र मुनि ॥ दरसन ते दुरितहि नसे, भक्तिन तें भवनास । वन्दन तें वांछित मिले, अवलोकित फले उपास ॥ भक्ति वशे कछु वर्ण की होनाधिक पुनरुक्ति । सिंधुजी, शाली नहि शक्ति ।।
ते
श्रीमद् का उत्कृष्ट साध्वाचार और मुनि-जीवन उनकी अप्रमत्त दिनचर्या जन-साधारण के लिए जैसे साक्षात् 'दशवेकालिक सूत्र ही थी । यद्यपि उच्चकोटि के शास्त्रज्ञ विद्वान् प्रायः समय-समय पर होते रहे हैं लेकिन विशुद्ध और प्रामाणिक परिभिक मर्यादम के वह सूरिगण कभी-कभी ही होते हैं। श्रीमद् के व्यक्तित्व में ज्ञान और क्रिया का मणिकांचन योग अवतरित हुआ था। इनकी कठोर मधुकरीचयों का उल्लेख कविवर ने इस प्रकार किया है 'अशनादि काज गऊचरि ही जाय, उंचनीच मज्जिम निहिवग्ग ठाय । परिमाण गेह अभिग्रह धरत, गउ मुत्ति आदि गरि फिरंत ।।
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गतिमन्द थकि चालहि सुपंथ, इर्या सुशोध समदृष्टि संत । गहे अंत पंत तुच्छ आहार, एषण सुदोश पूरण निवार । जंत्री सुचक्र जिम लेप देय, मुनि आत्मपिंड तिम भाडं देय । चालीस सात छवि छडि दोष, इम निरममत्व मुनि आत्मपोष ।।
कविवर का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध है। अपनी प्रसिद्धि के लिए औदासीन्य अथवा अपने अप्रमत्त व्यस्त साधक जीवन में स्फुट रचनाओं के उपरान्त स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार करने के लिए अवकाश का न होना ही कदाचित् इसका मुख्य कारण रहा होगा।
रुचिजी ने अपने समय की सामाजिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का चित्रण इन शब्दों में किया है--
'भोला श्रावक गुण नहि जाणे गाडरिया परवाहे लागा, मिथ्या धरमे धावे ।
देखो श्रावक नाम धरावे ।। कुगुरु कुदेव कुधर्मे लागा, हौस करीने होड़े । शुध समकित बिन ललाड़ मांहे लोही कर्दम चोड़े ।। पनरा कर्मादान प्रकाश्या, नरक तणा अधिकारी । कुवणज थोरी भील कसाई, विणजे पाप वधारी ।। कुगुरु का भरमाया हरखे, धरम धींगणा मांडे । सद्गुरु की वाणी सुण कष्टे, मिथ्यामत ने छांडे ।। होंग धूतारा लावे ढोंगी, म्होटा बाजे साजी । भ्रष्टाचारी चरण पखाली, पीवे राजी राजी ।। श्राविका पण सरधा सरखी, जीव अजीवन जाणे । सडी · · पूजे, मिथ्या आशा ताणे ।। मनुज जमारो कुल धावक को कोइक पुण्ये पावे ।। सदगुरु की सरधा बिन प्राणी, फोकट अनम गमावे ।। नय-निन्दा मत आणो मन में, आतम अरथ विचारो। - सुरि राजेन्द्र की बाणी सुण के प्रमोद रुचि मन धारो।
देखो श्रावक नाम धरावे । उन्नीसवीं शताब्दी में श्रावक धर्म के प्रति लोगों में तीखी उपेक्षा और उदासीनता थी। सम्यक्त्व का वास्तविक अर्थ कोई जानता ही नहीं था। प्रायः सभी धर्म के आडम्बरों में उलझे हुए थे। सद्गुरु दुर्लभ थे, प्रवंचक और धोखादेह लोग ही साधुओं के वेष में आम लोगों के साथ विश्वासघात और छल कर रहे थे। ऐसे कठिन समय में भी कविवर को सद्गुरु पाने में सफलता मिली । एक लावणी में उन्होंने लिखा है'सफल करो श्रद्धान, मान तज कुमती को वारो।
समझकर समता को धारो। कर्म अनन्तानुबन्धी भवों का, जिन भेट्या सरक्या ।
चेतना निर्मल हुए हरख्या ।। दोहा-चेतना निर्मल होय के, कर भक्ति राजेन्द्र । सूरीश्वर सिर सेहरो, वन्दो भविक मुनीन्द्र ।।
जगत में प्रवहण निरधारो।।
पंचम आरे एह शुद्ध मुनिवर उपगारी । क्षमा को खड्ग हाथ धारी ।। पंचमहाव्रत धार मारकर ममता विषधारी ।
जिन्हों का संजम बलिहारी ।। दोहा-बलिहारी मुनिराज की, मारी परिसह फौज । अमृत वचन प्रमोद सुं, रुचि वन्दे प्रति रोज ॥
कालत्रिहुं वन्दन धारो ।। कविवर ने श्रीमद् की निश्रा में ज्ञान की अविराम आराधना और तप की उत्कृष्ट साधना की। वे ध्यान-योगों की प्रवृत्ति भी नियमित किया करते थे। श्रीमद् की भांति ही रुचिजी भी एकएक पल का अप्रमत्त उपयोग करते थे। उनकी इन आध्यात्मिक उपलब्धियों का वर्णन इस रूपक में दृष्टव्य है
__ मैं तो वन्दु मुनीश्वर पाया।
ध्यान शुक्ल मन ध्याया ।। उपशम रस जल अंग पखारे, संजम वस्त्र धराया । आयुध अपने उपधि धारी, दृढ़ मन चीर उपाया ।। तप चउरंगी सैन्य सजाई, मुक्ति डूंगर चढ़ आया । कर्म कठिन दल मोह जीत के, परिसह झंडा उड़ाय। ।। निरुपद्रव निज तनपुर ठाणे, रजवट केवल पाया। एम रुचि मुनि शुभ ध्यान प्रमोदे, मुक्ति निशाण धुराया ।।
निश्छल-गुणग्राही प्रमोदरुचिजी ने अपने "विनतिपत्र" में अन्य मुनियों के साथ अपने गुर-भाई एवं सहपाठी श्री धनमुनि को साधुगुण-रूपी रथारूढ़ श्रीमद् के कुशल सारथी के विरद से अलंकृत किया है। उनकी यह उपमा इसलिए भी बड़ी सटीक और सार्थक है क्योंकि जिस तरह महान शूरवीर योद्धा गौरवपूर्ण पार्थ के सारथी श्यामवर्ण कृष्ण थे, ठीक उसी प्रकार श्रीमद् राजेन्द्रसूरि गौरवर्ण थे और धनमुनि श्यामवर्ण थे। दोनों ही अपने समय के वाग्मी शास्त्रवेत्ता थे। श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ज्ञान-गम्भीर, अध्यात्म और आगम-निगम के अखूट भण्डार थे, और धनमुनि काव्य, अलंकार, छन्द, आगम और तर्क के सर्वोपरि ज्ञाता थे । अपने समकालीन पाखण्ड को परास्त करने में दोनों मुनियों को उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई थी। रूपक इस प्रकार है--
भुजंगप्रयात 'मुनिनाथ साथे, सह साधु सारे । मुनि धन्न धोरी, विजय रत्थ धारे। गुरुपाय सेवे, बड़ा विज्ञ धारी । रहे हाजरे युक्त भक्ति सुधारी ।। गिरा भारती कण्ठ, आभरण सोहे । बनी शान्त मुद्रा, दमे कोई मोहे ।। शशि सौम्य कान्ति, निरालम्ब भासे । प्रतिबन्ध नाहीं, ज्युही वायु रासे।। जयो पुन्यवंता गुरुभक्ति कारी। रहे रात-दिवसे वपुबिम्ब धारी ।। मुनि सेवना पार नावे कहता । हुवे पूज्य लोके तिहुं को महंता ।। ___कविवर ने जहां एक ओर श्रीमद् की सेवा में संलग्न अपने सहचारी मुनियों को बड़भागी कहा है, उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने वनदीक्षित बालमुनि श्री मोहनविजयजी
(शेष पृष्ठ ३४ पर)
वी.नि.सं. २५०३
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आत्मर्षि पू. पा. श्रीमद्राजेन्द्रसूरि
श्री रमेश आर. जवेरी
परमतारक श्री वीतराग परमात्मा के शासन की और आज्ञा की आराधना या उपासना तभी होती है कि जब कोई भी आत्मा में अन्तनिहित स्वगुणों को लगे हवे कर्म पटल की परिशुद्धि की प्रक्रिया का प्रारंभ होता है।
इस शाश्वत सत्य को अनेकांतवाद के माध्यम से या अन्य रूप से अभिव्यक्त करने पर, यह ठोस तथ्य "साहजिक स्वरूप" में स्वयं प्रकाशित हो उठता है । जब कभी भी, किसी भी आत्मा में 'स्वस्वरूप प्राप्त करने की इच्छा या उद्यम, पुरुषार्थ के रूप में परिवर्तित होता है तब, वह आत्मा स्व-शुद्धिकरण के माध्यम से ज्ञात या अज्ञात रूप से सर्वज्ञ कथित 'मूल साधना मार्ग' की साधक बन जाती है । ऐसी साधक वृत्ति जागृत होते ही, ऐसी आत्मा स्वयं सत्य से अवगत हो जाती है । सत्य से अवगत होने की यह प्रक्रिया 'अवश्यंभावी' होती है । ऐसी साधक अवस्थावाली आत्मा सांप्रदायिक आम्नायों की आश्रित या परावलम्बी नहीं रहती। सांप्रदायिक का व्यामोह ऐसी आत्मा को अपने साधना मार्ग से विचलित करने में असमर्थ है । साधक साम्प्रदायिक आचार-विचार से सीमित संबंध रखता है। . ऐसा साधक स्वाश्रयी किन्तु स्वार्थ से विमुख, पारगामी दृष्टि का स्वामी और पूर्वग्रहों के प्रवाहों से मुक्त हो कर 'मुक्तात्मा' बनने का परिश्रम करता हआ श्रेय-साधक 'श्रमिक' बन जाता है । ऐसा श्रेयसाधक श्रमिक' अपनी साधक अवस्था को बनाये रखने के बजाय प्रतिदिन उसको सुदृढ़ बनाता है ।।
सच्चा श्रमिक बही है कि जो, अपने प्रामाणिक परिश्रम में ओतप्रोत है। इसी तरह सच्चा साधक वही है कि जो, अपनी सत्यनिष्ठा को जताता हुआ सम्हालता हुवा, समतायुक्त माध्यमों से 'स्व-स्वरुप' के प्रगटीकरण के लिए प्रयत्नशील है। किसी भी
आत्मा की ऐसी प्रयत्नशीलता याने 'अप्रमत्त अवस्था' ही उसे परिशुद्धि की प्रक्रिया की पूर्णाहति द्वारा परमपद पर पदासीन करा सकती है या कराती है।
ऐसे साधक में रही हुई इस आदर्श प्रयत्नशीलता का उद्गम सभ्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से प्रगट आत्मानुभव से ही होता है। सच्चे श्रमिक को श्रमनिष्ठा ही सम्यक् चारित्र की ‘सुनिहित' आराधना के लिए आवश्यक सामर्थ्य को प्रदान कर सकती है।
परिशुद्धि की प्रक्रिया से पार होती ऐसी आत्मा स्वार्थ विरक्त पारगामी दृष्टि और पूर्वाग्रह मुक्त श्रेयलक्षी श्रम के परिश्रम से 'स्व-स्वरूप' की साधना द्वारा 'सहजरूप' से कहां तो प्रभावक परंपरा छोड़ जाती है या एक उज्ज्वल प्रकाश की लौ प्रकट कर देती है । इस लौ का प्रकाश अनेकानेक आत्माओं का पथ प्रदर्शक और पाप प्रणाशक सिद्ध होता है।
ऐसी एक आषंदृण्टा आत्मा पू० श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा प्रकट की हुई पथ प्रदर्शक और प्रकाश की लौ की ज्योति के उजाले से, मेरी आत्मा के सांसारिक आसक्तियों से अवरित अज्ञान मूलक अंधकार का आंशिक उन्मूलन हुआ है। इसके परिणामस्वरूप इस आत्मा को ऐसे आषदष्टा की आत्मसाधक परम्परा से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । यह परम सौभाग्य से प्राप्त, यत्किचित् सामर्थ्य के बल पर, आत्मोपकारी मेरे पूज्य गुरुदेव पूज्यपाद मुनिवर्य श्री जयन्त विजयजी म० "मधुकर" की आत्म कल्याणकारी निश्रा में जो, आत्म जागृति का मैं प्रयत्न कर रहा हूं, वह मेरी आत्मा की परिशुद्धि के प्रयत्नों का प्रथम चरण ही है।
मेरे जीवन में शुरू हुई इस परिशुद्धि की प्रक्रिया की पूर्णाहुति करने की मेरे में क्षमता है या नहीं वह तो मैं नहीं जानता, फिर भी
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राजेन्द्र-ज्योति
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पू० श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म० की पाप-प्रणाशक परम्परा के एक अंग बनने पर, एक सत्य की आत्म प्रतीति हो चुकी है। यह आत्म प्रतीति यह है कि, अगर मेरे परोक्ष उपकारी, अभिधान राजेन्द्र कोष के कर्ता आत्मर्षि पू० श्री राजेन्द्र सू०म० ने अपने जीवन में जिस प्रकार वीतराग परमात्मा के स्वयं के साथ और उनके शासन के 'सेव्य सेवक" भाव का साक्षात्कार करके, जो सत्य-निहित प्रगतिकारी परम्परा का प्रगटीकरण किया है उसके एक अंश का भी यदि मैं अपने जीवन में आचरण कर पाऊंगा तो मेरे आत्म कल्याण और साधना का मार्ग स्पष्ट एवं निष्कंटक बन जायेगा ।
शासन का "सेव्य-सेवक" भाव
परमतारक श्री सर्वज्ञ-प्ररूपित साधना मार्ग से "सेव्य" का स्थान उसी को प्राप्त होता है कि जिसने समता की भावना को आत्मसात् करके सम्यक् आचरण के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार किया होया सत्य के साथ एकाकारपना प्राप्त कर लिया हो । ऐसे ''सेव्य" की सेवा करने से "स्व स्वरूप" की प्राप्ति होती है।
आमतौर से कहे या माने जाते 'सेवक भाव' से भगवान के 'शासन' का 'सेवक भाव' सर्वथा भिन्न है। यह 'सेवक भाव' सम्यक् श्रद्धायुक्त गुणों की उपासना और सम्यक् आचरण से आरक्षित होता है । ऐसा सेवक सत्य को भी समर्पित होता है । जो सेवक' सत्य दर्शन और सत्याचरण की निष्ठा और प्रवृत्ति को अपने जीवन में अभिप्रेत करता है वही सर्वज्ञ का, श्रमण का या 'शासन' का सेवक है । ऐसा 'सेवक' ही श्रेय का साधक बन सकता है। यह कथन सत्य का स्पष्ट दर्शन है ।
सत्य के इस स्पष्ट दर्शन के साथ यह समझना नितांत आवश्यक है कि सत्य परिस्थितियों या प्रकृति का दास नहीं है क्योंकि वह सत्य है। परवशता या पराश्रितता सत्य स्थिति नहीं है । सत्य सामर्थ्य युक्त होता है। इसी कारण सत्य में निष्ठा रखने वाला या सत्य का आचरण करने वाला सर्वतंत्र स्वतंत्र और किसी भी प्रकार स्पृहाओं से सर्वथा मुक्त होता है या उसके लिये सतत प्रयत्नशील रहता है।
पूज्यपाद पूज्य श्री राजेन्द्र सू०म० का आद्योपांत जीवन इस सिद्धांत की ओर वीतराग के शासन के 'सेवक भाव' का स्वयं सिद्ध स्पष्ट उदाहरण है। ___ यह पूज्य पुरुष ने अपने जन्म से, क्रमिक रूप से आत्म साधना करके अपने आपको भगवान के शासन से अध्यवसाय की शुद्धि बना दिया था। आत्म-साधना के प्रबल पुरुषार्थ की मनोदशा के कारण ही, स्वयं के जीवन में सांसारिक साधन-सम्पन्नता और प्रतिष्ठा प्राप्त होते हुवे भी संसार से विरक्ति की ओर अपने को आगे बढ़ाया था।
संसार विरक्ति की पूज्य श्री की भावना और परिणति तीव्रतम बनने पर उस समय में शीघ्र ही उपलब्ध होने वाली यतिपरम्परा के माध्यम से उन्होंने आत्मोत्कर्ष की आत्म-साधना का आचरणात्मक आरंभ किया।
यह आत्माभियान करते हुवे उनको यतिवर्ग में पनप रही आसक्तियां और परिग्रह की भावना से आई हुई आचारहीनता का अनुभव हुआ। आत्म-साधक आत्मा, आसक्तियों और आचारहीनता का अनुभव करने पर तत्कालीन परिस्थितियों का दास या प्रेषक बनकर बैठा नहीं रह सकता है। ऐसी आत्मा अपने आत्मवीर्य का प्रगटीकरण करके आत्मनिहित अनंत पुरुषार्थ के बल का प्रत्यक्ष परिचय कराती है। आचारहीनता का अनुभव करने पर पूज्यपाद आत्मर्षि ने उस समय के स्थापित हित और स्वार्थरत यतिवर्ग के पास "कलमनामा" कबूल करवा के समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा और व्यक्ति पूजा को नष्ट कर दिया।
शुद्ध आचरण सत्य की "समभिरूढ़" परिणति का प्रत्यक्ष रूप है ऐसी परिणति का प्रत्यक्ष रूप गुरुवर श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी म० सा० में निखर आया और उन्होंने राज्य सत्ता द्वारा दिये गये सम्मान सुचक सर्व परिग्रह का त्याग करके अपने में निहित संयम मार्ग की 'भाव आराधना' के भाव का 'संवेगी' दीक्षा के माध्यम से 'द्रव्य आराधना' द्वारा समन्वय किया । इस समन्वय से उनकी आत्मशुद्धि और शोभा अत्यधिक जाज्वलयमान बनी । "स्वाध्याय" से आत्मा के अध्यवसायों का संशोधन और शुद्धिकरण
यह सत्य आत्मानुभूति का विषय होने के कारण आज के समाज में यह दुःसाध्य या दूरी का सत्य बन गया है । आज साधना मार्ग के स्थान पर हमने साम्प्रदायिक या मतानुगतिक आचरण मार्ग या निर्जीव प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठा कर दी है । यह सत्य कितना भी कटु लगे फिर वर्तमान परिप्रेक्ष्य की यह हृदय विदारक वास्तविकता है। इसी कारण आज का समाज अव्यक्त बनता जा रहा है या उसकी अभिव्यक्तियां व्यामोह एवं विद्वेष और व्यक्ति पूजा से अभिभूत है। ऐसी अनर्थकारी अभिभूतता अपने जीवन में व्याप्त न हो इस प्रकार का भाव जागरुकता से अध्यात्ममार्गी आचार्य प्रवर श्री राजेन्द्रसूरी म०सा० ने खुद के समस्त जीवन को सम्यक् ज्ञान के स्वाध्याय और साधना को समर्पित कर दिया था।
अभिधान राजेन्द्रकोष जैसे अति विशाल ग्रन्थ रत्न की रचना उनके सम्यक् ज्ञान के सर्वांगी समर्पण की साहजिक निष्पत्ति है। अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं । अभिधान राजेन्द्र कोष सामान्य शब्द कोष नहीं है किन्तु शास्त्र वचनों की समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थ घटन का सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है।
समर्पण वही है । जो सर्वतोमुखी और सर्वदेशीय है । ऐसे समर्पण का स्वरूप और प्रभाव सर्वव्यापी होता है । पूज्यपाद श्रीमद् राजेन्द्र सू०मा० का सम्यक् ज्ञान के प्रति समर्पण सर्वदेशीय और सर्वतोमुखी था, इस हकीकत का प्रमाण उनके विविध विषय का सम्यक् ज्ञानाश्रित सर्वतोमुखी साहित्य सर्जन (सृजन) है । आपने अपना संयमी जीवन व्यापन करते हुवे अनेकविध विषयों के ६१ ग्रंथों का सृजन और सम्पादन किया ।
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किसी भी आत्मा को आत्मज्ञान की उपलब्धि होने पर भी आत्मवीर्य के प्रगटीकरण किये बिना आचरणात्मक चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। अतिचार-रहित चारित्र की आराधना किये बिना शाश्वत सुख की प्राप्ति एवं आत्मा की "स्व-स्वरूप स्थिति" असंभव है। अरिहंत परमात्मा कथित इस यथार्थ तथ्य का स्वर्गस्थ पूज्यपाद ने अपने जीवन में यथार्थरूप से परिपालन किया था। चारित्र के यथार्थ पालन की उनकी आत्मा की परिणति प्रकर्ष थी जिसकी प्रतीति उनके जीवन के प्रत्येक व्यवहार में प्रत्यक्ष होती थी। साथ ही परिग्रह विरक्ति का प्रमाण आपकी व्यक्तिगत 'उपाधि' (साधु के वस्त्र
और संयम की आराधना के उपकरणों ) से ही प्राप्त होता था । पूज्यपाद ने अपने जीवन में उतनी ही उपाधि रक्खी कि जो आप खुद ही उठा सकते थे । अनेक विनीत शिष्य होते हुवे भी, हर हमेशा आपने ही अपनी 'उपाधि' उठाई ।
जहां तक, आत्मा कर्म मुक्त नहीं होती वहां तक, सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति, परिणति और परिपालन का उद्देश्य सिर्फ कर्म-निर्जरा करना होता है। जिसका कर्म निर्जरा की प्रवृत्ति का पुरुषार्थ का क्रम जारी है उसकी सिद्धि समाधिमरण से होती है । पूज्यपाद ने 'आत्म समाधि' से आते हुवे मृत्यु का स्वागत किया उतना ही नहीं परन्तु कर्मबद्ध आत्मा के लिये यह 'स्वाभाविक' क्रम मानकर संसार परिभ्रमण की साहजिक प्रक्रिया को शुद्ध समता भाव से सम्मानित करके स्वर्गवासी हुवे। यह 'पंडित मृत्यु' थी 'पंडित मृत्यु' से भव भ्रमण क्षय होता है और संसार स्थिति कम होती है। स्वर्गस्थ पूज्यपाद के जीवन का मूल्याकंन करने की मेरे में क्षमता नहीं है इसके लिये मैं अनधिकारी हूं।
स्वर्गीय पूज्यपाद श्री राजेन्द्र स्०मा० ने अपने जीवन को सर्वज्ञ कथित सत्य और शासन को सर्वथा समर्पित किया था। इस
सत्योक्ति में कोई संदेह नहीं है । उनका समर्पण शासन के 'सेवक' होने की उनकी निरहंकार वृत्ति का परिपाक था। उनकी आत्म साधना का प्रभाव अपने खुद तक सीमित नहीं था। उस प्रभाव से एक परम्परा का प्रारंभ हुआ था या पापप्रणाशक परम्परा की पुनः प्रतिष्ठा हुई।
पाप प्रणाशक परम्परा पर किसी एक विशेष वर्ग या समाज का अधिकार असंभव है। हां यह संभव है कि जो कोई भी व्यक्ति या समाज उसे विशेष रूप से अभिव्यक्ति देना चाहता है या उसकी उपासना में उद्यमशील रहना चाहता है, वह व्यक्ति या समाज, ऐसी परम्परा के प्रवाह की सत्यनिष्ठा और आचार शुद्धि को अपने व्यवहार से विशेष रूप से या स्पष्टरूप से अभिव्यक्त करे।
वास्तव में प्रभु श्री राजेन्द्र सू०म० किसी भी एक विशेष समाज या व्यक्ति के समूह के आत्मोत्थान के आधार नहीं हैं । वे तो सत्य को समर्पित होकर विश्ववंद्य और जनगण के आराध्य बन गये।
उनकी पवित्र परम्परा लाख के बराबर है । जो कोई भी आत्मा, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र का आराधक है या उसके प्रति अचल आस्था रखने वाला है । वही उनकी परम्परा का उपासक और पूजक बन सकता है। ___अन्त में, सभी आत्मलक्षी आत्माओं से मेरा यही अनुरोध है कि, स्वर्गस्थ, पूज्यपाद पूज्यश्री राजेन्द्र सू०म० ने अपने जीवन में सम्यक् ज्ञान की आराधना के माध्यम से सर्वज्ञ कथित सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना और उपासना का जो स्पष्ट पथ प्रदर्शन किया है, उस माध्यम से हम 'स्व-पुरुषार्थ' को प्रगट कर 'स्व-स्वरूप' की साधना में अप्रमत्त बनें ।
(कविबर प्रनोदरुचि और उनका . . . पृष्ठ ३१ का शेष) को आशीर्वादात्मक उद्बोधन दिया है । उन्हें सम्बोधित करते हुए 'संवत् उगणिस छत्तिस साल । कार्तिक कृष्ण त्रयोदशि माल ।। रुचिजी कहते हैं : “बचपन में ही तुमने मोह को नाश कर उस पर दीपोच्छव सह घर-घर करे । तिम मुनिगण तम तापिक हरे ।। विजय प्राप्त कर ली और मोहन विजय बने । श्रीमद् श्रीहजूर की
अल्पमति बध हाम सुठाण । गुरु गण भक्ति लहि दिल आण ।। हाजरी में अहर्निश शास्त्राभ्यास किये जाओ। सबके प्रीतिपात्र बनो।
बावन मंगल करि भई वृद्धि । उत्तम जन कर लेह समृद्धि ।। जो विषय समझ में न आये, उसे अवश्य पूछो...।" मुनि-परिवार के प्रति धर्म-स्नेह की परोपकारी कामना कविवर में मूर्तिमन्त हुई
पत्रकमल जलबिन्दु ठेराय । अमल अतोपम अमित देखाय ।। थी, पदगरुता अथवा ज्ञान-गरिमा का अहंकार उन्हें किंचित भी न परिमल दह दिशि पमरे लोक । मंत पुरुष इम होवे थोक ।। था। इस प्रसंग में उन्होंने लिखा है--
"विनति" जो सुणे चित्त लगाय । निकट भवी समदृष्टि थाय ।। 'लघु शिष्य सोहे विजे मोह नाथी । तज्यो मोह बालापनाथी ।। रुचि प्रमोद गाव भण। सुणतां श्रवणे पातिक हण ॥ विरोची विशुद्धा वान लागे सहुने । भणो शास्त्र वांचा खुशी हो बहुने।।
जब श्रीमद् १८८१ ई. में मालवा आये तब कविवर ने उनके मुनिभ्यास राखो दिवाराता माही। कलापूर्ण साधु, सिरे स्वच्छ ठाही ।।
दर्शन किये और उसी वर्ष विक्रम संवत् ११३८, आषाढ़ शुक्ल १४ हजूरे हाजरे रहो पूछताजे । लहो अच्छ अच्छे गहो गम्य गाजे ।
को उनका देहावसान हो गया । ___आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व कविवर श्री प्रमादरुचि ने अपने इस "विनतिपत्र" का उपसंहार इन पंक्तियों से किया था--
राजेन्द्र-ज्योति
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तपोधन श्रीमद् राजेन्द्र सूरि
कनकमल लुणावत
ललाट में एक अनुपम ज्योति है,
प्रसन्नता भानन में विराजति है । मनोलता शोभित अंग-अंग में,
पवित्रता है पद पद्म चुभती ।। भारत भूमि पूज्य भूमि के रूप में सदा से उर्वरा रही है। यही कारण है कि यहां का त्याग, तपस्या, अहिंसा, ज्ञान, भक्ति एवं दया आदि जीवन का सही मार्ग प्रशस्त करने मे अपूर्व सफल रहा है । इसी वीर प्रसविनी भूमि के भरतपुर नगर में वि.सं. १८८३ पोष शुक्ल ७ गुरुवार के दिन मंगलमय मुर्हत में श्रेष्ठी श्री ऋषभदासजी पारख के वंश में माता केशरी की कोख से तेजस्वी मुख गौरवर्ण, विशालभाल, एवं करुणा की मूर्ति बालक रत्नराज ने जन्म लिया । बालक रत्नराज की धर्म के प्रति पूर्ण रुचि एवं अगाध श्रद्धा थी । साधु-संतों के प्रवचनों का प्रतिदिन श्रवण करते थे । पूर्व पुण्योदय से उनके हृदय में वैराग्य भावना जागी अतः इस मार्ग को अपनाने के लिए अपने अग्रज की स्वीकृति प्राप्त कर, वैशाख शुक्ला ५, वि. संवत् १९०४ में यति श्री हेमविजयजी म.सा. के पास यति दीक्षा प्राप्त की और यति रत्नविजयजी के नाम से प्रसिद्ध हए । ५ वर्षों तक अध्ययन करने के पश्चात् वि.सं. १९०९ वैशाख शुक्ला तृतीया को उदयपुर में बड़ी दीक्षा प्राप्त की । यति रत्नविजयजी ने अपने आत्मबल से खूव ज्ञानार्जन किया तब पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी म.ने श्री पूज्य पद के योग्य समझ वि.सं.१९२४ में वैशाख शुक्ला ५ बुधवार को आहोर में श्री पूज्य पद देकर श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी म. के नाम से प्रतिष्ठित किया। अब पूज्य गुरुदेव ने अपनी त्याग, तपस्या और स्वाध्याय के बल पर जिन धर्म की वास्तविकता प्रदर्शक त्रिस्तुति के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । यद्यपि आपको इस कार्य में अनेक कष्ट सहन करने पड़े परन्तु शनै:-शनैः आपका प्रभाव बढ़ता गया।
साहित्य सेवा
जिस देश, जाति समाज में साहित्य की कमी रहती है वहां हर बात की कमी रहती है, इसलिए समस्त क्षेत्र में साहित्य का विशेष महत्व है । पूज्य गुरुदेव के अनुपम साहित्य ने समाज के गौरव को चरमोत्कर्ष कर पहुंचा दिया है । आपने अपने जीवनकाल में ५८ से भी अधिक ग्रन्थों का निर्माण किया। इन ग्रन्थों ने समाज को नवनिर्माण का मार्गदर्शन दिया । आपके द्वारा रचित शिरोमणि, अनमोल ग्रन्थराज श्री अमिधान राजेन्द्र कोष अपने आप में शीर्ष ग्रन्थ है जो विश्वभर में विख्यात है। यह ग्रन्थराज ७ विशाल काय भागों में विभक्त है, इसमें संस्कृत, प्राकृत एवं पाली भाषा की बाहुल्यता है, गुरुदेव श्री के ग्रन्थों में गति, ताल, स्वर चमक-दमक अद्भुत ढंग से सजे हुए हैं । गुरुदेव ने नवपद ओली, देववंदन, पंच कल्याणक, महावीर पूजा, जिन चौबीसी, स्तवन, सझाज्य आदि राग, रागिणियों में भावपूर्ण ढंग से साहित्यों की रचना करके अपना अमूल्य जीवन प्रभु के गुण गान में व्यतीत किया । अपूर्व साहस और भविष्यदृष्टा
पूज्य गुरुदेव श्री का जीवन तेजस्वी स्वरूप और निर्भीकता से लहराता है, आपमें ब्रहाचर्य का तेज और तपस्या की शक्ति थी । मर्यादा पालन में चट्टान से अडिग चाहे कैसी भी विपदा हो, दुःसह कष्ट हो गुरुदेव मर्यादा से कभी लेशमात्र भी नहीं डिगे। पुज्य गुरुदेव ने अपने अदम्य साहस और कुशाग्र बुद्धि से आई विपदाओं का संहरण करते हुए अपने पथ पर अग्रसर होते रहे। गुरुदेव भूत, भविष्य और वर्तमान की बातों के भी ज्ञाता थे। त्याग और तपस्या
त्याग जिन शासन का महानतम अंग है। त्याग ही अपने जीवन की लक्ष्य सम्प्राप्ति का एकमात्र साधन है। पूज्य गुरुदेव अपने
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के दिन जैन जगत का चमकता चिराग काल की आंधी से बझ गया। समाज निराधार हो गया । पूज्य गुरुदेव का अंतिम संस्कार श्री मोहनखेडा तीर्थ में किया गया । इस स्थान का मालवा को गौरव है, इसी याद में प्रतिवर्ष पौष शुक्ला ७ को भव्य मेला लगता है
आप में सुदीर्घकाल तक चिन्तनशील रहे, राग त्याग के भगीरथ कार्य में स्वयं को त्रिकरण त्रियोग में लगाते रहे । इसी त्याग कृति ने उन्हें निर्भीक बना दिया। उनका जीवन बीसवीं सदी की अविस्मरणीय त्याग की सुगन्ध से ओतप्रोत रहा है । जिन मुद्रा में कई घंटों तक स्थिर एवं अडिग रूप से श्री पंच परमेष्ठी का ध्यान किया। मांगीतुंगी पर्वतीय क्षेत्र उनकी साधना का मुख्य केन्द्र था । पूज्य गुरुदेव ने ७२ दिन की तपस्या के साथ श्री नमस्कार महामंत्र के सवा करोड़ जाप किये । उत्कृष्ट त्याग की भूमिका तथा पूर्ववर्ती, पश्चात्वर्ती एवं पार्श्ववर्ती जीवन उनके सहज त्याग का परिचायक है। चतुर्मुखी प्रतिभा के धनी गुरुदेव के जीवन का त्याग पथ इतना प्रबल, उज्ज्वल एवं अविरल है कि जिसमें वे आजीवन जिन शासन की प्रभावना के अधिष्ठान रहे । उनका शुद्धतम लक्ष्य था त्याग मार्ग की प्रतिष्ठा की जाए अतएव उनकी उपदेशधारा तदनुरूप ही प्रवाहित हुई ।
धन्य तुम गुरुवंश, मात पिता तुम धन्य,
धन्य देश पुर जाति को, भरतपुरी वर धन्य।
पूज्य गुरुदेवश्री का जीवन प्रारंभिक काल से अंतिम काल तक त्याग का पक्ष पूरक रहा । त्याग में ही उनकी अभिरुचि एवं तद्वती बाह्यन्तर परिणाम भी रहे। आपने अपने जीवन काल में अनेकानेक जिन मंदिरों का नव निर्माण एवं जीर्णोद्धार करवाया। साथ ही गांव-गांव एवं शहर-शहर में बिहार करते हुए अपनी मधुर एवं ओजस्वी वाणी से सच्चे ज्ञान का प्रसार करते हुए लोगों को उपदेश दिया। विहार करके आप राजगढ़ पधारे वहां से पश्चिम में दो किलोमीटर दूर खेड़ा नाम के स्थान पर गये वहां की सुरम्य वनस्थली नदी के प्रवाहित जल का सुन्दर किनारा और साधना की दृष्टि से उत्कृष्ट प्रेरक जानकर आपने श्री लुणाजी संघवी को उपदेश देकर श्री आदीश्वर भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाकर के श्री मोहनखेड़ा नामकरण किया। पूज्य गुरुदेव अपने अंतिम समय में राजगढ़ रहे तथा राजगढ़ में ही वि.सं.१९६३ में पौष शुक्ला ७
विनय हे राजेन्द्रसुरीश तुम सा बन जाऊं
मेरी यही विनय है। मेरा हो यह आत्म सुदर्शन
देखू अपने में अपनापन समकित दृष्टि बने देखू निज से सत्व स्वयं चिन्तनम हैहे राजेन्द्र सुरीश तुमसा बन जाऊं मेरी यही विनय है ।
षष्ट द्रव्यों की सत्ता जानु ।
सबकी परणतियां पहचान होवे समकित ज्ञान जागरित जो जिन में तन्मय है । हे राजेन्द्र सुरीश तुमसा बन जाऊं मेरी यही विनय है
सच्ची श्रद्धा ज्ञान जगाकर ।
स्वात्म रमणता को अपनाकर सद आचरण वन्दन करूं जो परम शांति समुदय है । हे राजेन्द्रसुरीश तुमसा बन जाऊं मेरी यही विनय है
अहिंसा प्राणिमात्र का माता की भांति पालन-पोषण करती है, शरीररूपी भूमि में सुधा-सरिता बहाती है, दुःख-दावानल को बुझाने के निमित्त मेघ के समान है, और भव-भ्रमण-रूपी महारोग के नाश करने में रामबाण औषधि है।
-राजेन्द्र सूरि
राजेन्द्र-ज्योति
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गुरुदेव के बढ़ते चरण
चम्पालाल पुखराज गाँधी
राजस्थान का पश्चिमांचल आहोर नगर में जालोर आने वाली सड़क पर सैकड़ों का एक जन समूह जालोर नगर की ओर अग्रसर है। इस जन समूह में अनेक लोग छोटे-छोटे समूह बनाकर अपना हर्षोल्लास प्रकट कर रहे हैं। एक श्रद्धालु अपनी बुलन्द आवाज में जय घोष करता है : त्रिशला नन्दन वीर की। समूह अनुसरण करता हुआ : जय बोलो महावीर की व्यक्ति ? वंदे । समूह : जिनवर आदि जय जयकार शब्द वायु की तरल चादर को भेदते आकाश को छू रहे हैं । वायु मण्डल आपूरित हो रहा है और मंद गति से जन समूह जालोर नगर की ओर बढ़ रहा है कि लो नगर द्वार निकट आ गया।
यहां दृश्य भी दर्शनीय है सब उस आने वाली भीड़ को देखकर कुछ तैयारी में लग गये । वाद्य वाजंतरी, ढोल थालियां बजने लगीं । स्त्रियां जो रंग-बिरंगे वस्त्र पहिने खूब सज-धज के साथ आई थीं कलश लिये समूहबद्ध खड़ी हो गईं। पुरुष वर्ग आहोर की ओर से आने वाले समूह की ओर स्वागतार्थ बढ़ा। नदियों का नदियों से संगम हुआ । लहरें थपेड़े खाने लगीं जैसे समुद्र में तूफान आ गया है। सैकड़ों का समूह समूह में विलीन हो सहस्रों का रूप धारण कर गया। अब महिलाएं भी भक्ति विभोर हो भक्ति गीतों की स्वर लहरी वायुमण्डल में कर्णप्रिय मधुरता भरने लगीं।
महिलाएं आगे बढ़ीं। प्रवेश द्वार के मध्य पाट बिछाकर स्वस्तियां बनाई जाने लगीं, कलमों से सुशोभित महिलाएं एक-एक आकर नये स्वस्तिक बनाकर कलश झुकाकर स्वागत करतीं। फिर भक्ति विभार हो अक्षत उछाल मस्तक झुका श्रद्धावश हाथ जोड़ एक ओर हो जातीं, पुरुषवर्ग पूर्व नियोजित कुछ रुपयों का विसर्जन कलशों में करते जा रहे थे। ढोल व थाली बजाने वालों का भी उत्साह बढ़ता जा रहा था। संध्या बढ़ने व जय जयकारों की बुलंदियों से ढोल थालियों के नांदों में भी तेजी आ रही थी । वाद्य यंत्र और तेजी से
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मय मधुरता से बज रहे थे। कुल मिलाकर ऐसा अनुभव हो रहा था कि मानो पूर्व नियोजित देवोत्सव सम्पन्न हो रहा है।
द्वार से ही नगर को अलंकरित किया गया है, जगह जगह पर इन्द्रधनुषी रंग की फरियां फहरा रही हैं और आम्र पत्र के तोरण किसी महापुरुष के स्वागत में प्रतीक्षा कर रहे हैं।
अब काफिला और आगे बढ़ा। यह सब विचित्र दृश्य देखने के लिए आए नर-नारियों का जमघट भी कम नहीं, सहस्रों की संख्या में लोग सड़कों के किनारे कतार बद्ध विचित्र मुद्रा व पिस्फारित नेत्रों से
समूह के मध्य मंथर गतियों से बढ़ने, दायें हाथ में धर्म दण्ड बायें हाथ में श्वेत वस्त्रावरण काष्ठ पात्र लिए अग्रसर एक श्वेत वस्त्रधारी महाओजस्वी धीर गंभीर निश्चलदृष्टियुक्त चरित्रात्मा को देख रहे हैं जो सबके लिए प्रभावशाली आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है ।
लीजिए, अब तो दो-दो कदम पर श्रद्धालु गण पाट पर अक्षत द्वारा, स्वस्तिक के कलश द्वारा अभिवादन करने लगे उस महापुरुष के चरण स्पर्श पाने के लिए लालायित श्रद्धालु नागरिकों में धक्कम - धक्का भी होने लगी। बड़ी कठिनाई से एक घण्टे से अधिक समय में एक फर्लांग मार्ग तय हुआ ।
कौन है वह महापुरुष जिसके सम्मुख इतना बड़ा जन समुदाय श्रद्धावनत हो मस्तक झुका कर अभिवादन की होड़ लगा रहा है ? कौन है यह पुण्यवान प्राण ? कौन है यह त्याग वीर योगीराज ? जिसके दर्शन मात्र से संघ समुदाय हर्षोन्मुख हो जय घोषणा कर रहा है ।
पहिचाना आपने कौन हैं ये महापुरुष ? जिनके आहोर से प्रस्थान कर जालोर नगर में पधारने की गुप्त सूचना मात्र से ही आदर व श्रद्धावन्त हो सैकड़ों की संख्या में जन समुदाय स्वागतार्थ चार मील आगे बढ़ गया था ।
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आप हैं बीसवीं शताब्दी के युग प्रधान जैनाचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.। जिनके नाम श्रवण से ही संघ समुदाय भक्ति से प्रेरित हो गुनगुनाने लगता है । जानते हैं इसका क्या कारण है ? इसका मूल कारण है आपके जन कल्याणार्थ किए गए सफल कार्य।
आप में संकल्प की अद्वितीय अविचलता है जो बात वर्तमान व भावी पीढ़ी के कल्याणार्थ दृष्टिगोचर हुई उसको कार्यान्वित करने में तन मन से अविलम्ब-अविश्राम लग गए। भले ही उसमें कितनी ही बाधाएं आए आप समय के पक्के पाबन्द हैं ठीक समय में ठीक कार्य करने का प्रबल पक्ष भी इनके प्रबल आकर्षण का हेतु है ।
सूरीश्वरजी महाराज विश्व पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे थे। आपने भारतीय संस्कृति व चरित्र को सुदृढ़ बनाने पर पुरूबल दिया । अपने साथी यतियों व श्रावकों को चारित्रिक पवित्रता उज्ज्वलता को व्यवहार में लाने के लिए व आत्मशुद्धि हेतु प्रोत्साहित किया। अंग्रेजों द्वारा भारतीय संस्कृति को निष्प्राण व खोखला बनाने के षड्यंत्र का प्रबल विरोध किया। आपने सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि भारतीय संस्कृति सशक्त है, निष्कलंक है, शाश्वत है. अपने आप में सबल व समर्थ है, प्रेरणाप्रद है, सार्थक है यह सिर्फ भारतीय जन जीवन के लिए ही नहीं अपितु विश्व में फैले हुए अज्ञान रूप अंधकार की अटवी को भी प्रकाश मान करने की सामर्थ्य रखती है। आपने भारतीय लोक-जीवन में पुनरुत्थान की ओर विशेष ध्यान दिया है। आपकी सबसे महत्वपूर्ण "तीन थुई क्रांति है" जो धार्मिक होते हुए भी उक्त व्यापक क्रान्ति का ही एक अंग है। सामाजिक उत्थान करने तथा धार्मिक संस्कार डालने का प्रबल प्रयास आपका प्रमुख लक्ष्य था, यही वह कारण है कि लोग आपके दर्शनमात्र से धन्य हो जाते हैं । अतिरिक्त जैन समुदाय ही नहीं हर जाति व वर्ण के लोग आपके श्रद्धालु भक्त हैं।
एक समय आप विहार कर मोदरा पधारे और समीपस्थ चामुण्डवन में ध्यान हेतु पधारने लगे। श्रावकगण विह्वल हो उठे, श्रावकों ने आपको वन में जाने से रोकने की चेष्टा की तो आचार्य वर्य ने पूछ लिया "क्यों क्या बात है ? श्रावकजी? तो एक सज्जन बोले" प्रभु ! वहां एक हिंसक सिंह वास करता है वहां तपस्या व साधना करने जाने पर हमें आपके प्राणों का भय है, कृपा कर अन्य
स्थान पर योग साधना करावें।" इस पर पूज्यवर ने मंदहास्य के साथ अप्रमत्त हो प्रत्युत्तर दिया “श्रावकजी घबराने की कोई बात नहीं मेरा सिंह से कोई वैरभाव नहीं है जिससे कि वह मेरे साथ शत्रुता का व्यवहार करे" आप निश्चिन्त रहिये धर्म प्रवृत्त रहिये" जाइये धर्मलाभ।
श्रावक सब बेचैन थे, गोपनीय रूप से कई क्षत्रियों को उन्होंने आचार्य श्री की रक्षार्थ पर्वत पर नियुक्त कर दिया जब पहाड़ पर से भयंकर गर्जन सुनाई पड़ी, रक्षार्थ क्षत्रिय सावधान थे। पर यह क्या सिंह कार्योत्सर्ग में लीन गुरुवर्य की तीन परिक्रमा कर शांति से सम्मुख आ वंदन मुद्रा में बैठ गया।
सबको आश्चर्यजनक हर्ष हुआ। एक क्षत्रिय ने यह सुखद एवं चमत्कारी समाचार संघ के श्रावकों को विदित कराया । गुरुदेव श्री की इस घटना का समाचार हवा में विस्फोट कर गया, गांव गांव से लोग प्रातःकाल दर्शनार्थ आने लगे यह समाचार विचित्र ढंग से आसपास के गांवों में फैल गया था।
__ आपने संघ को सुवर्णगिरितीर्थ के जिनालयों का जीर्णोद्धार कराने की प्रेरणा दी। वहां मंदिरों में राजकीय अस्त्र-शस्त्र पड़े थे, वहां के शासकों से मांग करके उन्हें कटवाया गया। श्रावक समाज ने गुरुदेव श्री के आदेशानुसार कार्य किये। संवत् १९३३ में स्वर्ण गिरी तीर्थ के मंदिरों की प्रतिष्ठा बड़े वैभव से सम्पन्न हई। यह चमत्कार गुरुदेव श्री के त्याग एवं तपस्या की अग्नि में तपे हुए चारित्र की उज्ज्वल गरिमा का ज्वलंत प्रमाण था इस घटना के बाद तो पूज्यपाद श्री साक्षात् अलौकिक शक्ति पुंज के रूप में पूजे जाने लगे।
जालोर के मंदिरों की प्रतिष्ठा के बाद इसी जिले के अनेक ग्रामों में विहार कर जनमन के मन में धर्म भावना जागृत करने का सूपावन कार्य सूरीश्वरजी महाराज के पुण्य प्रभाव से हआ। जालोर क्षेत्र के लोग पूज्य गुरुदेवश्री के उऋण नहीं हो सकते।
आज प्रभुश्री की १५० वीं जन्म वर्षावली पर जालोरवासी व जालोर जिला व परगना के लक्षान्तर नर-नारी इस पूज्यनीय चरित्रात्मा को आत्मिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
प्रभुश्री चरण कमलों में शत शत बार बंदन ।
सब कलाओं में श्रेष्ठ धर्म-कला है, सब कथाओं में श्रेष्ठ धर्म-कथा है, सब बलों में श्रेष्ठ धर्म-बल है और सब सुखों में मोक्ष-सुख सर्वोत्तम है ।
-राजेन्द्र सूरी
राजेन्द्र-ज्योति
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गुरुदेव द्वारा संपन्न प्रतिष्ठाएं
साध्वी श्री महेन्द्रश्रीजी
जैनागम शास्त्र प्रकरण और चरित्र ग्रंथों में स्थान-स्थान पर शाश्वत और अशाश्वत जिन मंदिरों का उल्लेख बहलता से प्राप्त होता है जिनके द्वारा हम यह भली प्रकार समझ सकते हैं कि चैत्य निर्माण की परम्परा प्राचीन काल से आज तक अबाध गति से प्रचलित है इसमें किसी प्रकार की शंका को स्थान नहीं है।
आद्य तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान के समय उनके ज्येष्ठ पुत्र भरतराज श्री भरत चक्रवर्ती ने अपने राज्यकाल में श्री अष्टापद नामक पर्वत पर एक सिंह निषधा नामक परम मनोहर मंदिर बनवाकर उसमें प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों को अपनेअपने वर्ण और शरीर प्रमाण प्रतिमाएं आत्म कल्याणार्थ संस्थापित की थी ऐसा उल्लेख चरितानुयोगीय शास्त्रों में प्राप्त है। __इस आत्मोत्थान की प्राचीनतम परम्परा को अनेक राजा, महाराजाओं और सेठ-साहूकारों ने भी अपनाया जिसका प्रमाण सूत्र ग्रन्थों से और पुरातत्व विशारदों की शोध खोज से प्राप्त अनेक खण्डिताखण्डित जिन प्रतिमा आयागपट्ट और अनेक ध्वंसावशेषों से प्राप्त होता है।
वास्तव में हमारे जीवन को भौतिकवाद की विषाक्त वासना से अध्यात्मवाद की सुमनोरम धरा पर लाने के लिये आत्म साधनार्थ जिन प्रतिमाओं की महती आवश्यकता है तभी तो शास्त्रकारों ने 'जिगसरिक्खा जिणपडिमा' कहा है। महर्षि आर्द्रकुमार का उद्धार जिन प्रतिमा के दर्शन से ही हुआ है और शय्यंभवसूरि की भी तो वीतराग की प्रतिमा से ही बोध हुआ था इस बात को लक्ष्य में रखकर हमारे पूर्वाचार्यों के उपदेश से हमारे पूर्वजों ने अनेक स्थानों पर निज लक्ष्मी का सद्व्यय कर अनेक विशालकाय एवं स्थापत्य कला के ज्वलंत नमूने रूप चैत्य बनवाये और साधारण भी। इस मंगलमय कल्याणकारी चैत्य परम्परा को अनेक समविषम परिस्थितियों से बचाकर सुरक्षित रखने में श्रमण संघ
के नेतृत्व में अनेक राजा-अमात्यादि श्रीमंत वर्ग ने और साधारण वर्ग ने भी अविस्मरणीय सहयोग दिया है। यही कारण है कि आज भी भारत की यह गौरवमयी परम्परा हमारा कल्याण कर रही है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस परम्परा को समूल नष्ट करने का प्रयत्न अत्याचारी यवनों ने अनेक बार किया।
इस प्राचीन सूत्र शास्त्र सम्मत और पूर्वजों से समाचरित परम्परा के अनुसार ज्योतिर्धर विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने मरुधर और मालवे के कतिपय प्राचीन तीर्थों का और सैकड़ों ग्राम-नगरों के जिन मंदिरों का पुनरुद्धार किया और जिन ग्राम - नगरों में देव दर्शनार्थ जिन मंदिर नहीं थे वहां नूतन मंदिरों का निर्माण करवा कर उनकी यथाविधि प्रतिष्ठाएं करवाई। वैसे तो आपने अनेक स्थलों पर प्रतिष्ठा, जल शलाकाएं करवाई हैं किन्तु उनमें जो विशेष प्रसिद्ध हैं उनका विवरण इस प्रकार है(१) सोनगिरि
जालोर के इस पर्वत पर गढ़ में प्राचीन समय के तीन मंदिर हैं। (१) श्री अष्टापदावतार चौमुख मंदिर, (२) यक्षवसति महावीर मंदिर, और (३) श्री कुमारवसति-पार्श्वनाथ मंदिर ।
काल प्रभावतः इन पर सरकारी अधिकार हो गया था। राज्य भृत्यों ने इन शांति स्थलों में-मंदिरों में युद्ध सामग्री भर दी थी और वे स्वयं भी उनमें रहने लगे थे। संवत् १९३३ से ज्येष्ठ मास में जब गुरुदेव इस पर्वत की कंदराओं में रहकर तपस्या करते हुए आत्मचिंतन में लीन थे, सहसा उनकी ईप्सा पर्वत की उच्चतम चोटी पर जाकर धूप में आतापना लेने की
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हुई । तत्काल वे पर्वत की चोटी पर गये । उस समय उन्हें यह दिखाई दिया कि विशालकाय मंदिर राजकीय मूल्यों के निवास स्थान बने हुए हैं। तत्काल वे उनके समीप गये और नौकरों को उपदेश दिया। परन्तु जोधपुर नरेश की आज्ञा के बिना कुछ नहीं हो सकता था उन्होंने श्रावकवर्ग को इस स्थिति से परिचित किया और स्वयं ने कठिनतम वीर प्रतिज्ञा लेकर आन्दोलन किया। आठ महीने तक अविरल प्रयत्न करने पर मंदिर प्राप्त हुए। श्रीमद् ने संवत् १९३३ के माघ शुक्ला ७ रविवार को इन मंदिरों का उद्धार करवा कर प्रतिष्ठा की ।
(२) जावरा
मरुधर से उत्कट विहार करके १७ दिन में श्रीमद् मध्य भारतस्थ जावरा पधारे। वहां श्री छोटमलजी पारख के बनवाये हुए द्विमंजिले मंदिर में श्री आदिनाथ भगवान आदि ३१ जिन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा की ।
(३) कुक्षी
मालवस्थ धार जिले के कुक्षी नगर में श्री शांतिनाथ भगवान का प्राचीन मंदिर था। श्रीमद के समुपदेश से श्री संघना उसका जीर्णोद्धार करवाया और उसके चारों तरफ चौवीस देवकुलिकाएं बनवाई वि. सं. १९३५ के शुक्ला ७ को गुरुदेव ने महामहोत्सव सह श्री आदिनाथादि २१ प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा कर उनको उक्त मंदिर में स्थापित किया और सब शिखरों पर कलश और दण्ड ध्वजी चढ़वाये |
(४) आहोर
आहोर के दक्षिणोधान में आहोर भी संघ के बनवाये हुए जिनालय में संवत् १९३६ के माघ शुक्ला १० के दिन महोत्सव पूर्वक श्री गोडी पार्श्वनाथ प्रभु की प्राचीन प्रतिमा की प्रतिष्ठा की तथा शिखर पर कलश और दण्डध्वज समारोपित किये।
(५) श्री मोहनखेड़ा
राजगढ़ (जिला धार ) से एक मील दूर पश्चिम में श्री सिद्धाचल दिशिवंदनार्थ राजगढ़ निवासी संघवी शादलाजी लूणाजी प्राग्वाट ने श्रीमद् के सदुपदेश से सोधशिखरी जिनालय बनवाया था । उसमें वि. सं. १९४० के मार्गशीर्ष शुक्ला ७ के दिन आपश्री ने श्री आदिनाथ आदि ४१ जिन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा की और उनको जिनालय में प्रतिष्ठित किया तथा शिखर पर दण्डध्वज आरोपित किये। यहां श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज और श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का समाधि मंदिर भी है।
(६) धामनदा
धार जिले के धामनदा गांव में संवत् १९४० के फाल्गुन शुक्ला ३ के दिन श्रीमद् ने समारोहपूर्वक श्री ऋषभदेव भगवान और श्री सिद्धचक्र यंत्र की स्थापना की।
४०
(७) दशाई
धार जिले के दशाई गांव में संवत् १९४० के फाल्गुन शुक्ला ७ के दिन श्रीमद् ने श्री आदिनाथ आदि नौ प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा की और उनको मंदिर में विराजित किया तथा शिखर पर दण्डध्वज समारोपित करवाये ।
(८) शिवगंज
शिवगंज (सिरोही) में विक्रम संवत् १९४५ के मा शुक्ला ५ के दिन दिनावधिक महामहोत्सव पूर्वक पोरवाल शा बन्नाजी मेघाजी के जिनालय के लिए और अन्य स्थानों के लिए श्री अजितनाथ आदि २५० जिन प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा की और दो चैत्यों की प्रतिष्ठा की तथा शिखरों पर दण्डध्वज स्थापित करवाये ।
(९) कुणी
कुक्षी (धार) में विक्रम संवत् १९४७ के वैशाख शुक्ला ७ को चौबीस जिनालय समलंकृत श्री आदिनाथ चैत्य के लिए ७५ जिन प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा की और मंदिर में उनको प्रतिष्ठित किया तथा शिखरों पर दण्डध्वज समारोपित करवाये ।
(१०) तालनपुर
तालनपुर ( मालवा ) तीर्थ में वि. सं. १९५० के माघ कृष्णा २ सोमवार को श्रीमद् ने भूमि निर्गत ५० जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा और श्री पार्श्वनाथ चरणयुगल की प्राणप्रतिष्ठा की । (११) खटाली
खाली (म. प्र. ) में वि. सं. १९५० के माघ शुक्ला २ सोमवार को श्रीमद ने तीन प्रतिमाजी की प्राणप्रतिष्ठा की ओर उनको मंदिर में स्थापित किया तथा शिखर पर दण्डध्वज स्थापित किये।
(१२) रिंगनोद
रिंगनोद (म. प्र. ) में वि. सं. १९५१ माघ शुक्ला ७ को श्रीमद् ने चन्द्रप्रभु आदि सात प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा की तथा उनको मंदिर में प्रतिष्ठित किया और शिखर पर दण्डध्वज समारोपित किये।
(१३) झाबुआ
झाबुआ (मालवा) में बावन जिनालयासंकृत जिनालय के लिये विक्रम संवत् १९५२ के माघ शुक्ला १५ को श्रीमद् ने २५१ जिन प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा की तथा उनको मंदिर में स्थापित किया और शिखरों पर दण्डध्वज समारोपित करवाये । इनमें से कई प्रतिमाएं मालवा के ग्राम-नगरों में विराजमान हैं । (१४) बडीकडोद
बड़ी को जिला धार) में सेठ भी खेताजी वरदाजी के सुपुत्र श्री उदयचन्द्रजी के बनवाए हुए सोध शिखरी जिनालय के लिए वि. सं. १९५३ वशाख शुक्ला ७ गुरुवार को श्रीमद् ने महोत्सव
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सह श्री वासुपूज्यादि पन्द्रह प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा की और उनको मंदिर में स्थापित किया तथा इसी मुहूर्त में पंचायती गृह चैत्य में श्री पार्श्वनाथादि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। (१५) पिपलोदा
पिपलोदा (म. प्र.) में वि. सं. १९५४ वैशाख शुक्ला ७ के दिन श्रीमद् ने महोत्सवपूर्वक श्री सुविधिनाथजी की प्रतिष्ठा की और शिखर पर दण्डध्वज चढ़वाए । (१६) राजगढ़
राजगढ़ (जिला धार) में वि. सं. १९५४ के मार्गशीर्ष शुक्ला १० को श्रीमद् ने श्री शांतिनाथ चैत्य की प्रतिष्ठा की। (१७) आहोर
आहोर (राजस्थान) में श्री गोडी पार्श्वनाथ मंदिर की पांच देवकूलिकाओं के लिए तथा समय समय पर इतर ग्राम-नगरों को अर्पण करने के लिए श्रीमद् ने ९५१ जिन प्रतिमाओं की महान महोत्सवपूर्वक वि. सं. १९५५ के फाल्गुन कृष्णा ५ गुरुवार को प्राण प्रतिष्ठा की तथा श्री गोडी पार्श्वनाथ जिनालय की वावन देवकूलिकाओं की प्रतिमाओं को स्थापित किया और शिखरों पर दण्डध्वज समारोपित किए। इस प्रतिष्ठोत्सव में मरुधर, मालवा, मेवाड़ तथा गुजरात के पैतीस हजार स्त्री पुरुष सम्मिलित हुए थे। मरुधर के १५० वर्षों के इतिहास में यह प्रतिष्ठोत्सव अपने ढंग का सर्वप्रथम था। (१८) सियाणा
सियाणा (राजस्थान) में परमाहत् कुमारपाल के बनवाए हए श्री सुविधिनाथ मंदिर में स्थापनार्थ तथा सियाणा के श्री संघ की बनवाई हुई देवकुलिकाओं में विराजमान करने के लिए वि. सं. १९५८ के माघ शुक्ला १३ गुरुवार को श्रीमद् ने भारी महोत्सव पूर्वक श्री अजितनाथ आदि २०१ जिन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा की तथा उनको मंदिर में स्थापित किया और शिखरो पर दण्डध्वज आरोपित करवाए । (१९) आहोर
आहोर (राजस्थान) में धर्मशाला के ऊपर बनी हुई आरसोपलकी छत्री में श्रीमद् ने धातुमय श्री शांतिनाथ आदि प्रतिमा को शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठित किया और इसी धर्मशाला के व्याख्यानालय में कडोद (मालवा) निवासी शा खेताजी वरदाजी के सुपुत्र श्री उदयचन्द्रजी के द्वारा बनवाए हए श्री राजेन्द्र जैनागम वहदज्ञान भण्डार की संवत् १९५९ के माघ कृष्णा १ बुधवार के दिन प्रतिष्ठा की (२०) कोरटाजी
प्राचीन तीर्थ श्री कोरटाजी (मारवाड़) में श्री आदिनाथ आदि प्राचीन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की तथा समय समय पर
अन्य ग्राम नगरों के चैत्यों के लिए अर्पणार्थ वि. सं. १९५९ के वैशाख शुक्ला १५ गुरुवार को दसदिनावधिक महामहोत्सव पूर्वक २०१ जिन प्रतिमाओं को प्राण प्रतिष्ठा की तथा मंदिरों के शिखरों पर दण्डध्वज समारोपित करवाए। (२१) गुडाबालोतरा
गुडाबालोतरा (मारवाड़) में पोरवाड़ अचलाजी दोलाजी के बनवाए हुए जिनालय में श्रीमद् ने वि. सं. १९५९ के माघ शुक्ला ५ के दिन महोत्सव सहित श्री धर्मनाथजी आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की और शिखर पर दण्डध्वज आरोपित करवाए।। (२२) बाग
बाग (मालवा) में वि. सं. १९६१ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ के दिन श्रीमद् श्री विमलनाथ स्वामी आदि ७ प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा की और उनको मंदिर में स्थापित किया तथा शिखर पर दण्डध्वज समारोपित करवाए। (२३) राजगढ़
राजगढ़ (मालवा) में खजाची दौलतरामजी चुन्नीलालजी पोरवाड़ के बनवाए हुए अष्टापदावतार चैत्य की वि. सं. १९६१ के माघशुक्ला ५ गुरुवार के दिन दस दिनावधिक महोत्सवपूर्वक श्री ऋषभदेवादि ५१ जिन प्रतिमाओं के साथ श्रीमद् ने प्राण प्रतिष्ठा की तथा मंदिर में प्रतिमाओं को स्थापित किया और शिखर पर दण्डध्वज स्थापित करवाए। (२४) राणापुर
राणापुर (मालवा) में श्री संघ के बनवाए हुए जिन मंदिर में वि. सं. १९६१ में फाल्गुन शुक्ला ३ गुरुवार के दिन सोत्सव श्री धर्मनाथादि जिनेश्वरों की ग्यारह प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा करके उनको विराजमान किया और शिखर पर दण्डध्वज चढ़वाए। (२५) सरसी
सरसी (मालवा) में सशिखर चैत्य में वि. सं. १९६२ के ज्येष्ठ शुक्ला ४ के दिन चन्द्रप्रभु आदि जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की और शिखर पर ध्वजदण्ड संस्थापित करवाए। (२६) राजगढ़
राजगढ़ (मालवा) में दौलतराम हीराचन्द के बनवाए हुए गुरू मंदिर में श्रीमद् ने वि. सं. १९६२ मार्गशीर्ष शुक्ला २ के दिन थी गोतमस्वामी आदि की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। (२७) जावरा
जावरा (मालवा) में शा. लक्ष्मीचन्दजी लोढा के बनवाए हुए चैत्य में स्थापनार्थ वि.सं. १९६२ पौष शुक्ला ७ के दिन अष्टाह्निका महोत्सवपूर्वक श्रीमद् ने श्री शीतलनाथ आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई।
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भरतपुर का कोहिनूर
भारत की रत्नगर्भा धरा में अनेक रत्न छिपे हैं जो समय समय पर देशहित एवं समाज हित में आध्यात्म एवं नैतिकता को विकसित करने के लिए उजागर होते हैं। इसी क्रम में आज से १५० वर्ष पूर्व आविर्भाव हुआ जिसके दैदीप्यमान प्रकाश से वसुधा ज्ञान किरणों से जगमगा उठी । वह एक अरुण था जिसकी ज्ञान रश्मियां विश्व में फैलकर अज्ञानता का नाश कर रही थी। हां, वे कोहिनूर थे रत्नराज याने पू. गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब जिन्होंने प्रभु महावीर के मार्ग को अपनाया । अहिंसा एवं तप के बल से इस महामानव ने मिथ्यात्व एवं शिथिलाचार पर प्रहार किया ।
महेन्द्र भण्डारी 'शलभ'
भरतपुर वाटिका में " केशर की क्यारी" से उजागर इस पुष्प की मलय सुगन्ध समूचे मालवा, राजस्थान, गुजरात एवं अन्य प्रांतों तक ही नहीं देश-विदेशों तक फैली । त्याग, शील एवं ज्ञान का सौरभ अध्यात्म सुवास से युक्त परिपक्व पुष्प ने जैन जैनेतर सभी को अपनी विद्वता से श्रद्धान्वित किया ।
कोहिनूर प्रभु श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का जन्म ३ दिसम्बर सन् १८२७ पौष शुक्ल सप्तमी विक्रम सं. १८८२ गुरुवार को हुआ। माँ केशर की कूंख से जन्म लिया । श्रेष्ठिवर्ग ओसवाल श्री ऋषभदासजी पारख को आपके पिताश्री होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । बाल्यावस्था से ही सद्गुणी, विनयवान
जानकार इस अध्यात्मचिन्तक का नाम रत्नराज रखा गया ।
ज्येष्ठ भ्राता श्री माणिकचन्द के साथ करीब बारह वर्ष की आयु में केशरियाजी की यात्रा करने प्रस्थित हुए । पथ में एक सेठ को भीलों के संकट से बचाया साथ ही अपनी अध्यात्मसिद्धि से सेठ की पुत्री की व्याधि का निवारण किया ।
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काल चक्र के थपेड़ों से कोई नहीं बचता । अकस्मात् सुखभरे मौसम में गम के बादल छा गए। माता-पिता इन्हें छोड़कर चल बसे । माता-पिता के वियोग ने रत्नराजजी के हृदय में संसार के प्रति
विराग तथा धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा स्थापित कर दी। एक समय यतिराज श्री प्रमोदविजयजी म. भरतपुर पधारे। उन्होंने प्रवचन से संसार की उदारता, भौतिक सुखों की क्षणिकता एवं माया की नश्वरता की विवेचना सुनाई। जिसने रत्नराज के कोमल किन्तु विराट हृदय को झकझोर दिया, वैराग्य ज्योति टिमटिमा उठी । अपने भाई व परिवार जनों से आज्ञा प्राप्त कर बालब्रह्मचारी रत्नराजजी ने श्री हेमविजयजी म. से यति दीक्षा अंगीकार की । मात्र दीक्षा अंगीकार करने से ही आत्म व पर कल्याण संभव न जानकर आप ज्ञान साधना में जुट गए। व्याकरण, न्याय, कोष, अलंकार आदि का अध्ययन करने लगे। तीक्ष्ण बुद्धि व अगाध तन्मयता से अल्प समय में जैनागमों के ज्ञान एवं शास्त्रों में निपुण हो गए । बुद्धि विलक्षणता देखकर श्री हेमविजयजी के सानिध्य में उदयपुर शहर में बड़ी दीक्षा के साथ पन्यास ( महापण्डित ) पद से श्री रत्नविजयजी को अलंकृत किया गया। गुरुदेव का आदेश पाकर श्री रत्नविजयजी मेथी पूज्यनी धरणेन्द्रसूरी सहित सोनह यतियों को निःस्वार्थ भाव से शिक्षित किया। आपको " दफतरी" पद से विभूषित किया गया।
एक घटना ऐसी घटी जिसने रत्नविजयजी की जीवन दिशा ही बदल दी। श्री पूज्यजी धरणसूरी ने पचास यतियों सहित घाणेराव में चातुर्मास किया। श्री पूज्यजी को पद से दम्भ तथा रत्नविजयजी की फैल रही कीर्ति से ईर्ष्या हो रही थी। साथ ही तप जप को परे रखकर यतिराज श्री धरणेन्द्रसूरी शिथिलाचार को बढ़ावा दे रहे थे । महापर्व पर्युषण को धरणेन्द्रसूरीजी ने भेंट प्राप्त इत्र को पहचान हेतु श्री रत्नविजयजी से सुझाव चाहा, तब रत्नविजयजी ने कहा, यतियों को कृत्रिम व अस्थाई सुगन्धवाले इत्र से क्या काम ? हमें तो ज्ञान की सुगन्ध लेना है । मुझे तो इस इत्र एवं गधे की पेशाब में कोई अन्तर नहीं मालूम होता । इस प्रकार उत्तर सुन श्री पूज्यजी अत्यन्त क्रोधित हुए । विवाद को बढ़ता जानकर श्री रत्नविजयजी ने अपने
राजेन्द्र ज्योति
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साथ योग्य व्यक्तियों को लेकर आहोर पदार्पण किया। श्री प्रमोदविजयजी ने सर्वहाल जानकर संघ सहमति से वैशाख सुदी पंचमी बुधवार वि. सं. १९२४ को श्री रत्नविजयजी को सूरिमंत्र देकर आचार्य पदवी दी। श्री संघ ने रत्नविजयजी को श्री राजेन्द्रसूरीश्वर म. के नाम से प्रख्यात हुए। आहोर ठाकुर ने परवाना देकर कीर्ति बढ़ाई। आहोर से विहार कर शंभु गढ़ मेवाड़ हाते हुए सं. १९२४ में जावरा (मालवा) में चातुर्मास किया। जावरा नवाब के प्रश्नों का समाधान कर अपना श्रद्धालु बनाया, गुरुदेव ने कहा मनुष्य जाति से नहीं वरन् कर्मों से पूजा जाता है। गुरुदेव के आशीष से कई असाध्य रोगी रोगमुक्त हो गए। इधर धरणेन्द्रसूरी ने भी नौ नियमों का मान्य करने के बाद आपने क्रियोद्धार किया। क्रियोद्धार करने के पश्चात् वि. सं. १९२५ में खाचरोद में चातुर्मास किया जहां अट्ठाई महोत्सव एवं प्रतिष्ठा से धर्मध्वजा को लहराकर ऊंचा उठाया । सं. १९३० में रतलाम में भारी धर्मलाभ हुआ तथा गुरुदेव ने विद्वत्ता से विजय प्राप्त की। सत्य एवं सही पथ बताने "सिद्धान्त प्रकाश" नामक ग्रन्थ की रचना की । गुरुदेव फिर मारवाड़ पधारे जहां जालोर में प्रभुमूर्ति दर्शन की महत्ता विवेचन में सात सौ स्थानकवासी घरों ने मूर्ति पूजक बनकर, गुरुदेव की आज्ञा का अनुसरण किया। जालोर किले पर स्थित जिनालयों में से शुद्ध सामग्री एवं शस्त्रों को हटवाकर पुनः जिनालय श्री संघ को सुपुर्द करवाया । गुरूदेव ने जालोर एवं मांगीतुंगी पहाड़ की भयंकर गुफाओं में रहकर आठ आठ उपवासों की उग्र तपस्या से शरीर को जर्जर कर डाला जिससे इन्द्रियों पर विजय एवं अलौकिक ज्ञान पुंज पाया।
एक समय गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी गुण्ड वन में कायोत्सर्ग में मग्न थे। एक शिकारी ने गुरुदेव पर कई तीर फेंके, लेकिन गरुदेव का स्पर्श भी तीर नहीं कर पाए। गरुदेव की महत्ता देख शिकारी चरणों में गिर पड़ा। गुरुदेव के जीवन में ऐसी अनेक आश्चर्यजनक घटनाएं हुई।
सं. १९४९ में गुरुदेव ने निम्बाहेड़ा चातुर्मास में स्थानकवासी के पूज्य से चर्चा कर उन्हें परास्त किया। उस समय तक गुरुदेव की महत्ता सारे भारतवर्ष में फैल गई। कोई भी समाज या प्रान्त ऐसा न था जो प्रभु श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नाम से अनभिज्ञ हो । जीवन भर सदैव उपकार करते रहे। कुक्षी पर अग्निकोप की घोषणा गरुदेव ने अपने मुखारबिन्द से उन्नीस दिवस पूर्व ही कर दी थी।
इस भावी को यथार्थ में परिणित देख सारा मालवा गुरुदेव के प्रति श्रद्धान्वित हो गया । अन्त में राजगढ़ की ओर विहार किया। अत्यधिक तपस्या से तथा निरन्तर शारीरिक एवं मानसिक आराधना से शरीर बहुत निर्बल एवं जर्जर हो चुका था। सभी शिष्यों को शिक्षा देकर अनशन कर समाधिपूर्वक ध्यानमग्न हो गए। २१ दिसम्बर सन् १९०६ विक्रम सं. १९६३ पौष शुक्ला सप्तमी को नश्वर तन को त्याग कर स्वर्ग सिधार गए।
गुरुदेव एक सिद्ध पुरुष थे। उन्होंने त्रिस्तुतिक जैन समाज का शुभारम्भ नहीं किया वरन् पुनरुद्धार किया । उनका यही कहना था कि हमें भौतिक एवं सांसारिक प्रलोभन से क्या कार्य ? हम मनुष्य देवी-देवताओं से श्रेष्ठ होकर भी अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु देवताओं की आराधना करते हैं ? जो धर्म के प्रतिकूल है। हमें तो शाश्वत सुख चाहिए जो मात्र वीतराग प्रभु का स्मरण एवं उपासना करने से ही प्राप्त हो सकेगा।
गुरुदेव की साधुक्रिया भी कठिन थी। जीवन भर विहार करते रहे किन्तु अपने उपकरण का बोझ स्वयं उठाते थे। वाह रे देव पुरुष । जो पौष शुक्ल सप्तमी को धरा पर आया और इसी माह की इसी तिथि को वापस परलोक सिधार गया । जीवन पर्यन्त लेखनी एवं मस्तिष्क को चैन नहीं लेने दिया । जीवनभर तप से तपाते रहे चाहे शीत लहर हो या उष्ण लू । दिन में तो क्या निशा में भी मात्र एक पहर ही शरीर को आराम देते थे।
गुरुदेव के अमृतमय विराट प्रतिभावान ग्रन्थ जो प्राणिमात्र उपकारी है उनमें सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है “श्री राजेन्द्र अभिधान" जो सात भागों में है। इस महान अद्वितीय ग्रन्थ की रचना प्राकृत, मागधी एवं संस्कृत में है जिसे पूर्ण करने हेतु साढ़े चौदह वर्ष तक दिन रात लेखनी चलती रही। इसमें साढ़े चार लाख श्लोकों का समावेश है । इस महाग्रन्थ की प्रतियां विश्व के कई राष्ट्रों में गई हैं एवं विख्यात हो रही हैं। इस महाग्रंथ के अलावा दस ग्रंथ मागधी प्राकृत में, आठ संगीत ग्रंथ तथा अन्य विशाल ग्रंथ के संकलन की कुल संख्या तिरपन है।
वाहरे गुरुदेव ! जिसने जीवन भर त्याग तपस्या में डूबी लेखनी से आत्महित-परहित किया स्वयं जलता रहा और शाश्वत रोशनी इस विश्व को ज्ञान दिवाकर दे गया । मैं उस युग पुरुष के चरणों में नत मस्तक हो सतत वन्दन करता हूँ।
समय अमूल्य है । सुकतों द्वारा जो उसे सफल बनाता है, वह भाग्यशाली है. क्योंकि जो समय चला जाता है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी वापस नहीं मिलता।
-राजेन्द्र सुरी
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पूज्य श्रीगुरुदेव एवं समाधि स्थान श्री मोहनखेड़ा
शान्तिलाल डूंगरवाल
श्रीत्रिस्तुति के श्वेताम्बर जैन समाज के संवाहक सन्मार्ग दर्शक श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के द्वारा संस्थापित श्री मोहनखेड़ा तीर्थ मध्यप्रदेश के धार जिले में स्थित राजगढ़ से एक मील दूर ही अपनी गौरव-गरिमा का जयनाद कर रहा है। संस्कृति, सभ्यता और सूजन के त्रिवेणी संगम के प्रतिरूप मध्यप्रदेश के इस पवित्र तीर्थस्थल पर हर पौष शुक्ला सप्तमी को श्रीमद् राजेन्द्र सूरिजी की जन्मतिथि एवं पुण्य तिथि मनाने हेतु हजारों से भी अधिक संख्या में नर-नारी इस पवित्र स्थान पर आकर अपने आपको कृतज्ञ करते हैं। इस पवित्र-स्थान की स्थापना श्री गुरुदेव के उपदेश से प्रभावित हो श्री संघवी लूणाजी ने इस तीर्थ की स्थापना का महत्व प्राप्त कर सं. १९३६ में निर्माण कार्य प्रारम्भ किया तथा सं. १९४० में इस तीर्थ की प्रतिष्ठा गुरुदेव श्री के हाथों हुई। वि. सं १९६३ में आप श्री ने पौष शुक्ल सप्तमी गुरुवार को अपने इस नश्वर शरीर को चार दिन पूर्व अनशन एवं समाधि लेकर त्याग दिया और इस स्थान को मालव भूमि पर पवित्र कर दिया। पूज्य श्री के पार्थिवशरीर का दाह संस्कार इसी स्थान पर किया गया। सं. १९८० में आपके समाधि स्थल पर निर्मित मंदिर में बड़े उत्साहपूर्वक प्रतिष्ठा हुई। बाद में श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरिजी ने इस तीर्थ पर अपने शेष जीवन काल को ब्यतीत किया तथा आपके स्वर्गवास पश्चात् आपका भी समाधि-स्थल पर मंदिर का निर्माण हुआ एवं प्रतिष्ठा हई। वर्तमानाचार्य श्री हैं श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरिजी। इस पवित्र तीर्थ स्थल पर समय समय पर अनेक महोत्सव एवं कार्यक्रम हए और हो रहे हैं। जिसमें सं. २०१४ को मनाया गया पंच-दिवसीय कार्यक्रम श्रीमद् राजेन्द्र सूरिजी अर्द्ध शताब्दि महोत्सव अपने आप में एक अनूठा एवं निराला कार्यक्रम था। इस अवसर पर अनेकानेक विविध कार्यक्रमों के साथ 'श्रीमद् राजेन्द्र सूरी स्मारक' ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ तथा सारे कार्यक्रम को फिल्माया भी गया।
श्री मोहनखेड़ा तीर्थस्थल में श्री आदिनाथजी प्रभु का जिनालय भी अपनी शोभा बढ़ा रहा है। इस जिनालय को वर्तमान समय में नवीन रूप दिया जा रहा है जिसका बहुत सारा निर्माण कार्य पूरा हो चुका है। यह समस्त कार्य वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी के सान्निध्य में सम्पन्न हो रहा है। देव, गुरु और सच्ची प्रभावना के स्वरूप का यह तीर्थ मालवा में अपना अनूठा स्थान रखता है। निर्माण कार्य के बाद प्रतिष्ठा महोत्सव की घोषणा माघ शुक्ला १३, २० फरवरी ७८ की जा चुकी है।
पूज्य श्री राजेन्द्र सूरीजी का जन्म सं. १८८३ की पौष शुक्ल सप्तमी गुरुवार को शुभ मंगलमय मुहूर्त में भरतपुर (राज.) में हुआ था। पिता श्री ऋषभदासजी तथा माता श्री केशरदेवी के इस रत्न का नाम बचपन में श्री रत्नराज था प्रारम्भिक जीवन आपने व्यापार व्यवसाय में जरूर बिताया परन्तु सांसारिक असारता से आप श्री का मन शीघ्र ही वैराग्य की ओर बढ़ने लगा और इसी क्रम में सं. १९०४ में यतिदीक्षा ग्रहण कर, सं. १९०९ में बड़ी दीक्षा ली एवं यति श्री रत्न विजयजी के नाम से उद्घोषित हुए। साहित्य अध्ययन में आपने काफी निपुणता ग्रहण कर ली। यति समुदाय में फैले शिथिलाचार को त्याग कर अपने पूज्य गुरुदेव श्री के पास आ गए।
सर्वगुण सम्पन्न देखकर आप श्री के गुरुवर ने आपको सं. १९२३ में आहोर (राज.) में संघ की सहमति से आचार्य पदवी दी तथा आप श्री का नामांकरण श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीजी हुआ । तथा एक वर्ष पश्चात् सं. १९२४ में श्री जावरा (म. प्र.) में क्रियोद्वार किया । त्रिस्तुतिक संघ को आपने काफी मजबूत एवं सुदृढ़ बनाया। आप श्री ने अपने जीवन काल में एक लाख से भी अधिक श्रावक बनाए तथा महावीर के इस शासन को सूचारु रूप से चलाया।
(शेष पृष्ठ ४६ पर)
राजेन्द्र-ज्योति
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श्रीमद् गुरुदेव और पाँच तीर्थ
यहां संक्षेप में उन पांच तीर्थों की महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय जानकारी प्रस्तुत है, जिनका श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने जीर्णोद्धार किया, प्राण-प्रतिष्ठा की और जिन्हें सर्वांगीण विकास की दिशा प्रदान की। १. कोरटा तीर्थ
कोरंटनगर, कनकापुर, कोरंटपुर, कणयापूर और कोरंटी आदि नामों से इस तीर्थ का प्राचीन जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है। यह राजस्थान में अहमदाबाद-दिल्ली रेल्वे लाइन पर स्थित जवाई बांध स्टेशन से बारह मील दूर है। यहां चार जिन मन्दिर हैं, जिनकी व्यवस्था श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की प्रेरणा से स्थापित श्री जैन पेढ़ी करती है--
(१) श्री महावीर मन्दिर : कोरटा के दक्षिण में स्थित यह मन्दिर प्राचीन सादी शिल्पकला का नमूना है। इसका पुनरुद्धार श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की प्रेरणा से किया गया, जिन्होंने महावीर भगवान की नूतन प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया।
(२) श्री आदिनाथ मन्दिर : यह मन्दिर सन्निकटस्थ धोलागिरि की ढालू जमीन पर स्थित है। इसमें मूलनायकजी की प्रतिमा के दोनों . ओर विराजित प्रतिमाएँ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठित नूतन बिम्ब हैं।
(३) श्री पार्श्वनाथ मन्दिर : यह जिनालय गांव के मध्य में है। इसमें श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है, जिनकी प्राणप्रतिष्ठा श्रीमद् राजेन्द्र सूरि ने की।
(४) श्री केशरियानाथ का मन्दिर : प्राचीन श्रीवीर मन्दिर के कोट के निर्माण कार्य के समय वि. सं. १९११ में जमीन के एक टेकरे को तोड़ते समय श्वेत वर्ण की पांच फीट विशालकाय श्री आदिनाथ भगवान की पद्मासनस्थ और इतनी ही बड़ी श्री सम्भवनाथ तथा श्री शान्तिनाथ की कार्योत्सर्ग मनोहर एवं सर्वांग
सुन्दर अखण्डित दो प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं। इन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठांजन शलाका सं. ११४३ में हुई थी। कोरटा के थी संघ ने श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की प्रेरणा से यह विशालकाय भव्य और मनोहर मन्दिर बनवाया है। प्रतिष्ठा-महोत्सव सं. १९५९ की वैशाख शु. ३० को श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। २. भांडवा तीर्थ
भाण्डवपुर नामक यह ग्राम जोधपुर से भीलड़ी जाने वाली रेल्वे के मोदरा स्टेशन से २२ मील दूर उत्तर-पश्चिम में चारों ओर रेगिस्तान से घिरा हुआ है । वि. सं. ७ वीं शताब्दी में बेसाला कस्बे में एक विशाल सौधशिखरी जिनालय था । नगर पर मेमन डाकुओं के नियमित हमले से लोग अन्यत्र जा बसे । डाकुओं ने मन्दिर तोड़ डाला, लेकिन प्रतिमा को किसी प्रकार बचा लिया गया । जन-श्रुति के अनुसार कोतमा के निवासी पालजी प्रतिमाजी को एक शकट में विराजमान कर ले जा रहे थे कि शकट भांडवा में जहां वर्तमान में चैत्य है, आकर रुक गया। अनेकविध प्रयत्न करने पर भी जब गाड़ी नहीं चली तो सब निराश हो गये। रात्रि में अर्द्ध जागृतावस्था में पालजी की स्वप्न आया कि प्रतिमा को इसी स्थान पर चैत्य बनवाकर उसमें विराजमान कर दो। स्वप्नानुसार पालजी संघवी ने सं. १२३३ में यह मन्दिर निर्माण कर प्रतिमा महोत्सवपूर्वक विराजमान कर दी। ___ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि जब आहोर से संवत् १९५५ में इधर पधारे, तो समीपवर्ती ग्रामों के निवासी श्रीसंघ ने उक्त प्रतिमा को यहां से उठाकर अन्यत्र विराजमान करने की प्रार्थना की; लेकिन श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने प्रतिमा को यहां से नहीं उठाने और इसी चैत्य को विधिपूर्वक पुनरुद्धार कार्य सम्पन्न करने को कहा । उन्होंने सारी पट्टी में भ्रमण कर जीर्णोद्धार की प्रेरणा दी । फलस्वरूप विलम्ब से इसकी प्रतिष्ठा का महा-महोत्सव सं. २०१० में सम्पन्न
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हो सका। वर्तमान में मन्दिर के तीनों ओर विशालकाय धर्मशाला यह तीर्थ बहुत प्राचीन माना जाता है । सं. १९१६ में एक बनी हुई है। मन्दिर में मूलनायकजी के दोनों ओर की सब भिलाले के खेत से श्री अ दिनाथ बिम्ब आदि २५ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई, प्रतिमाजी श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के द्वारा प्रतिष्ठित हैं।
जिन्हें समीपस्थ कुक्षी नगर के जैन श्रीसंघ ने विशाल सौधशिखरी ३. श्री स्वर्णगिरि तीर्थ, जालोर ।
जिनालय बनवाकर विराजमान की। प्रतिमाओं की बनावट से ज्ञात यह प्राचीन तीर्थ जोधपुर से राणीवाड़ा जाने वाली रेल्वे के होता है कि ये प्रतिमाएं लगभग एक हजार वर्ष प्राचीन हैं। जालोर स्टेशन के समीप स्वर्णगिरि नामक प्रख्यात पर्वत पर स्थित
यहां दो मन्दिर हैं । सौधशिखरी जिनालय के पास ही श्री है। नीचे नगर में प्राचीन-अर्वाचीन १३ मन्दिर हैं । पर्वत पर किले गौड़ी पार्श्वनाथ का मन्दिर है । इस प्रतिमा को सं. १९५० में में तीन प्राचीन और दो नूतन भव्य जिन मन्दिर हैं। प्राचीन महोत्सवपूर्वक श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने प्रतिष्ठित की। चैत्य यक्षवसति (श्री महावीर मन्दिर), अष्टापदावतार (चौमुख) ५. श्री मोहनखेड़ा तीर्थ और कुमार विहार (पार्श्वनाथ चैत्य हैं ।) कालान्तर में इन
धार से पश्चिम में १४ कोस दूर माही नदी के दाहिने तट पर सब मन्दिरों में राजकीय कर्मचारियों ने राजकीय युद्ध-सामग्री
राजगढ़ नगर है, यहां से ठीक एक मील दूर पश्चिम में श्री मोहनखेड़ा आदि भर कर इनके चारों ओर कांटे लगा दिये थे । विहार करते
तीर्थ है । यह तीर्थ सिद्धाचल शिव-बन्दनार्थ संस्थापित किया गया हए श्रीमद् राजेन्द्रसूरि वि. सं. १९३२ के उत्तरार्ध में जालोर पधारे
है। भगवान आदिनाथ के विशाल जिनालय की प्रतिष्ठा सं. १९४० थे। उनसे इन जिनालयों की दुर्दशा नहीं देखी गयी। सं. १९२३
में श्रीमद् राजेद्रसूरि द्वारा महोत्सवपूर्वक की गई । इस मन्दिर का वर्षाकाल भी जालोर में करने का निश्चय किया गया। श्रीमद्
के मूलनायक की प्रतिमा श्री आदिनाथ भगवान की है, जो सवा राजेन्द्रसूरि के दृढ़ निश्चय, दीर्घकालीन तपस्या और तत्परता के
हाथ बड़ी श्वेत वर्ण की है। परिणामस्वरूप तत्कालीन राजा ने स्वर्णगिरि के मन्दिर जैनों को
यहीं श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की समाधि है, जिसमें उनकी प्रतिमा सौंप दिए। श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया
स्थापित की गई है । मन्दिर की भित्तियों पर उनका संपूर्ण जीवन और सं. १९३३ में महामहोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा-कार्य भी सम्पन्न
उत्कीर्ण करने की योजना भी है। किया ।
इस तीर्थ के मुख्य मन्दिर का पुननिर्माण करने की योजना ४. तालनपुर तीर्थ
वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजयविद्याचन्द्रसूरि की प्रेरणा से तैयार की इस स्थल के तुगीयापुर, तुंगीयापत्तन और तारन (तालन) गई है, जिसके अनुसार लगभग २५ लाख रु. व्यय किये जायेंगे। पुर--ये तीन नाम हैं। यह तीर्थ अलीराजपुर से कुक्षी (धार) जाने शिलान्यास विधिवत् १९ जून, ७५ को श्रीमद् विजयविद्याचन्द्र सूरि वाली सड़क की दाहिनी ओर स्थित है।
ने संपन्न किया ।
(पूज्य श्री गुरुदेव एवं समाधि... .पृष्ठ ४४ का शेष) पूज्य गुरुदेव ने साहित्य साधना में देश में ही नहीं अपितु विदेशों आपसे कुछ ही दूरी पर वन्दना पूर्वक बैठ गया व कुछ समय पश्चात् में भी अपना एक लोकप्रिय स्थान बनाया । आप श्री ने लगभग चुपचाप चला गया । ठीक इसी प्रकार मोदरा के जंगलों में आपकी ६१ ग्रन्थों की रचना कर जैन समाज एवं समस्त पाठकों के सामने ध्यानावस्था के समय ही शिकारी ने आप पर तीर छोड़े पर आश्चर्य उच्चतम कोटि की ज्ञान ज्योति को प्रज्ज्वलित किया है। इन समस्त ...एक भी नहीं लगा। पता लगने पर कि आप मनिराज हैं तो ग्रन्थों में प्रमुख संस्कृति-प्राकृत-भाषामय ग्रन्थ का नाम है 'अभिधान चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। जिस प्रकार आप श्री की अनेक राजेन्द्र प्राकृत महाकोष' जो कि सात भागों में विभक्त है। इस घटनाएं आश्चर्यचकित कर देती हैं, वहीं दूसरी तरफ आपके द्वारा महाग्रंथराज को पूर्ण करने में लगभग चौदह वर्ष लग गए । आज की गई भविष्यवाणियां भी सत्य निकली। एक समय कहा था कि यह संमार के सभी विश्वविद्यालय में अपनी शोभा बढ़ा रहा है। आजसे १९ वें रोज कुक्षी (म.प्र.) में अग्नि प्रकोप होगा, जो कि सत्य इस महाकोष में उन समस्त बातों का उल्लेख है, जो कि जैनागमों घटित हुई। ठीक इसी प्रकार आपने आहोर संघ को प्रतिष्ठा में मिलती हैं। इस संस्कृत महाकोष का प्रथम हिन्दी भाग जो कि एक वर्ष पूर्व करवाने को कहा था क्योंकि आने वाले वर्ष अर्थात् 'अ' से प्रारंभ होता है, का प्रकाशन हो गया है इसके लेखक हैं मुनि सं. १९५६ को भयंकर अकाल पड़ने की बात कही थी। यह घटना श्री जयन्त विजयजी 'मधुकर' । ताकि समस्त जन इसका लाभ उठा भी सत्य निकली। उपरोक्त घटनाओं को आज भी इससे संबंधित सके । आचार्य श्री राजेन्द्र मुरीजी एक उच्चतम कोटि के लोकप्रिय व्यक्ति जानते हैं। कवि भी रह चुके हैं।
जन्म तिथि एवं पुण्य तिथि एक ही दिन व एक ही तिथि को पूज्यनीय आचार्य श्री की योग साधना काफी प्रबल एवं कठोर घटित होना अपने आप में एक विशिष्ट महत्व रखता है। श्री मोहन थी। आप एक सफल भविष्य वक्ता एवं चमत्कृत युग पुरुप रह खेड़ा तीर्थ भविष्य में आप श्री की याद को अमर करता रहेगा । चुके हैं। इसके कई उदाहरण हैं जो कि आप श्री के जीवन की घटना युग बदलेगा, इतिहास की धारा बदलेगी, परन्तु गुरुदेव श्री का नाम बन चुकी है, मबको आश्चर्यचकित कर देती है। एक समय जालोर अन्य पुण्यात्मा के साथ लिया जाता रहेगा । के पहाड़ों में आप श्री की ध्यानावस्था के समय एक भयानक शेर
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धन्य धनचन्द्रसूरि
रमणीय राजस्थान प्रदेश ।
रणबां के रणवीरों की जन्म भूमि । जहां एक से एक बढ़ने वाले रणवीर उत्पन्न हुए । कर्मवीर प्रकट हुए ।। और धर्मवीर भी प्रकाशमान हुए।।।
प्रकाश जैसे रणवीरों ने क्षत्र तेज का प्रकाशन किया और भारतीय संस्कृति की रक्षा की । भामाशाह जैसे कर्मवीरों ने राष्ट्र, समाज के चरणों में तन, मन, धन अर्पण करके युग और इतिहास को उज्ज्वल कर दिया।
और
आचार्य श्रीमद् विजय हरिभद्रसुरिजी और सिद्धर्षिगण जैसे धर्मवीरों ने सिद्धान्तों का अवगाहन करके धर्म का प्रचार किया, त्यागमार्ग को सुशोभित किया । साहित्य जगत को विकसित किया और मानवीय गुणों की सुरक्षा की।
इस धरा पर कितने ही देहधारी मानवी आये और गये किन्तु मात्र अंगुली पर गिने जाने वाले बहुत ही अल्पमानवी सर्वदेशीय . प्रसिद्धि को प्राप्त कर सके हैं।
सुदीर्घ प्रस्तराच्छादित पर्वतावली, सघन जंगल और मखमल सी सुकोमल धूलि से यह धरा देश विदेश में अपना अस्तित्व स्थित किये हुए है।
चित्तौड़, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, भीनमाल, सांचोर, जालोर, माण्डवपुर, नाकोडाजी, जीरावाजी, नाडोल, नाडुलाई, रातामहावीर, जाकोडाजी आदि पुनीत तीर्थभूमियां धर्मध्वजा फहराती हुई उन्नत मस्तक खड़ी दिखती हैं।
अनेक गांव नगरों में "किसनगढ़" भी प्रसिद्ध नगर था ।
जहां एक धर्ममूर्ति श्रेष्ठिवर्य रहते थे। भाग्यवन्त ऋद्धिकरणजी था उनका नाम । उनकी धर्मपत्नी थी सौभाग्यवती अचलादेवी । गोत्र था कंकु चौपड़ा। पति ऋद्धिकरण और अर्धागना अचला। कैसा सुन्दर सम्मिलन हुआ था।
दम्पत्ति की जोड़ अजोड़ थी । सुख और शांति से अपने जीवन को आराधना से उज्ज्वल बना रहे थे ।
अमनचैन था वातावरण और खशनमा था उभय का संसार । असार संसार में से भी सार ग्रहण के इच्छक कहां सार ग्रहण नहीं कर सकते? जल, दूध के संमिश्रण में से हंस दुग्धपान ही तो करता है।
दिवस व्यतीत हो रहे थे।
एक दिन ऐसा आया जो चिरस्मरणीय हो ऐसा । इतिहास के पृष्ठों पर लिखा जाय ऐसा ।। विक्रम सं. १८९६ चैत्र सुदी ४ का दिन ।
आज के दिन अचला देवी की कुक्षि से एक पुण्यात्मा ने जन्म लिया । प्रसन्नता के समाचार एक एक से आगे प्रसरित हुए । यद्यपि इस संतान के पूर्व सेठ ऋद्धिकरणजी के यहां एक पुत्र एवं एक पुत्री विद्यमान थे फिर भी इस बालक के जन्म से न जाने सभी के हृदय में उमंग और उल्लास अधिक प्रतीत हो रहा था।
संबंधीजनों ने मिलकर नाम दिया "धनराज" ।
धर्म संस्कारों की ऋद्धि के कारक "ऋद्धिकरणजी" पिता और संस्कारों की सदा के लिये अचल छाप करने वाली माता अचलादेवी के लालन पालन में बालक धनराज प्रति दिन बढ़ते गये।
वी. नि. सं. २५०३
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सुडौल शरीर और भव्य सजा में भविष्य के चित्र अवस्थित थे। धीरे-धीरे पैर रखते धनराज कुछ बोलना सीखे। माता-पिता ने एक दिन शुभ समय पर उन्हें पढ़ने के लिये स्कूल में दाखिल किया ।
अध्यापकों को बालक का अनुभव होता गया और बालक धनराज अपनी अनोखी प्रतिभा से शिक्षकों के प्रियपात्र बन बैठे
1
पुण्य का उदय । चरित्र की आराधना और अनुकूल सुयोग । ये सब जब इकट्ठे हो जाते हैं तब विचार और प्रवृत्तियां अपना मार्ग आप ही खोज लेती हैं और निर्णय ले लेती हैं ।
अभ्यास करते करते धार्मिक ग्रंथों का पठन और श्रवण भी प्रारम्भ रखा। अनेक दुखों से परिपूर्ण इस संसार में कोई भी जीव सुख या शांति प्राप्त कर ही नहीं सका है। जो भौतिक का त्याग करता है उसे ही आध्यात्मिकता की प्राप्ति होती है। इन सभी विचारों के कारण धनराज का मन संसार भाव से विरक्त होकर संवेग के रंग में रंगा जा रहा था ।
देवसूरगच्छीय धानेरा की श्री पूज्य गद्दी के यतिवर्य श्री लक्ष्मी विजयजी का जागृत हृदय धनराज को सुयोग मिला। वासना पर विजय प्राप्त करके आत्म परिणाम त्याग के राग में अधिक बुढ़ बने ।
जिसे जो इष्ट होता है, समय आने पर वह उसे प्राप्त हो ही जाता है । पुरुषार्थ और प्रारब्ध दोनों अपने आप में अकेले कुछ नहीं कर सकते । पर जब दोनों ही मिल जाते हैं तब व्यक्ति की आकांक्षा किसी दिन अधूरी नहीं रहती ।
यतिवर्य श्री लक्ष्मीविजयजी के सदुपदेश के प्रभाव से पुण्यवान अपने निर्णय में विशेष दृढ़ बने और अन्त में सर्वसम्मति से संवत् १९१७ वैशाख शुक्ला ३ के दिन धानेरा में यतिवर्य श्री लक्ष्मीविजयजी के पास धनराज ने यतिदीक्षा अंगीकार की। भाई धनराज अब बने-यतिवर्य श्री धनविजयजी ।
संस्कृत एवं प्राकृत का गहरा अध्ययन किया । न्याय और तर्क में अपूर्व सिद्धि प्राप्त की । सैद्धांतिक और आगमिक ज्ञान भी विशाल रूप में प्राप्त किया ।
1
अब जरूरत थी दार्शनिक और परमागम का ज्ञान प्राप्त करने की । इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए श्री धनविजयजी कटिबद्ध बने उस समय दफतरी यतिश्रेष्ठ श्री रत्नविजयजी (श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज) आहार की गड़ी के पूज्य श्री प्रमोद सूरीश्वरजी के प्रधान शिष्य थे। वे धीरविजयजी, प्रमोदरुचिजी आदि अनेक यतियों को आगमिक गहन अध्ययन और अथ से इति तक बोध कराते थे। उन्हीं के प्रभाव से श्री धीरविजयजी श्री पूज्य पदवी प्राप्त करके श्री धरणेन्द्रसूरिजी बने थे ।
श्री धनविजयजी की भावना उन्हीं के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रबल बनी। वे श्री दफतरी श्री रत्नविजयजी महाराज के पास अभ्यास करने के लिए पहुंच गये ।
४८
कई यति आगम का अध्ययन सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम रूप से करते थे, कई न्याय और तर्क का अभ्यास करते थे तो कई ज्योतिष और काव्यालंकार में प्रगति करते थे। श्री घनविजयजी आगम के अध्ययन में जुट गये 1
सबके सब विद्यार्थी प्रथम नम्बर में उत्तीर्ण नहीं होते, उसी प्रकार यतिओं में भी मंद, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम बुद्धि वाले यति थे ।
अध्ययन के दौरान श्री धनविजयजी दफतरी श्री रत्नविजयजी से बार बार पूछते-- महाराज श्री ! दशवेकालिक में विवेचित साध्वाचार के अनुसार अपना आचरण तो नहीं है। क्या वह विवेचन सिर्फ ग्रंथों के पृष्ठमात्र भरने के लिए ही है या हम लोगों के लिए भी है ?
और भी सुनिए पूज्य श्री ! आचारांग के आदेश और अपने आचरण में क्या रात और दिन का अन्तर नहीं है ? फिर क्या वह केवल पठन मात्र के लिए ही है या व्यवहार में लाने के लिए भी है ?
स्वामिन् । त्याग और राग दोनों में मानो उन्मेद हो गया है। ऐसा आपको महसूस नहीं होता ? क्या हम लोग राग के त्यागी होने के बदले राग के रागी नहीं बने हैं? आप जो अध्यापन कराते हैं वह कुछ और है और जो हम आचरण में लाते हैं वह कुछ और ही है। यह कैसी विसंगति है ?
ये बातें सुनते ही पूज्य श्री बोले-
धन्य धनविजयजी । लगता है, तुम्हें भी वर्तमान स्थिति अखरने लगी है। मैंने तो पहले से ही निर्णय कर लिया है कि समय आते ही क्रियोद्धार करना है और इस सीमातीत शिथिलता को दूर करना है ।
महाराज श्री ! यदि आप विशुद्ध साधु जीवन जीने के विचारों दृढ़ हैं तो मैं भी आपके ही मार्ग का अनुसरण कर आपका चरणकिंकर बना रहूंगा ।
घाणेराव के विजयजी
इस प्रकार देखते-देखते कुछ वर्ष बीत गए । चातुर्मास में भी पूज्य धरेन्द्रसूरिजी और दफ्तरीजी में वाद विवाद हुआ। मतभेद के कारण रत्नविजयजी अपने गुरु के पास गये । श्री प्रमोदसूरिजी ने उन्हें श्री पूज्यपद प्रदान किया । इस प्रकार श्री रत्नविपी श्री पूज्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज बने ।
यदि परम्परा की घोर शिथिलता को हटाने के लिए श्री पूज्य के पास कलमनामा मंजूर कराकर संवत् १०२४ में जावरा (म. प्र. ) में उन्होंने क्रियोद्वार किया। उन्हीं के हाथ से यतिवर श्री धनविजयजी, श्री प्रमोदरुचिजी आदि कई यतियों ने क्रियोद्वार किया और उनको गुरु के रूप में स्वीकार किया ।
अब मुनिराजजी श्री धनविजयजी महाराज उत्कृष्ट क्रियापालक बने । सद्गुरु के आश्रय में विशुद्ध चारित्र पालन में दृढ़ बनते गये । प्रथम चातुर्मास खाचरोद (म. प्र. ) में गुरुदेव के साथ
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श्रीमद् भूपेन्द्र सूरीश्वरजी
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श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी
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श्री धनविजयजी महाराज मन ही मन व्यथित हो रहे थे।
संघ इकट्ठा हुआ । गुरुदेव श्री के उत्तराधिकारी के रूप में सर्वानुमति से उपाध्याय मुनिराजजी श्री धनविजयजी महाराज को चुना गया। वि. सं. १९६५ में जेठ सुदी ११ के दिन जावरा (म. प्र.) में चतुर्विध संघ की साक्षी से उपाध्यायजी को आचार्य पद प्रदान किया गया । जन समूह में आचार्यदेव श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का जयनाद गूंजने लगा। उनकी जय जयकार से गगन मंडल भी गुंजित हो गया।
बाल से लाल, लाल से धन और धन से धनचन्द्र सूरीश्वरजी के उच्च पद पर आप आसीन हुए।
गच्छ समुदाय को सुन्दर मार्ग दर्शन करते करते आप स्वश्रेय की आराधना में लीन रहने लगे।
आचार्य श्री द्वारा रचित निम्नलिखित पूजाओं में उनकी विद्वत्ता के दर्शन होते हैं यथा-समकित अष्टप्रकारी पूजा, समकित सदसठ भेदी पूजा, अष्टप्रवचन माता पूजा, बारह भावना पूजा, समवसरण पूजा, विशंति स्थानक पूजा और जिनेन्द्र पंच कल्याणक पूजा।
गच्छ की धुरा को वहन करते-करते प्रतिष्ठा अंजन शलाका, उपधान, उद्यापन आदि विविध प्रकार की प्रवृत्तियों से आप जीवन को धन्य बना रहे थे।
ही किया। इसी बीच मुनिश्री धनविजयजी को मगसर सुदी ५ को उपाध्याय पद प्रदान किया गया।
सकलागम रहस्य के ज्ञाता उपाध्याय श्री धनविजयजी महाराज की प्रतिभा और ज्ञान शक्ति गजब की थी। गुरु शिष्य का युगल बड़ा प्रभावी था।
आगम समुद्र का मंथन किया और अनेक प्रमाण पाठ इकट्ठे किये । इस प्रकार उन्होंने गुरुदेव श्री के सिद्धान्तों का दृढ़ता से प्रतिपादन करना शुरू किया।
व्रती को अवती की आशा रखनी नहीं चाहिये । ब्रती को अव्रती की स्तुति करनी नहीं चाहिये । यदि व्रती अव्रती की स्तुति करता है तो वह व्रती के व्रत की अवहेलना है। अरे, वीतराग की आज्ञा का भी खण्डन है।
गुरुदेव के साथ में बिहार करके और स्वतंत्ररूप से भी विहार करके उपाध्यायजी ने गुरुदेव का संदेश गांव-गांव में घर-घर पहुंचाना शुरू किया।
मालवा, नेमाड़, मेवाड़, गोडवाड, मारवाड़, गुजरात, कच्छकाठियावाड़ आदि प्रदेश उनका प्रमुख विहार क्षेत्र बन गया।
उन्होंने देव-गुरुधर्म के स्वरूप के साथ-साथ निश्चय और व्यवहार का स्वरूप भी समझाना शुरू किया। उनके पास बड़े-बड़े प्रश्नकार आने लगे। अनेक विद्वानों के पत्र समाधानार्थ आने लगे। प्रत्येक को संतोषप्रद उत्तर देने में उपाध्यायजी अजोड़ निष्णात थे।
उन्होंने जो गद्य ग्रन्थ लिखे उनमें प्रमुख--जैन जन मांस भक्षण निषेध, विधवा पुनर्लग्न निषेध, प्रश्नामृत प्रश्नोत्तर तरंग और चतुर्थ स्तुति निर्णय शंकोद्धार । ये सब ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण और सर्वजन ग्राह्य हैं।
उनकी काव्य शक्ति भी असाधारण थी। उनके द्वारा रचित सावन सज्झायो में अध्यात्मभाव भरा है, पद-पद पर आत्मभाव और जैनशासन की अलौकिक संकलना अत्यन्त पठनीय और मननीय है।
समय-समय का काम किये जा रहा था । संवत् १९६३ का वर्ष था पोष सुदी ७ का दिन था । आप श्री भीनमाल में व्याख्यान दे रहे थे । सभा मण्डप पूरा-पूरा भरा हुवा था । अचानक खबर आई कि पूज्य गुरुदेव का राजगढ़ में स्वर्गवास हो गया है। वज्राघात सम संवेदनीय समाचार से उन्हें असह्य वेदना हुई परन्तु आप भी तो ज्ञानी थे। संयोग और वियोग तो चलते ही आये हैं ।
आपने निर्णय किया । बस अब तो गुरुदेव के सिद्धान्त को अधिक वेगवान बनाने में यह जीवन समर्पित करना है।
छत्र गिर गया । आधार अलग चला गया। क्या ऐसे गुरु फिर कभी मिल सकेंगे? गुरुदेव ? आप में राग का त्याग और त्याग का राग था। मैं निराधार था । आधार मिला जरूर पर फिर निराधार हो गया ।
उपाध्यायजी श्री गुलाबविजयजी महाराज, मुनिराज श्री हंसविजयजी महाराज, मुनिराज श्री तीर्थविजयजी महाराज जैसे अनेक भाविकों को चारित्ररत्न प्रदान करके आत्मोद्धार के मार्ग की ओर आगे बढ़ाया।
संवत् १९७७ का वर्ष । पूज्य आचार्य देव अपने शिष्य मंडल के साथ बागरा (राजस्थान) में चातुर्मास संपन्न कर रहे थे। संघ में आनन्द-मंगल फैल रहा था।
भाषाढ़ मास मेघों की गड़गड़ाहट सुनाते-सुनाते चला गया । सावन आया और बरसात की बूंदों से भूमि को पवित्र करता गया । अब आया भाद्रपद मास ।
आराधना का है यह मास । सभी लोग आराधना में मग्न थे। गांव में गणनायक आचार्यश्री का चातुर्मास हो तो ऐसे लाभ से कौन वंचित रह सकता है ? बागरा में मानो चतुर्थ आरा ही प्रवर्त्त रहा था।
पर्युषण पर्व के चार दिन बीत गये। महावीर जन्मवाचन का दिन आया । आचार्य श्री मानो अपनी तैयारी में लग गये। वे स्वर्गीय गुरुदेव का स्मरण करने लगे और परमेष्ठी भगवंतों की शरण ग्रहण करने लगे। उस समय जनसमाज मध्यान्ह की तैयारी में था। पर अचानक यह समाचार मिलते ही थोड़ी ही देर में श्रमणवृन्द, श्रमणीवृन्द और श्रावक-श्राविकाओं का समूह उपाश्रय में उपस्थित हो गया।
(शेष पृष्ट ५३ पर)
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आचार्य विजय भूपेन्द्रसूरिजी
मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, ज्योतिषाचार्य
भोपाल मध्यप्रदेश के प्रमुख शहरों में से एक है और यह अपने सरोवर के लिए प्रसिद्ध है। कहावत भी है कि:--
"ताल तो भोपाल ताल और सब तलैया" इसी भोपाल शहर में श्री भगवानजी नामक एक माली रहते थे। उनकी पत्नी का नाम सरस्वती था। दोनों पति-पत्नी मेहनती जीवन जीते थे और सुखपूर्वक अपना जीवन बिताते थे। उनका व्यवसाय था माली का । अत: वे फूल और फूलमालाएं बनाकर बेचते थे। दोनों सात्विक ढंग से जीवन यापन करते थे और भगवान के भजन में अपना शेष समय व्यतीत करते थे।
समय बीतता गया । संवत् १९४५ को बैशाख सुदी ३ के दिन सरस्वती की कोख से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। पुत्र जन्म के कारण माता-पिता को बड़ी प्रसन्नता हुई। माता-पिता ने पुत्र का नाम देवी चन्द रखा । द्वितीया के चन्द्रमा की तरह देवीचन्द दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। देवीचन्द के एक भाई थे गितका नाम था कुशलचन्द्र और एक बहन थी जिसका नाम था गंगाबाई। देवीचन्द के भाग्य में माता का सुख अधिक नहीं लिखा था अतः उसके बचपन में ही उसके माता का देहावसान हो गया। देवी चन्द निराधार हो गया।
छह साल की उम्र में देवीचन्द को श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। श्रीमद् के दर्शन से उसे परम शांति प्राप्त हुई। इतना मजबूत आधार पाकर उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठी। वह उनकी सेवा में रहने लगा। साल भर गुरु महाराज के साथ विहार कर और उनके प्रवचनादि सुन कर उसने आवश्यक धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया । अब वह भागवती प्रव्रज्या का ध्यान करने लगा। उसके मन में महाव्रत धारण करने की भावना प्रबल हो उठी।
सात वर्ष की उम्र हो चुकी थी। श्रीमद् उसकी दीक्षा के प्रति तीव्र अभिलाषा देख कर उसे दीझा देने का निश्चय किया। गुरुदेव ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। उन्होंने दीक्षा का शुभ मुहूर्त निकाला और संवत १९५२, वैशाख सुदी ३ को अलिराजपुर नगर में बडी धूमधाम के साथ विशाल जन-समूह की साक्षी में देवीचन्द को भागवती दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के बाद उसका नाम मुनि दीपविजय रखा गया। अब वे हमेशा गुरुदेव के साथ विहार करने लगे
और उनके पास संस्कृत व हिन्दी एवं जैन शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। दीक्षा के दो साल बाद श्रीमद् गुरुदेव ने आपको आहोर नगर में जैन संघ की साक्षी से बड़ी दीक्षा प्रदान की। संवत् १९५४ की माघ सुदी ५ का वह दिन था। इस प्रकार आप में मुनि जीवन के अनुरूप गुणों का विकास क्रमशः होता गया। आपने गुरु महाराज के साथ राजगढ़, जावरा, रतलाम, आहोर, शिवगंज, सियाना, कुक्षी और खाचरौद नगर में चातुर्मास किया । आपने हमेशा अपने गुरु की सविनय सेवा-भक्त की। गुरुदेव के स्वर्गवास के पश्चात् आप उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी महाराज के साथ रहे और उनके साथ दस चातुर्मास किये। बीस चातुर्मास आपने स्वतंत्र रूप से अलग-अलग गांवों में किये।
श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के बाद विजय धनचन्द्रसूरिजी द्वितीय पट्टधर बने। श्री धनचन्द्रसूरिजी महाराज के स्वर्गवास के बाद श्री संघ ने आपको आकार्य पद प्रदान करने का निश्चय किया। तदनसार संवत् १९८० ज्येष्ठ सुदी ८ को शुक्रवार के दिन आपको आचार्य पद प्रदान किया गया और आपको श्रीमद् विजय भुपेन्द्र सूरि के नाम से घोषित किया गया। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के आर तृतीय पट्टधर बने।
आप मागवी, संस्कृत और हिन्दी के पारंगत विद्वान् थे। आपका आगमिक अध्ययन भी बहुत गहरा था। इसी कारण आप आगम
(शेष पृष्ठ ५५ पर)
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राजेन्द्र-ज्योति
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समतासागर भूपेन्द्रसूरि
मनोहर मालव देश
भारतवर्ष का मध्यभाग है यह इसीलिये इसे मध्यप्रदेश कहा जाता है।
वांछित वर्षा होती है यहां । व्यापारी और किसान सुख-शांति से जो भी प्राप्त होता है उसी में सन्तोष मानते हैं।
उस समय लोगों की ऐसी तृष्णा नहीं थी कि उन्हें यंत्रवत् बनना पड़े।
इसी मालव भूमि का पुराना जगप्रसिद्ध शहर है भोपाल । लोक जिव्हा पर यह ताल भोपाल के नाम से भी प्रसिद्ध है।
सुविशाल है वहां सरोवर । मानो समुद्र ने ही बाल रूप में वहां विश्राम लिया है। कहावत भी है-ताल तो भोपाल ताल अन्य सब तलैया। इसी विशाल सरोवर के कारण भोपाल जन साधारण की नजरों में समाया हुआ है। __ सब जाति के लोग यहां रहते हैं अपना-अपना भाग्य आजमाते हैं और रोजी-रोटी प्राप्त करते हैं।
जैन और ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र । सब एक दूसरे से मिलजुलकर रहते हैं।
इसी भोपाल में बसते थे भाग्यशाली भगवानदास । माली थे अत: फूल की सुगंध फैलाना ही उनका व्यवसाय था। सुगंध का वितरण और दुर्गन्ध का निष्कासन ही उनकी प्रवृत्ति थी।
पुण्यवती सरस्वती उनकी अर्धांगिनी थी।
साक्षात् सरस्वती समान पत्नी का सहयोग भगवानदास का उत्साह बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।
एक दूसरे के प्रति सहयोग की तैयारी रखना, सुख में सुखी और दुख में दुखी न होते हुए सम स्थिति में रहना और संतोषपूर्वक जीवनयापन करना ही उनका प्रमुख ध्येय था।
भगवान के घर सरस्वती, कितना सुन्दर योग। सचमुच असाधारण था यह योग भगवान की भावना और सरस्वती का तदनुसार निर्माण आदर्श दाम्पत्य का सबूत था।
भगवान के घर जन्म लेने के लिए भी पुण्योदय ही चाहिये सरस्वती की गोदी में खेलने वाला कोई विरला ही हो सकता है।
विक्रम की बीसवीं सदी के चार दशक बीत गये। विक्रम संवत् १९४४ चल रहा था। उस समय ।
सरस्वती की कोख को सौभाग्यमान करने वाले नररत्न के गर्भावतरण के चिह्न दिखाई देने लगे।
जब किसी धार्मिक प्रवृत्ति की बातचीत चलती तब वह पुण्यवती उसमें आकंठ डूब जाती। उसे इन बातों में बहुत आनन्द आता।
वैशाखी तृतीया का दिन आया । त्यौहार का दिन है यह अक्षय तृतीया । धार्मिक श्रद्धावान लोग हर्षित होकर इस त्यौहार को भावपूर्वक मनाते हैं और अक्षय पद प्राप्ति की इच्छा करते हैं।
इसी पुनीत दिन सरस्वती की कोख से सर्वलक्षण सम्पन्न एक बालक का जन्म हुआ।
बड़ी खुशी हुई सब को। भगवान और सरस्वती के भाग जाग गये।
लाड़ले इस लाल का नाम भी ऐसा ही रखा गया। देव का चन्द्र अथवा देवों में चन्द्र अर्थात देवीचन्द ।
जैसे अक्षय तृतीया का चन्द्र प्रकाशमान होते होते सोलह कलाओं से प्रकाशमान होता है वैसे ही देवीचन्द भी दिनोंदिन वृद्धिगत होते गये।
सरस्वती के संस्कारों की छाप अमिट थी। भगवान की प्रवृत्तियों का सुन्दर सहवास था। माता-पिता की प्रकृति और प्रवृत्ति
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ही बालक के जीवन निर्माण में पहली ईंट बनती है । उसी के आधार से सारी जिन्दगी के मकान का प्रश्न जुड़ा हुआ है ।
परिणामस्वरूप भाग्यशाली देवीचन्द की दीप्ति प्रकाशमान वनती जा रही थी । विधि के विधान और व्यक्ति के विचारों का मेल बिठाना बड़ा कठिन है। यदि मनचाहा हो जाता तो मनुष्य न जाने क्या क्या कर बैठता ? मनुष्य सबको देख सकता है केवल काल को नहीं देख सकता । अपने भाग्य की समझ में न आने वाली कला को नहीं परख सकता ।
देवीचन्द की लघु वय में ही भगवान भगवान के प्यारे हो गये और सरस्वती ने भी हमेशा के लिए बिदा ले ली।
उस समय भगवान सरस्वती के इस लाल की उम्र केवल छः साल की थी। उम्र और कद की ओर क्या देखना ? उसका भाग्य ही उसकी प्रतिभा दिग्दर्शित कर रहा था ।
धर्मरंग में रंगे पारेख केसरीमलजी के साथ बालक देवीचन्द का सम्मिलन हुआ । बाप-दादा ने हीरे और रत्न परखे थे। इस पारेख ने नररत्न को परखा। मिलकर बातचीत की। पारेख को लगा कि उस बालक की अंतरात्मा संसार के प्रति उदासीनता का अनुभव कर रही है किसी सद्गुरु के शरण की अभिलाषा इस बालक के अंतर में जाग रही है।
गुरुदेव तो ज्ञानी हैं। यह बालक उनके शासन को शोभायमान कर देगा। इसे ले जाऊं और गुरुदेव के दर्शन करा लाऊं । यह सोचकर और देवीचन्द की भावना जानकर श्री केसरीमलजी उसे अपने साथ गुरुदेव के पास ले गये ।
गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । पुण्यश्लोक, पवित्र आत्मा । सच्चे साधक और सच्चे पथदर्शक ।
उनके दर्शन होते ही देवीचन्द प्रसन्न हो गया। गुमी हुई वस्तु की प्राप्ति से होने वाले आनन्द से भी अधिक आनन्द उसे इस दर्शन से प्राप्त हुआ ।
गुरु मिले और भाग्य भानु प्रकाशित हो गया ।
गुरुदेव श्री ने भाग्य रेखा और शरीराकृति देखी। परीक्षा कर ली और आगमन संबंधी पूछताछ की। बालक ने सवालों का ठीक से जवाब दिया और अपने पास रखने की प्रार्थना की।
सच्चे
भावी भावज्ञाता पूज्य गुरुदेव ने यह जान लिया कि फूल माली का यह फूल जिन शासन सौरभ फैलाये बिना नहीं रहेगा। अतः उन्होंने अपनी अनुमति दे दी।
देवीचन्द तो अभी केवल सात वर्ष के ही थे फिर भी उत्कृष्ट क्रियापालक पूज्य गुरुदेव श्री की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। भाव यद्यपि हृदय में होता है फिर भी प्रवृत्ति में उसकी झलक आये बिना नहीं रहती । केवल प्रशस्त प्रवृत्ति में ही रमने वाले इस बालक को दीक्षा प्रदान करना निश्चित हुआ ।
त्यागोत्सव मनाने का लाभ लेने का निर्णय किया अलीराजपुर के जैन संघ ने गुरुदेव से प्रार्थना की गई। संवत् १९५२ का वैशाख
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सुद ३ ( अक्षय तृतीया) का शुभ मुहूर्त निश्चित किया गया। अधिकृत घोषणा होते ही सर्वत्र आनन्द छा गया।
अष्टाहिका महोत्सव के साथ चतुर्विध संघ की साक्षी से देवीचन्द को भगवती दीक्षा प्रदान की गई। अब देवीचन्द मुनिश्री दीपविजयजी महाराज बने । बालमुनि का प्रसन्न मुखाविन्द और शांत प्रकृति सबका मनहरण कर रहे थे ।
गुरुदेवश्री के सान्निध्य में अभ्यास तो जारी ही था पर अब वह विशेष वेग से करना था इसलिये संपूर्ण प्रमाद का त्याग करके आप आत्महित कारक प्रवृत्ति में ही मग्न रहने लगे।
बालक से बालमुनि बने और अब बने विद्यार्थी मुनि। उन्होंने ज्ञानार्जन को ध्येय बनाया और गुरुदेव श्री के स्वमुख से ही साध्वाचार का ज्ञान प्राप्त किया तथा आगम सूत्रों का गहन अध्ययन किया।
लघु वय होते हुए भी स्फूर्ति विद्यापिपासा, विनय, विवेक और शांत स्वभाव आदि विशेष गुणों से महान प्रतीत होते ये मुनि सबके लिए आशास्पद और प्रेरणामूर्ति बने थे ।
युग लगभग व्यतीत हो गया। इसी दौरान संस्कृत, प्राकृत, काव्य, न्याय, अलंकार का ज्ञान प्राप्त किया तथा अन्य दार्शनिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में खूब विकास किया ।
जिनकी आप पर छत्रछाया थी और मातृपितृ हृदय का वात्सल्य जिनकी ओर से आपको मिला था ऐसे परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज संवत् १९६३ पौष सुदी ७ के दिन राजगढ़ ( मालवा ) में दिवंगत हुए।
माता-पिता के वियोग के बाद जिन्होंने आपके हृदय को शांति प्रदान की वे भी आज आपके आगे से चले गये। पुद्गल गया पर गुरुदेव की मूर्ति मुनि श्री के हृदय मंदिर में प्रतिष्ठित हो गई।
श्री संघ ने एकत्रित होकर उपाध्याय श्रीमद् धनविजयजी को आचार्य पद से अलंकृत किया। गच्छपति के आदेश का अपने हितार्थ पालन करते हुए पूज्य मुनि श्री संयम पालन में दृढ़ बनते गये ।
ज्ञान के सागर, ध्यान के आकार, शांति के अवतार मुनिश्री हर एक के हृदय में बस गये थे ।
धीर-गंभीर मुनिश्री की विद्वत्ता विकसित होती गई । काव्य और साहित्य में आपने असामान्य सिद्धि प्राप्त की। दूर स्थित व्यक्ति की काव्य रचना में कहां कौनसा दोष है यह वे केवल उच्चारण श्रवण मात्र से बता सकते थे। साहित्यिक अशुद्धियां मात्र पहली नजर में ही आप बता देते थे। इसी कारण आप पंडित मण्डल के प्रियपात्र बन गये थे ।
परिणामस्वरूप विक्रम संवत् १९७६ में विद्वत्समाज ने मुनिधी को साहित्य विशारद, विद्याभूषण जैसी विशेष पदवियों से अलंकृत किया ।
राजेन्द्र ज्योति
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संवत १९७७ भाद्रपद सुदी १ के दिन श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का बागरा में स्वर्गवास हो गया ।
चतुर्विघ संघ ने इकट्ठे होकर सर्वानुमति से मुनिराज श्री को जावरा ( मालवा ) में संवत् १९८० में आचार्य पद से सुशोभित किया। साथ ही नाम में भी परिवर्तन किया गया। परिवर्तित नाम बा-श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
गणाधीश पद पर विराजमान होने के बाद श्रीमद् में शांति, गांभीर्य आदि गुण और भी बढ़ते गये। तेज और प्रताप विकसित होते गये। गणनायक की प्रतिभा सर्वत्र प्रकाशित होने लगी । स्वपर गच्छीय श्रमणवृन्द में अनोखा स्थान पाये आचार्य हुए श्री की विद्वत्ता सुज्ञजनों को आकर्षित करती थी ।
तीर्थंकर देवों द्वारा स्थापित जैन शासन अनादिकाल से यथावत् चलता आया है और चलता रहा है। देशकाल के कारण चतुविध संघ के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग में कई बार जटिलता भी निर्मित हो जाती है, उत्सर्ग और अपवाद मार्ग में उलझन पैदा हो जाती है। उस उलझन को सुलझाने के लिए श्रमण प्रधान शासन के अमणों को हमेशा तैयार रहना चाहिये।
वि. सं. १९९० में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ का विशाल सम्मेलन राजनगर-अहमदाबाद में हुआ था। हर गच्छ के प्रमुख गणनायक वहां पहुंचे थे । विचारणीय बातों पर चर्चा और उनके निर्णय की बड़ी भारी जिम्मेदारी थी वहां जाने वाले के सिर पर ।
अपने गम के अधिनायक पूज्यवर श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज भी अपने परिवार के साथ, अपने शिष्यगण के साथ वहां पहुंचे ।
सम्मेलन में अनेक प्रश्नों और विचारों का आदान-प्रदान होता था। बार-बार सामने आने वाली किसी भी उलझनभरी क्रिया-प्रक्रिया को अपनी विद्वत्ता से आचार्य श्री सुलझाते थे। इतना ही नहीं पर मध्यस्थ दृष्टा के समान हर विषय में अपना सर्वग्राही मन्तव्य प्रकट कर वे हर एक के आदरणीय बन गये ।
सम्मेलन की पूर्णाहुति के समय एक समिति बनाई गई। उसका काम सिद्धान्त के प्रति होने वाले आक्षेपों का उत्तर देना था और सामाजिक प्रश्नों को हल करना था। इस समिति में पूज्य गुरुदेव ( धन्य धनचन्द्रसूरि अर्हम्, अर्हम् के उच्चारण के साथ आचार्यश्री की आत्मा नश्वर शरीर को त्याग कर परलोक के पुनीत पथ पर प्रयाण कर गई ।
आचार्य श्री के महाप्रयाण से संघ में शोक छा गया । रूप धारण कर आता है तब उसके सामने किसी का बस नहीं चलता ।
आसपास में दूर-दूर तक समाचार पहुंच गये । जनसमूह बागरा की धरती पर उमड़ पड़ा। गांव के बाहर दक्षिण दिशा में लोगों ने अभीनी आंखों से उनके पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार किया ।
जय हो । अमर रहो। इन गगनभेदी नारों से आकाश गूंज उठा। सब अपने-अपने स्थान पर लौट आये ।
बी. नि. सं. २५०३
को भी स्थान मिला था। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव लोक हृदय में बस गये ।
साहित्य क्षेत्र में भी आप श्री ने अजोड़ काम किया। परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा लिखित श्री अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादन आप श्री एवं पूज्य मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी महाराज ने किया और उसे प्रकाशित करवाया। अभिधान राजेन्द्र कोश अखिल विश्व में बेजोड़ कृति है।
श्री चन्द्रराज चरितम्, दृष्टान्त शतकम्, शान्त सुधारस भावना आदि ग्रन्थ आपके पांडित्य के प्रबल प्रमाण हैं ।
जिनेन्द्र गुण मंजरी, आपकी कवित्व शक्ति का प्रबलतम प्रमाणपत्र है ।
अनेक प्रतिष्ठांजन शलाकाएं, उद्यापन, उपाधान आदि जो कार्य आपने करवाये वे सब आपकी शासन रसिकता के ज्वलंत दृष्टान्त हैं ।
मुनिराज श्री दानविजयजी एवं मुनिश्री कल्याणविजयजी, तत्वविजयजी और चारित्रविजयजी आपके सुशिष्य थे ।
आपने हमेशा आराधना और साधना में निरत रहकर जिन्दगी की एक-एक पल शासन सेवा और आत्मोद्धार के कार्य में लगाई । ऐसे प्रबल प्रतापी, शांति के अवतार समान आचार्य श्री अपने इष्ट देव का ओम अर्हम्, ओम् अर्हम् का जाप जपते स्वस्थ चित्त से संवत् १९९३ में माघसुदी ७ के दिन आहोर नगर में आपका स्वर्गवास हुआ ।
आहोर के भाविकों ने भव्य शिविका का निर्माण किया। बड़ी धूमधाम के साथ आचार्य श्री के पार्थिव शरीर का अग्निसंस्कार किया, उन्होंने वहां एक सुन्दर समाधि मंदिर भी बनवाया। उस मंदिर में श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीजी महाराज, श्रीमद् विजय घनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज और श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की प्रतिमाओं की स्थापना की ।
जैसे उदित होने वाला सूर्य अस्ताचल का भी आश्रय लेता है उसी प्रकार आचार्य श्री भी देहरूप से पार्थिव रूप से, हमेशा के लिए हमसे विदा हो गये पर अक्षर देह से बहुत कुछ दे गये हैं। ऐसे शांति के अवतार को हमारा शतशत बार वंदन हो । --'सोनेरी संभारण' से साभार अनूदित | O
पृष्ठ ४९ का शेष)
बागरा जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ ने भव्य समाधि मंदिर का निर्माण किया और उसमें आचार्य श्री की सुन्दर मूर्ति की स्थापना प्रतिष्टा उत्सव के साथ की।
आचार्य श्री गये अवश्य, पर अपनी गुण-गरिमा संसार के लिए छोड़ते गये ।
वे खुद धन्य बन गये और दूसरों को भी धन्य बना गये । आज भी जन गण मन में यही आवाज गूंज रही है
धन्य धन्य धनचन्द्रसूरि, वंदन नमन शत शत बार ।
-- सोनेरी संधारणा से साभार अनूदित
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श्री प्रकाश पुञ्ज यतीन्द्र
आज से करीब ९५ वर्ष पहले की बात है जब आज की तरह का राज्य नहीं था वरन् अलग-अलग रियासत के अलग-अलग राजा थे। उत्तर प्रदेश का एक छोटा नगर धवलपुर था। इस धवलपुर नगर में श्रेष्ठिवर्ग श्री बृजलालजी काश्यप अपनी भार्या श्रीमती चम्पाकुंवर के साथ सानन्द समय व्यतीत करते थे । इन्हीं श्रेष्ठवर्ग की भार्या की कुक्षि से संवत् १९४० कार्तिक शुक्ला द्वितीया को एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ । विधि विधानानुसार आपका नामकरण संस्कार करके रामरत्न नाम दिया गया।
धीरे-धीरे श्रेष्ठिवर्ग का पुष द्वितीया के चांद की तरह बढ़ने लगा । श्री रामरत्नजी ने अपनी अद्भुत ज्ञान शक्ति से ६-७ वर्ष की अल्पायु में ही प्रभु पूजन विधि, पंच कल्याणक, चौबीस तीर्थंकर भगवन्त एवं दशलक्षणादि पूजाओं का ज्ञान अर्जित कर लिया। छोटी सी १० वर्ष की उम्र में ही आपके माता-पिता आपको संसार में बिलखता छोड़कर महाप्रयाण कर गये। तब निराधार अवस्था में आश्रय पाने हेतु आप भोपाल अपने मामाजी के घर चले गये। भोपाल की एक घटना है कि भोपाल में एक सर्राफ के घर पर उसकी अनुपस्थिति में उसके घर की खिड़की खुली हुई थी। जिसे देखकर वहां के लोग इस बारे में आपसी बातचीत कर रहे थे। तब आप भी वहीं खड़े-खड़े उनकी बातें सुन रहे थे इतने में ही अकस्मात आपकी नजर खिड़की की ओर गई। आपने देखा कि एक व्यक्ति अपनी पीठ पर गठरी लादे खिड़की से कूद कर भागने लगा । आप पूरी बात समझ गये और “चोर-चोर" चिल्लाते हुए उसके पीछे-पीछे दौड़े। कुछ दूरी पर बड़े पुलिस वाले भी चोर को पकड़ने दौड़े परन्तु चोर भाग कर एकदम गायब हो गया । पुलिस वाले वापस लौट आये परन्तु आपने पीछा नहीं छोड़ा और उसके पीछे-पीछे दौड़ते चले गये। अकस्मात् चोर एक पत्थर की चोट खाकर गिर पड़ा। वह उठने की कोशिश करने लगा परन्तु आपने शीघ्र ही वहां पहुंच कर पत्थर की चोट से उसे निर्बल बना
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मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म. के शिष्य मुनि श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी
दिया । दैवयोग से उस समय एक पुलिस अधिकारी सैर करने उधर आ निकले। श्री रामरत्नजी ने पूरी बात इन अधिकारी महोदय को बताकर चोर को उनके सुपुर्द किया। पुलिस अधिकारी उसे गिरफ्तार करके ले गये और उसे उचित दण्ड दिया । पोटली का सामान वापस सर्राफ के सुपुर्द किया। ऐसी अद्भुत शक्ति के धनी श्री रामरत्नजी थे ।
एक दिन नाटक देखकर घर देर से लौटने पर आपके मामाजी ने आपको खूब भला-बुरा कहा व अनेक उपालम्भ दिये । आपके आत्माभिमान को बड़ी ठेस पहुंची इस बात से जागृत होकर आपने मामाजी का घर छोड़ दिया व भोपाल से रवाना होकर उज्जैन गये। वहां श्री पार्श्व प्रभु के भक्तिपूर्वक दर्शन करके महेन्द्रपुर नगर पहुंचे। जहां श्रीमज्जैनाचार्यमद्विजेय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. विराजमान थे। इनके सान्निध्य में शास्त्र श्रवण कर आपकी वैराग्य की भावना बलवती होती गई। आचार्य श्री वहां से विहार करके खाचरोद पधारे। आप भी पूज्य आचार्य देव के साथ विहार करके खाचरोद आये खाचरोद में आपने गुरुदेव श्री से विनम्र विनती करके दीक्षा लेने की हार्दिक इच्छा व्यक्त की। तब आचार्य श्री ने श्री जैन संघ खाचरोद द्वारा कृत उत्सव के साथ श्री रामरतनजी को आषाढ़ कृष्ण २ सं. १९५४ को शुभ समय में प्रव्रज्या प्रदान की। आपका दीक्षा नाम श्री यतीन्द्र विजय दिया गया। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् आप श्री गुरुदेव की सेवा करते रतलाम नगर में पधारे और प्रथम चातुर्मास यहीं किया। आप श्री ने श्री संजय श्री गिरनारजी, श्री आबूजी, श्री केशरियाजी आदि अनेक तीर्थों की तीर्थ यात्राएं की।
आप श्री की निश्रा में गुढ़ा बालोतरा से जैसलमेर का छरीपालता संघ निकाला गया। श्री पालीताना तीर्थ में आपने उपाधान तप की भव्य आराधना करवाई । धराद, रानापुर, उज्जैन, बागरा, सियाणा, आकोली आदि अनेक स्थानों पर उपाधान तप
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प्रतिष्ठा महोत्सव एवं अंजनशलाका महोत्सव कराये । खाचरोद के श्री संघ ने खाचरोद में हीरक जयन्ती समारोह का आयोजन करके आप श्री को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया। आप श्री ने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल की स्थापना की। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ भी नमणीनी तीर्थ एवं यी भांडवाडी तीर्थ में आपके सदुपदेश से श्री संघों ने तीर्थोद्धार किया। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में आप श्री की शुभ निश्रा में गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महा. साहब की अर्द्ध शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया जिसमें करीब-करीब ४० हजार जैन अजैन धर्मप्राण श्रावकश्राविकाओं ने उत्साहपूर्वक योगदान दिया ।
गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वर महाराज साहब के दिव्य ज्योति में लीन हो जाने के पश्चात् आपने गुरुदेव के रचित ग्रन्थ "श्री राजेन्द्र अभिधान कोष" को ७ भागों में प्रकाशित करवाया। जिससे देशविदेश में जैन आगम ग्रंथस्थ जिनवाणी का अद्वितीय प्रचार हुआ । और अनेक विद्वान् व्यक्तियों ने इस ग्रन्थ का स्वागत के साथ बहुयान किया 1
आपने कई नगरों में निर्विघ्न चातुर्मास किये और सांसारिक भव्य जीवों को सदुपदेश द्वारा उद्बोधन दिया । आप श्री ने अपने संयमकाल में कुल ६४ चातुर्मास किये ।
वेत्ता माने जाते थे । आपको विद्याभूषण नामक साहित्यिक पदवी भी प्राप्त हुई। आप एक अच्छे कवि भी थे। आप में सेवा भाव, परोपकार, निर्भयता, विनम्रता, गंभीरता आदि गुणों का चरम विकास हुआ था । संवत् १९९० में राजनगर अहमदाबाद में जो विशाल साधु सम्मेलन हुवा था उसमें आपके गंभीर ज्ञान से और आपके विनम्र भाव से सारा साधु-समाज प्रभावित हो गया था । यहां तक कि इस साधु सम्मेलन में जिन प्रामाणिक नौ आचार्यों की सूची तैयार की गई थी उसमें चौथे नम्बर पर आपका नाम लिखा गया था। इस प्रकार आपने अपने विशाल और गंभीर ज्ञान से तथा विनम्रता आदि गुणों से विपक्षियों के दिल को भी जीत लिया था। आप विशुद्ध संयमी जीवन जीते थे और संयमी साधुओं से ही विशेष स्नेह रखते थे ।
दीक्षा के उपरान्त आपने कई साहित्यिक, सामाजिक और धार्मिक कार्य किये । प्रतिष्ठाएं कराई और मुमुक्षुओं को दीक्षा
वी. नि. सं. २५०३
संवत् १९८० में आप श्री को जावरा में उपाध्याय पद पर सुशोभित किया गया एवं संवत् १९९५ में आप श्री को आहोर में आचार्य पद से अलंकृत किया गया। करीब १०-२० वर्षों तक अपने आचार्य पद के अनुरूप कार्य करके धर्माराधना द्वारा कई सांसारिक जीवों का उद्धार किया और जैन धर्म का मार्गानुसरण करने का प्रतिबोध दिया।
नियति के कराल काल से पौष सुदी ३ संवत् २०१७ दिनांक २१-१२-६० को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में एक युग का अन्त हो गया । आपकी आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़कर महाप्रयाण कर गई और इस तरह एक जैन जगत का चमकता सूर्य अस्त हो गया । इस प्रकाश पुञ्ज के अस्त हो जाने से जैन जगत में अंधेरा छा गया । जगह-जगह आप श्री के शोक में शोक सभा मनाई गई, श्रद्धांजलियां दी गईं। अष्टा महोत्सव के आयोजन किये गये ।
( आचार्य विजय भूपेन्द्रसूरिजी पृष्ठ ५० का शेष )
आज मोहनखेड़ा तीर्थ एक विशाल धर्म केन्द्र बन गया है, जिसकी पवित्र मिट्टी को शिरोधार्य करने के लिये प्रति वर्ष अनेकों यात्री यहां पर यात्रार्थ पधारते हैं एवं अपने जीवन को सार्थक बनाते हैं, और भविष्य में भी अपने जीवन को धन्य बनाते रहेंगे एवं स्वपर के कल्याणार्थ उनका मार्गानुसरण करते रहेंगे ।
भी प्रदान की। मुनि दानविजयजी मुनि श्री कल्याणविजयजी मुनि श्री तत्त्वविजयजी मुनि श्री चारित्रविजयजी आपके सुशिष्य थे । आपने "सिन्दर प्रकर" का सुन्दर हिन्दी अनुवाद किया है। श्री चन्द्रराज चरित्रम् आपकी श्रेष्ठतम रचना है । इतना ही नहीं अभिधान राजेन्द्र का संशोधन भी आपश्री व मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने किया था । पालीताना, गिरनार आदि तीर्थों की ससंघ यात्रा के लिए आपने धनिकों को प्रोत्साहित किया व संघ निकलवाकर धन का सदुपयोग करवाय। ।
इस प्रकार अनेक धर्म कार्य करते आप संवत् १९९३ में आहोर नगर पधारे। इसी नगर में माघ सुदी ७ के दिन आपने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया और आप स्वर्ग सिधारे । आहोर के संघ ने आपका जो समाधि मंदिर बनाया है। वह माज भी आपकी स्मृति ताजी करता है ।
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श्रीमद् राजेन्द्र सूरि : एक जीवन-गाथा
बसन्तीलाल जैन
यति जीवन
श्री प्रमोदसूरिजी श्री रत्नविजय जैसे सुयोग्य शिष्य को पाकर बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने अपने नूतन शिष्य की शिक्षा दीक्षा की समुचित व्यवस्था की। उस समय खरतरगच्छीय यति धी सागरचंद्रजी अपनी ज्ञानगरिमा के लिए विश्रुत थे अतः पूज्य गुरुदेव ने अध्ययनार्थ श्री रत्नविजयजी को यति श्री सागरचन्द्रजी के पास भेजा। छह वर्ष तक आप श्री सागरचन्द्रजी की सेवा में उनके साथ रहे और इस अवधि में व्याकरण, न्याय कोष, काव्य, अलंकार आदि का विशेष अध्ययन करके अधिकारी विद्वान बने । चरित्र तो आपके पास पहले से था ही और अब आप विद्वान बन गये । सोने में शुद्धता तो थी ही अब सुगन्ध भी आ गई। योग्यता की परख करके श्री हेमविजयजी महाराज ने संवत् १९०९ वैशाख शुक्ला ३ को आपको बड़ी दीक्षा प्रदान की और सन्यास पदवी से विभूषित किया।
प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी अस्सी वर्ष तक जीवित रहे। गृहस्थ जीवन के इक्कीस वर्ष, यति जीवन के इक्कीस वर्ष और साधु जीवन के अड़तीस वर्ष इस प्रकार कुल अस्सी वर्ष होते हैं । इन अस्सी वर्षों का लेखा-जोखा यहां प्रस्तुत है। प्रारंभिक इक्कीस वर्ष
वि.सं. १८८३ पौष शुक्ला सप्तमी को भरतपुर (राजस्थान) में पूज्य गुरूदेव का जन्म हुआ। श्रीमती केसरीबाई आपकी मां थीं और श्री ऋषभदासजी पारख आपके पिता। श्री माणिकचन्दजी आपके ज्येष्ठ भ्राता थे और प्रेमाबाई लघुभगिनी। आपका जन्म नाम रत्नराज था।
बचपन से ही आप बड़े बुद्धिमान थे, इसलिये दस साल की उम्र तक लौकिक शिक्षा में कुशल हो गये। बचपन से ही आप बड़े विनयी थे और वैराग्य भाव से ओतप्रोत थे। आपने अपने बड़े भाई के साथ केसरियाजी प्रभृति तीर्थों की यात्रा भी की। फिर आपने अपने बड़े भाई के साथ व्यापारार्थ सिंहलद्वीप-श्रीलंका को प्रस्थान किया । धनोपार्जन कर वापस लौटने के पश्चात् मातापिता की सेवा भक्ति की। उनके देहावसान के बाद आप धर्मध्यान से प्रवृत्त हुए।
उसी समय संवत् १९०२ में श्री प्रमोदसूरिजी महाराज का भरतपुर में आगमन हुआ। उनके वैराग्य रसपूर्ण व्याख्यानों से आप बड़े प्रभावित हुए । संसार की असारता, जीवन, की नश्वरता, वैभव की क्षणिकता पूरी तरह आपकी समझ में आ गई। इसी ज्ञान गर्भित वैराग्य से प्रेरित होकर आपने पूज्य गुरुदेव के सामने अपनी संसार व सांसारिक विषयों के प्रति हार्दिक अरुचि प्रकट की व दीक्षा दान की याचना की। गुरुदेव ने योग्यता की परख करके वि.सं. १९०४ वैशाख शुक्ला पंचमी को श्री हेमविजयजी से यति दीक्षा दिलवाई व श्री रत्न विजय नाम रखा ।
संवत् १९१२ के जोधपुर चातुर्मास में श्री पूज्य श्री देवेन्द्र सूरि महाराज आपकी विद्वत्ता से प्रभावित हुए और उन्होंने अपने बाल शिष्य श्री धीरविजयजी को अध्ययनार्थ आपको सौंप दिया। पांच वर्ष तक आपने धीरविजयजी और इक्कावन यतियों को विद्याभ्यास करवाया । धीरविजयजी को श्री पूज्य पद दिलाकर धरणेंद्रसुरिजी के नाम से प्रसिद्ध किये। जोधपुर और बीकानेर के राजाओं से घरणेंद्रसूरिजी ने उस समय आपको दफतरी पद दिया । दफतरी पद एक महत्वपूर्ण पद है । इस पद की प्राप्ति उस समय एक प्रकार का सम्मान समझी जाती थी। आपने धरणेद्रसूरिजी की बात मानली। साल भर उनके साथ रहे और फिर सं. १९२२ का चातुर्मास आपने २१ यतियों के साथ स्वतंत्र रूप से जालोर में किया। श्री धरणेन्द्र सूरि आपसे अलग रह नहीं सकते थे। अतः संवत् १९२३ के घाणेराव चातुर्मास में आपको फिर से बुला लिया।
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व्याख्यान वाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सरीश्वरजी महाराज
श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वर पट्ट प्रभाबक समानाचार्य
श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज
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संवत १९२३ का यह घाणेराव चातुर्मास इतिहास का एक अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया है। विगत कुछ वर्षों से श्रीमद् जो कुछ अवलोकन कर रहे थे उससे उनकी आत्मा छटपटा रही थी । पूरा यति समाज शिथिलाचार के गहरे गर्त में समा गया था। भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं थी । त्याग के आवरण में लोग मौज मना रहे थे। धर्म और धार्मिक आचार वाह्याडाम्बरों तक सीमित हो चुके थे। यतियों का मानो एक साम्राज्य ही निर्माण हो गया था । वैराग्यरंगा परवंचनाय, धर्मोपदेशो जनरंजनाय' यह सूक्ति सत्य सिद्ध हो रही थी । यति केवल बाह्यलिंगी बन गये थे, भावलिंग से उनका कोई सरोकार नहीं था। वेष उपजीविका का साधन बन गया था वैभव, विलास सीमा पार कर गये थे। समूचा यतिवर्ग मंत्रतंत्र में लीन था' पालखी-चामर-छड़ी-सैनिक आदि परिकर व भांग गांजा आदि व्यसन, शृंगार, जुआ, परिग्रह आदि के साथ घुल मिल गया था। उपरोक्त सब वस्तुएं यतिजीवन का एक अविभाज्य भाग बन गई थीं। यतिपरंपरा की यह गादी बड़ी आरामदेह व सुरक्षित थी पर श्रीमद् की आत्मा ऐसे वातावरण में सांस लेने में भी असमर्थ थी, उनका दम घुट रहा था क्योंकि वे वास्तव में जैनागम के बहुमूल्य शब्दों के पुष्ट धरातल पर खड़े होने का होंसला रखते थे। वे सही माने में श्रमण जीवन जीना चाहते थे अतः अवसर की ताक में थे और वह अवसर उन्हें प्राप्त हुवा इसी चातुर्मास के पर्दूषण के पावन दिनों में।
श्रीपूज्य धरणेंद्रसूरिजी की सेवा में एक इत्र विक्रेता उपस्थित हुवा और उसने बढ़िया से बढ़िया इत्र प्रस्तुत किया । संयोग की बात कि उसी समय धरणेंद्रसूरिजी ने श्रीमद् से इत्र की परख करने के लिए कहा और श्रीमद् को क्रान्ति के लिए अनुकूल अवसर प्राप्त हो गया। उन्होंने जो तपाक से उतर दिया वह इतिहास की एक अनमोल धरोहर बन गया।
श्रीमद् का उत्तर था - एक साधु के लिए यह इत्र चाहे जितना कीमती हो पर गधे के मूत से अधिक कीमत नहीं रखता ।
श्रीमद् का यह उत्तर श्रीपूज्य के साथ साथ सारे यति समाज के लिए एक खुली चुनौती थी । इस चुनौती ने समुची यति संस्था की नींव जड़ मूल से हिला दी, सारे यति समाज को अपनी शुद्धि के लिए कलम नामे की आग में अपने आपको तपाना पड़ा, इस विश्वपुरुष के चरणों में सिर झुकाना पड़ा।
इत्र के इस वाद विवाद ने उग्र स्वरूप धारण कर लिया और श्रीमद् चातुर्मास की समाप्ति के बाद गुरुदेव के पास आहोर चले आये, तत्कालीन परिस्थिति से वे परिचित तो थे ही। श्रीमद् की बातों में उन्हें सच्चाई महसूस हुई और श्रीमद् की योग्यता भी उनसे छिपी न रही फलस्वरूप संवत् १९२४ की वैशाख शुक्ला पंचमी को गुरुदेव ने आपको पूज्य पद प्रदान किया और श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि नाम रखा । आहोर के ठाकुर ने छड़ी, चामर, पालखी आदि से आपका सत्कार किया। शंभुगढ़ के फतहसागरजी
ने भी आपका पाटोत्सव किया और उदयपुर के राणा ने भी छड़ी चामरादि प्रदान कर श्रीमद् का सत्कार किया। ___संवत् १९२४ का श्रीमद् का जावरा चातुर्मास भी अविस्मरणीय रहा। आपकी प्रभावक प्रवचन शैली से जावरा के नवाब व दीवान प्रभावित हुए। श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी भी ठिकाने पर आ गये। श्रीमद् द्वारा आलेखित कलमनामा उन्होंने अपने हस्ताक्षर से मंजूर किया । कलमनामे में उल्लिखित नौ शर्ते यतिसमाज के आचार शैथिल्य रोग का रामबाण इलाज थी । इस कलमनामे ने यति जीवन को आदर्श बना दिया और यतियों की तानाशाही समाप्त कर दी। श्रीमद् अपने इस महान कार्य से अमर बन गये। श्रमण जीवन
कलमनामे की स्वीकृति के बाद श्रीमद् को लगा कि एक कार्य तो पूरा हो गया । अब श्रमण संस्था की निर्मिति की आवश्यकता थी। वे खुद एक श्रमण जीवन-महाव्रती जीवन जीना चाहते थे । श्री पूज्यपद का वैभव उन्हें परिग्रहपूर्ण महसूस हो रहा था अतः आपने संवत् १९२५ आषाढ़ शुक्ला १० को अपने श्री पूज्य पद का जावरा में त्याग किया और क्रियोद्धार करके सच्चा साधुत्व ग्रहण किय। । इसी वर्ष के खाचरोद चातुर्मास में आपने त्रिस्तुतिक सिद्धान्त को पुनः प्रकाशित किया । कलमनामे की स्वीकृति जितनी महत्वपूर्ण है । उतना ही महत्वपूर्ण है त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का पुन: प्रकाशन । इस सिद्धान्त ने लोगों को वीतराग और वीतरागता का उपासक बनाया। आत्मोद्धार में असमर्थ देवोपासना वंद करवादी । त्रिस्तुतिक सिद्धान्त की पुनः प्रतिष्ठा श्रीमद् के गहन संशोधनात्मक आगमिक अध्ययन का सुपरिणाम है।
क्रियोद्धार के पश्चात् आपने अपने श्रामण्य को विशेष शुद्धि के लिए तपस्या की आग में तपाना शुरू किया । इस कसौटी में से पार होकर ही वह अपने शुद्ध रूप में दीप्तिमान होने वाला था। आत्मशुद्धि के लिए आपने सर्वप्रथम अभिग्रह धारण करना शुरू किया इन अभिग्रहों की पूर्ति में आपको कभी चार कभी छह और कभी सात दिन तक भी निराहार रहना पड़ता था। अभिग्रह के अलावा आप प्रति चातुर्मास में तीन चातुर्मासिक चतुर्दशी का बेला तथा संवत्सरों और दीपमालिका का तेला करते थे। बड़े कला का बेला करते थे, प्रतिमास की सुदी १० का एकासना करते थे और चैत्री और आसो मास की ओली करते थे। यह तपश्चर्या आपने जीवन भर दण्ड रूप से की। इसके अलावा मांगीतुंगी पर्वत के बीहड़ जंगल में आठ-आठ उपवासों की तपस्या के साथ नवकारमंत्र का जाप किया था। मांगीतुंगी के बीहड़ बन, चामुंडवन, स्वर्णगिरि पर्वत ये सब आपके तपस्या स्थान थे। ऐसे ही एकान्त और बीहड़ स्थानों में आपने अपने को तपस्या की आग में तपाकर शुद्ध किया और आप दीप्तिमान बने। ऐसे स्थानों में आप पर प्राणधातक संकट भी आये । किसी ने तीर छोड़े, कोई शेर सामने आया तो कोई तलवार लेकर मारने
बी.मि. सं. २५०३/ख-२
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आठ गांवों के महाजनों ने रतलाम के महाजनों से बहुत अनुनय विनय की वे दण्ड भरने को तैयार हुए। मुनि श्री चौथमलजी और रतलाम नरेश ने भी बहुत प्रयत्न किये पर कोई सुपरिणाम सामने नहीं आया। अंत में संवत् १९६२ के गुरुदेव के खाचरोद चातुर्मास में गुरुदेव के प्रभाव से यह कठिन समस्या सुलझ गई। चीरोलादि ग्राम वालों को बिना किसी शर्त के जाति में सम्मिलित कर लिया गया।
दौड़ा पर आप ऐसी स्थिति में भी अडिग रहै और अपनी साधना पूर्ण की। साधना की सफलता का ही यह सुपरिणाम था कि आपको भविष्य की अनेक घटनाएं अपनी ध्यानावस्था में पहले ही ज्ञात हो जाती थी। इसी साधना के कारण आपको अनेक ऐसी सिद्धियां प्राप्त हुई थीं जिनके कारण आप संघ पर आये हुए संकटों को तत्काल निवारण कर देते थे।
कलमनामे की निर्मिति त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का पुनरुद्धार जितना सामाजिक महत्व रखता है उतना ही जागतिक महत्व रखता है 'श्री अभिधान राजेन्द्र" नामक विश्व कोश । इसी कोश का संपादन और लेखन करके आपने विश्वपुरुषों की श्रेणी में अपना स्थान बना लिया । डॉ० नेमीचंद जैन ने इस महान कार्य की तुलना श्री बाहुबली प्रतिमा से की है। श्री बाहुबली प्रतिमा की स्थापना जितना महान और श्रमसाध्य काम था उतना ही महान और श्रमसाध्य कार्य था श्री अभिधान राजेन्द्र की रचना । यह एक ऐसा संदर्भ ग्रंथ है जिसमें श्रमण संस्कृति का एक भी शब्द संदर्भ नहीं छूटा है । शब्द मूल के साथ इसमें शब्द का विकास भी दिया है एक एक शब्दों को उसके तत्कालीन प्रचलन तक उघाड़ा गया है। "अभिधान राजेन्द्र" की रचना से आप यावच्चंद्र दिवाकर अमर बन गये।
श्रीमद् की साहित्य साधना क्रांतिधर्मी है । उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसका सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत ज्यादा है। उनके पदों में लोकमंगल और समन्वय की भावना ने मूर्तरूप धारण किया है। उन्होंने कई पूजाएँ, कई स्रोत और कई पद लिखें हैं । छोटे बड़े कुल मिलाकर आपने इक्सठ ग्रंथों की रचना की अभिधान राजेन्द्र का ही लघुरूप "पाइम सद्बुही" अभी भी प्रकाशन की राह देख रहा है । इस प्रकार उनकी यह साहित्य निर्मिति अपने आप में बड़ा महत्व रखती है इसका मूल्यांकन होना चाहिये । आगम साहित्य की सुरक्षा के लिए आपने आहोर (राजस्थान) में और अन्य ग्रामों में भी ज्ञानभण्डारों की स्थापना करवाई।
विभिन्न प्रतिष्ठाओं और अंजनशलाका समारोहों का संयोजन धार्मिक महत्व तो रखता ही है पर उसका सामाजिक महत्व भी कुछ कम नहीं है । समारोहों में लोग दूर-दूर से आते हैं और सामुदायिक जीवन जीते हैं तथा स्वाध्याय प्रवचन द्वारा एक दूसरे के विचारों को समझते-समझाते हैं । इससे उदारता, अहिष्णुता, स्नेह समन्वय और धीरज जैसे चारित्रिक गुणों का विकास होता है और सामाजिक कार्यों के लिए एक नवभूमिका बनती है। इस प्रकार प्रतिष्ठा, अंजनशलाकादि समारोहों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी बड़ा महत्व है। ऐसे समारोहों के कारण संचित, संपदा का सदुपयोपग होता है और सामाजिक शत्रुताएँ भी समाप्त हो जाती हैं।
श्रीमद् ने कुल मिलाकर २७ छोटे बड़े प्रतिष्ठा, अंजनशलाकादि समारोह सम्पन्न करवाये। जालोर के सुवर्ण गिरि पर्वत पर जो जैन मंदिर थे उनका उपयोग शस्त्रागारों के रूप में होने लगा था और उन पर जोधपुर राज्य का अधिकार था। पूज्य गुरुदेव ने जोधपुर नरेश को समझा-बुझाकर और सत्याग्रह करके इन मंदिरों को अस्त्र शस्त्रों से मुक्त करवाया और उनका उद्धार किया। इसी प्रकार आपने कोरहा, भाण्डवाजी और तालनपुर तीर्थों का भी जीर्णोद्धार करवाया और मोहनखेड़ा नामक स्वतंत्र तीर्थ की स्थापना भी करवाई । इसके अलावा संवत् १९४४ में थराद के चातुर्मास के पश्चात् आपके उपदेशों से प्रभावित होकर पारख अंबावीदास मोतीचंद ने शत्रुजय और गिरनार का पैदल छहरी पालन करता हुवा विशाल संघ निकाला। यह संघ यात्रा इतिहास में अविस्मणीय थी। इस यात्रा में उस काल में एक लाख रुपये व्यय हुए थे।
प्रतिष्ठांजनशलाकाओं में आहोर के बावन जिनालय युक्त श्री गोडी पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा बड़ा महत्व रखती हैं। संवत् १९५५ के फालगन विदी ५ को इस मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा हुई। इसी अवसर पर ९५१ जिन बिंबों की प्राण प्रतिष्ठा की गई । मारवाड़ के १५० वर्षों के इतिहास में यह प्रतिष्ठोत्सव अपने ढंग का सर्वप्रथम था।
क्रान्तिकारी व्यक्ति को कदम-कदम पर खतरा उठाना पड़ता है उसे हर जगह शास्त्रार्थ के लिये तैयार रहना पड़ता है । श्रीमद् को अपने त्रिस्तुतिक सिद्धान्त के मण्डन के लिए रतलाम में, अहमदाबाद में और सूरत में भी विपक्षियों के साथ शास्त्रार्थ करना पड़ा। हर शास्त्रार्थ में आप विजयी हुए। मूर्तिपूजा के मण्डन के लिए आपको स्थानकवासी विद्वानों के साथ जालोर, निंबाहेडा आदि स्थानों में शास्त्रार्थ करना पड़ा उसमें भी आप विजयी हुए । इस तरह कुछ स्थानों पर आपको दिगम्बरों से भी निपटना पड़ा। विपक्षियों ने आपको अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट देकर हैरान करने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं की पर आप आगे बढ़ते ही गये । दैदीप्यमान सूर्य को आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है?
सामाजिक एकता के लिए भी आपने अथक प्रत्यन किया जगह-जगह के मतभेद मिटाकर बिछड़े भाइयों को वापस मिलाया। चीरोला और उसके आसपास के और गांवों का उदाहरण बड़ा महत्व पूर्ण है। ये सभी गांव ढाईसौ वर्षों से जाति बहिष्कृत थे। इन गांवों । के कुओं तक का पानी पीना भी निषिद्ध हो गया था। चीरोलादि
संवत् १९६३ का चातुर्मास श्रीमद ने बडनगर में किया इसी चातुर्मास में आपने "श्री महावीर पंच कल्याणक पूजा" और "कमलप्रभा शुद्ध रहस्य" की रचना की। चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात आपने मार्गशीर्ष मास में भंडपाचस की यात्रार्थ ससंघ प्रस्थान किया। उस समय आपकी अवस्था अस्सी वर्ष की थी। मार्ग में ही आप ज्वराक्रांत हो गये अतः राजगढ़ आना पड़ा । अपने अंत समय का आपको पहले ही ज्ञान हो गया था। पौष शुक्ला ३ को आपने श्री यतीन्द्रविजयी और श्री दीपविजयी को श्री अभिधान राजेन्द्रकोश के संपादन और मुद्रण का आदेश दिया। पौष शुक्ला ६ की संध्या को "अर्हन नम:' का जाप करते करते आप समाधियोग में हमेशा के लिए लीन हो गये। पौष शक्ला ७ को आपके पार्थिव शरीर का मोहनखेडा तीर्थ पर अग्निसंस्कार किया गया। इस प्रकार यद्यपि आप देह रूप में तो अब हमारे बीच में तो नहीं हैं आप श्री अधिधान राजेन्द्र के रूप में हमेशा के लिए हमारे साथ हैं।
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..राजेन्द्र-ज्योति
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एक जीवन गाथा विजय गाथा : विजय यतीन्द्रसूरि
जन्म : वि. सं. १९४०, का. शु. २
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आचार्य विजय यतीन्द्रसूरिजी महाराज महाप्रभावक पुरुष ये वे विश्व पूज्य श्रीमद् विजय राजन्द्रसूरिजी महाराज के अनन्यतम शिष्य थे और उन्हीं के चतुर्थ पट्टधर भी। उन्होंने अपने जीवनकाल में जो शासन सेवा की तथा जो साहित्य निर्माण किया उससे त्रिस्तुतिक समाज का हर श्रावक प्रभावित है। उनका जन्म धोलपुर नगर में हुआ था। उनके पिता श्री बृजलालजी और माता चंपाकुंवर दोनों बड़े धर्मपरायण थे और दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उनका जन्म नाम रामरत्न था। जब रामरत्न की उम्र सात वर्ष की हुई, तब उनके पिता धौलपुर का परित्याग कर भोपाल में बसे। वहां उन्होंने अपने पुत्र रामरत्न की शिक्षा-दीक्षा के लिए प्रयत्न किये। उन्होंने उसे दिगम्बर जैन पाठशाला में भरती करवाया और खुद भी नई-नई बातें सिखाने लगे । केवल दो साल में ही रामरत्न ने पंच मंगल पाठ, तत्वार्थसूत्र, रत्नकरंड श्रावकचार, आलाप पद्धति, द्रव्यसंग्रह, देवधर्म परीक्षा और नित्य स्मरण पाठ का सार्थ अध्ययन कर लिया और इन्हें कंठस्थ भी कर लिया। इसीसे उनकी कुशाग्र बुद्धि का पता चलता है। इसके अलावा उन्होंने भक्तामर मंत्राधिराज, कल्याणमंदिर, विषापहार आदि स्तोत्र भी कंठस्थ कर लिये थे। ऐसे सुयोग्य और विद्वान पुत्र को पाकर श्री बृजलालजी बड़े प्रसन्न थे । अब रामरत्न की उम्र बारह वर्ष की हो गई थी। इस अल्पायु में ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। माता तो पहले ही चल बसी थी। मातापिता की मृत्यु के बाद रामरत्न अपने मामा के घर रहने लगे । मामा-मामी उसे वह प्यार न दे सके जो माता-पिता दे सकते हैं। अतः मामा के साथ अनबन हो जाने के कारण उन्होंने मामा का घर हमेशा के लिए छोड़ दिया और वे नौकरी करके अपना गुजारा करने लगे
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एक बार वे सिंहस्थ मेला देखने उज्जैन गए मेला देखकर उनते श्री मक्षीपार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा की और वहां से आकर महेन्द्रपुर
वी. नि. सं. २५०३
मुनि नित्यानन्द विजयजी देहावसान वि. सं. २०१७, पौ. शु. ३
नगर में मुकाम किया । महेन्द्रपुर में उस समय श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपने शिष्य मण्डल सहित विराजमान थे । रामरत्न आचार्यश्रीजी के दर्शन से प्रभावित हुए और उन्होंने सूरीजी महाराज के साथ रहने का निश्चय कर लिया। बिहार में भी उनके साथ रहने लगे। उनके संस्कारी हृदय पर विहारकाल में श्रीमद के काण्ड का और उनकी दैनिक दिनचर्या का अद्भुत एवं अमिट प्रभाव पड़ा। वे अब वैराग्य रस में रंग गए। दीक्षा लेने की भावना उनके हृदय में प्रबल हो उठी और एक दिन उन्होंने गुरु महाराज से अपने को शिष्य रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना की । रामरत्न की उम्र अब चौदह वर्ष की हो गई थी। उनकी दृढ़ निष्ठा देखकर गुरु महाराज ने खाचरोद नगर में संवत् १९५४ आषाढ़ कृष्ण २ को उन्हें दीक्षित किया और उनका मुनि यतीन्द्र विजय नाम रखा। मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी सुसंस्कारी एवं सुसंस्कृत तो थे ही फिर भाग्य से ऐसे प्रखर महाविद्वान् एवं शुद्ध साध्वाचार के पालक, महातपस्वी विलक्षण बुद्धिशाली गुरु की निश्रा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। फिर क्या कमी रह सकती है ? बस आप साध्वाचार का पालन करने लगे और स्वाध्याय में रात दिन तल्लीन रह कर अपनी उन्नति करने लगे । दस वर्ष तक आप गुरु महाराज के साथ रहे। इन दस वर्षों में आपने गुरु महाराज के साथ मेवाड़, मारवाड़, मालवा, नेमाड़ और गुजरात आदि प्रदेशों का भ्रमण किया । छोटे-बड़े अनेक प्रसिद्ध अप्रसिद्ध स्थानों में बिहार किया, गुरु महाराज के कर कमलों से की गई अनेक बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठाओं में भाग लिया तथा प्रतिष्ठाएं करवाने की क्षमता प्राप्त की। अनेक ग्राम-नगरों के श्री संघों में पड़े विवाद को गुरु महाराज के तेज प्रताप ने नष्ट होते देखा और शांति स्थापित होते देखी । गुरु महाराज ने अनेक ज्ञान भण्डारों की स्थापना की, उद्यापन करवाए और प्राचीन एवं प्रसिद्ध जिनालयों के जीर्णोद्धार करवाए । गुरुदेव के इस प्रकार के धर्मकार्यों से आपको सर्वतोमुखी अनुभव और ज्ञान प्राप्त हुआ । गुरुदेव के साथ आपने मण्डपाचल श्री
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मक्षीजी 'श्री आबूजी' श्री कोरटाजी आदि तीर्थों की और गोड़वाड़ पंचतीर्थों की भी यात्रा की। इस प्रकार इन दस वर्षों में गुरुदेव के साथ रहकर काफी अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया। आप जिज्ञासु, विनयी, सुसंस्कृत, प्रतिभासम्पन्न, परिश्रमी और गुरु आज्ञा पालक थे। अतः गरु महाराज की निश्रा में बराबर उनके स्वर्गारोहण काल पर्यन्त बने रहे। गुरुदेव का देहावसान संवत् १९५३ पौष शुक्ला ६ को राजगढ़ में हुआ था। देहावसान के पहले ही मुनिश्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने अभिधान राजेन्द्रकोष के प्रकाशन का भार प्रतिज्ञा पूर्वक उठा लिया था। अभिधान राजेन्द्र कोष सात भागों में विभाजित है और उसके कुल पृष्ठ दस हजार से भी ज्यादा हैं। इस कोष में प्रथम प्राकृत शब्द उसके संस्कृत रूप के साथ दिए हैं और बाद में उनके लिंग और व्युत्पत्ति दिए गए हैं और उनके तमाम अर्थ सप्रयोग आधार, अध्ययन तथा उद्देश्यों के अंकन सहित, आगमों के ग्रंथागारों के उदाहरण सहित दिए हैं तथा व्याख्या भी बड़ी ही कुशलता एवं योग्यतापूर्वक दी गई है। यह ग्रंथ एक प्रकार से जन विश्वकोष ही है ऐसे महाकोष का लेखन जितना कठिन था उतना ही कठिन उसका संपादन और प्रकाशन भी था। इस ग्रंथ को सम्पादित और प्रकाशित कर मुनिश्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने अपनी तत्परतापूर्ण कुशलता और सुयोग्य संपादकत्व का भी परिचय दिया है। ग्रंथ का नाम
मुद्रण संवत् पृष्ठांक १. तीन स्तुति की प्राचीनता २. भावना स्वरूप
१९६५ ३. गौतमपृच्छा-भावानुवाद
१९७१ ४. नाकोडा पार्श्वनाथ
१९७१ ५. सत्यबोध भास्कर
१९७१ ६. जीवन प्रभा (श्री राजेन्द्रसूरीजी चरित्र) १९७२ ७. गुणानुराग कुलकर भावार्थ १९७४ ८. लघु चाणक्य नीति-अनुवाद १९७६ ९. जन्ममरण सूतक निर्णय
१९७८ संक्षिप्त जीवन चरित्र (घनचन्द्रसूरीजी का)
१९८० १७३ ११. जीवभेद निरूपण और गौतम कुलक
१९८० १२. पीत पट्टाग्रह मीमांसा और निक्षेप निबंध
१९८० १३. जिनेन्द्र गुणगान लहरी स्तवनादि १९८० १४. जैनर्षि पट्ट निर्णय
१९८१ १५. रत्नाकर पच्चीसी-भावार्थ १९८२ १६. श्री मोहन जीवनादर्श
(उपाध्याय श्री मोहनविजय चरित्र) १९८२
१७. अध्ययन चतुष्टय
(दशवकालिक के चार अध्ययनों का भावार्थ)
१९८२ १८. कुलिंग वदनोद्गार मीमांसा १९८३ १९. अधरकुमार, रत्नसार
१९८४ २०. हरिबल धीवर २१. चरित्र संस्कृत २२. आर्हत् प्रवचन (गुजराती) २३. जीवभेद निरूपण २४. और गौतम कुलक (गुजराती) १९२५ २५. श्री यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग-१ १९८६ २६. श्री कोरटाजी तीथ का इतिहास १९८७ २७. श्री जगडूशाह चरित्रम्
१९८८ २८. श्री कयवन्ना चरित्र
१९८८ २९. श्री यतीन्द्रविहार दिग्दर्शन भाग-२ १९८८ ३०. वृहद्विद्वद् गोष्ठी संवधिता
१९८९ १३ ३१. चंपकमाला चरित्रम् गद्यम् ३२. श्री राजेन्द्र सूरीश्वर जीवन परिचय १९९० २४ ३३. श्री सिद्धाचल नवाणु प्रकारी पूजा ३४. श्री चतुर्विशति जिन स्तुतिमाला १९९१ ___२४ ३५. श्री यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग-३ १९९१ २०८ ३६. श्री राजेन्द्रसूरीश्वर अष्टप्रकारी पूजा १९९१ ३७. श्री यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग-४ १९९३ ३८. सविधि स्नात्र पूजा
१९९३ ३९. मेरी नेमाड़ यात्रा-ऐतिहासिक ४०. अक्षयनिधि तप विधि तथा
श्री षौषधविधि ४१. श्री भाषणसुधा (व्याख्यान संग्रह) १९९९ ४२. श्री यतीन्द्र प्रवचन (हिन्दी) भाग-१
२००० ४३. समाधान प्रदीप (हिन्दी) भाग १ ४४. सूक्तिरसलता-हिन्दी अनुवाद ४५. मेरी गोंडवाड यात्रा
२००१ ४६. प्रकरण चतुष्टय
२३१ ४७. श्री यतीन्द्र प्रवचन (गुजराती) भाग २ २००५ ४८. श्री विंशति स्थानक पदपत विधि ४९. देवसी पडिक्कमण-हिन्दी शब्दार्थ २००७ १७२ ५०. श्री सत्य समर्थक प्रश्नोत्तरी २००९ ४४ ५१. साध्वी व्याख्यान समीक्षा
२०१० २५ ५२. साधु प्रतिक्रमणसूत्र-हिन्दी शब्दार्थ ५३. स्त्री शिक्षा प्रदर्शन (हिन्दी) २०११ ६९ ५४. श्री सत्पुरुषों के लक्षण
२०११ ५५. श्री तपः परिमल
२०११ ४८ इस प्रकार श्रीमद् ने कुल पचपन ग्रन्थ लिखे, संपादित किये और प्रकाशित भी करवाए।
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२००५
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राजेन-ज्योति
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संवत्
१९६१ फा. कृ.१ १९६१ मार्ग शु. ३ १९६४ पौ. शु. ११ १९६७ वै. शु. ३ १९७३ ज्ये. शु. १ १९७४ मार्ग शु. १० १९७८ मार्ग शु. ६ १९८१ वै. श. ५
५. ६.
८.
९. १९८१ वै. शु. ११
१९८१ मा. शु. १०
१९८२ ज्ये. शु. ११ १२. १९८२ आषा. शु. १० १३. १९८२ मार्ग. शु. १० । १४. १९८७ फा. शु. ३
१५. १९८८ माघ शु. १० १६. १९८८ माघ शु. १३ १७. १९९४ मार्ग शु. १०
प्रतिष्ठा अंजन शलाकाएं ग्राम-नगर
विशेष और प्रतिष्ठित बिंब बोरी (झाबुआ)
मूलनायक श्री चन्द्रप्रभस्वामी बिब प्रतिष्ठा गुणदी (जावरा)
मूलनायक श्री शांतिनाथ बिंब की प्रतिष्ठा एलची (ग्वालियर) मूलनायक श्री पार्श्वनाथ बिबो की प्रतिष्ठा मामटखेड़ा (जावरा) मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ आदि तीन बिबो की प्रतिष्ठा सिरोडी (सिरोही) स्वर्णध्वज की प्रतिष्ठा और आदिनाथ चरणपादुका की अंजनशलाका उथमण (सिरोही) पार्श्वनाथादि बिंबों की प्रतिष्ठा संजीत (जावरा) मु. ना. पार्श्वनाथ बिंब की प्रतिष्ठा रींगनोद (देवास) मुलनायक श्री चन्द्रप्रभस्वामी आदि बिबों की और गुरुचरण पादुका की
प्रतिष्ठा झकणावदा (झाबुआ) प्रतिष्ठा व अंजनशकाला बड़ी कड़ोद (धार) श्री वासुपूज्य आदि बिंबों की प्रतिष्ठा कुक्षी (धार)
श्रीसीमंधर स्वामी आदि पांच बिबों व स्वर्णकलश दण्डध्वज प्रतिष्ठा नानपुर (धार)
श्री पार्श्वनाथादि बिंबों की प्रतिष्ठा मोहनखेड़ा (ग्वालियर) श्रीराजेन्द्रसूरि बिब और चरणपादुका की प्रतिष्ठा व अंजन शलाका थलवाड़ (राज.) छह जिनबिबों की और अधिष्ठायक-अधिष्ठायिका के बिंबों की प्रतिष्ठा,
अंजन शलाका भाण्डवपुरतीर्थ (राज.) दण्डध्वजारोहण और दो जिन बिबों की प्रतिष्ठा : मेंगलता (राज.) दो धातु जिन बिंबों की प्रतिष्ठा लक्ष्मणी तीर्थ
चौदह जिन बिंबों की प्रतिष्ठा (अलीराजपुर)
चौदह जिन बिंबों की प्रतिष्ठा और स्वर्णकलश, दण्डध्वज, अधिष्ठायक
अधिष्ठायिका के बिंबों की अंजन शलाका हरजी (राज.)
स्वर्णकलश, दण्डध्वज और अधिष्ठायक अधिष्ठायिका के बिबों की
अंजनशलाका डूडसी (राज.)
मूल नायक नेमीनाथ आदि बिंबों की प्रतिष्ठा श्री कोरटाजी (राज.) श्री राजेन्द्रसूरिजी के दो बिंबों की अंजनशलाका रोवाडा (सिरोही) श्री राजेन्द्रसूरि बिंब की प्रतिष्ठा फतहपुर (राज.) श्री राजेन्द्रसूरि और हिम्मतविजयजी की चरणपादुकाओं की प्रतिष्ठा
अंजनशलाका सलोदरिया (राज.) श्री पार्श्वनाथ बिंब की प्रतिष्ठा भूति (राज.)
श्री राजेन्द्रसूरि बिब की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका आहोर (राज.)
स्वर्णकलश दण्डध्वज की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका जालोर (राज.)
श्री राजेन्द्रसूरि बिंब की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका बागरा (राज.)
जिनबिंब, स्वर्णकलश, दण्डध्वज और श्री धनचन्द्रसूरिजी बिंब की अंजन
शलाका सेदरिया (राज.) पांच जिनबिंबों की स्वर्णकलश, दण्डध्वजादि की प्रतिष्ठा बलदूट (सिरोही) स्वर्णकलश, दण्डध्वज व अधिष्ठायकादि बिंबों की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका ऊड (सिरोही)
दो जिनबिबों की और अधिष्ठायकादि के बिंबों की प्रतिष्ठा सियाणा (राज.) दो जिनबिंबों की प्रतिष्ठा और नवीन ५४ जिनबिंबों की अंजनशलाका मंडवारिया (सिरोही) म. ना. पार्श्वनाथादि बिंबों की प्रतिष्ठा और अधिष्ठायकादि के बिंब,
स्वर्णकलश, दण्डध्वज की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका धाणसा (राज.)
मूलनायक श्री शांतिनाथ, गोड़ी पार्श्वनाथ आदि बिंबों की प्रतिष्ठा तथा अधिष्ठायकादि और गुरु बिबों की तथा स्वर्णकलश, दण्डध्वजों की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका
१८.
ज्ये. शु. १४
१९. २०. २१. २२.
१९९५ आषा. शु. ११ १९९६ वै. शु. ७ १९९६ ज्ये. शु. २ १९९६ ज्ये. शु. ९
२३. १९९६ ज्ये. शु. १४ २४. १९९६ पौष शु. ८ २५. १९९७ वै. शु. १४ २६. १९९७ मार्ग शु. १० २७. १९९८ मा. शु. १०
२८. १९९८ २९. १९९९
१९९९ ३१. २००० ३२. २०००
फा. शु. ५ मा. शु. ११ फा. शु. २ वै. शु. ६ ज्ये. शु. ६
३३. २००० फा. शु. ११
वी.नि. सं. २५०३
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३४. ३५. ३६.
संवत् २००१ वै. शु. ७ २००१ ज्ये. कृ. २ २००१ माघ शु. ६
ग्राम-नगर सेरणा (राज.) घाणसभा (राज.) आहोर (राज.)
३७. २००१ फा. शु. ५ ३८. २००३ माघ शु. ५ ३९. २००५ माघ शु. ५
भंसवाड़ा (राज.) भूति (राज.) थराद (उ. गुजरात)
विशेष और प्रतिष्ठित बिंब श्री पार्श्वनाथादि पांच बिंबों की प्रतिष्ठा गुरु मंदिर पर स्वर्णकलश, दण्डध्वजारोपण प्रतिष्ठा जिनबिबों, गुरु मूर्तियों और स्वर्णकलश, दण्डध्वजों की प्रतिष्ठांजनशलाका जिन बिंबों और गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा श्री राजेन्द्रसूरि और श्री धनचन्द्र सूरि बिंबों की प्रतिष्ठा जिन बिंबों की प्रतिष्ठा और स्वर्णकलश, दण्डध्वज तथा श्री राजेन्द्रसूरि बिंब की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका नवीन जिन बिब और गुरु प्रतिमा की अंजनशलाका जिन बिब, गुरु मूर्तियां और अधिष्ठायक बिंबों की प्रतिष्ठा पच्चीस जिनबिंब और कलश, दण्डध्वज की प्रतिष्ठा सतहत्तर जिनबिंब, चौदह जिन पट्ट, स्वर्णकलश, दण्डध्वज, गुरु बिबों की अंजनशलाका जिन बिंबों की प्रतिष्ठा जिन बिंब, गुरु प्रतिभा, अधिष्ठायक मूर्तियां, स्वर्णकलश, दण्डध्वज की प्रतिष्ठांजनशलाका
४१. ४२. ४३.
२००६ मार्ग शु. ६ २००७ माघ शु. १३ २००८ वै. शु. ५ २००८ माघ शु. ५
बाली (राज.) गुढाबालोतरा (राज.) जालोर (राज.) थराद (उत्तर गुजरात)
४४. २००९ ४५. २०१०
ज्ये. कृ. ६ ज्ये. शु. १०
वाली मोरसिम (राज.) भाण्डवपुर तीर्थ (राज.)
४.
वि. सं. कहां से १९८१ राजगढ़ १९८२ राणापुर १९८२ पालीताणा १९८५ थराद १९८६ गुढाबालोतरा १९९० पालीताणा १९९३ खाचरौद १९९९ भूति २०१२ राणापुर
वि. सं. कहां से १. १९८२ गिरनार तीर्थ २. १९८४ मुढाबालोतरा ३. १९८४ शिवगंज ४. १९८५ थराद ५. १९८६ बाली
१९८७ थलवाड ७. १९८८ आहोर
१९८९ शिवगंज १९९० सियाणा
१९९१ पालीताणा ११. १९९३ अलीराजपुर १२. २००४ खीमेल १३. २००४ खुडाला
श्रीमद की अधिनायकता में निकाले गये चविध संघ कहां के लिए
किस की तरफ से श्री मण्डपाचल तीर्थ
श्री जैन संघ, राजगढ़ श्री सिद्धाचल तीर्थ
श्री राणापुर संघ श्री गिरनार तीर्थ
सियाणा निवासी श्री कानाजी ऊमाजी अर्बुदतीर्थ और गोडवाड पंचतीर्थी श्री थराद संघ जेसलमेर तीर्थ और ओसिया तीर्थ शाह लखाजी देलाजी गिरनार तीर्थ और कच्छ भद्रेश्वर तीर्थ बागरा निवासी शाह प्रतापचन्द घुडाजी मण्डपाचल तीर्थ
श्री जैन संघ राजगढ़ गोडवाड पंचतीर्थी
शाह देवीचन्द रामाजी श्री लक्ष्मणीजी तीर्थ
राणापुर श्री संघ श्रीमद की तीर्थयात्राएं यात्रा स्थल
किन के साथ शंखेश्वर, तारंगा, अर्बुदगिरि
मुनि मण्डल कोरटाजी
मुनि मण्डल वरकाणा
मुनि मण्डल ढीमाभोरोल
मुनि मण्डल एवं श्रावकगण कोरटा
मुनि मण्डल भांडवपुर
मुनि मण्डल भाण्डवपुर
मुनि मण्डल कोरटा
मुनि मण्डल शत्रंजय
मुनि मण्डल केसरियाजी
मुनि मण्डल लक्ष्मणी
मुनि मण्डल गोंडवाड पंचतीर्थी
मुनि मण्डल जीरापल्ली
मनि मण्डल
राजेन्द्र-ज्योति
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वि.सं.
कहां से
कहां के लिए
किन के साथ
१४. २००८ गुढ़ाबालोतरा १५. २००९ थराद १६. २०११ आहोर १७. २०१२ आहोर १८. २०१२ राणापुर
भाण्डवपुर भांडवपुर राता महावीर केशरियाजी श्री लक्ष्मणीजी तीर्थ
मुनि मण्डल मुनि मण्डल मुनि मण्डल मुनि मण्डल व श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ
तपस्वियों की संख्या
२००
वि. सं. ग्राम-नगर १९७३ सियाणा (मारवाड़)
१९८९ गुढाबालोतरा ३. १९९१ पालीताणा ४. १९९२ खाचरौद
२००२ बागरा ६. २००२ आकोली ७. २०१४ राणापूर ८. २०१७ मोहनखेडा तीर्थ
श्रीमद् से सम्पन्न उपधान तर
उपधान कराने वाले श्री जैन संघ शा. लालचन्द लखमाजी बागरा निवासी शाह ओटमल घूड़ाजी श्री जैन संघ श्री जैन संघ शाह लालचन्द अभयचन्द सकल संघ श्री जैन विस्तुनिक संघ
३५०
३५
४५
इस प्रकार गुरु महाराज की अधिनायकता में आठ यात्रा संघ निकाले गये। गुरु महाराज ने स्वतंत्र रूप से साधु मण्डल के साथ पन्द्रह बार तीर्थयात्राएं की। गुरु महाराज ने छह उपधान तप कराये और पैतालीस प्रतिष्ठांजनशलाकाएं सम्पन्न करवाई।
संवत् २०१७ पौष शुक्ला ३ के दिन राजगढ़ में आपका देहावसान हुआ। मोहन खेड़ा में अंत्यविधि सम्पन्न की गई और छत्री बनाकर आपकी मूर्ति प्रतिष्ठित की गई।
शान्ति तथा द्रोह परस्पर विरोधी तत्व हैं । जहाँ शान्ति होगी, वहाँ द्रोह नहीं होगा; और जहाँ द्रोह होगा वहाँ शान्ति निवास नहीं करेगी । द्रोह का मुख्य कारण है, अपनी भूलों का सुधार नहीं करना । जो पुरुष सहिष्णुतापूर्वक अपनी भूलों का सुधार कर लेता है, उसको द्रोह स्पर्श तक नहीं कर सकता ।
जीव संसार में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है; ऐसी परिस्थिति में एक धर्म को अपना लेने से आत्मा का उद्धार होता है और किसी से नहीं ।
जब तक हम स्वयं अपनी कमजोर आदतों पर शासन न कर लें, तब तक हम दूसरों को कुछ नहीं कह सकते; अत: सर्वप्रथम प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निर्बलताओं को सुधार कर, फिर दूसरों को सुधारने की इच्छा रखनी चाहिये।
-राजेन्द्र सूरि
वी. नि.सं. २५०३
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विजय विद्याचन्द्रसूरि जीवन-गाथा
द्रुतविलम्बित निखिल विश्व विधायक नायका । परम सत्य प्रकाश प्रदायका । विमल बोध दिया वसुधा सदा । चरण वन्दन पारस सर्वदा ||१||
जोधपुर मारवाड़ वीर भूमी उर्वरा, दीप्त राष्ट्रकूट वंश धर्म-कर्म से भरा । वीरता सुधीरता कुलीनता सुशीलता, नित्य
पंच चामर
सुरम्य पूत है धरा जहां प्रकाश को लिये । सुधी प्रकाण्ड मूरवीर दानवीर भी हुए। विदेश या स्वदेश में प्रधान कार्य को किया । सुभारती सपूत पुत्र ज्ञान सर्व को दिया || २ || चामर वृत्त
चंदना,
शुभ्र 'कीर्ति पुंज कुंज फैलती लता || ३ || राष्ट्रकूट सिंह गीर धार धर्मप्रेम धारिणी सुशील नार सुंदरा । सिद्धि ज्ञान नंद व्योम वैक्रमीय वर्ष था, पौष मास शुक्ल पक्ष एकम प्रहर्ष था ||४|| चन्द्रयोग उच्च था सुकाल जन्म का यदा, पुत्ररत्न पर हुए प्रसन्न दंपति तदा । भाग्यवान पुत्र भव्य हो रहा बड़ा सदा, लेख जो ललाट के लिखे मेटे नहीं कदा ॥५॥ मात तात ने सुनाम पुत्र का
दिया तदा, सिंह बहादुरलाल जी यथा तथा गुणा । मात तात का वियोग अल्प उम्र में हुआ,
योग या वियोग का सही स्वरूप है यहां ॥ ६ ॥
૬૪
:
मुनि जयन्तविजय "मधुकर"
भ्रातु पितु कालुसिंह साथ आये नीमच, छावनी रहे प्रमोद भाव है मनोगत | व्यतीत हो रहा विनोद युक्त काल है वहां, भावि कौन जानता कि कौन जायेगा कहां ॥७॥
इतविलंबित
मुनिप मोहन वाचक राजते, जगति मेघ समान हि गाजते । मुमुनि नीमच धाम मुकाम वा सकल जैन समाज विराम था ॥ ८ ॥ चामरवृत्त कालुसिंह पास में मुनीश के गये मुदा, लाल बहादुरसिंह भी गये वहां तदा । देख के ललाट को कहा मुनीश ने, भाग्यवान बाल है कलानिधे दिने दिने || ९॥ वाचक प्रसन्न चित्त कालूसिंह से कहा, दीजिये सुजात रत्न भाविरेख है महा ।
सिंहजी उदार भाव से कहे मुझे, लीजिये इसे महान आज की घड़ी गुरो ॥ १० ॥ जीवनी अपूर्व नित्य शानदार हो तभी, शुद्ध बुद्ध शीलवन्त सद्गुर मिले कभी । भेजते यतीन्द्र पास लाल को मुनीश है, जौहरी बिनाहि कौन रत्न का परीख है ।। ११ ।।
शार्दूलविक्रीडित
दीक्षा ली निधि सप्त नंद शशि माथे तृतीया दिने, "विद्या" नाम दिया वहां विजयकी की घोषणा संघ ने । श्री भूपेन्द्रसूरी थे गणधरा सान्निध्य जो था मिला, दीक्षा देकर श्री यतीन्द्र मुनि का सद् शिष्य विद्या खिला ।।१२।।
राजेयोति
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TG JHARMA
मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर'
तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी महाराज
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TO SHARMA
उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी महाराज
उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज
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चामरवृत्त
माघ मास था रव सिद्धि कार एक वर्ष का,
वृहद् सुदीक्षा रत्नपुर योग धन्य हर्ष का ।। सबगुरु प्रभावशील की कृपा सदा, पूज्य उपासना करे मिटा कुवासना हि दुःखदा ।।१३।।
ज्ञान गद्य पद्य संस्कृतादि ग्रंथ का किया, जिनेन्द्र भक्ति में सदा त्रियोग को लगा दिया ।। संघ में समाज में प्रसिद्धि शुद्ध था हिया, कृपालु सद्गुरु कृपा सदा अखण्ड पा लिया || १४ || पूज्यपाद श्री यतीन्द्र देव गाव में विहार मारवाड़ और मालवा निमाड़ में । गुर्जरा धरा सुगोडवाड़ उर्वरा मुदा, प्रबोधते उदारचित्त धर्मवृद्धि सर्वदा ।। १५ ।।
गुर्जंग निमाड़ सोरठ प्रदेश में, गोडवाड़ भूमि और भेदपाट देश में ।। मारवाड मालवा गये सुतीर्थ भाव से, तीर्थ वंदनार्थ संग सद्गुरु प्रभाव से ॥१६॥ सद्गुरु प्रसंग से मिली अनेक भांति से, सद्विचार सति कार्याहि शांति से । तीर्थ भाण्डवा गया सुसंघ साथ आपका, मार्गदर्श था दिया विधान वीर जाप का ।। १७ ।।
हरिगीतिका
आहोर के चौमास में गुरु साक्षी से कर काम को, रख दृष्टि को सुविशाल उज्ज्वल कर दिया को ॥ गुरुनाम विशनगढ़ का संघ गुरु से प्रार्थना करता यदा, करना हमें मंदिर प्रतिष्ठा शुभ दिवस आता कदा || १८ || विशुद्ध शुभ लग्न शुद्धि को बता गुरु ने कहा, विद्या वहां यह काम करने आएगा अक्सर महा ।। तुम काम करना मिल सभी जन प्रेम दिल रखना अति शासन मिला जिनदेव का इसकी करे नित उन्नति ।।१९।।
गुरुदेव कहते विनवी विद्या, कार्य तुम अनुपम करो, यह योग आया कर प्रतिष्ठ संघ को संपन्न करो । आज्ञा हुई गुरुदेव की तब काम करने के लिए, हर्षित मना मुनि मण्डली ले विशनगढ़ को चल दिये ॥ २० ॥ था धर्म उत्सव ठाठ भारी आप श्री वहां पर गये, श्री संघ ने गुरु प्रेरणा से नित किये उत्सव नये ॥ निर्मित किया मण्डप वहां जो दिव्य वर सुरलोक सा, आया चतुविध संघ मिलकर सत्य सुखदा योग था ।। २१ ।।
डंका बजाया जैन शासन पूर्ण मरुधर देश में, यश कीर्ति पा गुरु पास आये चित्त था अखिलेश में ।। गुरुदेव को वंदन किया गुरु हो प्रसन्न कहा तदा, इस भांति ही करते रहोगे काम शासन के सदा ||२२||
बी.नि.सं. २५०३-२
राजगढ़ के भावुकों की प्रार्थना को मान्य कर, गुरु शिष्य मण्डल ले पधारे मालवा धन धान्य भर ॥ विद्या विजय मुनि मुख्य सब में करत सर्व प्रवर्तना, गुरु आण धारक नित्य करते देव की अर्चना || २३ ॥ गुरु
संपूर्ण मालव भूमि में था हर्ष नूतन छा गया, चौमास घोषित राजगढ़ में धर्म मंगल आ गया ।। गुरु संघ में थे आप करते संघ को प्रेरित सदा, करना शताब्दी अर्द्ध उत्सव ॠण करें गुरु का अदा ||२४||
उत्सव मनाया संघ ने मिल पूज्य गुरुवर भक्ति का, उसमें क्षति नहीं अंश भर थी व्यय किया निज शक्ति का ।। इतिहास में यह अमर संस्कृति विश्व विद्युत बन गई, गुरु संग में भी आप की तब प्रेरणा निशदिन नई ||२५||
आज्ञा हुई गुरुदेव की जा किए प्रतिष्ठित जिनवरा, मंदिर खवासा लेडगावे ध्वज दशाई जावरा || जो जो मिली आज्ञा उसी का हर्षयुत पालन किया, गुरुभक्ति से की आत्म शुद्धि पाप प्रक्षालन किया ।।२६।।
सागर शशि अंबर नेत्र विक्रम आई कार्तिक पूर्णिमा, उपधान तप था चल रहा तप धर्म की थी स्वर्णिमा || गुरुदेव श्री यतीन्द्र ने कहा संघ सम्मुख साज में, अब दे रहा आचार्य पद विद्याविजय को आज मैं ||२७||
श्री संघ ने स्वीकार कर गुरुदेव के आदेश को, जयविजय करके हृदय पर अंकित किया संदेश को ॥ गुरु पौष सुदी तृतीया बुधे हि जब गये सुरलोक में, विरह गुरु का दुःखद सभी को संघ सारा शोक में ||२८||
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ भूमि वन गई पावन धरा वहां गुरु किया संस्कार अग्नि भूमि बन गई उर्वरा ॥ समाधि गुरु मंदिर बना वहां दिव्य निर्मित जो किया, उस हेतु विद्या विजयजी ने संघ को उन्मुख किया ||२९||
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का उद्धार तुम करना सही, गुरुराज श्री राजेन्द्र का वर तीर्थ तारक है यही ॥ संस्था चलाई चल रही सहयोग देना योग्य है, समाज संगठन बनाना यही सबल आरोग्य है ||३०||
इन्दौर से चोमास करके गच्छ हित की योजना, आये सभी मुनिराज भी यहां ति हित की योजना | गुरुदेव का आदेश शिरसावंद होगा सर्व को, उसकी करें परिपालना सब छोड़ मिथ्या गर्व को ||३१||
श्री संघ आकोली विनंती कर रहा कर जोड़ के, करना प्रतिष्ठा जिन भवन की आज ममता छोड़ के || मुनिवृन्द लेकर के पधारे स्पर्शना मरुधाम की, जा की प्रतिष्ठा आदि जिनकी वृद्धि यश गुरुनाम की ||३२||
६५
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जागृत हुई शुभ भावना तब संघ ने था यों कहा, हम भीनमाल निवासी विनती कर रहे गुरु से यहां || मंदिर बने कई वर्ष बीते अब प्रतिष्ठा कीजिये यह कार्य कर गुरुदेव हमको मुक्ति ऋण से दीजिये ।। २३ ।।
वह वर्ष हर्षित कर गया जब मुहूर्त मुनिवर ने दिया, वर अस्त उदयाचल दिशा में चैत्य जिन उत्सव किया || दोनों जिनालय वीर जिनके की प्रतिष्ठा वीर की, गुरु आण धारक, संघ, प्रमुख शांत मुद्रा धीर की ||३४||
उपधान करवाया पुडा में वास चातुर्मास का, उपधान करवाया सिवाणा योग था उल्लास का ।। सूरी प्रतिष्ठा हुई अनुपम और कीनी पादरू, सब संघ में आनन्द छावा धन्य मुनि शम सागरू ||३५||
कर भीनमाल चौमास विचरे भूमि मनहर मालवा, यात्रार्थ गुरु-भू-तीर्थं पावन कर्म कष्मल टालवा || गुरु सप्तमी उत्सव मनाय संप ने मिलकर वहां, श्री मोहनखेड़ा धाम सा अन्यत्र आनन्द है कहां ||३६||
|
संघ प्रमुख विद्या विजयजी योग्य पद आचार्य के, निर्णय किया करना विभूषित प्रकट गुण है आर्य के || निर्मित हुआ तैयार जय गुरुदेव मंदिर भव्य था, करना प्रतिष्ठा थी उसी की दर्शनीय वर नव्य था ।। ३७।।
द्विसहस्र विशति वर्ष फाल्गुन षष्ठ तिथि जयकार है, गुरुदेव सूरि यतीन्द्र ज्ञानी विश्वजन आधार है ।। उनकी प्रतिष्ठा हो रही थी पाट उत्सव भी तथा, था गीतवर संगीत मुखरित साज अभिनव सर्वथा ||३८||
शुभ लग्नवर नवमांश में गुरुमूर्ति को स्थापित किया, श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरि नाम उद्घोषित किया || आचार्य पद आसीन होकर सर्व को दी देशना, गुरु गच्छ की प्रगति सदा हो संघ में सद्भावना ||३९|| पुष्पाकुमारी को मुदीक्षा दी हुई प्रियदर्शना विश्राम कर कुछ राजगढ़ फिर की मरुधर स्पर्शना ।। आहोर में पुखराज जी को दी सुदीक्षा थी मुदा, दिया शुभ नाम मुनि रामचन्द्र हो विजय गुरु सर्वदा ||४०||
था मोहन खड़ा में किसी परिषद अधिवेशन यदा, राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद कार्यकर आये तदा ।। तब कहा था सूरीश ने शिक्षा प्रसारण चाहिये, रख विनय विवेक व धर्मनीति सर्व बढ़ते जाइए ||४१ ||
"विद्या विनोद" है भाग दो चली लेखनी भक्ति प्रति, "जिनदेव स्तुति" "भूपेन्द्रसूरि गीत पुष्पांजलि" तति ॥ "शास्त्रार्थ दिग्दर्शन" तथा "श्री यतीन्द्र वाणी" है लिखे, सबके विषय हैं भिन्न पर नहि न्यूनता कोई दिखी ||४२ ||
६६
है काव्य “श्री शिवादेवीनंदन" और "आदीश्वर" लिखा, सु " दशावतारी" काव्य सुन्दर क्षयोपशम उसमें दिखा ।। श्रीचरण तीर्थंकर महावीर रचना दिव्य है,
"श्रीमद् यतीन्द्र सूरि" काव्य शुभ दृष्टि में अति नव्य है ||४३||
भूती नगर दीक्षा दिलाई भाई चुन्नीलाल को, खिमा विजय दिया नाम उनका और संयममाल को |
दी डूडसी में सोनजी को भागवति दीक्षा यदा, चेतन विजय मुनि नाम दे मंदिर प्रतिष्ठा की तदा ||४४ ॥
चौमास कर वर धाण सापुर संघ को प्रेरित किया, यात्रार्थ शत्रुंजय पधारे वासवर्षा तय किया || चौमास कर विचरे वहां से तीर्थ शंखेश्वर प्रति, है पांच दीक्षा नगर थिरपुर शीघ्र जाना था अति ।। ४५ ।।
वी पुण्यवंता बालिकाएं दी गई दीक्षा तदा, कनकप्रभा किरणप्रभा श्री और कल्पकलता मुदा ।। हेमलता कुशलप्रभा श्री नाम जो सबके दिये, था वृन्द साध्वी मुक्ति श्री जी आद्य श्रमणी को लिए ||४६ ॥
दीक्षा गुडा दी राजमलजी नाम विनय विजय दिया, विहार कर गये राजगढ़ थे चातुर्मास वहां किया || गुरु सप्तमी कर बाग कुक्षी रिंगनोद पधारते, ध्वजदण्ड आरोहण प्रतिष्ठा संघ कार्य सुधारते ||४७||
दीक्षा दिलाई कुक्षी में थी बाई सज्जन को तदा, दे नाम चन्दन श्री वहां पर कार्य पावन सर्वदा || यात्रार्थ तालनपुर गये तब श्रमण श्रमणी सर्व थे, श्रावक तथा श्री श्रविकाएं पूज्य श्री गत वर्ष थे ।।४८ ।।
संयम दिया ज्योति मयाचंद साधुजन मन रंग में, कोमल लता केवल विजय वर नाम सब उछरंग में ।। श्री भीनमाल कुमारिकाएं तीन को दीक्षित ि शुभ सद्गुणाची वन सुनंदा नाम सुमंगल दिया ॥४९॥ कर बोरटा में जिन प्रतिष्ठा कीर्ति गुरु जग जोर में, बस्तीमल से कीर्ति विजय जी दीक्ख दी आहोर में ।। हुई विनती संघ की मान्य कर चौमास सियाणा पुनि, चरित्र नथमल को दिया शुभ नाम रवीन्द्र विजय मुनि ॥५०॥
उन्नति, पश्चात् चौमासा पादरू में नित्य संघ की संयम दिया था छगनजी को हेमविजय शुभ थी मति ॥ जा सिद्धगिरि की छांव में चौमास चंपावास में, करवा सुखद उपधान मोहनखेड़ा वर करके अवति नगरी में फिर
चातुर्मास में दशपुर तथा आलोट में की प्रभु प्रतिष्ठा खास को ॥ आलोट में, कैलाश श्री को आपने संयम दिया, विहार करके आये मरुधर संघ ने स्वागत किया ।।५२.०
राजेयोति
उल्लास में ।। ५१ ।।
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श्रीमाल पार्श्वप्रभु प्रतिष्ठा की प्रताप सराय में, चौमास हित थिरपुर पधारे वीर विभुवर छाय में ।। आये फिर भीनमाल पुर उपधान की तैयारियां, उल्लास से शुभ कार्य पूर्ति गीत गाती नारियां ।।५३।। कर बागरा ध्वज दण्ड उत्सव संघ था प्रमुदित मना, चौमास कोसेलाव में यह योग था सुन्दर बना ।। चौमास कोसेलाव करके भूति पावा थे गये, पुनः चलने कोसेलाव में भक्तजन थे आ गये ।।५४।। दीक्षा दिलाना बहन को गुर्रा। आइये वापस मुदा, आकर दिया संयम किया था नाम चन्द्रकला तदा ।। फिर गोंडवाड़ विहारकर की कोरटा गुरु सप्तमी, कर शुभ प्रतिष्ठापन प्रभु को पुर नेनावा उद्यमी ।।५५।। कर खाचरोद निवास वर्षावास अनुपम भाव से, साथ सबके सरल वृत्ति रख मिल रहे सद्भाव से ।। गुरुदेव की करके प्रतिष्ठा दादावाड़ी जावरा, की मोहनखेड़ा तीर्थयात्रा भूमि पावन उर्वरा ॥५६।। विहार कर गये गढ़ सिवाना प्रतिष्ठित चौमुख किये, थे पारलू वहां से पधारे जिन शीतल स्थापित किये ।। दीक्षा दिलाई बहन विमला नाम विमलयशा दिया, सब कार्य को सम्पन्न करके गमन मालव को किया ।।५७।।
राजगढ़ चौमास में की देव गुरु आराधना. सुन विनती शिरपुर संघ की फिर व्यक्त की शुभकामना ।। पधार कर वहां पर मुदा वर भव्य उद्यापन किया, आया चतुर्विध संघ का तब आपने अति यश लिया ।।५८।। शान्ता विरागिन शारदा को उस समय संयम दिया, दिया शशिकला श्री शशिप्रभा श्री नाम हर्षित था दिया ।। अत्यन्त आग्रह देखकर चौमास घानेरा धरा, आनन्द मंगल संघ में यह योग भाग्योदय भरा ।।५९।। चौमास करके थे पधारे पुरी भीनमाल यदा, भागल कराई शांति पूजा सप्तमी माण्डव मुदा ।। अंजन शलाका की प्रतिष्ठा नगर में गलदा अहा, करके सुराणाञ्जन शलाका भक्तजन हर्षित महा ॥६०॥ मरुभूमि में विचर वहां से और अहमदाबाद में, श्री संघ को प्रेरित किया था भक्तगण आहलाद में ।। गुरुभूमि मंदिर आदि जिनका हो रहा उद्धार था, आकर वहां मार्गदर्शन कार्य का निर्धार था ।।६१।। वह कार्य चलता है त्वरा से आपके सानिध्य में, दिन दिन गति प्रगति वहां पर भावना आराध्य में ।। शुभ कामना सद्भावना है हो प्रतिष्ठा वर मुदा, हो वंदना शत सूरिवर को कीर्तियश वृद्धि सदा ।।६२।।
"विष-मिश्रित भोजन देकर चकोर अपने नेत्र मुंद लेता है, हंस कोलाहल करने लगता है, मैना वमन करने लगती है, तोता आक्रोश में आ जाता है, बन्दर विष्टा करने लगता है, कोकिल मर जाता है, क्रौच नाचने लगता है, नेवला और कौआ प्रसन्न होने लगते हैं; अतः जीवन को सुखी रखने के लिए सावधानी से संशोधन कर भोजन करना चाहिये।
"व्यभिचार कभी सुखदायी नहीं है, अनन्तः इससे अनेक व्याधियों-कष्टों से घिर जाना पड़ता है।
-राजेन्द्र सूरि
स्त्री.नि.सं. २५०३
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शान्तमूर्ति उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी
भगवान महावीर ने दो प्रकार के धर्म का निरूपण किया है। श्रमण धर्म और श्रावक धर्मं । श्रमण धर्म में महाव्रतों का पालन होता है और श्रावक धर्म में अणुव्रतों का । श्रमण धर्म का पालन करने वाले साधु क्षमाशील और परोपकारी होते हैं। उनका जीवन एक आदर्श जीवन होता है। एसा ही आदर्श जीवन था उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी महाराज का विनय-गुण आप में कर भरा हुवा था ।
विनोद संघवी
आपका जन्म संवत् १९११ भाद्रपद कृष्णा १ को सांबूजा गांव में हुवा था । सांबूजा गांव राजस्थान राज्य के जालोर जिले की आहोर तहसील में है आपके पिता श्री बीचन्दजी राजपुरोहित थे । आपकी माता का नाम लक्ष्मीदेवी था। आपका जन्म मातापिता का सुख बढ़ाने का कारण बना। माता ने इसी कारण से आपका नाम मोहन रखा। आपके माता-पिता श्री प्रमोदसूरीश्वरजी महाराज के भक्त थे । एक बार वे मोहन को साथ लेकर गुरु महाराज के दर्शनार्थ आहोर गये। बदीचन्दजी अपने मोहन का भविष्य जानने को बड़े उत्सुक थे। अतः उन्होंने महाराज से कहा - " मैं अपने मोहन का भविष्य जानना चाहता हूं । कृपया मुझे यह बताइये कि उसके भाग्य में क्या लिखा है ?"
सूरिजी ने उत्तर दिया- महानुभाव, संसारी प्राणी जैसे शुभ अशुभ कर्म बांधता है वैसा ही उसका भाग्य बनता है । मोहन की भाग्य रेखा साफ यह बताती है कि यह बालक संसार के भोगों में लिप्त नहीं बनेगा, ग्यारह साल की उम्र में ही यह त्यागमार्ग का पथिक बन जायेगा । त्यागी बन कर यह स्व-पर के कल्याण में सहायक बनेगा |
६८
सूरिजी का उत्तर सुन कर बदीचन्दजी कुछ उदास से हो गये । अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उनके मन में उठने लगे । उनकी ऐसी हालत देख कर यूरिजी बोले- "फिक नयों करते हो वदी ।
तुम बड़े भाग्यवान हो । तुम्हारा पुत्र दीक्षा लेकर संसार दावानल से सन्तप्त अनेक जीवों का उद्धार करेगा । पूर्वकाल में भी अनेक महापुरुषों ने अपने बाल्यकाल में ही दीक्षा ली थी। शास्त्रकार फरमाते हैं-"जिस कुल के एक भी मनुष्य ने दीक्षा ली हो और उसका अच्छी तरह से पालन किया हो वह कुल उत्तम है। दीक्षा एक ऐसा पद है जो राजा-महाराजा और चक्रवर्ती जैसे समर्थ पुरुषों द्वारा भी स्वीकार किया गया है।
सूरिजी के उपदेश से प्रभावित हो कर बदीचन्दजी ने अपना मोहन सूरिजी को सौंप दिया। मोहन भी साधु संगति में ही रहना चाहता था। उसने अपने पिता से साफ कह दिया था - " मैं तो अब गुरु सेवा में ही रहना चाहता हूं, उसी में मुझे मेरा कल्याण नजर आता है।" अब मोहन का अभ्यास शुरू हुवा । प्रारम्भ में उसकी बुद्धि कुछ मंद थी पर गुरुकृपा ने काम कर दिया । मोहन ने लिखना पढ़ना सीख लिया और पंच प्रतिक्रमण, चार प्रकरण, भाष्य और कर्मग्रंथों का भी अध्ययन कर लिया। इसी विद्याभ्यास के साथ-साथ आपने नम्रता, विनय दाक्षिण्य, वाक्यमाधुर्य आदि गुणों का विकास भी हुवा |
'
श्री प्रमोदसूरिजी महाराज वृद्ध हो चले थे और उनका अधिकांश समय साधु नियमों के पालन में और ध्यान में व्यतीत होता था । अतः मोहन की पढ़ाई ठीक से नहीं होने पा रही थी। इसलिए उन्होंने मोहन को विशेष विद्याभ्यास के लिए श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज के पास भेज दिया। मोहन ने श्रीमद् के पास साल भर में चन्द्रिका का पूर्वार्द्ध और कुछ प्रकरण ग्रंथों का अध्ययन कर लिया । सूरिजी महाराज के उपदेशों का उस पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ रहा था । उसके हृदय में ज्ञानगर्भित वैराग्य जागने लगा था । संसार की असारता और विषयभोगों की तुच्छता उसकी समझ में आने लगी । अतः उसने श्रीमद् से दीक्षा प्रदान करने की याचना की । श्रीमद् मोहन की परीक्षा ली और अपने गुरु श्री प्रमोदजी महाराज से
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मोहन की दीक्षा के लिए आदेश मंगवाया । आदेश आते ही उन्होंने मोहन को संवत् १९३३ माघ सुदी २ को जावरा में अष्टाह्निका महोत्सवपूर्वक दीक्षा प्रदान की। भगवती दीक्षा के बाद मोहन का नया नाम मुनि मोहनविजय रखा गया । __दीक्षा के बाद आप श्रद्धा भक्तिपूर्वक गुरुसेवा करने लगे । आपने योगोद्वहनपूर्वक तेरह आगम ग्रन्थों का पठन किया। संवत् १९३९ मार्गशीर्ष वदी १ को गुरुदेव ने कुक्षी में आपको बड़ी दीक्षा प्रदान की । दीक्षा के बाद आपने इक्कीस चातुर्मास गुरु महाराज के साथ, एक चातुर्मास श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरिजी महाराज के साथ और तेईस चातुर्मास स्वतंत्र रूप से विभिन्न गांवों में किये।
आप ग्यारह साल तक गृहस्थावस्था में रहे और चवालीस वर्ष तक साधुजीवन में रहे। इस प्रकार पचपन साल की आयु पूर्ण करके आप कुक्षी (म. प्र.) से स्वर्ग सिधारे ।
उपाध्यायजी के संस्मरणीय कार्य-दीक्षाएं : १. संवत् १९५९ आषाढ़ सुदी ५ के दिन आपने सियाणा में दो
राजपूत यवकों को भगवती दीक्षा प्रदान की और उनके नाम
क्रमशः अमृतविजय और धीरविजय रखे । २. संवत् १९६३ ज्येष्ठ सुदी ५ के दिन आपने श्री केसाजी पोरवाल
की पुत्री बाई हस्तु को दीक्षा दी और उसका नाम देवश्री रखा। ३. संवत् १९६४ वैशाख वदी २ के दिन आपने भेसवाड़ा में आहोर
निवासी हम्माजी पोरवाल की पुत्री श्राविका कुंकु को दीक्षा
दी और उसका नाम धर्मश्री रखा। ४. संवत् १९७२ वैशाख सुदी १० के दिन आपने आहोर में जवानजी
पोरवाल की पुत्री बाई हीरी को दोक्षा दी और उसका नाम हेतश्री रखा।
आपकी प्रवचन शैली से अनेक लोग प्रभावित होते थे श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, वैष्णव आदि अनेक सम्प्रदायों के लोग आपके व्याख्यानों से लाभ उठाते थे। कई गांवों में आपने उपदेश दे देकर स्थानकवासियों को मंदिरमार्गी बनाया। अनेक गांवों के आपसी झगड़े भी आपने मिटाये । संवत् १९६९ में बागरा चातुर्मास में आपने उपधान तप की आराधना करवाई थी।
पूज्य आचार्य श्री धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने आपको संवत् १९६६ पौष सुदी ८ के दिन उपाध्याय पद से अलंकृत किया। प्रतिष्ठांजन शलाकादि कार्य १. संवत् १९६५ ज्येष्ठ सुदी ३ के दिन मन्दसौर में श्रीमद् विजय
राजेन्द्रसूरिजी महाराज की चरण पादुकाओं को छत्री में प्रतिष्ठित किया। संवत् १९६८ माघ सुदी ११ के दिन बड़नगर में भगवान श्री महावीर स्वामी आदि ग्यारह मूर्तियों की प्रतिष्ठांजन
शलाका भारी समारोह के साथ की। ३. संवत् १९६८ ज्येष्ठ सुदी ११ के दिन अमरावद में श्री आदि
नाथ स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा की । ४. संवत् १९७२ माघ सुदी १३ के दिन जालोर जिले के देबावल
गांव में श्री पार्श्वनाथ भगवान आदि तीन जिन-बिम्बों की
प्रतिष्ठा की। ५. इसके बाद आगरा में श्री पाश्वनाथ आदि तीन जिन बिम्बों
की प्रतिष्ठा और साथ में नई भूतियों की अंजन-शलाका की। ६. संवत् १९७३ माघ सुदी १० के दिन रोजाणा (म. प्र.) गांव
के जिनालय में विराजमान करने के लिए श्री आदिनाथ आदि
तीन पाषाण प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। ७. संवत् १९७५ में खाचरोद नगर में श्री आदिनाथ स्वामी आदि
तीन मूर्तियों की प्रतिष्ठा माघ सुदी १० को की और उन्हें मंदिर में पधराया गया।
इस प्रकार अनेक प्रकार के धर्मकार्य उपाध्यायजी महाराज ने अपने जीवन में किये। संवत् १९७५ का चातुर्मास आपने कुक्षी नगर में किया। इस चातुर्मास में आपको पक्षाघात की-लकवे की बीमारी हो गई। अनेक डाक्टरों ने आपका इलाज किया पर आपका रोग जरा भी घटा नहीं। वह बढ़ता ही गया। पूर्वकृत कर्म तो सभी को भोगना ही पड़ता है। दो साल छह महीने चार दिन तक आपको असह्य वेदना सहन करनी पड़ी । इसी बीमारी में संवत् १९७७ पौष सुदी ३ की रात को आपने देह त्याग किया अर्थात् आपका स्वर्गवास हो गया। उपाध्यायजी चले गये, पर उनकी स्मृति तो अब भी ताजी ही है और हमेशा ताजी रहेगी।
जैसे सुगन्धित वस्तु की सुवास कभी छिपी नहीं रहती, वैसे ही गुण अपने आप चमक उठते हैं।
समाज में जब तक धर्मश्रद्धालु श्रावक-श्राविकाएं न होंगी तब तक समाज अस्त-व्यस्त दशा में ही रहेगा।
-राजेन्द्र सूरि
बी.नि.सं. २५०३
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उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी
शताब्दियों से मालव की भूमि अनेक प्रकार के प्राकृतिक वैभव से समृद्ध रही है। इसके पावन अंचल से ऐसी अनेक विभूतियां आविर्भूत हुई है जो धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय क्षेत्र में भी प्रभावक सिद्ध हुई हैं। इस भूमि का महत्व इस दृष्टि से भी है कि इसने भारत का बक्षस्थल मध्य स्थान प्राप्त किया है। करीब सौ साल पूर्व की वह घड़ी अनुपम थी जबकि इस प्रदेश का प्रसिद्ध नगर भोपाल धन्य हो गया। उस समय अनेक जाति एवं वर्ण के लोगों ने यहां आबादी बढ़ाई थी और सभी अपने-अपने व्यवसायों में व्यस्त थे ।
शान्तिलाल दुग्गड
फूलमाली श्री गंगारामजी भी भोपाल के ही निवासी थे उनके कुल में एक ऐसा कुलदीपक प्रज्वलित हुआ जिसने अपने रत्नत्रय से जैन समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया। सौभाग्यवती मथुरादेवी उस दिन धन्य हो गई जब उनकी कोख से बलदेव ने जन्म धारण किया था। वह दिन था वि. सं. १९४० का वैशाख शुक्ला ३ अर्थात् अक्षय तृतीया का । इसी दिन बलदेव का जन्म हुआ था । बलदेव के जन्म से सारे परिवार में आनन्द छा गया, लगता था, बलदेव देवीबल अपने साथ लेकर अवतरित हुए 1
बलदेव दिन दूने रात चौगुने बढ़ते गये । उनका भाग्य भी धीरे-धीरे प्रकट होने लगा। बलदेव ने शैशवावस्था पूर्ण कर किशोरावस्था में प्रवेश किया और उनकी भाग्य स्थिति ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया । जीव स्वीकृत कर्म के उदय को भोगता है। और वही कर्मोदय की स्थिति व्यक्ति को अपने इष्ट की ओर प्रेरित करती है । जैसे जैसे बलदेव सांसारिक विषयों से परिचित होते गये वैसे उन्हें संसार की क्षणिकता और असारता का अनुभव होता गया ।
भाग्योदय से उन्हें पूज्य गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्रीमद् धनविजयजी महाराज की संगति प्राप्त हुई और उनकी वैराग्य भावना विशेष दृढ़ हुई। गुरुदेव श्री की आज्ञा प्राप्त करने के बाद वि. सं. १९५४ मार्गशीर्ष शुक्ला ८ को भीनमाल में बड़े भारी महोत्सव के साथ मुनिश्री धनविजयजी महाराज ने उन्हें भगवती दीक्षा प्रदान की और उन्हें मुनि गुलावविजयजी के नाम से सम्बोधित किया।
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मुनि श्री गुलाबविजयजी ने गुरु सेवा में रह कर अध्ययन, मनन एवं चितन में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की। उन्होंने साध्वा
चार की उत्कृष्ठता का अनुभव किया और जीवन में तदनुरूप आचरण भी किया। दीक्षा के तीन साल बाद यानी वि. सं. १९५७
पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने आपको बड़ी दीक्षा प्रदान की। पूज्य गुरुदेव के सहवास में रह कर आपने अपनी योग्यता को विशेष रूप से बढ़ाया एवं संस्कृत, प्राकृत और ज्योतिष में निपुणता प्राप्त की।
उन्होंने गांव-गांव घूम कर जन समाज को अपने उपदेश से जागृत 'किया। सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त करना आपका प्रमुख ध्येय था । इसलिये आपने जगह-जगह जाकर उपदेश दिये और समाज में सुधार किया । पूज्य मुनिश्री बड़े प्रतिभावान और उत्कृष्ट क्रियापालक साधु थे ।
मुनि श्री धीरविजयजी आपके शिष्य थे । अजित शांति स्तवन की गाथा रटते रटते उनका देहावसान हुआ था।
मुनिश्री गुलाबविजयजी ने ज्योतिष शास्त्र का गहन अध्ययन करके एक ज्योतिष विषयक ग्रंथ भी निर्माण किया था। राजेन्द्र गुण मंजरी नामक संस्कृत काव्य ग्रंथ का भी आपने निर्माण किया था। जिसमें पू. गुरुदेव का जीवन अनेक सुभाषितों के साथ लिखा गया है। इसके अलावा आपने गुरु देव गुण स्तवनावली और देवर्षि गुण रत्नाकर नामक पुस्तक श्रीमद् धनचन्द्र सूरिकृत भी संपादित कर प्रकाशित करवाई थी।
आप अपनी विशिष्ट ज्ञान शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। इसी कारण सं. १९९५ में आहोर ( राजस्थान) में परम पूज्य गुरुदेव श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब को जब आचार्य पद प्रदान किया गया था तब उसी समय आचार्य श्री ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था।
आप सत्क्रियापात्र, कुशल व्याख्याता एवं संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान थे। आपका अंतिम चातुर्मास संवत् २००३ में भीनमाल में हुआ। उसी साल माघ शुक्ला १३ को "ओम् अर्हम्" का जाप करते हुए आप श्री स्वर्गवासी हुए । उपाध्यायजी के स्वर्गवास से संघ की ऐसी क्षति हुई है, जिसकी पूर्ति अब असंभव है। आप जीवन भर पूज्य गुरुदेव के प्रति एकनिष्ठ रहे।
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श्रीमद् का प्रमुख श्रमणी-वृन्द
साध्वीजी श्री उदयश्रीजी रक्खा । राजगढ़ से आप विहार कर दाहोद पधारी वहां सं. १९३४ माघ शुक्ल ८ को आपका स्वर्गवास हुआ।
__महत्तारिका साध्वीजी श्री विद्याश्रीजी राजगढ़ चातुर्मास काल में सं. १९३४ आषाढ कृष्णा १२ को श्रीमती नन्दीबाई की दीक्षा हुई और आपका नाम साध्वीजीश्री "विद्याश्रीजी" रक्खा गया। आपके पिता का नाम शाह देवचन्दजी पोरवाल एवं माताजी का नाम श्रीमती चुन्नीबाई था । आपके पति भोपावर निवासी श्री भगवानजी थे। विवाह के लगभग तीन वर्ष बाद ही आप विधवा हो गईं। श्रीमती नन्दीबाई की आंखों में असहनीय पीड़ा हुई, औषधोपचार से आराम नहीं होने से उन्होंने शुद्ध भावना से अभिग्रह लिया कि मेरी नेत्र पीडा शान्त हो जायगी तो मैं दीक्षा ग्रहण करूंगी। ऐसा अभिग्रह लेने के ठीक एक महीने बाद नेत्र पीड़ा शान्त हो गई। परन्तु पतिदेव की मृत्यु हो जाने से लौकिक व्यवहार को निभाया एवं तीन वर्ष बाद दीक्षा ली।
परमात्मा महावीरदेव के शासन में चतुर्विध संघ का अपना अद्वितीय स्थान है, शासन-व्यवस्था में ये चारों अंग अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। श्रमणी-संघ अपनी मर्यादानुसार ग्रामों एवं नगरों में पैदल विहार कर महिला-समाज को जितना धार्मिक भावना की ओर आकर्षित कर सकता है, उतना श्रमण संघ नहीं क्योंकि महिलाएं साध्वियों के सामने निःसंकोच होकर अपने सुख-दुख को प्रकट कर सकती हैं, व उनके सदुपदेशमय सुशिक्षा एवं वचनों को भली-भांति हृदयंगम करती हुई, कार्यरूप में परिणत कर सकती हैं। इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर आचार्य देवेश प्रभ श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज साहब ने श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छ में श्रमणी-संघ की स्थापना का निश्चय किया।
साध्वीजी श्री अमरश्रीजी आचार्य देवेश ने भारी समारोह के साथ वरकाणा तीर्थाधिपति श्री पार्श्वनाथ प्रभु की छत्रछाया में सं. १९२६ फाल्गुन कृष्ण ८ के दिन विजय मुहुर्त में अतियांबाई और उनकी सखी लक्ष्मीबाई को भगवती दीक्षा देकर उनका नाम साध्वीजीश्री "अमरश्रीजी" तथा “साध्वीजी श्री लक्ष्मीश्रीजी" रक्खा। लक्ष्मीश्रीजी अमरथीजी की शिष्या हुई। इस प्रकार सौधर्मबृहत्तपागच्छ में पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पवित्र करकमलों से साध्वी संघ की स्थापना हुई।
श्रीमती अतियांबाई का आहोर निवासी सेठ टीकमजी की धर्मपत्नी मंगलाबाई की कूख से सं. १८९५ माघ शुक्ला ५ के दिन जन्म हुआ था। बचपन से ही आपने धार्मिक शिक्षण प्राप्त किया, विवाह हुआ, परन्तु दस वर्ष के बाद आप विधवा हो गईं। आपने भगवती दीक्षा लेने का निर्णय लिया और श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की श्रमणी संघ की प्रथम साध्वी "अमरोजी" बनी। मारवाड़ एवं मालवा के अनेक ग्रामों एवं नगरों में धर्म-प्रचार करती हुई सं. १९३४ में आप राजगढ़ पधारी, वहां पूज्य श्रीमद् के सान्नध्य में आप चातुर्मास के लिए रुकी। इस बीच आपने दो महिलाओं को दीक्षा देकर उनका नाम क्रमशः साध्वीजी श्री कुशलश्रीजी एवं
विनयसंपन्न साध्वीजी विद्याश्रीजी की कुशाग्रबुद्धि से गुरुणीजीश्री अमरश्रीजी पूर्ण प्रसन्न थी। आपने अपनी तीव्र बुद्धि से थोड़े ही समय में धार्मिक शास्त्रों के साथ व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि विविध विषयों का परिपूर्ण अध्ययन कर लिया एवं गुरुगम से एकादशांगी की सटीक अवगाहना की। गुरुणीश्रीजी अमरश्रीजी के स्वर्गवास होने के बाद आपने अपनी विलक्षणमति से श्रमणी संघ की बागडोर अपने हाथ में ले ली और उसे जागृत कर उन्नति के पथ पर अग्रसर करने में सफलता प्राप्त की।
आपकी अद्भुत ज्ञानशक्ति से सभी विस्मित थे एवं समाज में आप सब प्रकार से प्रशंसनीय बन चुकी थी। आपको सर्वत्र योग्य समझ झाबुआ में सं. १९५२ माघ शुक्ल १५ के दिन आचार्यदेवेश ने योगोद्दहन क्रिया कराके बड़ी दीक्षा देकर "महत्तारिका" पद प्रदान किया । आपको योग विद्या से अच्छा लगाव था । अर्धरात्रि में उठ कर आप कभी पद्मासन, कभी उत्कटासन, और कभी कार्योत्सर्ग और कभी अन्यान्यासन से घंटों तक योग साधना
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किया करती थीं। आपने सिद्धान्त कौमुदी, न्याय और काव्य ग्रंथों का गंभीर अध्ययन किया । आपकी शिष्याओं में पार्वतीश्रीजी साध्वीश्रीजी प्रेमधीजी एवं मानश्रीजी प्रमुख हैं।
प्रवर्तनीजी श्री प्रेमश्रीजी ___ आहोर के पास कांबा ग्राम के शाह उमाजी पोरवाल की धर्मपत्नी लक्ष्मीबाई की कूख से सं. १९१५ आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को चतुराबाई का जन्म हुआ। बचपन से धार्मिक कार्यों में आपकी विशेष रुचि थी। बचपन से ही आपने देव-वंदन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाओं का अध्ययन कर लिया। सं. १९२९ फाल्गुन शुक्ल ५ के शुभ दिन आपका विवाह हरजी निवासी शाह मनाजी बीसा पोरवाल के सुपुत्र भूताजी के साथ हुआ। परन्तु अशुभ कर्मों के उदय से अल्प समय में ही सं. १९३९ आषाढ़ कृष्णा ९ के दिन उनके पति का देहावसान हो गया और आपको असह्य वैधव्य का दुःख सहना पड़ा।
आप परम विदुषी महत्तारिका गुरुणीजी विद्याश्रीजी के संपर्क में आई। वैराग्य भावना बढ़ती ही गई और फिर हरजी में सं. १९४० आषाढ़ शुक्ला ६ के दिन शुभ लग्न में महत्तारिका विद्याश्रीजी ने आपको दीक्षा देकर साध्वीजीश्री "प्रेमश्रीजी" नाम रक्खा । दीक्षा ग्रहण करने के बाद प्रेमश्रीजी ने अपना चित्त अप्रतिहत गति से निरन्तर धार्मिक अध्ययन में लगाया। आपको सब प्रकार से योग्य समझ कर आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने झाबुआ में सं. १९५२ माघ शुक्ला १५ के दिन दीक्षा दी । आपने साध्वी समाज को शिक्षा की ओर प्रोत्साहित किया एवं मर्यादापूर्वक शुद्ध क्रियाओं का सम्यक्तया पालन करके दूसरों के लिए आदर्श उपस्थित किया। ___ सं. १९६२ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ को पूज्य महत्तारिका साध्वीश्रीजी विद्याश्रीजी का राजगढ़ में स्वर्गवास हो गया। श्री प्रेमश्रीजी ने गुरुणीजी की आदर्श सेवा की । खाचरोद में आचार्य देवेश विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब ने सं. १९६२ माघ शुक्ला १३ को प्रेमश्रीजी को प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया ।
गुरुणीजी के स्वर्गवास होने के पश्चात् आप पर साध्वी संघ का भार विशेष रूप से पड़ा। उन्हें मर्यादित रूप से चलाने के लिए पूरी देख रेख के साथ आपने अपने नाम की यथार्थता को पूर्णरूप से चरितार्थ किया। आपने मालवा, मारवाड़ व गुजरात आदि के विभिन्न स्थानों में चातुर्मास किए, वहां जप, तप, उद्यापन, सामायिक, पूजा, प्रभावना आदि धार्मिक क्रियाओं का अच्छा प्रचार किया। आपने साध्वी संघ की अच्छी अभिवृद्धि की।
प्रवर्तिनीजीश्री प्रेमश्रीजी ने वृद्धावस्था एवं शरीर अस्वस्थ होने के कारण १९८८ से बड़नगर में स्थायी निवास कर लिया । इस समय आपने अपना सारा अधिकार समीपस्थ अन्तेवासिनी श्री रायश्रीजी को दे दिया और आप स्वयं देव गुरु स्मरण में लीन हो गई। आपने अनशन व्रत धारण करके प्रभु स्मरण करते हुए आश्विन शुक्ल १२ शुक्रवार रात्रि को ३ बजे अपना क्षण-भंगुर
देह हमेशा के लिए त्याग दिया। प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्रीजी सदा धर्मध्यान में लीन रहा करती थीं। आपने अपना सारा जीवन धर्म एवं समाज के हित में ही व्यतीत किया ।
गुरुणीजी श्रीमानश्रीजी मारवाड़ के भीनमाल नगर के सेठ दलीचन्दजी ओखाजी की अर्धांगिनी नंदाबाई की कूख से वि. सं. १९१४ माघ शुक्ला १० के दिन वृद्धीबाई (बदी बाई) का जन्म हुआ। बचपन से ही आप एकान्तप्रिय थी एवं धर्म के प्रति आपका विशेष लगाव था। आपने व्यावहारिक शिक्षा माता-पिता से एवं धार्मिक शिक्षा साध्वीजी से प्राप्त की। प्रतिक्रमण, जीव-विचार, नवतत्व, दंडक, लघुसंग्रहणी, वृहत्संग्रहणी सूत्र आदि आपने सभी सीख लिए थे । पर्व दिनों में आप उपाश्रय में सामायिक लेकर कथा ग्रंथ भी बांच कर सुनाया करती थीं।
सं. १९२८ फाल्गुन कृष्णा २ के दिन आपका विवाह भीनमाल निवासी धूपचन्द्र लखमाजी भंडारी के साथ हुआ। तीन माह पर्यन्त ही गार्हस्थ्य सुख भोगने के पश्चात् अशुभ कर्मोदय से पतिदेव की अकस्मात् मृत्यु हो जाने के कारण आपको वैधव्य दुःख सहना पड़ा।
भीनमाल में विदुषी महत्तारिका गुरुणीश्री, विद्याश्रीजी का पदार्पण हुआ। गुरुणीजी के व्याख्यानों का जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा। बदीबाई के हृदय में पहले से ही वैराग्यभावना जागृत थी, उसको केवल मार्गदर्शक की आवश्यकता थी जो उन्हें गुरुणीजी से प्राप्त हुआ। सं. १९४१ आश्विन शुक्ला १० को गुरुणीजी विद्याश्रीजी ने बदीबाई को भेसवाड़ा ग्राम में दीक्षा देकर साध्वीजीश्री "मानश्रीजी" नाम दिया।
बारह वर्ष तक आपने अपनी गुरुणीजी के साथ रहकर उनकी सेवा करने के साथ साथ व्याकरण, जैन सिद्धान्त और विविध सैद्धांतिक बोलों का अभ्यास किया। आपको व्याख्यान शैली से सभी प्रभावित थे। झाबुआ में सं. १९५२ माघ शुक्ला १५ के दिन श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब ने आपको बड़ी दीक्षा दी।
शरीर में व्याधियां एवं नेत्र में ज्योति क्षीण होने से आपने अपना सारा अधिकार अपनी मुख्य अन्तेवासिनी साध्वीजीश्री भावश्रीजी को सौंप कर सं. १९८५ में आहोर में स्थायी मुकाम कर दिया। अन्त में समाधिध्यान वर्तते हुए सं. १९९० कार्तिक कृष्णा ६ रात्रि को साढ़े आठ बजे आपका देहावसान हो गया। आपने गुरु मर्यादा में रहकर के गुरुगच्छ की बहुत सेवा की।
आपने गच्छनायक और गुरुणीजी दोनों के स्मारक रूप में श्री मोहनखेड़ा तीर्थधाम में संघ को उपदेश देकर बहुत बढ़िया समाधि-मंदिर बनवाया । इस कार्य में श्री मनोहरश्रीजी एवं भावश्रीजी ने आपको अच्छा सहयोग दिया । गुरुणीजी श्रीमानश्रीजी सत्य और अहिंसा की उपासिका थीं। दीक्षा काल से अंतिमावस्था पर्यन्त आपने संयमधर्म को निरबाधता से पालन किया, उसमें अंशमात्र दोष नहीं लगने दिया। श्रमणि-संघ और श्राविकासंघ में आपके उपदेशों का असर आज भी ज्यों का त्यों विद्यमान है। ०
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राजेन-ज्योति
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विश्ववंद्य राजेन्द्र सूरि और हम
ओ. सी. जैन
कृशगात, हाथ में डंडा, रूई से श्वेत केश, शरीर पर झुर्रियां लेकिन दिव्य प्रभामंडल, आत्मजयी, अमरत्व लिए, दधीचिसा मन । ऐसा व्यक्तित्व ! यह सब तस्वीर में दर्शन कर रहा हूं। ___ ज्यों ज्यों उस व्यक्तित्व का चिन्तन करता हूं, मेरे हृदय प्रदेश में वे गहराते पैठते जाते हैं।
विगत कई वर्षों से एक विचार कौंध रहा, हम श्रीमद् राजेन्द्रमूरि के अनुयायी हैं। हमें यह ज्ञात नहीं है कि यह महापुरुष अन्ततः क्या था? क्या हम परम्परागत अनुयायी हैं या सत्तचे अर्थों में । सही में श्रीमद् राजेन्द्र सूरि को सामयिक संदर्भो में समझना आवश्यक हो गया है।
महावीर क्या थे? उनकी क्या आवश्यकता थी? वे महापुरुष कैसे बन गये? वे सही में समय के उत्पादन थे, किन्तु हम उन्हें योग मानते; यह हमारी भूल है। तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें महावीर बनाया। यही स्थिति श्रीमद् राजेन्द्र सूरि के साथ थी।
स्व 'पर' में, आचार अनाचार में, भावना दुर्भावना में, वैराग्य पाखंड में व्याप्त हो गए थे। कालचक्र ने जैनधर्म को सार्थक किया। हिंसा ने जैन धर्म की अहिंसा को बल दिया, किन्तु जिन आदर्शों को जैन धर्म ने दिया वे मलीन हो गये उन्हीं की प्रस्थापना ने श्रीमद् राजेन्द्र सूरि को जन्म दिया ।
फलस्वरूप जैन धर्म के संगठन (साधुसमाज और अनुयायियों) में एक नए अनुशासन तथा संयम की स्थापना हुई। यथार्थ में जैनधर्म का मूलरूप उजागर हुआ।
संतों अथवा त्यागियों के पास इत्र नहीं होना चाहिए। इसी आधार से उन्होंने अपने को बदल दिया। जीवन पर्यंत सादगीमय, अपरिग्रही जीवन व्यतीत किया। कहा जाता है कि वे अपने पास उतना ही परिग्रह रखते थे जितना वे उठा सकते थे। महाप्रयाण पर्यंत उन्हें चश्मा की आवश्यकता ही नहीं हुई।
एक समय रतलाम जैन संघ ने समारोहपूर्वक आचार्य श्री का स्वागत कर नगर प्रवेश कराना चाहा । किन्तु उन्होंने आडम्बर के प्रति ग्लानि के कारण यह सब अस्वीकार कर दिया ।
आज त्रिस्तृतिक जैन समाज के पास गौरवपूर्ण धरोहर है वह है श्रीमद् राजेन्द्र सूरि की विरासत ! जिस पर हम इठला सकते हैं।
महाकवि तुलसी जन-जन के भक्त कवि थे और पंडितों के गुरु । भाव यह कि वे यहां से वहां तक प्रविष्ट हो चुके थे; यही बात श्रीमद् राजेन्द्र सूरि में थी। उन्होंने सामान्य जन के लिए जो लिखा वह सर्वत्र लोकप्रिय हुआ, वहीं विद्वानों, चितकों के लिए विश्व कोश का निर्माण उनका पांडित्य प्रमाणित कर गया। फिर भी उन्होंने जो लिखा स्वान्तः सुखाय ही था।
यह सच है कि उस शती में जैन धर्म में उनका सानी कोई विद्वान नहीं था। वे ज्ञान की जिस गहराई में पहुंचे ठीक वहीं साधना की ऊंचाई उन्होंने प्राप्त की। मात्र तीन घंटे निद्रा लेना। सोते उठते समय ध्यानस्थ रहना उनकी चर्या थी। वे उस शताब्दी के महापुरुष थे। आज नाम श्रवण करते एक दिव्यता की अनुभूति होती है।
(शेष पृष्ठ ७६ पर)
धर्म में व्याप्त बुराइयों का अध्ययन किया। शास्त्रों की खोज में ऋषिचिन्तन किया । शास्त्र सम्मत आधारों को लेकर उसका शुद्ध और परिमाजित स्वरूप जैनानुयायियों के समक्ष उपस्थित किया। उन्होंने नया कुछ नहीं दिया। एक आडम्बर पूर्ण आवरण चढ़ गया था, निकाल फेंका। ऐसे थे श्रीमद् राजेन्द्र सूरि ।
वी. मि. सं.२५०३ /ख-२
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कुक्षी और गुरुदेव
मनोहरलाल जैन
"तालनपुर ने कुगसी, सुरपुर जिसी रे,
रसाल मोहनखेड़ा नमों भवि तीर्थ ने" सवत् १९५३ की आषाढ़ शुक्ल सप्तमी को तीरथमाल में जिन गुरुदेव ने कुगसी (कुक्षी) व तालनपुर तीर्थ के संबंध में उपरोक्त निनाद गंजाया है, उन्हें उनके १५० वें जन्म दिवस के अवसर पर शब्दाञ्जलि अर्पित न करना और उनके कुक्षी श्रीसंघ पर हुए उपकारों को याद न करना उनके प्रति कृतघ्नता के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता है।
पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का कुक्षी में प्रथम पदार्पण विक्रम संवत् १९२६ में हुआ था । कुक्षी में आम तौर पर यह जनधति है कि जब गरुदेव प्रथम बार कक्षी पधारे तब यहां तीन चार दिनों तक कुक्षी के विद्वान श्रावक श्री आसाजी, रायचन्दजी, देवचन्दजी, रिषभदासजी पुराणिक आदि के साथ उच्च कोटि का वाद-विवाद हुआ । गुरुदेव ने जब इन संघ प्रमखों की शंकाओं का समाधान कर दिया तब ही गुरुदेव को आडम्बर सहित नगर प्रवेश करवाया गया। यहां यह स्मरण रखने योग्य है कि गुरुदेव के आगमन के पूर्व कुक्षी में चतुस्तुतिक सम्प्रदाय के कमलकलशगच्छीय श्रावक थे, कुक्षी में प्रथम पदार्पण के साथ ही संघ को प्रतिबोध करके गुरुवर ने उसी वर्ष वैशाख (प्रथम) सुदी १५ पूर्णिमा के दिन तालनपुर तीर्थस्थित आदिनाथ जिन चैत्यालय के दर्शन करके स्वयं को धन्यभाग्य किया था। इस संबंध में स्पष्ट उल्लेख गुरुदेव के प्रमुख शिष्य मधुर स्तवन रचयिता श्रीमद् प्रमोद रुचिजी महाराज साहब ने अपने स्तवनों में किया है। स्तवनों के तत्संबंधित उद्धरण निम्न अनुसार है१. तालनपुर तीर्थ मण्डन श्री आदिनाथ स्तवन में
"गुरु गणधर गिरुआ सूरीश, विजय राजेन्द्र प्रभावी मुनीश । संघ प्रतिबोधी कुगसी नो दरिशण कीनो श्री जिनजी नो ॥५॥
संवत् ओगणीशसौ वरश छब्बीश प्रथम वैशाखी पूनम दीश ।
यात्रा धन्न ताहरी जगभाण वन्दे रुचि प्रमोद सुजाण ।।६।। २. सकल तीर्थ लावणी में मुनि लिखते हैं
नगर धुलेवा का धणी, बागड़ देश मझार
और केई गिरी शब्द में आदेश्वर आधार कुक्षी नगर दरश प्यारो जिनालय दीपे विस्तारो।। शान्तिनाथ प्रासाद जिनमें बिम्ब केई निरख्या
चौवीशी जिनजीकुं परख्या । कर्म अनन्ता बन्ध भवों का भेंटता सरख्या
चेतना निर्मल काये हरख्या ।। नगर कुगसी होई जातरा तालनपुर कीनी
संघ सकल भक्ति बहु कीनी। श्री जिनमार्ग दरश सरस समकित केई लीना
श्रावक ब्रतधारी कीना ।। श्रावक ब्रतधारी किया छब्बीसा की साल पूनम प्रथम वैशाख की भेट्या श्रीजगपाल
जगत में महिमा विस्तारो।। कुक्षी में गुरुवर का आगमन उनके क्रिया-उद्धार करने के एक वर्ष की अवधि में ही संवत् १९२६ में हुआ। उसी वर्ष गुरुदेवश्री से कुक्षी श्रीसंघ ने चातुर्मास करने की विनती की किन्तु पौषधशाला के अभाव में गुरुदेव ने चातुर्मास नहीं करके पौषधशाला के निर्माण हेतु संघ को प्रेरित किया। गुरुवर की प्रेरणा से उसी वर्ष पौषधशाला का निर्माण हुआ और अगले वर्ष संवत् १९२७ में कुक्षी में अपना प्रथम चातुर्मास गुरुदेव ने निर्विघ्न रूप से पूर्ण किया। इसी प्रथम चातुर्मास में गरुदेव ने “षडद्रव्यविचार" ग्रंथ की रचना की। गुरुदेव के कुक्षी में कुल तीन चातुर्मास हुए। प्रथम संवत् १९२७ में, द्वितीय संवत्
राजेन्द्र-ज्योति
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१९३९ में तथा तृतीय संवत् १९६१ में। संवत् १९६१ का चातुर्मास गुरु देव का कुक्षी में अन्तिम चातुर्मास था। इस चातुर्मास में गुरुवरने "प्राकृत व्याकृति व्याकरण", "प्राकृत शब्द रूपावली", "दीपमालिका देववन्दन" की रचना की। ___इन चातुर्मासों के अतिरिक्त गुरुवर ने कुक्षी में निम्न महोत्सव भी आयोजित करवाए-----
१. संवत् १९३५ में वैशाख सुदी ७ शनिवार को २१ जिनबिम्बों की प्राणप्रतिष्ठा करके उनकी स्थापना पहले से बने हुए शान्तिनाथजी के बड़े मन्दिर में करवाई।
२. संवत् १९४७ में नयापुरा मोहल्ले में स्थित आदिनाथ मन्दिर में ७५ प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा व स्थापना करवाई।
३. संवत् १९५० में माघ शुक्ल द्वितीया सोमवार को तालनपुर तीर्थ में संवत् १९२८ में चमत्कारिक रूप से प्रकटित प्रतिमा जो गाड़ी पार्श्वनाथजी की है, की अन्य ५० प्रतिमाओं से साथ प्राणप्रतिष्ठा करके स्थापना करवाई।
४. संवत् १९५४ में पौषधशाला में निर्मित ज्ञानमन्दिर की प्रतिष्ठा गुरुदेव द्वारा की गई। यही ज्ञानमन्दिर वर्तमान में गुरु मन्दिर होकर इसमें गुरुदेव की मनोहारी प्रतिमा विराजित है।
५. संवत् १९६१ के मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पंचमी को ७ प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा पूज्य गुरुदेव ने की।
इन प्राणप्रतिष्ठा, अञ्जनशलाका, ध्वजदण्ड एवं कलश स्थापना महोत्सवों के अतिरिक्त गुरुदेवधी के द्वारा कुक्षी में निम्न दीक्षा महोत्सवों का भी आयोजन करवाया गया था:-- १. संवत् १९३९ में मार्गशीर्ष माह की शक्ल पक्ष की द्वितीया
तिथि को मोहन विजयजी की बड़ी दीक्षा महोत्सव । २. संवत् १९५४ में मुनि श्री केशरविजयजी एवं हर्षविजयजी
का दीक्षा महोत्सव । कुक्षी श्रीसंघ के आग्रह पर ही गुरुदेवजी ने अष्टान्हिका व्याख्यान का बालाबबोध रूपान्तर भी किया है जिससे आज तक श्रीसंघ लाभान्वित हो रहा है।
कुक्षी श्रीसंघ पर गुरुवर ने संवत् १९५१ में चमत्कारिक उपकार कर के श्रीसंघ को अग्नि प्रकोप से बचाया था। संवत् १९५१ की चैत्री ओली आराधन के अवसर पर गुरुदेव किसी दिन ध्यानमग्न थे। इसी अवस्था में गुरुदेव ने देखा कि मिति वैशाख बदी ७ को कुक्षी के अम्बाराम ब्राह्मण के घर से अग्नि प्रकोप प्रारम्भ होगा और करीब १५०० मकानों का विनाश करेगा। गुरुदेव ने अपने परम श्रावकों से इस संबंध में भविष्यवाणी कहीं। निश्चित दिन अर्थात् वैशाख बदी ७ संवत् १९५१ को गुरुदेव राजगढ़ में विराजित थे। वहां पर उसी दिन सेठ थी चुन्नीलालजी खजान्ची को गुरुदेव ने वृत्तान्त कहा जिस पर से खजांची सेठ ने तार करके कुक्षी से समाचार बुलवाये तो सारा वृत्तान्त ही सत्य पाया। गुरुदेव की इस भविष्यवाणी के कारण से कुक्षी के अनेक भक्त श्रावकों का बहुत कम नुकसान हुआ। बी.नि.सं. २५०३
परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब ने अपने परम श्रावक कुक्षी के सेठ श्री माणकचन्दजी खूटवाला को तीर्थ पालीताणा में त्रिस्तुतिक समाज के साधुओं एवं श्रावकों के ठहरने हेतु स्थानाभाव की पूर्ति करने हेतु प्रेरित किया। इसी प्रेरणा से सेठ माणकचन्दजी ने पालीताणा में संवत् १९६१ में धर्मशाला का निर्माण करवाया। इस धर्मशाला को प्रथम त्रिस्तुतिक धर्मशाला होने का गौरव है । इस धर्मशाला को इसके वर्तमान रूप "चम्पा निवास" में परिवर्तित करने का श्रेय माणकचन्दजी के सुपूत्र गुरुभक्त श्री चम्पालालजी ने लिया।
गुरुदेव के समय उनके परम श्रावक सेठ आसाजी, रायचन्दजी, माणकचन्दजी, देवचन्दजी, रिषभदासजी पुराणिक आदि थे। ये सभी श्रावक आध्यात्मिक, नैतिक, आर्थिक रूप से संपन्न रहे। इनमें से देवचन्दजी व रायचन्दजी के कई स्तवन, चैत्यवन्दन स्ततियां आदि प्रचलित हैं।
कुक्षी स्थित शान्तिनाथजी के बड़े मंदिर, नयापुरा मोहल्ले का श्री आदिनाथजी का मन्दिर, शान्तिनाथजी का छोटा मन्दिर व तालनपुर के मन्दिरों में गुरुदेव के द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएं विराजित हैं। गुरुदेव के पश्चात् उनके शिष्यों के द्वारा कुक्षी में निम्न प्रतिष्ठा, मूर्ति स्थापना व दीक्षा महोत्सव आयोजित करवाए गये१. संवत् १९४७ की बैशाख सुदी ३ को महावीर स्वामी के मंदिर
में मुनि धनविजयजी (धनचन्द्रसूरीजी) द्वारा मूर्तियों को प्राण प्रतिष्ठा, अन्जनशलाका, ध्वजदण्ड व कलशारोहण करवाया
गया। २. संवत् १९८० की वसंत पंचमी को मुनि अमृतविजयजी द्वारा
मुनि चतुरविजयजी को दीक्षित किया गया । ३. संवत् १९८२ की ज्येष्ठ सुदी एकादशी को सीमन्धर स्वामी
के मन्दिर "रेवा विहार" की प्रतिष्ठा व मूर्ति स्थापना श्री यति
चन्द्रविजयजी द्वारा करवाई गई। ४. संवत् १९८३ में मुनि यतीन्द्रविजयजी द्वारा मुनि प्रेमविजयजी
को दीक्षित किया गया। ५. संवत् २०१७ की माह सुदी १४ को तालनपुर तीर्थ में गुरुदेव
की प्रतिमा मुनि श्री देवेन्द्रविजयजी के सान्निध्य में स्थापित
करवाई गई। ६. संवत् २०२३ को माघ शुक्ला ६ को वर्तमान आचार्य श्री द्वारा
सभी मन्दिरों के ध्वजदण्डों की प्रतिष्ठा तथा साध्वी चन्दनाश्रीजी
की दीक्षा समारोह आयोजित करवाया गया। ७. संवत् २०२८ में मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी ने साध्वीश्री अनन्त
गुणाश्रीजी को दीक्षित किया ।
कुक्षी को शान्त स्वभावी सरल हृदय उपाध्यायजी मोहनविजयजी व साध्वी श्री कंचनश्रीजी का अन्तिम संस्कार स्थल होने का भी सोभाग्य मिला है। इन दोनों के अंतिम संस्कार स्थल पर गरिमामय समाधियां कुक्षी से तालनपुर जाने वाले मार्ग पर निर्मित की हुई हैं।
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कुक्षी ने गुरुदेव द्वारा स्थापित संघ में साध्वी श्री कंचनश्रीजी, मुक्तिथीजी, स्वयंप्रभाश्रीजी एवं चन्दनाश्रीजी के रूप में विदुषी साध्वियां भी दी हैं।
कुक्षी व तालनपुर में पूज्य गुरुदेवजी की तीन मूर्तियां स्थापित की हुई हैं। कुक्षी में गुरुदेव द्वारा स्वयं प्रतिष्ठित ज्ञान मंदिर में आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीजी द्वारा संवत् १९८१ में प्रतिष्ठित प्रतिमा गुरुदेव की विराजित की गई थी किन्तु वह खण्डित हो जाने होने के कारण से वहां पर संवत् २००१ में श्री न्यायविजयजी द्वारा ग्राम दसाई में प्रतिष्ठित प्रतिमा गुरुदेव की स्थापित की गई है। यह प्रतिमा कुक्षी के प्रसिद्ध सेठ जारोलीजी द्वारा स्थापित की गई है। नयापुरा स्थित आदिनाथजी के मन्दिर के एक भाग में गुरुदेव की प्रतिमा पूज्य भूपेन्द्रसूरीजी द्वारा संवत् १९८१ में प्रतिष्ठित प्रतिमा स्थापित है। कुक्षी के समीपस्थ तीर्थ तालनपुर में गुरुदेव की प्रतिमा संवत् २०१४ में सेठ चम्पालालजी की धर्मपत्नी श्राविका हेतीबाई खूटवाला ने स्थापित करके अखूट लाभ कमाया है। इस प्रतिमा के विराजित किए जाने के पश्चात् तालनपुर के विकास की
ओर कुक्षी श्रीसंघ का ध्यान आकर्षित हुआ होकर वर्तमान में तीर्थ का विकास कार्य प्रारम्भ है। तीर्थ में अभी धर्मशाला के निर्माण का कार्य चल रहा है। तीर्थ की व्यवस्था वर्तमान में मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' को प्रेरणा से स्थापित "श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी" कर रही है।
इस प्रकार गुरुदेव द्वारा बहाई गई त्रिस्तुतिक सिद्धान्त की पवित्र धारा में कुक्षी ने स्वयं को प्लावित करते हुए इस धारा को बढ़ाने में भी सहयोग दिया है। शायद इसी कारण से गुरुदेव ने अपने जीवनकाल में तीन चातुर्मास कुक्षी में ही किए । अन्य किसी भी स्थान पर शायद गुरुदेव ने आचार्य काल में तीन चातुर्मास नहीं किए हैं। गुरुदेव की बहाई हुई संवत् १९२६ के प्रतिबोध की धारा आज भी कुक्षी को पूर्ण रूप से प्लावित किए हुए है । कुक्षी का प्रत्येक श्रावक आज भी गुरुदेव का सान्निध्य अनुभव करते हुए गुरुदेव का स्वयं को ऋणी अनुभव करता है तथा उनके द्वारा प्रज्वलित ज्योति को चिरकाल तक दीप्त रखने को संकल्पित है।
इति शुभम् ।
०
(विश्ववंद्य राजेन्द्र सूरि और हमः पृष्ठ ७३ का शेष)
श्रीमद् राजेन्द्र सूरि पर शोध होना अवशेष है जैसे इन पर शोधकार्य होगा, उनके कार्य प्रकाश में आयेंगे तभी पूर्ण मूल्यांकन होगा। यह शोध का स्वतंत्र विषय है। मुझे जो कहना है वह यह कि श्रीमद् राजेन्द्र सूरि ज्ञान, साधना और सदाचरण की त्रिवेणी में समान रूप से निमज्जित रहे।
जैन धर्म आत्मा का विज्ञान है । आचार्य श्री आत्मखोजी थे और उन्होंने अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त किया ।
पूज्य राजेन्द्र सूरि के जीवन की मुख्य कथाएं यहां कहने का लक्ष्य नहीं है। प्रश्न उनके बनाए मार्ग पर (स्वयं आचरण किया था) हम उनके अनुयायी (साधु तथा श्रावक समाज) कितना आचरण कर रहे हैं; यह देखने की बात है।
श्रीमद् राजेन्द्र सूरि के अनुयायी बनने और कहलाने का हमारा नैतिक अधिकार तब ही सुरक्षित रह सकता है जब हम उनके बताए आदर्शों पर पवित्रतापूर्वक मन वचन से आचरण करें। जहां हम ज्ञान की चर्चा करते हैं तब आचरण नाचता है। सदाचरण की आवश्यकता रहती है। ज्ञान तो कोरा बुद्धिक्रीड़ा है। अतः आज हमें उनके मार्ग पर चलने की सामयिक आवश्यकता है।
यह सच है कि उस महापुरुष को संपूर्ण रूप से आत्मसात् करने की हमारी क्षमता नहीं हो सकती है। लेकिन उन्हें लक्ष्य मान कर चलने का प्रयास तो हम कर सकते हैं। भटके नहीं। बस यही सच्ची गुरु भक्ति सिद्ध हो सकती है।
___ आचार्य श्री ज्ञान और आचरण की तुला में समान थे । आज नये-नये चिंतक, संत और भगवान बन रहे हैं वे आचरण में निश्चित रूप से इतने ऊंचे नहीं बन पाए। बुद्धि विलास के नये-नये आयाम भले ही दे देंवे किन्तु हमारी संस्कृति तो त्याग और सदाचरण से ही पूजी गई है । यह बात श्रीमद् राजेन्द्र सूरि में थी।
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"तीनथुइ" आम्नाय : मान्यताओं का
एक निष्पक्ष मूल्यांकन
- मुनि श्री जयन्तविजय 'मधुकर'
"त्रिस्तुतिक" आम्नाय जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्तों से पूरा तालमेल रखता है, उनका यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर तर्कसंगत प्रतिपादन करता है, और ऐसी भक्ति-भावना को प्रश्रय देता है, जो आत्मकल्याणकारी और शुद्धाचरणमुलक है तथा जिसका अन्धविश्वासों तथा भ्रान्त धारणाओं से कोई सरोकार नहीं है।
सम्यक्त्व जैनधर्म की नींव है, जिसका सीधा सम्बन्ध तर्क और विज्ञान से है। सम्यक्त्व का अन्धविश्वास या भ्रान्ति से कोई सरोकार नहीं है। सम्यक्त्व का साधन और सिद्धि दोनों की शुचिता से सम्बन्ध आता है; क्योंकि यह अत्यन्त वैज्ञानिक और तर्कसंगत है कि जैसा साधन होता है, वैसी ही सिद्धि होती है; या जैसी सिद्धि होती है, तदनुरूप साधन संपादित किये जाने चाहिये; एक-दूसरे की शुचिता-अशुचिता एकदुसरे को प्रभावित कर सकती है, करती है। देखा गया है कि माध्यम के दोषपूर्ण होने पर लक्ष्य या तो धुंधला जाता है, या हासिल नहीं हो पाता; अथवा साध्य की अस्पष्टता के कारण साधनों का समीचीन समायोजन संभव नहीं हो पाता है, इसलिए वे लोग, या आम्नाय जो सम्यक्त्व का यथाशक्ति अनुसरण-आचरण करते हैं, साधन और साध्य दोनों के निर्दोष और शुद्ध होने पर जोर देते हैं। "तीनथुइ” आम्नाय सम्यक्त्व को सर्वोपरि महत्त्व देता है, और आध्यात्मिक जीवन के हर क्षितिज को साधन-साध्य की शुचिता से निष्कलंक-निष्कलुष रखना चाहता है।
___ "त्रिस्तुतिक" और "चतुःस्तुतिक" आम्नायों का मूलाधार क्रमशः “तीन" और "चार" "देववन्दन" (चेइयवन्दण) हैं। दोनों आम्नायों में प्रथम तीन स्तुतियों को लेकर कोई मतभेद नहीं है। विवाद चौथी थुइ (स्तुति) को लेकर ही है । “तीनथुइ" के अनुयायी (१) किसी एक तीर्थंकर की स्तुति, (२) अवशिष्ट तीर्थंकरों की स्तुति तथा (३) जिनवाणी की स्तुति इस तरह तीन स्तुतियों को मानते हैं, जबकि “चारथुइ" के अनुयायी उक्त "देववंदन" के साथ एक चौथी थुइ और जोड़ते हैं। यह थुइ उन लौकिक देवी-देवताओं के गुणानुवाद से संबन्धित है, जो पार्थिवता में लिप्त हैं और सराग हैं। जो लौकिक हैं, जिनका आत्म-बल या वैभव अभी आवृत है, अप्रकट है उसकी अनुभूति (स्तुति के संदर्भ में) जैनधर्म भला कैसे दे सकता है? यदि कोई जैन वैसा करता है तो वह मिथ्यात्व के क्षेत्र में अनजाने ही प्रवेश कर जाता है, उसके ऐसा करने से सम्यक्त्व को चोट लगती है और जैनधर्म की वन्दना-पद्धति दूषित होती है, साध्य-साधन की शुचिता भी टूटती है।
हम जानते हैं, सभी जानते हैं कि जैन वन्दना का संबन्ध वीतरागता से है, सरागता के चरणों में जैन मस्तक कैसे झुक सकता है, और फिर कोई जैन यदि लौकिक देवी-देवताओं के आगे याचना की झोली पसारता है तो वह सम्यक्त्व के सीमा-क्षेत्र से सर्वथा बाहर निकल जाता है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि जिनेन्द्रदेव की वन्दना किसी लौकिक वांछा की पूर्ति अथवा किसी पार्थिव वैभव की प्राप्ति के लिए कभी नहीं की जाती वरन् उसका मूल लक्ष्य उस आत्मवैभव को अनावृत, उद्घाटित करना होता है, जिसके कारण "तीर्थकर" "तीर्थकर" कहे जाते हैं।
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'तत्त्वार्थसूत्र' के आरंभ में एक श्लोक आया है-"मोक्षमार्गस्य नेत्तार, भेत्तारं कर्मभूभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुण लब्धये ॥" जो मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं, जिन्होंने कर्मरूपी पर्वतों को नष्ट किया है, जो विश्वतत्वों के ज्ञाता हैं, उनकी वन्दना हम उक्त गणों की प्राप्ति के लिए करते हैं। इस तरह जैन वन्दना अत्यन्त निष्काम और गुण-प्रधान है, अतः इस पुनीत वन्दना-पद्धति को हम लौकिक लिप्साओं और लोभलाभों से जोड़कर दुषित नहीं कर सकते। इस मौलिक अन्तर के कारण एक समुदाय “तीनथुइ" और एक “चारथुइ" कहलाता है । “तीनथुइ" के अनुयायी "तीर्थकर" और "द्वादशांग" के अलावा अन्य किसी की वन्दना में आस्था नहीं रखते, उनका मूल ध्यान “समकित" (सम्यक्त्व) की रक्षा में प्रतिपल जागा रहता है। सम्यक्त्व की इतनी प्रतिपग, प्रतिपल रक्षा-व्यवस्था अन्य आम्नायों में नहीं हैं। "तीनथुइ" की मुख्य विशेषता है उसका आचरण-पक्ष। वह कथनी-करनी दोनों में एक बने रहने का प्रयत्न करता है; वस्तुतः “चौथीथुइ" का जैनधर्म-दर्शन की मुल मान्यताओं से कोई तर्कसम्मत संबन्ध नहीं है।
कहीं कहा गया है कि " जिनेतर देवताओं की वन्दना क्यों करता है ? क्या तू यह नहीं जानता कि तू स्वयं इतना शक्तिशाली है कि ये लौकिक देवी-देवता तेरी वन्दना कर सकते हैं।" तथ्य बहुत स्पष्ट है। यदि हम लौकिकों के चरणों में मस्तक नमाते हैं, उन्हें तीर्थंकर-तुल्य वन्दनीय मानते हैं तो हम सहज ही वीतरागता और सरागता की विभाजक-रेखा की पहचान खो बैठते हैं और अपने मूल लक्ष्य से भटक जाते हैं । वस्तुतः जैनमात्र वन्दना ही उन विभतियों की करता है, जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया है, तृष्णा को पराभूत किया है, आशा को ध्वस्त किया है, और कैवल्य को उपलब्ध किया है। भला कोई ऐसी कामधेन को छोड़कर बकरी दुहेगा, स्वर्ण छोड़कर फटक न इकट्ठा करेगा, दाख त्याग कर निमौली लेगा, ईख छोड़कर नीम चसेगा? निष्कर्ष में हम यही कहेंगे कि जैन "देवबन्दन" के अन्तर्गत अपना मस्तक आप्तपुरुषों के चरण-तल पर ही रख पाता है, अनाप्तजनों के प्रति वह भक्तिभाव में कभी विभोर नहीं हो पाता।
यदि हम गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि जैनों की पूजा या वन्दना-पद्धति अपने ढंग की निराली ही है। उसमें मिथ्यात्व या चमत्कार का कोई महत्त्व नहीं है। वह आमूलचूल गुणात्मक है, गुण-प्रधान उपासना-प्रणाली है, जहाँ स्तुति का अर्थ गुणानुवाद मात्र नहीं है वरन् आत्मबोध भी है। हमारी आत्मा में अन-त-अपरिसीम शक्ति है, हम उससे अनभिज्ञ हैं, इसीलिए हम उन आप्तपुरुषों की आदर्श के रूप में वन्दना करते हैं जो निलिप्त हैं, पारंगत हैं, जिन्होंने पार्थिवता पर विजय प्राप्त की है, जो रागद्वेष से परे हैं। हमारी संपूर्ण काम्यता कर्मनिर्जर। पर केन्द्रित रहती है। कोई भी जैनाराधक सम्पदा, समृद्धि अथवा अन्य लौकिक सफलता-उत्तीर्णता के लिए स्तुति नहीं करता, तह मात्र आत्मोपलब्धि के लिए उन विभूतियों को वन्दना-उपासना करता है जिन्होंने स्वयं को उपलब्ध किया है और जो अब सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा, बोतराग हैं। सोये हुए आत्मपुरुषार्थ को जगाने, उसे ललकारने के सशक्त माध्यम के रूप में ही “देववन्दन" का महत्त्व है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर कायोत्सर्गपूर्वक उसका सावधान संयोजन होता है।
जैन वन्दनाएँ वैराग्य, वीतरागता और निष्कामता से बंधी हुई हैं। उनकी पृष्ठभूमि पर कहीं कोई स्वार्थ या लोभ-लालसा नहीं है, वे इंच-इंच परमार्थ से बद्धमूल हैं। स्वयं की पहचान के लिए, अपने को जानने-चीन्हने के लिए अपने आदर्श का अपलक नमन, चिन्तन, ध्यान ही जैनों का “देववन्दन" है। अतः इसकी परमोज्ज्वलता को चनौती देना असंभव है। वस्तुतः इन स्तुतियों में गभित सम्यक्त्व इतना विदग्ध, प्रचण्ड और जीवन्त है कि उसका सहन-संवहन कोई आत्मयोगी ही कर सकता है। मामूली व्यक्ति के बूते की बात वह नहीं है। महाकवि सूरदास की यह पंक्ति कि "अपुनपौ आपुन ही बिसर्यो" हम पर तब लागू होती है जब हम सरागता को अपना मस्तक नमाते हैं। वस्तुतः हम आपा भूल गये हैं, और ये तीन स्तुतियाँ हमें उस भूले हुए आपे का स्मरण कराती हैं। हम क्या हैं ? हमें क्या होना चाहिये? "देववन्दन" के निर्दोष-पवित्र माध्यम द्वारा हम इसे ही जगाना चाहते हैं। सदसद् की परख-पहचान, हेयोपादेय का बोध, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व का भेद, भेदविज्ञान का मंपूर्ण दर्शन हमारी इन स्तुतियों का चरम लक्ष्य है।
बहुत कम लोग जानते हैं, किन्तु यह एक सुरज की तरह दीप्तिमन्त-ज्वलन्त तथ्य है कि जैनदर्शन का सर्वप्रथम प्रहार अन्धविश्वास पर है। अन्धविश्वास और मिथ्यात्य के लिए जैनधर्म के ढांचे में कहीं कोई स्थान नहीं है। चमत्कार, कुतूहल, झूठ, तर्करहित कथन, ऊलजलूल प्रदर्शन इत्यादि का जैनदर्शन से कोई तालमेल नहीं है। यहाँ जो भी हैं, यथार्थ है, वास्तविक है, समीचीन और तर्कसम्मत है, आत्मोत्थान कारक है और मुक्ति की ओर ले जाने वाला है। इसीलिए जैनधर्मशास्त्रों में केवल सम्यक्त्व की चर्चा-समीक्षा नहीं है वरन् मिथ्यात्व की भी उतनी ही विशद समीक्षा-मीमांसा है ताकि उसे ठीक से पहचाना जा सके और छोड़ा जा सके। वस्तुत: जैन साधना सम्यक्त्व को साधना है; सर्वथा निष्काम, निष्कांचन, निलिप्त । इसे हम एक तरह की आत्मनिर्भर साधना कह सकते हैं क्योंकि वह न तो परमुखापेक्षी है और न ही अन्य किसी पर आथित; संपूर्ण केन्द्र यहाँ व्यक्ति "स्वयं" है। वही योद्धा है, वहीं युद्ध है, वही युद्धस्थल है। इसलिए यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जैन वन्दना का चरम लक्ष्य उन आत्मिक शक्तियों को जगाना है जो जन्मजन्मान्तरों से सोयी हुई हैं, श्लथ-शिथिल हैं, और गफलत के कारण जिनका उपयोग नहीं हो पा रहा है। अतः "देववन्दन" का उद्देश्य हुआ कर्मनिर्जरण और मोक्षोपलब्धि । “तीनथुइ" की मंजिल भी बहुत साफ है, वह आत्मवैभव को उद्घाटित करने का शिल्प है, स्वभावतः "चौथीथुइ" की व्यवस्था अवास्तविक है और मिथ्यात्व से एक उथला समझौता है। ऐसा करने से, यदि हम ध्यान दें तो, जैनधर्म की बुनियाद को चोट पहुँचती है और सम्यक्त्व की हमारी पवित्र निष्ठा आहत होती है।
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मुनिश्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' की साहित्य-साधना
डॉ. नेमीचन्द जैन
अब तक वे ११ पुस्तकों का संकलन-संपादन कर चुके हैं और लगभग ३४ मौलिक कृतियों का प्रणयन ।
जिन्हें सब कहीं म निश्री 'मधुकर' के रूप में जाना जाता है, वे एक रससिद्ध संत साहित्यकार तो हैं ही, युवा और वृद्ध पीढ़ी के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी भी हैं। वे एक मनस्वी साधक हैं, भावनाशील हृदय के साहित्य-मनीषी हैं, अनेक भाषाओं के जानकार हैं, जीवन और जगत् के पारखी हैं, और जनतत्त्व-दर्शन के एक जिज्ञासु विशेषज्ञ हैं। आगामी २३ दिसम्बर १९७७: मार्गशीर्ष शुक्ल १३ को वे अपने जीवन के ४० वर्ष संपन्न कर ४१वें वर्ष में मंगल प्रवेश करेंगे। इस बीच उनकी कुछ ऐसी मूल्यवान कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं जो 'यावच्चन्द्रदिवाकरौं कभी पुरानी नहीं होंगी और मनुष्य-मात्र के लिए प्रेरणा एवं उत्थान की अजस्र स्रोत बनी रहेंगी। जैनमुनि के जीवन से जुड़ा सबमें महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह पाँव-पैदल सारा देश घूमता है, और अपने देश के जन-जन से जीता-जागता जीवन्त बिना किसी जातीय भेदभाव के एक आत्मीय परिजन की भाँति जनताजनार्दन को प्रभावित करता है। यदि हम गौर करें तो देखेंगे कि जैनसाधु नीतिशास्त्र के चलते-फिरते विश्वविद्यालय है; क्योंकि जो काम आज की शिक्षण-संस्थाएँ भारी खर्च पर नहीं कर पा रही हैं, उसे जनसाधु महज ही संपन्न कर रहे हैं। ____ और फिर मुनिश्री जयन्तविजयजी की सबसे बड़ी विशेषता है उनका अनेक भाषाओं का जानना । वे हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी जैसी साहित्यिक भाषाओं के जानकार तो हैं ही, उन्हें मालवी, मेवाड़ी और मारवाड़ी जैसी लोकभाषाओं पर भी अच्छा अधिकार है। यही कारण है कि उनके प्रेरक प्रवचन गजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश की जनता को एक डोर में बांधने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। उनके प्रवचनों में प्राचीन भाषाओं का वैभव, वर्तमान भाषाओं की जीवन्तता, और लोकभाषाओं की अलोकिक भावुरी पग-पग पर छलकती मिलती है। इस भाषावैविध्य के कारण ही उनकी भाषा-शैली सहज, स्वाभाविक, सुमधर, सुगम और सुप्रभावी है; वहाँ न किसी भाषा पर विशिष्ट अनुराग है, न कोई द्वेष, बल्कि एक ही लक्ष्य है मानव-जीवन को संस्कृति, नीति और अध्यात्म के नये आयाम देना-इसीलिए मुनिश्री के प्रवचन बहुआयामी, अनेकान्तात्मक, और अनायास ही दुराग्रहों से मुक्त हैं।
यह कभी संभव ही नहीं है कि किसी साहित्य-मनीषी का साहित्य अलग हो और जीवन अलग । “जैसा जीवन, वैसा लेखन" की दृष्टि से मुनिश्री मधुकरजी का संपूर्ण साहित्य एक निश्छल साधनावान, तपश्चर्यारत जीवन का उत्कृष्ट प्रतिबिम्ब है, शत-सहस्र सामान्य गृहस्थजनों को प्रेरित करता है और उन्हें एक उदात्त, श्रेयस्कर जीवन के लिए तत्पर करता है। जो काम श्रीमद्विजय-राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने आज से लगभग एक सदी पहले शुरू किया था, वह मधुकरजी के जीवन में और आगे बढ़ा है। यह कोई प्रच्छन्न तथ्य नहीं है वरन् एक उजागर सचाई है, जिसे उनकी भीड़-भरी प्रवचन-सभाओं में आसानी से खोजा जा सकता है। जो लोग यह मानते हैं कि, हम अतीत से हर हालत में बंधे रहेंगे, जल रुक गया होगा और उसमें सड़ांध पैदा हो चुकी होगी तो भी उसे काम में लेंगे, तो ऐसे अन्धविश्वासियों से मुनिश्री का कोई रिश्ता नहीं है, वे जल के निर्मल होने में भरोसा रखते हैं और अतीत के प्रति मात्र उज्ज्वलता का सगपण रखते हैं, आवश्यकत पड़ने पर आत्मिक उत्थान के लिए वे उसे भी तिलांजलि देने में किसी संकोच या भय का अनुभव नहीं करते। इस माने में वे श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वर के सच्चे प्रतिनिधि हैं, और उनकी उस उदात्त तटस्थ, निर्मम, कठोर, निर्मल परम्परा का समीचीन निर्वाह कर रहे हैं । जैन दर्शन की गहराइयों और उसकी निर्मलताओं को आम आदमी तक पहुँचाने का जो काम मुनिश्री मधुकरजी ने किया है, कर रहे हैं, उसकी उपमा उनका कार्य स्वयं है। वे अनन्य हैं। संक्षेपतः वे एक वाग्मी वक्ता हैं, बेलाग समीक्षक हैं, और ऐसे सारे कामों के विश्वासी हैं जो मनुष्य को कदम-दर-कदम बेहतर बनाते हैं, उसकी स्वाभाविक शक्तियों को जगाते हैं। उनके प्रवचनों से हम उनकी लोकप्रियता, उनके संप्रदायातीत व्यक्तित्व, स्वदेशभक्ति और समाज की संस्कारशुद्धि-भावना की थाह ले सकते हैं।
मुनिश्री मधुकरजी का दीक्षा-पूर्व जीवन बहुत सादगीपूर्ण, सुसंस्कार-संपन्न और आत्मोन्मुख था। दीक्षित होने से पहले उन्हें
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Daula
पूज्य मनिश्री की समस्त कृतियों का परिदर्शन पूनमचन्द कहा जाता था। वे उत्तर गुजरात के पेपराल ग्राम में जन्मे । उनकी पूज्य मातथी का नाम श्रीमती पार्वतीबाई और पूज्य पिताश्री का नाम श्री स्वरूपचन्द धरू है। पूनमचन्द की बुद्धि कुशाग्र थी और आरंभसे ही उसकी जैनतत्त्व-दर्शन की तल-अतल गहराइयों में उतरकर अवगाहन करने की प्रकृति थी, यही कारण है कि जीवन का मध्याहन जैसे लगा वैसे ही वे सत्रह वर्ष की गदराई अवस्था में वैराग्य की ओर मड़ गये। सियाणा (राजस्थान) में भरी तरुणाई में उन्होंने श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी से दीक्षा ग्रहण की; और तभी से उनके प्रमख लक्ष्य रहे-कठोर साधना, लोकोपयोगी सूजन, समाज-सेवा । आत्मोत्थान में अनक्षण जागृत मुनिश्री मधुकरजी का वक्त घड़ी के काँटों की भांति माहित्य-प्रणयन, धर्म-स्वाध्याय, तत्त्व-दर्शनमनन-अध्ययन में लगा रहता है। किन्तु इतना सब होते हुए भी वे कभी समाज की उपेक्षा नहीं करते, उसे समय देते हैं, और सामाजिकों के संस्कार-परिष्कार में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अदृप्त ज्ञानानराग के कारण ही वे जैन समाज को रूढ़ियों, अन्धविश्वासों और अज्ञान के निबिड़-दुर्भेद्य अंधेरों से बाहर खींच लाये हैं और पुरी कोशिश से उसे आलोकित करने में लगे हुए हैं।
मनिधी का साहित्य विपुल है, जिसे हम सुविधा के लिए छह वर्गों में विभाजित कर सकते हैं
(१) धार्मिक माहित्य-इसके अन्तर्गत उनकी वे कृतियाँ आती हैं, जो व्रत, पूजा, प्रतिक्रमण, अनुष्ठान, तीर्थ-परिचय इत्यादि से सम्बन्धित हैं।
(२) जीवन-प्रेरक माहित्य-सूक्तियों के संकलन और भक्तिसम्बन्धी कृतियाँ इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।
(३) सिद्धान्त-विवेचना से सम्बन्धित साहित्य-“श्री जीवभेद-विज्ञान", "राजेन्द्र कोष में 'अ' जैसी सैद्धान्तिक कृतियों को इम वर्ग के अन्तर्गत रखा जा सकता है।
(४) भगव न महावीर और उनके उपदेशों से सम्बन्धित साहित्य-इसके अन्तर्गत "भगवान महावीर ने क्या कहा?" जैसी कृतियाँ आयेंगी।
(५) गुरुभक्ति से सम्बन्धित साहित्य-"पूजात्रयम्" इत्यादि को इसके अन्तर्गत लिया जा सकता है।
(६) धर्मेतर माहित्य-"ज्योतिष-प्रवेश" इसके अन्तर्गत आता है।
साहित्य की विविध शैलियों और विधाओं की दृष्टि से मुनिश्री मधुकरजी के साहित्य को हम निम्न ४ श्रेणियों में संयोजित करेंगे
(१) काव्य (पद्य)-इसके अन्तर्गत गीत, वन्दनाएँ, पुजाएँ, भजन इत्यादि आते हैं।
(२) गद्य-इसके अन्तर्गत आते हैं पर्युषण-व्याख्यान, सूत्रविशदीकरण, प्रवचन-संकलन, मूक्ति-संकलन, विभिन्न पुस्तकों के लिए समय-समय पर लिखी गयी भनिभाएँ इत्यादि।
(३) गद्य-पद्य (मित्र)-इसके अन्तर्गत आने वाले साहित्य को हम गद्यकाच्य कह सकते हैं। मूलतः मुनिश्री मधुकरजी कविहृदय साहित्यकार हैं, इसलिए महज ही उनके संपूर्ण गद्य-साहित्य पर एक झीनी-सी काव्य-छटा छायी हुई हैं। इससे जहाँ एक ओर वे लोकप्रिय हुए हैं, उनके पाठकों की संख्या में वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर उनके काव्य में प्रसाद गुण परिपुष्ट हुआ है। उनके शब्द-चयन, पद-स्थापन और वाक्य-गठन तक में काव्य की यह सुरभि व्याप्त है । इस शैली के अन्तर्गत हम "पारस मणि" • "जीवन-मन्त्र" "जीवन-साधना" जैसी बहमल्य कृतियों की गणना कर सकते हैं।
(४) लोकवार्ता शैली-इसके अन्तर्गत उनके ऐसे भजन और गीत आते हैं, जो उन्होंने लोक या फिल्मी धुनों पर लिखे हैं। "भक्ति-भावना (हिन्दी, गुजराती)"; "भक्ति-सुधा" में उनकी ऐसी रचनाएँ संकलित हैं । ____ जहाँ तक मुनिश्री की भाषा-शैली वा प्रश्न है, उन्हें हिन्दी
और गुजराती भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त है। उनके वाक्य-विन्यास सहज-स्वाभाविक, लययुक्त अर्थात, सांगीतिक, संतृलित, निर्दोष है इसलिए आकर्षक, निमंत्रणीय और सुगम होते हैं । बहुत बड़े, भारी-भरकम, क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ठ शब्दों के प्रयोग की आदत उन्हें नहीं है । साफ-सुथरे लेखन के अभ्यासी श्री 'मधुकर' मुनि इसीलिए संतों की भांति बेलाग, तटस्थ और स्याद्वादी रहकर अपनी बात प्रस्तुत करने में सफल, समर्थ और सहज हैं। सातवीं कक्षा तक लौकिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी प्रतिभा और मनीषा के धनी मुनिधी संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी के निष्णात पंडित हैं, सच तो यह है कि उन्हें भाषा की यह बहुमूल्य बिरासत अपने परमगुरु श्रीमद्विजययतीन्द्रगूरीश्वरजी से वरदानस्वरूप मिली है। जहाँ तक उनकी शैली का प्रश्न है, वह भावप्रवण है, समास और व्यास शैलियों का मध्यम रूप हैं; जहाँ, जैसी विषय-वस्तु होती है तदनुरूप वे संक्षेप-विस्तार का उपयोग करते हैं। विषय की अनावश्यक खींचतान में उनकी कोई रुचि नहीं है, कम-से-कम शब्दों में पाठक को या श्रोता को उबाये बिना वे अपने विचार प्रस्तुत करने में ही विश्वास रखते हैं। इसलिए "भगवान महावीर ने क्या कहा ?" उनकी ऐसी पुस्तक नहीं है,
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राजेन्द्र-ज्योति
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जो सिर्फ दिग्गजों के उपयोग की ही हो वरन् एक ऐसी कृति है जिसे कोई भी बिना किसी कठिनाई के पढ़-समझ सकता है, और अपने जीवन को नयी करवट दे सकता है।
राजेन्द्र कोष" में 'अ'" भी उनकी एक ऐसी ही अनन्यअद्वितीय कृति है। कुल मिलाकर उनकी शैली का चरित्र बातचीतजैसा ही है, पग-पग पर अमुभव होता हैं जैसे कोई आत्मीय जन कान में जीवन को नवोत्थान देनेवाला कोई मन्त्र फेंक रहा है, हित-मित सलाह दे रहा है। उनके प्रवचनों की यह चुम्बकीय आत्मीयता किसी को भी उनका अपना बना लेती है। यदि हम उपमाओं में यात्रा करना पसंद करें तो कहेंगे कि मुनिश्री में अमराइयों-सी शोभाश्री और शीतल-सघन छाँव, नदी के प्रवाह-सी ताजगी और तेजस्विनी गतिशीलता, और एक संत-सी निष्कामता सहज ही उपलब्ध है । वे सबसे पहले एक मनस्वी संत हैं, तदनन्तर साहित्यसृष्टा । उनके साहित्य के दो स्पष्ट लक्ष्य-बिन्दु हैं-आत्महित, समाजहित । साहित्य की व्युत्पत्ति में सन्निहित "हित का भाव" उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व दोनों में परिलक्षित है । वे सत्य, शिव, सुन्दर के समन्वय हैं । वे सर्वत्र बन्धु, विश्वबन्धु हैं, अपरंपार वत्सलता के धनी ।
उनके संपूर्ण साहित्य का कालानुक्रम विहंगावलोकन इस प्रकार संभव है
-वी. नि. संवत् २४८९ : दीक्षा के ६ मास बाद सर्वप्रथम कृति 'पीयूषप्रभा" का गुजराती में प्रकाशन, इसी वर्ष हिन्दी में "आत्मदर्पण"; -वी. नि. सं. २४६१ में "आत्मदर्पण" हिन्दी में; -वी. नि. सं. २४८२ में "शीलत्व का सौरभ" हिन्दी में; -वी. नि. सं. २४८७ में 'पारस मणि" गुजराती में, “साधक नी प्रार्थना" तथा "जयविराय प्रार्थना सूत्र" जैसी चिन्तनात्मक कृतियों का प्रकाशन; -वी. नि. सं. २४८९ में “जीवनधन" गुजराती में; इसमें मुनिश्री की युवा ऊर्जा का अच्छा प्रतिबिम्ब मिलता है। यह एक विचारोत्तेजक और आत्मोत्थान की प्रेरणा देने वाली उत्कृष्ट कृति है, जिसके कुछ लेख-शीर्षक हैं-"अंतरना मंदिर अंजवाली" "घर शणगारवा कया रे?" -वी. नि. सं. २४९२ : हिन्दी में “जीवन-मंत्र" और गुजराती में 'सोनेरी संभारणा" कृतियों का प्रकाशन; इनमें से प्रथम का सम्बन्ध चरित्र-निर्माण और द्वितीय का सम्बन्ध धानेरा तीर्थ-परिचय से है। दोनों ही महत्त्वपूर्ण, मननीय
और संकलनीय हैं; -धी. नि. सं. २४९३ : "नवकार गुण-गंगा" प्रथम संस्करण गुजराती में प्रकाशित हुआ तदनन्तर क्रमशः २४९४, २४९६. २४९९, २५०० और २५०३ में इसके हिन्दी-अनुवाद प्रकाश में आये;
-वी.नि. सं. २४९४ : हिन्दी में "सविधि साधु पंचप्रतिक्रमण सूत्र" प्रकाशित हुआ, जिसकी प्रथमावृत्ति का संशोधन श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी ने स्वयं किया था; प्रथमावृत्ति कब प्रकाशित हुई इसका कोई उल्लेख संशोधित-परिवद्धित संस्करण में नहीं है। -वी.नि.सं. २४०६ : हिन्दी में 'पारस मणि" का प्रकाशन; यह कृति मुनिश्री के भावात्मक गद्य का प्रतिनिधि उदाहरण है; -वी. नि. सं. २४९७ : हिन्दी में "जीवन-साधना" तथा "भक्ति-भावना" का प्रकाशन, यह विद्वान् लेखक की एक अत्यधिक लोकप्रिय कृति है, जिसमें ८ पर्युषण-प्रवचन संकलित हैं, इसे बातचीत-जैसी घरेलू शैली में लिखा गया है, लगता है जैसे किसी हितेषी ने अंधेरे में एक दीया उजास दिया है। इसी वर्ष "मुहूर्तादिसंग्रह" भी प्रकाशित हुआ, जो आगे चलकर "ज्योतिष-प्रवेश" के रूप में नामान्तर से पल्लवितपरिवद्धित हुआ; -वी. नि.सं. २४९८ : "जीवन-साधना" का गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुआ; इसी वर्ष "भक्ति-भावना" भी हिन्दी में आई; "पूजात्रयम्" की प्रथमावृत्ति तथा "प्रकरण चतुष्टय" की संशोधित वृत्ति भी इसी वर्ष प्रकाशित हुई, सिद्धान्त-विवेचन की दृष्टि से "श्रीजीवभेद विज्ञान" जैसी लघु किन्तु महत्व की कृति का प्रकाशन भी हुआ; -वी. नि सं. २४९९ : "राजेन्द्र कोष में अ" "ज्योतिष-प्रवेश" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए; -वी. नि. सं. २५०० : "नवकार गुण-गंगा" का चतुर्थ
संस्करण प्रकाश में आया; -वी. नि. सं. २५०१ : "भक्ति-सुधा" तथा "भगवान महावीर ने क्या कहा ?" हिन्दी में प्रकाशित हुई; । -वी. नि. सं. २५०२ : श्री आदीश्वर जिनेन्द्र पंचकल्याणक
पूजा" प्रकाशित हुई; -वी. नि. सं. २५०३ : 'दर्शनविधि-दर्पण" का प्रकाशन हुआ; इसी वर्ष ''भगवान महावीर ने क्या कहा?" का गुजराती में "भगवान महावीर शं का?" शीर्षक से अनुबाद प्रकाशित हुआ; "श्री राजेन्द्र-ज्योति' ग्रन्थ के संपादन-प्रकाशन में मुनिश्री ने प्रमुख मार्गदर्शन दिया और एक सक्रिय रचनात्मक भूमिका निभायी; -वी. नि. सं. २५०४ के लिए "भगवान महावीर ने क्या कहा?" के हिन्दी संस्करण की द्वितीयावृत्ति मुद्रणाधीन है।
इस तरह मुनिश्री "मधुकर" जी के साधनारत जीवन का एक उज्जवल और प्रेरक पक्ष है साहित्य-सृष्टि, जिसने जैन साहित्य को तो समृद्ध किया ही, समाज के उदीयमान लेखकों और रचनाकारों को भी अधुनातन भाषा-शैली में लिखने के लिए उत्साहित किया।
वी. नि. सं. २५०३/ख-२
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श्री मनरंजनश्री जी म.
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श्री जिनश्री जी म.
श्री विमलश्री जी म.
श्री कंचनश्री जी म.
श्री पुण्यश्री जी म.
श्री दर्शनश्री जी म.
राजेन्द्र-क्योति
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२१.
सी
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पू.गुरुणी प्रेमश्रीजी म.
पू.ग. श्री मानश्रीजी म.
पू. गुरुणी भावश्रीजी म.
पू.गु.श्री मनहरथी जी म.
रणीप्रीमत
पू.गु.विनयश्री जी म.
गुरुणी श्री कमलाश्री जी म.
पू.गुरुणी हेतश्री जी म.
वी.नि.सं.२५०३
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राजेन्द्र- ज्योति तृतीय खण्ड
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समाज में जब तक धर्मश्रद्धालु श्रावक-श्राविकाएँ नहीं होंगी तब तक समाज अस्त-व्यस्त दशा में ही रहेगा।
-राजेन्द्र सूरि
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समाज-दर्शन
रतलाम नीमवाला उपाश्रय जो त्रिस्तुतिका समाज का प्रमुख केन्द्र है। इसकी व्यवस्था सेठ छबोलचन्द्रजो गुगलिया के पास सं. १९२५ से आरंभ हुई। समाज-अग्रण्य
१. फर्म जस्सुजी चतुर्भुजजी के स्वामी सेठ मथुरालालजी तथा मिश्रीमलजी ने निम्न कार्य किये
(१) सागोदिया तीर्थ की व्यवस्था। (२) सं. १९०१ में बाबा सा. मंदिर में ५२ जिनालय परि
क्रमांतर्गत सहस्रफणा पार्श्वनाथजी की प्रतिष्ठा । २. सेठ रूपचन्द रखबदास फर्म के स्वामी सेठ भागीरथ पोरवाल ने निम्न कार्य किये-- (१) पूज्य गुरुदेव के सूरत चातुर्मास के समय स्वर्ण अशफियों
की प्रभावना वितरित की (सं. १९६०) (२) यात्रासंघ स्पेशल ट्रेन द्वारा (सं. १९९०) . (३) लालचन्दजी के मंदिर में संगमरमर का कार्य (१९६२)
३. फर्म बीसाजी जवरचन्द पोरवाड़ के स्वामी सेठ प्यारचन्दजी व उनके पुत्र कन्हैयालालजी कश्यप ने निम्न कार्य किये--
(१) श्री कन्हैयालाल कश्यप जैन विद्या-भवन का निर्माण । (२) श्री अशोककुमार जैन कश्यप भवन ट्रस्ट । (३) श्रीमती झमकुबाई कन्हैयालाल कश्यप ट्रस्ट । (४) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में सभागृह का निर्माण । (५) नीमवाला उपाश्रय ट्रस्ट के प्रथम अध्यक्ष । (६) सागोदिया तीर्थ के व्यवस्थापक रहे।
४. सेठ मन्नालाल गंभीरचन्द्रजी चौपड़ा के कार्य । धर्म शिक्षा व तत्वचर्चा, राजेन्द्र अभिधान कोष के प्रकाशन कार्य में सहयोग, जैन कवि ।
५. सेठ गंगाराम घासीरामजी पोरवाल ने अपने समय में ही घासीराम साधारण ट्रस्ट का निर्माण कर समाज को एक भवन समर्पित किया।
६. फर्म सेठ रूपचन्दजी केसरीमल (नाथूलालजी पोरवाल) समाज के नीमवाला उपाश्रय के प्रथम अध्यक्ष रहे आपने निम्न कार्य किये-- (१) पाठशाला और आयंबिल खाते में स्थायी फण्ड का
निर्माण । (२) नीमवाला उपाश्रय के न्यास अध्यक्ष रहे।
७. श्री ताराचन्द घासीजी ने अपने जीवन काल में एक न्यास निर्माण कर अपनी समस्त चल अचल संपत्ति सन् १९४३ में समाज को समर्पित की।
८. मुनिराज श्री लक्ष्मणविजय एवं साध्वी महेन्द्रश्रीजी आदि ढाणा के सान्निध्य में श्रीमती कंचनबाई सागरमलजी मूणत ने सं. २०३१ में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ हेतु ४०० यात्रियों का एक पद यात्रा संघ निकाला।
९. श्रीमती मोतीबाई वोरा एवं श्रीमती केसरबाई धारीवाल ने पूज्य जैनाचार्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी की सेवा की-समाज में विद्यमान हैं । वे पूज्याचार्य के संस्मरण सुनाती रहती हैं।
१०. श्रीमती सद्दीबाई मिश्रीमलजी गुगलिया ने सन् १९५७ में एक न्यास निर्मित कर लालगुलाल वास स्थित भवन समाज को समर्पित किया। संघ ने उनकी ९४ वर्ष उम्र पर्यन्त सेवा की।
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गुरु मंदिर छत्री
सेठ लालचन्दजी रतनलालजी सुराणा गुरुमंदिर हेतु संगमरमर की गरुवेदी का निर्माण कर उपाश्रय को भेंट की।
सेठ नन्दलाल केसरीमलजी रांका ने पूज्य गुरुदेव की प्रतिमा की आचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी के करकमलों से अंजनशलाका सम्पन्न करवाकर संघ को भेंट की। दीक्षाएं
परम पुज्य तत्कालीन उपा. श्रीमद् यतीन्द्र विजयजी के करकमलों से मुनिराज श्री सागरानन्द विजयजी प्रथम दीक्षित हुए। ___ सेठ मोतीलाल चुन्नीलालजी गुगलिया ने अपने दो पुत्रों की भगवती दीक्षाएं मुनिराज श्री लक्ष्मणविजय के सान्निध्य में सम्पन्न कराई।
(१) मुनि लेखेन्द्रविजय
(२) मुनि लोकेन्द्रविजय स्वर्गवास
साध्वीजी श्री जड़ाव श्रीजी म.
श्री जैन श्वेताम्बर सौधर्म बृहत् तपागच्छ श्री राजेन्द्र सूरीश्वर त्रिस्तुतिक ट्रस्ट मंडल, रतलाम ।
इसके वर्तमान पदाधिकारी व सदस्य इस प्रकार हैं-- (१) श्री डा. प्रेमसिंहजी राठौड़
अध्यक्ष (२) श्री सागरमलजी पोरवाल उपाध्यक्ष (३) श्री फतेहलालजी कोठारी मंत्री (४) श्री डाडमचन्दजी वोरा
कोषाध्यक्ष (५) श्री सोहनलालजी मूणत सहमंत्री (६) श्री कन्हैयालालजी कश्यप
सदस्य (७) श्री सरदारमलजी संघवी (८) श्री रतनलालजी भंडारी (९) श्री सौभागमलजी मालक (१०) श्री श्रेणीककुमार घोचा (११) श्री कनकमलजी पारख (१२) श्री सुरेशचन्द्रजी आलोट वाला (१३) श्री गेंदालालजी गुप्ता (१४) श्री सुजानमलजी सोनी (१५) श्री हस्तीमलजी सुराना ट्रस्ट द्वारा किये गये विशिष्ट कार्य (१) उपाश्रय का जीर्णोद्धार-लगभग पचास हजार लागत से कराया
गया। मामा जुहारमलजी बोराना का निर्माण कार्य में सहयोग एवं उनकी सूझबूझ से ही प्रवचन हाल का सुन्दर स्वरूप बन सका । सर्वश्री संघवी सरदारमलजी एवं मदनलालजी सुराना की देखरेख उल्लेखनीय एवं सराहनीय
(२) चातुर्मास-वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सुरी
श्वरजी की आज्ञा से ५३ वर्ष की लंबी अवधि के बाद इस वर्ष पू. मुनिराजश्री जयंत विजयजी 'मधुकर' मनिमंडल, मुनिश्री विनय विजयजी, मुनिश्री नित्यानन्द विजयजी का चातुर्मास कराया गया। जिसमें ट्रस्ट के निर्णय के अनुसार चातुर्मास समिति एवं अन्य विभिन्न समितियों ने संतोषजनक एवं सराहनीय कार्य किया।
श्री राजमल लोढ़ा के कार्य श्री राजमल लोढ़ा दशपुर (मन्दसौर) मालव प्रदेश के जैन सिद्धान्तशास्त्री हैं। जैन समाज में जैन धर्म के पंडित के रूप में आप प्रसिद्ध हैं विगत ४०-४५ वर्षों से आपने जो धर्म सेवाएं की हैं, वे उल्लेखनीय हैं ।
परिषद' के लिए आपने अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहकर कार्य किये हैं। वर्तमान में आप शिक्षा मंत्री हैं । लोढ़ाजी का लेखन कार्य गतिशील रहा है। अनेक पुस्तकें आपने लिखी। सम्पादन कार्य तथा पत्रकारिता आपका व्यवसाय है। "ध्वज' जो मन्दसौर से प्रकाशित होता है उसके आप सम्पादक हैं । आपके संस्कार इतने प्रबल रहे कि आपके पुत्र (श्री सुरेन्द्र लोढ़ा) दर्शन, लेखन, वक्तृत्व आदि अनेक क्षेत्रों में सफलता की ओर अग्रसर हैं।
लीजिए श्री लोढ़ा ने जो प्राण प्रतिष्ठा, प्रतिष्ठाएं, शांतिस्नात्र, भगवान का प्रवेश, अठारह अभिषेक' आदि विधि विधान कार्य सम्पादित किये हैं उनकी सूची इस प्रकार है---- शान्ति स्नात्र विधान १. मन्दसौर : मन्दसौर में शान्तिस्नात्र विधान महोत्सव
१६ विभिन्न जिन मंदिर में हुए। २. रतलाम : रतलाम में २ शान्तिस्नात्र विधान महोत्सव
३. जावद
: जावद में ३ शान्तिस्नात्र विधान महोत्सव
४. बागेडा : बागेडा में १ महोत्सव हुआ।
(जावद) ५. पिपलोदा : पिपलोदा में १ महोत्सव हुआ। ६. उज्जैन : उज्जैन में २ महोत्सव हुए। ७. इन्दौर : इन्दौर में ४ महोत्सव हुए। ८. नीमच छावनी : नीमच छावनी में ३ महोत्सव हए। ९. नारायणगढ़ : नारायणगढ़ में १ महोत्सव हुआ। १०. कुकडेश्वर : कुकडेश्वर में १ महोत्सव हुआ। ११. भानपुरा : भानपुरा में १ महोत्सव हुआ। १२. मल्हारगढ़ : मल्हारगढ़ में १ महोत्सव हुआ। १३. मोहनखेड़ातीर्थ : मोहनखेड़ा तीर्थ में २ बार महोत्सव हुआ। १४. राजगढ़ : राजगढ़ में २ बार महोत्सव हुआ। १५. भाझोट भासोट में १ बार महोत्सव हुआ।
(मन्दसौर) १६. तराना तराना में १ बार महोत्सव हआ।
- राजेन्द्र-ज्योति
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१७. कनघेटी : कनघटी में १ बार महोत्सव हुआ ।
(मन्दसौर) १८. धुंधड़का धंधड़का में १ बार महोत्सव हुआ।
(मन्दसौर) १९. नहारगढ़ : नहारगढ़ में १ बार महोत्सव हआ। २०. पिपलोद : पिपलोद में १ बार महोत्सव हुआ।
(उज्जैन) २१. देवास : देवास में १ वार महोत्सव हुआ। २२. अलीराजपुर : अलीराजपुर में १ बार महोत्सव हुआ। २३. लक्ष्मणीजीतीर्थः लक्ष्मणीजी तीर्थ में १ बार महोत्सव हुआ। २४. कुक्षी : कुक्षी में १ बार महोत्सव हुआ। २५. बाग : बाग में १ बार महोत्सव हुआ। २६. नागपुर : नागपुर में १ बार महोत्सव हुआ। २७. फिरोजाबाद : फिरोजाबाद में १ बार महोत्सव हुआ। २८. थराद : थराद में ३ बार महोत्सव हुए। २१. पालीताना : पालीताना में २ बार महोत्सव हए । अठारह अभिषेपः शान्तिस्नात्र १. मन्दसौर : मन्दसौर के जिन मंदिरों में ५ महोत्सव हुए। २. सीतामऊ : आदिनाथ जिनालय में महोत्सव हुआ। ३. टांडा टांडा में जिन मंदिरों में ४ महोत्सव हुए। ४. उपरवाड़ा : वासुपूज्य मंदिर में महोत्सव हुआ।
(जावरा) ५. हतनारा : आदिनाथ मंदिर में महोत्सव हुआ।
(जावरा) प्राण प्रतिष्ठा १. मन्दसौर : नई आबादी जिन मंदिर में तथा अजितनाथ
मंदिर जनकपुरा में महोत्सव हुआ। २. जावद : जावद के जिन मंदिरों में ४ महोत्सव हुए। ३. जावरा : जावरा के आदिनाथ जिन मंदिरों में महोत्सव
हुआ। स्वर्गीय आचार्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी
आदि मुनिमण्डल के सानिध्य में। ४. उज्जैन : अवंतिपार्श्वनाथ जिन मंदिर में महोत्सव हुआ ५. इन्दौर : जूना कसेरा बाखल में आदिनाथ भगवान
का प्रवेश कराया। ६. संजीत : यहां जिनालय में प्रवेश कराया। ७. शुजालपुर : यहां आदिनाथ जिनालय में महोत्सव हुआ। ८. देवास : यहां नवीन जिन मंदिर में महोत्सव हुआ। ९. रिंगनोद (धार): यहां आदिनाथ जिन मंदिर में महोत्सव हुआ। १०. खाचरोद : यहां आदिनाथ जिनालय में महोत्सव हुआ। ११. आलोट : यहां वासुपूज्य नवीन जिन मंदिर में महोत्सव
हुआ। १२. अलीराजपुर : यहां शातिनाथ जिनालय में महोत्सव हुआ। १३. कुक्षी : यहां आदिनाथ जिनालय में महोत्सव हुआ। १४. बाग : यहां विमलनाथ मंदिर में महोत्सव हुआ।
१५. कामठी : यहां आदिनाथ मंदिर में महोत्सव हुआ।
(नागपुर) १६. खेरागढ़ : यहां आदिनाथ मंदिर में महोत्सव हुआ। १७. फिरोजाबाद : यहां आदिनाथ मंदिर में महोत्सव हुआ । १८. बालोदा : यहां आदिनाथ मंदिर में महोत्सव हुआ । लक्खा
ऐतिहासिक जिनालय, कचनारा मालवांचल स्थित दशपुर को प्रशासनिक दृष्टि से ग्राम कचनारा को प्रथम होने का गौरव प्राप्त है। ___लहलहाते खेतों के मध्य नीलाच्छादित सुरभित समीर में पल्लवित ग्राम के मध्य विश्वबंद्य जैनाचार्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से प्रतिष्ठित प्रथम तीर्थंकर भ. आदिनाथ की मनोहारी प्रतिमा आधुनिक साज सज्जायुक्त दर्शनीय है ।
जिन विम्ब की प्रतिष्ठा माघ शुक्ला सं. १९४८ को ग्राम श्रेष्ठि रामलालजी सुराणा मियाचन्दजी ओस्तवार, घेवरचन्दजी कर्नावट, जीवराजजी कर्नावट आदि की गौरवमयी उपस्थिति तथा निकटवर्ती ग्राम सरसोद, लसुडियाईला, पिपलिया जोधा, आन्या आदि के जैन धर्मावलम्बियों ने गगनभेदी शंखनाद के वातावरण तोरण द्वार से सज्जित विशाल पाण्डाल में (पांच सौ वर्ष पूर्व की प्रतिष्ठित प्रतिमा सं. १५४८), भ. चन्द्रप्रभु की प्रतिमा सहित पूज्य गुरुदेव के करकमलों से पुनः प्रतिष्ठापित की गई।
यह पावन स्थली जैन-अजैन के हृदयों में साधना के अनन्यतम केन्द्र के रूप में सर्वमान्य है।
. स्थानीय ग्राम के युवकों द्वारा जिनालय को कलात्मक बनाने का अपूर्व सहयोग मिल रहा है। जिनमें श्री मदन सुराणा एवं श्री हस्ती जैन का नाम उल्लेखनीय है। सभी ने संकल्प किया है कि विशाल चैत्यालय का निर्माण किया जावे ।
जिनालय के समीप ही श्री राजेन्द्र जैन पौषधशाला निर्मित है। लगभग ८० वर्ष पूर्व शाह श्री घेवरचन्दजी कर्नावट ने अपनी दानशीलता का परिचय देकर इसका निर्माण कराया।
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नयागांव
मंदसौर जिले के अन्तर्गत नयागांव मालव तथा मेवाड़ की संधि स्थल पर है । यहां १० परिवार जैन समाज के हैं।
संवत् १९४०--श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी महा. द्वारा मूलनायक महावीर स्वामी, दायें चन्द्रप्रभुजी, बायें पार्श्वनाथजी की प्रतिष्ठा की गई। चौधरी जीवराजजी मोतीलालजी ने निर्माण कराया पू. श्री राजेन्द्र सूरीश्वर के उपदेश से ।
संवत् २०१८--श्रीमान शोभालालजी भंवरलालजी डूंगरवाल ने उपाश्रय का निर्माण करवाया और आचार्य राजेन्द्रसूरीश्वरजी तथा यतीन्द्रसूरीश्वरजी के तेल चित्र की स्थापना मुनिराज श्री सौभाग्यमलजी, देवेन्द्रविजयजी, श्री जयंतविजयजी मधुकर के द्वारा स्थापित हुए।
बी.नि. सं. २५०३
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गुरुभक्त श्री श्रावक श्री कन्हैयालालजी व धर्मपत्नी सोसरबाई के पंचमी व नवपद उद्यापन उक्त, मुनिमंडल के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ ।
संवत् २०२० - - माघ शुक्ला पंचमी को श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी की प्रतिमा पूज्य विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से भी शांतिलालजी पतरसिंह नयागांव द्वारा प्रतिष्ठित हुई। श्री भंवरलालजी नानालालजी डूंगरवाल द्वारा आचार्य यतीन्द्र सूरीश्वरजी की प्रतिमा वर्तमान आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वर महाराज के करकमलों से प्रतिष्ठित हुई ।
मद्रास (तमिलनाडु)
पूज्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का प्रभामंडल सुदूर दक्षिण में प्रकाशित हुआ । आज बैंगलोर, मद्रास, विजयवाड़ा, गुंटूर आदि अनेक स्थानों पर श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के अनुयायी पहुंच चुके हैं और इनकी कीर्तिगान में उत्तर भारत से किसी प्रकार कम नहीं हैं । मद्रास इनमें से एक प्रमुख नगर है जहां पूज्य गुरुदेव महा की स्मृति में वहां के अनुयायियों ने श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी जैन न्यास की स्थापना संवत् २०२८ आषाढ़ शुक्ला नवमी को ११, एकाम्ब्रेश्वर अग्राहरम स्थल पर की। समाज के अनेक दानवीर, अनुयायी तथा स्वधर्मी बंधुओं ने भविष्य की सुनहली योजनाएं बनाई।
कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब श्रेष्ठ कार्यों की नींव रखी जाती है । न्यास ऐसे ही क्षणों में स्थापित हुआ तथा भव्य भवन बनाने का निर्णय लिया गया । मद्रास सेन्ट्रल के निकट ५९ फीट ऊंचा श्री राजेन्द्र जैन भवन का निर्माण किया गया जिसकी ४ मंजिलें हैं उनमें एक विशाल सभागृह, जैन मंदिर एवं धर्मशाला निर्मित है।
जिनालय के लिए प्रतिमाएं तैयार हैं केवल प्रतिष्ठा की प्रतीक्षा है । यह एक भगीरथ प्रयास का फल है जिसमें प्रथम चरण में निम्न महानुभाव पदाधिकारी रहे हैं
(१) श्री शेषमलजी चमनाजी (२) ,, आर. टी. शाह
(३)
बी. टी. बजावत
(४)
(५)
33
31
11
जुगराजनी मूमा घेवरचन्दजी जैन
(१) श्री नथमलजी कामदार (२) घेवरचन्दजी जैन
"
द्वितीय चरण में जो तीन वर्ष पश्चात् निर्वाचित हुए और द्रुत गति से
23
(३)
(४)
(५) बी. टी. बजावत
33
न्यास अध्यक्ष
बाबूलालजी मेहता पन्नालालजी जैन
17
11
"
निम्न पदाधिकारी न्यास का कार्य आरंभ हुआ:
उपाध्यक्ष सचिव संयुक्त सचिव
कोषाध्यक्ष
न्यास अध्यक्ष
23
"
उपाध्यक्ष सचिव संयुक्त सचिव कोषाध्यक्ष
ट्रस्ट द्वारा नियमित रूप से महावीर जयंति तथा गुरु जयंति विशाल स्तर पर आयोजित किए जाते हैं जिसमें हजारों नर-नारी उपस्थित रहते हैं और उल्लासमय वातावरण रहता है ।
टांडा
आदिवासी अंचल स्थित टांडा में सौधर्म तपागच्छीय जैन समाज में ५० परिवार हैं। संवत् १९५० में पू. राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से श्री नाथाजी चौधरी के द्वारा प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । यह जिनालय एक शताब्दी का है ।
यहां पौषधशाला तथा राजेन्द्र भवन निर्मित है। राजेन्द्र सभा भवन सेठ श्री दुलीचन्दजी, श्री समीरमलजी श्री मोतीलालजी, श्री मदनलालजी द्वारा निर्मित किया गया। समाज का एक निजी भोजनशाला भवन है। इसके अतिरिक्त जिनालय के अन्तर्गत पांच भवन हैं जिनके द्वारा किराये की आय होती है ।
टांडा के जैन समाज की धार्मिक भावना उत्कृष्ट है । संघों का नियमित स्वागत किया जाता है और स्वामिभक्ति भी ।
गूरी सिरेमलजी पति एवं श्री हेमचन्द्रजी पति सावला एक
परिचय
जन्म : संवत् १९४०
निधन : आश्विन शुक्ला १, २००७ संवत् १९५५ में आचार्य श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के सम्पर्क में आए। यहीं से आचार्य देव के सान्निध्य में रहकर जैन दर्शन का अध्ययन किया। अंजनशलाका, शांति स्नात्र, प्रतिष्ठा, आदि क्रियाओं को हृदयंगम किया। वृहत्तपागच्छीय उदय चार आचार्यों की निश्रा में धर्मंविधान के अनेक कार्य सम्पन्न किए ।
गुरा सा. जैन तत्वज्ञान, आदुविज्ञान ज्योतिष विज्ञान आदि के विद्वान थे। जीवन का अधिकांश भाग अध्ययन अध्यापन में व्यतीत fear | श्री हेमचन्द्रजी यति आपके सुपुत्र हैं । आचार्य श्री के सान्निध्य में उपस्थित रहकर अनेक अनुष्ठान प्रतिपादित किए हैं। अपने कार्य में निष्णात श्री हेमचन्द्रजी यति के कार्यों की सूची संलग्न है:अंजन शलाकाएं: बागरा, सिवाणा, आहोर, थराद, भीनमाल, डूडसी, आकाली, गतवा, गुढाबालोतरा
प्रतिष्ठा ध्वजदण्ड बाबली, बलदूर, मण्डवारिया, सेदरिया, गुढा, नून भीनमाल, आकाली, सूरा, डूडसी, सगली, बाडमेर, धानेरा, नेनावा, नारोली, सिवाडी, भाण्डवा, जीवाणी, विशनगढ़, धानसा, कोरा उड, सांधू, भीनमाल, पावा, जोधपुर, वराद बम्बई, सियाणा, जोगापुरा, मोहनखेड़ा, नून
बागरा
शांति स्नात्र :
सायला
राजस्थान के जालोर जिलान्तर्गत सायला स्थित है । सायला में पूज्य गुरुदेव राजेन्द्रसूरीश्वरजी का सं. १९५५ में आगमन हुआ ।
पूज्य गुरुदेव की शुभ प्रेरणा से आचार्य श्री धनचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के कर कमलों से जिनालय की प्रतिष्ठा माघ शुक्ला १४ संवत् १९७१ में सम्पन्न हुई आचार्य श्री का चातुर्मास भी ।
राजेन्द्र ज्योति
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यहां जैनियों के १७० कुटुम्ब हैं। शाह श्री कबदी रिखबचन्द्र जुहारमलजी की ओर से एक जिनालय का निर्माण कराया जा रहा है ।
सायला में परिषद शाखा सक्रिय रूप से कार्यरत है ।
आलोट
प्रसिद्ध तीर्थ नागेश्वर पार्श्वनाथ उन्हेल के मार्ग पर आलोट में स्थित है। यहां पर पौषधशाला का बीस वर्ष पूर्व निर्माण हुआ । इस कार्य में श्री मोतीलालजी धाडीवाल, श्री सौभाग्यमलजी श्रीमाल का उल्लेखनीय सहयोग रहा। इसी पौषधशाला के ऊपर श्री वासु पूज्य स्वामी मूलनायक तथा श्री सुमतिनाथ, श्री कुंथुनाथजी भगवान जिनकी अंजनशलाका पूज्य यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज द्वारा जावरा में हुई थी की प्रतिष्ठा आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से ६ वर्ष पूर्व प्रतिष्ठा हुई। इस मंदिर में एक उल्लेखनीय कार्य यह हुआ कि भगवान महावीर का जीवनवृत्त संगमरमर के पाषाणों पर उत्कीर्ण है और विभिन्न दानदाताओं के नाम भी अंकित हैं ।
प्रतिमा प्राचीन है लेकिन मंदिर अभी अभी बनाया गया है । यह मंदिर अत्यन्त आकर्षक है । श्री भेरूलालजी भग्गाजी पारख ने अपनी संपूर्ण चल-अचल संपत्ति समाज को समर्पित की है। समाज द्वारा सिलाई केन्द्र, पाठशाला, सदावृत्त आदि कार्य चलाए जा रहे हैं । यह कार्य ट्रस्ट के अन्तर्गत है ।
रिंगनोब
यह ग्राम धार कुक्षी रोड़ पर भूतपूर्व ग्वालियर राज्य के अधिकार क्षेत्र में था । वर्तमान में मध्यप्रदेश में धार जिला के अन्तर्गत तेहसील सरदारपुर में है । यह ग्राम बहुत प्राचीन होकर विक्रम संवत् १४००, १५०० के बीच में बसा है। इस ग्राम की बसावट के समय से ही जैन श्रेष्ठी वर्ग आकर बसे हैं जिनके वंशज आज भी इसी ग्राम में निवास करते हैं । तत्कालीन जैन समाज की ओर से एक भव्य जिन मन्दिर का निर्माण कराया गया था जिन मन्दिर सौधशिखरी होकर आज तक जैन श्री संघ सुचारु रूप से जिन मन्दिर की छबि को बनाए हुए है ।
इस मन्दिर में मूल नायक भगवान आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभुजी की सुरम्य एवं चमत्कारी प्रतिमा हैं। यहां के जैन श्रावक • अधिकांश त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय के हैं एवं उन्हीं के हाथ में मन्दिर का संचालन एवं व्यवस्था कार्य है जो सुचारु रूप से चल रहा है ।
जैन मन्दिर के निर्माण की ठीक प्रकार से जानकारी नहीं है किन्तु मन्दिर में जो जिन बिम्ब विराजित हैं उनके लेख से ज्ञात होता है कि श्री जिन मन्दिर बहुत प्राचीन है। मूल नायकजी श्री चन्दाप्रभुजी की प्रतिमा पर सम्वत् १५२६ वि. अंकित है जो प्राचीनता का परिचायक है। सौधशिखरी मन्दिर के मूल नायक की पुनः प्रतिष्ठा सम्वत् १९५१ वि. में परम पूज्य आचार्य श्री राजेन्द्र सूरिजी के सान्निध्य में तत्कालीन गणिवर्य व्याख्यान वाचस्पति श्री यतीन्द्र विजयजी के द्वारा की गई। उस प्रतिष्ठा के साथ भगवान आदिनाथजी,
बी. नि. सं. २५०३
पतिनाथजी पार्श्वनाथजी आदि तीर्थकरों की आठ प्रतिमा भी प्रतिष्ठित की जो गंभारे में स्थित हैं इसके अतिरिक्त गंभारे के बाहर श्री चन्द्रप्रभुजी की प्रतिमा एवं श्री मणिभद्रजी की भी प्रतिमा है। धातु की प्रतिमाएं भी है।
सम्वत् १९८१ वि. मिती ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष द्वितीया बुधवार के शुभ दिन को प्रातः स्मरणीय परम योगीराज प्रभु राजेन्द्र सूरीश्वर की चरणपादुका की प्रतिष्ठा परम पूज्य आचार्य श्री भूपेन्द्र सुरीश्वर जी के सान्निध्य में हुई होकर वर्तमान में मन्दिर में है । उस वक्त परम गुरु भक्त श्री सेठ लूनकरणजी, कोदाजी, नालचन्दजी, गट्टूजी, हीराचन्दजी, जोराजी, नन्दाजी, सेराजी दूंगाजी, अमरजी, धूलजी, चेनाजी, केरामजी, ऊंकारजी, गन्दाजी, हीराचन्दजी चुनीलालजी, बागजी धोकलजी, गवाजी, परथी, जड़ावचन्दजी, हरकचन्दजी आदि जिनके वंशज अभी भी मौजूद होकर जिन मन्दिर की जाहो जलाली में दिन प्रति दिन उन्नति कर रहे हैं।
1
इस मन्दिर के शिखर पर ध्वजादंड जीर्ण होने से मिती फागुन शुक्ला ५ सम्वत् २०२३ दिनांक १-३-६७ को शुभ वेला में वर्तमान 'आचार्य श्री विद्याचन्द सूरीश्वरजी की निवा में पुनः ध्वजारोहण हुआ। जिसका विधि विधान सुश्रावक शिक्षा शास्त्री श्री राजमलजी लोढ़ा मन्दसौर द्वारा किया गया ।
इस ग्राम में तत्कालीन आचार्य श्री जी की आज्ञा से निम्नानुसार मुनिराज एवं साध्वीजी के चतुर्मास हुए थे। मुनिराज श्री अमृत विजयजी मुनि चतुरविजयजी सम्वत् १९८०, मुनि श्री न्याय विजयजी सम्वत् १९९५ में केवल आठ रोज, सम्वत् २००१ में साध्वीजी श्री नथी श्रीचतुरभीजी, श्री भक्तिची जी सम्बत् २००४, साध्वीजी श्रीकंचनश्री, जिनश्रीजी, अशोकप्रभा श्री जी इनकी प्रेरणा एवं उपदेशानुसार मन्दिर में पालिश की फर्शीयां लगाई गईं ।
2
सम्वत् २०१२ में साध्वीजी श्री चैतनीजी भक्तिश्री महेन्द्र श्री जी का ।
सम्वत् २०१३ में साध्वजी श्री मुक्तिश्री जी साध्वी मण्डल सहित ।
सम्वत् २०१७ में साध्वीजी श्री चेतन्यश्री, भक्तिश्री जी, वयोवृद्ध होने से वहीं गुरु आज्ञा से विराजित हुए एवं इसी ग्राम में सम्वत् २०२८ की महा सुदी ५ के दिन साध्वीजी श्री चैतन्यश्री जी का स्वर्गवास हो गया जिनका अग्नि संस्कार पन्नालालजी गेंदालालजी पंवार की कृषि भूमि पर हुआ। जहां पर श्री संघ की ओर से चबूतरा ( ओटला ) निर्माण की योजना है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि पूज्य साध्वीजी इसी ग्राम के सुश्रावक श्री जड़ावचन्दजी की धर्म पत्नी थी। जिनके पिता टान्डा निवासी श्री धन्नालालजी चंडालिया थे। वर्तमान में साध्वीजी श्री भक्तिश्री जी इसी ग्राम में स्थविर है ।
मुनिराज के चातुर्मास का इस ग्राम को ५० वर्ष तक कोई सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। पश्चात् श्री संघ के प्रबल पुण्योदय से सम्वत् २०३२ के वर्ष में श्री संघ की विनती को स्वीकार करके आचार्य श्री जी ने
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मुनिराज श्री जयन्त विजयजी मधुकरजी, मुनि नित्यानन्दजी, मुनि जयकीति विजयजी ने ग्राम रिंगनौद में चातुर्मास की आज्ञा प्रदान की जिससे पूज्य आचार्य श्री का श्री संघ बहुत आभारी है । मुनिराज श्री के चातुर्मास से संघ में अनुपम जागृति हुई एवं जिन मन्दिर में उन्नतिशील कार्य हुए एवं नमस्कार महामन्त्र की आराधना हुई। श्री संघ को आराधकों एवं स्वामी बंधु व गुरु भक्तों की सेवा का सुवर्ण अवसर प्राप्त हुआ । इस चातुर्मास में यहां के नवयुवकों की सेवा कार्य पद्धति सराहनीय रही। उदाहरणार्थ प्रमुख लगनशील यूवा कर्ता श्री शैतानमलजी बाठिया, श्री शान्तिलालजी डांगी, श्री मानमलजी, श्री धनराज मेहता आदि आदि । ____ मुनिराज श्री मधुकरजी की प्रेरणा से श्रावक श्री बागजी होकलजी के सुपुत्र श्री गटूजी मूलचन्दजी द्वारा श्री सिद्धचक्र मंडल का निर्माण कराके सम्वत् २०३२ में प्रतिष्ठित हुआ।
इस ग्राम में जैन श्री संघ का तत्कालीन राज्य कार्य में वर्चस्व अच्छा था एवं वर्तमान में भी है । तत्कालीन सरकार द्वारा श्री चन्दप्रभुजी के नाम से मन्दिर की व्यवस्था एवं संचालन हेतु कृषि योग्य भूमि माफी में दी गई थी जो वर्तमान में भी जैन श्री संघ के कब्जे में होकर व्यवस्था चल रही है एवं कृषि उपज की आय मन्दिर कार्य संचालन में श्री संघ द्वारा व्यय की जाती है उक्त आराजी १४ बीघा होकर वर्तमान शासन द्वारा २१) रुपये तोजी लगा दी जो प्रति वर्ष जमा कराना पड़ती है साथ ही आम के वृक्ष भी मन्दिर के नाम से इसी ग्राम में हैं जिसकी आय समाज द्वारा मन्दिर व्यवस्था में ही व्यय होती है।
वर्तमान में इस ग्राम में गुरू भक्तों (त्रिस्तुतिक) के २५ परिवार मौजूद हैं जो अपने गौरव को लिये हुए जैन शासन एवं गुरू गच्छ की उत्तरोतर उन्नति कर रहे हैं सभी परिवार ओस वंशीय हैं । ___इसी ग्राम में जैन उपाश्रय भी निर्मित था जो प्राचीन समय से ही था जिसका जीर्णोद्धार वर्ष १९६३ ईसवी में हुआ जो "राजेन्द्र भवन" के नाम से है । इसी भवन में प्रात: स्मरणीय परम पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी के चित्र की संगमरमर की छत्री है जो सम्वत् २०३२ के मिती कार्तिक शुक्ल ११ की शुभ बेला में मुनिराज श्री जयन्त विजयजी मधुकरजी की प्रेरणा एवं शुभ उपदेश से उन्हीं के सान्निध्य में कराके गुरुदेव का चित्र श्री संघ द्वारा बड़े उत्साह से आनन्द विभोर होकर विराजमान किया। साथ ही गुरु पाट भी स्थापित किया गया। गुरु भक्तों द्वारा प्रति दिन गुरु आरती की जाती है।
सम्वत् २०३४ में राजेन्द्र भवन के पीछे यतीन्द्र भवन का निर्माण हुआ जो राजेन्द्र भवन से बिल्कुल लगा हुआ है । इस भवन में समाज के सभी व्यक्तियों का काफी परिश्रम रहा किन्तु कुछ नवयुवकों का श्रम एवं योगदान सराहनीय है जिसमें शांतिलाल डांगी प्रमुख हैं।
वर्तमान में श्री मन्दिर एवं उपाश्रय का कार्य संचालन त्रिस्तुतिक संघ एवं श्री अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की
शाखा द्वारा किया जा रहा है । इस शाखा के अध्यक्ष श्री बाबूलालजी पंवार, उपाध्यक्ष श्री पांचलालजी चंडालिया, मंत्री श्री शैतानमलजी बाठिया एवं कोषाध्यक्ष श्री धनराज मेहता हैं।
उपसंहार इस ग्राम की आबादी ६००० की है । अमर शहीद वीर सेनानी महाराज बख्तावरसिंहजी भी इसी ग्राम के गौरव थे । इस ग्राम के उत्तर में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ एवं गुरु समाधि मन्दिर है एवं पूर्व में श्री भोपावार तीर्थ है जहां श्री शांतिनाथ की खड़ी भव्य प्रतिमा है जो क्रमशः ८ व ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
खाचरोद खाचरोद नगर को तुगियानगरी की उपमा दी जाती है। पूज्यपाद श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने संवत् १९२५, १९५० और १९६२ में यहां चातुर्मास किये थे । इन चातुर्मासों में यहां धार्मिक कार्यों की बड़ी धूम रही। अष्टान्हिका महोत्सव एवं प्रतिष्ठादि कार्य संपन्न हुए। १९६२ के चातुर्मास में चीरोलावासियों को जो ढाई सौ वर्षों से समाज बहिष्कृत थे उनको वापिस समाज में लिया गया । संवत् १९५४ में यहीं पर श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को भगवती दीक्षा प्रदान की थी। संवत् १९६२ के चातुर्मास में निम्नलिखित लोगों ने सराहनीय काम किया
१. श्री करमचन्दजी लुनावत, २. श्री रूपचन्दजी चौधरी, ३. श्री चंपालालजी सुराणा, ४. श्री मन्नालालजी लोढा, ५. श्री चुनीलालजी मूणत, ६. श्री केसरीमलजी छाजेड़, ७. श्री जड़ावचन्दजी चौपड़ा, ८. श्री कारूरामजी नागदा, ९. श्री टेकचन्दजी वागरेचा ।
संवत् १९७५ में यहां श्री मोहनविजयजी महाराज साहब ने श्री आदीश्वर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई थी।
संवत् १९८० में श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब का यहां चातुर्मास हुआ था। उस चातुर्मास में अट्ठाई उत्सव उपधानादि अनेक धर्म कार्य हुए।
संवत् १९९२ में उपा. श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज का यहां चातुर्मास हुआ। उस चातुर्मास में उपधान तप करवाने का लाभ श्री भेराजी कालूजी नागदा, श्री भेराजी टेकचन्दजी व श्री वरदाजी प्यारचन्दजी ने लिया। इसी चातुर्मास में श्री रिखबदेवजी टेकचन्दजी के नाम से पेढ़ी खुलवाई गई । अट्ठाई-महोत्सव व रथयात्रादि कार्यक्रम भी हुए । श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज ने श्री मोतीलाल सेठिया को ओलीजी का व्रत उच्चराया था, वह अभी तक चल रहा है । यहां पर पीपलोदावासियों के हितार्थ भी महाराज ने प्रयत्न किया और वह सफल रहा। चातुर्मास के पश्चात् यहां से श्री मांडवगढ़ का संघ निकाला गया था।
खाचरोद चातुर्मास संवत् २०१३ में श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का जब पुनः चातुर्मास हुआ तब अनेक प्रकार के धर्म कार्य हुए । गुरु महाराज के
राजेन्द्र-ज्योति
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त्रिस्तुतिक संघ इन्दौर : विगत ५० वर्ष संवत् १९८५-८६ में इन्दौर नगर में श्री श्वेताम्बर जैन फतेचन्दजी चोपड़ा एव सर्व स्वधर्मी बन्धुओं के कठिन परिश्रम त्रि-स्तुतिक संघ के करीब २१ घर थे। उस समय पर्युषण पर्व एवं से सं. २०१४-१५ में पूर्ण हुआ। खास करके श्रीराजेन्द्र उपाश्रय धार्मिक आराधना के आयोजन धर्मशाला-ओसवालों की एवं पोरवालों के निर्माण में सर्वाधिक सहयोग श्री धूल चन्दजी, श्री घेवरमलजी, की एवं जतीजी के मंदिर, बड़े सराफे में किये जाते थे।
श्री रतनलालजी मेहता का एवं श्री सुकृत फंड कपड़ा मार्केट का रहा।
श्री राजेन्द्र जैन उपाश्रय के नये भवन का शिलान्यास श्री जहारसंवत् १९८६ में मुनिराज श्री तीर्थ विजयजी म. साहब का इन्दौर
मलजी पारेख के करकमलों से हुआ एवं उद्घाटन श्री कन्हैयालालजी में पदार्पण हुआ था। उनके उपदेश से निश्चय किया गया कि अपना
काश्यप रतलाम वालों के करकमलों से हुआ। उपाश्रय का भवन इन्दौर में होना आवश्यक है। तत्पश्चात् विचार कर एक समिति का गठन नीचे लिखे महानुभावों का किया :--
. संवत् २०१८ में चातुर्मास गणाधीश श्री विद्याविजयजी, श्री
कल्याणविजयजी, श्री हेमेन्द्रविजयजी एवं श्री सोभाग्यविजयजी (१) श्री निहालचन्दजी, बालचंदजी, चांदमलजी अग्रवाल,
आदि मुनियों का इन्दौर नगर में हुआ। (२) श्री कस्तूरचंदजी, धूलचन्दजी, घेवरमलजी एवं रतनलालजी
श्री राजेन्द्र जैन उपाश्रय में प्रभु जिनेन्द्रदेव के मन्दिर को मेहता, (३) श्री मथुरालालजी, धनराजजी, जुहारमलजी पारेख,
स्थापना करने का श्रीसंघ के निर्णय से एवं पू. आचार्यदेव के आदेश (४) श्री केसरीमलजी जनाब ।
से भगवान की प्रतिमा आहोर नगर में लाने का निश्चय होने पर समिति के प्रयास से उपाश्रय के जूने भवन को श्रीसंघ ने जेठ
इन्दौर से श्री सूरजमलजी बोहरा, श्री फतेचन्दजी चोपड़ा एवं श्री सुदी ५ सं. १९८८ को खरीद लिया। सं. १९८८ के भादवा बदी मनोहरलालजी मोदी आहोर नगर पधारे और श्रीसंघ आहोर ने ९ को श्री हीराचन्दजी मगनलालजी चोपड़ा के करकमलों द्वारा सहर्ष श्रीबासुपूज्यस्वामीजी की दो प्रतिमा एवं श्री पदमप्रभु पू. गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. साहब का वर्तमान फोटो
स्वामीजी की एक प्रतिमा भेंट की। बिराजमान कर शुभ मुहूर्त किया।
संवत् २०२३ में आचार्य पदवी धारण करने के बाद प्रथम सौभाग्य की बात है कि आचार्य भगवन्त श्रीमद विजयराजेन्द्र
बार श्रीमद विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी मुनिराज श्री देवेन्द्रविजयजी सूरीश्वरजी म. साहब ने इन्दौर नगर में संवत् १९०५ में यतिपणे
आदि मुनि-मंडल सहित इन्दौर पधारे थे, इस उपलक्ष्य में इन्दौर में पू. श्री प्रमोदसुरिजी म. सा. के साथ चातुर्मास किया था।
राजवाड़े के गणेश हाल में श्रीसंघ द्वारा मानपत्र पूज्य आचार्यदेव पू. आचार्यदेव श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. नागदा (म. को एक समारोह आयोजन करके भेंट किया गया। प्र.) बिराजते थे उस समय, इन्दौर के सुश्रावक श्री घेवरमलजी
संवत् २०२५ में श्री बसंतीलालजी पारीख की मातुश्री श्रीमती मेहता एवं श्री धनराजजी पारेख वंदनार्थ गये थे तब उन्हें आचार्य
जासीबाई ने श्रीमद् गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी का बिंब देव ने प्रेरणा दी उसी शुभ प्रेरणा एवं आशीर्वाद से नूतन उपाश्रय
(प्रतिमाजी) बनवाकर उपाश्रय को भेंट किया। का निर्माण श्रीसंघ के आदेश से श्री घेवरमलजी मेहता, श्री धनराजजी पारेख, श्री जुहारमलजी पारेख, श्री सूरजमलजी बोहरा,
संवत् २०२७ में आचार्य देव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वर श्री खूबचन्दजी हस्तीमल पीपाड़ा, श्री पं. जवाहरमलजी, श्री जी, मुनिराज श्री जयन्त विजयजी "मधुकर" आदि मुनि मंडल ने
।
उपदेश से श्री मोतीलालजी सेठिया ने श्री ओलीजी का उजमना किया, तन्निमित्त अट्ठाई महोत्सव मनाया गया व रथयात्रा निकाली गई। प्रभावना में नगर निवासी सर्वजाति समाज में प्रति घर गिलास बांटे गये । ओलीजी के उजमने में श्रीपाल रास से संबंधित चित्र प्रदर्शित किये गये । श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का अर्ध शताब्दी उत्सव मनाने हेतु यहां पर एक सम्मेलन भी हुआ था।
संवत् २०३० में यहां पर श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का चातुर्मास हुआ था । नगरजनों ने आचार्य महाराज का प्रवेश बड़ी धूमधाम से करवाया । इस चातुर्मास में श्री नवकार मंत्र की आराधना करवाने का लाभ श्री धरमचन्दजी चंपालालजी नागदा ने लिया । गुरु महाराज के सदुपदेश से गरीबों के लिए सस्ते भाव में
अनाज उपलब्ध किया गया। श्री घासीराम सेठिया ने सोलह उपवास की तपस्या की थी, तन्निमित्त नौ दिन आयंबिल कराये गये और अट्ठाई महोत्सव मनाया गया।
• संवत् २०३१ में श्री जयंतविजयजी महाराज के करकमलों से . यहां के श्री आदीश्वर मंदिर (जुना शहर मंदिर) की प्रतिष्ठा बैसाख सुदी ७ के दिन करवाई गई और मन्दिर पर कलश चढ़ाया गया ।
खाचरौद में नौ जिन मंदिर हैं और एक श्रीमद् विजय राजेन्द्र सुरीश्वरजी महाराज का मंदिर-गुरु मंदिर है । इसके अलावा श्री राजेन्द्र भवन पौषधशाला की सुविशाल दुमंजिली इमारत है। उसमें आयंबिल विभाग, पाठशाला तथा सिलाई-कटाई केन्द्र आदि चलते हैं।
बो. नि. सं. २५०३
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उज्जैन चातुर्मास समाप्त कर श्रीसंघ इन्दौर की विनन्ती स्वीकार
संवत् २०२८, २०३१ एवं २०३२ में साध्वीजी श्री स्वयंप्रभाकर इन्दौर नगर में पधारे । इसी शुभ अवसर पर सेठ श्री धनराजजी श्रीजी आदि ठाणा ३ का चातुर्मास हुआ। चम्पालालजी कुक्षी वालों के सुपुत्र श्री उत्सवलालजी, श्री आनन्दी
संवत् २०३३ में मुनिराज श्री जयंत विजयजी "मधुकर", लालजी एवं श्री कान्तिलालजी ने अपने स्वनिर्मित जिनालय
मुनिराज नित्यानन्द विजयजी आदि का पदार्पण हुआ। इन्दौर में भगवान की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा का आयोजन श्रीसंघ के सान्निध्य में बड़े आनन्दमय वातावरण में करवाया।
वर्तमान आचार्यश्री के शुभ आशीर्वाद से इन्दौर श्रीसंघ में संवत् १९९० में मुनिराज श्री तीर्थविजयजी म. साहब आदि
आनन्द मंगल वरत रहा है। इन्दौर नगर में अभी स्वधर्मी बन्धुओं
के करीब १८० घर हैं। इतनी विशाल जनता को देखते हुए श्रीसंघ मुनि मंडल का चातुर्मास हुआ।
ने वर्तमान स्थान को छाटा समझ रक एक धर्मशाला बनाने का निर्णय संवत् १९९० में साध्वीजी श्री सोहनश्रीजी, श्री फूलश्रीजी लिया। वर्तमान उपाश्रय के पीछे कुंवर मंडली में धर्मशाला बनाने का चातुर्मास हुआ। इसी शुभ अवसर पर श्रीमान दुलीचन्दजी के लिये स्थान खरीदा है। धारीवाल की बहिन श्रीमती दोलीबाई के पति श्री निर्भयसिंहजी
श्री हुकमचन्दजी पारेख की प्रेरणा से संवत् २०३३ में श्री . नवलखा ने कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को गुरुणीजी श्री सोहनश्रीजी
राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का पुनर्गठन श्री हस्तीमलजी पीपाड़ा के पास दीक्षा ग्रहण की।
अध्यक्ष एवं श्री एस. एम. जैन वकील सा. मंत्री के सान्निध्य में किया संवत १९९४ में साध्वीजी श्री गंभीरश्रीजी, शिवश्रीजी आदि
गया एवं संवत् २०३४ में परिषद की शाखा के निम्नानुसार पदाधिठाणा ने चातुर्मास किया।
कारी मनोनीत किए गये--- संवत् २०१४ में साध्वीजी श्री फुलश्रीजी, उत्तमश्रीजी, लक्ष्मी
(१) अध्यक्ष श्री सरदारमलजी संघवी, चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट श्रीजी आदि ठाणा ने चातुर्मास किया।
(२) उपाध्यक्ष श्री आनन्दीलालजी खजांची संवत् २००४ में गुरुणीजी श्रीकमलश्रीजी आदि ठाणा १६
(३) मंत्री श्री हंसमुख राय चौहान पधारे थे।
(४) सहमंत्री श्री अभयकुमार पारेख , संवत् २००७ में मुनि पूण्यविजयजी का चातुर्मास हुआ ।
(५) कोषाध्यक्ष श्री शांतिलालजी डूंगरवाल संवत् २००८ में मुनि श्री रंगविजयजी का चातुर्मास हुआ।
(६) प्रचारमंत्री श्री उत्सवलालजी पोरवाल (मनोज ड्रेसेस) संवत् २००९ में मुनिराज श्री वल्लभविजयजी, कल्याण
एवं श्री गजेन्द्रकुमार अग्रवाल। विजयजी का चातुर्मास हुआ।
इस समय में राजेन्द्र नवयुवक परिषद् का काम उत्साहमय संवत् २००५, २००६ एवं २०१४ में मुनिराज श्री न्याय- वातावरण में प्रगति से चल रहा है। विजयजी का चातुर्मास हुआ।
करीब गत १० वर्षों से श्री राजेन्द्र उपाश्रय के कार्य को सुचारु संवत् २०२४ में साध्वीजी सा. श्री पुष्पाश्रीजी आदि ठाणा
रूप से चलाने के लिये श्री घेवरमलजी मेहता अध्यक्ष, श्री हुकम३ का चातुर्मास हुआ।
चन्दजी पारेख, कार्यरत अध्यक्ष, श्री हजारीमलजी रांका मंत्री एवं संवत् २०२७ में साध्वीजी श्री महेन्द्रश्रीजी आदि ठाणा ३ का । कोषाध्यक्ष का कार्य कर रहे हैं। मंदिरजी की एवं उपाश्रय की चातुर्मास हुआ।
व्यवस्था में श्री पन्नालालजी अग्रवाल का सहयोग सराहनीय है। जैन शिक्षण प्रसार-समिति, मन्दसौर
प्रगति की प्रेरणा, विकास की वाणी तथा उन्नति के उल्लास का प्रसार करते हुए जैन-शिक्षण प्रसार समिति, मन्दसौर जिले के शैक्षणिक क्षेत्रों में नवीन कीर्तिमान स्थापित किये जा रही है। त्याग, परिश्रम, पुरुषार्थ तथा सेवा भावना संयुक्त होकर पूज्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पावन गुरु मंदिर के प्रांगण में शिक्षा केन्द्र का स्वरूप दे रहे हैं तथा फलती हुई नई पीढ़ी में आशा व जागृति का संचार कर रहे हैं । इस संस्था में प्रविष्ट होकर छात्र सही दिशा दर्शन प्राप्त कर रहे हैं, अनुशासित जीवन पद्धति से सम्पर्क कर रहे हैं, एवं जीवन जीने की कला सीख रहे हैं। उसकी स्थापना अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की मन्दसौर शाखा ने की है। मन्दसौर के जैन विद्यालय व महा
विद्यालय कोई व्यापारिक संस्थान नहीं है । उन्नत उद्देश्यों को लेकर सामाजिक क्षेत्र में इनकी स्थापना हुई है। छात्रों को उच्च स्तर का शिक्षण प्रदान करना, उनमें विनय-विवेक, तथा अनुशासन का बीजारोपण करना, उनके जीवन में नैतिक, बौद्धिक, चारित्रिक तथा आध्यात्मिक गुणों का समावेश करना एवं उनके व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास हेतु उन्मुक्त हवामान उपलब्ध करवाना ही विद्यालय के परम लक्ष्य हैं।
१५ अक्टूबर १९६६ के शुभ दिन जन विद्यालय की स्थापना हुई। ९ वी १० वीं की मार्गदर्शन कक्षाओं के रूप में विद्यालय ने कार्य करना प्रारम्भ किया। अशासकीय संस्था के रूप में नगर में यह एक नूतन प्रयास था। दूसरे वर्ष भी विद्यालय का स्वरूप
राजेखभायोति
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मार्गदर्शन कक्षाओं के रूप में ही रहा लेकिन विज्ञान विषय तथा ग्यारहवीं कक्षा और सम्मिलित कर लिये गये । विद्यालय के अनुशासित वातावरण, आधुनिक व्यवस्था तथा उच्च अध्ययन स्तर के कारण इनके प्रति छात्रों का आकर्षण बढ़ने लगा। छात्रों के व्यापक हितों को दृष्टिगत कर विद्यालय ने शासकीय मान्यता के लिये आवेदन कर दिया । १ जुलाई, १९६८ को एक मौन उपलब्धि प्राप्त हुई तथा शासकीय मान्यता से एक नियमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का उदय हो गया। नवीं कक्षा विज्ञान, कला तथा वाणिज्य तीनों विषयों में प्रारम्भ कर दी गई। विद्यालय के पर मजबूती से जमने लगे।
नगर की शैक्षणिक आवश्यकताओं को लेकर लक्ष्मीभूत कर समिति की प्रशासनिक समिति ने पुनः एक महत्वाकांक्षी निर्णय लिया। उच्चतर माध्यमिक विद्यालय संचालित करने की योजना बनाकर १५ अगस्त १९६९ से ६ ठी, ७ वीं तथा ८ वीं कक्षाओं का प्रारम्भ कर दिया। साथ ही विद्यालय मिडिल परीक्षा केन्द्र के रूप में भी मान्य कर लिया गया। छात्र अपने यशस्वी भविष्य का प्रेरणा केन्द्र सामने देखने लगे । जुलाई १९७० से विद्यालय के अन्तर्गत ग्यारहवीं कक्षा प्रारम्भ कर दी गई। फलतः विद्यालय को कला, वाणिज्य एवं विज्ञान ( प्राणिशास्त्र व गणित दोनों) विषयों में परिपूर्णता प्राप्त हो गई। इसी वर्ष विद्यालय को माध्यमिक शिक्षा मण्डल म. प्र. द्वारा परीक्षा केन्द्र के रूप में भी स्वीकृत कर लिया गया ।
कन्याओं के शैक्षणिक विकास के लिये नगर में स्वतंत्र इकाई की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। समिति ने पुनः कदम उठाया । १ जुलाई १९७१ से जैन कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की गई इसमें अध्ययन व्यवस्था अध्यापिकाओं द्वारा की जाती है जो अपनी पूर्ण योग्यता से कार्यरत हैं । कन्या उ. मा. वि. कला तथा विज्ञान दोनों विषयों के लिये मान्य है । वर्तमान में इसके अन्तर्गत गृह विज्ञान विषय का भी अध्ययन एवं इस हेतु प्रयोगशाला की सुविधा भी है।
गुणात्मक तथा परीक्षा परिणात्मक दृष्टि से विद्यालय मन्दसौर जिले में अपनी सर्वोच्चता का दावा कर सकता है। १९७० तथा १९७१ की मिडिल परीक्षा में इस विद्यालय के छात्रों ने न केवल जिले की मेरिट सूची में प्रथम स्थान प्राप्त किए बल्कि क्रमशः तीन व चार स्थानों पर भी अधिकार किया । १९७१ की संभागीय
बाग नगर में एक जिन मन्दिर है। मूलनायक श्री विमलनाथजी मन्दिर की प्रतिष्ठा संवत् १९६१, मगसर सुदी ५ को आचार्य भगवन्त श्रीमद्विजयजी राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में हुई।
(१) संवत् १९७७ में उपाध्यायजी मनमोहनविजयजी दीपविजयजी आदि मुनिमंडल का चातुर्मास आनन्दपूर्वक हुआ ।
बी.नि. २५०३
मेरिट सूची में भी विद्यालय के छात्र ने अपने गौरव को उन्नत किया । १९७२ की मिडिल परीक्षा की जिला स्तरीय मेरिट सूची में विद्यालय के दो छात्रों को तीसरे तथा चौथे स्थान पर यशस्विता प्राप्त हुई । १९७३ में एक छात्र को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ । १९७१ में हाईस्कूल का परीक्षा परिणाम प्रतिशत के आधार पर जिले के समस्त उच्चत्तर माध्यमिक में सर्वश्रेष्ठ रहा । १९७६ की परीक्षा में ५ वीं तथा ८ वीं बोर्ड के केन्द्र की प्रावीण्य सूची में इस विद्यालय के छात्र सर्वोच्च स्थान पर रहे। प्रत्येक वर्ष स्थानीय व बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम अस्सी से पूरे सौ प्रतिशत रहे । जैन कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का ग्यारहवीं बोर्ड का परीक्षा परिणाम पूरा १०० प्रतिशत रहा। इसका मूल कारण विद्यालय की विशिष्ट पद्धति, नियमित व्यवस्था, सही मार्गदर्शन तथा अध्यापकों का रचनात्मक परिश्रम है । कक्षाओं में छात्रों की संख्या सीमित ही रखी जाती है अतएव सैकड़ों छात्रों को प्रवेश न मिलने के कारण निराश होना पड़ता है। गत वर्ष से अध्यापन शैली से वैज्ञानिक उपकरणों एवं आधुनिक सामग्री का उपयोग भी किया जा रहा है। समिति के पास अपने फिल्म प्रोजेक्टर, एम्प्लीफायर तथा अन्य उपकरण हैं ।
१९७३ में संस्था को महान गौरवशाली उपलब्धि जैन शिक्षा महाविद्यालय के रूप में प्राप्त हुई। विक्रम विश्वविद्यालय ने इसे सम्बद्धता प्रदान कर दी। यह महाविद्यालय क्षेत्र की अपने ढंग की प्रथम संस्था है ।
संस्था के अन्तर्गत भौतिकी, रसायन तथा जैविकी तीनों की स्वतन्त्र एवं सुसज्जित प्रयोगशालाएं हैं। मध्यप्रदेश में कुछ ही उच्चतर माध्यमिक विद्यालय ऐसे हैं जहां कक्षा ९ वीं से प्रायोगिक सुविधाएं हैं, इस विद्यालय की गणना ऐसे विद्यालयों में है। छात्रों की प्राथमिक कमजोरियों पर व्यक्तिगत ध्यान दिया जाता है । सुलेखन को प्रोत्साहित करने के लिये प्रतिमास स्पर्धाएं आयोजित की जाती हैं। विद्यालय वर्तमान शैक्षणिक जगत के कई दोषों से मुक्त है। इसकी समस्त शाखाएं आदर्श विद्यालयों के रूप में निखरती जा रही हैं।
श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक
संस्था ने राजेन्द्र विलास के जीर्णोद्धार की योजना हाथ में ली है जिस पर तीन लाख रुपये व्यय होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त संस्था ने शासन से पौने दो लाख वर्ग फीट भूभाग प्राप्त किया है जिसके सुविकास पर बारह लाख रुपये व्यय होंगे। आशा है समाज का आशीर्वाद संस्था के साथ रहेगा ।
श्रीसंघ, बाग (धार)
( २ ) संवत् १९८१ में उपाध्यायजी श्री यतीन्द्रविजयजी, मुनिश्री वल्लभविजयजी मुनि श्री विद्याविजयजी, मुनिश्री सागरानन्द विजयजी आदि मुनिराज का चातुर्मास आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ ।
(२) संवत् १९८४ में मुनि श्री अमृत विजयजी मुनि श्री चतुर विजयजी आदि महाराज सा. का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ ।
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(४) संवत् २००० में साध्वीजी श्री कंचनश्रीजी, श्री जिनश्रीजी, श्री लावण्यश्रीजी आदि का चातुर्मास सोल्लास सम्पन्न हुआ।
(५) संवत् २०२८ में साध्वीजी श्री कुसुमश्रीजी, श्री कुमुदश्रीजी, श्री हर्षपूर्णाश्रीजी का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ। ' (१) संवत् २०१६ में सम्मेदशिखरजी पावापुरीजी का संघ संघवीश्री केशरीमलजी, रूपचन्दजी, चांदमलजी पिता मोतीलालजी, श्री इन्दरमलजी, चांदमलजी एवं श्री हजारीमलजी नवलरामजी की तरफ से २ बस का।
(२) संवत् २०१८ में श्री मोहनखेड़ा का संघ संघवी श्री केशरीमलजी, रूपचन्दजी, चांदमलजी, राजमलजी पिता मोतीलालजी एवं परिवार की तरफ से २ बस का निकला।
(३) संवत् २०२५ में श्री महेश्वरजी सिद्धाचलजी का संघ संघवी श्री चुन्नीलालजी, मगनमलजी, अमृतलालजी की तरफ से एक बस का निकला।
(४) संवत् २०२६ में श्री सिद्धाचलजी का 'ध' री पालक संघ मनिश्री शान्तिविजयजी म., मुनिश्री जयन्तविजयजी म. 'मधुकर,' मुनिश्री नित्यानन्द वि. के सान्निध्य में संघवी श्री केशरीमलजी, रूपचन्दजी, चांदमलजी, राजमलजी एवं परिवार की तरफ से निकला।
(७) संवत् २०३२ में सम्मेदशिखरजी पावापुरीजी का संघ संघवी श्री इन्दरमलजी, संतोषीलालजी, जयन्तिलालजी की तरफ से दो बस का निकला।
(८) संवत् २०३२ में सम्मेद शिखरजी पावापुरीजी का संघ संघवी श्री केशरीमलजी, रूपचन्दजी, चांदमलजी की तरफ से गंधवानी से दो बस का निकला।
(९) संवत् २०३४ में भद्रेश्वरजी सिद्धाचलजी का संघ संघवी श्री कान्तीलालजी, अशोककुमारजी, दिनेशकुमारजी पिता हजारीमलजी की तरफ से दो बस का निकला।
श्री वृहत शान्ति स्नात्र पूजन (१) संवत् २०१८ में विश्व शांति के लिये श्री बृहत् शान्ति स्नात्र पूजा श्रीसंघ की ओर से पढ़ाई गई।
(२) संवत् २०२३ में ध्वजदण्ड महोत्सव के उपलक्ष में श्री वृहत् शान्ति स्नात्र पूजा श्री संघ की ओर से पढ़ाई गई।
(३) संवत् २०२९ में श्रीमती चन्दरबाई के विशस्थानक तप के उजमणा निमित्त संघवी चुन्नीलालजी, मगनलालजी, अमृतलालजी की तरफ से श्री वृहत् शान्ति स्नात्र पूजा पढ़ाई गई। .
समाज द्वारा संचालित संस्थाएं (१) श्री राजेन्द्र जैन बाल विद्या मन्दिर (प्राथमिक शाला) (२) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद शाखा। (३) श्री विमल जैन संगीत मण्डल।
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद-अध्यक्ष- अशोक कुमार जैन, मंत्री- अमृतलाल एम. जैन।
श्री राजेन्द्र जैन बाल विद्या मन्दिर-अध्यक्ष- श्री अमृतलाल सी. जैन, मंत्री-अमृतलाल एम. जैन ।
श्री विमल जैन संगीत मण्डल अध्यक्ष- श्री अमृतलाल एम. जैन, मंत्री-सुनिल जैन ।
(५) संवत् २०२५ में भदेश्वरजी सिद्धाचलजी का संघ संघवी चन्नीलालजी, केशरीमलजी की तरफ से एक बस का निकला ।
(६) संवत् २०३१ में कुलपाकजी सिद्धाचलजी का संघ संघवी श्री कनकचन्दजी, प्यारचन्दजी पिता रतनलालजी की तरफ से दो बस का निकला।
वर्षा का जल सर्वत्र समान रूप से बरसता है, परन्तु उसका जल इक्षु-क्षेत्र में मधुर, समुद्र में खारा, नीम में कड़वा और गटर में गन्दा बन जाता है। इसी प्रकार शास्त्र-उपदेश परिणाम में सुन्दर है।
जो मानव ऊँचे कुल में जन्म लेकर भी अपने आचार-विचार घृणित रखता है, वह नीच है; और जो अपना आचार-विचार सराहनीय रखता है, वह नीच कुलोत्पन्न होकर भी ऊँचा है।
-राजेन्द्रसूरि
राजेन्द्र-ज्योति
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वर्तमान मन्दसौर अपनी प्राचीनता के लिए प्रसिद्ध है । महाराजा उदयन वशोवर्मन महाकवि कालिदास दशपुर से संबद्ध रहे हैं। दशपुर से मन्दसौर शब्द की यात्रा लम्बी है ।
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मन्दसौर और गुरुदेव
पूज्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वर (पतिरूप में)
१९०६ में चातुर्मास किया। उस समय आपका दिगम्बर समाज से विशेष परिचय रहा। अनन्तर संवत् १९२७ में आचार्य के रूप में प्रथम पदार्पण हुआ । आचार्य श्री ने हींगड परिवार की हवेली के चौतरे पर बाहर ठहरे तथा दूसरी बार सेठियाजी के चोतरे पर ठहरे । उस समय आपको गर्मजल कठिनाई से प्राप्त होता था ।
एक बार आचार्यश्री पौष माह की कड़ाके की सर्दी में रात्रि में निर्वस्त्र ध्यान करते हुए देखे गये। एक बार पालीवाल हवेली में ठहरे जहां प्रेत होने की आशंका व्यक्त की जाती थी अनुनय विनय के उपरान्त भी आपने वह स्थान नहीं त्यागा । आप पर किसी प्रकार उस स्थान का प्रभाव नहीं हुआ ।
संवत्
१९६० जनकपुरा पौषधशाला का निर्माण हुआ ।
१९६० प्रवर्तिनीजी विद्याश्रीजी ठाणा ६ का चार्तुमास
१९६२ राजेन्द्रविलास भूमि का क्रय
१९६३ लोढ़ा परिवार द्वारा गुरुदेव श्री की छत्री निर्माण १९६७ गुरु चरणों की प्रतिष्ठा उपाध्याय पूज्य मुनिश्री मोहनविजयजी के कर कमलों से यह स्मारक सर्वप्रथम मन्दसौर में निर्मित हुआ ।
१९७७ पूज्य मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी का चातुर्मास १९७३ उपाध्याय मुनिराजजी मोहन
१९६५
का चातुर्मास उस्ताद निहालचन्दजी गंग द्वारा गुरुदेव की आरती की रचना | उस्तादजी को आचार्य श्री के सान्निध्य में रहने का दीर्घ सौभाग्य प्राप्त हुआ। आरती संलग्न मुद्रित है ।
वी. नि. सं. २५०३
१९९१ मुनिराज हर्षविजयजी विद्याविजयजी के सान्निध्य में ध्वजदण्ड समारोह, अट्ठाई महोत्सव एवं शांति स्नात्र सम्पन्न २०२७ नई आबादी स्थित श्री श्रेयांसनाथ जिनालय की पूज्य आचार्य श्री विद्याचन्द सूरीश्वर एवं पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजयजी के सान्निध्य में प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई ।
स्मृतियां
राजेन्द्र निवास भवन
गुरु मंदिर
राजेन्द्र आयंबिल शाल पौषधशाला
अजितनाथ जिनालय
परिषद की गतिविधियां
बाल मंदिर
जैन माध्यमिक विद्यालय
जैन उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
जैन कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
जैन शिक्षा महाविद्यालय
जैन महिला उद्योग
महावीर जैन आयुर्वेदिक औषधालय
निकटवर्ती क्षेत्र
ग्राम अमलावद, एलची, संजीत ग्राम में आचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज द्वारा प्राचीन मंदिरों की प्रतिष्ठा हुई। इसके अतिरिक्त कचनारा, नयागांव, जमुनिया ग्राम में गुरुदेव के अनुयायी हैं। इन स्थानों पर मंदिर के अतिरिक्त पौषधशालाएं निर्मित हैं, संजीत ग्राम जो प्राचीन है। चम्बल बांध के कारण डूब क्षेत्र में होते से अन्य स्थान पर ग्राम बसाया गया वहां नये जिनालय
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का निर्माण कार्य गतिशील है। पूज्य आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वर के उपदेशों से बाहर से धनराशि एकत्रित की जा रही
व्यतीत वर्तमान में आहोर विश्ववंद्य पूज्य जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का सघन विहार क्षेत्र आहोर रहा। आहोर राजस्थान का प्रसिद्ध, ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थल रहा है। स्वर्गीय जैनाचार्यों द्वारा यहां अनेक कार्य सम्पादित हुए हैं।।
त्रिस्तुतिक समाज के लिए आहोर पावन स्थली है। इस नगर में जैन समाज के ७०० कुटुम्ब हैं। (ओसवाल ६००, पोरवाल १००), ५५० पूज्य जैनाचार्य के अनुयायी हैं। श्रीगोडी पार्श्वनाथ जिनालय
यहां बावन जिनालय हैं। इनका निर्माण सं. १९३२ में आरंभ हुआ। माह शुक्ला १० सं. १९३६ में परम आचार्य देव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के कर कमलों से प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।
मूलनायक प्रतिमा प्राचीनतम है। सं. १९५५ फाल्गुन शुक्ला ५ को पूज्य गुरुदेव द्वारा ९०० बिम्बों की अंजनशलाका हई। यह कार्य शा. मूथा जसरूपजी जीतमलजी बाफना ने करवाया, पार्श्व में भगवान महावीर का मंदिर है। जिसका त्रिशिखरी मंदिर निर्माण शाह मिश्रीमलजी रतनाजी बाफना द्वारा हुआ। प्रतिष्ठा पूज्याचार्य श्रीमद् यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के करकमलों द्वारा वैशाख शुक्ला १९९६ में १४ प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई ।
पीछे उद्यान में भूपेन्द्र सूरीश्वरजी की समाधि स्थल पर शाह ओटमलजी उदयचन्दजी मांगीलालजी चोपड़ा द्वारा निर्मित छत्री में श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की प्रतिमा स्थापित की गई। __ माह शुक्ला ६ सं. २००१ को शाह परागचन्दजी माणकजी गादिया की ओर से ३०० जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका श्रीमद् यतीन्द्र सूरीश्वरजी के करमलों से सम्पन्न हुई। चौमुखी प्रतिमा की स्थापना हई और शिखर की खोली पर ध्वजदण्ड व कलश चढ़ाया गया है। इस शिखर में एक और शिखर है जो अन्यत्र अप्राप्य है। दादावाडी में धनचन्द्र सूरीश्वरजी तथा भूपेन्द्र सूरीश्वरजी की प्रतिमा स्थापित की गई।
सं. २०२५ में दादाबाड़ी के बाहर शाह घेवरचंदजी रूपराजजी बजावत एवं यवा घेवरचंदजी जेठमलजी द्वारा निर्मित विशालकक्ष में पूज्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की जीवनी से संबद्ध चित्रपट विभिन्न श्रावकों द्वारा स्थापित किये गये हैं।
५२ जिनालयों का जीर्णोद्धार संगमरमर के पापाण से किया गया जिसके अठारह अभिषेक एवं सामूहिक उद्यापन वर्तमानाचार्य आचार्य देवश्री श्री १००८ श्री विद्याचंद सुरीश्वर जी महाराज द्वारा फाल्गुन शुक्ला ५ सं. २०२५ को किया गया। जीर्णोद्धार कार्य गतिशील है।
शांतिनाथजी का मंदिर जो धर्मशाला के ऊपर स्थित है, की प्रतिष्ठा सं. १९५९ में पू. राजेन्द्र सूरीश्वरजी के द्वारा को गई थी-का पुनः निर्माण २००७ को सम्पन्न हुआ। मंदिर में प्रतिमाजी मेहमान रूप में विराजमान हैं जिनकी प्रतिष्ठा होना अवशेष है। यहां पूज्य गुरुदेव द्वारा उन्हीं की मूर्ति (पूज्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी की) स्थापित है। इन दोनों मंदिरों की व्यवस्था श्री सौधर्म वृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ के अधीन है
और पंजीयन किया गया है जिसके प्रमुख मूथा पुखराजजी जुहारमलजी थे और आज धी गोड़ी पार्श्वनाथ पेढ़ी के नाम से प्रचलित हैं इसके ट्रस्टी निम्नानुसार हैं:१. सेठ हस्तीमलजी जसराजजी लूनिया २. मूथा घेवरचंदजी जेठमलजी बाफना ३. शाह रूपराजजी चुन्नीलालजी वजावत ४. शाह सुमेरमलजी जांवतराजजी तलावत ५. शाह छगनराजजी कनीरामजी तलावत ६. चम्पालालजी भीमराजजी तिलेसरा ७. शाह भबूतमलजी गुणेशमलजी तलावत ८. कोठारी हेमराजजी मुखराजजी ९. शाह छगनराजजी हरकचंदजी बाफना १०. शाह हस्तीमलजी सिरेमलजी कुहाड ११. शाह भबूतमलजी जांवतराजजी पोरवाल
प्रबन्धक शाह रिखबचन्दजी लुम्बाजी पोरवाल हैं। श्री राजेन्द्र जैनागम बृहत ज्ञान भण्डार ___ "ज्ञान भण्डार" सं. १९५९ में आचार्य देव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से शाह. रेवताजी बरदाजी कडोद (मालवा) वाला ने निर्माण कराया। इसमें ग्रंथागार ३००० पाण्डुलिपियां तथा मुद्रित ग्रंथ हैं। इसकी व्यवस्था मथा शांतिलालजी बाफना के अधीन है। जैन धर्मशाला
यह धर्मशाला बड़ी धर्मशाला के सम्मुख है। इसका निर्माण शाह छोगालालजी जेठमलजी ने कराया है। अम्बिका भवन
इस भवन का निर्माण शाह प्रेमचन्दजी छोगालालजी ने कराया। इस भवन में श्री नवयुवक सेवा संघ का कार्यालय है और समाज की सेवा में रत है। श्री गोड़ी पार्श्वनाथ पेढ़ी भवन
पेढ़ी का भवन बाजार में स्थित है। जिसकी स्थापना पू. गुरुदेव प्रभु श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी के उपदेश से सं. १९५५ में की गई। इसका जीर्णोद्धार मंडोत रामचन्द्रजी छगनलालजी घेवरचन्दजी ने कराया। यह पेढ़ी का कार्यालय है।
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राजेन्द्र-ज्योति
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संवत्
कार्य विवरण
१९२५ श्री रत्नविजयजी को श्री पूज्य उपाधि तथा श्री राजेन्द्र
सूरीश्वरजी नामकरण
पू. श्रीमद् प्रमोदसुरीश्वरजी म. का स्वर्गवास ।
१९३६ गोडीजी में जिनालय प्रतिष्ठा : माह शुक्ला १०
१९५५ फाल्गुन कृष्णा ५ को ९०० बिम्बों की अंजनशलाका, बावन जिनालय की प्रतिष्ठा तथा साधु साध्वियों को बड़ी दीक्षाएं दी गई । बाफना जसरूपजी जीतमलजी द्वारा प्रतिष्ठा हुई।
१९५९ धर्मशाला के ऊपर भ. शांतिनाथ मंदिर को प्रतिष्ठा संपन्न एवं श्री राजेन्द्र जैनागम वृहत् ज्ञान भण्डार की स्थापना । गुरुदेव की जीवित प्रतिमा की प्रतिष्ठा ।
१९७२ पूज्य मुनिराज श्रीपतीन्द्रजी एवं मुनिराज श्री अमृतविजयजी आदि की निथा में बड़ी दीक्षाएं संपन्न १९८४ आचार्य श्री भूपेन्द्र सूरीश्वरजी के सान्निध्य में उपाधान तप शा. पोरवाल गोंडीदासजी सरूपचन्दजी की ओर से । १९९२ आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का स्वर्गवास माह शुक्ला ६ ।
१९९५ परमपूज्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को आचार्यत्व से विभूषित । मुनिराज श्री गुलाबविजयजी उपाध्याय पद से विभूषित । वैशाख शुक्ला १० ।
१९९६
२०००
भ. महावीर के मंदिर की प्रतिष्ठा शाह मिश्रीमलजी रतनाजी द्वारा हुई। मुनि रंगविजयजी को दीक्षा । दादावाड़ी में गुरु प्रतिमा की प्रतिष्ठा ।
उपाध्याय श्री गुलाबी एवं इस विजपथी आदि का चातुर्मास सम्पन्न ।
२००१ आचार्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का चातुर्मास, आचार्य देव श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के कर कमलों • से माह शुक्ला ६ को अंजनशलाका शाह परागचंदजी aresजी द्वारा चोमुखी, धनुचन्द्रसूरीश्वरजी तथा भूपेन्द्र सूरीश्वरजी की प्रतिमा प्रतिष्ठा । साध्वी जयश्रीजी एवं जयंतश्रीजी को दीक्षा ।
मुनिराज श्रीविद्याविजयजी के सान्निध्य में संची हिम्मत लालजी की ओर से भाण्डवपुर संघयात्रा ।
२००७ श्री राजेन्द्रसूरी ज्ञान मंदिर का निर्माण ।
२०११ आचार्य श्री यतीन्द्रपुरीश्वरजी महाराज का चातुर्मास एवं मुनि पुण्यविजय की दीक्षा ।
२०२० मुनिराज श्री रामचन्द्र विजयजी का दीक्षा महोत्सव । शाह प्रतापचंदजी नथमलजी की ओर से सम्मेदशिखरजी यात्रा संघ संघवी श्री माणकचन्दजी शेषमल, लाभमल दलीचन्दजी की ओर से सम्मेदशिखरजी यात्रा संघ । शाह
बी. नि. सं. २५०३
चंदनमलजी भूताजी की ओर से मद्रेश्वर शंखेश्वर भ
यात्रा ।
२०३०
शाह छगनराजजी चम्पालालजी कनीरामजी की ओर से शत्रुजय शंखेश्वरजी आदि यात्रा संघ ।
२०१५ फाल्गुन कृष्णा ५ को सामूहिक उद्यापन, अठारह अभिषेक एवं सुदर्शना श्रीजी को दीक्षा मांडोत रामचन्द छगनराजजी के घर से अठाईउत्सव । मुनिराज कीर्ति विजयजी को दीक्षा |
शा. सुखराजजी चम्पालाल भेरूलाल की ओर से पालीताणा गिरनार संघ ।
आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा भीड भंजन पार्श्वनाथ एवं दादावाड़ी की प्रतिष्ठा ।
२०१३ शाह कुन्दनमलजी भूताजी की ओर से छरि पालता मुनिराज श्री जयंत विजयजी "मधुकर" के सान्निध्य में पालीताणा यात्रा संघ ।
साधु साध्वी स्वर्गवास:- मूनि चतुरविजयजीजी,
लावण्यविजयजी, रसिकविजयजी, हेमविजयजी, साध्वीजी सुरभीजी, साध्वी श्री धनश्रीजी, हवासधीजी, विनोदीजी, हिम्मतश्रीजी, विमलश्रीजी, मनरंजनश्रीजी, मेताबश्रीजी, चम्पाश्रीजी ।
दीक्षितः - विमल विजयश्री रामचन्द्र विजयजी, कीर्तिविजयजी, हेमविजयजी, मंगलविजयजी, जयानन्दविजयजी, साध्वी श्री रामबीजी हेतथीजी, सुरवीनी, सुन्दरीजी जीजी, धनश्रीजी भक्तिजी जी आदि । गतिविधियां:--आयंबिलखता श्री राजेन्द्र जैन विद्यालय, संगीतमण्डल, धर्मशाला, पेढ़ी, अम्बिका भवन ।
आयंबिल खाता
श्री वर्द्धमान जैन आयंबिल खाता का स्वतंत्र भवन है। जो बारह माह गतिशील है । इसके अध्यक्ष श्री मूथा सुखराज बाफना हैं। श्री राजेन्द्र जैन विद्यालय
विगत ४० वर्षों से यह संस्था सेवारत है। विद्यालय भवन का निर्माण नागोरी चुन्नीलालजी शेषमलजी ने कराया । इसी भवन में संगीत मण्डल कार्यरत है। विभिन्न उत्सवों, प्रतिष्ठानों तथा धार्मिक कार्यक्रमों के सौन्दर्य में श्री वृद्धि की है। शाह श्री नगराज शेषमलजी तलावत संगीत मण्डल के अध्यक्ष हैं ।
श्री पार्श्वनाथ जैन नवयुवक मण्डल
आचार्य देव श्री भूपेन्द्र सुरीश्वरजी महाराज के उपदेश से - १९९२ में इस मण्डल की स्थापना हुई। संस्था के स्था वक्ता वरमलजी संस्थापक, अध्यक्ष एवं शाह सिरेमलजी पूनमचन्दजी संस्थापक सचिव रहे हैं । इस मण्डल ने समाज को अनेक सेवाएं दी हैं उनमें प्रतिष्ठ आचार्य पदोत्सव भाण्डवपुर, श्री मोहनखेड़ा
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१५.
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तीर्थ शताब्दी महोत्सव, हरजी, पादरली, रानीगांव, बलपुर, दिल्ली, दादा साहब अष्टम शताब्दी, बामवाडजी प्रतिष्ठा, अन्य प्रतिष्ठा उत्सवों, यात्रा संघ उपधान वत्त में मण्डल ने उल्लेखनीय सेवा की है । संस्था के अध्यक्ष हैं-श्री मूथा मिश्रीमलजी सूरजमलजी बाफना। धर्मशाला
खारा कुआ के निकट एक धर्मशाला है जिसका निर्माण शाह मगनाजी जीवाजी गदेया के कुटुम्ब ने कराया। आचार्यत्व अलंकरण
परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को श्री पूज्य की उपाधि संवत् १९२४ में इसी नगर में दी गई, जिसका श्रेय प्राप्त है।
__ आचार्य देव श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को सं. १९९५, वैशाख शुक्ला १० को आचार्य पद से विभूषित किया गया। साथ ही मनिराज श्री गुलाबविजयजी को उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। इसके अतिरिक्त अन्य दीक्षाएं इसी पावन भूमि पर संपन्न
कवि
इस पावन भूमि ने कवियों को जन्म दिया उनमें शाह लुम्बचंदजी, भूरमलजी शाह, मिश्रीमलजी, राजमलजी आदि उल्लेखनीय हैं। स्वर्गवास भूमि
परमपूज्य आचार्य देव श्री भूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सं. १९९२ में नश्वर देह त्यागकर स्वर्गवासी हुए उसी स्थल पर एक समाधि निर्मित है। इस स्थल पर गुरुवर की जीवंत प्रतिमा स्थापित है। इसके अतिरिक्त अनेक मुनिराज श्री के स्वर्गवास हुए उनका उल्लेख किया गया है। भीडभंजन पार्श्वनाथ मंदिर एवं दादावाड़ी
नगर के बाहर भीड भंजन पार्श्वनाथ जिनालय और दादावाड़ी स्थित हैं जिसका निर्माण शाह श्री कुन्दनमलजी, पूनमचन्दजी, हिम्मतमलजी, जेठाजी तलावत ने कराया और प्रतिष्ठा आचार्य देव श्री विद्याचन्द्रजी सूरीश्वर के कर कमलों से संपन्न हुई। सं. २०३० वैशाख शक्ला ५ ।
अन्य ग्रन्थ प्रकाशन
श्री संघ द्वारा अर्द्धशताब्दी स्मारक ग्रंथ, कल्पसूत्र, बालावबोध का प्रकाशन शाह मिश्रीमलजी रतनाजी बाफना ने किया। “भगवान महावीर ने क्या कहा" ग्रन्थ का प्रकाशन संघवी कुन्दनमलजी भूताजी की ओर से किया गया।
इसके अतिरिक्त अनेक स्वामी भाइयों ने साहित्य प्रकाशन हेतु विपुल धनराशि दान में दी है। आहोर का अन्यत्र प्रतिनिधित्व (१) मथा घेवरचन्दजी जेठमलजी बाफना श्री मोहनखेड़ा तीर्थ ... तथा श्री यतीन्द्र भवन पालीताणा के ट्रस्टी हैं। (२) फोला मूथा तेजराजजी ताराचन्दजी श्री राजेन्द्र जैन भवन .
पालीताणा के ट्रस्टी हैं। (३) हुंडिया शाह एस. हस्तीमलजी श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन
गुरुकुल' के उपाध्यक्ष हैं। (४) मूथा शांतिलालजी बाफना स्वर्ण गिरि जैन तीर्थ दुर्ग जालोर
के ट्रस्टी हैं। (५) मूथा घेवरचन्दजी हिम्मतलालजी तिलेसरा नागेश्वर जैन
तीर्थ के ट्रस्टी हैं। (६) संघवी जुगराज के. जैन एवं श्री सी. बी. भगत क्रमश: अ.भा.
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के केन्द्रीय उपाध्यक्ष एवं
महामंत्री हैं। (७) संघवी छगनलाल कनीरामजी सौधर्म निवास पालीताणा के
- ट्रस्टी हैं। (८) बी. टी. वजारत स्वर्णगिरि तीर्थ के ट्रस्टी हैं।
संघ यात्राएं संवत् २००१ मनिराज श्री विद्याविजयजी के सान्निध्य में शाह हिम्मत
लालजी ताराजी द्वारा माण्डवपुर संघ यात्रा सम्पन्न हुई। २०२२ आचार्य देव श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के उपदेश से
मूथा प्रतापमलजी नथमलजी द्वारा सम्मेद शिखरजी का बसों द्वारा यात्रा संघ निकाला गया। इस यात्रा संघ
में ४०० यात्री थे तथा ३० दिन लगे। २०२९ शाह माणकचंद शेरूमल, लाभमल, दुलीचंदजी के
द्वारा सम्मेदशिखरजी यात्रा संघ सम्पन्न हुआ। इस
यात्रा में ६०० यात्री थे तथा ४० दिन लगे। २०२८ शाह सुखराजी माणकचंदजी ने बसों द्वारा पालीताणा
यात्रा संघ निकाला।
शाह चंदनमलजी भूताजी ने भदेश्वरजी का संघ निकाला। २०३१ शाह छगनराज, चम्पालाल, कनीरामजी तलावत ने
पालीताणा' एवं शंखेश्वरजी को बसों द्वारा ४०० यात्रियों का यात्रा संघ निकाला।
सं. १९८४ : आचार्य देव श्री भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से उपधान तप संपन्न हुआ । उपधान तप शाह रूपराज गोडीदास पोरवाल द्वारा हुआ।
भूपेन्द्र सूरि साहित्य समिति
भूपेन्द्र सूरि साहित्य समिति की स्थापना सं. १९९४ में हुई। इस समिति ने गच्छाचार पयन्ना, चन्द्रराज चरित्र, षट्दर्शन समुच्चय आदि ग्रंथों का प्रकाशन किया गया। प्रकाशन व्यवस्था मुथा उदयचन्दजी ओखाजो चौपड़ा के अधीन है।
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राजेन्द्र-ज्योति
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२०३३ मुनिराज श्री जयंतविजयजी के सान्निध्य में शाह कुन्दनमलजी, जुगराजजी कांतिलालजी महेन्द्रकुमार भूताजी ने छरिपातला संघ पालीताना हेतु निकाला । यह आहोर के इतिहास में प्रथम कार्य सम्पन्न हुआ । इसके अतिरिक्त छोटी-छोटी यात्राएं सम्पन्न हुई जिनका उल्लेख यहां संभव नहीं है ।
मेले का आमंत्रण
शाह पुखराजजी केसरीमलजी ने नाकोडा तीर्थस्थल पर पौष कृष्णा १० को एवं शांतिलालजी, मांगीलालजी, लक्ष्मणाजी ने चैत्र शुक्ला १५ को भाण्डपुर मेले का निमंत्रण देकर स्वधर्मी भक्ति का लाभ लिया।
वीरास्थानक महोत्सव
इस नगर में अनेक वीरा स्थानक के अनेक उद्यापन हुए जिनका उल्लेख यहां संभव नहीं है ।
भगवान शांतिनाथ जिनालय'
५०० वर्ष प्राचीन श्री शांतिनाथ जिनालय स्थापित है ।
राजस्थान स्थित आहोर के निकट गुडाबालोतान में जैन समाज के १०० कुटुम्ब हैं । स्वर्गीय आचार्य देव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर ने सं. १९४८ में चातुर्मास किया और उनके उपदेश से भी धर्मनाथ स्वामी का मंदिर शाह दोलाजी भेराजी ने निर्माण कराया । इस जिनालय की प्रतिष्ठा माह शुक्ला ५ सं. १९५९ में उपाध्याय मोहन विजयजी के करकमलों से सम्पन्न हुई ।
वि. सं. १९६४ में उ. श्री धनविजयजी म. का चातुर्मास हुआ । जिनालय के चारों ओर बार देवकुलिकाएं और गुरु मंदिर की प्रतिष्ठा माह सुदी १३ सं. २००४ को श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी के कर कमलों से सम्पन्न हुई । प्रतिष्ठा का व्यय शाह राजमलजी केसरीमलजी ने किया ।
दो देवकुलिकाएं शाह श्री रतनचन्द जीवाजी ने शुभ खाता द्रव्य से, एक देवकुलिका शाह फूलचन्दजी चमनाजी ने एवं एक देव कुलिका शाह मगनराजजी मनरूपजी ने एवं गुरु मंदिर का शाह श्री राजमलजी केसरीमलजी ने बीस स्थानक उद्यापन के निमित्त निर्माण कर श्री संघ को भेंट किया।
सं० २०१९ में उपधान व्रत का आयोजन शाह रतनचन्दजी जीवाजी ने सम्पन्न कराया जिसमें लगभग ३०० आराधक थे । चौमुखी मंदिर गौख में रतनचन्दजी ने निर्माण कराया । प्रतिष्ठा उपधान संघ प्रमुख मुनिराज श्री विद्याविजयजी द्वारा सम्पन्न हुई ।
सं० १९८९ में पू० आचार्य श्री भूपेन्द्रसूरीश्वर एवं उपा० श्री यतीन्द्रविजयजी के सान्निध्य में शा. लालचन्द्र लखमाजी ने उपधान तप कराया ।
वी. नि. सं. २५०३ / ख ३
इस जिनालय की व्यवस्था संपूर्ण नगर के अन्तर्गत है तथा इस मंदिर के ट्रस्टी श्री छगनराजजी चुन्नीलालजी बाफना हैं।
उपाश्रय
गुडाबालोतान
त्रिस्तुतिक समाज का एक उपाश्रय है जिसमें मणिभद्रजी की प्रतिमा स्थापित है।
इसके अतिरिक्त नगर में विमलनाथजी का मंदिर, पार्श्व वाडी एवं पूनमीया गच्छ का उपाश्रय है। सीमंधर स्वामी का एक आकर्षक और आधुनिक जिनालय है जिसकी व्यवस्था श्रीमद् राजचन्द्र के अनुयायी के अन्तर्गत है ।
नगर में एक दादावाड़ी है जिसे वेद मूथा चंदनमलजी नवाजी ने बनवाई है ।
बस स्टैण्ड के निकट अत्यधिक आधुनिक धर्मशाला का निर्माण किया गया है जिसमें स्वधर्मी बंधुओं के ठहरने की समुचित व्यवस्था है।
मोतीलाल सरदारमसजी संघवी
सं० १९८४ में उपाध्याय मुनि श्री यतीन्द्रविजय का चातुर्मास शाह जीवाजी लखाजी ने करवाया तथा उनके उपदेश से छः रि पालणा संघ नाकोड़ा जैसलमेर संघ निकाला । सं. २०१२ में चैत्र सुदी १३ को केसरियाजी संघ रेल-मोटर द्वारा निकला। इस संघ में मुनिराज श्री विद्याविजयजी म एवं मुनिराज श्री जयन्तविजयजी फालना पर्यन्त साथ रहे। इस संघ में ९०० जन थे तथा संचालन श्री रतन चन्दजी जीवाजी ने किया ।
वि० सं० २०२३ जेठ सुदी २ शाह श्री राजमलजी ने श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वर के वरदहस्त से दीक्षा ग्रहण कर मुनि विनयविजय नामकरण हुआ ।
यहां श्री यतीन्द्र सूरि ज्ञान मंदिर है जिसमें अनेक पाण्डुलिपियां तथा मुद्रित ग्रंथ हैं । आचार्य देव यतीन्द्रसूरीश्वर की सद्प्रेरणा से शाह गुलाबचन्दजी केसरीमलजी ने छात्रावास का निर्माण कराया और अद्यपर्यन्त संचालन कर रहे हैं। छात्रावास उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा है ।
ज्येष्ठता सं० २०२४ को माह कुंदनमलजी गुलाबचन्द ने वीरास्थानक तप का उद्यापन किया । सं० २०२५ में शाह पूनम चन्दजी खसाजी एवं मोतीचन्दजी खसाजी ने वीरास्थानक तप का उद्यापन सम्पन्न कराया। सं० २०२६ में शाह गेनमलजी मकाजी ने वीरास्थानक तप का उद्यापन एवं अठारह अभिषेक करवाए ।
माह छोगमलजी धूलाजी की धर्मपत्नी श्रीमती भूरीवाई ने भद्रेश्वर संघ ४ बसों से निकाला । धर्मनाथजी प्रदिर के नीचे पौषध शाला का निर्माण शाह रतनचन्दजी जीवाजी ने करवाया ।
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रुगनाथमल, जुगराज द्वारा गौ सेवागृह का निर्माण कराया
गया।
शाह रतनचन्दजी जीवाजीने जसीबाई कन्या विद्यालय एवं उच्च विद्यालय में विज्ञान कक्ष के दो कमरे बना कर राजस्थान सरकार को भेंट किए।
रेवतड़ा ग्राम रेवतड़ा राजस्थान के जिला जालोर में स्थित है । जालोर से लगभग ३५ किलोमीटर की दूरी पर बसा है । बस मार्ग है । इस ग्राम में त्रिस्तुतिक आम्नाय के ११० कुटुम्ब हैं।
आचार्य देव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर द्वारा प्रतिष्ठापित आदीश्वर भगवान का भव्य जिनालय है। इसका निर्माण सं० १९७५ में हुआ । जिनालय के पार्श्व में धर्मशाला है।
सं० २०२५ में शाह भारतमलजी भगाजी ने वर्षीतप, बीस स्थानकतप, ज्ञानपंचमी, नवपद आदि तपस्या की पूर्णाहुति के अवसर पर अट्ठाईस महोत्सव एवं उद्यापन आयोजित किये ।
सं. २०२८ में वर्तमानाचार्यश्री के सदुपदेश से शाह इन्द्रमल, सुखराज, भारतमल, पारसमल, रिखबचन्द, रुगनाथमल, जुगराज, वेदसुता परिवार ने श्री शत्रुजय, गिरिनार, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ हेतु १२ बसों का एक संघ निकाला। इस यात्रा में १७ दिन लगे।
सं० २०३२ में शाह जेठमलजी वर्दीचन्दजी वेदसुता ने जैसलमेर यात्रार्थ एक १० बसीय संघ निकाला।
भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर शाह इन्द्रमलजी, सुखराज, भारतमल, पारसमल, रिखबचन्द,
तणुकु आंध्र प्रदेश स्थित तणुकु में घर देरासर है । इस जिनालय में मूल नायक श्री शांतिनाथ भगवान की ९ फुट की प्रतिमा है जिसकी श्री कारटाजी में पूज्य आचार्य राजेंद्रसूरीश्वरजी द्वारा अंजनशलाका सम्पन्न हुई । निकट दोनों ओर सं० २०२१ में माह सुदी ५ को श्री शीतलनाथ एवं भगवान महावीर की सर्वधातु ५ फुट की प्रतिमा की अंजनशलाका डूडसी में आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सुरिजी के कर कमलों से सम्पन्न हुई।
पंचतीर्थी एवं सिद्धचक्रजी आहोर से लाए जिसकी अंजनशलाका लगभग ५०० वर्ष पूर्व की है । माह सुदी ६ सं० २०२१ की मूथा घेवरचन्द शांतिलाल एण्ड कंपनी द्वारा प्रतिष्ठा हुई । जैन समाज ने एक भवन क्रय किया है । भविष्य में एक जिनालय निर्माण की योजना
शाह मुकनचन्द घेवरचन्द छगनराज ने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (राजगढ़) धार में श्री आदीश्वर भगवान के मंदिर का शिलान्यास किया।
- गोविन्द चन्द्र मेहता
विनय मानवता में चार चाँद लगाने वाला गुण है। मनुष्य चाहे जितना विद्वान् हो, वैज्ञानिक और नीतिज्ञ हो; किन्तु जब तक उसमें विनय नहीं है तब तक वह सबका प्रिय और सम्मान्य नहीं हो सकता ।
शरीर जब तक सशक्त है और कोई बाधा उपस्थित नहीं है, तभी तक आत्म-कल्याण की साधना कर लेनी चाहिये; अशक्ति के पंजे में फंस जाने के बाद फिर कुछ नहीं बन पड़ेगा, फिर तो यहाँ से कूच करने का डंका वजने लगेगा और अन्त में असहाय होकर जाना पड़ेगा।
-राजेन्द्र सूरि
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बेंगलोर स्थित जैन श्वेताम्बर धार्मिक संस्थाएं
भंवरलाल चौपड़ा
दक्षिण भारत में जैनों की आबादी के हिसाब से मद्रास के बाद बैंगलोर का नम्बर आता है । सौन्दर्यधाम बैंगलोर नगर कर्नाटक राज्य की राजधानी भी है। बैंगलोर में निम्नलिखित जैन श्वेताम्बर मंदिर और धार्मिक संस्थाएं विद्यमान हैं:-- १. श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर
चिकपेठ स्थित यह मंदिर पचास साल पुराना है । यह मंदिर अत्यन्त रमणीय एवं मनोहर है । श्री आदिनाथ भगवान की नयन रम्य प्रतिमा मन मोह लेती है । प्रभातकाल में यहां दर्शनपूजन के लिए भक्तों का मेला लग जाता है । उत्साही एवं कार्यकुशल ट्रस्टी श्री देवीचन्दजी, श्री लक्ष्मीचन्दजी, श्री तेजराजजी और श्री दीपचन्दजी इस मंदिर की देखभाल करते हैं । स्थानीय कन्नडभाषी लोग भी इस मंदिर में दर्शन के लिए आते रहते हैं।
इस मंदिर के अलावा यहां पर श्री महावीर स्वामी जैन मंदिर, श्री पार्श्ववल्लभ जिन प्रासाद, श्री वर्धमान चतुर्मुख जिन प्रासाद और श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन मंदिर भी विद्यमान है । यहां पर कई दिगम्बर मंदिर भी विद्यमान हैं जो अपनी प्राचीनता के लिए विख्यात हैं। २. श्री वर्धमान तप आयंबिल खाता
श्री आदिनाथ मंदिर के अहाते में ही श्री वर्धमान तप आयंबिल भवन की तिमंजली इमारत विद्यमान है। इसकी स्थापना संवत् २००७ में श्री रामसूरिजी (डहेलावाला) महाराज के शिष्य श्री भुवनविजयजी महाराज के उपदेश से हुई थी। यहां आराधक लोग आयंबिल करके धर्म की आराधना करके लाभ उठाते हैं। तपस्या के बाद पारणे की व्यवस्था भी यहीं की जाती है। धर्मप्रेमी संघवी श्री पूनमचन्दजी, संघवी श्री जसराजजी, संघवी श्री देवीचन्दजी, संघवी श्री भारतमलजी, श्री भंवरलालजी, श्री मिश्रीमलजी,
श्री मूलचन्दजी आदि ट्रस्टीगण इस विभाग की देखभाल करते हैं । अध्यापक सुरेन्द्र सी. शाह इस विभाग के मैनेजर हैं । ३. श्री विजयलब्धि सूरि जैन धार्मिक पाठशाला
श्री आदिनाथ जैन मंदिर के निकट ही एक सुन्दर इमारत हैआदर्श भवन । इस इमारत में ही श्री विजयलब्धि सूरि जैन पाठशाला चलाई जाती है । इस पाटशाला की स्थापना मुनि श्री गंभीरविजयजी महाराज के सदुपदेश से हुई। लगभग आठ सौ से भी अधिक छात्र यहां शिक्षा प्राप्त करते हैं । इतनी बड़ी जैन पाठशाला सारे भारत में शायद यहीं होगी। इस पाठशाला का मकान भव्य है । यहां अभ्यास की समुचित व्यवस्था है, अनुकूल समय पत्रक है और विद्वान अध्यापक हैं । मुख्याध्यापक श्री तिलक एम. शाह तथा अन्य सहायक अध्यापक श्री सुरेन्द्र सी. शाह, श्री अरविन्द जे. शाह, श्री सुरेश जे. शाह आदि के प्रयत्नों से यह संस्था प्रगति पथ पर अग्रसर हो रही है। यह एक आदर्श जैन पाठशाला है। इसके अलावा यहां श्री ताराचन्द गांडालाल जैन पाठशाला, श्री खीमसी ठाकरसी पाठशाला और श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन पाठशाला भी धर्म शिक्षा का कार्य कर रही है।
४. श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर दादावाड़ी
पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वर महाराज के स्वर्गवास के बाद इस दादावाड़ी का निर्माण शाह चमनाजी डूंगाजी ने अपने निजी द्रव्य से किया था। पूज्य मुनिश्री गंभीरविजयजी की निश्रा में संवत् १९८४ में इसकी प्रतिष्ठा की गई थी। कई वर्षों तक इसकी व्यवस्था श्री चमनाजी डूंगाजी ने की। उनके स्वर्गवास के बाद इसकी व्यवस्था श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर श्री संघ (चिकपेठ बैंगलोर) को सौंप दी गई । वर्तमान में श्री संघ इसका जीर्णोद्धार कर रहा है और यहां नूतन मंदिर भी निर्माण कर रहा है।
वी. नि. सं. २५०३
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५. जैन धर्मशाला
बैंगलोर अपना व्यावसायिक महत्व भी रखता है इसलिये यहां पर प्रतिदिन कई जैन व्यापारी भी आते रहते हैं । ऐसे यात्रियों की सुविधा के लिए मिट में दानवीर श्री कपूरचन्दजी राजम की आर्थिक सहायता से जैन धर्मशाला निर्माण की गई है। इस धर्मशाला में तीन दिन तक यात्री निःशुल्क निवास कर सकते हैं । ६. श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर भोजनालय
जैन भाइयों को शुद्ध सात्विक भोजन उपलब्ध हो तथा यात्रियों को भी भोजन की सुविधा उपलब्ध हो इस उद्देश्य से जैन भोजनशाला का निर्माण किया गया है। इस भोजन शाला के कारण मध्यम स्थिति के जैन बन्धुओं को उचित मूल्य पर पेटभर भोजन प्राप्त होता है । ७. श्री जैन तत्व प्रशिक्षण केन्द्र
धर्माध्यापक और प्रभु परिचारक (पुजारी) तैयार करने के लिए संवत् २०३२ में इस प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की गई है ।
२०
वर्तमान में यहां दस प्रशिक्षणार्थी अध्ययन का लाभ उठा रहे हैं। इस संस्था में विद्यार्थियों के लिए भोजन निवास की व्यवस्था निःशुल्क की जाती है।
उपरोक्त सभी संस्थाएं श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर संघ की देखरेख में अपना काम कर रही हैं इनके अलावा निम्नलिखित संस्थाएं भी अपना काम बड़े उत्साह से कर रही है:
८. श्री आत्मकमल लब्धि लक्ष्मण सूरि जैन पुस्तकालय ९. श्री लब्धि सूरि जैन संगीत मण्डल १०. श्री लब्धि सूरि जैन महिला मण्डल ११. श्री राजेन्द्र सूरि जैन ज्ञान मंदिर १२. श्री राजेन्द्र सूरि जैन सेवामण्डल
१३. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद १४. श्री राजेन्द्र जैन संगीत और बैंड मण्डल
आत्मकल्याणकारी सच्ची विद्वत्ता या विद्या वही कही जाती है, जिसमें विश्व प्रेम हो और विषय -पिपासा का अभाव हो तथा यथासम्भव धर्म का परिपालन हो और जीव को आत्मवत् समझने की बुद्धि हो ।
जिस सत्ता से लोगों का उपकार किया जाए, निःस्वार्थ पर अविचल रहकर लाँच नहीं ली जाए और नीतिपथ को कभी न छोड़ा जाए, वही सत्ता का सम्यक् और वास्तविक उपयोग है, नहीं तो सत्ता को केवल गर्दभभार या दुर्गति-पात्र समझना चाहिये ।
दूसरे प्राणियों को सुखी करना मनुष्य का महान् आनन्द है और उन्हें व्यथित करना अथवा उन दुःख-पीड़ितों की उपेक्षा करना महादु:ख है ।
-राजेन्द्र रि
राजेन्द्रज्योति
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नवयुवक सामाजिक क्रान्ति करें !
प्रकाशचन्द्र काठेड़
नवयुवक समाज का प्राण है' उक्त उक्ति अक्षरशः सही है । आज समाज को नवयुवकों की आवश्यकता है, समाजोत्थान हेतु । समाज पुनर्निर्माण हेतु !! समाज में फैली बुराइयों को दूर करने हेतु !!! नवयुवक ही एक ऐसा माध्यम है जो समाज की आकांक्षाओं को पूर्ण कर सकता है, समाज हेतु अपने परिश्रम व लगन से एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकता है जिसमें संपूर्ण समाज का उत्तम स्वरूप दिग्दर्शित हो।
भगवान महावीर के निर्वाण को आज २५०० वर्ष से अधिक पूर्ण हो चुके हैं । हम उन्हीं के अनुयायी हैं। तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि आज हम भगवान महावीर के बताये सिद्धान्तों पर ठीक अमल कर रहे हैं। आज हम एक ऐसे मार्ग की ओर बढ़ रहे हैं जिसका प्रारंभिक मार्ग तो बड़ा सुखद प्रतीत होता है। ___आज हमारा समाज इसी विनाशकारी मार्ग की ओर बढ़ रहा है, अपरिग्रह के सिद्धान्त की जहां दुहाई दी जाती है, वहीं व्यवहार में ठीक इसके विपरीत स्थिति होती है। वर्गभेद स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है, अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ती चली जा रही है । प्रत्येक मनुष्य सिद्धान्तों की दुहाई देकर साध्य को भूलकर साधन की पूजा कर रहा है । साध्य को छोड़कर साधन ही सर्वोच्च समझ बैठा है।
इसी प्रकार की अनेक बराइयां आज हमारे समाज में तीव्रता से प्रवेश कर रही हैं । मृत्युभोज में जहां मृतात्मा की शांति के नाम पर हजारों रु. उड़ा दिये जाते हैं । बेरोजगारी आज अत्यधिक मात्रा में फैल चुकी है। आज हमारे समाज के हजारों युवक इसी कारण अपनी प्रतिभा का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
दहेज जो आज हमारे समाज में पूर्ण रूप से अपनी विकरालता की जड़ें जमा चुका है । सम्पूर्ण पालकवर्ग त्रस्त है, आज यह
समस्या अनिवार्यता का रूप धारण कर चुकी है । सम्पन्न परिवारों में तो दहेज प्रतिष्ठा एवं सभ्यता का चिह्न माना जाने लगा है। शादी-ब्याह में जहां एक ओर विद्युत की चकाचौंध में हजारों रु. पानी की तरह बहा दिये जाते हैं वहीं दूसरी ओर हमारा एक भाई आखरी बूंद से टिमटिमाते हुवे दीपक में जीने का प्रयास कर रहा होता है।
आज हमारा प्रतिष्ठित वर्ग पाश्चात्य सभ्यता के आकर्षण से आकर्षित होता चला जा रहा है। खेद की बात है कि हमारी युवा शक्ति का एक बहुत बड़ा वर्ग आज उसी का अनुसरण कर रहा है।
आज हमारा समाज संगठनात्मक एवं एकीकृत न होते हवे असंगठित एवं विकेन्द्रित है। फलस्वरूप हम अपने उत्थान एवं विकास के लक्ष्यों को साधनों के होते हुए भी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सके हैं।
ये चुनातियां हैं ! ये ज्वलन्त समस्याएं हैं !! आज हमारे सामने समाज के सामने समाज आज आव्हान कर रहा है. आज नवयुवकों से कहे वे आगे आवें और इन समस्या एवं चनौतियों के अंधियारे से अपने परिधान, लगन व निष्ठा रूपी प्रकाश का सहारा लेकर सामना करें।
वर्तमान परिस्थितियों में नवयुवकों का दायित्व हो जाता है कि वे आगे आवें, आगे बढ़ें और इन चुनौतियों का एक जट होकर सामना करें।
नवयुवक सुनियोजित एवं सुसंगठित कार्यक्रम बनावें और भगवान महावीर के सिद्धान्तों पर चलते हुए समाज सेवा का प्रण लें, समाज के प्रत्यक वर्ग में समन्वय का प्रयत्न करें । भावी पीढ़ी के लिए एक आदर्श व वर्तमान में समाज का गौरव बनकर युवा शक्ति के आदर्श कार्यों के परिचायक हों। (शेष पृष्ठ २४ पर)
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हजारों वर्षों से सुरम्य मालवा देश पहाड़ियों, नदियों, झरनों, पक्षियों के कलरव तथा स्वर्गीय शांति से देशभर में अपना विशिष्ट स्थान रखता है, रत्नपुरी रतलाम मालवांचल का मध्य बिंदु है । यही वह नगर है जो माही को अपनी गोद में रखने के उपरांत भी अध्यात्म के जल के अभाव में विगत ५३ वर्षो से प्यासा रहा है, प्रतीक्षा भले ही दीर्घं हो, किन्तु वह शांत हो रही है। पूज्य जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सुरीश्वरजी महाराज के शिष्यानुशिष्य एवं जैनाचार्य श्री विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के आज्ञानुवर्ती पूज्य मुनिराज जयन्तविजयजी "मधुकर" के रतलाम आगमन से ।
रतलाम का ऐतिहासिक चातुर्मास : एक अवलोकन
आज हम मुनिराज श्री को अपने मुनिमण्डल सहित दर्शन पाकर धन्य हैं।
मुनिराज श्री के मुखारविंद से चरमतीर्थ का महावीर की की वाणी से नगर के हजारों नर-नारी श्रवण कर आध्यात्मिक प्यास बुझा रहे हैं। धर्म की गंगा बह रही है और उसमें हम अवगाहन कर रहे हैं। नीमवाला उपाश्रय तीर्थ बना हुआ है । और सर्वत्र आनन्द व्याप्त है । यह चातुर्मास निश्चित रूप से जैन शासन की शोभा है ।
चातुर्मास के विभिन्न बिन्दु इस प्रकार है:उपाश्रय जीर्णोद्धार
यह किसी को न ज्ञात था कि मुनिराज श्री का चातुर्मास रतलाम नगर में होगा किन्तु जीर्णोद्धार ने पूर्वाभास करा दिया और पचास हजार रुपये व्यय कर श्री जैन संघ ने विशाल व्याख्यानगृह का निर्माण कराया । इसी निर्माण कार्य ने चातुर्मास होने को बल प्रदान किया ।
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ललितकुमार संघवी
मुनिराज श्री का भव्य नगर प्रवेश
वर्तमानाचार्य के आदेश एवं स्वीकृति से पूज्यपाद मुनिराज श्री जयन्तविजय "मधुकर" ने अपने मुनिमण्डल सहित रतलाम नगर की ओर प्रस्थान किया । रतलाम नगर स्वागत में एक सजी संवरी दुल्हन सा बना हुआ था। स्थान स्थान पर तोरण द्वार और मंगल पताकाओं से सुसज्जित था। दिनांक २६-६-७७ को मुनिराज श्री तथा मुनिमण्डल का गगनभेदी उल्लासमयी मंगल वातावरण में नगर प्रवेश हुआ । ५३ वर्षों से प्रतीक्षित नीमवाला उपाश्रय हर्षपूरित हुआ ।
भक्तामर पाठ
मुनिराजश्री के सान्निध्य में प्रातः ६ बजे भक्तामर पाठ का आयोजन होता तथा इसमें लगभग १००-१५० श्रावक श्राविकाएं भाग ले रहे हैं अपनी मीठी नींद का त्यागकर । भक्तामर का सस्वर पाठ आसपास के वातावरण में संगीतमयी शांति उत्पन्न करता है। लाभान्वित हो रहे हैं जो पाठ करते हैं, धन्य हो रहे हैं वे उसकी स्वर धारा को सुनकर ।
जैन धार्मिक शिक्षिण शिविर
अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के अधिवेशन के निर्णयानुसार धार्मिक शिविर का आयोजन रतलाम नगर में दिनांक १८-८-७७ से २७-८-७७ तक हुआ । इसमें तीस पुरुषमहिलाओं ने भाग लिया जिसमें कुछ धार्मिक शिक्षिकाएं भी थीं। पूज्य मुनिराज श्री के सानिध्य में १० दिवस रहकर शिविरावियों ने दर्शन के अनुरूप नियमित आचरण किया और दर्शन से परिचित हुए। इसका समापन अतिरिक्त जिलाध्यक्ष महोदय द्वारा किया गया ।
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नमस्कार महामंत्र आराधना
समस्त कषायों से मुक्त करने वाले महामंत्र की ९ दिवसीय आराधना का आयोजन किया गया । मुनिराज श्री के सान्निध्य में भारत के विभिन्न प्रान्तों से ६१० महिलाओं और पुरुषों ने भाग लिया। धर्मान्द्र शासन में रहकर आराधनारत महानुभावों ने नगर में एक नया वातावरण निर्मित कर दिया। आराधना तो वे कर रहे थे लेकिन प्रेरणा नगरवासियों को मिल रही थी, धर्माचरण करने की। आराधना पर्यन्त मुनिराज श्री ने महामंत्र नवकार पर अपने व्याख्यान दिये। महामंत्र की शक्ति, प्रभाव, लाभ से भिज्ञ हुए। आराधना के दिनों सरस, भक्ति का आयोजन होता रहा। भक्ति रस में पगे रहे सभी । विभिन्न स्थानों से संगीत मंडलियां आई और उन्होंने अपनी भक्तिपूर्ण संगीत कला का प्रदर्शन किया। इसी अवसर पर विशाल रथ यात्रा का आयोजन किया गया जो रतलाम के इतिहास में उसका कोई सानी नहीं है। पूज्य मुनिराज श्री के व्याख्यान इन्दौर तथा भोपाल आकाशवाणी केन्द्रों से प्रसारित
की पूर्ति पूज्य मूनि राज श्री के सान्निध्य में हो रही है । ग्रंथ ऐतिहासिक, विशाल तथा विराट जानकारी से ओतप्रोत होगा। यह रतलाम के सौभाग्य की बात है कि पूज्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी के अमर अभिधान राजेन्द्र कोष का प्रकाशन भी रतलाम से हुआ और राजेन्द्र ज्योति भी रतलाम से प्रकाशित हो रही है। जिसके प्रधान सम्पादक डॉ. श्री प्रेमसिंहजी राठौड़ हैं। धार्मिक सामान्य ज्ञान, निबन्ध, एवं ज्ञानवर्धक धार्मिक ज्ञान प्रतियोगिताएं
ज्ञान उपासना की दृष्टि से मुनिराजश्री ने धार्मिक ज्ञान, निबन्ध तथा ज्ञानोत्तेजक धार्मिक ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन क्रमशः १८-९-७७, २-१०-७७, ६-११-७७ को किया गया। इन प्रतियोगिताओं में हजारों छात्र-छात्राओं ने भाग लेकर ज्ञानवर्द्धन किया। बालक-बालिकाओं में धार्मिक ज्ञान के प्रति अगाध उत्साह देखने को मिला; विशिष्ट अंक प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं को गणमान्य अतिथियों के द्वारा पुरस्कार प्रदान किये गये। छात्रछात्राओं में एक विशेष बात रही कि सभी धर्म सम्प्रदाय के (बोहरा, सिक्ख, ईसाई आदि) थे। इस प्रकार यह कार्य सराहनीय रहा।
सामूहिक क्षमापना आयोजन ___ पूज्य मुनिराज श्री के सान्निध्य में महापर्वाधिकार पर्युषण सम्पन्न हुए। कल्प सूत्र के १२८० सूत्रों का पाठ व्याख्या सहित हुआ। पर्युषण की महत्ता पर प्रकाश डाला गया ; श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद ने सभी धर्म केन्द्रों पर जाकर सामूहिक रूप से क्षमायाचना की। सामूहिक तपस्या आराधना
श्रावण शुक्ला ३, ४, ५ को मुनिराज श्री के सान्निध्य में अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने तपस्या में भाग लिया जिसमें मांसक्षमण २, सोलभत्ता ४, ग्यारह उपवास, ११ नव उपवास, ३५ अट्ठाई, ६० पांच ५५ चोला ३० तेला २५१ उपवासकर्ता थे। तपस्या का विशाल समूह आश्चर्य में डालता है निश्चित रूप से तपस्वी साधुवाद के पास है । ८३ वी वर्धमान तप ओलीजी समापन
मुनिराज श्री विनय विजय महाराज श्री की वर्द्धमान तप ओलीजी (८३ वीं) को पारणा के उपलक्ष्य में श्री संघ ने ५ दिवसीय उत्सव का आयोजन किया।
अखंड ज्योति तथा धार्मिक विद्यालय संचालनार्थ अर्थव्यवस्था
पूज्य मुनिराजश्री की प्रेरणा तथा सदुपदेश से अखण्ड ज्योति तथा धार्मिक विद्यालय के संचालनार्थ एक पंचवर्षीय अनुदान योजना बनाई गई । अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने (जिसमें बाहर के भी थे) इस योजना में भाग लेकर पावन प्रवृत्तियों के संचालन में सहयोग प्रदान किया।
जीव दया
नगर में वर्षों से “जीवदया” का कार्यक्रम संचालित हो रहा है जिसमें अपंग, अंधी, बधकेन्द्रों से मुक्त की गई गायों को संरक्षण दिया जाता है। मनिराज श्री की प्रेरणा से दान कर जीव दया का लाभ श्रावक-श्राविकाओं ने लिया । "राजेन्द्र ज्योति" प्रकाशन ___ अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की कार्यकारिणी ने "राजेन्द्र ज्योति" स्मारक ग्रन्थ पूज्य गुरुदेव की १५० वी जन्मगांठ के अवसर पर प्रकाशित करने का निर्णय लिया। उसी संकल्प
सर्वधर्म समन्वय समारोह
राष्ट्रपिता बापू के जन्म दिवस के अवसर पर जैन दिवाकर जन्म शताब्दि के उपलक्ष्य में “युग चेतना" और सर्वधर्म समभाव" विषय पर नीमचोक स्थानक के प्रांगण में एक विशाल गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें नगर के अनेक विद्वान और संत उपस्थित हुए। मुनिराज श्री मधुकर,' मुनि श्री कमल, मुनि श्री सूर्योदय
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सागर, श्री सेफुद्दीन, श्री आ मिल, श्री शहरकाजी, श्री किशोरा मसीह, श्री ब्रह्माकुमारी आशा बहन, श्री रविन्द्र भट्ट ने जो विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि उपस्थित थे, इस अवसर पर हजारों नागरिक उपस्थित थे। सभी ने अपने अपने धर्मों के मत प्रतिपादित किये, एक मंच पर बैठे। पूज्य मुनिराज श्री ने अहिंसा श्रेष्ठ धर्म निरूपित किया। प्रश्न समाधान
चातुर्मास पर्यन्त पूज्य मुनिराज श्री ने धर्म दर्शन संबंधी अनेक प्रश्नों का नियमित रूप से समाधान प्रदान किया। ये समाधान प्रश्न सहित श्यामपट्ट पर अंकित किये जाते रहे। हमने देखा कि कई बालकबालिकाएं इन समाधानों को अपनी पुस्तिकाओं में अंकित करते थे। विभिन्न संघों का आगमन
चातुर्मास पर्यन्त अनेक स्थानों से संघों का आगमन हुआ, पूज्य मनिराज श्री के दर्शन श्रवण हेत् । रतलाम श्री संघ ने उनके स्वागत के भव्य आयोजन किये तथा जिन स्थानों से संघों का आगमन हुआ उनमें बेंगलोर, बम्बई, भीनमाल, नैनावा, रेवतड़ा, कोशिलाव, धानेरा, जालोर, कुक्षी, आलोट, खाचरोद, बाग, थराद, अहमदाबाद, रनाखड़ी, इन्दौर, नीमच, निबाहेड़ा, झाबुआ, अलिराजपुर, रिंगनोद, जावरा, उज्जैन, आहोर, सियाणा आदि प्रमुख हैं।
वर्द्धमान तप नवपद आराधना समारोह
पूज्य मनिराज धी के सान्निध्य में १५० श्रावक श्राविकाओं ने दिनांक १३-१०-७७ को सामूहिक आयंबित तपस्या के साथ वर्द्धमान तप का पाया डालने को आराधनाथियों के साथ की क्रिया की गई । दिनांक १०-१०-७७ से नवपद आराधना आयोजित की गई। इसी अवसर पर श्रीमान रतनलालजी सुराणा परिवार द्वारा नवपद, बीस स्थानक तप उद्यापनार्थ अट्टाई महोत्सव का आयोजन किया गया।
इसके अतिरिक्त चातुर्मास में अनेक कार्य सम्पन्न हुए जिनका लेखा यहां रखना संभव नहीं है । इस विराट कार्य में चातुर्मास समिति, उपाश्रय न्यास, श्री राजेन्द्र जैनन ववक परिषद (केन्द्रीय और स्थानीय) का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
प्रकाश बैण्ड रतलाम (जिसने मुनि श्री मधुकर' के भक्ति काव्य को कंठस्थ कर प्रदर्शित किया था) का उल्लेखनीय सहयोग रहा।
अन्त में मैं पूज्य मुनिराज थी "मधुकर" के प्रति आपकी कृतज्ञता अपति करता हूं जिन्होंने इस चातुर्मास को महत्वपूर्ण तथा ऐतिहासिक बना दिया। मेरा इन्हें शत शत बंदन उनके चरण कमलों में ।
(नवयवक सामाजिक क्रान्ति करें . ' ' ' "पृष्ठ २१ का शेष)
'समाज में नारी का जन्म दुर्भाग्य हैं' की भावना को हटाने का तोबतम प्रयास करें। मृत्युभोज और बेकारी जैसी समस्याओं हेतु योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाकर उन्हें वरिष्ठजनों के महयोग से क्रियान्वित किया जावे। प्रत्येक अव्यावहारिक कार्य का बुलंद आवाज के साथ विरोध करें। इसके साथ ही समाज में एक ऐसी सूसंगठित एवं विशाल एकता का निर्माण करें जो अपने आप में एक आदर्श हो।
अब हमें देखना होगा, हमें जानना होगा, समाज की पुकार है । सामाजिक बुराइयाँ हमारी जड़ तक पहुँचकर उन्हें खोखला
करना शुरू कर चुकी हैं, उन्हें जड़ मूल से नष्ट करने हेतु तीव्रतम सुसंगठित प्रयास करना होगा। नवयुवकों को एक सामाजिक क्रांति करना होगी जिसमें संपूर्ण बुराइयों के समाधान हेतु प्रयास हों तथा एक से समाज के पुनःनिर्माण का लक्ष्य हो जिसमें न कोई असमानता हो, न कोई समस्या । अगर नवयवकों ने अपने उच्च आत्म बल, सुसंगठित शक्ति के सहारे इस 'भामाजिक क्रांति' पर अमल किया तो शीघ्र ही एक ऐसे समाज का निर्माण होगा जिनमें संपूर्ण समाज का उच्चतम उज्जवल एवं उतम स्वरूप दिग्दर्शित होगा।
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श्री आदिनाथ महावीर स्वामी जिन मन्दिर, थराद (गुजरात)
श्री पार्श्वनाथ मन्दिर, खंभात (गुजरात)
ईडरगढ़ के ऊपर का मन्दिर ईडर (गुजरात)
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श्री राजेन्द्रसूरि ज्ञान मन्दिर, आणंद (गुजरात)
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श्री राजेन्द्रसूरि ज्ञान मन्दिर, अहमदाबाद
JOSRANDLA
P.neCAIG2400AM
PRDashakti
MIRoalyeशाशमलव रामचलानाerala
श्री राजेन्द्रसूरि ज्ञान मन्दिर के भीतर का दृश्य
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श्री यतीन्द्र भवन, पालीताना (गुजरात)
सामो अरिहला सोलिडाण
आयरियण मोझायाण
लोपावस सो मुम्कारी भावपासी मंगलसालि मण्डल
महामंत्र आराधना, धानेरा; पू. पा. श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. के सान्निध्य में समापन समारोह
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श्री राजेन्द्रसूरि ज्ञान मन्दिर उद्घाटन प्रसंग पर परिषद् के केन्द्रीय अध्यक्ष श्री सौभागमल सेठिया
परिषद् के उद्देश्य समझाते हुए
WELCOM
श्री राजेन्द्र जैन भवन के सभागार में गुरु जयन्ती महोत्सव का दृश्य, मद्रास
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फ
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गुड़ावालौतरा (राजस्थान)
श्री धर्मनाथ जिनालय
श्री यतीन्द्र सरस्वती मन्दिर
श्री राजेन्द्र भवन
श्री यतीन्द्र भवन
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आदीश्वर जिन-प्रासाद उपाध्याय श्री मन्यमोहन विजपजी के
उपदेश से विनिर्मित
श्री राजेन्द्र भवन
श्री राजेन्द्रसूरीश्वराय नमः श्री. बी. परमपूज्य गुरुदेव भासा माहान भाव श्री राजेन्द्रजी का धनवाकर माहोरचली मोवीन की फली बारा भाकालबद कानीयालीस
बाकाये के तरफारी मन की संवत २०५६ का मागसर शुद
श्री गुरु मन्दिर सांडेराव ।
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आदीश्वर जिन मन्दिर, आकोली
श्री राजेन्द्र उपाश्रय, आकोली (राजस्थान)
विजयनन्द्रनगरनुस्भ्यांना
श्रीराजेन्द्रसूरि ज्ञान मन्दिर, खैराडिया का वास, जोधपुर (राज.)
श्री राजेन्द्रसरि ज्ञान मन्दिर, खैरादिया का वास, जोधपुर
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श्री राजेन्द्र जैन भवन, पालीताना (सौराष्ट्र)
आहोर (राज.) से संघवी कुन्दनमलजी भूताजी ने पैदल छ'रि पालक संघ मुनिश्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' के सान्निध्य में निकाला जो सकुशल सिद्धाचलजी पहुंचा था, ४५ दिन
में यह यात्रा संपन्न हुई
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स्वर्णगिरि तीर्थ जालोर के कुछ दृश्य
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श्री अष्टापदावतार मंदिर, इसके पीछे श्री पार्श्वनाथ मंदिर और सशिखर श्री महावीर मंदिर श्री स्वर्णगिरि तीर्थ, जालोर
(मारवाड़-राजस्थान)
R 8
395 o000000
श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिजी म. द्वारा प्रतिष्ठित श्री ५२ जिनालय, झाबुआ (म.प्र.)
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&
सशिखर श्री महावीर जिनालय के साथ श्री धनचन्दसूरि समाधि
मन्दिर, बागरा (मारवाड़-राजस्थान)
+- श्री अजितनाथ जैन श्वे.
मन्दिर जनकुपुरा, मन्दसौर
राजेन्द्र-पयोति
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श्री आदीश्वर जिन मन्दिर खाचरौद पूज्य गुरुदेव के उपदेश से निर्मित एवं उपाध्याय श्री मोहनविजयजी म. के कर कमलों द्वारा
प्रतिष्ठित सं. २०१३
श्री महावीर भवन, सियावा (राज.) आबूरोड मार्ग मुनिराज श्री जयन्त विजयजी 'मधुकर' के उपदेश से निर्मित
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शनल एबायडरी
श्री राजेन्द्र उपाश्रय इन्दौर
श्री राजेन्द्र भवन, राजगड़ गुरु समाधिस्थल एवं व्याख्यान हाल
श्री सुविधिनाथ जिन मंदिर (राजस्थान) सियाणा का भव्य
जिनालय
गरुणीजी प्रेमश्री म. का समाधि मन्दिर
बड़नगर
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श्री महावीर स्वामीजी मन्दिर बड़नगर (म.प्र.)
श्री चन्द्र प्रभु जिनालय अमला (बड़नगर
श्रीमद भूपेन्द्रसूरि समाधि मन्दिर,
आहोर
वी. नि. सं. २५०३
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फ्र
श्री श्रेयासंनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर, नई आबादी मन्दसौर
श्री राजेन्द्र गुरु मन्दिर, खाचरोद
श्री शान्तिनाथाय न
श्री शांतिनाथ जिन मन्दिर, तणक (आंध्रप्रदेश)
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CTENERA L
श्री जिन मन्दिर लाखणी
ती. नि. सं. २५०३
Fof Private & Personal Use Only
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श्री राजेन्द्र सुरि गुरु मन्दिर कोशेलाव (राज.)
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श्री पार्श्वनाथ जिन मन्दिर कोशेलाव की भव्य जिन प्रतिमा कोशेलाव
बाजामाबाद
टोलनाबादेसी
बरखा
335
श्री राजेन्द्र जैनाश्रम बृहद् ज्ञान भण्डार, आहोर (राज.)
बी. नि. सं. २५०३
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12
SOSOR
गुरुदेव की जीवित प्रतिमा आहोर (राज.)
B
श्री राजेद्र सूरि धर्म क्रिया प्रार्थना मन्दिर आहोर (राज.)
इकाई
राजेन्द्र ज्योति
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Powe
re ma मूर्तिपुकासमीना सो का वाममारhere aamanna
मनावारी बार ग म dिe समानुसार किस
प्रीम विजय कीमुवीमागबन्दमाराम mergareशानमन कम समतोमmanentles
विजन की मार से जापानमा order
सम्बन woman
श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वर की (बड़ी प्रतिमा श्री राजेन्द्र जैन धर्मक्रिया प्रार्थना मन्दिर
(आहोर राज.)
श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वर
की खड़ी प्रतिमा श्री राजेन्द्र सूरि धर्मक्रिया प्रार्थना मन्दिर आहोर (राज.)
श्री राजेन्द्र सूरि धर्मक्रिया प्रार्थना मन्दिर का
भीतरी भाग आहोर (राज.)
वी. नि. सं. २५०३
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श्री गोड़ी पार्श्वनाथजी की अचिन्त्य प्रभावक प्रतिमा आहोर (राज.)
श्री भूपेन्द्र सूरि समाधि मन्दिर आहोर (राज.)
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गोडीजी का विशालकाय जिनालय आहोर (राज.)
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि के उपदेश से विनिर्मित श्री पार्श्वनाथ जिनालय बागरा (राजस्थान)
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श्री पार्श्वनाथ जिन प्रतिमा सूरा (राज.)
ज्ञानभण्डार आहोर
पार्श्वनाथ जैन श्वे. पेढ़ी सम्मुख भाग आहोर (राज.)
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श्री आदिनाथ मंदिर श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (निर्माणाधीन)
निर्माण हो रहे नूतन जिनालय का नक्शा श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
मदिजययतीन्द्रमरिजीम,
समाधि-मन्दिर
श्री यतीन्द्रसूरि समाधि मन्दिर, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. का स्वर्गवास-स्थल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
वी. नि. सं. २५०३
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गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी छत्री, मन्दसौर. १९६४
मिोहनरवडा जेनतीधा
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का बाहरी दृश्य
श्रीमद् गुरुदेव समाधि मंदिर, श्री मोहनखेड़ा +
राजेन्द्र-ज्योति
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श्री शान्तिनाथ जिन मन्दिर, राजगढ़ (धार), प्रतिष्ठा पूज्यपाद गुरुदेव के कर कमलों द्वारा
वी. नि. सं. २५०३
श्री अष्टापद जी जिन मन्दिर, राजगढ़ (धार), प्रतिष्ठा पूज्यपाद गुरुदेव के कर कमलों द्वारा
२०१
श्री यतीन्द्र भवन, राजगढ़ (धार)
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$ॐ 5
श्रीसुमतिनाथ श्रीवासुपूज्य : श्रीकन्युनाथ
भगवान कि जै-:
भगवान कि जै
भगवान कि जे
श्री राजेन्द्र भवन स्थित वासुपूज्य जिन स्वामी, आलोट (म. प्र. )
श्री गुरु मन्दिर में गुरु मूर्ति, आलोट (म. प्र. )
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राजेन्द्र- ज्योति
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माजी
श्री राजेन्द्र भवन उपाश्रय, खाचरौद (म.प्र.)
श्री नीमवाला उपासरा का व्याख्यान-भवन, रतलाम
नीमवाला उपासरा, रतलाम (म.प्र.)
जममम पक्रम
शाखा परिषद् रतलाम द्वारा संचालित अखण्ड ज्योति का दृश्य
वी. नि. सं. २५०३
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श्री आदीश्वर जिन मन्दिर, दसाई, प्रतिष्ठा श्रीमद् गुरुदेव द्वारा
श्री राजेन्द्र भवन आलोट टे
श्री राजेन्द्र जैन उपाश्रय,
इन्दौर
श्री राजेन्द्र भवन उपाश्रय, दसाई (धार)
राजेन्द्रज्योति
/
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वी. नि. सं. २५०३
श्री जिन मन्दिर, पिपलोदा (म.प्र.)
CHERER
श्री राजेन्द्रसूरि ज्ञान मन्दिर, उज्जैन (म. प्र. )
श्री नेमिनाथ मन्दिर, रिंगनोद (रतलाम)
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रतलाम नगर में इस वर्ष महामंत्र नवकार की
अभूतपूर्व आराधना की गई, उसके कुछ चित्र
पER
णमा सिद्धाणा
मोपचणकारी
मोलोएमयमाहग । णमो अरिहंताणं
णमो आयरिशण
विपावण्यणानणा
पाणमो उज्यायाणा
मंगलाणच सवाल
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श्री आदीश्वर जिन मन्दिर, कुक्षी (म. प्र.)
श्रा शान्तिनाथजी बड़ा मन्दिर, कुक्षी (म. प्र.)
श्रीगुरु मन्दिर, कुक्षी (म.प्र)
श्री जिन मन्दिर, रम्भापुर (झाबुआ)
बी.नि. सं. २५०३
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श्री शन्तिनाथजी का छोटा मन्दिर, कुक्षी प्रतिष्ठा श्रीमद् गुरुदेव द्वारा
श्री अजितनाथ जैन मन्दिर, कुक्षी
आदिश्वर प्रभु का मन्दिर, कुक्षी
राजेन्द्र-ज्योति
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वि. नि. सं. २५०३
लक्ष्मणी तीर्थ मन्दिर
KO
श्री गोड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर, तालनपुर तीर्थ
श्री राजेन्द्र भवन दांडा (धार)
www.jainellbrary.org.
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राजेन्द्र सूरि जैन धर्मशाला, अलीराजपुर
वि. नि. सं. २५०३
तालनपुर मन्दिर
श्री लक्ष्मणी तीर्थ गुरु मन्दिर
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श्री चन्द्र प्रभु मन्दिर, रिंगनोद (धार)
श्री सिद्ध चक्र मन्दिर स्थित पट्ट मूलचन्द जी धोकलजी द्वारा निर्मित, रिंगनोद (धार)
श्री राजेन्द्र भवन, रिंगनोद (धार)
वी. नि. सं. २५०३
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MCXE
श्री सुविधिनाथ जैन मन्दिर, राणापुर (म. प्र.)
भाव
श्री गुरु मन्दिर, राणापुर (म.प्र)
राजेन्द्र-ज्योति
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मानामा
श्रीराजेन्द्रसूरी जान
राजेन्द्र सरि जैन ज्ञान मन्दिर , मेघनगर (झाबुआ)
श्री राजेन्द्र ज्ञान मन्दिर , मेघनगर (झाबुआ)
वी. नि. सं. २५०३
www.jairnelibrary.org
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aoran
श्री राजेन्द्र भवन, महिदपुर (म. प्र.)
आदीश्वर जिनालय, खाचरौद
श्री राजेन्द्र भवन, महिदपुर (म. प्र.)
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श्री चंद्रप्रभु जिन मन्दिर एवं उपाश्रय वासणा (वनासकांठा) गुजरात
श्री श्री राजेन्द्र गुरु मन्दिर वासणा (बनासकांठा गुजरात) जिसकी प्रतिष्ठा मुनिराज श्री जयन्तविजय जी 'मधुकर' के हाथों सम्पन्न हुई
वी. नि. सं. २५०३/खण्ड-३
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पू.पा.श्रीमद् विजयविद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. के सान्निध्य में नई आबादी मन्दसौर में प्रतिष्ठा महोत्सव १९७१ श्रीसंघ के बीच मुनिमंडल
श्री यतीन्द्र सूरि धर्म-क्रिया भवन, वामनिया (म.प्र.)
राजेन्द्र-ज्योति
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श्री त्रिस्तुतिक ट्रस्ट मण्डल रतलाम के कार्यरत पदाधिकारी एवं सदस्य
बी.नि.सं.२५०३
२७
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रतलाम के समीपवर्ती दर्शनीय स्थल
शैलेन्द्र दलाल
१. परिचय
सिद्धाचल पर्वत की सौ प्रतिशत रचना की गई है जो पालीवाल तीर्थ मध्यप्रदेश के दक्षिण-पश्चिम में बड़ी लाइन तथा छोटी लाइन
का लाभ हमें प्रदान करता है। इसके निर्माता को धन्यवाद दिये का जंक्शन रतलाम नगर स्थित है। इस नगर की स्थापना में दो
बिना रहा नहीं जा सकता। महराजाओं के नाम का सम्मिलन है। महाराजा रतनसिंह और
(द) सेमलिया तीर्थ रामसिंह इन दोनों के प्रथम दो-दो अक्षरों के योग से रत्नराम बना।
रतलाम से उत्तर की दिशा में ग्राम नामली के निकट (२ कि.मी) "रत्नराम' शहर की यात्रा कुछ विचित्र बनी और अब वह रतलाम
सेमलिया ग्राम स्थित है यहां का जिनालय इतिहास में अपना महत्वहो गया। रतलाम की स्थापना महा सुदी पंचमी (बसंत पंचमी)
पूर्ण स्थान रखता है और कहा जाता है कि यह मंदिर एक यति द्वारा संवत् १७११ में हुई। नगर में पश्चिम रेल्वे के मण्डल कार्यालय के
उड़ाकर लाया गया है और इस मंदिर के संगमरमर के खंभों से दूध अतिरिक्त श्री सज्जन मिल्स, जयन्त विटामिन्स, अल्कोहल प्लांट,
निकला करता था। मुख्य प्रतिमा भव्य है और शैली आकर्षक है। स्ट्रा बोर्ड मिल्स आदि प्रमुख उद्योग है।
(ई) जावरा २. तीर्थ स्थान
पूज्य जैनाचार्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की क्रिया (अ) सागोदिया तीर्थ
द्वारा भूमि जावरा त्रिस्तुतिक समाज के लिये महत्वपूर्ण स्थल है । यहां
पर सात जिनालय बने हैं और एक राजेन्द्र जैन दादावाड़ी है। नगर के पश्चिम में २ किलोमीटर दूर सागोदिया तीर्थ स्थित . .जावरा का विस्तत परिचय "राजेन्द्र ज्योति" में अन्यत्र अंकित है। है जहां श्वेताम्बर तथा दिगम्बर मंदिर निर्मित है। श्वेताम्बर मंदिर में मुलनायक भगवान ऋषभदेव प्रतिष्ठित हैं, साथ में एक धर्मशाला
(क) आलोट बनी हुई है। प्रति रविवार को पिकनिक स्थल होने के कारण यहाँ
आलोट बड़ी लाइन के कोटा और रतलाम के मध्य स्थित है मेला सा बना रहता है। इस पवित्र स्थल पर पूज्य गरुदेव श्रीमद यहां दो जिनालय बने हुए हैं वे अत्यंत ही आकर्षक हैं। राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के शिष्य मुनिराज श्री रूपविजयजी नागेश्वर पार्श्वनाथ तपस्वी द्वारा कठोर साधाना और तपस्या की गई।
आलोट के पश्चिम के साथ प्रसिद्ध तीर्थ नागेश्वर पार्श्वनाथ का (ब) बिबडोद तीर्थ
अनन्य संबंध है । नागेश्वर पार्श्वनाथ यद्यपि राजस्थान की सीमा में
है लेकिन रतलाम जिले के लिये अपनत्व लिये हुए है, ऐसा लगता इसी दिशा में पांच किलोमीटर दूर बिबड़ोद तीर्थ स्थित है।
है. इसी जिले की तीर्थस्थली है । १४ फीट ऊंचाई लिए नीलम प्रतिमा आधा कि. मी. दूर से ही बिबड़ोद जिनालय का परकोटा दिखाई
(पार्श्वनाथ) भव्य रूप से हमें यहां आने के लिए बार-बार आकर्षित देता है ऐसा लगता है कोई दुर्ग बना हुआ है। देखने की जिज्ञासा .
करती है। मंदिर का निर्माण कार्य गतिशील है। यहां पौष सुदी १० होती है। जिनालय परिसर में प्रवेश करते ही वहां की
को प्रतिवर्ष मेला आयोजित होता है जिसमें हजारों धर्म प्राण जनता भव्यता हमें प्रभावित करती है। प्रशांत, निरापद, पुनीत स्थल हमें
दर्शनार्थ आती है। तीर्थस्थल पर पहुंचने के लिए आलोट, रतलाम बार-बार यहां आने के लिये प्रेरित करता है । साधना का रमणीय से आवागमन के साधन उपलब्ध हैं। स्थल बिबड़ोद तीर्थ है । इस तीर्थ के मूलनायक भगवानश्री ऋषभदेव प्रतिष्ठित हैं। प्रतिवर्ष यहां पौष माह में एक मेला आयोजित
३. रतलाम नगर के जैन मंदिर होता है और हजारों यात्री दर्शनार्थ आते हैं। बिबड़ोद और सागोदिया
रतलाम नगर में करीब १४ जिनालय हैं जिनमें मोती पूज्यजी, दोनों तीर्थ रतलाम से पक्की सड़क से जुड़े हुए हैं।
गुजराती, शांतिनाथजी (अगरजी का प्रसिद्ध मंदिर), बाबासा का
मंदिर, पार्श्वनाथजी का मंदिर (स्टेशन) उल्लेखनीय है, जिनमें (स) करमदी तीर्थ
अगरजी का तथा बाबा सा. का मंदिर ५२ जिनालय युक्त है। आपने कई तीर्थ देखे होगें लेकिन करमदी तीर्थ की विशेषता
कोई भी महानुभाव जब रतलाम पधारें तो इस जिले के दर्शनीय यह है कि एक प्राकृतिक झरने के निकट यह जिनालय स्थित है और तीर्थों का अवश्य लाभ लें। २८
राजेन्द्र-ज्योति
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20000 VARILLIAMLIL
AD
चरम तीर्थङ्कर श्री महावीर
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www.bilibrary ste
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राजेन्द्र-ज्योति
चतुर्थ खण्ड
जैन तत्त्वज्ञान/दर्शन
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जो व्यक्ति व्याख्यान देने में दक्ष हो, प्रतिभा सम्पन्न हो, कुशाग्र बुद्धि वाला हो; किन्तु मान-प्रतिष्ठा का लोलुपी हो, दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयत्न करता हो तो न वह वाग्मी है न प्रतिभावान और न विद्वान् ।
-राजेन्द्र सूरि
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पार्श्व और महावीर का शासन-भेद
मनि नथमलजी
भगवान पार्श्व और महावीर के शासन-भेद का विचार हम निम्न तथ्यों के आधार पर करेंगे :--
१. चातुर्याम और पंच महाव्रत--प्राग-ऐतिहासिक-काल में भगवान ऋषभ ने पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया था, ऐसा माना जाता है । ऐतिहासिक काल में भगवान पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का उपदेश दिया था। उनके चार याम ये थे-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बहिस्तात् आदान-विरमण : बाह्य-वस्तु के ग्रहण का त्याग ।। भगवान महावीर ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। उनके पाँच महाव्रत ये हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।। सहज ही प्रश्न होता है कि भगवान महावीर ने महाव्रतों का विकास क्यों किया? भगवान पार्श्व की परंपरा के आचार्य कुमार श्रमण केशी और भगवान महावीर के गणघर गौतम जब श्रावस्ती में आए. तब उनके शिष्यों को यह संदेह उत्पन्न हआ कि हम एक ही प्रयोजन से चल रहे हैं, फिर यह अन्तर क्यों ? पार्श्व ने चातुर्याम धर्म का निरूपण किया और महावीर ने पांच महाव्रतधर्म का, यह क्यों? . कुमार श्रमण केशी ने गौतम से यह प्रश्न पूछा तब उन्होंने केशी से कहा-''पहले तीर्थंकर के साधु ऋजु-जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र-जड़ होते हैं । बीच के तीर्थंकरों के साधु ऋज-प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं।
पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार १. स्थानांग-४/१३६ २. उत्तराध्ययन-२१/१२ ३. वही-२३/१२-१३
का पालन कठिन है । मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं...और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं।"
इस समाधान में एक विशिष्ट ध्वनि है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि जब भगवान पार्श्वनाथ के प्रशिष्य अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे, उसका पालन कठिन हो गया तब उस स्थिति को देखकर भगवान महावीर को ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत के रूप में स्थान देना पड़ा।
भगवान पार्श्व ने मैथुन को परिग्रह के अंतर्गत माना था ।" किन्तु उनके निर्वाण के पश्चात और भगवान महावीर के तीर्थकर होने से थोड़े पूर्व कुछ साधु इस तर्क का सहारा ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे कि भगवान पार्श्व ने उसका निषेध नहीं किया है। भगवान महावीर ने इस कुतर्क के निवारण के लिए स्पष्टतः ब्रह्मचर्य महाव्रत की व्यवस्था की और महाव्रत पांच हो गये।
सूत्रकृतांग में अब्रह्मचर्य का समर्थन करने वाले को "पार्श्वस्थ" कहा है। वृत्तिकार ने उन्हें "स्वयूथिक" भी बतलाया है।' इसका तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर के पहले से ही कुछ 'स्वयूथिक-निर्ग्रन्थ" अर्थात् पार्श्व-परंपरा के श्रमण स्वच्छंद हो कर अब्रह्मचर्य का समर्थन कर रहे थे। उनका तर्क था कि ४. वही-२३/२६-२७ ५. स्थानांग-४/१३६ वृत्ति
मैथुन परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यते।। ६. सूत्रकृतांग-१/३/४/९. १३ । ७. क: सूत्रकृतांग-१/३/४/९/वृत्ति-स्वयूथ्या वा।
खः वही-१/३/४/१२ वृत्ति-स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः
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"जैसे व्रण या फोड़े को दबा कर पीव को निकाल देने से शान्ति मिलती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से शान्ति मिलती है । इसमें दोष कैसे हो सकता है ?
जैसे भेड़ बिना हिलाये शान्तभाव से पानी पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ शान्त भाव से किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना समागम किया जाय, उसमें दोष कैसे हो सकता है ?
जैसे 'कपिंजल' नाम की चिड़िया आकाश में रहकर बिना हिले-डुले जल पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ अनासक्त भाव से समागम किया जाए तो उसमें दोष कैसे हो सकता है ?
भगवान महावीर ने इन कुतों को ध्यान में रखा और वक्रजड़ मुनि किस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं, इस ओर ध्यान दिया तो उन्हें ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत का रूप देने की आवश्यकता हुई। इसलिए स्तुतिकार ने कहा है___ "से वारिया इत्थि सराइमंत" : सूत्रकृतांग, १/६/२८ अर्थात, भगवान ने स्त्री और रात्रि भोजन का निवारण किया । यह स्तुति वाक्य इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की विशेष व्याख्या, व्यवस्था या योजना की थी। ___अब्रह्मचर्य को फोड़े के पीब निकालने आदि के समान बताया जाता था, उसके लिए भगवान ने कहा-"कोई मनुष्य तलवार से किसी का सिर काट शान्ति का अनुभव करे तो क्या वह दोषी नहीं है ?"
कोई मनुष्य किसी धनी के खजाने से अनासक्त-भाव से बहुमूल्य रत्नों को चुराए तो क्या वह दोषी नहीं होगा?
कोई मनुष्य चुपचाप शान्त-भाव से जहर की घंट पी कर बैठ जावे तो क्या वह विष व्याप्त नहीं होगा?
दूसरे का सिर काटने वाला, दूसरों के रत्न' चुराने वाला और जहर की घंट पीने वाला वस्तुत: शान्त या अनासक्त नहीं होता, वैसे ही अब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला शान्त या अनासक्त नहीं हो सकता।
जो पार्श्वस्थ श्रमण अनासक्ति का नाम ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करते हैं, वे काम-भोगों में अत्यंत आसक्त हैं 110 ___अब्रह्मचर्य को स्वाभाविक मानने की ओर श्रमणों का झुकाव होता जा रहा था, उस समय उन्हें ब्रह्मचर्य की विशेष व्यवस्था देने की आवश्यकता थी । इस अनुकूल परिषह से श्रमणों को बचाना आवश्यक था। उस स्थिति में भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को
बहुत महत्त्व दिया और उसकी सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था दी : देखिये-उत्तराध्ययन १६ और ३२वां अध्ययन ।
२. सामायिक और छेदोपस्थापनीय-भगवान् पार्श्व के समय सामायिक चारित्र था और भगवान महावीर ने छेदोपस्थापनीयचारित्र का प्रवर्तन किया । वास्तविक दृष्टि से चारित्र एक सामायिक ही है । चारित्र का अर्थ है "समता की आराधना।" विषमतापूर्ण प्रवृत्तियां त्यक्त होती हैं, तब सामायिक चारित्र प्राप्त होता है । यह निर्विशेषण या निर्विभाग है। भगवान पार्श्व ने चारित्र के विभाग नहीं किए, उसे विस्तार से नहीं समझाया । सम्भव है उन्हें इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। भगवान् महावीर के सामने एक विशेष प्रयोजन उपस्थित था, इसलिए उन्होंने सामायिक को छेदोपस्थापनीय का रूप दिया। इस चारित्र को स्वीकार करने वाले को व्यक्ति या विभागशः महाव्रतों को स्वीकार कराया जाता है। छेद का अर्थ 'विभाग' है। भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व के निविभाग सामायिक चारित्र को विभागात्मक सामायिक चारित्र बना दिया और वही छेदोपस्थापनीय के नाम से प्रचलित हुआ। भगवान् ने चारित्र के तेरह मुख्य विभाग किये थे। पूज्यपाद ने भगवान् महावीर को पूर्व तीर्थंकरों द्वारा अनुपदिष्ट तेरह प्रकार के चारित्र-उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया है
तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः पंचेर्यादि समाश्रयाः समितयः पंच व्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परराचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयं ।।12
भगवती से ज्ञात होता है कि जो चातुर्याम-धर्म का पालन करते थे, उन मुनियों के चारित्र को "सामायिक' कहा जाता था
और जो मुनि सामायिक-चारित्र की प्राचीन परंपरा को छोड़कर पंचयाम-धर्म में प्रबजित हुए उनके चारित्र को "छेदोपस्थापनीय" कहा गया ।13
भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व की परंपरा का सम्मान करने अथवा अपने निरूपण के साथ उसका सामंजस्य बिठाने के लिए दोनों व्यवस्थाएं की--प्रारंभ में अल्पकालीन निविभाग : सामायिक चारित्र को मान्यता दी,14 दीर्घकाल के लिए विभागात्मक : छेदोपस्थापनीय : चारित्र की व्यवस्था की।16
किया है
११. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२६७ १२. चारित्रभक्ति ७ १३. भगवती २५/७/७८६ गाथा १, २
सामाइयंमि उ कए, चाउज्जामं अणुवंर घम्म । तिविहेणं फासयंतो, सामाइय संजमो स खलु ।। छेत्रणं उ परियांग, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं ।
धम्ममि पंच जामे, छेदोपट्टावणो स खलु ।। १४. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२६८ १५. वही गाथा १२७४
८. सूत्रकृतांग-१/३/४/१० से १२ ९. सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा-५३-५५ १०. सूत्रकृतांग १/३/४/१३
राजेन्द्र-ज्योति
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३. रात्रि-भोजन-विरमण-भगवान् पार्श्व के शासन में रात्रि-भोजन न करना बत नहीं था। भगवान् महावीर ने उसे व्रत की सूची में सम्मिलित कर लिया। यहां सूत्रकृतांग : १/६/२८ का वह पद फिर स्मरणीय है-"से वारिया इथि सराइभत्तं ।" हरिभद्र सूरि ने इसकी चर्चा करते हुए बताया कि भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर ने अपने ऋजु-जड़ और वक्र-जड़ शिष्यों की अपेक्षा से रात्रि-भोजन न करने को व्रत का रूप दिया और उसे मूल गुणों की सूची में रखा। मध्यवर्ती तीर्थकरों ने उसे मूलगुण नहीं माना इसलिए उन्होंने उसे ब्रत का रूप नहीं दिया । सोमतिलक सूरि का भी यही अभिमत है।
मूलगुणेसु उ दुव्हं, सेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्त।
हरिभद्रसूरि से पहले ही यह मान्यता प्रचलित थी। जिनभद्रगणि ने लिखा है कि "रात को भोजन नहीं करना” अहिंसा अत का संरक्षक होने के कारण समिति की भांति उत्तर गुण है। किन्तु मुनि के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है। इस दृष्टि से बह मुलगण की कोटि में रखने योग्य है।18 श्रावक के लिए वह मूलगुण नहीं हैं । जो गुण साधना के आधारभूत होते हैं, उन्हें "मौलिक" या "मूलगुण" कहा जाता है। उनके उपकारी या सहयोगी गुणों को "उत्तरगुण" कहा जाता है । जिनभद्र गणी ने मूलगुण की संख्या ५ और ६ दोनों प्रकार से मानी है:१. अहिंसा
४. ब्रह्मचर्य २. सत्य
५. अपरिग्रह ३. अचौर्य
६. रात्रि-भोजन-विरमण आचार्य बट्टकेर ने मूलगुण २८ माने हैं-- पांच महाव्रत
अस्नान पांच समितियां
भूमिशयन पांच इन्द्रिय-विजय दन्तघर्षन का वर्जन षड् आवश्यक
स्थिति भोजन केश लोच
एक भुक्त अचेलकता १६. दशवकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति प. १५०
एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः ऋजजड़वक्रजड़पुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थ महाब्रतोपरि पठितं, मध्यम तीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञ पुरुषापेक्षयोत्तर
गुणवर्ग इति । १७. सप्ततिशत स्थान गाथा २८७
मूलगुणेषु उ दुआँ सेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्तं । १८. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२४७ वत्तिः
उत्तरगुणत्वे सत्यपि तत् साधोर्मूलगुणो भण्यते । मूलगुण
पालनात् प्राणातिपातादिविरमणवत् अन्तरंगत्वाच्च । १९ विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२४५-१२५० २०. वही गाथा १२४४ सम्मत समेयांइ, महब्बयाणुव्वयाइ
मूलगुणा। २१. वही गाथा १८२९ मूलगुण छन्वयाई तु २२. मूलाचार ११२-११३
महागुणों की संख्या सब तीर्थंकरों के शासन में समान नहीं रही, इसका समर्थन भगवान् महावीर के निम्न प्रवचन से होता है:
"आर्यो १–मैंने पांच महायतात्मक, सप्रतिक्रमण और अचेल धर्म का निरूपण किया है । आर्यों---मैंने नग्नभाव, मण्डभाव, अस्नान, दन्तप्रक्षालन-वर्जन, छत्र-वर्जन, पादुका-वर्जन भूमि-शय्या, केश-लोच आदि का निरूपण किया है।23
भगवान् महावीर के जो विशेष विधान हैं, उनका लंबा विवरण स्थानांग-९/६९३ में है।
४. सचेल और अचेल-गौतम और केशी के शिष्यों के मन में एक वितर्क उठा था--
“महामुनि बर्द्धमान ने जो आचार धर्म की व्यवस्था की है, वह अचेलक है और महामुनि पार्श्व ने जो यह आचार धर्म की व्यवस्था की है, वह वर्ष आदि से विशिष्ट तथा मूल्यवान वस्त्रवाली है। जबकि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण हैं ? "केशी ने गौतम के सामने वह जिज्ञासा प्रस्तुत को
और पूछा--"मेधाविन् ! वेष के इन प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता।"
"केशी के ऐसा कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा-"विज्ञान द्वारा यथोचित जानकर ही धर्म के साधनों-उपकरणों की अनुमति दी गई है । लोगों को यह प्रतीत हो कि ये साधु, हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा को निभाना और “मैं साधु हूँ" ऐसा ध्यान आते रहना वेष-धारण के इस लोक में ये प्रयोजन हैं। यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा हो तो निश्चय-दृष्टि में उसके साधन, ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।
भगवान् पार्श्व के शिष्य बहुमूल्य और रंगीन वस्त्र रखते थे। भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को अल्पमूल्य और श्वेत वस्त्र रखने की अनुमति दी।
डा. हर्मन जेकोबी का यह मत है कि भगवान् महावीर ने अचेलकता या नग्नत्व का आचार आजीवक आचार्य गोशालक से ग्रहण किया । किन्तु यह संदिग्ध है। भगवान् महावीर के काल में और उनसे पूर्व भी नग्न साधुओं के अनेक सम्प्रदाय थे । भगवान् महावीर ने अचेलकता को किसी से प्रभावित होकर अपनाया या अपनी स्वतंत्र बुद्धि से, इस प्रश्न के समाधान का कोई निश्चित स्रोत प्राप्त नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि महावीर दीक्षित हए तब सचेल थे, बाद में अचेल हो गये । भगवान् ने अपने शिष्यों
२३. स्थानांग ९/६२ २४. उत्तराध्ययन २३/२९-३३ २५. दी सेक्रेड बुक आफ दी ईस्ट, भाग ४५ पृ. ३२
It is probable that he borrowed then from the Ake'lakas or Agivakas, the followers of Gosala.
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के लिए भी अचेल आचार की व्यवस्था की, किन्तु उनकी अचेल व्यवस्था दूसरे-दूसरे नग्न साधुओं की भांति एकान्तिक आग्रहपूर्ण नहीं थी। गौतम ने केशी से जो कहा, उससे यह स्वयं सिद्ध है।
जो निर्ग्रन्थ निर्वस्त्र रहने में समर्थ थे, उनके लिए पूर्णतः अचेल (निर्वस्त्र) रहने की व्यवस्था थी और जो निर्ग्रन्थ वैसा करने में समर्थ नहीं थे, उनके लिए सीमित अर्थ में सचेलक, अल्पमूल्य और श्वेत वस्त्रधारी रहने की व्यवस्था थी।
भगवान् पार्श्व के शिष्य भगवान महावीर के तीर्थ में इसलिए खप सके कि भगवान महावीर ने अपने तीर्थ में सचेल और अचेल इन दोनों व्यवस्थाओं को मान्यता दी थी। इस सचेल और अचेल के प्रश्न पर ही निर्ग्रन्थ-संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो शाखाओं में विभक्त हुआ था। श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार जिन-कल्पी साधु वस्त्र नहीं रखते थे। दिगम्बर साहित्य के अनुसार सब साधु वस्त्र नहीं रखते थे। इस विषय पर पार्श्ववर्ती परंपराओं का भी विलोकन करना अपेक्षित है।
पूरणकश्यप ने समस्त जीवों का वर्गीकरण कर छह अभिजातियाँ निश्चित की थी। उसमें तीसरी लोहित्याभिजाति में एक शाटक रखनेवाले निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
आचारांग में भी एक शाटक रखने का उल्लेख है। 28 अंगुत्तरनिकाय में निर्ग्रन्थों के नग्न रूप को लक्षित करके ही उन्हें "अह्मीक" कहा गया है। आचारांग में निर्ग्रन्थों के लिए अचेल रहने का भी विधान है। ° विष्णु-पुराण में साधुओं के निर्वस्त्र और सवस्त्र दोनों रूपों का उल्लेख मिलता है। 1.
इन सभी उल्लेखों से यह जान पड़ता है कि भगवान् महावीर के शिष्य सचेल और अचेल-इन दोनों अवस्थाओं में रहते थे। फिर भी अचेल अवस्था को अधिक महत्व दिया गया, इसीलिए केशी के शिष्यों के मन में उसके प्रति एक वितर्क उत्पन्न हुवा था। प्रारंभ से अचेल शब्द का अर्थ निर्वस्त्र ही रहा होगा। और दिगंबर-श्वेतांबर संघर्ष-काल में उसका अर्थ 'अल्प वस्त्र बाला' या 'मलिन वस्त्र वाला' हुआ होगा, अथवा एक वस्त्रधारी निर्ग्रन्थों के लिए अचेल का प्रयोग हुआ होगा। दिगंबर परंपरा ने निर्वस्त्र रहने का एकान्तिक आग्रह किया और श्वेतांबर-परंपरा ने निर्वस्त्र रहने की स्थिति के विच्छेद की घोषणा की। इस प्रकार सचेल और अचेल का प्रश्न भगवान् महावीर ने जिसको समाहित किया था, आगे चल कर विवादास्पद
बन गया । यह विवाद अधिक उग्र तब बना जब आजीवक श्रमण दिगंबरों में विलीन हो रहे थे। तामिल काव्य "मणिमेखले" में जैन श्रमणों को निर्ग्रन्थ और आजीवक-इन दो भागों में विभक्त किया गया है। भगवान् महावीर के काल में आजीवक एक स्वतंत्र सम्प्रदाय था । अशोक और दशरथ के "बराबर" तथा "नागार्जुनी गुहा-लेखों" से उसके अस्तित्व की जानकारी मिलती है। उन श्रमणों को गहाएं दान में दी गई थी । संभवतः ई. स. के आरंभ से आजीवक मत का उल्लेख प्रशस्तियों में नहीं मिलता। डा. वासुदेव उपाध्याय ने संभावना की है कि आजीवक ब्राह्मण मत में विलीन हो गये । किन्तु मणिमेखले से यह प्रमाणित होता है कि आजीवक-श्रमण दिगंबर श्रमणों में विलीन हो गये।
आजीवक नग्नत्व के प्रबल समर्थक थे। उनके विलय होने के पश्चात् सम्भव है कि दिगंबर परंपरा में भी अचेलता का आग्रह हो गया। यदि आग्रह न हो तो सचेल और अचेल-इन दोनों अवस्थाओं का सुन्दर सामंजस्य बिठाया जा सकता है, जैसा कि भगवान् महावीर ने बिठाया था।
५. प्रतिक्रमणः-भगवान पार्श्व के शिष्यों के लिए दोनों संध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं था। जब कोई दोषाचरण हो जाता, तब वे उसका प्रतिक्रमण कर लेते । भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों के लिए दोनों संध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य कर दिया, भले ही फिर कोई दोषाचरण हुआ हो या न हुआ हो ।
६. अवस्थित और अनवस्थित कल्प:--भगवान पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन-भेद का इतिहास दस कल्पों में मिलता है। उनमें से चातुर्याम धर्म, अचेलता प्रतिक्रमण पर हम एक दृष्टि डाल चुके हैं। भगवान् पावं के शिष्यों के लिए१-शय्यातर-पिण्ड : उपाश्रयदाता के घर का आहार न लेना। २-चातुर्याम धर्म का पालन करना। ३-पुरुष को ज्येष्ठ मानना । ४-दीक्षा पर्याय में बड़े साधुओं को वंदन करना । ये चार कल्प अवस्थित थे। १-अचेलता, २-औदेशिक, ३-प्रतिक्रमण, ४-राजपिण्ड, ५-मासकल्प, ६-पyषण कल्प । ये छहों कल्प अनवस्थित थे, ऐच्छिक थे। भगवान महावीर के शिष्यों के लिये ये सभी कल्प अवस्थित थे, अनिवार्य थे। परिहार विशुद्ध चारित्र भी भगवान् महावीर की देन थी । इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र की भाँति 'अवस्थित कल्पी' कहा गया है । ३२. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन खंड २, पृ. २२ ३३. वही पृ. १२६ ३४. बुद्धिस्ट स्टडीज पृ.१५ ३५. क : आवश्यक नियुक्ति १२४४
ख : मूलाचार ७/१२५-१२९ भगवती २५/७/७८७ : सामाइय संजमेणं भंते किं ठियकप्पे होज्जा अटिठयकप्पे होज्जा? गोयमा ठियकप्पे वा होज्जा अठ्यिकप्पे वा होज्जा । छेदोवट्ठावणिय संजए पुच्छा,
गोयमा ठियकप्पे होज्जा नो अट्ठियकप्पे होज्जा ३७. भगवती २५-७/७८७
२६. अंगुत्तरनिकाय ६।६३, छलभिजातिसुत्त, भाग ३, पृ. ८६ २७. वही ६।६।३ तत्रिदं भन्ते, पुराणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति
पज्जत्ता, निगण्ठा एक साटका। २८. आचारांग १८।४।५२ अदुवा एग साडे २९, अंगुत्तरनिकाय, १०८1८, भाग ४, पृ. २१८ अहिरिका
भिक्खवे निगण्ठा ३०. आचारांग १६८।४।५३ अदुवा अचेले। ३१. विष्णु पुराण अंश ३, अध्याय १८, एलोक १०
राजेन्द्र-ज्योति
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महावीर जीवन और मुक्ति के सूत्रकार
:
प्रो. जयकुमार 'जलज'
1
महाबोर में और बहुत से दूसरे महापुरुषों में एक मौलिक अन्तर है । महावीर की यात्रा विचार से आरम्भ होती है, जबकि बहुत से महापुरुषों की यात्रा का आरम्भ दयाभाव से होता है। जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के साथ तो अवश्य यह हुआ कि वे बंधे हुए पशुओं को देखकर द्रवित हो गये और उन्होंने संन्यास ले लिया लेकिन महावीर के साथ ऐसी कोई घटना घटित नहीं हुई । वे चिन्तन के माध्यम से सन्यास तक पहुंचे। इसलिये महावीर हमारे भीतर किसी दयाभाव या गल भाषकता को नहीं जगाते, वे हमारे चिन्तन को प्रेरित करते हैं। हमारे प्रश्नों का उत्तर देते हैं और हमारी जिज्ञासाओं को शान्त करते हैं । वे हमें कायल करते हैं और हमें उनके साथ सहमत होना पड़ता है ।
महावीर की यात्रा विचार से आरम्भ होने के कारण वे एक ऐसे दर्शन को उपलब्ध कर सके जिसमें कहीं कोई छेद नहीं है और जो जीर्ण हीना जानता ही नहीं है । पच्चीसवीं शताब्दी ही नहीं, पचासवीं या सौवीं शताब्दी भी उसे ओढ़ सकती है । वह ओछा पड़ने वाला नहीं है । इतिहास में ऐसा एक ही उदाहरण और है जहाँ चिन्तन के माध्यम से एक सर्वव्यापी दर्शन तक पहुँचा गया है । यह उदाहरण है कार्लमार्क्स का, लेकिन मार्क्स के समय तक बहुत सा ज्ञान प्रकाश में आ चुका था। मार्क्स के सामने पुस्तकालय खुले हुए थे। उन्होंने अपनी यात्रा वस्तुतः अध्ययन से आरम्भ की। महावीर के काल में इतना कुछ था ही नहीं । इसलिये उन्हें स्वयं की चिन्तनशक्ति पर ही निर्भर रहना पड़ा । उनके पास जो कुछ भी है वह उनका स्वयं का अर्जित किया हुआ है। उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों की तपस्याओं के विवरण, उनके अहिंसा धर्म पर अडिग रहने के उल्लेख तो मिलते हैं लेकिन धर्म या आचरण
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के पीछे की दार्शनिक पीठिका को पहचानने और उसे स्पष्ट करने के उनके प्रयत्नों का उल्लेख नहीं मिलता । महावीर ने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि के एक भले आचरण को दर्शन की क़ायल कर देने वाली भूमि पर खड़ा किया। उन्होंने ऐसा न किया होता तो जैन धर्म एक आचार धर्म बनकर रह जाता। उसका भी यही हाल हुआ होता जो बहुत से विचारहीन आचारों का होता है । वह काल के किसी भी झोंके में उखड़ गया होता।
ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व महावीर का जन्म हुआ। उनके पिता सिद्धार्थ वैशाली के कुण्डग्राम में ज्ञातृ शाखा के गणराजा थे और माँ विदेह की राजकुमारी त्रिशला गणराज्य के महामान्य राष्ट्राध्यक्ष चेटक की बहिन (दिगम्बर पुराणों के अनुसार पुत्री थी। इन्हीं चेटक की दूसरी बहिन चेल्लना मगध के राजा बिम्बिसार को ब्याही थी। महावीर के जन्म के पूर्व उनकी माँ महारानी त्रिशला को स्वप्न में सोलह दृश्य दिखायी दिये गजराज, वृषभ, सिंह, स्नान करती हुई लक्ष्मी, फूलों की माला, चन्द्रमा, सूर्य, आदि । राज्य ज्योतिषी ने इन स्वप्नों का विचार किया और घोषणा की कि महाराज सिद्धार्थ के यहाँ जो पुत्र उत्पन्न होगा वह अमरता को प्राप्त करेगा और उसकी साधना से समूचे विश्व में कल्याण का अवतरण होगा ।
ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व, ग्रीष्म ऋतु, चैत्र मास शुक्ल पक्ष त्रयोदशी तिथि, मध्यरात्रि- यह समय है महावीर के जन्म का । पुत्र के गर्भ में आने के समय से ही पिता राजा सिद्धार्थ के राज्य में धन-धान्य की अपार वृद्धि होने लगी थी इसलिये उन्होंने पुत्र का नाम रखा वर्द्धमान । बचपन में अनेकानेक वीरतापूर्ण कार्यों के कारण वर्द्धमान को महावीर की संज्ञा प्राप्त हुई । धैर्य, गाम्भीर्य, स्थैर्य, ध्यान, चिन्तन और समझ महावीर में जन्मजात गुण प्रतीत होते हैं । लगता है, जैसे उन्हें जीवन में कोई
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हड़बड़ी नहीं है। उनका जीवन भागता हुआ है ही नहीं। ठहरकर सोचता हुआ, शान्त, तटस्थ, चीजों को समझने के लिए प्रस्तुत होता हुआ, ग्रहण करने की भावुक उतावली भी नहीं और छूट जाने का बोझिल पश्चात्ताप भी नहीं, समय की रेत पर विश्वास के पांवों से चलता हुआ जीवन-यह चित्र उभरता है महावीर का । इसलिये महावीर के जीवन में कोई नाटकीयताकोई तमाशा नहीं है । एक मैदानी नदी की तरह शान्त बहाव है उनका । सन्यास के लिये निकलना चाहते थे। पर माता-पिता की सहमति के लिये प्रतीक्षा करते रहे। जब वे २७ वर्ष के थे उनके माता-पिता का देहान्त हो गया। अब वे सन्यास के लिए अपेक्षाकृत स्वतन्त्र हो गए। भाई से अनुमति माँगी । भाई ने अनुमति देने में संकोच दिखाया तो दो वर्ष और ठहरे रहे । तीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया । श्वेताम्बर मान्यता है कि वे विवाहित थे । दिगम्बर मान्यता है कि उन्होंने विवाह नहीं किया था। लगभग साढ़े बारह वर्ष तक वे मोन तपस्या करते रहे । रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श के सारे आकर्षणों से विरत रहते हुए वे चिन्तन में लीन बने रहे । प्रायः लोगों ने उन्हें गलत समझा और कष्ट पहुंचाये। पर वह व्यक्ति कष्टों की चिन्ता कहाँ करता है जिसके सामने सत्य अपने आपको अनावृत कर रहा हो। उनका परिश्रम सफल हुआ और उन्हें सब कुछ स्पष्ट हो गया। जैन ग्रन्थ कहते हैं--महावीर सर्वज्ञ हो गये। यह घटना ५५७ ई.पू. २६ अप्रैल, वैशाख शुक्ल दशमी को बिहार प्रान्त के ज़म्भक नामक गांव के बाहर ऋजुकूला नदी के तट पर एक शाल वृक्ष के नीचे घटित हुई। इस घटना के बाद उन्हें सर्वज्ञ, तीर्थंकर, गणनायक, अहंत परमात्मा, जिनेन्द्र आदि नामों से स्मरण किया जाने लगा। महावीर ने अपना उपदेश पण्डितों की भाषा संस्कृत में न देकर सर्वसाधारण की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत में दिया । अर्द्धमागधी प्राकृत (वर्तमान पूर्वी हिन्दी, यानी अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी की पूर्वज भाषा) के पूर्व में मागधी (वर्तमान बिहारी, बंगाली, असमी और उडिया की पूर्व भाषा) और पश्चिम में शौरसेनी प्राकृत (वर्तमान पश्चिम हिन्दी, यानी खड़ी बोली, ब्रज, बुन्देली, कन्नौजी और बांगरू की पूर्वज भाषा) का प्रदेश था । महावीर की मातृभाषा मागधी प्राकृत थी, लेकिन अर्द्धमागधी प्राकृत में उपदेश देने के कारण अर्धमागधी भाषा-भाषियों के अतिरिक्त शौरसेनी और मागधी भाषा-भाषी भी महावीर को समझ सके । क्योंकि अर्द्धमागधी मध्यवर्ती प्रदेश की भाषा थी और उसमें पश्चिमी तथा पूर्वी छोरों पर बोली जाने वाली शौरसेनी तथा मागधी की बहुत सी विशेषताएँ विद्यमान थीं। एक ओर जहाँ वह शौरसेनी से बहुत दूर नहीं थी वहीं दूसरी ओर मागधी से भी बहुत दूर नहीं थी। उनकी सभा में जिसे समवसरण कहा जाता था, सभी धर्म, विचार और उम्र के मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पक्षियों को भी आने की छूट थी। वे निरन्तर भ्रमण करते रहे और सभी को उस सत्य से परिचित कराते रहे जिसे उन्होंने लम्बी कष्टपूर्ण मौन साधना के द्वारा प्राप्त किया था।
उनके उपदेशों को दूर-दूर तक पहुँचाने के लिए इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह प्रमुख शिष्यों के नेतृत्व में मुनियों के गणों का संगठन हुआ । महासती चन्दना उनके साध्वीसंघ की अध्यक्षा बनी । महावीर ने मुनि और गृहस्थ दोनों को मार्गदर्शन दिया। २९ वर्ष ३ माह और २४ दिन तक वे उपदेश देते रहे। अन्त में ५२७ ई. पूर्व कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार १५ अक्टूबर को पावानगर में उनका निर्वाण हुआ।
साढ़े बारह वर्ष के मौन लेकिन जागरूक एकाग्र चिन्तन से कोन सी सर्वज्ञता मिली महावीर को? क्या वे संसार की सभी छोटी-बड़ी बातों को जान गये? महावीर की सर्वज्ञता इन सब ही चीजों में नहीं है। वास्तव में उनकी चेतना का पदार्थ (वस्तु) द्रव्य या सत् की विराटता से साक्षात्कार हो गया। उन्हें पदार्थ की स्वतन्त्रता की अनुभूति हुई । वे समझ सके कि पदार्थ स्वतन्त्र, विराट और बहुआयामी है । इस अभूतपूर्व घटना की असाधारणता एक ऐसी बात से समझी जा सकती है कि इसे समझने के लिए विज्ञान को लगभग २५०० वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ी । बीसवीं शताब्दी में आईस्टीन के माध्यम से ही वह इसे समझ सका। इसे समझने के लिए राजनीतिशास्त्र को लगभग २२३६ वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ी। फ्रान्सीसी क्रान्ति के माध्यम से ही वह इसे समझ पाया । आइंस्टीन ने इसे मूलत: केवल जड़ पदार्थों के सन्दर्भ में और फ्रान्सीसी क्रान्ति में इसे केवल' मानवी सन्दों में ही समझा । महावीर ने इसका सम्पूर्ण जड़ और चेतन के सन्दर्भ में आत्म-साक्षात्कार किया। इस आत्म-साक्षात्कार ने उन्हें दृष्टि दी जिससे वे अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सत्यों को देख सके, मानव आचरण के मानकों का निर्धारण कर सके और जीवों की मुक्ति का रास्ता पा सके ।
महावीर की सर्वज्ञता का अर्थ उनके द्वारा सब कुछ जानना नहीं है । बल्कि उसे जानना है जिसे जान लेने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता । वस्तु के स्वरूप की जानकारी के बाद महावीर के लिए ज्ञान निःशेष हो गया। यह जड़ को सीचना है जिसे सींचने के बाद फूल-फलों या शाखाओं का सींचना आवश्यक नहीं रह जाता । महावीर इसी अर्थ में सर्वज्ञ हैं । वास्तव में वे दृष्टि-सम्पन्न हो गये । दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति सभी ओर देख सकता है । महावीर के लिए सब ओर देखना सम्भव हो गया। आधुनिक काल में सर्वज्ञता की कुछ ऐसी ही झलक हमें महात्मा गांधी में देखने को मिलती है । वे साहित्य-समीक्षक नहीं थे पर रामचरित मानस, साकेत आदि पर टिप्पणी कर गये, अर्थशास्त्री नहीं थे पर उन्होंने ग्रामोद्योग, कृषि, स्वदेशी आदि की नई दिशाओं से संसार को परिचित कराया, दार्शनिक नहीं थे पर गीता की उनकी अपनी व्याख्या है, समाजशास्त्री नहीं थे पर स्त्री-कल्याण, हरिजन-उद्धार आदि पर उन्होंने निजी योजनाएं प्रस्तुत की, शिक्षाशास्त्री नहीं थे लेकिन मातृभाषा, शिक्षा-प्रणाली आदि पर उनके विचार शिक्षाशास्त्रियों के लिए चुनौती बन गये। महावीर की सर्वज्ञता इससे अधिक तात्त्विक और इससे अधिक गहरी थी।
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वस्तुस्वरूप की विराटता का निरूपण करने के लिए महावीर ने उसकी अनेक विशेषताओं को स्पष्ट किया
१. वस्तु में अनेक गुण हैं । जैसे चेतन वस्तु में ज्ञान, दर्शन, सुख,
वीर्य आदि और पुद्गल वस्तु में रूप, रस, गन्ध स्पर्श
आदि । २. वह अनन्तधर्मा है । संसार में अनन्त वस्तुओं की विद्यमानता
के कारण प्रत्येक वस्तु की अनन्त सापेक्षताएं हैं । एक अपेक्षा से वस्तु कुछ है, दूसरी अपेक्षा से कुछ और । इस प्रकार उसके अनेक अन्त या धर्म हैं । एक ही व्यक्ति पिता की अपेक्षा से पुत्र, पुत्र की अपेक्षा से पिता, बहिन की अपेक्षा से भाई, पत्नी की अपेक्षा से पति, भानजे की अपेक्षा से मामा और पता नहीं क्या-क्या होता है। महावीर को वस्तु के इस अनेकान्त स्वरूप का बहुत गहरा बोध है । इसे इतना आधारभत माना गया कि परवर्ती कालों में महावीर के सम्पूर्ण चिन्तन और दर्शन को अनेकान्त
वाद के नाम से ही अभिहित किया गया। ३. वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। प्रतिक्षण
उसमें कुछ नया जुड़ता है, प्रतिक्षण उसमें से कुछ घट' जाता है, फिर भी कुछ है जो प्रतिक्षण स्थिर रहता है। नदी के किनारे खड़े हए हमारे समक्ष हर क्षण वही नदी नहीं होती। कुछ पानी नया आ जाता है, कुछ पुराना बहकर आगे निकल जाता है और इस प्रकार हर क्षण एक नई नदी होती है फिर भी नदी वहीं होती है--उसकी संज्ञा भी वही बनी रहती है। इस निबन्ध को आरम्भ करते समय निबन्धकार जो व्यक्ति था निबन्ध की समाप्ति तक वह वहीं रहने वाला नहीं । बल्कि एक-एक पंक्ति के साथ--एक-एक शब्द के साथ वह बदलता गया है। फिर भी निबन्ध की समाप्ति पर यह निबन्ध उसी
का है जिसने इसे आरम्भ किया था। ४. वस्तु स्वतन्त्र है। वह अपने परिणामी स्वभाव के अनुसार
स्वतः परिवर्तित होती है ।
इस प्रकार वस्तु अनेक गुण, अनन्त धर्म, उत्पाद-व्ययघ्रौव्ययुक्त और स्वतंत्र है । वस्तु स्वरूप का यह सम्यक् बोध महावीर के चिन्तन की बुनियाद है । सभी वस्तुएं चाहे वे जड़ हों या चेतन, इतनी विराट हैं कि हम उन्हें उनकी सम्पूर्णता में युगपत् देख ही नहीं सकते । आईसवर्ग पानी की सतह पर जितना दिखता है, उससे कहीं अधिक बड़ा होता है-उसका अधिकांश सतह के नीचे होता है और दिखाई नहीं देता है। दिखाई देने वाले आकार के आधार पर उसे टक्कर मारने वाला जहाज उससे टकराकर खण्ड-खण्ड हो सकता है । यही हाल सभी वस्तुओं का है, वे आईसवर्ग की तरह ही होती हैं। एक समय में हम वस्तु के एक ही पहलू को देख रहे होते हैं। हम खण्ड को देखते हैं । खण्ड को देखना समन की चेतना नहीं है। एक ऐसे
युग में जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच भी समानता की बात सोचना सम्भव नहीं था। महावीर ने सभी पदार्थों को समान रूप से विराट और स्वतंत्र घोषित किया । उन्होंने अपनी घोषणा को कार्य रूप में परिणत किया। उनके चतुर्विध संघ में सभी वर्ण के लोग समान भाव से सम्मिलित हुए और सभी ने समान भाव से जीवन को लिया। ___ वस्तु को हम जितना भी देख और जान पाते हैं उसका वर्णन उससे भी कम कर पाते हैं । हमारी भाषा हमारी दृष्टि की तुलना में और भी असमर्थ है । वह पदार्थों को अपूर्ण और अयथार्थ रूप में लक्षित करती है । नाना धर्मात्मक वस्तु की विराट सत्ता के समक्ष हमारी दृष्टि को सूचित करने वाली भाषा बहुत बौनी है । वह एक टूटी नाव के सहारे समुद्र के किनारे खड़े होने की स्थिति है। वस्तु की तुलना में भाषा की इस असमर्थता को स्वीकार करना ही स्थाद्वाद तक पहुंचना है। इसलिये स्याद्वाद अनेकान्त का ही भाषिक प्रतिनिधि है। विचार में जी अनेकान्त हैं । वाणी में यही स्वाद्वाद है। इस प्रकार भाषा और अभिव्यक्ति की एक निर्दोष पद्धति के रूप में उसकी महत्ता है।
स्यात् शब्द शायद के अर्थ में नहीं है। स्थात् का अर्थ शायद हो तब तो वस्तु के स्वरूप कथन में सुनिश्चितता नहीं रही। शायद ऐसा है, शायद वैसा है-यह तो बगले झांकना हुआ। पालि और प्राकृत में स्यात् शब्द का ध्वनिविकास से प्राप्त रूप 'सिया' वस्तु के सुनिश्चित भेदों के साथ प्रयोग में आया है । किसी वस्तु के धर्मकथन के समय स्यात् शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि यह धर्म निश्चय ही ऐसा है लेकिन अन्य सापेक्षताओं में सुनिश्चित रूप से सम्बन्धित वस्तु के अन्य धर्म भी हैं । इन धर्मों को कहा नहीं जा रहा है क्योंकि शब्द सभी धर्मों को युगपत् संकेतित नहीं कर सकते यानी स्यात् शब्द केवल इस बात का सूचक है कि कहने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह गया है । इस प्रकार वह सम्भावना, अनिश्चय, भ्रम आदि का द्योतक नहीं, सूनिश्चितता
और सत्य का प्रतीक है। वह अनेकान्त-चिन्तन का वाहक है। यही अनेकान्त-चिन्तन आचार के क्षेत्र में अपरिग्रह के रूप में प्रकट हुआ । इस प्रकार अनेकान्त महावीर के उपदेशों की आधार शिला है। चिन्तन, वाणी, आचार और समाज व्यवस्था सभी जगह उसका उपपोग हैं । लेकिन महावीर ने उसे हवा में से ग्रहण नहीं किया। उनके arरा वस्तु स्वरूप को वैज्ञानिक ढंग से समझ लेने का एक सहज परिणाम है वह।
वस्तु-स्वरूप की उक्त जानकारी के फलस्वरूप ही महावीर उपादान और निमित्त की परिकल्पना तक पहुँचे । वस्तु स्वयम अपने विकास या ह्रास का मूल कारण और आधारभूत सामग्री है-वह उपादान है। अन्य वस्तु उसकी सहायक मात्र है, वह उसके लिये निमित्त भर बन सकती है। इस प्रकार वस्तु अपने विकास या ह्रास के लिए स्वयं उत्तरदायी है । एक वस्तु दूसरी वस्तु के विकास या ह्रास के लिए उपादान नहीं बन सकती । सबकों अपने पांवों स्वयं चलना है । कोई किसी के लिए चल नही सकता
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किसी पुजारी को नियुक्त करके हम प्रसन्न नहीं हो सकते कि हम पूजा कर रहे हैं। हम केवल वेतन दे रहे होते हैं । पूजा करना है तो स्वयं करनी होगी। धनी से धनी बाप का बेटा भी पिता से यह नहीं कह सकता कि परीक्षाएं सिर पर हैं, पाठ्यक्रम की चिन्ता है, चार छः नौकर लगा दीजिए जो मेरे लिए पाठ्यक्रम पूरा कर लें
1
जब सभी पदार्थ स्वतंत्र हैं तब एक के द्वारा दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करना गलत लगता है । हस्तक्षेपकर्त्ता ऐसा तभी करता है जब वह दूसरे की विराटता को अनदेखा करता है। हस्तक्षेप करना और हस्तक्षेप सहना दोनों ही हानिकर हैं। इससे कठिनाइयाँ और संघर्ष खड़े होते है । आत्मा के चारों ओर आस्रव एकत्र होता है और मुक्ति से दूरी बढ़ जाती है। जब हम हस्तक्षेप करते हैं तब दूसरे के लिए उपादान बनने की चेष्टा करते हैं । और दूसरे के लिए उपादान बनने की चेष्टा करना हिंसा है। महावीर कहते हैं, दूसरे के लिए उपादान बनने का प्रयत्न मत करिये । पदार्थ स्वतंत्र है और वे अपने कर्मों के अनुसार परिणमन करते हैं । आप अपने अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) से बाहर जाकर दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश मत करिये । पर महावीर की बात हम सुनते कहाँ हैं ? परिवार का मुखिया समझता है कि घर उस पर निर्भर है। वह घर को अपने सिर पर रख लेता है, अपनी इच्छाएँ और अपने विचार परिवार के सदस्यों पर थोपता है। पिता अपने पुत्र के लिए अध्ययन विषय तय करता है। उसे पिता की इच्छानुसार डाक्टर या इंजीनियर बनना पड़ता है । विवाह के संदर्भ में उसे उनकी पसन्द के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ता है । पिता अपने पुत्र और उसके बाद की पीढ़ी के लिए सम्पत्ति को संचित करने में अपने आप को खपाता है । यहाँ मुखिया और पिता, अपने परि वार, अपने पुत्र तथा उसके बाद की पीढ़ी के लिए उपादान बनने के चक्कर में है और जैसा मैं कह चुका हूँ, दूसरे के लिए उपादान बनने का चक्कर ही हिंसा है। अधिक परिग्रह करने में हमारी नीयत दूसरों के लिए उपादान बनने की हो जाती है। इसलिए अधिक परिग्रह भी हिंसा है । कहा जाता है कि परिग्रह तभी परिग्रह है जब हमारी मूर्च्छा उसमें हो। भाग्यवान हैं वे जो अधिक परिग्रह के बावजूद मूरत नहीं होते निलिप्त रह लेते हैं पर ऐसे भाग्यवान कहानियों में ही होते हैं। इसीलिए तो महावीर ने परिग्रह को राई-रती छोड़ दिया था। भौतिक रूप से उसके छूट जाने से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वह मन से भी छूट जाएगा। भौतिक रूप के वह रह जाये तो मन भी उससे संलग्न हो जाता है और यह हम पैदा होती है कि मैं दूसरों के लिए उपादान बनूँ । इसलिये श्रावक को भी अनाप-शनाप परिग्रह से बचना चाहिये ।
महावीर हमें दूसरों के लिए उपादान बनने से मना करते हैं । तो फिर एक के लिए दूसरे की भूमिका क्या सिर्फ दर्शक की है ? दूसरे पदार्थों से हमारा कोई सरोकार नहीं है। हम सब अपनी स्वतंत्र धुरी पर घूम रहे हैं - अपने कर्मों के 'अनुसार परिणमन कर रहे हैं तो यह तो अलगाव है । महावीर क्या इस अलगाव का ही उपदेश देते है? नहीं, महावीर जैसे व्यक्ति
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के चिन्तन की यह दिशा हो ही नहीं सकती। वे उक्त अलगाव के बावजूद संसार के पदार्थों के प्रति हमारे गहरे सरोकारों को रेखांकित करते हैं । उनका कहना है-दूसरों के लिए हम उपादान नहीं बन सकते, लेकिन निमित्त बन सकते हैं । अपने लिए उपादान और दूसरों के लिए निमित्त की भूमिका है हमारी । दोनों में से कोई भी भूमिका उपेक्षणीय नहीं है। महावीर द्वारा दिया गया यह सूक्ष्म जीवन-सूत्र ही नहीं स्थूल व्यवहार-सूत्र भी है । मेज बनाने में लकड़ी उपादान और बढ़ई निमित्त है। अच्छी मेज का बनना दोनों के द्वारा सही भूमिका निर्वाह पर निर्भर है। बढ़ई कितना ही सिर मारे खराब लकड़ी से अच्छी मेज नहीं बन सकती। इसी प्रकार अच्छी से अच्छी लकड़ी भी स्वतः मेज में नही बदल सकती । एक स्थिति यह भी हो सकती है कि बढ़ई खराब लकड़ी से ही अच्छी मेज बनाने के दम्भ का शिकार हो जाय । यह बढ़ई द्वारा दूसरे के लिए आदान बनने की चेष्टा है। इससे झगड़ा खड़ा होता है । हम दूसरे को रास्ता दिखा सकते हैं, उसके लिए स्वयं चलकर उसे मंजिल पर नहीं पहुँचा सकते ।
महावीर का विश्वास अपने लिए उपादान बनने की बात में ही अकेले होता तो वे ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त शान्त बैठते । लोगों को अनथक उपदेश देते हुए नहीं घूमते । दर असल महावीर मात्र आत्मकेन्द्रित उपलब्धियों के समर्थक नहीं हैं वे अपनी कमाई को दूसरों के साथ बांटना चाहते हैं। इसीलिए अपने उद्देश्यों के द्वारा वे दूसरों के कल्याण के लिए निमित्त बने । दूसरों के लिए निमित्त को भूमिका का निर्वाह उन्होंने नहीं किया होता तो, तो क्षमा करें, शायद उन्हें मुक्ति की प्राप्ति भी नहीं होती । वे तीर्थंकर और भगवान नहीं बनते उन्हें शायद फिर जन्म लेना पड़ता ।
एक और महावीर ने हमें दूसरों के लिए उपादान की भूमिका न देकर अहंकार से बचाया है तो दूसरी ओर हमें दूसरों के लिए निमित्त की भूमिका देकर हमें अपनी तुच्छता के बोध से भी बचाया है। एक दृष्टि से हम कुछ भी नहीं हैं लेकिन दूसरी दृष्टि से कुछ हैं भी। एक दृष्टि से हम अलग हैं, अपने कक्ष में सीमित हैं । लेकिन दूसरी दृष्टि से हम ओरों से जुड़े हुए भी हैं। हमारे कक्ष का दरवाजा दूसरे कक्षों में खुलता है । हम अकेले भी हैं और भीड़ के साथ भी हैं । भीड़ में रहते हुए भी हमारी निजता बनी हुई है। हमें पहचाना भी जा सकता है और भीड़ की सपाटत में भी हमारी यात्रा हो रही है । इस प्रकार महावीर हमें महंकार और हीनताप्रन्थि दोनों से बचाते हैं ।
दूसरों के लिए उपादान बनने की चेष्टा न करके क्या हम दूसरों पर अहसान करते हैं ? अहसान या दया का प्रश्न ही नहीं है । यह तो उनका प्राप्तव्य है जो हम उन्हें देते हैं । हम दूसरों की हिंसा नहीं करते तो दूसरों पर यह हमारी कृपा नहीं है। दया भाव या कृपा भाव से तो महावीर की यात्रा आरंभ ही नहीं हुई। यह तो दूसरों का अधिकार है कि हम उनके अधिकार क्षेत्र में प्रवेश न करेंउनकी हिंसा न करें, यह हमारा अधिकार है । यह तो पारस्परिक है । इसमें अहसान कैसा ?
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अच्छा हम दूसरों के लिए जो निमित्त बनते हैं वह तो उनके प्रति हमारी दया है न ? मैं आरंभ में कह चुका हूँ कि महावीर दया के स्तर पर हमसे कुछ नहीं चाहते । चाहेंगे ही क्यों ? दया दिखाने की हमारी हैसियत पर तो वे पहले ही प्रश्नचिह्न लगा चुके हैं। हम होते कौन हैं दया दिखाने वाले ? अगर हम चींटी के विकास में निमित्त हैं तो क्या पता कल चींटी हमारे विकास में निमित्त बन जाय यह सब पारस्परिक है। महावीर के मन्तव्यों को परवर्ती आचार्य ने सूचित किया है-परस्परोपग्रहो जीवानाम् (तस्थार्थमूलम् ५/२१) ।
"
और अगर हम निमित्त नहीं बनते तो हम अपनी आधी भूमिका के साथ अन्याय करते हैं। हमारी भूमिका अपने लिए उपादान और दूसरों के लिए निमित्त की है। इसलिए निमित्त न बनकर हम अपनी ही हानि करते हैं । कबीर के शब्दों में कहूँ तो इस धन्धे में अपने खुद के धुलने के लिए स्वयं परिष्कृत होने के लिए, हमें पड़ना होगा।
हम निमित्त नहीं बने तो दूसरे का क्या बिगड़ेगा ? विशेष कुछ नहीं। हम निमित्त नहीं बनेंगे तो कोई और निमित्त बनेगा । उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए संकल्पबद्ध उपादान सत्ता के निमित्त को, सहायक कारणों को, अनुकूल परिस्थिति को उसके समक्ष उपस्थित होना ही पड़ता है। गाँधीजी कहा करते थे, भारत को आजाद होना है, मैं निमित्त नहीं बनूंगा तो कोई और बनेगा ।
इस पर
अपने लिए उपादान और दूसरों के लिए निमित्त की इस भूमिका के सर्वोत्तम निर्वाह का उपाय क्या है ? आखिर हमारा व्यवहार, हमारी जीवनचर्या क्या हो कि हमारी यह दुहरी भूमिका सफलता के साथ निभ जाय, हम मुक्ति को पा सकें । महावीर कहते हैं- पहली आवश्यकता तो यहीं है कि हमें अपनी इस दुहरी भूमिका का सम्यक् बोध हो । और इस बोध तक हम तभी पहुँच सकते हैं जब हमें पदार्थ की विराटता स्वतंत्रता और अनन्तधर्मिता का सचेत ज्ञान और तीव्र अनुभूति हो चुकी हो। यह तत्व का ज्ञान और उसकी सबल प्रतीति है । शास्त्रीय भाषा में इसे ही सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन कहा गया है । सभाओं में इसका विवेचन करने और निबन्ध लिखने का अर्थ यह नहीं है कि विवेचक निबन्धकार सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन से समृद्ध हो चुका है। विवेचन, विश्लेषण तो सही कार्य है । उक्त तत्व ज्ञान का आत्मा को अंतरंग गहराई में सहज स्वीकार आवश्यक है। यह हो जाय तो आगे का रास्ता खुदब-खुद खुल जाता है- यानी हमारा आचरण स्वतः सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन की अनुरूपता में ढलने लगता है। अगर सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन हमारे आचरण में नहीं उतरते तो समझना चाहिए कि उस ज्ञान और दर्शन के सम्यक् होने में कहीं कोई कसर है । पाँवों में ताकत आने पर व्यक्ति स्वयं चल उठेगा। अगर नहीं चलता तो मानना चाहिए कि पाँवों में आवश्यक ताकत अभी आई नहीं है। आचरण से रहित सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन की
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स्थिति हो ही नहीं सकती । प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के आचार्य उमा स्वामी ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों के सम्यक् होने को एक ही सूत्र में कहा है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: ( तत्वार्थ सूत्रम् - १ / १ ) । आचरण के अभाव में तथाकथित सम्यक् ज्ञान का प्रदर्शन मात्र है । वह ढोंग है। सम्यक् ज्ञान होगा तो वह आचरण में झलकेगा ही, आचरण के साथ एकमेव होगा ही ।
जैन धर्म केवल तत्वचर्चा का ही धर्म नहीं है। वह अकेले तत्व ज्ञान को मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं मानता । इसीलिये वह 'जीवन का धर्म है, शास्त्र और किताब का नहीं। असल में महावीर किताबी आदमी थे ही नहीं । उन्होंने अपने चिन्तन और साधना के द्वारा सत्य को उपलब्ध किया था, किताबों के द्वारा नहीं। इसलिए उनका ज्ञान अनिवार्यतः जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। हमारे भीतर सम्यक् ज्ञान प्रकट होते ही वह अपने आप जीवन में उतर आता है जैसे पानी अपने आप ढाल की तरफ चल देता है। सम्यक् ज्ञानी को कहीं कुछ पूछना नहीं पड़ता। वह स्वयं प्रमाण बन जाता है। निर्मल आत्मा स्वयं प्रमाण होती है। इसीलिए महावीर का धर्म साधक का धर्म है, पिछलग्गू का नहीं। सम्यक् ज्ञानी सत्य को जानता है । वह उसे निर्मित नहीं करता, हम अज्ञानी जन सत्य को निर्मित करते हैं। कहूँ, उसे निर्मित करने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि निर्मित तो हम उसे क्या करेंगे। और फिर उसके पक्ष में बहस करते हैं । इसलिये सब अपने अपने तथाकथित सत्य को लिए फिरते हैं और एक दूसरे को बहस के लिए ललकारते रहते हैं। सम्यक्ज्ञानियों में बहस का कोई मुद्दा ही नहीं रहता क्योंकि वहाँ सत्य एक होता है। श्रीमद्रराजचन्द्र ने ठीक कहा है- "करोड़ ज्ञानियों का एक ही विकल्प होता है जबकि एक अज्ञानी के करोड़ विकल्प होते हैं । "
कभी-कभी हमें ऐसा लग सकता है कि व्यक्ति समझते-बूझते गलती कर रहा है। यहाँ दो सम्भावनाएं हैं। एक तो यह कि जिसे हम समझना - बूझना कह रहे हैं, हो सकता है वह सम्यक् ज्ञान की अवस्था न हो। दूसरी यह कि जिसे हम गलती कह रहे हैं, हो सकता है वह गलती न हो समझते बूझते कोई व्यक्ति गलती नहीं करता। यदि वह करता है तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि उसके अहंकार या मोह ने उसकी समझबूझ को आच्छादित कर लिया है । इसलिए काल के जिस क्षण में वह गलती पर है उसमें वह समझबूझ का धनी है ही नहीं।
कभी-कभी सम्यक्ज्ञानी के आचरण की नकल हो सकती है। ज्ञान तो सूक्ष्म है। उसका अनुकरण संभव नहीं। लेकिन आचरण अपनी स्थूल भौतिकता के कारण अनुकरण का विषय बन जाता है। हजारों लोग ज्ञानहीन आचरण लिए घूमते हैं। जैन धर्म जैसे केवल तत्व चर्चा का धर्म नहीं है वैसे ही वह केवल आचरण का धर्म भी नहीं है । आचरणहीन ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं है तो ज्ञानहीन आचरण भी सम्यक् चारित्र नहीं है। अगर महावीर का ज्ञान हमारे पास नहीं है तो महावीर की तरह भौतिक आचरण करते हुए भी हम कहीं नहीं पहुँचेंगे । यही
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कारण है कि जैन धर्म में बाह्य आडम्बरों और बाह्य विधि-विधानों का कभी स्वागत नहीं हुआ ।
महावीर का विश्वास सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों के एकत्व पर है । यदि वस्तुस्वरूप की समुचित समझ और जो कुछ हमने समझा है उस पर समुचित श्रद्धा हममें नहीं है तो हमारा आचरण एक मुखौटा मात्र हैं। अकेला ज्ञान मुखौटा है तो अकेला आचरण भी मुखौटा है, और मुखौटा सदैव दःख का कारण बनता है। आज का सबसे बड़ा दु.ख ही यह है कि हर वक्त हमें एक मुखौटा ओढ़ना है । जो हम हैं नहीं हमें प्रशित होना है । हर वक्त एक तनाव में रहना है कि कहीं हम असली रूप में न दीख जाएं। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की त्रयी के बिना मुखौटों से छुटकारा पाना संभव नहीं है । ___ सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से युक्त व्यक्ति को महावीर कोई निर्देश नहीं देना चाहते। उनकी दृष्टि में वह तो स्वयं उनके समकक्ष है । उसे वे क्या बता सकते हैं? वह अपना पथ स्वयं बना चुका है। वह मोक्ष के मार्ग पर है। व्यक्ति सत्ता पर जितना अटूट विश्वास महावीर का है उतना शायद ही किसी महापुरुष का रहा हो । महावीर भाग्यवादी नहीं हैं । वे यह तो मानते हैं कि वस्तु अपने परिणामी स्वभाव के अनुसार स्वतः परिवर्तित होती है। किन्तु इस प्रक्रिया में वे वस्तु के निजी प्रयत्नों को निष्क्रिय नहीं मानते । वह तो अपने लिए स्वयं उपादान है उसकी लगाम स्वयं उसके हाथ में है। बन्धन और मोक्ष कहीं बाहर नहीं हैं । वे हमारे अपने भीतर हैं। हम जिसे भी चुनना चाहें चुन सकते हैं। बन्धन से मुक्त होना चाहें तो वह भी सर्वथा हमारे अपने हाथ की बात है। (बन्धप्प मोक्खो तुज्झत्थेव-आचारांग५/२/१५०) । महावीर के अनुसार वस्तु या व्यक्ति अपने उत्थान पतन के लिए किसी ईश्वर पर तो निर्भर है ही नहीं, वह चाहे तो अपनी कर्म निर्भरता भी मिटा सकता है । कर्म फलीभूत होते हैं । लेकिन यदि आत्मा जागृत है तो वे बिना फल दिए ही झर जाएंगे। इस प्रकार 'करम गति टाले नहीं टली' की अनिवार्यता से भी मनुष्य मुक्त हो सकता है। आत्मा जब चाहे तब अवनति से उन्नति या मुक्ति की दशा में सक्रिय हो सकती है । दिशा परिवर्तन में समय नहीं लगता। जैन सन्तों ने बड़े मार्मिक ढंग से महावीर की बात को समझाया है कि यदि हम दस मील तक गलत दिशा में चले जा रहे हैं तो सही दिशा के लिए हमें फिर दस मील नहीं चलना है। हमें सिर्फ पलटना भर है। हम पलटे नहीं कि सही दिशा मिल गई। किसी कमरे में दस साल से अंधेरा है। उसे प्रकाशित करने के लिए दस साल तक प्रकाश नहीं करना है । हमें दिया भर जलाना है । दिया जलते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा। हम दिये को जलाएं तो? बड़ी से बड़ी यात्रा एक कदम से ही आरंभ होती है। हम एक कदम रखें तो? इसमें हमारा अपना हित है । जैन धर्म का हित है या नहीं, इसकी हमें ज्यादा चिन्ता नहीं होनी चाहिए।
महावीर के उपदेश एक संपूर्ण रचना-एक सांगोपांग निर्मिति हैं। जिसमें बहुत वैज्ञानिक ढंग से एक के बाद एक ईंट रखी गई
है । हम कहीं से भी एक ईंट अलग नहीं कर सकते, हम कहीं भी एक ईंट और नहीं जोड़ सकते । उनके उपदेशों में से किसी एक वाक्य या उपदेश को लेकर उसे ही सब कुछ मान लेना उनके साथ न्याय करना नहीं है। वस्तु स्वरूप की सही पहचान से उत्पन्न होने वाली महावीर की मूल अनेकान्त दृष्टि इस प्रकार के एकान्त आचरण की छूट हमें नहीं देती। ___ विज्ञान की तेज गति का साथ न दे पाने के कारण आज की दुनिया में धीरे-धीरे बहुत से आचार और विचार सरणियाँ अप्रासंगिक हो गई हैं। लेकिन महावीर के उपदेशों की प्रासंगिकता निरन्तर बढ़ती गई है क्योंकि उनके उपदेशों में धर्म और विज्ञान मिलकर एक हो गए हैं । पच्चीस सौ वर्ष पूर्व जिस वैज्ञानिक दृष्टि से उन्होंने अपनी बात कही थी उसे आत्मसात् करने के लिए विज्ञान के प्रयत्न अभी जारी हैं । दुनिया में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि का ज्यों-ज्यों विकास होता जाएगा त्यों-त्यों महावीर के उपदेशों को प्रासंगिकता बढ़ती जाएगी।
आज के संदर्भ बहुत जटिल हो गए हैं। बहुत सी बातों और कार्यों में परोक्षता आ गई है। दर असल पिछले कुछ वर्षों से अर्थ शास्त्र और भूगोल बहुत बदल गए हैं इसलिए सभी क्षेत्रों में प्रायः सभी प्रक्रियाएँ अनिवार्य रूप से बदली हैं । लेकिन इतना सब होने पर भी मनुष्य में कोई मौलिक अन्तर नहीं आया है । वह अब भी पहले की तरह ही राग द्वेष का पुतला है-अहंकारी, स्वार्थी और दूसरे के लिए सुई की नोंक के बराबर भी भूमि देने वाला भी पर नहीं ही' पर दृष्टि रखने वाला । इसलिए महावीर के उपदेश अब भी प्रासंगिक हैं । महावीर तो एक दृष्टि प्रदान करते हैं। वह दृष्टि है कि हमें दूसरे के लिए भी हाशिया छोड़ना चाहिए। हमारी ओर से यही आन्तरिक यत्न होना चाहिए कि दूसरे के लिए हाशिया छोड़ने की बात हमारी स्वानुभूति का विषय बन जाए । हम अनुभव करें कि हमारे अतिरिक्त भी पदार्थ सत्ताएं हैं-करोड़, सौ करोड़ नहीं, अनन्त और अनन्तधर्मी हैं. विराट, इतनी विराट कि उन्हें संपूर्णता में देख पाना असंभव है । यह स्वानुभूति, यह दृष्टि जिसके पास है वह अपने आप सत्य, अहिंसा, अचोर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य के रास्ते पर चलेगा । क्षमा, मद्ता, सरलता, पवित्रता, अकिंचनता आदि उसके सहज गुण बन जाएंगे । ये सब उस पर आरोपित नहीं होंगे। उसके विचार और उसकी स्वानुभूति से सहज ही उदभूत हो उठेग। वह भीतर और बाहर एक हो जाएगाविभक्त व्यक्तित्व का अभिशाप उसे नहीं झेलना होगा। ___आगामी वर्षों में बदलाव की गति और भी तेज होगी। सुविधाओं की वृद्धि के बावजूद सुख छोटा हो जाएगा। अधिक असत्य, अधिक हिंसा, अधिक चोरी, अधिक एकान्त दृष्टि, अधिक परिग्रह, अहंकार
और असंयम, भय और उन्माद, अप्रत्यक्ष गुलामियाँ और विषमताएं कुछ यह तस्वीर होगी कदाचित् भविष्य की । छोटी-छोटी बातों पर उलझाव, सूचनाओं की भीड़ के होने पर भी समझ या बोध की कमी, असहिष्णुता, हड़बड़ी यह सब बढ़ जाएगा। क्या तब भी महावीर के उपदेशों की प्रासंगिता होगी? महावीर जो इस सबसे भिन्न और विपरीत जीवन जीते रहे क्या कल अप्रासंगिक नहीं हो जायेंगे। समय का अन्तराल एक चुनौती है लेकिन गहरे में सोचें तो पाएंगे कि महावीर की प्रासंगिकता कल भी घटेगी नहीं, बढ़ेगी ही। आज की अपेक्षा वे हमें कल अधिक याद आएंगे क्योंकि आज की अपेक्षा कल हमें उनकी अधिक आवश्यकता होगी
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महावीर की महिमा
लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज'
वतमान में महावीर नहीं हैं, पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का सूचक उनका जीवन-चरित्र व उनका प्रांजल परिष्कृत स्वर्णोपदेश आज भी उपलब्ध है, उनके अनेक अनुयायी भी हैं, जो महावीर जयन्ती और महावीर-निर्वाण-दिवस बड़े उत्साह से मनाते हैं, तथा २५०० वें महावीर निर्वाण वर्ष समारोह के सन्दर्भ में तो वे महावीर के प्रति व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों रूपों में अपेक्षाकृत कार्य भी कर के दिखा चुके हैं। समणसुत्त का प्रकाशन, एक ध्वज का अवतरण, अनेकानेक स्मारिकाओं, स्मृति-ग्रन्थों का प्रकाशन, उत्सव की ऊर्जा के सूचक विविध धार्मिक-सामाजिक आयोजन आज भी प्रेरणादायक बने हैं, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं समझा जावे कि अब कुछ करना शेष नहीं रहा, जबकि अभी तो कार्य का श्रीगणेश ही हुआ है ।
महावीर ने जो कुछ कहा और जो कुछ किया, वह केवल एक युग और एक देश के लोगों के लिए नहीं था, उनके कार्य, उनके दिव्य सन्देश प्राणिमात्र के लिए हैं, उनकी धर्म-सभा में (समवशरण में) पुरुष और स्त्री, पशु और पक्षी, राजा और रंक, ऊँच
और नीच सभी समान रूप से स्थान पाते थे, सभी का अपनी शंका के समाधान का स्वर्ण अवसर सुलभ था । महावीर ने अपने जीवन-काल के ७२ वर्षों में वह कार्य किया. जिससे मानवता को आधार मिला, और विश्व के व्यक्तियों को विश्वसनीयता की उपलब्धि हुई।
परमार्थ में भी स्वार्थ को लेख कर विश्वबन्धत्व को अपने में सीमित या कैद किया जा रहा था । महावीर ने देखा कि धार्मिक-सामाजिक, आर्थिक-राजनैतिक सभी क्षेत्रों में उतना सुधार आवश्यक है कि जितना भी शक्य और सम्भव है। इसलिए उन्होंने मानसिक स्वतंत्रता और साहसिक आवश्यकता का महत्व समझाया। अहिंसावाद और अपरिग्रहवाद, कर्मवाद और स्याद्वाद, अनीश्वरवाद और विश्वबन्धुत्ववाद द्वारा महावीर ने संसार के समस्त प्राणियों के लिए सुख-शान्ति, सन्तोष और समृद्धि का सन्देश दिया था।
जब सभी प्राणियों को प्राण प्रिय हैं और हम किसी को प्राण दे नहीं सकते हैं, तब हमें उनके प्राण लेने का भी क्या अधिकार है? क्या हमने मन और मति इसलिए पाई कि दुर्बलों के साथ अन्याय करें, उन्हें मार डालें, उन्हें सुख से जीने नहीं दें, और तो और धर्म के नाम पर यज्ञ की आड़ में अश्व और अज तथा मनुष्य की भी बलि दें? यह तो प्रत्यक्ष हिमालय-सा सुस्पष्ट अधर्म है । इससे नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है, अतएव अहिंसा की ही आराधना हो हिंसा की नहीं, 'जिओ और जीने दो' की भावना ही जीव मात्र के लिए कल्याणकारी है। अहिंसा ही वह भगवती है जिसे जगन्माता का गौरव दिया जा सकता है।
महावीर जिन परिस्थितियों में उत्पन्न हुए, उनमें एक ओर हिंसा का बोलबाला था और दूसरी ओर अमित वैभव और विलास का आयोजन था। एक ओर कर्म के फल को अस्वीकृति दी जा रही थी तो दूसरी ओर अपनी ही बात को सूर्य सत्य घोषित किया जा रहा था । सृष्टि के एक जनक को स्वीकार कर स्वयं के ईश्वर होने की बात सर्वथा भुलाई जा रही थी, और दूसरे के,
जीवन की भाँति धन-वैभव-विलास भी संसारियों को प्रिय है। धर्म-ग्रन्थों में धन को ग्यारहवां प्राण कहा गया । धन, सुखमय जीवन के लिए सभी को काम्य है पर संसार में इतना धनवैभव ही नहीं है कि उससे एक व्यक्ति की भी अभिलाषाएँ पूर्ण की जा सके। इसलिए सभी की अभिलाषायें पूर्ण होना असम्भव दुस्साध्य हो गया। कतिपय समाज के विशिष्ट श्रेष्ठ कहे जाने वाले लोगों ने लक्ष्मीदेवी बनाम धनदेव को अपनी तिजोरियों में बन्दी बना लिया। जैसे खेल में एक खिलाड़ी गेंद पकड़ ले और
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दूसरे खिलाड़ी की ओर नहीं फैके तो खेल बन्द हो जाता है, वैसे ही कुछ लोगों द्वारा धन-वैभव पर अधिकार कर लेने से समाज में समता समाप्त प्रायः हो गई है और विषमता बढ़ गई है। एक वर्ग अतिसुख से पीड़ित हुआ तो अन्य वर्ग दुख से पीड़ित हुआ । इस स्थिति में आवश्यक है कि अपनी आवश्यकतायें कम से कम हों और संचित द्रव्य का देश और समाज के हित में दान हो, ताकि वैभव के लिए आक्रमण न हो, हिंसा न हो । धनिक धन का त्याग कर उसकी रक्षा से निश्चिन्त होगा और निर्धन धन पाकर अपेक्षाकृत सुखमय जीवन व्यतीत कर सकेगा। अपरिग्रह की भावना के विकास से ही सामाजिक मूल्यों का पुनरुत्थान होगा, और सभी सही अर्थों में अपने को सामाजिक प्राणी समझ सकेंगे । अपरिग्रह ही वह भगवान् है जिसे जीवित ईश्वर होने का सौभाग्य दिया जा सकता है । इससे ही सृष्टि आनन्दित होगी।
कर्मों का फल तो मिलता ही है, हाथ पर आग रखें तो गर्मी का अनुभव होगा। हाथ पर बरफ रखें तो शीतलता का अनुभव होगा । इसी प्रकार श्रेष्ठ कार्य करें तो चित्त उल्लसित होगा और वित्त सफल होगा, पर निकृष्ट कार्य करें तो मन खिन्न होगा और धन तथा श्रम एवं समय निष्फल होगा । हम जैसा भी काम करेंगे, वैसा फल हमें अवश्य मिलेगा। हम कर्म करें और दूसरे फल पावें या दूसरे कर्म करें और हम फल पावें, ऐसी मान्यता न्याय और नीति, लोक व्यवहार और धार्मिक-सामाजिक विचार से विरुद्ध है । इसलिए जहाँ तक हो सके वहाँ तक उत्कृष्ट कार्य करने के लिए ही पर्याप्त उत्साह दिखलाया जावे पर निकृष्ट काम करने के लिए उदासीनता-उपेक्षा बतला कर अपने लिए अकारण असमय उत्पन्न होने वाली उद्विग्नता से बचा लिया जावे । कर्म का फल अतीव प्राकृतिक और सुनिश्चित है । जैसे सहस्र कलियों वाले कमल की प्रत्येक कली प्रथम और सहस्रवी है, वैसे ही संसार के प्रत्येक धर्म और दर्शन के आराधक की बात में सत्यांश है, परन्तु जैसे एक ही कली पूर्ण सहस्रदल कमल नहीं है, बल्कि पूर्ण कमल बनने के लिए अन्य कलियाँ भी साथ लिये है वैसे ही सभी व्यक्तियों की बातों में सत्यांश तो सम्भव है, पर पूर्ण सत्य नहीं । पूर्ण सनातन शाश्वत सत्य की उपलब्धि तो अन्य जनों की बातों की भी स्वीकृति देने से होगी केवल अपनी बात का बतंगड़ बनाने से नहीं । पर्याय की दृष्टि से जीव अनित्य है, यह क्षणिकवादी बौद्ध दृष्टि सही है और द्रव्य दृष्टि से जीवात्मा नित्य है, यह प्रकृतिपुरुष तत्ववादी सांख्यिकी दृष्टि भी सही है, परन्तु जीव आत्मा न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है, बल्कि जीव कथंचित् (किसी दृष्टि से) नित्य और कथंचित् अनित्य है । स्यात् (अन्य का भी अस्तित्व सूचक) वाद (विचार-धारा) में दोनों ही नहीं, बल्कि अनेक दृष्टियों का समावेश है, अतएव यह सर्वोपरि शीर्षस्थ है और दार्शनिक सरोवर का एक ही सहस्रदल कमल है । स्याद्वाद मूलक दृष्टि लिए रहने से ही समाज में एक व्यक्ति अनेक सम्बन्ध स्थापित करके पूर्णतया सफलीभूत सामाजिक बना है ।
विश्व को बनाने वाला ईश्वर है, इस कथन की अपेक्षा यह कहना अधिक सही है कि हम सभी ईश्वर के अंश हैं, और मन्दिरों
के ईश्वरों (भगवान की मूर्तियों) को हमने ही इसलिये बनाया है कि हम अंश अंशी (अनेक अंशों वाले ईश्वर-पूर्ण) बन सकें । जैसे एक बीज समुचित वातावरण में विकसित होकर अनेक बीजों को जन्म और जीवन देने में सक्षम है, वैसे ही ईश्वर-अंश जीवात्मा स्वयं भी सुविकसित हो कर ईश्वर (आत्मिक गुण सम्पन्न व्यक्ति) बन सकने में सक्षम है, और कृतकृत्य सिद्ध होकर सर्वदा के लिए संसार से अदृश्य होने में समर्थ है । ऐसी मान्यता में यह प्रश्न भी उत्पन्न नहीं होता कि यदि विश्व को ईश्वर ने बनाया तो ईश्वर को किसने बनाया । दूसरे ने बनाया तो उसे किसने बनाया । जो अनवस्थादोष हो ।
हम ही सुखी न हों, बल्कि संसार के सभी प्राणी सुखी हों। इस सद्भावना और शुभकामना के सृजन के लिए भी हमें अहिंसा और अपरिग्रह मूलक बातों पर विशेषतया दृष्टिपात करना होगा। सदभावना और शुभकामना की सैद्धान्तिक सक्रियता-सार्थकता अहिंसा और अपरिग्रह मूलक प्रयोगों पर ही सफलता देगी। विश्वबन्धुता की सुरक्षा के लिए जिओ और जीने दो के सन्देश को मानवता की परिधि से बढ़ा कर विश्वबन्धुता तक पहुंचाना ही होगा । यह इसलिए कि जितने भी जीव हैं, वे सब जीवन में जीना चाहते हैं, मरना नहीं, सभी को प्राण प्रिय हैं, अतएव उन्हें जीने देना चाहिए, मारना नहीं चाहिए ।
यदि आज महावीर होते तो वे हिंसकों से कहते-दूसरों को मारने से पहले जरा स्वयं तो एक बार मर कर देखो तो पता चले कि मरने में कितना कष्ट होता है। यदि आज महावीर होते तो वे शोषकों से कहते-दूसरों का शोषण करने से पहले जरा स्वयं तो शोषित होकर देखो। यदि आज महावीर होते तो वे कर्मफल के अविश्वासियों को अनेक युक्तियों से समझाते-संसार की विषमता के मल में व्यक्तियों के कर्मों और फलों की विषमता व्याप्त है । यह आँखों आगे प्रत्यक्ष देख लेख कर ही कर्म-फल के रहस्य को समझलो । यदि आन महावीर होते तो धर्म और दर्शन के नाम पर अपनी ही डींग हांकने वालों से कहते-तुम्हारी बात इस दृष्टि से सही है और उसकी बात इस दृष्टि से सही है। इसलिए विरोध का नहीं समन्वय का मन्त्र सीखो और बह अनेकान्त है। यदि आज महावीर होते तो अनन्य ईश्वरवादियों से कहते-जब शिशु विकसित होकर वृद्ध बन सकता है, तब जीवात्मा (जो ईश्वर का अंश है) वह परमात्मा क्यों नहीं बन सकता है? यदि आज महावीर होते तो वे जीव-दया के सन्दर्भ में कहते-जो भी जीवधारी है, जीवन लिये जीता है उसे अपना जीवन संसार की सभी वस्तुओं से भी अधिक प्रिय है, अतएव अपनी भाँति उसे जीने दो। यदि उसे विपत्ति से नहीं बचा सको, तो मत बचाओ पर अपने सुखस्वाद के लिए उसे दुख भी तो मत पहुंचाओ । यदि आज महावीर होते और उन्हें बढ़िया भोजन, बढ़िया वस्त्र, बढ़िया बंगला, बढ़िया आजीविका, बढ़िया सम्मान श्रद्धा से देते तो वे कहते-जब तक संसार का एक भी व्यक्ति भूखा है, एक भी व्यक्ति नंगा है, एक भी व्यक्ति मकान-विहीन है, एक भी व्यक्ति बेकार है, एक भी व्यक्ति
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पद-विहीन है, तब तक मैं तुम्हारी इन चीजों को कैसे स्वीकार कर सकता हूँ। इन चीजों को तुम मुझे नहीं, उन्हें दो जिन्हें इनकी आवश्यकता है। मैंने इन्हें पाने के लिए संसार नहीं छोड़ा था, और यों महावीर और भी महावीर होते।
प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी मानसिक परिपक्वता के अनुसार महावीर को, उनकी मानवता को उनकी विश्वबन्धुता को परखा है, पर पूर्णतया किसने परखा है? यह कहना आशा और आकांक्षा की पूर्ति से भी कहीं अधिक कष्ट साध्य है। महावीर ने भक्तों से अपने लिए इतनी श्रद्धा और निष्ठा कदापि नहीं चाही कि उनका व्यक्तित्व और विचार स्वातंत्र्य उनमें केन्द्रित या स्वयं में कुंठित हो जावे । उन्होंने यह भी नहीं चाहा कि लोग उनकी मूर्तियाँ बनावें, उन्हें प्रतिष्ठित कराकर मन्दिरों में प्रतिदिन पूजें, उनकी जय जयकार करें, उनके जीवन और सिद्धान्तों पर बढ़िया भाषण देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें. पर महावीर ने यह अवश्य चाहा होगा कि सही शब्दों में मेरे अनुयायी-अनुचर-अनुयायी वे ही व्यक्ति कहलावेंगे, जो मेरे सदृश अपने जीवन से आचरित और व्यवहृत होंगे। महावीर ने अपने अनुयायियों से उच्च अधिकारी बनने, शान शौकत, रौब-दाब से रहने, येन केन प्रकारेण सम्मानित होने की आशा नहीं रखी होगी, पर अपने मतानुयायियों से आज्ञा
प्रधानी के स्थान में परीक्षा-प्रधानी बनने की, अन्य के शिक्षण के स्थान में स्वयं के शिक्षण की, अन्तरंग के दर्पण में आत्म-निर्माण के निरीक्षण और परीक्षण की, समय-समय पर सही दिशा में विचार-हृदय-परिस्थिति में परिवर्तन कर दैनिक जीवन के धरातल में अभ्युत्थान की आशा अवश्य रखी होगी।
विचार के इस बिन्दु से महावीर के आधुनिक अर्वाचीन अनुयायियों को अपने उत्तरदायित्व का बोध होना चाहिए। कभी उनकी भांति घर छोड़ कर बन में जाने का, श्रद्धा-विवेक-क्रिया मूलक श्रावक बनकर, लोक धर्म का निर्वाह करने के उपरान्त मुनि बनने का विचार भी करना चाहिए। जीव-दया की भावना को दृष्टि में रखते हुए चार कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ), पाँच पाप (हिंसा-झूठ-चोरी-कुशील-परिग्रह), सप्त व्यसन (जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पान करना, वैश्या सेवन करना, चोरी करना, पर स्त्री सेवन करना, शिकार खेलना) से बचना चाहिए । जो न्याय को छोड़ अन्याय की ओर भागे, जो भक्ष्य को छोड़कर अभक्ष्य की ओर बढ़े, जो सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व अपना ले, वे महावीर के अनुयायी नहीं हैं ।
जिन महावीर की महिमा गणधर ही नहीं कह सके, उसे हम क्या कह सकते हैं। श्रद्धापूर्वक प्रणाम मात्र कर सकते हैं।
महावीर की वाणी
तूने जीवन यूंज गवायो बस खायो और खुटायो
माया को फंदा लइ लेगो एक दन थारा प्राण । महावीर की वाणी सुनले तो हुइ जावे कल्याण ।।
धोलो और कालो धन तुने दोई हाथ से लूट्यो धरम का नाम पे एक पइसो भी छाती से नी छुट्यो साथें कई लइ जावेगा ? करतो जा थोड़ो दान । महावीर की वाणी सुनले तो हुई जावे कल्याण ।।
कैलाश 'तरल'
पाड़ोसी तो मर्यो भूख से पन पीयो घी तूने किस्तर थारो मन मानीग्यो क्यों दया करी नी तूने ? भूली ग्यो कई थारो हिवड़ो तो है दया की खान। महावीर की वाणी सुनले तो हइ जावे कल्याण ।।
अपनी मतलब सीधी करने तने फिरको अलग चलायो बीज फूट का तो बोया पन फल लगने नी पायो लई एकता को सन्देशो यो दन आयो आज महान। महावीर की वाणी सुनले तो हुई जावे कल्याण ।।
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Nitywers
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अज्ञान तिमिर है और ज्ञान आलोक । अज्ञान मृत्यु है और ज्ञान अमरता । अज्ञान विष है और ज्ञान अमृत । अज्ञान का आवरण रहते मनुष्य किसी बात को जान नहीं सकता । अन्धकार में चलने वाला किसी कूप वापी-तगाड़ में गिर सकता है । किसी विषधर नाग पर पांव रख कर विषकीलित हो सकता है और आगे का पथ न सूझने से मार्गच्युत भी हो सकता है; परन्तु जिसने दीपक हाथ में लिया है वह सुखपूर्वक पवर्ती फील-कटकों से अपनी सुरक्षा करता हुआ गन्तव्य ध्रुवों को पा लेता है । इसीलिये प्रकाश, आलोक प्राणियों को प्रिय प्रतीत होता है। पूर्व दिशा से आलोक - किरण के दर्शन करते ही पक्षी आनन्द कलरव करने लगते हैं, नीड़ छोड़ कर विस्तृत गगन में उड़ चलते हैं । क्योंकि प्रकाश से उन्हें दृष्टि मिली है, अभय मिला है। ऋषियों ने ऋग्वेद में उषा की स्तुति की है क्योंकि उसी के अरुणगर्भ से सूर्य का जन्म होता है। वे अंजलिबद्ध होकर परमात्मा की प्रार्थना करते हुए याचना करते हैं- " तमसो मा ज्योतिर्गमय" हे प्रभो ! ले चल हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर क्योंकि प्रकाश ही पदार्थों से साक्षात्कार में सहायक है ।
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
उपाध्याय विद्यानन्द मुनि
अज्ञानी व्यक्ति नदी में पाँव रखता है तो डूबने का भय है, यदि यज्ञवेदी पर बैठता है तो जल जाने का डर है, यदि उसे फल खरीदने भेज दिया जाय तो वह मधुर फलों को छोड़कर कटुतिक्तकषाय खरीद लेगा, क्योंकि उसे न अमृत का ज्ञान है और न विष की परीक्षा । वह हिताहित ज्ञान से शून्य है । इसीलिए समाज में मनुष्यजाति में पाठशालाओं की विधि है । अनेक विषय उसे विद्याशालाओं में पढ़ाये जाते हैं और एक प्रकार से लौकिक ज्ञान प्रदान कर संसार यात्रा के लिये उपयुक्त किया जाता है । पशु-पक्षी भी अपने-अपने अपत्यों को जातिगत ज्ञान की परम्परा प्रदान करते हैं । इस प्रकार कुछ ज्ञान उसे घर से, कुछ बाहर से
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प्राप्त हो जाता है। यह ज्ञान के विषय में लौकिक अपेक्षा से किया गया सामान्य निर्वचन है ।
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"हितानुबंधी ज्ञानम्" ज्ञान के विषय में यह अत्यावश्यक परामर्श है कि वह हितानुबंधी होना चाहिए, क्योंकि इसे आलोक अथवा प्रकाश कहा है । प्रकाश अग्नि से सूर्य से और दीपक से भी मिलता है। यदि कोई दीपक से पदार्थ दर्शन के स्थान पर अपने वस्त्र जला ले तो यह उसका दुरुपयोग होगा । यदि विज्ञान से विध्वंसक प्रक्षेपास्त्रों का निर्माण किया जाता है और निर्माण अथवा मानव-कल्याण में उसको विस्मृत किया जाता है तो यह दीपक लेकर कुएं में गिरने के समान होगा । इसे ही कहते हैं "हेयोपादेय विज्ञान" यदि ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी इतनी उपलब्धि नहीं हुई तो शास्त्रपाठ शुकपाठ ही रहा । "व्यर्थ श्रमः श्रुती" कहते हुए "क्षत्रचूड़ामणि" कार ने इसकी भर्त्सना की है । वस्तुतः जिसने अन्न को अपना रस, रक्त, माँस बना लिया है उसी ने आहार का परिणाम प्राप्त किया है। किन्तु जिसके आमाशय में अजीर्ण दोष है, वह उदर में रखने मात्र से अन्नभुक्ति के आरोग्य - परिणाम को प्राप्त नहीं कर सकता । जो ज्ञान को ऊपर से ओढ़ कर घूमता है, उसके उत्तरीय को कभी कोई उतार ले सकता है । परन्तु जिसने ज्ञान को स्वसंपत्ति के रूप में उपार्जित किया है उसे कोई छीन नहीं सकता। अतः ज्ञानोपार्जन में ज्ञान की पवित्रता के साथ-साथ उसे अपने से अभिन्न प्रतिष्ठित करने की महती आवश्यकता है। जब अग्नि और उष्णता, जल और शीतलता के अविनाभावी संबंध के समान गुण और गुणी एकरूप हो जाते हैं तभी उनमें अव्यभिचारीभाव का उदय होता है । ज्ञानी और ज्ञान भी आधाराधेय मात्र न रह कर प्राणसम्पत्ति होने चाहिये । ऐसे ज्ञान की उपासना में मनुष्य को शास्त्राग्नि में प्रवेश करना पड़ता है ।
राजेख-क्यो
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यह ज्ञान मनुष्य भव में ही हो सकता है, अतः प्राप्त करने में आलस्य नहीं रखना चाहिए। आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में कहा है कि 'प्रज्ञान दुर्लभ है और यदि इसे इस जन्म में प्राप्त नहीं किया गया तो अन्य जन्म में यह अत्यन्त दुर्लभ है ।" क्योंकि अन्य जन्म मनुष्य पर्यायवान् हो, यह लिखित प्रमाणपत्र नहीं है । अतः एक जन्म का प्रमाद कितने इतर जन्मों के अन्तर विशोधनीय हो, यह अनिर्वचनीय है। प्राणान्त होना ही मृत्यु नहीं है, प्रमाद ही मृत्यु है । अप्रमत्तको मृत्यु एक बार आती है परन्तु प्रमादी प्रति क्षण मरता है । " प्रमादेसत्याधः पातात् " यही कहता है ।
ज्ञान की पिपासा कभी शान्त नहीं होती । ज्ञान प्रति क्षण नूतन है, वह कभी जीर्ण या पुरातन नहीं पड़ता । स्वाध्याय, चिंतन, तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि उपायों से ज्ञान-निधि को प्राप्त किया जाता है। जो चिंतन के समुद्र पी जाते हैं, स्वाध्याय की सुधा का निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, संयम पर सुमेरु के
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के समान अचल स्थिर रहते हैं, वे ज्ञान प्रसाद के अधिकारी होते हैं । ज्ञानवान् सर्वज्ञ हो जाता है। जिस विषय का स्पर्श करता है, वह उसे अपनी गाथा स्वयं गा कर सुना देता है । दर्पण में जैसे बिम्ब दिखता है, वैसे उसकी आत्मा में सब कुछ झलकने लगता है ।
मनुष्य के जीवन में ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है । ज्ञान ही मानव और पश में अन्तर बताता है । विकेकहीन मानव पशु के तुल्य कहा गया है । विद्या की उपलब्धि पुस्तकों से होती है । बालक पुस्तकों से ही ज्ञान का अर्जन करता है। इसलिए ज्ञानार्जन में पुस्तक अन्यतम साधन है। अनुभव से भी ज्ञान प्राप्ति होती है किन्तु वह दुरूह और द्रव्यसाध्य होने से गरीबों को सुगम नहीं होता, जबकि पुस्तकें कम पैसे से ही धनी, निर्धन सबको देश, विदेश, इहलोक, परलोक, विज्ञान, साहित्य, धर्म और संस्कृति का ज्ञान सुगमता से प्राप्त कराती हैं ।
तीन मुक्तक
बन्द करें अब केवल चर्चा कथनी करनी एक करें । कर्म - कलश में भाव-नीर जिनवर का अभिषेक करें ।। गोष्ठी, सम्मेलन से धर्म-प्रसार नहीं होताअपने सिद्धान्तों का पालन पहले हम सविवेक करें ।
अपने प्राण सभी को प्यारे सबको हक़ है जीने का । सबको उचित मूल्य चाहिये अपने खून पसीने का । हम न किसी को दुःख पहुँचायें न ही किसी का हक़ छीने । यत्न करें हम दिल के घाव स्नेह-सूत्र से सीने का ।
आवश्यकता से ज्यादा भी संग्रह कभी न कर पाये । जो कुछ है सत्य प्रिय है केवल उतना कह पाये । मन, वाणी औ कर्म हमारे सदा नियन्त्रण में रखेजितना भी संभव हो संयम धारण कर हम रह पाये ।
-दिलीप जैन
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आचार्य सिद्धसेनगणि और तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति
श्रीमती डॉ. अमरा जैन
आचार्य सिद्धसेनगणि श्वेताम्बर जैन परंपरा के मुनि हैं । इनके जीवन के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। इन्होंने जैनधर्म के शिरोमणि ग्रन्थ "तत्वार्थसूत्र" पर "तत्वार्थभाष्यवृत्ति" लिखी है । इनका अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जीवन-परिचय
तत्वार्थभाष्यवृत्ति में प्राप्य अन्य ग्रन्थों के अवतरण तथा जैन तथा जैनेतर विद्वानों के नामोल्लेख से ही सिद्धसेनगणि के जीवन के विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त तत्वार्थभाष्यवृत्ति के अंत में पाए जाने वाले नौ शलोकों से पता चलता है कि सिद्धसेनगणि भास्वामी के शिष्य थे । भास्वामी सिंहसूरि के शिष्य थे और सिंहसूरि दिन्नगणि क्षामाक्षमण के शिष्य थे ।। सिद्धसेनगणि आगम-परंपरावादी किसी गुरुवंश से संबन्धित थे, ऐसा उनके अथाह आगम-विश्वास से प्रतीत होता है । क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर के अन्यतम तार्किक निष्कर्ष के स्थान पर भी सिद्धसेनगणि आगम-वाक्य को सर्वोपरि मानते हैं । तत्वार्थभाष्यवृत्ति के अंत में पाए जाने वाले नौ श्लोकों में से द्वितीय श्लोक में कहा गया है कि दिन्नगणि, जो सिद्धसेनगणि के तृतीय पूर्वज थे, ने अपने शिष्यों के लिए पुस्तक की सहायता के बिना प्रवचन किया । इससे भी प्रतीत होता है कि सिद्धसेनगणि आगम की उस प्राचीन शुरु-शिष्य परंपरा से संबन्ध रखते हैं, जिसमें शिष्य गुरु के चरणों में बैठ कर विद्यार्जन करता था।
प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी ने सिद्धसेनगणि को ही गन्धहस्ती माना है । अतः पं. सुखलालजी के अनुसार सिद्धसेनगणि की दो रचनाएँ हैं एक, तत्वार्थसूत्र पर रचे तत्वार्थभाष्य की उपलब्ध बड़ी वृत्ति, दूसरी आचारांग विवरण, जो, अनुपलब्ध है ।
तत्वार्थभाष्यवृत्ति में उज्जयिनी तथा पाटलीपुत्र' नामक शहरों का उल्लेख है । संभव है, सिद्धसेनगणि ने इन स्थलों पर विहार किया हो अथवा यहां स्व ग्रंथ रचना की हो । सिद्धसेनगणि का समय
__ सिद्धसेनगणि ने तत्वार्थभाष्यवृत्ति में "धर्मकीति" नामक विद्वान् का उल्लेख किया है ।' धर्मकीति का समय उन सभी विद्वानों, जिनका उल्लेख सिद्धसेनगणि की तत्वार्थभाष्यवृत्ति में है, में अर्वाचीन है। धर्मकीति का समय ईस्वी सातवीं शताब्दी है। अत: सिद्धसेनगणि का समय सातवीं शताब्दी के पश्चात् है।'
पं० सुखलालजी के विचार में सिद्धसेनगणि विक्रम की सातवी शताब्दी के अंतिम पाद से विक्रम की आठवीं शताब्दी के मध्यकाल ३. पं० सुखलाल, तत्वार्थसूत्र (हिन्दी) बनारस, सन् १९५२,
द्वितीय संस्करण, परिचय, पृ० ४० ४. वही, पृ० ४१ ५. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम पृ० २१
- 'इतोऽष्टयोजन्यामुज्जयिनी वर्तते . . . ६ वही पृ० २७ · · · पाटलिपुत्रगामिभार्गवन्मोक्षमार्ग . . . . ७. वही पृ० ३९७.... भिक्षुवरधर्मकीर्तिनापि विरोधः उक्त..... ८. वही, भाग दो, प्रस्ता० (अंग्रेजी), पृ० ६४, वाचस्पति गैरेला,
संस्कृत साहित्य का इतिहास, वाराणसी, सन् १९६०
पृ० ४४२ ९. तुलनीय, सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, प्रस्ता०
(अंग्रेजी) पृ० ६४
१. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, संपादक हीरालाल रसिकदास
कापडिया बम्बई, मन् १९३०, भाग दो, पृ० ३२७-२८ सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति. संपादक' हीरालाल रसिकदास कापडिया बम्बई, सन् १९२९, भाग प्रथम पृ० १११ व १५२-१५३ ।
राजेन्द्र-ज्योति
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में हुए 10 आर. विलियम के अनुसार सिद्धसेनगणि का समय ई० आठवीं शताब्दी के आसपास का है। 11 अतः यह निश्चित ही है कि सिद्धसेनगणि सातवीं-आठवीं शताब्दी में हुए । तत्वार्थभाष्यवृत्ति की रचना तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्व
तत्वार्थ सूत्र पर अनेक टीकाएं रची गई हैं। इनमें से कुछ श्वेताम्बर परम्परानुसार रची गई हैं और अन्य दिगम्बर परंपरानुसार । तत्वार्थ सूत्र पर स्वोपज्ञभाष्य रचा गया, जिसका रचना - काल दूसरी-तीसरी शताब्दी माना गया है । तत्वार्थ सूत्र की एक अन्य टीका 'पूज्यपाद देवनंदी कृत सर्वार्थसिद्धि है, यह दिगम्बर- परम्परानुसार रची गई है। इसका रचना काल विक्रम की ५-६ शताब्दी है । एक अन्य टीका सिद्धसेनगणि कृत तत्वार्थभाष्यवृत्ति है । यह स्वोपज्ञ भाष्य पर श्वेताम्बर - परम्परानुसार रची गई है। सिद्धसेनगणि का समय ई. सातवीं-आठवीं शताब्दी है । दिगम्बर-परंपरानुसार रची गई एक अन्य टीका भट्ट अकलंक कृत तत्वार्थराजवार्तिक है। भट्ट अकलंक का समय ईस्वी ७-८ शताब्दी है । अतः सिद्धसेनगणि तथा अकलंक दोनों समकालीन हैं । परन्तु उनके द्वारा रची गई तत्मार्थसूत्र की टीकाओं में पौर्वापर्य अवश्य होगा । यह विवाद का विषय बना हुआ है कि दोनों (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति तथा सत्याराजयागिक) में से कौन सी टीका पहले रची गई और कौन सी बाद में ।
तत्वात तथा तत्वायंभाष्यवृत्ति के आन्तरिक अव लोकन के आधार पर कहा जा सकता है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थ राजवार्तिक से पहले रची गई। इस मत का समर्थन चारचार आधारों से किया जा सकता है। प्रथम सूत्रपाठ का खण्डन, द्वितीय तृतीय वयय विकास चतुर्थ-परम्परा-विशेष के मत का स्थापन करने की प्रवृत्ति ।
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सूत्रपाठ का खण्डन
तत्वार्थसूत्र ३.१ परी राजवादिक में अकलंगाने श्वेताम्बर परम्परा मान्य सूत्रपाठ -- "सप्ताधोऽधः पृथुतरा : " का उल्लेख किया है। यही सूत्रपाठ तत्त्वार्थभाष्य तथा तत्वार्थभाष्यवृत्ति में मिलता है । अकलंक ने इसी सूत्रपाठ को तर्कबल से असंगत कहा है। 13 इसी प्रकार तत्वार्थसूत्र ४.८ की राजवार्तिक में अकलंक ने श्वेताम्बर-परम्परा मान्य सूत्रपाठ को अनुपयुक्त बतलाया " है । ऐसा प्रतीत होता है कि तत्वार्थराजवार्तिक रचते हुए अकलंक - के सम्मुख तत्वार्थभाष्य तो था ही पर तत्वार्थभाष्य के अतिरिक्त
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१०० तासूत्र (हिन्दी) परिचय ०४२ ११. आर० विलियम, जैन योग, लन्दन सन् १९६२, पृ० ७ १२. विस्तार के लिये देखिये -- अनन्तवीर्य, सिद्धिविनिश्चय टीका संपादक डा० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य काशी, सन् १९५९, भाग प्रथम पृ०४४-५५
१३. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग प्रथम संपादक पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य काशी, सन् १९५३, पृ० १६१
१४. नहीं. ०२१५
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ऐसी कोई महती टीका भी थी, 15 जिसमें प्राप्य सूत्रपाठ का अकलंक ने केवल खण्डन ही नहीं किया है अपितु स्व-परम्परामान्य सूत्रपाठ की महत्ता बताने के लिए अकलंक को तर्क -बल से उस सूत्रपाठ का निराकरण करने की आवश्यकता भी जान पड़ी । इसके स्थान पर तत्वार्थ भाष्यवृत्ति में सिद्धसेनगण द्वारा किया गया दिगम्बर- परम्परामान्य सूत्रपाठों का खण्डन अपेक्षाकृत कम प्रबल है. हालांकि सिद्धसेनमणि ने तत्वार्थभाव्यवृत्ति जिसका रचनाकाल तत्वार्थभाष्य के पश्चात् है तथा जो श्वेताम्बर परम्परा में विद्वद्कार्य मानी जाती है, में तत्वार्थ सूत्र पाठों के पाठान्तर तथा उनके विषय में कहे गए अन्य विद्वानों के मत कहे हैं । इसका तात्पर्य है कि सिद्धसेनगणि के समय में तत्वार्थ सूत्र के विभिन्न पाठ उपलब्ध ये परन्तु दिगम्बर श्वेताम्बर परम्परानुसार सूत्रपाठ का विवाद इतना प्रबल नहीं था जितना अकलंक द्वारा तत्वार्थराजवार्तिक रचते समय था । अतः स्वपरम्परामान्य सूत्रपाठ की सुरक्षा के लिए अकलंक को दिगम्बर परम्पराविरोधी तथा श्वेताम्बर परम्परानुसार सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति में पाए जाने वाले सूत्रपाठों का
खण्डन करना पड़ा ।
श्वेताम्बर परम्परा मान्य तत्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय में एक सूत्र है " द्रव्याणि जीवाश्च" दिगम्बर टीकाकार पूज्यपाद ( विक्रम ५ - ६ सदी) ने इस सूत्र को " द्रव्याणि " तथा " जीवाश्च" शे सूत्रों में कहा है ।" सिद्धसेनमणि ने उक्त सूत्र को दो सूत्रों में विभाजन को अयुक्त बताया है 127 परन्तु अकलंक 'तत्वार्थवातिकार' ने पाणि" तथा "जीवाश्च" इन दोनों सूत्रपाठों को युक्त कहा है तथा तर्कबल से इन दोनों सूत्रपाठों की सिद्धि की है ।18 इससे निष्कर्ष निकलता है कि तत्वाभाष्य (२३ सदी) में कथित एक सूत्र का दो सूत्रपाठों में विभाजन पूज्यपाद देवानन्दी (५-६ सदी) सर्वार्थसिद्धिकार को मान्य है। सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्तिकार ने सर्वार्थसिद्धि में कथित दोनों पाठों का उल्लेख किया है तथा सूत्र के इस प्रकार के विभाजन को असिद्ध कहा है, उसी के प्रत्युउत्तर में अकलंक को विस्तार से सिद्ध करना पड़ा कि एक सूत्र " द्रव्याणि जीवाश्च" कहने से केवल जीव ही द्रव्य कहे जायेंगे, अजीव नहीं । अधिकार रहने पर जब तक इस प्रकार का प्रयत्न न किया जाय तब तक अजीवों में द्रव्यरूपता नहीं बन सकती । अतः पृथक् सूत्र बनाना उचित है 120 इस विवाद से निष्कर्ष
१५. सिद्धसेनगणि कृत तत्वार्थभाष्यवृत्ति ही इस रूप में
उपलब्ध है।
१६. पूज्यपाद देवनंदी, सर्वार्थसिद्धि, संपादक पं. फूलचन्द सिद्धांतशास्त्री काशी सन् १९५५ प्रथम संस्करण पृ० २६६-२६८ १७. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ० ३२० १८. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो संपादक पं. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य काशी, सन् १९५७ पृ० ४४२-४४३ १९. सिद्धसेनगणितत्वायंभाष्यवृति भाग प्रथम, पू० १२० २०. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक भाग २, पृ० ४४२-४४३
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निकला कि पूज्यपाद सिद्धसेनगणि से पूर्ववर्ती हैं और सिद्धसेनगणित तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवातिक से पूर्व रची गई।
तत्वार्थसूत्र ६-१८ की तत्वार्थराजवातिक टीका में कहा गया है "स्यान्मतम् एकोयोगःकर्त्तव्यः" अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्य इति, तन्न, किं कारणम् ? उत्तरापेक्षत्वात् । देवस्यायुषः कथमयमास्रव स्यादिति पृथक्करणम् अर्थात् स्वभावमार्दव का निर्देश पूर्ववर्ती सूत्र ६-१७ “अल्पारंभ" द्वारा करना युक्त नहीं है क्योंकि इस सूत्र ६-१८ "स्वभावमार्दवम् च" का संबन्ध आगे बताए जाने वाले देवायु के आस्रवों से भी करना है । जिस सूत्रपाठ का खंडन अकलंक ने यहां किया है, वह सूत्रपाठ तत्वार्थभाष्य तथा तत्वार्थभाष्यवृत्ति22 में उपलब्ध है। इससे यह प्रतीत होता है कि तत्वार्थभाष्य तत्वार्थवार्तिकार के सम्मुख था ही, साथ में तत्वार्थभाष्यवृत्ति भी उनके समक्ष थी, यह निष्कर्ष दो कारणों से जान पड़ता है, प्रथम यदि यह मान लिया जाय कि तत्वार्थराजवातिक से पहले केवल तत्वार्थभाष्य था और उसके आधार पर ही अकलंक ने उपरोक्त सूत्रपाठ को अयुक्त कहा है तथा सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवातिक के पश्चात् लिखी गई, ये दोनों विचार संशयात्मक प्रतीत होते हैं। क्योंकि यदि तत्वार्थभाष्यवृत्ति से पूर्व तत्वार्थभाष्य मान्य सूत्रपाठ का खंडन पाया जाता तो सिद्धसेनगणि स्वसाम्प्रदायिक भावनावश स्वपरम्परामान्य सूत्रपाठ को ही युक्त ठहराते तथा दिगम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठ को अयुक्त बताते, पर सिद्धसेनगणि ने त. सू. ६-१८ की भाष्यवृत्ति में किसी अन्य सूत्रपाट का उल्लेख तक नहीं किया है। द्वितीय, सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थसूत्र पर एक महती टीका मानी जाती है, श्वेताम्बर परम्परा में यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है, अतः तत्वार्थराजबार्तिक के रचयिता अकलंक, जो स्वपरम्परामान्य मत-स्थापना के पोषक हैं, ने सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति में उपरोक्त विरोध देखा, उसका खंडन किया और दिगंबर परम्परामान्य सूत्रपाठ के युक्त होने के कारण कहे। अत: स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति की रचना तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्व हुई।
____ का पता चलता है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि अकलंक
से पूर्व भी इस प्रकार का खण्डन-विषय प्राप्य था और अकलंक ने उसी के आधार पर अपनी विद्वत्ता द्वारा उसे उत्कृष्ट रूप दिया है। अतः शैली की उत्कृष्टता की दृष्टि से भी तत्वार्थराजवातिक तत्वार्थभाष्यवृत्ति से परवर्ती है।
सिद्धसेनगणि स्वकथन की पुष्टि के लिये अधिकतर आगम अथवा तत्वार्थसूत्र ही उद्धृत करते हैं पर तत्वार्थराजवार्तिक में अकलंक ने तत्वार्थसूत्र के अतिरिक्त जैनेन्द्र व्याकरण, योगभाष्य, मीमांसादर्शन, युक्त्यनुशासन, ध्यानप्राभूत आदि जैन तथा जैनेतर ग्रन्थ उद्धृत किये हैं और परमतों का उल्लेख कर उनका खण्डन किया है। स्वमत समर्थन के लिये अधिक से अधिक उद्धरण देना तथा परमत को कह उसका खण्डन करना, इस . प्रकार की प्रवृत्ति की तभी आवश्यकता अनुभव होती है जब स्वमत विरोधी कथन मिलते हों अथवा स्वमत के सिद्धान्तों के खण्डन का भय हो । ऐसी प्रवृत्ति के दर्शन तत्वार्थभाष्यवृत्ति की अपेक्षा तत्वार्थराजवातिक में अधिक हैं । अतः तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्ववर्ती है।
पूज्यपाद26 तथा सिद्धसेनगणिश ने तत्वार्थसूत्र ६-१४ आगत "उदय" शब्द का अर्थ "विपाक" किया है । परन्तु "अकलंक"28 तथा विद्यानन्द (१० वीं सदी) तत्वार्थश्लोकवातिककार ने "उदय" शब्द की विस्तृत व्याख्या की है । इसी प्रकार का इसी अध्याय में एक अन्य स्थल है." जहां दोनों सिद्धसेनगणि तथा अकलंक स्व-स्व टीकाओं में आस्रव के अधिकारी बताते हुए कहते हैं कि उपशान्त क्षीण कषाय के ईर्यापथ आस्रव है। सिद्धसेनगणि आगे कहते हैं कि केवली के ईर्यापथ आस्रव है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सांपरायिक आस्रव हैं। पर यहां अकलंक का कथन स्पष्टतर तथा विस्तृत है जब वे केवली के साथ 'सयोग" पद भी जोड़ते हैं अर्थात् सयोगकेवली के ईर्यापथ आस्रव हैं । अकलंक सांपरायिक आस्रव के स्थान के विषय में बताते है कि सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान तक सांपरायिक आस्रव है 182 इन दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणि की अपेक्षा अकलंक विस्तृत वर्णन में विश्वास रखते हैं । अकलंक की इस २६. पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, पृ. ३३२, उदयो विपाकः। २७. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग २ पृ. २९
उदयोविपाकः । २८. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ. ५२४, प्रागुपात्तस्य
कर्मणः द्रव्यादि निमित्तवशात् फलप्राप्तिः परिपाका उदय
इति निश्चीयते। २९. विद्यानन्द, तत्वार्थश्लोकवार्तिक, भाग छ: सोलापुर, सन्
१९६६, पृ. ५१३ ३०. तत्वार्थसूत्र ६-५ ३१. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, पृ. ९ ३२. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ. ५०८
शैली
"आकाश प्रधान का विकार है"23 सांख्य दर्शन के इस सिद्धान्त का खंडन सिद्धसेनगणि तथा अकलंक दोनों ने स्वस्वटीकाओं में किया है। पर दोनों के खण्डन करने के ढंग में अन्तर है । अकलंक द्वारा किया गया खण्डन सिद्धसेनगणि द्वारा किये गये खण्डन-कार्य की अपेक्षा स्पष्टतर है । इससे अकलंक की रचना शैली की उत्कृष्टता तथा परिपक्वता २१. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक भाग २, पृ० ५२६ २२. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, पृ० ३० २३. ईश्वरकृष्ण, सांख्यकारिका, कारिका ३-२२ २४. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ० ४६८ २५. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ. ३४०
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शैली के दर्शन परवर्ती आचार्य विद्यानन्द की तत्वार्थश्लोकवार्तिक में होते हैं न कि पूर्ववर्ती आचार्य पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि में । अतः स्पष्ट है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति, यह निश्चित हैं कि जिसका रचनाकाल सर्वार्थसिद्धि के पश्चात् है, तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्व ही रची गई ।
विषय-विकास
अ] नेतत्वार्थसून ४-४१ की तत्वार्थराजनातिक में सात वार्तिकों द्वारा जिस विषय को कहा है, वही विषय तत्वाभाव्य तथा तत्वार्थभाष्यवृत्ति में सूत्ररूप में उपलब्ध है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि पूज्यपाद ने तत्वार्थभाष्य में कहे गए इन सूत्रों को सूत्र रूप में सर्वार्थसिद्धि में क्यों नहीं कहा है ? संभवतः पूज्यपाद को ये सूत्र अनावश्यक प्रतीत हुए हों । अतः संभव है कि तत्वार्थराजवार्तिक की रचना से पूर्व तत्वार्थ भाष्य पर वृत्ति लिखी जा चुकी थी तथा वे सूत्र, जो तत्वार्थ भाष्य में सूत्र रूप में उपलब्ध हैं, भी (किसी संप्रदाय विशेष में मान्य) तत्वार्थसूत्र में अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुके थे, अतः तत्वार्थराजवार्तिककार के लिये असंभव हो गया था कि पूज्यपाद की भांति ( किसी परंपरा में मान्यता प्राप्त) उन सूत्रों का उल्लेख ही न करते । इसके साथ ही सर्वार्थसिद्धि मान्य सूत्रपाठ का अनुसरण करने वाले तत्वार्थराजवार्तिककार के लिये तत्वार्थभाष्य तथा तत्वार्थभाष्य मान्य सूत्रों का तत्रूप में ग्रहण करना भी आवश्यक था। अतः अकलंक ने उन सूत्रों का वार्तिक रूप में तत्वार्थ राजवार्तिक में समावेश कर लिया। इस विवरण से प्रतीत होता है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति की रचना तत्वार्थराजवार्तिक से पूर्व हुई ।
परम्परा-विशेष के मत का स्थापन करने की प्रवृत्ति
तत्वार्थ सूत्र ८०१ की तत्वार्थ राजवादि में कलंक ने कहा है- "केवली कबलाहारी है, स्त्री मुक्ति हो सकती है. सपरिग्रही भी निर्ग्रन्थ हो सकता है आदि विपरीत मिथ्यात्व है । 33" अकलंक का यह विचार श्वेताम्बर मान्यता के विरुद्ध है क्योंकि श्वेताम्बर के आगमानुसार स्वीमुक्ति आदि हो सकती है । यह सर्वमान्य है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति श्वेतांबर परंपरानुकूल लिखी गई है, पर प्रस्तुत प्रसंग में अकलंक के कथन का खंडन तत्वार्थभाष्यवृत्ति में नहीं है । यदि तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजवार्तिक के पश्चात् लिखी जाती तो उसमें उपरोक्त कथन, जी तत्वार्थराजनातिक में है, का निराकरण सिद्धसेनगण अवश्य करते क्योंकि तत्वार्थभाष्यवृत्ति का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि सिद्धसेनगणि का आगम विरोधी कथन, चाहे कितना ही तर्कसंगत क्यों न हो, अमान्य है । अतः तत्वार्थ राजवार्तिक में उपलब्ध उपरलिखित कथन, जो श्वेतांबर आगम-विरोधी है, का निरसन सिद्धसेनगण अवश्य करते, यदि उनके संमुख तत्वार्थराजवालिक होता
३३. अकलंक, तत्वार्थवार्तिक, भाग दो, पृ. ५६४
वी. नि. सं. २५०३
उपरलिखित सभी तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सिद्धसेनमणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजाति से पूर्व रची गई ।
किन्हीं विद्वानों का मत है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थराजबार्तिक के पश्चात् रची गई क्योंकि "सिद्धिविनिश्चय" जो संभवत: तत्वार्थ राजवार्तिककार अकलंक की रचना है, 4 का उल्लेख तत्वार्थभाष्यवृत्ति में मिलता है 135 इस मत का विरोध प्रो. हीरालाल रसिकदास कापडिया ने किया है । उनके विचारानुसार सिद्धिविनिश्चय, जिस पर अनन्तवीर्य द्वारा लिखी गई टीका उपलब्ध है, तत्वार्थराजवार्तिककार अकलंक की रचना मानना असंभव है । यदि यह निश्चित भी हो जाय, जैसा कि पं. सुखलालजी का विचार है, 37 कि सिद्धिविनिश्चय तत्वार्थराज वार्तिककार अकलंक की कृति है तब भी यह मानना आवश्यक नहीं कि तत्वावातिक तत्वार्थभाष्यवृत्ति से पूर्व ही रची गई । यह कहा जा चुका है कि अकलंक तथा सिद्धसेनगणि समकालीन हैं। जैन लक्षणावली में भी अकलंक तथा सिद्धसेनगणि का समय क्रमशः विक्रम की ८-९ वीं शती ९वीं शती कहा गया है । 38 पं. सुखलालजी ने इनका समय विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी माना है । 3 दोनों विद्वानों के मत को पृथक् पृथक् मानने पर भी अकलंक तथा सिद्धसेनगणि की समकालीनता सिद्ध होती है । पर दोनों लेखकों द्वारा रचे गये ग्रंथों में तो पौर्वापर्य तो होगा ही, चाहे वह अन्तर केवल दस-पन्द्रह वर्ष का ही हो । अतः संभव है कि अकलंक ने तत्वार्थराजवार्तिक रचने से पहले ही सिद्धिविनिश्चय रच लिया हो और उसी का उल्लेख सिद्धसेनगणि ने सत्वार्थभाष्यवृत्ति में किया हो। इसी आधार पर यह भी संभव है कि तत्वार्थभाष्यवृत्ति की रचना तत्वार्थराजवातिक से पूर्व हुई हो । सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति तथा तत्वार्थराजाति की अन्तः परीक्षा से भी यही सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थराजातिक रचते समय भट्ट अकलंक के सम्मुख सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति थी, जिसका अकलंक ने] तत्वार्यराजवार्तिक में उपयोग किया है ।
39
रचना-शैली
तत्वार्थभाष्यवृत्ति तत्वार्थसूत्र के भाष्य पर रची गई है। ३४. भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा रचित दो सिद्धिविनिश्चय मिलते हैं। ३५. सिद्धगण तत्वार्थ भाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पू. ३७ २६. सिद्धसेनमणि तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, प्रस्ता (अंग्रेजी पृ. ६३ टिप्पणी ६
३७. पं. सुखलालजी, तत्वार्थ सूत्र (हिन्दी) परिचय, पृ. ४२ ३८. पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा संपादित, जैन लक्षणावली,
भाग प्रथम, दिल्ली, सन् १९७२ पंथकारानुक्रमणिका पृ. १७ तथा १९
३९. पं. सुखलाल, तत्वार्थ सूत्र (हिन्दी) परिचय, पृ. ४२ तथा ४८
२१
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इसके प्रत्येक अध्याय के अन्त में लिखित "भाष्यानुसारी"" पद उचित है क्योंकि इसमें तत्वार्थभाष्य के लगभग प्रत्येक पद का विवेचन किया गया है। उदाहरणार्थ तत्वार्थसूत्र १-४ पर रचित भाष्य के प्रत्येक शब्द पर सिद्धसेनगणि ने टीका रनी है। "
सिद्धसेनगणीय तत्वार्थभाष्यवृत्ति का अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि सिद्धसेनगणि की भाषा शास्त्रीय है" परन्तु कहीं-कहीं इनकी भाषा ललितमयी भी है । इसका उदाहरण सिद्धसेनगण द्वारा किया गया षड्ऋतु वर्णन है ।48 इस वर्णन को पढ़ने से ऐसा आभास होता है कि यह किसी दर्शनशास्त्र का अंश न हो कर किसी काव्यग्रंथ का टुकड़ा है। उदाहरणार्थ
तथा वर्षासु - सौदामनीवलयविद्योतितोदराभिनवजलधरपटलस्थगितमम्बरमारचित्तपाकशासनचापलेखमा सारथाराप्रपातशमितधूलिजा च विश्वंभरामण्डलम् अद्गमुखाः समीराः कदंबकेतकरजः परिमलसुरभयः, स्फुरदिन्द्रगोपकप्रकरशोभिता शाद्बलवती भूमि:, कूलकषजलाः सरितः, विकासिकुटजप्रसून कन्दलीशिलीन्ध्रभूषिताः पर्वतोपत्यकाः, पयोदनादाकर्णनोपजाततीव्रोकष्टाः परिमुषितमनीषा इव पवासिनः पातरुशिखण्डिमण्डलमण्डूकध्वनिविषवेगमोहिताः पथिकजायाः, क्षणं क्षणद्युति दीपिकाप्रकाशिताशामुखासु क्षणदासु परिभ्रमत्खद्योतकीटाकासु सच्चरन्ति मसृणमभिसारिकाः, पकबहुलाः पन्थानः क्वचिज्जलाकुलाः क्वचिदविरलवारिधारा- द्योतहा रिसेकताः नमोनभस्ययोम सियोः। 44
सिद्धसेनगणि की एक अन्य विशेषता है कि वह स्वकथन का स्पष्टीकरण दृष्टान्त देकर करते हैं । यथा तत्वार्थ सूत्र २- ३७ की भाग्यवृत्ति में तेजोलेश्या के विषय में कहा गया है । तेजोलेश्या का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह बताने के लिये सिद्धसेनगणि ने जैन इतिहास से गौशाला का दृष्टान्त दिया है, जिसने भगवान महावीर पर तेजोलेश्या छोड़ी थी । 45 सिद्धसेनगणि की इस प्रवृत्ति के द्योतक अनेक स्थल तत्वार्थभाष्यवृत्ति में है 146
सिद्धसेनगणि ने तत्वार्थभाष्यवृत्ति गद्य में रची है, पर इन्होंने किन्हीं श्लोकों की रचना भी की है । तत्वार्थसूत्र १०-७ की भाग्यवृत्ति में सिद्धसेन ने आय छंद में सात श्लोक रचे है। तत्त्वार्थभाष्यवृति के अन्त में पाए जाने वाले सात श्लोक शार्दूलविक्रीड़ित तथा आर्या छंद में हैं ।
४०. सिद्धसेनगणि तत्वाचं भाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पू. १२५, २२७ २७०, ३१४, भाग दो, पृ. ४०, १२०, १७९, २९२, ३२७, ४९. वही भाग प्रथम, पू. ४१-४३
४२. वही, पृ. ३९७, भाग दो, पृ. २२५
४३. वही भाग प्रथम, पू. ३५०-३५२
४४. वहीं, भाग प्रथम पू. ३५१-३५२
४५. सिद्धसेनमणि तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पू. १९५ ४६. वही, पृ. ३७९, भाग दो, पृ. ७१, २४१
२२
सिद्धसेनमणि ने उपमा अलंकार का सत्यार्थभाष्यवृत्ति में उपयोग किया है। 2
प्रचुर
व्याकरण - ज्ञाता
सिद्धसेनगणि व्याकरण-ज्ञाता हैं। वह सूत्र तथा सूत्रगत शब्दों के समास, सूत्रगत शब्दों की सिद्धि 49 सूत्रगत शब्दों में प्रयुक्त विभक्ति का तात्पर्य तथा सूत्रगत शब्द में प्रयुक्त प्रत्यय का विभक्त्यर्थं अ बताते हैं । सिद्धसेनवणि सूत्रगत दों की व्युत्पत्ति भी करते हैं। शब्दों उदाहरणार्थ तत्वार्थ ५-१ आगत पुद्गल" पद की विभिन्न व्युत्पत्तियां सिद्धसेनमणि ने कही है:
पूरणात् गलनात् च पुद्गलः ।
1:12
पुरुषं वा मिलन्ति पुरुषेण वा गोर्यन्ते इति पुद्गलाः । पुरुषेणादीयन्ते कषायोगभाजा कर्मयेति पुद्गला अनेकानेक शब्दों की व्युत्पति सिद्धसेनगणि ने सत्यार्थभाष्यवृत्ति में की है 154 सिद्धसेनगणि ने पाणिनि रचित अष्टाध्यायी का उपयोग तत्वार्थभाष्यवृत्ति में यत्र-तत्र किया है । विद्वत्ता
53
48
सिद्धसेनगणि प्रकांड विद्वान हैं। उनका आगम अध्ययन गहन है। संपूर्ण तत्वार्थभाग्यवृत्ति आगम-उद्धरणों से भरी पड़ी है । जिस किसी तथ्य को सिद्धसेनगणि कहना चाहते हैं, उसके समरूप आगम उद्धृत करना, सिद्धसेनगणि का स्वभाव है । आगमों के अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थों का भी उपयोग तत्वार्थभाग्यवृत्ति में किया गया है। प्रशापना सूत्र, भगवतीसूत्र, शा लिक सूप, आचारांगसूत्र, नन्दीसूत्र, प्रशमरति, सम्मतितर्क आदि अनेक ग्रन्थों के अवतरण भयवृत्ति में मिलते हैं।
४७. वही भाग प्रथम, पू. ५२, ५५, ७७, ९२, ९४, ११५, १८० २०८, ३३१, ३५१, ३५२, ३६३, ३९७ भाग दो, पू. १३४
४८. वही भाग प्रथम पृ. १४१, १४५, १७५ भाग दो पृ. २, १६, २४९
४९. वही भाग प्रथम, पृ. ३०, भाग दो, पृ. ६४, १८१, १८६, २२४, २३३, २५६,
५०. वही भाग प्रथम, पू. ४२२
५० अ वही भाग दो, पृ. १७५
५१. सिद्धसेनमणि तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पू. ३१६ ५२. वही ५३. वही
५४. वही भाग प्रथम, पृ. १९८, ३२९, भाग दो, पू. ३९, ८३, ९१, १८१, २३३, २५६,२५९, ३१० आदि
.
५५. वहीं, भाग प्रथम, पृ. ११० १११, ११७, १३१, ३४९, ४२२, ४३२,
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जैनेतर दर्शन का ज्ञान
सिद्धसेनगणि भारतीय दर्शनों के अध्येता हैं । सिद्धसेनगणि ने सौत्रान्तिक, वैशेषिक, सांख्य आदि मतों के अनेक सिद्धान्तों का खण्डन-कार्य में उपयोग किया है । जैनेतर आचार्य शबर, कणाद, दत्ततभिक्षु, धर्मकीति, दिग्नाग, कपिल, आदि का नामोल्लेख तथा इनमें से किन्हीं आचार्यों के मतों को पूर्वपक्ष रूप में तत्वार्थभाष्यवृत्ति में कहा है। गणितज्ञ
सिद्धसेनगणि गणित में भी निपुण हैं । तत्वार्थसूत्र ३-११ की भाष्यवृत्ति उनके गणित ज्ञान का सुन्दर उदाहरण हैं । त.सू. ३-९ की भाष्यवृत्ति में सिद्धसेनगणि ने तत्वार्थभाष्यकार के गणित-ज्ञान को भी नकारा हैं।66 आगमिक प्रवृत्ति
सिद्धसेनगणि तत्वार्थभाष्यवृत्ति में दार्शनिक तथा तार्किक
चर्चा करते हुए भी अन्त आगमिक परंपरा का ही पोषण करते हैं। उनकी तत्वार्थभाष्यवृत्ति भाष्यानुसारी है, भाष्यगत प्रत्येक शब्द की विवेचना तत्वार्थभाष्यवृत्ति में की गई है। तदपि तत्वार्थभाष्य का जो वाक्य आगम विरुद्ध जाता है अथवा उसका भाव आगम में नहीं मिलता है तो सिद्धसेनगणि स्पष्टतया कहते हैं कि अमुक कथन आगमविरोधी है अथवा आगम में उसकी लेशमात्र सूचना है, और अन्त में वह आगमिक परंपरा का ही समर्थन करते हैं । यथा, तत्वार्थसूत्र ३-३ के भाष्य में नारकियों के शरीर की ऊंचाई बताई गई है । सिद्धसेनगणि उसी प्रसंग में कहते हैं-"भाष्यकार द्वारा कही गई नारकियों के शरीर की अवगाहना मैंने किसी आगम में नहीं देखी है 168 तत्वार्थसूत्र ४-२६ के भाष्य में तत्वार्थभाष्यकार ने लोकान्तिक देवों के आठ भेद कहे हैं । परन्तु सिद्धसेनगणि के अनुसार लोकान्तिक देव के नौ भेद हैं । क्योंकि आगम में भी नौ भेद ही कहे गए हैं । सिद्धसेनगणि की आगमिक प्रवृत्ति के परिचायक अनेकानेक स्थल तत्वार्थभाष्यवृत्ति में हैं । ___ संक्षेप में, सिद्धसेनगणि श्वेताम्बर आगम-परंपरा के समर्थक, भारतीय दर्शनों के ज्ञाता, द्वादशांगी के विशिष्ट अध्येता, गणितशास्त्र में निपुण तथा इतिहासज्ञ हैं । ६७. उमास्वामी, तत्वार्थाधिगमभाष्य, बम्बई, सन् १९३२, पृ.
१४५ ६८. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ. २४०
उक्तमतिदेशतो भाष्यकारेणास्ति चैतत् न तु मया क्वचिदागमे
दृष्टं प्रतरादिभेदेन नारकाणाम् शरीरावगाहनमिति । ६९. वही, पृ. ३०७-भाष्यकृता चाष्टाइति मुद्रिता । नन्वेवमेते
नवभेदाः सन्ति-आगमे तुनवच्यैवाधीताइति। । ७०. वही, पृ० ७१, १३८, १३९, १५३, १५४, १८४,
२६९, २६६, २८३
५६. वही, भाग प्रथम, पृ. ३५४ ५७. वही, पृ. ३७६ ५८. वही, पृ. ८८, भाग दो, पृ. ६७, १०० ५९. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ. ३६० ६०. वही, पृ. ३५९, भाग दो, पृ. १०० ६१. वही, भाग प्रथम, पृ ३५७ ६२. वही, पृ. ३८८, ३९७ ६३. वही, पृ. ३९७ ६४. वही, पृ. ३२ ६५. वही, पृ. २५८-२६० ६६. वही, पृ. २५२-एषा च परिहाणिराचार्योक्ता न मनागपि
गणितप्रक्रिया सड्गच्छन्ते, गणितशास्त्रविदो हि परिहाणिभन्यथा वर्णयन्त्याषनिसारिणः ।
'जो विद्वत्ता ईर्ष्या, कलह, उद्वेग उत्पन्न करने वाली है, वह विद्वत्ता नहीं, महान् अज्ञानता है; इसलिये जिस विद्वत्ता से आत्म कल्याण हो, उस विद्वत्ता को प्राप्त करने में सदा अप्रमत्त हना चाहिये।
--राजेन्द्र सूरि
वी. नि. सं. २५०३
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वर्तमान समाज और भगवान महावीर का अनेकान्त सिद्धान्त
श्रीचन्द चोरडिया
काल की दृष्टि में भगवान महावीर का जन्म क्षत्रिय कुण्डग्राम में लगभग २५०० वर्ष पूर्व हुआ था । महावीर ने जो दिया उसमें आज भी समाधान देने की क्षमता है। महावीर ने जिन सिद्धान्तों की व्याख्या की उसमें गणतंत्रीय भावनाओं का स्पष्ट प्रतिबिम्ब है। जनतंत्र में पलने वालों के लिये वे नितान्त आवश्यक हैं । भगवान महावीर के मूलभूत सिद्धान्तों में अनेकांत सिद्धान्त भी एक है । इसी के द्वारा सत्ता का ज्ञान और उसका निरूपण होता है । यह सिद्धान्त वर्तमान समाज की रीढ़ है । कुछेक व्यक्ति सत्ता, अधिकार
और पद से चिपट कर बैठ जाएँ, दूसरों की बात को सुनने का मौका ही न दें तो असंतोष की ज्वाला भभक उठती है । अपने पड़ोसियों के लिये संदिग्ध रहना भी खतरनाक है। इस जटिल समस्या को सामने रखते ही भगवान का अनेकांत सिद्धान्त सारण हो जाता है । महावीर की सीख को मानने वाला आक्रमणकारी नहीं हो सकता बल्कि अनेकांत सिद्धान्त से समन्वय की दृष्टि को उत्पन्न करने वाला होता है । राजनीतिक दलों और धर्म संप्रदायों को चाहिये कि वे एक दूसरे पर कीचड़ न उछालें । परस्पर विश्वास प्राप्त करें।
विभिन्नमतीय विवादों के कोलाहलपूर्ण एवं आग्रह भरे वातावरण में तत्व को समझने की सूक्ष्म दृष्टि भगवान महावीर ने दी, वह सचमुच ही मानवीय विचारधारा में एक वैज्ञानिक उन्मेष है । एक-अनेक, नित्य-अनित्य, जड़-चेतन आदि विषयों का एकांतिक आग्रह उनके सामने था । महावीर ने अपने चिंतन से इस विरोध की बुनियाद में मिथ्या-आग्रह पाया । वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है उस पर अनेक दृष्टियों से चिंतन किया जा सकता है, इसी दृष्टि का नाम अनेकांतवाद है। किसी एक धर्मी का एक धर्म को प्रधानता से जो प्रतिपादन होता है वह "स्यात्” (किसी एक अपेक्षा या किसी एक दृष्टि से भी, शब्द से होता है) । अतः अनेकांत की निरूपण
पद्धति को स्यादवाद कहा जाता है । दार्शनिक क्षेत्र में महावीर की यह बहुत बड़ी देन है।
जैन दर्शन का दार्शनिक क्षेत्र में बहुत बड़ा महत्व है। उसने आचार क्षेत्र में संसार को जिस प्रकार अहिंसा की एक मौलिक देन दी है उसी प्रकार विचारक्षेत्र में भी समन्वय के दृष्टिकोण को पुष्ट करने वाले अनेकांतवाद की देन दी है। इसके अनुसार कोई भी वस्तु एक स्वभाव वाली नहीं है । प्रत्येक वस्तु के अनेक स्वभाव होते हैं । अतः हम यदि उस वस्तु का पूरा बोध करना चाहेंगे तो यह आवश्यक होगा कि उसके सभी स्वभावों को जाना जाए । यदि हम संपूर्ण स्वभावों को नहीं जान पाते तो जितने स्वभाव जान पाये हैं उनके अतिरिक्त स्वभावों के होने की सम्भावना को स्वीकार करना चाहिये । तभी अनेकांतवाद की सार्थकता हो सकती है परस्पर विरुद्ध से दिखाई देने वाले स्वभाव भी वस्तु में जब अविरुद्ध रूप से पाये जाते हैं तब उन्हें स्वीकार करने का साहस अनेकान्तवाद ही दे सकता है । एकांतवाद तो अपने पूर्वाग्रह पर डटकर नये ज्ञान को अपने दरवाजे से घुसने नहीं देता । सत्यान्वेषी के लिये यह मार्ग उपयुक्त नहीं हो सकता ।
अनेकांतवाद वस्तु के सभी गुणों तथा तद्विषयक सभी अपेक्षाओं को समान रूप से महत्व देने का दृष्टिकोण उपस्थित करता है । फलस्वरूप वह दूसरे दृष्टिकोण को भी महत्व देने का मार्ग जानता है । वह विभिन्न मंतव्यों में सहिष्णुता और उदारता का वातावरण बना कर उन सबके विचारों का समुचित समन्वय करने की सामर्थ्य रखता है। चींटी जिस प्रकार छोटे से छोटे अन्नकण को अपार धुलि कणों में से अलग चुनकर लेने का सामर्थ्य रखती है । उसी प्रकार उदार और सहिष्णु व्यक्ति के लिये अपार दुर्ग ण राशि में पड़े हुए छोटे से छोटे सगुण को चुन लेना असहज नहीं रहता।
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अनेकांतवादिता की पावन धारा किसी के लिए बाधक नहीं बनती किन्तु सभी के लिये साधक बनती है।
विचारों का अनेकांतवाद जब आचार में उतरता है तब दर्शन क्षेत्र से वह व्यवहार जगत में आ जाता है। अनेकांतवाद जहां दार्शनिक तथ्यों को लेकर होने वाले वाद-विवादों और संघर्षों का अन्त करने में समर्थ है तो व्यवहार सरस बनाने में भी वह कम सफल नहीं है। वर्तमान समाज की बहुत सारी समस्याओं का समाधान इस अनेकांतवाद से हल हो सकता है-कौन व्यक्ति किस अपेक्षा से अपनी बात कर रहा है ? इतिहास साक्षी है कि एकान्तवाद ने वर्तमान समाज में हिंसा को प्रश्रय दिया है । हम दावे के साथ यह कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद-स्याद्वाद के बिना व्यावहारिक जीवन जिया ही नहीं जा सकता। आग्रह, पक्षपात और एकांत दृष्टिकोणों के आधार पर सामुहिक जीवन कभी नहीं जिया जा सकता। आज जो परिवार, समाज,धर्म संस्थान, देश, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रों के परस्पर के जितने संघर्ष व मनोमालिन्य हैं-कटुता व तनावपूर्ण व्यवहार हैं, वे सारे असहिष्णुता प्रसूत हैं । परिपक्व अनेकांतवाद से अनाग्रह भाव फैलता है कि विचारों का अनाग्रह व्यवहार के तनावों को दूर करता है । अनेकान्तवाद-स्याद्वाद के चिंतन में तटस्थता रहती है। तटस्थ व्यक्ति दूसरों को समझने में प्रायः भूल नहीं करता और न वह आग्रह भाव से स्वयं का समर्थन व निराकरण ही करता है । एकांत दृष्टि से जो समस्या उलझ जाती है अनेकान्त दृष्टि से वह स्वत: समाहित हो जाती है।
तथ्यों को अनेक अपेक्षाओं और दृष्टिकोणों से देखने का मार्ग ही सही है । व्यवहार में अनेक घटनाएं घटती हैं, अनेक स्थितियां उभरती हैं । नाना वातावरण पनपते हैं उन सबको एक ही दृष्टिकोण से परखा जाय तो शायद सत्य की पूर्णता को नहीं पा सकेंगे केवल सत्यांश तक ही सीमित रहेंगे ।
___ अनेकांतवाद की यह मौलिक विशेषता है कि वह सब तत्वों में समन्वय की खोज करता है । भिन्नता में अभिन्नता का दिग्रर्दशन कराना ही अनेकांतवाद का लक्ष्य है। भगवान महावीर ने अपने सूक्ष्म चिंतन से जो अनेकांत सिद्धान्त दिया वह सचमुच ही अलौकिक और विलक्षण है । जैन दर्शन की मुख्य देन अनेकांतवाद है । महावीर ने वस्तु के पूर्ण स्वरूप को प्रकट करने के लिए प्रयास किये उन सब का फलित अनेकांतवाद की परिणति लेकर सामने आया । अनेकांतवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अनेक स्वभाव होते हैं । यदि उस वस्तु का पूरा बोध करना हो तो यह आवश्यक है कि उसके सभी स्वभावों को जाना जाए । यदि समस्त स्वभावों की पूरी अवगति न हो सके तो अवगत स्वभावों के अतिरिक्त स्वभावों की अस्तित्व-सिद्धि की संभावना को मुक्त रखा जाये । इसी से अनेकांत सिद्धान्त सार्थक हो सकेगा। वर्तमान समाज में परस्पर विरुद्ध प्रतिभासित होने वाले स्वभावों का अस्तित्व जब वस्तु
में विरुद्ध दृष्टिगोचर होने लगता है तब उसका स्वीकरण अनेकांत के माध्यम से ही हो सकता है । एकान्तवाद में पूर्वाग्रह होने के कारण सत्य वहां सुरक्षित नहीं रहता ।
अनेकांतवाद हर वस्तु के हर स्वभाव को हर दृष्टिकोण से देखने को प्रेरित करता है । एक ही वस्तु के पूर्व और पश्चिम से खींचे गये दो विपरीत चित्रों की समस्थिति में यदि किसी प्रकार की असंगति नहीं होती तो विभिन्न विरुद्ध स्वभावों के अस्तित्व से किसी अन्य वस्तु या पदार्थ में अव्यवस्था कैसे हो सकती है ? एक ही व्यक्ति अपने पिता की उम्र की अपेक्षा छोटा और पुत्र की उम्र की अपेक्षा बड़ा कहा जाए तो किसे आपत्ति हो सकती है ? इसी प्रकार एक ही वस्तु में द्रव्य और पर्याय दृष्टियों की अपेक्षा भेद से नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष, एक-अनेक आदि विभिन्न स्वभावों का अस्तित्व भी आपत्तिजनक नहीं होगा। इसके विपरीत एकांतवाद किसी एक दृष्टि का ही समर्थन करता है । अतः इसका दर्शन सर्वथा अविरुद्ध नहीं है। भगवान महावीर का अनेकांतवाद समस्त मतवादों के समन्वय का मध्यम मार्ग है क्योंकि वह वस्सु सत्य से परिचित है।
तत्व को अनेक दृष्टिकोणों से देखना अनेकांत और उनका सापेक्ष प्रतिपादन करना स्याद्वाद है । सत्य अनंत धर्मा है । एक दृष्टिकोण से उसके एक धर्म को देखकर शेष अदृष्टधर्मों का खण्डन मत करो । वर्तमान समाज का दूसरा पक्ष सत्य भी हो सकता है, उसकी वार्ता को सुनो, चिंतन करो। एक ज्ञात-धर्म को ही सत्य और शेष अनंत धर्मों को असत्य मत कहो । सत्य की सापेक्ष व्याख्या करो। अपने विचार का आग्रह मत करो। दूसरों के विचारों को समझने का प्रयत्न करो । प्रत्येक विचार सत्य हो सकता है और प्रत्येक विचार असत्य हो सकता है । एक विचार दूसरे विचारों से सापेक्ष होकर सत्य होता है। एक विचार दूसरे विचारों से निरपेक्ष होकर असत्य हो जाता है अपने विचार की प्रशंसा और दूसरे के विचार की निन्दा कर अपने पांडित्य का प्रदर्शन मत करो।
भगवान महावीर का धर्म अनेकांतवादी रहा । इसलिये इतिहास के पृष्ठों में एक भी ऐसी घटना का वर्णन नहीं मिलेगा जिसमें उनके शासन पर चलने वाला समाज अथवा वर्ग ने कभी देश में साम्प्रदायिक आग लगाई हो और देश को संप्रदाय की भट्टी में झोंक दिया हो । भगवान महावीर ने विचारों में पूर्ण अनेकांतवाद को उतारने पर बल दिया । देश में साम्प्रदायिक उपद्रवों के पीछे हमारा एकान्तवादी दृष्टिकोण है । जिस प्रकार वृक्ष की डाल उसका भाग होते हुए भी उसे वृक्ष तो नहीं कह सकते हैं । इसी प्रकार वस्तु के एक पहल को देख कर ही उसके पूरे गुणों से परिचित नहीं हो सकते । इसलिये अनेकान्त सिद्धान्त हमें किसी भी व्यक्ति एवं पदार्थ के विभिन्न गुणों को जानने का अवसर प्रदान करता है । महावीर के युग में ३६३ मतमतांतरों का प्रचार था। वे बात-बात में झगड़ा करते थे। न उनमें धार्मिक सद्भाव था और न वस्तुओं
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को जानने की उदारता । इसलिये भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टिकोण अपनाने पर बल देकर देश को साम्प्रदायिकता से बचा लिया। यह महावीर शासन की उल्लेखनीय सफलता कही जा सकती है।
अनेकान्त ने ऋजता और अनाग्रह रूप साधना का पथ प्रस्तुत किया। महावीर ने कहा सत्य, उसे उपलब्ध होता है जो ऋजु है । तत्व-दृष्टाओं ने किसी भी समस्या को सुलझाने में एकांतिक आग्रह को स्थान नहीं दिया । संघर्ष, विध्वंस या विप्लव के द्वारा समस्याओं को सुलझाने का जो उपक्रम है वह वास्तविक सुलझाव नहीं है । वह तो उलझाव है क्योंकि उससे क्षणवर्ती सुलझन दीखती है। समन्वय, सामंजस्य व समझौता ही समस्याएं सुलझाने के प्रमुख आधार है जिसे हम जैन दार्शनिकों की भाषा में स्थाबाद या अनेकान्त दृष्टि कह सकते हैं । एकान्तवाद मिथ्या है अनेकान्त यथार्थ सत्य निर्णय के लिए ज्ञान और वाणी दोनों में अनेकान्त की अपेक्षा है। एकान्त दोनों में बाधक है। चूंकि ज्ञेय स्वयं अनेकान्त है, एकान्त ज्ञान और वाणी उसके निर्णय में साधक नहीं बनते । भगवान महावीर ने आग्रह और अभिनिवेष के तात्कालिक रोग को दूर करने के लिये अनेकान्त का आविष्कार किया। जब ज्ञेय पदार्थ का स्वभाव भी अनेकान्तात्मक है उस स्थिति में अनेकान्त के सिवाय यथार्थ दर्शन का कोई भी मार्ग नहीं रह सकता । अनेकान्त का क्षेत्र व्यापक है वह वर्तमान समाज-समस्या का राजमार्ग है । एकांत से आग्रह बढ़ता है। आग्रह से असहिष्णुता बढ़ती है जिसका परिणाम समाधान कारक नहीं हो सकता । अनेकांत एक दृष्टि है, स्याद्वाद उसकी प्रतिपादन शैली है। भगवान महावीर ने कहा-अस्याद्वाद पद्धति से नहीं बोलना चाहिये । विभाज्यवाद की पद्धति से बोलना चाहिए। स्याद्वाद के माने हैं - किसी विशेष अपेक्षा से कथन । जहां अपेक्षा नहीं रहती वहां एकांत होता है, आग्रह बढ़ता है । वस्तुतः आग्रह दृष्टि से यथार्थ निर्णय नहीं रुकता ।
अनेकान्त-स्याद्वाद और एकान्तवाद में "भी" और "ही" का बहुत बड़ा विरोध है । आत्मा नित्य भी है, यह स्याद्वादी का निरूपण है "आत्मा नित्य ही है" यह एकान्तवादी का । भगवान महावीर ने एकान्तवादी को अनाचार कहा है-इस जगत को अनादिअनन्त जान कर इसे एकान्त नित्य या अनित्य न माने । एकान्त, नित्यवाद और एकान्त अनित्यवाद-इन दोनों पक्षों से व्यवहार नहीं चल सकता ये दोनों पक्ष अनाचार हैं। यद्यपि 'स्यात्' शब्द के कथंचित्त, संशय और कदाचित तीनों अर्थ होते हैं पर स्याद्वाद में निर्दिष्ट स्यात् सिर्फ 'कथंचित्ते' का अर्थ लिये हुए है। वस्तुतः स्याद्वाद में विवक्षित अंश अनिश्चित नहीं रहता, वह अपनी अपेक्षा विशेष से बिल्कुल निश्चित रहता है। ___ अस्तु यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि अनेकान्त सिद्धान्त के प्रणेता भगवान महावीर समन्वय और सहअस्तित्व का दिव्य संदेश लेकर इस में संसार आये । वस्तु में अनेक आपेक्षित धर्म
१.सूत्रकृतांग-१-४-१९. २.सूत्रकृतांग-२-५-१
हैं उन सबका यथार्थ ज्ञान तभी हो सकता है जब अपेक्षा को सामने रखा जाए । दर्शनशास्त्र में एक, अनेक, वाच्य, अवाच्य तथा लोकव्यवहार में स्वच्छ-मलिन, सुक्ष्म-स्थूल आदि अनेक ऐसे धर्म हैं जो आपेक्षिक हैं इनका भाषा के द्वारा कथन उसी सीमा तक सार्थक हो सकता है जहाँ तक हमारी अपेक्षा उसे अनप्राणित करती है । जिस समय जिस अपेक्षा से जो शब्द जिस वस्तु के लिये प्रयुक्त होता है उसी समय उसी वस्तु के लिए किसी अन्य अपेक्षा से अन्य शब्द की प्रयुक्ति भी तथ्यगत ही होगी, वह उतना ही अखण्ड सत्य होगा जितना कि पहला । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि एक ही वस्तु के संबन्ध में ऐसे अनेक तथ्य होते हैं जो हमारे ज्ञान में सन्निहित हैं और एक ही समय में सब समान रूप से सत्य हैं फिर भी वस्तु के पूर्ण रूप को अभिव्यक्ति में उसकी विभक्ति करनी ही होगी।
बस्तु में जो अनेक आपेक्षिक धर्म हैं, उन सबका यथार्थ ज्ञान तभी हो सकता है जब अपेक्षा को सामने रखा जाए । वर्तमान समाज में पारस्परिक झगड़ों का एक मूल कारण यह भी रहा है कि दूसरों के सही दृष्टिकोण का अनादर करना। किसी वस्तु या पदार्थ में जो अपेक्षायें घटित होती हैं उनका स्वीकरण ही अनेकान्त का सिद्धांत है । एक अन्धे हाथी को लेकर छह अन्धे व्यक्तियों की तरह आग्रह दृष्टि छोड़े दूसरों के विचारों का भी समादर किया जाए। कभी-कभी गलत फहमियों से वर्तमान समाज की छोटी-छोटी घटनाएं विस्फोट का रूप धारण कर लेतो हैं । यदि अहिंसामय अनेकान्त सिद्धांत का अपलवन लेकर वर्तमान के सामाजिक झगड़े सुलझाये जायें तो आसानी से सुलझ सकते हैं। शशकशृंग या गगनपुष्प की अस्तित्व सिद्धि में अनेकान्त सापेक्ष नहीं है । अनेकांत तो केवल यथार्थता का प्रगटीकरण करता है, वस्तु का यथेष्ट परिवर्तन उसे अभीष्ट नहीं है ।
प्रत्येक वस्तु और पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत् और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा असत् है । इसे सहजतया समझा जा सकता है । वस्त्र स्वद्रव्य रूई की अपेक्षा सत् और परद्रव्य मिट्टी की अपेक्षा असत् है, क्योंकि वस्त्र, वस्त्र है मिट्टी नहीं । इसी प्रकार सत्-असत् के आपेक्षिक कथन के समान ही वस्तु में एक-अनेक, विधि-निषेध वाच्य-अवाच्य, आदि विभिन्न धर्मों की सत्ता विद्यमान है। __आज यह प्रायः देखा जाता है कि आत्मा की पकड़ की अपेक्षा शब्दों की अधिक पकड़ है। तत्वतः सत्य विशाल है और शब्द सीमित । सत्य की अभिव्यक्ति के लिये शब्द स्पष्ट होते हैं और उसको सीमित बना देते है। अनेकान्त दृष्टि की जगह, आग्रह सहित दृष्टि होने के कारण शास्त्र का कार्य नहीं कर पाते, प्रत्युत स्वयं समस्या बन जाते हैं। जो शास्त्र हमारी आंतरिकता से नहीं जुड़ पाते, वे बहुधा शस्त्र बन जाते हैं। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में अनेकान्त का विवेचन करते हुए लिखा है कि प्रत्येक प्रमेय में इसे लगाने की आवश्यकता है। स्याद्वाद भाषा का वह निर्दोष प्रयोग है जिसके द्वारा अनेकान्त वस्तु के परिपूर्ण
राजेन्द्र-ज्योति
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और सम्यकरूप के अधिक से अधिक समीप पहुँचा देता है । सत्य के अनेक रूप हैं जैसे जो दृष्य है, वह सत्य है, पर वह भी सत्य है जो दृष्य नहीं है । जो स्थित है वह सत्य है पर वही सत्य नहीं है। जो परिवर्तनशील है वह सत्य है पर वही सत्य नहीं है। तत्वार्थ सूत्र में यह ठीक ही कहा है कि स्थिति के बिना परिवर्तन होता ही नहीं। एक रूप अनेक रूपता का अंश रह कर ही सत्य है । उससे निरपेक्ष होकर वह सत्य नहीं है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से आत्मा भी सत्य है और अनात्मा भी सत्य है । उपयोगिता वादी दृष्टिकोण से आत्मा ही सत्य है और सब मिथ्या है । आत्मा की परमात्मा बनने की जो साधना है वह हमारा उपयोगितावाद है। अष्ट महस्री में आचार्य विद्यानन्द ने पहला द्वैतवादी दृष्टिकोण और दूसरा अद्वैतवादी दृष्टिकोण माना है। भगवान महावीर खण्ड सत्य को अनन्त दृष्टिकोण में से देखने का सन्देश देते थे। अनेकान्त दृष्टि में अद्वैत भी उनके लिये उतना ही अग्राह्य था । जितना कि द्वैत । उसके विपरीत एकान्त दृष्टि से द्वैत भी उनके लिये उतना ही अग्राह्य था जितना कि अद्वैत । स्यादवाद मंजरी में अद्वैत और द्वैत दोनों को एक सत्य के दो रूप माना है । ___ अस्तु अनेकान्त की मर्यादा में सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद का सिद्धांत सत्य नहीं है। जो भिन्न है वह किसी दृष्टि से अभिन्न होकर ही भिन्न है और जो अभिन्न है वह किसी दृष्टि से भिन्न होकर ही अभिन्न है। इस प्रकार भेदाभेद के सह अस्तित्व का सिद्धांत आम जनता अपना ले तो वर्तमान समाज के विचारों की गुत्थियाँ आसानी से सुलझ सकती हैं। वस्तुतः अभेद में भेद का विरोध न होना ही समन्वय है। आगमवाणी के अनुसार यह कहा जा सकता है कि जीव घात और मनोमालिन्य जैसे हिंसा है वैसे एकान्त दृष्टि या मिथ्या आग्रह भी हिंसा है। दृष्टि को ऋजु और सापेक्ष किये बिना वर्तमान समाज की वस्तुस्थिति का यथार्थ ग्रहण और निरूपण नहीं किया जा सकता । भगवान महावीर ने एकान्त आग्रह को सम्यग् दर्शन में बाधक बतलाया ।जैन परम्परा में अनेकांतवाद के प्रति आस्था है, फिर भी किसी बिषय को लेकर एकांगी आग्रह क्यों रहा, यह वस्तुतः बड़ा प्रश्न है ? किसी स्थिति में कोई कार्य किसने किया, किसने बनाया,इन बातों का पूरा ज्ञान नहीं होता, तब वर्तमान समाज में आग्रह अधिक बढ़ता है। वर्तमान समाज में एकांगी आग्रह वहीं पनपता है । जहाँ स्थिति का सही अंकन नहीं होता और जहाँ एकांगी आग्रह होता है वहाँ भेद, अभेद में से नहीं निकलता है वह भेद में से ही उपजता है । मूल एक होने पर भी पोषण लेने और पचाने में अनेकता हो सकती है । वह अनेकता एकता में से निकलती है इसलिये दुःखदायी नहीं होती। आज जो अनेकता है वह एकता में से नहीं निकल रही है इसलिये वह दुःखदायी हो रही है ।
सत्य अखंड और अविभक्त है । जो सत् है वह अनंत धर्मात्मक है। उसे अनंत दृष्टिकोणों से देखने पर ही उसकी सत्ता का यथार्थ ज्ञान होता है । इसलिये भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की। दूसरे के सही दृष्टिकोणों का भी आदर करो । अनेकान्त दर्शन वस्तु विचार के क्षेत्र में दृष्टि की एकांगिता और संकुचितता स होने वाले मतभेदों को उखाड़कर मानसिक समता की सृष्टि करता है । इस अनेकान्त महोदधि की शांति और गंभीरता को देखो। मानस अहिंसा के लिये जहाँ विचार शुद्धि करने वाले अनेकांत दर्शन की उपयोगिता है वहाँ वचन की निर्दोष पद्धति भी उपादेय है क्योकि अनेकान्त को व्यक्त करने के लिये ऐसा ही है। इस प्रकार की अवधारिणी भाषा माध्यम नहीं बन सकती। इसलिये उस परम अनेकान्त तत्व का प्रतिपादन करने के लिये स्याद्वाद रूप वचन-पद्धति का उपदेश दिया गया है । इससे प्रत्येक वाक्य अपने में सापेक्ष रह कर स्ववाच्य को प्रधानता देता हुआ भी अन्य अंशों का लोप नहीं करता । वह उनका गौण अस्तित्व स्वीकार करता है। ____ अहिंसादि की दिव्य ज्योति विचार के क्षेत्र में अनेकान्त के रूप में प्रगट होती है तो वचन व्यवहार के क्षेत्र में स्याद्वाद के रूप में जगमगाती है। कहने का मतलब है विचार में अनेकान्त वाणी में स्याद्वाद तत्व की निरूपण पद्धति में इनका प्रमुख स्थान है। जैनेन्द्र व्याकरण में कहा है "सिद्धिरनेकांतात्"अर्थात अनेकांत के द्वारा शब्दों की सिद्धि होती है। कालु कौमुदी में भी मुनि श्री चौथमलजी ने भी ऐसा ही कहा है । पदार्थ का विराट स्वरूप समग्रभाव से वचनों के अगोचर है। वह सामान्य रूप से अखण्ड मौलिक दृष्टि से ज्ञान का विषय होकर भी शब्द की दौड़ के बाहर है । केवल ज्ञान में जो वस्तु का स्वरूप झलकता है उसका अनंतवां भाग ही शब्द के द्वारा प्रज्ञापनीय होता है तथा जितना शब्द के द्वारा कहा जाता है उसका भी कुछ भाग श्रुतनिबद्ध होता है जिनमें यह आग्रह है कि मेरे द्वारा देखा गया वस्तु का अंश ही सत्य है, अन्य के द्वारा जाना गया मिथ्या है। वस्तुस्वरूप से पराड्.मुख होने के कारण उनकी कथनी मिथ्या और विसंवादिनी होती है। जैन दर्शन का आचार अहिंसामूलक, विचार अनेकान्त दृष्टिमूलक और भाषा स्वादद्वादमूलक है ।
लोक भाषा और व्यवहार में अनेकान्त सिद्धांत अर्थात सापेक्ष कथन यह प्रकार जितना मौलिक और सत्य है उतना ही दर्शन जगत में भी। उपरोक्त आवास संबंधी ज्ञान में एकान्तवादिता सत्य से जितनी दूर ले जाती है उतनी तत्वज्ञान के सम्बन्ध में भी। अतः दर्शन और लोक व्यवहार दोनों ही क्षेत्रों में अनेकांत स्यावाद का प्रयोग न केवल उचित ही है किंतु अनिवार्य भी है ।
इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्त सिद्धांत से विचारों या दृष्टिकोणों में कामचलाऊ समन्वय या ढीला ढाला समझौता नहीं होता किन्त वस्तु स्वरूप के आधार से यथार्थ तत्वज्ञानमूलक समन्वय दृष्टि प्राप्त होती है । वह वर्तमान समाज की समस्याओं का समाधान सहज ही कर देता है । वह कभी भी वस्तु की सीमा
(शेष पृष्ठ ३३ पर)
भगवान ने सत्य को अनेक दृष्टि से देखा और उसका प्रतिपादन स्यावाद की भाषा में किया । इसका हेतु भी समता की प्रतिष्ठा है । एकांत दृष्टि से देखा गया वस्तुत: सत्य नहीं होता। एकान्त की भाषा में कथित सत्य भी वास्तविक सत्य नहीं होता।
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तत्त्वाभिव्यक्ति की निर्बाध शैली : स्याद्वाद
रमेशमुनि शास्त्री
जन दर्शन विश्लेषण प्रधान दर्शन है । विश्लेषण इतना सूक्ष्म एवं गंभीर है कि अध्येता को विस्मय से मुग्ध कर देता है और बौद्धिक चितन के क्षेत्र में बहुमुखी विश्लेषणवाद को प्रश्रय देता है । एतदर्थ यह प्रत्यक्ष तथ्य है कि जैन दर्शन विश्व-जनीनता का सुदृढ़ आधार लिये हुए है । यह दर्शन स्याद्वाद के सुदृढ़ स्तंभ पर आधारित है।
स्याद्वाद यह पद स्यात् और वाद का संयुक्तीकरण है । स्यात् शब्द तिङत पद जैसा प्रतीत होता है। किन्तु वस्तुतः यह एक अव्यय है । जो "किसी अपेक्षा" से इस अर्थ का द्योतक है ।। और वाद का अर्थ कथन या प्रतिपादन-शैली है। स्यादवाद की कथन शैली में “स्यात" शब्द की प्रधानता है । एतदर्थ "स्यात् अस्ति घट:", 'स्यात् नास्ति घट:" जैसे बाक्यों का प्रयोग होता
__ इस प्रकार स्याद्वाद पद का वाच्य अर्थ हुआ-भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से पदार्थ प्रतिपादन करना । स्याद्वाद सिद्धान्त सत्य के प्रत्येक पहलू का परिज्ञान कराता है। इसमें विविध दृष्टि बिन्दुओं से पदार्थ की यथार्थता का कथन किया जाता है। वास्तव में जड़ और चेतन में अनन्त गुण धर्म विद्यमान हैं । इन समग्र गुण धर्मों का कथन एक साथ कोई भी नहीं कर सकता है । विवक्षानुसार ही एक समय में किसी एक धर्म को केन्द्रित करके कहा जा सकता है। इसे ही दार्शनिक भाषा में सापेक्षवाद भी कहते हैं।
सत्य या तत्व के प्रकाशन के लिये दो आधार बिन्दु हैं। स्याद्वाद और केवलज्ञान । केवलज्ञान सत्य का साक्षात् बोध प्रदान करता है और स्याद्वाद परोक्ष आगम के माध्यम से और वह भी क्रमिक । केवलज्ञान केवल एकमात्र केवली का बोध है शेष के लिए तो स्याद्वाद ही आलंबन है। स्याद्वाद को "संपूणार्थ विनिश्चयी और सकलादेश' कहा गया है । तात्पर्य यह है कि वह पूर्ण सत्य को प्रस्तुत करने वाला है दूसरी ओर अनेकान्तता से स्याद्वाद संस्कृत हो कर चलता है यह भी कहा गया है।'
स्याद्वाद सिद्धान्त जो विविध दृष्टि बिन्दुओं से एक ही वस्तु में नित्यता-अनित्यता, सादृश्य-असदश्य, वाच्य-अवाच्य, सत्-असत्' आदि परस्पर विरोधी गुण धर्मों का अविरोध प्रतिपादन करके उनका तर्कसंगत एवं समन्वय परक प्रकाश को विकीर्ण करता है।
जो पदार्थ नित्य प्रतीत होता है, वह अनित्य भी है । जो वस्तु अनित्य है, वह नित्य भी है । तात्पर्य यह है कि जहाँ नित्यता है वहाँ अनित्यता भी है। अनित्यता के अभाव में नित्यता की पहचान नहीं हो सकती है और नित्यता के अभाव में अनित्यता की प्रतीति नहीं हो सकती । एतदर्थ एक की प्रतीति द्वितीय की प्रतीति से ही संभव है। २. तत्व ज्ञान प्रमाणं ते युगपत्सर्व भासनम् ।
क्रमभावी च यज्ज्ञानं स्याद्वाद नय संस्कृतम् ।। स्याद्वाद केवल ज्ञानं सर्व सत्य प्रकाशने । भेद साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ।।
आप्तमीमांसा १०१-१०५ ३. स्याद्वाद सकलादेशझो, नयो विकल सर्वथा । ४. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वाद -लघोयस्यय: ६२ ५. स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सदसत् देव ।
श्लोक-५ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका:
१. (क) सर्वथात्य निषेध कां नेकान्तता द्योतकः कथंचिदर्थे
स्यात् शब्दो निपातः पंचास्तिकाय टीका । (ख) वाक्यष्वन कान्त द्याती गम्यं प्रति विशेषकः । स्यान्निपातार्थ या गित्वात्तस्य केवलिनामपि ।।
-आप्तमीमांसा १०३
राजेन्द्र-ज्योति
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को कष्ट पहंचायेंगे । जो जीव धार्मिकवृत्तियुक्त हैं, उनका बलवान होना श्रेष्ठ है क्योंकि वे बलवान होंगे तो अधिक जीवों को
सुख देगें। 10
समग्र ज्ञानों की विषयभूत वस्तु अनेकान्तात्मक होती है । अतएव वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा है। जिसमें अनेक अर्थभाव सामान्य विशेष गुण पर्याय रूप से पाये जाये, उसको अनेकान्त कहते हैं। और अनेकान्तात्मक वस्तु को भाषा के द्वारा प्रतिपादित करने वाला सिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है। भगवान ने अनेकान्त दृष्टि से देखा और स्यावाद की भाषा में उसका निरूपण किया। एतदर्थ भगवान की वाणी स्याद्वादमयी होती है ।
जैन दर्शन में प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपेक्षा दृष्टि से दिया गया है । सत्य की सापेक्षिता से लेकर पदार्थ के आंशिक पहलुओं पर दृष्टि डाली गयी है । वस्तु के पूर्व स्वरूप को सामने रख कर उनके विविध अंशों एवं रूपों का आकलन संकलन कर उनका अलग-अलग निर्वचन किया गया है। छोटे से दीपक से लेकर व्यापक व्योम तक समग्र पदार्थ अनेकान्त मुद्रा से अंकित हैं।' इसलिए कोई भी वस्तु स्याद्वाद की सीमा से बाहर नहीं है ।
सामान्य रूप से स्याद्वाद और अनेकान्त का स्वरूप जान लेने के पश्चात् स्याद्वाद के प्रकाश में प्रकाशित होने वाले कपितय उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
श्रमणोपासिका जयन्ति एक बार भगवान से पूछती है-“भगवन सोना अच्छा है या जागना" । उत्तर में भगवान ने कहा"कितनेक जीवों का सोना अच्छा है और कितनेक जीवों का जागना अच्छा है।" जयन्ति के अन्तर्मानस में पुनः प्रश्न उबुद्ध हुआ-भगवन् ! यह कैसे ? प्रभु महावीर ने कहा- 'जो जीव अधर्मी है, अधर्मानुग है, अधर्मनिष्ठ है, अधर्माख्यायी है, अधर्म प्रलोकी है, अधर्मपरंजन है, अधर्म समाचार है, अधार्मिक वृत्तियुक्त है, वे सोते रहें यही श्रेष्ठ है। क्योंकि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा नहीं देंगे। और इस प्रकार स्वपर उभय को अधार्मिक अनुष्ठान में लग्न-संलग्न नहीं करेंगे । एतदर्थ उनका सोना अच्छा है। किन्तु जो जीव धार्मिकवृत्ति वाले हैं, धर्मानुग हैं उनका तो जागना ही श्रेष्ठ है । क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। स्व-पर और उभय को धार्मिक क्रिया में संलग्न करते हैं। अतः उनका जागना ही श्रेष्ठ है।"
जयन्ति- भगवन् बलवान होना श्रेष्ठ है या दुर्बल होना" प्रभु महावीर-"जो जीव अधार्मिक है यावत् अधार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका दुर्बल होना अच्छा है। वे बलवान होंगे तो अनेक जीवों
जैन दर्शन ने सापेक्षता के आलोक में दूसरों को समझाने का दष्टिकोण प्रदान किया है। एकान्तता का निरीक्षण कर उसकी अनेकान्तता को संप्रस्तुत करता है । यह सही है कि किसी भी वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन एकान्तरूप में नहीं किया जा सकता । यह पदार्थ सत् ही है या असत् ही है, नित्य ही है या अनित्य ही है, यह एकान्तरूप में कहना भयंकर भूल है । क्योंकि वस्तु एकान्तधर्मी होती ही नहीं है । वह किसी अपेक्षा से नित्य नहीं कही जाती है तो किसी अपेक्षा से नित्य भी कही जा सकती है। नित्यानित्य-एक चिन्तन
महात्मा बुद्ध ने लोक जीव आदि की नित्यता अनित्यता, सान्तता-अनन्तता आदि प्रश्नों को अव्याकृत कह कर टाल दिया ।। परन्तु आत्मा के संबन्ध में गणधर गौतम और प्रभु महावीर का एक सुंदर संवाद आगम में उपलब्ध होता है। . ___ एक समय की बात है, श्रमण प्रभु महाबोर के चरणारबिन्दु में वंदना करने के पश्चात् गणधर इन्द्रभूति गौतम ने विनम्रभाव से पूछा-"भगवान जीव नित्य है या अनित्य, प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा-"गौतम जीव नित्य भी है और अनित्य भी है।" गौतम के अन्तर्मानस में जिज्ञासा जागृत हुई कि यह किस हेतु से कहा कि जीव नित्य भी है और अनित्य भी है। उत्तर में भगवान ने कहा-“गौतम द्रव्याथिक दृष्टि से जीव नित्य है और पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य है ।"12 प्रस्तुत संवाद का अभिप्राय यह है कि द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है और पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य है।
द्रव्य दृष्टि का अर्थ है अभेद दृष्टि और पर्याय दृष्टि का अर्थ है भेददृष्टि । द्रव्य की अपेक्षा से जीव में जीवत्व सामान्य का कभी अभाव नहीं होता है, किसी भी अवस्था में रहा जीव, जीव ही रहेगा । वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा । मूल द्रव्य के रूप में उसकी सत्ता त्रैकालिक है। जहाँ जीव द्रव्य है वहाँ उसके कोई न कोई पर्याय अवश्य होती है । जो जीव है वह विविध गतियों में विविध अवस्थाओं में परिणत होता ही है। क्योंकि वह पशु-पक्षी, स्थावर अथवा सिद्ध में से कुछ तो अवश्य होगा ही। इस प्रकार वह किसी न किसी पर्याय को ग्रहण करता रहता है । अतः पर्याय की अपेक्षा जीव अनित्य है तात्पर्य यह है कि जीव द्रव्यतः नित्य है और पर्यायतः अनित्य है। १०. भगवती सूत्र-१२।२।४४३ ११. मज्झिमनिकाय-चालुमालुक्यसुत्त-६३१ १२. जीवाणं भंते कि सासया असासया? गोयमा जीवासिप
सासया सिप असासया । गोयमा दब्बद्द याए सासया भावद्दया ए असासया । -भगवती ७।२।२७३
६. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरं सर्व संविदाम् ।
-न्यायावतार सिद्धसेन ७. अथोऽनेकान्तः अनेके अन्ता भावा अर्थाः सामान्य विशेष गुण
पर्याया, यस्य सोऽनेकान्त । ८. स्याद्वाद भगवत्प्रवचनम् ।-न्यायविनिश्चयाः विवरण पृ. ३६४ ९. आदीप मात्थोम सम स्वभावं, स्याद्वादमुद्रनति श्रेदि वस्तु । तन्नित्य मैवेकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञा द्विषतांप्रलापां ।।
-अन्ययोगव्ययच्छेदद्वात्रिंशिका श्लोक ५
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सांख्य दर्शन आत्मा को नित्य मानता है । उसके अभिमतानुसार आत्मा सदा सर्वदा एक रूप रहता है। उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। संसार और मोक्ष भी आत्मा के नहीं हैं, प्रकृति के हैं ।18 सुख-दु:ख और ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, आत्मतत्व के नहीं हैं। आत्मा को तो सांख्य दर्शन में स्थायी, अनादि, अनन्त, अविकारी नित्य चित्स्वरूप और निष्क्रिय माना है। तात्पर्य यह है कि सांख्य दर्शन एकान्ततः नित्यवाद को मानता
मीमांसक दर्शन के मतानुसार आत्मा एक है परन्तु देह आदि की विविधता के कारण वह अनेकविध प्रतीत होता है ।16
नैयायिक ईश्वर को कूटस्थ नित्य और दीपक को अनित्य मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अभिमतानुसार जन्म, जरा, मरण आदि किसी स्थायी ध्रुव जीव के नहीं होते हैं किन्तु विशिष्ट कारणों से उनकी उत्पत्ति होती है । नित्यानित्य संबन्ध में बौद्ध दर्शन की निराली दृष्टि है । बुद्ध से आत्मतत्व के संबन्ध में किसी जिज्ञासु ने अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुवे पूछा । तब उसका उत्तर न दे कर वे मौन रहे । मौन रहने का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि यदि मैं कहूँ कि आत्मा है तो मैं शाश्वतवादी कहलाऊँगा और अगर कहूँ कि आत्मा नहीं है तो उच्छेदवादी कहलाऊँगा-इसलिए इन दोनों के निषेध के लिए मैं मौन रहता हूँ ।
किन्तु जैन दर्शन में नित्यानित्य के संबंध में जो चिंतन किया गया है वह अनूठा है, अपूर्व है। वह स्वतंत्र चिंतन है, स्वतंत्र निरूपण पद्धति है । इस दर्शन की प्रतिपादन पद्धति सापेक्षतापरक है। यह नित्यानित्य के एकान्तों का निरसन कर सत्य के अनेकान्त सापेक्ष धर्मों को स्वीकार कर समन्वय कर देता है। यही उसकी सर्वोपरि असाधारण विशेषता है।
विविधरूपता आती रहती है, एतदर्थ लोक अनित्य है अर्थात् अशाश्वत है।18
एक समय की बात है कि प्रभु महावीर से मिलने स्कन्दक ऋषि आये। वन्दना करके विनम्र भाव से बीले कि प्रभु लोक सान्त है या अनन्त है । प्रभु ने उत्तर दिया-स्कन्दक लोक को चार प्रकार से जाना जाता है। द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य की अपेक्षा से लोक है और सांत है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक असंख्यात योजन कोटा-कोटि विस्तार और असंख्यात योजन कोटा-कोटि परिपेक्ष प्रमाणवाला है। इसलिए क्षेत्र की दृष्टि से लोक सान्त है। काल की अपेक्षा से कोई काल ऐसा काल नहीं रहा जब लोक न हो, अतः लोक ध्रुव है । नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है, नित्य है, उसका कभी अन्त नहीं है। भाव की अपेक्षा से लोक के अनन्त वर्ष पर्याय, गंध पर्याय, रस पर्याय और स्पर्श पर्याय हैं । अनन्त संस्थान पर्याय हैं । अनन्त गुरु-लघु पर्याय हैं। अनन्त अगुरु लघु पर्याय है, उसका कोई अन्त नहीं है । एतदर्थ लोक द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र की अपेक्षा से सान्त है, काल की अपेक्षा से अनन्त है। भाव की अपेक्षा से अनन्त है ।
जीव सान्त है या अनन्त है इस प्रश्न का समाधान करते हुवे प्रभु महावीर ने कहा-"जीव सान्त भी है और अनन्त भी है। द्रव्य की अपेक्षा से एक जीव सान्त है । क्षेत्र की दृष्टि से भी जीव असंख्यात प्रदेशयुक्त होने के कारण सान्त है। काल की दृष्टि
इसी प्रकार लोक नित्य है या अनित्य है, इस प्रश्न के उत्तर में श्रमण प्रभु महावीर ने कहा-“जमाली ! लोक नित्य भी है
और अनित्य भी है। क्योंकि एक भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब लोक न हो अतएव लोक नित्य है। लोक का स्वरूप सदा एक सा नहीं रहता, अतएव वह अनित्य भी है। अवसपिणि और उत्सपिणि काल में उत्थान पतन होता रहता है । कालक्रम से लोक में
१८. सासए लोए जमाली-जत्र कयाविणासीनो कथाविणभवति ।
ण कथाविन भावेस्सई-भुवि च भवई य भविस्सई य ।। धुते णि तिए सासए अक्खए भव्वए अवहिए किच्चे असासण लोएजमाली। ज ओ ओसप्पिणी भविता उसप्पिणी भवई ।।
-भगवती सूत्र ८।३३।३८७ १९. एवं खलु भए खन्दया । चउबिहे लोए पण्णते। तं जहा
दव्वओ खेतओ कालओ भावओ। दवओ णं एमे लोए स अंते । खेतओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणः कोटा कोडिओ जायाम विवखंमेण असंखेज्जाओ जोयण कोटा कोडिओ परिथेववेणं पण्णत्ते । अत्थि पुण स अंते ।। कालाओणं लोए ण कयाविन आसि न कयावि न भवति न कयावि न भविस्संति । भविस्य भवति य भविस्सई य धुवे णितिए सामते अक्खए अब्बए अवट्टिए पिच्चेणात्थि त्वेणात्थि पुण से अंते । भाव जो णं लोए अणंता बणपज्जवा, गंध पज्जवा रसपवज्जा फास पज्जवा अणंता संगण पज्जवा अणंता गस्य लहयपज्जवा अणंता अगुरु लहुए पज्जवा नत्थि पण से अन्ते ।
से चं खन्दगा। दवओ लोए स अंते खेतओ भोए स अन्ते कालनो लाए अणंते भाव तो लोए अणन्ते ।
-भगवती सूत्र २।१।९०
१३. सांख्यकारिका ६२ १४. सांख्यकारिका ११ १५. अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अकर्ता निर्गुण सूक्ष्मः आत्मा कपिल दर्शने ।।
-षड्दर्शन समुच्चय ।। १६. एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । १७. अस्तीति शाश्वत, गाही, नास्तिव्युच्छेद दर्शनम् । तस्मादस्तित्व-नास्तित्वे, ना श्रीयते विचक्षणः ।। .
-माध्यमिक कारिका १८।१०
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से भी जीव भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा। अतएव अनन्त है। भाव की अपेक्षा से जीव के अनन्त ज्ञान पर्याय हैं, अनन्त दर्शन पर्याय, अनन्त चारित्र पर्याय तथा अनन्त लघु पर्याय हैं, अतः अनन्त है । सारांश यह है कि द्रव्य दृष्टि से जीव सान्त है, क्षेत्र की अपेक्षा से सान्त है, काल की दृष्टि से अनन्त है, तथा भाव की अपेक्षा से अनन्त है । तात्पर्य यह है कि जीव कथंचित सान्त है और कथंचित् अनन्त है ।
बौद्ध दर्शन ने जीव की सान्तता और अनन्तता के विषय में वही मत स्थिर किया है जो नित्यता और अनित्यता में था । तात्पर्य यह है कि सान्तता और असान्तता दोनों को अव्यावृत कोटि में रक्खा है। 21 किन्तु जैन दर्शन ने प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर अपनी दृष्टि से दिया। एकता और अनेकता
जैन दर्शन का यह मन्तव्य है कि प्रत्येक पदार्थ में एकता और अनेकता ये दोनों धर्म विद्यमान हैं । जीव द्रव्य की एकता और अनेकता का प्रतिपादन करते हुवे प्रभु महावीर ने कहा-द्रव्य दृष्टि से मैं एका हूँ और ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो हूँ । परिवर्तन न होने वाले प्रदेशों की अपेक्षा से अक्षय हूं, अव्यय हूँ अवस्थित हूँ। बदलते रहने वाले उपयोग की अपेक्षा से अनेक हूँ।
इस प्रकार पदार्थ में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का एक ही द्रव्य में परिणमन करना अनेकान्तवाद की अनोखी देन है। सत्-एक चिन्तन
सत् के स्वरूप का विवेचन करते हुवे जैन दर्शन ने कहा है कि जो द्रव्य है वह अवश्य सत् है क्योंकि सत् और द्रव्य दोनों एक हैं। जो है वह सत् है और जो असत् है, वह सत् है असत् रूप में । अत : सत्ता सामान्य की अपेक्षा से सब सत् है । सत् की परिभाषा निम्न रूप से की गई है-प्रत्येक सत अर्थात् प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है । गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। २०. जे. बि. य खंदया। जाव स अन्ते जीवे तस्स वि य णं एयमहते
एवं खलु जाव दव्यओणं एगे जीवे स अन्ते । खेत ओ णं जीवे असंखेज्जयए सिए असंखेज्ज पए सो गाडै अस्थि गुण जे अन्ते कालओ णं जीवे न कयाविन आसि जावणिच्चे नत्थि पुण से अन्ते भावओ णं जीवे अणन्ता णाण पज्जवा अणन्ता दसण पज्जवा अणंत चरित्त पज्जवा अणंता अगर लघुत्थ पज्जवा नत्थि पुण से अंते ।।
-भगवती सूत्र २।९० २१. मज्झिम निकाय चूल मालंक्यस्तुत -६३
सोमिला दव्वठ्याए एगे अहं नाण दंसणदठ्या ए दुबिहे अहं पएसटठ्याए अक्ख एवि अहं अव्वए वि अहं अवठ्ठिए वि अहं उपज ओठ्याए अणेगभूय भाव भविए वि अहं
-भगवती सूत्र १।८।१०।। २३. उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत् -तत्वार्थसूत्र ५।२९
यहाँ पर सहज ही शंका उदबुद्ध होगी कि द्रव्य और सत एक ही है, फिर इनके लक्षण भिन्न भिन्न क्यों हैं ? इसका समाधान यह है कि उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय शब्द है और ध्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन की सूचना दे रहे हैं और ध्रौव्य नित्यता का सूचक है। इसी बात को इस प्रकार कहा है कि उत्पाद और विनाश के बीच एक रूप है जो स्थिर है, वही ध्रौव्य है । यही नित्य की परिभाषा है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ के स्थायित्व में एक रूपता रहती है। वह नष्ट नहीं होता, नवीन भी नहीं होता।
जैन दर्शन सदसद कार्यवादी है । अतः वह प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व ये दो धर्म स्वीकार किये गये हैं । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु अस्ति रूप है और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से नास्ति रूप है ।28
बुद्ध ने अस्ति और नास्ति इन दोनों को नहीं स्वीकारा है। सब है, इस प्रकार कहना एक अंत है, सब नहीं है ऐसा कहना दूसरा अन्त है। इन दोनों अन्तों का परित्याग करके मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है ।
किन्तु जैन दर्शन ने अस्ति और नास्ति के संबन्ध में जो मत स्थिर किया है वह अपूर्व है और अनूठा भी। आत्मा में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों का परिणमन होता है यह जैन दर्शन का अपना मन्तव्य है। 28 अस्ति और नास्ति के संबंध में जब प्रभु महावीर से पूछा गया तब उन्होंने उत्तर दिया कि "हम अस्तिको नास्ति नहीं कहते हैं और नास्ति को अस्ति नहीं कहते हैं। जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं और नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं।"29 २४. तत्वार्थसूत्र ५।२३ २५. तदभावीव्यय -तत्वार्थसूत्र ५।३० २६. सदेव सर्व को नेच्छत स्वरूपादि चतुष्टयात् । असदेव विपर्या सान्न चैत्र व्यपतिष्ठते ।।
-आप्तमीमांसा श्लोक-१५ २७. सव्यं अत्थीति खो ब्राह्मणा अयं एको अन्तेस्वयं नत्थीति
खो ब्राह्मणा अयं दुतियो अन्तो । एते ते ब्राह्मणा उभो अन्तो अनुपगम्म मज्झेन तथागतो, धम्मदेसे निपविज्जा पचंया ।
--संयुक्तनिकाय १२।४७ ।। २८. से नूणं भंते अत्थितं अत्थिते परिणमई । नालीत्तं नत्थिते
परिणमई हंता गोयमा परिणमई ।। नत्थितं नस्थिते परिणमई, नं कि पओमसा निससा ?
गोयमा पओगसा वि तं बीअ सा वितं । जहा ते भंते अत्थितं अत्थिते परिणमई तट्टा ते नत्थितं नत्थिते परिणमई ? जहा ते नत्थिते नत्थिते परिणमई।
वहाँ वे अत्थितं अत्थिते परिणमई ? -भगवती १।३।३३ २९. नो खलु वयं देवाजुप्पिया । अत्थि भावं नत्थिति बदामो।
नत्थि भावां अत्थिति वदामो । अम्हे णं देवाजुप्पिया । सव्यं अत्थि भावं अत्थिति वदामो सव्वं नत्थि भावं । नस्थिति वदामो।
-भगवती सूत्र ७।१०।३।०४
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पूवोक्त उदाहरण एवं विवेचन से निष्कर्ष यह रहा है कि प्रत्येक पदार्थ में नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, सांतताअनन्तता, सद असद् आदि अनेक धर्म विद्यमान हैं । उनको हम एक अपेक्षा से समझ सकते हैं । इस अपेक्षा दृष्टि को जैन दर्शन में "नय" कहते हैं। नयवाद-एक चिंतन
अनेकान्त का आधार नयवाद है। नय का तात्पर्य है 'वस्तु के स्वरूप को सापेक्ष दृष्टि से देखना, परखना और वस्तु में अनन्त गुण धर्मों की सत्ता को अनेक दृष्टियों से, अनेक अपेक्षाओं से समझना ।
नयों में वस्तु में स्थित धर्मों को समझने की समग्र दृष्टियों का अन्तर्भाव हो जाता है । जैसे फल में आकार भी है, रूप भी है, गन्ध भी है तथा अन्य अनेक धर्म भी हैं। जब हम उस फल को आकार-प्रकार की दृष्टि से देखते हैं तो हमें वह गोल, त्रिकोण अथवा अन्य किसी आकार में दृष्टिगोचर होगा । इसी तरह अन्य धर्मों की दृष्टि से उसको हम देखेंगे तो वह वैसा ही दिखाई देगा। इस प्रकार ये समग्र दृष्टियाँ नयवाद के अन्तर्गत आ जाती हैं।
प्रमाण वस्तु के अनेक धर्मों को ग्रहण करता है और नय एक धर्म का ग्राहक है । नय एक धर्म ग्रहण करता हुवा भी इतर धर्मों का निषेध नहीं करता है। यदि निषेध करता है तो वह नय नहीं है दुर्नय है। 1 स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश है।
आगमों में सात नयों का उल्लेख है। वे इस प्रकार हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, और एवंभूत ।93 आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है कि वचन के जितने प्रकार हैं या मार्ग हो सकते हैं नय के भी उतने ही भेद हैं । इस कथन के आधार पर नय के प्रकार भी अनन्त होते हैं क्योंकि वस्तुगत धर्म को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनन्त हैं तथापि मौटे तौर पर उन सबका समावेश सात नयों में हो जाता है। यहाँ पर सप्त नयों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है:
१. नैगम नय--गुण और गणी, अवयव और अवयवी, क्रिया और कारक आदि में भेद की और अभेद की विवक्षा करना नैगम नय ३०. अर्थस्यानेकरूपस्या धी प्रमाणं तदर्शधी।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नय : तन्निराकृतिः ।। ३१. स्वामीप्रेता दशांदितरांशा पलायी पुनर्नयामांसा
-प्रमाणनय तत्वालोक ३२. स्याद्वाद सकलादेशो नयो विकलादेश-लधीयस्ययः ३।६।६२।। ३३. (क) अनुयोग द्वारसूत्र १५६
(ख) स्थानांग सूत्र ७१५५२
(ग) तत्वार्थ राजवार्तिक १।३३ ३४. जावइयाववणवहा ताव इया चेव होंति नय वाया जावइयाणय वाया तावइया चेव परस मया ।।
-सन्मति तर्क प्रकरण ३१४७
का विषय है। इस प्रकार गुण और गुणी कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं। इस बात को दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि भेद काग्रहण करते समय अभेद को गौण समझना और अभेद का ग्रहण करते समय भेद गौण समझना और अभेद को प्रधान समझना नेगम नय है।
२. संग्रह नय--सामान्य या अभेद का ग्रहण करने वाली दृष्टि अर्थात् स्वजाति के विरोधी के बिना समग्र पदार्थों का एकत्व में संग्रह करने वाला नय संग्रह नय कहलाता है। यह प्रत्यक्ष सचाई है कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है । यह नय सामान्य धर्म को ग्रहण करता है, विशेष धर्म की उपेक्षा भाव रखता है।
३. व्यवहार नय--संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये अर्थ का विधिपूर्वक अवहरण व्यवहार का विषय है ।16 संग्रह नय केवल सामान्य को ग्रहण करता है किन्तु व्यवहार नय सामान्य का भेद पूर्वक ग्रहण करता है । अभेदपूर्वक नहीं।
४. ऋजुसूत्र नय-भेद अथवा पर्याय की विविक्षा से कथन करना ऋजुसूत्र नय है। यह नय भत भविष्य की उपेक्षा करके मात्र वर्तमान का ग्रहण करता है । क्योंकि वर्तमान काल में ही पर्याय की अवस्थिति होती है। प्रस्तुत नय प्रत्येक पदार्थ में भेद ही भेद देखता है।
५. शब्द नय-काल, कारक, लिंग, संख्या आदि भेद से अर्थ भेद मानना शब्द नय का विषय है । यह नय एक ही पदार्थ में काल, कारक आदि भेद से भेद मानता है।
६. समभिरूढ़-शब्द नय काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भेद से अर्थ में भेद मानता है। पर वह एक लिंग वाले एकार्थक शब्दों में किसी प्रकार भेद नहीं मानता। पर यह नय व्युत्पत्ति मूलक शब्द भेद से अर्थ भेद मानता है। क्योंकि प्रत्येक शब्द की अपनी अपनी व्युत्पत्ति है । उसके अनुसार उसका अर्थ भिन्न-भिन्न होता है।
७. एवंभूत नय-समभिरूढ़ नय व्युत्पत्ति से अर्थभेद है, ऐसा मानता है । किन्तु प्रस्तुत नय जब व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ घटित होता है तभी उस शब्द का अर्थ स्वीकार करता है।
इन सात नयों के भी दो अवान्तर भेद हैं, द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नय में नैगम, संग्रह और व्यवहार तथा ३५ अन्योन्य गुण भूतैक भेदाभेदमरूपणात् । . नैगभोऽर्थान्तर रत्वोक्तो नैगमा मास इष्यते ।।
-लघीयस्यय २।५।३२ ३६. अतो विधिपूर्वक भव हरणं व्यवहार।
-तत्वार्थराजवार्तिक १।३३।६ ३७. भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुसूत्र नयो मतः ।
-लधीयस्त्रय ३।६७१ ३८. समास्तु द्वि भेद-द्रव्याथिक पयार्थिकश्च ।
-प्रमाणनय तत्वालोक ७।४।५
३२
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पर्यायार्थिक नय में ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत का समावेश हो जाता है ।
जो नयवस्तु के धर्म का निषेध करता है वह दुर्नय है। नय प्रमाण और अप्रमाण दोनों से भिन्न है । वह तो प्रमाण का एक अंश है। जिस प्रकार समुद्र का अंश न समुद्र है और न असमुद्र है किन्तु वह समुद्रांश है ।१०।
नय वस्तु के एक धर्म तक ही सीमित रहता है । स्याद्वाद का कथन वस्तु के समग्र धर्मों का ग्रहण करता है और इसका कथन एक धर्म का ग्राहक है। अतः स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश । इसका तात्पर्य यह हवा कि सकलादेश की विविक्षा सकल धर्मों के प्रति और विकलादेश की विविक्षा विकल धर्म के प्रति है।1 अनेकान्त स्याद्वाद और सप्तभंगी
प्रत्येक पदार्थ अपने आप में अखंड है, एकरूप है और अनन्त गुण धर्मों से संयुक्त है। उसके अपने स्वतंत्र गुण और पर्याय हैं। किसी भी वस्तु का निरूपण उसके प्रतिपक्षी गुण धर्म की अपेक्षा से किया जाता है। अनेकान्त वस्तु की अनेक धर्मिता को सिद्ध करता है और स्यावाद उसकी व्याख्या करने में एक स्वर्णिम सूत्रपात करता है । सप्तभंगी व्यवस्थिति विश्लेषण प्रस्तुत करती है। सप्तभंगी की कथन शैली में एक ही वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रति बोध तत्वों का सुन्दर निर्वाह होता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि सप्तभंगीवाद स्याद्वाद का विश्लेषण है । जिज्ञासु के अन्तर्मानस में सहज ही जिज्ञासा उद्बुद्ध हो सकती है कि सप्तभंगी क्या है और इसकी क्या उपयोगिता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि-संसार की प्रत्येक वस्तु के स्वरूप के कथन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जा सकता है
अपेक्षा के महत्व को ले कर सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक शब्द के दो वाच्य होते हैं-विधि और निषेध । प्रत्येक विधि के साथ निषेध है और प्रत्येक निषेध के साथ विधि भी है क्योंकि एकान्तरूप से न कोई विधि है और न कोई निषेध ही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से वस्तु का विवेचन किया गया है । सात प्रकार के जो भंग बताए गये हैं उनका निरूपण इस प्रकार है
१. स्याद् अस्ति ५. स्यात् अस्ति अव्यक्तं २. स्याद् नास्ति ६. स्यात् नास्ति अव्यक्त ३. स्यादस्ति नास्ति ७. स्यात् अस्ति नास्ति अव्यक्तं ४. स्यात् अव्यक्तं
इनमें से प्रथम भंग विधेयात्मक विचार के आधार पर बना है। इसमें वस्तु के अस्तित्व का विधेयात्मक भाषा में प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय भंग निषेधात्मक विचार के आधार पर निर्मित है। इसमें वस्तु के अस्तित्व रूप का निषेधात्मक ढंग से विवेचन किया गया है । तृतीय भंग विधि और निषेध का क्रमशः विवेचन करता है। प्रस्तुत भंग प्रथम और द्वितीय के संयोग से बना है। चतुर्थ भंग विधि एवं निषेध का युगपत् प्रतिपादन करता है। दोनों का प्रतिपादन करना यह वचन की शक्ति से बाहर है इसलिए इसे अव्यक्त कहा गया है। पंचम भंग विधि और अव्यक्त दोनों का विवेचन करता है। प्रस्तुत भंग प्रथम और चतुर्थ के संयोग से निर्मित है। छठा भंग निषेध और अव्यक्त का प्रतिपादक है। यह भंग द्वितीय और चतुर्थ के संयोग से बना है। सप्तम भंग विधि निषेध और अव्यक्त का विवेचन है । यह तृतीय
और चतुर्थ भंग के संयोग से बना है। ___अभिप्राय यह है कि किसी भी वस्तु में जो अस्तित्व है वह निरपेक्ष नहीं। किन्तु उसके अपने स्वरूप की अपेक्षा से है । अपने स्वरूप की अपेक्षा से वह सत् है और परस्वरूप की अपेक्षा से असत् भी है।
इस प्रकार दार्शनिक जगत में जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद सिद्धान्त एक अनुपम योगदान है। जो सदा सर्वदा दिव्य दिवाकर की भांति विश्व साहित्याकाश में प्रदीप्तमान होता रहेगा और अपनी ज्वलंत ज्योति से जनमानस को ज्योतिर्मय करता रहेगा।
३९. स्वायि प्रेतादिदेशा दि तराशा प्रलापी पुनर्नयाभासा
-प्रमाणनय तत्वालोक ४०. ना समुद्रः समुत्दोवा समुद्रांशी यथैव हि ।
नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशो कथ्यते बुद्धैः ।। श्लोकवार्तिक ४१. स्याद्वादसकलादेशोनयोविकलसंकथा-लछीयस्यपः-३।६।६२ ४२. प्रश्नवादे कस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि प्रतिषेध
विकल्पना सप्तभंगी-तत्वार्थराजवार्तिक ११६ टीका ४३. सप्तभिःप्रकारैः वचन विन्यासः सप्तभंगिनिः गीयते
(वर्तमान समाज और.
...पृष्ठ २७ का शेष)
को लांघना चाहता है। वर्तमान समाज का एक व्यक्ति या वस्तु का अपने गुण पर्यायों से वास्तविक अभेद हो सकता है, पर दो व्यक्तियों में वास्तविक अभेद संभव नहीं है। इस तरह जब वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनंत धर्मात्मक है तब मनुष्य सहज ही यही सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है उसकी सहानुभूति से समीक्षा होनी चाहिए और उसका वस्तु स्थिति
मूलक समीकरण होना चाहिये । मानस समता के लिये अनेकान्त दर्शन ही एकमात्र स्थित हो सकता है। इस प्रकार अनेक त दर्शन से विचार शुद्धि हो जाती है, जब स्वभावतः वाणी से नम्रता और समन्वय की वृद्धि उत्पन्न होती है। वर्तमान समाज में अगर अनेकांत दर्शन का जीवन के व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वहाँ चित्त में समता, माध्यस्थभाव, निष्पक्षता का उदय होता है । 0
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जैन दर्शन के मूल तत्वों का संक्षिप्त स्वरूप
साध्वी धर्मशीला एम. ए., साहित्यरत्न
जनदर्शन में षद्रव्य, सात तत्व या नव पदार्थ माने गये हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पद्रव्य हैं । जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये सात तत्व हैं। इन सात तत्वों में पुण्य, पाप का समावेश करने से नव पदार्थ बन जाते हैं । षद्रव्य, सात तत्व और नवपदार्थ में मुख्य दो तत्व हैं। जीव और अजीव । इन्हीं के संयोग और वियोग पर सब तत्वों की रचना होती है। जीव का प्रतिपक्षी अजीव है, जीव चेतनावानज्ञान-दर्शनयुक्त है। अजीव अचेतन है और ज्ञान दर्शन रहित है।
जैन, बौद्ध और सांख्य दर्शन के अनुसार जगत के मूल में चेतन और अचेतन ऐसे दो तत्व हैं। जैन दर्शन में उसे ही जीव और अजीव कहा है। सांख्य दर्शन ने उसे पुरुष और प्रकृति कहा है तथा बौद्ध दर्शन ने जिसे नाम और रूप कहा है।
जीवों की संख्या अनन्तानंत है । वे जितने हैं उतने ही रहते हैं, न घटते हैं, न बढ़ते हैं। कोई भी जीव नया पैदा नहीं होता है, न किसी का विनाश होता है। तत्वतः प्रत्येक जीव अजन्मा और अविनाशी है । उन अनन्तानन्त जीवों में कई जीव अशुद्ध रूप में और कई शुद्ध रूप में पाये जाते हैं। जो अशुद्ध रूप में हैं उन्हें संसारी जीव और शुद्ध रूप वाले को मुक्त जीव कहते हैं"संसारिणोमुक्ताश्च"-तत्वार्थ सूत्र ।।
मुक्त होने पर जीव की कभी अजीव से संबंध होने की संभावना नहीं रहती। जीव की यही वह अवस्था है जो उसका म लक्ष्य होती है। और इसी अवस्था को प्राप्त करने के लिये परजीवात्मा सदा प्रयत्नशील रहता है।
जीव के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए आचार्य नेमीचन्द्रजी ने द्रव्यसंग्रह में लिखा है कि:
"तिक्काले चदुपाणा इन्दिअ बलमाउ आणपाणो य । ववहारो सो जीवो णिच्चयणयदो दु चेदणा जस्स ।"
अर्थात् व्यावहारिक दृष्टि से तीनों कालों में जिसके इन्द्रिय, बल: मनोबल, वचनबल, कायबल : आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण पाये जाते हैं वह जीव कहलाता है। परन्तु निश्चयात्मक दृष्टि से जिसमें चेतना-उपयोग पाई जाती है वह जीव कहलाता है।
जीव के लिये और भी कहा हैजीवोउवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेह परिणामो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई । अर्थात् जीव उपयोगमय : ज्ञान दर्शन युक्त : अमूर्त, स्वकर्मों का कर्ता, अपनी देह का परिणाम वाला कर्मफल का भोग करनेवाला होता है। कर्मरहित, सिद्ध अवस्था प्राप्त करने पर वह नियम से ऊर्ध्व गतिवाला होता है।
जीव : आत्मा : ज्ञानदर्शनमय तथा सूक्ष्म होने के कारण अमूर्त है। उसका कोई रूप नहीं होता, इसलिये इन्द्रियातीत : अगोचर : है । किन्तु जब तक रागद्वेषादि कषायरूप परिणामों के कारण अजीव : पुद्गल : शरीर से उसका संबंध है तब तक वह शरीरधारी होने से मूर्त : स्पर्श-गंधादि गुण वाला : रहता है। दूसरे शब्दों में शुद्धावस्था में मूर्त : चाक्षुक : होता है।
आत्मा में संकोच-प्रसारण की शक्ति होती है। अत: वह सूक्ष्म एवं स्थूल शरीरों में प्रवेश करके उन शरीरों में परिणाम वाला होने में समर्थ होता है। वह स्व-कर्म का कर्ता और उनके फल का भोक्ता भी है। किन्तु जब कषाय रूप परिणामों के भार से हल्का हो जाता है तब ऊर्ध्वगमन करके सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार मिट्टी से सनी तुम्बी मिट्टी के भार के कारण जल में डूब जाती है। परन्तु ज्योंहीं उसका मिट्टी का भार हल्का हो जाता है, वह ऊर्ध्वगति से पानी के ऊपर आ जाती है, क्योंकि यह उसका स्वभाव है। उसी प्रकार जीवात्मा भी कर्मों के भार से भारी होने के कारण संसाररूपी जलोदधि में
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डूबा रहता है, परन्तु कर्मों का भार हल्का हो जाने पर : शुद्धावस्था में : वह भी ऊर्ध्वगति करता हआ सिद्धावस्था को प्राप्त करके शुद्ध अवस्था युक्त जीव बन जाता है।
संसारी जीव इन्द्रिय संपन्न होते हैं। अतः इन्द्रियों की दृष्टि से भी उसका वर्गीकरण किया जा सकता है। इन्द्रियाँ पाँच होती हैं-१. स्पर्शन, २. रसना, ३. घ्राण, ४. चक्षु, ५. कर्ण। इन्द्रियों का यह क्रम वस्तुतः बड़ा वैज्ञानिक है। कर्णेन्द्रियवाला अवश्य ही पाँचों इन्द्रियों का स्वामी होता है । चाइन्द्रियवाला चार इन्द्रिययुक्त होगा उसको कर्णेन्द्रिय नहीं होती है। इस प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषयों में भी समझना चाहिये। अत: इन्द्रियों की दृष्टि से संसारी जीव पाँच प्रकार का ही होता है--
१. एकेन्द्रिय जीव-इसे केवल स्पर्शन इन्द्रिय ही होगी। अन्य इन्द्रियाँ नहीं होतीं। जैसे पेड़, पौधे इत्यादि । इन्हें स्थावर जीव की संज्ञा दी गई है। २. द्वीन्द्रिय जीव, ३. त्रिइन्द्रिय जीव ४. चतुरिन्द्रिय जीव व ५. पंचेन्द्रिय जीव । इन चार प्रकार के जीवों को त्रस जीव कहते हैं पंचेन्द्रिय जीवों में भी कुछ ऐसे होते हैं जो मनवाले होते हैं उन्हें समनस्क या संज्ञी-जीव कहते हैं । किन्तु कुछ जीव बिना मन के भी होते हैं, वे अमनस्क या असंज्ञी जीव कहलाते हैं ।
अजीब तत्व जीव तत्व से विपरीत स्वरूपवाला है। आत्मा के गुणों से विहीन जितने भी पदार्थ अस्तित्व में हैं वे सब अजीव तत्व के अंतर्गत आ जाते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल अजीव हैं । धर्म गतिसहायक तत्व है । अधर्म स्थिति सहायक तत्व है। आकाश स्थान देनेवाला है। काल समय बताने वाला और पुद्गल जो सभी कुछ आंखों से दिखाई दे उसे पुद्गल कहते हैं।
पुद्गल रूपी है और जीवात्मा से अनित्य संबंध होता है । दर्शन की भाषा में जीवात्मा से संबंध करने वाले पुद्गलों को कार्माण या कर्मवर्गणा या कर्म कहते हैं। इन कर्मों का कार्य है आत्मा के स्वाभाविक गुणों पर आवरण में पड़ जाने पर जीवात्मा अपने शुद्ध रूप को विस्मरण करके संसार में परिभ्रमण करता है, आवागमन करता है।
पुण्य तत्व-जिन कर्मों से पुण्य का बंध हो वह पुण्य तत्व है। उसके नव भेद हैं।
पापतत्व-जिन कर्मों से पाप का बंध हो वह पाप तत्व है। उसके १८ भेद हैं।
आस्रव तत्व-जब आत्मा में इन पौद्गलिक कर्मों का आना प्रारंभ होता है, तब इस आगमन को दार्शनिक भाषा में आस्रव तत्व की संज्ञा दी जाती है। इसके कारण ही जीव अजीव तत्वों का संबंध होता है। और जब तक यह संबंध बना रहता है तब तक जीव संसारावस्था में ही रहता है। ___ संवरतत्व -जीवात्मा अपनी साधना द्वारा कर्मों के आगमन को रोकने का प्रयास करता है तो उस रुकने का नाम है "संवर"। किन्तु वह संवर तत्व आत्मा के साथ बंधे हुवे कर्मों को क्षय करने में समर्थ नहीं होता।
निर्जरा तत्व-पूर्वबद्ध कर्मों का अभाव करने के लिये तपश्चर्या की आवश्यकता होती है और तपस्या द्वारा ही उन कर्मों का धीरेधीरे अभाव होता है । कर्मों का क्षय करना याने निर्जरा है।
बंध-आस्रव के कारण आने वाले कर्म आत्मा से चिपटते हैं, बंधते जाते हैं । आत्मा इन कर्मों के बन्धन में निश्चित कालस्थिति तक बंधा रहता है। इसी बंधन का नाम बन्ध तत्व है।
मोक्ष-निर्जरा करते-करते जब कर्मों का आत्यन्तिक अभाव या विनाश हो जाता है तब आत्मा बंधन से मुक्ति प्राप्त करता है। इस अवस्था का नाम है-मोक्ष। मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है। यही परमानन्दावस्था है। जिसे पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रहता है। जिसे पाने के लिये सभी धर्मों के सभी प्रयत्न हैं। मानवमात्र को इसी की प्राप्ति के लिये सभी साधना और सभी आराधना है। सभी धर्मानुष्ठान इसी की प्राप्ति के लिये होते हैं। मोक्ष ही आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। यह सत्, चित्, आनन्द की अवस्था है। यही जीवात्मा के ब्रह्मभाव की प्राप्ति है । संक्षेप में विशुद्ध आत्म स्वरूप को प्रकट करने को मोक्ष कहते हैं।
जैन दर्शन के इन नव तत्वों का यह संक्षेप में निरूपण है ।
जिस व्यक्ति ने मनुष्य-जीवन पाकर जितना अधिक आत्मविश्वास सम्पादित कर लिया है, वह उतना अधिक शान्तिपूर्वक सन्मार्ग पर आरूढ़ हो सकता है।
-राजेन्द्र सूरि
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व्यवहार, निश्चयनय व अनेकान्तवाद
श्रीमती फूलकुंवर जैन
आज व्यवहार और निश्चयनय के विषय में समाज में काफ़ी चर्चा है। चर्चा से कुछ जन-जागृति हुई, कुछ लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित भी हुआ, कुछ लोगों ने अनेकान्तवाद के रहस्य को समझा। अनेकान्तवाद को समझते हुए भी संसार में नाना प्राणी और उनकी अपनी नाना परिणतियां हैं, जो कि उनके विचारानुसार भले ही ठीक हों एवं अच्छी हों, पर सबसे अच्छी चीज यह है कि बिना किसी ननु नच के पक्ष व्यामोह से रहित होकर वस्तु के स्वरूप को सिद्धान्त के आधार पर अनेकांत दृष्टिपूर्वक अपने में उतारना चाहिये।
सबसे पहले नय की परिभाषा को समझना अतीव आवश्यक है। "व्यक्ति कीर्ण वस्तु व्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्" राजवातिके । परस्पर मिली हुई वस्तुओं में से कोई एक वस्तु अलग की जाती है वह लक्षण है। "प्रमाण गृहीतार्थेकदेशग्राही प्रमातुरभिप्राय: नयः" प्रमाण से जाने हुए पदार्थ के एक देश (अंश) को ग्रहण करने वाला ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं । अथवा "ज्ञातुरभिप्राय: नयः" ज्ञाता का अभिप्राय नय है । नयों द्वारा ही वस्तु के नाना गुणांशों का विवेचन संभव है, जिसका यथोचित प्रसंग नय विचार के द्वारा ही संभव हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि जितने प्रकार के वचन हैं उतने ही प्रकार के नय कहे जा सकते हैं । तथापि वर्गीकरण की सुविधा के लिये नयों की संख्या सात स्थित की गई है, जिनके नाम हैं:--नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । नैगम का अर्थ है न एक: गमः अर्थात् एक ही बात नहीं। जब सामान्यतया किसी वस्तु की भूत, भविष्यत्, वर्तमान पर्यायों को मिला जुलाकर बात कही जाती है तब वक्ता का अभिप्राय नैगम नयात्मक होता है। संग्रहनय के द्वारा हम उत्तरोत्तर वस्तुओं को विशाल की दृष्टि से समझने का प्रयत्न करते हैं। जब हम कहते हैं कि यहां के सभी प्रदेशों के वासी, सभी जातियों के और सभी पंथों के चालीस करोड़ मनुष्य भारतवासी होने की अपेक्षा एक हैं तब ये सभी बातें संग्रहनय की अपेक्षा सत्य हैं।
इसके विपरीत जब हम मनुष्य जाति को भेदों में विभाजित करते हैं, तथा इनका पुनः अवान्तर प्रदेशों एवं प्रान्तीय, राजनैतिक, धार्मिक, जातीय आदि उत्तरोत्तर अल्प अल्पतर वर्गों में विभाजन करते हैं, तब हमारा अभिप्राय व्यवहार नयात्मक होता है। इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नय परस्पर सापेक्ष है और विस्तार व संकोचात्मक दृष्टियों को प्रकट करने वाले हैं । दोनों सत्य हैं और दोनों अपनी अपनी जगह सार्थकता रखते हैं । उनमें परस्पर विरोध नहीं है किन्तु वे एक दूसरे के पूरक हैं । ये नैगमादि तीनों नय द्रव्यार्थिक माने गये हैं क्योंकि इनमें प्रतिपाद्य वस्तु को द्रव्यात्मकता का ग्रहण कर विचार किया जाता है और उसकी पर्याय गौण रहती है। ऋजुसूत्रादि अगले चार नय पर्यायार्थक कहे गये हैं, क्योंकि उनमें पदार्थों की पर्याय विशेष का ही विचार किया जाता है।
यदि कोई मुझसे पूछे कि तुम कौन हो और मैं उत्तर दूं कि मैं प्रवक्ता हूं तो यह उत्तर ऋजुसूत्र नय से सत्य ठहरेगा, क्योंकि मैं उस उत्तर द्वारा अपनी एक पर्याय या अवस्था विशेष को प्रकट कर रही हूँ, जो एक काल मर्यादा के लिए निश्चित हो गई है। इस प्रकार वर्तमान पर्यायमात्र को विक्षय करने वाला नय ऋजुसुत्र कहलाता है। इसी प्रकार व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्नार्थक शब्दों को जब हम रूढ़ि द्वारा एकार्थवाची बनाकर प्रयोग करते हैं तब यह बात समभिरूढ़ नय की अपेक्षा उचित सिद्ध होती है। जैसे देवराज के लिये इन्द्र, पुरन्दर या शक्र, घोड़े के लिये अश्व आदि शब्दों का प्रयोग। इन शब्दों का पृथक् पृथक् अर्थ है तथापि रूढ़िवशात् वे पर्यायवाची से बन गये यही समभिरूढ नय है। एवम्भतनय की अपेक्षा वस्तु की जिस समय जो पर्याय हो, उस समय उसी पर्याय के वाची शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे किसी मनुष्य को पढ़ाते समय पाठक, पूजा करते समय पुजारी, एवं युद्ध करते समय योद्धा कहना।
वस्तुतः नय के द्वारा ही वस्तु के एक देश और प्रमाण के द्वारा वस्तु के सर्व का ज्ञात होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि वस्तु का
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सर्वांश रूप में ज्ञान तो व्यवहार नय से होता है और मात्र निश्चय नय से नहीं होता। दोनों नय सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं।
जब व्यवहार नय से कथन किया जाता है तब निश्चय नय गौण रहता है । दोनों नय अपनी अपनी जगह मृतार्थ और सत्यार्थ माने गये हैं। एक नय दूसरे नय को गौण तो कर सकता है पर वह उसका विनाश नहीं कर सकता। यदि ऐसा होने लगे तो सभी नय निरपेक्ष हो जायेंगे तब नयों का जो साक्षेपवाद सिद्धान्त है वह असत्य सिद्ध होगा।
नय के प्रमुखतः २ भेद हैं--व्यवहार नय और निश्चय नय अथवा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायाथिकनय ।
व्यवहारनय (पर्यायाथिकनय) भेद दृष्टि से लेकर कथन करता है और निश्चयनय अभेद दृष्टि को लेकर कथन करता है कहा भी है:
"स्वाश्रितो निश्चय: और पराश्रितो व्यवहारः।" वस्तु को ज्ञात करने की दृष्टि को दोनों नयों की जानकारी अनिवार्य है। एक ही नय को समझ लेना, एक ही नय को मान लेना, एक ही नय से कथन करना और इसको ही संपूर्ण मान लेना एकान्त है और दोनों नयों को समझकर दोनों रूप में वस्तु को कहना सो अनेकान्त है। जहां अनेकान्त दृष्टि है वहां सभी तरह के विवाद, संघर्ष एवं कलह स्वयमेव शान्त हो जाते हैं और जहां अनेकान्त नहीं है वहां संघर्ष, विद्रोह कलहादि सब कुछ हैं।
जीव अनादिकाल से अज्ञानभाव के (विभाव परिणति) कारण अशुद्ध दशा में रहता है लेकिन ज्ञानभाव के (स्वभाव परिणति) कारण जीव की शुद्ध दशा रहती है। इस दृष्टि से जीव शुद्ध भी है और अशुद्ध भी है।
अब कोई यहां ऐसा कहे कि जीव तो शुद्ध ही है सिद्ध ही है सो कैसे ? हां ! मुक्त जीवों के लिये संभव नहीं । संसारी जीव सिद्ध समान स्वभाववाले तो हैं, पर वे स्वयं सिद्ध नहीं हैं । क्योंकि सिद्ध होने में बाधक विभाव परिणति जो काम कर रही है । जब इस परिणति को नष्ट किया जाये तभी जीव सिद्ध हो सकता है अन्यथा नहीं। ___ जीव और कर्म का अनादिकाल से ही संयोग संबंध या निमित्त नैमित्तिक संबंध चला आ रहा है। जीव अनादिकाल से ही मुक्त नहीं है, यदि मुक्त होता तो अनादि से संसार का और संसार बन्धन का प्रश्न ही नहीं होता । संसार एक बन्धन है । इस बन्धन को काटना ही मुक्ति है। बन्धन की ही मुक्ति होती है, मुक्ति की मुक्ति नहीं होती। संसार में संसरण, विभाव, परिणति के द्वारा होता है, संसार ही व्यवहार है । व्यवहार से निश्चय की प्राप्ति होती है । निश्चय की प्राप्ति में व्यवहार साधन है।
व्यवहार साधन है, निश्चय साध्य है। दोनों में कार्यकारण का भेद है । जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाण साधन हैं सुवर्ण साध्य है । उसी प्रकार निश्चय व्यवहार को समझना चाहिये।
आचार्य कहते हैं कि भव्य जीवो ! यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को सम्मुख रखो क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ (व्यवहार मार्ग) और निश्चय के बिना तत्व (मार्गफल) का नाश हो जायेगा। यहां मार्ग साधन है और मार्गफल (गन्तव्य स्थल पर पहुंचना) साध्य है।
सुद्धो सुद्धा देखा, णायव्यो परमभावदरिसीहि । व्यवहार देसिदापुण, जेदु अपर मेढ़ि दाभावे ॥१२॥
समयसार गाथा ।।१२।। जो परमभाव में स्थित है, यानी दर्शन-ज्ञान-चारित्र है उनको शुद्ध आत्मा का उपदेश करने वाला शुद्ध नय जानने योग्य है। और जो अपरमभाव में स्थित है यानी दर्शन-ज्ञान-चरित्र की पूर्णता को नहीं पहुंचे हैं वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। यह अवस्था (अपरभाव) जीवन की साधक दशा मानी गई है। साधक दशा क्षीणमोह १२वें गुणस्थान तक रहती है । साधकः जिस साध्य प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ कर रहा था उस साहस की सिद्धि का फल (केवल ज्ञान) उसे सयोगकेवली १३ वे गुणस्थान में प्राप्त होता है यह गुणावस्था अरहन्तावस्था की है। शिष्य ने भगवन्त कुन्दकुन्दाचार्य से प्रश्न किया है कि भगवान यदि परमार्थ का ही उपदेश सब कुछ है तो फिर व्यवहार का उपदेश किस लिये दिया जाता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य गाथा कहते हैं
जह जवि सक्कमणज्जो, अण्ज्जभासंविणा उ गाहेउ। ___तह ववहारेण विणा, परमत्थुवारसण मसक्कं ।।८।।
--समयसार। जैसे अनार्य (म्लेच्छ) जन को अनार्थ भाषा (म्लेच्छ भाषा) के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने के लिये कोई समर्थ नहीं है । उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है अर्थात् जो लोग परमार्थ या शुद्ध नय को नहीं जानते हैं उन्हें व्यवहार पूर्वक परमार्थ का उपदेश देना चाहिये । जैसे एक पंडितजी ने एक म्लेच्छ से कहा “स्वस्तिरस्तु" तब म्लेच्छ उसको घूरकर या टकटकी लगाकर देखने लगता है। क्योंकि म्लेच्छ ''स्वस्तिरस्तु" का अर्थ नहीं जानता। उसी समय एक दुभाषिये ने कहा कि पंडितजी कहते हैं कि तेरा कल्याण हो । तब म्लेच्छ स्वस्ति का अर्थ समझकर प्रसन्न होता है।
अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से आती है । मल में द्रव्य अन्य रूप नहीं होता । मात्र पर द्रव्य के निमित्त से अवस्थामलिन (अशुद्ध पर्याय) हो जाती है। द्रव्य दृष्टि से देखा जाय तो वही है और पर्याय दृष्टि से देखा जाय तो मलिन है । जीव की यह अवस्था पुदगल कर्म के निमित्त से रागादि रूप मलिन पर्याय है। द्रव्य दृष्टि से तो जीव में ज्ञायकत्व ही है, जड़त्व नहीं।
जिनमात्र स्याद्वाद रूप है । वह जीव को न सर्वथा शुद्ध मानता है और न सर्वथा अशुद्ध किन्तु वह वस्तु के शुद्ध अशुद्ध दोनों धर्म को मानता है । क्योंकि वस्तु में अनंत धर्म समाये हुए हैं, वस्तु को सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व होता है। इसलिये स्यावाद की शरण लेकर वस्तु को सभी धर्मों से (विभिन्न नयों से)
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समझना चाहिये । नय यदि सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और यदि केवल एक ही नय को पकड़े हुए हैं वे नयाभासी हैं और जो दोनों निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं । नय अपने विपक्ष की अपेक्षा रखते हैं, नयों के सहारे चलते हैं वे अनेकांती हैं। जब तक नींव में दोनों इसलिये वे सापेक्ष हैं और सुनय हैं । इसके विपरीत दुर्नय है । सुनय नयों को न अपनाया जावे तब तक आत्म-कल्याण की बात तो बहुत से ही नियमपूर्वक सफल वस्तुओं की सिद्धि होती है और दुर्नय से दूर रही व्यवहार शुद्धि भी नहीं हो सकती । जिस प्रकार एक नहीं होती।
हाथ व एक पैर से (बगैर दोनों पैरों के, हाथों के, आंखों के) परमागमस्यबीजं, निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् ।
जीवन अपूर्ण रहता है। असहाय परमुखापेक्षी रहता है, उसी प्रकार सकलनय विलसितानां विरोधधनं नमाम्यने कान्ताम् ।।
एक नयावलम्बी का जीवन समझना चाहिये।
--पुरुषार्थसिद्ध्युपाय काय की सिद्धि में उपादान और निमित्त दोनों ही कारण माने आचार्य अमृतचन्द्र ने यहाँ अनेकान्त को नमस्कार किया है। गये हैं । यहां केवल उपादान को ही सब कुछ मानना और निमित्त अनेकान्त कैसा है ? इसके विशेषण भिन्न हैं:
को कुछ भी न मानना या दबी जबान से यत्किंचित् मानना यह १. अनेकान्त परमागम का (जैन सिद्धान्त) बीज है ।
तो कोई सिद्धान्त की बात नहीं मानी जा सकती। मिट्टी का पिण्ड २. जन्मांध पुरुषों के हस्ती संबंधी ज्ञान का विरोधक है।
स्वयं अपनी योग्यता के कारण या उपादान के कारण वह घटरूप
परिणमित होता है, यह सत्य है । लेकिन मिट्टी के पिण्ड को जब ३. समस्त नयों के विलास के विलय के विरोध को दूर करने
तक कुम्भकार चक्र दण्ड चीवर आदि का निमित्त न मिले तब तक वाला है।
बह मृत्तिका पिण्ड त्रिकाल भी घट रूप में परिणमित नहीं हो निरपेक्ष नया मिथ्या, सापेक्षावस्तुतेऽर्थकृत् ।।१०२॥
सकता। -आप्तमीमांसा
इसका अर्थ है कि उपादान भी निमित्त की अपेक्षा रखता है, निरपेक्ष नय मिथ्या है, साक्षेप नय सत्य है । सार्थक है
बगैर निमित्त के उपादान अधूरा है, लंगड़ा है, पंगु है। आत्मा अपने दुर्नयंकान्तमारूढा भावनां स्वाथिका हिते।
ही उपादान के कारण मुक्ति प्राप्त करती है, पर निर्ग्रन्थता उत्तम स्वाथिकाश्च विपर्यस्ता सकलंका नयामतः ।।८।।
ध्यान, उत्तम ध्यान में निमित्त उत्तम संहनन, तपस्या आदि का
--आलापपद्धति निमित्त न मिले तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । मुक्ति इतनी स्याद्वाद-प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है किन्तु अनेक धर्मों सस्ती नहीं जो बिना त्याग तपस्या के घर बैठे ही प्राप्त हो जाये का कथन एक साथ करना असंभव है क्योंकि वाणी क्रमशः ही ऐसा होता या केवल उपादान से ही निमित्त के बिना मुक्ति प्राप्त विवेचन कर सकती है । जिस समय वस्तु के जिस विपक्षित धर्म का होती तो इस पंचमकाल में भी इस भूमि से (भरत क्षेत्र संबंधी कथन हो रहा है, उस समय वस्तु के जिस अविक्षित धर्मों का आर्यखण्ड) मुक्ति प्राप्त हो जाती। अभाव नहीं रहता, अपितु गौण रहते हैं। किसी अपेक्षा से कहा
निमित्त उपादान, निश्चय व्यवहार आदि को स्याद्वाद के जा रहा है । इसीलिये "स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता आधार पर और अनेकान्त के आधार पर समझ कर, आत्म कल्याण है । स्यात् पद से सर्वथा एकान्त का निषेध होता है और जो आगम
की ओर जन जागृति हो, यही कामना है। स्यात् पद से अंकित है, ऐसा आगम जैनागम ही हो सकता है। जो
हम और हथकड़ी हम सोचते हैं, कि
पुजों पर हाथघड़ी को हमने
और कलाई पर अपनी
काश ! हम देख पाते कलाई में कैद कर रखा है,
अपनी हथेलियों को भी वस्तुतः
और समझ पाते उसने ही हमें
उन कर्मों को अपने बन्धन में बांध रखा है,
जिन्हें ये हथेलियां करती हैं। मिनट दर मिनट
तो कदाचित हम देखते हैं उसे
हम समझ पाते और भागते हैं
कि हम क्या हैं ? मशीन के पुरजे की तरह ।
कौन कैद है और नजर अटकी रहती है
कौन आजाद है ? मान उसके कांटों पर, बापूलाल सकलेचा
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विश्व में दो वृत्तियाँ सबल रूप से पाई जाती हैं। समस्त प्राणियों में अधिकांश रूप से दोनों के दर्शन होते हैं। पहली है। देवी - वृत्ति, दूसरी है आसुरी वृत्ति । एक है शान्तिमूलक जबकि दूसरी अशान्तिमूलक । इन दोनों में द्वन्द्व है । अनादि काल से दोनों में संघर्ष भी पाया जाता है। ये वृत्तियाँ नित्य नयापन धारण करके अभिनय करती हैं। इन्हीं अन् तियों से आत्मा देवता एवं दानवत्व की भूमिका को प्राप्त करती है । शास्ता भगवान् महावीर के शब्दों में कहें तो परिग्रह वृत्ति एवं अपरिग्रह वृत्ति सभी के अन्तर्मन में काम करती है। परिग्रहवृत्ति इन्सान को शैतान तथा हैबान बनाती है। वर्ग संघर्ष एवं राष्ट्र द्वन्द्व की निर्माता भी यही है विश्वमंत्री, सहअस्तित्व, भाईचारा आदि की जननी अपरिग्रहवृत्ति ही रही है। समत्व का प्रेरक अपरिग्रह है । विषमता को फैलाने वाला परिग्रह है ।
अपरिग्रह : एक अनुचिन्तन
आचार्य आनन्द ऋषिजी महाराज साहब
जैन दर्शन के मौलिक मूलभूत सिद्धान्तों में अपरिग्रहवाद भी एक मौलिक सिद्धान्त माना गया है । इसकी मौलिकता एवं उपादेयता स्वतः सिद्ध है। वर्तमान में लोक जीवन अत्यन्त अस्तव्यस्त हो गया है । इस अस्तव्यस्तता एवं वर्गसंघर्ष को समाप्त करने में अपरिग्रहवाद पूर्णतया समर्थ है । अपरिग्रह के चिन्तन के पहले परिग्रह को समझना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
परिग्रह क्या है
परिग्रह अपने आप में क्या है ? यह एक शाश्वत प्रश्न सभी के सामने उपस्थित है । परिग्रह के प्रश्न को समझे बिना परिग्रह का निराकरण हो नहीं सकता । परिग्रह एक पारिभाषिक शब्द है । आगमों में इसका स्थान-स्थान पर पर्याप्त वर्णन मिलता है। परिग्रह की परिभाषा देते हुये कहा है---
"परिशमनान्तात्मानं गुह्यति इति परिग्रहः । "
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अर्थात् जिससे आत्मा सब प्रकार के बन्धन में पड़े वह परिग्रह है । परिग्रह का अर्थ जीवन निर्वाह से सम्बन्धित अनावश्यक पदार्थों का संग्रह है । धन, संपत्ति, भोग सामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्वमुलक संग्रह ही परिग्रह है "होम" की वृत्ति आपत्तियों को आमंत्रित करती है । परिग्रहीवृत्ति के धारक व्यक्ति समाजद्रोही, देशद्रोही, मानवताद्रोही ही नहीं अपितु आत्मद्रोही भी हैं। जीवन को भयाक्रान्त करने वाली सारी समस्याओं की जड़ परिग्रह है । समाज में भेदभाव की दीवार खड़ी कर विषमता लाने वाली एक मात्र परिग्रहवृत्ति ही है। देश में समस्या अमीर गरीब की नहीं, अर्थ संग्रह की है। अर्थ को साध्य मानकर युद्ध हुए । पारिवारिक संघर्ष वैयक्तिक, वैमनस्य एवं तनाव इन सबके मूल में रही है अर्थ संग्रह की भावना । अंग्रेजी नाटककार शेक्सपीयर ने कहा था कि:
अर्थात् संसार में सब प्रकार के विधावत पदार्थों में अर्थ संग्रह भयंकर विष है। मानव आत्मा के लिये अद्वैत दर्शन के प्रणेता शंकराचार्य ने ठीक ही कहा है कि "अर्थमनर्थं भावय नित्यम्"-अर्थ समुच ही अनर्थ है। शास्त्रकारों ने अर्थ के इतने अर्थ बतलाए फिर भी इस अर्थ प्रधान युग में अर्थ को ( पैसों को ) प्राण समझा जा रहा है। संग्रहरी, संचयवृत्ति या पूँजीवाद सब पापों के जनक है। इसकी शाखाएँ- प्रशाखाएं ईर्ष्या, द्वेष, कलह, असंयम आदि अनेक रूपों में विभक्त हैं, फैली हैं । जहाँ परिग्रह वृत्ति का बोलबाला रहता है वहाँ मनुष्य अनेक शंकाओं से और भयों से आक्रान्त रहता है । अनेक चिंता चक्रों में फँसा रहता है । परिग्रह वृत्ति जीवन के लिये एक अभिशाप है । जहाँ भी यह वृत्ति अधिक होती है वहाँ जनता का जीवन अशांत हो जाता है । अनावश्यक खर्च, झूठी शान, पैसे का अपव्यय, दिखावा आदि बातों के परिवेश में ही परिग्रह वृति विशेष रूप से पनपती है। जैनागम में स्थान-स्थान पर परिग्रह को बहुत निद्य एवं आपात रमणीय
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बतलाकर उसके परित्याग के लिये विशेष बलपूर्वक प्रेरणा दी गई है। नरकगति के चार कारणों में महा परिग्रह को एक स्वतंत्र कारण बतलाया है । आत्मा को सब ओर से जकड़ने वाला यह सबसे बड़ा बंधन है । प्रश्न-व्याकरण के पंचम आस्रव द्वार में आया
नत्थि एरिसो पासो पड़िबन्धो ।
अत्थि सव्व-जीवाणं सव्व लोए । अर्थात्-समस्त लोक के समग्र जीवों के लिये परिग्रह से बढ़ कर कोई बन्धन नहीं है । सामान्य रूप से परिग्रह की कल्पना धनसंपत्ति आदि पदार्थों से ली जाती है, ममता बुद्धि को लेकर वस्तु का अनुचित संग्रह परिग्रह है । परिग्रह की वास्तविक परिभाषा मूर्छा है। आचार्य स्वयंभव दशवकालिक सूत्र में भगवान महावीर का संदेश सुनाते हैं--
"मुच्छा परिग्गहो वुत्तो नाइपुत्तेण ताइणा" दश. का. सूत्र ६ अर्थात् आसक्ति यही परिग्रह है। आचार्य उमास्वामी कहते हैं-'
मूर्छा परिग्रहः" मूर्छा का अर्थ आसक्ति है । वस्तु एवं पदार्थ के प्रति हृदय की आसक्ति ही, 'मेरापन' की भावना ही परिग्रह है। किसी भी वस्तु में छोटी हो या बड़ी, जड़ हो या चेतन, बाह्यआभ्यंतर, किसी भी रूप में, ही अपनी हो या परायी, उसमें आसक्ति रखना, या उसमें बंध जाना, उसके पीछे अपना आत्मविवेक खो बैठना परिग्रह है। एक आचार्य ने और भी परिग्रह की परिभाषा देते हुवे कहा है:-"परि समन्तात् मोहबुद्ध्या गृह्यते स परिग्रहः ।।" अर्थात् मोहबुद्धि के द्वारा जिसे चारों ओर से ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है। परिग्रह के तीन भेद हैं-इच्छा, संग्रह, मूर्छा । अनधिकृत वस्तु समूह को पाने की इच्छा करने का नाम इच्छारूप परिग्रह है। वर्तमान में मिलती हुई वस्तु को ग्रहण कर लेना संग्रहरूप परिग्रह है और संग्रहीत वस्तु पर ममत्वभाव और आसक्तिभाव मूर्छा रूप परिग्रह कहलाता है। . परिग्रह का प्रतिफल
विश्व का सबसे बड़ा, कोई पाप है तो वह परिग्रह है । परिग्रह को लेकर आज पूंजीपति एवं श्रमजीवी दोनों में संघर्ष चल रहा है। एक हिन्दी कवि ने इसको नपे-तुले शब्दों में संजो कर रख दिया है । उनके शब्दों में
अणु की भारी भट्टी दहकी, भूखा चूला रो पड़ा। प्रासादों को हुआ अजीर्ण, भूखा सोये झोंपड़ा।
आज तो पूंजीपति भी आपस में लड़ते हैं, वैसे ही श्रमजीवी भी । परिग्रही मानव की लालसाएँ भी आकाश के समान अनन्त होती हैं। राज्य की लालसावश कोणिक ने सम्राट' श्रेणिक को जेल में डाल दिया। कैंस ने अपने पिता महाराजा उग्रसेन के साथ जी दुर्व्यवहार किया उसके मूल में यही राज्य की वितृष्णा काम कर रही थी। परिग्रह व्यक्ति को शोषक बनाता है । सभी क्लेशों एवं अनर्थों का उत्पादक परिग्रह ही है। धनकुबेर देश अमेरिका जो भौतिकवाद का गुरु, परिग्रहवाद का शिरोमणि है,
अपने अर्थतंत्र के बल पर सारे विश्व पर हावी होने का स्वप्न देख रहा है । परन्तु वहाँ पर भी आंतरिक स्थिति कैसी है । इसी परिग्रही वृत्ति के कारण वहाँ के करोड़ों लोग मानसिक व्याधियों से संत्रस्त हैं । लाखों आदमी बुद्धिहीनता से पीड़ित हैं। लाखों का मानसिक संतुलन ठीक नहीं। अपाहिजता, पागलपन आदि बीमारियां फैली हुई हैं। छोटे बच्चों में अपराधों की संख्या अधिक पाई जाती है । इसका मूल कारण फैशन परस्ती तथा संग्रह की भावना रही है । प्रस्तुत तकनीकी युग में उपकरण जुटाये जा रहे हैं। सुख के साधन इकट्ठे किये जा रहे हैं। नई-नई सामग्रियों का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है । रहन-सहन स्तर को बढ़ाने का नारा लगाया जा रहा है । किन्तु मानसिक स्थिति उलझनों, तनावों से परिपूर्ण पेचीदा बन गई है । वैचारिक आग्रह भी बढ़ रहा है। वह भी एकान्तवाद का जनक है। इन सब आपत्तियों से मुक्त होने का कोई उपाय है तो वह अपरिग्रहवाद की शरण है। अपरिग्रह का सिद्धान्त सर्वोपरि है और वही आज का युगधर्म है। अपरिग्रह का अर्थ
अपरिग्रह का अर्थ है जीवन की आवश्यकताओं को कम करना। लालसाओं, मूर्छा एवं ममता का अंत ही अपरिग्रहवाद है । भीतर एवं बाहर की संपूर्ण ग्रंथियों के विमोचन का नाम ही अपरिग्रहवाद है। अपरिग्रहीवृत्ति व्यक्ति, राष्ट्र, जाति, विश्व, राज्य आदि सभी के लिये आनन्ददायिनी और सुख शांति के लिये वरदान स्वरूप है। यह संसार में फैली विषमता, अनैतिकता, संग्रह एवं लालसा के अंधकार को दूर करने में सक्षम है। निर्भयता का यह प्रवेश द्वार है । अपरिग्रह दर्शन आज के युग में वर्ग संघर्ष, वर्ग भेद आदि सभी भेद-भवनों की जड़ें हिलाने के लिये अनिवार्य है । सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, धार्मिक आदि सभी की उन्नति एवं क्रान्ति के लिये भी अपरिग्रहीवृत्ति की नितान्त आवश्यकता है।
अपरिग्रह का आदर्श है जो त्याग दिया सो त्याग दिया। पुनः उसकी आकांक्षा न करे। अपने को सीमित करे। इसी आदर्श को ले कर जैन परंपरा में अपेक्षा दृष्टि से दो भेद किये जाते हैं-- १. श्रमण (साधु) २. श्रावक (गृहस्थ) । दोनों की अंतर्भावना, ममता एवं मूर्छा का त्याग करना ही है । दोनों का मार्ग एक ही है। किन्तु साधु संपूर्ण आत्मशक्ति के साथ उस मार्ग पर आगे बढ़ता है और गृहस्थ यथाशक्ति से कदम बढ़ाता है। ___साधु-मुनि दीक्षा लेते समय अंतरंग परिग्रह, मिथ्यात्व आदि का तथा बाह्य परिग्रह, घर, परिवार, धन संपत्ति आदि का परित्याग करता है । गृहस्थ भी संपूर्ण रूप से नहीं किन्तु इच्छानुसार परिग्रह का परिमाण अर्थात् मर्यादा करता है । संपूर्णरूप से अपरिग्रही बनना गृहस्थ के लिये असंभव है, क्योंकि उस पर समाज का, परिवार का, राष्ट्र का, उत्तरदायित्व है । फिर भी आवश्यकता के अनुसार मर्यादा कर वह अपरिग्रह का संकल्प कर
(शेष पृष्ठ ५१ पर)
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अपरिग्रह डॉ. वीणा जैन
आज का मानव पार्थिव एषणाओं और भौतिक पिपासाओं की मरुमरीचिका के पीछे बेतहाशा दौड़ रहा है । उसे नहीं पता कि इस अविश्रान्त दौड़ का लक्ष्य बिन्दु क्या है ? उसे मालम नहीं कि उसकी मंजिल क्या है ? वह दौड़-दौड़ कर हांफ रहा है, पर फिर भी दौड़े ही जा रहा है। प्रश्न उठता है कि मनुष्य किस कारण इस संसार में मोहमाया के जाल में फंसा है। इस प्रश्न का उत्तर जैन धर्म में स्पष्टतः दिया गया है, वह है मनुष्य की परिग्रहवृद्धि । प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है
"नत्स्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं" अर्थात् संसार में सब जीवों को जकड़ने वाले परिग्रह से बढ़कर कोई दूसरा बन्धन नहीं । आचारांग सूत्र में तो यहां तक कहा गया है कि--
_ 'लोक वित्तं च णं उवेहाए, एए संगो अविजाणओ”
अर्थात् जीवात्मा ने आज तक जो भी दुःख परम्परा प्राप्त की है वह सब पर पदार्थों के संयोग से ही प्राप्त हुई है अतः संयोग संबंध का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए।
वास्तव में परिग्रह क्या है ? आत्मा का बन्धनयुक्त होना ही परिग्रह है
"परि समन्तात् आत्मानं गृहणातीति परिग्रहः"। पाणिनी ने भी परिग्रह की परिभाषा इस प्रकार की है कि परिग्रह वह है जो मनुष्य को चारों तरफ से घेरे रहता है
“परिग्रहणं परिग्रहः” । जैन धर्म में मूर्छा (आसक्त) को परिग्रह कहा गया है
मूर्छाः परिग्रह । जीवन में आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करना अनुचित नहीं है परन्तु उन वस्तुओं का न स्वयं उपयोग करना न दूसरों को करने देना
यह मुर्छा का लक्षण है, आसक्ति है और यही संसार परिभ्रमण की जड़ है। परिग्रह होने या न होने के लिए यह आवश्यक नहीं कि वस्तु है या नहीं है, किन्तु इच्छा का होना और न होना आवश्यक है। केवल प्राप्त वस्तुओं का संग्रह ही परिग्रह नहीं है किन्तु जो अप्राप्त है पर उनके लिए तमन्नाएं है, लालसाएं हैं तो वे भी परिग्रह हैं । कहा भी है:--
"मून्निधियां सर्व, जगदेव परिग्रहः ।
मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवा परिग्रहः" जिसकी मनोभावना आसक्ति से ग्रस्त है उसके लिए सारा संसार ही परिग्रह है । जो मूर्छा, ममता एवं आसक्ति से रहित है, उसके आधीन यदि सारा जगत भी हो तो वह अपरिग्रही है। जहां इच्छा है वहां परिग्रह है और जहां इच्छा का त्याग है, वहां परिग्रह का भी त्याग है, चाहे वह गृहस्थ करे अथवा साधु । ऐसा नहीं कि यदि गृहस्थ वस्त्रादि रखते हैं तो वे परिग्रही हैं और यदि साधु रखते हैं तो वे परिग्रही नहीं हैं । परिग्रही तो दोनो हैं पर वहां प्रश्न उन वस्तुओं के प्रति मूर्छा का आ जाता है।
भगवान महावीर दशवकालिक सूत्र में कहते हैं:"न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा, मुच्छा परिग्गहोवृत्तो, इह वृत्तं महेसिणा।"
ज्ञानपुत्र महावीर ने पदार्थों को परिग्रह नहीं कहा है । उन्होंने वास्तविक परिग्रह मूर्छा को कहा है। वस्तु का होना एक चीज है और परिग्रह की वृत्ति-ममता-मूर्छा रखना दूसरी चीज है। शास्त्रकार वस्तुओं को परिग्रह इसीलिए कह देते हैं कि उन वस्तुओं पर से ममता दूर हो जाये क्योंकि परिग्रह की वृत्ति हटाकर ही मनुष्य हल्का बन सकता है । वस्तुओं के प्रति मनुष्य की आसक्ति उस मक्खी की तरह होनी चाहिए जो मिश्री पर बैठती तो है और उसकी मिठास का आनन्द भी लेती है पर ज्योंही हवा का झोंका आता है तो उड़
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जाती है, न कि उस मधुमक्खी की तरह जो एक बार उस पर बैठ जाती है तो उससे चिपटे ही रहती है चाहे कितने ही हवा के झोंके क्यों न आयें, वह फंसी रहेगी यहां तक कि उसके प्राण क्यों न चले जायें। संसार में रहते हुए यदि मनुष्य पहली मक्खी की तरह बैठे तो वह तत्काल ही सब बन्धनों को तोड़ सकता है। यही कारण है कि भगवान महावीर परिग्रह पर सीधी चोट नहीं करते पर परिग्रह की वृत्ति पर सीधा प्रहार करते हैं । एक भिखारी फटा हुवा वस्त्र लिए फिरता है और उसने कोई व्रत-प्रत्याख्यान नहीं लिया है तो वह परिग्रही हैं भले ही उसके पास पर्याप्त सामग्री नहीं है। परन्तु राजा चेटक वैभवशाली होने पर भी अपरिग्रही था क्योंकि धन सम्पत्ति होते हुए भी उसने परिग्रहवृत्ति को तोड़ दिया था। तात्पर्य यह है कि जहां परिग्रह की लालसा है, लोभ है, ममता है और आसक्ति है वहां परिग्रह है, चाहे बाह्य वस्तु पास में हो या न हो और जहां लालसा
और ममता नहीं है वहां चक्रवर्ती की ऋद्धि भी अपरिग्रह है। इसलिए दशवकालिक सूत्र में कहा है
"ज पि वत्थं च पायं वा कंबलं पायंपुछण ।
जं पि संजम लज्जट्ठा, धारिति परिहरंतिय" मनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि बस्तुएं रखते हैं वे सब संयम रक्षा के निमित्त हैं उनके रखने में किसी प्रकार की परिग्रह बुद्धि नहीं है।
यदि चित्त में परिग्रह संबंधी आसक्ति न निकली या कम न हुई और ज्यों की त्यों बनी रही तो ऊपर से अपरिग्रह व्रत या परिग्रह परिमाण व्रत को अंगीकार कर लेना कुछ अर्थ नहीं रखता
“चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने बहिनिर्ग्रन्थता वृथा" जैन धर्म आदर्शवाद और यथार्थवाद का समन्वय करता है और कहता है कि जब तक मनुष्य गृहस्थावस्था में है उसके साथ उसका परिवार, समाज और राष्ट्र भी है। इन सब को छोड़कर वह अलग नहीं रह सकता है । जव वह अलग नहीं रह सकता है तो इन सबकी आवश्यकताओं की भी उपेक्षा नहीं कर सकता । इसी कारण धर्मशास्त्र में "इच्छा परिमाण" का व्रत बतलाया है। "आवश्यकता परिमाण" का व्रत नहीं बतलाया। भगवान महावीर ने जीवन निर्वाह के लिए धन की, अपेक्षा नहीं की उन्होंने आवश्यक्तानकल धन प्राप्ति को वैध माना । लेकिन उनके अनावश्यक संग्रह को समाज के लिए विषवत् माना । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है:-- "वित्तेण ताणं न लभे पमते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था।"
यह धन का, वित्त का, अनावश्यक संग्रह ही तो है जो देश को, समाज को समस्याओं के विषमजाल में अभिग्रस्त किये हुए है। जैन धर्म के अनुसार यदि जीवन को सुचारु रूप से चलाना हो तो उस पर अंकुश रख कर ही चलाना चाहिए। जहां तक आवश्यकताएं हैं उसे वहीं तक ले जायें तो ठीक है मगर उससे आगे ले जाना अनुचित है। यही अपरिग्रह व्रत का आदर्श है। जहां तक
आवश्यकताओं का प्रश्न है परिग्रह का महत्व समझा जा सकता है किन्तु यदि परिग्रह बत्ति उससे आगे चले और उस पर अंकुश लगा दे तो फिर परिग्रह भी एक दृष्टि से अपरिग्रह हो जाता है।
कुछ लोग दान और अपरिग्रह को एक ही समझते हैं क्योंकि दोनों का लक्ष्य एक ही है वह है मनुष्य का कल्याण । परन्तु वास्तव में दोनों की समतुल्यता करना उचित नहीं है क्योंकि जो दान में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है वह अपरिग्रह में अस्पष्ट रहता है और जो अपरिग्रह में स्पष्ट रहता है वह दान में अस्पष्ट रहता है । कहने का तात्पर्य यह है कि दान करने के लिए पहले वस्तुओं का संग्रह अत्यधिक मात्रा में किया जाता है और फिर उन्हें इसलिए दान किया जाता है कि जिससे दान लेने वाले का कल्याण हो । यद्यपि दान लेने वाले का कल्याण तो स्पष्ट रूप से होता ही है पर साथ ही दान देने वाले की प्रसिद्धि भी होती है। जबकि अपरिग्रह में मनुष्य संग्रहवृत्ति का ही त्याग कर देता है जिससे उसका कल्याण तो स्पष्ट ही हो जाता है और दूसरों का अस्पष्ट रूप से । एक तरफ लोगों से छीना जाए और दूसरी तरफ उन पर बरसाया जाये तो इसके परिणाम स्वरूप अहंकार का पालन होता है अर्थात् जनता से ही लेना और जनता को ही देना सर्वस्व का दान नहीं है। जैन धर्म में दान की अपेक्षा अपरिग्रह को अधिक महत्व दिया है । दान पैर पर कीचड़ लगने पर धोना और अपरिग्रह कीचड़ न लगने देना है । नीतिकार कहते हैं कि कीचड़ न लगने देना धोने की अपेक्षा अच्छा है:
"प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्" अपरिग्रह महातप की ओर एक कदम है, मोक्षोन्मुखी भावना है ऐसा भगवान महावीर ने कहा है--
"अब्भंतरबाहिरए सब्वे गंधे तुम विवज्जेहि" अर्थात् आत्मा का बन्धनमुक्त होना, अन्तर बाह्य संपूर्ण ग्रंथियों का उच्छेदन करना अपरिग्रह है । इसकी व्याख्या कई प्रकार से की जाती है। यदि समाज को सामने रखा जाये तो इसका अर्थ है संचय का अभाव । इसका अर्थ है अपनी आवश्यकताओं को कम से कम करके दूसरों की सुख-समृद्धि में सहायक होना । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो इसका अर्थ है स्व को घटाते-घटाते इतना कम कर देना कि पर ही रह जाये, स्व कुछ न रहे । उपरोक्त व्याख्या बौद्ध दर्शन की है। वेदान्ती इसी को दूसरे रूप में प्रस्तुत करता है । वह कहता है कि स्व को इतना विशाल बना दो कि पर कुछ न रहे। दोनों का अंतिम लक्ष्य है "स्व" और "पर" में भेद को मिटा देना और यही आध्यात्मिक अपरिग्रह है । जैन दर्शन इसी को अनासक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है । भेद की सत्ता हमारे विकास को नहीं रोक सकती किन्तु अपने आपको किसी एक वस्तु के साथ चिपका देना ही विकास की सबसे बड़ी बाधा है । इसको जैन दर्शन ने मूच्र्छा कहा है। इस प्रकार अपरिग्रह का सिद्धान्त समाज और व्यक्ति दोनों के विकाम का मूलमंत्र बन गया है ।
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भगवान महावीर की वाणी में अपरिग्रह
प्रो. श्रीचन्द्र जैन
में छटपटाहट भर देता है । मानव-मानव के बीच जो इतना भेद दिखाई दे रहा है उसका एकमात्र हेतु परिग्रह है। इसी लालसा ने धनी और दीन की दो ऐसी श्रेणियाँ बना दी हैं जो श्वानों की भाँति रात-दिन आपस में लड़ती रहती है। कविवर स्वर्गीय श्रीरामधारी सिंह दिनकर की ये निम्नस्थ पंक्तियाँ परिग्रह से उत्पन्न विभीषिकाओं को चित्रित करती हई जनता के सामने विषमता के घिनौने कुरूपों को चेतावनी के रूप में अंकित करने में पर्याप्त
परिग्रह एक ऐसी गहन विकृति है जो न जीवन को समुन्नत बनने देती है और न यह राष्ट्रोन्नति को विकसित होने देती है । वस्तुतः परिग्रही देशद्रोही है, समाज शत्रु है एवं मानवता का कर्लक है । आज तो सर्वत्र विनाश के कारण दिखाई दे रहे हैं इनका मूल कारण परिग्रह ही है । एक देश जब दूसरे राष्ट्र का विध्वंसक बनता है, उसके वैभव को मिटाना चाहता है या उसकी सुखसुविधाओं का शोषण करने के लिए छटपटाता है तब यही समझना चाहिए कि वह स्वार्थी देश परिग्रही बन चुका है और इसीलिये वह स्वार्थांध है।
परिग्रह आत्म-ज्योति को इसी प्रकार धूमिल बनाता है जिस प्रकार श्यामल मेघ दिनकर की व्यापक ज्योति को धुंधला कर देता है। ऐसी स्थिति में परिग्रह विकार है, विनाश का उपकरण है, द्रोह का कारण है, शत्रुता का जनक है, एवं विश्वबन्धुत्व का नाशक है । यही माया, विलासिता, लक्ष्मी, ममता, ऐश्वर्य-वैभव आदि अनेक रूपों में प्रदर्शित होकर जन जीवन के सहज स्वरूप को कंलकित करता है और विघटन के नाना भयावह कद्देश्यों को धरती के आंगन में प्रदर्शित करता रहता है।
तृष्णा को नागिन कहा गया है जो परिग्रह की ओर मानव को इसी प्रकार आकृष्ट करती है जिस प्रकार दीपक की लौ पंतगों को अपनी ओर खींचती है। इसलिये सन्तों ने तृष्णा के परित्याग को आत्म विकास के लिए अनिवार्य बताया है। संत कबीर की वाणी भगवान् महावीर के उपदेशों से निरन्तर प्रभावित हुई है । कोई मत हो, कोई सम्प्रदाय हो, कोई धर्म हो, कोई ईमान हो, सबने सादे जीवन और उच्च विचारों की प्रशंसा की है। - विश्व की अशांति का प्रमुख कारण परिग्रह है, जो लोभ से समुत्पन्न होता है और शनैः शनैः यही भौतिक सुख-सुविधा के साधनों को अकारण ही एकत्रित करने के लिए इंसान के मानस
श्वानों को मिलता दूध वस्त्र,
भूखे बालक अकुलाते हैं । माँ की हड्डी से चिपक ठिटुर
जाड़े की रात बिताते हैं । युवती की लज्जा वसन बेच,
जब ब्याज चुकाये जाते हैं। मालिक तब तेल फुलेलों पर,
पानी सा द्रव्य बहाते हैं । जब तक मनुज मनुज का यह, ।
सुख भोग नहीं सम होगा। शमित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा । परिग्रह अहिंसक बन ही नहीं सकता। क्योंकि परिग्रह हिंसा का ही दूसरा रूप है। जो परिग्रह में सलंग्न है वह घोर हिंसक, दुराचारी, व्यभिचारी और मायाचारी है।
आचार्य शव्यम्भव ने व्याख्या इस प्रकार की है-मुच्छा परिगहो वुतो नायपुतण ताइणा । (दशवे ६) किसी भी वस्तु में बंध जाना अर्थात् उसे अपनी मानकर उसकी ममता में लिप्त हो जाना तथा ममत्व के वश होकर आत्म-विवेक को खो बैठना
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परिग्रह है। इस प्रकार किसी वस्तु को मोह-बुद्धिवश आसवित पूर्वक ग्रहण करना ही परिग्रह-परिसमन्तात् मोह बुद्धा गृह्यते स परिग्रहः । भगवान् महावीर की भाषा में आत्मा के लिए यदि कोई सबसे बड़ा बंधन है तो वह परिग्रह है-नत्थि एरिसो पासो पबंधो अस्थि सव्व जीवाणं । प्रश्न व्याकरण सूत्र २ |१| परिग्रह अर्थात् अर्थसंग्रह् सम्पत्ति आदि पर ममत्व अपने आप में हिंसा है इसलिये परिग्रह को त्याग किये बिना अहिंसा का वास्तविक सौन्दर्य खिल नहीं सकता क्योंकि जहाँ परिग्रह है वहाँ हिंसा अवश्यम्भावी है ।'
आचार्य उमास्वामी ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए कहा है मूर्च्छा परिग्रहः-- मूर्च्छाभाव परिग्रह है। पदार्थ के प्रति हृदव की आसक्ति - ममत्व की भावना ही परिग्रह है ।
।
समाज में विषमता के फैलते हुए जहर को मिटाने के लिए, रोकने के लिए अपरिग्रह ही एक अनिवार्य साधन है । इसके लिए प्रत्येक मानव को अपनी इच्छाएँ कम नहीं करनी चाहिए । तृष्णा को धीरे-धीरे घटाना चाहिए और आवश्यकताओं को कम से कम करना आवश्यक है । संग्रहवृत्ति दानवता को जन्म देती है । लोभ, क्लेश, कषाय, चिन्ता, उद्विग्नता आदि को निरन्तर बढ़ाने वाली यही संग्रहवृत्ति है । जिसका नियंत्रण सुख शांति का अनुपम साधन है । परिग्रह का समुचित त्याग समाजवाद का वास्तविक रूप कहा जा सकता है ।
आवश्यकता से अधिक संग्रह करना चोरी है,
पाप है, महापाप है और इंसानियत का हनन है । भगवान् महावीर की वाणी में अपरिग्रह का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है:
(१) मुछा परिव्हो बुसो ।
( वस्तु के प्रति रहे हुए ममत्व-भाव को परिग्रह कहा है । )
( विश्व के सभी प्राणियों के लिए परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल - बंधन नहीं)
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(२)
नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि । सव्व जीवाणं
सव्व लोए ॥
( इच्छा आकाश के समान अनंत है )
१. श्री गणेशमूनि शास्त्री अहिंसा की बोलती मीनारें, पृष्ठ ७५
(३)
इच्छा हु आगास समा अणंतिया ।
(४)
बहुपि लधुं नहिं परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा ।
( बहुत मिलने पर भी संग्रह न करें। परिग्रह-वृति से अपने आपको दूर रखें) ।
(५)
परिग्गह निविद्वाणं वेरं तेसि पवड्ढई ।
(जो परिग्रह-संग्रहवृत्ति में व्यस्त है, वे संसार में अपने प्रति वैर की ही अभिवृद्धि करते हैं)।
(६)
कामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।
( कामनाओं का अंत करना ही दुःख का अंत करना है) ।
(७)
जे ममाई महं जहाई से जहाइ ममाईअं ।
( जो साधक अपनी ममत्व बुद्धि का त्याग कर सकता है वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो सकता है) ।
(c)
एतदेव एगेसि महव्वयं भवई ।
(परिग्रह ही इस लोक में महाभय का कारण होता है) । (९)
तिविहे परिग्पण्यते तं जहाकम्म-परिवड़े शरीर परियहे बाहिर भंड मत रहे ।
( परिवह तीन प्रकार का है-कर्म परिग्रह शरीर परिग्रह बाह्य भण्ड-भाण्डय उपकरण परिग्रह ) ।
(१०)
लोहस्सेस अनुष्का यो मन्ने अन्नदरामति ।
( संग्रह करना यह अन्दर रहने वाले लोग की झलक है ।)
( " भगवान महावीर के हजार उपदेश, संपादक श्री गणेशमुनि शास्त्री" से साभार)
यह ध्रुव सत्य है कि परिग्रही मरने के बाद नरकगामी होता है और परिमित संग्रही मृत्यु के उपरान्त मनुष्य जन्म पाता है ।
यदि हम शोषण को समाप्त करना चाहते हैं यदि हम विश्वबन्धुस्व की भावना को मूर्त रूप देने के इच्छुक हैं और चारों ओर सुख शांति स्थापित करने के लिए लालायित हैं तो हमें अपरिग्रहव्रत को शीघ्र ही अपना लेना चाहिए इसी में जन-जन का कल्याण है और यही भगवान् महावीर के अनुयायियों का आदि धर्म है ।
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जैन, बौद्ध और गीता दर्शन में मोक्ष का स्वरूप एक तुलनात्मक अध्ययन
जैन तत्व मीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा को जो निष्कर्म शुद्ध अवस्था होती है उसे मोक्ष कहा जाता है । कर्म-फल के अभाव में कर्मजनित आवरण या बंधन भी नहीं रहते और यही बंधन का अभाव ही मुक्ति है । वस्तुतः मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । " बंधन आत्मा की विरूपावस्था है और मुक्ति आत्मा की स्वरूपावस्था है। अनात्मा में ममत्व, आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना यही मोक्ष है" और यही आत्मा की शुद्धावस्था है । बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि का विषय है । आत्मा की विरूप पर्याय बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है । पर पदार्थ, पुद्गल, परमाणु या जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर में आत्म-भाव (मेरापन ) उत्पन्न होता है, यही विरूप पर्याय है. परपरिणति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म- द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएँ मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण मुकुट और स्वर्ण कुंडल स्वयं की ही दो अवस्थाएँ हैं। लेकिन यदि मात्र, विशुद्ध तत्व दृष्टि या निश्चय नय से विचार किया जाय तो बंधन और मुक्ति दोनों की व्याख्या संभव नहीं है क्योंकि १. कमी:१०१ २. बन्ध वियोगो मोक्ष:- अभिधान राजेन्द्र खंड ६, पृष्ठ ४३१ ३. मुक्खो जीवस्स सुद्ध रूपस्स - वही खंड ६, पृष्ट ४३१ ४. तुलना कीजिये (अ) आत्मा मीमांसा ( इलसुखभाई)
डॉ. सागरमल जैन
पृष्ठ ६६-६७
(ब) ममेति वपते जन्तुममेति प्रमुच्यते
गरुड़ पुराण
आत्मतत्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणत नहीं होता । विशुद्ध तत्व दृष्टि से तो आत्मा नित्यमुक्त है। लेकिन जब तत्व की पर्यायों के संबंध में विचार प्रारम्भ किया जाता है तो बंधन और मुक्ति की संभावनाएँ स्पष्ट हो जाती हैं क्योंकि बन्धन और मुक्ति पर्याय अवस्था में ही संभव होती है। मोक्ष को तत्व माना गया है, लेकिन वस्तुतः मोक्ष बंधन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है भावात्मक दृष्टिकोण, दृष्टिकोण, ३. अनिर्वचनीय दृष्टिकोण |
२. अभावात्मक
मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचारः -- जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावानात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे निर्बाध अवस्था कहा है।" मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण आत्मा के निजगुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं। मोक्ष, बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता का प्रकटन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टययुक्त, अक्षय, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, अविचल, अनालम्ब कहा है।" आचार्य उसी ग्रंथ में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं। १. पूर्णज्ञान, २. पूर्णदर्शन ३. पूर्णसौख्य, ४. पूर्णवीर्य, ५. अमूर्तत्व, ६. अस्तित्व और ७. सप्रदेशता । आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष दशा के जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है, वे सभी भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं हैं । वेदान्त को स्वीकार नहीं ५. अव्वाबाहं अवत्थाणं-: व्यावाधावजितभवस्थानम् - अवस्थितिः जीवस्यासौ मोक्ष इति । - अभिधान राजेन्द्र खंड ६, पृष्ठ ४३१ ६. नियमसार १७६-१७७
७. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलविरियं । केवलदिठि अमुत्तं अत्थितं सप्पदेसत्तं । नियमसार १८१
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हैं, सांख्य सौख्य एवं वीर्य को और न्याय वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं । बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व का भी विानश कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की धारणा को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्ष को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के निराकरण के लिये ही मोक्ष की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है । भावात्मक दृष्टि से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्टय की उपस्थिति पर बल देती है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। बीजरूप में यह अनन्त चतुष्टय सभी जीवात्माओं: में उपस्थित है, मोक्ष दशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से ये गुण पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते हैं। ये प्रत्येक आत्मा के स्वाभाविक गण हैं जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो जाते हैं । अनन्त चतुष्टय में अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य आते हैं। लेकिन अष्टकर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों की मान्यता भी जैन विचारणा में प्रचलित है । १. ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है । २. दर्शनावरण कर्म नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से संपन्न होता है। ३. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध अनश्वर आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है। ४. मोह कर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि (क्षायिक सम्यक्त्व) से युक्त होता है । मोह कर्म के दर्शन मोह और चारित्र मोह ऐसे दो भाग किए जाते हैं । दर्शन मोह के प्रहाण से यथार्थ और चारित्र मोह के क्षय से यथार्थ चारित्र (क्षायिक चारित्र) का प्रकटन होता है लेकिन मोक्ष दशा में क्रियारूप चारित्र नहीं होता मात्र दृष्टि रूप चारित्र ही होता है । अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अंतर्गत ही माना जा सकता है। वैसे आठ कर्मों की ३१ प्रकृतियों के प्रहाण के आधार से सिद्धों के ३१ गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्यात चारित्र को स्वतंत्र गुण माना गया है । ५. आयु कर्म के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है वह अजर अमर होता है। ६. नामकर्म का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा अशरीरी एवं अमूर्त होता, है अतः वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता है । ७. गोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से अगुरुलघुत्व से युक्त हो जाता है। अर्थात् सभी सिद्ध समान होते हैं, उनमें छोटा-बड़ा या ऊँचनीच का भाव नहीं होता। ८. अन्तराय कर्म का प्रहाण हो जाने से बाधा रहित होता है अर्थात् अनन्त शक्ति संपन्न होता है।" अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक ही है। यह मात्र बाधाओं का अभाव है। लेकिन इस प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार से मुक्तात्मा के आठ गुणों की व्याख्या की मात्र एक व्यावहारिक संकल्पना ही है। उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वचन नहीं है । यह व्यावहारिक दृष्टि से उसे समझने का
प्रयास मात्र है । इसका व्यावहारिक मूल्य है । वस्तुतः तो वह अनिर्वचनीय है । आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धात्मा के स्वरूप के संबंध में जो एकान्तिक मान्यताएँ हैं, उनके निषेध के लिये हैं । मुक्तात्मा में केवलज्ञान और केवलदर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्माओं को जड़ मानने वाली वैभाषिक, बौद्धों और न्याय-वैशेषिक की धारणा का प्रतिषेध किया गया है। मक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभाव रूप में माननेवाली जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष दशा का समग्र भावात्मक चित्रण निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। यह विधान भी निषेध के लिये है ।
___ अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्व पर विचार:- जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हवा है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण निम्नप्रकार से प्रस्तुत किया गया है । मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमंडल संस्थान वाला है । न वह तीक्ष्ण, वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है । वह सुगंध और दुर्गधवाला भी नहीं है कट, खट्टा, मीठा, एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरु, लघ, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गणों का भी अभाव है । वह न स्त्री है न, पुरुष है, न नपुसंक है। इस प्रकार मुक्तात्मा में रस, रूप, वर्ण, गंध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में मोक्ष दशा का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं "मोक्ष दशा में सुख है, न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है, न वहाँ इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है, न बहाँ चिंता है, न आर्त और रोद्र विचार ही है। वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों का
भी अभाव है। 12" मोक्षावस्था तो सर्व-संकल्पों का अभाव है। १०. सदसिव संखो मक्कडि बद्धो णोयाइयो य वेसेसी। ईसर मंडलि दंसण विदूसणठे कयं एदं ।।
-गोम्मटसार (नेमिचन्द्र) ११. से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न
किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कवखड़े, न मउए, न शुरूए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निढे, न लक्खे न काऊ, न रूहे. न संगे, न इत्थी, न पुरिसे न अन्नहा-से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे ।
-आचारांग सूत्र १।५।६। १२. णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीड़ा व णवि विज्जदे बाहा ।
णवि मरणं णवि जणणं, तत्थेव य होई णिव्वाणं ।। णिव इंदिय उवसग्गा णिवमोहो विझियो ण णिद्दाय । णय तिण्हा णेव छुहां, तत्थेव हवदि णिव्वाणं ।।
-नियमसार १७८-१७९
८. कुछ विद्वानों ने अगुरुलघुत्व का अर्थ न हलका न भारी
किया है। ९. प्रवचनसारोद्धार द्वार २७६ गाथा १५९३-१५९४
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वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है, वह पक्षातिक्रान्त है । इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन उसको अनिर्वचनीय बतलाने के लिये ही है।
मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप:--मोक्ष का निषेधात्मक निर्वचन अनविार्य रूप से हमें उसकी अनिर्वचनीयता की ओर ही ले जाता है । पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है। ____ आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है-समस्त स्वर वहाँ से लौट आते हैं अर्थात् ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का वह विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है । वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है । किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है. अरूपी सत्तावान है । वह अ-पद कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके ।13 उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह अरूप, अरस, अवर्ण, और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है।
गीता में मोक्ष का स्वरूपः--गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्व ब्रह्म अक्षर पुरुष अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति कहा जा सकता है। गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष, निर्वाणपद, अव्ययपद, परमपद, परमगति और परमधाम भी कहता है। जैन और बौद्ध विचारणा के समान गीताकार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म-मरण की प्रक्रिया से युक्त है जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता का साधक इसी प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है। (जरामरणमोक्षाय ७,२९) और कहता है--"जिसको प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में नहीं लौटना होता है, उस परमपद की गवेषणा करना चाहिये ।" गीता का ईश्वर भी साधक को आश्वस्त करता हुवा यही कहता है कि जिसे प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में आना नहीं होता वही मेरा परमधाम है (स्वस्थान) है। 'परमसिद्धि को प्राप्त हुवे महात्मा मेरे को प्राप्त हो कर दुःखों के घर इस अस्थिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते हैं । ब्रह्म लोक पर्यन्त समग्र जगत
पुनरावृत्ति से युक्त है । लेकिन जो भी मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।18" मोक्ष के अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन करते हुए गीता कहती है "इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्व है जो सभी प्राणियों में रहते हवे भी उनके नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों, जो अव्यक्त है, उनसे भी परे उनका आधारभूत आत्मतत्व है । चेतना की अवस्थाएँ नश्वर हैं लेकिन उनसे परे रहने वाला यह आत्मतत्व सनातन है, जो प्राणियों में चेतना (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन प्राणियों तथा उनकी चेतना पर्यायों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा को अक्षय और अव्यक्त कहा गया है और उसे ही परमगति भी कहते हैं । वही परमधान भी है, वही परमात्मस्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने पर पुनः निवर्तन नहीं होता ।16" उसे अक्षय ब्रह्म परमतत्व स्वभाव (आत्मा की स्वभाव दशा) और अध्यात्म भी कहा जाता है । गीता की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है, परम शान्ति का अधिस्थान है। जैन दर्शनिकों के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि मोक्ष सुखावस्था है। गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अत्यन्त सुख (अनन्त सौख्य) का अनुभव करता है। यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में जिस सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मात्र दुःखाभाव रूप सुख है । वरन् वह अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य अनश्वर सुख है । 20
बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूप:--भगवान बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या है ? यह प्रश्न प्रारंभ से विवाद का विषय रहा है। स्वयं बौद्ध दर्शन के आवन्तर संप्रदायों में भी निर्वाण के स्वरूप को लेकर आत्यंतिक विरोध पाया जाता है। आधुनिक विद्वानों ने भी इस संबंध में परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले हैं, जो एक तुलनात्मक अध्येता को अधिक कठिनाई में डाल देता है । वस्तुतः इस कठिनाई का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण का विभिन्न दष्टियों से भिन्न-भिन्न प्रकार से विवेचन किया जाना है। श्री पुसेन एवं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त ने बौद्ध १५. (अ) यंप्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । गीता ८।२१
(ब) यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । गीता १५।६। (स) मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । __नाप्नुवन्ति महात्मानं संसिद्धि परमां गताः ।
गीता ८।१५ १६. गीता-८।२०।२१ १७. अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावो हेयात्ममुच्यते। -गीता ८।३ १८. शान्तिं निर्वाणपरमां--गीता ६।१५ १९. सुखेन ब्रह्म संस्पर्शमत्यन्तं सुखमरनुत्ते । गीता ६।२८ २०. सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । गीता ६।२१ २१. देखिये-इन साईक्लोपेडिया आफ इथिक्स एण्ड रीलिजियन । २२. आस्पेक्टस् आफ महायान इन रिलेशन टु हीनयान ।
१३. सव्वेसरा नियटं ठति, तक्क जत्थ न विज्जइ, मई तत्थन
गहिया ओए अप्प इट्ठाणस्स खेयन्ने--उवप्प न विज्जएअरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि ।
-आचारांग १।५।६।१७१ तुलना कीजिएयतो वाचोनिवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ___-तेत्तरीय २।९ न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा
-मुण्डका ३।१८ १४. ततः पदं तत्परिमागितव्य यस्मिन् गता न विवर्तन्ति भ्यः
-गीताज्ञान ४
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निर्वाण के संबन्ध में विद्वानों के दृष्टिकोणों को निम्न रूप से वर्गीकृत किया है:-- १. निर्वाण एक अभावात्मक तथ्य है। २. निर्वाण अनिर्वचनीय अव्यय अवस्था है । ३. निर्वाण की बुद्ध ने कोई व्याख्या नहीं दी है। ४. निर्वाण भावात्मक; विशुद्ध एवं पूर्ण चेतना की अवस्था है। बौद्ध दर्शन के अवान्तर प्रमुख सम्प्रदायों का निर्वाण के स्वरूप के संबंध में भिन्न प्रकार से दृष्टि भेद है--
१. वैभाषिक संप्रदाय के अनुसार निर्वाण संस्कारों या संस्कृत धर्मों का अभाव है क्योंकि संस्कृत धर्मता ही अनित्यता है, यही धर्मों का बन्धन है, यही दुःख है, लेकिन निर्वाण तो दुःख निरोध है, बन्धनाभाव है और इसलिये वह एक असंस्कृत धर्म है और असंस्कृत धर्म के रूप में उसकी भावात्मक सत्ता है । वैभाषिक मत में निर्वाण के स्वरूप को अभिधर्म कोष व्याख्या में निम्न प्रकार से बताया गया है "निर्वाण नित्य, असंस्कृत स्वतंत्र सत्ता, पृथक्मत, सत्य पदार्थ द्रव्य सत् है।"23 निर्वाण में संस्कार या पर्यायों का अभाव होता है लेकिन यहां संस्कारों के अभाव का अर्थ अनस्तित्व नहीं है। वरन् एक भावात्मक अवस्था ही है । निर्वाण असंस्कृत धर्म है। प्रो० शरवात्स्की ने वैभाषिक निर्वाण को अनन्त मृत्यु कहा है । उनके अनुसार निर्वाण आध्यात्मिक अवस्था नहीं है, वरन् चेतना एवं क्रिया शून्य जड़ अवस्था है। लेकिन श्री एस० के० मुकर्जी प्रो० नलिनाक्ष दत्त 25 और प्रो० मति 20 ने शरवात्स्की के इस दृष्टिकोण का विरोध किया है । इन विद्वानों के अनुसार वैभाषिक निर्वाण निश्चित रूप से एक भावात्मक अवस्था है। जिसमें यद्यपि संस्कारों का अभाव होता है लेकिन फिर भी उसकी असंस्कृत धर्म के रूप में भावात्मक सत्ता होती है। वैभाषिक निर्वाण में चेतना का अस्तित्व होता है या नहीं है ? यह प्रश्न भी विवादास्पद है। प्रो० शरवात्स्की निर्वाण दशा में चेतना का अभाव मानते हैं. लेकिन प्रो० मुकर्जी इस संबन्ध में एक परिष्कारित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार यशोमित्र की अभिधर्मकोष की टीका के आधार पर निर्वाण की दशा में विशद्ध मानस या चेतना रहती है। विद्वतवर्य बलदेव उपाध्याय ने बौद्ध दर्शन मीमांसा में वैभाषिक बौद्धों के एक तिब्बतीय उपसंप्रदाय का वर्णन किया है । जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में केवल वासनात्मक एवं क्लेशोत्पादक (सासव) चेतना का ही अभाव होता है। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण की दिशा में अना
स्रव विशुद्ध चेतना का अस्तित्व बना रहता है । वैभाषिकों के इस उपसंप्रदाय का यह दृष्टिकोण जैन विचारणा के निर्वाण के अति समीप आ जाता है । क्योंकि यह भी जैन विचारणा के समान निर्वाणावस्था में सत्ता (अस्तित्व) और चेतना (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग) दोनों को स्वीकार करता है । वैभाषिक दृष्टिकोण निर्वाण की संस्कारों की दृष्टि से अभावात्मक, द्रव्य सत्यता की दृष्टि से भावात्मक एवं बौद्धिक विवेचना की दृष्टि से अनिर्वचनीय मानता है । फिर भी उसकी व्याख्याओं में निर्वाण का भावात्मक या सत्तात्मक पक्ष अधिक उभरा है।
२. सौत्रान्तिक सम्प्रदाय--वैभाषिक के अनुसार यह मानते हुए भी कि निर्वाण संस्कारों का अभाव है, यह स्वीकार नहीं करता कि है कि असंस्कृत धर्म की कोई भावात्मक सत्ता होती है । इनके अनुसार केवल परिवर्तनशीलता ही तत्व का यथार्थ स्वरूप है । अतः सौत्रान्तिक निर्वाण की दशा में किसी असंस्कृत अपरिवर्तनशील नित्य तत्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता में ऐसा करना बुद्ध के अनित्यवाद और क्षणिकवाद की अवहेलना करना है । प्रो० शरवात्स्की के अनुसार सौत्रान्तिक सम्प्रदाय में "निर्वाण का अर्थ है जीवन की प्रक्रिया का समाप्त हो जाना जिसके पश्चात् ऐसा कोई जीवनशून्य तत्व शेष नहीं रहता है जिसकी जीवन प्रक्रिया समाप्त हो गई है।" निर्वाण क्षणिक चेतना प्रवाह का समाप्त हो जाना है जिसके समाप्त हो जाने पर कुछ भी अवशेष नहीं रहता । क्योंकि इनके अनुसार परिवर्तन ही सत्य है । परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त तत्व की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। और निर्वाणदशा में परिवर्तनों की श्रृंखला समाप्त हो जाती है अतः उसके परे कोई सत्ता शेष नहीं रहती है । इस प्रकार सौत्रान्तिक निर्वाण मात्र अभावात्मक अवस्था है । वर्तमान में बर्मा और लंका के बौद्ध निर्वाण को अभावात्मक अनस्तित्व के रूप में देखते हैं । निर्वाण से भावात्मक, अभावात्मक और अनिर्वचनीय पक्षों की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक विचारणा निर्वाण के अभावात्मक पक्ष पर अधिक बल देती है । यद्यपि इस प्रकार सौत्रान्त्रिक सम्प्रदाय का निर्वाण का अभावात्मक दृष्टिकोण जैन विचारणा के विरोध में जाता है, लेकिन सौत्रान्तिक में भी एक ऐसा उपसंप्रदाय था जिसके अनुसार निर्वाण पूर्णतया अभावात्मक दशा नहीं था । उनके अनुसार निर्वाण अवस्था में भी विशुद्ध चेतना पर्यायों का प्रवाह रहता है । यह दृष्टिकोण जैन विचारणा की इस मान्यता के निकट आता है जिसके अनुसार निर्वाण की अवस्था में भी आत्मा में परिणामीपन बना रहता है अर्थात् मोक्षदशा में आत्मा में चेतन्य ज्ञान धारा सतत रूप से प्रवाहित होती रहती है ।
३. विज्ञानवाद : योगाचार-महायान के प्रमुख ग्रंथ लंकावतार के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्तिविज्ञानों की अप्रवृत्तावस्था
२३. द्रव्यं सत् प्रतिसंख्या निरोधः सत्यचतुष्टय-निर्देश-निर्द्धिष्ट
त्वात् मार्ग सत्येव इति वैभाषिकाः -यशोमित्र-अभिधर्म
कोष व्याख्या पृष्ठ १७ २४. बुद्धिस्ट निर्वाण पृष्ठ २७ २५. आस्पेक्ट आफ महायान इन रिलेशन टू हीनयान पृष्ठ १६२ २६. सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म पृष्ठ २७२-७३ २७. बुद्धिस्ट फिलासफी आफ युनिवर्सल फ्लक्स पृष्ठ २५२
२८. (अ) ए कम्पेरेटिव स्टडी आफ दी कानसेप्ट आफ लीबरेशन
___ इन इंडियन फिलासफी, पृष्ठ ६९ (ब) बौद्ध दर्शन मीमांसा, पृष्ठ १४७
४८
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है, चित्तप्रवृत्तियों का निरोध है ।" स्थिरमति के अनुसार निर्वाण क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का क्षय है । असंग के अनुसार निवृत्त चित्त (निर्माण) अचित्त है, क्योंकि यह विषयों का ग्राहक नहीं है। वह अनुपलम्भ है क्योंकि उसका कोई बाह्य आलंबन नहीं है और इस प्रकार आलंबन रहित होने से वह लोकोत्तर ज्ञान है । दौष्ठुल्य अर्थात् आवरण (क्लेशावरण और क्षेयावरण) के नष्ट हो जाने सेनिवृत्ति (आयविज्ञान) परावृत नहीं होता, प्रवृत नहीं होता ।" वह अनावरण अनास्वधातु है, लेकिन असंग केवल इस निषेधात्मक विवेचन से संतुष्ट नहीं होते, वे निर्वाण की अनिर्वचनीय और भावात्मक व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं । निर्वाण अचिन्त्य है, क्योंकि तर्क से उसे जाना नहीं जा सकता लेकिन अचिन्त्य होते हुए भी वह कुशल है, शाश्वत है, सुखरूप है, विमुक्तकाय है और धर्मास्य है । इस प्रकार विज्ञानवादी मान्यता में निर्वाण की अभावपरक और भावपरक व्याख्याओं के साथ-साथ उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुतः निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप के विकास का श्रेय विज्ञानवाद और शून्यवाद को ही है । लंकावतार सूत्र में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वोच्च विकास देखा जा सकता है। लंकावसूत्र के अनुसार निर्वाण विचार की कोटियों के परे है लेकिन फिर भी विज्ञानवाद - निर्वाण को उस आधार पर नित्य माना जा सकता है कि निर्वाण लाभ से उत्पन्न ज्ञान होता है ।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर विज्ञानवादी निर्वाण का जैन विचारणा में निम्न अर्थों में साम्य है । १. निर्वाण चेतना का अभाव नहीं है वरन् विशुद्ध चेतना की अवस्था है । २. निर्वाण समस्त संकल्पों का क्षय है वह चेतना की निर्विकल्पावस्था है । ३. निर्वाणावस्था में भी चैतन्य धारा सतत प्रवाहमान रहती है ( आत्मपरिणामीपन ) । 33 यद्यपि डा. चन्द्रधर शर्मा ने आलय विज्ञान को अपरिवर्तनीय या कूटस्थ माना है लेकिन श्री बल्देव उपाध्याय उसे प्रवाहमान या परिवर्तनशील मानते हैं 134 ४. निर्वाणावस्था सर्वज्ञता की अवस्था है । जैन विचारणा के अनुसार उस अवस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन होते हैं । असंग ने महायान सूत्रालंकार में धर्मकाय जो निर्वाण की पर्यायवाची है, को स्वाभाविक काय कहा है । 35 जैन विचारणा भी मोक्ष को स्वभाव दशा कहता है । स्वाभाविक काय और स्वभावदशा अनेक अर्थों में अर्थसाम्य रखते हैं ।
२९. लंकावतार सूत्र - २।६२
३०.
ज्ञेयावरण प्रहाणमपि मोक्ष सर्वशत्याधिगमार्थम्- स्थिरमति त्रिंशिको वि. भा. पू. १५ ३१. अचित्तोऽनुपलम्भोऽसौ ज्ञानं लोकोचरं चतत । आश्रयस्यपरावृतिवातदोष्ठुल्य हानि-२९
३२. स एवानासी धातुरविनयः कुशलो ध्रुवः निधिका ३० ३३. ए क्रिटीकल सर्वे आफ इंडियन फिलासफी । ३४. बौद्ध दर्शन मीमांसा
३५. महायान सूत्रालंकार ९१६०, महायान - शान्तिभिक्षु पृ. ७३
श्री. मि. सं. २५०३
शून्यवादः -- बौद्ध दर्शन के माध्यमिक संप्रदाय में निर्वाण के अनिर्वचनीय स्वरूप का सर्वाधिक विकास हुआ है। जैन तथा अन्य दार्शनिकों ने शून्यता का अभावात्मक अर्थ ग्रहण कर माध्यमिक निर्वाण को अभावात्मक रूप में देखा है। लेकिन यह उस संप्रदाय के दृष्टिकोण को समझने में सबसे बड़ी भ्रान्ति ही कही जा सकती है। माध्यमिक दृष्टि से निर्वाण अनिर्वचनीय है, चतुष्कोटि विनिर्मुक्त है, वही परम तत्व है। वह न भाव है, न अभाव है । 38 यदि वाणी से उसका निर्वचन करना ही आवश्यक हो तो मात्र यह कहा जा सकता है कि निर्वाण अप्रहाण, असम्प्राप्त, अनुच्छेद, अशाश्वत, अनिरुद्ध, अनुत्पन्न है । " निर्वाण को भाव रूप इसलिये नहीं माना जा सकता है कि भावात्मक वस्तु या तो नित्य होगी या अनित्य होगी। नित्य मानने पर निर्वाण के लिये प्रयासों का कोई अर्थ नहीं होगा । अनित्य मानने पर बिना प्रयास ही मोक्ष होगा । निर्वाण को अभाव भी नहीं कहा जा सकता, अन्यथा तथागत के द्वारा उसकी प्राप्ति का उपदेश क्यों दिया जाता । निर्वाण को प्रहाण सम्प्राप्त भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा निर्वाण कृतक एवं कालिक होगा और यह मानना पड़ेगा कि वह काल विशेष में उत्पन्न हुआ और यदि वह उत्पन्न हुआ तो वह जरामरण के समान अनित्य ही होगा । निर्वाण को उच्छेद या शाश्वत भी नहीं कहा जा सकता अन्यथा शास्ता के मध्यम मार्ग का उल्लंघन होगा और हम उच्छेदवाद या शाश्वतवाद की मिथ्यादृष्टि से ग्रसित होंगे। इसलिये माध्यमिक नय में निर्वाण भाव और अभाव दोनों नहीं है। वह तो सर्व संकल्पनाओं का क्षय है, प्रपंचोपसमता है ।
बौद्ध दार्शनिकों एवं वर्तमान युग के विद्वानों में बौद्ध दर्शन में निर्वाण के स्वरूप को लेकर जो मतभेद दृष्टिगत होता है, उसका मूल कारण बुद्ध द्वारा निर्वाण का विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विवाद रूप से कथन किया जाना है। पाली - निकाय में निर्वाण के इन विविध स्वरूपों का विवेचन उपलब्ध होता है । उदान नामक लघु ग्रन्थ से ही निर्वाण के इन विविध रूपों को देखा जा सकता है।
!
निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है: -- इस संबन्ध में बुद्ध वचन इस प्रकार हैं-'भिक्षुओं (निर्माण) अजात, अमृत, अकृत, असंस्कृत है । भिक्षुओ ! यदि यह अजात, अमूर्त, अकृत, असंस्कृत नहीं होता, तो जात, मूर्त और संस्कृत का व्युपशम नहीं हो सकता । भिक्षुओ ! क्योंकि वह अजात, अमूर्त, अकृत और असंस्कृत है इसलिये जात मूर्त कृत और संस्कृत का व्युपशम जाना जाता
1
३६. भावाभाव परामर्शक्षयो निर्वाणं उच्यते । माध्यमिक कारिका वृत्ति पृ. ५२४ उद्धृत दी सेंट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म - टी. आर. व्ही. मूर्ती पृ. २७४
३७. अप्रहाणम सम्प्राप्त मनुच्छिन्नमशाश्वतम् । अनिरुद्ध मनुत्पन्नेम तन्निर्वाणमुच्यते ।।
- माध्यमिक कारिका वृत्ति पृ. ५२१
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है । धम्मपद में निर्वाण को परम सुख, अच्युत स्थान, अमृत पद" कहा गया है जिसे प्राप्त कर लेने पर न च्युति का भय होता है न शोक होता है उसे शांत संसारोपशम एवं सुखपद भी कहा गया है ।1 इतिवृत्तक में कहा गया वह ध्रुव, न उत्पन्न होने वाला, शोक और राग रहित है । सभी दुखों का वहाँ निरोध हो जाता है। वह संस्कारों की शान्ति एवं सुख है। आचार्य बद्धघोष निर्वाण की भावात्मकता का समर्थन करते हुए विशुद्धिमग्ग में लिखते हैं “निर्वाण नहीं है ऐसा नहीं कहना चाहिये । प्रमेव और जरामरण के अभाव से नित्य है । अशिथिल पराक्रम सिद्ध होने से विशेष ज्ञान के द्वारा प्राप्त किए जाने से और सर्वज्ञ के वचन तथा परमार्थ से निर्वाण अविद्यमान नहीं है 143
निर्वाण की अभावात्मकता:--निर्वाण की अभावात्मकता के संबन्ध में उदान के रूप में निम्न बुद्ध वचन हैं "लोहे के धन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं सो तुरन्त बुझ जाती हैंकहाँ गई कुछ पता नहीं चलता। इसी प्रकार काम बन्धन से मुक्त हो निर्वाण पाये हुए पुरुष की गति कोई भी पता नहीं लगा सकता ।
शरीर छोड़ दिया, संज्ञा निरुद्ध हो गई, सारी वेदनाओं को भी बिलकुल जला दिया।
संस्कार शान्त हो गए, विज्ञान अस्त हो गया ।।46 लेकिन दीप शिखा और अग्नि के बुझ जाने अथवा संज्ञा के निरुद्ध हो जाने का अर्थ अभाव नहीं माना जा सकता। आचार्य बुद्धघोष विशुद्धिमग्ग में कहते हैं कि निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है । प्रो. कीथ एवं प्रो. नलिनाक्ष दत्त अग्निवच्छगोत्तसुत्त के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि बुझ जाने का अर्थ अभावात्मकता नहीं है वरन् अस्तित्व की रहस्यमय अवर्णनीय अवस्था है। प्रोफेसर कीथ के अनुसार निर्वाण अभाव नहीं वरन् चेतना का अपने मूल (वास्तविक शुद्ध) स्वरूप में अवस्थित होना है। प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त के शब्दों में "निर्वाण की अग्नि शिखा के बुझ जाने से, की जाने वाली तुलना समुचित है क्योंकि भारतीय चिन्तन में आग के बुझ जाने से तात्पर्य उसके अनस्तित्व से न
हो कर उसका स्वाभाविक शुद्ध अव्यक्त अवस्था में चला जाना है जिसमें कि वह अपने दृश्य प्रगटन के पूर्व रही हुई थी। बौद्ध दार्शनिक संघभद्र का भी यही निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कहने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण अभाव है ।47' मिलिन्द प्रश्न के अनुसार भी निर्वाण धातु अस्ति धर्मः (अत्थिधम्म) एकान्त सुख एवं अप्रतिभाग है उसका लक्षण स्वरूपतः नहीं बताया जा सकता किन्तु गुणतः दृष्टांत के रूप में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार जल प्यास को शान्त करता है निर्वाण त्रिविध तृष्णा को शान्त करता है। निर्वाण को अकृत कहने से भी उसकी एकान्त अभावात्मकता सिद्ध नहीं होती । आर्य (साधक) निर्वाण का उत्पाद नहीं करता, फिर भी वह उसका साक्षात्कार (साक्षीकरोति) एवं प्रतिलाभ (प्राप्नोति) करता है । वस्तुतः निर्वाण को अभावात्मकरूप में इसलिये कहा जाता है कि अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में भावात्मक भाषा की अपेक्षा अभावात्मक भाषा अधिक संगत होती है।
निर्वाण की अनिर्वचनीयता:-निर्वाण की अनिर्वचनीयता के सम्बन्ध में निम्न बुद्ध वचन उपलब्ध है--"भिक्षुओ! न तो मैं उसे अगति और न गति कहता हूं, न स्थिति और न च्युति कहता हूँ, उसे उत्पत्ति भी नहीं कहता हूँ। वह न तो कहीं ठहरा है न प्रवर्तित होता है और न उसका कोई आधार है । यही दुःखों का अन्त है।"48 भिक्षुओ ! 40 अनन्त का समझना कठिन है, निर्वाण का समझना आसान नहीं है । ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है उसे (रागादिक्लेश) कुछ नहीं है ।50 जहाँ (निर्वाण) जल, पृथ्वी, अग्नि और वायु नहीं ठहरती, वहाँ न तो शुक्र और न आदित्य प्रकाश करते हैं । वहाँ चन्द्रमा की प्रभा नहीं है, न वहाँ अंधकार ही होता है। जब क्षीणश्रव भिक्षु अपने आपको जान लेता है तब रूप-अरूप, तथा सुख-दुख से छूट जाता है। उदान का यह वचन हमें गीता के उस कथन की याद दिला देता है जहाँ श्री कृष्ण कहते हैं कि जहाँ न पवन बहता है, न चद्र, सूर्य, प्रकाशित होते हैं, जहाँ पर पुनः पुनः इस संसार में आया नहीं जाता वही मेरा (आत्मा का) परमधाम (स्वस्थान) है। ४७. बौद्ध धर्म दर्शन पृ. २९४ पर उद्धृत ४८. उदान ८१ ४९. मूल पाली में यहाँ पाठातर है-तीन पाठ मिलते हैं ।
१. अनत्तं २. अनतं ३. अनन्तं । हमने यहाँ "अनन्तं" शब्द का अर्थ ग्रहण किया है । आदरणीय काश्यपजी ने अनत (अनात्म) पाठ को अधिक उपयुक्त माना है लेकिन अटकथा
में दोनों ही अर्थ लिए गये हैं। ५०. उदान ८।३ ५१. यत्थ आपो न पठवी तेजो वायो न गाथति ।
न तथ्य सुक्का जोवन्ति आदिच्चो न प्पकामति ।।
न तथ्य चन्दिमा भाति तमो तथ्य न विज्जति । उदान १।१० तुलना कीजिए-न तम्दासयते सूर्यों न शशांको न पावक ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तध्दाम परमं मम ।। गीता १५।६
३८. उदान ८१३ पृ. ११०-१११ : ऐसा ही वर्णन इतिवृत्तक
२।२।६ में भी है। ३९. धम्मपद २०३,२०४ (निर्वाण परम सुखं) ४०. अमतं सन्ति निब्वाण पदमत्वुतं-सुत्त-निपात-पारायण वग्ग ४१. धम्मपद ३६८ ४२. इत्तिवृत्तक २।२।६ ४३. विशुद्धिमग्ग (परिच्छेद १६ भाग २ पृ. ११९ से १२१)
हिन्दी अनुवाद भिक्षु धर्मरक्षित । ४४. उदान पाटलिग्राम वर्ग ८1१० ४५. उदान ८।९ ४६. विशुछिमग्ग परिच्छेद ८ एवं १६
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बौद्ध निर्वाण की यह विशद विवेचना हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि प्रारंभिक बौद्ध दर्शन का निर्वाण अभावात्मक तथ्य नहीं था। इसके लिये निम्न तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
१. निर्वाण यदि अभाव मात्र होता तो वह तृतीय आर्य सत्य कैसे होता ? क्योंकि अभाव आर्यचित्त का आलंबन नहीं हो सकता।
२. तृतीय आर्य सत्य का विषय द्रव्य सत् नहीं है तो उसके उपदेश का क्या मूल्य होगा?
३. यदि निर्वाण मात्र अभाव है तो उच्छेद दृष्टि सम्यक् दृष्टि होगी--लेकिन बुद्ध ने तो सदैव ही उच्छेद दृष्टि को मिथ्यादृष्टि कहा है।
४. महायान की धर्मकाय की धारणा और उसकी निर्वाण से एकरूपता तथा विज्ञानवाद के आलय-विज्ञान की धारणा निर्वाण की अभावात्मक अवस्था के विपरीत पड़ते हैं । अतः निर्वाण का तात्विक स्वरूप अभाव सिद्ध नहीं होता है । उसे अभाव या निरोध कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें वासना या तृष्णा का अभाव है । लेकिन जिस प्रकार रोग का अभाव, अभाव मात्र है फिर भी सद्भूत है, उसे आरोग्य कहते हैं। उसी प्रकार का तृष्णा अभाव भी सद्भूत है, उसे सुख कहा जाता है । दूसरे उसे अभाव इसलिये भी कहा जाता है कि साधक में शाश्वतवाद को मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न नहीं हो। राग का प्रहाण होने से निर्वाण में मैं (अतः) और मेरापन (अत्ता) नहीं होता इसी दृष्टिकोण के आधार पर उसे अभाव कहा जाता है । निर्वाण राग का, अंह का पूर्ण विगलन है। लेकिन अहं.या ममत्व की समाप्ति को अभाव नहीं कहा जा सकता। निर्वाण की अभावात्मक कल्पना अनत्त का गलत अर्थ समझने से उत्पन्न हुई है । बौद्ध दर्शन में अनात्म (अनत्त) शब्द आत्म (तत्व) का अभाव नहीं बताता वरन् यह बताता है कि जगत में अपना या मेरा कोई नहीं है।
अनात्म का उपदेश आसक्ति (ममत्व बुद्धि) के प्रहाण के लिये, तृष्णा के क्षय के लिये है । निर्वाण "तत्व" का अभाव नहीं वरन् अपनेपन या अहं का अभाव है। वह वैयक्तिकता का अभाव है, व्यक्तित्व का नहीं । अनत्त (अनात्मा) वाद की पूर्णता यह बताने में है कि जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मेरा या अपना कहा जा सके । सभी अनात्म हैं इस शिक्षा का सच्चा अर्थ यही है कि मेरा कुछ भी नहीं है । क्योंकि जहाँ मेरापन (अत्त भाव) आता है वहाँ राग एवं तृष्णा का उदय होता है। स्व की पर में अवस्थिति होती है, आत्मदृष्टि (ममत्व) उत्पत्न होती है । लेकिन यहीं आत्मदृष्टि स्व का पर में अवस्थित होना अथवा राग एवं तृष्णा की वृत्ति बन्धन है, जो तृष्णा है वही राग है और जो राग है वही अपनापन है। निर्वाण में तृष्णा का क्षय होने से राग नहीं होता, राग नहीं होने से अपनापन (अत्ता) भी नहीं होता । बौद्ध निर्वाण की अभावात्मकता का सही अर्थ इम अपनेपन का अभाव है, वह तत्व का अभाव नहीं है वस्तुतः तत्व लक्षण की दृष्टि से निर्वाण एक भावात्मक अवस्था है। मात्र वासनात्मक पर्यायों के अभाव के कारण ही वह अभाव कहा जाता है। अतः प्रोफेसर कीथ और नलिनाक्ष दत्त की यह मान्यता कि बौद्ध निर्वाण अभाव नहीं है, बौद्ध विचारणा की मूल विचारदृष्टि के निकट ही है । यद्यपि बौद्ध निर्वाण एक भावात्मक तथ्य है फिर भी भावात्मक भाषा उसका यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है क्योंकि भाव किसी पक्ष को बताता है और पक्ष के लिये प्रतिपक्ष की स्वीकृति अनिवार्य है जब कि निर्वाण तो पक्षातिक्रान्त है । निषेधमूलक कथन की यह विशेषता होती है कि उसके लिये किसी प्रतिपक्ष की स्वीकृति आवश्यक नहीं होती अतः अनिर्वचनीय का निर्वचन करने में निषेधात्मक भाषा का प्रयोग ही अधिक समीचीन है। इस निषेधात्मक विवेचनशैली ने निर्वाण की अभावात्मक कल्पना को अधिक प्रबल बनाया है । वस्तुतः निर्वाण अनिर्वचनीय है।
(अपरिग्रह : एक अनुचिन्तन......पृष्ठ ४० का शेष) सकता है । बलप्रयोग से नहीं परन्तु स्वेच्छापूर्वक संग्रहित वस्तु तो कोई मनुष्य भूखा, गृहहीन एवं असहाय न रहे । भगवान् का योग्य वितरण करना ही अपरिग्रहवाद है। आज की सुख- महावीर का यह अपरिग्रह सिद्धान्त ही मानव जाति का कल्याण सुविधाएँ मुट्ठी भर लोगों पास एकत्र हो गई हैं और शेष समाज कर सकता है । भूखी जनता के आँसू पोंछ सकता है । यह सिद्धान्त अभावग्रस्त है । न उसकी भौतिक उन्नति हो रही है और न आधुनिक युग की ज्वलंत समस्याओं का सामयिक सर्वोत्तम समाआध्यात्मिक । सब ओर भुखमरी की महामारी जनता का सर्वग्रास धान है। विश्व शान्ति के लिये इससे बढ़ कर और कोई साधन करने के लिये मह फैलाये हुवे है। यदि प्रत्येक मनुष्य के पास केवल नहीं है। उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सुख-सुविधा की सामग्री रहे
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कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
उपाध्याय अमरमुनिजी
भारतीय दर्शन में कर्म और उसके फल के सम्बन्ध में गंभीरता से विचार किया गया है। कर्म क्या हैं ? और उसका फल कैसे मिलता है? तथा किस कर्म का क्या फल मिलता है? इस विषय में भारतीय दर्शन ने और भारत के तत्वदर्शी चिंतकों ने जितना गंभीर विचार किया है, उतना और वैसा पाश्चात्य दर्शन में नहीं किया गया है। भारतीय दर्शन में भी जैन-परंपरा ने कर्म और उसके स्वरूप के सम्बन्ध में जो गहन और विशाल चिन्तन प्रस्तुत किया है, वह विश्व के दार्शनिक इतिहास में वस्तुतः अद्भुत एवं विलक्षण है।
कर्म, कर्म का फल और कर्म करने वाला, इन तीनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैन दर्शन के अनुसार जो कर्म का कर्ता होता है, वही कर्मफल का उपभोक्ता भी होता है। जो जीव जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार वह शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल प्राप्त करता है, संसार की विचित्रता का आधार यदि कोई तत्व है, तो वह कर्म ही है।
मुझसे एक प्रश्न पूछा गया है कि आत्मा बलवान है? अथवा कर्म बलवान है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्राचीन साहित्य में बहुत कुछ कहा गया है। बहुत कुछ विचार किया गया है। बात यह है कि कर्म एक जड़ पुद्गल है। उसमें अनन्त शक्ति है। दूसरी ओर आत्मा भी एक चेतन तत्व है। और उसमें भी अनन्त शक्ति है। यदि कर्म में शक्ति नहीं होती तो संसार के ये नानाविध विचित्र खेल भी न होते। कर्म में शक्ति है तभी तो वह जीव को नाना गतियों में और विविध योनियों में परिभ्रमण कराता है। कर्म की शक्ति से इन्कार नहीं किया जा सकता है, किन्तु मूल प्रश्न यह है कि कर्म का कर्ता है आत्मा, आत्मा स्वयं अपने किये हुवे कर्मों से बद्ध हो जाता है। उस बंधन से मुक्त होने की शक्ति भी आत्मा में ही है। कर्म-पुद्गल
चैतन्य शक्ति का सर्वथा सर्वदा घात नहीं कक सकते। अनन्त गगन में मेघों की कितनी भी घनघोर घटा छा जाएं, फिर भी वे सूर्य की प्रभा का सर्वथा विलोप नहीं कर सकती। बादलों में सूर्य को आच्छादित करने की शक्ति तो है किन्तु उसके आलोक को सर्वथा विलुप्त करने की शक्ति उन बादलों में भी नहीं है। यही बात आत्मा के सम्बन्ध में भी है। कर्म में आत्मा के सहज स्वाभाविक गुणों को आच्छादित करने की शक्ति है, इसमें जरा भी असत्य नहीं है, पर आत्मा को आच्छादित करने वाले कर्म कितने भी प्रगाढ़ क्यों न हों, उनमें आत्मा के एक भी गुण को मूलतः नष्ट करने की शक्ति नहीं है। दूसरी बात यह है, कि जैसे सूर्य स्वयं मेघों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो जाता है और फिर वही सूर्य अपनी शक्ति से उन्हें छिन्न-भिन्न भी कर डालता है। इसी प्रकार आत्मा भी स्वयं कर्मों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो आता है और फिर स्वयं ही उन कर्मों को निर्जरा द्वारा छिन्न-भिन्न भी कर डालता है। कर्म की शक्ति अनन्त मानने पर भी उसकी अपेक्षा आत्मा की अधिक है। कर्म शक्तिशाली होते हवे भी जड़ है और आत्मा चैतन्यरूप है। अत: आत्मा का संकल्प ही कर्म को उत्पन्न करता है और आत्मा का संकल्प ही कर्म को नष्ट कर डालता है। आपके जितने भी कर्म हैं, चाहे वे कितने ही बलवान क्यों न हों, लेकिन आत्मा के बल के आगे वे कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि कर्म को जो भी रूप मिला है वह आत्मा के ही संकल्पों से मिला है। आपको अपने इस वर्तमाल जीवन में कर्मों का जो रूप मिला है, यदि उसे आप नष्ट करना चाहते हैं तो उसे नष्ट करने की शक्ति आपके अन्दर है। लेकिन जब तक आत्मा में अज्ञान है और जब तक उसे अपने स्वरूप का भान नही है, तभो तक वह बन्धन में बद्ध रहता है। आपकी आत्मा केवल आत्मा ही नहीं है, बल्कि वह परमात्मा भी है। कर्म की शक्ति से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।
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आवश्यकता इस बात की है, कि आप अनन्त अनन्त काल से विस्मृत अपने स्वरूप और अपनी शक्ति का परिबोध प्राप्त करने का प्रयत्न करें। इसी पर आपकी सफलता है ।
कुछ लोग कहा करते हैं, कि कर्म जब हलके हों तब आत्मा की शुद्धि हो, आत्मा पवित्र हो । और आत्मा की विशुद्धि एवं पवित्रता होने पर हो कर्म हल्के होते हैं। यह एक अन्योन्याश्रय दोष है । आत्मा की शुद्धि होने पर कर्म का हल्का होना और कर्म के हल्के होने पर आत्मा को विशुद्धि होना, इस प्रकार का अन्योन्याश्रित चिन्तन जैन दर्शन का मूल चिन्तन नहीं है। आत्मा की विशुद्धि और आत्मा की विमुक्ति कर्म के हल्के होने पर नहीं, बल्कि आत्मा के प्रसुप्त पुरुषार्थ को जागृत करने से होती है । भोग भोग कर कर्मों को हल्का करने की प्रक्रिया, एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका कभी अन्त नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा जितना अपने कर्मों को भोगता है, उससे भी कहीं अधिक वह भोगकाल में राग-द्वेष में उलझ कर नये कर्म का बन्ध कर लेता है। इसलिये कर्म टूटें तो आत्मा विशुद्ध हों, यह सिद्धान्त नहीं है। बल्कि सिद्धान्त यह है कि आत्मा का शुद्ध पुरुषार्थं जागे तो कर्म हल्के हों ।
शास्त्रों में दो प्रकार की मुक्ति मानी है-- द्रव्य-मुक्ति और भाव मुक्ति दव्य मुक्ति प्रतिक्षण होती रहती है, क्योंकि आत्मा प्रतिक्षण अपने पूर्व कर्मों को भोग रहा है, किन्तु भाव-मुक्ति के बिना वास्तविक विमुक्ति नहीं मिल सकती है। द्रव्य की अपेक्षा भाव का मूल्य अधिक है, क्योंकि आत्मा के प्रसुप्त पुरुषार्थ को प्रबुद्ध करने की शक्ति द्रव्य में नहीं है, भाव में ही है, आत्मा का ज्ञान चेतना में ही है। आत्मा का जो स्वोन्मुखी पुरुषार्थ है। और आत्मा का जो वीतराग जागरण है, वस्तुतः वही भावमोक्ष है। साधना के द्वारा ज्योंही विकार-मुक्ति रूप भाव-मोक्ष होता है, साथ ही जड़ कर्म पुद्गलों से विमुक्तिस्वरूप, द्रव्यमोक्ष भी हो जाता है।
मुख्य प्रश्न भाव-मोक्ष का है। द्रव्य-मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करने की अलग से जरूरत नहीं है। कल्पना कीजिये, घर में अंधेरा है, दीपक जलाते ही प्रकाश हो जाता है। यहां पर क्या हुआ। पहले अंधकार नष्ट हुआ, भिर प्रकाश आया अथवा पहले प्रकाश हुआ और फिर अंधकार नष्ट हुआ । वस्तुतः दोनों के अलग-अलग कार्य नहीं हैं। प्रकाश का हो जाना ही अंधकार का नष्ट हो जाना है। और अंधकार का नष्ट हो जाना ही प्रकाश का हो जाना है । सिद्धान्त यह है कि प्रकाश और अंधकार का जन्म और मरण साथ-साथ ही होता है । जिस क्षण प्रकाश जन्मता है, उसी क्षण अंधकार मरता है। इधर प्रकाश होता है और अंधकार नष्ट हो जाता है। एक ही समय में एक का जन्म होता है और दूसरे का मरण हो जाता है। यही बात द्रव्यमोक्ष और भाव-मोक्ष के सम्बन्ध में भी है। ज्योंही भाव-मोक्ष हो जाता है त्यों ही द्रव्यमोक्ष भी हो जाता है। भाव-मोक्ष और द्रव्य-मोक्ष का जन्म एक साथ ही होता है, उसमें क्षणमात्र का भी अन्तर नहीं रह जाता ।
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कहने का अभिप्राय यह है कि, कर्मों से लड़ने के पहले आत्मा के पुरुषार्थ को जागृत करने की आवश्यकता है । अंधकार को नष्ट करने के लिये शस्त्र ले कर लड़ने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि प्रकाश को जागृत करने की ही आवश्यकता है। प्रकाश को जागृग कर दिया तो अंधकार स्वयं ही नष्ट हो गया । प्रकाश की सत्ता के समक्ष अंधकार को सत्ता खड़ी नहीं रह सकती। यही बात कर्म और आत्मा के पुरुषार्थ के सम्बन्ध में भी है। आत्मा के पुरुषार्थ को जागृत करो। यही सबसे बड़ी साधना है । और यही कर्म-विमुक्ति का मूल कारण है।
कुछ साधक इस प्रकार के हैं, जो कर्मों को बलवान मान कर चलते हैं और अपनी-अपनी आत्मा की शक्ति को भूल कर कर्मशक्ति के सामने झुक जाते हैं वे अपनी साधना में हताश और निराश हो जाते हैं। एक ओर वे साधना भी करते जाते हैं और दूसरी ओर वे कर्म की शक्ति का रोना भी रोते हैं। यदि आपके मन में यह दृढ़ विश्वास है कि आत्मा दुर्बल है, वह कुछ नहीं कर सकती, कर्म ही बलवान है, कर्म में ही अनन्त शक्ति है, तो आप हजारों जन्मों की साधना से भी कर्मों से विमुक्त नहीं हो सकते। यह बड़ी विचित्र बात है कि हम साधना तो करें, किन्तु साधना की अनन्त शक्ति में हमारा विश्वास न हो। यह तो वही बात हुई कि हम भोजन करके किसी से पूछे कि हमारी भूख कब मिटेगी और पानी पी कर यह पूछें कि हमारी प्यास कब मिटेगी। साधना करके यह पूछना कि मेरी विमुक्ति कब होगी । यह एक विचित्र प्रश्न है। इस प्रकार का प्रश्न उसी आत्मा में उठता है जिसे अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं होता। एक साधक की आत्मा में इस प्रकार का दृढ़ विश्वास जागृत होना चाहिये कि काम, क्रोध आदि बिकल्प चाहे कितने ही प्रबल क्यों न हों, पर अन्त में, मैं उन पर विजय प्राप्त कर लूंगा आत्मा का जागरण ही हमारी साधना का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिये ।
मुझे एक बार एक वयोवृद्ध श्रावक से बातचीत करने का अवसर मिला। वे बहुत बड़े साधक थे। संभवतः मेरे जन्मकाल से भी पहले ही वे साधना मार्ग पर चल पड़े थे। उस समय मैं वयस्क था और वे वयोवृद्ध थे। न जाने वह अपने जीवन में कितनी सामायिक कर चुके थे, कितने व्रत और उपवास कर चुके थे, कितने प्रतिपण कर चुके थे और न जाने कितनी माला जप चुके थे। परन्तु उनके जीवन में शान्ति और संतोष कभी नहीं आया । धन में और परिजन में उनकी बड़ी तीव्र आसक्ति थी । एक दिन जबकि वे सामायिक करके बैठे हुए थे, तो इन्होंने मेरे से पूछा -- महाराजजी ! आप बड़े ज्ञानी हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, आप यह बतालाइये कि मैं भव्य हूं या अभव्य हूं। मैंने अपने मन में सोचा - " यह क्या प्रश्न है ? यह प्रश्न तो साधना के प्रारम्भ में ही तय हो जाना चाहिये था।" मैंने उस वृद्ध श्रावक से कहा — जब तुम्हारे जीवन में आध्यात्मिक पुरुषार्थ जागा, जब तुम्हारे जीवन में संसार की वासना को दूर करने की भावना जागी और जब तुम्हारे जीवन में भगवान के सिद्धान्तों पर आस्था जागी, तभी यह समझ लेना चाहिये था कि मैं भव्य हूं, अभव्य
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नहीं हैं। यदि तुम्हारे मन में भगवान के वचनों में आस्था है, प्रशम है, भाव है और कषाय का उपशम भाव है तो समझ लो कि तुम भव्य हो, इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है। इसके विपरीत यदि इतनी लम्बी साधना के बाद भी तुम्हारे जीवन में यह सब कुछ नहीं है, तो तुम अभव्य हो। भव्य-अभव्य का निर्णय कोई दूसरा नहीं कर सकता, स्वयं अपनी आत्मा ही कर सकती है। मैं भव्य हूं अथवा अभव्य हूं यह जानने के पहले यह जानो कि मेरे जीवन में शान्ति और संतोष आया है अथवा नहीं । अन्तरचेतना को जगाने का प्रयास करो। शून्य मन से की जाने वाली साधना वस्तुतः साधना नहीं है।
कुछ विचारक इस प्रकार भी सोचा करते हैं कि कहां अनन्त जन्मों के अनन्त कर्म और कहां इस छोटे से जीवन की छोटी-सी साधना। भला, अनन्त जीवन के अनन्त कर्म एक जीवन में कैसे क्षय किये जा सकते हैं ? जो लोग इस प्रकार सोचा करते हैं, मेरे जीवन में उन लोगों के सोचने का यह स्वस्थ तरीका नहीं है। मैं पूछता हूं, कि किसी पर्वत की एक ऐसी गुफा है जिजमें हजारों वर्षों से अंधकार रह रहा है, किन्तु ज्यों ही उस गुफा में दीपक की ज्योत जलाई कि हजारों वर्षों का अंधकार एक क्षण मात्र में ही विलुप्त हो जाता है। जरा विचार तो कीजिये कहां हजारों वर्षों का अंधकार और कहां एक नन्ही-सी दीपक-ज्योति । वस्तुतः जैसा कि मैंने आपको पहले कहा था कि प्रकाश के समक्ष खड़े रहने की शक्ति अंधकार में हो ही नहा सकती। इसी प्रकार आत्म-जागरण की ज्योति प्रकट होते ही अनन्त-अनन्त जन्म के कर्म भी क्षण भर में ही नष्ट हो सकते हैं। इसमें जरा भी संदेह की बात नहीं है। गजसुकुमार ने कितने जन्मों के कर्मों को अल्पकाल की साधना से ही नष्ट कर दिया था। अर्जुन मालाकार के कर्म कितने घोर थे, केवल अल्प साधना से ही उसने अपने कर्मों को कितनी तीव्रता के साथ नष्ट किया। मानव मन के किसी भी परापेक्षी विकल्प में यह शक्ति नहीं है कि आत्मा के स्वोन्मुखी संकल्प के सामने वह खड़ा रह सके। कर्म कितना ही प्रबल क्यों न हो, वह कितना भी पुराना क्यों न हो, किन्तु आत्म-जागरण की ज्योति के समक्ष वह टिक नहीं सकता है। आत्मा में अनन्त शक्ति है। उसमें परमात्मा होने की भी शक्ति है, किन्तु तभी जबकि उसे अपने पर विश्वास हो, अपनी शक्ति पर आस्था हो, अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ में निष्ठा हो।
कर्म बलवान है, यह सत्य है, क्योंकि तभी तो वे जीव को नाच नचाते हैं। पर याद रखिये, कर्म को उत्पन्न करने वाला यह आत्मा ही है। आत्मा की शक्ति के समक्ष कर्म की शक्ति अवश्य ही हीन कोटि की है। आत्मा में अपने आपको बाँधने की शक्ति भी है और इस आत्मा में अपने को मुक्त करने की शक्ति भी है। आत्मा न जाने कितनी बार नरकों में गया और न जाने कितनी बार स्वर्गों में गया, तथा न जाने कितनी बार यह पशु-पक्षी बना और न जाने कितनी बार इसने मानव तन पाया। जन्म और मरण का यह खेल आज का नहीं, अनन्त
अनन्त काल का है। इस खेल को बनाने वाला भी आत्मा है और इस खेल को मिटाने वाला भी यह आत्मा ही है। जब यह आत्मा अज्ञान और मिक्ष्यात्व आदि विकल्पों से अभिभूत हो जाता है, तब वह अपने स्वरूप को भूल बैठता है। अपने स्वरूप को भूल बैठना ही सारी बुराइयों को जड़ है। आत्म-स्वरूप को समझना यही हमारी साधना है। जब तक साधक अपने आपको नहीं समझता है, तब तक न वह अपने मन के विकल्पों पर विजय प्राप्त कर सकता है और न वह कर्म की घनघोर घटाओं को ही छिन्न-भिन्न कर सकता है। प्रत्येक साधक के हृदय में यह दृढ़ विश्वास होना ही चाहिये कि मैं अनन्त शक्ति संपन्न हूँ। और मुझमें आज से नहीं, अनन्तकाल से अनन्त शक्ति रही है। प्रश्न शक्ति प्राप्त करने का नहीं है, वह तो आज से क्या, अनन्त से ही प्राप्त है। मुख्य प्रश्न है, उस शक्ति के जागरण का। आत्म-शक्ति के जागृत होते ही कर्म छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
जैन दर्शन में कर्म के संबंध में जो कुछ कहा गया है और जो कुछ लिखा गया है, उसे इस लेख में पूरी तरह बताना कदापि संभव नहीं है। फिर भी मैं संक्षेप में आपको यह बतलाने का प्रयत्न करूंगा कि जैन दर्शन के अनुसार कर्म का स्वरूप क्या है और कर्म का फल कर्म करने वाले आत्मा को किस रूप में मिलता है। इस संदर्भ में यह बात भी विचारणीय है कि आत्मा कर्म कैसे बांधता है और किस साधना के द्वारा उससे कैसे विमुक्ति प्राप्त कर सकता है। कर्म के सम्बन्ध में जितना मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और दार्शनिक चिन्तन जैन-दर्शन के ग्रन्थों में किया गया है, वह विश्लेषण और चिन्तन अन्यत्र आपको इस रूप में उपलब्ध नहीं हो सकेगा। कर्म को परिभाषा
कर्म की परिभाषा करते हए कहा गया है कि आत्म-सबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म कहा जाता है और द्रव्य कर्म के बन्ध के हेत रागादि भाव, भाव-कर्म माना गया है। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने अपने स्वरचित कर्म-विपाक ग्रंथ में कर्म का स्वरूप बतलाते हुवे कहा है--
"कीरह जीएण हेउहि, जेणं तो भण्णए कम्म"
कर्म का यह लक्षण द्रव्य कर्म और भाव कर्म दोनों में घटित होता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग--इन पांच कारणों से आत्म-प्रदेशों में परिस्पंदन (कंपन) होता है, जिससे उसी आकाश-प्रदेश में स्थित अनन्तानन्त कर्म-योग्य पुदगल जीव के साथ संबद्ध हो जाता है। वह आत्म-संबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म कहा जाता है। जीव और कर्म का यह सम्बन्ध नीर-क्षीरवत् एवं अग्नि-लोह-पिण्डवत् होता है। जीव और कर्म का सम्बन्ध कर्म-शास्त्र में दो प्रकार का माना गया है- अनादि अनन्त और अनादि-सान्त । सब भव्यों में तो नहीं, प्रायः निकट भव्य जीवों में अनादि-सान्त सम्बन्ध रहता है और अभव्य जीवों में तो एकान्तत: अनादि अनन्त सम्बन्ध रहता है। क्योंकि अभव्य
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जीवों की मुक्ति कभी नहीं होती है और भव्यों में अनन्त आत्मा अतीत में मोक्ष गये हैं और भविष्य में अवश्य जावेंगे। इसी आधार पर जीव का कर्म के साथ दो प्रकार का सम्बन्ध बताया गया है। कर्म के भेद
कर्मों के दो भेद हैं-द्रव्य कर्म और भाव-कर्म । कर्म वर्गणा केपुदगलों का सूक्ष्म विकार द्रव्य कर्म है और आत्मा के राग-द्वेष आदि वैभाविक परिणाम भाव कर्म हैं। राग-द्वेष आदि वैभाविक परिणामों का उपादान कारण जीव है, इसलिये उपादान रूप से भाव कर्म का कर्ता जीव ही है। द्रव्य कर्म में जीव के शुभाशुभ भाव निमित्त कारण हैं। इसलिये निमित्त रूप से द्रव्य कर्म का कर्ता भी जीव ही है। भाव कर्म के होने में पूर्वबद्ध द्रव्य निमित्त हैं और वर्तमान में बध्यमान द्रव्य कर्म में भाव-कर्म निमित्त हैं। दोनों में निमित्त-नैमित्तिक रूप कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है। सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमीचन्द्र ने स्वप्रणीत “गोम्मटसार" ग्रंथ के कर्मकाण्ड में द्रव्य कर्म और भाव कर्म का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है
"पोग्गलपिण्डो दव्वं तत्सत्ति भाव-कम्मं तु" पुदगल पिंड को द्रव्य कर्म और उसकी फल देने को शक्ति विशेष को भाव कर्म कहा है। कर्म के अस्तित्व में प्रमाण
प्रश्न होता है कि हम इस तथ्य को कैसे समझे कि कर्म का अस्तित्व होता है ? कम भौतिक होते हुए भी इतना सूक्ष्म तत्व है कि इन्द्रियों से उसे जाना और देखा नहीं जा सकता। जो ज्ञान ऐन्द्रियक नहीं है, उन्हीं के द्वारा कर्म का साक्षात्कार हो सकता है। हां, हेतु और तर्क द्वारा भी कर्म के अस्तित्व को प्रमाणित किया जा सकता है।
संसार के सभी जीव एक जैसे नहीं होते, जीवों की यह विविधता ही और संसार की यह विचित्रता ही, कर्म के अस्तित्व में सबसे बड़ा प्रमाण है। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्म के अस्तित्व में प्रमाण इस प्रकार माना गया है कि संसार के सभी जीव आत्म-स्वरूप की अपेक्षा से भले ही एक हैं फिर भी वे भिन्न-भिन्न योनियों में और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में होने से पृथक्-पृथक् स्थिति एवं दशा में होते हैं। एक राजा है, दूसरा रक। एक विद्वान है, दूसरा मूर्ख । एक निरोग है, दूसरा रोगी। एक सुखी है, दूसरा दुखी। एक सुन्दर है, दूसरा कुरूप । अधिक क्या, एक ही माता के उदर से उत्पन्न हुए और एक ही परिस्थिति में पले हुए दो बालकों में से एक धनी हो जाता है, दूसरा निर्धन रह जाता है। एक मूर्ख रह जाता है, दूसरा विद्वान हो जाता है। यह विषमता, यह विचित्रता, और यह असमानता अकारण नहीं हो सकती। उसका कुछ न कुछ कारण अवश्य होना चाहिये और वह कारण दूसरा कुछ नहीं कर्म ही है। जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्म
के बिना सुख-दुखः भी नहीं हो सकते। संसार में सुख और दुःख प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। दो व्यक्ति जो कि समान स्थिति में रहते हैं, उनमें भी देखा जाता है कि एक सुखी है और दूसरा दुखी रहता है। आखिर इस सुख दुःख का कारण कोई तो अवश्य होना ही चाहिये और वह कारण कर्म ही हो सकता है।
प्रश्न किया जा सकता है, कि सुख-दुःख कारण तो इस लोक में प्रत्यक्ष ही है, उसके लिये कर्म मामने को आवश्यकता ही क्या? जिसके पास वस्त्र मिल जाने पर सुखानुभूति होती है। जिसके पास भोजन नहीं है, उसे भोजन मिल जाने पर सुख का अनुभव होता है। इसी प्रकार मान और सम्मान भी सुख के कारण बन जाते हैं। इसके विपरीत भौतिक साधनों के अभाव में मनुष्य दुःख का अनुभव करने लगता है. अत: भौतिक वस्तुओं के सदभाव सुख और असद्भाव से दुःख प्रत्यक्ष देखा जाता है। फिर उस सुख-दुःख के कारण रूप में अदृश्यभूत कर्म की कल्पना क्यों की जाय? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार से किया गया है कि सुख एवं दुःख के बाह्य-दृष्ट साधनों से भी परे हमें सुख-दुःख के कारणों की खोज इसलिये करनी पड़ती है कि सुख-दुःख की समान सामग्री प्राप्त होने पर भी मनुष्यों के सुख-दुःख में अन्तर देखा जाता है। एक व्यक्ति सुख के कारण प्राप्त करने पर भी सुखी नहीं रहता और दूसरा व्यक्ति दुःख के साधन मिलने पर भी सुखी रहता है। अतः बाह्य वस्तुओं के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा किसी आंतरिक कारण से ही इसका समाधान किया जा सकता है। एक व्यक्ति को जीवन में सुख के कारण प्राप्त होते हैं और दूसरे को दुःख के कारण । इसका भी कोई नियामक होना चाहिये और वह कर्म ही हो सकता है। कर्म के अस्तित्व में एक यह भी तर्क दिया जाता है कि दान आदि क्रिया फलवती होती है क्योंकि वह चेतन के द्वारा की जाती है। जो क्रिया चेतन के द्वारा की जाती है वह अवश्यमेव फलवती होती है। जैसे, कृषि आदि। दान आदि क्रिया भी चेतनकृत होने से फलवती होनी चाहिये । दान आदि क्रिया का फल शुभ कर्म के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता। जिस प्रकार अध्ययन क्रिया का फल ज्ञान संचय होता है, उसी प्रकार कर्म के फल सुख-दुःख आदि ही होते हैं। कर्म की मूर्तता
जैन दर्शन की परिभाषा के अनुसार द्रव्य कर्म को मूर्त माना गया है। जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श यह चार गुण हों वह पदार्थ मूर्त होता है। पुद्गल में ये चारों गुण विद्यमान हैं । अतः छः द्रव्यों में पुद्गल को मूर्त द्रव्य माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य कर्म पुद्गलजन्य है, अतः मूर्त है। कारण यदि मूर्त है तो उसका कार्य भी मूर्त ही होता है। जैसे मिट्टी एक मूर्त उपादान कारण है तो उसका कार्य घट भी मूर्त ही होता है। कारण के अनुसार कार्य ही होता है। कारण मूर्त है तो कार्य भी मूर्त ही होगा और यदि कारण अमूर्त है तो कार्य भी अमूर्त ही होगा।
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- कारण से जैसे कार्य का अनुमान होता है उसी प्रकार कार्य से भी कारण का अनुमान होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर आदि कार्य मूर्त हैं तो उनका कारण कर्म भी मूर्त ही होना चाहिये । ज्ञान अमूर्त है तो उसका उपादान कारण आत्मा भी अमूर्त है। दोनों ही पद्धतियों से कर्म का मूर्तत्व सिद्ध है।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि जिस प्रकार शरीर आदि कर्म के कार्य हैं उसी प्रकार सुख-दुःख भी कर्म के ही कार्य हैं, पर वे अमर्त हैं। फिर आपका कार्य-कारण सम्बन्धी उक्त नियम स्थिर कैसे रह सकता है ? उक्त शंका का समाधान यही है कि सुख-दु:ख आदि आत्मा के धर्म हैं और आत्मा ही उनका उपादान कारण है। कर्म तो सुख-दु:ख में निमित्त कारण ही होता है, उपादान कारण नहीं। अतः उक्त नियम में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती। कर्म की मूर्तता सिद्ध करने के लिये कुछ तर्क इस प्रकार दिये जा सकते हैं-कर्म मूर्त हैं, क्योंकि उसके सम्बन्ध से सुख-दुःख आदि का भान होता है, जैसे भोजन से। कर्म मूर्त है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से वेदना होती है, जैसे अग्नि से । कर्म मूर्त है क्योंकि उसके सम्बन्ध से आत्मा को सुख-दुःख भोगना पड़ता है। यदि कर्म अमूर्त होता तो वह गगन जैसा होता। जैसे गगन से किसी का उपघात और अनुग्रह नहीं होता, वैसे कर्म से भी उपधात और अनुग्रह नहीं होना चाहिये । परन्तु कर्म से होने वाले उपघात और अनुग्रह प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, अतः कर्म मूर्त ही है। मूर्त का अमूर्त पर प्रभाव ___ यदि कर्म मूर्त है. जड़ है, तो फिर वह अमूर्त एवं चेतन स्वरूप आत्मा पर अपना प्रभाव कैसे डालता है ? जिस प्रकार वायु और अग्नि का अमूर्त आकाश पर किसी भी प्रकार प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। इसका उत्तर इतना ही है कि जैसे अमूर्त ज्ञान आदि गुणों पर मूर्त मदिरा आदि का प्रभाव पड़ता है, वैसे ही अमूर्त जीव पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ सकता है। उक्त प्रश्न का एक दूसरा समाधान इस प्रकार से किया गया है कि कर्म के सम्बन्ध से आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। क्योंकि संसारी आत्मा का अनादि काल से कर्म-संतति से सम्बन्ध है। इस अपेक्षा से आत्मा का सर्वथा अमूर्त नहीं है, अपितु कर्म-संबद्ध होने के कारण मूलतः अमूर्त होते हुए भी कथंचित् मूतं है। इस दृष्टि से अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म का उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है। अमूर्त का मूर्त से सम्बन्ध
प्रश्न होता है कि आत्मा अपने मूल स्वरूप से जब अमूर्त है और कर्म जब अपने स्वरूप से मूर्त है, तब फिर अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म से संबन्ध कैसे हो जाता है । उक्त प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि-जैसे मूर्त घट का अमूर्त आकाश के साथ संबन्ध असंभव नहीं है, वैसे ही अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म से संबन्ध असंभव नहीं कहा जा सकता है । इस संबन्ध में एक दूसरा तर्क यह है कि, जिस प्रकार अंगूठी आदि भूर्त द्रव्य का आकुंचन आदि अमूर्त क्रिया से संबन्ध होता है, उसी प्रकार अमूर्त जीव का मूर्त
कर्म के संबन्ध होने में किसी भी प्रकार विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती। एक तीसरा तर्क यह भी हो सकता है कि आत्मा और कर्म दोनों अगुरु-लघु होते हैं, इसलिए उनका परस्पर संबन्ध हो सकता है। जीव और कर्म का संबन्ध
जीव और कर्म का संबन्ध कैसे होता है इस संबन्ध में तीन प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं-पहला है नीर-क्षीरवत् । जैसे जल और दुग्ध परस्पर मिलकर एकमेक हो जाते हैं, वैसे ही कर्म पुद्गल के परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते है। दूसरा विचार है-अग्निलौहपिंडवत् । जिस प्रकार लौह-पिंड को अग्नि में डाल देने से उसके कण-कण में अग्नि परिव्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा के असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त-अनन्त कर्मवर्गणा के कर्म दलित संबन्ध हो जाते हैं, संश्लिष्ट हो जाते हैं । तीसरा विचार है-सर्प-कंचुकीवत् । जिस प्रकार सर्प का उसकी कांचली के साथ संबन्ध होता है उसी प्रकार आत्मा का भी कर्म के साथ संबन्ध हो जाता है। यह तृतीय अभिमत जैन परंपरा के हो एक विद्रोही विचारक सातवें निझव गोष्ठामाहिल का है । मूलतः जैन दर्शन में और कर्म ग्रन्थों में इस अभिमत को स्वीकार नहीं किया गया है। कर्म और उसका फल
हम देखते हैं कि संसार में जितने भी जीव हैं, वे दो ही प्रकार के कर्म करते हैं-शुभ और अशुभ । अच्छा और बुरा। कर्मशास्त्र के अनुसार शुभ कर्म का फल अच्छा और अशुभ कर्म का फल बुरा होता है । आश्चर्य है, कि सभी प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, पर बुरे कर्म का दुखः रूप फल कोई जीव नहीं चाहता । अस्तु यहाँ एक प्रश्न उठता है, कि कर्म स्वयं जड़ है, वह चेतन नहीं है, तब वह फल कैसे दे सकता है ? क्योंकि फल-प्रदान चेतन की बिना प्रेरणा के नहीं हो सकता। और यदि स्वयं कर्म कर्ता चेतन ही भोग लेता है, तो वह सुख तो भोग सकता है, परन्तु दुःख स्वयं कैसे भोगेगा? दुःख तो कोई भी नहीं चाहता। अतः कर्मवादी अन्य दार्शनिकों ने कर्मफल भोग करने वाला ईश्वर माना है। परन्तु जैन दार्शनिक इस प्रकार के ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । फिर जैन-दर्शन में कर्म-फल की क्या व्यवस्था रहेगी? इसका समाधान इस प्रकार से किया गया है कि-प्राणी अपने अशुभ कर्म का फल नहीं चाहता यह ठीक है, पर यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चेतन आत्मा के संसर्ग से अचेतन में कर्म में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे कर्म अपने शुभाशुभ फल को नियत समय पर स्वयं ही प्रकट कर देता है। जैन दर्शन यह नहीं मानता कि जड़ कर्म चेतन के संसर्ग बिना भी फल देने में समर्थ है। कर्म स्वयं ही अपना फल प्रदान करने की सामर्थ्य रखता है। प्राणी जैसे भी कर्म करते हैं, उनका फल उन्हें उन्हीं के कर्मों द्वारा स्वतः मिल जाता है । जिस प्रकार जीभ पर मिर्च रखने के बाद उसकी तिक्तता का अनुभव स्वतः होता है । व्यक्ति के न चाहने पर मिर्च का स्वाद नहीं आए, यह नहीं हो सकता । उस मिर्च के तीखेपन का अनुभव कराने के लिए किसी अन्य चेतन आत्मा की
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भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यही बात कर्म-फल भोगने के विषय में भी समझ लेनी चाहिये । इस संबन्ध में बौद्ध-साहित्य में भी बहुत कुछ कहा गया है। मिलिन्द और नागसेन
राजा मिलिन्द स्थविर नागसेन से पूछता है कि-भन्ते ! क्या । कारण है कि सभी मनुष्य समान नहीं होते हैं । कोई कम आयुवाला, कोई दीर्घ आयु वाला, कोई बहुत रोगी, कोई नीरोग, कोई भद्दा, कोई बड़ा सुन्दर, कोई प्रभावहीन, कोई प्रभावशाली, कोई निर्धन, कोई धनी, कोई नीच कुल वाला, कोई मूर्ख और कोई विद्वान क्यों होते हैं ? उक्त प्रश्नों का उत्तर स्थविर नागसेन ने इस प्रकार दिया है-राजन् ! क्या कारण है कि सभी वनस्पति एक जैसी नहीं होती कोई खट्टी, कोई नमकीन, कोई तीखी कोई कड़वी, कोई कसेली और कोई मीठी क्यों होती हैं ? मिलिन्द ने कहा-मैं समझता हूँ कि बीजों के भिन्न-भिन्न होने से ही वनस्पति भी भिन्न-भिन्न होती हैं। नागसेन ने कहा-राजन् ! जीवों की विविधता का कारण भी उनका अपना कर्म ही होता है। सभी जीव अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं। सभी जीव अपने कर्मों के अनुसार ही नाना गति और योनियों में उप्पन्न होते हैं। राजा मिलिन्द और नागसेन के इस संवाद से भी यही सिद्ध होता है कि कर्म अपना फल स्वयं ही प्रदान करता है। "मिलिन्द-प्रश्न" एक बौद्धग्रन्थ है। उसमें यह संवाद दिया गया है ।
चेतन का संबन्ध पाकर कर्म स्वयं ही अपना फल देता है और आत्मा उसका फल भोगता है । जैन-दर्शन का यह सिद्धान्त बौद्ध-दर्शन में भी स्वीकार किया गया है, जिसका स्पष्ट उल्लेख हमें राजा मिलिन्द और स्थविर नागसेन के संवाद में उपलब्ध होता है । जैन दर्शन के अनुसार किसी भी कर्म के फल भोग के लिए कर्म और उसके करने वाले के अतिरिक्त किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि कर्म करते समय ही जीव के परिणाम के अनुसार इस प्रकार का संस्कार पड़ जाता है, जिससे प्रेरित होकर जीव अपने कर्म का फल स्वयं भोग लेता है और कर्म भी चेतन से संबद्ध होकर अपने फल को अपने आप ही प्रकट कर देता है। कुछ दार्शनिक यह भी मानते हैं कि-काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ इन पांच समवायों के मिलने से जीव कर्म-फल भोगता है। इन सब तर्कों से सिद्ध हो जाता है कि जीव के संयोग से कर्म अपना फल स्वतः ही देता है। शुभ और अशुभ कर्म
जैन दर्शन के अनुसार कर्म वर्गणा के परमाणु लोक में सर्वत्र भरे हैं। उनमें शुभत्व और अशुभत्व का भेद नहीं है, फिर कर्म पुद्गल परमाणुओं में शुभत्व अशुभत्व का भेद कैसे पैदा हो जाता है ? इसका उत्तर यह है कि-जीव अपने शुभ और अशुभ परिमाणों के अनुसार कर्म वर्गणा के दलिकों को शुभ और अशुभ रूप में परिणित करता हुवा ही ग्रहण करता है । इस प्रकार जीव के परिणाम एवं विचार ही, कर्मों की शुभता एवं अशुभता के कारण हैं । इसका अर्थ यह है कि-कर्म पुद्गल स्वयं अपने आप में शुभ
और अशुभ नहीं होता बल्कि जीव का परिणाम ही उसे शुभ और अशुभ बनाता है। दूसरा कारण है, आश्रय का स्वभाव । कर्म के आश्रयभूत संसारी जीव का भी यह वैभाविक स्वभाव है कि वह कर्मों को शुभ एवं अशुभ रूप में परिणित करके ही ग्रहण करता है। इसी कारण कर्मों में भी कुछ ऐसी योग्यता रहती है कि वे शभ एवं अशभ परिणाम सहित जीव से ग्रहण किए जाकर ही, शुभ एवं अशुभ रूप में परिणित होते रहते हैं, बदलते रहते हैं एवं परिवर्तित होते रहते हैं। पुद्गल शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में कैसे परिणत हो जाते हैं ? इसका समाधान इस प्रकार से किया गया है:
प्रकृति, स्थिति, और अनुभाग की विचित्रता तथा प्रदेशों के अल्पबहुत्व का भी भेद जीव कर्म ग्रहण के समय ही करता है। इस तथ्य को समझने के लिये आहार का दृष्टान्त दिया जाता है । सर्प
और गाय को भले ही एक जैसा भोजन एवं आहार दिया जावे, किन्तु उन दोनों की परिणति विभिन्न प्रकार की होती है। कल्पना कीजिए सर्प और गाय को एक साथ और एक जैसा दूध पीने के लिये दिया गया, वह दूध सर्प के शरीर में विष रूप में परिणित होता है और गाय के शरीर में दूध, दूध रूप में परिणित होता है। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है किआहार का यह स्वभाव है कि वह अपने आश्रय के अनुसार परिणत होता रहता है । एक ही समय में पड़ी वर्षा की बूदों का आश्रय भेद से भिन्न-भिन्न परिणाम देखा जाता है। जैसे कि स्वाति नक्षत्र में गिरी बंदें सीप के मुख में जाकर मोती बन जाती है और सर्प के मख में विष। यह तो भिन्न-भिन्न शरीरों में आहार की विचित्रता दिखलाई किन्तु एक शरीर द्वारा ग्रहण किया हुवा एक आहार अस्थि, मजजा, एवं मलमूत्र आदि सार-असार विविध रूपों में परिणित हो जाता है। इसी प्रकार कर्म भी जीव से ग्रहण किए जाने पर शुभ एवं अशुभ रूप में परिणित हो जाते हैं। एक ही पुद्गल वर्गणा में विभिन्नता का हो जाना सिद्धान्स बाधित नहीं कहा जा सकता है। जीव का कर्म से अनादि सम्बन्ध
प्रश्न होता है, आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है । इस चेतन आत्मा का इस जड़ कर्म के साथ संबंध कब से है ? इसके समाधान में कहा गया है कि-कर्म संतति का आत्मा के साथ अनादि काल से संबंध है, यह नहीं बता सकते हैं, कि जीव से कर्म का सम्बन्ध सर्वप्रथम कब और कैसे हुवा । शास्त्र में यह कहा गया है, कि जीव सदा क्रियाशील रहता है। वह प्रतिक्षण मन, वचन और काय से योग रूप व्यापार में प्रवृत्त रहता है । अतः वह प्रति समय कर्म बंध करता ही रहता है । इस प्रकार अमुक कर्म विशेष दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का संबंध सादि भी कहा जा सकता है। परन्तु कर्म संतति की अपेक्षा से जीव के साथ कर्म का अनादि काल से संबंध है। प्रशिक्षण पुराने कर्म क्षय होते रहते हैं और नये कर्म बंधते रहते हैं ।
यदि कर्म संतति को सादि मान लिया जाय तो फिर कर्म संबंध से पूर्व जीव सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त दशा में रहा होगा। फिर वह कर्म से लिप्त कैसे हो गया ? यदि अपने शुद्ध स्वरूप में
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स्थित जीव कर्म से लिप्त हो सकता है तो सिद्ध आत्मा भी कर्म से लिप्त क्यों नहीं हो जाते ? इस प्रकार संसार और मोक्ष का कोई महत्व नहीं रहेगा, कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। इसके अतिरिक्त कर्म संतति को सादि मानने वालों को यह भी बताना होगा कि कब से कर्म आत्मा के साथ लगे और क्यों लगे। इस प्रकार किसी प्रकार का समाधान नहीं किया जा सकता। इन सब तर्कों से यही सिद्ध होता है कि आत्मा के साथ कर्म का अनादि काल से संबंध रहा है।
कर्म बन्ध के कारण
प्रश्न होता है कि यह मान लिया जाय कि जीव के साथ कर्म का अनादि संबंध है । परन्तु इस तथ्य को स्वीकार करने पर यह प्रश्न सामने आता है कि बन्ध किन कारणों से होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कर्म ग्रंथों में दो अभिमत उपलब्ध होते हैंपहला कर्म बन्ध कारण पांच मानता है-जैसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । दूसरा केवल कर्म बन्ध के कारण दो ही मानता है-- कषाय और योग। यहां पर यह समझ लेना चाहिये कि कषाय में मिथ्यात्व अविरति और प्रमाद अन्तर्गत हो जाते हैं। अतः संक्षेप की दृष्टि से कर्मबंधन के हेतु दो और विस्तार की अपेक्षा से कर्म बन्धन के हेतु पांच हैं। दोनों अभिमतों में कोई मोलिक भेद नहीं है।
कर्म-ग्रंथों में बंध के चार भेद बताए गये हैं । - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । इनमें से प्रकृति और प्रदेश का बंध कषाय से होता है । और स्थिति एवं अनुभाग का बंध योग से होता है। जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही प्रवृत्ति से अपने बनाये हुए जाले में फंस जाती है, उसी प्रकार यह जीव भी अपनी राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति से अपने आपको कर्म पुद्गल के जाल में फंसा लेता है। कल्पना कीजिये, एक व्यक्ति अपने शरीर में तेल लगा कर यदि धूलि में लेटे तो धूलि उसके शरीर में चिपक जाती है, इसी प्रकार आत्मा के राग-द्वेष रूप परिणामों से जीव भी पुद्गलों को ग्रहण करता है और कषाय भाव के कारण उन कर्म-दलिकों का आत्म प्रदेशों के साथ संश्लेष हो जाता है । और वस्तुतः यही बन्ध है । जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में कर्म बन्ध के कारण माया, अविद्या, अज्ञान और वासना को माना गया है। परन्तु शब्द भेद और प्रक्रिया भेद होने पर भी मूल भावनाओं में अधिक मौलिक भेद नहीं है। न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में मिथ्याज्ञान को, योगदर्शन में प्रकृति और पुरुष के संयोग को, वेदान्त में अविद्या एवं अज्ञान को तथा बौद्ध दर्शन में वासना को कर्म बन्ध का कारण माना गया है ।
मोक्ष के साधन
भारतीय दर्शन में जिस प्रकार कर्म-बन्ध और कर्म-बन्ध के कारण माने गए हैं, उसी प्रकार मुक्ति और मुक्ति के उपाय भी माने गए हैं। मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण प्राय: समान अर्थों में प्रयुक्त होते हैं । बन्धन से विपरीत दशा को ही मुक्ति एवं मोक्ष कहा जाता है। यह ठीक है, कि जीव के साथ कर्म का प्रतिक्षण बन्ध होता है । पुरातन
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कर्म अपना फल दे कर आत्मा से अलग हो जाते हैं और नये कर्म प्रति समय बंधते जाते हैं। परन्तु इसका फलितार्थ यह नहीं निकालना चाहिए कि आत्मा कभी कर्मों से मुक्त होगी ही नहीं। जैसे स्वर्ण और मिट्टी परस्पर मिल कर एकमेव हो जाते हैं, किन्तु ताप आदि की प्रक्रिया के द्वारा जिस प्रकार मिट्टी को अलग करके स्वर्ण शुद्ध को अलग कर लिया जाता है, उसी प्रकार आत्मा अध्यात्म सधना के कर्म फल से छूट कर शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो सकता है। यदि एक बार कर्म-विमुक्त हो जाता है, तो फिर कभी वह कर्म - बद्ध नहीं होता । क्योंकि कर्म-बन्ध के कारणीभूत साधनों का सर्वथा अभाव हो जाता है । जैसे बीज के सर्वथा जल जाने पर उससे फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही कर्म रूपी बीज के जल जाने पर उससे संसार रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जो आत्मा एक दिन बद्ध हुआ है, वह आत्मा एक दिन कर्मों से विमुक्त भी हो सकता है ।
प्रश्न होता है कि कर्म-बन्धन से छूटने के उपाय क्या हैं ? उक्त प्रश्न के समाधान में जैन दर्शन मोक्ष एवं मुक्ति के तीन साधन एवं उपाय बतलाता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । कहीं पर यह भी कहा गया है कि "ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः" ज्ञान और क्रिया से मोक्ष की उपलब्धि होती है। ज्ञान और क्रिया को मोक्ष हेतु मानने का यह अर्थ नहीं है कि सम्यग्दर्शन को मानने से इंकार कर दिया हो। जैन दर्शन के अनुसार जहां जहां पर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है, वहां पर सम्यग्दर्शन अवश्य ही होता है । आगमों में दर्शन, ज्ञान और चारित्र के साथ तप को भी मोक्ष प्राप्ति एवं मुक्ति की उपलब्धि में उपाय व कारण माना गया है। इस अपेक्षा से जैन दर्शन में मोक्ष के हेतु दो एवं चार सिद्ध होते हैं । परन्तु गंभीरता से विचार करने पर यह ज्ञात होता है, कि वास्तव में मोक्ष के हेतु तीन दी हैं - श्रद्धान, ज्ञान और आचरण । बद्ध कर्मों से मुक्त होने के लिए साधक संवर की साधना से नवीन कर्मों के आगमन को रोक देता है और निर्जरा की साधना के पूर्व संचित कर्मों को धीरे धीरे नष्ट कर देता है । समस्त कर्मों का सर्वतोभावेन नष्ट हो जाना ही मोक्ष एवं मुक्तिकर्म-विमुक्त आत्मा ही जैन दर्शन के अनुसार जन्त में परमात्मा हो जाता है ।
कर्मवाद की उपयोगिता
प्रश्न होता है कि आखिर जीवन में कर्मवाद की उपयोगिता क्या है ? कर्मवाद को क्यों स्वीकार किया जाय ? उक्त प्रश्नों का समाधान करते हुए कहा गया है कि- कर्मवाद मानव जीवन में आशा एवं स्फूर्ति का संचार करता है। मानव को विकास पथ पर बढ़ाने के लिए उत्साह प्रदान करता है। कर्मवाद की सबसे बड़ी उपयोगिता यही है कि वह मानव आत्मा को दीनता एवं हीनता के गहरे गड्ढे से निकाल कर विकास के चरम शिखर पर पहुंचाने की सतत प्रेरणा करता है। जब मानव जोवन हताश और निराश हो जाता है, अपने चारों ओर उसे अंधकार ही अंधकार दृष्टिगोचर होता है, जबकि गन्तव्य मार्ग का परिज्ञान भी विलुप्त हो जाता है, उस समय उस विव्हल आत्मा को कर्मवाद धैर्य और शांति प्रदान करता है। वह कहता है कि मानव यह सब तूने स्वयं ने किया है और जो कुछ किया है, उसका
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फल भी तुझे ही स्वयं भोगना है। कभी यह हो नहीं सकता है कि कर्म तू स्वयं करे और उसका फल भोगनेवाला कोई दूसरा आए । जब मनुष्य अपने दुख और कष्ट में स्वयं अपने को कारण मान लेता है, तब उस कर्म के फल भोगने की शक्ति भी उसमें प्रकट हो जाती है। इस प्रकार कर्मवाद पर पूर्ण विश्वास हो जाने के बाद जीवन में से निराशा, तमिस्रा और आत्म-दीनता दूर हो जाती है। उसके लिए जीवन भोगभूमि न रह कर कर्तव्य-भूमि बन जाता है । जीवन में आने वाले सुख एवं मोक्ष के झंझावातों से उसका मन प्रकम्पित नहीं होता । कर्मवाद हमें यह बताता है कि आत्मा को सुख-दुख की गलियों में घुमानेवाला मनुष्य का कर्म है और यह कर्म मनुष्य के ही अतीत कर्मों का अवश्यंभावी परिणाम है । हमारी वर्तमान अवस्था जैसी और जो कुछ भी है, वह दूसरों द्वारा हम पर लादी नहीं गई है, बल्कि हम स्वयं उसके निर्माता हैं । मानव जीवन में जो कुछ भी सुख एवं दुख की अवस्थाएं आती हैं, उनका बनानेवाला कोई अन्य नहीं स्वयं मनुष्य ही है । अतएव जीवन में जो उत्थान और पतन आता है, जो विकास और ह्रास आता है तथा जो सुख और दुख आता है, उस सबका दायित्व हम पर है, किसी और दूसरे पर नहीं। एक दार्शनिक कहता है-"मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हैं । मैं स्वयं अपनी आत्मा का अधिनायक एवं अभिनेता हूं।" मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे कोई किसी अन्य मार्ग पर नहीं चला सकता । मेरे मन का पतन ही मेरा पतन है । मुझे न कोई उठानेवाला है और न गिरानेवाला । मैं स्वयं ही अपनी शक्ति से उठता हूं और स्वयं ही अपने शक्ति से गिरता भी हूं । अपने जीवन में मनुष्य जो कुछ जैसा और जितना पाता है, वह सब कुछ उसकी बोई हुई खेती का अच्छा या बुरा फल है । अत: जीवन में हताश, निराश, दीन और हीन बनने की आवश्यकता ही नहीं । कर्मवाद और पुरुषार्थ
एक प्रश्न किया जा सकता है कि जब आत्मा अपने पूर्व हुत कर्मों का फल भोगता है फल भोगे बिना युटकारा संभव नहीं है, तब सुख प्राप्ति के लिये और दुःख निवृत्ति के लिये किसी प्रकार का प्रयत्न करना व्यर्थ ही है ? भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह होकर ही रहेगा, वह कभी टल नहीं सकता, फिर किसी भी प्रकार की साधना करने का अर्थ ही क्या रहेगा? क्या कर्मबाद का यह मन्तव्य आत्मा को पुरुषार्थ से विमुख नहीं करता है। उसके समाधान में कहा जाता है कि-व्यवहार दृष्टि से यह सत्य है कि अच्छा या बुरा कर्म कभी नष्ट नहीं होता यह भी सत्य है कि प्रत्येक कर्म अपना फल अवश्य ही देता है। जो तीर हाथ से निकल चुका है, वह वापिस लौट कर हाथ में नहीं आता है। परन्तु निश्चय दृष्टि से जिस प्रकार सामने से वेग के साथ आता हुआ तीर पहले वाले से टकरा कर उसके वेग को रोक देता है, या उसकी दिशा को ही बदल देता है, ठीक उसी प्रकार कर्म भी शुभ एवं अशुभ परिणामों से कम और अधिक शक्ति वाले हो जाते हैं। दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और कभी-कभी निष्फल भी हो जाते हैं। जैन दर्शन में कर्म की विविध अवस्थाओं का विस्तार के साथ वर्णन किया
गया है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म की उन विविध अवस्थाओं में एक निकाचित अवस्था ही ऐसी है, जिसमें कृत कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। जैन दर्शन के कर्मवाद का मन्तव्य है कि आत्मा अपने प्रयत्न विशेष से अन्य विभिन्न कार्मिक अवस्थाओं में परिवर्तन कर सकता है। प्रकृति और प्रदेश, स्थिति
और अनुभाग में परिवर्तन कर सकता है। एक कर्म को दूसरे कर्म के रूप में भी बदल सकता है। दो स्थिति वाले कर्म को ह्रस्व स्थिति में और तीव्र रस वाले कर्म को मन्द रस में बदल सकता है। बहु-दलिक कर्म को अल्प दलिक बना सकता है। जैन दर्शन के कर्मवाद के अनुसार कुछ कर्मों का वेदन (फल) विपाक से न होकर प्रदेश से ही हो जाता है। कर्मवाद के संबंध से उक्त कथन इस तथ्य को सिद्ध करता है कि कर्मबाद आत्मा को पुरुषार्थ से विमुख नहीं करता है, ब क पुरुषार्थ के लिये और अधिक प्रेरित करता है। पुरुषार्थ और प्रयत्न करने पर भी जब फल को उपलब्धि न हो, तब वहां कर्म की प्रबलता समझ कर धैर्य रखना चाहिये और यह विचार करना चाहिये कि मेरा पुरुषार्थ कर्म को प्रबलता के कारण मल हा आज सफल न हुआ हो, किन्तु कालान्तर में एक जन्मान्तर में वह अवश्य ही सफल होगा। कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसा विचित्र स्थिति आ जाती है कि मनुष्य किसी वस्तु को उपलब्धि के लिए प्रयत्न तो करता है, किन्तु उसे उसमें सफलता नहीं मिलता। फलतः वह हताश और निराश होकर बैठ जाता है। किन्तु जीवन की यह स्थिति बड़ी ही विचित्र एवं विडंबना पूर्ण है । क्योंकि वह मनुष्य यह विचार करता है कि मेरा पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ भाग्य में लिखा है, वह हो कर ही रहेगा। इस प्रकार की विषम स्थिति में साधक को कर्मवाद के संदर्भ में यह विचार करना चाहिये कि आज मेरा जो कर्म मुझे अच्छा या बुरा फल दे रहा है, आखिर वह कर्म भी तो मेरे अपने पुरुषार्थ से ही बना है। आज का पुरुषार्थ कल का कर्म बन जाता है। अत: पुरुषार्थ का परित्याग करके अपने जीवन की बागडोर को भाग्यवाद के हाथों में सौंप कर मनुष्य वार्यहीन एवं शक्तिहीन बन जाता है। मनुष्य के जीवन की इससे अधिना भयंकर विडंबना और विषमता क्या हो सकती है कि वह एक चेतना-पंज हो कर भी, अनन्त शक्ति का अधिनायक होकर भी जड़ कर्म के अधीन बन जाता है। पुरुषार्थवाद-मूलक कर्मवाद हमें उत्साहवर्धक प्रेरणा देता है कि भाग्यवाद से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जब आपके इस भाग्य का निर्माण आपके अतीत काल के पुरुषार्थ से हुआ है, तब आप यह विश्वास क्यों नहीं करते कि भविष्य में अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से अपने भाग्य को बदल भी सकता हूं। बुरे से अच्छा भी बन सकता हूं। जैन-दर्शन के कर्मवाद में मनुष्य अपने भाग्य की एवं नियति चक्र की कठपुतली मात्र नहीं है, इस आधार पर वह अपनी विवेक शक्ति से तथा अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से अपने कर्म को, अपने भाग्य को और अपने नियति चक्र को वह जैसा चाहे वैसा बदलने की क्षमता, योग्यता और शक्ति
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रखता है। अतः जैन-दर्शन के कर्मवाद में पुरुषार्थवाद एवं प्रयत्नवाद को पर्याप्त अवकाश है। ईश्वर और कर्मवाद
ईश्वरवादी दर्शनों के अनुसार ईश्वर जीवों के कर्मों के अनुसार ही उनके सुख-दुःख की व्यवस्था करता है। यह नहीं, कि अपने मन से ही वह किसी को मूर्ख बनाए और किसी को विद्वान। किसी को कुरूप बनाए और किसी को सुन्दर। किसी को राजा बनाये तो किसी को रंक । किसी को रोगी बनाये तो किसी को स्वस्थ । किसी को विपन्न बनाए तो किसी को सम्पन्न । जैसे जीवन के भलेबुरे कर्म होते हैं, वैसे ही वह व्यवस्था कर देता है। किसी भी जीव के जीवन में जब वह किसी भी प्रकार का परिवर्तन करता है, तब पहले वह उस जीव के कर्मों का लेखा-जोखा देख लेता है, उसी के अनुसार वह उसमें परिवर्तन कर सकता है। निश्चय ही यह उस सर्व शक्तिमान ईश्वर के साथ एक खिलवाड़ है। एक तरफ उसे सर्व शक्तिमान मानना और दूसरी ओर उसे स्वतंत्र होकर अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना निश्चच ही ईश्वर की महत्ती विडंबना है। यहां पर इस कथन से यह सिद्ध होता है कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक बलवती है। ईश्वर को भी उसके अधीन हो कर चलना पड़ता है। ईश्वर पर भी कर्मों का नियंत्रण हो गया। दूसरी ओर कर्म भी कुछ नहीं कर सकता। वह किसी चेतना शक्तिशाली का सहारा ले कर ही अपना फल देता है। इस प्रकार कर्म ईश्वर के अधीन और ईश्वर कर्म के अधीन बन जाता है। इसकी अपेक्षा स्वयं में ही अपने फल देने की बात क्यों न स्वीकार कर ली जाए, जिससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी सुरक्षित रहे और कर्मवाद में भी किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो। जैन-दर्शन के अनुसार कर्म स्वयं अपना फल देता है, उसे फल देने के लिये किसी अन्य व्यक्ति एवं अन्य शक्ति की अपेक्षा नहीं रहती। कर्म स्वयं अपनी शक्ति से समय आने पर फल प्रदान कर देता है। ठीक उसी प्रकार जैसे भंग पीने पर वह स्वयं यथासमय अपना फल नशे के रूप में प्रदान करती है। नशा चढ़ने के लिये भंग किसी दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा और आवश्यकता नहीं समझती। कर्मवाद और अध्यात्म शास्त्र
कर्मवाद अध्यात्मशास्त्र के विशाल एवं विराट भव्य भवन की आधारशिला है। कर्मवाद हमें यह बतलाता है कि आत्मा किसी भी शक्तिशाली और रहस्यपूर्ण व्यक्ति की इच्छा के अधीन नहीं है। कर्मवाद हमें प्रेरणा देता है कि, अपने संकल्प और विचार की पूर्ति के लिये किसी अन्य व्यक्ति के द्वार खटखटाने की आवश्यकता नहीं है। आपको जो कुछ भी पाना है वह आपके अन्दर से उपलब्ध होगा, कहीं बाहर से नहीं। इस विशाल विश्व में कौन किसको क्या दे सकता है। भीख मांगने से जीवन का कभी उत्थान नहीं हो सकता। किसी की दया एवं करुणा पर क्या कभी किसी का उत्थान एवं विकास हुआ है? कर्मवाद कहता है कि अपने पापों का नाश करने के लिये एवं अपने
उत्थान के लिये हमें किसी शक्ति के आगे दया की भीख मांगने की आवश्यकता नहीं है। और न किसी के आगे रोने तथा गिड़गिड़ाने की ही आवश्यकता है। कर्मवाद का यह भी मन्तव्य है कि संसार की समग्र आत्माएं अपने स्वरूप से एक समान हैं, उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। फिर भी इस दृश्यमान जगत में जो कुछ विभेद नजर आता है, वह सब कर्मत है। जैन-दर्शन के कर्मवाद के अनुसार जो आत्मा विकास की चरम सीमा पर पहुंच जाती है, वह परमात्मा बन जाती है। आत्मा की शक्ति कर्म से आवृत्त होने के कारण अविकसित रहती है और आत्मबल द्वारा कर्म के आवरण को दूर कर देने पर उस शक्ति का विकास किया जा सकता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच कर आत्मा परमात्म-स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है। आत्मा किस प्रकार कर्मों से आवृत्त होता है और वह किस प्रकार उससे विमुक्त होता है, यह सब कुछ आपको कर्मशास्त्र के गंभीर अध्ययन से परिज्ञात हो सकता है। व्यवहार में कर्मवाद
मानव-जीवन के दैनिक व्यवहार में कर्मवाद कितना उपयोगी है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। कर्म-शास्त्र के पंडितों ने अपने-अपने युग में इस समस्या पर विचार-विमर्श किया है। हम अपने दैनिक व्यवहार में प्रतिदिन देखते हैं एवं अनुभव करते हैं कि जीवनरूप गगन में कभी सुख के सुहावने बादल आते हैं
और कभी दुःख की घनघोर काली घटाएं छा जाती हैं। प्रतीत होता है कि यह जीवन विघ्न, बाधा, दुःख और विविध प्रकार के क्लेशों से भरा पड़ा है। इनके आने पर हम घबरा जाते हैं और हमारी बुद्धि अस्थिर हो जाती है। मानव-जीवन की वह घड़ी कितनी विकट होती है जबकि एक ओर मनुष्य को उसकी बाहरी प्रतिकूल परिस्थितियां परेशान करती हैं और दूसरी
ओर इसके हृदय की व्याकुलता बढ़ जाती है। इस प्रकार की स्थिति में ज्ञानी एवं पंडितजन भी अपने वास्तविक मार्ग से भटक जाते हैं।
हताश एवं निराश होकर वे अपने दुख-कष्ट, एवं क्लेश के लिये दूसरे को कोसने लगते हैं, उसको जो केवल बाह्य निमित है। मूल उपादान को भूल कर उसकी दृष्टि बाह्य निमित्त पर जा पहंचती है। इस प्रकार के विशेष प्रसंग पर वस्तुतः कर्मशास्त्र ही हमारे गंतव्य पथ को आलोकित कर सकता है और पथ-च्यत आत्मा को पूनः सन्मार्ग पर ला सकता है। कर्म-शास्त्र बतलाता है कि आत्मा अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। सुख और दुःख का मल कारण अपना कर्म ही है। वक्ष का मल कारण जैसे बीज है, वैसे ही मनुष्य के भौतिक जीवन का कारण इसका अपना कर्म ही होता है। सुख-दुख के इस कार्य-कारण भाव को समझाकर कर्मबाद मनुष्य को आकूलता एवं व्याकूलता के गहन गर्त से निकाल कर जीवन विकास की ओर चलने के लिये प्रेरित करता है। इस प्रकार कर्मवाद आत्मा को निराशा के झंझावातों से बचाता है, दुःख एवं क्लेश सहने की शक्ति देता है। और संकट के समय में भी बुद्धि को स्थिर रखने का दिव्य संदेश देता है। कर्मवाद में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह विचार करता है कि स्वयं में जो अनकलता एवं प्रतिकूलता आती है उसका उत्पन्न करने वाला मैं स्वयं हैं। फलतः उसका अनुकूल एवं प्रतिकूल फल भी मुझे ही भोगना है। यह दृष्टि जीवन को शांत, सम्पन्न एवं आनन्दमय बना देती है।
६.
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जैन दर्शन में कर्मवाद की महत्ता
साध्वी प्रियदर्शनाश्रीजी, एम. ए.
कम-सिद्धान्त भारतीय दर्शन की एक अनूठी विशेषता है। भारतीय-दर्शन में कर्म और उसके फल के संबंध में बड़ा व्यापक चिन्तन किया गया है। कार्य क्या है ? जीव और कर्म का संबंध कैसे होता है? उसका फल कैसे मिलता है? इत्यादि के संदर्भ में भारतीय ऋषि महिर्षियों ने जितना गहन विचार प्रस्तुत किया है उतना और वैसा पाश्चात्य-दर्शन में नहीं किया गया है। पाश्चात्य विद्वान ए. बी. कीथ ने भी स्वीकार किया हैभारतीयों का कर्म बन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है।
__ “संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है। जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह उक्त सिद्धान्त को
जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता।" । भारत भूमि दर्शनों की जन्मदात्री है। यहां की पावन धरती पर अतिप्राचीन काल से ही चिन्तन मनन की, दर्शन की विचार धारा बहती चली आ रही है। अपने दार्शनिक चिन्तन से भारतीय संस्कृति की प्राण प्रतिष्ठा है, गौरव है।
प्रत्येक धर्म दर्शन के कुछ अपने मौलिक सिद्धान्त होते हैं · जो अन्य धर्मों, दर्शनों से न केवल भिन्नता ही रखते हैं बल्कि विशेषता भी। अगर सरसरी दृष्टि से देखा जाय तो विश्व के सभी धर्मों, दर्शनों के मूलभूत सिद्धान्त साम्यता लिए हुए दृष्टिगत होंगे। भले ही उनके विवेचन, विश्लेषण, व्याख्या विषयक दृष्टिकोण में पृथक्ता परिलक्षित होती हो।
दार्शनिक जगत में जैन दर्शन का प्रतिनिधित्व करने वाले अनेक सिद्धान्तों में से कर्मवाद का अपना विशिष्ट सिद्धान्त है। "वाद" शब्द अंग्रेजी भाषा के Ism (इज्म) का समानार्थक है। "वाद" (इज्म) का अर्थ होता है विचारधारा या सिद्धान्त । कर्मवाद अर्थात् कर्मसंबंधी विचारधारा।
तो इस कर्मवाद को बिना समझे भारतीय तत्वज्ञान का विशेष तौर से आत्मवाद का यथार्थ परिज्ञान नहीं हो सकता।
जैनागमों में जिसे "कर्म" की संज्ञा दी गई है, अन्य दर्शनों में उसे विभिन्न नामों से अभिहित किया गया है। नैयायिक और वैशेषिक "कर्म" को "धर्माधर्म", "संस्कार" और अदृष्ट कहते हैं। योगदर्शन भाष्य और सांख्यकारिका में उसे "आशय" और "क्लेश' कहा गया है। मीमांसक उसे "अपूर्व" कहता है। बौद्ध उसे "वासना" कहते हैं। कुरान शरीफ और बाइबल में उसे "शैतान" के रूप में मान्यता मिली है। ये सारे शब्द "कर्म" के समानार्थक शब्द ही हैं। ___ जैन दर्शन का मूल नवतत्व है किन्तु इन नवतत्वों की आधार भी भित्ति कर्मवाद है इसीलिये कर्मवाद को जैन दर्शन का एक अविभाज्य अंग माना गया है। कर्म का जैसा सूक्ष्म विश्लेषण, गहनविवेचन जैन दर्शन के साहित्य में उपलब्ध है उतना और वैसा विश्व के दार्शनिक साहित्य में अन्यत्र दृष्टिगत नहीं होता।
मानव मस्तिष्क में यह जिज्ञासा उद्भूत होना स्वाभाविक ही है कि जीवन में कर्मवाद की क्या आवश्यकता है, क्या उपयोगिता है, आखिर उसे क्यों स्वीकार किया जाय? इसलिए कि, कर्मवाद मानव को आत्म-विकास के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए उत्साह और प्रेरणा प्रदान करता है। जीवन की विविध उलझनों को सुलझाता है। जीवन में कर्मवाद की सबसे महती उपयोगिता यही है कि मानव को हताश और निराश होने से बचाता है। वह प्राणी को दीनता, हीनता के गहन गर्त से निकाल कर विकास की चरम सीमा पर पहुंचने के लिए अनवरत प्रेरित करता रहता है। जब यह निरुत्साह हो जाता है, अपने आपको चारों ओर से परिवेष्ठित पाता है, गन्तव्यस्थल का परिबोध लुप्त हो जाता है उस समय उस विह्वल आत्मा को कर्मवाद, शांति,
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सहिष्णुता और धीरता प्रदान करता है। वह सान्त्वना दिलाता है कि मानव यह सब तूने स्वयं ने किया है और जो कुछ किया है उसका फल भी तुझे ही भोगना होगा । ऐसा कभी हो नहीं सकता कि कर्म मानव स्वयं करे उसका फल और कोई भोगे। यह बात उत्तराध्ययन में कही गई है।
अप्पाकत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अर्थात् यह आत्मा सुख-दुःख का कर्ता उपभोक्ता स्वयं ही है। कर्मवाद का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा ही है। जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल मिलेगा। न्याय दर्शन की तरह जैन दर्शन कर्म फल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता है। जैसे गणित की संख्या बताने वाली जड़ मशीन अंक गिनने में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करता। उसके लिए ईश्वर को नियन्ता मानने की कतई आवश्यकता नहीं है। कर्म के विपरीत ईश्वर कुछ फल देने में समर्थ थोड़े ही होगा। वैदिक दर्शन की तरह ही जैन दर्शन कर्मफल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। जो कुछ इस आत्मा ने पूर्व में किया है वही आज उसे मिला है। इसी क्रम में आचार्य अमितगति का कथन है कि:
स्वयं वृत्तं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभं परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट
स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा तात्पर्य यह है कि कर्मवाद को समझ लेने के बाद जीवन में आने वाले सुख-दुःख के झंझावातों से मानव का मन कंपित नहीं होता। वह बताता है कि हमारी वर्तमान अवस्था जैसी और जो कुछ भी है वह किसी दूसरे के द्वारा थोपी हुई नहीं है बल्कि मानव स्वयं उसका निर्माता है।
मानव जीवन में जो कुछ भी सुख-दुःख अवस्थाएं आती हैं, उनका बनाने वाला कोई अन्य नहीं है स्वयं मानव ही है। अतएव जीवन में जो उत्थान-पतन आता है, उत्कर्ष-अपकर्ष होता है, तथा सुख-दु.ख आता है- उन सबका उत्तरदायित्व उसके जीवन पर ही निर्भर है वह स्वयं ही सुख-दुःख का केन्द्र है, एक दार्शनिक कहता है।
I AM MASTER OF MY FATE
I AM THE CAPTAIN OF MY SOUL. अर्थात् मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हूं। मैं स्वयं अपनी आत्मा का अधिनायक हैं। मैं स्वयं ही अपनी शक्ति के सहारे उठता है और स्वयं ही अपनी शक्ति के ह्रास से गिरता हूं। जो कुछ मैं अपने जीवन में प्राप्त करता हूं वह सब कुछ मेरी अपनी बोई हुई खेती का अच्छा या बुरा फल है। अत: जीवन में उदासीनता, हताशा, निरुत्साहिता, दीनता और हीनता लाने
की आवश्यकता ही नहीं है यही प्रेरणा मानव को कर्मवाद देता है।
पुरुषार्थ मूलक कर्मवाद मानव को उत्साहवर्धक प्रेरणा देता है कि नियतिवाद, भाग्यवाद से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इस भाग्य का निर्माण उसके अतीतकाल के पुरुषार्थ से ही तो निर्मित हुआ है।
जैन दर्शन के कर्मवाद में मानव अपने भाग्य की एवं नियति चक्र की कठपुतली मात्र नहीं है। इस आधार पर वह अपने पुरुषार्थ एवं प्रयास से तथा अपनी विवेक शक्ति से अपने भाग्य • को, अपने कर्म को बदल भी सकता है। अपने नियति-चक्र को वह जैसा चाहे पलटने की योग्यता और क्षमता रखता है। आत्मबल के द्वारा कर्मावरण को दूर कर परमात्मस्वरूप प्रकट कर सकता है।
कर्मवाद में दृढ़ विश्वास रखनेवाला व्यक्ति यह भलीभांति समझता है कि सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश, जीवन-मरण मेरे अपने ही हाथ में हैं। वे किसी के द्वारा दिए गए वरदान या अभिशाप का फल नहीं हैं। अपने शौर्य से, पुरुषार्थ से, सब कुछ अधिगत कर लेता है। न कभी उन्मत्त होता है और न कभी विह्वल होता है, कष्ट में।
कर्मवाद के इस स्वर्ण सिद्धान्त को अगर अपने जीवन में स्थान दें तो जीवन के लिए कितना उपयोगी सिद्ध होता है। हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं, अनुभव करते हैं कि कभी जीवन में सुख के सुहावने बादल छा जाते हैं और कभी दुःख की धनघोर काली घटाएं छा जाती हैं। दुःख आने पर हम विह्वल हो जाते हैं उस समय लगता है कि यह जीवन अनेक संकटों, कष्टों और क्लेशों से व्याप्त है। एक ओर बाह्य प्रतिकूल विवशताएं बेहद परेशान करती हैं मानव को और दूसरी तरफ अन्तर्हृदय में व्याकुलता बढ़ जाती है। ऐसी विषम परिस्थितियों में हम तो क्या ज्ञानी पुरुष भी अपने पथ से भटक जाते हैं। सन्तुलन खो जाता है। निरुत्साह, हतोत्साह हो जाते हैं। अन्य को कोसने लगते हैं जो मात्र बाहरी निमित्त है। मूल उपादान को भूलकर हमारी नजरें बाहर दौड़ने लगती हैं ऐसे प्रसंगों में वस्तुतः कर्मवाद ही हमें शांति प्रदान करता है, हमारे गन्तव्य मार्ग को आलोकित कर सकता है, विपथगामी आत्मा को सत्तथ पर ला सकता है।
कर्मशास्त्र बतलाता है कि सुख-दुःख का मूल कारण मेरा अपना पूर्वकृत कर्म ही है। यह एक शाश्वत सिद्धान्त है कि जैसा बीज होगा वैसा ही वृक्ष होगा। वृक्ष का मूल कारण जैसे बीज है वैसे मानव के भौतिक जीवन का कारण कर्म ही है। रामचरितमानस में भी कहा गया है
कर्म प्रधान विश्व करि राखा,
जो जस करहिं सो तस फल चाखा। सुख-दुःख के इस कार्यकारण भाव को समझा कर कर्म-शास्त्र मनुष्य को आकुलता-व्याकुलता, समता-विषमता की गहन
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कन्धराओं से निकालकर जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है, प्रोत्साहित करता है।
इस प्रकार कर्मवाद आत्मा को निराशा से बचाता है। जैन दर्शन प्ररूपित कर्मवाद जीवन के अनेक रहस्यों को उद्घाटित कर हमारे सम्मुख प्रकट कर देता है। इसके अतिरिक्त दुःखकष्ट सहने की क्षमता प्रदान करता है। संकटाकीर्ण समय में भी ध्रुव की भांति स्थिर रहने का दिव्य संदेश देता है । जीवन में शांति, समता, उदारता, सहिष्णता आदि सद्गुणों को अभिव्यक्त करने में कर्मवाद बहत सहायक सिद्ध होता है। कर्मवाद को समझ लेने पर उतार-चढ़ाव की सम-विषम परिस्थितियां विचलित नहीं कर सकती हैं। सुख आता है तो भी स्वागत है और कष्ट आता है तो उसका भी स्वागत है। कर्मवाद में अटल आस्था, विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह सोचता है कि जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता निर्मित करने वाला मैं स्वयं ही हूं, फलस्वरूप उसका फल भी मुझे ही भुगतना है। ऐसी भावना, ऐसी दृष्टि मानव जीवन को स्वर्गमय, सन्तोषमय और आनन्दमय बना देती है।
कर्मवाद का जीवन में यही उपयोग है, यही महत्ता है, यही गरिमा है और यही अपूर्व देन है।
इस तरह कर्मवाद का भारतीय दर्शन में, विशेष तौर से जैन दर्शन में विशिष्ट स्थान है, उसमें भी जैन दर्शन के कर्मवाद का तो अपना एक अलग ही महत्व है जो विश्व इतिहास की अद्वितीय देन है। इस कर्मशास्त्र ने मानव को सम-विषम परिस्थिति में सूर्य के प्रकाश की भांति ही नहीं बल्कि मेरु की तरह अचल, अकम्पित रहने की प्रेरणा दी है।
कर्मवाद की गरिमा के गीत तो पाश्चात्य दार्शनिक मेक्समूलर ने भी गाए हैं
"यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है, तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता है कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्य के लिए नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता; यह तो नीति शास्त्र का मत और पदार्थ शास्त्र का बल-संरक्षण संबंधी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीति शिक्षा के अस्तित्व के सम्बन्ध में कितनी ही शंका क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सबसे अधिक जगह माना गया है। उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्य जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला
इससे साफ जाहिर है कि भारतीय दर्शन का कर्मवाद का सिद्धान्त अपने आप में अबाध्य, अकाट्य और बेजोड़ है। आधुनिक युग के इस विज्ञान और विनाशकाल में भी यह सिद्धान्त मानव जीवन को सुख, सन्तोष, समता और सहिष्णुता की सुरभि से सुवासित कर सकता है; निराशा के अन्धकार में भी प्रकाश की किरणें बिखेर सकता है। जन-जीवन के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य कर सकता है। यही कर्मवाद की जीवन में सबसे बड़ी उपयोगिता है।
परिग्रह-संचय शान्ति का शत्रु है, अधीरता का मित्र है, अज्ञान का विश्राम-स्थल है, बुरे विचारों का क्रीडोद्यान है, घबराहट का खजाना है, प्रमत्तता का मन्त्री है और लड़ाई-दंगों का निकेतन है, अनेक पाप कर्मों का कोष है और विपत्तियों का विशाल स्थान है, अत: जो इसे छोड़कर सन्तोष धारण कर लेता है, वह संसार में सर्वत्र-सदैव सुखी रहता है।
-राजेन्द्र मूरि
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जैन दर्शन में पुद्गल का स्वरूप
चन्द्रकान्त संघवी, एम. एस.सी.
'पूरणात् पुद गलयतीति गलः' नियुक्ति के अनुसार जो मरता भी है, और गलता भी है, वह पुद्गल है। पुद्गल शब्द दो धातु (पुद) और (गल) के संयोग से बना है। (पुद) का अर्थ संश्लेष मिलन और गल का अर्थ अलग होना होता है।
पुद्गल द्रव्य है, आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से MATTER है। यह जड़ है, अचेतन है। पुद्गल की सब से छोटी इकाई परमाणु कहलाती है। शुद्ध पुद्गल परमाणु अभेद्य, अछेद्य, अग्राह्य, और निविभाग होता है। यह पुद्गल का सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रूप है। इस परमाणु की लम्बाई, चौड़ाई, मध्य या अन्त नापा नहीं जा सकता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य भी नहीं है, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इसका अस्तित्व नहीं है, कहने का तात्पर्य यह है कि साधारण ज्ञान वाले व्यक्ति के लिये पुद्गल परमाणु दृष्टिगोचर नहीं है। जाना नहीं जा सकता है। यहां पर स्वाभाविक ही एक शंका उत्पन्न हो जाती है कि जैन दर्शन का यह परमाणु अछेद्य अभेद्य है, किन्तु आधुनिक विज्ञान में परमाणु को विभाज्य माना है, विशेष स्थितियों में परमाणु को कई भागों में तोड़ा जा सकता है, इस बात को जैन सूत्र "अनुद्वार योग" में बड़ी ही सरलता से समझाया गया है। आधुनिक भौतिक विज्ञान जिस परमाणु की बात कर रहा है वह जैन दर्शन की दृष्टि में एक परमाणु न होकर परमाणुओं का पिण्ड है, व्यावहारिक परमाणु है, यह परमाणु भी साधारण दृष्टि से गोचर नहीं होता है। विशेष उपकरणों के द्वारा ही देखा जा सकता है, तथा विभाजित किया जा सकता है। भौतिकी के ये परमाणु (दो या दो से अधिक) आपस में मिलकर (विशेष स्थितियों में) अणु का निर्माण करते हैं, इस अणु में उस तत्व के सभी गुण विद्यमान रहते हैं। इसी तरह से पुद्गल परमाणु जो स्कन्ध का कर्ता है, आपस में मिलकर द्विस्कन्ध, त्रिस्कन्ध तथा चतुःस्कन्ध का निर्माण करते हैं, संख्यात, असंख्यात परमाणु आपस में मिलकर संख्यात असंख्यात स्कन्धों
का निर्माण करते हैं। पुद्गल परमाणु का स्वरूप उसके रूप, रस, गन्ध, तथा स्पर्श द्वारा व्यक्त होता है। एक शुद्ध पुद्गल परमाणु में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध, तथा दो स्पर्श (शोत ऊष्ण या स्निग्ध-रूक्ष दोनों में से कोई एक) होते हैं। इस प्रकार से एक पुद्गल परमाणु की पाँच पर्याय होती है। पुद्गल परमाणु आपस में मिलकर स्कन्ध का निर्माण करते हैं, तो इनकी पर्याय (गुण) बदल जाती है, स्कन्ध में आठ स्पर्श (शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघ, गुरु, मृदु और कर्कश), पांच रस (अम्ल, मधुर, कटु, कषाय, और तिक्त), दो गन्ध (सुगन्ध और दुर्गन्ध) तथा पांच वर्ण (कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत) होते हैं।
पुद्गल की भी अनेक पर्याय हैं, मुख्यतया छ: है।
(१) बादर बादर (२) बादर (३) बादर सूक्ष्म (४) सूक्ष्म बादर (५) सूक्ष्म (६) सूक्ष्म-सूक्ष्म ।। १. वे पुद्गल स्कन्ध जिन्हें दो या दो से अधिक भागों
में विभाजित किया जा सके, और पुनः आपस में मिलाने पर मिले, बादर-बादर (स्थूल-स्थूल) कहलाते हैं, जैसे-लकड़ी, पत्थर।। वे पुद्गल स्कन्ध जिनका खण्ड-खण्ड कर दिया जावे और आपस में मिलाने पर पुनः मिल जावे, बादर कहलाते हैं, जैसे दूध, घी, तेल । वे पुद्गल स्कन्ध जो दिखने में तो स्थूल लगें किन्तु खण्ड-खण्ड नहीं किये जा सकें, हाथ से ग्रहण करना चाहें, तो ग्रहण नहीं कर सकें। एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाना चाहें, तो नहीं ले जा सकें, बादरसूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं जैसे धूप, छाँव, चाँदनी आदि । वे पुद्गल स्कन्ध जो दिखने में तो स्थूल प्रतीत होते हैं किन्तु वास्तव में सूक्ष्म होते हैं, चार इन्द्रियों
(शेष पृष्ठ ७१ पर)
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जैन कर्म-सिद्धान्त : तुलनात्मक विवेचन
डा. राममूर्ति त्रिपाठी
हिन्दू संस्कृति का प्रत्यभिज्ञापक प्रतिमान है- पुनर्जन्मवाद में आस्था । पुनर्जन्म का मूल है-कर्मवाद । हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत परिगणित होने वाली तीनों धारायें-ब्राह्मण (शैव, शाक्त तथा वैष्णवादि), जन और बौद्ध कर्मवाद में आस्था रखती है । ब्राह्मण अथवा वैदिक धर्म के अन्तर्गत परिगणित होने वाला मीमांसा दर्शन तो (कर्म) ही को सब कुछ मानता है-'कर्मात् मीमांसकाः' । बौद्ध सृष्टि गत समस्त वैचित्रय का मूल कर्म को स्वीकार करते हैं और जैन कर्म तथा जीवात्मा का अनादि संबंध स्वीकार करते हैं। तीनों ही धाराओं में सृष्टि का मूल “कर्म" मानने वाले उपलब्ध हैं-मानवेतर किसी सर्वोपरि सत्ता (ईश्वर) को अस्वीकार करते हैं। तीनों अनादि वासना, कषाय और तण्हा को कर्म-बंध का मूल मानते हैं। तीनों ही इनका समुच्छेद स्वीकार करते हैं। इन तमाम समानताओं के बावजूद (कर्म) के स्वरूप के संबंध में जैन दर्शन की धारणा सर्वथा भिन्न है।
जनेतर दर्शनों में वैशेषिक दर्शन (कर्म) को एक स्वतन्त्र पदार्थ मानता है। उनकी दृष्टि में कर्म वह है जो द्रव्य समवेत हो, जिसमें स्वयम् कोई गुण न हों, और जो संयोग तथा विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न रखता हो । गुण की तरह यहां कर्म - भी द्रव्याश्रित धर्म विशेष है। गण द्रव्यगत सिद्ध धर्म का नाम है, जबकि क्रिया (साध्य) है। कर्म मूर्त द्रव्यों में ही रहता है और मूर्त द्रव्य वे होते हैं जो अल्प परिमाण वाले होते हैं। वैशेषिकों के यहां आकाश, काल, दिक् तथा आत्मा विभु या व्यापक हैं--अतः इनमें कर्म नहीं होता। पृथिवी, जल, वायु, तेज तथा मन इन्हीं मूर्त पांच द्रव्यों में कर्म की वृत्ति रहती है। यह कर्म पांच प्रकार का है- उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन । अन्य सर्व विध क्रियाओं का अन्तर्भाव (गमन) में ही हो जाता है, यहां कभी-कभी क्रिया और कर्म पर्याय रूप में भी समझे जाते हैं, कभी-कभी क्रिया के द्वारा प्राप्य कर्म कहा
जाता है । पाणिनि ने कर्म, जो कर्ता की क्रिया से ईप्सिततम रूप में प्राप्त होता है-उसे कहा है। विवेकशील मानव के सन्दर्भ में मीमांसा दर्शन ने कर्म के नित्य, नैमित्तिक, काम्य निषेध्य रूपों पर पर्याप्त विचार किया है। मानव के ही सन्दर्भ में प्रारब्ध संचित और क्रियमाण कर्मचक्र का विचार उपलब्ध होता है। गीता में कर्म शब्द का विशिष्ट और सामान्य, सन्दर्भसापेक्ष तथा सन्दर्भ-निरपेक्ष अनेक रूपों में प्रयोग मिलता है । शांकर अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से गीताकार के "भूतभावोद्भवकरः विसर्गः कर्मसंज्ञितः" व्याख्या करते हुए लोकमान्य ने जो कुछ कहा है-उसका आशय यह है कि निःस्पंदब्रह्म में मायोपाधिक आद्यस्पंद या हलचल ही कर्म है। इस प्रकार सारी सृष्टि ही गत्यात्मक होने से क्रियात्मक या कर्मात्मक है । स्थिति तो केवल ब्रह्म है । स्थिति के वक्ष पर ही 'गति" है-हलचल है, बननाबिगड़ना है, संसार है। वैशेषिक दर्शन का कर्म भी यही हैवैसे उसे माया अथवा मायोधिक स्पंद का पता नहीं है। जैन दर्शन भी जब काव्यवाङमनः 'कर्म' को 'योग' कहता है, तब वह काया वाक् तथा मनः प्रदेश में होने वाले आत्म परिस्पंद को ही क्रिया या योग कहता है। यहां योग, क्रिया तथा कर्म को सामान्यतः पर्याय रूप में ही लिया गया है-वैसे अन्यत्र "कर्म" का स्वरूप सर्वथा भिन्न रूप में कहा गया है।
जैन दर्शन में 'कर्म" के स्वरूप पर विचार करते हुए यह माना गया है कि कर्म और जीवात्मा का अनादि संबंध है। कर्म के ही कारण जीव एक साथ होता है । कर्मों के ही कारण जीव में कषाय आता है और कषाय के ही कारण कर्म के योग्य पुद्गलों का आत्मा में उपश्लेष होता है । इस प्रकार 'कर्म' पौद्गलिक मूर्त तथा द्रव्यात्मक है- भौतिक है-वह आयतन घेरता है। जैनाचार्यों की धारणा है कि जिस प्रकार पात्र विशेष में फल-फूल तथा पत्रादि का मदिरात्मक परिणाम विशेष होता है, उसी
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प्रकार आत्मा में एकत्र योग, कषाय तथा योग्य पुद्गलों का भी जो परिणाम होता है, वही 'कर्म' है । कषायवश काय, वाक्, मनःप्रदेश में आत्म परिस्पन्द होना है और इसी परिस्पन्दवश योग्य पुद्गल खिच आते हैं । इस प्रकार कर्म से आत्मा का बंध या संबंध होता है और संबंध होने से विकृति या गुण-प्रच्युति होती है । प्रवचनसार के टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि का कहना है आत्मा द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उस क्रिया के निमित्त से परिणाम विशेष को प्राप्त होने वाले पुद्गल को कर्म कहा जाता है । जिन भावों के द्वारा पुद्गल आकृष्ट होकर जीव से संबद्ध होते हैं, वे भाव कर्म कहलाते हैं और आत्मा में विकृति उत्पन्न करने वाले पुद्गल पिण्ड को द्रव्य कर्म कहा जाता है। पंचाध्यायी में तो यह भी बताया गया है कि आत्मा में एक वैभाविक शक्ति है जो पुद्गलपुञ्ज के निमित्त को पा आत्मा में विकृति उत्पन्न करती है। यह विकृति कर्म और आत्मा के संबंध से उत्पन्न होने वाली एक अन्य ही आगन्तुक अवस्था है । इस प्रकार आत्मा शरीररूपी कांवर में कर्मरूपी भार का निरन्तर बहन करता रहता है। इसी से राहत पाना है-आत्मा को निरवृत्त करना है।
आत्मा से कर्म का संबंध ही "बन्ध" का कारण बनता है। यह कर्म या तन्मलक बंध चार प्रकार का होता है-प्रकृति स्थिति, अनुभव या अनुभाग और प्रदेश । कर्म या बंध का स्वभाव ही है-आत्मा की स्वभावगत विशेषताओं का आवरण करना । स्थिति का अर्थ है-अपने स्वभाव से अच्युति । स्वभाव का तारतम्य अनुभव है और "इयत्ता" प्रदेश। स्वभाव की दृष्टि से कर्म आठ प्रकार के कहे गए हैं-- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय को घातिया कर्म कहते हैं। क्योंकि ये आत्म गुण-ज्ञान, दर्शनादि का घात करते हैं। अवशिष्ट चार अघातिया हैं । जीवन्मुक्त के शरीर से ये संबद्ध रह कर भी उसके आत्मगत गुणों का घात नहीं करते । हां, विदेह मुक्त सिद्ध में अधातिया कर्मों की भी स्थिति नहीं रहती। जैन कर्म सिद्धांत में इन कर्म भेदों का बड़े विस्तार से वर्णन मिलता है । केवल कर्म प्रकृति के ही १५८ भेद हैं । सामान्यतः ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नव, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्ठाईस, आयु के चार, नाम के बयालीस, गोत्र के दो तथा अन्तराय के चार भेद हैं। फिर इनके अवान्तर भेद हैं। ___इस कर्म बंध का जिस प्रकार ब्राह्मण दर्शन या बौद्ध दर्शन में चक्र मिलता है, वह कर्म चक्र यहां भी आचार्यों ने निरूपित किया है । ब्राह्मण दर्शन में माना गया है कि किया गया कर्म अपने सूक्ष्म रूप में जो संस्कार (अदृष्ट' या अपूर्व) छोड़ते हैंवे संचित होते जाते हैं । इस संचित भंडार का जो अंश फलदान
के लिए उन्मुख हो जाता है, वह "आरब्ध" या "प्रारब्ध" कहा जाता है और जो तदर्थ उन्मुख नहीं है-वह "अनारब्ध" या * 'संचित" कहा जाता है । किया जा रहा कर्म "क्रियमाण" है । इस प्रकार “क्रियमाण" से “संचित" और "संचित” से “प्रारब्ध" और फिर "प्रारब्ध" योग के रूप में "क्रियमाण" कर्म और फिर इससे आगे-आगे का चक्र चलता रहता है। बौद्ध दर्शन में उसे "अविज्ञप्ति कर्म" कहते हैं, जिसे ऊपर वैशेषिक दर्शन के अनुसार “अदृष्ट" तथा मीमांसा दर्शन के अनुसार "अपूर्व' कहा गया है । सांख्य कर्म-जन्य सूक्ष्म बात को संस्कार नाम से जानता है। "अविज्ञप्ति कर्म" का ही स्थल रूप "विज्ञप्ति कर्म" है । वस्तुतः बौद्ध दर्शन में "धर्म" चित्त और चेतसिक सूक्ष्म तत्व हैं जिनके घात प्रतिघात से समस्त जगत उत्पन्न होता है। एक अन्य दृष्टि से इन्हें "संस्कृत" और "असंस्कृत"-दो भेदों में विभक्त किया जाता है । इन्हें “सास्रव" और "अनास्रव" नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत धर्म हेतु-प्रत्यय-जन्य होते हैं, इसके भी चार भेदों में से एक है-रूप। रूप के ग्यारह भेद हैं- पांच इन्द्रिय और पांच विषय तथा एक अविज्ञप्ति । चेतनाजन्य जिन कर्मों का फल सद्य: प्रकट होता है उन्हें "विज्ञप्ति" कर्म कहते हैं
और जिनका कालान्तर में प्रकट होता है-उन्हें "अविज्ञप्ति" कहते हैं। इन्हें "संचित" "प्रारब्ध" के समानान्तर रख कर परख सकते हैं। सामान्यतः यह विवेचन वैभाषिक बौद्धों के अनुसार है। __ महर्षि कुंदकुंद ने पंचास्तिकाय में जैन चिन्ताधारा के अनुरूप कर्मचक्र को स्पष्ट किया है। मिथ्यादृष्टि, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- सभी बंध के कारण हैं। यह तो माना ही गया है कि जीव और कर्म का अनादि संबंध है । अर्थात् जीव अनादि काल से संसारी है और जो संसारी है, वह राग, द्वेष आदि भावों को पैदा करता है, जिनके कारण कर्म आते हैं। कर्म से जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेने वाले को शरीर ग्रहण करना पड़ता हैं। शरीर में इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण होता हैं और विषयों के कारण राग-द्वेष होते हैं और फिर राग-द्वेष से पौद्गलिक कर्मों का आकर्षण होता हैं। इस प्रकार यह चक्र चलता ही रहता है।
इस कर्म चक्र से मुक्ति पाने के लिए तीनों ही धाराएं यत्नशील हैं। तदर्थ कहीं शील, समाधि और प्रज्ञा का विधान है और कहीं सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यक चारित्र तथा कहीं श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन का उपदेश है। कहीं परमेश्वर अनुग्रह या शक्तिपात, दीक्षा तथा आय का निर्देश है। इस प्रकार विभिन्न मार्गों से हिन्दू संस्कृति की विभिन्न धाराओं में "कर्मचक्र" से मुक्ति पाने और स्वरूपोपलब्धि तक पहुंचने का क्रम निर्दिष्ट हुआ है । जैन दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र को सम्मिलित रूप से मोक्षमार्ग मानता है।
राजेन्द्र-ज्योति
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जैन दर्शन का तात्त्विक पक्ष : वस्तु-स्वातन्त्र्य
डा. हुकमचन्द भारिल्ल
जन दर्शन में वस्तु के जिस अनेकान्तात्मक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसमें वस्तुस्वातन्त्र्य को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसमें मात्र जन-जन की स्वतन्त्रता की ही चर्चा नहीं, अपितु प्रत्येक द्रव्य की पूर्ण स्वतन्त्रता का सतर्क व सशक्त प्रतिपादन हुआ है। उसमें 'स्वतन्त्र होना है' की चर्चा नहीं 'स्वतन्त्र है' की घोषणा की गई है। होना है' में स्वतन्त्रता की नहीं, परतन्त्रता की स्वीकृति है, 'होना है' अर्थात् नहीं है । जो है उसे क्या होना ? स्वभाव से प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र ही है। जहां होना है की चर्चा है, वह पर्याय की चर्चा है। जिसे स्वभाव की स्वतन्त्रता समझ में आती है, पकड़ में आती है, अनुभव में आती है, उसकी पर्याय में स्वतन्त्रता प्रकट होती है अर्थात् उसको स्वतन्त्र पर्याय प्रकट होती है।
वस्तुतः पर्याय भी परतन्त्र नहीं है । स्वभाव की स्वतन्त्रता की अजानकारी ही पर्याय की परतन्त्रता है। पर्याय के विकार का कारण 'मैं परतन्त्र हूं' ऐसी मान्यता है, न कि परपदार्थ । स्वभागपर्याय को तो परतन्त्र कोई नहीं मानता पर विकारी-पर्याय को परतन्त्र कहा जाता है । उसकी परतन्त्रता का अर्थ मात्र इतना है कि वह परलक्ष्य से उत्पन्न हुई है। पर के कारण किसी द्रव्य की कोई पर्याय उत्पन्न नहीं होती।
विश्व का प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतन्त्र एवं परिणमनशील है, वह अपने परिणमन का कर्ताधर्ता स्वयं है, उसके परिणमन में पर का हस्तक्षेप रंचमात्र भी नहीं है। यहाँ तक कि परमेश्वर (भगवान) भी उसकी सत्ता एवं परिणमन का कर्ता-हर्ता नहीं है। दूसरों के परिणमन अर्थात् कार्य में हस्तक्षेप की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुख का कारण है । क्योंकि सब जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुख स्वयंकृत कर्म के फल हैं। एक दूसरे को एक दूसरे के दुःख-सुख और जीवन मरण को कर्ता मानना अज्ञान है ।
कहा है :--
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरण जीवित दुःख सौख्यम् । अज्ञानमेतदिहं यत्तुः परः परस्य,
कुर्यात्युमान्मरण जीवित दुःख सौख्यम् ।। यदि एक प्राणी को दूसरे के दुःख सुख और जीवन-मरण को कर्ता माना जाए तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे। क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति यदि वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या वह हमें सुखी कर सकता है ? इसी प्रकार हम अच्छे कार्य करें और कोई व्यक्ति, यदि वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता है ? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बुरे कार्यों से डरना व्यर्थ है क्योंकि उनके फल को भोगना तो आवश्यक है नहीं ? और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर पर के हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है। इसी बात को अमितगति आचार्य ने इस प्रकार व्यक्त किया है
स्वयं कृतः कर्म यदात्मनापुरा, फलं तदीयं लभते-शुभाशुभं । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं निरर्थकं तदा ।। निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेव मनन्य मानसः, परो ददातीति विमुचय शेमु मां ।'
१. आचार्य अमृतचन्द्र (समयसार कलश १६८) २. भावना द्वात्रिंशतिका (सामायिक पाठ) छन्द ३०-३१
वी. नि. सं. २५०३
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आचार्य अमृतचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि पर द्रव्य और आत्म तत्व में कोई भी सम्बन्ध नहीं है तो फिर कर्ता कर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है।
नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्वयोः ।
कर्तृ कर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुतः ।। विभिन्न द्रव्यों के बीच सर्व प्रकार के सम्बन्ध का निषेध ही वस्तुतः पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा है। पर के साथ किसी भी प्रकार के संबंध की स्वीकृति परतन्त्रता को ही बताती है।
अन्य सम्बन्धों की अपेक्षा कर्ताकर्म सम्बन्ध सर्वाधिक परतन्त्रता का सूचक है । यही कारण है कि जैन दर्शन में कर्तावाद का स्पष्ट निषेध किया है । कर्तावाद के निषेध का तात्पर्य मात्र इतना नहीं है कि कोई शक्तिमान ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है अपितु यह भी है, कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है। किसी एक महान शक्ति को समस्त जगत का कर्ता-हर्ता मानना एक कर्तावाद है तो परस्पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता हर्ता मानना अनेक कर्तावाद ।
जब जब कर्तावाद या अकर्तागद की चर्चा चलती है तब तब प्रायः यही समझा जाता है कि जो ईश्वर को जगत का कर्ता माने वह कर्तावादी है और जो ईश्वर को जगत का कर्ता न माने बह अकर्तावादी। चूंकि जैन दर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता, अतः वह अकर्तावादी दर्शन है।
जैन दर्शन का अकर्तावाद मात्र ईश्वरवाद के निषेध तक ही सीमित नहीं, किन्तु समस्त पर कर्तव्य के निषेध एवं स्वकर्त त्व के समर्थन रूप है। अकर्तावाद का अर्थ ईश्वर कर्तुत्व का निषेध तो है, पर मात्र कर्तृत्व के निषेध तक भी सीमित नहीं, स्वयंकर्तृत्व पर आधारित है। अकर्तावाद यानी स्वयं कर्तावाद । प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति का स्वयं कर्ता है। उसके परिणमन में पर का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है। स्वयं कर्तृत्व होने पर भी उसका भार जैन दर्शन को स्वीकार नहीं, क्योंकि वह सब सहज स्वभाववत् परिणमन है । यही कारण है कि सर्वश्रेष्ठ दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ समयसार कर्ताकर्म अधिकार में ईश्वरबाद के निषेध की तो चर्चा तक ही नहीं की और संपूर्ण बल कर्तृत्व के निषेध एवं ज्ञानी को विकार के भी कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करने पर दिया । जो समस्त कर्तृत्व एवं कर्मत्व के भार से मुक्त हो, उसे ही ज्ञानी कहा है।
कुन्दकुन्द की समस्या अपने शिष्यों को ईश्वरवाद से उभारने की नहीं वरन् मान्यता में प्रत्येक व्यक्ति एक छोटा-मोटा ईश्वर बना हुआ है और माने बैठा है कि "मैं अपने कुटुम्ब, परिवार, देश व समाज को पालता हूँ, उन्हें सुखी करता हूँ और शत्रु आदिक को मारता हूँ व दुःखी करता हूँ अथवा मैं भी दूसरे के द्वारा सुखीदुखी किया जाता हूं या मारा-बचाया जाता हूँ।" इस मिथ्या ३. आचार्य अमृतचन्द्रः समयसार कलश २००
मान्यता से बचाने की थी। अत: उन्होंने कर्तावाद संबंधी उक्त मान्यता का कठोरता से निषेध किया है उन्हीं के शब्दों में:
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परोहिं सत्तोहिं । सो मूढो अण्णाणी वाणी एतो दु विवरोदो ॥२४॥ जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहि सत्तेहिं । सो म ढ़ो अण्णाणी णाणी एनो दु विवरीदो ॥२५०।। जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिइ सुहिदे करोमि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरोदी ।।२५३।। दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमेचिमि । जो एसा मूढमई णिरत्यया सा ह दे मिच्छा ।।२६६।।
जो यह मानता है कि मैं पर-जीबों को मारता हूँ और पर-जीव मुझे मारते हैं-वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है।
जो जीव यह मानता है कि मैं पर जीवों को जिलाता (रक्षा करता) हूँ और परजीव मुझे जिलाते (रक्षा करते) हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। ___ जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को सुखी-दुखी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दुखी करते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है । ____ मैं जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, बांधता हूँ तथा छुड़ाता हूँ ऐसी जो यह तेरी मूढ़मति (मोहित बुद्धि) है वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या है।
उनका अकर्तृत्ववाद “मात्र ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है" के निषेधात्मक मार्ग तक सीमित है। वह भी इसलिए कि वे जैन हैं और जैन दर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता है, अतः वे भी नहीं मानते । ईश्वर को कर्ता नहीं मानने पर भी स्वगं-कर्तृत्व उनकी समझ में नहीं आता।
पर के साथ आत्मा का कारकता के संबंध का निषेध प्रवचनसार की 'तत्व प्रदीपिका" टीका में इस प्रकार किया है:
अतो न निश्चयतः परेणसहात्मनः कारकत्व संबंधोऽस्ति ।
जीव कर्म का और कर्म जीव का कर्ता नहीं है। इस बात को पंचास्तिकाय में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है:
कुव्वं सगं सहाव अत्ता कत्ता समस्स भावस्स । ण हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ।।६।। कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममणामं ।। जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ।।६२।। कम्म कम्म कुव्वदि जदि सा अप्पा करेदि. अप्पाणं । किध तस्स फलं भुणादि अप्पा कम्मं च देहि फलं ।।६७।।
अपने स्वभाव को करता हुआ आत्मा अपने भाव का कर्ता है, पुद्गल कर्मों का नहीं। ऐसा जिन वचन जानना चाहिए।
४, आचार्य कुन्दकुन्द (समयसार, बंध अधिकार)
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कर्म भी अपने स्वभाव से अपने को करते हैं और उसी प्रकार
सामान्य गुण भी अनंत होते हैं और विशेष भी अनंत । जीव भो कर्मस्वभाव भाव से अपने को करता है। यदि कर्म-कर्म अनन्त गुणों का कथन तो सम्भव नहीं है । अतः यह सामान्य को और आत्मा-आत्मा को करे तो फिर कर्म आत्मा को फल क्यों गुणों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है:-- देगा और आत्मा उसका फल क्यों भोगेगा? अर्थात नहीं भोगेगा।
अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रेमत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। जहाँ कर्तावादी दार्शनिकों के सामने जगत ईश्वरक्त होने से
प्रत्येक द्रव्य की सत्ता अपने अस्तित्व गुण के कारण है न कि सादि स्वीकार किया गया है वहां अकर्तावादी या स्वयंकर्तावादी
पर के कारण। इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में एक द्रव्यत्व गुण जैन दर्शन के अनुसार यह विश्व अनादि अनन्त है, इसे न तो किसी
भी है जिसके कारण प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिणमित होता ने बनाया है और न ही कोई इसका विनाश कर सकता है, यह
है उसे अपने परिणमन में पर से सहयोग की अपेक्षा नहीं स्वयं सिद्ध है। विश्व का कभी भी सर्वथा नाश नहीं होता, मात्र
रहती है । अतः कोई भी अपने परिणमन में परमखापेक्षी नहीं परिवर्तन होता है और वह परिवर्तन भी कभी-कभी नहीं,
है। यही उसकी स्वतंत्रता का आधार है। अस्तित्व गुण प्रत्येक निरन्तर हुआ करता है।
द्रव्य की सत्ता का आधार है और द्रव्यत्व गण परिणमन का। यह समस्त जगत परिवर्तनशील होकर भी नित्य है और
अगरुलघुत्व गुण के कारण एक द्रव्य का दूसरे में प्रवेश संभव नित्य होकर भी परिवर्तनशील । यह नित्यनित्यात्मक है। इसकी
नहीं है। नित्यता स्वतः सिद्ध है और परिवर्तन स्वभावगत धर्म।
सद्भाव के समान अभाव भी वस्तु का धर्म है । कहा भी है
"भवत्यभावोऽपि च वस्तु धर्मा:7 नित्यता के समान अनित्यता भी वस्तु का स्वरूप है। सत् उत्पाद-व्यय ध्रौव्य से युक्त होता है। उत्पाद और व्यय परिवर्तन
अभाव चार प्रकार का माना गया है.शीलता का नाम है और ध्रौव्य नित्यता का। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद
प्रार्गाभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव व्यय-ध्रौव्य से युक्त है। अत: वह द्रव्य है। द्रव्य गण और पर्यायवार होता है। जो द्रव्य के संपूर्ण भागों और समस्त अवस्थाओं में रहे
एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्ताभाव होने उसे गुण कहते हैं तथा गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है।
के कारण भी उसकी स्वतंत्रता सदाकाल अखण्डित रहती है जहाँ
अत्यन्ताभाव द्रव्यों की स्वतंत्रता की दुंदुभि बजाते हैं। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अनन्त गुण होते हैं जिन्हें दो भागों में
जैन दर्शन के स्वातन्त्र्य सिद्धान्त के आधारभूत इन सब वर्गीकृत किया जाता है । सामान्य गुण और विशेष गण। सामान्य गण सब द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं और
विषयों की चर्चा जैन दर्शन में विस्तार से की गई है। इनकी विशेष गुण अपने-अपने द्रव्य में पृथक्-पृथक् होते हैं।
विस्तृत चर्चा करना यहाँ न तो संभव और न अपेक्षित । जिन्हें जिज्ञासा हो, जिन्हें जैन दर्शन का हार्ट जानना हो, उन्हें उसका
गंभीर अध्ययन करना चाहिए। ५. आचार्य उमास्वामी: तत्वार्थसूत्र, अध्याय ५ सूत्र ३० ६. वही अध्याय ५ सूत्र ३८
७. आचार्य समन्तभद्र : युक्त्यनुशासन, कारिका ३९ (जैन दर्शन में पुद्गल का स्वरूप....पृष्ठ ६४ का शेष) (स्पर्श, रस, गन्ध, शब्द) के विषयभूत होते हैं,
गुण की दृष्टि से पुद्गल परमाणु इस लोक में एक सिरे से सूक्ष्म बादर कहलाते हैं। जैसे वायु, गैस आदि ।
दूसरे सिरे तक लगातार गति करते रहते हैं। लोक का ऐसा कोई मनोवर्गणा, भाषा वर्गणा और वायु वर्गणा, अतीन्द्रिय
भी प्रदेश नहीं हैं जहाँ पुद्गल का अस्तित्व नहीं हो। यह सर्वत्र पुद्गल स्कन्ध सूक्ष्म कहलाते हैं, ये इन्द्रिय ग्राह्य भी
व्याप्त है। पुद्गल परमाणुओं का स्कन्ध में तथा स्कन्ध का
पदगल परमाणुओं में परिवर्तन लगातार होता रहता है, किन्तु नहीं होते हैं।
यह परिवर्तन भी काल सापेक्ष दृष्टि से होता है। ६. अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्कन्धों से भी सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध (द्विप्रदेशी) अति सूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं।
चूंकि परमाणु पुद्गल की सूक्ष्मतम इकाई है और निश्चय पूदगल अस्तिकाय के स्वरूप को, उसकी दस प्रकार की
नय की दृष्टि से ही मूर्त माना गया है। इसलिये स्वयं परमाण अवस्थाओं द्वारा भी समझा जा सकता है। वे क्रमशः शब्द, बन्ध,
में गलन मिलन की प्रक्रिया नहीं है। यदि किसी तरह से यह सक्ष्मस्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप तथा उद्योत हैं।
प्रमाणित हो जावे कि गलन-मिलन की प्रक्रिया केवल पूदगल
स्कन्धों पर ही लागू होती है, तो इस शुद्ध पुद्गल परमाणु ___ शब्द की उत्पत्ति महास्कन्धों के संघट्ट से होती है, बन्ध को पुद्गल की परिभाषा से मुक्त किया जा सकता है। यह की स्थिति परमाणु तथा स्कन्ध दोनों में सम्भव है। श्वेताम्बर विचार का, शोध का विषय है। परम्परा के अनुसार जघन्य अंश वाले परमाणु का अजघन्य अंश वाले परमाणु के साथ बन्ध होता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा के
पुदगल की उपयोगिता के बारे में विचार करें तो पुदगल अनसार बन्ध केवल एक ही स्थिति में होता है, जब दोनों पुदगल का मनुष्य जीवन पर बहुत उपकार है। सम्पूर्ण सृष्टि की रचना परमाण में स्निग्धता तथा रूक्षता के अंश जघन्य नहीं हों, और ही पौद्गलिक है। शरीर, आहार, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छवास, दोनों में दो अंशों से अधिक का अन्तर नहीं हो। इसी प्रकार द्रव्यमन, द्रव्य कर्म, नो कर्म सभी पुद्गल की ही पर्याय है। निश्चय सूक्ष्म, स्थल, भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत भी पुद्गल अस्ति- नय की दृष्टि से देखा जाये तो जीव (शुद्ध) को छोड़कर संसार काय (स्कन्ध) की अवस्था है।
की प्रत्येक वस्तु पुद्गल पर्याय है।
वी.नि.सं. २५०३
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आध्यात्मिक विकास के सोपान
भूमिका
अनादिकाल से वासनाजन्य संसार में कर्म बंधनों से आबद्ध चेतन प्रतिसमय कर्मजन्य विभावदशा द्वारा आरोह अवरोह के झुला में झूलता रहता है। कभी वह उन्नत दशा में रहता है, कभी अवनत दशा में रहता है। अतः चेतन का विकास पतन के नापक (बैरोमीटर) रूप गुणस्थान जैन शास्त्रों में गंभीरता के साथ शास्त्रीय विषय का मुख्य स्थान प्राप्त कर चुके हैं ।
यतीन्द्रविजयजी
पूर्व महर्षियों ने इन गुणस्थानों का स्वरूप, लक्षण एवं विस्तार के कई पांडित्यपूर्ण अन्य निर्माण करके तत्व जिज्ञासु महानुभावों की जिज्ञासा तृप्त करने हेतु भगीरथ पुरुषार्थ किया है। तदनुसार मैं भी यत्किंचित् रूप से गुणस्थान के स्वरूप द्वारा आध्यात्मिक विकास की मुख्य भूमिका इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूं ।
न्याय, व्याकरण - काव्यतीर्थं साहित्यशास्त्री
चेतन का विकासक्रम
शरीर के अंगोपांग का विकास शारीरिक विकास कहा गया है । मन से संबंधित विकास मानसिक विकास माना गया है इसी प्रकार चेतन के मूलभूत गुण का विकास आध्यात्मिक विकास से संबोधित किया है ।
ऋतु में शीत, ग्रीष्म एवं वर्षा का क्रम होता है । काल में भूत, भविष्य, वर्तमान का क्रम होता है । लोक में स्वर्ग, मृत्यु, पाताल का क्रम होता है ।
शरीरधारी प्राणियों की अवस्था में बाल, युवा, वृद्ध का क्रम होता है ।
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वैसे ही चेतन के विकासक्रम में बाह्यात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा का विकास क्रम निर्देशित है, जैन दर्शन में यही विकास
क्रम के अन्तर्गत चौदह गुणस्थान की चर्चा की गई है। इन चौदह गुणस्थानों के माध्यम से ही चेतन का विकास क्रम परि लक्षित होता है, प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में बाह्यात्मा, चौबे से बारहवें गुणस्थान में अंतरात्मा एवं तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में परमात्मा का स्थान निश्चित किया है। गुणस्थान की परिभाषा
चेतन के गुण या शक्ति का साक्षात्कार जिन स्थानों में किया जाय अर्थात् कि आत्मशक्ति या विकास की भूमिका जो बतला दे उनको गुणस्थान कहते हैं।
अनंत गुणों को प्रकर्ष, अपकर्ष की तरतमता को ध्यान में लेवें तो अनंत गुणस्थान हो जाय किन्तु जिज्ञासु सरलता से आत्मविकास की भूमिका को जान सके इसलिये गुणस्थान की संख्या चौदह निर्धारित की है।
गुणस्थान के नाम
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
(२) सास्वादन गुणस्थान
(३) सम्पक मिध्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान
(४) अविरत सम्पदृष्टि गुणस्थान
(५) विरताविरत ( देशविरती ) गुणस्थान
(६) प्रमत्त गुणस्थान
(७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान (८) निवृत्ति गुणस्थान ( ९ ) अनिवृत्ति गुणस्थान (१०) सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान (११) उपशांत मोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान
राजेन्द्र- ज्योति
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(१३) सयोगी केवली गुणस्थान
(१४) अयोगी केवली गुणस्थान गुणस्थानों की उपयोगिता
यह एक सनातन नियम है कि जो कोई पदार्थ में परिवर्तन न होता हो तो उनके विषय में कुछ सोचना ही व्यर्थ है। अतः चेतन में कुछ परिवर्तन होता है इससे मालूम होता है कि चेतन अनादिकाल से अशुद्ध दशा में रहा था । क्रमशः उनमें विकास होने लगता है तो वह मंद या तीव्र गति से ऊपर आरोहण करता हुआ गुणस्थानों की भूमिका पार कर शुद्ध-शुद्ध निरंजन निराकार शाश्वत धाम में पूर्ण विकास की श्रेणी पर पहुंचता है। अतः चौदह गुणस्थानों की उपयोगिता चेतन के विकास निमित्त अत्यन्त आवश्यक है।
(३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (मिश्र)
विचित्र परिणाम की धारा में बहता चेतन कभी-कभी न तो शुद्ध पदार्थ की श्रद्धा करता है एवं न अशुद्ध पदार्थ को छोड़ता है। अतः संदिग्ध विचारधारा में डबे हए संसारी जीव को जो भूमिका प्राप्त होती है उसको सम्यग्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इस भूमिका पर बैठे चेतन को मिथ्यात्व का विष मूछित अवश्य करता है, किन्तु प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा यहाँ पर उनका प्रभाव कमजोर माना गया है।
प्रथम और तीसरे गुणस्थान में फर्क इतना ही है कि प्रथम में चेतन एकांत मिथ्यावादी रहता है, जबकि तीसरे में संदिग्ध दशा में रहने के कारण सत्य की ओर जाना एवं असत्य की ओर से रुकना असंभव सा लगता है। अन्न के स्वाद का अनजान की सुन्दर अन्न से निर्मित भोजन के प्रति अपेक्षा होती है वैसे मिश्र परिणाम के वशीभूत होकर चेतन शुद्ध पदार्थ केप्रति अपेक्षा धारण करता है।
गुणस्थान का संक्षिप्त स्वरूप (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
वीतराग प्ररूपित विभिन्न पदार्थों के स्वरूप प्रति दर्शन-मोहनीय के प्रभाव से विपर्यास मति द्वारा शुद्ध को अशुद्ध, सत्य को असत्य, निर्मल को मलिन के रूप में प्रतिभासित करने वाली अवस्था मिथ्यात्व की मानी जाती है वही अवस्था प्रथम गुणस्थान की मानी गई है। जब तक आत्म-प्रदेश पर से दर्शन मोहनीय कर्म का आवरण नहीं हटता है तब तक चेतन शुद्ध पदार्थ प्रति रुचि धारण नहीं करता है। कोई कहता है कि जहाँ केवल अशुद्ध वातावरण एवं विपर्यास दशा है उनको गुणस्थान कैसे कहा जाय ? प्रत्युत्तर में ज्ञानी पुरुषों ने दर्शाया कि यद्यपि प्रथम गुणस्थान में दृष्टि अशुद्ध होती है फिर भी कुछ जीवों में भद्र-परिणाम, सरल प्रकृति आदि गुण दिखाई देता है अतः मिथ्यादृष्टि की भूमिका भी गुणस्थान के रूप में निर्धारित की है। (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ___अनादिकालीन संसार चक्र में परिभ्रमण करता चेतन तथाविध परिणाम के द्वारा आयुजित सात कर्मों की स्थिति को घटाकर करीबन एक कोड़ी-कोड़ी सागरोपम जितनी स्थिति रखकर राग द्वेष की निबिड ग्रंथी के समीप पहुंचता है। जो शिथिल 'पुरुषार्थी होता है वह राग द्वेष की ग्रंथी की धनता देखकर वापस लौट जाता है, जबकि जो प्रबल पुरुषार्थी होता है वह राग द्वेष की ग्रंथी को तोड़कर सम्यग्दर्शन के निर्मल परिणाम को प्राप्त करता है। वही परिणाम की धारा बढ़ाता हुवा मुक्ति के मंगल मंदिर में अग्रसर होने के बावजूद सम्यग्दर्शन की निर्मल धारा से परिस्थितिवश च्युत होता है, तब सम्यग्दर्शन का स्वाद एवं मिथ्यात्व का मिश्रण जिस भूमिका पर होता है उनको सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। क्षीर का भोजन करने पर बमन होता है तब कुछ अंश क्षीर का स्वाद प्राप्त होता है वैसा इस गुणस्थान में चेतन को सम्यग्दर्शन का स्वाद प्राप्त होता है।
(४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
जीवाजीवादि नव तत्वों की शुद्ध श्रद्धा की ज्योति अंत:करण में प्रज्वलित करके चेतन अनादिकालीन मिथ्यात्व के गहरे अंधेरा को दूर करने के पश्चात् शुद्ध पदार्थ की सच्ची रुचि प्राप्त करे उस भूमि का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। यद्यपि इस भूमिका पर पहुंचने के बावजूद चारित्र मोहनीय का उदय रहता है। अतः अनित्य संसार के अनित्य पदार्थों से विरक्ति नहीं प्राप्त होती है किन्तु अनित्य पदार्थ के राग की मलीनता अंतर से धुल जाती है एवं मोक्ष मार्ग की साधना में सन्निष्ठ वफादार उम्मीदवार बनकर मुक्ति रूपी मानिनी का प्रियतम होने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त करता है। जड़ पदार्थों की आसक्ति रूप आवरण में ढंका चेतन की पहिचान शुद्ध दर्शन से होती है। अतः यह चतुर्थ गुणस्थान मोक्ष मार्ग में सीमा स्तंभ के रूप में शोभता है। यह गुणस्थान की प्राप्ति की पहिचान शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य रूप पाँच लक्षणों से होती है । (५) विरताविरत ( देशविरति) गुणस्थान
निर्मल-दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् चेतन को शुद्ध चारित्र गुण की प्राप्ति अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु चारित्र मोहनीय कर्म के प्रभाव से चेतन विरति रूप चारित्र को प्राप्त नहीं करता है, फिर भी दर्शन प्राप्ति के बाद कुछ अंश में चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से व्रत नियम प्राप्त करता है, उनको देशविरति कहते हैं। वह देश विरति जीवन की भूमिका को विरताविरत गुणस्थान के रूप में संबोधित करते हैं। (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान
इस भूमिका पर सम्यग्दृष्टि आत्मा का आगमन होने के बाद हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन, परिग्रह रूप पाँच पापों का शुद्ध मनवचनकाया से त्रिविध नवकोटि के त्याग के कारण चारित्र
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गुणका विकास हो जाने से विरति (संयम) आत्मा अवश्य है । साथ में कुछ अंश में प्रमाद रह जाता है। अतः प्रमत्त संयत गुण स्थान के नाम से प्रतिपादित किया गया है ।
(७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान
जब आत्म- परिणति की तीव्र जागृति द्वारा संयम के पालन में अप्रमत्तभाव से लगन लगती है, धर्मध्यानादि के आलंबन में प्रयत्नशील बनने की तीव्र झंखना पैदा होती है, तब अप्रमत्त संवत गुणस्थान माना गया है। आत्म जागृति की मात्रा में वृद्धि सातवें गुणस्थान पर एवं कुछ महत्ता छठे गुणस्थान में मानी गई है, वर्षों के चारित्र पालन में कभी-कभी अप्रमत्तभाव आ जाता है ।
(८) निवृति गुणस्थान
संसार के चक्र में फँसे चेतन को कभी जो परिणाम की प्राप्ति न हुई हो, वह परिणाम, अपूर्व आत्म परिणाम इस गुणस्थान होती है। कोई यहाँ से विख्यगामी चेतन मोहनीय कर्म की मलिनता को दबाकर नौवें दशवें गुणस्थान में होकर ग्यारहवें में पहुंचता है किन्तु वहाँ दबी हुई मोह कर्म की प्रकृति प्रभावशील होकर चेतन को नीचे गिराती है एवं उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है । साधना की दो श्रेणी मानी गई है एक उपश्रम श्रेणी, दूसरी क्षपक श्रेणी । उपश्रम श्रेणी का साधक ऊपर पहुँचकर भी वापस नीचे गिरता है, क्षपक श्रेणी का साधक स्थिर कदम से विकास के आगे ही बढ़ता है। अतः आठवां गुणस्थान दो रास्ते के रूप में निर्धारित है।
(१) अनिवृत्ति गुणस्थान
आठवें गुणस्थान की साधना का कार्य चेतन यहां आकर आगे बढ़ाता है। यहां आने के बाद मोह कर्म का शमन करता है या क्षय करता है । मोह कर्म के अभाव में या दबाव में आने के पश्चात् कामवासना का भी लय होता है। चूंकि सूक्ष्म या सुप्त कामवासना कभी-कभी साधक को अपनी साधना से नीचे गिरा देती है अतः यहाँ पर सूक्ष्म कामवासना का नाश हो जाने से साधक का रास्ता सरल हो जाता है ।
(१०) सूक्ष्मस पराय गुणस्थान
परिणाम की उच्च धारा के कारण अंतःकरण से स्थूल कषायों की मात्रा में कमी आती है, साथ में सूक्ष्म कषाय भी यहाँ के बाद नष्ट होने की स्थिति पर पहुंचता है । दशवें गुणस्थान पर क्रोध, मान, माया के नाश के अलावा सूक्ष्म लोभ भी दब जाता है या क्षय पाता है, अतः सूक्ष्मसापराय गुणस्थान माना गया है ।
(११) उपशांत मोह गुणस्थान
कर्म-पाश के बंधनों को काटता चेतन स्वतंत्र स्वरूप अभिव्यक्ति को पाकर कम से कम एक समय एवं अधिक से अधिक अंतर्मुहुर्त तक यह गुणस्थान की मनोहर भूमिका पर परमोच्च वीतराग दशा का अनुभव करता है। बादलों से ढँके सूर्य की प्रभा
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कभी छिप जाती है कभी खुलती है। वैसे ही कमों के आवरण से घिरे चेतन की ज्ञान प्रभा प्रकाशित होती है, कभी तिरोहित होती है। इस भूमिका के परिणाम की विचित्रता के कारण कभी-कभी मोह-मुक्ति के निकट पहुंचने के बावजूद नीचे गिरना पड़ता है। यहाँ से छठे सातवें, पाँचवें चौथे या पहले गुणस्थान पर चेतन पहुँच जाता है ।
(१२) क्षीणमोह गुणस्थान
विकासक्रम के ग्यारह सोपान का आरोही चेतन कर्म संग्राम में जूझता यहां आकर मोह कर्म का क्षय रूप विनाश करके विजय श्री की पुष्पमाला पहनने योग्य बन जाता है। एक ही मोह-कर्म का क्षय हो जाने से अन्य घातीकर्म शीघ्रता से अपना डेरा-तम्बू चेतन के आत्मप्रदेशों से उठाने लग जाते हैं। यह गुणस्थान की महिमा ही अनोखी है। इसका नाम क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है।
(१३) सयोगी केवली गुणस्थान
बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर पहुँच कर मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन चार कर्मों को क्षय कर तेरहवें गुणस्थान में आते ही चेतन ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य रूप चार आत्म- गुणों की प्रभा का विस्तार बढ़ाने लगता है । सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बनकर शेष अघाती कर्मों के विपाक का अनुभव सहज भाव से करता है । तेरहवें सोपान के आरोहण पश्चात् मुक्ति के किनारे लगने में अब कोई आंधी तूफान आने वाला नहीं है। निराबाध रूप से मुक्ति की मंजिल में पहुंचना यहाँ से ही होता है ।
(१४) अयोगी केवली गुणस्थान
सयोगी केवली अपनी आयु के अंतिम क्षणों में मन, वचन एवं काय योग का निरोध करके अयोगी अवस्था में प्रवेश करता है । योगरोधन की प्रक्रिया से आत्मप्रदेशों में, शैलेसीकरण द्वारा अपूर्व स्थिरता पैदा होती है यही निष्कंप दशा में पांच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण की अल्प समयावधि में चेतन मुक्ति के मंगल मंदिर में बिराजमान होता है ।
विकास की चरम सीमा
आध्यात्मिक विकास के चौदह सोपान के आरोहण पश्चात् शुद्ध-बुद्ध निरंजन निराकार, चिदानन्द स्वरूप चेतन के विकास की यही चरम सीमा है। इससे बढ़कर विकास की अवस्था संसार में कहीं नहीं है। अवनति का परम बिन्दु मिया एवं उन्नति का चरम बिन्दु मोक्ष है। दोनों बिन्दुओं के बीच साधना का दीर्घ मार्ग बना हुआ है। जाति, विकास में सहायक होती है, प्रमाद विनाश में सहायक होता है। जागृति एवं प्रमाद के जनक ध्यान को माना गया है। शुभ ध्यान जागृति का जनक है, अशुभ ध्यान प्रमाद का जनक है । ध्यान एवं गुणस्थान दोनों में क्षीर-नीर जैसी मैत्री है। चार ध्यान में से प्रथम दो आर्त, रौद्र एक से तीन गुणस्थान पर, चौथे-पाँचवें
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गुणस्थान में सम्यग्दर्शन के प्रभाव में आर्त के अलावा धर्मध्यान आता है। छठे गुणस्थान में संयम के आलम्बन से आर्तध्यान होने के बावजूद धर्मध्यान की मुख्यता रहती है । सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान रहता है। आठवें से बारहवें तक पांच गुणस्थानों में धर्म एवं शुक्लध्यान रहता है। तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में केवल शुक्लध्यान रहता है। यही शुक्लध्यान की तीव्र ध्यानाग्नि से सकल कर्म कष्टों को जलाकर, भस्म करके, चेतन शुद्ध कुन्दन सम अपने स्वाभाविक ज्ञानमय आत्मस्वरूप के रसास्वादन में मग्न होता है।
जैनदर्शन के अलावा आजीविका सम्प्रदाय से आध्यात्मिक विकास की आठ सीढ़ियां बतलाई हैं । बौद्ध दर्शन में जीव विकास की छह स्थितियाँ निर्देशित की हैं।
योगशास्त्र के महाभाष्य में चित्त की पाँच वृत्तियों के विकास क्रम का वर्णन है । योगवासिष्ठ में ज्ञानदशा की सात भूमिका दर्शायी है। एक या दूसरे रूप में सभी जगह आध्यात्मिक विकास की चर्चा अवश्य है किन्तु गुणस्थान के विकास क्रम सरीखा शृंखलाबद्ध सु-संगत सर्वांगपूर्ण वर्णन जैनदर्शन की अनुपम देन है। इस प्रकार जैनदर्शन की मौलिक संपत्ति स्वरूप गुणस्थान का वर्णन आध्यात्मिक विकास के सोपान लेख के माध्यम से किया है जिनका मनन, चिन्तन एवं परामर्श द्वारा गुणस्थान की भूमिका पर आरोहण करता चेतन देवेन्द्रों-नरेन्द्रों एवं यतीन्द्रों से अभिलिखित, प्रशंसित एवं इष्ट सौभाग्यलक्ष्मी से अंकित मुक्ति के परमधाम को प्राप्त करे। यही मंगल कामना ।
गुणस्थानों की आधारशिला गुणस्थान जैनदर्शन का मौलिक पदार्थ है। चेतना के विकास क्रम की नींव है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरी महाराज ने गुणस्थान के आधार पर ही श्री योग-दृष्टि-समुच्चय में आठ दृष्टि द्वारा विकास क्रम निर्दिष्ट किया है।
कुस चीवरा धारण करने से कोई तापस नहीं कहाता,
___ ऋषि मुनि नहीं बना करते हैं केवल निर्जन में रहने से। समता-दर्शी , श्रमण, ब्राह्मण ब्रह्मचर्थ से,
तपसे तपसी और मनन से मुनि होता है । कर्म प्रभावित करता जन को, यह सुनि चारित,
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, सब कर्माधारित ।।
बशीर अहमद 'मयूख',
समाजवाद
कर्मणाधर्म: ण वि मुंडिएण समजो, ण ओंकारेण बंभणो ।
मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो ॥२५॥३१ समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो ।
नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो॥३२।। कम्भुणा बंभणो होइ, कम्भुणा होइ खत्तिओ । बईसो कम्भुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्भुणा ।।३३।।
(उत्तराध्ययन) सिर मुंडन से कोई श्रमण नहीं बन जाता,
और ब्राह्मण नहीं ओम का जप करने से,
जं इच्छसि अप्पण तो,
जं च न इच्छसि अप्पण तो। तं इच्छ परस्स वि, एत्तियंग जिणसाउयणं ॥४५८४।।
(बृहत्त कल्प भाष्य) जो तुम अपने लिये चाहते,
वही अन्य के हित भी चाहो ।। जो निज के हित नहीं चाहते,
दीन, अन्य को वह परिवेश ।। बस इतना ही जिन शासन है,
यही तीर्थंकरों का उपदेश ।।
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रीता दिन
और आज का दिन भी यूं ही बैठे बैठे अर्थहीन बातों में बीत गया । अपने हित कुछ किया नहीं औरों को भी कुछ दिया नहीं। न सीखा : न पढ़ा एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा : माथे पर पसीना आया नहीं दिल खोल कर गाया नहीं। जीवन घट का एक और बिन्दु यूं ही रीत गया
-और आज का दिन भीप्रभु मुझको क्षमा करो बस इतनी करुणा करो कि ऐसे खाली सुबह शाम जिनमें सधे न सार्थक काम और न गुजरे दो दिन का जीवन है-- कुछ तो कर गुजरें।
- दिनकर सोनवलकर
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गुणस्थान-आत्मोत्थान के सोपान
मुनि महेन्द्रकुमारजी 'कमल'
आरोह की ओर
आत्मा ही परमात्मा बनती है । परमात्मा की विशिष्ट रूप में कोई पृथक् सत्ता नहीं है । आत्मा निखर कर ही जब अपने स्वरूप में पहुँच जाती है तो वह परमात्मा कहलाती है । तब फिर इस परमात्मा का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता । सदा के लिए वह संसार से मुक्त हो जाता है । जितनी भी आत्माएं सिद्धशिला पर मिलती है, वे ज्योति में ज्योति के समान एकाकार हैं ।
इसे ही आत्मा-विकास का सर्वोच्च सोपान माना गया है । जिस तक पहुँचने के लिए कई सोपान पार करने पड़ते हैं । आत्म-परिष्कार को उत्कृष्टता के साथ-साथ गतिक्रम आरोह की ओर बढ़ता है । किस समय आत्म-शुद्धि का क्या स्तर है, उसकी कसौटी गुणस्थान के रूप में निर्धारित है । संक्षेपत: आत्मोत्थान के मान-स्थान बताने वाले गुणस्थान होते हैं। समग्र कर्म-मुक्ति
मूल स्वरूप में तो संसारी एवं सिद्ध आत्माओं में कोई अन्तर नहीं है । जो अन्तर है वह दोनों के वर्तमान स्वरूप में है । बह कर्मों की श्लिष्टता या संपृक्ति का है । जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त का निचोड़ यह है कि आत्मा का अजीव तत्व के साथ संयोग तथा उसका संसार में परिभ्रमण कर्म-संलग्नता के कारण होता है। शरीर के साथ सम्बन्ध होने के बाद आत्मा की जिस रूप में शुभ अथवा अशुभ परिणति होती है, तदनुसार उसके शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बंध होता है । इस तरह बंधे हुए कर्म भोगने पड़ते हैं तथा निरन्तर सक्रियता के कारण नये कर्म भी बंधते रहते हैं । इस कर्म बंध को जहाँ एक ओर संयती जीवन के माध्यम से संवरित किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर निर्जरा के रूप में उनका उपशम एवं क्षय भी सम्भव है।
जब कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर लिया जाता है तब आत्मा को मोक्ष को उपलब्धि होती है । इस मोक्ष को हम कर्म-मुक्ति या आत्मविकास का, आत्मोत्थान का सर्वोच्च सोपान कहते हैं, जो आत्मा को परमात्मा बनाता है ।। ___इस दृष्टि से वर्तमान आत्म-स्थिति सांसारिकता है । अन्य शब्दों में--कर्म संलीनता, उसकी इस हेतु विकास दिशा, यही है कि वह कर्म-मुक्ति की ओर पग उठाए और समग्र कर्ममुक्ति पर्यन्त सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की आराधना में निमग्न रहे। दो छोर-बंध और मोक्ष
जब तक कर्म बंध का क्रम चालू रहेगा तब तक आत्मा संसारी-आत्मा रहेगी एवं समग्र कर्म-मुक्ति के बाद वह सिद्ध वन जायगी । अतः आत्म विकास के रूप में जो पुरुषार्थ करना हैजो पराक्रम दिखाना है, उसका अर्थ कर्म-मुक्ति की दिशा में ही कर्मठ और पराक्रमी बनना है । इस विकास पथ का एक छोर कर्म बंध का है और दूसरा अन्तिम छोर है कर्म-मुक्ति।
आओ ! आत्मा के मूल स्वरूप एवं कर्म-बंध तथा कर्म-मुक्ति के दोनों छोरों को भली-भाँति समझने के लिए एक दृष्टान्त का आश्रय लें । एक नया दर्पण है-बहुत स्वच्छ है । इसमें देखें तो आकृति एकदम हुबहू दिखाई देगी। फिर वह उपयोग में आने लगता है, उस पर धूल-मिट्टी या चिकट जमने लगती है । कभी बंद मकान में पड़ा रहता है और धूल-मिट्टी की इतनी पर्ते जम जाती हैं कि उसमें प्रतिच्छाया तक दिखना बंद हो जाती है । इस तरह वह दर्पण अपने अर्थ में दर्पण ही नहीं रह जाता । उसी प्रकार आत्मा अनादि काल से इस संसार में भ्रमण कर रही है। इसके स्वरूप पर उस दर्पण की तरह कर्मों का मेल लगता जा रहा
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है । अज्ञान एवं विकार की दशा में इस गर्त की पर्ते मोटी-सेमोटी चढ़ती जाती हैं और वे क्रमशः इतनी मोटी हो सकती हैं कि आत्मा की गुणों के ओर, उसकी शक्तियों की झलक तक दिखना बंद हो जाती है । आत्मा की इस स्थिति को हम उसकी पतितावस्था कह सकते हैं।
किन्तु इस दृश्यहीन दर्पण को भी हम स्वभावहीन नहीं मान सकते क्योंकि उसका दृश्यत्व नष्ट नहीं हुआ है, बल्कि वह दब गया है। यदि पूरे मनोयोग और परिश्रम से उसे साफ करने का यत्न किया तो वह फिर से यथापूर्वक साफ हो सकता है, प्रतिबिम्ब उसमें फिर से वैसा-का-वैसा दिखाई दे सकता है । सही ज्ञान, सही आस्था, एवं सही आचरण की सहायता से इस संसारी आत्मा पर लगे कर्ममेल को धोने का कठिन प्रयास भी किया जाय तो भावना एवं साधना की उत्कृष्टता से आत्मा को उसके मूल-स्वरूप में उसे अवस्थित कर सकते हैं-पूर्ण निर्मल, पूर्ण सशक्त ।।
इसी के साथ इस तरह कर्म-मुक्ति के अंतिम छोर की उपलब्धि हो जाती है। कर्म सिद्धान्त और गुणस्थान
जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त मनुष्य को ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व अथवा भाग्यवाद के भ्रम से मुक्त करता है और उसे अपने भाग्य का स्वयं निर्माता होने का विश्वास दिलाता है । हम आज जो कुछ भी भुगत रहे हैं अच्छा या बुरा, निःसंदेह उसकी जड़ें भूतकाल में है, जिन्हें हमने काभी रोपा है । अर्थ स्पष्ट है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी स्वयं अपने भाग्य का निर्माता तथा अपने कर्म भोग के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है । जैसा कर्म वैसा फल, यह है कर्मवाद । पाप कर्म आत्मा को डूबोता है, पुण्य उसे तिराता है। किन्तु पुण्य कर्म को भी नाव के समान छोड़ने पर ही दूसरे किनारे पर पाँव रखा जा सकता है । सभी प्रकार के कर्म क्षय के बाद ही मोक्ष का दूसरा तट हाथ लगता है ।
संसार के महोदधि में कौनसी आत्मा कितनी गहरी डुबी हई है या कौनसी किस ओर तैर रही है अथवा कौनसी कब किनारे लग जाएगी । इसकी जो मापक दृष्टि है, वही गुणस्थान दृष्टि है । आत्मा का गुण है उसका मूल स्वरूप । इसी की सम्पूर्ण उपलब्धि की दृष्टि से आत्मा के विकास सोपान का निर्णय गुण-स्थान की दृष्टि से ही सम्भव होता है । आत्मोत्थान के १४ सोपान
मोह और योग के निमित्त से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, एवं सम्यक् चारित्र रूप आत्मा के गुणों की तारतम्यता हीनाधिकता रूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं । अन्य शब्दों में-मोह, मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण जो उतार-चढ़ाव होता है उसे गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान के इस रूप में चौदह सौपान कहे गए हैं--१. मिथ्यात्व, २. सास्वादन, ३. मिश्र, ४. अविरति सम्यक्
दृष्टि, ५. देश विरति श्रावक, ६. प्रमत संयत, ७. अप्रमत्त संयत, ८. निवृति बादर, ९. अनिवृति बादर, १०. सूक्ष्म सापराय, ११. उपशान्त मोहनीय, १२. क्षीण मोहनीय, १३. सयोगी केवली एवं १४. अयोगी केवली ।।
आत्मा का मूल स्वरूप शुद्ध चेतनामय शक्ति संपन्न तथा आनन्दपूर्ण होता है । कर्मों के आवरण दर्पण की धूलि-पों की भांति उस स्वरूप को ढंक देते हैं। इन आठ कर्मों के आवरणों में सबसे अधिक सघन आवरण होता है मोहनीय का । इसे सब कर्मों का राजा कहा गया है । मोह आत्म-भावों में जब तक बलवान रहता है, दूसरे कर्मों के आवरण कठिन बने रहते हैं और यदि इस मोह दुर्ग की प्राचीरें तोड़ी जा सके तो अन्य कर्म सूखे पत्तों की तरह स्वयं झड़ने लगते हैं ।
मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं--१. आत्मा के दर्शन को अवरुद्ध बनाती है । उसके स्वरूपानुभव को कुण्ठित करती है। २. यदि स्वरूपानुभव कदाच कुंठित न हो जाय तो भी उसे कर्म क्षय कराने वाली प्रवृत्तियों में जुटने नहीं देती । स्वरूप के यथार्थ दर्शन तथा उसमें स्थित होने के प्रयास रुद्ध करने वाली शक्तियाँ मोह कर्म की होती हैं। इन्हें दर्शन मोह एवं चारित्र मोह की संज्ञा दी गई है।
आत्मा की विभिन्न स्वरूप स्थितियां इसी मोहनीय के हिंडोले में झूलते हुए बनती हैं । आत्मा का पतन और उत्थान, पतन से उत्थान और उत्थान से पतन पुनः इसी हिंडोले में होता है । जो आत्मा इन गुणस्थानों की स्थिति को समझ कर अपने मनो भावों आदि में आवश्यक संतुलन एवं स्थिरता अजित कर लेती है वह क्रमशः ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ती रहती है तथा अपनी साधना की अन्तिम परिणति मुक्ति प्राप्त कर लेती है। आत्म-शक्तियों का आरोह-अवरोह
अविकसित तथा अध:पतित आत्मा की अवस्था प्रथम गुणस्थान में होती है । इसमें मोह की दोनों शक्तियों का जोर बना रहता है और वे दृढ़ता से आत्म स्वरूप को आच्छादित कर लेती हैं । इस अवस्था में आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति लगभग पतित-सी होती है और कैसा भी आधिभौतिक उत्कर्ष के होने पर भी उसकी प्रवृत्ति तात्विक लक्ष्य से पूर्णतः शून्य ही बनी रहती है। ऐसी आत्मा की मति दिग्भ्रान्त होती है तथा वह विपरीत प्रवृत्ति में यात्रा करती रहती है । यही मिथ्या-दर्शन है । मिथ्यात्व नाम जड़ता का है, उस जड़ता का जिसमें मोह का प्रभाव प्रगाढ़तम होता है।
जैसे ही अपनी विकास यात्रा के आरम्भ में आत्मा दर्शन मोह पर यथापेक्षित विजय प्राप्त करती है, वैसे ही वह प्रथम से द्वितीय गुणस्थान में प्रवेश कर लेती है। इस समय पर-स्वरूप में स्वरूप की जो भ्रान्ति होती है, वह दूर हो जाती है । जड़ रूप मिथ्यात्व से सास्वादन गुणस्थान चेतना की ज्योति प्रज्वलित कर देता है।
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दूसरे गुणस्थान के प्रभाव से विपरीत प्रवृत्ति भी विकासोन्मुख बनने लगती है । तीसरा गुणस्थान पहले और दूसरे गुणस्थान का मिश्र रूप होता है कभी दर्शन मोह मंद पड़ जाता है, कभी वह फिर सशक्त हो उठता है । तीसरे गुणस्थान में यह धूप-छांही चलती है ।
जब परमात्म स्वरूप को आत्मा देखने और समझने लगती है तो वह सब दृष्टि गुणस्थान में बैठती है यहां उसकी दृष्टि में सम्यक् घिरता है, किन्तु व्रताचरण की प्रवृत्ति बदलती नहीं है अविरति स्थिति बनी रहती है। चौवे गुणस्थानों से आगे के समस्त गुणस्थानों की दृष्टि सम्य मानी जानी चाहिए कारण आगे के गुणस्थानों में उत्तरोत्तर विकास, दृष्टि-मुद्धि और व्रतों की क्रियाशीलता के फलस्वरूप परिपुष्ट बनती चलती है ।
मोह की प्रधान शक्ति दर्शन-मोह के मंद होने से व चारित्र - मोह के शिथिल होने से पाँचवें गुणस्थान की अवस्था प्रारम्भ होती है और आत्मा अविरित-स्थिति से देश - विरति की स्थिति में प्रस्थान करती है । यहाँ मोह की उभय शक्तियों के विरुद्ध एक उत्क्रान्ति घटित हो जाती है ।
देश विरति से आत्मा को अपने भीतर स्फुरता एवं शान्ति की सच्ची अनुभूति होती है। यहाँ इस अनुभूति को विस्तृत विषय बनाना चाहती है और सर्वविरति के छठे गुणस्थान के सोपान पर पग रख देती है । यह सीढ़ी जड़ भावों के सर्वथा परिहार की सीढ़ी होती है । इस अवस्था में पौद्गलिक भावों पर मूर्छा समाप्त हो जाती है तथा संयमसाधना में गहरी निष्ठा उत्पन्न हो जाती है। फिर भी इस सोपान पर प्रमाद का कमोबेश प्रभाव बना रहता है ।
प्रमाद पर विजय पाने का सातवां गुणस्थान होता हैअप्रमादी साधु का । विशिष्ट आत्मिक शान्ति की अनुभूति के साथ विकासोन्मुखी आत्मा प्रमाद से जूझने में जुट जाती है। इस अद्वितीय संघर्ष में आत्मा का गुणस्थान कभी छठे और कभी सातवें में ऊँचा-नीचा रहता है।
विकासोन्मुख आत्मा जब अपने विशिष्ट चरित्र बल को प्रकट करती है तथा प्रमाद को सर्वथा पराभूत कर लेती है तब वह आठवें गुणस्थान की भूमिका में पहुँच जाती है । पहले कभी नहीं हुई, ऐसी आत्म शुद्धि इस निवृत्ति- बादर गुणस्थान में होती है। आत्मा मोह के संस्कारों को अपनी संयम साधना एवं भावना के बल से दबाती है, और अपने पुरुषार्थ को प्रकट करती हुई उन्हें बिल्कुल उपशान्त कर देती है। दूसरी आत्मा ऐसी भी होती है, जो मोह के संस्कारों को जड़मूल से उखाड़ती चलती है तथा अन्ततोगत्वा सारे संस्कारों को सर्वदा निर्मूल कर देती है। इस प्रकार इस गुणस्थान में आत्म-शक्ति के स्वरूप स्थिति दो श्रेणियों में विभक्त हो जाती है । आत्म शक्तियों की ऊँची-नीची गति इन्हीं श्रेणियों का परिणाम होता है । मोह के संस्कारो को उपशान्त करने वाली आत्मा कभी-कभी इस गुणस्थान से तल
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तक पतित हो जाती है। ठीक जैसे अंगारे राख से ढंके हुए हो और हवा के एक तेज झोंके से सारी राख उड़ जाती है और अंगारे धगधग करने लगते हैं। पहली श्रेणी में ऐसी दुर्दशा सम्भव हो सकती है किन्तु दूसरी श्रेणी में प्रविष्ट आत्मा को ऐसे किसी अधःपतन की आशंका नहीं रहती ।
चाहे पहली श्रेणी वाली आत्मा हो या दूसरी, वह अपनी उत्कृष्टता से एक बार नवां दसवां गुणस्थान प्राप्त करती ही है । फिर ग्यारवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाली आत्मा एक बार अवश्य पतित हो जाती है। इस श्रेणी की आत्मा मोह को निर्मूल बना कर सीधे दसवें से बारहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाती है ।
जैसे ग्यारहवां गुणस्थान पुनरावृत्ति का है, वैसे ही बारहवां गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। ग्यारहवें गुणस्थान में प्रवेश करने वाली आत्मा का अधःपतन होता ही है, लेकिन उसको लांघकर बारहवें में प्रवेश कर जाने वाली आत्मा का परम उत्कर्ष असंदिग्ध हो जाता है ।
उपशम श्रेणी में पतन की आशंका रहती है तो क्षपक श्रेणी में उत्थान का अपरिमित विश्वास । इस दृष्टि से मोह का सर्वथा क्षय सर्वोच्च आत्म-विकास का पट्टा होता है । तेरहवें और चउदवें गुणस्थानों की भेद रेखा अति सूक्ष्म है, जिसे पार कर लेने पर आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेती है तथा परमात्म स्वरूप बन जाती है ।
मोह का आक्रमण- प्रत्याक्रमण
मोहनीय भावों में आत्मा जब तक पूर्णतया संगीन दूबी रहती है तब तक वह मिथ्यात्व के अंधकार में भटकती रहती है और उसकी स्थिति पहले गुणस्थान में होती है । इस अवस्था में जब कभी किसी कारणवश दर्शन मोह के भावों में कुछ शिथिलता आती है तो आत्मा की विचारणा जड़ से चेतन की ओर मुड़ती है । चेतन की ओर मुड़ने का अर्थ है पर स्वरूप से हट कर स्व-स्वरूप की ओर दृष्टि का फैलाव है । चेतन तत्व अर्थात् निज स्वरूप की ओर दृष्टि जाने से उसे एक अभिनव रसास्वाद की आन्तरिक अनुभूति होती है जिससे मिथ्यात्व की ग्रंथी खटकने लगती है । इस समय आत्म-क्षेत्र रणभूमि बन जाता है । एक ओर मोह के संस्कार उनसे उभरने की निष्ठा बनाने वाली आत्म-शक्ति पर आक्रमण - प्रत्याक्रमण करते हैं तो दूसरी ओर जागरुकता की ओर बढ़ने वाली आत्म शक्तियां उन आक्रमणप्रत्याक्रमणों को झेलती है । इस युद्ध में आत्म-शक्तियां यदि विजयी होती हैं तो वे आत्मा को प्रथम गुणस्थान से तृतीय और चतुर्थ में पहुंचा देती हैं । किन्तु यदि मोह के संस्कारों की प्रबलता बनी रहती है तो ऊपर की भूमिकाओं से लुढ़क कर वह पुनः मिथ्या दृष्टित्व की खाई में गिर जाती है। इस पतन में आत्मा की जो अवस्था रहती है, वह दूसरा गुणस्थान होता है इस गुणस्थान में पहले की दा आम-अधिक होती है, लेकिन यह दूसरा गुणस्थान उत्क्रान्ति का स्थान नहीं होता ।
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अरिहंत पद ____ जो अपने आत्म-शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं, उसे "अरिहंत" कहते हैं। अरिहंत एवं सिद्ध अवस्थाओं में शरीर-त्याग के सिवा अधिक अन्तर नहीं होता। किन्तु मिथ्या-दृष्टि से ले कर आत्मा अपने ही विकारों के साथ युद्ध करती अपनी सद्भावना एवं निष्ठा के बल पर कर्म-शत्रुओं को नष्ट करती, इस आध्यात्मिक युद्ध में आत्मा विकास के सोपान स्वरूप इन गुणस्थानों पर क्रमशः चढ़ती रहती है।
संघर्ष को विकास का मूल कहा गया है । आध्यात्मिक संघर्ष में आत्मा की निर्मलता की अभिवृद्धि होती है। किसी भी मानसिक विकार की प्रतिद्वन्द्विता में भी साधारण संघर्ष के समान तीन अवस्थाएँ होती हैं-पहले कभी हार कर आत्मा पीछे गिरती है, दूसरी अवस्था में प्रतिस्पर्धा में डटी रहती है तथा तीसरी अवस्था में विजय को वरण करती है।
उत्क्रान्ति करने वाली आत्मा पहले से सीधे तीसरे गुणस्थान में जा सकती है और अवक्रान्ति करने वाली आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से गिर कर दूसरे-तीसरे गुणस्थान में पहुंच सकती है। मोह भावों का अंतिम आक्रमण-प्रत्याक्रमण नवें, दसवें, गुणस्थानों की प्राप्ति के समय होता है । जहां समस्त मोह संस्कारों का संपूर्ण क्षय कर लेने वाली आत्मा दसवें से बारहवें गुणस्थान में छलांग लगा देती है और वहां से अपने चरम लक्ष्य की उपलब्धि असंदिग्ध कर लेती है । इसके विपरीत मोह संस्कारों का शमन मात्र करने वाली आत्मा ग्यारहवें गुणस्थान में प्रवेश करे ही, यह आवश्यक नहीं है, वह भी अपनी उत्कृष्टता से बारहवें गुणस्थान में पहुंच सकती है, परन्तु जो आत्मा एक बार ग्यारहवें गुणस्थान में चली जाती है, उसका पुन: पतन निश्चित रूप से होता है।
दर्शन एवं चारित्र मोहनीय कर्म की प्रभावशीलता अथवा प्रभावहीनता के आधार पर ही, आत्मा की अवक्रान्ति अथवा उत्क्रांति निर्भर रहती है। मोह संस्कारों का समूल क्षय
सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की एकाग्र साधना को मोक्ष-मार्ग कहा है । कर्म-मुक्ति है, मोक्ष है । कर्मों में सर्वाधिक शक्तिशाली मोहनीय कर्म को नष्ट करने के लिये अपने ज्ञान और अपनी निष्ठा को सम्यक्त्व की भूमिका पर लाने की जरूरत पड़ती है।
ज्ञान और आस्था के सम्यक् बन जाने पर सद्वृष्टि का विकास होता है। सद्दृष्टि वह है जो जड़ को जड़ और चेतन को चेतन तद्रूप स्पष्ट झलकाती है। इसके माध्यम से आत्मा अपने मूल स्वरूप को पहिचान कर परमात्म स्वरूप का दर्शन करती है।
जैसे दर्शन मोह के मन्द होने पर सदष्टि का विकास होता है, वैसे ही चारित्र मोह के मन्द होने पर व्रतनिष्ठा का जन्म एवं विकास होता है। दृष्टि सम्यक् होती है तो सम्यक् चारित्र की आराधना का क्रम भी प्रखर बनता है । एक छोटे से व्रत को लेकर महान साधुव्रत का परिपालन करते हुए आत्मा जब रत्नत्रय की उपासना में सुस्थिर बन जाती है तब वैसी विकासशील आत्मा मोह के संस्कारों का समूल क्षय करती है। उपशम की अपेक्षा क्षय की दिशा में पग बढ़ाना महत्वपूर्ण होता है, इसीलिये ऐसी आत्मा एक दिन अपना पूर्ण उद्धार कर लेती है। जिसे परमात्म स्वरूप का वह दर्शन करती है उसी परमात्म स्वरूप का वह वरण भी कर लेती है। तब आत्मा सदा सर्वदा के लिये अपने निज स्वरूप में स्थित हो जाती है।
इस आध्यात्मिक युद्ध में कर्मों के आक्रमण-प्रत्याक्रमण आत्म शक्तियों को गंभीर चुनौती देते हैं। यद्यपि सतत जागरुकता के बावजूद कई बार कठिनाइयों से उसमें व्यग्रता और आकुलता भी उत्पन्न हो जाती है। तथापि आत्म-विश्वास और साहस के बल पर गुणस्थानों का एक-एक सोपान चढ़ती हुई वह रणभूमि में डट जाती है। भावना एवं साधना की दृढ़ता तथा उत्कृष्टता तब उस आत्मा को गुणस्थानों की उच्चतर श्रेणियों में चढ़ाती रहती है, जिसके अन्तिम परिणामस्वरूप उसे कर्म-शत्रुओं पर विजय की आनन्दानुभूति होती है । वह अरिहंत बन जाती है। समझ कर आगे बढ़ें
आत्म विश्वास की क्रमिक अवस्थाओं-गुणस्थानों को जो भलीभांति समझ लेता है, वही आध्यात्मिक समर के मर्म को समझता जाता है। आत्मिक शक्तियों में आविर्भाव की, उनके शुद्ध कार्य रूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापन्न अवस्थाएं ही 'गुणस्थान" हैं । आत्मा की विकास यात्रा के सारे पड़ाव अविकास से विकास की ओर चौदह गुणस्थानों में देखे जा सकते हैं तथा प्रतिपल गुणस्थान कौनसा है इसका मूल्यांकन किया जा सकता है।
आत्म-विकास के सोपान गुणस्थानों का यह सिद्धान्त इस दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है तथा जो सद्विवेक एवं सप्रवृत्ति के साथ नीचे से ऊपर के सोपानों पर अपने चरण बढ़ाते रहते हैं, वे अन्ततोगत्वा अपने जीवन के चरम लक्ष्य को अवश्य उपलब्ध कर लेते हैं ।
एक ही तालाब का जल गौ और साँप दोनों पीते हैं, परन्तु गौ में वह दुध और साँप में विष हो जाता है। इसी प्रकार शास्त्रों का उपदेश भी सुपात्र में जाकर अमृत और अपात्र या कूपात्र में जाकर विष-रूप परिणमन करता है।
-राजेन्द्र सूरि
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जैनधर्म में स्त्रियों के अधिकार
पं. परमेष्ठीदास जैन
जन धर्म की सबसे बड़ी उदारता यह है कि पुरुषों की ही भांति स्त्रियों को भी तमाम धार्मिक अधिकार दिये गये हैं। जिस प्रकार पुरुष पूजा प्रक्षाल कर सकता है उसी प्रकार स्त्रियां भी कर सकती हैं। यदि पुरुष श्रावक के उच्च व्रतों का पालन कर सकता है तो स्त्रियां भी उच्च श्राविका हो सकती हैं। यदि पुरुष ऊंचे से ऊंचे धर्म ग्रन्थों के पाठी हो सकते हैं तो स्त्रियों को भी यही अधिकार है । यदि पुरुष मुनि हो सकता है तो स्त्रियां भी आयिका होकर पंच महाव्रत धारण कर सकती हैं।
धार्मिक अधिकारों की भांति सामाजिक अधिकार भी स्त्रियों के लिये समान ही हैं। यह बात दूसरी है कि वर्तमान में वैदिक धर्म आदि के प्रभाव से जैन समाज अपने कर्तव्यों को और धर्म की आज्ञाओं को भुल गया है । हिन्दू शास्त्रानुसार सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र तो होता है किन्तु पुत्रियां उसकी अधिकारिणी नहीं मानी जाती हैं।
जैन शास्त्रों में स्त्री-सम्मान के भी अनेक उल्लेख पाये जाते हैं। आज कल मूढ़ जन स्त्रियों को पैर की जूती या दासी समझते हैं, तब जैन राजा राजसभा में अपनी रानियों का उठकर सम्मान करते थे और अपना अर्धासन उन्हें बैठने को देते थे । भगवान महावीर की माता महारानी प्रियकारिणी जब अपने स्वप्नों का फल पूछने महाराजा सिद्धार्थ के पास गई तब महाराजा ने उठकर अपनी धर्मपत्नी को आधा आसन दिया, महारानी ने वहां बैठकर अपने स्वप्नों का वर्णन किया । यथा-- (संप्राप्तासिना स्वप्नान् यथाक्रममुदाहरत्) ।
--उत्तरपुराण धर्मशास्त्र पढ़ने की अधिकारिणी
इसी प्रकार महारानियों का राजसभाओं में जाने और वहां पर सम्मान प्राप्त करने के अनेक उदाहरण जैन शास्त्रों में भरे पड़े हैं। जबकि वैदिक ग्रन्थ स्त्रियों को धर्मग्रन्थों के अध्ययन करने का निषेध करते हुए लिखते हैं कि--
(स्त्री-शूद्रौ नाधीयाताम्) तब जैन ग्रंथ स्त्रियों को ग्यारह अंग शास्त्रों के पठन पाठन करने का अधिकार देते हैं । यथा--
द्वादशांगधरो जातः क्षिप्रं मेघेश्वरी गणी: एकादशांगमृज्जाताऽऽर्यिकापि सुलोचना ।।५२।।
--हरिवंशपुराण सर्ग-१२१ अर्थात-जयकुमार भगवान का द्वादशांगधारी गणधर हुआ और सुलोचना ग्यारह अंग की धारक आर्यिका हुई ।
इसी प्रकार स्त्रियां सिद्धान्त ग्रन्थों के अध्ययन के साथ ही जिन प्रतिमा की पूजा प्रक्षाल भी किया करती थी । अंजना सुंदरी ने १. श्वेताम्बराम्नायानुसार त्रिशलादेवी ।
पुत्रियां भी पिता की सम्पत्ति की भागीदार
इस संबंध में श्री भगवज्जिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराण .(पर्व ३८) में स्पष्ट लिखा है कि
पुयश्च संविभागाहाः समं पुत्रः समाशके: ।।१५४।। अर्थात् पुत्रों की भांति पुत्रियां भी सम्पत्ति की बराबर-बराबर भाग को अधिकारिणी हैं।
इस प्रकार जैन कानून के अनुसार स्त्रियों को, विधवाओं को या कन्याओं को पुरुष के समान ही सब प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं।
(विशेष जानकारी के लिये विद्यावारिधि, जैनदर्शन दिवाकर बेरिस्टर चम्पतराय जैन कृत (जैन लॉ) नामक ग्रन्थ देखना चाहिये)।
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अपनी सखी वसन्तमाला के साथ वन में रहते हुए गुफा में विराजमान जिनमूर्ति का पूजन प्रक्षाल किया था । मदनवेगा ने वसुदेव के साथ सिद्धकूट चैत्यालय में जिन पूजा की थी । मैनासुन्दरी प्रतिदिन प्रतिमा की प्रक्षाल करती थी और अपने पति श्रीपाल राजा को गंधोदक लगाती थी। इसी प्रकार स्त्रियों के द्वारा पूजा प्रक्षाल किये जाने के अनेक उदाहरण पाये जाते हैं । पूजा-प्रक्षाल की अधिकारिणी
हर्ष का विषय है कि आज भी जैन समाज में स्त्रियां भगवान का प्रक्षाल पूजन करती हैं । कहीं कहीं रूढिप्रिय लोग उन्हें इस धर्मकार्य से रोकते भी हैं और उनकी यदा-तदा आलोचना भी करते हैं । उन्हें यह सोचना चाहिये कि जो आर्यिका होने का अधिकार रखती है वह पूजा प्रक्षाल न कर सके यह कैसी विचित्र बात है ? पूजा प्रक्षाल तो आरंभ कार्य है अतः वह कर्म-बंध का निमित्त है । जिससे संसार (स्वर्ग आदि) में ही चक्कर लगाना पड़ता है जबकि आर्यिका होना संवर और निर्जरा का कारण है, जिससे क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति होती है।
अब विचार कीजिये कि एक स्त्री मोक्ष के कारणभूत संवर और निर्जरा करने वाले कार्य तो कर सकती है किन्तु संसार के कारणभूत बंधकर्ता पूजन प्रक्षाल आदि कार्य नहीं कर सकती है । यह कैसे स्वीकार किया जाय ?
जैन धर्म सदा से उदार रहा है, उसे स्त्री-पुरुष या ब्राह्मण-शूद्र का लिंग-भेद या वर्ण-भेद जनित कोई पक्षपात नहीं है । हां, कुछ ऐसे दुराग्रही व्यक्ति भी हो गये हैं जिन्होंने ऐसे पक्षपाती कथन करके जैन धर्म को कलंकित किया है। इसी से खेदखिन्न होकर आचार्यकल्प पंडितप्रवर टोडरमलजी ने लिखा था--
(बहुरि केई पापी पुरुषां अपना कल्पित कथन किया है। अर तिनको जिन वचन ठहराये हैं । तिनकों जैन मत का शास्त्र जाति प्रमाण न करना। तहां भी प्रमाणादिक तें परीक्षा करि विरुद्ध अर्थ को मिथ्या जानना।)
तात्पर्य यह है कि जिन ग्रन्थों में जैन धर्म की उदारता के विरुद्ध कथन हैं, उन्हें जैन ग्रन्थ कहे जाने पर भी मिथ्या मानना चाहिये । कारण कि कितने ही पक्षपाती लोग अन्य संस्कृतियों से प्रभावित होकर स्त्रियों के अधिकारों को तथा जैन धर्म की उदारता को कुचलते हुए भी अपने को निष्पक्ष मानकर ग्रन्थकार बन बैठे हैं। जहां शूद्र कन्यायें भी जिनपूजा और प्रतिमा प्रक्षाल कर सकती हैं (देखो गोतमचरित्र तीसरा अधिकार), वहां स्त्रियों को पूजा प्रक्षाल का अनधिकारी बताना घोर अज्ञान है। स्त्रियां पूजा-प्रक्षाल ही नहीं करती थी, किन्तु दान भी देती थीं। यथा--
श्री जिनेन्द्र पंदाभोजसपर्यायां सुमानसा । शचीव सा तदा जाता जैन धर्मपरायणा ।।८६।। ज्ञानधताय कांताय शुद्धचारित्रधारिणे । मुनीन्द्राय शुभाहारं ददौ पापविनाशनम् ।।८७।।
-गौतमचरित्र, तीसरा अधिकार
अर्थात् स्थंडिला नाम की ब्राह्मणी जिन भगवान की पूजा में अपना चित्त लगाती थी और इन्द्राणी के समान जैन धर्म में तत्पर हो गई थी। उस समय वह ब्राह्मणी सम्यग्ज्ञानी शुद्ध चारित्रधारी उत्तम मुनियों को पापनाशक शुभ आहार देती थी ।
इसी प्रकार जैन शास्त्रों में स्त्रियों की धार्मिक स्वतन्त्रता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। जहां तुलसीदासजी ने लिख दिया है--
ढोर गंवार शूद्र अरु नारी ।
ये सब ताड़न के अधिकारी ।। भ० ऋषभदेव ने पुत्रियों को पढ़ाया
वहां जैन धर्म ने स्त्रियों की प्रतिष्ठा करना बताया है, सम्मान करना सिखाया है और उन्हें सभी समान अधिकार दिये हैं । जहां वैदिक ग्रन्थों में स्त्रियों को वेद पढ़ने की आज्ञा नहीं है (स्त्री-शूद्रौ नाधीयाताम् ) वहीं जैनियों के प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ ने स्वयं अपनी ब्राह्मी और सुन्दरी नामक पुत्रियों को पढ़ाया था । उन्हें स्त्री जाति के प्रति बहुत, सम्मान था। पुत्रियों को पढ़ने के लिये उन्होंने कहा था--
इदं वपुर्वयश्चेदमिदं शीलमनीदृशं । विद्यया चेद्विभुष्येत सफलं जन्म वानिदं ।९७। विद्यावान पुरुषो लोके सम्मतिं याति कोविदः । नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदं ।९८। तद्विद्या ग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवां । तत्संग्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्ततेऽधुना ।।१०२।।
- --आदिपुराण पर्व १६ अर्थात् पुत्रियों ! यदि तुम्हारा यह शरीर, अवस्था और अनुपम शील विद्या से विभूषित किया जावे तो तुम दोनों का जन्म सफल हो सकता है । संसार में विद्यावान पुरुष विद्वानों के द्वारा मान्य होता है। अगर नारी पढ़ी लिखी-विद्यावती हो तो वह स्त्रियों में प्रधान गिनी जाती है । इसलिये पुत्रियो! तुम भी विद्या ग्रहण करने का प्रयत्न करो। तुम दोनों को विद्या ग्रहण करने का यही समय है।
इस प्रकार स्त्री-शिक्षा के प्रति सद्भाव रखने वाले भगवान आदिनाथ ने विधि पूर्वक स्वयं ही पुत्रियों को पढ़ाना प्रारंभ किया। नारी-निन्दा
खेद है कि उन्हीं के अनुयायी कहे जाने वाले कुछ लोग स्त्रियों को विद्याध्ययन, पूजा, प्रक्षाल आदि का अनधिकारी बताकर उन्हें प्रक्षाल पूजा करने से आज भी रोकते हैं और कहीं कहीं स्त्रियों को पढ़ाना अभी भी अनुचित माना जाता है। पहले स्त्रियों को मूर्ख रखकर स्वार्थी पुरुषों ने उनके साथ पशु तुल्य व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया और मनमाने ग्रंथ बनाकर उनकी भरपेट निन्दा कर डाली। एक स्थान पर नारी निन्दा करते हुये एक विद्वान ने लिखा है--
(शेष पृष्ठ १२८ पर)
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आत्म विकास का तुलनात्मक अध्ययन
साध्वी सुदर्शनाश्रीजी, एम. ए.
पाहा
चावोक को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन मोक्ष को आत्म विकास की सर्वोच्च स्थिति मानते हैं, किन्तु मोक्ष तक पहुंचने के पहले उसका क्रम-विकास कैसे होता है, इस पर विभिन्न दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न विचार दृष्टिगत होते हैं। ___ आत्मा के आध्यात्मिक विकास के पूर्व भौतिक-विकास के संबंध में जैन दर्शन की क्या मान्यता है इस पर भी थोड़ा जिक्र कर देना अप्रासंगिक न होगा।
जैनागमों में जिस तरह आध्यात्मिक विकास क्रम का विवेचन किया गया है, उसी प्रकार भौतिक विकास का भी जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति, तिलोयपण्णत्ति, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रंथों में सुस्पष्ट एवं क्रमबद्ध वर्णन पाया जाता है।
वैसे तो, विकास के विभिन्न प्रकार हैं। उदाहरण के तौर पर शरीर से संबंधित विकास, शारीरिक विकास, मन से संबंधित विकास, मानसिक विकास और आत्मा से संबंधित विकास, आत्मिक विकास इत्यादि । किन्तु मुख्य रूप से व्यक्ति का विकास दो तरह से हो सकता है-एक तो भौतिक और दूसरा आध्यात्मिक । जैनदर्शन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास को मानता है।
भौतिक विकास याने उत्कर्ष-अपकर्षमय काल चक्र । यह काल चक्र जैन दर्शन में अनवरत क्रम से गतिशील माना गया है। इस अनवरत काल चक्र (भौतिक विकास) को "उत्सर्पिणीकाल" और अवसर्पिणी काल दो भागों में विभक्त किया गया है ____ इस तरह जैन दर्शन के अनुसार उत्सर्पिणी को विकासोन्मुख काल कहते हैं । इसमें मनुष्य की आयु, बल, शक्ति, धन, सुख आदि क्रमशः अपना विकास करते रहते हैं। अवसर्पिणी को ह्रासोन्मुखकाल कहते हैं। इसमें मनुष्य का शरीर, बल, शक्ति आय
आदि का क्रमगत ह्रास होता रहता है। इस प्रकार समय के अनुसार मनुष्य का क्रम-विकास (भौतिक विकास) होता रहता है। जैसे आध्यात्मिक विकास की चौदह श्रेणियां विभाजित हैं वैसे ही भौतिक विकास (उत्कर्ष-अपकर्ष काल) को भी छह-छह वर्गों में बांटा गया है। अवसर्पिणीकाल:-(१) सुषम सुषम (२) सुषम (३)
सुषमा दुषम (४) दुषम सुषम (५)
दुषम (६) दुषमा दुषम । उत्सर्पिणीकाल:--(१) दुषमादुषम (२) दुषम (३)
दुषमा सुषम (४) सुषमा दुषम (५)
सुषम (६) सुषमा सुषम । इस तरह इस पूरे काल चक्र (भौतिक विकास) को बारह आरों में वर्गीकृत किया गया है। यह भौतिक विकास अनादिकाल से चला आ रहा है एवं अनन्त काल तक चलता रहेगा।
आधुनिक विज्ञान भी विकासवाद को मानता है, लेकिन वह आध्यात्मिक विकास को नहीं मानता । इस संदर्भ में पाश्चात्य दार्शनिक डारविन का विकासवाद उल्लेखनीय है । उसके विकासवाद में सूक्ष्म जन्तुओं में से मनुष्य तक के स्वरूप का निर्माण कैसे हुवा । इस संबंध में प्रकाश जरूर डाला गया है किन्तु सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मानव पर्यन्त जो विकास क्रम बताया गया है उसमें महज विकास का वर्णन है, पतन के लिए कोई स्थान या अवकाश नहीं है । किन्तु जैन दर्शन के आध्यात्मिक विकास में ऐसी स्थिति नहीं है । जैन दर्शन में विकास का प्रारंभ होने के बाद भी पतन के प्रसंग अनेक बार आते हैं और आत्मा ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचकर भी पतित हो जाती है । अतः जैन दर्शन का आत्म-विकास का सिद्धान्त आरोह-अवरोह का है, जबकि डारविन का विकासवाद आरोह का होने के कारण एकांगी
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है। वह सिर्फ उत्क्रान्ति की ही चर्चा करता है, पतन की नहीं।
सरल और स्पष्ट शब्दों में यदि कहना चाहें तो कह सकते हैं कि डारविन का विकासवाद बन्दर से मानव बनने की शक्ति को तो स्वीकार करता है लेकिन मानव से बन्दर बनने को स्वीकार नहीं करता। इतना ही नहीं, उसके इस विकासवाद में आत्मा को कोई स्थान नहीं दिया गया है और आत्मा को स्थान नहीं देने से पुनर्जन्म, कर्म आदि के संबंध में विचार नहीं किया गया है । इस तरह डारविन का विकासवाद अधरा है, जबकि जैन दर्शन के आध्यात्मिक विकास में आत्मा को प्रमुख स्थान दिया गया है और आत्मा को प्रमखता देने से पूनर्जन्म, कर्म इत्यादि विचार आत्मा से जुड़ा हुवा है।
इस तरह डारविन का सिद्धान्त पुद्गल निर्मित शरीर के अंगोपांग से संबंधित है, जबकि जैन दर्शन का विकास का सिद्धान्त अरिहन्त निर्देशित आत्मा के आध्यात्मिक विकास-क्रम से संबंधित है और वह आत्मा के गुणों को स्पर्श करता है एवं उसकी उत्क्रांति तथा अवनति दोनों का विचार करता है । इस प्रकार जैन दर्शन में आत्मा उत्थान-पतन के अनेक चक्र अनुभव करने के पश्चात् आगे बढ़ती है और अन्ततोगत्वा मुक्ति पद प्राप्त करती है ।
अब हम तुलनात्मक दृष्टि से आत्मा के आध्यात्मिक विकास क्रम पर संक्षेप में विचार करेंगे।
जैनागमों में आत्म-विकास का क्रम बहुत ही सुव्यवस्थित रूप में मिलता है। उनमें आत्मिक-स्थिति अथवा जीवनविकास की चौदह भूमिकाएं बतलाई गई हैं जो "गुणस्थान" के नाम से संबोधित हैं।
जैन दर्शन में आत्मा के आध्यात्मिक विकास क्रम के लिए चौदह विभाग किए गए हैं अर्थात् मोक्ष महालय में प्रवेश करने के लिए चौदह सीढ़ियां जैनागमों में वर्णित हैं। किन्तु ये सीढ़ियां ईंट, चूने या पत्थर की बनी हुई नहीं हैं अपितु आत्मिक-विकास की ओर ये सीढ़ियां चौदह ही हैं न कम न ज्यादा । जैसे-चक्रवर्ती के चौदह रतन होते हैं, पन्द्रहवां नहीं होता, क्लास सोलह होती हैं, सत्रहवीं नहीं, तिथि पन्द्रह होती हैं उसी प्रकार आत्मविकास के लिए भी चौदह अवस्थाएं (गुणस्थान) है जिनके नाम समवायांगसूत्र एवं द्वितीय कर्म ग्रन्थ की गाथा में निम्नलिखित हैं:
चोद्दस जीव ठाणा पण्णत्ता-तं जहा मिच्छ दिट्ठी सासायण सम्मदिट्ठी, सम्ममिच्छ दिट्ठी, अविरय सम्मदिट्ठी, विरयाविरए पमत्त संजए, अप्पमतसंजए, नियट्ठी-अनियट्टिबायरे, सुहुमसंपराए उवसमए वा खवए वा, उवसंतमोहे, सजोगी केवली, वा अजोगी केवली।
गुणस्थान १४ वां मिच्छे सासण, मीसे, अविरय पमत्त अपमत्ते मिअट्ठी अनिअछि, सुहुमुवसम-खीण सजोगि अजोगि गुणा
-कर्म ग्रन्थ द्वितीय, गाथा-२ (१) मिथ्यात्व गुणस्थान (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (४) अवरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (५) देशविरति गुणस्थान (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान (८) निवृत्तिवादर गुणस्थान (९) अनिवृति बादर गुणस्थान (१०) सूक्ष्म सांप राय गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगी केवली गुणस्थान (१४) अयोगी केवली गुणस्थान
उपर्युक्त ये चौदह गुणस्थान ही आध्यात्मिक विकास के चौदह अनमोल रत्न हैं। जैन दर्शन में इस आध्यात्मिक विकास-क्रम का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है । क्रम का परिबोध होने से आत्मा की उत्कर्ष-अपकर्षमय अवस्थाओं का परिज्ञान हो सकता है और इससे आत्म-विकास की साधाना में बड़ी सहायता मिलती है।
जैन दर्शन की तरह अन्य दर्शनों में भी आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाएं बतलाई गई है, किन्तु जैन दर्शन में आध्यात्मिक दृष्टि से गुणस्थानों का जितना सूक्ष्म, सुन्दर और रोचक ढंग से विस्तृत विवेचन किया गया है उतना अन्यत्र नहीं।
"गुणस्थान" से आशय जैन दर्शन में न तो भौगोलिक स्थान से है, और न एवरेस्ट पर्वत से है वरन् गुणस्थान का संबंध आत्मा से है। “गुणस्थान" शब्द जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । गुणस्थान दो शब्दों से मिलकर बना है-गुण और स्थान । "गुण" से तात्पर्य न सांख्य दर्शन के त्रिगुण-सत्व, रजस् और तमस् से है और न साहित्य के माधुर्य, ओज और प्रसाद गुणों से है अपितु जैन दर्शन में "गुण" से तात्पर्य आत्मा के गुणों से या आत्मा की शक्तियों से है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्मा के गण हैं । “गुणस्थान" में दूसरा शब्द है "स्थान" । "स्थान" अर्थात् उन गणों के विकास करने की अवस्था । ___ इस प्रकार "गुणस्थान का शाब्दिक अर्थ हुवा “आत्मा के गुणों के विकास करने की विविध अवस्थाएं" । एतदर्थ जैनागमों में आध्यात्मिक विकास का क्रम बताने वाले गुणस्थानों का वर्णन प्रतिपादित है। जैसे मानव की विविध अवस्थाएं होती हैं
और उसमें कम होता है-शैशवास्था, युवावस्था, वृद्धावस्था। उसी तरह आध्यात्मिक विकास में भी कम होता है-पहली अवस्था, दूसरी अवस्था इत्यादि। "अवस्था को स्थिति, सोपान, भूमिका आदि भी कह सकते हैं।
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आजीविक सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की अष्ट भूमिकाएं थी, मज्झिमनिकाय की बुद्धघोषकृत सुमंगला विलास की टीका में ऐसा उल्लेख मिलता है । इन आठ भूमिकाओं के नाम निम्नलिखित हैं :
(१) मंद भूमिका
(२) खिड्डा या क्रीड़ा भूमिका
(३) पदवी मंसाभूमिका
(४) उजुगत ऋजुगत भूमिका
(५) शेख शैक्ष भूमिका
( ६ ) समण - श्रमण भूमिका
(७) जिन भूमिका
(८) पन्नप्राज्ञ भूमिका
उपर्युक्त ये आठ भूमिकाएं युक्तिसंगत न होने से जैन दर्शन के आध्यात्मिक विकास के साथ इनका मेल नहीं बैठता ।
बौद्ध ग्रन्थ पिटक में भी जैन दर्शन की तरह आध्यात्मिक विकास का स्पष्ट एवं सुव्यवस्थित रूप से अनेक जगह वर्णन किया गया है । बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है । वह आत्मा की नित्यता (सत्ता) को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार आत्मा परिवर्तनशील है । संसार के प्रत्येक पदार्थ क्षणिक हैं, नश्वर हैं फिर श्री पिक में व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास कम बताने के लिए छह अवस्थाएं प्रतिपादित की गई है
(१) धन
(२) कल्याणपुथुज्जन जिसे आर्य दर्शन या सत्संग तो प्राप्त हुआ है किन्तु जो मोक्ष मार्ग से परामुख रहता है ऐसे व्यक्ति को कल्याणपुथुज्जन कहते हैं ।
बौद्ध दर्शन में "न" से तात्पर्य सामान्य मनुष्य से है। अंध पुथुज्जन और कल्याण पुथुज्जन दोनों “पुथुज्जन" के ही दो भेद हैं। ऊपर के दोनों प्रकार के व्यक्ति दशविध संयोजनाओं में से एक भी संयोजना का क्षय नहीं कर पाते । बौद्ध दर्शन में "संयोजना" से मतलब बन्धन से है ।
: अंध पुथुज्जन उसे कहते हैं जिसे कार्य, दर्शन या सत्संग प्राप्त नहीं हुआ है और जी मोक्ष मार्ग से परामुख है।
(३) सोतापन्न जिन्होंने दस संयोजनाओं में से तीन संयोजनाओं का क्षय कर दिया हो वे सोतापन कहलाते हैं ।
वी. नि. सं. २५०३
:
( ४ ) सकदागमी : जिन्होंने दस संयोजनाओं में से तीन
सं योजनाओं का क्षय कर दिया हो और दो को शिथिल कर डाला हो, वे सकदागामी कहलाते हैं ।
(५) सोपपातिक जिन्होंने दस संयोजनाओं में से पांच संयोजनाओं का क्षय कर दिया हो, वे ओपपातिक कहलाते हैं ।
(६) अरहा
: जिन्होंने दसों संयोजनाओं का क्षय करके श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्राप्त किया हो,
वे "अरहा" कहलाते हैं । अरहा की अवस्था को प्राप्त हुए व्यक्ति निर्वाण को पा लेते हैं ।
उपर्युक्त स्थितियों के वर्णन से ऐसा लगता है कि जेसे बौद्ध दर्शन ने आध्यात्मिक विकास की छह स्थितियों का वर्णन जैन दर्शन में बताए गए चौदह गुणस्थान के आधार पर किया हो। जिस प्रकार जैन दर्शन में मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम और क्षयोपशम की प्रधानता है । बौद्ध दर्शन में भी संयोजना के क्षय की प्रधानता
है इसके साथ ही जैन दर्शन में जैसे-प्रथम भूमिका मिध्यादृष्टि की है उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी आध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका अंध - पुथुज्जन की है। जैन दर्शन में तेरहवीं और चौदहवीं भूमिका सयोगी और अयोगी केवली की है वैसे ही, बौद्धदर्शन में भी भूमिका अरहा की है।
इतना साम्य होने के बावजूद भी प्रथम और अंतिम गुणस्थानों के बीच की भूमिकाओं का आत्मा के आध्यात्मिक विकास का, जो सुव्यवस्थित निरूपण जैन शास्त्रों में मिलता है यह बौद्ध दर्शन में परिलक्षित नहीं होता ।
मोक्ष की साधना के लिए योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पातंजल ने योगशास्त्र के महाभाष्य में चित्त की पांच वृत्तियों (भूमिकाएं ) के विकास क्रम का वर्णन किया है। वे निम्नलिखित हैं-
१. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र, ५. निरुद्ध ।
उपर्युक्त भूमिकाएं चित्तवृत्ति के आधार पर योजित है इसलिए इनमें आत्मा को प्रमुखता नहीं दी गई है। योग दर्शन में कहा गया है - " योगश्चित्तवृत्ति निरोधः" अर्थात् (योग) चित्तवृत्ति के निरोध को कहते हैं ।
जैन दर्शन की भाषा में "योग" को आध्यात्मिक विकासक्रम की भूमिका नह सकते हैं। आध्यात्मिक विकास की पहली क्षिप्तावस्था में चित्त सांसारिक वस्तुओं में चंचल रहता है। दूसरी मूढावस्था में चित्त की स्थिति निद्रा के समान अभिभूत रहती है
तीसरी विक्षिप्तावस्था में चित्त कुछ शान्त रहता है लेकिन पूरी तौर से शान्त नहीं रहता ।
चौथी एकाग्रावस्था में चित्त किसी ध्येय में केन्द्रीभूत रहता है । और चरमावस्था निरुद्ध की हैं जिसमें चिन्तन का भी अन्त हो जाता है ।
चित्त की इन पांच भूमिकाओं में से प्रथम दो आत्मा के अविकास की सूचक है, तीसरी विक्षिप्त भूमिका विकास और
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अविकास के सम्मिश्रण की सूचक है और चौथी विकास की तथा अंतिम में पूर्ण उत्कर्ष पर आत्मा पहुंच जाती है । इस प्रकार इन पांच भूमिकाओं के बाद की भूमिका को मोक्ष कहा गया है ।
योगवासिष्ठ में भी आत्मा की स्थिति के दो वर्गीकरण किए गए हैं :-अज्ञानमय और ज्ञानमय । अज्ञानमय स्थिति को अविकासकाल और ज्ञानमय स्थिति को विकासकाल कहा गया है। अज्ञानमय (अविकासकाल) स्थिति के भी सात भेद हैं :--
(१) बीज जागृत, (२) जागृत, (३) महाजागृत, (४) जागृत स्वप्न, (५) स्वप्न, (६) स्वप्न जागृत,(७) सुषुप्तक ।
योगवासिष्ठ के उत्पत्ति प्रकरण के अध्याय ११८ में सात प्रकार की ज्ञानमय (विकास काल) भूमिकाएं प्रतिपादित की गई हैं:
(१) शुभेच्छा, (२) विचारणा, (३) तनुमानसा, (४) सत्वापत्ति, (५) असंसक्ति, (६) पदार्थभाविनी, (७) तुर्यगा।
प्रथम की सात भूमिकाएं अज्ञान की सूचक होने से अविकास काल की हैं और अन्त की सात भूमिकाएं ज्ञानमय होने से विकास काल की द्योतक हैं।
जैन दर्शन में आत्मा के उत्तरोत्तर विकास के लिए चौदह सोपानों पर प्रकाश डाला गया है। जैन दर्शन में उच्चतर भूमिका के एक-एक गुणस्थान उस महान प्रकाश की ओर जाने की सीढ़ियाँ हैं लेकिन उन गुणस्थानों को पैदा करने की बात जैन दर्शन में नहीं बतलाई गई है । अपितु यह अवश्य बताया गया है कि जिसने प्रथम सोपान रूप मिथ्यात्व को नष्ट किया उसे चोथे सोपान रूप सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो गई । विकार जैसे-जैसे दूर होते जाते हैं गुणस्थान की उच्चतर श्रेणी भी तदनुरूप प्राप्त होती जाती है । उदाहरण के तौर पर मान लीजिए एक बालक पढ़ने के लिए स्कूल जाता है और वह सालभर में पहली कक्षा उतीर्ण कर लेता है फिर दूसरे वर्ष, दूसरी, तीसरी इस प्रकार क्रमश: वह प्रथम कक्षा से लेकर प्रायमरी, मिडिल, हायर सेकेण्डरी, बी. ए. उत्तीर्ण करता हुवा एक दिन अंतिम कक्षा १६ वी उत्तीर्ण कर सफलता के चरम शिखर पर पहुंच जाता है, यही स्थिति साधना के क्षेत्र
में भी है। साधक अपनी साधना द्वारा चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर लेता है, पांचवे में देशव्रती और छठवें में सर्वव्रती बन जाता है। सांतवें गुणस्थान में अप्रमत होकर तेजी के साथ आगे बढ़ता हुवा तेरहवें गुणस्थान में पहुंच कर वह पूर्ण वीतराग सर्वज्ञत्व को प्राप्त कर लेता है । जैन दर्शन में साधना का यही क्रम है और साधक अपने आत्म-विकास के लिए इन चौदह गुणस्थानों के माध्मम से ही अपनी साधना में उत्तरोत्तर प्रगति कर अपने साध्य पर पहुंचता है ।
यहां यह भी जिक्र कर देना प्रासंगिक होगा कि पांचवें और छठवें गुणस्थान तक ही गृहस्थधर्म और साधुधर्म की बाह्यमर्यादा से का भेद रहता है । इसके बाद नहीं क्योंकि छठवें गुणस्थान आगे के सभी गुणस्थानों में फिर साधना अन्तःप्रवाहित रहती है अतः एक रूप सी रहती है।
इसी संदर्भ में यह भी बता देना आवश्यक है कि "आध्यात्ममत परीक्षा" में १२५ वी गाथा में लिखा है
"तत्राद्यगुणस्थानत्रये बाह्यात्मा, ततः परं क्षीणमोह गुणस्थानं यावदन्तरात्मा, ततः परं तु परमात्मेति"
अर्थात् प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थान में रही हुई आत्मा बाह्यात्मा, चतुर्थ से द्वादश गुणस्थान में रही हुई आत्मा अन्तरात्मा
और त्रयोदश तथा चतुर्दश गुणस्थान में रही हुई आत्मा परमात्मा कहलाती है । _इस तरह जैन दर्शन में इन चौदह गुणस्थानों के आध्यात्मिक क्रम विकास का, जो वर्णन है उसका अपना अद्वितीय महत्व है। जैन दर्शन में आत्म-विकास का सच्चा प्रारंभ चतुर्थ गुणस्थान-अविरति सम्यग्दृष्टि से होता है । चतुर्थ गुणस्थान में मिथ्यात्व का नाश होता है तो षष्टम में अविरति का, द्वादश में कषाय का और चतुर्दश में योग निरोध होता है।
चौदहवां गुणस्थान आत्म विकास की चरम सीमा है। यह कम वस्तुतः आत्मा के विकास के क्रमानुरूप है। "
सहनशीलता के बिना संयम, संयम के बिना त्याग और त्याग के बिना आत्म-विश्वास असम्भव है।
संसार में सुमेरु से ऊँचा कोई पर्वत नहीं और आकाश से विशाल कोई पदार्थ नहीं; इसी प्रकार अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
--राजेन्द्र सूरि
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ध्यान-साधना : आधुनिक संदर्भ
डा. नरेन्द्र भानावत
ये तीनों मन के विकास में परस्पर सम्बद्ध संलग्न हैं । ध्यान एक प्रकार की मानसिक चेष्टा है। यह मन को किसी वस्तु या संवेदना पर केन्द्रित करने में सक्रिय रहती है। पर आध्यात्मिक पुरुषों ने ध्यान को इससे आगे चित्तवृत्ति के निरोध रूप में स्वीकार कर आत्मस्वरूप में रमण करने की प्रक्रिया बतलाया है।'
आज का युग विज्ञान और तकनीकी प्रगति का युग है, गतिशीलता और जटिलता का युग है, अत: यह प्रश्न सहज उठ सकता है कि ऐसे द्रुतजीवी युग में ध्यान-साधना की क्या सार्थकता
और उपयोगिता हो सकती है ? ध्यान का बोध हमें कहीं प्रगति की दौड़ में रोक तो नहीं लेगा? हमारी क्रियाशीलता को कुंठित तो नहीं कर देगा? हमारे संस्कारों को जड़ और विचारों को स्थिति-शील तो नहीं बना देगा ? ये खतरे ऊपर से ठीक लग सकते हैं पर वस्तुत: ये सतही हैं और ध्यान-साधना से इनका कोई सीधा संबंध नहीं है । वस्तुत: ध्यान साधना निष्क्रियता या जड़ता का बोध नहीं है। यह समता, क्षमता और अखंड शक्ति व शांति का विधायक तत्व है।
एक समय था, जब मुमुक्षुजनों के लिए ध्यान का लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति था। वे मुक्ति के लिए ध्यान-साधना में तल्लीन रहते थे। आध्यात्मिक दृष्टि से यह लक्ष्य अब भी बना हुवा है। पर वैज्ञानिक प्रगति और मानसिक बोध के जटिल विकास ने ध्यान साधना की सामाजिक और व्यावहारिक उपयोगिता भी स्पष्ट प्रकट कर दी है। यही कारण है कि आज विदेश में ध्यान भौतिक वैभव से सम्पन्न लोगों का आकर्षण केन्द्र बनता चला जा रहा है।
ध्यान के प्रकार
ध्यान के कई अंग-उपांग हैं। जैन धर्म में इसका कई प्रकार से वर्गीकरण मिलता है।
ध्यान के मुख्य चार प्रकार हैं(१) आर्त ध्यान, (२) रौद्र ध्यान, (३) धर्म ध्यान, और (४) शुक्ल ध्यान ।
आर्त का अर्थ है पीड़ा, दुःख, चीत्कार। इस ध्यान में चित्तवृत्ति बाह्य विषयों की ओर उन्मुख रहती है। कभी अप्रिय वस्तु के मिलने पर और कभी प्रिय वस्तु के अलग होने पर आकुलता बनी रहती है।
रौद्र का अर्थ है भयंकर, डरावना । इस ध्यान में हिंसा, झूठ, चोरी, विषयादि सेवन की पूर्ति में प्रवृत्ति रहती है और इनके बाधक तत्वों के प्रति द्वेष के कारण कठोर क्रूर भावना बनी रहती है। आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान दोनों त्याज्य हैं। आर्त ध्यान व्यक्ति को राग में बांधता है और रौद्र ध्यान द्वेष में। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये दोनों ध्यान अनैच्छिक ध्यान की श्रेणी में आते हैं। इनके ध्यान में इच्छा शक्ति को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है । ये मानव की पशु-प्रवृत्ति को संतुष्टि देने में ही लीन रहते हैं। इनका साधना की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है।
ध्यान और चेतना
ध्यान का संबंध चेतना के क्षेत्र से है। मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के मुख्यत: तीन प्रकार बतलाये हैं:
(१) जानना अर्थात् ज्ञान (Cognition) .. (२) अनुभव करना अर्थात् अनुभूति (Feeling), और (३) चेष्टा करना अर्थात् मानसिक सक्रियता (Conation)
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आध्यात्मिक दृष्टि से इन्हें 'ध्यान' नहीं कहा जा सकता। ये अशुभ ध्यान हैं।
धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान शुभ ध्यान हैं। इनका चिन्तन राग-द्वेष को कम करने के लिए किया जाता है। ये आभ्यन्तर तप माने गये हैं। धर्म ध्यान के चार प्रकार माने गये हैं
शुक्ल ध्यान के आरम्भिक दो ध्यानों में श्रुत ज्ञान का अवलम्ब लेना होता है जबकि अन्तिम दो में श्रुत ज्ञान का आलम्बन भी नहीं रहता । अतः ये दोनों ध्यान अनालम्बन कहलाते हैं।
बौद्ध धर्म में ध्यान पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। वहाँ ध्यान (झान) का एक अर्थ चित्तवृत्तियों को जलाना भी किया है। यहां ध्यान के दो मुख्य प्रकार माने गये हैं
(१) आरंभण उपनिज्झान : जो चित्त के विषयभूत वस्तु
(आलम्बन) पर चिन्तन करे।
(१) आज्ञा विचय : आगम सूत्रों में प्रतिपादित तत्वों को
ध्येय बनाकर उनका चिन्तन करना । (२) उपाय विचय : रागद्वेषादि दोषों के क्षय हेतु ध्येय
बनाकर उनमें लीन होना। (३) विपाक विचय : कर्म के विविध फलों को ध्येय बनाकर
उनकी निर्जरा के लिए चिन्तन करना । (४) संस्थान विचय : द्रव्य की विविध पर्यायों को ध्येय
बनाकर उनमें एकाग्र होना ।
(२) लक्खण उपनिज्झान : जो ध्येय वस्तु के लक्षणों पर
चिन्तन करे।
आरंभण उपनिज्झान के आठ भेद हैं
धर्म ध्यान के आगे की अवस्था शुक्ल ध्यान है। यह शुद्ध ध्यान माना गया है । इसके भी चार प्रकार हैं(१) पृथक्त्व वितर्क सविचार : इसमें अर्थ, व्यंजन और योग
का संक्रमण रूप से-एक पदार्थ को विचार कर उसे छोड़ दूसरे पदार्थ में विचारा जाना विचार किया जाता है।
(२) एकत्व वितर्क सविचार : इसमें एक ही पदार्थ पर अटल
रहकर अभेद बुद्धि द्वारा विचार किया जाता है। इसमें संक्रमण का अभाव रहता है।
(३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति
: इसमें मन-वचन-काय संबंधी स्थूल योगों को सूक्ष्म योग द्वारा रोक दिया जाता है और मात्र श्वास-उच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया ही रह जाती है। इसका पतन नहीं होता। सयोगी केवली को यह ध्यान होता है।
१. वितर्क, विचार, प्रीति, सुख व एकाग्रता सहित ध्यान, २. विचार, प्रीति, सुख व एकाग्रता सहित ध्यान, ३. प्रीति, सुख व एकाग्रता सहित ध्यान, ४. सुख व एकाग्रता सहित ध्यान ।
ये चारों ध्यान रूपावचर ध्यान कहलाते हैं । इनमें वृत्तियों को क्रमशः संक्षिप्त कर चित्त को एकाग्र किया जाता है।
५. आकाशान्त्यायतन, ६. विज्ञानान्त्यायतन, ७. अकिंचनायतन, ८. नेवसंज्ञानासंज्ञायतन ।
ये चारों अरूपावचर ध्यान कहे जाते हैं। इन आयतनों को जब साधक शनैः शनैः पार कर लेता है तब उसे निर्वाण की प्राप्ति होती है। अंतिम अवस्था को "भवान" कहा गया है।
लक्खण उपनिज्झान के भी तीन भेद किये गये हैं-- विपस्सना, भग्ग और फल । विपस्सना में प्रज्ञा, ज्ञान और दर्शन होता है। इसमें विषय-वस्तु के लक्षणों पर विचार किया जाता है। भग्ग में उसका कार्य पूर्ण होता है और फल में उसकी निष्पत्ति होती है। इसी को लोकोत्तर ध्यान कहते हैं जो निर्वाण का विशिष्ट रूप माना गया है। ध्यान तत्व का प्रसार
भगवान महावीर और बुद्ध दोनों बड़े ध्यान-योगी थे। ध्यानावस्था में ही दोनों मुक्त हुए। महावीर की ध्यान परम्परा मध्य युग में आकर मन्द पड़ गई। इसके कई सामाजिक और प्राकृतिक कारण रहे हैं । जैन श्रमणों के नगर संपर्क ने भी उसमें बाधा डाली पर बुद्ध की ध्यान परम्परा ने ध्यान सम्प्रदाय का एक स्वतंत्र रूप ही धारण कर लिया और चीन, जापान में उसका व्यापक प्रचार हुआ। वह परम्परा आज भी जीवित है।
(४) समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति : जब शरीर को श्वास-प्रश्वास
क्रिया भी बन्द हो जाती है
और आत्म-प्रदेश सर्वथा निष्कम्प हो जाते हैं। इसमें स्थूल या सूक्ष्म किसी प्रकार की मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया नहीं रहती। यही मुक्त दशा की स्थिति है।
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बुद्ध के बाद हुए २८वें धर्माचार्य' बोधिधर्म' ने सन् ५२० या ५२६ ई. में चीन जाकर वहाँ ध्यान सम्प्रदाय ( चान्-त्युंग ) की स्थापना की । बोधिधर्म की मृत्यु के बाद भी चीन में उनकी परम्परा चलती रही । उनके उत्तराधिकारी इस प्रकार हुए
१. हुई के सन् ४०६-५९३६.)
२. सेंग-त्सन् (मृत्यु सन् ६०६ ई.)
३. ताओ हसिन (सन् ५८०-६५१ ई. )
४. डुंग जैन ( सन् ६०१-६७४ ई.)
५. हुई
(सन् ६३८-०१३ ई.)
अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया पर यह परम्परा वहां चलती रही। इसका चरम विकास तग् (सन् ६१६-९०५ ई.), मुंग (सन् १९६० १२७८) और यूनान (सन् १२०६-१३१४ ई.) राजयंत्रों के काल में हुआ। १३-१४वीं शती के बाद महायान बौद्ध धर्म का एक अन्य सम्प्रदाय जो अभिताभ की भक्ति और उनके नाम जप पर जोर देता है, अधिक प्रभावशाली हो गया । इसका नाम जोदो - शूया सुखावती सम्प्रदाय है । सम्प्रति चीन-जापान में यह सर्वाधिक प्रभावशील है ।
चीन से यह तत्व जापान गया । येई -साई (सन् ११४१-१२१५ ई. ) नामक जापानी भिक्षु ने चीन में जाकर इसका अध्ययन किया और फिर जापान में इसका प्रचार किया। जापान में इस तत्व की तीन प्रधान शाखाएँ हैं-
१. रिजई शाखा : इसमें मूल प्रवर्तक चीनी महात्मा रिजई थे । इस शाखा में येई-साई, दाए ओ (सन् १२२५-१३०८ई.) (सन् १२८२१३३६ ई.) (सन् १२७७-१३६०६.) कुमिन (सन् १६८५ १७६८ ६. ) जैसे विचारक ध्यान योगी हुए ।
१. बोधिधर्म के पहले जो २७ धर्माचार्य हुए, उनके नाम इस प्रकार हैं-- १. महाकाश्यप २. आनन्द ३. शाणवास ४. उपगुप्त ५. घृतक ६. मिच्छक ७ वसुंमित्र ८. बुद्धनंदी ९. बुद्धमित्र १०. भिक्षुपार्श्व ११. पुण्ययशस् १२. अश्वघोष १३. भिक्षु कपिमाल १४. नागार्ज ुन १५. काणदेव १६. आर्य राहुल १७. संघनंदी १८ संघयशस १९. कुमारत २०. जयंत २१. वसुबन्धु २२. मनुर २३. हवलेनयशस् २४. भिक्षुसिंह २५. वाशसित २६. पुण्यमित्र २७. प्रज्ञातर
-- ध्यान सम्प्रदायः डा. भगतसिंह उपाध्याय, पृ. १३-१४
I
२. ये दक्षिण भारत में कांचीपुरम् के क्षत्रिय (एक अन्य परम्परा के अनुसार ब्राह्मण) राजा सुगन्ध के तृतीय पुत्र थे इन्होंने अपने गुरु प्रज्ञातर से चालीस वर्ष तक बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त की। गुरु की मृत्यु के बाद में उनके आदेश का अनुसरण कर चीन गये । वही पृ. १.
वी. नि. सं. २५०३
२. सोतो शाखा
: इसकी स्थापना येई-साइ के बाद उनके शिष्य योगेन् (सन् १२००-१२५३ ई.) ने की । इसका संबंध व चीनी महात्मा हुई के शिष्य च युआन और उनके शिष्य शिवाउ (सन् ७०० ०९० ई.) से रहा है।
३. ओवाकु शाखा : इसकी स्थापना इंजेन (सन् १५९२ - १६७३ई.) ने की। मूल रूप में इसके प्रवर्तक चीनी महात्मा हुआई पो थे जिनका समय ९वीं शती है और जो हुई नेंग की शिष्य परम्परा की तीसरी पीढ़ी में थे ।
उपर्युक्त विवरण से सूचित होता है कि ध्यान तत्व का बीज भारत से चीन जापान गया, वहां वह अंकुरित ही नहीं हुआ, पल्लवित, पुष्पित और फलित भी हुआ। वहां के जन-जीवन में (विशेषतः जापान में ) यह तत्व घुल मिल गया है। वह केवल अध्यात्म तक सीमित नहीं रहा, उसने पूरे जीवन प्रवाह में अपना ओज और तेज बिखेरा है। येई-साइ की एक पुस्तक "कोजनगोकोकुरोन" (ध्यान के प्रचार के रूप में राष्ट्र की सुरक्षा) ने ध्यान को वीरत्व और राष्ट्र सुरक्षा में भी जोड़ दिया है। जापानी सिपाहियों में ध्यानाभ्यास का व्यापक प्रचार है। मनोबल, अनुशासन, दायित्ववोध और अन्तर्निरीक्षण के लिए वहां यह आवश्यक माना जाता है। जापान ने स्वावलम्बी और स्वाश्रयी बनकर जो प्रगति की है, उसके मूल में ध्यान की यह ऊर्जा अवश्य प्रवाहित है।
मुझे लगता है, पश्चिमी राष्ट्रों में जो ध्यान का आकर्षण बढ़ा है, वह उसी ध्यान तत्व का प्रसार है। चाहे यह प्रेरणा उन्हें सीधी भारत से मिली हो, चाहे चीन जापान के माध्यम से ।
यह इतिहास का कटु सत्य है कि वर्तमान भारतीय जनमानस अपनी परम्परागत निधि को गौरव के साथ आत्मसात् नहीं कर पा रहा है। जब पश्चिमी राष्ट्र का मानस उसे अपना लेता है या उसकी महत्ता - उपयोगिता प्रकट कर देता है तब कहीं जाकर हम उसे अपनाने का प्रयत्न करते हैं और अपने ही घर में "प्रवासी " से लगते हैं । "ध्यान" भी इस संदर्भ में कटा हुआ नहीं है । पश्चिम में जब "हरे राम हरे कृष्ण" की धुन लगी तब कहीं जाकर हमें अपने " ध्यान योग" की गरिमा और आवश्यकता का बोध हुआ ।
ध्यान के प्रति पश्चिमी आकर्षण
यह बोध स्वागत योग्य है क्योंकि इसके द्वारा हमें विलुप्त होती हुई ध्यान-साधना की अन्तः सलिला को फिर से पुनर्जीवित करने का अवसर मिला है । पर जिस माध्यम से यह "बोध" हुआ है, उसके कई खतरे भी हैं। पहला खतरा तो यह है कि हम ध्यान की मूल चेतना को भूलकर कहीं इसे फैशन के रूप में ही न ग्रहण कर लें। दूसरा यह कि इसे केवल जड़ मनोविज्ञान
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के धरातल पर ही स्वीकार करके रह जायें और यह वस्तु या विचार के साथ मन के समायोजन (Adjustment) तक ही सीमित न कर दे और तीसरा यह कि हम वैज्ञानिक चिन्ता-धारा को छोड़कर कहीं मध्ययुगीन संस्कारों में फिर न बंध जायें।
ऊपर जिन खतरों की चर्चा की गई है वे निराधार नहीं हैं । उनके पीछे आधार है । 'ध्यान' के संबंध में जो पश्चिम की हवा चली है वह भोग के अतिरेक की प्रतिक्रिया की परिणति है, आत्मा के स्वभाव में रमण करने की सहज वृत्ति नहीं । भौतिक ऐश्वर्य में डूबे पश्चिम के मानव के लिए वह भौतिक यन्त्रणाओं से मुक्ति का साधन है, इन्द्रिय-भोग के अतिरेक की थकान की विश्रान्ति है, मानसिक तनाव और दैनन्दिन जीवन की आपावापी से बचने का रास्ता है। ध्यान के प्रति उसकी ललक भौतिक पदार्थों की चरम संतृप्ति (संत्रास) का परिणाम है, उसका लक्ष्य प्राच्य मनीषियों की तरह मुक्ति या निर्वाण प्राप्ति नहीं है । उसे वह शारीरिक और मानसिक स्तर तक ही समझ पा रहा है। उसके आगे आत्मिक स्तर तक अभी उसकी पहुँच नहीं है । उसे वह शारीरिक और मानसिक स्तर तक ही समझ पा रहा है । उसके आगे आत्मिक स्तर तक अभी उसकी पहुँच नहीं है। पर हमारे यहाँ ध्यान योग की साधना भोग की प्रतिक्रिया का फल नहीं है। उसका उद्देश्य महान है। वह चरस, गांजा का विकल्प नहीं है और न है कोरा मन का बैलासिक उपकरण । उसके द्वारा आत्मा के स्वभाव को पहचान कर उसमें रमण करने की चाह जागृत की जाती है। चित्तवृत्ति का निरोध किया जाता है-इस प्रकार कि वह जड़ नहीं बने वरन् सूक्ष्म होती हुई शून्य हो जाय । रिक्तता नहीं वरन् अनन्त शक्ति और आनन्द से भर जाय। ध्यान शक्ति और शांति का स्रोत
आज की प्रमुख समस्या शांति की खोज की है। शांति आत्मा का स्वभाव है। वह स्थिरता और एकाग्रता का परिणाम है। आज का मानस अस्थिर और चंचल है। शांति की प्राप्ति के लिए मन की एकाग्रता अनिवार्य है पर मन आज चलायमान है। "योग शास्त्र" में मन की चार दशाओं का वर्णन किया गया है--
१. विक्षिप्त दशा:-आज विश्व का अधिकांश मन इसी दशा को प्राप्त है। मस्तिष्क के अत्यधिक विकास ने मन को विक्षिप्त बना दिया है। वह लक्ष्यहीन, दिशाहीन होकर इधरउधर भटक रहा है। वह अत्यन्त चंचल, अस्थिर और निर्बल बन गया है। उसे इन्द्रिय भोगों ने संतृप्ति के बदले दिया हैसंत्रास, तनाव और तृष्णा का अलंध्य क्षेत्र । कूठा और अत्यधिक निराशा तथा थकान के कारण वह विक्षिप्त हो निरुद्देश्य भटकता है।
२. यातायात दशा:-विज्ञान ने यातायात और संचार के साधन इतने तीव्र और द्रुतगामी बना दिये हैं कि इस दशा वाला मन गति तो कर लेता है पर दिशा नहीं जानता । वह कभी
भीतर जाता है, कभी बाहर आता है । किसी एक विषय पर टिक कर रह नहीं सकता। वह अवसरवादी और दल-बदलू बन गया है । वह किसी के प्रति वफादार नहीं, प्रतिबद्ध नहीं, आत्मीय नहीं । वह अपने ही लोगों के बीच पराया है। आज के युग की यह सबसे बड़ी दर्दनाक मानव त्रासदी है। इस अस्थिरता और चंचलता के कारण वह सबको नकारता चलता है, किसी का अपना बनकर रह नहीं पाता।
३. श्लिष्ट दशा:--इस दशा का मन कहीं स्थित होने का प्रयत्न तो करता है, पर उसकी स्थिरता प्रायः क्षणिक ही होती है। दूसरे यह अपवित्र, अशुभ व बाह्य विषयों में ही स्थिर रहने का प्रयत्न करता है। शास्त्रीय दृष्टि से आर्त एवं रौद्र ध्यान की स्थिति वाला है यह मन । जहां शुभ भावना और पवित्रता नहीं वहां शांति कैसे टिक सकती है। पश्चिम का वैभव सम्पन्न मानस इसी दशा का है।
४. सुलीनदशा:-इस दशा का मन शुभ एवं पवित्र भावनाओं में स्थित रहकर एकाग्रता व दृढ़ता प्राप्त करता है।
ध्यान साधना का मुख्य लक्ष्य मन को सुलीन दशा में अवस्थित करना है।
आज का मानस चंचल, अस्थिर, अनुशासन-हीन और उच्छृखल है। ध्यान उसमें स्थिरता और सन्तुलन की स्थिति पैदा करता है । आज का व्यक्ति गैर जिम्मेदार बनता जा रहा है उसमें कार्य के प्रति लगन, तल्लीनता और उत्साह नहीं है। वह अपने ही कर्तव्यों के प्रति उदासीन बन गया है। इसका मुख्य कारण है चित्त की एकाग्रता का अभाव । इस एकाग्रता को लाने के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक है। पर यह ध्यानाभ्यास आसन और प्राणायाम तक ही सीमित न रह जाय। इसे यम-नियमादि से तेजस्वी बनाना होगा। चित्तवृत्ति को पवित्र और संयमित करना होगा, मन की गति को मोड़ना होगा। उसे स्वस्थता प्रदान करना होगा।
ध्यान की भूमिका तैयार करने के लिए उचित आहार-विहार, सत्संग और स्थान की अनुकूलता पर भी दृष्टि केन्द्रित करनी होगी अन्यथा ध्यान की ओट में हम छले जायेंगे और हमारा प्रयत्न आत्म-प्रवंचना बनकर रह जायेगा।
आज की प्रमुख समस्या तीव्र और गतिशील जीवन में भी स्थिर और दृढ़ रहने की है। ध्यान साधना इसके लिए भूमि तैयार करती है। वह मानसिक सक्रियता को जड़ नहीं बनाती, चेतना के विभिन्न स्तरों पर उसे विकसित करती चलती है। आन्तरिक ऊर्जा को जागरुक बनाती चलती है। उससे आत्मशक्ति की बेटरी चार्ज होती रहती है, वह कमजोर नहीं होती। यह ध्याता पर निर्भर है कि वह उस शक्ति का उपयोग किस दिशा में करता है। यहां के मनीषी उसका उपयोग आत्म स्वरूप को पहचानने में करते रहे, जब आत्म शक्ति विकसित और जागृत हो जाती है, हम उसकी तुलना में विघ्नों पर विजय प्राप्त करते चलते हैं ।
(शेष पृष्ठ ९२ पर)
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आत्मा आनन्द धन स्वरूप है
रतनलाल कांठेड
यह दृश्यमान जगत आणविक रासायनिक जड़ पदार्थों का पिण्ड है। और वह चेतना विहीन है, जैन दर्शन ने उसे पर-सत्तारूप कहा है, आत्म-चैतन्य स्वद्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव से सत्तारूप है तथा पर-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से असत्तारूप है अर्थात् स्याद्वाद (सापेक्ष) रूप जैन अनेकांत शैली से आत्मा स्वसत्ता से नित्य है तथा पर-सत्ता से अनित्य है। यही जन्म-मरण का भेदभाव है। पर-पदार्थों में अपनत्व का आरोप करने वाला जीव बहिरात्मा है तथा स्वसत्ता में परिणमन करने वाला अन्तरात्मा जीव महात्मा माना गया है। अन्य दर्शनकारों ने सांसारिक जड़ पदार्थों को माया, भ्रान्ति, अबुद्धि आदि कहकर इन्हें त्यागने का उपदेश दिया है, यों दोनों का आशय एक है । अतः शब्द भेद है, किन्तु सब का आशय भेद दृष्टि से अज्ञान को हटाकर ज्ञानमार्ग में जीव को प्रवेश करना है। क्योंकि कर्मबंध के सिद्धान्त से, पर-पदार्थों की आसक्ति ही कर्मबंध और संसार में कारण है, वही गति-अगति की मूल है।
यद्यपि जीवधारियों की काया भी पंचभूत जड़ तत्वों से बनी हुई है, किन्तु उक्त सिद्धान्त से स्पष्ट है कि इस निर्जीव संरचना में ऐसा कुछ भी नहीं है जो चेतना को किसी प्रकार की भावात्मक अनुभूति कराता हो। सरदी, गरमी आदि प्रभाव इन्द्रिय प्रतीति में अनादि विभाव-परिणामों की आसक्तिवशात ही आते हैं।
वस्तुतः चेतना का उल्लास और संतोष भावात्मक है। भाव का उद्भव वस्तुओं से संभव नहीं, पदार्थ एक क्षेत्रावगाह रूप से रहते हुवे भी चैतन्य तत्व से भिन्न स्वभावी है। वे नश्वर और सड़न गलनमय तथा स्कन्धादिरूप हैं। जबकि आत्मा अरूपी व अजरामर, अविनाशी व ध्रौव्य है तथा स्वसत्तारूप है । एक सत्ता का दूसरी सत्ता में मिलन असंभव है, यह सिद्धान्त स्थानाभूत नहीं होते। यदि वैसा होता तो चैतन्य जड़ बन जाता व जड़ चैतन्य बन जाता ऐसा नहीं होता है। स्पष्ट है कि जड़ की परिणति जड़ में ही होती है।
आत्मा भावों का कर्ता है, परिणामों के शुद्ध-अशुद्ध अध्यवसाय से ही पाप, पुण्य, शुभ, अशुभ और कर्ता-भोक्ता के भेद पड़ते हैं। ___ अतः चेतना की वास्तविक तृप्ति और तुष्टि देने वाली सरसता उसके निज के अन्तर-रमण में प्रवेश पाने पर परिष्कृत हो उठती है । परिष्कृत अंतःचेतना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उसके परिकार से आत्मा के अनन्त प्रदेशों में अभूतपूर्व रसानुभूति होने लगती है। बाह्य इन्द्रियादि की विषय वासनाओं से विरक्त मानव सम्यग्ज्ञान दृष्टि के पुरुषार्थ बल से अपनी अन्तरात्मा में अपूर्व उल्लास और आनन्द का अनुभव करता है। ___अन्तर मग्नता में ज्यों-ज्यों मानव वृद्धि करता है त्यों-त्यों समझना चाहिये कि वह परमात्म पद की उपलब्धि के निकट बढ़ता जा रहा है।
सामान्यतया जीव पर, बाह्य पदार्थों में आसक्तिवश मान, मोह, क्रोध, लोभ, यश-अपयश, परिग्रह, ममत्वादि अनेक विभाव गुण छाये रहते हैं । वह मात्र शरीराध्यासी बना रहता है । पंच-तत्वों से बनी काया में रमणतावश वह अपने आपको नश्वर शरीरी ही मानता है तथा उसके सुखों और दुःखों को अपना सुख-दुख समझता है। पदार्थों की लाभ-हानि ही उसे अपनी लाभ-हानि दिखती है तथा शरीर के संबंधी ही अपने स्वजन लगते हैं। पदार्थ नश्वर है इसलिये वह अपने को भी तदनुरूप मरण स्वभावी मान लेता है । किन्तु अध्यात्मज्ञान ही अपने शुद्ध स्वभाव की पहिचान कराता है, अतः मिथ्यात्व का नाश होने पर तथा स्व-पर भेदज्ञान होने पर उक्त स्थिति का अन्त हो जाता है। तब शरीर की नश्वरता व आत्मा की अखण्डता की श्रद्धा दृढ़ होती है। इस प्रकार की स्थिति बनने पर यह ज्ञायक स्वभावी आत्मा अर्थात् ज्ञाता, ज्ञेय पदार्थों को ज्ञान के द्वारा उनको हेय, ज्ञेय व उपादेय के भेद से देखता, जानता और त्यागता है तथा अपनी शुद्ध आत्मा का
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उपयोग लगाता है । जैन दर्शनकारों ने आत्मा का लक्षण "उपयोगे आत्मा" कहा है जो उक्त आध्यात्मिक भित्ति पर आधारित है। आत्मा का दूसरे प्रकार से तात्विक निरूपण हेतु "ध्रौव्य-उत्पादव्यय-युक्तम् आत्मा"--आत्मा का लक्षण कहा है, जो द्रव्य' गुण और पर्याय के भेदों से आत्म स्वरूप का स्पष्ट दर्शन करा देता है । तात्विक विश्लेषण विस्तार की अपेक्षा रखता है अतः संक्षेप में उदाहरण से यों समझा जा सकता है कि घट के निर्माण में मिट्टी उपादान है, आकार में परिणमन उत्पाद है व फोड़ देने पर बिखरने रूप पर्याय है, पर मिट्टी सभी अवस्थाओं में ध्रौव्य रूप में विद्यमान है। इस प्रकार अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं। आत्मा ध्रौव्य होने से शाश्वत् सत्तारूप उपादान तत्व है । निमित्त-नैमित्तिकादि में संयोग-वियोग दिखाई देता है तथापि सत्ता का ह्रास कदापि काल नहीं होता। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि स्थापित होने पर आत्मा को पर-वस्तुओं में लाभ-हानि की कल्पना नहीं रहती । वैसी परिणति होने पर आत्म-अध्यवसाय अन्तर की ओर मुड़ जाते हैं। तब बाह्य से विरक्त हुवा द्रव्य-मन उपशांत होता हुवा अपने हित-अहित को आत्म-कल्याण में-आत्म संतोष में वृद्धि पाता है । जितने अंशों में जीव इस ओर बढ़ता है उतने अंशों में वह गुणस्थान लांघता ऊपर चढ़ता है। अतः उस आनन्द की प्राप्ति का आरंभ इस अवस्था में होना शुरू हुवा अथवा मोक्ष मार्ग रूप आनंद भवन के प्रवेश हेतु उसने समता के सोपानों की ओर चरण बढ़ाए अर्थात् आनन्द की सुखानुभूति का निराला स्वाद इस स्थिति में उस जीव को निश्चित रूप में आने लगता है।
ईश्वरीय सत्ता का दूसरा अगला पहलू है चित्त की एकाग्रता । ईश्वर ब्यक्ति नहीं, चेतन शक्ति का नाम ही ईश्वर है और चेतना की जितनी-जितनी भावाध्यासों में दृढ़ता होती है, उतना उतना ईश्वरत्व की प्राप्ति का पुरुषार्थ हुवा कहा जा सकता है। विचारों एवं भावों की उत्कृष्टता में, पवित्रता में, आत्मसत्ता ज्योतिर्मय होती है। सौन्दर्य वस्तुओं से पलट कर भावों में दिखने लगता है, रस इन्द्रियों के माध्यम से नहीं, इन्द्रियातीत भाव संवेदनाओं के रूप में मिलने लगता है। चिंतन के क्षेत्र में आदर्शवादी उत्कृष्टता ही छाई रहती है। लोभ और भय के कारण तथा दुष्कर्मों के बंध, संवर (समता) में प्रवेश होने से निर्जरित होने लगते हैं। नए कर्म अर्थात् पुनर्बन्ध दग्ध-बीज के तुल्य कारण के नष्ट होने की स्थिति में कार्य नहीं करते । पर को निजरूप न मानने तथा निज आत्म को पर-रूप न मानने की स्थिति में यह ज्ञानमय आत्मा कर्म का ऐसा अकारक बनता है। इस प्रकार के भाव की रमणता जिस जीव की होने लगे समझना चाहिये कि वह ईश्वरत्व की समीपता का अधिकारी बनकर विशिष्ट आनन्दानुभव की प्रतीति करता है। बाह्य दुःख-सुख को वह सुखाभास मात्र जानकर वैसा सम्यग्ज्ञान का ज्ञायक जीव साता-असाता का वेदन नहीं करता । वह निश्चित ही उस आनन्द में मग्नता पाता है जिसे अनुपमेय, अद्भुत ही कह सकते हैं अथवा तो वह अन्यथा वचनातीत है।
अन्त में, आनन्द, विशिष्ट आनन्द के पश्चात् आनन्द के समूह रूप परमानंद-रूप, अवस्था प्राप्त होती है । इस अवस्था में आत्मज्ञानी
महात्मा अन्तर में निरन्तर सन्तुष्ट, प्रसन्न, ध्यानस्थ अथवा ललितरूप समभाव में प्रविष्ट होता है। उस दिव्य-चितन, दिव्य प्राप्ति का असाधारण स्वरूप है जहां वह इसी भव में, इसी देह में अपने को मुक्त सिद्ध बुद्ध अवस्था में स्वयं देखता है। भले ही उसका मोक्ष फिर दो तीन भव में कभी भी हो, उसकी उसे कोई इच्छा नहीं रहती। इस अवस्था को बहुत ऊपर के गुणस्थानों में स्वीकार किया जाता है जो परमपुरुषार्थ के आत्मबल से ही प्राप्य है। ऐसे विरले महापुरुष उदाहरण के रूप में विश्व में पाए जाते हैं। सातवें गुणस्थान की प्राप्ति इस काल में भी मान्य है, जहां अप्रमत्तभाव में मोक्ष झांकी का दर्शन होता है।
आचार्य प्रवर श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी श्वेताम्बर समाज के संत-महात्माओं में इसी प्रकार की स्थिति के महापुरुष हो चुके हैं, जिन्होंने महान आध्यात्मिक ग्रन्थों को लिखकर जगत के प्राणियों के हितार्थ करुणार्द्र होकर रचना की वह इतिहास की अमरनिधि रूप है। जैन संत का मर्यादित जीवन व दर्शन-ज्ञान चरित्र की साधना करते हुवे ज्ञान-दान का कार्य करना विरल आत्माएँ ही कर पाती हैं । अपना आत्म-कल्याण और ज्ञान-दान इन दोनों प्रवृतियों में सफलता पाना प्रायः असाधारण महात्मा ही कर पाते हैं जो “तिनाणंतारियाणं" का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ऐसे महापुरुष का जीवन व साहित्य युग-युगान्तर के लिये अमर हो जाता है । इस संदर्भ में सूरीश्वरजी ने अमरत्व प्राप्त किया जो प्रकाश की भांति स्पष्ट है।
भू-तल पर मानव जीवन की कथा में सबसे बड़ी घटना उसकी आधि-भौतिक सफलताएं अथवा उसके द्वारा बनाये और बिगाड़े हुए साम्राज्य नहीं प्रत्युत सच्चाई और भलाई की खोज' में उसकी आत्मा की, की हुई युग-युग की प्रगति है। जो व्यक्ति आत्मा की इस खोज के प्रयत्नों में भाग लेते हैं, उन्हें मानवीय सभ्यता के इतिहास में स्थाई स्थान प्राप्त हो जाता है। समय, महावीरों को अनेक अन्य वस्तुओं की भांति भुला चुका है, परन्तु संतों की स्मृति कायम रहती है। ___अपना नाम अमर करने के लिये बड़े-बड़े सम्राटादि हुवे, उन्होंने अपने नाम पर बड़े-बड़े नगर, मुहल्ले, स्तुप, भवनादि बनाए पर उनका आज नामों-निशान नहीं रहा । समय और प्रकृति के एक धक्के ने उन्हें मूल से उखाड़ दिया । इतिहास इस तथ्य का साक्षी है, किन्तु अध्यात्म जगत की प्रत्येक वस्तु स्थाई है, आधि-भौतिक आक्रमण यहां असर नहीं करते ।।
एतदर्थ सारांश यह है कि जो पुरुष आध्यात्मिक जगत का साम्राज्य प्राप्त करके, आत्मिक विभूतियों का स्वामी बन जाता है और आत्म-विकास का उज्ज्वल आदर्श जगत के सामने प्रस्तुत कर देता है, काल उसका दास बन जाता है, वह युग-युग का प्रेरणा स्रोत बन जाता है और सबसे परे निर्लिप्त, अनासक्त करुणा वह आत्मा अध्यात्मज्ञानी अजर-अमर रूप इस सत्चित आनन्द धन आत्मा के अव्याबाध अनंत सुख को प्राप्त कर उस परममोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है जिसके लिये देवतागण भी तरसते हैं पर वे इस मानव देह की दुर्लभ प्राप्ति कर सुलभ बना जाते हैं। ऐसे महापुरुषों के मार्ग का अनुकरण कर प्रत्येक जीवात्मा आनन्दधन रूप परमात्म पद को प्राप्त कर सकती है।
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वैराग्य
जगतगुरु महामंडलेश्वर स्वामी शिवानन्दजी शास्त्री,
प्रवास साध जीवन का एक विशेष अंग बन गया है। पूज्य विनोबाजी कहा करते हैं-चलते-फिरते समाधि लगाना सीखो। गुफा में बैठ कर समाधि के आदी बनोगे तो संसार के एक प्रिय बच्चे की हलचल से भी तुम्हारे अंदर क्रोध उत्पन्न होगा। श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे--मिलीटरी के नौजवान चलते हुवे लेफ्ट-राइट बोला करते हैं, भक्त लोगों को चलते-फिरते 'राम-कृष्ण' रटना चाहिये। भारत की मेरी पदयात्रा में जहाँ कहीं मुझे किसी जैन महामुनि तथा किसी महासतीजी का दर्शन होता, मैं उन्हें हृदय से प्रणाम करता । तपोनिरत साधु पुरुषों को देख कर मेरा सिर अपने आप झुक जाता है। ___ मैं उनके वैराग्य की मन ही मन खूब प्रशंसा करता हूँ। सुनीतिकारों ने कहा भी है कि सर्वत्र भय है, केवल वैराग्य में ही अभय है।
भोगे रोगभयं कुलेच्युतिभयं वित्ते नूपालाद्भयम् । मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम् ।। शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम् ।
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां-'वैराग्य मेवाभयम् ।। अर्थात् भोग में रोग का भय है, कुलीनता में पतन का भय है, समृद्धि में राजा का भय है, मौन में दैन्य का भय है, बलवत्ता में शत्रु का भय है । गुणवत्ता में दुष्ट का भय है, शरीर में यमराज का भय है, क्या अधिक कहें। संसार की सभी वस्तु तथा सभी व्यवहार भयपूर्ण हैं, केवल एक वैराग्य ही अभय है।
वस्तुतः अभय देवीसम्पद् है । यह एक महान मानवीय गुण है। साधक के लिये यह साधना का महत्वपूर्ण अंग है। व्यक्ति में अभय का विकास वैराग्य के बिना नहीं हो सकता । पूर्ण वैराग्यवान ये जैन महामुनि तथा महासती अवश्य ही अभय हैं । ये उस
अभयपद को अवश्य प्राप्त करने वाले हैं, जिसके लिये सभी तत्ववेत्ताओं ने अपना सर्वस्व अर्पण किया है। भारतीय दर्शन शास्त्रों में वैराग्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । नौका चलाने के लिये यथेष्ट जल की बड़ी आवश्यकता है। आध्यात्मिक जीवन एक ऐसी नौका है कि जो वैराग्यरूपी जल के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकती।
तपस्या में जैन समाज सबसे आगे है। अब मैं सभी प्रकार के उत्तम वाहनों में बैठ कर घूमता हूं। आज भी पूर्ववत् जहाँ कहीं उन पैदल चलने वाले तपस्वियों को देखता हूँ तो मेरा सिर उनके सामने झुक जाता है।
मन ही मन बोलता हूं-धन्य हैं ये तपस्वी, जो आज इस विमान के युग में भी पैदल चल रहे हैं । आराम के साधन को देख कर भी उसकी प्राप्ति की इच्छा न हो, यही सबसे बड़ी तपस्या है । बदलती हुई इस दुनियां में हम न बदलें, इससे बढ़ कर और कोई तपस्या नहीं। जिनदत्तसूरि ने कहा--
'बलभोगोपभोगानामुभयोनिलाभयोः । अन्तरायस्तथा निद्राभीरज्ञानं जुगुप्ति तम् ।।
हिसारत्यरती रागद्वेषाव विरतिः स्मरः । शोको मिथ्यात्वमेते अष्टादश दोषा न यस्य सः ।।
'जिनो देवो गुरु ... . . . . . . . । अर्थात् जिनके अंदर उक्त १८ दोष नहीं हैं वे मनुष्यों में देव हैं, जिन हैं, गुरु हैं, वे धन्य हैं, कृतकृत्य हैं। __इन अठारह दोषों में वैराग्यहीनता और भोग-लोलुपता ये दो भय भयानक दोष हैं।
तप के बिना इनकी सिद्धि नहीं हो सकती, अतएव हमारा जीवन तपस्वी हो।
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अर्हत दर्शन में सम्यक् चारित्र और पांच महाव्रतों का इस प्रकार वर्णन है
"संसरणकर्मोच्छित्तावुधतस्य श्रद्धानस्य ज्ञानवल: पापगमन कारणं क्रियानिवृत्तिः सम्यक्चारित्रम्।" ___ अर्थात् संसार के प्रवर्तन के कारण स्वरूप कर्मों के नष्ट हो जाने पर साधना में तत्पर श्रद्धावान तथा ज्ञानवान साधक का पापों की तरफ ले जाने वाली क्रियाओं से निवृत्त हो जाना ही सम्यक्चारित्र है।
पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह है। १. न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् ।
चराणां स्थावराणां च तदहिंसा व्रतं मतम् ।। अर्थात् असावधानी या पागलपन से भी जब स्थावर या जंगम किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं की जाती, उसे अहिंसा कहते हैं। २. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतं व्रतमुच्यते ।
तथ्यमपि नो तथ्यप्रियं चाहितं च यत् ।। अर्थात् सुनने में भी सुखद हो और अंतिम परिणाम भी जिसका सुखद हो तथा यथार्थ भी हो, ऐसे वचन को सत्यव्रत कहते हैं।
३. अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम्। बाह्याः प्राणा नृणामों हरता तं हता हि ते।।
अर्थात् धन मनुष्य का बाह्य प्राण है, उसे दिये बिना लेने का प्रयत्न न करें। धन-स्वामी की स्वेच्छा के विरुद्ध उसके धन का हरण तो उसके प्राणों का हरण ही समझना चाहिये । ४. दिव्यौदरि ककामाना कृतानुमतकारितः
मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधापतम् ।। अर्थात् सभी प्रकार के भोग्य से मन, वचन तथा कर्म द्वारा उपरमता ब्रह्मचर्य है ।
५. सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः।
__ यदसत्स्वपि जायते मूर्छया चित्तविप्लवः ।। अर्थात् सभी वस्तुओं में इच्छा का त्याग अपरिग्रह है। क्योंकि इच्छा के कारण असत् पदार्थों में भी चित्तविकृति हो जाती है।
इस प्रकार आचार पक्ष को अत्यधिक महत्व दिया गया है। विचार भी समन्वयवादी दीखता है। आज के बैचारवैविध्य में जहाँ तक हो सके उदारभाव से समन्वय के लिये प्रयत्नशील रहना योग्य ही है।
'राजेन्द्र-ज्योति' की वर्तमान समय में विशेष आवश्यकता है। क्योंकि केवल संत पुरुष ही प्रवास कर रहे हैं ऐसा नहीं है। अपितुप्रवासी तो सभी हैं। परन्तु आज की आम जनता प्रायः अंधेरे में ही प्रवास कर रही है, ठोकरें खा रही है, परेशान हो रही है। हमें उन्हें बचाना है। उनके दुःख को दूर करना है, उन्हें खड्डे में नहीं गिरने देना है--'राजेन्द्रज्योति प्रदान कर ।
(ध्यान-साधना : आधुनिक संवर्भ. . . . पृष्ठ ८८ का शेष)
प्रारंभ में हम भौतिक और बाहरी विघ्नों पर विजय प्राप्त करते हैं पर जब शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है तब हम आन्तरिक शत्रुओं, वासनाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं। आज आन्तरिक खतरे अधिक सूक्ष्म और बलशाली बन गये हैं उन्हें वशवर्ती बनाने के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक है । ध्यान और सामाजिकता का प्रश्न
ध्यान-साधना आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत तो है ही, सामाजिक शालीनता और विश्वबन्धुत्व की भावना वृद्धि में भी उससे
सहायता मिल सकती है। यह जीवन के पलायन नहीं, वरन् जीवन को ईमानदार, सदाचारनिष्ठ, कलात्मक और अनुशासनबद्ध बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण साधन है। यह एक ऐसी संगमस्थली है जहां विभिन्न धर्मों, जातियों और संस्कृतियों के लोग एक साथ मिल बैठ परम सत्य से साक्षात्कार कर सकते हैं, अपने आपको पहचान सकते हैं, शर्त केवल यही है कि इसे भोगोन्मुख होने से रोका जाय।
जो व्यक्ति क्रोधी होता है अथवा जिसका क्रोध कभी शान्त नहीं होता, जो सज्जन और मित्रों का तिरस्कार करता है, जो विद्वान् होकर भी अभिमान रखता है, जो दूसरों के मर्म प्रकट करता है और अपने कुटुम्ब अथवा गुरु के साथ भी द्रोह करता है, किसी को कर्कश वचन बोल कर सन्ताप पहुंचाता है और जो सबका अप्रिय है, वह पुरुष अविनीत, दर्गति और अनादर का पात्र है । ऐसे व्यक्ति को आत्मोद्धार का मार्ग नहीं मिलता है ।
-राजेन्द्र सूरि
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उपवास और आध्यात्मिक विकास
मानकलाल गिरिया
उपवास एक धार्मिक क्रिया के रूप में प्रत्येक धर्म में किसी न किसी रूप में मान्य है । वैदिक-हिन्दू व जैन धर्म में तो उपवास का स्पष्ट विधान हैही किन्तु मुस्लिम धर्म के रोजे भी उपवास का ही एक रूप है ।
प्रायः उपवास से हमारा अर्थ अन्न अथवा जल या किसी भी प्रकार का खाद्य या पेय के त्याग से ही होता है किन्तु सही रूप में उपवास का अर्थ इससे भिन्न है । उपवास का अर्थ है आत्मा के पास व्याप्त याने आत्मा के निकट निवास और अपनी दृष्टि विश्व के समस्त भौतिक व जड़ पदार्थों से हटाकर अपने स्वयं की ओर ले जाना है। अपनी दृष्टि सभी ओर से--माता की ओर से, पिता की ओर से, पूत्र की ओर से व पुत्री की ओर से, भाई की ओर से, बहिन की ओर से, पत्नि की ओर से, पति की ओर से, मित्र की ओर से, शत्रु की ओर से स्वयं अपने शरीर की ओर से भी हटाकर केवल अपने स्वयं की ओर याने अपनी आत्मा की ओर जब मानव कर लेता है तो वह उपवास कहलाता है। जब दृष्टि सिर्फ आत्मा की ओर होगी, अपने स्व की ओर होगी, उस परिस्थिति में भूख व प्यास मालूम ही न होगी और अन्न व जल का स्वयं ही त्याग हो जायेगा । यही वास्तविक उपवास का रूप है।
प्राय: वैज्ञानिक आधारों पर यह धारणा रही है कि उपवास से स्वास्थ्य लाभ होता है, शरीर स्वस्थ होता है, अन्तड़ियों को आराम मिलने से पेट ठीक होता है और पाचन शक्ति बढ़ती है किन्तु उपवास का उद्देश्य इतना भर नहीं है।
एक व्यक्ति आम का वृक्ष लगाता है उसे वर्षों तक सींचता है, श्रम करता है और वह वृक्ष पूर्ण विकसित होने पर फल देता है और उमस भरी दोपहरी में शीतल छाया । वृक्ष लगाते समय उसका उद्देश्य फल प्राप्त करना होता है--शीतल छाया
नहीं । छाया तो स्वतः प्राप्त हो जाती है । सिर्फ छाया प्राप्त करने के लिये और भी अनेक वृक्ष हैं जो शीघ्र बढ़ते हैं। ठीक इसी प्रकार उपवास का उद्देश्य मात्र स्वास्थ्य लाभ नहीं है अपितु उपवास आत्म-शान्ति के लिये किया जाता है। स्वास्थ्य लाभ तो उसकी by Produet की भाँति स्वतः हो जाता है ।
जैन समाज में उपवास का बहुत महत्त्व है व कई व्यक्ति उपवास करते हैं तथा कई व्यक्ति तो ३-४-५-८ से लेकर ३०-४०-५० उपवास तक करते हैं । किन्तु प्रायः देखने में आता है कि उपवास के पश्चात् अधिकांश व्यक्तियों में क्रोध की मात्रा में कुछ वृद्धि हो जाती है । कई व्यक्ति उपवास के समय में चिड़चिड़ापन जाहिर करते हैं उसका कारण यही है कि हम उपवास, उपवास के सही उद्देश्य को जानकर नहीं करते । यदि उपवास के समय हम आत्मचिन्तन, आत्म-रमण करेंगे तो आत्म शान्ति प्राप्त होगी । केवल भोजन छोड़ देने मात्र से काम नहीं चलेगा। प्रायः भोजन के त्याग के पश्चात् हम हमारे दैनिक कार्यों में लीन हो जाते हैं व उपवास के वास्तविक उद्देश्य को ध्यान में नहीं रखते हैं, फलतः हमारा ध्यान भी भोजन पर अधिक केन्द्रित हो जाता है। इस दरमियान हम चाहे शरीर से भोजन न करें मन से चौबीसों घण्टे भोजन करने में लीन रहते हैं। मन में विचार भोजन के व तरह-तरह की अन्य सामग्रियों के आते रहते हैं । सामान्य दिनों में जब हमें उपवास नहीं होता, दोनों वक्त निर्धारित समय पर भोजन करते हैं और हमारा दैनिक कार्य सम्पन्न करते हैं। तब भोजन के समय के अलावा हमारा मन भोज्य-पदार्थों की ओर कतई नहीं जाता किन्तु उपवास के वक्त हमारा मन अधिकांशतः भोजन सामग्री की कल्पना में ही लगा रहता है बल्कि उपवास के पूर्व धारणा से लेकर उपवास काल में पारणा की चिता में हम भोजन के अधिक निकट इस काल में रहते हैं । यही कारण है कि हम
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खुशियों के अम्बार सजाऊं
डा. श्रीमती कोकिला भारतीय
एक तरफ अमीरों के सुख और एक ओर गरीबों की आहे, विलासिता के दौर निहारती, थकित वे थकित भूखी आहे, मन में अर्न्तद्वन्द्व यह चलता दीनों को कुछ दे पाऊँ, प्रेम, दया और स्नेहभाव से खुशियों के अम्बार सजाऊँ।
कभी चाह थी मुझको मानव बनकर जग में आ जाऊं । प्रेम, दया और स्नेहभाव से खुशियों के अंबार सजाऊं ।
पूरी हो गई आखिर मेरी यह अभिलाषा, आ गया इस वसुधा पर लेकर के नव आशा, नव आशा के दीप लिए सोचा मैं राह बनाऊँ, प्रेम, दया और स्नेहभाव से ख्शियों के अंबार सजाऊँ।
और बहुत सी कटुताएं जो जीवन में झंझावत लाती, आपस में बैर ठारू ईर्ष्या, वैमनस्य का राग जगाती, या तो देदे ऐसी शक्ति, इन सबसे मैं उबर पाऊं, प्रेम, दया और स्नेहभाव से, खुशियों के अम्बार सजाऊँ।
लेकिन यह दुनिया है कैसी जहाँ प्रेम का मोल नहीं, धन लिप्सा अरू स्वार्थ भाव में स्नेह दया का नाम नहीं, ऐसे जग के कुचक्रों में, मैं हरदम घिर जाऊँ, प्रेम, दया और स्नेहभाव से खुशियों के अम्बार सजाऊँ।
नहीं दे सकता जो आपस में, सौहार्द्ध और एकता के गुण, शांति, दया और सेव्य भाव से प्रेम दीप जले हरदम, तो जीवन निरर्थक है मैं नश्वरता में खो जाऊँ, प्रेम, दया और स्नेहभाव से खुशियों के अम्बार सजाऊँ ।
उपवास के पूर्ण उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाते और अधिकांश व्यक्ति क्रोध व चिड़चिड़ेपन से इस काल में ग्रसित रहते हैं ।
होना यह चाहिये कि उपवास काल में हम आत्मध्यान करें मैं कौन हूँ--अपने स्व को जानने का प्रयास करें । इस शरीर से भिन्न हमारी आत्मा है उसके निकट यदि हम पहुँचने की कोशिश करें तो एकः स्वगिक शन्ति-वास्तविक शान्ति का स्रोत हमारे हृदय में उठेगा और उस शान्ति की अनुभूति होते ही हमारे हृदय में जो विकार उत्पन्न होते हैं वे स्वतः दूर हो जावेंगे और यही उपवास सही उपवास होगा, वास्तविक उपवास होगा।
उपवास हम हमारी शक्ति के अनुसार करें, चाहे अधिक न करके सिर्फ १ दिन का उपवास करें, वह भी न हो तो आधे दिन का उपवास करें किन्तु उसे सही रूप में वास्तविक उसके उद्देश्य को समझ कर करें तो आधे दिन का इस प्रकार किया गया उपवास आधे माह के सामान्य उपवास से अधिक महत्त्वपूर्ण है । ऐसा उपवास हमें आध्यात्मिकता की ओर ले जावेगा जिससे हमारा आध्यात्मिक विकास होगा और यही आध्यात्मिक विकास मानव शान्ति का द्योतक है । आध्यात्मिक पुरुष के अन्तर में शान्ति का, प्रेम का, त्याग की महत्ता का, मानव के गुणों का अजर, अमर स्स्रोत सदैव बहता रहता है जो मानव शान्ति के साथ ही साथ विश्व शान्ति का पथ-प्रदर्शन का प्रणेता है।
राजेन्द्र-ज्योति
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नमस्कार - ज्योति
मफतलाल संघवी
जिण-सासणस्स सारो, चउदस्स पुव्वाण जो समुद्धारो, जस्स मणे नवकारो, संसारो तस्स किं कुणई ॥१॥ परम उपकारी महर्षियों ने उक्त सूत्र में मन्त्राधिराज श्री नवकार का अचिन्त्य जो सामर्थ्य और गाम्भीर्य है, उसका यथार्थ परिचय हमें करवाया है। लेकिन हमारी कक्षा निम्न स्तर की होने से हम उक्त सूत्र का यथार्थ रहस्य समझने में असहाय एवं असमर्थ हो रहे हैं । यह एक सिद्ध हकीक़त है कि एक काल में एक स्थान में दो पदार्थ रह नहीं सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती। फिर भी हम सब मोह के प्रभाव से भ्रमित होकर, ममत्व से मछित होकर, हमारे मन में सांसारिक सुखों की भूख को अच्छी तरह से पनपाते हैं और कुत्ते को रोटी का टुकड़ा देने के समान यदा-कदा बचे समय में औपचारिक ढंग से कभी-कभी मंत्राधिराज श्री नवकार का स्मरण कर लेते हैं ।
अपने जीवन में श्री नवकार कोप्रधान स्थान क्यों देना चाहिए? इस प्रश्न का समाधान है कि अगर हमने सच्चे भाव से पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया होता तो हमारा उद्धार हो जाता। पंच परमेष्ठी को नमस्कार करने से पाप का ही अन्त नहीं वरन् पापकारक वृत्तियों का भी क्षय हो जाता है। श्री नवकार केवल पापनाशक ही नहीं है किन्तु सर्वपाप प्रकाशक भी है । पाप का प्रकटन तब होता है जबकि भगवंतों के नमन में मन स्थिर हो जाता है । मन का स्थिर होना ही 'न-मन' का तात्पर्य है।
दूध में मिश्री के समान जब नमस्कार्य भगवन्तों में हमारा मन विलीन हो जाता है तब हम पर्याय के पिंजड़े से निकल कर आत्मद्रव्य' की अनुपम अनुभूति को प्राप्त करते हैं ।
काषायिक जीवन क्षुद्र भी है और सीमित भी । पंचेद्रियों के विषय मिल जाने पर 'हमें जीवन मिल गया' ऐसा समझना, बोलना, या सोचना यह क्षद्रता का लक्षण है । स्वत्व के विश्व-विस्तार में अवरोधक विषयों को स्व का श्रेय मान लेना यह गंभीर अपराध है। स्व का स्थान स्वार्थ को देना और स्वार्थ का स्थान स्व को देना यही मिथ्यामति की तिरछी चाल का प्रतीक है। मति की गति के आधार पर जीवन-जहाज की सफर का अन्दा निकलता है। सम्यक् गति हमें मिथ्या में आसक्त होने से बचा लेती है और अगर मति की गति विपरीत होती है तो हम मिथ्या में मस्त हो जाते हैं। मति की गति को यथार्थ रास्ता तब मिलता है जब हम नमस्कार में अपनी समग्रता को केन्द्रीभूत कर लेते हैं।
आज तक हमने अन्य जीवों से द्वेष करके श्री जिनेश्वरदेव की आज्ञा से विपरीत कार्य ही किया है। जड़ का राग, जीय के द्वेष में परिणमणता है। जीव-द्वेष अर्थात् दुर्लभ मानव-जीवन की बरबादी।
कडी धूप में जैसे कपड़ा सूख जाता है वैसे ही श्री तीर्थ'कर परमात्मा के ध्यान से आत्मा की असलियत खुलने लगती है और मोह का प्राबल्य लुप्त होने लगता है ।
क्या हमको जितना अपना नाम प्यारा है, क्या उतना ही प्यारा हमें अरिहंत का नाम है ? हरगिज नहीं। कहते हैं कि "जहाँ चलता है श्री नवकार का नाम, वहाँ नहीं ठहरता है पाप ।” परन्तु क्या हम पापमय प्रवृत्ति से सचमुच ही दूर रहने की कामना करते हैं ? जीवन में जिसे ऊंचा उठना है उसे श्रेष्ठतम आत्माओं से नाता जोड़ना पड़ता है । जबकि हमारा नाता तो ऐहिक सुख की कामना से बना हुआ है। परम तारक श्री तीर्थंकर देव की भावदया में स्थान पाने वाले हम इतना भी नहीं सोचते है कि हमारा कर्तव्य क्या है?
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परोपकारी श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी पंच नमस्कृति स्तुति में फरमाते हैं:
एष माता पिता स्वामी, गुरुनेत्रं भिषक् सखा । प्राण स्त्राणं मतिर्दीपः शान्तिः पुष्टिमहन्मह ।।२८।। निधयः सन्निधौ, कामधेनुरप्यनुगामिका। भूमृतो भृतकास्तस्य, यस्य नैष हृदा हिसक् ।।२९।।
अर्थात् यह नमस्कार मंत्र माता, पिता, स्वामी, गुरु, नेत्र, वेद, मित्र, प्राणरक्षक, बुद्धि, दीपक, शान्ति, पुष्टि और महा ज्योति है। जिसके मन में यह नवकारमंत्र बसा हुआ है, नवनिधि उसके पास रहती है। कामधेनु उसकी अनुगामिनी बनती है और बड़े बड़े भूप उसके सेवक हो कर रहते हैं ।
नमस्कार तो हम करते हैं, दिन में दो चार बार नहीं लेकिन बीस पच्चीस बार करते हैं। मगर जहां करना चाहते हैं वहां नहीं करते हैं । सच्चे नमस्कार के अधिकारी कौन हैं ? इस प्रश्न पर गंभीर चिन्तन अनिवार्य है। क्योंकि बात-बात में जहां-तहाँ झुकने से हम स्वार्थ के दास हो गये हैं । पारमार्थिक जीवन से हम भ्रष्ट हो गये हैं।
अनात्मभूत पदार्थों में सुख ढूंढ़ने की कुचेष्टा से हम सुखी तो नहीं होंगे लेकिन हमारा दुःख अवश्य बढ़ेगा । स्वभाव से भ्रष्ट होकर परभाव में सुख ढूंढ़ना, इसका अर्थ यह होता है मिथ्या प्रयास करना।
आओ ! हम शरण ग्रहण करें श्री पंच परमेष्ठी भगवंतों की ताकि पंच इन्द्रियों के विषय भी बदल जायें । व्यापार बढ़ाओ, मैत्री आदि चार भावनाओं का, जिससे चार कषायों की ताकत निर्मूल हो जाये । जिसे जीवन प्यारा है उसे परम मंगलमय जीवन के स्वामी श्री अरिहंत परमात्मा से प्रीत करनी ही होगी। प्रीति की रीति कैसी होती है, यह तो हम सब जानते हैं । प्रीति की गली इतनी संकड़ी है कि वहां पर एक साथ दो नहीं ठहर सकते हैं। प्रीत का प्राण है त्याग । जिसे त्याग में राग नहीं, वह वीतराग से प्रीत कैसे करेगा?
सच्ची प्रभु-प्रीति का दूसरा नाम है पूर्ण नमस्कार, पूर्ण समर्पण । आओ ! हम सब परमात्मा की पूर्ण कला के पूर्णरूप से समर्पित आराधक बनें।
कुछ मुक्ताएं
ऐश्वर्य मिलता सुक्ति से,
सन्तोष मिलता मुक्ति से । आनन्द कहते हैं जिसे,
- वह मात्र मिलता मुक्ति से ।।
जो धधकती भट्टियों में गलाया जाता।
वही लोहा एक दिन तलवार बनता है ।।
एक भी सच न हो सपना, क्या करें हम,
काम कुछ भी न हो अपना, क्या करें हम । क्यों बुरा माने ? न माने कहा कोई,
मानना मन भी न अपना, क्या करें हम ।।
लक्ष्मीपूजा करने से ही क्या कोई धनवान हुआ है ?
__ नाम भीम का जपने से ही क्या कोई बलवान हुआ है ? धन या बल ही नहीं साथियों ! विद्या भी श्रम का ही फल है,
पुस्तक मस्तक पर ढोने से क्या कोई विद्वान हुआ है ?
घोर काली रात में जो झिलमिलाये,
दुःख में आकर हमें जो खिलखिलाये । हाथ तो सब लोग दुनियाँ में मिलाते,
दोस्त है सच्चा वही जो दिल मिलाये ।।
बैठे बैठे रोते रहने से होगा क्या?
आँसू से मुंह धोते रहने से होगा क्या ? डट जांय सामने तो संकट कट जायेगा,
आलसी बने सोते रहने से होगा क्या ?
आलसी को ही यहाँ अवधूत कहते हैं ।
गंदगी करता उसी को पूत कहते हैं । क्या गजब की समझ है जो सफाई करता,
हम उसी को बार-बार अछूत कहते हैं।।
श्रमकणों से मोतियों का हार बनता है ।
संकटों में ही मनुज अवतार बनता है ।।
काव्यतीर्थ पं. शान्तप्रकाश 'सत्यदास'
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जैनधर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान
बालचन्द कोठारी
जंन धर्म अपने विचार और जीवन संबंधी व्यवस्थाओं के विकास में कभी किसी संकुचित दृष्टि का शिकार नहीं बना, उसकी भमिका राष्ट्रीय दृष्टि से सदैव उदार और उदात्त रही ।
समस्त भारत देश आज की राजनैतिक दृष्टिमात्र से ही नहीं किन्तु अपनी प्राचीनतम धार्मिक परम्परानसार भी जैनियों के लिये एक इकाई और श्रद्धा भक्ति का भाजन बना है।
जैन तीर्थकर भगवान महावीर ने लोकोपकार की भावना से उस समय की सुबोध वाणी अर्धमागधी का उपयोग किया तथा उनके गणघरों ने भी उसी भाषा में उनके उपदेशों को संकलन किया । जैन आचार्य जहाँ-जहाँ गये वहां-वहां उन्होंने उन्हीं प्रदेशों में प्रचलित लोक भाषा को अपनी साहित्य रचना का माध्यम बनाया। हिन्दी गुजराती आदि आधुनिक भाषाओं का प्राचीनतम साहित्य जैनियों का ही मिलता है। दक्षिण में तामिल और कन्नड भाषाओं को प्राचीन काल में साहित्य में उतारने का श्रेय जैनियों को ही दिया जा सकता है। जैनियों ने कभी भी किसी एक प्रान्तीय भाषा का पक्षपात नहीं किया सदैव देश भर की भाषाओं को समान आदरभाव से अपनाया है और इस बात के लिये उनका विशाल साहित्य साक्षी है।
राम और लक्ष्मण तथा कृष्ण और बलदेव के प्रति जनता का पूज्यभाव रहा है और उन्हें अवतार पुरुष माना गया है । जैनियों ने तीर्थकरों के साथ-साथ इन्हें भी त्रेसठ शलाका पुरुषों में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों में विस्तार से उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है। जैन पुराणों में उच्चता और सम्मान का स्थान देकर रावण व जरासंघ जैसे अनार्य राजाओं की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचने दी। रावण को दशमुखीं राक्षस न मानकर उसे विद्याधरवंशो माना है जिसके स्वाभाविक एक मुख के अतिरिक्त गले में हार की नौ मणियों में मुख का प्रतिबिम्ब पड़ने से लोग उसे
दशानन भी कहते थे। जैन पुराणों में हनुमान, सुग्रीव आदि को बंदर नहीं किन्तु विद्याधरवंशी राजा माना गया है जिनका ध्वजचिह्न बानर था । जैन दर्शन जीव और अजीव रूप से दोनों तत्वों को स्वीकार करता है, उसमें छह द्रव्यों को माना है । द्रव्य वह है जिसमें सत्तागुण है और सत्ता त्रिगुणात्मक है । उत्पादन, व्यय, और ध्रौव्य तीन गुण हैं। ___संसार में चैतन्य गुणयुक्त आत्मतत्व भी है और चैतन्यहीन मूर्तिमान भौतिक पदार्थ तथा अमूर्तिक काल आकाशादि तत्व भी । ये सभी द्रव्य गुण पर्यायात्मक हैं। अपनी गुणात्मक अवस्था के कारण उनमें ध्रुवता है तथा पर्यायात्मक के कारण उनमें उत्पत्ति विनाशरूप अवस्थाएं भी विद्यमान हैं।
जैन धर्म के इस दार्शनिक तत्वज्ञान में ही उसकी व्यापक दृष्टि पाई जाती है और इसी व्यापक दृष्टि से वस्तु विचार के लिए जैन धर्म ने अपना स्यावाद अनेकांत रूप न्याय स्थापित किया है। इसी उद्देश्य से जैन आचार्यों ने देश काल, तथा द्रव्य और भाव के अनुसार भी वस्तु वैचित्र्य का विचार करने पर जोर दिया है।
जबकि हमारा देश वैयक्तिक व्यवहार में ही नहीं किन्तु राष्ट्रीय अन्तर-राष्ट्रीय नीति के निर्धारण में भी अहिंसा तत्व को मौलिक रूप से स्वीकार कर चुका है। तब जैन धर्म का अहिंसा सिद्धांत अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण सिद्ध होता है और उसके सूक्ष्म अध्ययन और विचार की आवश्यकता प्रतीत होती है।
इसी समन्वयात्मक अनेकांत सिद्धांत के आधार पर आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व हुवे समन्तभद्राचार्य ने अपने युत्यनुशासन नामक ग्रन्थ में महावीर के जैन शासन को सब आपदाओं का निवारक शाश्वत सर्वोदय तीर्थ कहा है ।
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सर्वापदाम् अंतकरम् निरंतम् सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।।
(युक्तयनुशासन श्लोक ६१) जिन आंतरिक गुणों के बल पर जैन धर्म गत तीन चार हजार वर्षों से इस देश के जन जीवन में व्याप्त है वह है जैन धर्म की आध्यात्मिक भूमिका, नैतिक विन्यास एवं व्यावहारिक उपयोगिता और संतुलन । यहाँ प्रकृति के जड़ और चेतन तत्वों की सत्ता को स्वीकार कर चेतन को जड़ से ऊपर उठाने और परमात्मपद प्राप्त कराने की कला का प्रतिपादन किया गया है ।
विश्व के अनादि अनन्त प्रवाह में जड़ चेतन रूप द्रव्यों के नाना रूपों और गुणों के विकास के लिये किसी एक ईश्वर की इच्छा व अधीनता को स्वीकार नहीं किया गया । जिन अजीव तत्वों के परिणामी नित्यत्व गुण के द्वारा ही समस्त विकार और विकास के मर्म को समझने और समझाने का प्रयत्न किया गया
सत्ता स्वयं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है और ऐसी सत्ता रखने वाले समस्त द्रव्य गुणपर्याय युक्त हैं। इन्हीं मौलिक सिद्धांतों में जैन दर्शन समस्त पदार्थों के नित्यानित्यस्वरूप अन्तनिहित है।
इस जानकारी के अभाव में प्राणी भ्रान्त, भटकते और बंधन में पड़े रहते हैं। इस तथ्य की ओर सच्ची दृष्टि और उसका सच्चा ज्ञान एवं तदनुसार आचरण हो जाने पर कोई पूर्ण स्वातन्त्र्य व बंधन मुक्ति रूप मोक्ष का अधिकारी हो सकता है ।
यही जैन दर्शनानुसार जीवन का सर्वोच्च ध्येय और लक्ष्य है। व्यावहारिक दृष्टि से विरोध में सामंजस्य, कलह में शांति व जीवन के प्रति आत्मीयता का भाव उत्पन्न होना ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। जिसकी आनुषंगिक साधनाएं हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप नियम तथा क्षमा, मृदुता आदि गुण ।
नाना प्रकार के व्रतों और उपवासों, भावनाओं और तपस्याओं, ध्यानों और योगों का उद्देश्य यही विश्वजनीन आत्मवृत्ति प्राप्त करना है। समत्व का बोध और अभ्यास करना ही अनेकांत व स्याद्वाद जैसे सिद्धांतों का साध्य है।
जीवन में इस वृत्ति को स्थापित करने के लिये तीर्थंकरों और आचार्यों ने जो उपदेश दिया वह सहस्रों जैन ग्रंथों में ग्रंथित है। ये ग्रंथ नाना प्रदेशों और भिन्न-भिन्न युगों की विविध भाषाओं में लिखे गये।
__ अर्ध-मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश प्राकृतों एवं संस्कृत में जैन धर्म का विपुल साहित्य उपलब्ध है - जो अपने भाषा, विषय शैली, व सजावट के गुणों द्वारा अपनी विशेषता रखता है । आधुनिक लोक भाषाओं व उनकी साहित्यिक विधाओं के विकास और समझने के लिये यह साहित्य अद्वितीय, महत्वपूर्ण है। ___साहित्य के अतिरिक्त गुफाओं, स्तूपों, मंदिरों और मूर्तियों तथा चित्रों आदि ललितकला की निर्मितियों द्वारा भी धर्म ने न केवल लोक का आध्यात्मिक व नैतिक स्तर उठाने का प्रयत्न किया
है किन्तु समस्त देश के भिन्न भागों के सौन्दर्य से सजाया है । इनके दर्शन से हृदय विशुद्ध और आनन्द विभोर हो जाता है ।
श्रवणबेलगोला, कारकल, मूडबिद्री वगैरह गांव में जो जैन मंदिरों में भव्य मूर्तियां विराजमान की हैं, राजस्थान में आबू पहाड़ पर दिलवारा जैन मंदिर बनवाये हैं और राणकपुर में जो भव्य मंदिर बने हैं । वे किसी भी देश के लिये बड़े आदर स्थान हैं । मंदिर, मूर्तियाँ और चित्रों द्वारा जो पौराणिक दृश्य बतलाया गया है और हस्तलिखित प्रतियों का जो संग्रह जैनियों ने किया है,इन तमाम कृतियों से जैन धर्म ने स्थापत्य शास्त्र से गौरव प्राप्त किया था और उनसे भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का बहुत बड़ा योगदान हुआ है, इसका प्ता चलता है।
राष्ट्रकट राजाओं के शासन काल में श्री वीरसेन, श्री जिनसेन और श्री गुणभद्र आदि आचार्यों ने जो सामदायिक साहित्य निर्माण किया है वह उच्च प्रकार का साहित्य है। श्री वीरसेनाचार्य और श्री जिनसेनाचार्य ने जो साहित्य निर्माण किया है उससे पाया जाता है कि उन्होंने साहित्य की निर्मिति में खुद को समर्पित किया था। वे संयमी थे, सिर्फ एक वक्त ही अल्पाहार करते थे । इन आचार्यों के अतिरिक्त पंडित आशाधरजी, पंडित पुष्पदंत वगैरह महाविद्वान एवं गृहस्थाश्रमी थे तो भी दक्षिण और उत्तर भारत में प्राकृत और संस्कृत भाषा में अति महत्व का साहित्य निर्माण किया है।
श्री जिनसेनाचार्य ने पार्वाभ्युदय ग्रन्थ लिखा है, और कालिदास जैसे विख्यात कवि ने मेघदूत लिखा था उसके समान श्री पार्वाभ्युदय यह काव्य है। पार्वाभ्युदय में तेवीसवें तीर्थंकर का जीवन चरित्र
और उनके वैरी का, श्री पार्श्वनाथ कर से शत्रुत्व का वर्णन किया है । यह पार्वाभ्युदय काव्य कालिदास के मेघदूत काव्य के श्लोकों का आधार लेकर खण्ड काव्य की रचना है । यह असामान्य विद्वत्ता का लक्षण है ।
श्री जिनसेनाचार्य के गुरु वीरसेन ने जयधवल ग्रन्थ पर टीका लिखना शुरू किया था, वह उनके जीवन काल में पूर्ण नहीं हो सकी। इस टीका को श्री जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया और उन्होंने महापुराण भी लिखा है पंप, पोन्न, औरण्ण ये तीनों महाकवि कन्नड साहित्य में रत्नत्रय कहलाते हैं । ये तीनों कन्नड़ कवि संस्कृत भाषा में भी अतिनिपुण थे। इन कवियों ने उच्च दर्जे का कन्नड़ साहित्य निर्माण किया है। श्री जिनसेनाचार्य ने महापुराण में जैन लोगों के सामाजिक जीवन का वर्णन किया है और संस्कृत भाषा में जो आदर्श ग्रन्थ हैं उसी नमूने पर यह महापुराण कन्नड़ भाषा में लिखा है।
श्री समन्तभद्राचार्य, श्री सिद्धसेनाचार्य और श्री विद्यानंदी आचार्य ये सुप्रसिद्ध ताकिक और न्यायशास्त्र निपुण थे, उन्होंके लिखे हुवे न्यायशास्त्र में उनके काल में जो कुछ मत प्रणालियां
थीं उनका दिग्दर्शन किया है। इन आचार्यों ने दक्षिण भारत में कन्नड़ साहित्य निर्माण किया है वह अतिमहत्व का है।
जैन ग्रन्थों में अहिंसा सिद्धांत का निरूपण अ-यन्त समपर्क तरीके से किया गया है। अहिंसा धर्म का पालन गृह थाश्रमी अर्थात् संसारी जीवों को पालने के संबंध में मर्यादा बतलाई गई
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हैं। मुनि और त्यागियों के लिये अहिंसा धर्म महाव्रत के तौर पर पालन करना चाहिये । हिंसा के स्थूल रूप से चार प्रकार बतलाये गये हैं ।
आरम्भी, उद्यमी, विरोधी और संकल्पी ऐसी चार तरह की हिंसा होती है। गृहस्थाश्रमी को सिर्फ संकल्पी हिंसा का त्याग बतलाया गया है । पंचसूता और कृषि वाणिज्यादि रूप आरंभ कार्यों में तो किसी व्यक्ति विशेष के प्राणघात का कोई संकल्प ही नहीं होता, विरोधी हिंसा अपने प्राण, धन, जनप्रतिष्ठा तथा शीलादि की रक्षा के लिये जो करनी पड़े यह भी गृहस्वामी को अनिवार्य है। उद्यमी हिंसा खेती, व्यापार कारखाना और कला कौशलादि धंधा करने में जो हिंसा संकल्प न रहते हुए होती है वह स्वेच्छा से न होने के कारण गृहस्थाश्रमी को अनिवार्य है ।
दक्षिण भारत का इतिहास देखने से पाया जाता है कि धार्मिक श्रावकों ने भी देशरक्षा व धर्म संरक्षण के लिये युद्ध किये थे । इसी तरह गुजरात और राजस्थान में भी जैनियों ने युद्ध किया था इसका इतिहास मिलता है। प्राणिमात्र के लिये दयाभाव रखना, अहिंसा पालन करना यह परम तत्व है । हमारा चरित्र ध्येय के अनुसार होना चाहिये और जो ध्येय हमारा होता है उसी के अनुसार हमारा परिव रहना चाहिये हमारे नैतिक जीवन का अध: पतन होने से जाति और समाज की प्रतिष्ठा कम होती है । अगर हमारे ध्येय में अनिश्चितता है हमारे नतिक ध्येय में निश्वितता नहीं है तो किसी जाति, समाज और राष्ट्र के लिये स्वाभिमान से जिन्दगी बिताने की कोई उम्मीद नहीं है । हमारे मन, वचन, काय के विचार, उच्चार और कृति में अहिंसा भाव होना चाहिये। अगर हमारी ध्येयनिष्ठा और नैतिक स्तर में तफावत हो तो जाति, समाज और राष्ट्र के अभ्युदय के लिये हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते । ध्येय में निष्ठा रखने वाले थोड़े ही लोग क्यों न हों वे आदरणीव हैं ।
जैन मुनि त्यानी महिमा और अपरिग्रही वृत्ति के होते हैं। समाज के लिये वे आधार स्तम्भ हैं। जैन मंदिर, जैन मुनि और शास्त्र ये जैन धर्म और अहिंसा तत्व में निष्ठा कायम रखने के लिये समाज में अत्यावश्यक हैं। जैन लोग जिनको ईश्वर मानते हैं। वे जिन भगवान वीरानी और निस्पृही होते हैं। ऐसे ईश्वर को क्या दे सकते हैं ? जैन धर्मावलंबी जो पूजन करते हैं उसका उद्देश्य सिद्ध अवस्था प्राप्त करना होता है । सिद्धावस्था ही जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है और सिद्ध परमात्मा ही ईश्वर है। सिद्धभगवान इस सृष्टि का निर्माण नहीं करते हैं और संसार से उनको कोई संबंध नहीं है।
वे न किसी पर मेहरबान होते हैं और न किसी को सजा देते हैं, सिद्धावस्था आत्मा की शुद्धावस्था है। सिद्ध परमात्मा अनंत दर्शन, अनन्तज्ञान, अंनत वीर्य, और अनंत सुख के धारक हैं। हर आत्मा में ये शक्तियाँ हैं, हम प्रार्थना, पूजन और भक्ति जो अरिहंत भगवान के सामने करते हैं हमारी इन सुप्त शक्तियों के विकास के
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लिये करते हैं और अरिहंत भगवान से हमारी कोई अपेक्षा नहीं है। जैन धर्म में जो निरूपण है उसके अनुसार हर जीव की जो क्रियायें या कृतियाँ होती हैं उसके कारण कर्म का आस्रव, बंध और निर्जरादि स्वयं चलित अनादि है। हर जीव अपने विचार, उच्चार (वचन) और कृतियों का जिम्मेदार है। हर जीव की क्रियायें शुभ या अशुभ हुआ करती है। कर्म अनादिनिधन है यही तो जैन धर्म का वैशिष्ट्य है, स्वयं की प्रेरणा से कुछ नियमानुसार जीव चलता है ऐसे जीव अल्पसंख्यक ही रहते हैं ।
जैनियों को अपने धर्म के अनुसार चलना चाहिये जिसके कारण वह आदरणीय मुख शुद्ध और आदर्श जीवन बिता सकता है-धर्म के अनुसार चलने से हमारी सद्-असद् विवेक बुद्धि जागृत रहती है। हम सद्गुणी बनते हैं। जिसके कारण मानसिक सन्तुष्टता और आध्यात्मिक समताभाव हमको प्राप्त होता है।
जैन धर्म ने तीन महान तत्वों का प्रतिपादन किया है-अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह वृत्ति ये ही तीन तत्व हैं। अहिंसा का अर्थ किसी जीव पर जुल्म या अन्याय नहीं करना है, अनेकांत तत्व के अनुसार सत्य अनेकविध प्रकार का है। दूसरों की क्या मतप्रणाली है इसको समझने के लिये धर्म सहिष्णुता की जरूरत है।
अहिंसा धर्माचरण यह सामाजिक ध्येय है और अनेकांत यह तत्व बौद्धिक क्षेत्र का ध्येय है ।
जैनधर्मी लोग जिस समय के घटक हैं उनको अपने परिग्रह का, अपने स्वामित्व का, स्थावर जंगम इस्टेट का, धन-धान्यादि के उपयोग का प्रमाण करना चाहिये । अपने अनावश्यक जरूरीयात के अनुसार ही स्थावर जंगम इस्टेट पर कब्जा करना चाहिये। कुछ दश प्रकार के परिग्रह, क्षेत्र, वास्तु, धनधान्य, द्विपद, चतुष्पद, शयनासन, पान, सर्व प्रकार के वस्त्र और सब प्रकार की धातु के बर्तन हैं- इन सब परिग्रहों का अपनी शक्ति, परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार प्रमाण करना यह परिमित परिग्रह कहलाता है । इस प्रमाण से जो परिग्रह ज्यादा है उसको चर्तुविधदान में खर्च करना हर जैनी का कर्तव्य है, स्वयं ही इस व्रत को स्वीकार करने से यह समाजवाद, सामाजिक समता को कायम रखता है ।
"जीओ और दूसरे जीवों को जीने दो" यह अहिंसा के पालन का तरीका है।
जब हम दूसरों के मत से सहमत नहीं रहते, ऐसी अवस्था में दुभिन्न मतवालों के विचारों को हमें सहानुभूति पूर्वक सुनना चाहिये । जैनियों की यह सर्वधर्म सहिष्णुता है।
जैन धर्म की विविध और विपुल उपाधियों को जाने समझे बिना भारतीय संस्कृति का ज्ञान परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता । जैन धर्म ने वर्ण, जाति, रूप, समाज विभाजन को कभी महत्व नहीं दिया । यह बात राष्ट्रीय दृष्टि से ध्यान देने योग्य है ।
आज की ईर्ष्या और संघर्ष की आग से दग्ध संसार को जीव मात्र के कल्याण और उत्कर्ष की भावनाओं से ओतप्रोत इस उपदेशामृत की बड़ी आवश्यकता है ।
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जैन साहित्य : श्वेताम्बर, दिगम्बर
डा. रमेशचन्द्र राय
भारतवर्ष के तीन प्राचीन धर्मों-वैदिक, जैन एवं बौद्ध में से किसके मूल्य को प्राचीनतम माना जाय, अभी तक विवादास्पद ही है। इसका मुख्य कारण यह है कि इनमें जो साहित्य उपलब्ध है उनमें प्राचीनता की ओर निर्देश करने वाली ऐसी कुछ परम्परायें सुरक्षित हैं जिनकी न तो पूर्ण उपेक्षा संभव है और न ही वैज्ञानिक तथ्य के रूप में ग्रहण करने का औचित्य । महाकाव्यों और पुराणों की परम्परा के अनुसार वैदिक साहित्य अपौरुषेय है अतः उसकी प्राचीनता का निश्चय करना निर्धान्त रूप में संभव नहीं हो सका । बौद्ध साहित्य के विषय में यही धारणा है कि गौतम बुद्ध से पूर्व छः बुद्ध हो चुके हैं अतः उनका साहित्य उतना ही पूराना नहीं जितना गौतम बुद्ध के जीवन को आधार बनाकर कहा जा सकता है, ठीक यही स्थिति जैन साहित्य की भी है। महावीर स्वामी एक तीर्थंकर हैं जिन्हें ऋषभ देव से आरंभ होने वाली २४ तीर्थंकरों की सूची में चीबीसवां स्थान प्राप्त है । इस परम्परा पर विश्वास करने से इस माने की विवशता उत्पन्न होती है कि जो कुछ जैन साहित्य में सुरक्षित है वह ऋषभदेव से प्रारंभ होने वाले जैन साहित्य की परम्परा से एकदम विच्छिन्न नहीं कहा जा सकता । यदि इस तथ्य में कुछ प्रतिशत भी वैज्ञानिक सत्य स्वीकार किया जायेगा तो यह मानना पड़ेगा कि महावीर स्वामी (जीवनकाल)५९९ ईसवी से ५३० ईसवी पूर्व से, बहुत पहले से ही किसी न किसी प्रकार का जैन साहित्य चला आ रहा था । मेकामूलर आदि कुछ विद्वानों ने वैदिक संहिताओं का काल भी यही माना है । इस तरह जैन साहित्य जो पूर्वी भारत से उद्भूत होता है संभवत: प्राचीनता की दृष्टि से उतना ही पुराना है जितना वैदक साहित्य जो उत्तरी-पश्चिमः भारत तथा गान्धार तक के प्रदेश में इस काल में रचा और गाया जा रहा था
इस प्राचीनता पर जो सबसे बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा हुवा है वह यह है कि जो जैन साहित्य इस समय उपलब्ध है वह भाषा, भाव
एवं विचार-तीनों दृष्टियों से उतना प्राचीन प्रतीत नहीं होता जितना परम्परा उसे सिद्ध करना चाहती है। जैन साहित्य के संग्रह के संबंध में जो परम्परायें सुरक्षित हैं वे इस तथ्य की पुष्टि में सहायक हैं। प्राचीनतम सुरक्षित साहित्य श्रुतांगों में विभाजित है-आयारंग, सूयगड, ढाणांग, समवायांग, विवाह पण्णत्ति, नामाधम्म-कहा, उवासगदशा, अंतगडदसा, अणुचरोववाइयदसा, पण्ह वागरण, विवाग सुयं । इनके अतिरिक्त दिट्ठिवाद श्रुतांग की चर्चा जैन साहित्य में सर्वत्र है।
दिगम्बर परम्परा के अनसार यह माना जाता है कि महावीर स्वामी के संपूर्ण उपदेश उनके शिष्यों द्वारा दो भागों में करके ग्रहण किये गये-एक अंग प्रविष्ट दुसरा अंगबाह्य । अंग प्रविष्ट साहित्य वही था जिसके संबंध में दिगम्बर सम्प्रदाय यह स्वीकार करता है कि अब उसका कुछ अवशिष्ट नहीं रह गया तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय यह स्वीकार करता है कि बीर निर्वाण के पश्चात् दसवीं शताब्दी से बारह अंगों के रूप में संग्रहित हो चुका है। इस विवाद को देखकर यह कहा जा सकता है कि वस्तुत: चीथी शताब्दी में जब यह साहित्य संग्रहित हआ तब जैन सिद्धान्तों में यह विश्वास घर कर गया था कि यह साहित्य परम्परागत होने पर भी अपने मूल रूप से विच्छिन्न हो गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय यह स्वीकार करता है कि बाह्य साहित्य पूर्णत: नष्ट हो गया है, यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय उसके अस्तित्व को स्वीकार करता है। इनके अन्तर्गत स्वीकृत ग्रन्थों की प्रामाणिकता के संबंध में जो मत आचार्य पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थ सिद्धि नामक टीका में दिया है वह दृष्टव्य है। भारतीय आचार्यों ने काल दोष से मंक्षिप्त आयु, मनि, और बलशाली शिष्यों के अनुग्रहार्थ दशवकालिकादि ग्रन्थों की रचना कः । इन रचना में उतनी ही प्रमाणता है जितनी पूर्व आधारों व श्रुत केवलियों द्वारा रचित सूत्रों में, क्योकि वे अर्थ की दृष्टि से सत्र ही हैं, जिस प्रकार क्षीरोदधि से घड़े में भरा हुआ अल
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क्षीरोदधि से भिन्न नहीं है । इस कथन से यहीं ज्ञात होता है कि यद्यपि रचनाएँ महावीर स्वामी की न होकर उनके परवर्ती जैनाचायों की कही जा सकती हैं किन्तु ये आचार्य विद्वत्ता में उस ऊँचाई पर ही दिखाई पड़ते हैं जिस ऊँचाई पर महावीर स्वामी के शिष्य रहे होगे । अतः शुद्ध रूप से महावीर स्वामी का वचन न होने पर भी जैन धर्म में इन्हें उतना ही आदर प्राप्त है जितना श्रुतांगों को ।
श्वेताम्बर परम्परा ही जिन के वचनों को सुरक्षित मानती है। अत इस साहित्य के संग्रह के संबंध में उनमें यह परम्परा स्वीकुत्ता है कि महावीर निर्माण से १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में स्थूल भद्र आचार्य ने जैन श्रमण संघ का सम्मेलन कराया और वहाँ ११ अंगों का संकलन किया गया। बारहवें अंग दृष्टिवाद का उपस्थित मुनियों में से किसी को भी ज्ञान नहीं रहा था । अतएव उनका संकलन नहीं किया जा सका। उसके पश्चात् शताब्दियों में यह श्रुत संकलन पुनः छिन्न-भिन्न हो गया तब वीर निर्वाण के लगभग आठ सौ चालीस वर्ष पश्चात् आर्य स्कन्दिल ने मथुरा में एक संघ सम्मेलन कराया जिसमें पुनः आगम साहित्यों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया गया। इसी समय लगभग बल्लभी में नागार्जुन सूरि ने भी एक मुनि सम्मेलन द्वारा आगम रक्षा का प्रयत्न किया किन्तु इन तीन पाटलिपुत्री, माधुरी और प्रथम बल्लवी वचनों के पाठ उपलब्ध नहीं केवल साहित्य में यत्र तत्र उनके उल्लेख मात्र पाये जाते हैं अन्त में महावीर निर्वाण के लगभग ९८० वर्ष पश्चात् बल्लभीपुर में देवर्षिगण क्षमा श्रमण द्वारा जो मुनिसम्मेलन किया गया, उसके कोई ४५-४६ ग्रन्थों का संकलन हुवा और ये ग्रन्थ आज तक सुप्रचलित हैं। 1
इस तथ्य को ध्यान में रखकर यही मानना वैज्ञानिक है कि जैन साहित्य आज हमें जिस रूप में उपलब्ध है वह वही है जिसमें महावीर स्वामी अथवा उनसे पहले से आने वाली भाव-विचार परम्परा का अल्पांश ही सुरक्षित रह सका है उसका बहुतांश ईसा की चौथी शताब्दी के आसपास तक जो परिवर्तन और परिवर्धन हो सका था, उससे निर्मित है। इस साहित्य को हम श्वेताम्बर कह सकते हैं क्योंकि इसी सम्प्रदाय के आचार्य इसे प्रामाणिक मानते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्य इसे उसी रूप में प्रामाणिक नहीं मानते जिस रूप में श्वेताम्बर । किन्तु उनका आधार भी यह ग्रन्थ है जिसके कारण उनके द्वारा भी उसी प्रकार का गौरव प्राप्त है जिस प्रकार श्वेताम्बरों द्वारा ।
यह पूरा साहित्य श्रमणों के आचार-व्यवहार से संबंध रखता है तथा उनमें से कुछ तर्कशास्त्र दर्शन एवं विभिन्न प्रकार की विधाओं पर प्रकाश डालते हैं । इन पुस्तकों में श्रमणों के चरित्र पर भी विशेष बल दिया गया है । चरित्र का प्रस्तुतिकरण कथात्मक शैली में ऐसी मूर्ति विधायिनी शब्दावली में हुवा है कि उसमें साहित्य रस अनायास भर गया है। यही कारण है कि जो पाठक इनका अध्ययन धर्म आदि की दृष्टि से करते हैं वे साहित्यिक रस को फोकट के माल की तरह सहज ही प्राप्त करते चलते हैं । परवर्ती साहित्य में प्रबन्ध काव्यों, खण्डकाव्यों, कथा साहित्य, मुक्तक एवं गीतों को स्थान मिला, उसके मूल को भी हम इन्हीं रचनाओं में पाते हैं।
१. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान
बी. नि. सं. २५०३
-डा० हीरालाल जैन, पृष्ठ ५५
इस साहित्य में त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों की धारणा पर्याप्त पुष्ट रूप में दिखाई पड़ती है, ये पुरुष हैं - २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ वासुदेव तथा ९ प्रतिवासुदेव । इनमें साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त कर सके हैं, वे हैं-ऋषभ, नेमि, पार्श्वनाथ महावीर, पद्म, राम, कृष्ण तथा रावण । इन श्रुतांगों के अतिरिक्त श्वेताम्बर सम्प्रदाय १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, १० प्रकीर्णक तथा २ पूर्णिका सूत्रों को भी आगम ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करता है। इस साहित्य पर भाष्य चूर्णियों और टीकाएं की गई हैं जिसमें इस साहित्य का पर्याप्त विस्तार हो गया है।
दिगम्बर सम्प्रदाय इन रचनाओं को प्रामाणिक नहीं मानता और यह स्वीकार करके चलता है कि महावीर स्वामी के गुणधरों और केवलियों को मिला हुवा साहित्य पूर्णतः नष्ट हो गया किन्तु फिर भी उस साहित्य का आंशिक ज्ञान मुनि परम्परा में सुरक्षित रह गया था । आचार्य धरसेन ऐसे प्रथम मुनि माने गये जिन्हें महावीर स्वामी से पूर्व से भी चले आने वाले पूर्वी के अंश का ज्ञान था जिसे उन्होंने अपने दो शिष्यों पुष्पदन्त और भूतबलि को प्रदान किया। इन दो मुनियों ने उसी ज्ञान के आधार पर षट्खण्डागम सूत्र की रचना की। यह रचना कन्नड़ लिपि में ताड़ पत्र पर सुरक्षित थी जिसे डा० हीरालाल जैन ने टीका और अनुवाद के साथ तेईस भागों में प्रकाशित कराया है । दिगम्बर सम्प्रदाय इसे ही सर्वाधिक प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ मानता है । विद्वानों के मतानुसार यह दूसरी ईसवी की रचना प्रतीत होती है । इसे चार अनुयोगों-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग में विभाजित किया गया है। साहित्यिक दृष्टि से प्रथमानुयोग बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पुराणों, परितों, कथाओं तथा आख्यानों का समावेश किया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में इन्हीं अनुयोंगों का भाष्य चूर्णि और टीका द्वारा बहुत विस्तार से किया गया है । पाहुड़ नामक ग्रन्थ इन्हीं पर आधारित है जिनमें अनुयोगों के प्रतिपाद्य का ही पल्लवन हुवा है।
रामसिंह मुनि द्वारा पाहुड़ दोहा लिखा गया था जिसमें २२२ दोहे थे । इसी से मिलती-जुलती जो इन्दु की दो रचनाएं परमार्थ प्रकाश और योगसार है। इन तीनों रचनाओं में साहित्य की उन प्रवृत्तियों का मूल दिखाई पड़ता है जो परवर्ती हिन्दी साहित्य में सन्तों की रचना में देखने को मिलता है । पाहुड़ दोहा में बाहरी कर्मकांड को व्यर्थ कहा गया है तथा आत्म संयम एवं आत्म दर्शन में ही सच्चा कल्याण माना गया है। योगियों के बाह्याडम्बर पर करारा प्रहार है तथा शरीर को ही कुटिया देवालय मानने का उपदेश देते हुए आत्मा को शिव और इन्द्रिय वृत्तियों को शक्ति रूप में देखने का उपदेश कई दोहों में दिखाई पड़ता है। डा० हीरालाल जैन ने इसकी प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए यह ठीक ही कहा है कि 'शैली में यह रचना ( पाहुड़ दोहा) एक ओर बौद्ध दोहा कोशों और चर्यापदों से समानता रखती है और कबीर जैसे संतों की वाणियों से दो दोहों (९९-१०० ) देह और आत्मा अथवा आत्मा और परमात्मा का प्रेयसी और प्रेमी के रूप में वर्णन किया गया है जो पीछे से सूफी सम्प्रदाय की काव्यधारा का स्मरण दिलाता है। वस्तुतः पाहुड़ २. भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का योगदान
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होराल जैन, पृष्ठ ११
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दोहा जैन साहित्य मुक्तक काव्य के उत्तम आदर्श को प्रस्तुत करते हैं। इनमें साहित्यिक ऊंचाई रस परिपाक के रूप में तो नहीं है किंतु व्यक्ति की अभिव्यक्ति जिस रूप में हुई है वह इतना प्रभावशाली है कि इन दोहों को उच्च कोटि का काव्य मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता।
जैन साहित्य में संस्कृत साहित्य की तरह ही एक समृद्ध स्रोत साहित्य भी मिलता है। २४ तीर्थंकरों की स्तुति जैन मुनियों के षट्कर्मों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करती है। इन स्तुतियों में एक रूपता है किन्तु इन्हें भक्तिभावपूर्ण मुक्तक रचनाओं के रूप में देखना उचित होगा तथा प्रभाव की दृष्टि से भी ये उसी स्तर की संस्कृत में दिखाई पड़ती है अथवा परवर्ती हिन्दी कवि तुलसीदास की रचनाओं में जैन साहित्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण जिस काव्य विधा का विकास हुवा वह चरित काव्य है जिसे प्रबन्ध अथवा महाकाव्य कहा जा सकता है । कदाचित् भारतीय साहित्य के प्राचीनतम महाकाव्यों में विमलसूरि का पद्मचरिउ (पद्मचरित ) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि रामकथा को आधार बनाकर जितने काव्य लिखे गये हैं उनमें प्राचीनतम वाल्मीकि रामायण, महाभारत का रामोपाख्यान कुछ बौद्ध जातक कथाएं और विमल सूरि का पद्म चरिउ ही है । इनमें महाकाव्य के स्तर पर वाल्मीकि रामायण और पद्म चरिउ ही दिखाई पड़ते हैं । पद्मचरिउ में प्राप्त रचना तिथि के अनुसार यह रचना तीन से सात ईस्वी की ठहरती है । वाल्मीकी रामायण के संबंध में ऐसा ठोस आधार नहीं जिससे हम उसकी तिथि का निर्भ्रान्त निश्चय कर सकें। अधिकांश विद्वान उसे दूसरी ईस्वी से लेकर चौधरी तक विकसित होने वाली रचना मानते हैं इस तथ्य को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि पद्मचरिउ वह प्राचीनतम रामकथा पर आधृत महाकाव्य है जो अपने मूल रूप में सुरक्षित है। इसकी भाषा को देखकर पाश्चात्य विद्वानों ने ऐसी शंका की है। कि यह रचना उतनी प्राचीन नहीं हो सकती जितनी उसमें दी हुई तिथि से प्रमाणित होती है इस आपत्ति के साथ उसमें प्रयुक्त शब्दों छन्दों आदि के आधार पर इसे चौथी शताब्दी की रचना मानने का सुझाव दिया गया है। किसी भी स्थिति में यह राम काव्य की ऐसी धारा की ओर संकेत करती है जो वाल्मीकि को प्राप्त धारा अथवा बौद्धों को प्राप्त धारा से भिन्न थी । इसकी कथा संयोजना एवं चरित्र विधान पूरा का पूरा ऐसा है जिसे किसी अन्य स्रोत से विकसित मानना ही उचित होगा । विमलसूरि ने यह कहा है कि मैं उसी कथा को कह रहा हूं जो उन्हें पूर्ववर्ती आचार्यों से प्राप्त थी। यह तथ्य भी इस बात की ओर संकेत करता है कि जैन रामायण संस्कृत रामायण की तुलना में उसके समकक्ष ही ठहरती है और यह मानना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता कि वाल्मीकि रामायण से ली गई है ।
रामकथा कहने की यह प्रवृत्ति जैन साहित्य में लगातार बनी रही। यह प्रवृत्ति दो भागों में बंडी दिखाई पड़ती है, एक के अनुसार इस कथा को स्वतंत्र महाकाव्य का आधार बनाया गया है।
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विमलसूरि का प्राकृत में पउम चरिउ एवं रविषेण का संस्कृत में पदमचरित तथा स्वयं का अप्रभ्रंश में पदम चरिउ इसी प्रवृत्ति के परिचायक हैं ।
दूसरी प्रवृत्ति यह रही है कि
पुरुषों में से
राम को एक पुरुष मानकर उनकी कथा पुराणों के अन्तर्गत रखी गई है। पुराणों में जो कथानक स्वीकार किया गया है वह इन महाकाव्यों के कथानक से कुछ भिन्न है। इस दृष्टि से पुष्पदन्त का उत्तर महापुराण दृष्टव्य है । संस्कृत में लिखी उत्तर पुराणों में भी महाकाव्यों से भिन्न कथा ही अपनाई गई है। यह विचारणीय विषय है कि इन दोनो प्रकार की कथाओं का मूल स्रोत एक ही अथवा भिन्न । वस्तुतः संस्कृत की रामायणों तथा जैन रामायणों और बौद्ध रामकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन इस दृष्टि से बहुत रोचक हो सकता है कि इनका मूल स्रोत क्या था और उसमें क्रमिक परिवर्तन तथा परिवर्धन किस तरह होता रहा ।
राम काव्य के अतिरिक्त कृष्ण काव्य को भी जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। हरिवंशपुराण के नाम से ये रचनायें संस्कृत और अपभ्रंश में मिली हैं। इस कथा का भी तुलनात्मक अध्ययन अन्य पुराणों के साथ करके रोचक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं- विशेषकर मूल स्रोत और क्रमिक विकास के संबंध में ।
किन्तु इन दोनों चरित काव्यों के अतिरिक्त अन्य त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों के चरित्र पुराणों में तथा स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में भी मिलते हैं। इन सभी प्रबन्धों में छन्द, भाषा, अलंकृति एवं भावाभिव्यक्ति साहित्य के उच्च स्तर पर ही हुई है। महापंडित राहुल ने स्वयं के पउमचरिउ की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते हुए यहाँ तक कहा है कि वह रचना काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से तुलसी के रामचरित मानस से कहीं आगे है। किसी विद्वान ने विमलसूरी की रचना के संबंध में इस तरह की बात नहीं कही है किन्तु प्राकृत में जो ग्राम्य नायिका जैसी छटा है वह अन्यत्र दुर्लभ है। अपनी कोमलता और माधुर्य के लिए यह रचना अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानती। हिन्दी में यह धारा आई तो नहीं हिन्दी के प्रबन्धों की रूप रचना का आदर्श यही रचना में रहा है इसमें सन्देह के लिए तनिक भी अवकाश नहीं है।
प्रबन्धों के अतिरिक्त गेय मुक्तकों एवं गीतों की परम्परा भी जैन साहित्य में अत्यन्त समृद्ध दिखाई पड़ती है। गेय मुक्तकों में वज्जालग उसी प्रकार की रचना है जिस प्रकार की गाथा सप्तशती । गीतों का विकास इसके परवर्ती अपभ्रंश में ही दिखाई पड़ता है जिससे यह ज्ञात होता है कि परवर्ती अपभ्रंश साहित्य में जैन मुनियों का ध्यान आकृष्ट होने लगा था । फागू काव्य अलंकार और रस की दृष्टि से वैभवपूर्ण एवं गीत कथा प्रबन्ध दोनों के तत्वों को समन्वित किये हुए है, हिन्दी में ये दोनों प्रवृत्तियां आई हुई प्रतीत होती हैं । बज्जालग प्रवृत्ति दोहो में सुरक्षित है जिसका चरम विकास बिहारी सतसई में दिखाई पड़ता है। गीत और प्रबन्ध को मिलाने की प्रवृत्ति कृष्ण भक्ति शाखा के अधिकांश कवियों में है तथा तुलसी की गीतावली इस प्रवृत्ति के आदर्श रूप में देखी जा सकती है। ( शेष पृष्ठ १११ पर)
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जैन साहित्य में लोककथा के तत्त्व
डॉ. बसन्तीलाल बम
लोक कथाओं का उत्स मानव की आदिम विश्वास भावना में निहित है। प्राकृतिक प्रकोपों से अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिये जिन आस्थाओं को उसने जन्म दिया, वे ही कालान्तर में हमारी आदिम लोक-कथाओं का आधार बन गई । संसार में विविध भाषा-भाषी क्षेत्रों के लोक-वार्ताविदों ने भी उक्त संदर्भ में अपनी जो धारणाएं व्यक्त की हैं उनमें विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता । इतिहास इस तथ्य को नाप जोखकर उद्घाटित करता है कि राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों का प्रभाव भी इन पर पड़ा और लोक कथाओं के जो रूप उपलब्ध होते हैं वे मूलतः आदिम मानस तत्व को अपने में आज भी समेटे हुए हैं । इस तथ्य को पुष्टि में इतना कहना युक्ति संगत है कि लोक कथाओं का लिखित रूप जबसे उपलब्ध होता है, उनके तथा वर्तमान में उपलब्ध लोक कथाओं के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात उजागर हो जाती है । __ जैन धर्म और दर्शन साहित्य में लोक-कथाओं के विशाल भण्डार भरे पड़े हैं । क्योंकि धर्म और दर्शन जैसे जटिल विषयों को अपढ़
और निरक्षर ग्रामीणों तक सरलतापूर्वक पहुंचाने का श्रेय हमारी उन असंख्य लोक कथाओं को है जिनके माध्यम को अपना कर सूत्रकारों, धर्माचार्यों ने इनकी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया है। यह परम्परा न केवल जैन धर्म में वरन् बौद्ध, वैष्णव और अन्यान्य धर्म सम्प्रदायों के साहित्य में भी बहुलता से मिलती है। प्राकृत भाषा में रचित महाकवि गुणाढ्य की "वड्ढकहा" इस प्रकार की कथाओं का प्रामाणिक ग्रन्थ है । सिंहासन बत्तीसी, वैताल पच्चीसी, कथासरित सागर, अट्ठकहा आदि ऐसे प्राचीन ग्रन्थ हैं जिनमें लोक-कथाओं के पुरातन स्वरूपों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । पशु-पक्षियों की कहानियां, धर्मकथा, हितोपदेश, पंचतन्त्र आदि ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें उपदेशात्मक प्रवृत्ति मूल में विद्यमान हैं।
जैन साहित्य में ऐसी कथाओं का बाहुल्य है । जिनका मूल उद्देश्य मानव मन में भद्धा, विश्वास और आस्था की भावाना पैदा कर, लोगों को धर्म के नैतिक मूल्यों की शिक्षा देना था । साथ ही अपने धर्म के प्रति आष्ट भी करना था। धर्म की निगूढ़तम पहेलियों को सुलझाने तथा मानव मन को गहराई से आकर्षित करने में इनसे श्रेष्ठ और अन्य कोई माध्यम नहीं हो सकता था । कथाओं का और उनमें वर्णित घटना चक्रों का मानवीय मन पर तीव्र प्रभाव पड़ता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कथाओं के विविध चरित्र और उनके जीवन दर्शन तथा घटनाओं का तीखा क्रम मानव मन में बरबस विश्वास और आस्था के सुदृढ़ शिखर स्थापित करना है, जो साधारण कथाचक्रों के सम्मुख नत नहीं हो पाता ।
जैन कथा ग्रन्थों में तीर्थंकरों के जीवनवृत्त, उनके राजसी ठाठबाट, वैभव सम्पन्नता, मनोविकारों पर कड़ा नियंत्रण, घर-परिवार, राजपाट, सुख वैभव का त्याग, बियावान जंगलों में कठिन तपस्याएं विपदाओं से संघर्ष और उन्हें हंसते-हंसते स्वीकार करने की उनमें अटूट क्षमता, यातनाएं और उद्देश्य की ओर निरन्तर बढ़ने का अजेय साहस लक्ष्य प्राप्ति, केवल ज्ञान और निर्वाण ये सब ऐसे प्रसंग हैं, जो तीर्थंकरों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधु-समाज के साथ-साथ, श्रमणों, धनिकों और सम्पन्न पात्रों के जीवन में सामान्य रूप से उपलब्ध होते हैं । इन कथा चक्रों में केवल पुरुष वर्ग ही नहीं वरन् ऐसी महिलाएं भी हैं जो दया, करुणा, त्याग, तपस्या और उत्सर्ग की प्रतिमूर्ति तो हैं ही साथ में अपना जीवन भी होमकर अहिंसा धर्म के पालन से जीवन को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त कर लेती है। जन्म-जन्मान्तरों के फंदे को काटकर टूक-ट्रक कर देती हैं। सामान्यतः इसी प्रकार के धटना चक्रों से युक्त कथानक जैन साहित्य की मूल्यवान धरोहर है।
प्राचीन आचार्यों ने कथाओं के वर्गीकरण और उनके आधारों
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बनती । इनके प्रमुख पात्र चाहे राजा हों या रंक, परन्तु वे उच्च चरित्र वाले, दयावान और आत्मकल्याणी होते हैं। सुख सम्पन्नता या दीनहीन स्थिति से वैराग्य की ओर प्रवृत्त होना तथा जन्मजन्मान्तरों के भवफन्द से छूट जाने की लालसा ही उन्हें जीवित रखती है । वे घोर तपस्या और साधना करते हैं । विपदाओं को हंसते-हंसते झेल लेते हैं । और संघर्ष से मुख न मोड़ते हुए निश्चित लक्ष्य की ओर वे बढ़ते जाते हैं । इनका अन्त दु:खपूर्ण नहीं होता और ये व्याधाओं से नहीं घबराते हैं । लोक कथाओं के ये ही तत्व जैनकथा साहित्य को जीवन्त बनाये हुए हैं । इसलिये यह व्यक्त करना अत्युक्तिपूर्ण नहीं होगा कि जैन कथा साहित्य का मूलाधार लोककथाओं के वे प्रमुख तत्व हैं जिन पर जैन कथाओं की आधार भूमि बनी है।
की विस्तृत व्याख्या की है। प्रारंभ में कथा दो भागों में 'कथा" और 'आख्यायिका' के रूप में विभाजित की गई। कथा का आधार काल्पनिक है तो आख्यायिका ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित होती है। जहां बाण की "कादम्बरी' और दण्डी का "दशकुमारचरित्र" कथा की श्रेणी में आते हैं वहीं बाण का 'हर्ष चरित' ऐतिहासिक इतिवृत्त है इसीलिए आख्यायिका माना गया है । आनन्दवर्धनाचार्य ने कथा के तीन भाग-परिकथा, सकल-कथा और खण्डकथा किये हैं। परिकथा एक ऐसा इत्तिवृत्त है जिसमें रस परिपाक के अत्यल्प अवसर होते हैं । अभिनयगुप्त इनमें वर्णन वैचित्र्य स्वीकारते हैं । सकल कथा में बीज से फल प्राप्ति तक की संपूर्ण कथा होती है । हेमचन्द्र ने इसे "चरित" नाम से उचारा है । समरादित्य कथा ऐसी ही "चरित" कथा है । खण्ड कथा एक देश विशेष से सम्बद्ध रहती है । आचार्य हरिभद्राचार्य ने अपने वर्गीकरण में इन्हें चार भागों में विभक्त किया । अर्थ कथा, काम कथा, धर्म कथा और संकीर्ण कथा । इसके पश्चात् और भी आचार्यों ने इनके भेद प्रभेद प्रस्तुत कर वर्गीकरण को व्यापक दिशा प्रदान की । मध्ययुगीन जैन साहित्य के अध्ययन एवं अनुशीलन से हमें इनके वर्गीकरण का विशाल क्षेत्र अवगत होगा। ___ जैन कथा साहित्य के आद्योपान्त अध्ययन से यह स्पष्ट है कि कथा रूपों में जितनी विविधता जैन साहित्य में उपलब्ध होती है उतनी अन्यत्र नहीं होगी । कतिपय उल्लेखनीय कथा रूप इस प्रकार हैं, जो आज भी अपनी पुरातन परम्परा को शाश्वत बनाये हुए हैं: रास, रासक. रासा, ढाल, चरित, फागु, बारहमासा आदि । इनके अतिरिक्त मध्ययुगीन जैन साहित्य में गाथा, आख्यान, आख्यायिका, उपाख्यान जैसे कई रूप विद्यमान थे । जो अब लोक प्रचलित नहीं रहे। इनमें वर्तमान उपलब्ध कथारूपों में लोककथाओं की आधार भूमि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । लोककथाओं की यह चारित्रिक विशेषता रही है। उनका नायक जीवन के अंतिम क्षणों तक घोर संघर्षरत रहता है । वह क्षणभर के लिये भी निराश नहीं होता, विजय ही उसकी चरम परिणति है, पराजय नहीं । लोककथाओं का अन्त कभी भी दुखान्त नहीं होता । सुखान्त ही उनका चरम बिन्दु है । और ऐसा सुख, जिसकी मनोकामना धारण कर संपूर्ण कथाचक्र में वह संघर्ष करता रहता है। लोककथाओं के घटनाचक्रों में सजीवता, भाव-प्रवणता और पुरुषत्वपूर्ण जीवन जीने की अदम्य उत्साह भावना भरी हुई है। लोक कथाओं की उल्लेखित सभी बातें जैन कथा साहित्य में भी यथावत् उपलब्ध होती हैं । अन्तर केवल इतना ही होता है कि इन कथाओं का उद्देश्य धार्मिक भावना का प्रचार-प्रसार करना और मावन जीवन के नैतिक मूल्यों की उच्चता एवं प्राथमिकता प्रतिपादित कर अपने स्वयं के कल्याण की ओर अग्रसर होना है। इनके पात्र और चरित नायक कभी हताश और निराश नहीं हुए। जीवन की ऊहापोह से घबरा कर पलायन करने की प्रवृत्ति या आत्महत्या का संकल्प धारण करने की मन:स्थिति इनकी नहीं
___ अधिकांश जैन कथाएं पद्यबद्ध हैं। गेयत्व प्रधान हैं । एक कथा में कई धुनों का प्रयोग मिलता है । कुछ कथाएं दोहा और चौपाई छन्दों में ही रची गई हैं । कथाओं का गद्यरूप अत्यल्प है। पद्यबद्ध कथा परम्परा प्राचीन है । प्राकृत भाषा में लिखी गई गुणाढ्य की "बड्डकहा", वृहत्कथामंजरी, कथासरित्सागर, वृहद्कथा, श्लोक संग्रह और गाथा सप्तशती, आदि सभी ऐसे प्राचीन कथाग्रन्थ हैं जिनकी रचना पद्य रूप में ही उपलब्ध होती है । जैन कथा साहित्य के अनुशीलन से यह तथ्य अपने आप उभर कर सामने आता है कि इन कथाओं को लिपिबद्ध करने के पूर्व भी इनकी अक्षुण्ण परम्परा लोक जीवन में व्याप्त थी । जाति-पांति, भेदभाव, छुआछूत और ऊंचनीच की विषमताओं से लिप्त विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों की लोकप्रियता दिनोदिन जाति
और समुदाय विशेष में सीमित होती जा रही थी तब जैन धर्म ने इन संकुचित विचारों की खाइयों को पाटकर समस्त मानव जाति के कल्याण हेतु अपने द्वार खोल दिये और वीतराग का वरदहस्त जैन और जैनेतर समाज के लिये समान रूप से छाया करने को अग्रसर हो उठा । जैन तीर्थंकरों और तथागत बुद्ध और उनके शिष्यों का यही उद्देश्य भी था कि समग्र मानव समाज उनके धार्मिक विचारों को निर्द्वन्द्व होकर ग्रहण कर सकता है और आचारों को निस्संकोच जीवन में उतार कर अपना और मानव जाति का कल्याण कर सकता है । इसी का परिणाम था कि जैन धर्म जाति विशेष तक सीमित न रहकर अन्य जातियों में भी फैला और उसका साहित्य भी समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में व्यात हो गया । ऐसी अनेकों कथा-गाथाएं आज भी उपलब्ध होती हैं, जो लोक जीवन की कण्ठानुकण्ठ परम्परा में सदियों से विद्यमान है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी जीवनयात्रा की नौका खेती हुई चली आ रही हैं । देश की विभिन्न भौगोलिक स्थितियों, भाषा-भाषी क्षेत्रों, जाति वर्ग और समुदायों में इनका प्रवेश जब-जब हुआ, तब इन्होंने अपने आपको इस प्रकार बदल दिया और क्षेत्र विशेष में इस प्रकार घुलमिल गई कि कालान्तर में वे उनकी अपनी धरोहर मानी जाने लगी। प्रस्तुत तथ्य के निरूपण में हम दृढतापूर्वक यह कह सकते
(शेष पृष्ठ १११ पर)
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राजेन्द्र ज्योति
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जैन गणित की अप्रतिम धाराएं
प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन
जन साहित्य में दो प्रकार की धाराओं में गणित का विकास देखने में आया है। एक तो शुद्ध गणित धारा जिसे राशि सिद्धान्त कहा जा सकता है और दूसरी प्रयुक्त गणित धारा जिसे सिस्टम (System) सिद्धान्त कहा जा सकता है । आधुनिक राशि सिद्धान्त के जन्मदाता जॉर्ज केण्टर (१८४५-१९१८) थे जिन्हें अनन्तों को बांधने वाले राशि-सिद्धान्त को प्रतिष्टित करने में संपूर्ण जीवन भर मेधावी गणितज्ञों से संघर्ष में झुलसते रहना पड़ा । किन्तु आज का विकसित राशि-सिद्धान्त प्रत्येक विज्ञान और कला एवं वाणिज्य में मूलभूत आधार बन गया है। जैन दर्शन में भी अनन्तों को बांधा गया राशि-सिद्धान्त के द्वारा-उपमा और संख्या प्रमाणों द्वारा । त्रिलोक प्रज्ञप्ति और त्रिलोक सार जैसे ग्रंथों में यह प्रयास उपलब्ध है। यह राशि-सिद्धान्त आधार बन गया कर्म सिद्धान्त का-जिसे आशीर्ष समझने के लिए अर्थ संदृष्टि ग्रंथों का सहारा अनिवार्य है। कर्म सिद्धान्त का गणित, प्रयुक्त गणित है जो आधुनिक सिस्टम सिद्धान्त का प्रारूप है और जिसे विगत ३० वर्षों में विकसित किया गया है। वह है मुख्यतः नियन्त्रण, लब्धि और स्वचालित यंत्रों का गणित, जिसका आधार है राशि-सिद्धान्त का प्रयुक्त विकसित रूप ।
इस प्रकार, जैन दर्शन की मूलभूत और रहस्यमय गहनता को समझने के लिए करणानुयोग में दो प्रयास प्रतिलक्षित होते हैं । एक तो उपमा और संख्या प्रमाणों की उत्पत्ति और उनका प्रयोग । दूसरा कर्म के दृष्ट और अदृष्ट रूपों के माप और उनका विविध ढंग से प्रयोग । द्रव्य के प्रमाणों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के मापों द्वारा बांधा गया और चित्रित किया गया त्रिलोक के नक्शे में । यहाँ बीजगणित और रेखागणित, अनन्तों के रूपों और सान्तों के रूपों द्वारा अदृष्ट और दृष्ट के गणितीय प्रकार को उभार लाये । यहां तक कार्य इतना कठिन नहीं था किन्तु आगे चलकर इन्हें डायनेमिक्स (Dynamics) अर्थात्, कर्म (Action) के चल रूप को भी राशि-सिद्धान्त में बांधना पड़ा।
किसी भी सिस्टम का डायनेमिक्स-सिद्धान्त निर्धारित करना गणित से संभव है। वह भी राशि-सिद्धान्त के प्रयोग से अभूतपूर्व निर्धारण लाता है । जैन कर्म-सिस्टम को राशि-सिद्धान्त से बांधा गया और यह ही विश्व की आधुनिकतम अभी भी अविकसित अभतपूर्व कला और अप्रतिम विज्ञान माना जा रहा है। राशिसिद्धान्त द्वारा ही गणितीय सिस्टम सिद्धान्त को आज बांधा गया है । इसे एब्सट्रेक्ट एप्रोच (Abstract Approach) कहा जाता है । इस प्रयास में विश्व के आधुनिकतम गणितों का प्रयोग होता है।
इसकी एक दो रहस्यमय बातें बतलाकर ही इस निबंध को समाप्त करना पड़ेगा, क्योंकि गणितगम्य को भाषा गम्य बनाना संभव प्राय नहीं है । वे रहस्य क्या हैं ? योग और मोह के गणित । योग और मोह सम्बन्धी नियन्त्रण, स्वचालन के गणित ।
कर्म के आने, बंधने, उदय होने, निर्जरित होने के गति विज्ञान को बांधा गया आठ मूल प्रकृतियों के आधार पर, उनकी स्थिति, उनके संबंधित प्रदेशों, उनके अनुभाग के गणितीय पहलुओं पर, जैन दर्शन ने कठिनतम् प्रश्नों के उत्तर दिये गणितीय आधार पर, अमर्त पहुंच के आधार पर और चलायमान प्रकृतियों में बंधे परमाणु और आत्मा के आधारभूत विभावों पर।
इन अध्रुव दृष्टों, दृश्यमानों में उलझने का लक्ष्य सुलझना था। ध्रुव, सत्य का प्रकाशन था । उत्पाद और व्यय के लेखे में सभी विज्ञान अनादि से उलझे रहे किन्तु ध्रौव्य का लेखा न कर सके। जैन दर्शन के गणित विज्ञान को यह एक थेय मिला, और वह भी अप्रतिम श्रेय (कि ध्रौव्य का लेखा-गणितीय प्रारूप क्या है ?) ।
ध्रौव्य को पकड़ प्रज्ञा द्वारा सहज है । गणितीय प्रज्ञा द्वारा और भी सहज है। नितान्त सहज है। किन्तु ..........।
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मालवा का जैन वाङ्मय
डॉ. तेजसिंह गौड़
जैन साहित्य भारतीय साहित्य में विशिष्ठ स्थान रखता है और साहित्य के विविध अंगों को जैन विद्वानों ने अमूल्य देन दी है। यद्यपि जैन साहित्य नैतिक और धार्मिक दृष्टि से लिखा गया है फिर भी उसे साम्प्रदायिक नहीं कहा जा सकता । नैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से साहित्य सृजन का कारण यह है कि जैन विद्वान सामान्य जनता के नैतिक जीवन का स्तर ऊँचा उठाना चाहते थे । इसके अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अपना साहित्य जनता की अपनी भाषा में लिखा जिस तथ्य को समझकर ही महावीर और बुद्ध ने इस दिशा में उपक्रम किये थे। पाली में उनके प्रवचन, संस्कृत में लिखे जाने वाले ब्राह्मण दर्शनों से कहीं अधिक हृदयस्पर्शी होते थे कारण जनता तक उनके पहुंचने में भाषण का व्यवधान आड़े नहीं आता था। जैन साहित्य का भाषा विज्ञान के दृष्टिकोण से महत्व
जैन विद्वानों ने भारतीय साहित्य के विकास के प्रत्येक चरण को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। स्वयं महावीर स्वामी ने अपने उपदेश तत्कालीन सामान्य जनता की भाषा प्राकृत में दिये और इस भावना को महावीर स्वामी के शिष्यों ने निरन्तर रखा। जब प्राकृत भाषा ने लगभग सातवीं शताब्दी में साहित्यिक स्वरूप ग्रहण कर लिया तब जैन विद्वानों ने अपने साहित्य सृजन का माध्यम बदल दिया और तब से अपभ्रंश में अपना साहित्य लिखने लगे। भारतवर्ष की अनेक प्रान्तीय भाषाएं जैसे मालवी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि अपभ्रंश के मूल से उत्पन्न हुई है। पुरानी हिन्दी में जैन विद्वानों के द्वारा लिखा गया साहित्य आज भी शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित है, जो हिन्दी आदि की उत्पत्ति और उनके क्रमिक विकास के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालता है । हिन्दी से अतिरिक्त भी भारतवर्ष की अन्य भाषाओं में भी जैन विद्वानों ने साहित्य सजन किया। साथ ही साहित्यिक भाषा संस्कृत में भी इन विद्वानों ने पर्याप्त साहित्य रचना की ।
जैनाचार्यों की विशेषता रही है कि वे जन्म कहीं लेते हैं तथा उनकी कर्मभूमि कहीं और होती है । उनके साहित्य में उनके जीवन तथा रचनाओं के संबंध में ऐसी कोई विस्तृत जानकारी नहीं होती। ऐसी स्थिति में यह पता लगाना बड़ा कठिन हो जाता है कि कौन से आचार्य ने कौन सा ग्रन्थ कब और कहां लिखा? फिर भी हम मालवा में बारह्वीं शताब्दी तक सृजित जैन साहित्य पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे । जैन साहित्य मालवा में लिखा गया उसको निम्नांकित भागों में विभक्त किया जा सकता है --
१. आगमिक और दार्शनिक साहित्य २. कथा साहित्य ३. काव्य ४. स्तोत्र साहित्य ५. अलंकार और व्याकरण साहित्य
६. अन्य साहित्य १. आगमिक और दार्शनिक साहित्य __ जैन साहित्य में आगमिक और दार्शनिक साहित्य का विशेष महत्व है। इसमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, छः छेदसूत्र, चार मूल सूत्र, दस प्रकीर्णक और दो अन्य सूत्र अनुयोग द्वार सूत्र और नंदी सूत्र हैं । इस शाखा को भद्रबाहु की बारह नियुक्तियों, विशेषावश्यक भाष्य, बीस अन्य प्रकीर्णकों, पयुषणकल्प, जीत कल्प सूत्र, श्राद्धजाती कल्प, पाक्षी सूत्र, वन्दितुसूत्र, क्षमणसूत्र, यतिजीतकल्प और ऋषिभाषित ने और समृद्ध कर दिया तथा इस प्रकार सूत्र संख्या चौराशी तक पहुँच गई है इस शाखा का अध्ययन प्रत्येक युग में बराबर होता रहा है तथा इस पर टीकाएं, उपटीकाएं भी अलगअलग भाषा में समय-समय पर लिखी जाती रही हैं। न केवल आगम साहित्य में वरन दर्शन साहित्य में भी उत्तरोत्तर समृद्धि हुई तथा जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया।
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राजेन्न-ज्योति
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मालवा में आगमिक और दार्शनिक साहित्य की सर्वाधिक उल्लेखनीय उपलब्धि है । आचार्य भद्रबाहु के कल्पसूत्र के अतिरिक्त क्षपणक ने जो किंवदन्तियों के अनुसार विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माने जाते हैं दर्शन शुद्धि, सम्मति तर्कसूत्र, प्रमेय रत्नकोष एवं न्यायावतार ग्रंथों की रचना की । न्यायावतार ग्रन्थ अपूर्व है। यह अत्यन्त लघु ग्रन्थ है किन्तु इसे देखकर गागर में सागर भरने की कहावत याद आ जाती है । बत्तीस श्लोकों में क्षपणक ने सारा जैन न्यायशास्त्र इसमें भर दिया है। न्यायावतार पर चन्द्रप्रभसूरि ने न्यायावतार निवृत्ति नामक विशद टीका भी लिखी है। आगम साहित्य को व्यवस्थित एवं सरल करने का श्रेय आर्यरक्षित सूरि को है। आपका जन्म मन्दसौर में हुआ था। आपने आचार्य तोसलीपुत्र से जैन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया फिर गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्त सूरि तथा आर्य वज्रस्वामी के समीप रहकर विद्याध्ययन किया। आचार्य आर्यरक्षित सूरि ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की सार्वजनिक हित की दृष्टि से उत्तम एवं महान कार्य यह किया कि यह जानकर वर्तमान में साथ ही भविष्य में भी जैनागमों की गहनता एवं दुरूहवृत्ति से असाधारण मेधावी भी एक बार उन्हें समझने में कठिनाई का अनुभव करेगा, आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया । यथा
१. चरणा-करणानुयोग २. गणितानुयोग ३. धर्मकथानुयोग ४. द्रव्यानुयोग
इसके साथ ही आचार्य आर्यरक्षित सूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र की भी रचना की जो जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्वपूर्ण आगम माना जाता है। यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम दार्शनिक दृष्टि का परिचायक है। सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित "सम्मति प्रकरण" प्राकृत में है। जैन दृष्टि और मन्तव्यों को तर्क शैली में स्पष्ट तथा स्थापित करने में यह जैन वाङमय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है जिसक। आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर विद्वानों ने लिया । सिद्धसेन दिवाकर ने तत्वार्थाधिगमसूत्र की टीका भी बड़ी विद्वत्ता से लिखी है। इस ग्रन्थ के लेखक को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले उमास्वामिन् और श्वेताम्बर सम्प्रदायवाले उमास्वाति बतलाते हैं । देवसेन कृत दर्शनसार का विक्रम संवत ९९० में धारा के पार्श्वनाथ मंदिर में रचे जाने का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त 'आलाप पद्धति इनकी न्यायविषयक रचना है। एक लघुनयचक्र जिसमें ८७ नगमादि नौ नयों को उनकी गाथाओं द्वारा द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दो तथा उनके भेदोपभेद के उदाहरणों सहित समझाया है। दूसरी रचना वृहन्नयचक्र है। जिसमें ४२३ गाथाएं हैं और उसमें नयों और निक्षेपों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है। रचना के अंत की ६-७ गाथाओं में लेखक ने एक महत्वपूर्ण बात बतलाई है कि आदितः उन्होंने दव्यसहाव पयास (द्रव्य स्वभाव प्रकाश) नाम के इस ग्रन्थ की रचना दोहा-बंध में की थी किन्तु उनके एक शुभकर नाम के मित्र ने उसे सुन कर हंसते हए कहा कि यह विषय इस छंद से शोभा नहीं देता, इसे गाथाबद्ध कीजिये । अतएव उसे उनके माहल्लधवल
नामक शिष्य ने गाथा रूप में परिवर्तित कर डाला। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप समझने के लिये देवसेन की ये रचनाएं बहुत उपयोगी हैं।' अमित गति कृत 'सुभाषित-रत्न संदोह" में बत्तीस परिच्छेद हैं जिनमें से प्रत्येक में साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है । इसमें जैन नीति-शास्त्र के विभिन्न दृष्टिकोणों पर आपाततः विचार किया गया है, साथ-साथ ब्राह्मणों के विचारों और आचार के प्रति इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है । प्रचलित रीति के ढंग पर स्त्रियों पर खूब आक्षेप किये गये हैं। एक पूरा परिच्छेद वेश्याओं के संबंध में है। जैन धर्म के आप्तों का वर्णन २८ वें परिच्छेद में किया गया है और ब्राह्मण धर्म के विषय में कहा गया है कि वे उक्त आप्तजनों की समानता नहीं कर सकते क्योंकि वे स्त्रियों के पीछे कामातुर रहते हैं, मद्य सेवन करते हैं और इन्द्रियासक्त होते हैं। अमितगति कृत श्रावकाचार लगभग १५०० संस्कृत पद्यों में पूर्ण हुआ है और वह १५ अध्याय में विभाजित है, जिनमें धर्म का स्वरूप मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का भेद, सप्ततत्व, पूजा व उपवास एवं बारह भावनाओं का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है। अंतिम अध्याय में ध्यान का वर्णन ११४ पद्यों में किया गया है जिसमें ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यानफल का निरूपण है। अमितगति ने अपने अनेक ग्रन्थों में उनके रचनाकाल का उल्लेख किया है। जिनमें विक्रम संवत् १०५० से १०७३ तक के उल्लेख मिलते हैं। अतएव उक्त ग्रन्थ का रचनाकाल लगभग १००० ई. सिद्ध होता है।' उनके द्वारा रचित योगसार में ९ अध्यायों में नैतिक व आध्यात्मिक उपदेश दिये गये हैं। अमितगति ने संस्कृत श्लोकबद्ध पंच संग्रह की रचना की जो उसकी प्रशस्ति के अनुसार वि. सं. १०७३ में मसूरिकापुर (वर्तमान मसुदविलोदा जो धारा के पास है) नामक स्थान में समाप्त हुई। इसमें पांचों अधिकारों के नाम पूर्वोक्त ही हैं तथा दृष्टिवाद और कर्मप्रवाद के उल्लेख ठीक पुर्वोक्त प्रकार से ही आये हैं । यदि हम इसका आधार प्राकृत पंच संग्रह को न मानें तो यहां शतक और सप्तति नामक अधिकारों की कोई सार्थकता ही सिद्ध नहीं होती, क्योंकि इनमें श्लोक संख्या उससे बहुत अधिक है किन्तु जब संस्कृत रूपान्तरकार ने अधिकारों के नाम वे ही रखे हैं, तब उन्होंने भी मूल और भाष्य पर आधारित श्लोकों को अलगअलग रखा हो तो आश्चर्य नहीं ।1 अमितगति की अन्य रचनाओं में भावना-अगिशतिका आराधना, सामायिक पाठ और उपासकाचार का उल्लेख किया जा सकता है।12 माणिक्य नन्दी जो दर्शनशास्त्र में तलदृष्टा विद्वान थे और त्रेतोक्यनन्दी के शिष्य थे धारा के निवासी थे । इनकी एक मात्र कृति परीक्षामुख नामक एक न्यायसूत्र ग्रन्थ है जिसमें कुल २७७ सूत्र हैं। ये सूत्र सरल, सरस और गंभीर अर्थद्योतक हैं । माणिक्यनंदी ने आचार्य अकलंकदेव के वचन समुद्र का दोहन करके जो न्यायामृत निकाला वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का द्योतक है। इनके शिष्य प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख की टीका लिखी है जो "प्रमेयकमल मार्तण्ड" के नाम से प्रसिद्ध है। प्रमेयकमल मार्तण्ड राजा भोज के राज्यकाल में रचा गया है ।"" प्रभाचन्द्र के अन्य ग्रन्थों में 'न्यायकुमुदचन्द्र" जैन न्याय का एक बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है । प्रभाचन्द्र कृत "आत्मानुशासन तिलक"
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रत्नकरण्ड टीका पंचास्तिकाय प्रदीप, प्रवचन सरोज भास्कर, समाधितंत्र, क्रियाकलाप टीका आदि ग्रन्थों का भी पता चलता है। 16 महापंडित आशाधर अपनी विद्वत्ता के लिये प्रसिद्ध हैं। इनकी प्रतिभा काव्य, न्याय, व्याकरण, शब्दकोश, अलंकार, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र, स्तोत्र और वैद्यक आदि सभी विषयों में असाधारण थी । पं. आशाधर कृत सागारधर्मामृत में सप्तव्यसनों के अतिचार का वर्णन श्रावकधर्म की दिनचर्या औरसाधक की समाधि व्यवस्था पर प्रकाश डालता है ।" यह ग्रन्थ लगभग ५०० संस्कृत पद्यों में पूर्ण हुवा है और आठ अध्यायों द्वारा श्रावकधर्म का सामान्य वर्णन, अष्ट मूलगुण तथा ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है । व्रत प्रतिमा के भीतर बारह व्रतों के अतिरिक्त श्रावकधर्म की दिनचर्या भी बतलाई गई है। अंतिम अध्याय के ११० श्लोकों में समाधिमरण का विस्तार से वर्णन हुवा है। रचनाशैली काव्यात्मक है । ग्रन्थ पर कर्त्ता की सर्वोपम टीका उपलब्ध है जिससे उसकी समाप्ति का समय विक्रम संवत् १२९६ या ई. सन् १२९६ उल्लिखित है। 18 इनकी दूसरी रचना "प्रमेयरत्नाकर" स्याद्वाद विद्या की प्रतिष्ठापना करती है । 10 आशाधर कृत “अध्यात्म रहस्य हाल ही प्रकाश में आया है। इसमें ७२ संस्कृत श्लोकों द्वारा आत्मशुद्धि और आत्मदर्शन एवं अनुभूति का योग भी भूमिका पर प्ररूपण किया गया है। आशाधर ने अपनी अनागारधर्मामृत की टीका की प्रशस्ति में इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ की एक प्राचीनप्रति अंतिम पुष्पिका में इसे धर्मात का योगोपन" नामक अठारवां अध्याय कहा है। इससे प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ का दूसरा नाम योगोद्दीपन भी है और इसे कर्त्ता ने अपने धर्मामृत के अंतिम उपसंहारात्मक अठारवें अध्याय के रूप में लिखा था । स्वयं कर्त्ता के शब्दों में उन्होंने अपने पिता के आदेश से आरब्ध योगियों के लिये इस प्रसन्न, गंभीर और प्रियशास्त्र की रचना की भी इनकी अन्य रचनाओं में धर्मामृतमूल ज्ञानदीपिका, भव्यकुमुदचन्द्रिका यह धर्मामृत पर लिखी टीका है। इसका नाम क्षोदक्षमा था परन्तु विद्वानों ने इसकी सरसता और सरलता से मुग्ध होकर कुन्द्रिका' रखा। मूलाराधना शिवार्य की आराधना पर टीका । आराधनासार टीका नित्यमहोद्योत रत्नमय विधान आदि है। धारा के निवासी लाड़बागड संघ और बलात्काएण के आचार्य श्रीचन्द्र ने शिवकोटि की "भगवती आराधना" पर "टिप्पण" लिखा है यह टिप्पण श्रीचन्द्र ने राजा भोज के राजत्वकाल में बनाकर समाप्त किया है । 22
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२. कथासाहित्य
कथात्मक साहित्य के अन्तर्गत हम कथाकोश, पौराणिक ग्रन्थ, चरितग्रन्थ एवं ऐतिहासिक प्रकार के ग्रन्थों को सम्मिलित करते हैं । इस श्रेणी में सर्वप्रथम हम पुन्नार संघ के आचार्य जिनसेन के इतिहासप्रधान चरित काव्य " हरिवंश" का उल्लेख करेंगे। इस ग्रन्थ की रचना जिनसेनाचार्य ने शक संवत् ७०५ में वर्धमानपुर वर्तमान बदनावर जिला धार के पार्श्वलय (पार्श्वनाथ के मंदिर में ) की "अन्न राजवसति" में की और उसका जो शेष भाग रहा उसे
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वहीं के शांतिनाथ मंदिर में बैठकर पूरा किया। दिगम्बरी सम्प्रदाय
कथासंग्रहों में इसका तीसरा स्थान है। हरिषेणकृत कथाको की रचना विनायक पाल राजा के राज्यकाल में बदनावर में की गई । विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा था जिसकी राजधानी कन्नोज थी । कथाकोश की रचना वि. सं. ९८९ में हुई । यह कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का वृहद् ग्रन्थ है 12 यह संस्कृत पद्यों में रचा गया है और उपलब्ध समस्त कथाकोशों में प्राचीनतम सिद्ध होता है। इसमें १५७ कथाएं हैं जिनमें चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु बररुचि, स्वामिकार्तिकेय आदि ऐतिहासिक पुरुषों के चरित्र भी हैं। इस कथाकोश के अनुसार भद्रबाहु उज्जयिनी के समीप भाद्रपद में ही रहे थे और उनके दीक्षित शिष्य राजा चन्द्रगुप्त अमरनाथ विशाखाचार्य संघ सहित दक्षिण के पुनाट देश को गये थे । कथाओं में कुछ नाम व शब्द जैसे भेदज्ज ( मेतार्य) विज्जदाढ़ (विद्युद) प्राकृत रूप में प्रयुक्त हुए है जिससे अनुमान होता है कि रचयिता कथाओं को किसी प्राकृत कृति के अधार पर लिख रहा है। उन्होंने स्वयं अपने कथाकोश को आराधना कहा है, • जिससे अनुमानतः भगवती आराधना का अनुमान होता है । 25 आचार्य महासेन ने प्रद्युम्नचरित की रचना ११ वीं शताब्दी के मध्य भाग में की 1 28 अमितगति कृत धर्मपरीक्षा की शैली का मूल स्रोत यद्यपि हरिभद्रकृत प्राकृतान है तथापि यहां अनेक छोटे बड़े कथानक सर्वथा स्वतंत्र व मौलिक हैं । ग्रन्थ का मूल उद्देश्य अन्य धर्मों की पौराणिक कथाओं की असत्यता को उनसे अधिक कृत्रिम, असंभव व ऊटपटांग आख्यान कहकर सिद्ध करके सच्चा धार्मिक श्रद्धान उत्पन्न करना है। इनमें धूर्तता और मूर्खता की कथाओं का बाहुल्य है । 27 प्राकृत कोशों में सर्वप्राचीन रचना धनपालकृत "पाइयलच्छीनाममाला" है जो उसकी प्रशस्ति के अनुसार कर्त्ता ने अपनी भगिनी सुन्दरी के लिये धारा नगरी में विक्रम संवत् १०२९ में लिखी थी, जबकि मालवनरेन्द्र द्वारा मान्यखेट लूटा गया था। यह घटना अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होती है। धारा नरेश हर्षदेव ने एक शिलालेख में उल्लेख किया है कि उसने राष्ट्रकूट राजा खोलिंगदेव को लक्ष्मों का अपहरण किया था । इस कोश के अमरकोश की रीति से प्राकृत पद्यों में लगभग १००० प्राकृत शब्दों के पर्यायवाची शब्द कोई २५० गाथाओं में दिये हैं । प्रारंभ में कमलासनादि १८ नाम पर्याय एवं एक गाथा में, फिर लोकाग्र आदि १६७ तक नाम आधी-आधी गाथा में, तत्पश्चात् ५९७ तक एक-एक चरण में और शेष छिन्न अर्थात एक गाथा में कहीं चार, कहीं पांच और कहीं छह नाम दिये गये हैं । ग्रन्थ के ये चार परिच्छेद कहे जा सकते हैं। अधिकांश नाम और उनके पर्याय तद्भव हैं। सच्चे देशी शब्द अधिक से अधिक पंचमांश होंगे 128 संस्कृत गद्यात्मक आख्यानों में धनपालकृत तिलकमंजरी (ई. ९७० ) की भाषाशैली बड़ी ओजस्विनी है। मुनि श्रीचन्द्र ने महाकवि पुष्पदंत के उत्तरपुराण का टिप्पण लिखा है जिसे उन्होंने सागरसेन नाम के सैद्धान्तिक विद्वान से महापुराण के विषय में पदों का विवरण जानकर और मूल टिप्पण का अवलोकन कर वि. सं. १०८० राजाभोज के राज्यकाल में लिखा । 30 इसके अतिरिक्त इन्होंने
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रविषेणकृत पदमचरित पर टिप्पण वि. स. १०८७ में एवं पुराण सार वि. सं. १०८० में लिखा 131 प्रभाषचन्द्र ने आराधना गद्य कथा कोश की रचना की। इसमें चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त समन्तभद्र और अकलंक के चरित्र भी वर्णित हैं । 33 अपभ्रंश भाषा के एक कवि "वीर" की बरांगचरित "शांतिनाथ परित", "सद्धववीर" अम्बादेवीस और जम्बूसामिचरिउ का पता चलता है किन्तु इनकी प्रथम चार रचनाओं में से एक भी आज उपलब्ध नहीं है । पांचवी कृति "जम्सामिचरिउ" ग्रन्थ की अंतिम प्रशस्ति के अनुसार वि. सं. १०७६ में माह माघ की शुक्ल दसमीं को लिखी गई | 34 कवि ने ११ संधियों में जम्बूस्वामी का चरित्र चित्रण किया है । वीर के जम्बूसामिचरिउ में ११ वी सदी के मालवा का लोक जीवन सुरक्षित है । वीर के साहित्य का महत्व " मालवा " की भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक और लोक संस्कृति की दृष्टि से तो है ही, परन्तु सर्वाधिक महत्व "मालवी भाषा" की दृष्टि से है । मालवी शब्दावली का विकास "वीर" की भाषा में खोजा जा सकता है । ॐ नयनंदीकृत "संकल विधि विधान कहा" वि. सं. ११०० में लिखा गया । यद्यपि यह खंड काव्य के रूप में है किन्तु विशाल काव्य में रखा जा सकता है। इसकी प्रशस्ति में इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की गई है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने के प्रेरक हरिसिंह मुनि का उल्लेख करते हुए अपने पूर्ववर्ती जैन, जैनेतर और कुछ समसामयिक विद्वानों का भी उल्लेख किया है । कवि दामोदर ने राजा देवपाल के राज्य में नागदेव के अनुरोध पर नेमिजिन चरित्र बनाया था। पं. आशाधर ने अमरकोश की टीका भी लिखी है । और परमार राजा देवपाल के राज्यकाल में पं. आशाधर ने सं. १२९२ में त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की रचना की 140 जिसमें ६३ शलाका पुरुषों का चरित्र अपेक्षाकृत संक्षेप में वर्णन किया गया है जिसमें प्रधानतः जिनसेन व गुणभद्रकृत महापुराण का अनुसरण पाया जाता है।
३. काव्य
मालवा के जैन विद्वानों में अनेक बड़े कवि हो चुके हैं। कुछ काव्यग्रन्थों का, जो चरित्र एवं ऐतिहासिक श्रेणी में आते हैं, उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। कुछ ग्रन्थ जिनका उल्लेख महाकाव्यों या लघुकाव्यों की श्रेणी में आता है वह इस प्रकार है :
नयनंदी कृत "सुदर्शनचरित्र" अपभ्रंश का खण्ड काव्य है जिसकी रचना वि. सं. ११०० में हुई 142 यह ग्रन्थ महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है। पं. आशाधर कृत अनेक काव्य ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । इनकी रचना "भारतेश्वराभ्युदय" में भरत के ऐश्वर्य का वर्णन है । इसे सिद्धचक भी कहते हैं। क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के अंत में सिद्ध पद आया है। राजमती विप्रलम्भ खण्ड काव्य है । जिस पर लेखक की स्वयं की "स्वोपत्रकल्प " जिसका कि दूसरा नाम प्रतिष्ठासारोद्वार" था धर्मामृत का एक अंग है वह भी पं. आशाधर की ही रचना है ।" इसके अतिरिक्त और कोई काव्य ग्रन्थों की जानकारी हमें नहीं मिलती, जो महाकाव्य मिले हैं वे हमारी समय सीमा के पर्याप्त बाद के हैं जिनका उल्लेख करना उचित नहीं प्रतीत होता ।
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४. स्तोत्र साहित्य
स्तोत्रों में सबसे प्राचीन स्तोत्र सिद्धसेन दिवाकर के हैं। सिद्धसेन दिवाकर के दो स्तोत्र ( १ ) कल्याण मंदिर स्तोत्र तथा (२) वर्द्धमान द्वात्रिंशिका स्तोत्र उपलब्ध है। इनका कल्याण मंदिर स्तोत्र ४४ श्लोकों में है । यह पार्श्वनाथ भगवान का स्तोत्र है। इसकी कविता में प्रासाद गुण कम है और कृत्रिमता एवं श्लेष की भरमार है । परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है। किंवदन्ती है कि कल्याण मंदिर स्तोत्र का पाठ समाप्त होते ही उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में शिवलिंग फट गया और उसके मध्य में पार्श्वनाथ की मूर्ति निकल आई। इसके अंतिम भिन्न छंद के एक पद्य में इसके कर्त्ता का नाम कुमुदचन्द्र सूचित किया गया है जिसे कुछ लोग सिद्धसेन का ही दूसरा मानते हैं दूसरे पद्य के अनुसार यह २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया है । भक्तामर के सदृश्य होते हुए भी यह अपनी काव्य कल्पनाओं व शब्द योजना में मौलिक ही है-हे जिनेन्द्र ! आप उन भक्तों को संसार से कैसे पार कर लेते हैं जो अपने हृदय में आपका नाम धारण करते हैं ? हां, जाना, जो एक मशक भी जल में तैरकर निकल जाती है वह उसके भीतर भरे हुए पवन का ही तो प्रभाव है। हे जिनेश, आपके ध्यान से भव्यपुरुष क्षणमात्र में देह को छोड़कर परमात्मदशा को प्राप्त हो जाते हैं, क्यों न हों, तीव्र अग्नि के प्रभाव से नाना धातुएं अपने पाषाण भाव को छोड़कर शुद्ध सुवर्णत्व को प्राप्त कर लेती हैं। 48 सिद्धसेन दिवाकर कृत "वर्द्धमान द्वात्रिंशिका " दूसरा स्तोत्र है । यह ३२ श्लोकों में भगवान महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है। सगुण अधिक है। भगवान महावीर को शिव, वड, हृषिकेश, विष्णु एवं जगन्नाथ मानकर प्रार्थना की गई है। इन दोनों स्तोत्रों में सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला ऊंची श्रेणी की है।
मानतु गाचार्य कृत “भक्तामर स्तोत्र" को प्रारंभ करने की शैली पुष्पदंत के शिवमहिम्न स्तोत्र से प्रायः मिलती है। प्रतिहार्य एवं वैभव वर्णन में भक्तामर पर पात्र केसरी स्तोत्र का भी प्रभाव परिलक्षित होता है । 14 इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समावृत है । कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही है, जिससे इसके प्रत्येक अंतिम चरण को लेकर समस्या पूर्त्यात्मक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे हैं । भक्तामर बहुत ही लोकप्रिय और सुप्रचलित एवं प्रायः प्रत्येक जैन के जिह्वाग्र पर है। दिगम्बर परम्परानुसार इसमें ४८ तथा श्वेताम्बर में ४४ पद्य हैं। स्तोत्र की रचना सिंहोन्नता वसन्ततिलका छन्द में हुई है । इसमें स्वयंकर्ता के अनुसार प्रथम जिनेन्द्र अर्थात् ऋषभनाथ की स्तुति की गई है । तथापि समस्त रचना ऐसी है कि वह किसी भी तीर्थंकर के लिये सार्थक हो सकती है। प्रत्येक पद्य में बड़े सुन्दर उपमा, रूपक आदि अलंकारों का समावेश है- "हे भगवन्! आप अद्भुत जगत प्रकाशी दीपक हैं, जिसमें न तेल है न बाती और न धूम्र जहाँ पर्वतों को हिला देने वाले या शोक भी पहुंच नहीं सकते तथापि जिससे जगत भर में प्रकाश फैलता है। हे मुनीन्द्र, आपकी महिमा सूर्य से भी बढ़कर है, क्योंकि आप न कभी अस्त होते हैं, न रागम्य हैं न आपका महान प्रभाव मेघों में निरुद्ध होता है।
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आप एक साथ समस्त लोकों का स्वरूप सुस्पष्ट करते हैं। भगवन् आप ही बुद्ध हैं क्योंकि आपके बुद्धि व बोध की विबुधजन अर्चना करते हैं। आप ही शंकर हैं क्योंकि आप भुवनत्रय का शुभ अर्थात् कल्याण करते हैं। और आप ही विधाता ब्रह्मा हैं क्योंकि आपने शिव मार्ग (मोक्षमार्ग) की विधि का विधान किया है इत्यादि ।40 इसका सम्पादन व जर्मन भाषा में अनुवाद डॉ. याकोबी ने किया है। इस स्तोत्र के आधार से बड़े विशाल साहित्य का निर्माण हुवा है। इस पर कोई २०-२५ तो टीकाएं लिखी गई हैं एवं भक्तामर स्तोत्र कथा व चरित्र, छाया स्तवन, पंचाग विधि, पादपूर्ति स्तवन, पूजा, मंत्र माहात्म्य, व्रतोद्यापन आदि भी २०-२५ से कम नहीं हैं। प्राकृत में भी मानतुंगकृत भयहरस्तोत्र पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में रचा गया है ।50 प्रभाचन्द्र ने वृहत स्वयंभू स्तोत्र टीका लिखी है 11 पं. आशाधरकृत सिद्धगणस्तोत्र स्वोपज्ञ टीका सहित तथा भूपाल चतुर्विंशति टीका भी इनके ही द्वारा लिखी बताई जाती है। ५. अलंकार और व्याकरण साहित्य
मालवा के जैन विद्वानों ने अलंकार एवं व्याकरण जैसे विषयों पर भी साहित्य सृजन किया है। प्रभाचन्द्र का शब्दाम्भोजभास्कर एक व्याकरण ग्रन्थ है। पं. आशाधर ने क्रियाकलाप के नाम से व्याकरण ग्रन्थ की रचना की तथा अलंकार से संबंधित काव्यालंकार टीका लिखी ।55 ६. अन्य साहित्य
आचार्य अमितगति की कुछ रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं जिनके निम्न नाम हैं :
१. जम्बूद्वीप २. चन्द्रप्रज्ञप्ति-ये दोनों ग्रन्थ सम्भवतः भूगोल विषयक हैं। ३. सार्धद्वय द्वीप प्रज्ञप्ति तथा ४. व्याख्या प्रज्ञप्ति हैं। पं. आशाधर ने आयर्वेद से संबंधित ग्रन्थों की भी रचना की थी। इन्होंने वाग्भट्ट के आयुर्वेद ग्रन्थ अष्टांगहृदयी की टीका "अष्टांगहृदयोद्योतिनी" के नाम से लिखी।
इस प्रकार मालवा में जैन विद्वानों के विविध विषयक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं तथा अभी भी नये-नये जैन विद्वानों के ग्रन्थ प्रकाश में आते जा रहे हैं। यदि समूचे भारतवर्ष के जैन शास्त्र भण्डारों तथा व्यक्तिगत संग्रहालयों में खोज की जाये तो और अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाश में आने की संभावना है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त विवरण से एक बात स्पष्ट रूप से विदित हो जाती है कि जितना भी साहित्य जैन धर्म में उपलब्ध है उस समस्त साहित्य का सृजन जैनाचार्यों के द्वारा हवा है क्योंकि वणिक जाति व्यापार प्रधान जाति है इस कारण इस जाति के व्यक्तियों का तो साहित्य सृजन की ओर ध्यान नहीं के बराबर जाता है और यही कारण है कि जैनाचार्यों के द्वारा रचा गया साहित्य हमारे सामने है। उसकी भी विशेषता यह है कि यह साहित्य भी साम्प्रदायिक ग्रंथ तक ही सीमित नहीं रह गया है वरन् साहित्य के विभिन्न अंगों पर इन आचार्यों ने अपने ग्रन्थों की अधिकारपूर्वक रचना कर साहित्य के भण्डार में अभिवृद्धि की है।
संदर्भ ग्रंथों की सूची १. उज्जयिनी दर्शन पृष्ठ ९३ २. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ पृष्ठ ४५९ ३. वही पृष्ठ ४५९ ४. स्व. बाबू श्री बहादुरसिंहजी सिन्धी स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ १२ ५. संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी पृष्ठ ११६ ६. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५४४ ७. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृष्ठ ८७ ८. संस्कृत साहित्य का इतिहास भाग २ कोथ, पृष्ठ २८६-८७ ९. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृष्ठ ११३-१४ १०. वही पृष्ठ १२१ ११. वही पृष्ठ ८१ १२. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृष्ठ ३४५ १३. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५४६ १४. वद्दी पृष्ठ ५४८ १५. भारतीत संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृष्ठ ८९ १६. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृष्ठ ३५५ १७ वही पृष्ठ ३४६ १८. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृष्ठ ११४ १९. वीरवाणी वर्ष १८ अंक १३ पृष्ठ २१ २०. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृष्ठ १२२ २१. वीरवाणी पृष्ठ २२ २२. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५४६ २३. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास देसाई पृष्ठ १७७-७८
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृष्ठ ३३२ २४. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृष्ठ ३५१ २५. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृष्ठ ११७ २६. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५४५-४६ २७. भार. सं. में जैन का योगदान पृष्ट १७७ २८. वही पृष्ठ १९५-९६ २९. वही पृष्ठ १७४ ३०. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५४६ ३१. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृष्ठ ३५५ ३२. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५४५ ३३. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ १७८ ३४. दैनिक नई दुनिया दिनांक ९-७-७२ ३५. वही दिनांक ९-७-७२ ३६. भार, सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ १६४ ३७. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५४७-४८ ३८. वही पृष्ठ ५५१ ३९. वीरवाणी वर्ष १८ अंक १३ पृष्ठ २२ ४०. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास पृष्ठ ३९६
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४१. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ १६८ ४२. वही पृष्ठ १६३ ४३. वीरवाणी वर्ष १८ अंक १३ पृष्ठ २१-२२ ४४. वही पृष्ठ २२ ४५. संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी पृष्ठ ११८ ४६ , भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ १२५-२६ ४७. संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी ४८. अनेकांत वर्ष १८ किरण ६ पृष्ठ २४५ ४९. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ १२५
५०. वही पृष्ठ १२५ ५१. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ ५४८ ५२. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ १२७ ५३. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ ५५१ ५४. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ १८५ ५५. वीरवाणी वर्ष १८ अंक १३ पृष्ठ १८५ ५६. वीरवाणी वर्ष १८ अंक १३ पृष्ठ २२ ५७. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृष्ठ ३४५ ५८. वीरवाणी पृष्ठ २२
(जैन साहित्य : श्वेताम्बर, दिगम्बर,....पृष्ठ १०२ का शेष) जैन साहित्य में गद्य एवं चम्पू साहित्य का भण्डार भी बहुत भरा परकता अथवा व्यक्तित्व की सरसता का संचार हुवा जिससे ये रचपूरा है। ऐसे ग्रन्थों में प्राचीनतम वासुदेव हिन्दी है जो स्वलम्बकों नाएं शुद्ध कलात्मक साहित्य की ओर उन्मुक्त हो गई । दिगम्बर एवं में पूर्ण हुई है। इसे दो लेखकों ने पूर्ण किया है। पहले खण्ड में २९ श्वेताम्बर सम्प्रदायों का प्रभाव शुद्ध धार्मिक साहित्य में बहुत लम्बक हैं जो लगभग ११ हजार श्लोक प्रमाण का है तथा इसके कर्ता स्पष्ट है तथा इनकी मान्यताओं को ध्यान में रखकर निर्धान्त रूप संघदास गणिवाचक हैं। दूसरे खण्ड में ७१ लम्बक हैं और १७ हजार से यह कह सकते हैं कि यह साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय का है तथा श्लोक प्रमाण का है, इसके कर्ता धर्मसेन गगि हैं । इस परम्परा में उससे इतर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का । कला और सौन्दर्य जैन साहित्य समरादित्य कथा, कुवलयमाला रेण चडराय, चरिथम कालकाचारि में यह विभाजन उतना स्पष्ट नहीं रह गया है क्योंकि इनका उपयोग की कथा जिनदत्ताख्यान रेणासोहरिकहा, जम्बूसामीचरित्र, आदि जैन मुनियों तक सीमित नहीं रह गया था अपितु यह गृहस्थ जीवन साहित्यिका दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं। इन स्वतंत्र लम्बी से जुड़ गया था। गृहस्थों में सम्प्रदायों की रूढ़ियों के पालन की कथाओं के अतिरिक्त कथाकोष बनाने की प्रवृत्ति का विकास भी जैन प्रवृत्तिनहीं दिखाई पड़ती वे तो सामान्य धर्म को ग्रहण कर संतुष्ट होते साहित्य में हो गया था । कथा रत्नकोष-विजयचन्द्र केवली, हैं यही कारण है कि जैन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में साम्प्रविवेकमंजरी, उपदेशकन्दली, कथा महोदधि, अभिमान देशना तथा दायिक भेद को उजागर न कर उसे प्रचछन्न ही रहने दिया है जिसका दश श्रावकचरित महत्वपूर्ण रचनाएं हैं।
प्रभाव यह पड़ा है कि ये रचनाएं केवल सम्प्रदाय की सीमा को ही उपर्युक्त सर्वेक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन
नहीं तोड़ सकी अपितु देशकार की सीमा को तोड़कर सार्वभौम एवं साहित्य में विरक्त मुनियों के आश्रमों में पलता रहा अतः उसमें
सार्वकालिक भी बन गई हैं । इस साहित्य से हिन्दी साहित्य ने साहित्यिक तत्वों का समावेश अत्यल्प ही हो सका । धीरे-धीरे
प्रेरणा प्राप्त की हैं वह कोई भी साहित्य उससे प्रेरणा ले सकता है त्रिषष्टिशलाका पुरुषों की धारणा के दृढ़ होने के साथ चरितकाव्य जो नैतिक मर्यादाओं की रक्षा करते हुए मानव के चितरंजन में जैसी प्रवृत्तियों का समावेश इस साहित्य में हुआ जिसके परिणाम प्रवृत्त हो । वस्तुतः जैन साहित्य एक ऐसी निधि है जो जोवन्त स्वरूप शुद्ध रूप से धार्मिक समझे जाने वाले साहित्य में भी व्यक्ति है जिसे आधुनिक युग में प्रेरणा का स्रोत बनाया जा सकता है। 0
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(जैन साहित्य में लोककथा के तत्व....पृष्ठ १०४ का शेष) हैं कि भारतीय लोक कथाओं के वैज्ञानिक अध्ययन में जिन कथानक आंकी गई है, वहीं जैन कथाओं का उद्देश्य निश्चित ही धर्म प्रचार रूढ़ियो की उपलब्धि हुई है, उनमें से अधिकतम कथानक रूढियां ही रहा है। परन्तु जैन कथाओं की निर्मिति में लोक कथाओं की जैन कथा साहित्य में थी जो अपने मूल रूप से उपलब्ध होती है।
आधार भूमि मूल रूप से कार्य करती रही है और यही कारण है कई स्थलों पर घटनाचक्र में भी समानता है और कई प्रसंगों का
कि उनमें लोक तत्वों का समावेश प्रचुर मात्रा में हुआ है। उनका चित्रण भी यथावत् हुआ है । इन कथानक रूढियों से ही हम मूल
ढांचा और उनके अंग-प्रत्यंगों की संरचना में भी भारतीय लोक कथाओं के देश, काल और परिस्थितियों का भी अध्ययन कर सकते हैं ।
कथाओं की अभूतपूर्व देन रही है। इसी का परिणाम है कि जैन
साहित्य में उपलब्ध कथा गाथाएं जैन और जनेतर समाज में आज समग्र तथ्यों और आधारों की पृष्ठभूमि में हम इस निष्कर्ष भी अपना अस्तित्व प्रस्थापित किये हए हैं । पर पहुंचते हैं कि लोककथाओं की महत्ता जहाँ लोकरंजन हेतु
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चतुर्विंशति पट्ट या चौबीसी
(राज्य संग्रहालय लखनऊ के संग्रह पर आधारित)
शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी
चतविशीत पट्ट अपरनाम चौबीसी का अपना हीम हत्व है। बौद्ध एवं वैदिक मान्यताओं की तरह चौबीस अर्हन्त जैन जगत में भी सुनिश्चित हैं। जैन मान्यता के अनुसार अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कालचक्र की घूमती गतियाँ हैं तथा प्रत्येक गति में यथा पहले, वर्तमान एवं भविष्य में तीर्थंकर चौबीस चौबीस रहे हैं और होंगें । इन चौबीस तीर्य करों को सनातनी ईश्वर ने उच्चपद प्रदान किया है। कोई भी अपना उत्थान कर बिना किसी की दया, कृपा के उस पद को प्राप्त कर सकता है। ऐसी जैन धर्म की मान्यता है ।
जन प्रतिमाओं का अध्ययन करते समय यह सुस्पष्ट हो उठता है कि शिलापट्टों पर तीर्थकर प्रतिमाएं सबसे पहले बननी प्रारंभ हुई, भले ही इनका उल्लेख खारवेल के लेख में दूसरी शती ई. पू. या सिन्धु संस्कृति या लोहानीपुरादि से यत्र-तत्र उपलब्ध किंचिद अभिलेखीय एवं पुरातात्विक प्रमाणों से होता है। किन्तु शिलापट्टों पर क्षत्रप (सोडास) के संवत् ७२ के समय से तो इन प्रतिमाओं की अविच्छिन्न परम्परा दृष्टिपथ में आ ही जाती है। और इसी के साथ ही जैन प्रतिमा के विद्यार्थी का शोधपथ सरल एवं सुगम हो जाता है।
यूं तो कुषाण काल के आरंभ से ही तीर्थंकरों की स्वतन्त्र एक, चौमुखी या आयागपट्टादि पर प्रतिमाएं पाते ही हैं । ये लेख सहित या लेख रहित दोनों ही हैं । किन्तु शिलापट्टों के बीच में इनका विलेखन पाते हैं। इस प्रकार से ऐसा प्रतीत होता है १. सोमपुरा शिल्प संहिता प. १७२ २. जे-१ आर्यावती
अ आयागपट्ट जे. २५३-पार्श्वनाथ तथा दो सेवक (लेखयुक्त) ब , जे. २५०-तीर्थकर मध्य तथा मुनि (बेल पर) , जे २५२-तीर्थकर (मध्य) लेखयुक्त ।
राज्य संग्रहालय लखनऊ
कि चौबीस तीर्थंकरों को पृथक-पृथक बनाने के स्थान पर एक ही शिलापट्ट पर तीन, पाँच या चौबीस तीर्थंकरों का कलाकारों को बनाना अभीष्ट हो गया । ठीक इसी भाव को साहित्य के मध्ययुग में "चतुर्विशति जिनस्तवन (१० वीं शती), चतुर्विशति जिनस्तुति धर्मघोषकृत तथा जिनप्रभसूरि कृत चतुर्विशति जिनस्तुति (१४ वीं शती) रचा गया।
इस प्रकार जैन संस्कृति के मूर्धन्य विद्वान विद्यावारिधि श्रद्धेय डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने इन पंक्तियों के लेखक को बतलाने की कृपा की कि आयागपट्टों पर जिस प्रकार तीर्थंकरों को बनाया जाता था उसी प्रकार परवर्तीकमल में चौबीसीपट्ट बनने लगे। यह अभिमत समीचीन होने के कारण ग्राह्य प्रतीत होता है । अस्तु चतुर्विशति पट्ट या चौबीसी अस्तित्व में आयी । राज्य संग्रहालय लखनऊ में प्रस्तरीय छह पूर्ण और दो खंडित चौबीसी हैं। ये मथुरा, महोबा, श्रावस्ती के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के ग्वालियर स्थित दुब कुंड नामक स्थानों से आयी हैं। इनमें से खंडितों के एवं दो के प्राप्ति स्थल अज्ञात हैं। ये चित्तीदार लाल पत्थर, विन्ध्य बलुए पत्थर, श्वेत संगमरमर, मूंग सदृश्य हरे, सुरमई एवं मटीले घिसुआ प्रस्तरों से गढ़ी गई हैं ।।
दो चौबीसी के खंडित भाग (एस ८४२ व एस ७२०) हैं, जिन पर क्रमशः ८ व ६ ध्यानस्थ जिन ही शेष हैं। इनमें से प्रथम का मूलनायक पूर्णतया अप्राप्य है। दूसरी संख्या अंश किसी किसी चौवीसी का पार्श्वभाग है । मथुरा से उपलब्ध चतुर्विशतिपट्ट जे-५७ है, यह फरवरी १८९० को वहाँ के सुप्रसिद्ध कंकाली टीले से निकली थी। संग्रहालय पंजी के अनुसार इसे ९ वीं शती की माना गया है। किन्तु इस पर उत्कीणित अक्षरों की बनावट एवं मूलनापा तथा अन्य जिनों की मुखाकृति के आधार पर उत्तर गुप्तकालीन कलाकृति लगती है। इस पर छत्र एवं कैवल्य वृक्ष
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का सुन्दर विलेखन है जो मध्यकाल में अति प्रिय बना । प्रभामंडल सादा है किनारे पर दो रेखाओं के मध्य बिन्दुपंक्तियों के द्वारा केवल सजा है । सभी तीर्थंकर पद्मासीन ध्यानलीन हैं। मूलनायक को छोड़कर सभी के मख घिसे हैं। इसका आकार १०५४५० से. मी. है। चरणापिभिलेख के कुछ अक्षर "रि क स प्रतिमा कारित" । इस प्रकार यह संग्रह की सर्व प्राचीन चौबीसी है।
तदुपरान्त श्रावस्ती बहराइच से प्राप्त चौबीसी (६६-५९) है, जिसका आकार ५८४८३ से. मी. तथा मूंग के रंग के पत्थर से बनी है। इस पर २३ लघु जिनध्यानस्थ हैं, बायीं तरफ जगह छोड़ दी गई है। मूलनायक को जोड़कर चौबीस तीर्थकर हैं। त्रिछत्र पर देवदुन्दुभिवादक तथा नीचे पद्मपत्रों से अलंकृत प्रभामंडल है। इसी के पास पद्माधार पर प्रत्येक ओर एक एक हाथी है, बायीं ओर के हाथी पर आगे सवार तथा पीछे शेर का मुख तथा सामने के दो पंजे हैं । क्यों ? मैं नहीं कह सकता । दूसरी ओर दम्पति सवार है । नीचे त्रिभंग मुद्रा में वस्त्राभूषण से समलंकृत चंवरधारी भगवान ऋषभदेव पर चंवर ढुला रहे हैं । मोती व फूलों से कढ़ी हुई गद्दी आसन पर बिछी है । नीचे सिंहासन के दोनों ओर सिंह बैठे हैं, बीच में धर्म-चक्र के समीप ही इनका लाक्षन बैल विराजमान है । सिंहासन के बायीं तरफ नमस्कार मुद्रा में यक्ष या गृहस्थ तथा दूसरी ओर गादी पर चतुर्भुजी अर्द्धपर्यकासन में चक्रेश्वरी बैठी है, जिनके ऊपर दो हाथों में चक्र तथा नीचे शंख एवं अस्पष्ट वस्तु है । दीक्षावृत्तभी कुछ तीर्थंकरों पर बना
कृति सिद्ध होती है। इसका आकार १ मी. ३४४० से. मी. है तथा सुरमई रंग के पत्थर से बनी है । १५ तीर्थकर तो स्पष्ट हैं, शेष का आभास है तथा कुछ अंश क्षतिग्रस्त हैं । प्रभामंडल अलंकृत है, कैवल्य वृक्ष है, कंधे पर लटें हैं, मूलनायक के हाथ और पैर टूटे हैं । पीठिका पर बायीं तरफ तीन सर्पफणों की छत्र-छाया में चतुर्भुजी पदमावती, जिसके दो हाथ बाकी दो पूर्णतया लुप्त हैं । दायीं तरफ चतुर्भ जी नरवाहना चक्रेश्वरी आसीन है। त्रिभंगमुद्रा में चंवरधारी हैं। प्रतिमा प्रभावोत्पादक है किन्तु दुर्भाग्य से इसका प्राप्ति स्थल अज्ञात है। किन्तु अपने युग की कला का उत्तम निर्देशन है।
छठी चौबीसी (६६-२९५) जिसका आकार ४३ x ३३ से. मी. तथा मटीले रंग की है, सभी जिन ध्यानस्थ, मूलनायक का मुख तथा नीचे टूटी है, कुछ तीर्थंकर भी घिस चुके हैं, बायीं और दायीं ओर तीन-तीन की तीन पंक्तियाँ हैं, जो १८ हैं ऊपर तीन बायें तथा २ दायें हैं। कुल २३ व मूलनायक मिलाकर चौबीस हैं । मूलनायक पर त्रिछत्र है, जिस पर सामने की ओर घिसी ध्यानस्थ प्रतिमा का आभास है, पीछे दोनों ओर एक विद्याधर है । जो दोनों हाथों से कलश को लिए हुए अंकित है। कृति लगभग ९ वीं शताब्दी की लेख रहित है । प्राप्ति स्थान अज्ञात है। _तत्पश्चात् आती है चौबीसी (जे. ८२०) जो दूध से श्वेत संगमरमरी पत्थर पर तराशी गई है । यूं तो संग्रहालय में ऐसी ही धातु की तरह बजने वाली मूर्तियाँ भी हैं किन्तु इसमें आवाज नहीं आती है। मुलनायक विवस्त्र खड्गासन में खड़े हैं, यहाँ पर दोनों ही ओर ग्यारह-ग्यारह ध्यानालीन अर्हन्त हैं, एक मूलनायक कुल तेईस हैं, पता नहीं क्यों ? संभव है स्थानाभाव के कारण एक नहीं बनाया गया हो। दायीं तरफ भी एक लघु प्रतिमा है, इनके मुख से तेजस्विता टपकती है। शारीरिक गठन भी सौष्ठवपूर्ण है। तथा मूलदेव रूपवान, यौवन सम्पन्न दर्शाये गये हैं। चंवरधारी त्रिभंग मुद्रा में मूलनायक की ओर मुख किये खड़े हैं । इन्हीं के बीच में बायीं तरफ स्त्री तथा दायीं तरफ पुरुष वंदना मुद्रा में बैठे हैं, जो यक्ष-यक्षी हो सकते हैं। क्योंकि इनके समानान्तर अन्य तीर्थंकर बने हैं। वैसे यक्ष-यक्षी नहीं माने तो उपासक उपासिका माने जा सकते हैं । मुलनायक की हथेली कमलपत्र है जिसे यहाँ पुराने रजिस्टरों में तश्तरी (Discs) लिखा पाते हैं। प्रभामंडल सजावटयुक्त है, त्रिछत्र है जिसपर आकर्षित ढंग से कीर्तिमुख मुक्तालड़ियों को उखलते बने हैं। ऊपर देव दुंदुभिवादक खंडित हैं। दोनों ओर हाथी हैं जिनके सवार आज टुट चुके हैं। इन्हीं के नीचे हवा में उड़ते माला लिये हुवे विद्याधर दम्पत्तिदोनों ओर लक्षित हैं। कैवल्य वृक्ष की पत्तियां भी बनी हुई हैं। इसी प्रतिमा की चरण चौकी पर देवनागरी लिपि में दायीं तरफ पंचाक्षरी मंत्र अंकित है तथा मध्य में गोलाकार शान्ति यंत्र है। यन्त्र के उपसमीप ही बायीं तरफ मह किये बैल बैठा है। इसी के ऊपर "असि आ ऊ सा स्वाहा" अर्थात् अर्हन्त सिद्ध, उपाध्याय एवं साधु का बंदन है । इस प्रकार की मंगल भावनाओं से युक्त चरणपीठिका अनुपम माने जाने की अधिकारिणी नहीं है क्या ?
तीसरी चौबीसी ९०४५३ से. मी. की घिसी हुई है। इसका प्राप्तिस्थान अज्ञात है । नीचे एक आकृति नृत्य कर रही है-यह कौन हैं ? मैं नहीं कह सकता । नीचे सिंहासन पर ऋषभदेव उत्थितासन में दर्शाए गये हैं । दोनों ओर चंवरधारी तथा विद्याधर माला लिये समुपस्थित हैं। दोनों ओर बारह-बारह जिन बैठे हैं, मूलनायक को लेकर पच्चीस जिन हो जाते हैं । ___ चौथी चौबीसी (जी. ३२२ व ६६-२७३) है जिसका माप १ मीटर ७४ ७० से. मी है तथा विन्ध्याचल के पत्थर से बनी है । मूलनायक ऋषभदेव कायोत्सर्ग मुद्रा में विवस्त्र खड़े हैं, शिर नहीं है । श्रीवत्स मूलनायक सहित सभी बना है। परिचय चिन्ह बैल का अभाव है, लेख भी नहीं है। इस समय मूलनायक मिला कर बाईस तीर्थंकर हैं । ऊ परी भाग खंडित है, ऊपर शेष हैं। बायीं तरफ सबसे नीचे अर्हन्त तथा उससे तीसरे खड़े एक सर्पफण वाले सुपार्श्वनाथ भी हैं। इसके समानान्तर भी खड्गासन में एक अर्हन्त दिखलाये गये हैं। दायीं तरफ नीचे चतुर्भुजी चक्रेश्वरी नरवाहना है जिसे डा. यू. पी. शाह ने अप्रतिरथा के रूप में भी पहचाना है। सिंहासन सिंहों पर है जिनके मुंह एक दूसरे के विपरीत हैं तथा मध्य में चक्र है जिससे वस्त्र पहरा रहा है । चंवरधारियों की मुखाकृति, वस्त्राभूषणादि के आधार पर यह कृति चंदेलयुगीन लगती है तथा महोबा से १९३५ में यहाँ लाई गई है।
पाँचवीं चौबीसी (जे. ९४९) भी बड़ी मनोज्ञ है तथा कटि पर अधोवस्त्र का चिन्ह सुस्पष्ट है । अत: यह निःसंदेह श्वेताम्बरी
४. इसे समझने में डा. प्रद्युम्न कुमार जैन अधना नैनीताल
कालेज के प्रधानाचार्य का मैं हृदय से आभार स्वीकार करता हूं।
वी.नि.सं. २५०३
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महावीर पूर्व जैन धर्म की परंपरा : आत्मानुसंधान की यात्रा
डॉ. महावीरसरन जैन
भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं, प्रवर्तमान अवसपिणि काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं । जैन पौराणिक मान्यता के अनुसार कालचक्र चलता रहता है । एक कालचक्र में काल की अपेक्षा दो भाग होते हैं। विश्व में कभी सामूहिक रूप से क्रमिक विकास होता है। कभी क्रमिक ह्रास । क्रमिक ह्रास वाला कालचक्र अवसर्पिणि काल है जिसके क्रमिक अपकर्ष काल १ अति सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुःषमा, ४. दुःषमा-सुषमा, ५. दुषमा, ६.अति दुःषमा है । यह दस कोटा-कोटि सागर की स्थितिवाला काल होता है। जिसमें पुद्गलों के वर्ण, गंध, रूप, रस, स्पर्श एवं प्राणियों की आय, अवगाहना, संहनन, बल, बल-वीर्य आदि का क्रमिक अपकर्ष एवं ह्रास होता है। ऋमिक विकास वाला काल चक्र उत्सपिणि काल है जिसमें क्रमिक उत्कर्ष काल १. अति दुषमा, २. दुषमा, ३. दुषमा-सुषमा, ४. सुषमा दुषमा, ५. सुषमा, ६. अति सुषमा है । अवसर्पिणि की चरम सीमा ही उत्सपिणि का प्रारंभ है । इस प्रकार उत्सपिणि अवसर्पिणि काल के उल्टे कम से उत्कर्षोन्मुख दस कोटा कोटि सागर की स्थिति वाला काल है।
प्रवर्तमान अवसपिणिकाल में वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों का जन्म हुआ तथा अवसर्पिणि काल के दुषमा-सुषमा पूरा होने के . ७४ वर्ष ११ महीने ७।। दिन पूर्व महावीर का जन्म हुआ ।
जैन मान्यता प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ या ऋषभदेव को प्रवर्तमान काल के चौबीसी तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर मानती है । कुछ विद्वानों ने मोहनजोदड़ो के खंडहरों से प्राप्त ध्यानस्थ नम योगी की मूर्ति को योगीश्वर ऋषभ की कार्योत्सर्ग मुद्रा के रूप में स्वीकार किया है। इसके विपरीत कुछ इतिहासकारों ने जैन १. डा. नेमीचंद शास्त्री ज्योतिषाचार्य, तीर्थंकर महावीर और
उनकी आचार्य परंपरा पृ. ३ ।
धर्म को बुद्ध धर्म के समानान्तर उत्पन्न धर्म मान कर इसकी पूर्व महावीरकालीन परंपरा को अस्वीकार किया। उनकी अस्वीकृति का मूल कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि "जिन' एवं 'जैन"" शब्दों का प्रयोग महावीरोत्तर युग के ग्रन्थों में मिलता है। 'दशवकालिक' में सौच्चाणं जिण सामणं, सूत्रकृतांग में अणुत्तरधम्म मिणं जिणाणं तथा "उत्तराध्ययन" में निणवमय' आदि शब्दों का सर्वप्रथम प्रयोग पढ़कर धर्म एवं दर्शन की अविरल परम्परा से अनभिज्ञ किसी भी अनुसंधित्सु को इस प्रकार की प्रतीति होना सहज है कि जिन शासन जिन मार्ग के उपदेशक महावीर ही जैन धर्म के संस्थापक रहे होंगे।
शब्दों की यात्रा के साथ-साथ उपराम हो जाने का परिणाम इसी प्रकार का होता है। जीवन के प्रत्येक चरण में शब्द बदलते रहते हैं। बदलती हुई संस्कृति या वातावरण के साथ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। भाषा में शब्दावली सहज ही प्रविष्ट होती रहती है और लुप्त होती रहती है।
मनुष्य की आत्मा की खोज की यात्रा बहुत पुरानी है। उस यात्रा की साधना को व्यक्त करने वाली शब्दावली बदलती रहती है। 'जैन' शब्द का स्वतंत्र प्रयोग तो महावीर के बहुत बाद जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण कृत विशेषावश्यक भाष्य में मिलता है। किन्तु जब हम ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ना आरंभ करते हैं तो अज्ञात युग के वाचक जगह जगह अपनी अतीत की स्मृतियों की याद दिला जाते हैं। महावीर के उपदेशों का संकलन करने वाले १२ ग्रन्थ में एक ग्रन्थ का नाम है 'नायाधम्म कहाओ' ज्ञातृ धर्म कथाये : इससे जैन धर्म के पूर्ववर्ती नामों की खोज की प्रेरणा अनायास प्राप्त होती है। महावीर के समसामयिक गौतम बुद्ध के २. आचार्य हस्तीमलजी महाराज-जैन धर्म का मौलिक इतिहास
प्रथम खंड तीर्थकर खंड पृ. ४३
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उपदेशों को संकलित करने वाले 'त्रिपिटक' महावीर को 'निगंठनाटपुत्त' के नाम से पुकारते हैं और इतिहास के पन्नों में निगंठ (निर्ग्रन्थ) (धम्म) धर्म का उल्लेख मिलता है। णमो अरिहंताणं-णमोकार पढ़ते पढ़ते जब पदमपुराण की पंक्तियां मानस में गूंजती हैं कि आर्हत धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म है तो महावीर द्वारा प्रतिपादित 'धर्मोमंगल मुक्किट्ठ' के पूर्ववर्ती सूत्र सहज ही प्राप्त होने लगते हैं। जब इतिहास यह उद्घोष करने लगता है कि भारत में श्रमण परंपरा प्राक्वैदिक परंपरा है और जब महावीर परवर्ती ग्रन्थ उत्तराध्ययन निर्धान्त रूप में अभिव्यकत करता है कि 'समयाएसमणो होइ' समभाव की साधना करने से श्रमण होता है तो यह बात साफ होने लगती है कि महावीर ने जिस धर्म एवं दर्शन का प्रचार एवं प्रसार किया है, उसकी परंपरा प्राक् वैदिक युग से पोषित एवं विकसित होती आयी है। ___ जैन धर्म के महावीर-पूर्व-युगीन नामों का अस्तित्व अब अनुमानाश्रित नहीं, इतिहास के द्वारा अनुमोदित तथ्य है । भारतीय इतिहास श्रमण परंपरा, अर्हत, धर्म एवं निर्ग्रन्थ धर्म का तथ्यपरक उल्लेख करता है। श्रमण परम्परा
'श्रमण' शब्द 'श्रम' एवं 'सम' भाव को व्यक्त करता है। 'श्राम्यतीति श्रमणः तपस्यतीत्यर्थः' श्रम करने वाला श्रमण है और श्रम का भाव है तपस्या करना। श्रमण का व्युत्पत्यर्थ ही इसकी परम्परा के स्वरूपगत वैशिष्ट्य को प्रकट करता है। यह परंपरा अकर्मण्य, भाग्यवादी एवं भोगवादी नहीं, मानव के पौरुष की परीक्षा करनेवाली; कर्म में विश्वास रखनेवाली तथा अपनी ही साधना एवं तपस्या के बल पर 'तीर्थ' का निर्माण कर सकने की भावना में विश्वास रखकर तदनुरूप आचरण करने वाली साधना परंपरा है। इसी भाव को सायण टीकाकार ने व्यक्त किया है
वातरशनाख्या ऋषभः श्रमणास्तपस्विनः श्रमण की 'सम' अर्थपरकता को श्रीमद् भागवत व्यंजित करता है
'आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः जैन ग्रन्थों में 'श्रमण' के उपयुक्त दोनों ही अर्थ प्रतिपादित एवं मान्य हैं। उत्तराध्ययन इसकी 'समभाव' साधना के अर्थ को उद्घाटित करता है' तो दशवकालिक सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक दर्शन सम्पन्न तथा संयम व तप में निरत श्रमण साधु के वैशिष्टयर्थक को व्यक्त करता है--
"नाणदंसण संपण्णं, संयमे य तवे रयं"9
श्रमण परंपरा की प्राचीनता के संबन्ध में श्री रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि अनुमान यह है कि श्रमण संस्कृति आर्यों के आगमन के पूर्व से ही इस देश में विद्यमान थी। ये श्रमण अवैदिक होते थे। ब्राह्मण यज्ञ को मानते थे, श्रमण उन्हें अनुपयोगी समझते थे।10 आर्हत धर्म
भगवान महावीर के समय तक "आर्हत धर्म" या निर्ग्रन्थ धर्म शब्दों का प्रयोग मिलता है।
जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकरों ने अर्हन्त होकर ही धर्म का उपदेश दिया। जैन दर्शन के “अहंत" शब्द की विशेष सार्थकता है। जब जीव कर्मों से पृथक होने का उपक्रम करके ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अंतराय कर्मों से अपने को पृथक् कर लेता है तब वह "केवलज्ञानी" हो जाता है और उसे 'अरहत्' संज्ञा की प्राप्ति होती है। अरहत् शब्द की व्युत्पत्ति अहं धातु से है, जो पूजा वाचक है। अहंतों द्वारा प्रतिपादित और अर्हन्तावस्था की उपलब्धि करने वाले 'अर्हत् धर्म' के सूत्र प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद में कहा गया हैअर्हन्ता चित्पुरोदधेऽशेव देवावर्वते। निर्ग्रन्थ धर्म
श्रमण परंपरा में जैन साधु निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। भगवान महावीर को भी इसी कारण पालि साहित्य में निगण्ठ (निर्ग्रन्थ) कहा गया है। त्रिपिटकों में प्राप्त निर्ग्रन्थों की तपस्या के अनेक स्थलों का मुनि श्री नगराजजी ने अपनी पुस्तक "आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" में उल्लेख किया है ।
जैन शास्त्रों में पाँच प्रकार के श्रमण बतलाये गये हैं१. निर्ग्रन्थ, २. शाक्य, ३ . तापस, ४. गेरूअ और ५. आजीवक ।
"निग्गिंथा, सवक, तावस, गेरूय, आजीव पंचहा समणा"18
जैन श्रमणों को निर्ग्रन्थ कहा गया है। वैदिक साहित्य में भी निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग मिलता है। निर्ग्रन्था निष्परिग्रहाः इति संवर्त श्रुतिः ।।
श्रमण परम्परा के दिगम्बर (वातरशना) ऋषियों एवं मुनियों का उल्लेख प्राचीनतम ग्रन्थों में मिलता है। ऋग्वेद में वातरशना मुनि का वर्णन है
"मुनयो वातरशनाः पिशड्गा वसते मला"15 दिगंबर ऋषि श्रमण एवं ऊर्ध्वरेता होते थे। इसकी पुष्टि उपनिषद् एवं भागवत करते हैं । तैत्तरियोपनिषद् का कथन है-- १०. रामधारीसिंह दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय पृ. १२१
(तृतीय संस्करण ।) ११. ऋग्वेद ६/८६/५ १२. मुनि श्री नगराज-आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन १३. प्रवचन सारोद्धार ९४ १४. तैत्तरीय आरण्यक १०/६३ १५. ऋग्वेद १०/११/१३६/२
३. पद्म पुराण १३/३५० ४. दशवकालिक १/१ ५. उत्तराध्ययन २५/३२ ६. सायन टीकाकार ५ ७. श्रीमद्भागवत १३/३/१८-१९ ८. उत्तराध्ययन २५-३२ ९. दशवकालिक ७/४९
वी.नि. सं. २५०३
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वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमथिनौ बभूवः 118 इसी भाव को श्रीमद् भागवत में व्यक्त किया गया है--" वातरशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः " 17
जैन तीर्थंकर
महावीर पर्व प्रवर्तमान अवसर्पिणि काल के २३ तीर्थंकरों में से इतिहास भी प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ २२वें तीचंकर नेमिनाथ तथा २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक अस्तित्व स्वीकार करता है ।
ऋषभदेव—–श्रीमद् भागवत के अनुसार वातरशना श्रमणों के धर्म का प्रवर्तन भगवान ऋषभदेव ने किया 118
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डा. हर्मन जेकोबी ने स्पष्ट लिखा है कि जैन परम्परा सर्व सम्मति से एकमतेन ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर अर्थात् आदि संस्थापक मानती है। इस पुष्ट परम्परा में ऐतिहासिकता हो सकती है
"Jain tradition is unanimous in making Rishab, the first Tirthankar as the founder. There may be some historical tradition which makes him the first Tirthankar.19
विद्वान अब इस बात को मानते हैं कि ऋषभदेव उस अहिंसा परम्परा के आदि जनक थे, जिसके सूत्र प्राग्वैदिक हैं। "प्राग्वैदिक परम्परा के प्रभाव से अहिंसा, धर्म और अहिंसक यज्ञ की कल्पना भारत में बुद्ध से पहले फैल चुकी थी और उसके मूल प्रवर्तक घर-आंगिरस और ऋषभदेव थे।
श्रमण परम्परा की प्राग्वैदिक परम्परा एवं भगवान ऋषभदेव का विवेचन आचार्य श्री तुलसी ने "Pre- Vedic Existance of SRAMAN Tradition में विस्तारपूर्वक किया है। 22
नेमिनाथ
विद्वानों ने नेमिनाथ को श्रीकृष्ण के चचेरे भाई के रूप में स्वीकार किया है। महाभारत के अनुशासन पर्व के ५० एवं ८२ वें श्लोकों में "शूरः शौरिजिनेश्वर" पाठ मानकर कृष्ण के साथ साथ अरिष्टनेमि का उल्लेख किया गया है । 22 जैन ग्रन्थों के १६. तैत्तरीयोपनिषद् २/७
१७. श्रीमद् भागवत ११/६/४७
१८. श्रीमद्भागवत ११/२/२०५/३/२०
19. Dr. Hermann Jakobi - Indian Antiquity. २०. रामधारीसिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय पृ. १२६ 21. Acharya Shree Tulsi-Pre- Vedic Existence of SRAMAN Tradition. Paper read at XXIV International Congress of Orientalists. New Delhi 4th January 1964.
२२. श्रीचंद रामपुरिया महंत अरिष्टनेमि और वासुदेव कृष्ण पृ. ६ : श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता १९६० ई.
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अनुसार यादवों की राजधानी पहले शुरसेन प्रवेश में शोरपुर थी। शोरीपुर में जन्में शोरिजिनेश्वरः नेमिनाथ के उल्लेख अन्यत्र भी प्राप्त हैं। ये उसी प्रकार के ऐतिहासिक या पौराणिक व्यक्तित्व हैं जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण हैं ।
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता जब असंदिग्ध है। पार्श्वनाथ का निर्वाण महावीर जन्म से २५० वर्ष पूर्व हुआ था और उनकी आयु १०० वर्ष थी । अतः पार्श्वनाथ का समय ई. पू. ८७७-७७७ है। भगवान महावीर एवं बुद्ध के समय पार्श्वनाथ की परम्परा के साधुओं के व्यापक प्रभाव का उल्लेख मिलता है । आवश्यक सूत्र निति में वर्णित है कि जब भगवान महावीर कुमारक सनिवेश पधारे तो उद्यान में ध्यानावस्थित हो गए। उनके शिष्य गोशालक जब बस्ती में गए तो वहाँ उन्होंने कूपनय नामक एक धनाढ्य कुंभकार की माला में पार्श्वनाथ परम्परा के आचार्य मुनिन्द्र को अपने शिष्यों सहित देखा
जैन आगमों में पाश्वं संतानीव नियंग्य भ्रमण केशकुमार का अपने 'वृहत् शिष्य समुदाय के साथ महावीर के संघ में प्रविष्ट होने का उल्लेख है । उनके साथ महावीर के गणधर गौतम के विस्तृत वार्तालाप का भी उल्लेख है जिसमें वे दोनों इस बात पर भी विचार करते हैं कि महामुनि पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया और स्वामी वर्द्धमान पांच शिक्षा रूप धर्म का उपदेश करते हैं। 24
पावनुगामी अन्य साधुओं के भी उल्लेख आगमों में मिलते हैं। जैन परम्परा महावीर के माता-पिता को भी पार्श्वपत्यीय (पार्श्वनाथ की परम्परा से संबंध रखने वाले ) श्रावक मानती है। यद्यपि महावीर ने अपना धर्मसंघ बनाया तथापि उन्होंने भी यह सदैव स्वीकार किया कि जो पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने कहा है, वही वे कह रहे हैं। 25
कुछ इतिहासकार राजा श्रेणिक की वंश परम्परा को पार्श्व से संबन्धित मानते हैं। डॉ. जायसवाल ने लिखा है कि राजा श्रेणिक के पूर्वज काशी से मगध आए थे। काशी में उनका वही राजवंश था जिसमें तीर्थंकर पार्श्व पैदा हुए थे। "
डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी ने बुद्ध के जीवन से संबन्धित त्रिपिटक से एक ऐसे प्रसंग का उल्लेख किया है जिससे यह निश्चित होता है कि वे बोधि प्राप्ति के पूर्व पार्श्व परम्परा से सम्बद्ध रहे थे । मफिम निकाय के महासिंहनाद सुत्त में वर्णित है कि भगवान बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहा-
२३. आवश्यकः सूत्र नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति पूर्वभाग गा. ४७७ पत्र संख्या २७९
२४. उत्तराध्ययन सूत्र अ २३
२५. व्याख्या प्रज्ञप्ति, श. ५, उद्दे. ९सू. २२७ २६. डा. काशीप्रसाद जायसवाल - भारतीय इतिहास, एक दृष्टि पृ. ६२
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"सारिपुत्र ! बोधि प्राप्ति के पूर्व में दाढ़ी, मूंछों का लुंचन करता था, खड़ा रहकर तपस्या करता था, उकडू बैठकर तपस्या करता था, नंगा रहता था, हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। बैठे हुए स्थान पर आकर दिए हुए अन्न को, अपने लिए तैयार किए हुए अन्न को और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था।
इस संदर्भ के आधार पर डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी एवं पं. सूखलालजी ने इस धारणा को व्यक्त किया कि बुद्ध कुछ समय के लिए पार्श्वनाथ की परम्परा में रहे थे। ___ डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने भी इस मत से अपनी सहमति प्रकट की है। बुद्ध द्वारा जैन धर्म की तप विधि के अभ्यास की पुष्टि श्रीमती राइस डेविड्स ने भी की है।
पार्श्व के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की स्थापना का पाश्चात्य विद्वानों में सर्वप्रथम श्रेय डा. जेकोबी को है।"
डा. चार्ल शाटियर ने लिखा है कि जैन धर्म निश्चित रूप से इतिहास के एक यथार्थ पात्र रहे हैं। उनके शब्दों में
"We ought also to remember both the Jain religion is certainly older than Mahavira, his reputed predecessor Parshva having almost certainly, existed as a real person & that consequently, the main points of the original doctrine may have been condified long before Mahavira."
डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने अहिंसा धर्म की परम्परा में पार्श्वनाथ की देन को इन शब्दों में व्यक्त किया है--
"श्रीकृष्ण के समय से आगे बढ़े, तब भी, बुद्ध देव से कोई ढाई सौ वर्ष पूर्व हम जैन तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ को अहिंसा का विमल संदेश सुनाते पाते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि पार्श्वनाथ के पूर्व, अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किन्तु पार्श्व मुनि ने उसे सत्य, अस्तेय और २७. डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी भगवान बुद्ध पृ. ६८-६९ २८. डॉ. धर्मानन्द कौसाम्बी पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म
पृ. २८/३१ २९. पं सुखलालजी-चार तीर्थकर पृ. १४०/१४१ ३०. डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दू सभ्यता-अनु. डा. वासुदेव
शरण अग्रवाल राजकमल प्रकाशन दिल्ली पृ. २३९ ३१. Mrs. Rhys Devis-Gautam the man. PP 22-25. ३२. Dr. Jacobi-Sacred Books of the East Vol. XIV
Introduction to Jain Sutras Vol. II P. 21. ३३. डॉ. चार्ल शार्पटियर-The Uttradhyan Sutra Intro
duction P. 21.
अपरिग्रह के साथ बांधकर सर्व साधारण की व्यावहारिक कोटि में डाल दिया ।
पार्श्वनाथ ने चार मुख्य उपदेश दिये इस कारण पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम धर्म भी कहते हैं। पार्श्वनाथ ने सामयिक चारित्र धर्म की शिक्षा चातुर्याम--चार त्यागों के रूप में दी
१. सर्व-प्राणातिपात-विरमण -हिंसा का त्याग २. सर्व-मृषावाद-विरमण --असत्य का त्याग ३. सर्व-अदत्तादान-विरमण --चौर्य त्याग ४. सर्व-बहिद्धादान-विरमण –परिग्रह त्याग
पार्श्वनाथ के समय में धर्म साधक अत्यंत ऋजु, प्रज्ञ एवं विज्ञ थे तथा वे स्त्री को भी परिग्रह के अंतर्गत समझकर बहिद्धादान में उसका अन्तर्भाव करते थे। चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर
महावीर ने अपने समय की परिस्थितियों के संदर्भ में ब्रह्मचर्य व्रत का अलग से उल्लेख किया । उन्होंने छेदोपस्थानीय चारित्र अर्थात् विभागयुक्त चारित्र की व्यवस्था की । पूज्यपाद (वि. सं. ५-६ शताब्दी) ने महावीर के विभाग-युक्त चारित का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है
"भगवान महावीर ने चारित्न धर्म के तेरह विभाग किए। पाँच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां । ये विभाग उनके पूर्व नहीं थे।
तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषा निमित्तोदयाः पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचनतानि व्यपिः चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परै राचारं परमेष्ठिनो जिनमते वीरान् नमामो वयम् ।।35
महावीर का महत्त्व इस दृष्टि से है कि उन्होंने उग्र तपस्या करके संघर्षों को सहज रूप से झेलने का एक मानदंड स्थापित किया तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय मनीषा को नया मोड़ दिया। उनका जीवन आध्यात्मिक चिन्तन, मनन एवं संयमी जीवन का साक्षात्कार है, निष्कर्मदर्शी के निष्कर्म आत्मा को देखने का दर्पण है, आत्मा को आत्म-साधना से पहचानने का मापदण्ड है, तप द्वारा कर्मों को क्षय करके आत्मस्वभाव में रमण करने की प्रक्रिया है तथा इससे भी बड़ी बात यह है कि किसी के आगे झुक कर नहीं प्रत्युत अपनी ही शक्ति एवं साधना के बल पर जीवात्मा के परमात्मा बनने की वैज्ञानिक प्रयोगशाला है। ३४. डा. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय पृ. १२६ ३५. पूज्यपाद चारित्र भक्ति ७
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समाज क्या प्रगति के पथ पर है ?
मुनि विचक्षण विजय 'निर्मल'
प्रतिद्वन्द्वी हैं, कषाय एवं धर्म प्रतिपक्षी हैं। असमाधि एवं शान्ति भी प्रतिपक्षी हैं, तो देखिये हम किस ओर की पंक्ति में बढ़ रहे हैं। क्या कहीं हम कथनी और करनी में अंतर तो नहीं रखते । कथनी एवं करनी का अंतर ही आत्म वंचना का मूल है, यह भूल ही हमारी वास्तविक भूल है।
या देखने जावें तो हमें प्रगति ही नजर आती है, किन्तु वास्तविकता कुछ और है, प्रगति के मध्य में भी कहीं अवनति की खाई तो नहीं है। आज हमें प्रगति पर विचार नहीं करना है, किन्तु हमारी कुछ भूले ही हमको स्वयं को देखना है । यह विचित्र बात है। विचित्र इसीलिये है कि आज तक हम अच्छाई ही चाहते हैं । आत्म प्रशंसा के इच्छुक हैं । जहां आत्म प्रशंसा है वहां ही आत्म-वंचना भी होती है । हम इस महत्व की बात को भूल जाते हैं और हम केवल मात्र नाम चाहते हैं । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रगति पथ पर बढ़ रहे हैं या हमारे कदम हमारे चरण प्रगति से दूर उठ बढ़ रहे हैं। यह महत्व का प्रश्न है, इस प्रश्न की विचारणा आवश्यक हो गयी है, क्योंकि हमें ज्ञात होना चाहिये कि हम प्रगतिशील हैं अथवा अवनतिमुख ।। ___ सापेक्ष दृष्टि से अगर कसौटी करने जावें तो यह ज्ञात होगा कि मैं स्वयं ही बहिर्मुख हूं, मेरी स्वयं की आत्मा पर परिणति परभाव में भटक रही है। इस तथ्य को अगर तथ्य मान लिया तो अवश्य ही हम अन्तर्भावी बन सकते हैं।
जहां विवाद है वहां धर्म नहीं। जहां कषाय भाव है, वहां कैसा धर्म ? जहां असमाधि है, वहां शान्ति कैसी? धर्म एवं अधर्म
इस भूल को जब तक समाप्त नहीं कर लेते, तब तक विवाद, कलह, कषाय, असामायिक इत्यादि धर्म के प्रतिपक्षी के ही हम साथीदार हैं। हालांकि हमारा देखाव धर्म की ओर है, हालांकि हमारा व्यवहार धर्म की ओर है, किन्तु जिस केन्द्र पर हमारा लक्ष्य है, उस केन्द्र पर इन कुप्रवृत्तियों के सहारे पहुंचना तो दूर, परन्तु और भी दूर ही दूर होते जा रहे हैं, और यही हमारी वास्तविक अवनति है, फिर चाहे प्रगति के नाम पर हम विविध आयाम अपनावें, फिर भले ही हमारे दृष्टि जाल से हम कुछ भी करें, वह सभी आत्मिक दृष्टि से ग्राह्य नहीं, उपादेय नहीं, अपितु हेय है। इस तत्व को समझकर अगर सामयिक भाव से बढ़ेंगे, तो हमारा हर कदम, हर चरण लाभ के निकट होगा । नहीं तो वहीं आत्मवंचना हमें अपनी आत्मा के गुणों से हटाकर गहरे दुःख देवेगी।
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Jain Education Intemational
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कामनाओं का अन्त करना ही
दुःख का अन्त करना है
मानव मुनि
भगवान महावीर के समय में धर्म के नाम पर यज्ञों में पशुओं की और कभी कभी मनुष्यों की भी बलि दी जाती थी। यज्ञों में जो बलि दी जाती है, वह हिंसा नहीं है, क्योंकि यज्ञों से धर्म होता है, यह अन्धविश्वास था।
भगवान महावीर के द्वारा ही अहिंसा के प्रचार के कारण इस बलि प्रथा में बहुत कमी हुई है, फिर भी किसी न किसी रूप में यह बलि प्रथा आज चली जा रही है, हिन्दू अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिये बलि देते हैं।
क्या इस प्रकार से बलि देना उचित है ? क्या इससे धर्म होता है ?
आज भी हमें कभी समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि अमुक व्यक्ति ने सन्तान पाने की इच्छा से एक बालक की बलि दे दी, अमुक व्यक्ति ने धन पाने की इच्छा से एक मनुष्य की बलि दे दी।
इन उपरोक्त तथ्यों से साबित हो जाता है कि बलि देने और कुर्बानी देने का तात्पर्य तो यही है कि दुर्भावनाओं की, अपनी झूठी माया ममता की, अपनी विषय वासनाओं की और अपने अन्दर छिपी पशुवृत्ति की बलि दो, ऐसा करने से ही आत्मा पवित्र व उन्नत होगी, और सच्चे सुख का मार्ग प्रशस्त होगा।
निर्दोष मूक पशुओं की बलि धर्म के नाम पर करना अन्धविश्वास है, अज्ञानता है, महापाप बन्धन को बांधना है। इसलिये सभी धर्मों में अहिंसा परधोधर्म माना है। हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती, विश्व के सभी प्राणी वे चाहे कोई भी हों, मरना नहीं चाहते, सबको अपना जीवन प्यारा है।
स्वयं भी जियो और दूसरों को भी जीने दो। इन नियमों को मानने वाले संसार में सब ओर शांति, प्रेम, अभय और विश्वास का वातावरण होगा।
अहिंसक आचरण धर्म ही नहीं है, यह जीने की कला है, जिसमें हमें स्वयं को सुख मिलता है, और दूसरों को भी।
भगवान महावीर ने बताया है कि अहिंसा का पालन करना तो धर्म है ही, पर दूसरों के कष्ट को दूर करने के लिये हमको कुछ त्याग करना पड़ता है। अपने समय का त्याग, अपने धन का त्याग, अपने सुख का त्याग, जैसे किसी रोगी व्यक्ति की सेवा करना, उसको अपने धन से दबा दिलाना, इसी प्रकार कसाई से प्राणी को मुक्त करवा कर अभय दान देना, पशु बलि बन्द करवाना धन का सद्उपयोग करना है।
इच्छा आकाश के समान अनन्त है, तृष्णा से ही हिंसा होती है, अन्याय अत्याचार होता है, इसलिये भगवान महावीर ने कहा है कि
"कामनाओं का अन्त करना ही दुःख का अन्त करना है।"
भगवान महावीर के सपूतों उठो। आगे कदम बढ़ाओ व अहिंसा परमोधर्म का ध्वज हाथ में उठाओ व दुन्दुभि बजाओ। ताकि अब विज्ञान का युग है, हिंसा नहीं होगी, शोषण नहीं होगा, अनीति अत्याचार नहीं होंगे, व्यापार में व्यवहार शुद्धि होगी, मिलावट नहीं होगी, मैत्री, करुणा, प्रेम, सदाचार का साम्राज्य होगा, यह तभी होगा, जब हम त्याग, संयम एवं व्रतों को जीवन में धारण करेंगे, तो ही दुनिया पर प्रभाव डाल सकेंगें, व विश्व को अहिंसा के द्वारा शान्ति का सन्देश दे सकेंगे । कोई भी राष्ट्र अहिंसा के बिना शान्ति स्थापित नहीं कर सकता। ___धर्म प्रेम व मोहब्बत सिखाता है, धर्म बाह्य क्रियाकाण्ड नहीं है, धर्म जीवन दर्शन है, जो इन्सान को इन्सानियत, मानव को महामानव, महात्मा व परमात्मा बना देता है । वह महापुरुष बन जाता है, महावीर हो जाता है।
वी. नि. सं. २५०३
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महावीर
भगवान महावीर का काल पुनर्जागरण का क्रांतिकारी युग था । पुरानी मान्यताएं गिर रही थीं और नई मान्यताएं, नई चेतना, नये विचार जन्म ले रहे थे। जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहा था ।
डॉ. एस. एम. पहाड़िया
राजनीति के क्षेत्र में सुसंगठित राज्य बन रहे थे । राजा और उसके कार्यों का महत्व बढ़ रहा था। सामाजिक क्षेत्र में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को धक्का लगा था और संयुक्त परिवार प्रथा पनप रही थी। गोत्र और प्रवर के अस्तित्व में आने से नियोग प्रथा का अन्त हो गया था । आर्थिक क्षेत्र में उद्योग व्यापार एवं व्यवसायों में वृद्धि हो रही थी। सिक्कों का प्रचलन बढ़ रहा था और लौह धातु का अधिकाधिक उपयोग होने लगा था। धर्म के क्षेत्र में विश्वव्यापी क्रांति के लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे थे। कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई, उत्तर के काले चमकीले पात्र उस युग की विशेषता थी । राजनीतिक परिस्थितियाँ
उस काल में सोलह बड़े राज्य थे जो "सोलह महाजनपद " नाम से जाने जाते थे । इन राज्यों की निश्चित सीमाएं थी और उनमें राजतन्त्र एवं गणतन्त्र दोनों का समावेश था। छोटे गणतन्त्र स्वतन्त्र या अर्द्ध स्वतन्त्र वंशों, जैसे कपिलवस्तु के शाक्य, देवदाह व रामगाम के कोलिया, सुमसुमारा पहाड़ियों के भग्ग, कलाकप्पा के बुलिस, केशपुट के कालमा एवं पिप्पलीवान के मौर्यो द्वारा शासित थे ।
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युगीन
साधारणतया राजा क्षत्रिय होते थे । यद्यपि राजा निरंकुश होता था फिर भी उसे दस राज्य धर्मो का पालन करना पड़ता था । जीवन में नैतिकता का पालन उन दस
काल
धर्मों में एक धर्म था । राजा का मुख्य कार्य अपने राज्य की बाहरी और भीतरी संकटों से रक्षा करना था। राजा वंश परंपरागत होता था । राजा का ज्येष्ठपुत्र " उपराजा" कहलाता था तथा सेनापति राजा का संबंधी होता था। राजा की सहायता के लिए एक मंत्री परिषद होती थी जिसमें साधारणतया पांच सदस्य होते थे जो "अमाच्छा" कहलाते थे ।
प्रान्तीय शासन लगभग स्वतन्त्र सा ही था। ग्राम शासन में "ग्राम भोजक" का विशेष स्थान था । न्याय के क्षेत्र में राज्य सर्वोपरि था परन्तु न्याय मंत्री उसकी सहायता करता था और वह "विनिच्छायमाच्छा" कहलाता था। सैनिक संगठन अच्छा था । सेना में रथ, हाथी, अश्वारोही एवं पैदल सैनिक होते थे । गणतन्त्र, पश्चिम में स्पार्टा, एथेन्स, रोम और मध्यकालीन वेनिस के गणतन्त्र के समान थे। इनकी शासन व्यवस्था की जानकारी हमें बौद्ध जातकों से प्राप्त होती है । बुद्ध ने मगध के राजा के महामंत्री वर्षकार को जो सात उत्तम बातें बतलाई थीं उन्हें शासन के नीति निर्धारक तत्व माने जा सकते हैं। वे इस प्रकार हैं:--
१. समय समय पर पूरी जन सभाओं को आमन्त्रित करना २. मिलजुल कर मिलना, बैठना एवं कार्य करना ।
३. स्थापित व्यवस्था के प्रतिकूल नियम नहीं बनाना और प्रच लित नियमों का निरसन नहीं करना ।
४. वृद्धजनों का सम्मान, सत्कार करना, उन्हें मान्यता देना एवं उनका भरण पोषण करना ।
५. शक्ति द्वारा या अपहरण करके महिलाओं एवं बालिकाओं को बन्द नहीं करना ।
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६. चैत्यों को माम्यता देकर उनका सम्मान एवं सहायता करना । ७. अरहंतों की सुरक्षा एवं बचाव करना तथा उनकी सहायता __ करना।
ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय नागरिकता केवल कुलीन क्षत्रियों तक सीमित थी । प्रत्येक गणतन्त्र की अपनी अलग सर्वोच्च जनसभा होती थी जिसे "संथागार" कहते थे। जनसभा में विभिन्न गुट सत्ता के लिये संघर्षरत रहते थे। जनसभा का कार्य गणपूर्ति होने पर प्रारम्भ किया जाता था । जनसभा के प्रस्ताव नियमानुसार ही प्रस्तुत किये जा सकते थे। मतदान कभी गुप्त रूप से, कभी कानाफूसी से, और कभी प्रत्यक्ष रूप से हुवा करता था । जनसभा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती थी और उसकी सदस्य संख्या, राज्य की जनसंख्या एवं उनकी परम्परा पर निर्भर करती थी । गणतन्त्रों की न्याय प्रणाली प्रशंसनीय थी एवं नागरिक स्वतन्त्रता की पूर्ण रक्षा की जाती थी। यहां की न्यायपालिका का लक्ष्य 'निर्दोषता" का पता लगाना होता था जबकि तिब्बत में 'अपराधी के अपराध' का पता लगाना । सामाजिक परिस्थितियाँ
उस काल में क्षत्रियों का समाज में उच्च स्थान था लेकिन बौद्ध साहित्य में इस तथ्य को कहीं-कहीं नकारा है। ब्राह्मणों का प्रभाव घट रहा था और अनेकों ने शिकार, सुथारी और सारथी जैसे हीन समझे जाने वाले धंधों को अपना लिया था। लेकिन ब्राह्मण साहित्य में इसके विपरीत उल्लेख मिलते हैं । वेश्यों के व्यापार में भी एकरूपता नहीं थी । महावीर के पूर्व शूद्रों की स्थिति दयनीय थी, महावीर ने उनकी स्थिति सुधारने का अथक प्रयत्न किया। निम्न मानी जाने वाली जातियों में चाण्डाल, वेण, निशाद, रथकार एवं पुसुक प्रमुख थी। आध्यत्मिक क्षेत्र में अछूतों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था और एक चाण्डाल हरिकेशबल ने साधु धर्म स्वीकार किया था। मिश्रित जातियों का भी इस काल में उदय हुवा ।
उन दिनों मे दास प्रथा प्रचलित थी एवं महावीर की पहली आर्या राजकुमारी चन्दना को भी दासी बनना पड़ा था । सन्यास आश्रम वानप्रस्थाश्रम से बिल्कुल पृथक हो गया था । संयुक्त परिवार प्रथा अब काफी लोकप्रिय हो गई थी और ऐसे परिवारों के सदस्यों के आपसी संबंध मधुर एवं स्नेहपूर्ण थे। कहींकहीं आपसी कलह के उदाहरण भी मिलते हैं। वाणिज्य और व्यापार में आशातीत उन्नति होने से परिवार के सदस्यों में स्वतन्त्र रूप से धनोपार्जन की वत्ति के कारण “संपत्ति के अधिकार" की धारणा बनने लगी।
ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल में ब्रह्म, प्रजापत्य, असुर, गंधर्व और राक्षस विवाह पद्धतियाँ प्रचलित थीं। स्वयंबर भी होते थे। विवाह संबंध में गोत्र का महत्व बढ़ने लगा था। भाई-बहिन के आपस में विवाह के उदाहरण मिलते हैं। शाक्यों में बहिनों से विवाह होता है। स्वयंवर भी होते थे ।
राजकुमारी निववुई इसका उदाहरण है। लिच्छिक्यिों में नजदीक के संबंधियों में विवाह होते थे । ममेरे भाई-बहिनों में विवाह होते थे। महावीर के बड़े भाई नंदीवर्धन का जेष्ठा के साथ विवाह इसका उदाहरण है । यदाकदा अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होते थे । वधू की विवाह के समय उम्र सामान्यतः सोलह वर्ष की होती थी।
पुरुष अपनी स्त्री की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह कर सकता था, परन्तु विधवा विवाह के सम्बन्ध में विरोधी जानकारी मिलती है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में विवाह विच्छेद होने पर स्त्री और पुरुष पुनः विवाह कर सकते थे। एक पत्नी प्रथा साधारणतः प्रचलित थी। धनीवर्ग बहुपत्नियां रखते थे । नगरीय जीवन में गणिकाओं का महत्व था वे संगीत, गान, नृत्य आदि की संरक्षिका होती थी।
साहित्य एवं पुरातत्व दोनों सूत्रों से विशेष कर तेर और नवासा की खुदाई से यह ज्ञात होता है कि गेहं और दालें खाद्य की मुख्य वस्तुएं थीं । उस काल के खाद्य पदार्थों में सतु, कुमासा, पूबा, खाजा, तिलकूटा तथा दूध एवं दूध की बनी हुई वस्तुएं जैसे दही, मक्खन, घी आदि का प्रचुर मात्रा में उपयोग होता था। तरकारियों में ककड़ी, कद्, लोकी आदि और फलों में आम, जामुन आदि लोकप्रिय थे। विविध स्थानों से खुदाई में प्राप्त हड्डियों से प्रतीत होता है कि मांसभक्षण किया जाता था। महावीर मांसाहार के अत्यन्त विरुद्ध थे। उन्होंने शाकाहार का प्रचार कर अनेकों मांसहारियों को शाकाहारी बनाया, शराब का प्रचलन था किन्तु धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति इससे परहेज करते थे।
जन साधारण के या पहिनने के वस्त्रों में अन्तरवासक उतरासंग, उसानिसा होते थे । स्त्री और पुरुष दोनों कांचुक धारण करते थे । स्त्रियां साड़ी पहनती थी। रुई, ऊन, सन, ताड़पत्र, रेशम, पटुआ आदि के रेशों के कपड़े बनाये जाते थे। कपड़े को सीने व टांके लगाने का रिवाज था । साधु-साध्वियां तथा विशिष्ट पुरुषों के पहनने के वस्त्र विशेष प्रकार के होते थे। स्त्रियों और पुरुष दोनों सस्ते या मंहगे आभूषण पहिनते थे। आभूषणों में अंगुठियां, कर्णफूल एवं गले के कंठे काफी लोकप्रिय थे । तत्कालीन साहित्य में सौन्दर्य प्रसाधनों एवं शृंगार सामग्रियों का प्रचुर विवरण मिलता है । जैन एवं बौद्ध साहित्य में गृह सज्जा के लिये विभिन्न प्रकार की कुर्सियों, पंलगों आदि का विवरण मिलता है । उन दिनों उपयोग में आने वाले मिट्टी एवं धातुओं के बने बर्तन विभिन्न स्थानों से पुरातत्वीय खुदाई में प्राप्त हुवे हैं। उत्तर के काले चमकीले पात्र इस युग की अनोखी देन हैं ।।
लोग उत्सवों में सम्मिलित होते थे। इन्हें “समाज्जा" कहते थे। शालभंजिका उत्सव अत्यन्त लोकप्रिय था। अन्य त्यौहारों में कोमुदी और हाथी-मंगल प्रसिद्ध थे । त्योहारों एवं उत्सवों के अतिरिक्त मनोरंजन के लिये बगीचे में भ्रमण करते थे और संगीत सुनते थे ।
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योग्य व्यक्तियों को शिक्षा दी जाती थी । दया, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों एवं दायित्वों का पालन, शिक्षा के लक्ष्य होते थे। शिक्षा के क्षेत्र में गुरुकुल प्रणाली का विशिष्ट स्थान था। गुरु-शिष्य के संबंध मधुर थे। विविध विषयों में शिक्षा दी जाती थी । पाठ्यक्रम और उनकी अवधि का निर्धारण, विद्यार्थियों की इच्छा, सामर्थ्य और उनकी सुविधानुसार होता था। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाता था। अभिव्यक्ति का माध्यम प्राकृत भाषा थी । साहित्यिक गतिविधियां इस युग में खूब फली-फूली । शिल्पकला के विकास के फलस्वरूप ही भवनों, दुर्गों, जलाशयों, नहरों आदि का निर्माण संभव हो सका। आर्थिक परिस्थितियाँ
ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का केन्द्रबिन्दु ग्राम था । ग्रामीण जनता की आजीविका का मुख्य साधन खेती था । कृषि में नई-नई पद्धतियों का विकास हुआ । उस युग के साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि खेतों में हल चलाये जाते थे. खेतों की सीमा पर बाड़ लगाई जाती थी, बीज बोये जाते थे। खेतों में निन्दाई होती थी। फसल काटने और कटी हई फसलों के गद्रर बांधने का भी वर्णन मिलता है। कुओं और जलाशयों से सिंचाई होती थी। उज्जैन और वैशाली में पूरातत्व विभाग द्वारा जो खुदाई कार्य हुवा है वहां इनके भग्नावशेष प्राप्त हुवे हैं। खेती के लिये पशओं में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, गधे, ऊँट, सूअर और कुत्तों का उपयोग होता था। रुई, ऊन, चांवल, गेहूं, चना, सेम, नासपाती, अरण्डी, सरसों, शीशम, अदरक, लोंग, हल्दी, जीरा, मिर्ची ब गन्ने की फसलें होती थी। अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ फूल-फल और पान की खेती होती थी।
जानवरों एवं पक्षियों से खड़ी फसल की रक्षा के लिये अनेक उपाय किये जाते थे। खेतों के अतिरिक्त कताई-बनाई (मिट्टी के तकुए प्राप्त हुवे हैं), सुथारी, लुहारी आदि धंधों का विवरण उपलब्ध साहित्य में मिलता है । लोहे गलाने की भट्टियों का उल्लेख मिलता है तथा पुरातत्व खदाई में लोहे की वस्तुएँ प्राप्त हई हैं। हाथी दाँत पर काम, माला बनाना, इत्र बनाना आदि कार्य भी होते थे। गौंद, औषधियाँ, रसायन एवं रंगाई तथा चमड़े आदि के गृह उद्योग भी चलते थे। भवन निर्माण का कार्य खूब होता था।
विदेशों से एवं देश में व्यापार-व्यवसाय उन्नति पर था। सामुद्रिक व्यापार के भी प्रमाण मिलते हैं। बिरस-निर्मद के नेबचन्द नेजर के राजमहल में भारतीय देवदारु की एक बल्ली मिली है । बावरू और सुपारक जातकों, दिध-निकाय और लंका के इतिहास में भी भारत के विदेशी व्यापार का वर्णन मिलता है, इस यग के आर्थिक जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना व्यापार और उद्योगों को श्रेणियों में संगठित करने की है। व्यापार में सिक्कों का प्रचलन दुसरी महत्वपूर्ण बात थी । इस यग के सिक्के भीर, पैला, पतराहा, मच्छाटोली आदि स्थानों में पाये गये हैं। कर्ज देने की प्रथा भी थी । पाणिनी ने विभिन्न माप-तौल का उल्लेख किया है। चिरद, वैशाली और एरन की खुदाइयों से भी उस युग के माप-तौलों की जानकारी मिली । बड़ी-बड़ी मण्डियों में वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता था। मण्डियों में वस्तुओं के मूल्यों एवं मूल्य निर्धारण में होने वाली सौदेबाजी के भी संकेत मिलते हैं।
धार्मिक परिस्थितियाँ
धार्मिक क्षेत्र में न केवल भारत में अपितु समस्त विश्व में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। महावीर का युग जनजागरण का युग कहलाता है । सभ्यता के विभिन्न केन्द्रों पर अचानक और एक साथ धार्मिक आन्दोलन चालू हुए। ईरान में जरुस्त्रम ने अद्वैत का उपदेश देकर धार्मिक क्रियाकाण्ड के विरुद्ध विद्रोह किया। यूनान में हेराक्लिटस और पाइथोगोरस ने पुनर्जन्म की चर्चा की और जनता को शुभ कार्य करने के लिये प्रोत्साहित किया । चीन में कन्फुसियस और लाओत्से ने प्रचलित धारणाओं के विपरीत नई विचार धारा प्रस्तुत की । बेबीलोन की अधीनता में रहे यहूदियों ने यहोवा" में दृढ़ विश्वास प्रकट किया। भारत में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध कई संसार से विरक्तिवैराग्य संबंधी तथा अन्य बौद्धिक आन्दोलन उभरे, जिनमें बौद्ध एवं जैन अग्रणी थे। ईसा से छ: शताब्दी पूर्व इन्होंने वही किया जो लूथर और कोल्विन ने ई० १९ वीं शताब्दी में किया। अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह, सत्य आदि के उपदेश दिये जाने लगे । धार्मिक सहिष्णुता का आग्रह किया गया और मोक्ष प्राप्ति पर जोर दिया गया । प्रतिद्वन्द्वी विचारधाराओं एवं सम्प्रदायों के आपसी मतभेदों के फलस्वरूप जनता में आध्यात्मिक चेतना जाग्रत हुई । स्वर्ग और नरक में लोगों का विश्वास था और ऐसी मान्यता थी कि अच्छे कार्यों का फल स्वर्ग और बुरे कार्यों का फल नरक था। कला
साहित्यिक रचनाओं से ज्ञात होता है कि राजमहल राजधानी के मध्य में बनाया जाता था और उसके आसपास परकोटा होता था। उसमें महल दो मंजिला होता था और उसमें तीन आंगन होते थे। दीवालों और खंभों पर सुन्दर आकृतियाँ बनाई जाती थीं। भवन ईंट, पत्थर और लकड़ी के बने होते थे। भवनों में खिड़कियों, दरवाजों एवं बरामदों की व्यवस्था होती थी। शासकीय एवं अन्य भवनों के निर्माण में स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता था। कहीं-कहीं देवक्लिकों एवं चैत्यों का वर्णन मिलता है । पुरातत्व विभागों द्वारा विभिन्न स्थानों पर की गई खुदाई से 'स्तूपों" के निर्माण पर प्रकाश पड़ता है। जैन सर्वतीर्थ संग्रह पुस्तक से ज्ञात होता है कि प्रद्योत ने उज्जैन, दशपुर एवं विदिशा में जीवन्त स्वामी (महावीर) की मूर्तियां स्थापित की थी। पुरातत्व विभाग की खोजों एवं साहित्यिक कृतियों से महावीर काल में बनी, मिट्टी व पकी हुई मिट्टी से बने बर्तनों का ज्ञान होता है। जैन एवं बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि कला की दृष्टि से धार्मिक एवं अन्य चित्रकारी का बड़ा महत्व था। इस काल के चित्र पंचमड़ी की महादेव पहाड़ियों की गुफाओं में, भोपाल के पास भीम बैटका, मन्दसौर के पास मोरी, सिंघनपुरा, कबरा पहाड़, लिकुनिया, कोहवार, मेहरिदा, भालदारिया और मिरजापुर में बीजागढ़ तथा बांदा में मानिकपुर में पाये जाते हैं। कुछ धातु, हड्डी और पत्थर की वस्तुएं भी खुदाई से प्राप्त हुई हैं। मुद्राएं, मोहरों, रंग लगाने की कुम्हार की कूचियों, पत्थरों के मूसल, चक्की एवं तश्तरियों आदि प्राप्त वस्तुओं से उस युग की कला की झांकियां देखने को मिलती हैं ।
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भारतीय कला में पुराण-कथाएं
प्रो. कृष्णवत्त वाजपेयी
पुराण कथाओं (मिथको) की परंपरा बहुत पुरानी है। भारत तथा अन्य प्राचीन देशों के साहित्य तथा पुरातत्वीय अबशेषों में इस परंपरा को देखा जा सकता है। सभ्यता की आदिम अवस्था में भौगोलिक स्थिति तथा रहन-सहन की प्रणाली ने अनेक भावनाओं का सृजन किया । ये भावनाएं धीरे-धीरे मान्यताओं या आस्थाओं के रूप में परिणित हई और वे लोगों के जीवन को प्रभावित करने लगीं । कतिपय धार्मिक विश्वासों ने कालांतर में दृढ़ता प्राप्त की और उनके आधार पर देव या पुराण कथाओं का सृजन हुआ। इन मिथकों में प्रत्यक्ष से कहीं अधिक कल्पना मुखरित हुई उसमें ऐहिक तथा पारलौकिक जीवन के प्रति लोगों की विचारधारा को प्रभावित किया ।
भारतीय वैदिक एवं अवैदिक साहित्य में अनेक मिथकों की चर्चा मिलती है। उन्हें पुराणों में अधिक व्यापकता दी गई और अनेक रूपों में उनकी व्याख्या की गयी। पौराणिक साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि लोगों की दैनिक चर्या और विचारधारा में पुराण कथाओं ने प्रभावशाली स्थान बना लिया। भारतीय समाज के विकास के साथ ये मिथक भी पृष्ट होते गए । वैदिक, पौराणिक, जैन, बौद्ध आदि विचारधाराओं में अनेक मिथकों को केवल स्वीकारा ही नहीं गया अपितु उनके आधार पर अपने धर्मो को प्रचारित-प्रसारित करने की विधियां ढूंढ ली गयी।
साहित्य के अतिरिक्त लोक कला की अनेक विधाओं--यथा मूर्तियों, चित्रों, गीतों और नाटकों में भी इन मिथकों को रूपांकित किया गया। भारतीय कला में देवी-देवताओं तथा उनसे संबंधित कथाओं को हम प्रचुर रूप में अंकित पाते हैं । कला को लोकरंजनी बनाने के लिए यह बहुत आवश्यक था । पूज्य देवों के अतिरिक्त यक्ष, किन्नर, गंधर्व, सुपर्ण, अप्सराओं आदि का चित्रण
लोक कला में बहुत मिलता है। भारत की अनेक प्राचीन कलाकृतियों में विविध धार्मिक क्रियाओं एवं त्यौहारों में उत्साह के साथ भाग लेते हुए स्त्री-पुरुष दिखाए गए हैं। अनेक लोकप्रिय पौराणिक कथाओं को मतियों तथा चित्रों के माध्यम से उरेहने की परंपरा आज तक इस देश में जीवित है ।
लोक कला का सर्व सुलभ माध्यम मिट्टी की मूर्तियां एवं खिलौने थे । भारत में सबसे पुरानी मूर्तियां हाथ से गढ़ी हुई मिली हैं । सांचे का प्रयोग उनमें नहीं हुआ । हाथ से गढ़कर बनायी गयी मूर्तियों में मातृदेवी की प्रतिमायें बड़े महत्व की हैं । भूमि को माता के रूप में मानने की भावना वेदों तथा इतर साहित्य में मिलती है। मातृदेवी या महीमाता की ये मूर्तियां उसी भावना को अभिव्यक्त करती है । इन प्रतिमाओं के गले, कमर और कान में भारी आभूषण चिपकाये हुए मिलते हैं। कभीकभी चेहरे का आकार चिड़ियों जैसा होता है । कई खिलौने ऐसे भी मिले हैं जिनमें पेड़ की डाल पकड़े हुए शाल-भंजिका स्त्रियों को आकर्षक मद्रा में दिखाया गया है। कामदेव की एक उल्लेखनीय मूर्ति मिली है, जिस पर उन्हें शूर्पक नाम के मछुवे को पददलित करते हुए दिखाया गया है । एक लोक कथा के अनुसार कुमदवती नाम एक राजकुमारी शूर्पक नाम मछुवे पर आसक्त हो गई । शूर्पक ने उसके प्रेम को ठुकरा दिया । अन्त में राजकन्या ने कामदेव की सहायता से उस पर विजय प्राप्त की। इसी कथा का आलेखन उक्त खिलौने में है।
मिट्टी की बनी हुई गुप्तकालीन अनेक मूतियां मिली हैं । इनका पिछला भाग बिलकुल सादा होता था, पर सामने देवी, देवताओं, यक्ष-गंधर्वो, पशु-पक्षियों आदि की मूर्तियां रहती थीं। मथुरा से प्राप्त कार्तिकेय की एक बड़ी मिट्टी की मूर्ति गुप्तकाल
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की उल्लेखनीय प्रतिमा है। इसमें मयूर पर बैठे हुए देव-सेनापति कार्तिकेय का वीर भाव बड़ा प्रभावोत्पादक है। एक दूसरी मर्ति पर आकर्षक मुद्रा में खड़ी हुई गंगा दिखाई गई है, जो हाथ में मंगल घट लिये है। नदी देवताओं का चित्रण लोक कला में बहत प्रचलित हुआ, विशेष कर गंगा और यमुना का । गुप्त काल की अन्य बड़ी मूर्तियां मिली हैं, जिसमें एक सुन्दरी एक पुरुष के गले में दुपट्टा डालकर उसे खींच रही है। पुरुष के वेश को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह कोई विदूषक है। इस कला कृति को देखकर संस्कृत के विद्वान लेखक बाणभट्ट के उस वर्णन का स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने अन्तःपुर की स्त्रियों के विविध मनोविनोदों की चर्चा की है । एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि अन्त पुर निवास की स्त्रियां बुड्ढे कंचुकियों के गले में वस्त्र डालकर उन्हें खिझाती थी।
प्रमुख भारतीय देवी के रूप में लक्ष्मी की मान्यता होने के कारण उसकी पूजा के अनेक विधान मिलते हैं । जैन कल्पसूत्र में लक्ष्मी का अभिषेक विस्तार से वर्णित है। उसे हिमालय के सरोवर में कमल-वाहिनी कहा गया है और दिग्गजों द्वारा जल से लक्ष्मी का अभिषेक करने की चर्चा की गई है । भूदेवी के रूप में लक्ष्मी का गजाभिषेक इस बात का प्रतीक है कि मेघ-देवता द्वारा जल वृष्टि करके भूमि को उर्वरा बनाया जाता है। जैन साहित्य में लक्ष्मी को सौभाग्य और समृद्धि की देवी के रूप में माना गया । अनेक स्थलों पर धन और सुख की प्राप्ति के लिए उसकी पूजा एवं अभिषेक की चर्चा मिलती है।
नचना (जिला पन्ना) तथा देवगढ़ (जिला ललितपुर) के शिलापट्टों में रूपायित पाते हैं । इसके बाद उत्तर तथा दक्षिण भारत ही नहीं, अपितु कंबोदिया, जावा, सुमात्रा आदि देशों की कथा में रामकथा का प्रमुख अंकन देखने को मिलता है। भारत और एशिया के अनेक देशों में रामकथा को नाट्य रूप में प्रदर्शित किया जाता है और यह परंपरा आज भी जीवित है।
रामलीला की तरह कृष्ण कथा के प्राचीन चित्रण उत्तर भारत में मथुरा, भंडोर (जिला जोधपुर), सूरतगढ़ (जिला बिकानेर), पहाड़पुर (बंगाली देश)तथा भुवनेश्वर की कला में मिले हैं।
उत्तर की तरह दक्षिण भारत में भी कृष्ण-लीला के अनेक वित्रण मिले है । ये प्राय: प्राचीन मंदिरों, गुफाओं आदि में उत्कीर्ण हैं । बादामी के पहाड़ी किले पर कृष्णलीला के विविध चित्र देखने को मिलते हैं। उनमें जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, प्रलंब-धेनुक-अरिष्ट आदि का वध, कंस-वध आदि कितने ही दृश्य हैं। इन कृतियों का निर्माण काल ई. छठी-सातवीं शती है । प्राचीन भारत में नागों की पूजा भी विविध रूपों में प्रचलित थी। भगवान कृष्ण के भाई बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है । विष्णु की शय्या अनन्त नागों की बनी हुई कही गयी है। जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा सुपार्श्व के चिह्न नाग हैं। बौद्ध धर्म के अनुसार मुचुलिंद नामक एक नाग ने भगवान बुद्ध के ऊपर छाया की थी, नन्द और उपनन्द नागों ने स्नान कराया था । रामग्राम के स्तूप की रक्षा का कार्य भी नागों द्वारा संपन्न हुआ था । इस प्रकार भारत के सभी प्रमुख धर्मों में नागों का महत्वपूर्ण स्थान रहा और उनसे संबंधित अनेक लोक कथाएं मिलती हैं।
नागों की प्राचीन मूर्तियां पुरुषाकार तथा सर्पाकार दोनों रूपों में मिलती हैं । पहले प्रकार को पुरुष-विग्रह और दूसरे को सर्प-विग्रह नागकल कहते हैं । पहले में नाग-नागी को पुरुष-स्त्री के रूप में दिखाते हैं। उनके सिर पर पांच या सात फन रहते हैं। दूसरे प्रकार की मूर्तियों को प्रायः सन्तान की इच्छा रखने वाली स्त्रियां पूजती हैं। यह पूजा आज तक भारत के विभिन्न भागों में प्रचलित है।
बलराम की बहुसंख्यक प्रतिमाओं के अतिरिक्त मानवाकार रूपों में नागों की अन्य विविध मतियां कला में मिली हैं, उत्तर-शुंगकालीन एक शिलापट्ट पर अतीतत्व नामक झील में स्नान करते हुए नागराज पूर्णक, उनके साथी, नाथ तथा कई नागियां दिखाई गई हैं। बौद्ध साहित्य में अनोतत्व भील वाली कथा मिलती है। नागराज्ञी की एक ऐसी प्रतिमा मिली है जिसके शरीर से निकलती हुई पांच स्त्री मूर्तियां दिखाई गयी हैं । ये संभवतः पांच ज्ञानेन्द्रियों की सूचक है। दुर्भाग्य से चार लघु प्रतिमाओं के ऊपरी भाग खंडित हैं। पांचवीं जो पूर्ण है, अपने दोनों हाथों में प्रज्ज्वलित दीप लिए हए है। बौद्ध प्रतिमाओं में भी नागों का विविध रूपों में चित्रण मिलता है। मथुरा की
भारतीय मूर्ति कला और चित्रकला में लक्ष्मी का चित्रण बहुत प्राचीन काल से मिलता है। सांची और भरहुत की बौद्ध कला में पद्मस्थिता लक्ष्मी की अनेक सुन्दर प्रतिमाएं उपलब्ध हैं। कहीं पर लक्ष्मी को पुष्पित कमल वन के मध्य अवस्थित दिखाया गया है और कहीं उसे त्रिभंगी भाव में लीला-कमल हाथ में ग्रहण किये हुए प्रदर्शित किया गया है। बैठी या खड़ी हुई लक्ष्मी के अगल-बगल सूंड में मंगलघट लिए हुए हाथी अत्यन्त कलात्मक ढंग से, सांची, मथुरा, अमरावती आदि की कला में अंकित मिलते हैं । भारत के बाहर लंका, हिन्दचीन, हिंदेशिया, नेपाल, तिब्बत तथा मध्य एशिया में भी लक्ष्मी की अनेक कलात्मक मूर्तियां मिली हैं।
दुर्भाग्य तथा दरिद्र को दूर करने वाली श्री लक्ष्मी की कल्पना दीपलक्ष्मी रूप में की गई। दक्षिण भारत में दीपलक्ष्मी की विविध कलात्मक कृतियां मिलती हैं। ये प्रायः धातु, हाथीदांत या लकड़ी की निर्मित हैं । दीप को कभी देवी के हाथों में तो कभी सिर के ऊपर दिखाया जाता है । दीप लक्ष्मी की मूर्तियां आज भी लोक कला में पूजी जाती हैं।
राम और कृष्ण के चरित्र भी लोक-कथाओं का माध्यम बड़े रूप में बने । राम कथा को हम ईसवीं चौथी शती में
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एक कलाकृति पर नंद उपनन्द नामक नागों द्वारा बालक सिद्धार्थ का अभिषेक बड़े कलात्मक ढंग से दिखाया गया है। रामग्राम के स्तूप की रक्षा करते हुए नागों का चित्रण भी मथुरा कला में उपलब्ध है । जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ और सुपार्श्व की कई उल्लेखनीय प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं।
कलाकारों ने जलमानवों तथा समुद्र कन्याओं को अपनी कृतियों में स्थान दिया है । न्युनान, लघु एशिया तथा भारत की प्राचीन कला में नरसिंह, सपक्षसिंह. जलंभ, मानवभ्रकर आदि की तरह जलमानवों के भी चित्रण मिलते हैं। जलपरियों या समुद्र कन्याओं को इमारती पत्थरों में प्रायः अलंकरणों के रूप में दिखाया जाता था।
मथुरा से ई० पूर्व प्रथम शती का एक लंबा सिरदल प्राप्त हुआ है । उस पर एक ओर भगवान बुद्ध के मुख्य चिह्नों की पूजा दिखाई गई है। दूसरी ओर इन्द्र अपनी अप्सराओं आदि के साथ गुफा में स्थित बुद्ध के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए जा रहे हैं । सिरदल पर कमलपुष्पों से सुसज्जित (मंगलपट) भी दिखाए गए हैं। कोने पर सुमुखी कन्याओं का आलेखन है। उनका मख से लेकर वक्ष तक का भाग स्त्री का है और शेष मछली का । उनका अंलकृत श्रृंगार दर्शनीय है। वे कर्णकुंडल, एकावली आदि आभूषण धारण किए हुए दिखाई गई हैं।
जैन तथा बौद्ध धर्म के साहित्य में भी अनेक रोचक कथाएं उपलब्ध हैं। इनमें अनेक चमत्कारिक घटनाओं को मनोरम ढंग से पिरोया गया है । तीर्थकरों तथा बुद्ध की महानता को सिद्ध करने के लिए अनेक कथानक उपंवृहित किए गए हैं । उन्हें शिल्पियों ने अपनी कला में अमर किया। जैन धर्म के मूल तत्वों अहिंसा तथा अनेकांतवाद के प्रचारार्थ अनेक पुराण कथाओं की सृष्टि हुई । उन पर न केवल साहित्यिक कृतियां लिखी गई अपितु शिल्पियों, चित्रकारों, नाट्यकारों आदि ने भी उन रोचक कथाओं को अपनी कथाओं में स्थान दिया। गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों की जातक कथाएं भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। उनमें से अनेक कथाएं प्राचीन मर्तिकला तथा चित्र कला में अंकित
हैं। यहां दो जातक कथाओं की चर्चा पर्याप्त होगी। पहली कथा उलूक जातक की है, जो इस प्रकार है--जंगल के पक्षियों ने एक बार मिलकर उल्लू को बहमत से अपना राजा घोषित किया। उसे राजसिंहासन पर बैठाया गया। पर कौवे ने उल्ल का राजतिलक करने का विरोध किया। कौवे को यह आपत्ति थी कि उल्लू का चेहरा भयावना होने के कारण राजा के योग्य वह न था । कौवे की आपत्ति पर उल्लू उस पर झपटा। जान लेकर कौवा भागा और उल्ल उड़ते हुए उसका पीछा करने लगा। राजसिंहासन खाली देखकर उस पर हंस को बिठा दिया गया और अंततः वही पक्षियों का राजा चुन लिया गया।
दूसरी कथा कच्छप जातक की इस प्रकार है: एक बार एक तालाब के सूखने पर उसके सभी जन्तु अन्य जलाशयों में चले गए। दुर्भाग्यवश एक कछुआ कहीं न जा सका। एक दिन उसने उड़ते हुए दो हंसों को देखा। उनसे प्रार्थना की वे उसका उद्धार करें तथा किसी जलाशय में उसे पहुंचा दें। हंसों को दया आई। वे एक मोटी लकड़ी ले आए। उन्होंने कछुओं से कहा कि लकड़ी के मध्य भाग को दृढ़ता से दांतों से दबा लो, उन्होंने कछुवे से यह आश्वासन भी लिया कि मार्ग में वह अपना मुंह नहीं खोलेगा। कछुवे ने यह स्वीकार कर लिया। हंस लकड़ी को अपनी चोचों से दबाकर कछुवे को ले उड़े। कुछ दूर जाने पर बच्चों ने शोर मचाया, कि देखो चिड़िया कछुवे को भगाए लिए जा रही है। यह सुनकर कछुवा आपे से बाहर हो गया। वह बोल उठा मैं उड़ा जा रहा हूं तो तुम लोगों का गला क्यों फटा जा रहा है। इतना कहना था कि कछुवा दम से भूमि पर गिर पड़ा और बच्चों ने डण्डों से उसकी खूब पिटाई की।
बोधगया, मथुरा, मल्हार आदि की लोक कथा में उक्त दोनों जातक कथाओं के मनोरंजक चित्रण उपलब्ध हैं।
मिथकों को बहुलता तथा साहित्य एवं लोक कला में उनके रोचक आलेखन से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में उनका विशेष ध्यान रखा है और लोक जीवन को प्रभावित करने में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है।
अभिमान, दुर्भावना, विषयाशा, ईर्ष्या, लोभ आदि दुर्गणों को नाश करने के लिए ही शास्त्राभ्यास करके पाण्डित्य प्राप्त किया जाता है । यदि पण्डित होकर भी हृदय-भवन में ये दुर्गुण बने रहे तो पण्डित और मुर्ख में कोई भेद नहीं है, दोनों को समान ही जानना चाहिए । पण्डित, विद्वान् या विशेषज्ञ बनना है तो हृदय से अभिमानादि दुर्गुणों को हटा देना ही सर्वश्रेष्ठ है।
-राजेन्द्र सूरि
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शेखावटी में जैन इतिहास
अनुसंधान की आवश्यकता
डॉ. मनोहर शर्मा
राजस्थान के झुंझनूं और सीकर जिलों के सम्मिलित भू-भाग को 'शेखावाटी' कहा जाता है । यहां पिछले समय तक कछवाहा राजपूतों की 'शेखावत' शाखा का शासन रहा, अतः इसका ऐसा नामकरण स्वाभाविक है। मध्यकाल में यह 'वागड' प्रदेश का अंग था और यहां अन्य धर्मावलंबियों के साथ जैनों की भी अच्छी बस्ती थी, जो वर्तमान में अपेक्षाकृत काफी कम है।
ऐसे अनेक प्राचीन उल्लेख प्राप्त हैं, जिनमें शेखावाटी और उसके आमधाम के कई ग्राम-नगरों का संकेत है, जो धार्मिक दृष्टि से जैन समाज के लिए दर्शनीय एवं पूजनीय थे और जहां अच्छी संख्या में श्रावक-समुदाय का निवास था । इस विषय में मर्व-प्रथम खरतरगच्छीय यग-प्रधानाचार्य गर्वावलि : जिनपालोपाध्याय आदि विरचित का निम्न अंश दृष्टव्य है--
“सं० १३७५ वैशाखवद्यष्टम्याम्, नानावदातव्रात-समुद्धृतमर्वपूर्वजकुलेन निजभुजोपाजितचारुकमला-केलिनिवासेन, मंत्रिदलकूलोत्तंगप्रतापसिंहपुत्ररत्नेन, श्री जिनशासनप्रभावनाकरणचतुरेण, सवालसाधार्मिकवत्सलेन, निःप्रतिमपुण्यपण्यशालिना सकलराज्यमान्येन, ठवकुरराज अचल सुश्रावकेन, प्रतापाक्रान्तभूतल पातिशाही श्री कुतुबद्दीन सुरत्राणफुरमाणम् निष्काप्य कुंकूमपत्रिकादानसम्मानादि पूर्वम् श्री नागपुर श्री रूणा श्री कोषवाणा श्री मेड़ता कडुयारी श्री नवहा झुंझणु नरभट श्री कन्यानयन श्री आशिकापुर रोहतक श्री जोगिणीपुर धामैना यमुनापार नानास्थानवास्तव्य प्रभूत सुश्रावक महामेलापकेन प्रारंभिते श्री हस्तिनापुर श्री मथुरा महातीर्थयात्रोत्सवे ।"
उपर्युक्त उद्धरण में नवहा (वर्तमान नवां) झुंझणु, नरभट (वर्तमान नरहड़) एवं खाटू नामक ग्राम-नगरों का उल्लेख विशेष रूप से ध्यातव्य है, जो अद्यावधि किसी रूप में वर्तमान है ।
इसी क्रम में श्री सिद्धसेन सूरि (अपभ्रंश कथाग्रंथ 'विलासवई कहा' वि० सं० ११२३ के रचयिता) की सर्व तीर्थमाला' की निम्न गाथा भी ध्यान देने योग्य है--
खंडिल्ल झिझुंयाणय नराण हरसउर खट्टउएसु । नायउर सुद्धदंतीसु संभरिदेसेसु वंदामि ।। ३५ ।।
इस गाथा में भी शेखावाटी के कपितय प्राचीन स्थानों का सम्मानपूर्ण संकेत है, जो आज भी किसी रूप में अवस्थित है।
कुछ समय पूर्व नरहड़ (प्राचीन नरभट) से दो अति भव्य एवं कलापूर्ण प्रतिमाएं प्राप्त हो चुकी हैं, जिनमें एक कायोत्सर्ग तप करते हुए पंचम तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ की है और दूसरी कायोत्सर्ग तप करते हुए बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ की है। इन प्रतिमाओं के संबंध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० दशरथ शर्मा का वक्तव्य इस प्रकार है--'मतियां अप्रतिम सौन्दर्यमयी हैं । समय संभवतः गुप्तोत्तर काल का है । उसमें दो पंखुड़ियां छोटी और दो लंबी हैं । उष्णीष की बनावट का अपना अलग-अलग व्यक्तित्व है । मुख की सौम्यता, वृषस्कंध और शरीर के अंगप्रत्यंग की सौष्ठवपूर्ण प्राकृतिक घटनाएं सभी दर्शनीय हैं । ये दोनों मूर्तियां कला की दृष्टि से राजस्थान की अमूल्य निधि हैं ।
सन् १९५८ में अपनी ऐतिहासिक शोध यात्रा के अन्तर्गत लेखक ने वर्तमान ग्राम हरस (प्राचीन हर्षपुर) में भैरूजी के मंदिर में एक विशिष्ट प्रतिमा का अवलोकन किया था जो संभवतः कोई जैन प्रतिमा है । प्रतिमा का विवरण इस प्रकार है--
१. 'थमण' अगस्त १९७६ में प्रकाशित
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राजेन्द्र-ज्योति
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"लाल पत्थर का शिलाफलक, जिसकी चौड़ाई ३४ इंच और ऊंचाई ४९ इंच है। यह मूर्ति वटुक भैरव की बतलाई जाती है । यह पद्मासनस्थ है परन्तु इस पर सिंदूर की इतनी मोटी तह चढ़ गई है कि इसका स्वरूप एकदम छिप गया है । प्रधान मूर्ति के दोनों ओर एक-एक उपासिका उत्कीर्ण है। प्रत्येक के ऊपर तीन प्रतिमाएं और भी हैं । इनके ऊपर भी एक-एक मूर्ति दोनों ओर है जो खंडित हो चुकी हैं । इसके बाद ऊपर के दोनों कोनों में चामर झलते हुए हाथी उत्कीर्ण हैं । प्रधान मूर्ति के ऊपर छत्र है । नीचे के भाग में अलंकरण है । प्रधान प्रतिमा की चौड़ाई २५ इंच और ऊंचाई २९ इंच है।
झुंझुनुं जिले में 'सकराय माता एक सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ है । " इससे थोड़ी ही दूरी पर साद' नामक ग्राम है, जिसका हाथ के प्राचीन शिलालेख (वि० सं० १०३०) में 'शंकराणक' नाम में उल्लेख है । 'सकराय माता' स्थान से तीन प्राचीन शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें से एक सं० ७४९ का है । इसके संबंध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा का वक्तव्य इस प्रकार है-
'सबसे पहले पुराना शिलालेख संवत् ७४९ द्वितीय आषाढ़ सुदी २ का है । इसके प्रारंभ में देवीजी की स्तुति है, फिर इस मंदिर के मण्डप बनाने वालों में सबसे पहले धूसर वंश के सेठ यशोवर्धन, उसके पुत्र राम, उसके पुत्र मण्डन तथा धरकट वंश के सेठ मण्डन, उसके पुत्र यशोवर्धन, उसके पुत्र गर्ग आदि के नाम हैं । इन सब सेठों ने मिलकर भगवती शंकरा देवी (शकराय माता ) के सामने का मण्डप अपने पुण्य की वृद्धि के लिए बनाया ।'
इसी शिलालेख के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार श्री झाबरमल शर्मा का वक्तव्य भी ध्यान में रखने योग्य है- "इस शिलालेख के मंगलाचरण का भाग भी बड़े कौतुक के साथ विचारने योग्य है । इसमें गणपति, चण्डिका और धनद् ( कुबेर ) इन तीन देवताओं की प्रार्थना की गई है। इस पर ध्यान देना चाहिए कि यहां गणपति और कुबेर के बीच में चण्डिका को स्थान दिया गया है । निःसंदेह इसको देखकर ओसिया वाले पीपाड़माता के मंदिर की याद आ जाती है । ओसिया वाली प्रतिमाओं में बीच की मूर्ति महिषासुरमदिन की है वह भी का हो रूप है और इसके इधर-उधर दायें-बायें यथाक्रम कुबेर और नगपति है।"
इस प्रसंग में यह तथ्य विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य है कि 'सकराय माता' का भोग नियमत: 'मीठा' ही होता है, जो संभवतः जैन प्रभाव है।
२. 'भारती' (१/२)
३. सकराय मंदिर की बही में मिती माघ सुदी १४, सं० १९९१ को लिखित श्री ओझाजी की सम्मति ।
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अंग
कहना न होगा कि अधिकांश पुराने संदर्भ धर्म-भावना विषयक ही प्राप्त होते हैं, जो जन-साधारण के जीवन के प्रमुख रही है। पंद्रहवीं शती की एक हस्तप्रति में लिखित 'लद्धागर रास' ( बड़गच्छीय रत्नप्रभ सूरि विरचित) का एक प्रसंग भी इस संबंध में ध्यान देने योग्य है, जिसमें भटनेर से निकले हुए एक जैन तीर्थयात्री संघ का विवरण दिया गया है। तीर्थयात्रा हेतु संघ में सम्मिलित होने के लिए संघपति ने अपने सहधर्मियों को निमंत्रण भेजे । उनका वर्णन इस प्रकार है-
साचड़ नंदणु गहगहए जगिहिं धीरू जगसीहु । लागार संघई मिलए, उवएस वंसि नह दीहु ।।१९।। नरहड़ नव्हा वर तयरे, छापर पमुह सुणमि । कुंकुंपत्री रंगि मोकलए, लद्धागरू नियनामि ||२०|| वोहिथ शाह तनूजु पहि, गुणि गरूअउ गोइंदु | संचाहि पहिल मिलए बंदण रिसह जिगं ।।२१।। आराम, वजूभा सुप सारंगु
संघाहिव संधिहि मिलए, दूगड़ वंसि सुचंगु ॥ २२ ॥ नरहड पुरवर मंडराउ, नेमनु महिमानंतु। महिपति छापरि संमिलिउ, वे बड़ बहु विह वित्तु ||२३||
इस उद्धरण में भी शेखावाटी प्रदेश के नरहड़, नवहा, आदि प्राचीन स्थानों को ससम्मान स्मरण किया गया है। यहां तक कि पन्द्रहवीं शती में विरचित जैन कवि हरिकलम की वागढ़ देश तीर्थमाला' तो इस प्रदेश की पुण्यमयता का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्घोष है, जिसका प्रारंभिक अंश इस प्रकार है-'जिण नमिय सुमंगल वागड़ मण्डल, भाविहि निम्मल ते थुणउ । अरिहंत आहउ पुण्य विसाहउ, लीजइ लाहउ' भव तणउ ॥ १ ॥ बागड़ सिहि झंझणपुर वर, सिखर बहु सोहई जिण मंदिर, नितु जिण गावई नारे । बहु चिर काल तणा जिण बिम्ब, प्रकट हुआ संघिहि अविलंब, आण्या नगर मझारे ||२|| उछव करि जिन मंदिर थापई, जिणवरमहिमा दस दिसि व्यापइ, दीप जिम जग सूरो ।
अतिबालभव आदि आदिहि अरच संत नेमि पास जिण वीरो ॥३॥
श्रीमालह सीतल जितु सोहद, नियम रूप भीरो,
नवहा नगरिहिं जिण चवीसमु, खंडेलहू श्री संति जिणुत्तमु, बतुंह गामि जिण वीरो ॥४॥
केपुरिहि पद्मप्रभ स्वामी रथवासइ लाइणु सुठामी, रिसह पमुह वंदेसो |
४. वरदा ( गांगियासर) भाग २
५. वरदा ( वर्ष १६, अंक १ जनवरी-मार्च १९७३ ) में श्री अगरचंदजी नाहटा द्वारा प्रकाशित ।
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छापर पुरि जिणु महिमावन्त, फटिक रयण कंतिहि झलकंत, चंदपणमेस ॥५॥
रणातु फतिरिहि चंद पास वीसी जिन पप्प डसणाउ ससिकंति ।
प्रणम संविनाह भानिहि, लालुदई हदरेर रंगिह आदि जिण बिम्बह नमंति || ६ ||
इस उद्धरण में शेखावाटी प्रदेश के अनेक छोटे-बड़े ग्रामनगरों का उल्लेख है, परन्तु नरहड़ (प्राचीन नरभट ) की कोई चर्चा नहीं है। विक्रम की सोलहवीं शती के प्रारंभ में या इससे पूर्व नरहड़ पठानों के हाथ में जा चुका था । वहां के वैष्णव मंदिर की कतिपय प्रतिमाएं, पाषाणखंड एवं शिलालेख वर्तमान में बिरलासंग्रहालय पिलानी में सुरक्षित हैं। इसी प्रकार इस गीतिका के प्रारंभ में अन्य स्थानों से लाकर झुंझुनु में स्थापित की गई जिनप्रतिमाओं की चर्चा है, वे आज भी सुरक्षित हैं ।
(जैनधर्म में स्त्रियों के अधिकार
जिस प्रकार स्वार्थी पुरुष स्त्रियों के प्रति ऐसे निन्दा सूचक श्लोक रच सकते हैं उसी प्रकार स्त्रियां भी यदि ग्रन्थरचना करती तो वे भी यों लिख देतीं कि
आपदामकरो नारी नारी नरकवर्तिनी । विनाशकारणं नारी नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥
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कुछ जैन आधुनिक ग्रन्थकारों ने भी स्त्रियों के प्रति अत्यन्त कटु और अलोभन बातें लिख दी है। कहीं उन्हें 'बिष बेल' लिखा है तो कहीं 'जहरीली नागिन" लिख डाला है। कहीं उन्हें "विष बुझी कटारी" लिखा है तो कहीं "दुर्गुणों की खान" लिख दिया। मानो इसी के उत्तर स्वरूप एक वर्तमान कवि ने निम्नलिखित पंक्तियां निखी हैं-
पुरुषो विपदां खानिः पुमान् नरकमद्वतिः । पुरुषः पापानां मूलं पुमान प्रत्यक्षराक्षसः ।
वीर बुद्ध अरु राम कृष्ण से अनुपम ज्ञानी । तिलक, गोखले, गांधी से अद्भुत गुण खानी ॥ पुरुष जाति गर्व कर रही है जिन के ऊपर । नारि जाति थी प्रथम शिक्षिका उनकी भूपर ॥ पकड़ एक उंगली हमको चलना सिखलाया । मधुर बोलना और प्रेम करना सिखलाया ।
उपर्युक्त सभी उद्धरण शेखावाटी और उसके आसपास के भू-भाग में निवास करने वाले जैन समाज की समृद्धि और धर्मप्रभावना पर अच्छा प्रकाश डालते हैं, परन्तु कालान्तर में यहां की जैन आबादी धीरे-धीरे व्यापार-व्यवसाय के लिये बड़ी संख्या में बाहर चली गई और वर्तमान में यह संख्या अधिक नहीं है । फिर भी शेखावाटी के जैन समाज का प्राचीन गौरव असाधारण रूप से महत्वपूर्ण है। अतः इस संबंध में योगनायक अनुसंधान कार्य की आवश्यकता है। यहां के प्राचीन स्थानों में, जिनकी अनेक चर्चा की गई है, जैन इतिहास की काफी सामग्री मिल सकती है । यहां पुराने मंदिरों एवं उपायों में विभिन्न महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी मिल सकते हैं, जिनके सम्बन्ध में अभी तक खोज नहीं हुई है । आशा है, विद्वत् समाज इस दिशा में सचेष्ष्ट होगा ।
६. वरदा (भाग १५ अंक २ अप्रैल-जून १९७२ में श्री अगरचंदजी नाहटा द्वारा प्रकाशित ।
पृष्ठ ८० का शेष)
राजपूतिनी वेष धार मरना सिखलाया । व्याप्त हमारी हुई स्वर्ग अरु भू पर माया ॥ पुरुष वर्ग खेला गोदी में सतत हमारी । भले बना हो सम्प्रति हम पर अत्याचारी ॥ किन्तु यही सन्तोष हटी नहीं हम निज प्रण से पुरुष जाति क्या उऋण हो सकेगी इस ऋण से ।।
भगवान महावीर के शासन में
भगवान महावीर के शासन में महिलाओं के लिये बहुत उच्च स्थान है। महावीर स्वामी ने स्वयं अनेक महिलाओं का उद्धार किया था । चन्दना सती को एक विद्याधर उठा ले गया था, वहां से वह भीलों के पंजे में फंस गई। जब वह जैसे-तैसे छूट कर आई तो स्वार्थी समाज ने उसे शंका की दृष्टि से देखा । बाद में एक जगह उसे दासी के स्थान पर दीनतापूर्ण स्थान मिला। उसे सब तिरस्कृत करते थे । ऐसी स्थिति में भी भगवान महावीर ने उसके हाथ से आहार ग्रहण किया और वह भगवान महावीर के संघ में सर्वश्रेष्ठ आर्थिक हो गई।
इस कथांश से भी सिद्ध है कि जैन धर्म में महिलाओं को उतना ही उच्च स्थान प्राप्त है जितना कि पुरुषों को ।
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रामायण की लोकप्रियता
वर्द्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
यदि भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति में किसी ग्रंथ कोअधिकतम समादर मिला है तो वह रामायण को ही मिला है। रामायण हर भाषा में और हर संस्कृति में किसी न किसी रूप में पाई जाती
तामिल भाषा में कंब कवि द्वारा रचित कंब रामायण प्राचीन रामायण है। इसके अतिरिक्त जितनी भी रामायण हैं, वे सब कंब रामायण के अनुसार है।
वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीन मानी जाती है । जैन धर्म में पउमचरिय सबसे प्राचीन है। पउमचरिय के बाद, रविषेण ने संस्कृत में पद्मचरित-पद्मपुराण लिखा । इसी प्रकार उत्तरपुराण में रामायण का संक्षिप्त वर्णन मिलता है । परन्तु उत्तरपुराण और पद्म पुराण की कथाओं में थोड़ासा अंतर है। हरिवंश पुराण में रामायण की कथा संक्षेप में मिलती है । इसमें रामायण के मुख्य अंशों का विवेचन है। रामचन्द्र जैन धर्मानुसार मोक्ष गये। राम ने अपने जीवन में मोह-रागादि को किस प्रकार प्रश्रय दिया एवं अंतिम समय में किस प्रकार इनसे विरत हुवे यह देखने लायक है । इससे मानवीय जीवन का रहस्य मालूम होता है। रामायण के लोकप्रिय होने का यही कारण है।
रामायण के सभी मुख्य पात्र महान हैं। उनका जीवन आदर्श होता है । वे जहाँ जाते हैं, वह तीर्थस्थान बन जाता है । वे जो कुछ करते हैं वह आदर्श एवं अनुकरणीय बन जाता है।
कन्नड़ भाषा में रामायण की रचना हुई । कवि नागेन्द्र ने अभिनव पंप की रचना की जिसे आदि पंप का रूपान्तर माना जाता है । इस प्रसिद्ध ग्रंथ के अतिरिक्त अन्य रामायण भी कन्नड़ में लिखी गई हैं । मुनिश्री कुमुदचन्द्र की कुमुदेन्दु, चन्द्रसागर वर्णी की जिन रामायण, और एक अन्य लेखक की नोरवे रामायण काफी लोकप्रिय है।
तेलगु भाषा में भी अनेक लेखकों ने रामायण को लिपिबद्ध किया है। उनमें मुख्यत: राघवाभ्युदय, तिकुनाकृत रामायण, संक्षेप रामायण, भास्कर रामायण, रंगनाभ्योत्तर रामायण, कल्पवृक्ष आदि का नाम उल्लेखनीय है।
असमिया भाषा में श्री रामचन्द्र का आदर के साथ उल्लेख है। गीति-रामायण और लोक मानस सुप्रसिद्ध कृतियाँ हैं ।
मलयालम भाषा में कन्नास रामायण और केरल रामायण प्राचीन एवं लोकप्रिय रचनाएं हैं।
संस्कृत में रामचरित-वेदों में ऋग्वेद बहुत प्राचीन ग्रंथ माना जाता है इसमें भी रामचन्द्र का उल्लेख आता है। योग वासिष्ठ में विशेषतः राम का वर्णन किया गया है । आदि कवि वाल्मीकि ने संस्कृत में रामायण की रचना की। भवभूति, क्षेमेन्द्र आदि ने रामायण की रचना की। इसी प्रकार रामचरित, जानकीहरण, रामायणमंजरी, अभिषेक नाटक, उत्तररामचरित बाल-रामायण, आदि अनेक नामों से विभिन्न कवियों ने रामायण की रचना की है।
अन्य भाषाओं में रामायण-पंजाबी, बंगाली, गुजराती, हिन्दी, ब्रज, काश्मीरी, मराठी, उड़िया में भी रामायण है। हिन्दी में गोस्वामी तुलसीदासजी की रचना प्रसिद्ध है। मराठी में मोरोपन्त ज्ञानेश्वर की, कृतियाँ प्रसिद्ध हैं । संहिता भाष्यों में, अध्यात्म एवं पुराणों में भी इस पवित्र चरित को स्थान मिला है। संहिता शास्त्रों में हिरण्यगर्भ संहिता, शुकसंहिता, महाशंभु संहिता, ब्रह्मसंहिता, सदाशिवसंहिता, वसिष्ठसंहिता, अगस्त्यसंहिता, आदि में रामचरित का उल्लेख है। कल्किपुराण, पद्मपुराण, कूर्मपुराण, धर्मपुराण, वैवर्तपुराण, मार्कण्डेय पुराण, वाराहपुराण, वामनपुराण, स्कंदपुराण, आदि पौराणिक साहित्य में भी इस कथा की विविध रूप में चर्चा है।
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रामायण की विशेषता-इतनी लोकप्रिय होने से इसमें कुछ विशेषता होनी चाहिये । रामायण के प्रमुख पात्र राम, लक्षमण, सीता व रावण हैं । इनकी महानता का दिग्दर्शन कराने के लिये, रामायण के कुछ प्रसंगों का यहां उल्लेख करेंगे।
१. रावण शान्तिनाथ चैत्यालय में बहुरूपिणी विद्या को सिद्ध कर रहा था हनुमान, सुग्रीव आदि ने रामचन्द्रजी से कहा कि रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है और अगर वह उसने सिद्ध करली तो रणभूमि में वह अनेक रूप धारण करके आवेगा जिससे असली रावण को पहचानना मुश्किल हो जावेगा और हम युद्ध में हार भी सकते हैं । अतएव हमें आज्ञा देवें कि हम विघ्न डालें जिससे वह विद्या सिद्ध नहीं कर सके। रघुवीर ने बड़े शान्त स्वर में कहा कि रावण धर्मस्थान में आराधना कर रहा है, उसमें विघ्न डालने की मैं स्वीकृति नहीं दे सकता। भले ही इसके फलस्वरूप मैं युद्ध हार जाऊं और सीता को पाने से वंचित रह जाऊं। ऐसे थे रघुवीर । उनकी सात्विक वृत्ति के आगे किसी की भी नहीं चली।
२. समुद्र के किनारे राम आराधना कर रहे थे कि अचानक विभीषण वहां आ गया और अपनी आप बीती सुनाने लगा। रामचन्द्र ने पूरी बात सुन कर लक्ष्मण से कहा कि समुद्र से जल लाकर इनका लंका का राज्याभिषेक कर दो। सभी स्तब्ध रह गये। लक्ष्मण भी कुछ हिचके, पर राम के पुनः कहने पर उन्होंने अभिषेक कर दिया । तब हनुमान ने कहा कि आपने विभीषण की परीक्षा लिये बिना ही उसका राज्याभिषेक कर दिया। रामचन्द्र ने उत्तर दिया कि कोई अकस्मात् आता है और मेरी शरण स्वीकार करता है तो उसको अभयदान देना मेरा कर्तव्य है । हनुमान के पुनः पूछने पर कि अगर कभी रावण भी आपकी शरण में आ जाय तो? राम ने मुस्कराते हुवे कहा कि लंका का राज्य तो विभीषण को दे चुका अब अगर रावण आता है तो अयोध्या का राज्य तैयार है। इतने उदात्त थे, वे महापुरुष, दूरदर्शी भी थे। उन्होंने भविष्य को ताड़ लिया था।
३. सीता के अपहरण से राम बहुत दुखी हो गये थे । सीता को ढूंढते, वह बन-बन फिर रहे थे। रास्ते में उन्हें कुछ आभूषण मिले, राम ने लक्ष्मण को कुंडल दे कर पूछा कि लक्ष्मण क्या ये कुंडल सीता के हैं ? लक्ष्मण ने इनकार किया कि मैं नहीं जानता तो राम ने कंकण का टुकड़ा देकर उमे पहचानने को कहा, तब भी लक्ष्मण ने वही उत्तर दिया। राम को शंका हो गई क्योंकि राम ने उन आभूषणों को पहचान लिये थे। इन्हें सीता ने इस कारण गिरा दिये थे कि कभी राम को मिल गये तो वे जान जावेंगे कि सीता किधर गई है। भाई की शंकाशील मुद्रा देख कर लक्ष्मण ने कहा कि भाई मैं तो प्रतिदिन सीतामाता के चरण छूता था, आपके पास उनके पांव की कोई वस्तु हो तो बतलावें । मैं पहचान लूंगा। क्या ऐसा शील-संवर्धन आज के नवयुवकों में पाया जाता है ?
४. शंभुकुमार की माता रामचन्द्र और लक्ष्मण के रूप को देख कर उनकी ओर आष्ट हो गई । परन्तु राम और लक्ष्मण उसके
हाव-भाव व उन्हें मोहित करने के प्रयासों से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुवे । आखिर अपूर्व सुन्दरी उस रावण-भगिनी को निराशा ही हाथ लगी।
५. शभुकुमार सूर्यहास खड्ग को सिद्ध करने के लिये १२ वर्षों से तपस्या कर रहा था । आखिर उसकी तपस्या सफल हुई और खडग आकाश से नीचे उतरने लगा । शंभुकुमार उसे ले इसके पहले लक्ष्मण ने उसे अपने अधिकार में कर लिया और उसकी तेज धार की परीक्षा करने लिये बांस के झंड पर उसे चला दिया । न केवल वह बांस का झुंड ही कट कर गिरा बल्कि पास खडा हुवा शंभुकुमार भी उसकी चपेट में आ गया और उसके दो टुकड़े हो गये। फलितार्थ यह हुवा कि १२ वर्ष को तपस्या के बाद प्राप्त खड्ग को वह अपने कब्जे में नहीं रख सका और वह अनायास ही लक्ष्मण को प्राप्त हो गया । यह कर्म को विचित्रता ही है । किस समय कौनसा कर्म उदयमान हो जाय यह कहा नहीं जा सकता।
६. नवमास की गर्भिणी सीता को किसी लोकोपवाद के भय से रामचन्द्र ने छोड़ने का तय कर लिया। उनका दोहला था कि वे तीर्थयात्रा करेंगी। सो तीर्थयात्रा कराने के बहाने सीता को ले जा कर वन में छोड़ आने के लिये राम ने लक्ष्मण को कहा । पर लक्ष्मण निरपराधिनी सीतामाता को दंड देने को राजी नहीं हवा । तब राम अपने सेनापति को आदेश देते हैं कि सीता को तीर्थयात्रा के बहाने ले जा कर दंडकारण्य में छोड़ आओ । सेनापति सीता को लेकर दंडकारण्य जाता है और वहां सीता को उतार देता है। जब सीता यह कहती हैं कि यह तो तीर्थस्थान नहीं है तो रोता हुवा सेनापति कहता है कि अब यह जंगल ही आपके लिये तीर्थस्थान है क्योंकि लोकोपवाद के भय से स्वामी ने आपको त्याग दिया है। सीतादेवी सोचती है कि मेरे अशुभ कर्मों का उदय हुआ है, उसका फल तो मुझे भुगतना ही पड़ेगा। वापस लौटते हवे सेनापति को वह एक संदेश राम के लिये देती है कि आपने लोकोपवाद के भय से मुझे तो त्याग दिया परन्तु इसो लोकोपवाद के भय से कहीं धर्म को मत छोड़ देना । प्रजापालन में ढील न हो । यह उस सती का चरित्र है जिसने आपत्ति के समय भी पति-हित का ध्यान रक्खा । वास्तव में वह परम शीलवती थी।
७. लव-कुश की उत्पत्ति हो गई। युद्ध के बहाने से नारद ने रामचन्द्र से उनको मिलाया । पति के चरण छू कर सीता भी राम के पास खड़ी हो गई । राम ने कहा देवी, दुर खड़ी रहो, अभी तुम्हारी परीक्षा नहीं हुई है । सीता के सिर पर तो पहाड़ टूट पड़ा। सोचने लगी कि दूसरों को शंका हो तो हो, परन्तु मेरे पतिदेव को भी मेरे शोल पर शंका है । उ, उसो समय संसार से वैराग्य हो गया, परन्तु बोली कि परीक्षा ले लें। ___ दूसरे दिन विशाल अग्निकुंड रचा गया । सीता को उसमें प्रवेश करना था। अपार भीड़ एकत्रित हो रही थी। तभी आकाश में जाते हुवे दो देवों ने इस भीड़ को देगा। जब उन्हें पता लगा कि एक सती के शोल की परीक्षा होने जा रही है तो उन्होंने सोचा कि सती को परीक्षा में सफल होना ही चाहिये, नहीं तो शील का महत्व और महिमा संसार से उठ जाएगी।
(शेष पृष्ठ १३३ पर)
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अमरीकी संग्रहालयों एवं निजी संग्रहों में
जैन प्रतिमाएं
डा० ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा
अब से लगभग ५० वर्ष पूर्व जब सुप्रसिद्ध विद्वान डा. आनंद कुमारस्वामी ने भारतीय कला का सही ढंग से मूल्यांकन संसार के सामने रखा तभी से योरोप एवं अमेरिका के संग्रहालयों एवं अन्य अमीर लोगों में भारतीय कलातियों को प्राप्त करने की होड़ सी लग गई है। इसके फलस्वरूप वहां के संग्रहालयों में अलगअलग ढंग से भारतीय कक्षों की भी स्थापना हुई जिसमें पाषाण, कांस्य, मृण्यमय, काष्ठ, हाथी-दांत की मूर्तियों के अतिरिक्त सुन्दर लघ चित्रों को भी प्रदर्शित किया गया । अमेरिका के लगभग प्रत्येक संग्रहालय में अन्य धर्मों के देवी-देवताओं के साथ साथ जैन तीर्थंकरों एवं यक्ष-यक्षणी आदि की प्रतिमायें भी विद्यमान हैं जो जैन धर्म एवं कला के विद्यार्थियों के अध्ययन के लिये बड़ी उपयोगी हैं। प्रस्तुत लेख में हम ऐसे ही संग्रहालयों एवं वहां के निजी संग्रहों में संग्रहीत कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमाओं का संक्षेप में वर्णन करेंगे । बम्बई निवासी श्री नसली हीरामानिक अब से काफी समय पूर्व अमरीका में बस गये थे और वहां उन्होंने देश विदेश की कलाकृतियों का बड़ा अच्छा संग्रह कर लिया । इनकी पत्नी श्रीमती एलिस 'मानिक को भी अपने पति के साथ प्राचीन कलाकृतियों के संग्रह में रुचि थी। इनके संग्रह में तीन जैन मूर्तियां हैं जिनका उचित स्थान पर वर्णन करेंगे । इनमें सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति तेवीसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की है । धातु की ९ वीं शती ई० की यह कलात्मक मूर्ति गुजरात में अकोटा से प्राप्त समकालीन मूर्तियों से काफी साम्यता रखती है। प्रस्तुत मूर्ति में पार्श्वनाथ को एक सुन्दर सिंहासन पर ध्यान मुद्रा में बैठे दिखाया गया है। इनके शीष के ऊपर बने सर्प के सात फणों में से अब केवल तीन ही शेष बचे हैं। अन्य चार टूट गये हैं पार्श्वनाथ के वक्ष पर श्री वत्स चिन्ह है। इस त्रितीर्थी में मख्य मति के दोनों ओर सम्भवतः महावीर एंव आदिनाथ की छत्र के नीचे कायोत्सर्ग मद्रा में प्रति
मायें हैं और प्रत्येक के पीछे सुन्दर प्रभा-मण्डल है । सिंहासन की दाहिनी ओर यक्ष सर्वानुभूति की गजारूढ़ एंव बाईं ओर यक्षिणी अम्बिका के दाहिने हाथ में आम्र लुम्बी है और वह बाएं हाथ से गोद में लिए बालक को पकड़े हुए है। सिंहासन पर सामने धर्म चक्र के दोनों ओर एक-एक मृग बैठे दिखाए गए हैं और किनारों पर चार-चार ग्रहों का अंकन है । इसी से साम्य रखती एक मूर्ति बम्बई के प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में प्रदर्शित है (नं. ६७०८)।
पार्श्वनाथ की एक अत्यन्त कलात्मक मूर्ति एवरी ब्रन्डेज संग्रह में भी स्थित है । इसमें वह सात फणों के नीचे जिनके ऊपर त्रिक्षत्र बना है, एक पद्मासन पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं । प्रशांत मुद्रा, लम्बे कान, आजानुबाहु आदि विशेषताओं जिनका वराहमिहिर ने अपनी 'बृहत्संहिता' में उल्लेख किया है, को कलाकार ने बड़ी सजीवता से दर्शाया है। नग्न होने के कारण प्रतिमा दिगम्बर सम्प्रदाय की प्रतीत होती है । मूलमूर्ति के पैरों के समीप एक एक चंवरधारी सेवक तथा उनके ऊपर गज शार्दुल बने हैं । जिनके शीष के दोनों ओर एक-एक हंस व बादलों में उड़ते मालाधारी गन्धर्व प्रदर्शित किए गए हैं। मूर्ति की पीठिका पर कमल नाल के पास नाग व नागी, उपासक तथा नेवैद्य आदि का भी चित्रण है। यह मूर्ति बिहार में पाल शासकों के समय ११ वी शती ई० में बनी प्रतीत होती है।
क्लीवलेण्ड म्युजियम आफ आर्ट में पार्श्वनाथ की एक दुर्लभ मूर्ति प्रदर्शित है । मध्य भारत में लगभग १० वीं शती में निर्मित इस मूर्ति में कमठ अपने साथियों सहित पार्श्वनाथ पर आक्रमण करता दिखाया गया है । प्राचीन जैन ग्रंथों में वणित कथा के अनुसार जब पार्श्वनाथ संसार त्यागने के बाद तपस्या में लीन थे तब कमठ ने उन्हें तपस्या करने पर अनेक प्रकार की बाधाएं डाली, उसने उन पर पर्वत शिलाएं फैकी, घोर वर्षा करी तथा सिंह, बिच्छू
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बेताल आदि से भी डरवाने का प्रयत्न किया । परन्तु वह घोर तपस्या में अडिग रहे । अतः बाद में कमठ ने लज्जित होकर क्षमा याचना की । इस प्रकार की अन्य प्रतिमायें प्रायः दुलर्भ हैं। बिहार से मिली एक ऐसी मूर्ति विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट संग्रहालय लंदन तथा अथूणा से मिली, अजमेर संग्रहालय में प्रदर्शित है । बादामी तथा अलोरा में भी ऐसी अन्य मूर्तियां अभी भी देखी जा सकती हैं।
क्लीवलैण्ड संग्रहालय की इस आदमकद मूर्ति (नं० ६१, ४१९) में नग्न पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं । इसमें इनके शीर्ष पर बने बड़े सर्प फणों के ऊपर गन्धर्व युग्म, शंख वादक व मालाधारी दिव्य बने हैं। मूर्ति के दोनों ओर धरणेन्द्र-नाग की रानियों अर्थात् नागिनों के चित्रण हैं जब कि जिनके शीर्ष के ऊपर स्वयं वह फण फैलाए कमठ द्वारा की जाने वाली वर्षा तथा पत्थरों से तीर्थंकर की रक्षा कर रहा है। तीर्थंकर की मूर्ति के समीप चंवरधारी सेवक तथा चार अन्य नागियों का सुन्दर अंकन किया गया है।
श्री जैसन बी. ग्रोसमेन के संग्रह में बलए पत्थर का बना एक बड़ा सुन्दर जिन मूर्ति का सिर है। इसमें उनके घुघराले केशों को बड़ी सुन्दरता से दर्शाया गया है । प्रस्तुत शीर्ष में माथे पर मंगलकारी चिह्न बना है, परन्तु अन्य विशेषताओं के अभाव में किसी विशेष तीर्थकर मूर्ति से इसका संबंध बताना कठिन कार्य है । यह शीर्ष राजस्थान की लगभग १० वीं शती ई. कला का उदाहरण माना जा सकता है।
उपर्युक्त शीर्ष की लगभग समकालीन एक तीर्थकर प्रस्तर प्रतिमा श्रीमती एवं श्री हेरी लेनार्ट के संग्रह में भी है। इसमें तीर्थकर ध्यान मुद्रा में एक सिंहासन पर विराजमान हैं। मूर्ति के वक्ष पर श्री वत्स चिह्न बना है परन्तु उनका लाक्षन खण्डित हो जाने के कारण उनकी ठीक पहचान करना कठिन है । मूर्ति के बांई ओर एक चंवर पकड़े सेवक खड़ा है। जबकि दाहिनी ओर का सेवक खण्डित है। प्रस्तुत मूर्ति का बांई ओर का ऊपरी भाग भी टूट गया है और दाहिनी और एक मालाधारी गन्धर्व तथा गज ही शेष बचा है। लाल बलुए पत्थर की यह मूर्ति सम्भवतः मध्यप्रदेश में लगभग ९ वीं शती ई. में बनी होगी।
बोस्टन के कला संग्रहालय में उत्तरी भारत में १० वीं सदी ई. में निर्मित एक तीर्थकर मूर्ति का ऊपरी भाग प्रदर्शित है (नं. ५५५११) । इस दो फीट व तीन इंच ऊंची मूर्ति को स्व. डॉ. आनन्द कुमार स्वामी ने भ्रांति से महावीर की प्रतिमा बताया है जो उचित नहीं है। इसमें उनके केश ऊपर की ओर बंधे हैं तथा जटा दोनों ओर कन्धों पर पड़ी हैं जिससे स्पष्ट है कि यह आदिनाथ की मूर्ति है। मूर्ति पर्याप्त रूप से खण्डित होने पर भी कला का अनुपम उदाहरण है । मूर्ति के शीर्ष के दोनों ओर बादलों में उड़ते हुए मालाधारी गन्धर्व बने हैं और सबसे ऊपर त्रिछत्र के ऊपर एक दिव्य वादक मृदंग बजाकर आदिनाथ की कैवल्य प्राप्ति पर हर्ष ध्वनि करता प्रदर्शित किया गया है।
इसी संग्रहालय में मैसूर से प्राप्त जिन की ९ वीं १० वीं शती ई. की कांस्य प्रतिमा भी है, जिसमें उनको ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है। दक्षिण भारत की अन्य जैन प्रतिमाओं की भांति इस मूर्ति के वक्ष पर श्री वत्स चिह्न का अभाव है । मूति सुडौल है एवं कला की दृष्टि से भी सुन्दर है । इसी से साम्य रखती तीर्थंकर की ध्यान मुद्रा में एक अन्य परन्तु पाषाण मूर्ति जिसे विनिमय में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली से प्राप्त किया गया था, फिलाडेल्फिया म्यूजियम आफ आर्ट के भारतीय कक्ष में सामने ही प्रदर्शित किया गया है। इसमें भी लांक्षन नहीं मिलता है यह चौल-कालीन ११ वीं शती ई. की कृति है।
मध्यकाल में राजस्थान और गुजरात में जैन धर्म का काफी प्रावन्य होने के कारण वहां पाषाण एवं धातु को अगिनत जैन मूर्तियों का भी निर्माण हुआ। ऐसी मूर्तियां अनेक संग्रहालयों के अतिरिक्त अभी भी जैन मन्दिरों में पूजा हेतु प्रतिस्थापित हैं। अमेरिका की अंजलि गैलरी के संग्रह में वि. सं. ११११ व १०५४ ई. की एक कांस्य प्रतिमा में तीर्थकार को एक ऊंचे सिंहासन पर ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है। उनके दोनों ओर एक-एक चंवरधारी सेवक खड़ा है तथा सिंहासन के दोनों ओर यक्ष एवं यक्षी बैठे हैं। सामने पीठिका पर मध्य में धर्म चक्र को घेरे मृग एवं दाहिनी ओर चार व बांई ओर पांच ग्रहों का अंकन है। लांक्षन अस्पष्ट है। ऊपरी भाग में मालाधारी गन्धर्व तथा निक्षत्र पर शंख बजाते हुए एक दिव्य गायक बना है । तीर्थकर की आंखें, श्री वत्स, व सिंहासन के कुछ भाग पर चांदी जड़ी हुई है।
पश्चिमी भारत से प्राप्त वि.सं. १५०८ (१४५१ ई.) की एक मूर्ति श्री और श्रीमती बोव विल्लोधबाई के संग्रह में भी है। परन्तु इसमें भी लांक्षन का अभाव होने से मूर्ति की ठीक पहचान कर पाना कठिन है। इस पंचतीर्थी मूर्ति में मूल प्रतिमा के दोनों ओर एक-एक तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रा में व उनके ऊपर एक अन्य तीर्थकर ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है। अन्य बातें लगभग उपर्युक्त वणित मूर्ति जैसी ही हैं। ऐसी ही एक अन्य जिन पंचतीर्थी श्री जेसन बी. ग्रोसमेन के पास भी है। मति के पीछे उत्कीर्ण लेख से विदित होता है कि इसका निर्माण वि.सं. १५१६ (१४५९ ई.) खुदा हुआ है इसमें भी आंखें एवं श्री वत्स आदि के स्थान पर चांदी का प्रयोग हुआ है।
लास एंजीलिम काउन्टी म्युजियम आफ आर्ट, में भगवान विमलनाथ की पंचतार्थो प्रर्दाशत है। मूर्ति के पृष्ठ भाग पर तीर्थंकर का नाम विमलनाथ तथा उसका निर्माण काल वि.सं. १५८७ (१५३० ई.) खुदा हुआ है । विमलनाथ का लांक्षन शुकर उनके आसन के नीचे बना है तथा सिंहासन के दोनों ओर एक-एक खड़े तीर्थकर के अतिरिका एक-एक चंवरधारी सेवक भी बना है और उनके ऊपर एक-एक अन्य तार्थ कर ध्यान मुद्रा में निर्मित है। सामने पोठिका पर शांति-देवी के दोनों और नवग्रहों का चित्रण है।
अमेरीका में भारत से प्राप्त कुछ जैन देवी अम्बिका की प्रतिमाएं भी पहुंच गई हैं। ऐसी मूर्तियों में संभवतः सबसे प्राचीन प्रतिमा स्टेनदहल गैलरी में सुरक्षित है । उड़ीसा से प्राप्त लगभग
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१० वी शती ई. में निर्मित हुई इस मति में अम्बिका को एक आमों से लदे वृक्ष के नीचे द्विभंग मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। इनके दाहिने हाथ में एक आम्रलुम्बि है और बांए हाथ से वह एक नन्हें बालक को पकड़े हुए है । इनके दाहिनी ओर भी एक बालक अपने दाहिने हाथ में कुछ लिए खड़ा हुआ है। श्री पुराण में अम्बिका के इन दो पुत्रों के नाम सुभेकर तथा प्रेभंकर मिलते हैं । देवी ने सुन्दर मुकुट, हार, कंगन व साड़ी पहिन रखी है। आम्र वृक्ष के ऊपर तीन तीर्थंकरों की ध्यानस्थ मूर्तियां हैं। देवी का वाहन सिंह सामने बैठा दिखाया गया है। यह मूर्ति प्रस्तर कला का श्रेष्ठ उदाहरण है।
उत्तर प्रदेश में झांसी जिले के देवगढ़ नामक स्थान से प्राप्त अम्बिका की एक पाषाण प्रतिमा एवरी बन्डेज संग्रह में भी देखी जा सकती है । त्रिभंग मुद्रा में खड़ी इस मूर्ति में उनके दोनों दाहिने हाथ खण्डित हैं परन्तु पैरों के समीप बने आमों के गुच्छे से प्रतीत होता है कि वह दाहिने निचले हाथ में आम्र लुम्बि पकड़े थी। ऊपर का बांया हाथ भी खण्डित अस्पष्ट पदार्थ पकड़े है और साथ वाले निचले हाथ में वह एक बालक को सम्हाले हुए है । इस मूर्ति में भी आम्रवृक्ष के ऊपर तीन तीर्थंकर ध्यान मुद्रा में विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त इनके दोनों ओर भी एक-एक शीर्ष रहित तीर्थकर की ध्यान मुद्रा में मूर्ति बनी है। इनके पैरों के पास एक-एक सेविका पूर्ण घट लिए दोनो ओर खड़ी हैं। दाहिने पैर के पास इनका द्वितीय पुत्र खड़ा है व बाए पैर के पास इनका वाहन सिंह बैठा हुआ है। देवी ने सुन्दर मुकुट, कोकुर, कुण्डल, हार, माला, साड़ी व पादजालक आदि धारण कर रखे हैं। प्रस्तुत मूर्ति चन्देल कला की ११ वीं शती ई. का उत्कृष्ट उदाहरण है।
पाषाण प्रतिमाओं के अतिरिक्त अम्बिका की दो कांस्य मूर्तियां भी अमेरीका के संग्रहों में सुरक्षित हैं। इनकी प्रथम मूर्ति जो मैसूर, में १० वी ११ वी सदी ई. में बनी लगती है एक पद्म पीठ पर दिवभंग मुद्रा में खड़ी है। इनके भी दाहिने हाथ में एक आम्र-लुम्बि है व बांया हाथ अपने पुत्र के शीर्ष के ऊपर रखा है। इनका द्वितीय पुत्र दाहिनी ओर खड़े एक सिंह पर सवार दिखाया गया है। देवी के शीर्ष के ऊपर आम का वृक्ष है, जिस पर बहुत से आम लटकते हुए दिखाए गए हैं। और उसी के ऊपर जिन का ध्यानमुद्रा में अंकन हुआ है। प्रस्तुत मूर्ति कला-संग्रहालय, बोस्टन में प्रदर्शित है।
पश्चिमी भारत में वि.सं. १३६६ (१३०९ ई.) में निर्मित अम्बिका की एक पीतल की मृति को एक ऊंचे आसन पर ललितासन में बैठे दिखाया गया है परन्तु यहां आम्र वृक्ष का अभाव है, यद्यपि यह अपने दाहिने हाथ में आमों का गुच्छा लिए है। बांए हाथ से अपने पुत्र को गोदी में सम्हाले है और इनका अन्य पुत्र इनके दाहिने पैर के समीप खड़ा है। देवी ने करण्ड, मुकुट, कुण्डल, हार व साड़ी पहिन रखी है तथा इनका वाहन सिंह बांए पैर के समीप खड़ा है। सबसे ऊपरी भाग में एक ताख में जिन की ध्यान मुद्रा में मूर्ति बनी है। यह मूर्ति अंजलि गैलेरी में विद्यमान है।
इस लेख में हमने संक्षेप में केवल कुछ जैन मूर्तियों का जो इस समय अमेरीका में विद्यमान हैं, का वर्णन किया है। परन्तु उपर्युक्त वणित संग्रहालयों एवं निजी संग्रहों के अतिरिक्त भी अनेक दूसरे संग्रहालयों में जैन मूर्तियां हैं। और उनका भी अध्ययन होना परमावश्यक है। आशा है उन पर भी विद्वान लेख लिखकर सभी को लाभ पहुचायेंगे।
( रामायण की लोकप्रियता....पृष्ठ १३० का शेष)
सीता निःशंक होकर उस प्रज्वलित अग्निकुंड में प्रवेश करती है। प्रवेश करते समय वह कहती है कि हे अग्नि देव ! मनसे, वचन से, और काय से जागृत अवस्था में और स्वप्न अवस्था में मेरा पतिभाव रधुनाथ को छोड़ कर अन्य किसी भी पुरुष में हो तो, मुझे जला डालो। अगर मेरा शील सच्चा है तो मेरी रक्षा करो। देवों ने उसी समय अग्नि को पानी बनाया और उसमें एक सिंहासन रख कर उसमें सीता को बैठाया। चारों तरफ जय-जयकार हवा ।
राम ने कहा सीता तुम परीक्षा में सफल हुई, अब मेरे साथ महल में चलो । सीता ने इनकार करते हुवे कहा कि जब आपने
मुझे दूर रहने को कहा था तभी मैं संसार से विरक्त हो गई थी। परीक्षा मैने इसलिये दी कि अगर बिना परीक्षा दिये मैं चली जाती तो लोगों को यह शंका रहती कि सीता पवित्र है या नहीं। अब तो मेरा जीवन जंगल में आत्म-साधना में ही बीतेगा। राम निराश हो कर महल में लौट गये। सीता के शील की चारों-ओर प्रशंसा होने लगी।
रामायण ऐसी अनेक घटनाओं से भरी पड़ी है। इसी कारण से बह लोकप्रिय बनी रही है । उत्तर भारत में रामकथा रामलीला के रूप में बड़े आदर व प्रेम के साथ खेली व देखी जाती है। 0
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जैन योग : एक चिन्तन
देवेन्द्र मुनि शास्त्री
भारतीय संस्कृति में योग का अत्यधिक महत्व रहा है । अतीत काल से ही भारत के मर्धन्य मनीषीगण योग पर चिन्तन, मनन और विश्लेषण करते रहे हैं, क्योंकि योग से मानव जीवन पूर्ण विकसित होता है। मानव जीवन में शरीर और आत्मा इन दोनों की प्रधानता है। शरीर स्थूल है और आत्मा सूक्ष्म है। पौष्टिक और पथ्यकारी पदार्थों के सेवन से तथा उचित व्यायाम आदि से शरीर पुष्ट और विकसित होता है किन्तु आत्मा का विकास योग से होता है। योग से काम, क्रोध, मद, मोह आदि विकृतियां नष्ट होती हैं । आत्मा की जो अनन्त शक्तियां आवृत्त हैं वे योग से अनावृत्त होती हैं और आत्मा की ज्योति जगमगाने लगती है।
आत्म विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। उसका सही अर्थ क्या है, उसकी क्या परम्परा है, उसके संबंध में चिन्तक क्या चिन्तन करते हैं और उनका किस प्रकार का योगदान रहा है आदि पर यहां पर विचार किया जा रहा है।
नष्ट होता है और मोक्ष के साथ संयोग होता है उसे योग कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने भी योग की वही परिभाषा की है। बौद्ध चिन्तकों ने योग का अर्थ समाधि किया है ।
योग के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो रूप हैं । साधना में चित्त का एकाग्र होना या स्थिर चित्त होना यह योग का बाह्य रूप है। अहंभाव, ममत्वभाव आदि मनोविकारों का न होना योग का आभ्यन्तर रूप है । कोई प्रयत्न से चित्त को एकान भी कर ले पर अहंभाव और ममभाव प्रभृति मनोविकारों का परित्याग नहीं करता है तो उसे योग की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। वह केवल व्यावहारिक योग साधना है किन्तु पारमार्थिक या भावयोग साधना नहीं है। अहंकार और ममकार से रहित समत्व भाव की साधना को ही गीतकार ने सच्चा योग कहा है।'
वैदिक परम्परा का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य रूप से हुआ है । ऋग्वेद में योग शब्द का व्यवहार अनेक स्थलों पर हआ है। किन्तु वहां पर योग का अर्थ ध्यान और समाधि नहीं है पर योग का अर्थ जोड़ना, मिलाना और संयोग करना है। उपनिषदों में भी जो उपनिषद् ४. (क) मोक्खेव जीयणाओं जोगो-योगविशिका गा. १ (ख) आध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्ति संक्षयः मोक्षेण योजनाद्योग एवं श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।।
--योगबिन्दु ३१ ५. मोक्षण योजनादेव योगो ह्यत्र निरुच्यते। -द्वात्रिशिका ६. संयुक्त निकाय ५-१० विभंग ३१७-१८ ७. “योगस्य कुरुकर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।।
सिद्धायसिद्धयोः समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।-गीता २१४८ ८. ऋग्वेद-१-५-३ : १-१८-७ : १-३४-८ : २-८-१ : ९-५८-३ :
१०-१६६-५
योग शब्द "युज्" धातु और "घा" प्रत्यय मिलने से बनता है। "युज्" धातु दो हैं जिनमें से एक का अर्थ है, संयोजित करना, जोड़ना और दूसरी का अर्थ है मन की स्थिरता,स माधि । प्रश्न यह है कि भारतीय योग दर्शन में इन दोनों अर्थों में से किसे अपनाया है ? उत्तर में निवेदन है कि कितने ही विज्ञों ने "योग" का जोड़ने के अर्थ में प्रयोग किया है तो कितने ही विज्ञों ने समाधि के अर्थ में । आचार्य पातंजलि ने “चित्तवृत्ति के निरोध को योग" कहा है। आचार्य हरिभद्र ने जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है कर्म-मल
१. युज्यति योगे-गण ७, हेमचन्द्र धातुपाठ २. युजित समाधौ-गण ४, हेमचन्द्र धातुपाठ ३. योगश्चित्तवृत्ति निरोधः-पातंजल योग सूत्र पा. १ सं २
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बहुत ही प्राचीन है उनमें भी आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द व्यवहृत नहीं हुवा है किन्तु उत्तरकालीन कठोपनिषद' श्वेताम्बतर उपनिषद 10 आदि में आत्यात्मिक अर्थ का योग शब्द का प्रयोग हुवा है। गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने योग का खासा अच्छा निरूपण किया है। " योगवासिष्ठ ने भी योग पर विस्तार से चर्चा की है । ब्रह्मसूत्र में भी योग पर खंडन और मंदन की दृष्टि से चिन्तन किया, किन्तु महर्षि पातंजलि ने योग पर जितना व्यवस्थित रूप से लिखा उतना व्यवस्थित रूप से अन्य वैदिक विद्वान नहीं लिख सके। वह बहुत ही स्पष्ट तथा सरल है, निष्पक्षभाव से लिखा हुवा है । प्रारम्भ से प्रान्त तक की साधना का एक साथ संकलन - आकलन है । पातंजल योग-सूप की तीन मुख्य विशेषताएँ है—प्रथम वह ग्रन्थ बहुत ही संक्षेप में लिखा गया है। दूसरी विशेषता, विषय की पूर्ण स्पष्टता है और तीसरी विशेषता, अनुभव की प्रधानता है। प्रस्तुत ग्रन्थ चार पाद में विभक्त है । प्रथम पाद का नाम समाधि है, द्वितीय का नाम साधन है, तृतीय का नाम विभूति है। और चतुर्थ का नाम कैवल्य पाद है। प्रथम पाद में मुख्य रूप से योग का स्वरूप, उसके साधन तथा चित्त को स्थिर बनाने के उपायों का वर्णन । द्वितीय पाद में क्रिया योग, योग के अंग, उनका फल और हेय, हेय हेतु, हान और हानोपाय इन चतुर्व्यूह का वर्णन है । तृतीय पाद में योग की विभूतियों का विश्लेषण है। चतुर्थ पाद में परिणामवाद की स्थापना, विज्ञानवाद का निराकरण और कैवल्य अवस्था के स्वरूप का चित्रण है ।
भागवत पुराण में भी योग पर विस्तार से लिखा गया है । 14 तांत्रिक सम्प्रदायवालों ने भी योग को तन्त्र में स्थान दिया है । अनेक तन्त्र ग्रन्थों में योग का विश्लेषण उपलब्ध होता है। महानिर्वाण तन्त्र' और षट्चक्र निरूपण" में योग पर विस्तार से प्रकाश डाला है । मध्यकाल में तो योग पर जनमानस का अत्यधिक आकर्षण बढ़ा जिसके फलस्वरूप योग की एक पृथक् सम्प्रदाय बनी जो हठयोग के नाम से विश्रुत है, जिसमें आसन, मुद्रा प्राणायाम प्रभृति योग के बाह्य अंगों पर विशेष बल दिया गया। हठयोग प्रदीपिका, शिव-संहिता परेण्ड संहिता लागइति शतक, योग ताराबली विन्दुयोग योग बीज, योग कल्पद्रुम आदि मुख्य ग्रन्थ हैं । इन ग्रन्थों में आसन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुम्भक, पूरक, रेचक आदि बाह्य अंगों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। घेरण्ड संहिता में तो आसनों की संख्या अत्यधिक बढ़ गई है।
"
९. कठोपनिषद - २-६-११ : १-२-१२ १०. श्वेताम्बर उपनिषद ६ और १३ ११. देखिये गीता ६ और १३ वां अध्याय १२. देखिये योग वासिष्ठ-छः प्रकरण
१३. ब्रह्मसूत्र भाष्य २-१-३
१४. भागवत पुराण, स्कंध ३, अध्याय २८, स्कंध ११ अध्याय
१५-१९-२०
१५. महानिर्वाण तंत्र अध्याय ३ और Tantrik Texts में प्रकाशित १६. षट्चक्र निरूपण, पृष्ट ६०, ६१, ८२, ९०, ९१ और १३४
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निर्माण गिरा में ही नहीं अपितु प्रान्तीय भाषाओं में भी योग पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। मराठी भाषा में गीता पर ज्ञानदेव रचित ज्ञानेश्वरी टीका 17 में योग का सुन्दर वर्णन है। कबीर का बीजक ग्रन्थ योग का श्रेष्ठ ग्रन्थ है ।
बौद्ध परम्परा में योग के लिए समाधि और ध्यान शब्द का प्रयोग मिलता है । बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग को अत्यधिक महत्त्व दिया है । बोधित्व प्राप्त करने के पूर्व श्वासोच्छास निरोध की साधना प्रारम्भ की थी 18 किन्तु समाधि प्राप्त न होने से उसका परित्याग कर अष्टांगिक मार्ग को अपनाया 119 अष्टांगिक मार्ग में समाधि पर विशेष बल दिया गया है । समाधि या निर्वाण प्राप्त करने के लिए ध्यान के साथ अनित्य भावना को भी महत्त्व दिया है । तथागत बुद्ध ने कहा - " भिक्षो ! रूप अनित्य है, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है, संस्कार अनित्य है, विज्ञान अनित्य है । जो अनित्य है वह दुःखप्रद है । जो दुःखप्रद है वह अनात्मक है । जो अनात्मक है। मेरा नहीं है । वह मैं नहीं हूँ । इस तरह संसार के अनित्य स्वरूप को देखना चाहिए।"
जैन आगम साहित्य में योग शब्द का प्रयोग हुवा है । किन्तु योग शब्द का अर्थ जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध परम्परा में हुवा है। उस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। वहां योग शब्द का प्रयोग मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के लिए हुआ है। वैदिक और बौद्ध परम्परा में जिस अर्थ को योग शब्द व्यक्त करता है उस अर्थ को जैन परम्परा में तप और ध्यान व्यक्त करते हैं।
ध्यान का अर्थ है मन, वचन और काया के योगों को आत्मचिन्तन में केन्द्रित करना । ध्यान में तन, मन और वचन को स्थिर करना होता है । केवल सांस लेने की छूट रहती है सांस के अतिरिक्त सभी शारीरिक क्रियाओं को रोकना अनिवार्य है। सर्वप्रथम शरीर की विभिन्न क्रियाओं को रोका जाता है । वचन को नियंत्रित किया जाता है और उसके पश्चात् मन को आत्म-स्वरूप में एकाग्र किया जाता है । प्रस्तुत साधना को हम द्रव्य साधना और भावसाधना कह सकते हैं । तन और वचन की साधना द्रव्य साधना और मन की साधना भाव साधना है।
जैन परम्परा में हठयोग को स्थान नहीं दिया गया है । और न प्राणायाम को आवश्यक माना है। हठयोग के द्वारा जो नियंत्रण किया जाता है उससे स्वायो लाभ नहीं होता और न आत्म-शुद्धि होती है और न मुक्ति ही प्राप्त होती है। स्थानांग समवायांग भगवती, उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में ध्यान के लक्षण और उनके प्रभेदों पर प्रकाश डाला है । आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक निर्युक्ति में ध्यान पर विशद् विवेचन किया है। आचार्य उमास्वामी ने सत्यार्थसूत्र में ध्यान पर चिन्तन किया है। किन्तु उनका चिन्तन आगम से पृथक् नहीं है। जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण
१७. ज्ञानेश्वरी टीका छठा अध्याय
१८. अंगुत्तर निकाय ६३
१९. संयुक्त निकाय ५-१०
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ने " ध्यान- शतक" की रचना की। जिनभद्रगणि क्षमणा श्रम जैन ध्यान पद्धति के मर्मज्ञ ज्ञाता थे। उन्होंने स्वयं ध्यान की गहराई में जाकर जो अनुभव का अमृत प्राप्त किया उसे इस ग्रन्थ में उद्धृत किया है।
आचार्य हरिभद्र ने जैन योग पद्धति में नूतन परिवर्तन किया। उन्होंने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतक और षोडशक प्रभृति अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया। इन ग्रन्थों में जैन परम्परा के अनुसार योग साधना का विश्लेषण करके ही संतुष्ट नहीं हुए अपितु पातंजल योग सूत्र में वर्णित योग साधना और उनकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन योग साधना की तुलना की है और उसमें रहे हुए साम्य को बनाने का प्रयास किया है 120 आचार्य हरिभद्र के योग ग्रन्थों की निम्न विशेषताएं हैं:-- १. कौन साधक योग का अधिकारी है ? और कौन योग का अनधिकारी है ।
२. योग का अधिकार प्राप्त करने के लिए पहले की जो तैयारी अपेक्षित है, उस पर चिन्तन किया है ?
३. योग्यता के अनुसार साधकों का विभिन्न दृष्टि से विभाग किया है और उनके स्वरूप और अनुष्ठान का भी प्रतिपादन किया गया है।
४. योग साधना के भेद - प्रभेदों का और साधन का वर्णन है ।
योग बिन्दु में योग के अधिकारी अन्धदृष्टि देशविरति और सर्वविरति ये चार विभाग किये। और योग की भूमिका पर विचार करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्ति संक्षय, ये पांच प्रकार बताए। योगदृष्टिसमुच्चय में औष दृष्टि ओर योग दृष्टि पर चिन्तन किया है । इस ग्रन्थ में योग के अधिकारियों को तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम भेद में प्रारम्भिक अवस्था से विकास की अंतिम अवस्था तक की भूमिकाओं के कर्म-मल के तारतम्य की दृष्टि से मित्रा, तारा, बला, दीप्ता, स्थिरता, कान्ता, प्रभा और परा में आठ विभाग किये हैं। ये आठ विभाग पातंजली योग सूत्र के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि तथा बौद्ध परम्परा के खेद, उद्वेग आदि अष्ट पृथक्, जनचिन्त दोषपरिहर और अद्वैष, जिज्ञासा आदि अष्ट योग गुणों के प्रकट करने के आधार पर किये गये हैं । योगशतक में योग के निश्चय और व्यवहार में दो भेद किये गये हैं । २०. समाधिरेषु एवान्यैः संपूज्ञोऽभिधीयते ।
A
सम्यक्प्रकर्ष रूपेण वृत्यर्थं ज्ञानतरस्तथा ।। असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधि गीयते परैः । निरुद्ध शेष वृत्यादि तत्स्वरूपानुणेधक ||
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योगबिन्दु ४१९-४२०
योग विंशिका में धर्म साधना के लिए की जाने वाली क्रियाओं को योग कहा है और योग की, स्थान, ऊर्जा, अर्थ, आलंबन और अनालंबन पांच भूमिकाएँ बतायी हैं ।
आचार्य हरिभद्र के पश्चात् जैन योग के इतिहास के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं आचार्य हेमचन्द्र, जिन्होंने योगशास्त्र नामक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का निर्माण किया है। इस ग्रन्थ में पातंजलि योग सूत्र के अष्टांग योग की तरह श्रमण तथा श्रावक जीवन की आचार साधना को जैन आगम साहित्य के प्रकाश में व्यक्त किया है। इसमें आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है । पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी वर्णन किया है और मन की विक्षुप्त, यातायात, श्लिष्ट और सूलीन इन चार भेदों का भी वर्णन किया है जो आचार्य की अपनी मौलिक देन है ।
आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र का नाम आता है। ज्ञानार्णव उनकी महत्त्वपूर्ण रचना है । सर्ग २९ से ४२ तक में प्राणायाम और ध्यान के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है। प्राणायाम आदि से प्राप्त होने वाली लब्धियों पर परकाय प्रवेश आदि के फल पर चिन्तन करने के पश्चात् प्राणायाम को साध्यसिद्धि के लिए अनावश्यक और अनर्थकारी बताया है ।
उसके पश्चात् उपाध्याय यशोविजयजी का नाम आता है वे सत्योपासक थे। उन्होंने अध्यात्मसार अध्यात्मोपनिषद् योगावतार बत्तीसी, पातंजल योगे सूत्र वृत्ति, योगविंशिका टीका, योग दृष्टि नीखज्झाय आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । अध्यात्मसार ग्रन्थ के योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रकरण में गीता और पातंजलि योग सूत्र का उपयोग करके भी जैन - परम्परा में विश्रुत ध्यान के विविध भेदों का समन्वयात्मक वर्णन किया है । अध्यात्मोपनिषद् में शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग के संबंध में चिन्तन करते हुए योग वाशिष्ठ और तैतरीय उपनिषदों के महत्त्वपूर्ण उद्धरण देकर जैनदर्शन के साथ तुलना की है। योगावतार बत्तीसी में पातंजल योगसूत्र में जो योग साधना का वर्णन है। उसका जैन दृष्टि से विवेचन किया है और हरिभद्र के योग शिका और षोडश पर महत्वपूर्ण टीकाएं लिख कर उसके रहस्यों को उद्घाटित किये हैं, जैन दर्शन की दृष्टि से पातंजलि योगसूत्र पर भी एक लघु वृत्ति लिखी है। इस तरह यशोविजयजी के ग्रन्थों में मध्यस्थ भावना गुणग्राहकता व समन्वयक दृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है ।
सारांश यह है कि जैन परम्परा का योग साहित्य अत्यधिक विस्तृत है । मूर्धन्य मनीषियों ने उस पर जम कर लिखा है । आज पुनः योग पर आधुनिक दृष्टि से चिन्तन ही नहीं किन्तु जीवन में अपनाने की आवश्यकता है। यहां बहुत ही संक्षेप में मैंने अपने विचार व्यक्त किये हैं । अवकाश के क्षणों में इस पर विस्तार से लिखने का विचार है।
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महिला समाज को महावीर-दर्शन की देन
डॉ. श्रीमती शान्ता भानावत
सन् १९७५ का वर्ष हमने अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया । इसके दौरान महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्वतंत्रता की समस्याओं के सम्बन्ध में चिन्तन चला। यह हर्ष का विषय है कि आज के शिक्षित पुरुषवर्ग ने नारी स्वातंत्र्य के इस महत्व को समझा है और वह भी इस ओर पहल कर रहा है।
यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि इस समस्या की ओर आज से २५०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर का ध्यान गया था । उन्होंने नारी को केवल आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता देने की बात ही नहीं कही, वरन् इससे भी आगे बढ़कर नारी को अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास करने के लिये आध्यात्मिक स्वतंत्रता देने की बात भी कही।
महावीरकालीन समाज में नारी की स्थिति बड़ी खराब थी। उसे धर्म के बोल सुनने का अधिकार नहीं था। गाजर, मूली, भेड़, बकरियों की भांति वह चौराहों पर खड़ी कर बेच दी जाती थी। बड़े-बड़े सेठ, श्रीमन्त उसे खरीद लेते और उसका उपयोग दासी की तरह करते ।
इस प्रसंग में कुमारी चन्दना की उस घटना को हम विस्मृत नहीं कर सकते जब एक सारथी ने उसे चाँदी के चंद टुकड़ों के खातिर एक वैश्या के हाथों सौंपा था । वैश्या के घर 'नित-नये भरतार करने और रसीले मादक पदार्थ सेवन की बात सुन कुमारी चन्दना का दिल रो पड़ा। उसने उसके साथ जाने से इन्कार कर दिया । तब वह घना श्रेष्ठी के हाथों में बेची गई। वहाँ उसे दासी का काम करना पड़ा।
चन्दना की भांति न जाने कितनी नारियों को उस समय दासता की जंजीरों में जंकड़ कर जीवन बिताना पड़ा होगा । नारी स्वातंत्र्य के हामी महावीर को यह सब कहां बरदाश्त
था? समाज में पद दलित और उपेक्षित समझी जाने वाली नारी जाति के उद्धार के लिये ही तो उन्होंने अपने साधना काल के रहे वर्ष में एक कठोर अभिग्रह धारण किया था, कोई राजकुमारी दासी बनी हुई हो, उसके हाथो में सूप हो, जिसके कोने में उड़द के बाकुले पड़े हों, वह देहली के बीच खड़ी हो, हाथों में हथकड़ियां और पैरों में बेड़ियां पड़ी हों, सिर मुंडित हो, आँखों में अश्रु और ओठों पर मुस्कान हो, वह स्वयं तीन दिन की भूखी हो, भिक्षा का समय बीत गया हो । ऐसी स्थिति में यदि कोई राजकुमारी मुझे भिक्षा देगी तभी मैं आहार ग्रहण करूंगा, अन्यथा भूखा ही रहूंगा।
महावीर को इसी संकल्प में निराहार विचरण करते-करते पाँच माह पच्चीस दिन बीत गये । इस बीच अनेक राजाओं ने उनकी षटरस व्यन्जन की खूब मनुहार की पर उन्होंने सिर्फ उदर पूर्ति ही नहीं करनी थी । वे तो पददलित समझी जाने वाली नारी से भिक्षा लेकर उसके पद को गौरवान्वित करना चाहते थे ।
महावीर का यह अभिग्रह दासी बनी राजकुमारी चन्दनबाला के हाथों पूरा हुआ । फिर प्रभु महावीर से प्रतिबोध पाकर चन्दनबाला ने दीक्षा अंगीकार की। प्रभु महावीर ने अपने धर्म संघ में पुरुष की भांति नारी को भी सम्मिलित किया । उन्होंने कहा - नारी व पुरुष की आत्मा एक है । पुरुषों की भांति नारियों को भी अपने विकास की पूर्ण स्वतंत्रता है। नारी को पुरुष से हेय समझना, अज्ञान, अधर्म और अतार्किक है ।
प्रभु महाबीर ने कहा वासना, विकार और कर्म जाल को काट कर नारी मोक्ष की अधिकारिणी बन सकती है । उसे भी निःसंकोच धर्मोपदेश सुनने का वैसा ही अधिकार है जैमा पुरुष को है। प्रभु महावीर की वाणी से प्रेरित हो जयन्ती श्राविका ने उनसे अनेक तात्विक प्रश्न पूछे थे । अपने प्रश्नों का सही समाधान पा जयन्ती ने महावीर के पास दीक्षा अंगीकार की।
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प्रभु महावीर की वाणी से प्रभावित हो अनेक नारियों ने साधना का मार्ग अपनाया। यही कारण था कि उनके धर्म संघ में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक थी । चौदह हजार साधु थे, तो छत्तीस हजार साध्वियां, उनसठ हजार श्रावक थे तो तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ ।
महावीर की दृष्टि में नारी की मातृत्व शक्ति का बड़ा सम्मान था । उन्होंने माता त्रिशला के अपार वात्सल्य भाव को गर्भ काल में ही अनुभव कर लिया था। इसी कारण वे बैरागी बनकर चुपचाप घर छोड़ कर नहीं गये । अठ्ठाइस वर्ष की उम्र में दीक्षा लेने की उन्होंने बड़े भाई नंदीवर्द्धन से अनुमति मांगी । जब भाई ने अनुमति नहीं दी तो वे भाई, पत्नी, बहन, अबोध पुत्री की मक भावनाओं का आदर कर, दो वर्ष तक और गहस्थ जीवन में रहे । ___ भगवान महावीर ने अपने समय में , स्वातंत्र्य की दिशा में नारी को पुरुष के बराबर आत्म कल्याण के अधिकार देकर बहुत क्रांति की थी। पर बड़े दुखः की बात है कि नारी मुक्ति की दिशा में महावीर का किया गया प्रयत्न आगे चलकर फिर धूमिल पड़ गया । मध्य युग तक आते आते नारी बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास, दासत्व, निरक्षरता, जैसी कुरीतियों में फिर कैद हो गई और उसका व्यक्तित्व दब गया।
१८ वी १९ वीं शती में नारी सुधार की दिशा में फिर अनेक आंदोलन गतिशील हुए। फलस्वरूप भारतीय संविधान में नारी और पुरुष के अधिकारों में किसी प्रकार का भेद नहीं रहा। उसे वयस्क मताधिकार दिया गया जो विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । बौद्धिक दृष्टि से भारतीय नारी पुरुष की अपेक्षा किसी भी तरह कम नहीं रही। हमारे देश में महिलाएं प्रधानमंत्री, राजदूत, राज्यपाल रह चुकी हैं। वे मंत्री, संसद सदस्या, इंजीनियर, पायलेट, छाताधारी सैनिक, सभी कुछ हैं। रोजगार के सभी क्षेत्र उनके लिये खुले हैं । भारतीय नारी परिश्रम से जी चराने वाली भी नहीं है। प्रतियोगी परीक्षाओं में वे पुरुषों से भी आगे बढ़ रही हैं। इतना होने पर भी आज जब हम अपने पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें चारों ओर अशांति, अनैकिता,भ्रष्टाचार,रिश्वत खोरी, भाई-भतीजावाद के दर्शन होते हैं। आज के मानव का लक्ष्य येनकेन प्रकारेण धन कमाना ही बन गया है। धन की तृष्णा उसके मन में दिन-रात बढ़ती जा रही है । वह हजारपति है तो लखपति बनना चाहता है और लखपति है तो करोड़पति । व्यक्ति की ये बढती हुई इच्छाएं उसे अनैतिक कार्य करने की ओर प्रवृत्त करती हैं । उन्हीं के वशीभूत हो वह गरीबों का पेट काट कर अपना घर भरता है । देश में बढ़ती हुई जनसंख्या, मंहगाई, बेकारी, विलासप्रियता, फेशनप्रियता आदि ने व्यक्ति को पथ भ्रष्ट कर दिया है । आज मानव की दृष्टि भी विकारग्रस्त बन गई है । उसे गन्दे-अश्लील चित्र देखने में आनन्द आता है। आज व्यक्ति के विचार भी विकारग्रस्त बनते जा रहे हैं । वह स्वयं खाना, पीना और मौज
करना चाहता है। दूसरे को खाते पीते देख वह स्वयं उससे ईर्ष्या करता है। वृद्ध माता पिता की सेवा सुश्रूषा में उसे लज्जा की अनुभूति होती है। आज का व्यक्ति विनय को तिलांजलि दे, उच्छखल बनता जा रहा है।
इन सब दुष्कृतियों का परिणाम यह हो रहा है कि हमारे जीवन में घोर निराशाएं, कुण्ठाएं, व्याप्त हो गई हैं। बौद्धिक और आर्थिक जगत में हमने आशातीत प्रगति की है जिससे हमें काफी भौतिक सुख-सुविधाएं मिलने लगी हैं । पर हमारे विवेक. श्रद्धा और चरित्र का स्रोत सूख जाने से मानसिक शांति नष्ट हो गई है । मानसिक शांति ही सब सुखों का मूल है। दुनिया की समस्त भोग सामग्री व्यक्ति को उपलब्ध है पर यदि उसकी आत्मा को शांति नहीं तो वह विपुल सामग्री उसके लिये क्लेशकारी होगी। इसी मानसिक शांति को प्राप्त करने के लिये परिवार, समाज और राष्ट्र में व्याप्त सभी कुरीतियों को दूर करना होगा।
इन कुरीतियों को दूर करने में नारी ही विशेष पहल कर सकती है। वही परिवार और समाज की केन्द्र है। प्रकृति से उसका कार्य क्षेत्र बाहरी नहीं, भीतरी है। वही घर की आंतरिक समस्याओं को सुलझाती है। यदि उसको दृष्टि सम्यक् होगी तो वह कम आमदनी में घर खर्च चला लेगी। वह फेशन व विलास की सामग्री तथा अनैतिक तरीके से कमाये गये धन का स्वागत नहीं कर, भ्रष्टाचार की बाढ़ को रोकने का प्रयत्न करेगी। परिवार को उच्छं खल नहीं बनने देगी । पारिवारिक सदस्यों में विनय, क्षमा, प्रेमवृत्ति, जैसे गुणों का विकास करेगी। इन गुणों का विकाश वह भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह व परिमाण व्रत से कर सकती है ।
यहाँ संक्षेप में उनका परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है - १. अहिंसा
नारी को अहिंसा में पूरा विश्वास रखना चाहिये । अहिंसा शब्द का अर्थ है किसी की हिंसा नहीं करना, किसी को नहीं मारना। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है ये प्रमाद पाँच प्रकार के होते हैं- १.इंद्रियों की विषयासक्ति, २.क्रोध, मान माया आदि मनोवेग ३. आलस्य व असावधानी, ४. निन्दा, ५. मोह-राग-द्वेष आदि । ये पाँचों प्रमाद हृदय को विकृत बनाते हैं जिससे अमैत्री और कलह की वृद्धि होती है। इसलिये नारी को सदैव इन प्रमादों से दूर रहना चाहिये उसे सोचना चाहिये - सभी जीव जीना चाहते है, मरना कोई नहीं । जैसा व्यवहार मुझे अपने लिये पसन्द नहीं है, वैसा व्यवहार मुझे दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिये ।
क्रोध में आकर बिना कारण बच्चों को मारना-पीटना, दंड देना, गाली देना, उनके प्राणों को कष्ट पहुंचाना भी हिसा है । अपने को दूसरों से बड़ा मान कर घमण्ड करना, किसी का अपमान करना, किसी के गुप्त रहस्य को प्रकट करना, कपट पूर्वक व्यवहार करना, विषय भोग की वस्तुओं का संग्रह करना, आमोद-प्रमोद और स्वाद के वशीभूत होकर शराब, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना या सेवन करने वाले की सराहना करना भी हिंसा है।
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.. मुसीबत में घबराकर, या क्रोध में आकर आत्मघात करना भी हिंसा है. क्योंकि आत्मघाती भय, क्रोध, अपमान, लोभ, कायरता आदि दुर्गुणों से प्रेरित होकर हिंसा करता है। ये दुर्गुण सद्गुणों का नाश करते हैं । इसलिये महिलाओं को ऐसे कुकर्म से बचना चाहिये। २. सत्य ___महिलाओं को सत्य में पूर्ण निष्ठा रखनी चाहिये । घर में किसी सदस्य को झूठी प्रशंसा करना, जाली हस्ताक्षर करना, घर में किसी दूसरे की वस्तु रखकर उसे देने से इंकार करना, किसी की झूठी बात बनाना जैसी दुष्प्रवृत्तियों से नारी को बचना चाहिये परिवार को झूठे आचरण से बचाने के लिये स्वयं के जीवन को पूर्ण सत्यनिष्ठ बनाना उसका प्रथम कर्तव्य है। ३. अचौर्य
महिलाओं को किसी प्रकार के चौर्य कर्म में सहायक नहीं बनना चाहिये । चोरी ही समस्त बुराइयों की जड़ है । इसी से समाज में अनैतिकता फैलती है। किसी पड़ौसी या अन्य किसी की चीज बिना उससे पूछे चोर वृत्ति से लेना, चोरी का माल खरीदना, चोर को चोरी करने में किसी प्रकार की मदद देना, नकली वस्तु को असली बताना, मिलावट करना, नाप तौल' में धोखेबाजी करना, टेक्स चोरी करना । ये सब चोरी हैं । यदि परिवार के व्यक्ति मिलावट या धोखाधड़ी का कार्य करते हों तो उनकी इस वृत्ति को रोकना नारी का प्रथम कर्तव्य है । इस व्रत के पालन. से सम्पत्ति का अपहरण मिटकर न्याय नीति का प्रसार होता है। ___आज महिलाओं में तस्कर वृत्ति से लाई गई विदेशी वस्तुएं खरीदने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा बढ़ गई है । यह भी बहुत बड़ी राष्ट्रीय चोरी है। इस चोरी से स्वावलम्बन की भावना को ठेस पहुंचती है अतः इसकी रोकथाम में महिलाओं को प्रभावकारी भूमिका निभानी चाहिए। ४. ब्रह्मचर्य
नारी को ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्वपति संतोष रखना चाहिये । आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमारे देश की नारियों में भी सेक्स की खुली छूट की मांग बढ़ती जा रही है।
सस्ते प्रेम के नाम पर कई घृणित और कुत्सित व्यापार चलते हैं । फलस्वरूप समाज और राष्ट्र में अनैतिकता पनप रही है । ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाली नारी नग्न नृत्य, अश्लील गायन, वैश्यावृत्ति तथा अन्य कुत्सित चेष्टाओं से सदैव दूर रहती है । उसका एक मात्र लक्ष्य रहता है- प्राण जाय पर शील धर्म न जाय, शील धर्म की रक्षार्थ उसे प्राण भी गंवाने पड़े तो वह हिचकती नहीं। नारी के शील और संयम पालन से पूरे परिवार को संस्कारशील बनाने में बड़ी मदद मिलती है । अपने चरित्र से वह पूरी पीढ़ी को प्रभावित करती है । ५. परिग्रह परिमाण
इस व्रत को पालन करने वाली नारी में धन के प्रति आसक्ति नहीं होती। वह धन धान्य की निश्चित मर्यादा कर लेती है । उससे अधिक धन का संग्रह वह नहीं करती। यों तो इच्छाएं आकाश के समान अनन्त होती हैं। धन, धान्य, सोना, चांदी आदि की निश्चित मर्यादा कर वह बढ़ती हुई इच्छाओं पर अंकुश ल गा देती है । इस के पालन से समाज में आर्थिक विषमता मिटकर समता व शांति का प्रसार होता है। समाज में व्याप्त अपहरण, शोष ग, चोरी आदि बुराइयाँ इससे रुकती हैं।
इस प्रकार जीवन में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण आदि ब्रत धारण करने से परिवार और समाज में प्रेम, आत्मीयता, सहृदयता, विश्वास, प्रामाणिकता, नैतिकता, समता आदि सद्गुणों की भावना का प्रचार-प्रसार होता है। जीवन अनुशासित, नियमित व कर्तव्यनिष्ठ बनता है।
नारी सदा से सेवा परायण, सहनशील और त्याग की मूर्ति रही है । आज जहाँ हमें नारी को बाह्य करीतियों से मक्त करना है, वहाँ उसके आन्तरिक जगत को विकसित करने के भी सुनियोजित प्रयत्न करने आवश्यक हैं । क्योंकि सदाचार, नैतिकता, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता जैसे गुण उसके आन्तरिक जगत में ही स्थित रहते हैं और उसी से विकसित रहकर उन्हें बाह्य जगत में अन्यत्र फैलने-पनपने का अवसर मिलता है । इसके लिये महिला स्वाध्याय केन्द्र, महिला नैतिक शिक्षण शिविर, महिला साहित्य परिषद जैसे सांस्कृतिक संगठन खड़े किये जाने चाहिये।
मानव में मनुजता का प्रकाश सत्य, शौर्य, उदारता, संयम आदि गुणों से ही होता है। जिसमें गुण नहीं उसमें मानवता नहीं, अन्धकार मनुजता का संहारक है, वह प्राणिमात्र को संसार में धकेलता है।
-राजेन्द्र सूरि
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अकार का महत्त्व
श्री बद्रीलाल जैन
अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहितो, सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः आचार्या: जिनशासनोन्नति करा, दूजा उपाध्याय काः । श्री सिद्धान्त सु पाठका: मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः पंचते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ।।
भारतवर्ष की नागरी लिपि अति प्राचीन है, यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि यह लिपि अन्य लिपियों की जननी है और इसका कारण यह है कि इस लिपि के स्वर एवं व्यञ्जन अन्य भाषालिपियों में भी समानता रखते हैं।
नागरी लिपि में स्वर और व्यञ्जन हैं, और उनके संयोग से भाषा बनी है, चाहे आप संस्कृत को देखें, चाहे प्राकृत को, चाहे हिन्दी को, चाहे मराठी को, चाहे गुजराती को, किन्तु सभी में स्वर व्यञ्जन समान ही हैं।
स्वर का अपना भिन्न अस्तित्व है, और व्यञ्जन का अपना भिन्न अस्तित्व है । स्वर के बिना व्यञ्जन की गति पंगु है, जब तक व्यञ्जन के साथ स्वर का संयोग न हो, वे अपना पूर्ण उच्चारण नहीं दे सकते हैं । स्वर में "अ" का स्थान सर्व प्रथम आता है, और यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि "अ" स्वरों में राजा है, और इसके बिना गति सम्भव नहीं है। इसलिये इसके विषय में ही कुछ लिखना आवश्यक समझा गया है । ___ इस लेख के प्रारम्भ में जो श्लोक लिखा है, उसमें अर्हन्तादि पंच परमेष्ठी भगवान को नमस्कार किया गया है। यह पंच परमेष्ठी भगवान का नमस्कार जैन समाज में णमोकार मन्त्र या नवकार मन्त्र के नाम से जाना जाता है। जैन शास्त्र में इसकी बहुत महिमा है । यह मन्त्र सब मन्त्रों में महान है, मन्त्राधिराज है, तथा चौदह पूर्वो का सार इसमें वर्णित है। जिन महापुरुषों को इसमें नमस्कार किया है, वे महान हैं, उनके वैसे तो अनन्त
गुण हैं, किन्तु जैनागम द्वारा पांचों पद को मिलाकर १०८ गुण बताये हैं, और यही कारण है कि हमारी प्रतिदिन की भजन की माला १०८ मणियों अथवा मोती की होती है, जिससे हम पंच परमेष्ठी भगवान के गुणों को माला के रूप में फेरते हुये अपनी साधना करते हैं।
उपरोक्त श्लोक में सर्वप्रथम “अर्हन्त" भगवान को नमस्कार किया गया है । अर्हन्त उनको कहते हैं, जो घनघाती (१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. मोहनीय, ४. अन्तराय) कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे राग, द्वेष के विजेता होते हैं, और अपनी दिव्य एवं अमृतमय वाणी से संसार के भव्य जीवों को तिरने का मार्ग बताते हैं, वे अकर्म भूमि से कर्म भूमि में होने वाले जीवों को अपने जीवन जीने का मार्ग बताते हैं, याने वास्तविक जीवन क्या है, जीव कसे सद्गति प्राप्त कर सकता है, अर्थात् ये अज्ञान रूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं । अत: परमेष्ठी पद में सर्वप्रथम अर्हन्त भगवान को ही वंदन किया जाता है। आप जानते हैं कि “अर्हन्त" शब्द का प्रारम्भ 'अकार' से ही होता है।
दूसरा पद नमस्कार रूप में श्री सिद्ध भगवान का है, जो सर्व कर्म विनिर्मुक्त हैं, यद्यपि सिद्ध भगवान का स्थान अर्हन्त भगवान से बड़ा है, क्योंकि अर्हन्त भगवान भी सब संसार के कार्यों से मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं तब दीक्षा ग्रहण करते समय “ओम् नमो सिद्धम्" कह कर दीक्षा स्वयमेव धारण करते हैं, किन्तु इनकी पहिचान कराने वाले, इनका उदबोधन देने
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वाले श्री अर्हन्त भगवान ही हैं, वास्ते प्रथम पद श्री अर्हन्त भगवान का नवकार मन्त्र में है। श्री सिद्ध भगवान का न तो कोई शरीर होता है, न वे पुनर्जन्म लेते हैं, और न उनको कोई विकृति होती है। श्री सिद्ध भगवान की स्तुति करते हुये जैन शास्त्र मर्मज्ञ पूज्य माधव मुनि महाराज सिद्ध स्तुति में पद गाते हैं ।
सेवो सिद्ध सदा जयकार, जासे होवे मंगलाचार,
अज, अविनाशी, अगम अगोचर, अमल, अचल, अविधार, अन्तर्यामी, त्रिभुवन स्वामी, अमित शक्ति भण्डार ।। सेवो सिद्ध..
श्री सिद्ध भगवान के कितने सुन्दर नाम हैं, काव्य शास्त्रानुसार अनुप्रास की लड़ी है, एक समा बंध गया है, इसीलिये " अकार" धन्य हो गया कि श्री सिद्ध भगवान के नाम शब्दों में भी सर्वप्रथम अक्षर रूप में बैठा हुआ है ।
तीसरा पद आचार्य देव का है, जो "अकार" से ही प्रारम्भ होता है । "अकार" में स्वर "अ" तथा "आ" दोनों की गणना होती है, इस पद के प्रारम्भ अक्षर के रूप में "अकार" की ही प्रधानता है ।
चौथा तथा पांचवां पद भी कम महत्व का नहीं है । अब मैं आपके सामने उक्त पांचों पदों के संयुक्त रूप से बने ऐसे महामन्त्र के विषय में कुछ चर्चा करूँगा, जिस मन्त्र को हिन्दू समाज में मान्यता प्राप्त है, तथा जैन समाज में भी मान्यता प्राप्त है ।
ॐ शब्द की उत्पत्ति
जैसा कि पूर्व में बताया गया है परमेष्ठी नमस्कार के पांच पद हैं, उनमें पहिला पद अरिहन्त भगवान का है, जिसका प्रथम अक्षर "अ" है तथा दूसरा पद सिद्ध भगवान का है, जो अशरीरी है याने अशरीर शब्द में भी "अ" अर्थात् अ, अ + आ बन जाता है । तीसरा पद आचार्य देव का है, जिसमें प्रथम अक्षर “अ” है अतः आ आ आ ही रहता है। चौथा पद उपाध्याय का है, जिसका प्रथम शब्द "उ" है याने आ + उ की संधि होने पर "ओ" बन जाता है। पांचवां पद साधु का है, याने साधु तथा मुनि एक ही होते हैं, अतः मननात् "मुनि” याने ओ + म की सन्धि होने पर ओम् शब्द की व्युत्पति होती है, इस प्रकार ओम् शब्द बन गया। कहा है:
ऊंकारं बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः । जैन शास्त्रानुसार कालचक
जैन शास्त्रों में कालचक्र के दो भेद माने गये हैं। एक अवसर्पिणीकाल तथा दूसरा उत्सर्पिणी काल । एक-एक कालचक्र के छह और भेद होते हैं, अवसर्पिणी काल में अकर्म भूमि से कर्म भूमि बनती है, तथा यह काल पदार्थों की उत्पत्ति का उन्नति काल है। इतना ही नहीं, इस काल के चतुर्थ आरे में २४ तीर्थंकर होते हैं, जो भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताते हैं । इस काल में
वी. नि. सं. २५०३
ऐसा समय है कि जीव मोक्ष गति अथवा सद्गति प्राप्त कर सकता है । इस अवसर्पिणी काल की यह विशेषता है कि इसमें २४ तीर्थंकर हुए, उनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ हुए, जिनके नाम का प्रथम अक्षर "अ" ही है । तीर्थंकर भगवान की जो सेवा करते हैं, उनको केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर समवशरण की रचना करने वाले 'अमर' (देवता) ही होते हैं, इस प्रकार "अकार" की प्रधानता मानी गई है ।
वैष्णव धर्म अनुसार समुद्र मन्थन
वैष्णव धर्म में देवता और राक्षसों के बीच में झगड़ा निपटाने के वास्ते समुद्र मन्थन किया गया, जिसमें १४ रत्न प्रकट हुए। चौदह रत्नों में जो प्रमुख रत्न प्राप्त हुआ, और जिससे देवता अमर बन गये, वह रत्न 'अमृत' ही था, जो 'अकार' के प्रभाव से नहीं बचा ।
धर्म की आराधना
अर्हन्त भगवान चार तीर्थ की स्थापना केवलज्ञान प्राप्त होने पर करते हैं, (१) साधु (२) साध्वी (३) आवक (४) श्राविका ये चार तीर्थ रूपी संघ है। इस संघ को भगवान धर्म आराधना का उपदेश देते हैं । उसमें साधु संघ के वास्ते ५ महाव्रत तथा श्रावक संघ के वास्ते पांच अणुव्रत पालन का उपदेश देते हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) अहिंसा, (२) असत्य का त्याग, (३) अचौर्यवृत, ( ४ ) अब्रह्म का त्याग, ( ५ ) अपरिग्रह | इस प्रकार जैन दर्शन के जो पांच मूल सिद्धान्त हैं, उनमें सभी में प्रथम अक्षर के रूप में 'अकार' की प्रधानता है । वास्तव में देखा जाय तो उक्त पांचों सिद्धान्त महान् हैं । आज सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है, सारा विश्व पीड़ा अनुभव करता है, कोई सुख अनुभव नहीं करता है । यदि उक्त सिद्धान्तों का पालन किया जाय तो सर्वत्र शान्ति हो सकती है, किन्तु आज का सिद्धान्त याने विज्ञान का सिद्धान्त Survival of the fittest मानता है । प्रत्येक राष्ट्र अपने को सबसे अधिक योग्य एवं शक्तिमान बनाना चाहता है, दूसरे राष्ट्र पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है, और यही कारण है कि प्रति दिन ऐसे अस्त्र शस्त्र बनाये जाते हैं, जो संहारक हों, दूरगामी मार करने वाले हों । गत महायुद्ध की विनाश लीला के ज्ञाता लोग विद्यमान हैं, भंयकर संहारक अस्त्र जिसने हिरोशिमा तथा नागासाकी ( जापान ) के नगरों का विध्वंस किया, वह बम भी तो अणुबम ही था । इसका प्रथम अक्षर भी "अकार" से संयुक्त है, अन्तिम तीर्थंकर याने अर्हन्त भगवान श्री महावीर ने उपदेश दिया कि Live and let live क्या सुन्दर तथा प्रभावशील सिद्धान्त है, इसका पालन न होने पर विनाश लीला का ताण्डव देखने को मिलता है। जैन शास्त्रों में अणु तथा परमाणु शब्द आते हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थों के वास्ते प्रयुक्त किये गये हैं। इस प्रकार आपने देखा कि जहां 'अकार' से प्रारम्भ होने वाले शब्द महानता को बताते हैं, वहां इसके विपरीत 'अम' जैसे संहारक पदार्थों
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के लिये भी 'अकार' का ही प्रयोग हुआ है । यह 'अकार' जहां पालक के रूप में या तारक के रूप जहां प्रयोग में लाया गया, तो वहां संहारक के रूप में भी इसका प्रयोग हुआ है। मन्त्राक्षर
नवकार मन्त्र के अतिरिक्त अन्य मन्त्र के जहां साधन बताये हैं, वहां पर भी 'अकार' की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। जितने भी स्वर अथवा व्यंजन हैं उनका प्रयोग मन्त्राक्षर के रूप में होता है, इन्हीं स्वर व्यंजनों से बीजाक्षर भी बनते हैं, जो तान्त्रिक साधन में प्रयुक्त होते हैं 'ओम ह्रीं श्रीं अहम्" आदि इसी प्रकार योग साधन में हिन्दू धर्मशास्त्र में प्रयुक्त होता है, "अहम् ब्रह्मासि" आदि इसमें भी 'अकार' की प्रधानता है । वैद्यक ग्रन्थ
जैसा कि ऊपर बताया गया है देवासुर द्वारा समुद्र मंथन से १४ रत्न प्राप्त हुये, उनमें अमृत कलश सहित श्री धन्वन्तरी भी पैदा हुए। अमृत रस का पान देवताओं को कराया गया, किन्तु देवताओं की पंक्ति में एक असुर रूप परिवर्तन करके बैठ गया, और अमत रस का पान कर गया। जिसका परिणाम यह हआ कि उसको पहिचान होने पर उस असुर का शिरोच्छेदन किया गया, तो उसका सिर अलग और धड़ अलग हो गया । वह अमृत पीने से मर नहीं सका, जो आज ज्योतिष विद्यानुसार राहु और केतु के रूप में रह कर मानव को त्रसित करता है । इस प्रकार "अ" से प्रारम्भ होने वाला अमृत रस प्रधान माना जाता है। उर्दू भाषा में इसे 'आबेहयात' कहते हैं, जो 'अकार' से प्रारम्भ होता है । अमृत रस को धन्वन्तरी वैद्यराज ने हिमालय की जड़ीबूटियों पर मानव हितार्थ छिटका, जिनमें कई बहुत गुणकारी प्रमाणित हुई। एक बूटी जीवनदायिनी है, जिसका प्रभाव नव जोवन प्रदान करता है, रामायण में उल्लेख है कि जब मेघनाद का शक्तिबाण लक्ष्मणजी को लगा, तब उनकी प्राण रक्षा के लिये हनुमानजी हिमालय पर्वत से जो बूटी लाये थे, वह संजीवनी बूटो थी, जिस पर अमृत कण गिरे थे और जीवनदायिनी के रूप में प्रभावित हुई।
भाषा में प्रयोग 'अकार' प्रथम अक्षर का उपयोग संस्कृत, प्राकृत, मागधी, हिन्दी, मराठी आदि में है । इतना ही नहीं, गुजराती भाषा में भी 'अ' अकड़ा के नाम से जाना जाता है । उद भाषा में भी सर्वप्रथम वर्ण 'अलिफ' ही है, जिसका प्रारम्भ 'अ' से होता है,
और इसी से कहा जाता है 'अल्लाहो अकबर' याने ईश्वर महान है, मुस्लिम धर्म में भी सृष्टि का कर्ता 'बाबा आदम' को ही माना गया है। पाश्चात्य भाषा इंग्लिश को वर्णमाला भी अकार' से
अछूती नहीं है । ए., बी., सी., डी., ई., एफ आदि याने सर्वप्रथस ए. का उच्चारण अकार का बोधक है। ईसाई धर्म वाले भी सृष्टि की उत्पत्ति 'अबूब' तथा 'आदम' से मानते हैं, जिसमें प्रथम अक्षर की प्रधानता है।
शरीर रचना हमारी शरीर रचना में पांच इन्द्रियाँ हैं । (१) आंख (२) कान (३) नाक (४) जीभ (५) त्वचा । 'अकार' से प्रारम्भ होने वाली आंख का महत्व बहुत अधिक है, वर्ना सब शून्य रहता है । कहा भी है--
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्ती तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्शनः किम् करिष्यति ॥ यदि 'आंख' न हो तो सर्वत्र अन्धेरा ही रहता है।
जैनागम भण्डार की कुंजी भगवान तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित वाणी जिसका आज समस्त जैन धर्मानुयायी अनुसरण करते हैं, वह प्राचीन काल में कण्ठस्थ करायी जाती थी, बाद में शास्त्र रूप में लिखी गई, जिसको जैन समाज में 'आगम' के नाम से जाना जाता है । जैनागम में ज्ञान का विपुल भण्डार है, और वह भण्डार एक तिजोरी के रूप में है, किन्तु जब तक तिजोरी की कुंजी न हो, वह भण्डार खोला नहीं जा सकता, और यह नहीं मालूम होता कि उसमें क्या अमल्य रत्न भरे पड़े हैं। अर्हन्त भगवन्त श्री महावीर द्वारा प्रतिपादित जैनागम एक अमूल्य निधि है । इस अमूल्य निधि का उपयोग करने वाला अक्षय सुख को प्राप्त करता है, किन्तु यह अमूल्य निधि कैसे प्राप्त की जाय, यह भण्डार कैसे खोला जाय, यह एक कठिन समस्या थी। यह समस्या कैसे सुलझाई जाय, तथा लोग या मुमुक्षु उस अमल्प भण्डार को किस प्रकार देख सकें. इस बात को ध्यान में रखकर जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान शास्त्र मर्मज्ञ, त्रिस्तुति सिद्धान्त के उद्धारक आचार्य प्रवर श्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अनवरत तथा अथक परिश्रम करके जैनागम भंडार को खोलने वाले एक अमेर कुंजी तैयार की, ताकि उसके द्वारा भंडार खोलकर जैनागम का बोध प्राप्त कर सकें । वह कुंजी एक महान शब्दकोष के रूप में तैयार की, किन्तु उसका नाम रखते वक्त भी विचार किया गया कि क्या नाम रखा जावे, अतः वही अकार' की महता को ध्यान में रखते हये उक्त महान कोष का नाम “अभिधान राजेन्द्र कोष” रखा गया। यह ग्रन्थ जैनागम के ज्ञान के लिये परम सहायक है । देशविदेश सर्वत्र इसको प्रंशसा को गई, और यही अमर कृति उन महान सन्त की पावन स्मृति है । इस अमर कीति से उनका यज्ञ सौरभ दिगदिगन्त में व्याप्त है, ऐसे महापुरुष के प्रति मेरी भी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित है।
मनुष्य मानवता रख कर ही मनुष्य है। मानवता में सभी धर्म, सिद्धान्त, सुविचार, कर्तव्य, सुकार्य आ जाते हैं।
-राजेन्द्र सूरि
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राजेन्द्र-ज्योति
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ओसवाल जाति का इतिहास
अगरचन्द नाहटा
जाति का सम्बन्ध जन्म से होता है। जैन धर्म में जाति जन्म से न मानकर कर्म से मानो गई है । जबकि वैदिक धर्म में जाति की उच्च-नीचता जन्म पर निर्धारित है। वास्तव में देखा जाय तो एक ही माँ के जन्में हुए या यावत् मा एक ही साथ जन्में हुए दो बच्चों को प्रकृति, ध्वनि, रुचि, आकृति में भिन्नता पाई जाती है । इसलिये केवल जाति या वर्ण में जन्म लेने से ही उसे ऊँचा व नीचा मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता है । सत्-कर्म के द्वारा नोच माने जाने वाली जाति में जन्मा हुआ मनुष्य भी पूजनीय हो जाता है । और असत्य कर्मों द्वारा उच्च वर्ण या जाति में उत्पन्न मनुष्य निन्दा योग्य बन जाता है । जैन धर्म के उत्तराधम्यन मूत्र में कहा है कि कर्मों अर्थात् कार्यों से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र बनता है । किसी भी जाति में उत्पन्न हुए मनुष्य का महत्त्व उसके सद्गुणों एवं कार्यों से ही माना जाना चाहिये।
भगवान महावीर के अनुयायी सभी जाति एवं वर्गों के लोग थे। भगवान महावीर का अहिंसा का सिद्धांत समता पर आधारित है । अर्थात् सभी प्राणियों में आत्मा एक समान है उन्हें सुखों एवं दुःखों का वेदन या अनुभव भी समान रूप से होता है। जीवन सभी को प्रिय है, मरण और दुःख कोई नहीं चाहता है । इसलिये प्राणियों के साथ मैत्री और प्रेम का सम्बन्ध बनाये रखना भी अहिंसा है। धर्म में तो सभी को समान स्थान है। जो पालन करे वही उसका अधिकारी है, इसलिये जैन धर्म में हरीकेशी जैसे चाण्डाल भी दीक्षित हो सके, पर आगे चलकर ब्राह्मणों का प्रभाव जैन धर्म पर भी पड़ा और क्रमश: नीची मानी जाने वाली जातियों के लोग जैन धर्म में कम आने लगे, अतः संख्या वृद्धि रुक-सी गई।
जैन धर्म का प्रचार भगवान महावीर के समय तो पूर्व देश की ओर ही अधिक था। क्रमश: वह दक्षिण-पश्चिम की ओर भी
बढ़ने लगा। राजस्थान में उस समय श्रीमाल नगर जिसे मिनमाल भी कहते हैं, बहुत प्रसिद्ध व समृद्धिशाली नगर था। वे इस नगर के नाम से श्रीमाल जाति वालों के रूप में प्रसिद्ध थे । श्रीमाल नगर के पूर्व की ओर रहने वाले जैनी प्रागवाड़-पोरवाड़ जाति वाले कहलाये। श्रीमाल नगर से वहाँ का एक राजकुमार अपने यहां के एक श्रेष्ठी परिवार को लेकर एक ऊजड़ स्थान में गया । और वहां नगर बसाने का प्रयत्न किया। उस स्थान का नाम उवेश था या ओसिया पड़ा है। जिसे संस्कृत में उपकेश नगर भी कहा गया है। वहाँ रत्नप्रभु सूरि नामक पार्श्वनाथ परमरा के आचार्य पधारे । उन्होंने राजा और जनता को चमकार दिखाकर जैन धर्म के प्रति अनुरागी बना दिया। वहाँ के जो लोग जैनी बने, वे उस नगर के नाम से अन्यत्र जहाँ भी गये उएस-वंशीय या ओसवाल जाति के कहलाये। इस तरह ओसवाल जाति की स्थापना हुई, मानी जाती है ।
पार्श्वनाथ परम्परा के रत्नप्रभु सूरि नाम के कई आचार्य हो गये हैं क्योंकि कई गच्छों में राजवंशों की तरह एक ही नाम की पुनरावृत्ति होती रही। उपकेश-गच्छ-पट्टावली-प्रबन्ध आदि के अनुसार ओस वंश के प्रतिबोधक पहले रत्नप्रभु सूरि, महावीर निर्वाण के सत्तर वर्ष बाद ओसिया आये और ओसवाल जाति की स्थापना की । पर ऐतिहासिक दृष्टि से ओस वंश की स्थापना का समय इतना प्राचीन नहीं प्रतीत होता । ओसिया नगर में जो भी पुरातत्व मन्दिर आदि प्राप्त हैं उनमें आठवीं सदी का पहले का कोई नहीं है। वहाँ के महावीर जिनालय में भी सबसे प्राचीन शिलालेख ११वीं शताब्दी का प्राप्त है । अन्य प्रमाणानुसार भी जैन धर्म का राजस्थान में प्रचार सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही अधिक हुआ, यह कुबलक माला को प्रशस्ति से भी सिद्ध है। नाभिनंदनोद्धार प्रबंध और उपकेश-पदावली प्रबंध में, जो कि संवत् १३९३ के आसपास रचे गये हैं। सबसे पहले यह उल्लेख
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मिलता है कि रत्नप्रभुसूरि ने वीर निर्वाण संवत् ७० में
ओसवंश की स्थापना की। इससे पहले के किसी भी ग्रंथ में यह संवत् नहीं मिलता है । जितने भी शिलालेख और प्रशस्तियाँ आदि प्राप्त हुई हैं उनमें जो ओसवाल वंश की पूर्वज-परम्परा दी है उनकी पहुंच भी आठवीं शताब्दी से आगे नहीं जाती। इसलिये स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहर आदि ने ओसवाल जाति की स्थापना ९-१०वीं शताब्दी से होना माना है । मुनि ज्ञानसुन्दरजी (देव गुप्त सूरि) ने उपकेश वंश पट्टावली आदि का समर्थन करते हुए जिन प्रमाणों को प्राचीन बतलाया है उन सबकी परीक्षा में अपने ओसवाल नवयुवक पत्र में प्रकाशित विस्तृत लेख में भली-भाँति कर चुका हूँ । अभी तक कोई ऐसा प्राचीन प्रमाण नहीं मिला है जिससे आठवीं शताब्दी से पहले ओसवाल जाति की स्थापना हुई हो, यह सिद्ध हो सके। अतः मेरी राय में यह समय आठवीं-नवीं शताब्दी का होना चाहिये । उपकेश-पट्टावली में जो अन्तिम रत्नप्रभु सूरि नाम वाले आचार्य हुए हैं वे ही ओसवंश के संस्थापक हो सकते हैं।
ओसवाल जाति की स्थापना के सम्बन्ध में दूसरी परम्परा भाट आदि की है। उनके अनुसार बी. ए. आई. में ओसवंश स्थापित हुआ पर एक तो यह संवत् की गोलमोल है, दूसरी इसकी पुष्टि का कोई प्राचीन प्रमाण उपलब्ध नहीं है । भाटों के पास भी प्राचीन बहियाँ मांगी गई तो वे दिखा नहीं सके । कुल-गरुओं, महात्माओं, मथेरणों आदि के पास जो भी वंशावलियाँ देखी गई, उनमें १६ वीं शताब्दी से पहले की लिखी हुई कोई नहीं मिली। सोलहवीं शताब्दी में श्रीमाल जाति की एक वंशावली श्री आत्मानन्द जैन शताब्दी ग्रन्थ में अंकित हुई है इसी तरह की कपड़े की दो वंशावलियाँ हमारे संग्रह में हैं।
ओसवाल जाति के मूल गोत्र १८ थे जो बढ़ते-बढ़ते १४४४ तक पहुँच गये । समय-समय पर ओसवाल जाति में जैनाचार्य के बनाये हये नये जैनी सम्मिलित होते गये। स्थानों, विशिष्ट व्यक्तियों और कार्यों के आधार से नये-नये गोत्र के नाम प्रसिद्धि में आते गये । इससे ओसवाल गोत्रों की सूची जैन सम्प्रदाय शिक्षा ओसवाल रास आदि में प्रकाशित हुई है, ७०० तक की संख्या है। किस-किस गोत्र को किस-किस आचार्य ने कब और कैसे प्रतिबोध किया इस संबंध में जो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं वे १७वीं शताब्दी के पहले नहीं मिलती हैं और अलग-अलग गच्छों में गोत्र स्थापना सम्बन्धी विवरण अलग-अलग रूप में मिलता है। मध्यकाल में गच्छों में काफी खींचतान रही है।
और प्रत्येकः गच्छ वाले हमारे आचार्य ने अमुक गोत्र को प्रतिबोध दिया, इस तरह के विवरण को अपने दफ्तर-बहियों और फुटकर पत्रों में भी लिख रखा है परस्पर विरोधी होने से इस सम्बन्ध में निर्णय तक पहुंचना कठिन हो जाता है।
श्रुति-परम्परा और किंवदन्तियों के आधार पर महाजन-वंश मुक्तावली बीकानेर के प्रसिद्ध वेद और बहुश्रुत यति रामलालजो ने लिखी । इसी तरह यति श्रीपालजी ने जैन सम्प्रदाय शिक्षा
नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में प्रकरण लिखा है । इधर मुनि ज्ञान सन्दरजी ने महाजन वंश महोदय और पार्थनाथ परम्परा का इतिहास आदि ग्रन्थों में तथा जामनगर के पंडित हंसराज द्वारा प्रकाशित जैन गोत्र संग्रह, एक अन्य ग्रन्थ श्रीमाल जातियों में जातिभेद और ओसवाल जाति के इतिहास नामक वृहद ग्रंथ में यथाज्ञात विवरण प्रकाशित हुआ है। मैंने भी कुछ लेख लिखे हैं पर सन्तोषप्रद प्राचीन और सामाजिक साधनों के अभाव में ओसवाल जाति का इतिहास अभी तक लिखा नहीं जा सका। अतः जो ग्रन्थ प्रकाशित हुवे हैं उन्हीं से सन्तोष करना पड़ता है । समय-समय पर इस जाति में अनेक वीर, बुद्धिमान, दानवीर धर्मनिष्ट और प्रभावशाली सम्पन्न व्यक्ति हुए। और आज भी अच्छे प्रमाण में हैं, पर अब लोगों में जातीय गौरव का ह्रास । हो चुका है । जो साधन हैं वे भी दिनोदिन नष्ट होते जा रहे हैं । जाति हितैषी व्यक्तियों को इस ओर तुरन्त ध्यान देना चाहिये।
ओसवाल जाति के लोगों ने अपने इतिहास को सुरक्षित और दीर्घजीवी रखने का प्रयत्न अवश्य किया । इसलिये कुलगरुओं, महात्माओं, भाटों आदि को प्रोत्साहन दिया । अपने इतिहास के लेखन और संरक्षण के लिये ही लाखों रुपये खर्च किये पर इसका जैसा परिणाम मिलना चाहिये था वैसा नहीं मिला । ऐतिहासिक विवरण लिखने वालों ने इस कार्य को अपना पेशा बना लिया और अपनी वंशावलियों और बहियों को छिपाकर रखने लगे । भाटों ने तो अपनी सांकेतिक लिपि में बहियाँ लिखनी आरम्भ कर दी। जिससे उन्हें कोई दूसरा पढ़ या समझ नहीं सकता । प्राचीन बहियों एवं वंशावलियों को सुरक्षित रखने में भी वे उदासीन बन गये। नई बहियों में अपने ढंग से संक्षिप्त और काम चलाये जाने लायक विवरण लिखकर अपनी आजीविका चलाते रहे । उनके यहाँ आज भी खोज करने पर कुछ बची-खुची उपयोगी सामग्री मिल सकती है। पर इस जरूरी और महत्वपूर्ण कार्य के लिये कोई अपना समय, श्रम एवं अर्थ व्यय करना नहीं चाहता।
अनेक ग्राम, नगरों में कई गच्छों के महात्मा, मथेरन आदि मिल सकते हैं-जिनके पास पुरानी वंशावलियाँ आदि भी कुछ एक सामग्री बची हुई है। पर इधर वे कोड़ियों में मोल बिकती जा रही हैं। क्योंकि अब उनकी कोई उपयोगिता (अर्थोपार्जन आदि की) नहीं रही । भाटों आदि की अब कोई पूछ व मान-सम्मान न रहा। अतः वे भी दूसरे कार्य-धंधों में लगते जा रहे हैं। इस तरह हमारे पूर्वजों ने जो जातीय इतिहास की सुरक्षा के लिये प्रबन्ध किया था, वह अब बेकार-सा हो गया है। बड़े-बड़े लोगों में जो कुछ जातीय गौरव के संस्कार थे, वे भी भावी पीढ़ी में समाप्त होते जा रहे हैं। इस तरह इतिहास के प्रति उपेक्षा बढ़ती जा रही हैं । अब पुरानी बातें पोथी के बेगन जैसी हो रही हैं । प्राचीन चीजों और ग्रन्थों की खोज को लोग अब मुर्दो को कब से खोदकर निकालने जैसा व्यर्थ प्रयास मानने लगे । कुछ वर्षों पहले तक जो वर्तमान इतिहास के संग्रह
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का कुछ प्रयत्न होता दिखाई दे रहा था, आज तो वह भी दिखाई नहीं देता। ___ ओसवाल जाति का संगठन जैनाचार्यों ने समय की पुकार और भावी कल्याण की दृष्टि से किया था। इससे यह एक बड़ा लाभ हुआ कि जैन संस्कार जैन जातियों में इतने दृढ़ हो गये कि अनेक बुराइयों और पापों से वे सहज ही बच सकें । माँसाहारियों के शासन-सम्पर्क और पड़ोस में रहते हुये भी जातीयसंगठन के कारण मांस-मदिरा निषेध आदि संस्कारों को वे दीर्घजीवी और व्यापक बना सके । हिंसा को कम-से-कम जीवन में स्थान देना पड़े, इसलिये जैन जाति के लोगों ने व्यापार आजीविका का प्रधान साधन बना लिया। अब तो उन संस्कारों को सुरक्षित रखने का प्रयास बहुत ही आवश्यक हो गया है । क्योंकि जैन युवकों में जैन संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं । ___ ओसवाल जाति में समय-समय पर अनेक विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने भारतीय इतिहास को नया मोड़ दिया है । अनेक राज्यों के संचालन में ओसवालों का बड़ा हाथ रहा है । प्रधान मन्त्री, सेनापति, कोषाध्यक्ष, आदि विशेष पदों पर रहते हुवे उन्होंने देश, जाति एवं धर्म की बड़ी सेवाएं की हैं। इतिहास उसका साक्षी है । साहित्य और कला के क्षेत्र में भी उनकी सेवाएं अनुपम हैं । कई ओसवाल कवि और ग्रन्थकार हए हैं। लाखों हस्तलिखित प्रतियाँ लिखवाकर उन्होंने ग्रन्थों को सुरक्षित रखा। अनेकों कवियों और विद्वानों को आश्रय, सहायता एवं प्रोत्साहन दिया। अनेकों भव्य मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण किया । उन्होंने सार्वजनिक हित के अनेकों कार्य किये । उन सबका लेखा-जोखा यतकिचित् भी संग्रह किया तो भावी पीढ़ी के लिये वह काफी प्रेरणादायक होगा । अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धावनत होना प्रत्येक कृतज्ञ मनुष्य के लिये आवश्यक होता है । हमारा वह जीवन अनेक जन्मों-जन्मान्तरों, संस्कारों
और परम्पराओं से प्रभावित है। सत्पुरुषों से सदा सत्-प्रेरणा मिलती रही है, इसीलिये उनका नाम-स्मरण और गुण स्तवन किया जाता है । इतिहास के द्वारा हमें अपनी पूर्व परम्परा का वास्तविक बोध होता है, दिशा मिलती है । अतः अपेक्षा करना उचित नहीं।
जिस प्रकार पूर्वकालीन इतिहास को जानना आवश्यक है .उसी प्रकार वर्तमान स्थिति की जानकारी भी जरूरी है। आज
ओसवाल समाज के लोग किन-किन दिशाओं और बातों में, कौन-कौन अग्रणी हैं, इसकी जानकारी हमें और हमारे बच्चों को होनी चाहिये। इतिहास निर्माताओं पर हमारी दृष्टि रहनी
ही चाहिथे । समाज के विशिष्ट व्यक्तियों को सामने लाना व उन्नति के इच्छुक व्यक्तियों को आगे बढ़ाना जरूरी है । राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक तथा धार्मिक सभी क्षेत्रों में हमारे पूर्वजों ने जो उच्च स्थान प्राप्त किया उसे बनाये रखना ही नहीं और अधिक द्युतिमान करना हमारा कर्तव्य है । पारस्परिक सहयोग, स्वधर्मवात्सल्य और दीर्घ दृष्टि की अत्यन्त आवश्यकता है। देश, समाज, धर्म के अनेकों क्षेत्रों में हमारी सेवाएं बहुत ही जरूरी होती हैं हमारे पास समय और श्रम, साधन हैं पर उसका सही और अधिकाधिक उपयोग हम नहीं कर पा रहे हैं। भावी पीढ़ी के निर्माण के लिये हम सजग नहीं हैं, यह अवश्य ही चिन्ता का विषय है ।
ओसवाल सम्मेलन जैसी संस्था को हम जीवित नहीं रख सके तो हमें कम-से-कम मंच पर बैठकर विचार विनिमय कर भावी उन्नति का मार्ग खोजते हुए अब भी ठोस कार्यों को कार्यान्वित करने का प्रयत्न तो अवश्य ही करना चाहिये।
ओसवाल समाज में आज धनिकों की कमी नहीं, बुद्धिशाली भी व्यक्ति अनेक हैं । पर सही दिशा की ओर ले जाने वाला नेता नहीं है। इसलिये आज हम छिन्न-भिन्न नजर आते हैं। समाज के धन का उपयोग लोक हितों के कार्यों में कम होता है, रूढ़ि दिखावा और कीति आदि में अधिक है। धार्मिक संस्कारों में दिनों-दिन ढील पड़ती जा रही है । यदि इसकी ओर शीघ्र ध्यान नहीं दिया गया तो उज्ज्वल भविष्य की आशा नहीं की जा सकती और हमारे पूर्वजों से महान विरासत में जो संस्कृति हमें प्राप्त हुई है, वह दीर्घकालीन साधना का परिणाम है । हमारे पूर्वजों ने सबको धर्म की प्रेरणा के लिये जो अनेकों मंदिर, उपासरों आदि धार्मिक स्थान बनाये हैं, उनकी उचित देखभाल अत्यन्त आवश्यक है । उन्होंने लाखों रुपये खर्च करके जगह जगह पर ज्ञान-भण्डार स्थापित किये, उनमें ग्रन्थों की सुरक्षा और उनका अध्ययन करके लाभान्वित होना बहुत ही जरूरी है। हमारे बालक-बालिकाओं में संस्कार और नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा बहुत ही जरूरी है। बेकार और आश्रयहीन व्यक्तियों को काम में लगाना, असहाय व्यक्तियों की सहायता करना, समाज के प्रति सेवाभावों को विकसित होने का पूर्ण अवसर एवं सहयोग देना भी उतना ही आवश्यक है । विधवा, बूढ़ों, अपंग व्यक्तियों, की सार सम्भाल तो हमारा कर्तव्य ही होना चाहिये । ओसवाल समाज के कर्णाधार मेरे ओसवाल नवयुवक समिति कलकत्ते के विशेषांक में प्रकाशित लेख और इस लेख में दिये गये सुझावों पर गम्भीरता से शीघ्र ही विचार कर ठोस कदम उठावें, यही अनुरोध है।
प्राप्त दौलत से सुकृत करो, वह तुम्हें आगे भी सहायक सिद्ध हो सकेगा।
-राजेन्द्र सुरि
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अपना
जैन समाज की दिशा/उत्थान या पतन,
श्री सी. बी. भगत
यदि वर्तमान में हम अपने जैन समाज पर एक दृष्टि डालेंगे, तो हमें मालूम हो जायगा कि अपना जैन समाज किस दिशा की ओर जा रहा है। आज समाज विघटन विनाश, अन्धविश्वास और भौतिकता से जूझ रहा है ।
आज का मानव भौतिकवादी चकाचौंध से चोन्धिया गया है। वह मृगतृष्णा में धर्म और ईमान सबको भूल चुका है । वह जीव हिंसा को भयंकर पाप मान कर त्याग करता है, विरोध करता है लेकिन स्वयं ही दहेज के लोभ में मानव हत्या का कारखाना खोल रहा है । पुत्र-विक्रय का कार्य कर रहा है । चन्द चांदी के टुकड़े, सोने के आभूषण, कार, स्कूटर, भवन इसके नैतिक ईमान को पतन के गर्त में धकेल रहे हैं। प्रलोभन के अलावा कहीं कहीं यह प्रवृत्ति वाभिमान के कारण भी जन्म लेती है, लोग दहेज लेना स्वाभिमान समझते हैं, स्वाभिमान पौरुषत्व का द्योतक है, लेकिन उसी समय जब कि वह समाज हित में हो । यदि उर का स्वाभिमान समाज में विषाक्त वातावरण तैयार करता है, तो अहितकर ही होता है । इसी अन्ध स्वाभिमान के वश लड़के के पिता अपने सुपुत्र ( ) का अधिकाधिक मूल्य लेना अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। वे लोग उस पुत्र विक्रय को (कन्यादान) कहलवाकर क्यों कन्यादान शब्द का उपहास करते हैं। क्या योग्य लड़कियां दहेज के अभाव में अयोग्य लड़कों के गले नहीं मढ़ दी जाती । जिस जैन धर्म में किसी का दिल दुखाना भी हिंसा है, वहीं जैन समाज, उसके ठेकेदार किसी की बेबसी सिसकते आँसुओं की तरफ ध्यान देना अपना अपमान समझ रहे हैं । कहीं पर इस दहेज को आर्थिक सुरक्षा का अस्त्र समझा जा रहा है, लेकिन इस अस्त्र का मूल्य उन्होंने नहीं समझा । इस कुप्रथा को रोकना है । यह सरकारी कानूनों एवं से नहीं, सामाजिक नियमों, हृदय परिवर्तन से मिटेगी ।
आज भौतिकतावादी चमत्कारों ने समाज व युवकों को पथ भ्रष्ट किया है। सद्गुणों ने सम्बन्ध तोड़कर उद्दण्डता ने उसका
शृंगार किया है । अनुशासनहीन जीवन पद्धति के प्रति समाज अग्रसर होता जा रहा है । उसकी विध्वंसकारी प्रतिभा उसे संस्कारहीन भूल भुलैया में भटका रही है, समग्न जीवन ही दुर्गुणों से दूषित होता जा रहा है । समाज आदर्शों की लीक से हटकर भौतिक अविनय, अनुशासनहीन मार्ग पर चलता जा रहा है, जीने की कला गुम हो चुकी है, विचारों की संकीर्णता के कारण समाज कल्याण की बात छोड़िये, स्वयं का निर्माण भी कठिन लग रहा है, जिस शक्ति का उपयोग देश, धर्म व समाज कल्याण में होना चाहिये, वही शक्ति पुरुषार्थहीन जीवन व्यतीत कर रही है।
जैन धर्म जितनी सहिष्णुता का सन्देश देता है, जैन समाज उतना ही असहिष्णु बन रहा है । आज हर गांब, नगर में पंथ व गच्छ के झगड़े हो रहे हैं । ये झगड़े मामूली नहीं, इतने भंयकर हैं कि प्रकाण्ड मुनिराज भी सुलझा नहीं पाते । ये झगड़े राष्ट्रीय स्तर पर फैल जाते हैं । दो पंथ या गच्छ दो किनारे बन जाते हैं, जो एक ही नदी के हैं, किन्तु कभी मिल नहीं पाते । वास्तव में एक दूसरे का विरोध कभी भी उस पंथ को समाप्त नहीं करेगा । उससे समाज निश्चित रूप से प्रभावित होगा । आप किसी का विरोध करेंगे तो उसमें नई शक्ति आयेगी, यह सर्व विदित होते हुए भी हम और हमारे धर्म गुरु एक दुसरे का विरोध करते नहीं हिचकते । दो पंथ तो दूर एक ही गच्छ या पंथ के दो साधु भी एक दूसरे का विरोध करने, उसे नीचा दिखाने में नहीं चकते । वे अपनी नैतिकता, आचरण संहिता को त्याग कर यह कार्य करते हैं। जिस नंतिकता से उन्हें बिखरे पंथों को मिलाना है, वे उसके विपरीत अपने ही पंथ को तोड़ रहे हैं। कहां गई उनकी नैतिकता ? कहाँ वह आचरण संहिता? वह हम ही हैं जो विश्वस्तर पर अहिंसा, मैत्री, भ्रातृत्व, अने कान्तबाद के बिगुल बजाते है, समय आनेपर उन सब को मरघट का रास्ता दिखाकर ताण्डव-मत्य शुरू कर देते हैं। विश्व को प्रेरणा
(शेष पृष्ठ १५८ पर)
राजेन्द्र-ज्योति
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जैन समाज द्वारा धार्मिक शिक्षण-व्यवस्था
सौभाग्यमल जैन
जैन धर्म के अन्तर्गत विभिन्न संप्रदायों (जिन्हें वास्तव में परम्परा कहा जाना चाहिये) की ओर से देश में कई स्थानों पर शिक्षा देने की व्यवस्था है । कहीं कहीं तो उच्च शिक्षा की व्यवस्था तक है, कहीं स्नातक, कहीं स्नातकोत्तर, कहीं माध्यमिक, कहीं उच्चतर माध्यमिक, कहीं प्रारम्भिक तक की शिक्षा देने वाले प्रतिष्ठान स्थापित किये हैं, साथ ही उनमें धार्मिक शिक्षण भी दिया जाता है। जहां तक लेखकों को ज्ञात है इन शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षण अपनी अपनी परम्परा (सम्प्रदायों) से सम्बन्धित मान्यताओं पर आधार रखकर बनाई हुई पाठ्य पुस्तकों द्वारा दिया जाता है तथा उनकी परीक्षा पद्धति भी पृथक् पृथक् है । परिणाम यह होता है कि बच्चे या शिक्षार्थी के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता शिक्षा प्राप्ति के समय से ही घर कर जाती है।
जैन धर्मान्तर्गत प्रत्येक संप्रदाय के आदर्श महापुरुष तथा सिद्धान्त एक हैं। यह सत्य है कि उन महापुरुषों के जीवन की कुछ घटनाओं के कारण एक संप्रदाय का दूसरी संप्रदाय की मान्यता में कहीं कहीं अन्तर है। साथ ही सिद्धान्तों की तफसील में कहीं कहीं अन्तर है किन्तु शिक्षा (ज्ञान दान) जैसे पवित्र कार्य में यदि हम साम्प्रदायिक मतभेदों को एक तरफ रखकर केवल सैद्धान्तिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बनवावें तथा उसी के अनुरूप शिक्षार्थी को शिक्षा प्रदान करें तो हमको ऐसे शिक्षित नवयुवकों को एक दल मिलेगा जिसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश नहीं होगा। वह अपने सम्प्रदाय के प्रारंभ-कर्ता या प्रतिष्ठापक के प्रति नहीं अपितु अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के प्रति निष्ठावान होगा । इसी प्रकार वह साम्प्रदायिक मान्यताओं का प्रचार नहीं करेगा। अपितु जैन धर्म का प्रचार करेगा।
आज के इस युग में अधिक आवश्यकता यह है कि हम अपने विद्यार्थी वर्ग में उदात्त जैन धर्म की शिक्षा देवें । ताकि वह शिक्षा
समाप्त करने के पश्चात् सच्चे अर्थ में जैन रह सकें। साथ ही यदि जरूरी हो तो जैन धर्म का प्रचार कर सकें। हमको साम्प्रदायिक मोह कम करना पड़ेगा। आज स्थिति यह है कि हम सम्बन्धित साम्प्रदायिकता के प्रतिष्ठापक के निकट अधिक वफादार हैं। किन्तु भगवान महावीर के प्रति उतने वफादार नहीं हैं । हमको श्वेताम्बरत्व-दिगम्बरत्व, स्थानक-वासित्व, तेरापंथित्व, तारण थित्व आदि की अधिक चिन्ता है, किन्तु जैन धर्म या श्रमण संस्कृति के उन्नयन की कम । भारत जैन महामण्डल ने काफी वर्ष पूर्व यह निश्चय किया था कि देश में स्थापित जैन पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने का प्रयत्न किया जावे। किन्तु यह निश्चय मूर्तरूप न ले सका । भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव वर्ष में एक सम्प्रदाय दूसरी सम्प्रदाय के निकट आई है इस निकटता को और बढ़ाने की जरूरत है अन्यथा जिस प्रकार तीर्थस्थानों पर स्थापित धर्मशालाओं में यात्री से सबसे पेश्तर उसकी Identity के साथ यह माहिती ली जाती है कि श्वेताम्बर हैं या दिगम्बर । यह प्रथा आज तक निःशेष नहीं हो सकी । केवल यही एक कुप्रथा जैन धर्म की उदात्तता को एक चुनौती है।
मेरा यह विश्वास है कि साम्प्रदायिक अभिनिवेश जितना पुरानी पीढ़ी में था उतना नई Generation में नहीं है । यदि है तो उसका कारण अपने माता पिता या बुजुर्ग के कारण है । आज की युवा पीढ़ी साम्प्रदायिक कट्टरता में अधिक ग्रस्त नहीं है क्या इस परिवर्तित परिस्थिति में उचित नहीं होगा कि-- १. पूरे जैन समाज के निष्पक्ष विद्वानों द्वारा इस प्रकार की शिक्षा
संस्थाओं के लिये Common पाठ्यक्रम तैयार कराया जावे कि जो जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों के आधार पर हों और जिसमें साम्प्रदायिक मतभेदजनक प्रश्नों को अछूता रखा गया हो।
(शेष पृष्ठ १५२ पर)
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जैन-कौन ?
सौ. पारसरानी मेहता,
यदि कोई वस्तु अनायास अथवा बगैर श्रम के प्राप्त हो जाए तो उसका महत्व मालूम नहीं होता है। वैसे ही किसी जैनधर्मावलम्बी के यहां पैदा हो जाने से हम जैन अवश्य हैं पर इस बारे में गंभीरता से सोचने की कोई आवश्यकता है, ऐसा हम महसूस नहीं करते ।
जब व्यक्ति किसी संघ या संघटन में प्रवेश करता है तब वह बराबर सचेष्ट रहता है कि अमुक मर्यादाओं, नियमों अथवा शर्तों का पालन करना है। पर जैन कुल में उत्पन्न हो गया हूं इसलिये कुछ विशेष नियम या अनुबंध हैं इस ओर क्वचित् ही ध्यान जाता है।
जैनियों के आराध्य भ. महावीर ने कहा है कि-"मनुष्य कर्म या कार्य से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है जन्म से नहीं" इस बोध वाक्य के पीछे बहुत बड़ा चिन्तन है। यह चिन्तनधारा हमें बताती है कि क्या हम वास्तव में जैन हैं ? अथवा मात्र जैन के यहां पैदा हो गये हैं।
जैन होने के लिये पहला और मुख्य नियम है अहिंसा में अडिग आस्था एवं विश्वास । प्रभु महावीर ने प्राणीवध का घोर विरोध किया, उसे त्याज्य व निन्दनीय ठहराया । “माहो' अर्थात् “मत मारो" "जीओ और जीने दो' संसार के समस्त प्राणियों को जीवन प्रिय है इसलिये किसी भी प्राणी के प्राणों का हरण निःकृष्ट है। मात्र इतना ही नहीं अहिंसक वृत्ति वाला व्यक्ति न किसी के अधिकारों को कुचलता है, न किसी का शोषण करता है। यदि किसी अन्य व्यक्ति का नुकसान व अहित करके अथवा विचारों की क्रूरता से अहिंसक श्रेणी में आना चाहे, यह कैसे संभव हो सकता है ? ___अहिंसा के मूल आधार दया व क्षमा हैं । जीवन के हर पहलु में इसे उतारना जैन होने का प्रथम लक्षण है।
दूसरी शर्त है-असत्य आचरण न करना। चाहे धार्मिक हो, सामाजिक हो या राष्ट्रीय हो, नैतिक व सत्य आचरण ही सुरक्षा व सामञ्जस्य' प्रदान करता है। स्वार्थवश जब आदमी असत्य व अनैतिक क्रियाएं या आचरण करता है, सामाजिक व आर्थिक
व्यवस्थाएं डगमगा जाती हैं। सारी सृष्टि के संतोष व सुख के लिए सत्याचरण ही एकमात्र उपाय है। ___ तीसरी मर्यादा है--चोरी न करना, सूत्र छोटा है पर अर्थ गहन है। सेंध मारकर या डाका डालकर चोर चोरी करता है, पर अचोर्य व्रत का अर्थ है-वस्तु में मिलावट न करना, आज तो ऐसी ऐसी मिलावट है कि प्राणों पर बीत जाती है। कम तोलना, नापना, निर्धारित लाभ की अपेक्षा अधिक लेने का प्रयास करना कन्या व वर विक्रय दहेज रूप में करना इत्यादिक कार्य स्वयं चोरी न करते हुए भी चोर्य कर्म के अन्तर्गत ही हैं । ऐसे कार्य आत्मा का पतन तो करते ही हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा भी गिराते हैं।
चौथा अनुबंध है--ब्रह्मचर्य व्रत । मानव जाति ओजस्वी, तेजस्वी, सबल, स्वस्थ और सक्षम बने इस दृष्टि से यह एक साधना है। जो इसे संपूर्णरूपेण स्वीकारते हैं वे महाव्रती कहलाते हैं। सर्वसामान्य जन स्वपति या स्वपत्नी के सिवाय अन्य सब पुरुष व स्त्री से शारीरिक संसर्ग त्याग नियम करते हैं। और दांपत्य जीवन में भी संयमित व मर्यादित होते हैं । वास्तव में शील व ब्रह्मचर्य का प्रभाव मनुष्य के मन पर, मस्तिष्क पर बल्कि उसकी वाणी, आचरण और व्यवहार पर भी होता है, ऐसे साधक सर्वजयी होते हैं ।
पांचवीं शर्त है-आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना । लोभ व लालच के वशीभूत होकर संग्रह वृत्ति से दूसरों का शोषण होता है। अहिंसक समाज रचना में विश्वास रखने वाला व्यक्ति दूसरों को पीड़ित करके खुद सुख की कामना नहीं कर सकता । कहावत है--सुख पाना हो तो सुख देना सीखो। प्यार पाना हो तो प्यार करना सीखो । अपनी वस्तु को बांटकर खाना, जीवन को सादा व उच्च बनाना, लालसाएं न रखना, अपरिग्रह की परिभाषा है।
ये पांच आचरण की कसौटियां हैं। जब हम अपने आपको इन पर कसेंगे तभी हम कितने अंश में जैन हैं इसकी परीक्षा स्वतः कर सकेंगे।
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राजेन्द्र-ज्योति
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साधना और सम्यग्दर्शन
मुनि अजितकुमार 'निर्मल'
साधना का अर्थ
लक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रवृत्ति एवं प्रयास को 'साधना' कहते हैं । साधना में लक्ष्य का बड़ा महत्व है। वैसे तो हम सभी संसारी प्राणी किसी न किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति रत रहते हैं और इससे प्राप्त फल का उपयोग भी करते हैं । लेकिन उसके बाद पुन: नए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर हो जाते हैं । इसलिए इस प्रवृत्ति को साधना न कह कर अपनी नियति मान लें, तो अधिक युक्तिसंगत होगा । क्षणिक फलों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले प्रयासों को यदि साधना का रूप देते हैं या उसे साधना कहते हैं तो यह हमारी क्षुद्र बुद्धि का ही प्रमाण माना जाएगा । क्योंकि यह जीवन सांसारिक योगचक्र में उलझे रहने के लिए नहीं हुआ है। वर्तमान में हम जो कुछ हैं और जैसे हैं वैसा रहना ही हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारे जीवन का लक्ष्य तो यह है कि हम अणु से महान बनें, वामन से विराट बनें और ससीम से असीम बनें, बंधन से मुक्त हों। इससे बढ़ कर और कोई दूसरा लक्ष्य नहीं हो सकता है। प्रत्येक जीवन की यही आकांक्षा है। इसलिये साधना वही कहलाएगी जिसका लक्ष्य अन्यतम हो । अर्थात् अन्यतम लक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रवृत्ति को साधना कहते हैं । लक्ष्य प्राप्ति का अधिकारी
___ अन्यतम लक्ष्य प्राप्त करने का अधिकारी कौन होता है ? क्योंकि हमारी वार्तमानिक स्थिति संयोगज है । हम चेतन जीव आत्मा होकर भी शरीर इन्द्रियों आदि के साथ जुड़े हुए हैं । यह शरीर भौतिक है। हम भौतिक शरीर को हम कितना भी शक्तिमान माने, लम्बा चौड़ा समझ लें । लेकिन शरीर की सत्ता तभी तक है जब तक इसमें प्राणशक्ति का संचार है। उदयगति अपनी धुरी पर घूमती है। प्राणशक्ति एवं हृदयगति का खेल भी तभी तक है जब तक शरीर में चैतन्य आत्मा शिवशंकर विराजमान है । लेकिन चैतन्य शिवशंकर के निकल जाने पर तो यह शरीर शव और कंकर मात्र
ही रह जाता है । कथन का फलितार्थ यह हुवा है कि जीवन में इस शरीर का नहीं, आत्मा का महत्व है आत्मा ही इस सृष्टि का सिरमोर तत्व है। विश्व की प्रत्येक रमणीयता का वही सूत्रधार है। इसीलिए आत्मा के द्वारा ही अन्यतम लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। विकट प्रश्न
आत्मा के द्वारा अन्यतम लक्ष्य प्राप्तव्य होने पर भी अभी तक हमें अनुकूल फल क्यों नहीं प्राप्त हुआ है ? यद्यपि अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे काम, क्रोध आदि विकारों, विकल्पों को जीतने के अनेक बार प्रयत्न किए गए फिर भी सफलता क्यों नहीं मिली ? हमारी मोहमुग्ध आत्मा संसार सागर की उत्ताल तरंगों पर उठती और गिरती रही है । कभी उसका किनारा दिखा भी है लेकिन पुनः उसी में डूब गई । इस प्रकार अनेक बार निकलने के लिए किए जाने वाले प्रयास कार्यकारी क्यों नहीं हुए? क्या कारण है कि अभी तक यह आत्मा निकल भी नहीं पाई ? यह एक विकट प्रश्न है । इस प्रश्न पर मनुष्येतर प्राणियों ने विचार किया या नहीं किया है ? इस बात को गौण करके यदि हम मानव अपने आप को देखें तो ज्ञात होगा कि भौतिकता के वशीभूत होकर हमने अपनी बौद्धिक क्षमता का भरपूर उपयोग किया। प्रकृति पर विजय प्राप्त करने में उसके एक-एक गूढ़ रहस्य खोज निकालने में भौतिकवादी विकास द्वारा अनन्त आकाश में उड़ने के लिए वायुयान बनाये । समुद्र की अपार जलराशि में तैरने के लिए जलयान बनाये तथा अन्यान्य सुख साधनों के आविष्कार किये । इस निर्माणकारी प्रक्रिया के साथ ऐसे संहारक शस्त्रों का सृजन किया जो क्षणमात्र में इस रमणीय विश्व में विनाश का ताण्डव नृत्य दिखा सकते हैं लेकिन हमने यह जानने, समझने, परखने का प्रयास नहीं किया है कि मैं कौन हूं और क्या हूं? जीवन में उत्थान कैसे आता है और पतन क्योंकर होता है ? काम, क्रोध माया, लोभ आदि विकार विकल्प मेरे हैं या मुझसे भिन्न हैं ? इन विकारों का प्रकोप होने पर हम शांत, विनम्र, सरल क्यों नहीं बन सके?
वी.नि. सं. २५०३
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कारण की खोज
इसका कारण है - परमुखापेक्षिता । जब जब भी प्रयत्न किए तो पर पदार्थों को ही प्रमुखता दी और "मैं आत्मा" की उपेक्षा' करते रहे । यदि इष्ट वस्तु का संयोग मिल गया तो खुशी से और अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर दुःख का पहाड़ समझ लिया । प्रिय वस्तु में राग और अप्रिय वस्तु में द्वेष करने लगे। स्वावलम्बन का सहारा नहीं लिया । हमारे सोचने का दृष्टिकोण भी यही रहा है कि "मैं शरीर हूं, मैं इद्रिय हूं, मैं मन हूं, मैं काला हूं, मैं गोरा हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुखी हूँ, मैं बन्धनबद्ध हूं और कभी बन्धन से विमुक्त नहीं हो सकता हूं ।" परिणामतः तन एवं मन की अहंता एवं ममता के बन्धन अभी तक नहीं टूट पाये हैं ।
लेकिन उक्त स्थिति ऐसी नहीं है कि जिसको बदला न जा सके। क्योंकि उत्क्रांति करना आत्मा का स्वभाव है। यदि हम जीवन की गहराई में उतर कर जीवमात्र के अन्तरतम का निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि जिस मनोभूमि में पतन के कारणों का अस्तित्व है उसी मनोभूमि में उत्थान के सुन्दर बीज भी विद्यमान रहते हैं । इस बात को हम एक प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा इस प्रकार से स्पष्ट समझ सकते हैं कि पृथ्वी पर अनेक ऐसी विषैली वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं जो मारक हैं जिनके खाने से मृत्यु का साथ सहज हो जाता है लेकिन ऐसे भी धान्य, फल आदि पैदा होते हैं जो जीवन के धारण-पोषण के आधार हैं। जिनका भोग किए बिना जीवन टिक नहीं सकता है । भूमि एक होने पर उसमें मारक और धारक दोनों ही प्रकार के पदार्थों को उत्पन्न करने की क्षमता विद्यमान है। यही बात जीव आत्मा के लिए भी समझना चाहिए। जब प्रसन्न मानस में जागृति की लहर उठती है तब स्वमेव अन्तरात्मा जगमगाने लगती है । उसे अपनी शक्ति पर विश्वास हो जाता है और वह अपने अन्तर में झांक कर कह उठती है कि " में सर्वशक्तिमान हूं । अजर-अमर - अनन्त शाश्वत हूं । मैं आत्मा है, अन्य कुछ भी नहीं हूं. मैं केवल चेतन है, नहीं है। नमेरा कभी जन्म होता है और न मरण । ये जन्म मरण के खेल मेरे नहीं हैं। किन्तु तन के खेल हैं। जन्मने मरनेवाली में नहीं, मेरा शरीर है" इसका परिणाम होता है कि अपने अनन्त गुणों और शक्ति का परिज्ञान न होने तक जो आत्मा सांसारिक दुखाग्नि में झुलस रही थी । आज से नहीं वरन् सुदीर्घ अतीत काल से अपने को दीन-हीन एवं अनाथ समझती आ रही थी वही दृष्टि बदलते ही किसी भी प्रकार के दुख-दैन्य, क्लेश का अनुभव नहीं करती है वह उससे अतीत होकर अनन्त आनन्द की अनुभूति में निमग्न रहती है ।
लक्ष्य साधन के बीज
जब हम इस बिन्दु पर आकर केन्द्रित हो जाते हैं कि लक्ष्य प्राप्ति आत्मा द्वारा हो सकती है । तब प्रश्न उठता है कि लक्ष्य प्राप्ति के साधन क्या हैं? लक्ष्य को जानने के साथ-साथ उसकी प्राप्ति के साधन को भी जानना जरूरी है । लक्ष्य के अनुरूप साधन भी उच्च, गंभीर एवं गौरवशाली होना चाहिए। साधना वही मानी जाएगी। जो साधकतम हो जिसकी विद्यमानता में लक्ष्य को अवश्य ही सिद्ध होना पड़े ।
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इस दृष्टि से साधन के बीज का नाम है- 'सम्यग्दर्शन' । यही बीज वृद्धिगत होकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र, अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि अनेक नाम रूपों में अवतरित होकर हमें अपनी पूर्णश्री का बोध कराता है। किन्तु उनके नामों का आशय एक, उद्देश्य में अन्तर नहीं है। जो आशय सम्यग्दर्शन का है वही सम्यग्ज्ञान आदि का हैं। बोली, वेशभूषा आदि से जैसे हम मनुष्यों में भेद की कल्पना कर लेते हैं वैसे ही सम्यग्ज्ञान आदि के लिए भी समझना चाहिए । जब तक सम्यग्दर्शन स्थित है, प्राणवान है तब तक सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र आदि की, अहिंसा, संयम, तप की साधना निरन्तर विस्तृत होती चली जाएगी। लेकिन सम्यग्दर्शन नहीं है तो सम्यग्ज्ञानचारि का सद्भाव नहीं हो सकता है। वह अहिंसा, अहिंसा नहीं रह सकती है । संयम, संयम नहीं होगा और तप, तप नहीं किन्तु ताप कहलाएगा । सम्यग्दर्शन रूप मूल का विच्छेद हो जाने पर सम्यग्ज्ञान आदि का विकास रुक जाएगा। इसलिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए साधकतम साधन सम्यग्दर्शन को माना जाता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए सब कुछ करो। लेकिन पूर्व यह जान लो कि सम्यग्दर्शन की ज्योति जगमगाई या नहीं ?
सम्यग्दर्शन : जीवन का समाधान
सम्यक् और दर्शन इन दो शब्दों के योग से सम्यग्दर्शन शब्द की निष्पत्ति हुई है । व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से सम्यक् शब्द का अर्थ है अच्छा, श्रेष्ठ, सत्य और दर्शन का अर्थ है देखना । लेकिन दर्शन शब्द के अन्तर में अनेक महत्वपूर्ण आशय, अभिप्राय गर्भित हैं। श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, निष्ठा, आस्था, विश्वास आदि । तब सम्यग्दर्शन का शाब्दिक अर्थ करेंगे "श्रेष्ठ सत्य-श्रद्धा, विश्वास आदि करना और होना सम्यग्दर्शन है" लेकिन यहां पर भी प्रश्न उठता है कि किस पर विश्वास करें ? इसका समाधान करते हुए आचार्यों ने कहा
"तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् "
तत्वार्थ -- तत्वभूत पदार्थों का श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है किन्तु इस लक्षण ने पुनः जिज्ञासा जागृत कर दी कि संसार में पदार्थ अनन्त है तो उनमें से फिर किस पर श्रद्धा की जाये, विश्वास किया जाये ? और उन पदार्थों में तत्वश्रुत पदार्थ किसे माना जावे ? यदि तत्वभूत का अर्थ रुचि अनुकूल पदार्थ किया जावे तब तो सभी कामी, भोगी आदि भी सम्यग्दृष्टि कहलाएंगे। उनके विश्वास की भी सत्य दर्शन कहना पड़ेगा। शाब्दिक अर्थ को पकड़ कर बैठने वाले अवश्य ही सम्यग्दर्शन का यही अर्थ करेंगे लेकिन बुद्धिमान व्यक्तियों का कहना है कि भले ही अनन्त पर पदार्थ रहे किन्तु उनको जान लेना, उन पर रुचि रखना सम्यग्दर्शन नहीं है वे तत्वभूत पदार्थ नहीं हैं। तस्वभूत पदार्थ तो आत्मा है । पर पदार्थों पर तो अनादिकाल से विश्वास करते आए हैं और कर रहे हैं । शरीर, इन्द्रिय, कुटुम्ब परिवार, एवं समाज आदि पर विश्वास करते-करते तो अनेक जन्म गवां दिए किन्तु इन सब के मूल केन्द्र में स्थित तत्वभूत पदार्थ आत्मा पर विश्वास भी नहीं किया और उसकी प्रतीति भी नहीं कर पाए । परिणामतः जैसे के तैसे रह गए । इसलिए तत्वभूत पदार्थ आत्मा है और उसकी श्रद्धा प्रतीति आस्था करना ही सम्यग्दर्शन है ।
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आत्मा के तत्वभूत पदार्थ मानने और उस पर श्रद्धा, विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहने का दूसरा कारण यह है कि जिसको अपनी आत्मा की सत्ता पर विश्वास होता है उसे ही परमात्मा की सत्ता पर भी विश्वास हो सकता है। इतना ही क्यों? जो आत्मवादी हैं वही कर्मवादी भी हो सकता है और जो कर्मवादी है वही लोक-परलोक वादी भी हो सकता है। लेकिन जिसे स्वयं अपनी आत्मा पर विश्वास नहीं, आत्मा के अस्तित्व पर श्रद्धा नहीं है, आस्था, प्रतीति और रुचि नहीं है उसे कभी भी कर्म पर विश्वास हो नहीं सकता है । ससीम से असीम बनने आदि का अन्यतम लक्ष्य और स्थान मोक्ष का विश्वास नहीं हो सकता है । जहां अन्यतम लक्ष्य के अनुकूल आत्मा की अवस्था बनती है। इसीलिए आत्मा के अस्तित्व "मैं हूं" की पूर्ण प्रतीति को सम्यग्दर्शन कहा गया है। उत्पत्ति : सम्यग्दर्शन की
सम्यग्दर्शन और उसके स्वरूप को समझ लेने के बाद यह जिज्ञासा होती है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन का उत्पत्ति स्थान आत्मा है, वह कहीं बाहर से आनेवाला तत्व नहीं है, आत्मा का गुण होने से आत्मा की तरह उसका भी अनादि अनन्त कालिक अस्तित्व है । किन्तु उसकी उत्पत्ति, प्राप्ति कैसे होती है ? प्राप्ति का अर्थ है, आवृत्त आत्मा के निज स्वरूप को अनावृत्त कर देना, तो इसके लिए कहा जा सकता है
तन्निसर्गादधिगमाद्वासम्यग्दर्शन की उत्पत्ति निसर्ग, स्वभाव ऊपर निर्मित अपरोपदेश से और अधिगम पर निर्मित पर संयोग परोपदेश से होती है । निसर्ग से उत्पन्न होने वाले सम्यग्दर्शन को निसर्गज और अधिगम से उत्पन्न होने वाले सम्यग्दर्शन को अधिगमज कहते हैं ।
यद्यपि निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनों में आत्मशुद्धि का स्तर समान है। शुद्धि के लिए किए जाने वाले प्रयत्न भी एक जैसे हैं और अंतरंग कारण भी एक ही हैं जिससे दोनों में अन्तर नहीं है लेकिन उत्पत्ति के समय बाह्य निमित्त निरपेक्षता और सापेक्षता के कारण समझने के लिए निसर्गज और अधिगमज भेद कर लिए गए हैं । निसर्गज सम्यग्दर्शन स्वयं के आंतरिक पुरुषार्थ एवं बल से प्राप्त होता है। इस सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के समय आत्मशुद्धि और शक्ति प्रबल होती है। पर निमित्त की अपेक्षा ही नहीं रहती है। अधिगमज सम्यग्दर्शन में आत्मशुद्धि और शक्ति के रहने पर भी दूसरे के सहकार की आवश्यकता होती है परन्तु सहकार की भी सीमा है । वही सब कुछ नहीं है । मूल तो आत्म जागृति है।
इस बात को एक लौकिक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि विविध प्रकार के जीवन धारक धान्यफल आदि भूमि से पैदा होते हैं । उर्वरा भूमि में तो बीज डालने के बाद स्वयमेव बीज वृद्धिगत होकर सुन्दर फल देते हैं । उनके लिए पानीखाद आदि देने की आवश्यकता नहीं रहती है लेकिन कोई भूमि ऐसी भी होती है कि जो उपजाऊ तो है किन्तु समय-समय पर उसमें पानी खाद आदि डालने पर अन्नोत्पादन होता है। इस प्रकार धान्योत्पादन धरती से होता है। धान्य का उत्पत्ति स्थान भूमि है लेकिन एक धरती में प्रयत्न करने पर पुष्कल धान्य पैदा हो जाता है।
जबकि दूसरी में प्रयास किया गया तथा सहकारी कारणों का सहयोग लिया गया है यही स्थिति निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शन के बारे में अच्छी तरह से समझी जा सकती है। सम्यग्दर्शन के ज्ञापक लक्षण
हम पूर्व में यह तो जान ही गए हैं कि सम्यग्दर्शन आत्मा का गुण है और आत्मा के अमूर्त होने पर वह भी अमूर्त है । लेकिन उसकी प्राप्ति आत्मा को हो चुकी है या नहीं? इसका बोध प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्ति भावादि पांच लक्षणों द्वारा होता है। ये पांचों अथवा इनमें से कोई एक लक्षण जिस आत्मा में हो तो समझ लेना चाहिए कि उसे सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है।
अनादि काल से आत्मा के साथ संबंध कषाय भावों की साहजिक मंदता को प्रशम कहेंगे। कभी इनका उदय तीव्र होता है और कभी मंद। तीवोदय में आत्मा अपने स्वरूप से विमुख हो जाती है। और मंद होने पर उन्मुख । आत्मा के स्वभाव की ओर गति करने, उसमें स्थित रहने अथवा सांसारिक दुःख क्लेशों से छूटने की विमुखता की भावना को 'संवेग' कहते हैं। सांसारिक पदार्थों के साथ में लगे अनादिकालीन आसक्तिराग भाव को छोड़कर आत्मोन्मुखी हो जाना "निर्वेद" कहलाता है। संसार के प्राणियों में दश्यमान दुःखों, वेदनाओं से द्रवित हो उठना और उन दुःखों के निराकरण के लिए प्रयत्न करना "अनुकम्पा" है। पर पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकार करने के पूर्व अपने अस्तित्व की दृढ़ आस्था "मैं हूं" इस अडिग निश्चय को "आस्तिक्य" कहते हैं । प्रथम-संवेग-निर्वेद और अनुकंपा भाव का अनुमान दूसरे व्यक्तियों को भी हो सकता है। आस्तिक्य भाव स्वयं गम्य है। यदि जीवन में आस्तिक्य भाव है तो समग्र विश्व का कोई भी प्रलोभन या दुःख व्यक्ति को अपने स्थान से च्युत नहीं कर सकता है। सम्यग्दर्शन और साधना का संबंध
सम्यग्दर्शन के लक्षण आदि का विहंगावलोकन करने के बाद अब यह एक विचारणीय प्रश्न शेष रह जाता है कि सम्यग्दर्शन और साधना का संबंध क्यों माना गया है ? यद्यपि इस प्रश्न के उत्तर का यत्र तत्र पूर्व में संकेत किया गया है। यहां पर कुछ विशेषता के साथ इतना और जान लें कि साधना का लक्षण अणु से महान, साकार से निराकार, एवं बंधन से मुक्ति का होता है। वहीं कार्य सम्यग्दर्शन के द्वारा भी सम्पन्न होता है। सम्यग्दर्शन एक ऐसी कला है जिसकी प्राप्ति हो जाने पर जीवन में दुःख रहता ही नहीं है। दुःख सुख में परिवर्तित हो जाता है आत्म-भूमि में यदि कभी दुःख का बीज गिर भी जाए तब भी वह अंकुरित नहीं होता है। उद्वेगकारी एवं अनर्थकारी नहीं होता है। इसकी प्राप्ति होने पर ही आत्मा को बंधन से मुक्ति मिलती है, सिद्धि मिलती है। अनंत अतीत में जितनी भी आत्माएं सिद्ध हुई हैं, उन सबका मूलाधार सम्यग्दर्शन है। अनंत अनागत में भी जितनी आत्माएं सिद्धि लाभ करेंगी उनके लिए भी यही एक मात्र आधार होगा। जिस किसी भी आत्मा ने सम्यग्दर्शन रूपी रामबाण औषधि प्राप्त कर ली
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उसे दुख तो प्रभावित करते ही नहीं हैं। किन्तु तीन लोक के समग्र । वैभव एवं ऐन्द्रियक सुख-साधन भी प्रलोभित नहीं कर पाते हैं।
सम्यग्दर्शन एक ज्योति है जिसे अन्दर और बाहर दोनों ही पक्ष आलोकित होते हैं। जितना प्रकाश अन्तर को ज्योतित करता है उतना ही बाहर को भी। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद दूसरा कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता है। सभी प्राप्तव्य स्वतः स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं। लौकिक विभूतियों की बात तो दूर रही परन्तु मुक्ति को भी प्राप्त होना पड़ता है। दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं जो मुक्ति की प्राप्ति में बाधा डाल सके । इस प्रकार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साथ अनन्त मंगल का द्वार खुल जाता है। साधना का आव्हान
साधना भी सम्यग्दर्शन के आदर्श को अपनी वाणी से आव्हान करती है, उन्हें उद्बोधन देती है कि जब तक जीवन में लक्ष्य प्राप्ति के बाधक कारणों का अभाव नहीं होगा मोह निद्रा का नहीं छोड़ेंगे तब तक विमुक्ति किस भांति मिल सकती है? इसलिए विश्व के अनंत पदार्थों का चिन्तन करने के साथ प्राप्ति के साधन जुटाने में शक्ति श्रम का उपयोग करने की बजाय तत्वभूत पदार्थ को जानो। जागृत हो जाओ। सतर्क होओ। सावधान बनो। प्रमाद का परित्याग करके अप्रमादी बनो। उठो जागो। आगे बढ़ो, आत्मदर्शन करो। जीवन में सुख दुख तो आते रहेंगे लेकिन एक क्षण के लिए भी आत्म सद्भाव को मत छोड़ो। विस्मृत मत होने दो कि क्षणमात्र का प्रमाद भी भयंकर विपत्ति उत्पन्न कर
सकता है। किए-कराए पर पानी फेर सकता है। अतीतकाल में किए गए अनंत जन्म मरणों को भूल कर एक ही बात याद रखो कि वर्तमान को शुद्ध बनाना है। वर्तमान को इतना शुद्ध बना लो कि भविष्य में फिर कभी जन्म मरण के परिचक्र में न फंस सको। वर्तमान तुम्हारा अपना है, उसके तुम स्वामी हो, अतः इसको इतना संभाल लो कि भविष्य स्वयं संभल जाए"।
इन सुस्पष्ट संकेतों से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि जो बात सम्यग्दर्शन ने कही है उसी बात को साधना ने भी दुहराया है। दोनों का उद्देश्य एक ही है कि प्राणीमात्र स्वरूप बोध करके अपने स्वरूप में स्थित होकर समग्न विभाव-भावों विकारों एवं विकल्प जालों से मुक्त होकर अंधकार से प्रकाश में आए। अन्दर बाहर सर्वत्र विराट चैतन्य के दर्शन करे। विमुक्ति भाव को प्राप्त करके समत्वयोग का सुयोग प्राप्त करे। लेकिन स्वरों में अन्तर है। दोनों की अपनी-अपनी बोली है। सम्यग्दर्शन, मार्ग दर्शक है, साधन है, और साधना है, उद्देश्य को क्रियान्वित करने वाली एक शक्ति । इसीलिए जब साधन की मुख्यता की ओर हमारी दृष्टि रहती है तब सम्यग्दर्शन साधना का आधार माना जाता है। किन्तु सम्यग्दर्शन भी तो साधना के बिना प्राप्त नहीं होता है। अतः उस दृष्टि से साधना को भी सम्यग्दर्शन का आधार कह सकते हैं। इस प्रकार साधना और सम्यग्दर्शन समानार्थक है। जिसके जीवन में इन दोनों का या दोनों में से किसी एक का भी सुमेल हो जाता है तो वह अनन्त अनन्त काल तक इस विराट विश्व का सम्यग्दर्शन करके समत्व योग की साधना में तल्लीन रहता है।
(जैन समाज द्वारा धार्मिक शिक्षण व्यवस्था : पृष्ठ १४७ का शेष)
२. पूरे जैन समाज की शिक्षा संस्थाओं के शिक्षार्थियों की परीक्षा
के हेतु एक परीक्षा बोर्ड हो तथा उसके द्वारा उत्तीर्ण छात्रों को समाज द्वारा संचालित धार्मिक शिक्षा संस्थाओं के शिक्षण
में Service दी जावे। ३. पूरे समाज द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं का एकीकरण
करके एक Governing Council बनाई जावे । जो अखिल
भारतीय तथा प्रादेशिक स्तर की हो। ४. इसी प्रकार प्रत्येक स्थान की संस्थाओं के लिये प्रबन्ध समिति
बना दी जावे।
इसमें सन्देह नहीं कि कार्य की विशालता को दृष्टिगत रखते हुए इसमें सम्पन्न होने में ४-५ वर्ष लग सकते हैं किन्तु निर्वाण
महोत्सव वर्ष की एक उदाहरणीय फलश्रुति होगी। निवार्ण महोत्सव वर्ष में साम्प्रदायिक, अभिनिवेश कम करके अखिल जैन समाज रूपी वटवृक्ष का बीजारोपण करने का प्रयत्न किया गया था उसकी दिशा में शिक्षा जैसे पवित्र कार्य में पहल करके उसको पल्लवित तथा पुष्पित करने का यह प्रयत्न होगा। समाज के शिक्षा-विद्, चितक, प्रबुद्ध वर्ग, तथा नेतागण का ध्यान इस ओर आकर्षित हो तो यह कार्य मुश्किल नहीं है, आवश्यकता दृढ़ निश्चय की तथा साम्प्र दायिकत्ता-विहीन दृष्टि की।
आशा है इस पर गहराई से विचार किया जावेगा। किसी उपर्युक्त समय पर भारत जैन महामण्डल स्वयं अपने पूर्व निश्चय को क्रियान्वयन के लिये व्रत संकल्प होगा।
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जैन धर्म का मूलाधार : सम्यग्दर्शन
डॉ. प्रेमसिंह राठौड़
जैसे अणुरूप बीज में विराट वृक्ष होने की शक्ति है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति तभी हो सकती है जब उसे अनुकूल पानी, प्रकाश और पवन की उपलब्धि होती है। साधना के क्षेत्र में भी यही सत्य है कि आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य होने पर भी उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो रही है। इस शक्ति की अनुभूति और अभिव्यक्ति को साधना कहा जा सकता है। इसकी प्राप्ति के लिए जैन दर्शन में रत्नत्रयी की साधना का विधान किया गया है। रत्नत्रयी का अर्थ है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति । वस्तुतः यही मोक्षमार्ग है।
“सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" --त. सू. १-१ यहा मार्ग का अर्थ पंथ एवं रास्ता नहीं है, बल्कि मार्ग का अर्थ है साधन एवं उपाय । मोक्ष का मार्ग कहीं बाहर में नहीं है, वह साधक के अन्तर चैतन्य में ही है, उसकी अन्तरात्मा में ही है।
सम्यग्दर्शन आत्मसत्ता की आस्था है। जड़ और चैतन्य का भेद करना ही सम्यग्दर्शन का वास्तविक उद्देश्य है। जिसे आत्मबोध और चेतना का बोध हो जाता है, वही आत्मा यह निश्चय कर सकती है कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं क्योंकि यह सब कुछ भौतिक एवं पुद्गलमय है। इसके विपरीत मैं चैतन्य हूं, आत्मा हूं तथा अभौतिक हूं, जड़ से सर्वदा भिन्न हूं, मैं ज्ञान स्वरूप हूं एवं पुद्गल कभी ज्ञान स्वरूप नहीं हो सकता है। जबकि आत्मा और पुदगल में इस प्रकार मूलत: स्व-स्वरूपतः विभेद है । तब दोनों को एक मानना अध्यात्मक्षेत्र में सबसे बड़ा अज्ञान है और सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। यह अज्ञान और मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन मूलक सम्यग्ज्ञान से भी दूर हो सकता है। साधक को यही समझना है कि आत्मा में अनन्तकाल से जो पुद्गल के प्रति ममता है, उस ममता को दूर कर दिया जाय तो फिर वे आत्मा का कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। सम्यकज्ञान का अर्थ है आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ज्ञान । आत्म-विज्ञान की उपलब्धि होने के बाद अन्य भौतिक ज्ञान के अभाव
में भी आत्मा का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। ज्ञान की अल्पज्ञता भयंकर नहीं है, उसको अज्ञानरूप विपरीतता ही भयंकर है । आत्मज्ञान यदि कण-भर है तो वह मन भर भौतिक ज्ञान से भी अधिक श्रेष्ठतर है, श्रेष्ठतम है । आत्म-साधना में ज्ञान की विपुलता अपेक्षित नहीं है, किन्तु ज्ञान की विशुद्धता अपेक्षित है। प्रतीति और उपलब्धि के साथ आचरण आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य ही है। जैन दर्शन कहता है कि विश्वास को विचार में बदलो और विचार को आचार में बदलो, तभी साधना परिपूर्ण होगी। अध्यात्मवादी दर्शन में जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य "स्व-स्वरूप की उपलब्धि, स्व-स्वरूप में लीनता और स्व-स्वरूप में रमणता है। शास्त्र की परिभाषा में इसी को भाव-चारित्र कहा है। जीवन विकास के लिए द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता है।
मनुष्य क्या है ? वह अपने विश्वास, विचार और आचार का प्रतिफल है। दृष्टि की विमलता से ही जीवन अमल और धवल बनता है। यही कारण है कि जैन दर्शन में विचार और आचार के पहले दृष्टि की विशुद्धि पर विशेष लक्ष्य और बल दिया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी "अध्यात्मसार" के चतुर्थ प्रबन्ध द्वादश अध्याय सम्यक्त्वाधिकार में लिखते हैं
मनःशुद्धिश्चसम्यक्त्वे, सत्येव परमार्थतः ।
तद्विना मोहगर्भासो प्रत्यपायानुबंधिनी ।। (सम्यक् गुण होने पर ही परमार्थ से मन की शुद्धि होती है, सम्यक्त्व के अभाव में मनशुद्धि मोहगर्भित होती है, जो कष्ट-बंधनकारी होती है)।
सम्यक्त्व सहिता एवं शुद्ध दानादि का: क्रियाः ।
तासां मोक्षफले प्रोक्ता, यदस्य सहकारिता ।।२।। (दानादि क्रिया सम्यक्त्व सहित होने पर ही शुद्ध होती है, मोक्ष फल प्राप्ति में सम्यक्त्व सहायक है) ।
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कुर्वाणोपि क्रियां ज्ञाति धन भोगांस्त्यजन्नपि । दुःखस्यो ददानोपि नांधा जयति वैरिणम् ||२||
( सब क्रियाएं करता हो, जाति, धन और भोग का त्याग करता हो, परन्तु जैसे अंधा व्यक्ति शत्रु को जीत नहीं सकता, उसी प्रकार सम्यक्त्व के अभाव में सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती ) ।
कुर्वन्निर्वृत्ति मप्येवं कामभोगोस्त्य जन्नपि । दुखः स्पोरोददानोपि मिध्यादृष्टिर्न सिध्यति ॥४॥
(संतोष धारण किया हो, कामभोग का त्याग किया हो और दुःख को सहन करता हो, परन्तु अगर मिध्यादृष्टि हो तो सिद्धि प्राप्त नहीं होती।
कनी निकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम् । सम्यत्वामुच्यते सारः सर्वेषा धर्मकर्मणाम् ||५|| (नेत्र का सार उसकी कड़ी, पुष्प का सार जैसे सुगन्ध, ऐसे ही सब धर्मों का सार सम्यक्त्व है ) ।
तत्वश्रद्धान मेतच्च गदितं जिन शासने ।
सर्वे जीवा न हंतव्या सूत्रे तत्व मितीष्यते ॥ ६ ॥
(तत्व में श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है, ऐसा जिनशासन में कहा है । सब जीवों की हिंसा नहीं करना, यह तत्व है, ऐसा सूत्र में कहा है ।)
सभ्य दर्शन को किसी नदी, समुद्र, देवी-देवता, पर्वत, चाद सूरज आदि की धारणा विशेष के साथ बांध देना जैन दर्शन की मूल प्रक्रिया से हट जाना है। जड़ सत्ता पर विश्वास करना सम्यग्दर्शन नहीं है, बल्कि चैतन्य शक्ति पर विश्वास करना ही सम्यग्दर्शन है । "नादंसणिस्स नाणं"
-उत्त० २८-३०
सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता। सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र की साधना का महल, शंकाओं, अंधविश्वासों आदि के जरासे अंधड़ से दह जावेगा 1
ब्रह्मसमाज के विख्यात तत्ववेत्ता केशवचन्द्र ने एक बार श्री रामकृष्ण से पूछा- "लोग चाहे जितने उच्च कोटि के विद्वान क्यों न हों, फिर भी वे मायाजाल में फंसे ही रहते हैं ।" इसक। कारण क्या है ? श्री रामकृष्ण ने उपमा देते हुए समझाया -- "चीलें आकाश में बहुत ऊंचाई तक शुद्ध वायुमंडल में उड़ती रहती हैं, लेकिन उनकी नजर नीचे पड़े हुए मृत प्राणी के मांस और हड्डी पर रहती है। इसी तरह चाहे हम कितनी ही ऊंची किताबें पढ़ लें, लेकिन जब तक हमारी नजर साफ और सही नहीं होगी, तब तक हम काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि के मायाजाल में फंसे रहेंगे । कोरी विद्या पढ़ने से सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं होता, उसके लिए सम्यग्दृष्टि चाहिए ।
सम्यग्दृष्टि का आचार पाप प्रधान नहीं होता । आचारांग सूत्र में कहा है -- "समत्तदंसी न करेइ पावं ।" सम्यग्दर्शन के दिव्य आलोक में बाह्य दुःखों के बीच भी आंतरिक सुखों का अजय खोत फूटेगा। सम्यदृष्टि आत्मा प्रतिकूलता में भी अनु
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कूलता का अनुभव करता है और मिध्यादृष्टि आत्मा अनुकूलता में भी प्रतिकूलता का अनुभव करता है। सम्यक्त्व धर्म के प्रभाव से नीच से नीच पुरुष भी देव हो जाता है और उसके अभाव में उच्च से उच्च भी अधम हो जाता है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक में कहा है-
सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपिमातंग देहनम् । देवा देवं विदुर्भस्म गूढ़ागारान्त रौजसम् ।।
( चांडाल के शरीर से पैदा हुआ व्यक्ति भी सम्यग्दर्शन सम्पन्न हो तो देवता उसे राख में छिपे हुए अंदर से तेजस्वी अंगारों की तरह देव कहते हैं)।
भारतीय दर्शन का कथन है कि- "जब तक मर्त्य और अमृत अंशों को ठीक से नहीं समझा जायगा एवं उसका सम्यक् विकास नहीं किया जावेगा, तब तक मनुष्य अपूर्ण ही रहेगा। अध्यात्मवादी मनुष्य शरीर की सत्ता से इन्कार नहीं करता, उसको विवेकदृष्टि शरीर के अन्दर स्थित दिव्य अंश का भी साक्षात्कार करती है । आत्मवादी के जीवन में भोग-विलास आदि का भी अस्तित्व रहता है, किन्तु इनकी प्राप्ति एवं उपभोग ही उसके जीवन का साध्य नहीं बनता, भोग से योग की ओर अग्रसर होने में ही उसकी सफलता है। वह सदा अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का विश्वास लेकर चलता है -- "आरोह तमसो ज्योति" ।
श्रमण साहित्य के अतिरिक्त वैदिक साहित्य में भी सम्यग्दर्शन की महिमा कम नहीं है। वहां ऋत, सत्य, समत्व आदि शब्दों से इसी ओर इंगित किया गया है। सम्यग्दर्शन शब्द प्रयुक्त हुआ है, परन्तु बहुत ही कम । गीता में कहा है--"समत्वं योग उच्यते"समत्व सबसे बड़ा योग है। महर्षि मनु ने लिखा है-
सम्यग्दर्शन संपन्न कर्मभिर्न निबध्यते दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते । — मनुसंहिता (सम्यग्दर्शन से सम्पन्न व्यक्ति कर्मवद्ध नहीं होता, संसार में परि भ्रमण वही करता है जो सम्यग्दर्शन विहीन होता है)।
सम्यक्त्वी साधक उपशम से क्रोध को, विनय से मान को, सरलता से माया को, संतोष से लोभ को, समभाव से ईर्ष्या को, प्रेम से घृणा को जीतने का अभ्यास करता है । इन पर विजय पाना ही सम्यक्त्व की प्राथमिक साधना है । सम्यक्त्वी भाषा, प्रदेश, जाति, धर्म, अर्थ, शास्त्र, पंथ आदि किसी भी क्षेत्र में आवेश, आग्रह या पक्षपात के वशीभूत नहीं होता है। अध्यात्मवादी व्यक्ति का जीवन ऊर्ध्वमुखी होता है और भोगवादी व्यक्ति का जीवन अधोमुखी होता है। अपामार्ग एक औषधि होती है, उसे बधा-कोटा भी कहते हैं। उसमें कांटे भरे रहते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने हाथ से उसको पकड़ कर अपने हाथ को उसके नीचे की ओर ले जाय तो उसका हाथ कांटों से छिलता चला जाएगा, उसका हाथ लहुलुहान हो जायगा और यदि उस टहनी को पकड़ कर अपने हाथ को नीचे से ऊपर की ओर ले जाय तो उसके हाथ में एक भी कांटा नहीं लगेगा। यह जीवन का एक मर्म भरा रहस्य है । सम्यग्दृष्टि
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और मिथ्यावृष्टि के जीवन में यही सब कुछ घटित होता रहता है। मिथ्यादृष्टि अधोमुखी है, वह संसार और परिवार के सुख-दुखात्मक हजारों-हजारों कांटों से बिंधता रहता है और छिलता रहता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि इस संसार व परिवार में ऊर्ध्व बन कर रहता है, जिससे संसार के सुख-दुःखात्मक अपामार्ग के कांटों का उसके अध्यात्म-जीवन पर जरासा भी प्रभाव नहीं पड़ पाता। अध्यात्मजीवन की यह सबसे बड़ी कला है। अध्यात्मशास्त्र में जीवन की इस कला को सम्यग्दर्शन कहा है। मिथ्यादृष्टि आत्मा स्वर्ग में ऊंचा चढ़ कर भी नीचे गिरता है और सम्यग्दृष्टि आत्मा नीचे नरक में जाकर भी अपने ऊर्ध्वमुखी जीवन के कारण नीचे से ऊंचे की ओर अग्रसर होता रहता है। यह सब कुछ दृष्टि का खेल है । दृष्टि का भेद है। सम्यग्दर्शन वह निर्मल धारा है, जिसमें निमज्जित होकर साधक अपने मन के मैल को धो डालता है। हमारे जीवन के आदि में सम्यग्दर्शन हो, मध्य में सम्यग्दर्शन हो और अंत में सम्यग्दर्शन हो, तभी हमारा जीवन मंगलमय होगा।
सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं है कि पहले कभी दर्शन नहीं था और अब नया उत्पन्न हो गया है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का अर्थ इतना ही है कि आत्मा का जो दर्शन गुण आत्मा में अनन्तकाल से था, उस दर्शन गण की मिथ्यात पर्याय को त्याग कर आपने उसकी सम्यक् पर्याय को प्रकट कर लिया है। भगवान की वाणी, गुरु का उपदेश और शास्त्र का स्वाध्याय साधक के जीवन में कोई नया तत्व नहीं उड़ेलते, बल्कि जो कुछ ढंका हुआ होता है, उसी को प्रकट करने में सहायता करते हैं।
सम्यग्दर्शन का वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार से किया गया है। किसी ग्रन्थ में जीव आदि नव पदार्थों के अथवा जीव आदि सात तत्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। किसी ग्रन्थ में आप्त, आगम और धर्म के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। किसी ग्रन्थ में स्व पर विवेकः को अथवा भेद विज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। व्याख्या और परिभाषा भिन्न होने पर भी उनमें केवल शाब्दिक भेद ही है, लक्ष्य सबका एक ही है, जड़ से भिन्न चेतन सत्ता पर आस्था रखना। सम्यग्दर्शन एक प्रकार से विवेक रवि है जिसके उदय होने पर मिथ्यात्व का घोर अंधकार रह नहीं पाता। सम्यग्दर्शन न तो किसी जाति का धर्म है न किसी राष्ट्र का धर्म है और न वह किसी पंथ विशेष का धर्म है, वह तो एक मात्र आत्मा का धर्म है।
सम्यग्दर्शन की परिभाषा के तीन प्रकार उपलब्ध हैं-तत्वार्थ श्रद्धान, देव-गुरु-धर्म पर विश्वास और आत्मा-अनात्मा का भेदविज्ञान । तत्वार्थ श्रद्वान दार्शनिक जगत की वस्तु, भेद-विज्ञान अध्यात्म शास्त्र का विषय रहा और देव-गुरु-धर्म पर विश्वास यह संप्रदाय संबंधी दर्शन रहा। किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से आत्म-अनात्म का भेद विज्ञान ही सम्यग्दर्शन है। इसके अभाव में न तो तत्वों पर श्रद्धा होती है और न देव-गरु-धर्म पर विश्वास । यह बात ध्यान देने योग्य है कि देव-गरु-धर्म पर श्रद्धा का सिद्धान्त सुन्दर और उदार होते हुए भी, उसका उपयोग जब पंथ तथा
संप्रदायवाद की पुष्टि में किया जाता है तो आत्म-गणों के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। अन्तर्दृष्टि के स्थान पर बाह्यदृष्टि' को प्रधानता मिलती है।
सामान्यतः कर्म-सिद्धान्त के अनुसार सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति दर्शन मोहनीय के क्षय, उपशम या क्षयोपशम के कारण उदय में नहीं आने से होती है। उत्पत्ति के निमित्त कारणों को ध्यान में रख कर सम्यग्दर्शन के दस भेद उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार बतलाए हैंनिसग्गुवएसरूई, आणारूई, सुत-बीयरूइमेव ।
अभिगम-वित्थाररूई, किरिया-संखेव-धम्मरूई ।। उत्त. २८-१६ (निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि)
स्थानांगसूत्र (१०-७५१) और प्रज्ञापना (पद १, सूत्र ७४) में भी इन भेदों का इसी प्रकार उल्लेख मिलता है। परन्तु यहां सम्यग्दर्शन के धारक सम्यग्दृष्टि के प्रथमत: “सराग" और "वीतराग' के भेद से दो भेद करके सराग-सम्यग्दृष्टि के उपरोक्त दस भेद बतलाए हैं।
आचार्य गुणभद्र रचित "आत्मानुशासन' में भी दस भेद बतलाए हैं, परन्तु वहां पर उनके साथ रुचि शब्द नहीं जोड़ा गया है तथा उनके नाम एवं क्रम में भी कुछ अन्तर है
आज्ञामार्ग समुद्भवमुपदेशात् सूत्र बीज संक्षेपात् विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढ़, परमावादिगाढ़े च ।।
-आत्मानुशासन श्लोक ११ (आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़)।
निमित्त कारण की विविधता के कारण यद्यपि सम्यग्दर्शन के अनेक भेद हो सकते हैं तथापि उत्पत्ति के प्रति निमित्त कारण की अपेक्षा और अनपेक्षा की दृष्टि से संक्षेप में दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-१.निसर्गज सम्यग्दर्शन (जो सम्यग्दर्शन बिना किसी पर-संयोग एवं बाह्यनिमित्त से प्रकट होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन)। २.अधिगमज सम्यग्दर्शन (इसमें शास्त्र, स्वाध्याय आदि किसी पर-संयोग की आवश्यकता होती है। आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में बतलाया है"तनिसर्गादधिगमाद्वा"
-त. सूत्र १-३ (वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अर्थात् परिणाम मात्र से अथवा अधिगमबाह्य निमित्त से उत्पन्न होता है)।
यदि उपर्युक्त दस भेदों को इन दो भागों में विभक्त किया जाय तो निसर्गरुचि को छोड़ कर शेष सभी पर-सापेक्ष हैं । इसके अतिरिक्त कर्मों के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के भेद से सम्यग्दर्शन के अन्य तीन भेद भी कहे हैं -- कर्मणा क्षयतः शान्ते, क्षयोपशम तस्तथा, श्रद्धानं त्रिविध बोध्यं ।
-यशस्तिलक चंपू पृ. ३२३
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सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को “बोधिलाभ" भी कहा है "सम्म सगरता... मुलहा तेहिभने बोहि" उत्त. ३६-२५८
प्रत्येक वस्तु को जानने के लिए लक्षण की आवश्यकता होती है । सम्यग्दर्शन के पांच लक्षण व्यवहार नय की दृष्टि से बतलाए गए हैं। निश्चय नय से तो स्व-स्वरूप पर आस्था होना ही सम्यग्दृष्टि का वास्तविक लक्षण है। पांच लक्षण हैं- प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य ।
१. प्रशम - कषाय की मंदता ही वस्तुतः प्रशम है। एक व्यक्ति क्रोध आने पर भी जब शान्त रहता है तब समझना चाहिये कि उसमें प्रशम गुण हैं। लोभ, मान, और माया के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझना चाहिये । कषाय के उदयकाल में कषाय का उपशम करना सहज और आसान काम नहीं है । यह अपने आप में बहुत बड़ा तप है और एक बड़ी साधना है। विकार का कारण रहते हुए भी विकार की अभिव्यक्ति न होने देना यह आत्मा का असाधारण गुण है। इस गुण को प्रथम कहते हैं।
२. संवेग आत्मा के ऊर्ध्वमुखी भाव-वे को ही संवेग कहा जाता है। संवेग का दूसरा अर्थ है भव-भीति । संवेग का तीसरा अर्थ है भव-बंधन से मुक्त होने की अभिरुचि, संसार के पदार्थों में अभिरुचि का अभाव और मोक्ष में अभिरुचि का भाव, जब जीवन में साकार हो जाता है तो समझना चाहिये कि उस जीवन में सम्यग्दर्शन के पीयूष की वर्षा हो रही है। संवेग से क्या प्राप्त होता है, इसके उत्तर में कहा गया है- "संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ. . सोहिए य णं विसुद्धाए तच्च पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ( उत्त. २९-२ ) । संवेग से जीव अनुत्तर-धर्म-श्रद्धा को प्राप्त होता है। परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग आता है । अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय होने से मिथ्यात्व विशुद्धि कर दर्शन का आराधक होता है। दर्शन विशुद्धि के कारण विशुद्ध हो कर कई एक जीव उसी जन्म में सिद्ध होते हैं और कुछ हैं जो दर्शनविशुद्धि से विशुद्ध होने पर तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते हैं।
३. निर्वेद - इसका अर्थ है वैराग्य, विरक्ति और अनासक्ति निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यंच-संबंधी काम-भोगों से शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त होता है।
४. अनुकंपा अनुकंपा, दया और करुणा इन तीनों का एक ही अर्थ है । करुणा और दया का अर्थ है - हृदय की वह सुकोमल भावना जिससे व्यक्ति अपने दुःख से नहीं बल्कि दूसरे के दुःख से द्रवित हो जाता है। जो समर्थ व्यक्ति अपने जीवन में किसी के आंसू न पोंछ सका, वह व्यक्ति किसी भी प्रकार की धर्म-साधना कैसे कर सकता है ? सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में अनुकंपा एक अनिवार्य कारण है।
५. आस्तिक्य - आस्तिक्य का अर्थ है विश्वास । पुद्गल में नहीं आत्मा में ही विश्वास होना चाहिये। जिसका विश्वास अपनी
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आत्मा में है, उसका विश्वास कर्म में भी होगा, परलोक में भी होगा और मुक्ति में भी होगा । आत्म-विश्वास ही सबसे बड़ा सम्यग्दर्शन है।
यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि किस बिन्दु से साधना प्रारम्भ करें। उत्तर यही है कि किसी भी सम्यक् बिन्दु से आरंभ की हुई साधना साध्य की परम ऊंचाई को प्राप्त कराती है, क्योंकि भीतर में साधना की जड़ें प्रत्येक महानता से जुड़ी हुई हैं। ये पांचों या इनमें से कोई भी एक लक्षण यदि मिलता है। तो समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है ।
सम्यग्दर्शन के पांच अतिचार बतलाये गये हैं। अतिचार का अर्थ है किसी भी प्रकार की अंगीकृत मर्यादा का उल्लंघन करना। आत्म-विशुद्धि का जो अंश जागृत किया है, उसको दूषित करना अतिचार कहा जाता है। पांच प्रकार के अतिचार है
१. शंका - शंका रहते हुए न जीवन का विकास हो सकता है और न अध्यात्म-साधना में सफलता ही मिलती है। "संशयात्मा विनश्यति' ( गीता) । इस उक्ति के अनुसार संशयी अपनी शक्ति एवं स्वयं का नाश करता है । परन्तु ज्ञान प्राप्ति एवं तत्व निर्णय के लिये जो शंका की जाती है, वह अतिचार की कोटि में नहीं आती है- "न संशयमनारुध्य नरो भद्राणि पश्यति" ।
किन्तु एक बार जब किसी तत्व का सम्यक् समाधान हो जाता है और जब सम्यक् प्रकाश से स्वीकृत सिद्धान्त को जीवन में साकार करने का प्रसंग उपस्थित होता है, उस समय साधना में जो शंका एवं संशय उपस्थित होता है, वह साधक के जीवन की सबसे बुरी स्थिति है । उस स्थिति से बचने के लिये साधक को चेतावनी दी गई है। संशय साधना में एक प्रकार का विष है।
२. कांक्षा- किसी-किसी ग्रन्थ में कांक्षा के स्थान पर आकांक्षा शब्द का भी प्रयोग किया गया है। दोनों का एक ही सामान्य अर्थ है - इच्छा और अभिलाषा । परन्तु यहां पर इसका एक विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है। जब एक साधक किसी अन्य व्यक्ति की पूजा और प्रतिष्ठा को देखकर, उसके वैभव और विलास को देख कर अपनी साधना के प्रति आस्था छोड़ देता है और पूजा एवं प्रतिष्ठा की अभिलाषा करता है, यही कांक्षा है। जो सिद्धान्त, साधना तथा क्रियाकांड सम्यक्त्व के परिपोषक न हों, वे सभी पर धर्म हैं ।
३. विचिकित्सा - विचिकित्सा का अर्थ है फल की प्राप्ति में संदेह करना । विचिकित्सा साधक की निष्ठा शक्ति को दुर्बल बनाती है। इससे बचने का एक ही उपाय है कि मन में फल hat आकांक्षा किये बिना अपनी साधना को निरन्तर करते रहना । यही साधना का एकमात्र राजमार्ग है। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" - गीता के इस सिद्धान्त को जीवन में व्यवहृत करने से विचिकित्सा नहीं पनप सकती ।
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४.-५. मिथ्यादृष्टि प्रशंसा और मिथ्यावृष्टि संस्तव-प्रशंसा का अर्थ है किसी की स्तुति करना, किसी के गुणों का उत्कीर्तन करना । संस्तव का अर्थ है किसी का परिचय करना, किसी से मेलजोल बढ़ाना। प्रश्न यह है कि यहां पर प्रशंसा और संस्तव को अतिचार दोष और दूषड़ क्यों माना गया है ? मनुष्य के मन पर संगति और वातावरण का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति की संगति और वातावरण में रहने वाला व्यक्ति कभी न कभी अपने मार्ग को छोड़ कर उसके रंग में रंग जावेगा। पाषंड शब्द के विविध ग्रन्थों में विविध अर्थ किये गये हैं। एक अर्थ है पथ भ्रष्ट व्यक्ति, दूसरा अर्थ है पंथ एवं सम्प्रदाय और तीसरा अर्थ है व्रत। सम्यक्त्वी की साधना भोगप्रधान नहीं होती है। इंद्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त होने वाले सुख परापेक्षी होने से "पर" कहलाते हैं। इन सुखों की आकांक्षा से किये गये व्रत “पर-पाषंड" हैं । आचार्य हरिभद्र ने पाषंड शब्द का अर्थ व्रत किया है-"पाखण्ड व्रत मिथ्याहु"। ऐसे व्रत को स्वीकार करने वाले परपाखंडी कहलाते हैं। परपाखंडी धर्मविहीन होते हैं और इन्द्रियों के सुख को महत्व देते हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि आत्म-दर्शन करना चाहता है। दोनों के साध्य भिन्न होने से सम्यक्त्वी न तो परपाखंड रूप व्रतों को स्वीकार करता है और न परपाखंडी की प्रशंसा ही करता है।।
सम्यक्त्व के दोषों का वर्णन करते समय यह कहा गया है कि अतिचारों को समझो अवश्य पर उनका आचरण भूल कर भी नहीं करना । पाप को समझना तो आवश्यक है, किन्तु उसका आचरण नहीं करना चाहिये, उसका समझना इसलिए आवश्यक है कि हम समय पर उस पाप से बच सकें।
जिस व्यक्ति में सम्यग्दर्शन होता है उस व्यक्ति का आचरण कैसा होता है। शास्त्रीय भाषा में इसे दर्शनाचार कहते हैं।
निस्संकिय निक्कांखिय, निम्विीत्तिगिच्छा अमूढदिट्ठीय ।
उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ।। उत्त. २८-३१ (निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपवृहंण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना-ये आठ सम्यक्त्व के अंग हैं)।
१. निःशंकता-इसका अर्थ है सर्वज्ञ और वीतराग की वाणी में किसी प्रकार की शंका नहीं करना । जीवन में सत्य के प्रति अगाध आस्था ही वस्तुतः निःशंकता है।
२. निष्कांक्षता-निष्कांक्षता का अर्थ है किसी भी प्रकार के अविहित एवं मर्यादाहीन भोग पदार्थ की इच्छा और अभिलाषा न करना । साधना की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि मन में किसी भी पदार्थ के प्रति साधना पथ से पतित करने वाला आकर्षण न हो।
३. निविचिकित्सा-इसका अर्थ है कि शरीर के दोषों पर दृष्टि न रखते हुए आत्मा के सद्गुणों से प्रेम करना। गुणदृष्टि और गुणानुराग ही निर्विचिकित्सा का प्रधान उद्देश्य है। निर्विचिकित्सा का एक अर्थ यह भी है कि मन में यह विकल्प
नहीं रखना चाहिये कि मुझे मेरी साधना का फल मिलेगा या नहीं। इसका एक यह भी अर्थ किया जाता है कि संयम परायण एवं तपोधन मुनि मलक्लिन्न, कृशतन और वेश को देख कर ग्लानि न करना।
४. अमुढ़दृष्टिता-जीवन में विवेक स्थिर करने के लिये मूढ़ता का परित्याग करना परमावश्यक है। शास्त्रों में अनेक प्रकार की मूढ़ताओं का वर्णन किया गया है-लोकमूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता।
(अ) लोकमूढ़ता में उन सभी पापों का समावेश हो जाता है जो लोक एवं समाज की अंध-श्रद्धा के बल पर चलते हैं। समाज में प्रचलित रूढ़ियां भी लोकमढ़ता का ही एक रूप हैं।
(ब) शास्त्रमूढ़ता-सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी शास्त्र को तब मानता है जबकि वह उसकी कसौटी कर लेता है। जब एक व्यक्ति कहता है कि मेरी संप्रदाय का शास्त्र ही सच्चा है, अन्य सब झूठे तो यह भी एक प्रकार की शास्त्रमूढ़ता ही है।
(स) देव मूढ़ता-विकारों के पूर्ण विजेता और वीतरागी देव को देव न मान कर विकारी देव को देव मानना, देवमूढ़ता है
(द) गुरुमढ़ता-साधनाभ्रष्ट और चरित्रहीन व्यक्ति को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है। इसका यह भी अर्थ लिया जाता है कि परीक्षा के बिना ही हर किसी को गुरु स्वीकार कर लेना और फिर स्वार्थ सिद्ध न होने पर परित्याग कर देना और किसी अन्य को अन्धभाव से गुरु बना लेना गुरुमूढ़ता है यह भी त्याज्य है।
५. उपबं हण-इसका अर्थ है वृद्धि करना, बढ़ाना या पोषण करना । न अपने सत्कर्म की अवहेलना करनी चाहिये और न दूसरे के सत्कर्म की। जहां तक हो सके सद्गुणों एवं सत्कर्मों को बढ़ावा देना चाहिये। उपबृहण शब्द के स्थान पर उपगुहन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ है "छिपाना"। सम्यग्दृष्टि को ऐसा आचरण नहीं करना चाहिये जिससे धर्म और उसकी संस्कृति की लोकनिन्दा हो। कदाचित् किसी कारण से धर्म की अवहेलना होती भी हो, तो उसे दूर करना ही उपगून कहा जाता है। परदोष दर्शन की प्रवृत्ति बड़ी ही भयंकर है। दूसरों के दोषों का सुधार तो करना चाहिये, परन्तु उसकी निन्दा के ढोल नहीं बजाना चाहिये। दूसरों के दोषों का उपगूहन करके उसके गुणों का आदर करो, उसके गुणों की अभिवृद्धि करो, यही उसका प्रधान उद्देश्य है।
६. स्थिरीकरण-इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म के मार्ग से गिर रहा हो तो उसे सहारा दे कर फिर धर्म में स्थिर कर देना । संघ में जो व्यक्ति निर्धन है, और अभावग्रस्त हैं और जो अपनी अभावग्रस्तता के कारण अथवा अपनी निर्धनता के कारण, अपनी संस्कृति या अपने धर्म से हट रहे हैं, उनकी समस्याओं को सुलझा कर और उनके मानसिक विकल्पों को दूर करके पुनः धर्मपथ पर लगा देना ही स्थिरीकरण का अभिप्राय है।
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७. वात्सल्य-इसका अर्थ है प्रेम और स्नेह । जिस प्रकार व्यक्ति अपने कुटुम्ब पर स्नेह और प्रेम रखता है, उसी प्रकार समाज के हर व्यक्ति पर प्रेम और स्नेह रखना ही वात्सल्य भाव है।
८. प्रभावना-प्रभावना का अर्थ है महिमा और कीर्ति । जिस कार्य को करने से अपने धर्म की महिमा हो और कीर्ति बढ़े, वह प्रभावना है। प्रभावना का कोई एक मार्ग और कोई एक पद्धति नहीं हो सकती। ज्ञान का प्रचार करने से, सदाचार को पवित्र रखने से तथा लोगों के साथ मधुर व्यवहार करने से धर्म की महिमा बढ़ती है। स्वयं द्वारा शुद्ध आचार पालन करना और दूसरों को शुद्ध आचरण पालन करने के लिए प्रेरित करना, यह भी प्रभावना का एक अंग है। त्याग, तपस्या और संघ सेवा भी प्रभावना का एक अंग है।
मन से, वचन से और काया से दूसरों को पीड़ित करना, तीन प्रकार का दंड है। माया, निदान और मिथ्यात्व ये तीन शल्य हैं। धन-संपत्ति या ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति का घमंड, रसना-इन्द्रिय की संतुष्टि का घमंड, सुख प्राप्ति का घमंड, ये तीन गौरव हैं तथा जाति, कुल, सौंदर्य, शक्ति, लाभ, श्रुतज्ञान, ऐश्वर्य और तपस्या, ये आठ प्रकार के मद हैं। इन १७ प्रकार के दोषों में से तीन प्रकार के गौरव तथा आठ प्रकार के मद ये अहंकार कषाय रूप हैं। तीन प्रकार के दंड क्रोव-कपाय रूप हैं, तीन प्रकार के शल्य माया तथा
लोभ कषायरूप हैं। अतः सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए इन दोषों का त्याग करना आवश्यक है।
सम्यग्दृष्टि के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है-निर्भयता । जहां भय है, वहां धर्म नहीं रह सकता, संस्कृति नहीं रह सकती । शास्त्र में कहा है कि जो व्यक्ति सत्य की साधना करना चाहता है, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने मन से भय को दूर कर दे।
सम्यग्दर्शन ही अध्यात्म साधना का दिव्य आलोक है, जिससे जीव अपने सहज स्वरूप की उपलब्धि कर सकता है। अतः मानवजीवन की पवित्रता और पावनता का एक मात्र मूल आधार सम्यग्दर्शन ही है। जैन दर्शन के अनुसार जीवन मात्र के विकास का बीज सम्यग्दर्शन ही है। संदर्भ
१. अध्यात्म-प्रवचन, उपाध्याय अमरमुनि । २. अध्यात्म-सार, उपाध्याय यशोविजयजी । ३. तत्वार्थ सूत्र, उमास्वाति, विवेचनकर्ता पं. सुखलालजी
संघवी। ४. वल्लभ-प्रवचन (द्वितीय भाग) संपादक मुनि नेमिचन्द्र। ५. उत्तराध्ययन सूत्र, एक परिशीलन, डा. सुदर्शनलाल जैन । ६. आत्मानुशासन, आचार्य गुणभद्र । ७. उत्तराध्ययन, सूत्र संपादक साध्वी चंदना दर्शनाचार्य । ८. मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ ।
(जैन समाज की दिशा : उत्थान या पतन; पृष्ठ १४६ का शेष) देना तो दूर, हम और हमारे धर्मगुरु स्वयं उसमें लिप्त हो जाते हैं । खाना हासिल नहीं कर सकता है। क्या ये आचरणहीन प्रवृत्तियां समाज को गर्त में नहीं धकेल रही हैं। एक अन्य बात यह है कि हम अपने समाज के प्रति उदासीन इसका भविष्य क्या होगा । इसके पीछे कुछ पेशेवर लोग हैं, जो हैं, अपनी मांगों, अधिकारों के प्रति रत्तीभर सचेष्ट नहीं हैं, आन्तएक दूसरे को नीचा दिखाने का शौक रखते हैं । समाज की एकता रिक विवाद में जितना आगे है, अधिकारों की लड़ाई में उतना की कीमत पर उनका शौक पूरा हो रहा है।
ही पीछे। समाज का अगला दुर्गुण है कि हम एक समाज सेवी को सम्मान इसलिये साथियो, आगे आओ, हम पुरुषार्थ करेंगे। पुरुषाथियों नहीं दे रहे हैं । कोई इस समाज की सेवा में अपना तन, मन अर्पण का साथ देंगे । समाज में काम करते हैं, तो होता है, करने वाले कर देता है, इसे शीश काटकर अर्पण कर देता है, उसे शाबाशी नहीं, थक जाते हैं, तो कार्य ठप्प । कार्य रोकना नहीं है, तो इस समाज आलोचना मिलती है । इसलिये आज समाज सेवा का क्षेत्र संकुचित में जन्म और जीवन लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह रह गया है। ममाज सेवा शब्द का सरेआम उपहास होता है, क्यों उसे विकसित करे । इसके लिये हमें एक सामूहिक मंच तैयार करना यह क्षेत्र इतना बदनाम हुआ ? कारण फिर वही पेशेवर लोग या है। कोई भी अकेला व्यक्ति कोई खास कार्य नहीं कर सकेगा, वे ही ठेकेदार हैं जो समाज सेवा का मात्र लबादा ओढ़ लेते हैं, लेकिन इस मंच के जरिये वह अपनी भावनाओं के अनुसार समाज का समाज उनसे हिसाब मांगता है, तो झगड़े हो जाते हैं । समाज में शृंगार कर सकेगा । समाज को बदलना है, इसकी मांग से पुराना फूट पड़ जाती है, और ये ही बातें वास्तविक समाज-सेवियों के प्रति सिन्दूर निकाल कर फिर से नया भरना है, नवीन जागरण का सिंहकटुता पैदा करती है । दुर्भाग्य देखिये हमारा । धर्म आचार प्रधान नाद करना है, समाज नई क्रान्ति दर्शन के लिये तत्पर खड़ा है, होते हुए भी समाज अर्थ प्रधान बना हुआ है । रात के अन्धेरे में समाज को उत्थान की गंगा से स्नान करवाना है, क्रान्ति का बिगुल जो पूंजीपति धर्म, इसके सिद्धान्तों का मजाक उड़ाता है वह दिन के बजाना है, समाज को ऊंचा उठाना है, प्रगति के नये मार्गों का उजाले में सामाजिक सम्मान का दावेदार है । वह समाज की शुभारम्भ करना है, नहीं तो हमारा भविष्य मात्र एक प्रश्न वाचक तश्तरी में सम्मान रूपी खाना खा रहा है, और एक नि स्वार्थ चिन्ह बन कर सामने आयेगा। समाज सेवी समाज के लिये मर खप कर भी उस तश्तरी से कभी
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श्री तीर्थंकर परमात्माओं की लोकोत्तर चार उपमाएँ
श्री विजय सुशील सूरि
महाभयकर भवाटवी में परिभ्रमण करने से अत्यन्त भयभीत बने हुए जीवों को मुक्ति का मार्ग दिखाने के कारण सार्थवाहादि स्वरूप होने से अद्वितीय अनन्त उपकारी ऐसे अपहित तीर्थक परमात्मा
( भुजंग प्रयात वृत्तम ) महागोपरूपं महामाहण यंच, महासार्ववाहं च निर्यामकं वै । जगदवन्द्य तीर्थंकरं भुक्ति भाकैः, नमामि स्मरामि स्वमहन्तदेवम् ।। ___ अनादि अनंत विश्व में अनन्त उपकारी अरिहंत तीर्थकर परमात्मा है। अप्रतिम प्रभावशाली
दानांतरायादि अष्टादश दोषों से रहित, अशोकवृक्षादि आठ प्रातिहार्यों से सहित, जन्म से चार, कर्मक्षय से ग्यारह और देवों से किये गये उन्नीस इस प्रकार चौंतीस अतिशयों से सुशोभित तथा वारी के पैतीस गुणों से समलंकृत ऐसे श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा संसार सागर में निमग्न प्राणियों के निरुपम (अप्रतिम) आलंबन
श्री अरिहंतपद की व्याख्या ____ अनन्तगणों के भण्डार ऐसे विश्ववन्द्य, विश्वविभु श्रीअरिहंत तीर्थकर परमात्माओं की आगमशास्त्र में वर्णित चार महान लोकोत्तर उपमाएं अत्युत्तम हैं। उन चार लोकोत्तर उपमाओं के निम्नलिखित नाम है--
(१) महामोप (२) महामाहण (३) महानिर्यामक, और (४) महासार्थवाह
इस संबंध में न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज सा. ने कहा है कि'महागोप महामाहण कहिये,
निर्यामक सथ्थवाह। उपमा एहवी जेहने छाजे,
ते जिन नमीये उत्साह रे भविका! सिद्धचक्रपद वंदौं,
जेम चिरकाले नंदो रे भविका सिद्धचक्र।।"
"श्री नमस्कार नियुक्ति" नाम के ग्रन्थ में इन उपमाओं के विषय में कहा हुआ है कि
"अडबीइ देसिअतं, तहेव निज्जाभया समुटुंमि ।
छक्काय रक्खणट्ठा, महागोवा तेपा बुच्चंति ॥१॥ भवाटवी में सार्थवाह, भवसमुद्र में निर्यामक, एवं षट्काय के रक्षक होने से महागोप कहे जाते हैं।
महागोपादि इन चार महाउपमाओं का क्रमशः स्वरूप दर्शन इस प्रकार है:-- १. महागोप-(अर्थात् महाग्वाला)
जैसे गोपालक-ग्वाला गायों आदि पशुओं का पालन, संरक्षण करता है अर्थात् जहां सुन्दर हरियाली बनस्पति रहती है उस वनजंगल में चराने हेतु ले जाता है, एवं पशुओं को जहां पानी पीने के लिये नदी, सरोवर, तालाब, कप, झरना, बावड़ी आदि विद्यमान हो वहां पर पानी पिलाने हेतु ले जाता है तथा सिंह, बाघ, भेड़िया, भालू, चीता आदि वनचर हिंसक जानवरों से बचाता है अर्थात् गायों आदि पशुओं को भक्षण न कर जाय एतदर्थ चौकन्ना सदा सावधान रहता
उसी प्रकार सर्वज्ञ श्री अरिहंत-तीर्थंकर भगवान भी संसार के एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पञ्चेन्द्रिय जीवों तक समस्त जीवों के हित के लिए आरम्भ समारम्भ आदि द्वारा विविध प्रकार की हिंसा से सर्वप्राणियों को बचाते हैं।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के वशीभूत आत्माओं का कर्मरूपी शत्रुओं से संरक्षण करते हैं।
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"मा हण, मा हण" अर्थात् “मत मारो, मत मारो" इस प्रकार कहते थे। लोकोत्तर उपकारी ऐसे श्री अरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा विश्व के समस्त प्राणियों को निरन्तर घोषणापूर्वक इस सन्देश को सुनाते हैं कि “मा हण? मा हण? मारो मत मारो मत अर्थात् किसी भी प्राणी को मत मारो, नहीं मारो।
भले ही तुम संयम (चारित्र-दीक्षा) ग्रहण न कर सको तो भी शक्य यतना-जयणा अर्थात् जीवों को बचाने की तत्परता,विवेक और बुद्धि इन दोनों के समन्वय द्वारा अनर्थ दण्ड को अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसा को सर्वथा त्यागकर अर्थदण्ड क्षेत्र में भी संकोच करते रहो। ऐसे महापवित्र अनुपम संदेश विश्व के समस्त प्राणियों को सुनाकर "अर्हन्ती हि महामाणाः" अरिहंत परमात्मा ही महामाहण हैं । इस उपमा की सार्थकता केवल श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा ने ही की है। क्योंकि इस संसार में श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा ने ही अपने लोकोत्तर महापुरुषोचित भावकरुणारूपी जल का वर्षण किया है। ३. महानियमिक-अर्थात् महान सुकानी (नौकाओं, जहाजों को
व्यवस्थित रूप से चलाने वाला नाविक )
महासमुद्र--सागर में मुसाफिरी करने वाले प्रवासी व्यक्ति को नौका-जहाजों की मजबूती की जितनी आवश्यकता होती है उतनी ही जरूर उन नौका-जहाजों के चलाने वाले निपुण खलासी की और सुकान्ती की भी रहती है।
अज्ञान और अविवेकादि द्वारा उत्पन्न विविध कर्मों के आक्रमण से भी बचाते हैं।
सम्यक्त्वरूपी सुन्दर सरोवरादि के समीप ले जाकर सम्यक् ज्ञानरूपी जलपानी का पान करवाते हैं, सम्यक् चारित्ररूपी चारा चराते हैं, तथा संसार रूपी महाभयंकर वन-जंगल में से बाहर निकाल अनंत सुखरूप मंगलमय शाश्वत मोक्ष स्थिति की ओर भव्यात्म्य प्राणियों को ले जाते हैं ।
इन कारणों से ही श्री अरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा जिनेन्द्रदेव षड्कायिक जीव स्वरूप गाय आदि पशुओं के सच्चे संरक्षकपालक कहे जाते हैं।
इसलिये जैनागम शास्त्रों में "अर्हन्तो हि महागोपाः" अर्थात् अर्हन्त-अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा ही महागोप हैं।
इस प्रकार की यह लोकोत्तर महागोप की उपमा यथार्थ वास्तविक प्रतीत होती है।
समस्त विश्व में सर्वोत्कृष्ट महागोप (महागोपाल-ग्वाला) कोई यदि हो तो केवल श्री अरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा ही हैं। २. महामाहण (अर्थात् बड़े माहण):
"माहण? मा हण ? इत्येवं यो ब्रूयात् स माहणः।” (मत मारो, मत मारो) अर्थात् "किसी भी जीव की हिंसा मत करो" इस प्रकार जो कहता है वही महामाहण है ।
यह उपमा विश्व के समस्त जीवों को यह बतलाती है कि "कर्मों के द्वारा तुम मत मारो, मत मारो” अर्थात् कर्म शत्रुओं से नहीं मरने की प्रेरणा देने वाली यह उपमा है ।
भले ही तुमने आज तक कर्मों के पंजे में रहकर अमूल्य जीवन को बर्बाद किया है फिर भी अब ध्यान रखो कि कर्मों से मारे मत जाओ। इस अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान के प्रथम पुत्र तथा प्रथम चक्रवर्ती श्री भरत महाराजा थे जो षट्खण्ड के अधिपति, श्रेष्ठ, चौदह रत्न, नव महानिधार और चौंसठ हजार श्रेष्ठ स्त्रियों के सुन्दर भर्तार, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख अश्व और चौरासी लाख रथ के स्वामी तथा छन्नु करोड़ गांव के और छन्नु करोड पैदल लश्कर के मालिक थे ।
इतनी समृद्धि के मालिक होने पर भी उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि यह सब मेरी आत्मा के अधःपतन का कारण है, ऐसा समझकर अपने विवेक और बुद्धि को जाग्रत करने हेतु तथा सार्मिक भक्ति का भी अनुपम लाभ मिले इस उद्देश्य से श्री भरत महाराजा ने साधमिक बन्धुओं का समुदाय रक्खा था। उन सबको भक्तिपूर्वक भोजन कराने के बाद वे सब आदर्श महाश्रावकों के साथ मिलकर चक्रवर्ती श्री भरत महाराजा को कहते थे कि "जितो भवान् ? वर्द्धते भीस्तस्मान् मा हन ? मा हन?
कर्म रिपुओं से आप जीते गये हो ? भय बढ़ता जा रहा है इसलिये कर्म शत्रुओं के द्वारा मत मारो। मत मारो । तदुपरान्त वे आदर्श महाश्रावकों को जहां-जहां हिंसा की संभावना हो वहां वहां जाकर
जैसे भरे समुद्र-सागर में जल तरंगों से, ज्वार-भाटा आदि से चंचल व डगमगाती नाव-जहाजों को निपुण नाविक सावधानी से कुशलतापूर्वक सामने के किनारे-दूसरी ओर पहुंचा देता है, उसी प्रकार संसार रूपी महासमुद्र-सागर में अज्ञान मिथ्यात्वादि रूप तरंगों से टकराता हुआ संसारी जीवों की जीवन नौका को महानिर्यामक श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा संसार सिन्धु से पार करके मोक्ष रूपी महानगर में साधक को पहुंचा देते हैं।
साधना के सोपानों पर चढ़ते हुए साधक के अन्त करण को विषय और कषाय आदि के भयंकर तूफान जब एकदम कम्पित करके मोड़ देने लगते हैं तथा साधना से साधक को विचलित करते हैं तब, परम उपकारी ऐसे महानिर्यामक श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा साधक आत्मा की जीवन नौका को श्रद्धारूपी पवन के अनुपम सहारा स्वरूप सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की त्रिवेणी की प्राप्ति रूप अद्वितीय सहयोग देकर अत्यन्त सावधानी से भवसिन्धु के किनारे लगाकर अनंत शाश्वत सुख के धाम स्वरूप मुक्तिपुरी में पहुंचा देते हैं।
इसी कारण से ही श्री अरिहंत-तीर्थकर भगवान संसार के समस्त जीवों के महान उपकारी माने जाते हैं। इसलिये शास्त्रों में लोकोतर ऐसे श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा को लोकोत्तर ऐसी "महानिर्यामक" उपमा दी गई है ।
- "अर्हन्तो महानिर्यामकाः।"
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यथार्थ रूप में यह विशेषण श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा में ही चरितार्थ होता है। ४. महासार्थवाह-(अर्थात् महान संरक्षक सार्थवाही)
पूर्वकाल में अर्थात् प्राचीन समय में धनादि द्रव्यों से समृद्ध व्यापारी लोक पुरुषार्थ नथा व्यापार कुशल सफलता प्राप्ति हेतु शुभ उद्देश्य से देश-विदेशों में दूर-दूर तक जाया करते थे। जिसमें धनहीन, दरिद्र, निःसहाय वणिक पुत्रों को अनेक प्रकार की सहायता देकर अपने साथ दूर-दूर के प्रदेशों में या द्वीपों में ले जाया करते थे। ___वे उन आश्रितजनों को भयंकर जंगलों में, विकट मार्गों में सुन्दर संरक्षण देकर चोर, डाक आदि दुर्जनों से अपने आश्रितों को बचाकर यथोचित स्थानों में भेज दिया करते थे ।
धनार्जन करने हेतु देशान्तर में जाने की तीव्र इच्छावाले ऐसे आधारहीन, साधनहीन जनों को उदारचित्त चरित्रवान व्यापारी आश्रय देकर उनके मनोरथ पूर्ण करने के लिए अनेक प्रकार की संपत्ति सुविधा भी देते हैं।
इसीलिये ऐसे श्रीमंत धनवान परोपकारी व्यापारी का नाम प्राचीनकाल में राज्य संचालक एवं राजा महाराजाओं के द्वारा सार्थवाह रखा जाता था। यह उस समय बहत मानप्रद उपाधि मानी जाती थी । सार्थवाह पद विभूषितजनों का सम्मान समाज में अच्छी तरह से किया जाता था । अर्थात् जैसे बड़े-बड़े श्रीमंत धनवान व्यापारीजनों को मानद विरुद्ध सार्थवाह मिलता था उसी प्रकार श्री अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा भी इन संसारी जीवों को इस जीवन यात्रा में अत्यन्त आवश्यक ऐसी सम्यक् श्रद्धादिक महामूली संपत्ति का दान देकर राग-द्वेषादिक चोर डाक, लुटेरों से संरक्षणपूर्वक जन्म मरणादि रूप हिंसक पशुओं से बचाते हैं तथा संसाररूपी महा भयंकर वन-जंगलों से योग और क्षेम करते हुए कुशलतापूर्वक भव्य जीवों को पार उतारने वाले हैं । इतना ही नहीं किन्तु शाश्वत सुख के धाम रूप मोक्ष स्थान में पहुंचा देते हैं।
समस्त विश्व के प्राणिमात्र के अद्वितीय संरक्षक होने से इनकी लोकोत्तर आत्मशक्ति का परिचय देने हेतु शास्त्रकारों ने अपने शास्त्र में कहा है कि
"अर्हन्तो हि महासार्थवाहाः" अर्थात् श्री अरिहंत तीर्थंकर भगवंत ही महा सार्थवाह हैं । . इस प्रकार की उपमा वास्तविक तथा अत्यन्त यथार्थ समुचित
(१) महागोप की उपमा
"जीवनिकायागावो, जंतेपालेति महागोवा ।। मरणाइभयाहि जिणा, निव्वापावणं च पावेंति ।।
(श्री आवश्यक नियुक्ति-गाथा ९१६) (२) महामाहण को उपमा
"सच्चे पाणा न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा न परिवित्तव्वा न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा ॥"
(श्री आचारांग सूत्र, अध्ययन-४ उद्देश्य-१, सूत्र १) (३) महानिर्यामक की उपमा
"णिज्जामगरयणायां, अमूढनाणमईकप्पधारणं । पदामि विणय' पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ।।
(श्री आवश्यकनियुक्ति-गाथा ९१४) (४) महासार्थवाह की उपमा
"पावंतिणि बुइपुरं, जिणोवईल्डेणं चेव मग्गेणं । अडवइ देसिअतं, एवं णेयं जिणिदाणं ।।
(श्री आवश्यक नियुक्ति-गाथा ९०६) इस प्रकार शास्त्रकार महर्षियों की वर्णन की हुई ये चारों उपमा अत्युत्तम हैं । श्री उपासक दशांग आदि विद्यमान आगमग्रंथों में भी विशेष वर्णन दृष्टिगोचर होता है।
ऐसी लोकोत्तर उपमाओं से समलंकृत श्री अरिहंत तीर्थकर भगवन्तों का विश्व के समस्त प्राणियों के ऊपर कितना बड़ा असीम उपकार है जिसका सर्वथा संपूर्ण वर्णन करना केवलज्ञानी भगवंत से भी असंभव है।
अनंत गुणों के भंडार तरणतारण देवाधिदेव ऐसे श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा के प्रति सच्ची कृतज्ञता तथा आदर भाव को स्पष्ट रूप में प्रकट करने हेतु इनकी अहर्निश पूजाभक्ति,श्रद्धा आदि कार्य में तल्लीन रहना हम सबों का परम कर्तव्य है।
श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा का ध्यान अपनी आत्मा को उत्तम ज्ञान के अनुपम अमी छांटणे पूर्वक पवित्र करता है ।
लोकोत्तर अद्वितीय अरिहंत तीर्थंकर भगवन्तों के चरण-कमलों में सद्भावना की भव्य अंजली समर्पण करने वाला प्राणी अवश्य ही मोक्ष मार्ग का साधक बनता है। अन्त में अपने सब कर्मों का क्षय करके मोक्ष के शाश्वत सुख का भागी होता है।
"महागोपादि चार उपमाओं से समलंकृत ऐसे श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्माओं को हमारा हार्दिक अहर्निश कोटिश: वंदन
शास्त्रोक्त उपमा की गाथाएं
शास्त्रकारों ने अपने-अपने शास्त्र में लोकोत्तर ऐसे श्री अरिहंत तीर्थकर भगवंत को "महागोफमहामाहण, महानिर्यामक और महासार्थवाह" इन चार लोकोत्तर उपमाओं के द्वारा वर्णन किया
विद्यमान आगम ग्रन्थों में भी उपर्युक्त भावों की पूरक अनेक गाथाएं देखने में आती हैं। जिनमें से कुछ गाथाएं यहां पर दी गई हैं:
हो?"
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तीर्थंकरों के लांछन और शासन देवता
बालचन्द जैन
जैन प्रतिमा विज्ञान के अध्येता के सम्मुख निम्नलिखित दो प्रश्न अक्सर रखे जाया करते हैं, यथा । १. तीर्थंकरों के साथ उनके लांछन, वृषभ, गज आदि कब
से संलग्न हुए? और २. उनकी प्रतिमाओं के साथ शासन देवताओं, यक्षों और
यक्षियों की प्रतिमाएं कब से जोड़ी जाने लगीं? लांछनों का प्रारंभ । जैन मूर्तिकला के प्रारम्भिक काल में तीर्थंकर प्रतिमाओं के साथ न तो कोई चिह्न या लांछन बनाए जाते थे और न शासन देवतावन्द ही संयुक्त किए जाते थे । इस कथन की पुष्टि मथुरा तथा अन्य स्थानों से प्राप्त हुई लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमाएं करती हैं।
जैनों के प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थों एवं साहित्यिक रचनाओं में भी प्रचलित लांछनों अथवा शासन देवताओं का नामोल्लेख नहीं मिलता। प्रारम्भिक काल में विभिन्न तीर्थंकर प्रतिमाएं प्रतिष्ठा के समय उन पर लिखे गए लेख से ही पहचानी जाती थी कि वे किस तीर्थकर की प्रतिमा हैं। इतना अवश्य था कि ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं लेख के अभाव से भी पहचानी जा सकती थीं क्योंकि ऋषभनाथजी के कन्धों पर केशगुच्छ लहराते हुए दिखाए जाते थे और सुपार्श्वनाथ तथा पार्श्वनाथ के मस्तक पर नाग के पांच या सात फणों का छत्र सुशोभित कर दिया जाता था। ' आदिपुराण, उत्तरपुराण और पद्मपुराण जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में भी तीर्थंकरों के चिह्नों की सूची नहीं मिलती। आदि पुराण (१।१५) में प्रथम तीर्थंकर को वृषभध्वज अवश्य कहा गया है किन्तु अन्यों के संबंध में उल्लेख नहीं है । तिलोयपण्णत्ति में
तीर्थंकरों के लांछनों की सूची मिलती है किन्तु अनेक विद्वानों ने उस अंश के प्रक्षिप्त एवं पश्चात्कालीन होने की शंका की है। • राजगृह के वैभारगिरि की एक गुप्तकालीन तीर्थंकर प्रतिमा को बाईसवें तीर्थकर नेमीनाथ की प्रतिमा माना गया है क्योंकि उसके पादपीठ पर चक्रपुरुष के दोनों ओर शंख बने हुए हैं। यदि ये शंख केवल मांगलिक चिह्न न होकर नेमीनाथ की पहचान के लिये बनाये गये लांछन रूप हैं तो मानना पड़ेगा कि विभिन्न तीर्थंकरों के लांछन गुप्तकाल में प्रयुक्त किए जाने लगे थे। सीरापहाड़ी की एक आदिनाथ प्रतिमा के पादपीठ पर सिंहासन के सिंहों के स्थान पर दोनों ओर वृषभ की आकृतियां बनी हुई हैं । यह उनके वृषभासन की द्योतक है। अथवा उनके लांछन विशेष की ओर संकेत करती है। यह विचारणीय है। जो भी हो, इतना तो निश्चित ही है कि गुप्तकाल से पूर्व की तीर्थंकर प्रतिमाओं पर लांछन नहीं बनाए जाते थे और गुप्तकाल में भी सभी तीर्थंकरों के चिह्न निश्चित नहीं किए जा सके थे। शासन देवता
वर्तमान जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर का एक शासन यक्ष और एक शासन यक्षिणी हुआ करती है। इन यक्ष यक्षिणी की सूचियां दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थों में मिलती हैं। यक्षों के नामों के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में अधिक मतभेद नहीं है पर यक्षिणियों के नामों की जो सूचियां इन दोनों सम्प्रदायों में वर्तमान में प्रचलित हैं उनमें अधिकतम नामों के संबंध में भिन्नता है।
अधिकांश विद्वानों का मत है कि जैन मूर्तिकला में चतुर्विशति यक्ष और उतनी ही यक्षियों की कल्पना नौंवी शताब्दी के आसपास की गई थी। श्वेताम्बर ग्रन्थों में शासनदेवताओं की संपूर्ण सूची सर्वप्रथम हेमचन्द्राचार्य के अभिधान चिन्तामणि में मिलती है और
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उनके स्वरूप का वर्णन उन्हीं आचार्य के त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित में उपलब्ध होता है। दिगम्बरों में वसुनन्दि, आशाधर आदि विद्वानों ने यक्ष-यक्षियों के स्वरूप वर्णन प्रस्तुत किए हैं । दिगम्बर परम्परा की यक्षी प्रतिमाएं देवगढ़ और खण्डगिरि में पूर्ण समूह में प्राप्त हुई हैं । पतियानदाई के नाम से ज्ञात एक अम्बिका प्रतिमा के तीन ओर की पट्टियों में भी अन्य तेईस यक्षियों की छोटी छोटी प्रतिमाएं उकेरी हुई हैं जिनके नाम भी वहीं उत्कीर्ण हैं। आश्चर्य की बात है कि एक ही सम्प्रदाय की होने के बावजूद भी देवगढ़, खण्डगिरि और पतियानदाई की यक्षिणियों के नाम भिन्न-भिन्न हैं ।
हरिवंशपुराण में तीर्थंकरों संबंधी समस्त जानकारी का विस्तृत विवरण होने पर भी वहां ( सर्ग ६० ) शासन देवताओं का विवरण नहीं दिया गया है। उसी पुराण के ६६ वें सर्ग के ४३ वें श्लोक में एक बार शासन देवता शब्द का प्रयोग मिलता है और आगे ४४ वें श्लोक में अप्रतिचका देवता का तथा ऊर्जयन्त (पर्वत) में निवास करने वाली सिपाहीदेवी का उल्लेख मिलता है, किन्तु उस सिंहवाहनी देवी की अम्बिकादेवी या आम्रादेवी नहीं कहा गया है आदि पुराण से ज्ञात होता है कि गरुड़वानी और सिवानी ये दो विद्याएं थीं। संभवतः इन्हीं दोनों ने आगे चलकर अप्रतिचक्रा या चक्रेश्वरी और अम्बिका या आम्रादेवी के रूप प्राप्त कर लिए हों । अम्बिका देवी की प्रतिमाएं पर्याप्त प्राचीन काल से ही निर्मित होने लगी थीं। प्रारंभ में प्रायः सभी तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के साथ अम्बिकादेवी की ही प्रतिमा बनाई जाती थी। अकोटा से प्राप्त हुई अम्बिकादेवी की प्रतिमा को ५५० ईसवीं के लगभग का माना जाता है ।
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श्रुतदेवता, विद्यादेवता और शासन देवता
पद्मपुराण (१२३ । १८३ ) में समय देवता का उल्लेख मिलता है । हरिवंशपुराण (१।२५) का उल्लेख किया गया है। हरिवंशपुराण ( ५/३६३) में यह भी उल्लेख मिलता है कि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के समीप चामर लिये हुए नागकुमार और यक्षों के युगल खड़े बनाये जाते थे तथा समस्त जिन प्रतिमाएं सनत्कुमार और सर्वाहण यक्ष तथा निवृत्ति और श्रुति नामक देवियों की मूर्तियों से युक्त हुआ करती थी।
जैन परम्परा में श्रुतदेवी या सरस्वती की पूजा बहुत प्राचीन काल से होती रही है। मथुरा में जैन सरस्वती की प्रतिमा प्राप्त हुई है जो दूसरी शताब्दी की है। सिहरि के लोक विभाग नामक ग्रन्थ में ( १।३७ ) कहा गया है कि प्रत्येक जिनबिम्ब के दोनों पार्श्वभागों में सनत्कुमार और सर्वाहण यक्षों तथा श्रीदेवी और देवी
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प्रतिबिम्ब होते हैं । सिंहसूर का ग्रन्थ विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में रचा गया था किन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया है उनका ग्रन्थ सर्वनन्दी मुनि के उस ग्रन्थ का भाषान्तर है जो शक संवत् ३८० में रचा गया था।
हरिवंशपुराण में श्रुतदेवी की मूर्तियों का उल्लेख मिलता है । पद्मपुराण में "समय" देवता का उल्लेख मिलता है यह ऊपर कहा जा चुका है। "समय" शब्द का अर्थ शास्त्र या ज्ञान भी होता है। इसलिये समय देवता का संबंध श्रुतदेवता से जुड़ना स्वाभाविक है और समय को शासन काल से संबंधित कर 'समय देवता' का 'शासन देवता' के रूप में प्रचलन भी अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता । पश्चात्कालीन जैन ग्रन्थों में विद्यादेवियों की लम्बी सूची मिलती है । कोई आश्चर्य नहीं कि ये विद्यादेवियां या समय देवता ही यथाक्रम से शासन देवियां हो गई हों। दिगम्बर ग्रन्थों में जो शासन यक्षियों की सूची मिलती है उनमें विद्या देवियों के नाम ज्यों के त्यों मिलते हैं ।
विद्यादेवियों के संबंध में हरिवंशपुराण में उल्लेख मिलता है । भगवान ऋषभदेव के महाव्रती बन चुकने के पश्चात् नमि और विनमि उनसे धन संपत्ति प्राप्त करने के लिए उन्हें परेशान कर रहे थे। तब धरण ने दिती और अदिति नामक अपनी देवियों के साथ वहां पहुंच कर नमि और विनमि को अपनी देवियों से विद्या का भण्डार दिला दिया था नमि और विनमि ने विद्याओं के आठ आठ निकाय प्राप्त किये । उन सोलह निकायों की विद्याओं की सूची हरिवंशपुराण में दी गई है। उनमें प्रज्ञप्ति, रोहिणी गौरी, महागौरी, कूष्मांनी अजिता काली भद्रकाली आदि है। इसी सूची में आर्यवती और निवृत्ति का नाम भी है कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मथुरा से प्राप्त आर्यवती प्रतिमा भी विद्यादेवी की प्रतिमा हो ।
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"
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क्षमा अमृत है, क्रोध विष है; क्षमा मानवता का अतीव विकास करती है और क्रोध उसका सर्वथा नाश
कर देता है। कोधावेशी में दुराचारिता, दुष्टता, अनुदारता, परपीड़कता इत्यादि दुर्गुण निवास करते हैं और वह
।
अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर यह कल्पना की जा सकती है कि जैन परम्परा में शासन देवियों का आगमन विद्यादेवियों के माध्यम से हुआ ।
सारी जिन्दगी चिन्ता, शोक एवं सन्ताप में घिर कर व्यतीत करता है, क्षण-भर भी शान्ति से साँस लेने का समय उसे नहीं मिलता; इसलिए क्रोध को छोड़कर क्षमा को अपवा लेना चाहिये ।
-राजेन्द्र रि
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महाराष्ट्र की संस्कृति
पर
जैनियों का प्रभाव
प्रागतिहासिक काल
भारतीय संस्कृति अत्यन्त प्राचीन, उन्नत और गरिमामय है। कुछ समय पूर्व यह अर्वाचीन मानी जाती थी। किन्तु धीरे-धीरे अनुसंधानों के प्रकाश में यह भ्रम दूर होता गया। मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा तथा अन्य अवशेषों से यह सिद्ध हो गया कि आर्यों के आगमन के पहले भी भारत में एक समुन्नत संस्कृति प्रवाहमान थी। डॉ. रामधारीसिंह 'दिनकर' ने लिखा है "यह मानना युक्तियुक्त है कि श्रमण संस्था आर्यों के आगमन के पहले विद्यमान थी।" और उसे श्रमण संस्कृति कहा जा सकता है। इस श्रमण संस्कृति का संपर्क किस संस्कृति के साथ था इस विषय में विभिन्न मत हैं। स्व. डॉ. रामधारीसिंह 'दिनकर' लिखते हैं- "पौराणिक हिन्दू-धर्म आगम और निगम पर आधारित माना जाता है। निगम है वैदिक प्रधान और आगम है श्रमण प्रधान । आगम शब्द वैदिक काल से चली आ रही वैदिकेतर धार्मिक परम्परा का वाचक है। बौद्ध धर्म की स्थापना भगवान बुद्ध ने की है जिनका काल पच्चीस सौ वर्ष पूर्व का निश्चित है। अतः बौद्धों के पहले भारत में श्रमण संस्कृति थी और उसके जैन होने की संभावना ही अधिक है। भगवान बुद्ध के ढाई सौ वर्ष पूर्व जैनों के २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाच हुए थे। वेदों में अरिष्टनेमि तथा ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है, जो जैन तीर्थकर थे। इसलिए अधिक संभव यही है कि प्रातिहासिक काल की संस्कृति श्रमण-संस्कृति से मिलती-जुलती या जैन-संस्कृति थी। जैन अनुभूतियों से भी संकेत मिलते हैं कि जैन धर्म प्राचीन काल से चला आ रहा है ।
देखना यह है कि वैदिक अर्थात् ब्राह्मण संस्कृति की क्या विशेषताएं थीं। यह संस्कृति यज्ञ प्रधान थी, जिसमें वेदों तथा ब्रह्म को श्रेष्ठ घोषित किया गया है। ब्रह्म की प्राप्ति के लिए यज्ञ कर्म को परम पुरुषार्थ माना गया । भौतिक सुखों को प्राप्त कर वर्तमान जीवन को
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रिषभदास रॉका
सुखी बनाने के लिए प्रवृत्ति मूलक विचार और आचार प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं। वर्तमान जीवन सुखी बनाने के लिए प्रयत्न करते थे और आराध्य देव की उपासना इसी दृष्टि से की जाती थी । कुछ प्रार्थनाएं दृष्टव्य हैं-
हम सौ वर्ष तक जियें ।
हम सौ वर्ष तक अपने ज्ञान को बढ़ाते रहें ।
हम सौ वर्ष तक पुष्टि और दृढ़ता को प्राप्त करें । हम सौ वर्ष तक आनन्दमय जीवन व्यतीत करें । हम सौ वर्ष तक अदीन होकर रहें।
जो स्वयं उद्योग करता है, इंद्र उसकी सहायता करते हैं। जो श्रम नहीं करता, देवता उसके साथ मित्रता नहीं करते । हम सदा प्रसन्नचित्त रहते हुए उदीयमान सूर्य को देखें । ओ मेरे आराध्य देव
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आप तेज स्वरूप हैं, मुझमें तेज को धारण कीजिए । आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान कीजिए। आप बल रूप हैं, मुझे बलवान कीजिए। आप ओज रूप हैं, मुझे ओजस्वी बनाइए ।
आर्य पराक्रमी थे। वे अपने प्रयत्नों द्वारा तथा देवताओं को प्रसन्न कर उपलब्ध जीवन को सुखी बनाना चाहते थे। इसके लिए कर्म को प्राधान्य देते थे । वे प्रवृत्ति परायण थे ।
प्राचीन श्रमण संस्कृति के लोग योग, संयम, अध्यात्म और पुनर्जन्म को मानने वाले प्रतीत होते हैं। स्व. डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने लिखा है कि "अति प्राचीन काल से भारत की मानसिकता दो धाराओं में विभक्त रही है, एक धारा कहती है कि जीवन सत्य है और हमारा कर्तव्य है कि हम बाधाओं पर विजय प्राप्त करके जीवन में जयलाभ करें एवं मानव बन्धुओं का उपकार करते हुए यज्ञादि से देवताओं को भी प्रसन्न करें, जिससे हम इस ओर उन दोनों
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लोकों में सुख और आनन्द प्राप्त कर सकें, किन्तु दूसरी धारा की शिक्षा यह है कि जीवन नाशवान है हम जो भी करें किन्तु हमें रोग
और शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, न मृत्यु से ही हम भाग सकते हैं। हमारे आनन्द की स्थिति वह थी, जब हमने जन्म लिया था। जन्म के कारण ही वासना की जंजीर में पड़े हैं। अतएव, हमारा श्रेष्ठ धर्म यह है कि हम उन सुखों से पीठ फेर लें, जो हमें ललचा कर संसार में बांधते हैं। इस धारा के अनुसार मनुष्य को घर बार छोड़ कर संन्यास ले लेना चाहिए और देह-दंडन पूर्वक वह मार्ग पकड़ना चाहिए, जिससे आवागमन छूट जाए।
दोनों संस्कृतियों के विचार में अपनी-अपनी विशेषता थी और उसमें जो तथ्य था उसे ग्रहण कर समन्वय द्वारा भारतीय संस्कृति ऐसी सशक्त बनी कि जो मानव जीवन को सही दिशा दर्शन में सक्षम हो। और अनेक आपदाओं के बीच वह अक्षुण्ण रह सके।
स्व. विठ्ठलरामजी शिंदे ने भी भागवत धर्म के विकास में लिखा है कि भारत के विकास के इतिहास का प्रारम्भ वेद से माना जाता है, किन्तु वेद हिन्दू-संस्कृति का उद्गम नहीं है। वेद से पहले के अन्य लिखित प्रमाण न होने से ऐसा कहा जाता है किन्तु भारतीय संस्कृति वेदों से बहुत प्राचीन है । भारतीय आर्यों की संस्कृति के उद्गम स्रोत वेद हो सकते हैं। द्राविड़ 'ताम्रवर्णी' मोगल पीतवर्णी', शुद्ध 'कृष्णवर्णी', 'मिश्रवर्णी' इस प्रकार असंख्य मानववंश भारत में अनादि काल से बसते थे। उनके संस्कृति-महासागर में आर्य संस्कृति तेजस्वी किन्तु छोटी ही मिली है। यह बात विशेषज्ञ जान सकते हैं कि अखिल भारतीय संस्कृति का उद्गम वेद या आर्य संस्कृति मानना साहस ही होगा।
उत्तरभारत की तरह दक्षिण में भी आर्यों के आगमन के पहले जो जातियां बसती थीं उनकी संस्कृति के विषय में विद्वानों ने शोधन करके जो तथ्य प्रकट किए उसमें आर्यों के आगमन के पहले महाराष्ट्र में भागवत धर्म या श्रमण धर्म प्रचलित था । और आर्यों के आगमन के बाद उसमें आर्यों ने समझौता कर अपना लिया हो ऐसा लगता है क्योंकि आम जनता उन्हीं विचारों-आचारों से प्रभावित थी। आर्यों ने भागवत धर्म के देवताओं को अपनी उपासना में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। ___ महाराष्ट्र में आर्यों के आगमन के पहले जो भागवत धर्म प्रचलित
था उसके रूप के विषय में स्व. विठ्ठलरामजी शिंदे की मान्यता है • कि, "किसी भगवान या देव, देवी या पूज्य पुरुष को भगवान के रूप में भक्ति करने वाले वे भागवत और उनका धर्म भागवत धर्म । इस दृष्टि से वे शिव, विष्णु, जैन और बौद्धों की गणना भी भागवतों में ही करते हैं। इस दृष्टि से शंकर, ऋषभ, कृष्ण उनकी दृष्टि से प्रारम्भ में वैदिकों के देव या पूज्य पुरुष नहीं थे जिन्हें वैदिकों ने बाद में अपना लिया । शिव भागवत सम्प्रदाय उनकी दृष्टि से जैनों से पूर्व का होना चाहिए। पर कुछ विद्वानों का यह भी मत विचारणीय है कि शंकर और ऋषभदेव एक हैं। क्योंकि दोनों का प्रतीक बैल (वृषभ) रहा है। दोनों को आदिनाथ कहा जाता था और दोनों की साधना में योग प्रमुख था। वे दोनों एक हों या भिन्न पर दोनों निवृत्ति
प्रधान थे और साधना में योग, चित्तशुद्धि और संयम को प्रधानता देते थे। वे अध्यात्म, साधना, सादगी, संयम, कर्म सिद्धान्त और पुनर्जन्म को मानने वाले थे और पशु-यज्ञ के विरोधी थे। इसलिए प्रागैतिहासिक काल में महाराष्ट्र निवासियों की जो संस्कृति थी उसको
और जनों के विचारों में काफी साम्य था । जैन अनुश्रुतियों के अनुसार दक्षिण की द्राविड़, नाग, राक्षस, वानर तथा विद्याधर इन जातियों में जैन धर्म का प्रचार था। भले ही ऐतिहासिक प्रमाण द ना आसान न हो तो भी उनमें काफी विचार साम्य था। ऐसा दिखाई देता है।
__सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन की मान्यता है कि, "जैन अनुश्रुति के अनुसार मानव-सभ्यता के प्रारम्भ से इस प्रदेश में सभ्य विद्याधरों की नाग, अक्ष, यज्ञ, वानर आदि जातियों का निवास रहा है । ये जातियां श्रमण संस्कृति की उपासक थीं। ब्राह्मण अनुश्रुति के अनुसार आगस्त्य पहले आर्य ऋषि थे जो विन्ध्याचल को पार कर दक्षिण भारत में पहुंचे थे, परशुराम भी वहां गये थे। वनवास में रामचन्द्र भी वहां गये थे और वानरों की सहायता से लंका के राक्षस राजा रावण का अंत करने में सफल हए थे। इससे प्रतीत होता है कि रामायण काल के लगभग वैदिक आर्यों के एकदो छोटे उपनिवेश दक्षिण पंथ में स्थापित हो गये थे, किन्तु इसमें ईसवी सन् के प्रारम्भ तक कोई विशेष प्रगति नहीं हो पाई थी और दक्षिण पंथ अधिकांशतः अवैदिक एवं अनार्य ही बना रहा । दूसरी ओर जैन अनुश्रुति के अनुसार रामायण काल के भी बहुत पूर्व से मध्य प्रदेश के मानवों और दक्षिण पथ के विद्याधरों में अबाध संपर्क रहा था। तीर्थंकर ऋषभदेव ने विजयाध के दक्षिण स्थित, नमि, विनमि आदि विद्याधर नरेशों के साथ विवाह एवं मैत्री संबंध भी किए थे। और उत्तरी पथ के साथ-साथ यहां भी जैन धर्म का प्रचार किया था। भरत चक्रवर्ती ने अपनी दिग्विजय में दक्षिण के समस्त देशों को विजय किया था। उनके छोटे भाई बाहुबली को ऋष भदेव द्वारा पोदनपुर का राज्य दिया था जो दक्षिण में स्थित था । बाहुबली की विशाल मूर्तियों का निर्माण तथा उपासना दक्षिण भारत में ही अधिक हुआ है। रामायण काल में अयोध्या के सूर्यवंशी दशरथ, राम, लक्ष्मण आदि दक्षिण पंथ के पवनंजय, हनुमान, बाली, सुग्रीव, नल-नील आदि वानर वंशी विद्याधर तथा लंका के राक्षसवंशी रावण, मेघनाद आदि सब जैन धर्म के उपासक बताए गए हैं । विद्याधर वैज्ञानिक आविष्कारों, लौकिक विद्या एवं कलाओं, धन तथा भौतिक शक्ति में उत्तरापथ वालों से बढ़े-चढ़े थे। किंतु आध्यात्मिक उन्नति धर्म, दर्शन और चिन्तन में उन्होंने मानवों के गुरु तीर्थंकरों के समक्ष अपना मस्तक झुकाया था। और उनके शिष्य तथा उपासक बने । विद्याधरों के वंशजों को आधुनिक इतिहासकार द्राविड़ कहते हैं। द्राविड़ लोगों को अनार्य और अवैदिक ही नहीं भारत के प्रागार्य और प्राग्वैदिक निवासी मानते हैं। इस बात की संभावना को स्वीकार करते हैं कि द्राविड़ जाति ब्राह्मण परम्परा के शैव, वैष्णव आदि धर्म अपनाने के पहले जैन धर्मानुयायी थीं । महाभारतकाल में तीर्थकर अरिष्टनेमि ने दक्षिण पथ में स्वधर्म का प्रचार किया था और उनके भक्त कुरुवंशी पंच पांडव राज्य परित्याग कर दक्षिण की ओर चले गए थे। उन्होंने जैन मुनियों के रूप में कठोर तपस्या की थी।
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उसी समय से दक्षिण में पांड्य देश, पंच पांडव, मलय, मदुरा आदि स्थान प्रसिद्ध हुए।
इसी प्रकार प्रागऐतिहासिक काल के विषय में डॉ. विद्याधर जोहारपुरकर ने 'महाराष्ट्र में जैनधर्म' में लिखा है कि, "गुणभद्र के उत्तर पुराण में ग्यारहवें और बारहवें तीर्थकरों के मध्यवर्ती समय में प्रथम बलदेव का विहार गरुढ़ध्वज पर्वत पर हुआ था। तथा जिनसेन के हरिवंश पुराण के अनुसार बाइसवें तीर्थंकर के समय अन्तिम बलदेव का देहावसान तुंगीगिरि पर हुआ। यह स्थान नासिक (महा.) जिले में तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है।
- इतिहास कालीन महाराष्ट्र महाराष्ट्र के संतों द्वारा साहित्य निर्माण और कर्त्तव्य बारहवीं शताब्दि से प्रारम्भ होता है। उस समय महाराष्ट्र में यादवों का शासन था। महाराष्ट्रीयन संस्कृति का उद्भव वास्तव में सातवाहन युग से माना जाता है । इसलिए वहां से लेकर बारहवीं शताब्दि तक का राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का अवलोकन किये बिना महाराष्ट्र की संत परम्परा और उनके कार्यों का यथोचित मूल्यांकन संभव नहीं है। और महाराष्ट्र संतों के साहित्य पर जैन धर्म के प्रभाव को बताने के लिए इतिहासकालीन महाराष्ट्र की जानकारी आवश्यक है।
ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान महावीर के पूर्ववर्ती काल में अर्थात् ढाई हजार वर्ष पूर्व महाराष्ट्र जन-भिक्षुओं का विहार क्षेत्र रहा है। डॉ. केतकर ने अपने 'प्राचीन महाराष्ट्र' ग्रन्थ में लिखा है जैन सम्प्रदाय महावीर से पूर्व काल में महाराष्ट्र में था। महावीरोत्तर काल में उसके अधिक प्रसिद्ध होने की स्थिति रही। जैन धर्म का प्रचार बुद्ध काल में महाराष्ट्र में था, यह कहा जा सकता है।
'यह कल्पना थी कि बुद्ध ने श्रमण वर्ग का निर्माण किया था, किन्तु अब यह मान्यता नहीं रही, बल्कि श्रमणों की प्राचीनता बुद्ध के हजारों वर्ष पूर्व तक जाती है।'
उस्मानाबाद जिले के अन्तर्गत तेरकी गुफाओं के विषय में बर्जेस कहता है कि ये गुफाएँ ईसा पूर्व ५०० से ६५० वर्ष पूर्व की होनी चाहिए क्योंकि करकंड के वहां आने की बात जैन साहित्य में मिलती है। जिसे डॉ. हीरालाल जैन ने स्वीकार किया है।
मगध नरेश नन्दीवर्धन ने दक्षिण देश के नागर खंड को जीत कर मगध साम्राज्य में मिला लिया था । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु उत्तर के भीषण अकाल के समय बारह हजार साधुओं के साथ दक्षिण की ओर विहार कर गये थे। महानन्द, चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और अशोक के साम्राज्य में दक्षिण भारत का कुछ हिस्सा सम्मिलित था । इन नरेशों ने राजनैतिक या अन्य कारणों से दक्षिण की यात्राएं की थीं, चन्द्रगुप्त के विषय में तो यह अनुश्रुति है कि उसने अपने गुरु के समाधि स्थान के पास श्रवणबेल-गोला में तपस्या की थी, वह जैन मुनि बन गया था और जैन संघों का उसने नेतृत्व भी किया था । अशोक के शिलालेख भी कर्नाटक के मस्की और महाराष्ट्र में
सोपारा में हैं। महाराष्ट्र में सातवाहन कुल द्वारा राज्य स्थापना के बाद का समय ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है।
डॉ. सांकलिया के मतानुसार:-'ऐतिहासिक दृष्टि से महाराष्ट्र में जैन साधुओं की गतिविधियों का विस्तार मौर्य साम्राज्य के समय (ईसा पूर्व तीसरी सदी) आचार्य भद्रबाहु और सुहस्ती के नेतृत्व में हुआ होगा। यह माना जा सकता है । इस प्रदेश के जैन साधुओं के विहार का सर्वप्रथम स्पष्ट प्रमाण वह संक्षिप्त शिलालेख है, जो पूना जिले के पास पाला ग्राम के निकट एक गुफा में प्राप्त हुआ है। लिपि के आधार पर यह लेख सन् पूर्व दूसरी सदी का माना गया है। इसमें भदन्त इन्द्र रसिन द्वारा इस गुहा के निर्माण का उल्लेख है। सातवाहन काल
शालीवाहन कुल के राज्य की स्थापना ईसा पूर्व २४० से २३० । में की थी। वह राज्य ई. सं. २१८ तक लगभग चार सौ वर्ष तक चला। जिसमें कई पराक्रमी राजा हुए।
सातवाहन राजा के शासनकाल में वैदिक. बौद्ध और जैन तीनों धर्मों को समुचित आश्रय मिला। इस कुल के राजा उदार, संस्कारशील, विद्या और कला प्रेमी थे। इस कुल के राजा हल ने 'गाथा सप्तशती' नामक प्राकृत ग्रंथ की रचना की। जिस पर जैन धर्म का प्रभाव कहा जाता है। बौद्धों की कई गुफाओं का निर्माण हुआ और जैनियों द्वारा महाराष्ट्री प्राकृत में महत्वपूर्ण साहित्य की रचना हुई। सातवाहन काल में बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव था। पश्चिम महाराष्ट्र की गुफा में सोपारा व तेर के अवशेष इसके प्रमाण हैं। नासिक में प्राप्त पत्थर की पट्टियों पर खुदे धर्म से संबद्ध त्रिरत्न आदि चित्र इसके प्रमाण हैं।
सातवाहन काल में अग्नि, इंद्र, प्रजापति इन देवताओं के साथसाथ शंकर, उमा आदि देवों को आर्य देवों में सम्मिलित कर लेने की कल्पना इसी काल की है। इसमें संभवत: यह दृष्टि थी कि आर्य अनार्य में संघर्ष हो । वैदिक अभिमानियों ने, बौद्धों की लोकप्रियता कम करने के लिये धार्मिक कल्पना में परिवर्तन किया । यज्ञ विधियों को कर्मकांड बना दिया। यद्यपि सातवाहन ने अनेक यज्ञ किये थे। तथापि 'याथ सप्तशती' में यज्ञ संस्था व अग्निदेवता की अवहेलना ही दिखाई देती है। इसी काल में शैव, वैष्णव, भागवत, कापालिक आदि पंथियों का उदय हुआ।
सातवाहन काल के पूर्व से भारत में चातुर्वर्ण्य उत्तर की तरह दक्षिण में भी आर्य-अनार्य संघर्ष समाप्त प्राय हो, आर्य शब्द केवल इतिहास में ही रह गया था। यज्ञ संस्था का महत्व कम होने लग गया था। इसलिये ब्राह्मणों का महत्व भी कम होने लग गया था। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में से जाति संस्था का उदय हुआ। गाथा सप्तशती में अनेक वन्य जातियों के उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं । आमीर, गोप, चांडाल, दास, पुलिंद आदि सातवाहन काल में महाराष्ट्र के नागरिक थे। ____ डा. जोहारपुरकर लिखते हैं कि-'महाराष्ट्र के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश-सातवाहन वंश की राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक
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पैठण, जिला-औरंगाबाद) में जैनाचार्यों के विहार के संबंध में कई कथाएँ उपलब्ध हैं। प्रभावक चरित्र प्रकरण ४ तथा विविध तीर्थ कल्प प्रकरण २३ के अनुसार आचार्य कालक ने इस नगर में राजा सातवाहन के आग्रह पर पर्युषण की तिथि भाद्रपद शुक्ल ५ से बदलकर चतुर्थी की थी क्योंकि राजा पंचमी के दिन होने वाले इन्द्रध्वज उत्सव तथा पर्युषण दोनों में उपस्थित होना चाहता था।
प्रतिष्ठान से संबद्ध दूसरे आचार्य पालितिय (संस्कृत में पादलिप्त) की कथा के प्रकरण ५ तथा प्रबंध कोष प्रकरण ५ अधिक सुदृढ़ आधार उपलब्ध हैं । उद्योतन की कुवलय माला (पृ. ३) में हाल राजा की सभा में पालित्तिय की प्रतिष्ठा की प्रशंसा मिलती है। हाल द्वारा संपादित गाथा सप्तशती में प्राप्त एक गाथा (क्र. ७५) स्वयंभू छंद (पृ. १०३) में पालित्तिय के नाम से उद्धृत है। पालित्तिय की तरंगवती कथा महाराष्ट्री प्राकृत का प्रथम प्रबंध काव्य है।
जैन साहित्य में अन्य प्रसिद्ध तीन कथाएँ सातवाहन काल से संबद्ध हैं। हेमचंद्र के परिशिष्ठ पर्व (प्रकरण १२-२३) के अनुसार आर्य समिति ने अचलपुर (जिला-अमरावती) के कई तापसों को जैन धर्म की दीक्षा दी थी। जो ब्रह्म दीपिका शाखा कहलाई। वैसे ही आचार्य वज्रसेन ने सापार नगर (बंबई के निकट) में नागेंद्र, चंद्र, निवृत्ति तथा विद्याधर को मुनि दीक्षा दी थी। इन्हीं के नाम से चार शाखाएँ प्रसिद्ध हुई।
वाकाटक
श्री मिराशी के कथनानुसार वाकाटकों का समय राज्य विस्तार के कारण नहीं किन्तु धर्म, विद्या और कला को दिये गये आश्रय के कारण संस्मरणीय है। सातवाहनों ने प्राकृत भाषा को समर्थन दिया तो वाकाटकों ने प्राकृत के साथ साथ संस्कृत भाषा को भी महत्व दिया । स्वयं वाकाटक शासक भी काव्य रचना करते थे। प्रवरसेन ने राम द्वारा सेतुबंध से रावण वध तक कथा पर 'सेतुबंध' नामक काव्य लिखा। सर्वसेन ने 'हरिविजय' लिखा। वाकाटक नृपति द्वारा रचित कुछ सुभाषितों का संग्रह 'गाथा सप्तशती' में है। वाकाटक काल में शिल्प, चित्र तथा स्थापत्य कला का परमोच्च विकास हुआ था। गुफाओं की खुदाई के, शास्त्र का प्रगल्भ विकास हुआ। भित्ति चित्रों की कला वाकाटकों के समय में अति उच्च शिखर पर जा पहुंची थी। अजन्ता की उत्कृष्ट समझी जाने वाली १६, १७ और १९ गुफाओं की खुदाई वाकाटक काल में ही हुई थी। गुफा क्र. १६ में सभी दीवारों पर बुद्ध पूर्व जन्मों के विविध प्रसंगों के चित्र आज भी दिखाई देते हैं। ऐसा निर्देशिता और हाव भाव पूर्णता अजंता के चित्रों का स्पष्ट वैशिष्ट्य है। ये चित्र रेखा प्रधान हैं।
वाकाटक और गुप्त राजाओं के काल में चातुर्वर्ण्य को ले जातियां बनने लगी थीं। चांडालों को अस्पृश्य माना जाने लगा था । अस्पृश्यता का शाप इस काल खंड में लगा, जो गुप्त-वाकाटक काल में एक काला धब्बा था।
दक्षिण में वाकाटक और उत्तर में गुप्तों का राज्य था। इस काल में भक्ति मार्ग को प्रोत्साहन मिला। वाकाटक के समय में शैव,
वैष्णव और शाक्त पंथों का प्रसार होने लगा। आर्यों के मूलदेव पूर्ण रूप से कुछ पुराने और कुछ नये रूप में आगे आये । शक्ति देवी का माहात्म्य बढ़ा हुआ दिखाई देता है। लिंग पूजा का फिर से प्रचार होने लगा । अपने-अपने देवताओं का महत्व बढ़ाने के लिये उस देवता के भक्तों ने पुराणों की पुनर्रचना की। कुछ पुराणों की नये से रचना हुई। शिव, विष्णु, गणपति, सूर्य और शक्ति इन पांच देवताओं को गुप्त-वाकाटक काल में प्रमुखता प्राप्त हुई। जो आर्यअनार्यों के समन्वय की प्रतीक थी । इस समय आर्य-अनार्य की समस्या शेष नहीं रह गयी थी। वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीन धाराओं में प्रजा बँट गई थी। इस काल में बौद्ध और जैनियों में श्री भक्ति का प्रभाव बढ़ा और मूर्ति पूजा को अधिक प्रोत्साहन मिला। वैदिकों ने जैनियों को ऋषभदेव और बौद्धों के बुद्ध को अपने आराध्य देवताओं में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया। इससे समन्वय को प्रोत्साहन मिला।
वाकाटकों के बाद महाराष्ट्र में राष्ट्रकूटों की सत्ता प्रबल हुई। किन्तु महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा बादामी के चालुक्यों के आधीन था
और चालुक्यों ने कुछ समय तक महाराष्ट्र पर राज्य किया। चालुक्य वंश
चालुक्यों का राज्य छठी शताब्दी में वातापी (बादामी) में स्थापित हुआ था । चालुक्यों में सत्याश्रम, पुलकेशी, बड़ा पराक्रमी था। उसने महाराष्ट्र में मौर्य की समुद्र किनारे की जल सेना को पराभूत कर मौर्य साम्राज्य की महाराष्ट्र की बची खुची सत्ता को समाप्त किया। चालुक्यों के राज्य काल में चीनी यात्री हुवेन सांग आया था। जिसने महाराष्ट्र की यात्रा की। अजन्ता और एलोरा की गुफाएँ देखी। उसने महाराष्ट्र के विषय में लिखा-'इस प्रदेश की जमीन उपजाऊ है और इसमें खेती होती है। यहां की हवा उष्ण है। लोग साहसी, सुस्वभावी, प्रामाणिक हैं। उनका रहन सहन सादगीपूर्ण है। विद्या के चाहने वाले, उपकार कर्ताओं के प्रति कृतज्ञ, कोई सहायता या सहयोग चाहे तो आगे बढ़कर देने वाले किन्तु उनका कोई अपमान करे तो प्राणों की बाजी लगाकर बदला लेने वाले हैं। निःशस्त्र व्यक्ति पर आक्रमण नहीं करते। जिस पर आक्रमण करना होगा, पूर्व सूचना देकर शस्त्र धारण करने को अवकाश देते हैं। भागने वाले शत्रु का पीछा करेंगे, किन्तु शरणागत को उदारतापूर्वक अभय देंगे।'
पुलकेशी का पुत्र कीर्तिवर्मन राजा हुआ जिसने ई. ५६५ से ५९७ तक राज्य किया। उसने वनवासी कदम्बों, कोकण के मौर्यों नलों, गंगों और आलुओं को पराजित कर उनके प्रदेशों को जीता। यद्यपि पुलकेशी के राज्य काल में जैन धर्म काफी फला-फला किन्तु वह स्वयं वैदिक धर्मानुयायी था। उसने ई. ५६७ से जैन मंदिर में अभिषेक तथा अक्षत पुष्प, धूप, दीप आदि के द्वारा पूजन के लिए विपूल दान दिया था। उसी के राज्य में ई.५०५ में आचार्य रविकीर्ती ने एहोल के निकट पेगुत्ति में जिन मंदिर बनवाया था। विशाल जैन विद्यापीठ की स्थापना की थी। कीर्तिवर्मन की मृत्यु के बाद उसके चाचा मंगलीश ने सिंहासन हस्तगत कर सन् ५९७ से ६०८
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तक राज्य किया। बादामी की गुरुओं का निर्माण कार्य इसी के समय से प्रारम्भ हुआ। संभवतया इसी के शासन काल में अलतफ नगर (अल्तेम) में चालुक्यों के लधुहब्ब नामक उपराजा की पत्नी से सुप्रसिद्ध जैनाचार्य अकलंक देव का जन्म हुआ।
मंगलीश को उसके भतीजे कीर्तिवर्मन के जेष्ठपुत्र पुलकेशिन द्वितीय सत्याश्रय ने गद्दी से उतार दिया। जिसका राज्य सन् ६०८ से ६४२ तक रहा, उसने वनवासी के अप्पयिक और कदंब नरेश गोविन्द को पराजित किया। वैसे ही कोकण में मौर्यो, लाठ के गुर्जर और मालवा के राजा का दमन किया। पुलकेशिन की सबसे बड़ी विजय थी हर्षवर्धन के आक्रमण को निष्फल करना। हर्षवर्धन बौद्ध धर्म का समर्थक था। पुलकेशिन ने जैन धर्म का, किन्तु सभी धर्मों के प्रति उदार, और सहिष्णु था। पुलकेशिन ने विजय के बाद अपने गुरु रविकीर्ति को ई. ६३४ में एहोल के जैन मंदिर को उदार दान दिया। एहोल के मंदिर में पुलकेशिन की संस्कृत प्रशस्ति मिलती है। ई. ६३८ से ६४० के बीच चीनी यात्री हुवेनसांग ने पुलकेशिन के राज्य में यात्रा की। उसके विवरणों से पता चलता है कि चालुक्य के राज्य में जैन मंदिरों, निर्ग्रन्थ साधुओं तथा जैन गृहस्थ अनुयायियों की संख्या अधिक थी। यह पराक्रमी राजा ६४३ में पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। पुलकेशिन द्वितीय जैन धर्मानुयायी था।
बादामी के चालुक्यों के राज्य समय में इंपेरियल गजट के अनुसार (खंड १९ पृष्ठ २७) धाराशिव की गुफाओं का निर्माण हुआ प्रतीत होता है। यहां की मुख्य पार्श्वनाथ की प्रतिभा अग्गलदेव नाम से प्रसिद्ध थी।
पुलकेशी के पुत्र विक्रमादित्य साहसांक ने ६४२ से ६८० तक राज्य किया वह वीर, साहसी और बुद्धिमान था। पिता के साम्राज्य और प्रतिष्ठा की स्थापना करने में प्रबल, पुरुषार्थ किया । सुप्रसिद्ध विद्वान और जैन आचार्य अकंलक को अपना गुरु मानता था। यह भी जैन धर्म का उपासक था। ई. ६८० से ६९६ तक विक्रमादित्य द्वितीय ने राज्य किया। इसने भी जिनालयों को बहुत दान दिया था। इसकी बहन कुंकुम महादेवी ने सुन्दर जिनालय का निर्माण कराया। उसके बाद उसके पुत्र द्वितीय विक्रमादित्य ने सन् ७३३ से ७४४ तक राज्य किया। इसका पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय चालुक्य वंश का अंतिम नृपति था। इसके बाद महाराष्ट्र में राष्ट्रकूटों की सत्ता स्थापित हुई।
यद्यपि चालुक्य जैन धर्मानुयायी थे तो भी वैदिक व बौद्धों के प्रति भी वे उदार थे और उनके राज्य काल में भारतीय संस्कृति व धर्मों की उन्नति हुई।
है। राष्ट्रकूटों का कुलधर्म शैव होते हुए भी वे जैन धर्म के समर्थक तथा संरक्षक थे इतना ही नहीं पर आगे चलकर उनके उत्तराधिकारी जैन हो गए। दंतिदुर्ग का राज्य सन् ७५७ तक रहा । उसके बाद अकालवर्ष सिंहासन पर बैठा उसने ७५७ से ७७३ तक राज्य किया। एलोरा की गुफाओं का निर्माण इसी के समय में ७६९ से ७७० में प्रारंभ हुआ। सुप्रसिद्ध कैलाश मंदिर पहाड़ काटकर बनाया (जैनियों की इंद्र सभा और जगन्नाथ सभा आदि जैन ) गुफाएं भी इसी समय के लगभग बनना शुरू हुई। उसके बाद उसका पुत्र गोविन्द द्वितीय प्रभूत वर्ष विक्रमावलोकने सन् ७७३ से ७७९ तक राज्य किया। जो अयोग्य था। उसका चाचा ध्रुव जो पराक्रमी और वीर योद्धा था, राजा हुआ और उसने ७७९ से ७९३ ई. सन् तक राज्य किया। इसने राष्ट्रकूटों की सत्ता को प्रबल बनाया । इसी की रानी चालुक्य कुमारी शीलभट्टारिका जैन धर्म की भक्त और श्रेष्ठ कवियत्री थी। ध्रुव ने कन्नोज से अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयंभू को बुलाकर अपने साथ सपरिवार रखा । स्वयंभू ने रामायण, हरिवंश, नागकुमार चरित स्वयंभ छंद आदि ग्रंथों की रचना इसी नरेश के आश्रय में की। डा, पानश यादवकालीन महाराष्ट्र में लिखा करते हैं यादवों के पूर्व राष्ट्रकूटों का समय जैन धर्म की उन्नति का काल था।
ध्रुव के उत्तराधिकारी पुत्र तृतीय गोविन्द ने ७९३ से ८१४ तक राज्य किया। उसने राष्ट्रकूटों की नई राजधानी मान्यखेट के बाहर प्राचीर का निर्माण कराया। और मान्यखेट को सुन्दर और सुदृढ़ नगरी बनाई। गोविन्द के काल में राष्ट्रकूटों की सभी दृष्टि से उन्नति हुई। राज्य विस्तार बढ़ने के साथ-साथ काफी सांस्कृतिक कार्य हुए । इस काल में जैन धर्म काफी फला फूला। गोविन्द की मृत्यु के समय उसके पुत्र अमोघ वर्ष की आयु मात्र ९ साल की थी। उसका काका कर्मराज, उसका अभिभावक एवं संरक्षक बना । अमोघवर्ष को बालक देख गंग, पल्लव, पांड्य, पूर्वी चालुक्य आदि अधीनस्थ राजाओं ने विरोध किया। किन्तु कर्कराज की स्वामीभक्ति, वीरता, बुद्धिमत्ता तथा तत्परता के कारण विद्रोह का दमन हुआ। नई राजधानी मान्यखेट में ई. सन् ८२१ में अमोघवर्ष का राज्याभिषेक हुआ। उसकी शक्ति, वैभव और प्रताप उत्तरोत्तर बढ़ता गया। ई. ८५१ में अरब सौदागर सुलेमान भारत आया था। उसने लिखा है भारत का वल्लभराय (अमोघवर्ष) चीन का सम्राट बगदाद का खलिपना और रोम (कुस्तुनतुनिया) का बादशाह ये संसार के महान सम्राट हैं यद्यपि उसे प्रारंभ में उपद्रव, विद्रोह, और युद्ध का सामना करना पड़ा किन्तु कर्कराज तथा सेनापति बंकेय के पराक्रम से शत्रुओं का तत्परता से दमन होता रहा । अमोघवर्ष एक शांतिप्रिय एवं धर्मात्मा नरेश था। सौदागर सुलेमान की तरह अलइंद्रिसी, मसूरी, उन्नहीकल आदि अरब सौदागरों ने भी अमोघवर्ष के प्रताप और वैभव एवं साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि की भरपूर प्रशंसा की है। उसका शासन सुव्यवस्थित था। वह विद्वान और गुणीजनों का प्रेमी था। स्वयं भी विद्वान और कवि था। उसने संस्कृत प्राकृत, कन्नड़ और तमिल भाषा में विविध विषयों पर साहित्य सृजन में प्रोत्साहन दिया। आचार्य जिनसेन
राष्ट्रकूट वंश
कीर्तिवर्मन को पराजित कर दंतिदुर्ग राष्ट्रकूट वंश का प्रथम प्रतापी नरेश हुआ। वह अपनी राजधानी ऐलिचपुर (अचलपुर) से एलोरा ले गया। जो शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैनियों का समन्वय स्थल था। यहां की गुफाएं जो सभी धर्मों की हैं समन्वय का प्रतीक
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उनके गुरु थे। जो दिग्गज विद्वान थे। आचार्य जिनसेन ने अपने गुरु द्वारा अधूरे छोड़े गए जय धवल महाग्रंथ की पूर्ति की। अमोधवर्ष ने आचार्य उम्मदित्य जो वैद्यक विद्या के निष्णात थे । उन्हें तथा अन्य वैद्यों व विद्वानों में 'मद्यभास' के वैज्ञानिक विवेचन की चर्चा करवाई । इस ऐतिहासिक चर्चा को कल्याणकारक नामक ग्रंथ में परिशिष्ठ के रूप में सम्मिलित किया गया। यों वह अपने उत्तर काल में बीच-बीच में अवकाश ग्रहण कर अकिंचन होकर धर्मोपासना करता रहता था। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राज्य का भार उसने अपने पुत्र युवराजकृष्ण द्वितीय को सौंपकर विरक्त त्यागी श्रावक का जीवन व्यतीत किया। उसका पुत्र कृष्णद्वितीय शुभतुंग अकालवर्ष उसके जीवनकाल में ही ई. ८७८ में राज्य गद्दी पर आसीन हुआ। वैसे वह ८७५ से ही राजकाज देखता था, पर राज्याभिषेक ८७८ में उसने ९९४ तक हुआ। राज्य किया, जो जैन धर्मानुयायी था और उसके राज्य काल में भी मंदिरों, मठों, विद्या केन्द्रों को विपुल दान दिया गया। जैन साहित्य की रचना हुई थी। उसके पश्चात् उसका पोता इंद्र तृतीय ९१४ से ९२२ तक शासक रहा। इसने भी अनेक राजाओं को अपने सेनापति नरसिंह और श्री विजय की सहायता से पराजित किया था । वह स्वयं तो जैन था ही पर उसके शूर सेनापति जैन ही थे । उसके बाद ९२२ से ९३९ तक जो राजा हुए हैं वे कोई महत्वपूर्ण कार्य न कर सके पर ९३९ में तृतीय कृष्णराज अमोघवर्ष सिंहासन पर बैठा जो राष्ट्रकूट वंश के अंतिम नरेशों में पराक्रमी था और सुयोग्य था । वह वीर योद्धा, दक्ष, सेनानी, मित्रों के प्रति उदार और धर्मात्मा नरेश था। अपने पूर्वजों की भांति जैन धर्म का पोषक और विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके गुरु जैनाचार्य वादिमंगल भट्टी थे। जो उसके शत्रुओं को पराजित करते व युद्ध की प्रेरणा देते थे। उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की । इसने कन्नड़ के महाकवि पोन का सम्मान किया था । सोमदेव ने थरासिलंक व भीति वाक्यामृत की रचना कृष्ण के चालुक्य सामंत आश्रय में गंगाधर नगर में की थी। कृष्ण के प्रधानमंत्री भरत थे। वे जैन धर्म के अनुयायी और अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदंत के आश्रयदाता थे । कृष्ण के बाद उसका भाई खोटिग्ग नित्यवर्ष राजा हुआ। जिसने ९३७ से ९७२ तक राज्य किया । मालवे के सियकहर्ष ने ९७२ में मान्यखेट पर आक्रमण किया, जिसमें खोटिग्ग मारा गया और राजधानी को लूट कर भस्म किया। जिसका कवि पुष्पदन ने विनाश का करुण चित्रण किया। इसके बाद खोटिग्ग का पुत्र कर्क द्वितीय राजा हुआ। जिसने सिर्फ १ वर्ष राज्य किया । राष्ट्रकूट का अंतिम राजा इंद्र चतुर्थ था। वह वीर तथा योद्धा था। उसने और सेनापति मारसिंह ने अनेक युद्ध कर राज्य को संभालने की कोशिश की पर वे स्थायी रूप से सफल न हो सके । ९७४ में मारसिंह ने सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण प्राप्त किया । ९८२ में इन्द्र भी जैन मुनि हो गया । इन्द्र चतुर्थ ने भी कई वर्ष सल्लेखना द्वारा मृत्यु का वरण किया उसकी मृत्यु के बाद राष्ट्रकूट वंश और साम्राज्य का अंत
हुआ ।
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डा. पानसे यादवकालीन महाराष्ट्र में लिखते हैं कि 'राष्ट्रकूटों का राज्यकाल जैन धर्म की विशेष उन्नति का समय था ।' राष्ट्रकूट वंश के राजा तो जैन थे ही पर उसके अधीन राजा, सामंत, सेनापति तथा अधिकारी भी जैन धर्म के उपासक थे। कई राज्य पुरुषों ने संन्यास लेकर संल्लेखना के द्वारा समाधि मरण स्वीकृत किया । राजाओं की तरह विद्वान आचार्यों ने भी जैन तत्वों का प्रभावशाली प्रचार किया, विविध भाषाओं में, लोकभाषा में धार्मिक साहित्य निर्माण किया जिसका जन मानस पर प्रभाव पड़ा ।
राष्ट्रकूट कुल का शासन करीब २५० साल तक महाराष्ट्र में रहा । प्रारंभ में राष्ट्रकूट राजा हिन्दूधर्म के रहे तो भी उन्होंने जैन धर्म को आश्रय तथा संरक्षण दिया था । आगे चलकर तो राजा जैन ही हो गये और जैन धर्म एक तरह से राजधर्म ही बन गया था । बौद्ध निस्तेज हो गये थे। राष्ट्रकूटों के राज्यकाल में यज्ञ संस्था समाप्त सी हो गई थी किन्तु दैनिक जीवन में स्नान, संध्या, पूजा, अची आदि आचारों का सख्ती से पालन किया जाने लगा था । मूर्तिपूजा का महत्व बढ़ा | व्रतों की अत्यधिक वृद्धि होने लगी । पुराणों को प्रोत्साहन मिलने से देवी-देवताओं की संख्या में बि हुई। तीर्थयात्रा और दान धर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला । हूण, शक आदि विदेशियों को भारतीय बनाया गया। डा. अल्लेकर कहते हैं -- ' यद्यपि शंकराचार्य का उदय इस काल में हुआ था किन्तु उनके जगद्गुरुत्व या मठाधिपतित्व को इस काल में मान्यता प्राप्त नहीं हुई थी। वैसे ही यादवकालीन महाराष्ट्र में डा. पानसे ने लिखा है कि 'शंकराचार्य के बाद पूरे भारत में जो हिन्दू धर्म के पुनरुज्जीवन की बाढ़ आई उसका दिखाई दे ऐसा परिणाम जैन धर्म पर नहीं हुआ। तंत्र मार्ग का और नाथ मुनियों का प्रभाव महाराष्ट्र में बढ़ा
इस काल में हिन्दू समाज में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया । मुस्लिमों के साथ संपर्क में आने से जाति बंधनों में अधिक सख्ताई और तीव्रता आई । वैश्य और शूद्रों पर कष्टप्रद जाति बंधन निर्माण होने लगे । बहुजन समाज में दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक दृष्टि से विषमता अत्यधिक बढ़ी। पावित्र्य के विषय में ऐसी कल्पना रूढ़ हुई कि भिन्न-भिन्न जातियों में रोटी-बेटी व्यवहार निषिद्ध माना जाने लगा। छुआछूत और पावित्र्य को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया जाने लगा । ब्राह्मणों में भी ऊंच-नीच के भेद शुरू हुए। धोबी, मोची, बुनकर, कुम्हार, कोली आदि जातियां शूद्र मानी जाने लगीं । धर्म भ्रष्ट को फिर से परिवर्तन करने में जो देवल स्मृति में सुविधा या उसमें तथाकथित सनातनी बाधा निर्माण करने लगे। इसी काल में मंदिरों में देवदासी प्रथा शुरू हुई। विधवा के केश वपन तथा सतीप्रथा को बढ़ावा मिला। सनातनियों में असहिष्णुता, बेहद देवताओं की वृद्धि और संप्रदाय व पंथों की बाढ़ और मतभेदों के कारण मुसलमानों को अपने धर्म का प्रसार करने एवं सत्ता बढ़ाने की सुविधा हुई ।
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राष्ट्रकूटों के समय में कला, स्थापत्य, साहित्य के विकास के साथ साथ शिक्षा के क्षेत्र में विकास हुआ। जैन गुरुओं ने शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया । पाठशालाएं तथा विद्यालयों में शिक्षा देने का काम जैन गुरुओं के द्वारा काफी मात्रा में होता था । महाराष्ट्र में शिक्षा का प्रारम्भ ॐ नमः सिद्धेभ्यः से होता था । कल्याणी के चालुक्य
राष्ट्रकूट की सत्ता समाप्त कर कल्याणी के राजा ने महाराष्ट्र पर सत्ता कायम करने का प्रयत्न किया किन्तु वे महाराष्ट्र के कुछ भाग पर ही आधिपत्य पा सके। इनके राज्य में भी साहित्य रचना हुई। इसी काल में महाराष्ट्र की स्त्रियां पिसाई के समय ओव्या (गाने) गाने लगी थी। संभव है वे मराठी की ही हों। यादवों ने चालुक्यों को पराजित कर दिया। राष्ट्रकूटों के बाद चालुक्यों की तरह शिलादार तथा कदंबों के हाथ में महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा रहा। कोंकण के शिलादार
यह विद्याधरवंशीय क्षत्रिय थे। जो अपने को जीमूतवाहन के वंशज मानते थे। प्रारंभ में उनकी राजधानी करहद (कन्हाड) थी। और बाद में क्षुल्लकपुर (कोल्हापुर) रही। सन् १००७ से १००९ में शिलादारों में राज प्रसिद्ध राजा था। किंतु इस वंश में गंडरादित्य प्रसिद्ध राजा हो गया वह दानशूर एवं समदर्शी था। उसने अपने दान से ब्राह्मणों को तो लाभान्वित किया ही आजरेना (आजरें) में सुन्दर जिनालय भी बनवाया। उसने एक ऐसा मंदिर बनवाया जिसमें बुद्ध, शिव और जिन की मूर्तियां थीं। इसका उत्तराधिकारी विजयादित्य अमात्य निम्बदेव बड़े धर्मात्मा धर्म शास्त्रों का ज्ञाता था। उसने कोल्हापुर में विशाल जिन मंदिर बनवाया था। विजयादित्य का काल ११४० से ११६५ तक रहा। उसके सेनापति बोप्पण के विषय में प्रशस्ति में बड़ी प्रशंसा पाई जाती है। उसने राजा के लिए मंदिर बनाना शुरू किया था। उसका एक मंत्री लक्ष्मीधर था। विजयादित्य के राज्य के बाद उसके पुत्र द्वितीय भोज का राज्य ई. ११६५ से १२०५ तक रहा । वह भी जैन धर्म का परम भक्त था। इसके बाद यादवों ने शिलादारों को अपने आधीन कर लिया
मिल्लम द्वितीय ने चालुक्यों की अधीनता स्वीकार की। चालुक्य राज दूसरे तैलप के साथ राजा वावपती मुंज का युद्ध हुआ उसमें मिल्लम ने चालुक्यों की ओर से पराक्रम कर मुंज को हराया जिससे चालुक्यों पर उसका प्रभाव बढ़ा। मिल्लम के समय में भी चालुक्यों का यादव परिवार के साथ वैवाहिक संबंध था सेउनणचंद्र और उसके पुत्र ने छटे विक्रमादित्य की सहायता की थी और परमदेव के पुत्र सिंघण ने उसे विविध आक्रमणों में सहायता की थी। ई. स. ११५१ में तृतीय तैलप को उसके प्रधान विज्जल ने निष्प्रभ कर ११६२ में अपनी सत्ता प्रस्थापित की और सम्राट बन गया। इस सत्तांतरण में यादव राजा पल्लुगी ने कलचुरियों को पराजित कर काफी प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया था। बिज्जल के बाद कलचुरिवंश के राजा दुर्बल हो गए, तब ११८३ में यादवों ने उनकी सत्ता नष्ट कर पंचम मिल्लम ने यादवों का साम्राज्य स्थापित कर देवगिरी को अपनी राजधानी बनाया। पंचम मिल्लम ने ई. स. ११८३ से ११९१ तक राज्य किया। उसके बाद उसके पुत्र जेनपाल ने ई. स. ११९१ से १२१० तक राज्य किया। इतिहासकार कहते हैं कि वह जैन था बाद में महानुभाव हो गया। उसके बाद सिंघण राजा बना। सिंघण ने होयसालों से दक्षिण का प्रदेश जीता और १२१८ में कोल्हापुर के शिलादारों का राज्य जीतकर वह प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया। उसके बीचक और खोलेश्वर प्रमुख सेनापति थे, जो बड़े पराक्रमी थे। उसने अपने राज्य का विस्तार महाराष्ट्र के बाहर दक्षिण व उत्तर में भी किया। उसकी सेना के नेपाल तक जाने का उल्लेख मिलता है। ___सिंघण के बाद उसका पौत्र कृष्णराज गद्दी पर बैठा । उसका राज्य १२४७ से १२६० तक रहा। कृष्ण का मुस्लिमों के साथ मालवे में पहली बार संघर्ष हुआ उसने मालवे से लौटते समय अमीरों का पराभव किया। कृष्ण के बाद उसके भाई महादेव ने १२६०-१२७१ तक राज्य किया। उसने कोंकण के शिलादारों का राज्य अपने साम्राज्य में मिला लिया । उसने मालवा और तेलंगाना प्रांत पर आक्रमण करके राज्य विस्तार का प्रयत्न किया। महादेव के काल में देहातों में तुर्कों का उपद्रव बढ़ने का जिक्र महानुभावों के साहित्य में आता है। महादेव ने अपने पुत्र आमण को युवराज बनाया जब कि उसके भतीजे रामदेव राव का हक था। इस घटना से रामदेवराव को क्रोध आया। उसने चुनिन्दा सैनिकों का नृत्य पृथक तैयार कर किले में प्रवेश किया और गढ़ के लोगों की असावधानी का लाभ उठाकर किले पर अधिकार प्राप्त कर आमण को कैद कर लिया और उसकी आंखें निकाल दी।
यादव
नवीं शताब्दि में यादवों के राजा दृढ़प्रहार की राजधानी नासिक जिले के चांदवड में थी जो चंद्रादित्यपुर नाम से प्रसिद्ध था। दृढ़प्रहार के पुत्र सेउनणचंद्र ने सेउनणपुर नामक गांव बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया । उसके आधीन प्रदेश सेउनण देश के नाम से पहचाना जाता था। इसमें नासिक, अहमदनगर और औरंगाबाद जिले का क्षेत्र था। ये यादव राष्ट्रकटों के अधीनस्थ थे। आधीन रहते हुए भी राष्ट्रकूटों के साथ समानता का व्यवहार था। राष्ट्रकूट परिवार की राजकन्या के साथ द्वितीय मिल्लम का विवाह हुआ था। राष्ट्रकूट राजाओं के दुर्बल होने पर चालुक्यों की सत्ता महाराष्ट्र पर स्थापित हुई तो
रामदेव ने सन् १२७१ से १३०९ तक राज्य किया। उसने अपना राज्य विस्तार विदर्भ तक किया। वहां से मध्यप्रदेश होते हुए वाराणसी तक गया। वहां उसने मुस्लिमों को निकाल बाहर किया और शारंगपाणि का सुवर्ण मंदिर बनाया। रामदेव के समय में यादवों का राज्य विस्तार बढ़कर यादवों का दक्षिण का प्रबल साम्राज्य निर्मित किया। किन्तु अपनी असावधानी के कारण अल्लाउद्दीन के देवगिरी के हमले का बह मुकाबला नहीं कर
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सका। देवगिरी के किले में अनाज के बदले नमक के बोरे रखे गये, जिससे अल्लाउद्दीन से लड़ते समय उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ा। रामदेव का पुत्र शंकरदेव होयसलों के साथ युद्ध पूरा कर वापस लौटा तो उसने अल्लाउद्दीन की सेना पर आक्रमण किया, पर उसमें उसकी हार हो गई। अन्त में रामदेव को अल्लाउद्दीन के साथ सुलह करनी पड़ी। अल्लाउद्दीन बहुत बड़ी संपत्ति लेकर लौटा । रामदेवराव को अल्लाउद्दीन ने १३०७ में मलिक काफूर को भेजकर कैद करवाकर लाया और छह महीने बाद उसे मुक्त किया। मलिक काफूर ने वरंगल पर आक्रमण किया तब होयसाल की राजधानी का रास्ता बताने में रामदेवराव ने सहायता की थी। रामदेवराव के बाद उसका पुत्र शंकरराव राज्य गद्दी पर १३०९ में बैठा। उसने दिल्ली दरबार को निश्चित कर न भेजने से वसूली के लिए मलिकवर को भेजा। उसने १३१२ में शंकरदेव को मार डाला। शंकर के पश्चात् १३१२ में हरपालदेव देवगिरी का राजा हुआ। उसने मुस्लिमों को अपने राज्य से निकाल कर बाहर किया। इस पर मुबारक शाह खिलजी ने देवगिरी पर भयानक आक्रमण कर हरपाल देव को कैद कर उसकी खाल खिचवा ली। इस प्रकार देवगिरी के यादवों के राज्य का अंत हुआ। यादव हिन्दू धर्म के अनुयायी थे किन्तु जैन धर्म के प्रति भी सहिष्णु थे। सासित्य और कला के भी रसिक थे।
मराठी भाषा और साहित्य पर जैनियों का प्रभाव
महाराष्ट्र के संतों एवं उनके कार्यों के विषय में जानने के पूर्व ऐतिहासिक काल की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति जानने की तरह यह देखना भी उपयुक्त होगा कि महाराष्ट्री, प्राकृत, महाराष्ट्री अपभ्रंश भाषा के साहित्य का जो सर्जन हआ उसे प्रथम समझने का प्रयत्न करें क्योंकि इसके बिना महाराष्ट्र के संतों के कार्य और विचारों की पार्श्वभूमि का ज्ञान नहीं हो सकता। ___भाषा और साहित्य के मूल प्रवाह के आधार पर ही विभिन्न क्षेत्रीय अथवा वैचारिक संस्कृतियों की धारा प्रवाहमान होती है। प्रायः सभी संस्कृतियों के मूल बीज, प्राचीन जनपद बोलियों तथा संतों की वाणी में सुरक्षित रहता है। महाराष्ट्र में जैन धर्म तथा संस्कृति का विपुल योगदान रहा है। जैनागम की प्राकृत भाषा की महाराष्ट्री प्राकृत कहलाती है। और आज भी मराठी भाषा के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों में सहस्राब्दियों से पूर्व के शब्द तत्सम एवं तद्भव रूप में उपलब्ध होते हैं। जैन धर्म एवं संस्कृति के योगदान का सही आकलन तभी संभव है, जब हम जैन आगमों में प्रयुक्त प्राकृत अपभ्रंश आदि भाषा एवं उसके प्रवाह के उद्गम की गवेषणा कर लें।
इस दृष्टि से मराठी भाषा के उद्गम और विकास के लेखक कृष्णाजी पांडुरंग कुलकर्णी ने भाषायी विकास का जो बंश वृक्ष दिया है, वह मराठी भाषा के उद्गम समझने में बड़ा उपयोगी है।
आर्य भाषा ईसा पूर्व ५००० वर्ष
प्राकृत बोली
वैदिक ईसा पूर्व ६००० से ३०
वैदिक ईसा पूर्व ५००० से ३००० वर्ष पूर्व
उदीच्य
प्रतीच्या
मध्यदेशीय
प्राच्य
खेतान पैशाची
अपभ्रंश
|
ਐ ਕਰਿ
ਨ ਆਇਲੀ ਆਵਾਸ ਚ
दक्षिणात्य ग्रांथिक ब्राह्मण, सौत्र
ईसा पूर्व ३००० वर्ष महाराष्ट्री अपभ्रंश
पाणिनीय संस्कृत अपभ्रंश
अशोक शिलालेखी
सौरसेनी अर्धमागधी मागधी
कैकय टक्क
नागर
अवहट्ट
प्राचड उपनागर लाटी,
सौराष्ट्री
ल्हाडी
सिंधी
नागर अपभ्रंश पश्चिम हिंदी जैन अर्धमा. बंगाली, बिहारी मिश्र प्राकृत
राजस्थानी गुजराती पूर्व आसामी
पूर्व आसामी
मराठी
मराठी
महाराष्ट्र की भूमि को अनेक जैनाचार्यों ने अपने बिहार से लाभान्वित किया है। प्रात के प्रसिद्ध कथाकार पादलिप्तसूरि महाराष्ट्र में ही राजा सातवाहन के दरबार में थे। पाललिप्त । ने तरंगवती नामक कथा महाराष्ट्रीय प्रा 'त-महाराष्ट्र की जनभाषा में लिखी है। यह ग्रंथ लोक जीवन के वर्णनों से ओतप्रोत है। महाराष्ट्री प्राकृत का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रंथ सेतुबंध
है। इसके रचयिता प्रवरसेन महाराष्ट्र के राजा और कवि थे। उन्होंने सेतुबंध में राम कथा के प्रसंग को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। इसी तरह आगे चलकर गड्डवहो, लीलावओकहा आदि अनेक ग्रंथ. भी महाराष्ट्री प्रात में लिखे गये हैं। इस प्राकृत साहित्य ने महाराष्ट्र के लोक साहित्य को बहुत प्रभावित किया है। महाराष्ट्र की भूमि को पवित्र करने वाले
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अतः उसने आगे आने वाली अपभ्रंश और आधुनिक मराठी को अधिक प्रभावित किया है। प्राकृत और महाराष्ट्री भाषा का तुलनात्मक अध्ययन कई विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। यद्यपि महाराष्ट्री प्रात ही मराठी भाषा नहीं है। उसमें कई भाषाओं की प्रवृत्तियों का सम्मिश्रण है। फिर भी प्राकृत के तत्व मराठी में अधिक हैं। जो शब्द ५-६ ठी शताब्दी के प्राकृत ग्रंथों में प्रयुक्त होते थे वे भी आज की मराठी में सम्मिलित हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि प्राकृत और मराठी का संबंध बहुत पुराना है। भाषा की दृष्टि से मराठी के वे कुछ शब्द यहां प्रस्तुत हैं जो प्राकृत साहित्य में भी प्रयुक्त हुए तथा जिनके दोनों के समान अर्थ हैं। कुछ शब्द नीचे दे रहे हैं
प्राकृत
मराठी
अर्थ (हिन्दी में)
अग्रभाग गले का स्नान
चूहा
कटिवस्तु करवा
जैन आचार्यों में कालकाचार्य भी हैं। निशीथचूर्णी से पता चलता है कि आचार्य कालक उज्जैनी से महाराष्ट्र के प्रतिष्ठान नगर में पधारे थे। वहां राजा सातवाहन ने उनका भव्य स्वागत किया। था। आचार्य कालक ने महाराष्ट्र में ही जैनधर्म के प्रसिद्ध पर्युषण पर्व को पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनाना प्रारंभ किया था। महाराष्ट्र में यह पर्व श्रमण पूजा (समणपूथ) के नाम से प्रसिद्ध हुआ
महाराष्ट्र में चांदा जिले में एक बैरागढ़ स्थान है। यह पुराना 'वेण्णयड' है, जहां से प्रसिद्ध जैन आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि गिरनार की ओर गये थे। अतः दूसरी शताब्दी में भी महाराष्ट्र में जैन आचार्य विहार होना था। प्रभावक' चरित्र के अनुसार आचार्य सिद्धसेन का देहावसान प्रतिष्ठान नगर में हुआ था। तथा प्रबंधकोष के अनुसार आचार्य भद्रबाह प्रतिष्ठान के ही रहने वाले थे। अतः महाराष्ट्र से कई जैनाचार्यों का संपर्क रहा है। आचार्य समन्तभद्र सतारा जिले के करहाटक (किराड) में एक वादविवाद में सम्मिलित हुए थे। प्राचीन समय में नहीं अपितु मध्यकाल में भी अनेक जैन आचार्य महाराष्ट्र में हुए हैं। कोल्हापुर में बारहवीं शताब्दी में माघनन्दी नाम के प्रसिद्ध आचार्य थे। कोल्हापुर के ही समीप अर्जुरिका (आजरे) नगर में आचार्य सोमदेव ने सन् १२०५ में शब्दार्णवचंद्रिका नामक व्याकरण-ग्रंथ की रचना की थी।
अपभ्रंश के प्रसिद्ध कवि, स्वयंभू एवं पुष्पदंत भी महाराष्ट्र (बरार) के शोरोहिणखेड़ के निवासी थे।
जैन आचार्य महाराष्ट्र में केवल भ्रमण ही नहीं करते थे अपितु महाराष्ट्र को संस्कृति और जन-जीवन के संबंध में भी बहुत-सी जानकारी अपने ग्रंथों में प्रस्तुत करते थे। आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला में महाराष्ट्र के संबंध में विशेष जानकारी दी है। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के काम एवं व्यापारी दक्षिण भारत में विजयपुरी तक शिक्षा प्राप्त करने अथवा व्यापार करने जाते थे। उन्हें तब भी मरहट्ट (मराठे) कहा जाता था। उद्योतनसूरि ने महाराष्ट्र की स्त्रियों को हल्दी के समान रंगवाली गौरवपूर्ण, कहा है। एक अन्य वर्णन के प्रसंग में उद्योतन ने महाराष्ट्र के व्यापारी के रूप, रंग, स्वभाव व भाषा आदि के संबंध में कहा है कि मराठे व्यापारी मजबूत, ठिंगने, श्यामांग, सहिष्णु, स्वाभिमानी तथा कलाप्रिय थे। वे दिण्णत्थे, गहियल्ले जैसे शब्दों को बोल रहे थे। ये शब्द मराठी भाषा में दिलेले एवं घेतलेले के रूप में प्रचलित हैं। जिनका अर्थ है-दिया और लिया।
भाषाओं के विषय में महाकवि श्री राजशेखर ने कहागीर्वाणवाणी सुनने योग्य, प्राकृत स्वभाव से मधुर, अपभ्रंश ऐव्य और पैशामी रसपूर्ण है। महाराष्ट्र में महाराष्ट्री अपभ्रंश में जैनियों की प्रचुर रचनाएँ भी मिलती हैं।
दक्षिण भारत में महाराष्ट्र में प्राचीन समय से ही संस्कृत और प्राकृत का प्रभाव रहा है। महाराष्ट्री प्राकृत चूंकि लोकभाषा थी
अणिया आंधोल अन्दौर कासोटा करवत कोल्हा गार गुटी तोटण चिखल
गीदड़
अणिय अंगोहलि अन्दर कच्छोट्ट करवली कोल्लुग गार छंगुड़िया चिक्खल्ल वैली छेप्य जल्ल ढिकुण
पत्थर घोडा कीचड़ बकरी
सेली
शेपुटी जाल
पूंछ
ढंकण
तुंड
तोंड
नेम
तक्क तुली णिरुत्त दद्दर दोद्धिअ
नेअण
शरीर का मेल खटमल मुंह मठा सूती चादर निश्चय सीढ़ी लोकी ले जाकर पेट भोंकना मौसी मेला साला रंगोली गुड़िया बहु
तूली निस्ते दादर दूधी नेऊन पोट भुंकणे माउसी मेला मेवणा रांगोली बाहुली
पोट्ट
भुक्क
माउच्छिय
मेला
मेहुण रंगावली बाउल्ल सुण्ह
सून
इस दृष्टि से मराठी भाषा और महाराष्ट्र की संस्कृति पर जैनियों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
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जैन कथा साहित्य : एक पर्यवेक्षण
जयन्तविजय, "मधुकर"
जीवन में कथा-कहानी का महत्त्व ___ सत्य तो यह है कि प्रत्येक मानव अपने जन्म के साथ एक कथा लेकर आया है। जिसको वाणी द्वारा नहीं किन्तु अपने अहर्निश के क्रिया-कलापों द्वारा कहता हुआ समाप्त करता है। तब जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसमें कहानी की मधुरिमा अभिव्यंजित नहीं हुई हो, कथा के प्रति मानवमात्र का सहज आकर्षण न हो। इसलिए विश्व के संपूर्ण साहित्य को लें अथवा किसी भी देश, जाति या भाषा का साहित्य लें उसका बहुभाग एवं सर्वाधिक जनप्रिय अंश किसी न किसी रूप में रचित उसका कथा साहित्य ही माना जाता है। यह स्थिति मात्र लौकिक साहित्य की ही नहीं वरन् धार्मिक साहित्य के बारे में भी यही बात शत-प्रतिशत सत्य है कि लोक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोचक व जनप्रिय अंश उसका कथा साहित्य ही है। ___ कथा साहित्य प्राचीन परम्परा की पावन गंगा है जो देश-काल के विस्तार के साथ अनेक कथा सरिताओं का संगत होते जाने से विशाल रूप धारण कर जन मानस को उल्लसित एवं उदान बनने के लिए प्रेरित करती है। कथाओं का उद्देश्य
लोक जीवन और लोक संस्कृति का उन्नयन एवं संरक्षण करने के साथ-साथ जन सामान्य को सुगम रीति से धार्मिक नियमों, नैतिक आचार-विचारों के प्रचार-प्रसार करने एवं समझाने के लिए क्या साहित्य से बढ़कर अधिक प्रभावशाली साधन दूसरा नहीं है। जिनके बिना एक कदम चलना भी असंभव होता है। ऐसी स्थिति में उनका सरल मार्ग कहानी साहित्य ही होता है। कला के माध्यम से दर्शन के दुरूह प्रश्न, संस्कृति का गहरा चिन्तन व धर्म के विविध पहल सरलता से हृदयंगम किये व कराये जा सकते हैं। इसमें सभी बोलियों की आत्मा होती है। मित्र सम्मत उपदेश भी इसी माध्यम से होता है, जो श्रुति से मधुर, आचरण में सुकर व हृदय छूने वाला होता है।
जैन कथा साहित्य
उपर्युक्त कथन से यह भलीभांति ज्ञात हो जाता है कि कहानी, साहित्य, साहित्य की एक प्रमख विधा है जिसे सबसे अधिक लोक प्रियता प्राप्त है। उसके प्रकाश में अब हम जैन कथा साहित्य के बारे में विचार करते हैं।
साहित्य के साथ जैन विशेषण की उपस्थिति इस बात को सूचित करती है कि यहां जैन नाम से प्रसिद्ध धार्मिक परम्परा विशेष का साहित्य अभिप्रेत है जिसका उद्देश्य वैयक्तिक जीवन का नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नयन करना है। अत: उसकी दृष्टि केवल सामूहिक लोक जीवन अथवा किसी वर्ग या समाज विशेष तक सीमित नहीं है वरन् प्रत्येक जीवात्मा को स्पर्श किया है। यही कारण है । इस परम्परा द्वारा प्रेरित, जित, संरक्षित एवं प्रभारित साहित्य भारतीय भाषाओं में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और उन-उन भाषाओं के साहित्य भण्डार की अभिवृद्धि की है।
जैन साहित्य केवल तात्विक, दार्शनिक या धार्मिक आचार विचारों तक ही सीमित नहीं है। उसमें ज्ञान विज्ञान की प्राय: प्रत्येक शाखा पर रचित रचनाएं समाविष्ट हैं, जिनमें उन सिद्धांतों की सनिःण व्याख्या की गई है जिनको आज तक कोई चुनौती नहीं दे सका है किन्तु लोक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण, रोचक एवं जनप्रिय अंश उसका कथा साहित्य है। जैन आगमों में से नाया धम्म कहा, उवासगदसाओं, अन्तगडदशा, अनुत्तरोपपातिक, विपाक सूत्र आदि तो समग्र रूप से कथात्मक हैं इनके अतिरिक्त सूयगडांगसूत्र, भगवतीसूत्र, ठाणंगसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि में भी अनेक रूपक व कथाएं हैं जो भाव पूर्ण होने के साथ प्रभावक भी हैं।
जैन कथा साहित्य अत्यन्त विशाल, व्याप। एवं विविध भाषा मय है। उसमें काव्य शास्त्र के सभी लक्षणों, नियमों की संपुष्टि करने वाले पौराणिक महाकाव्य, चरित्र काव्य, सामान्य काव्य,
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शास्त्रीय काव्य के अतिरिक्त जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र को स्पर्श करने वाली लोककथाएं, दन्तकथाएं, नैतिक आख्यायिकाएं, कथाएं, साहित्यिक कथाएं, उपन्यास, रमन्यास दृष्टान्त कथाएं उपलब्ध हैं। इनमें से अनेक स्वतंत्र कथाएं हैं और कथाओं की परम्परा संबद्ध शृंखलाएँ भी हैं। कुछ छोटी-छोटी कहानियां हैं तो कुछ पर्याप्त बड़ी। जैन कथा साहित्य के बारे में इतना संकेत करना ही पर्याप्त है कि यह बहुत ही विशाल है, इसकी दृष्टि विशाल है और मानवीय जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसका समावेश जैन कथा साहित्य में न हुआ हो । जैन कथाओं को विशेषता
जैन कथाओं की निर्मिति यथार्थवाद के धरातल पर हुई है और इनकी रूपरेखा आदर्शवाद के रंग से अनुरंजित है । अपने आदर्श को स्पष्ट करते हुए एक बार नहीं हजार बार बताया है कि मानव जीवन का श्रेय मोक्ष प्राप्ति है और उसमें सफल होने के लिए संसार से विरक्त होना पड़ेगा। यद्यपि पुण्य सुखकर है और पाप की तुलना में इसकी लब्धि भी श्रेयस्कर है फिर भी पुण्य कामना का परित्याग विशुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
जैन कथाओं में वर्णनात्मक शैली की मुख्यता है फिर भी उनमें मानवीय संकेदनाओं. भावनाओं का आरोह-अवरोह जीवन का क्रमिक विकास एवं मानवता का उच्च संदेश विद्यमान है। जैन कथाएं भारतीय सभ्यता संसति के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं एवं मानव को बर्बरता एवं क्रूरता के नागपाश से मुक्त कर आध्यात्मिक भाव भूमि पर महान एवं नैतिकता का अधिष्ठाता बनाने में सक्षम है।
जैन कथानक' विशुद्ध भारतीय है और अनेक बार शुद्ध देशज है तथा पर्याप्त रूप से मौलिक। इनमें लोकासंस्कृति की झलक देखने के साथ उस प्रदेश व युग में बोली जाने वाली भाषा का भी यथार्थ रूप देखने को मिलता है। भाषा का प्रवाह ऐसा है कि पढ़ने में मस्तिष्क पर किसी प्रकार का भार नहीं पड़ता है।
जैन कथाओं में कर्म सिद्धान्त के निरूपण द्वारा पुण्य-पाप की विशद व्याख्या हुई है कि प्रत्येक जीव को स्वति कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इस अटल सिद्धान्त की परिधि के बाहर संसार का कोई भी प्राणी नहीं जा सकता है। अपने अपने कृत्यों के शभाशभ परिणामों का अनुभव करना पड़ता है। यह बात दूसरी है कि पुण्यवान पायन कर्म के फलस्वरूप स्वर्ग सुख भोगे और पशु भी सामान्य व्रतों का पालन करके देव बन सकता है। जैन धर्म पुनर्जन्म सिद्धान्त' में पूर्ण आस्थावान है इसलिए कर्मवाद की अभिव्यक्ति अधिक प्रभावशाली बन जाती है। यदि कारण विशेष से कोई जीव अपने वर्तमान जीवन में स्वकृत कर्मों का फल भोग नहीं पाता है तो उसे दूसरे जन्मों में अवश्य भोगना पड़ता है।
जैन कथाओं में वर्तमान मुख्य है और भूतकाल वर्तमान सुख दुख की व्याख्या या कारण निदेश के रूप में आता है। भूत गौण है भूत को वर्तमान से सम्बद्ध रखती है तथा अपने सिद्धान्त का सीधा उपदेश न देकर कथानथों के माध्यम से उद्देश्य प्रकट करती है।
जैन कथानकों में समस्त प्राणियों की चिन्ता करने वाले जैन धर्म के आध्यात्मिक विकास के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराने के साथ-साथ सर्वभूत हिताय की भावना सदैव स्पन्दित रही है, जाति भेद या वर्ग भेद की कल्पना के लिये यहां स्थान ही नहीं है । जैन कथाओं में विरक्ति व्रत, संयम, सदाचार को विशेषत: प्रतिफलित किया है । जीवन में व्रतों की आवश्यकता, उनके प्रयोग, उनकी उपयोगिता आदि पर अनेक कहानियां हैं जो जीवन के उज्ज्वल पक्ष को प्रदर्शित करती है और कहानियों के चिन्तन मनन से प्रेरणा पाकर मानव आध्यात्मिकता एवं पवित्रता की ओर अग्रसर होता है।
जैन कथाओं में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं कुछ ऐसे तत्व हैं जो सार्वभौम होने के कारण विश्व के कथाकारों को विविध रूपों से प्रभावित कर सके और उन्होंने प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से इन्हें अपनाया है। इन कल्याणदायिनी कहानियों में केवल पारलौकिक अथवा अध्यात्मवाद की ही प्रमुखता नहीं है अपितु लौकिक जीवन के सभ्य सुसंस्कृत गौरवशाली धरातल को भी अभिव्यंजित किया है। यहां दोनों का समन्वयात्मक रूप दष्टव्य है। संक्षेप में उन विशेषताओं को निम्न प्रकार से आकलित किया जा सकता है। १. विश्व कल्याण की भावना का प्राधान्य । २. जीवन के चरम लक्ष्य एवं कर्म सिद्धान्त का निरूपण । ३. सांसारिक वैभव की क्षणभंगुरता का मनोरम चित्रण । ४. आदर्शवाद और यथार्थवाद के समन्वयात्मक दृष्टिकोण का
संतुलित निरूपण। ५. पुण्य-पाप की रोचक व्याख्या । ६. कहानी सुखद परिसमाप्ति एवं वर्णन की रोचकता । ७. आध्यात्मिक चितन की प्रचुरता।। ८. लोक प्रचलित उदाहरण के माध्यम से सैद्धांतिक गहन विषयों
का सुगम विवेचन । ९. जैन धर्म की उदारता को प्रमाणित करने हेतु जाति बंधन के
शैथिल्य का वर्णन । १०. भारत के प्राचीन वैभव की अनुपम अभिव्यक्ति एवं ऐतिहासिक
तथ्यों की निष्पक्ष एवं समचित व्याख्या । ११. सूक्तियों और कल्पना का उचित उपयोग तथा रूपकों व
प्रतीकों का विविध प्रकार से प्रयोग। १२. विभिन्न भाषाओं और बोलियों की शब्दावली का उदारता" पूर्वक प्रयोग। १३. परम्पराओं, उत्सवों और मंगलमय आचार व्यवहारों का सहज
उल्लेख और विवरण । १४. मानवीय नैसर्गिक वृत्तियों और प्रवृत्तियों का चित्रण। १५. कृत्रिमता का अभाव एवं शांत रस की प्रचुरता । १६. अतीत के साथ वर्तमान काल की अभिवृद्धि की कामना । १७. मानवीय पुरुषार्थ को जागृत करने की प्रेरणा । १८. कष्ट सहिष्णु बनने का संदेश । १९. जैन धर्म के आचार-विचार मूलक सिद्धान्त की समुचित
व्याख्या ।
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२०. वर्ग विशेष की संस्कृति के साथ-साथ विशाल संस्कृति का
सुहावनी अभिव्यंजनापूर्वक गतिशील वर्णन । २१. भारतीय गौरव और वैभव की अनुपम अभिव्यक्ति आदि ।
अभिप्राय यह है कि जैन कथा साहित्य की अपनी विशेषताएंमौलिकताएं हैं । इसलिये विश्व साहित्य के विशाल भण्डार की बहुमूल्य निधि मानी जाती है । जैन कथाकारों की उदारता
जैन कथाकारों की यह उदारता रही है कि किसी भी क्षेत्र से क्या स्रोत ग्रहण किये हों, कोई भी कथानक हो, कोई और कैसे भी पात्र हो या कैसी भी घटना क्रम या स्थिति का चित्रण हो वे अपनी कहानी को एक रोचक एवं वस्तुपरक ढंग से कहते चलते हैं।
जैन धर्म का प्रचार और प्रसार करने के लिये जैनाचार्यों ने अपूर्व प्रेरणाप्रद और प्रांजल नैतिक कथाओं की परम्पराओं का अनुसरण किया है। वे प्रचार-प्रसार के लिये कथाओं को सबसे सुलभ और प्रभावशाली साधन मानते हैं। उनकी कथाएं दैनिक जीवन की सरल से सरल भाषा में होती हैं। इसलिये उन्होंने अपने समय को प्रचलित लोक भाषाओं में यह गद्य या पद्य अथवा दोनों के संयुक्त रूप द्वारा कथा कला को चरम विकास की सीमा तक पहुंचाया।
जैन कथाकारों की कथा करने की प्रणाली अन्यों की अपेक्षा विशेषतापूर्ण है । वे क्या के प्रारम्भ से अपने प्रसिद्ध धर्म वाक्य या पदांश द्वारा मंगलाचरण करके फिर बाद में क्या करना प्रारम्भ कर के कथा के प्रारम्भिक भाग में प्रमुख पात्र अथवा पात्रों के नाम, उनके निवास स्थान का उल्लेख नियमित रूप से होता है साथ ही पुण्यवान राजा-रानी शासक के नाम का भी उल्लेख कर दिया जाता है। उनकी शासन व्यवस्था की प्रशंसा करके क्षेत्र की भौगोलिक रमणीयता, वहां के निवासियों की वृत्ति का भी उल्लेख कर दिया जाता है। कथा के पात्र वर्ण्य विषय में ऐसा तालमेल बैठाया जाता है कि श्रोता या पाठक अपने जीवन को भी उनमें झाकने लगते हैं। वह इतना तन्मय हो जाता है कि यह कथा मेरे जीवन की ही कहानी है। कथा के अंत में श्रोताओं या पाठकों को सन्मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं । कथा पात्र पर विशेष आदर्श, भक्ति, तपस्या आदि का प्रभाव प्रकट हो जाने से वह संसार से छुटकारा प्राप्त करने का उपाय पूछता है, प्रत्युत्तर में जैन धर्म के मुख्य-मुख्य सिद्धान्तों को या प्रसंगोपयोगी किसी एक सिद्धान्त के प्ररूपण के प्रसंग में बताया जाता है कि पूर्व कृत कर्मों के फलस्वरूप ही वह सब घटना बनी, सुख-दुःख की प्राप्ति हई है और अपने कथन के उदाहरण में संक्षिप्त रूप से कहानी के पात्रों के जीवन में घटित घटनाओं के वर्णन द्वारा उसे स्पष्टतया समझाते हैं जिससे वह कुत्सित मार्ग को छोड़कर मोक्ष मार्ग का पथिक बन जाता है। सांसारिक बंधनों से नाता छोड़ आत्मा से नाता जोड़ लेता है, इस प्रकार कथा का अन्त उपदेशात्मक पंक्तियों के साथ सुखद दृष्टिगोचर होता है । जैन कथाओं में लोक संस्कृति और समाज
हमारे देश की लोक संस्कृति धर्म परायण है और माननीय आदर्शों को निरन्तर अपनाती रहती है । उसमें विरक्ति, करुणा, उदारता,
सेवा, त्याग, अहिंसा आदि के ऐसे स्वर गूंज रहे हैं जो परिवर्तन की मांग मुखर होने पर भी कोई उनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिये स्वीकृति नहीं देता है। उनमें मानवता की रक्षा के दर्शन करता है । इसलिये यह मानता है कि संस्कृति के मौलिक उपादानों में फेरबदल करना अपने अस्तित्व का नकारा करना है।
जैन कथाओं में लोक संस्कृति का यथार्थ रूप में चित्रण मिलता है । वस्तुतः लोक संस्कृति को अपनाने के कारण ही ये कथायें लोकप्रिय बनी हैं। संस्कृति और अन्तर बाह्य जीवन की अभिव्यक्ति है जिसमें हमारे जीवन के सभी भौतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक मूल्य उसमें समाहित हो जाते हैं। समाज निर्माण के मूल से कुछ नैतिक विश्वास, संस्कार, नियम और क्रियाकलाप होते हैं, जिनको उस समुदाय में रहने वाले आबाल-वृद्ध सभी व्यक्ति की स्वीकृति प्राप्त होती है यानी उन्हें सभी अंगीकार करते हैं । यद्यपि लोक संस्कृति का कोई पंक्तिबद्ध लेखा नहीं होता है वह न किन्हीं नियमउपनियम से भी बंधी रहती है । सामयिक आचार-विचार सभ्यता से कुछ रूपान्तरण हुआ अवश्य प्रतीत होता है लेकिन व्यक्ति की मानसिक धरोहर और विश्वास होने के कारण वह लोक मानव की युगों से पाढ़ी दर पीढ़ी विरासत के रूप में मिलती रहती है। परिवर्तन होते जाते हैं पर उसके मौलिक रूप में कुछ विकार नहीं आता है। उसमें स्थायित्व रहता है।
जैन कथाओं के आत्म विकासोन्मुखी होने के कारण यद्यपि उनका लक्ष्य सामाजिक रहन-सहन अथवा राजनीतिक वातावरण अंकित करना नहीं रखा है। फिर भी उनमें ऐसे अनेक संवेदनशील आख्यान उपलब्ध हैं जिनमें ऐतिहासिक तथ्यों की प्रतीति होने के साथ पाठक तत्कालीन सामाजिक रहन-सहन, आचार-विचार, व्यापार-व्यवहार का यथार्थ एवं सविस्तार परिचय प्राप्त कर लेता है। जैसे कि अर्थोपार्जन और आजीविका के अनेक साधन हैं फिर भी प्राचीनकाल से व्यापार और खेती की मुख्यता का उल्लेख है, नौकरी के प्रति जनता का आकर्षण नहीं था । व्यापार के निमित्त एक दूसरे प्रान्त में ही नहीं समुद्रपार सुदूर देशों में पहुंचते थे । पारस्परिक वस्तुओं का विनिमय करना व्यापार का आधार था । धन कमाकर दान में उसका उपयोग करना एवं धार्मिक कार्यों में जी खोलकर व्यय करना प्रत्येक व्यक्ति अपना कर्तब्य समझते थे ।
समाज व्यवस्था सुगठित थी और एक दूसरे को सहायता देना, गुरुजनों का आदर-सत्कार करना एक साधारण सी बात थी। लोक जीवन विशेष समृद्ध और सुखमय था । कृषि से पर्याप्त आय होती थी तथा खाद्य पदार्थ अल्प मूल्य में सुलभता से प्राप्त हो जाते थे। सर्वत्र समृद्धि परिलक्षित होती थी। स्त्री और पुरुषों में आभूषण पहनने का आम रिवाज था । दूध, दही, घी, विविध दालें, सुगंधित चावल, मिष्ठान्न आदि भोजन के प्रमुख अंग थे । मनोविनोदार्थ कई तरह के खेल खेले जाते थे। सामाजिक त्यौहारों एवं विशिष्ठ पर्वो को बड़े उल्लासपूर्वक मनाया जाता था।
राज्य व्यवस्था कठोर थी । राजा अपराधी को कठोर दण्ड देते थे यहां तक कि चोरी के अपराध में सूली की सजा दे दी जाती थी।
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महिलाओं को सम्माननीय स्थान प्राप्त था । बहुपत्नि प्रथा का भी प्रचलन था । कन्याएं विविध कलाओं का अध्ययन करती थी । वे अपनी इच्छानुसार जीवन साथी को चुनने के लिये स्वतंत्र थीं। वे कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण पुरुष को अपना पति बनाना पसन्द करती थी । सम्पन्न व्यक्ति पुत्री के विवाह के समय दामाद को बहुत कुछ धन संपत्ति दिया करते थे । स्वयंबर प्रथा थी लेकिन वह माता-पिता, गुरुजनों की देखरेख और साक्षी में सम्पन्न होती थी ।
इस प्रकार से ये कथाएं समसामयिक सभ्यता और समाज व्यवस्था का एक सुहावना चित्र उपस्थित करती हैं।
जैन कथाओं का देशाटन
मनुष्य विविध देशों और दर्शनीय स्थानों को देखने या अर्थोपार्जन आदि के निमित्त देश-विदेश की यात्रा करता है, वहां के निवासियों से मिलता है, उनकी सुनता और कुछ अपनी कहता है। इस समय अपनी बोली, वेशभूषा, संस्कार के आदि के साथ कुछ न कुछ कंठस्थ साहित्य भी उसके पास होता है । उपदेशक तो परिभ्रमणशील होता है और उपदेशार्थ दूसरे प्रान्त में जाने पर उसके माध्यम से कंठस्थ साहित्य भी उन देशों की धरती के निवासियों का स्पर्श करता है और श्रोतागण सुनकर अपनी दृष्टि अपनी विचारधारा के अनुसार उसे अनुरंजित करते हैं । भारत के विभिन्न प्रान्तों और विदेशों में जो जैन कथायें पहुंची और वहां उनका स्वागत हुआ तो उसका कारण पूर्वोक्त है ।
इसका परिणाम यह हुआ कि शनैः-शनैः कथाओं में परिवर्तन आया, पात्र नाम बदले और उस देश की सांस्कृतिक धारा ने उन्हें प्रभावित किया लेकिन मूल अभिप्राय में परिवर्तन नहीं आया, वह ज्यों का त्यों रहा । मेक्स मूलर, हेर्टल, आदि अनेक विद्वानों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि भारतीय कथाओं का यह अटूट प्रहार अति प्राचीनकाल से पश्चिम की ओर प्रवाहित हो रहा है और वे वहां के वातावरण के अनुकूल हेरफेर सहित प्रचलित हुई हैं । सुप्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान बी. सी. एच. टाने अपने ग्रन्थ " ट्रेझरी ऑफ स्टोरीज" की भूमिका में स्वीकार किया है कि जैनों के कथाकोषों में संग्रहित कथाओं व यूरोपीय कथाओं का अत्यन्त निकट का साम्य है ।
कथाओं के देशाटन का मूल कारण और उनके मूल रूप का अनुसंधान तभी लगाया जा सकता है जब उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाये। अभी तो संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कथाएं देश-विदेश में घूम कर वहां के निवासियों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन कर रही हैं। कर्तव्य कथाकोशों का परिचय
पूर्व में वह संकेत किया जा चुका है कि जैनाचार्यों ने जन सामान्य में जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिये कथाओं को माध्यम बनाया। आगमों में भी अनेक छोटी-बड़ी सभी प्रकार की कथाएं मिलती हैं, उनके बाद आगमों की नियुक्ति, भाग्य, भूर्णि एवं टीका ग्रन्थों में तो अपेक्षाकृत विक
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सित कथा साहित्य के दर्शन होते हैं जिसमें अनेक धार्मिक, लौकिक, ऐतिहासिक आदि कई प्रकार की कथाएं संग्रहित हैं। ऐसी परम्पर) का अनुसरण करते हुए उत्तरवर्ती काल में जैनाचार्यो ने कथाओं के पृथक-पृथक ग्रन्थों का बड़ी संख्या में प्रणयन किया। ये ग्रन्थ कथा कोष के नाम से प्रख्यात हैं। उनमें से कुछ एक कथा कोषों का संक्षेप में परिचय देते हैं ।
१. बृहत्कथा कोष
इसके रचयिता हरिषेण हैं और रचना काठियावाड़ के वटमाण वर्धमानपुर में वि.सं. ९५५ में हुई थी। इसमें छोटी बड़ी मिलाकर १४७ कथायें हैं । ग्रन्थ परिमाण साढ़े बारह हजार श्लोक प्रमाण है । भाषा देखने से मालूम पड़ता है कि इसका कुछ अंश प्राप्त भाषा में भी अनुचित है।
२. कथा कोष
इसमें चार आराधनाओं का फल पाने वाले धर्मात्मा पुरुषों की कथाएं दी गई हैं। भाषा सरल संस्कृत गद्य में है। बीच में संस्कृत प्राकृत के उद्धरण दिये गये हैं । ग्रन्थ दो भागों में है। पहले भाग में और दूसरे भाग में ३२ कथाएं हैं। इसके रचयिता आचार्य प्रभाचन्द हैं जिनका समय वि.सं. १०३७ तक माना जाता है। ये परमार नरेश भोज के उतराधिकारी जयसिंह देव के समकालीन थे और धारानगर वर्तमान धार में रहते थे ३. कथा कोष प्रकरण
यह ग्रन्थ मूल और वृत्ति के रूप में है। मूल में केवल ३० गाथाएं हैं और गाथाओं में जिन कथाओं का ही प्राकृत वृत्ति के रूप में विस्तार के साथ गद्य में लिखी गई हैं । मुख्य कथायें ३६ और अवान्तर कथायें ४-५ हैं । भाषा प्राकृत गद्य है। इसके रचयिता जिनेश्वरसूरि हैं और रचना वि. सं. ११०८ मार्ग पंचमी रविवार को पूर्ण हुई।
४. कथानक कोव
यह प्राकृत ग्रन्थ है, इसमें २३९ गाथायें हैं। कथाकार ने इसमें आगम वाक्य तथा संस्कृत प्राकृत, और अपभ्रंश के कुछ पद्यों को उद्धृत किया है । यह ग्रन्थ ११वीं सदी के उतरार्द्ध में रचा गया और रचयिता वर्धमानमूर के शिष्य जिनेश्वर सूरि हैं।
५. कथानक कोष
यह गद्य-पद्य मयी रचना जिसमें गद्य संस्कृत में और पद्य संस्कृत में और कहीं-कहीं प्राकृत में हैं। इसमें धावकों के दान, पूजा, शील, कषाय, दूषण, जुआ आदि पर २७ कथाओं का संग्रह है। प्रारम्भ में धनद की ओर अंत में नल की कथा है । इसकी रचना ११वीं सदी ईस्वी के अंतिम चतुर्थ में हुई है । ६. कहारयण कोष ( कथारत्न कोष )
इसमें ५० कथाएं हैं, दो भागों में विभाजित पहले भाग में ९ सम्यक्त्व पटल की तथा २४ सामान्य गुणों की कुल ३३ कथाएं हैं। दूसरे भाग में बारह व्रत, वंदन, प्रतिक्रमण आदि के
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१७ कथाएं हैं। यह कोश अधिकोष प्राकृत पद्यों में लिखित है कहीं-कहीं कुछ अंश में भी है। इसके रचयिता देवेन्द्र सूरि हैं और रचना वि. सं. १९५८ में भरुकच्छ नगर भड़ौच में समाप्त
७. आख्यान मणिकोश
यह १२७ उपदेशप्रद कथाओं का संग्रह है, मूल कृति में प्राकृत की ५२ गाथाएं हैं। मंगलाचरण आदि की दो गाथाओं को छोड़कर ५० गाथाओं में १२७ कथाएं हैं। रचयिता आचार्य देवेन्द्रगणि हैं। रचना काल वि. सं. ११२९ है। ८. कया महोदधि
छोटी-बड़ी कुल मिलाकर १५० कथाएं हैं। इसे कर्पूर कथा महोदधि भी कहते हैं। रचयिता सोमचन्द्र गणि हैं और रचना काल वि. सं. १५०४ है। ९. कथाकोष (भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति)
मूल में १३ गाथाओं में प्राकृत भाषा की रचना है इसमें १०० धर्मात्मा गिनाये हैं जिनमें ५३ पुरुष (पहला भरत और अंतिम मेघकुमार) और ४७ स्त्रियां (पहली सुलसा और अंतिम रेणा) हैं। इसमें गद्य-पद्य मिश्रित कथायें दी गई हैं। यत्र-तत्र प्राकृत के भी उदाहरण हैं । टीका में सब कथाएं ही हैं इसलिये इसे कथाकोश भी कहा जाता है। इसके रचयिता शुभ शीलमणि हैं। रचना वि. सं. १५०९ में हुई है। १०. कथाकोष
इसे वृत्त कथाकोश भी कहते हैं इसमें व्रतों संबंधी कथाओं का संग्रह है। इसके रचयिता भट्टारक सकलकीर्ति हैं । ___ इन कथाकोशों के अतिरिक्त और कई आचार्यों ने कथा कोषों की रचना की है जिनमें पूर्व प्रचलित कथाओं के अतिरिक्त समकालीन विभिन्न कथाओं का संग्रह किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रबंध पंचशती, दृष्टान्तशतकम् भी दृष्टव्य कथा ग्रन्थ है।धन्य कुमार चरित्रम्, जयानन्द केवली चरित्रम्, विक्रम चरित्रम्, समराइच्च कहा, सिरिसिरिवाल कहा, जम्बू चरित्र इत्यादि एक ही पात्र लेकर बहुत ही रोचक एवं सुन्दर वर्णन करके रचयिताओं ने पाठकों एवं श्रोताओं के मनोमंदिर में प्रवेश पाया है। यह कथाओं के लेखन की परम्परा १४ वी. सदी तक बराबर चलती रही। भाषाओं में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, देशी आदि हैं । पूर्वोक्त कथाकोष प्रायः दुर्व्यसन त्याग आदि उपदेश प्रधान है। इनके अतिरिक्त ऐतिहासिक, नीति संबंधी विविध प्रकार की कथाओं के संग्रह हैं। यदि विधिवत् ज्ञान भण्डारों के ग्रन्थों की सूची तैयार की जाये तो और दूसरे अनेक ग्रन्थों का पता लग सकता है। जैन कथाओं का वर्गीकरण
ऊपर दिये कुछ एक कथाकोशों के संक्षिप्त इतिहास से यह स्पष्ट है कि जैन कथाओं का एक विशाल मंदिर है जिसे निश्चित रूपों में विभक्त करना सरल नहीं है फिर भी सिद्धांतों ने पात्रों और उद्देश्यों
के अनुसार कथाओं के वर्गीकरण करने का प्रयास किया है । साधारण जैन कथाओं को निम्नलिखित चार भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. धर्म संबंधी कथाएं, २. अर्थ संबंधी कथाएं, ३. काम संबंधी कथाएं, ४. मोक्ष संबंधी कथाएं ।
इस वर्गीकरण में जो काम और अर्थ संबंधी कथाओं का उल्लेख किया गया है उनमें लक्ष्य मोक्ष भावना प्रधान है । जैन कथाओं में विरक्ति, त्याग, तपस्या आदि धार्मिक कृत्यों को प्रमुखता दी गई है क्योंकि जैन कथाओं का लक्ष्य आध्यात्मिक विकास के साधनों और जैन धर्म प्रतिपादित आधार पर प्रचार करना है।
पात्रों पर आधारित इस प्रकार हो सकता है--
१. राजा-रानी संबंधी कथाएं, ५ २. राजकुमार-राजकुमारी संबंधी कथाएं,
३. आभिजात्य वर्ग की कथाएं, ४. पशु-पक्षी संबंधी कथाएं, ५. जैन साधु संबंधी कथाएं ।
प्रकारान्तर से विषयानुसार जैन कथाओं का इस प्रकार भी वर्गीकरण हो सकता है१. व्रत
१३. नीति २. त्याग
१४. परिषहजय ३. दान
१५. व्यवसाय - ४. सप्त व्यसन त्याग १६. बुद्धि परीक्षण ५. बारह भावना १७. मात्रा आदि संबंधी ६. रत्नत्रय
१८. धार्मिक ७. देशधर्म
१९. एतिहासिक ८. मंत्र
२०. सामाजिक ९. स्तोत्र
२१. उपदेशात्मक १०. त्यौहार
२२. मनोरंजनात्मक ११. चमत्कार
२३. काल्पनिक १२. शास्त्रार्थ
२४. प्रकीर्णक किन्तु इस वर्गीकरण को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है, यह तो रूपरेखा मात्र है।
ऊपर जैन कथा साहित्य के बारे में जो विचार अंकित किये गये हैं वे संकेत मात्र हैं और संकेत को भी संक्षिप्त करें तो कहेंगे कि "जैन कथाओं में जैन संस्कृति और सभ्यता विविध रूपों में मुखरित हुई है।" इन आख्यानों में मानव-जीवन के श्वेत और श्याम दोनों रूपों का दिग्दर्शन कराके आख्यान की परिसमाप्ति पर श्वेत रूप को ही प्रधानता देकर आदर्शवाद को स्थापित किया है। जैनेतर विद्वानों ने लोक भाषाओं को गौण मानकर संस्कृत भाषा को प्रधानता दी वहीं जैन विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं अन्य प्रान्तीय भाषा से कथा साहित्य का भण्डार परिपूर्ण किया है। इस प्रकार जैन कथाएं जैन संस्कृति का एक सुहावना गुलदस्ता उपस्थित करती हैं।
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जैन विद्वानों द्वारा हिन्दी में रचित कुछ वैद्यक ग्रन्थ
आचार्य राजकुमार जैन
भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से आयुर्वेद की परम्परा चली आ रही है । वर्तमान में आयुर्वेद के उपलब्ध ग्रंथों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वैद्यक शास्त्र या आयुर्वेद का मूल स्रोत वैदिक वाङमय है। वेदो में आयुर्वेद सम्बन्धी पर्याप्त उद्धरण मिलते हैं । सर्वाधिक उद्धरण अथर्ववेद में मिलते हैं। इसीलिए आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद माना गया है। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता में प्राप्त वर्णन के आधार पर आयुर्वेद की उत्पत्ति (अभिव्यक्ति) सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी द्वारा की गई। ब्रह्मा ने आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति ने अश्विनीकुमारों को आयुर्वेद का उपदेश दिया और अश्विनीकुमारों से देवराज इन्द्र ने आयुर्वेद का ज्ञान ग्रहण किया। इस प्रकार सुदीर्घ काल तक देवलोक में आयुर्वेद का प्रसार हुआ। तत्पश्चात् लोक में व्याधियों से पीड़ित आर्त प्राणियों को रोगमुक्त करने की दृष्टि से मुनिश्रेष्ट भारद्वाज देवलोक में गए और वहां इन्द्र से अष्टांग आयुर्वेद का उपदेश ग्रहण कर पृथ्वी पर उसका प्रसार किया । उन्होंने कायचिकित्सा प्रधान आयुर्वेद का उपदेश पुनर्वसु आत्रेय को दिया, जिनसे अग्निवेश आदि छः शिष्यों ने विधिवत् आयुर्वेद का अध्ययन कर उसका ज्ञान प्राप्त किया और अपने अपने नाम से पृथक् पृथक् संहिताओं का निर्माण किया। इसी प्रकार दिवोदास धन्वन्तरि ने सुश्रुतप्रभृत्ति शिष्यों को शल्यतन्त्र प्रधान आयुर्वेद का उपदेश दिया। उन सभी शिष्यों ने भी अपने अपने नाम से पृथक् पृथक् संहिताओं का निर्माण किया । जिसमें से वर्तमान में केवल सुश्रुत संहिता ही उपलब्ध है। तत्पश्चात् अनेक आचार्यों, विद्वानों और भिषग् श्रेष्ठों द्वारा यह परम्परा विस्तार और प्रसार को प्राप्त कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हुई ।
जिस प्रकार वैदिक वाङमय और उससे संबंधित साहित्य में आयुर्वेद के बीज प्रकीर्ण रूप से विद्यमान हैं उसी प्रकार जैन वाङमय
और इतर जैन साहित्य में पर्याप्त रूप में आयुर्वेद सम्बन्धी विभिन्न विषयों का उल्लेख मिलता है। इससे भी अधिक एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जैन धर्म के द्वादशांगों के अन्तर्गत एक उपांग के रूप में स्वतन्त्र रूप से आयुर्वेद को विकास प्राप्त हुआ है। बहुत ही कम लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म की भांति जैन साहित्य और जैन धर्म से भी आयुर्वेद का निकटतम सम्बन्ध है। जैन धर्म में आयुर्वेद का क्या महत्व है और उसकी कितनी उपयोगिता है ? इसका अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि जैन वाङमय में आयुर्वेद का समावेश द्वादशांग में किया गया है। यही कारण है कि जैन वाङमय में अन्य शास्त्रों या विषयों की भांति आयुर्वेद शास्त्र या वैद्यक विषय की प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है। जैनागम में वैद्यक (आयुर्वेद) विषय को भी आगम के अंग के रूप में स्वीकार किया गया है।
प्राचीन भारतीय वाङमय का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि भारत में आयुर्वेद की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। समय समय पर विभिन्न जैनेत्तर विद्वानों द्वारा प्रचुर रूप से आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रंथों की रचना की गई है। वैद्य समाज उन ग्रंथों से भलीभांति परिचित है। किन्तु अनेक जैन विद्वानों ने भी आयुर्वेद सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है जिनमें दो चार को छोड़कर शेष सभी आयुर्वेद के ग्रंथों से वैद्य समाज अपरिचित है। इसका एक कारण यह भी है, उनमें से अधिकांश ग्रंथ आज भी अप्रकाशित ही पड़े हुए हैं। गत कुछ समय से शोध कार्य के रूप में राजस्थान के जैन मंदिरों में विद्यमान शास्त्र भंडारों का विशाल पैमाने पर अवलोकन किया गया और उनकी बृहदाकार सूची बनाई गई। यह सूची गत दिनों विशाल ग्रंथ के रूप में प्रकाशित की गई है। यह ग्रंथ चार भागों में
विभक्त है। इस सूची ग्रंथ के चारों खंडों का अध्ययन करने से ज्ञात __ होता है कि इनमें अनेक ऐसे ग्रंथ विद्यमान हैं जो आयुर्वेद विषय पर
आधारित हैं और जिनकी रचना जैनाचार्यों द्वारा की गई है।
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जैन दर्शन के विभिन्न आगम ग्रंथों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनमें भी आयुर्वेद सम्बन्धी विषयों के पर्याप्त उद्धरण विद्यमान हैं । जैन आगम ग्रंथ, स्थानांग सूत्र और विपाक सूत्र आदि में आयुर्वेद के आठ प्रकार (अष्टांग आयुर्वेद), सोलह महारोगों और चिकित्सा सम्बन्धी विषयों का बहुत अच्छा वर्णन प्राप्त होता है। संक्षेप में यहां उनका उल्लेख किया जा रहा है-
आयुर्वेद के आठ प्रकार- १. कौमाराय (बाल चिकित्सा), २. काय च (शरीर के सभी रोग और उनकी चिकित्सा), ३. शालाक्य चिकित्सा ( गले से ऊपर के भाग में होने वाले रोग और उनकी चिकित्सा - इसे आयुर्वेद में 'शालाक्य तंत्र' कहा गया है), ४. शल्य चिकित्सा (चीर-फाड़ सम्बन्धी ज्ञान जिसे आजकल 'सर्जरी' कहा जाता है-इसे आयुर्वेद में 'शल्य तंत्र' की संज्ञा दी गई है ), ५. जिंगोली का विष विधात तंत्र ( इसे आयुर्वेद में 'अगदतंत्र' कहा जाता है - इसके अन्दर सर्प, कीट, लूता, मूषक आदि के विषों का वर्णन तथा चिकित्सा एवं विष सम्बन्धी अन्य विषयों का उल्लेख रहता है ), ६. भूतविद्या ( भूत-पिशाच आदि का ज्ञान और उनके शमनोपाय का उल्लेख ), ७. क्षारतंत्र ( वीर्य सम्बन्धी विषय और तद्गत विकृतियों की चिकित्सा-इसे आयुर्वेद में "बाजीकरणतंत्र" की संज्ञा दी गई है), ८. रसायन ( इसके अन्तर्गत स्वस्थ पुरुषों द्वारा सेवन योग्य ऐसे प्रयोगों एवं विधि-विधानों का उल्लेख है जो असामयिक वृद्धावस्था को रोककर मनुष्य को दीर्घायु, स्मृति, मेघा, प्रभा, वर्ण, स्वरोदार्यं आदि स्वाभाविक शक्तियां प्रदान करते हैं ) ।
इसी प्रकार जैन आगम ग्रंथों में सोलह महारोग — श्वास, कास, दाह भगंदर, अलग-भागासीर, अजीर्ण, दृष्टिमूल,
म तल, अरोचक, अभिवेदना, कर्ण वेदना, खुजली कोर जलोदर, कुष्ठ-कोढ़ गिनाए गए हैं। रोगों के चार प्रकार बतलाए गए हैं--वात्तजन्य, पित्त जन्य, श्लेष्म जन्य और सन्निपातजन्य । चिकित्सा के चार अंग प्रतिपादित हैं-- वैद्य, औषधि, रोगी और परिचारक जैनागमानुसार चिकित्सक चार प्रकार के होते हैं-- वचिकित्सक, पर चिकित्सक, स्वपर चिकित्सक और सामान्य ज्ञाता । जैन आगमों में प्राप्त विवेचन के अनुसार रोगोत्पत्ति के नौ कारण होते हैं-
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१. अतिआहार, २. अहिताशन, ३. अतिनिद्रा, ४. अतिजागरण, ५. मूत्रावरोध, ६. गलावरोध, ७. अध्वगमन, ८. प्रतिकूल भोजन और ९. काम विकार । यदि इन नौ कारणों से मनुष्य बचता रहे तो उसे रोग उत्पन्न होने का भय बिल्कुल नहीं रहता। इस प्रकार जैन ग्रंथों में आयुर्वेद सम्बन्धी विषयों का उल्ले प्रचुर रूप से मिलता है, जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि जैनाचार्यों को आयुर्वेद शास्त्र का भी पर्याप्त ज्ञान रहता था और वे इस शास्त्र के उत्कृष्ट ज्ञाता थे।
सम्पूर्ण जैन वाङमय का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि उसमें अहिंसा तत्व की प्रधानता है और उसमें अहिंसा को सर्वोपरि प्रतिष्ठापित किया गया है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में यद्यपि
वी. नि. सं. २५०३
आध्यात्मिकता को पर्याप्त रूपेण आधार मानकर वही भाव प्रतिष्ठापित किया गया है और उसमें यथा सम्भव हिंसा को वर्जित किया गया है, किन्तु कतिपय स्थलों पर अहिंसा की मूल भावना की उपेक्षा भी की गई है । जैसे भेषज के रूप में मधु, गोरोचन, विभिन्न आसव, अरिष्ट आदि का प्रयोग । इसी प्रकार बाजीकरण के प्रसंग में चटक मांस, कुक्कट मांस, हंसशुक्र, मकर शुक्र, मयूर मांस के प्रयोग एवं सेवन का उल्लेख मिलता है । कतिपय रोगों में शूकर मांस, मृग मांस तथा अन्य पशु-पक्षियों के मांस के सेवन का उल्लेख मिलता है। ऐसे प्रयोगों से आयुर्वेद में अहिंसा भाव की पूर्णतः रक्षा नहीं हो पाई है। अतः ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था जिससे जैन साधनों के लिए इस प्रकार का आयुर्वेद और उसमें वर्णित चिकित्सा उपादेय नहीं हुई। जैन साधुओं के अस्वस्थ होने पर उन्हें केवल ऐसे प्रयोग ही सेवनीय थे जो पूर्णतः अहिंसक, अहिंसाभाव प्रेरित एवं विशुद्ध रीति से निर्मित हो जैनाचायों ने इस कठिनाई का अनुभव किया और उन्होंने सर्वा रूपेण आयुर्वेद का अध्ययन कर उसमें परिष्कार पूर्वक अहिंसा भाव को दृष्टिगत रखते हुए आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रंथों की रचना की। वे ग्रंथ जैन मनियों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए । जैन गृहस्थों ने भी उनका पर्याप्त लाभ उठाया। इसका एक प्रभाव यह भी हुआ कि जैन साधुओं, साध्वियों बावक एवं आविकाओं को चिकित्सा जैन साधुओंविद्वानों को भी चिकित्सा कार्य में प्रवृत्त होना पड़ा ।
कुछ समय पहले दिगम्बर भट्टारकों ने वैद्यक विद्या को ग्रहण कर चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया, कालान्तर में श्वेताम्बर जैन यतियों ने इसमें अत्यन्त दक्षता प्राप्त की। बाद में ऐसा समय भी आया कि उनमें क्रमश: शिथिलता आतो गई । दिगम्बर आचार्यो और विद्वानों ने जिन आयुर्वेद के पदों का निर्माण किया है अधिकांत प्राकृत संस्कृत भाषा में रचित हैं। चूंकि उन पंचों के रख रखाव एवं प्रकाशन आदि की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया, अतः उनमें से अधिकांशतः नष्ट या लुप्तप्राय हो चुके हैं। जो बचे हुए हैं उनके विषय में जैन समाज की रुचि न होने के कारण अज्ञात हैं। श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा जो ग्रंथ रचे गए हैं वे अधिकांशतः गत चार सौ वष से अधिक प्राचीन नहीं हैं। अतः उनकी रचना हिन्दी में दोहा-चौपाई आदि के रूप में की गई है। इस प्रकार के ग्रंथों में योग चिन्तामणि, वैद्यमनोत्सव, मेघविनोद, रामविनोद, गंगति निदान आदि हिन्दी वैद्यक ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है ।
संस्कृत के वैद्यकग्रंथों में पूज्यपाद विरचित "वैद्यसार" और उग्रदित्याचार्य विरचित "कल्याण कारक" नामक ग्रंथों का भी हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन हो चुका है। इनमें “वैद्यसार" के विषय में विद्वानों का मत है कि वह वस्तुतः पूज्यपाद की मौलिक कृति नहीं है, किसी अन्य व्यक्ति ने उनके नाम से इस ग्रंथ की रचना की है । हिन्दी में रचित वैद्यक ग्रंथों का परिचय
१. वैद्य मनोत्सव
यह ग्रंथ पद्यमय रूप से निबद्ध है और दोहा, सोरठा व चौपाई छन्दों में इसकी रचना की गई है। इससे इस ग्रंथ के रचनाकार का कवि होना प्रमाणित होता है । इस ग्रंथ के रचयिता कविवर नयन
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नाद
सुख हैं जो राजा के पुत्र थे। उन्होंने इस ग्रंथ की रचना संवत् १६४१ में की थी । ग्रंथ में प्राप्त उल्लेख के अनुसार अकबर के राज्य में सीहनंद नगर में चैत्र शुक्ला द्वितीया (सं.१९४१) को उन्होंने इस ग्रंथ की रचना पूर्ण की । ग्रंथ के आरम्भ में "श्रावक कुल ही निवास लिखकर उन्होंने अपना श्रावक होना प्रतिपादित किया है । ग्रंथ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ किसी अन्य ग्रंथ का अनुवाद मात्र नहीं है, अपितु मौलिक रूप से इसकी रचना पद्य निबद्ध रूप से की गई है । संपूर्ण ग्रंथ में आद्योपान्त रचना की मौलिकता का सहज ही आभास मिलता है। इतना अवश्य है कि कवि ने अनेक वैद्यक ग्रंथों का अध्ययन एवं मनन करने के उपरान्त ही इसकी रचना की है । आयुर्वेद विषय में कवि का पूर्ण अधिकार होना इस कृति द्वारा स्पष्ट है। कवि के द्वारा ग्रंथ के आदि में जो मंगलाचरण किया गया है उससे भी यह बात स्पष्ट है कि ग्रंथ रचना से पूर्व कवि ने आयुर्वेद शास्त्र का गहन अध्ययन किया है, अनेक ग्रंथों का मनन किया है और उससे अजित ज्ञान को अनुभव द्वारा परिमार्जित किया है।
. यह सम्पूर्ण ग्रंथ कुल सात समृद्ध खंडों में विभक्त है। इसमें कुल ३३२ गाथाएं हैं । इस ग्रंथ की एक अन्य प्रति में आद्यन्त मंगलाचरण रहित अनेक आयुर्वेद ग्रंथों के प्रमाण सहित १६७ गाथाओं का एक और ग्रंथ है। उसके अन्त में भी “इति वैद्यमनोत्सवे" लिखा है। ये दोनों ग्रंथ दोहा, सोरठा एवं चौपाई में रचे गए हैं। इनमें से एक ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है । किन्तु वह भी अब सम्भवतः उपलब्ध नहीं है। २. वैद्य हुलास
इसका दूसरा नाम “तिब्ब सहाबी" भी है । इसका कारण यह है कि लुकमान हकीम ने फारसी में “तिब्ब साहाबी" नामक जिस ग्रंथ की रचना की है उसी का यह हिन्दी पद्यानुवाद मात्र है । "तिब्ब साहाबी" एक प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है । अतः ऐसे ग्रंथ का अनुवाद निश्चय ही उपयोगी साबित होगा। हिकमत के फारसी ग्रंथों का अनुवाद उर्दू भाषा में तो हुआ है, किन्तु हिन्दी में वह कार्य बिल्कुल नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में यह एक साहसिक प्रयास ही माना जायगा कि हिकमत विषय प्रधान ग्रंथ का हिन्दी भाषा में अनुवाद हो वह भी पद्यमय शैली में । इस ग्रंथ के अनुशीलन से अनुवादक का फारसी भाषा का विद्वान होना और हिन्दी भाषा पर पूर्ण अधिकार होना निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। अनुवादक में कवित्व प्रतिभा का विद्यमान होना भी असंदिग्ध है। इसके अतिरिक्त हिकमत विद्या और वैद्यक शास्त्र का उनका विद्वान होना भी सिद्ध होता है।।
इस ग्रंथ के रचयिता कवीवर मूलक हैं। 'श्रावक धर्मकुल को नाम मलूकचन्द्र" इन शब्दों के द्वारा अनुवादक ने अपने नाम का उल्लेख किया है। ग्रंथ के आदि में किए गए मंगलाचरण के अनन्तर लेखक ने उपर्युक्त रूप से संक्षेपतः अपना उल्लेख किया है, अपना व्यक्तिगत विशेष परिचय कुछ नहीं दिया। यही कारण है कि कवि का कोई विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता। इस ग्रंथ में अन्य ग्रंथों
की भांति अन्तः प्रशस्ति भी नहीं है। इससे ग्रंथ रचना का काल और रचना स्थान दोनों अज्ञात हैं। यह ग्रंथ आदि से अन्त तक एक ही प्रवाह में रचित है, अन्य वैद्यक ग्रंथों की भांति खण्डश: विभक्त या अध्यायों में विभाजित नहीं है, अथवा मूल ग्रंथ तिब्ब साहाबी खण्डशः विभक्त न होने और एक ही प्रवाह में निबद्ध होने के कारण उसका भावानुवाद भी एक ही प्रवाह में निबद्ध है। इस ग्रंथ गाथाओं की कुल संख्या ५१८ है। ३. रामविनोद ___इस ग्रंथ के रचयिता कविवर रामचन्द्रजी हैं । यह ग्रंथ सुललित पद्यमय शैली में विरचित है। इससे लेखक की कवित्व प्रतिभा का सहज ही आभास मिल जाता है। जिस समय इस ग्रंथ की रचना की गई थी उस समय जन सामान्य के लिए संस्कृत एक दुरूह और ' दुर्गम भाषा मानी जाती थी। उस समय आयुर्वेद के प्रायः सभी प्रमुख ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही निबद्ध थे। अतः जन सामान्य के लिए उनका अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं था। कविवर रामचन्द्रजी ने उस समस्या को समझा और तत्कालीन प्रचलित आयुर्वेद के कतिपय प्रमुख ग्रंथों-चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय, योगचिन्तामणि, राजमार्तण्ड, रसचिन्तामणि आदि के आधार पर जन सामान्य की सुगम भाषा शैली में "राम विनोद” नामक ग्रंथ की रचना की। - इस ग्रंथ की रचना सं. १७२० में मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी बुधवार को अवरंगशाह (औरंगजेब) के राज्यकाल में पंजाब के बन्नु देशवर्ती शक्की शहर में की गई। यह ग्रंथ सात समुद्र देशों में विभक्त है और इसमें कुल १९८१ गाथाएं (दोहा, सोरठा, चौपाई) लिखी गई हैं । ग्रंथ समाप्ति के बाद भी इसमें ५३ गाथाएं और हैं जिनमें ३९ गाथाएं नाड़ी परीक्षा सम्बन्धी और १३ गाथाएं मान प्रमाण सम्बन्धी हैं।
कविवर रामचन्द्रजी ने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया है, मात्र अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है जो निम्न प्रकार है-खरतरगच्छीय जिनसिंह सूरि के शिष्य पद्मकीर्ति थे, पद्मकीति के शिष्य पद्मरंग थे और पद्मरंग के शिष्य कविवर रामचन्द्र थे जिनके द्वारा इस ग्रंथ की रचना की गई है। इस परम्परा के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्तिगत विवरण का उल्लेख न होने से उनके व्यक्तिगत जीवन का परिचय अज्ञात है। इस ग्रंथ की रचना के पश्चात् ग्रन्थकार ने "वैद्यविनोद" नामक एक अन्य ग्रंथ की रचना भी की थी, जिसके विषय में ग्रंथ के अन्त में प्रशस्ति में कवि ने निम्न प्रकार से उल्लेख किया हैपहली कीनो राम विनोद । व्याधिनिकन्दन करण प्रमोद । वैद्य विनोद यह दूजा किया। सजन देखि खुशी होई रहिया ।।
इस प्रकार कविवर रामचन्द्र द्वारा रचित दो कृतियों का उल्लेख मिलता है । अन्यान्य पुस्तकालयों में ये दोनों प्रतियां वर्तमान में उपलब्ध होती है। ४, वैद्य विनोद
जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कविवर रामचन्द्र की यह दूसरी कृति है । इस ग्रंथ की रचना भी सरल पद्यमय शैली में
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कवित्त, दोहा और चौपाई के रूप में की गई है। यह ग्रंथ वस्तुतः कोई मौलिक कृति न होकर आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'शार्ङ्गधर संहिता' का हिन्दी पद्यानुवाद है । अतः यह एक अनुवाद रचना है । किन्तु पद्यमय शैली में विरचित होने के कारण भाषा की दृष्टि से तो इसकी मौलिकता है ही। यह सम्पूर्ण ग्रंथ तीन खण्डों में विभक्त है और प्रत्येक खण्ड में क्रमश: ७, १३ और १३ अध्याय हैं । इन तीनों खण्डों में कुल मिलाकर २५३५ गाथाएं (कवित्त, दोहा, चौपाई) है । ग्रंथ की भाषा सरल और सुबोध है।
इस ग्रंथ की रचना संवत १७२६ में वैसाख सुदी १५ को मरोटकोट नामक स्थान में की गई थी जो समय औरंगजेब के राज्य में विद्यमान था। ५. काल ज्ञान
यह ग्रंथ भी एक अनुवाद रचना है जो वैद्य शम्भुनाथ कृत ग्रंथ का पद्यानुवाद है। इस ग्रंथ की रचना ७१८ पद्यों में की गई है जिसमें दोहे, चौपाई, सोरठा आदि हैं। इसके रचयिता कविवर लक्ष्मी वल्लभ हैं जो खरतरगच्छ की अठारहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वानों में हैं । इनके द्वारा रचित संस्कृत के कल्पसूत्र व उत्तराध्ययन सूत्र की . टीका इनकी विद्वत्ता की द्योतक है। संस्कृत भाषा में आपका पाण्डित्य होने के कारण ही आप इस प्रकार के महत्वपूर्ण ग्रंथों की टीका करने में समर्थ हो सके हैं । इसके अतिरिक्त आपने हिन्दी व मारवाड़ी-राजस्थानी भाषा में कई रास आदि की भी रचना की है, जिसकी प्रतियां बीकानेर के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं।
आपके द्वारा रचित 'कालज्ञान' नामक ग्रंथ यद्यपि एक अनुवाद रचना है, तथापि वैद्यक विषय सम्बन्धी आपके गम्भीर ज्ञान की झलक सहज ही मिल जाती है। इस ग्रंथ की भाषा शैली सुललित एवं प्रवाहमय है। इसका रचना काल सं. १७४१ है । ६. कवि प्रमोद
हिन्दी पद्यानुवाद रचनाओं में इस ग्रंथ का महत्वपूर्ण स्थान है। आकार और पद्य संख्या की दृष्टि से जैन विद्वानों द्वारा रचित पद्य मय ग्रंथों में यह सब से बड़ी रचना है । इस ग्रंथ में २९४४ पद्य हैं जो कवित्त, चौपाई, दोहा आदि के रूप में निबद्ध हैं। इसकी प्रतियां पंजाब के नकोदर भण्डार में (क्रम संख्या ४४३) पाटण व बीकानेर के जैन ज्ञान भण्डारों में भी उपलब्ध है। इस ग्रंथ की रचना संवत् १७५३में लाहौर में की गई थी। यह रचना प्रशस्त एवं उत्कृष्ट कोटि 'की है। इसकी भाषा सरल एवं सुबोध है । इस ग्रंथ के अध्ययन से लेखक की विद्वत्ता का आभास तो मिलता ही है, आयुर्वेद के उनके गहन अध्ययन का भी आभास मिलता है। ___ इस ग्रंथ के रचयिता कवि मान हैं जो खरतरगच्छीय सुमति मेर विनय मेर के शिष्य थे। आप मूलत: बीकानेर के निवासी
में रचित है। आयुर्वेद सम्बन्धी विषयों का ही इसमें प्रतिपादन है। यह ग्रंथ भी कवित्त, चौपाई, दोहा आदि में रचित है तथा रचना प्रशस्त है। ८. रस मंजरी _यह ग्रंथ पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं होता है । फुटकर रूप से कई अंतपल बीकानेर के महिमा भक्ति-ज्ञान भण्डार (नं. ८७) में हैं
और केवल कुछ अंतपल ही बीकानेर में श्री अगरचन्दजी नाहटा के निजी संग्रह में हैं। इसका अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इस रसमंजरी ग्रंथ के रचयिता खरतरगच्छीय मतिरत्न के शिष्य 'समरथ' हैं। इस ग्रंथ का रचनाकाल सम्बत् १७६४ है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना चौपाई छन्दों में की गई है। इसकी भाषा सरल और सुबोध है। ९. मेघ विनोद
यह ग्रंथ आयुर्वेद की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। यह एक चिकित्सा प्रधान ग्रंथ है और इसमें विभिन्न रोगों के लिए अनेक योगों का उल्लेख किया गया है । इसमें चिकित्सीय योगों का संकलन होने से यह ग्रंथ चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस ग्रंथ की एक मूल प्रति 'मोतीलाल बनारसीदास' प्रकाशन संस्था के मालिक श्री सुन्दरलालजी जैन के पास गुरुमुखी लिपि (पंजाबी भाषा) में थी, जिसका उन्होंने हिन्दी में अनुवाद कराकर अपने यहां से ही प्रकाशन कराया है। इस प्रकार अनूदित होकर यह ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है। इसका अनुवाद गद्य शैली में ही हुआ है । इस ग्रंथ की रचना का समय फाल्गुन सुदी १३, सम्वत् १८३५ है।
इस ग्रंथ के रचयिता कविवर मुनि मेघविजय हैं जो यति थे और हिन्दी के बहुत अच्छे कवि थे। इनका उपाश्रय फगवाड़ा नगर में था। इस ग्रंथ की रचना का स्थान फुगुआगर है जो फगवाड़ा के अन्तर्गत ही था। फगवाड़ा नगर तत्कालीन कपूरथला स्टेट के अन्तर्गत आता था।
- मुनि मेघराज कृत तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं-- १. दानशील तपभाव (भण्डार नं. ६८८, संवत् १८७६), २. मेघमाला (सं. १८१७) और ३. मेघ विनोद । मेघमाला में कवि की गुरु परम्परा का उल्लेख मिलता है, जो निम्न प्रकार है-उत्तरगच्छ (जो कि लोकागच्छ की शाखा थी और उत्तर प्रान्त में जाने के कारण आंघगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई) के श्री जटमल के शिष्य परमानन्द थे। परमानन्द के शिष्य श्री सदानन्द हुए। सदानन्द के शिष्य श्री नारायण, नारायण के शिष्य श्री नरोत्तम, नरोत्तम के शिष्य श्री मायाराम और उनके शिष्य श्री मेघमुनि थे।
गत दिनों "आत्मानन्द शताब्दी स्मारक ग्रंथ" प्रकाशित हुआ था। उसके हिन्दी खण्ड में पृष्ठ १५७ पर स्व.डा. बनारसीदास जैन का "पंजाब के जैन भण्डारों का महत्व” शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख में कलिकी गुरु परम्परा तथा अन्य कृतियों का जो उल्लेख किया गया है उसके अन्तर्गत मेघमुनि और उनकी उक्त कृतियों का भी उल्लेख है।
(शेष पृष्ठ १८३ पर)
इस ग्रंथ की रचना भी कविवर मान द्वारा ही की गई थी। इसका रचनाकाल १७४१ है। यह ग्रंथ भी सरल और सुबोध भाषा
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जैनधर्म
जैन धर्म अति प्राचीन और शाश्वत धर्म है। सच्चा जैन वही है जो जैन आचार विचार का नियमपूर्वक पालन करता है । आज हम अधिकांश नाम से जैन है। धार्मिक प्रवृत्तियों की ओर हमारा झुकाव नहीं है और आपस में टकराने में ही हम अपना गौरव अनुभव करते हैं। यह सुखद नहीं है और हमें इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिये ।
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यशवंतकुमार नांदेचा
जैन धर्मानुसार इस अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर हुए हैं जिनमें प्रथम ऋषभदेव व अंतिम महावीर है। वर्तमान विद्वान नेमीनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर को ऐतिहासिक पुरुष मानने लगे हैं और उनकी दृष्टि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तक जाने लगी है । मोहनजोदड़ो एवं हरप्पा से प्राप्त मुद्राओं में ऋषभदेव कार्योत्सर्ग मुद्रा में अंकित हैं इससे भी जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध होती है। रूसी समाज शास्त्री श्रीमती ग्रसेवा ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जैन धर्म वेदों की रचना से पूर्व विद्यमान था क्योंकि वेदों में जैन तीर्थंकर का विवरण मिलता है। जैन धर्म परम्परावादी धर्म न होकर पुरुषार्थ प्रधान मूलक धर्म है । राष्ट्रीय विकास में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे वर्तमान में जैन धर्म जिंदा है। जैन इतिहास में तिरसठ सवाका पुरुष हुए। जिनमें २४ तीर्थंकर भी हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को उसके उषाकाल में ही एक क्रमबद्ध रूप देने की कोशिश की । तीर्थंकर से पूर्व कुलकरों का वर्णन है । नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव भारतीय लोक जीवन में इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि जहां एक ओर उनकी अनेक प्रतिमाएं प्राप्त हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें लेकर कई प्रामाणिक प्रागैतिहासिक सामग्री भी मिलती है। हिन्दी के
भक्त कवि महाकवि सूरदास ने भी सूर सागर में ऋषभदेव का वर्णन किया है। ईसा की चौथी से बारहवीं शताब्दी के मध्य दक्षिण भारत पर जैन धर्म का व्यापक प्रभाव एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य है कदेन, गंग, राष्ट्रकूट, चालुक्य होयसल राजवंश जैन थे 1
जैन धर्म हमें बतलाता है कि हिंसा मत करो, अहिंसा परमोधर्म का पालन करो। जैन अहिंसा की परिधि में केवल मानव ही नहीं अपितु समस्त प्राणिमात्र आता है। "जियो और जीने दो' का अहिंसा का सिद्धान्त अत्यन्त ही सारगर्भित है ।
जैन धर्म की अन्य विशेषता यह है कि इसने सभी युगों में उदारता और धीरज के साथ तथ्यों का परितोलन किया और खण्डन- मण्डन की बेकार शैली से हटकर बिना किसी धर्म की अवहेलना किये अनेकांत की उदार चिंतन पद्धति के माध्यम से सर्वधर्म समभाव को साकार करने का प्रयत्न किया । वस्तुतः सच्चाई को खोज निकालने का यह आध्यात्मिक संगणक है ।
जैन धर्म ने अंधविश्वासी और रूढ़ियों को स्वप्न में भी स्वीकार नहीं किया। इसलिये वह चिरनूतन नवा हुवा है। वह नर से नारायण बनने की क्षमता में पूरी तरह विश्वास करता है । वह हर प्राणी को अपने भाग्य का विधाता मानता है । कोई भी अपने पुरुषार्थं द्वारा परामात्म को प्राप्त कर सकता है ।
जैन धर्म में भीरुता को कोई स्थान नहीं है । यहां खुले आसमान के नीचे किया जाने वाला स्वस्थ चितन है। वहां न कोई वैचारिक दबाव न कोई पूर्वाग्रह। वहां तो बात को देखो,
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समझो और जी चाहे तो अंगीकार करो । बिना साधना के जैन धर्म को समझाने का प्रयास खरगोश को शृंगन्याय के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । यही कारण है कि जैन धर्म में सदियों पूर्व व्यक्ति को वैचारिक दासता से स्वतंत्र किया और लोक भाषाओं के माध्यम से सारे देश की स्वाधीन चेतना को जगाया । जैन धर्म ने ही सबसे पहले एक लोकाभिमुख क्रांति का शंखनाद किया था और मुट्ठीभर लोगों के बौद्धिक और शास्त्रीय शोषण को ललकारा था । वैज्ञानिक क्षेत्र में भी जैन दर्शन की बड़ी देन है जिसका पूर्ण तटस्थ मूल्यांकन अभी होना शेष है। पुदयत्न के सूक्ष्म निरूपण द्वारा इसने विज्ञान को हजारों साल पूर्व आश्चर्यजनक तथ्य दिये हैं । परमाणु की व्याख्या एवं सृष्टि रचना के रहस्यों को खोलने में समर्थ हुवा । जैनागम से उपलब्ध कई वैज्ञानिक तथ्यों को आज के वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। जैन धर्म का भेद विज्ञान भी एक अनूठी देन है।
विशेषावश्यक भाष्य, ज्ञानसार, सूत्रकृतांग, भगवतिसूत्र, गोमट्टसार, सर्वार्थसिद्धि, पंचास्तिकाय, द्रव्य संग्रह, तत्वार्थ सूत्र एवं ऐसे ग्रन्थ रत्न एक लम्बी साधना के परिणाम हैं।
जैन तपश्चर्या कोई शरीर ताड़ना नहीं है वह भेद विज्ञान का अपूर्व सत्यान्वेषण है । जो कष्ट एक वैज्ञानिक भौतिक तथ्यों की खोजबीन में उठाता है । जैन मुनि भी वैसी ही कठोर साधना आनुभूतिक विश्लेषण अथवा चेतन के जड़ से पृथक्करण में करता है। जैन दर्शन स्वानुभूति का विज्ञान है
और वास्तक में उसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिये । इसी वैज्ञानिक चितन और परखनिधि के कारण जैन धर्म प्राचीन होते हुए भी चिरनूतन है।
मनष्यों को पशुओं से विकसित मानकर वैज्ञानिक डार्विन ने विकास के एक नये सिद्धान्त का प्रवर्तन किया । किन्तु जैन धर्म ने मनुष्य को मूल में मनुष्य मान कर ही उसके क्रमबद्ध विभाग की कथा कही है।
जैन धर्म सम्यक्त्व, औचित्य और उत्तमता पर बल देता है। वह कहता है कि जो सत्य है, उसे उसकी संपूर्णता में ढूंढो, जो उचित है वह कहो, करो और अंत तक देखो कि सत्य भी तुम्हारे जीवन में है या नहीं ? रास्ता भले ही लम्बा हो, किन्तु अपावन न हो। उत्कृष्टता जहाँ भी हो उसका वरण करो। ०
(जैन विद्वानों द्वारा. . . . पृष्ठ १८१ का शेष ). १०. लोलिम्बराग
१२. भाव निदान हिन्दी भाषा में रचित यह एक महत्वपूर्ण वैद्यक रचना है । इसके
कविवर यति गंगारामजी की यह तीसरी वैद्यक रचना है जो अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ संस्कृत के इसी नाम से आयुर्वेदीय निदान पद्धति की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस ग्रंथ का प्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद है। इस ग्रंथ का दूसरा नाम रचना काल वि.सं. १८८८ है। यह ग्रंथ पद्यात्मक प्राचीन शैली में "वैद्य जीवन" भी है-ऐसा श्री अगरचन्दजी नाहटा के एक लेख से रचित है। ज्ञात होता है । वस्तुतः संस्कृत भाषा में कविवर लोलिम्ब राज ने
___ इन तीनों में से किसी भी ग्रंथ में लेखक ने अपने विषय में किंचित् सुललित शृंगारिक शैली में "वैद्य जीवन" नामक ग्रंथ की रचना
मात्र भी प्रकाश नहीं डाला है। इससे उनका व्यक्तिगत जीवन की है जो प्रकाशित है और वर्तमान में उपलब्ध है। प्रस्तुत उपर्युक्त
परिचय अज्ञात है। इन तीनों रचनाओं का उल्लेख-"नागरी कृति इसी ग्रंथ का अनुवाद है । इस ग्रंथ की रचना यति गंगारामजी
प्रचारिणी पत्रिका" में प्रकाशित "दी सर्च फार हिन्दी मैन्युस्कृष्ट द्वारा की गई है जो अमृतसर निवासी यति सूरजरामजी के शिष्य
इन दि पंजाब" (१९२२-२४) में पृष्ठ ३० पर किया गया है। थे । इस ग्रंथ का रचना काल सं. १८७२ है।
उपर्युक्त सभी ग्रंथ पंजाब अथवा सिंध प्रान्त में रचित हैं। अंतिम ११. सूरत प्रकाश
दो ग्रंथों में रचना स्थान का उल्लेख नहीं है, तथापि उनकी रचना यह ग्रंथ भी कविवर यति गंगारामजी द्वारा रचित है । इस ग्रंथ पंजाब के ही किसी स्थान में की गई है यह असंदिग्ध है । इस सम्पूर्ण का नामकरण सम्भवत: रचयिता ने अपने गुरु के नाम का सम्बन्ध विवरण से यह स्पष्ट है कि अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित करने की दृष्टि से किया है । इसका रचना काल सं. पंजाब में जैन यतियों ने हिन्दी के माध्यम से अनेक ग्रंथों की रचना १८८३ है । इसे "भाव दीपक" भी कहा जाता है। इसमें विभिन्न कर आयुर्वेद को जीवित रखने और हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण रोगों की चिकित्सार्थ अनेक औषध योगों का उल्लेख है।
योगदान दिया है।
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जीव रक्षा : सृष्टि-संतुलन के लिए आवश्यक
आज जबकि विश्व की आधे से अधिक आबादी तनाव, संत्रास, कलह, हिंसा और रक्तपात का जीवन जी रही है; अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और शाकाहार की चर्चा कुछ लोग बेहद अप्रासंगिक और गयी-गुजरी समझने, किन्तु वस्तुतः बात ऐसी है नहीं क्योंकि यह बहुत स्पष्ट है कि हिंसा, प्रतिकार, झूठ, असंयम, युद्ध, शोषण इत्यादि किसी सभ्य समाज के मूल आधार नहीं बन सकते। यह कहना कभी भी संभव नहीं हो पायेगा कि जो लड़ रहा है, बैर भुना रहा है, कलह कर रहा है, हिंसा कर रहा है, झूठ बोल रहा है, या मांसाहार कर रहा है, अन्यों को मुश्किलों और तक़लीफों में डाल रहा है, नितांत क्रूर और दुष्ट है, वह सभ्य है । सभ्य लोग करें वैसा लेकिन वे कह नहीं सकते कि किसी सभ्य मनुष्य की पहचान जीवन के उक्त बर्बर मूल्य हो सकते हैं। बहुत कठिन होगा ऐसा सब तय कर पाना ।
भारत एक ऐसा देश है, जहाँ विविधता है, और जहाँ सब प्रकार की मान्यताओं और धारणाओं वाले लोग एक साथ निवास करते हैं। यहाँ अनेक वेशभूषाएँ हैं, नाना भाषाएँ हैं, किस्म-किस्म के खानपान हैं, फिर भी इस बिन्दु पर सब एक मत हैं कि गांधी ने स्वराज्य के लिए जो अहिंसक रास्ता अपनाया था, वह सही था; सत्याग्रह में अमोघ शक्ति है, गौतम बुद्ध की करुणा अपराजिता थी, महाभारत के भयानक रक्तपात के बाद लगा था कि युद्ध एक बर्बर और गहित कर्म है और उसे दुनिया से अविलम्ब विदा किया जाना चाहिये। वह हुआ नहीं, यह जुदा बात है; किन्तु मनुष्य ने अनुभव किया यह सच है । सती प्रथा का बन्द होना और देवी-देवताओं की वेदी पर भैंसों बकरों, मुर्गों (यहाँ तक कि जिन्दा आदमी तक ) का चढ़ाया जाना रुकना (यों इक्की -दुक्की घटनाएँ आज भी अखबारों में पढ़ने को मिल जाती हैं) कुछ सभ्य क़िस्म के मंगल संकेत हैं।
भारतीय धर्म शताब्दियों से अहिंसा और करुणा को मानवीय जीवन का शृंगार बनाये चले आ रहे हैं। असल में जब से आदमी ने
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हुकमचन्द पारेख
खेती करना सीखा है, बाग-बगीचे लगाना जाना है, जीवन में सौन्दर्य की प्रतिष्ठित किया है, तब से उसके हिंसक बर्जर कृत्य कुछ कम हुए हैं; और ऐसी घटनाओं और कार्यों को बल मिला है। जो अहिंसक हैं, मानवीय है, रक्तपात जहाँ अनुपस्थित है। यदि हम भारतीय संत साहित्य का अध्ययन अवलोकन करें तो देखेंगे कि वहाँ मांसाहार और हिंसा को निकृष्ट और घृणित कृत्य बताया गया है। वहां मनुष्य और पशु-पक्षी सब एक ही ईश्वर की सृष्टि माने गये हैं, और अहिंसा को ही जीवन का सर्वोपरि आदर्श प्रतिपादित किया गया है। जैनों ने तो वनस्पति-मात्र में स्पन्दन माना है, और इसीलिए हर धड़कन के सम्मान की बात जैनधर्म में कही गयी है। किसी अंग्रेज कवि ने कहा है कि, “जब आदमी एक चींटी भी नहीं घड़ सकता तो उसे क्या अधिकार है कि जीवराशि का हनन करे ।" सच भी है कि आप मकान बना सकते हैं, उसे गिरायें, धराशायी करें किन्तु जब आप एक धड़कन भी नहीं सिरज सकते तब फिर आपको हक़ नहीं है कि किसी के प्राण ।
जिस भारत में धर्म के नाम पर कभी भीषण रक्तपात हुआ है, उसी भारत में ऐसे ऋषि महर्षि भी हुए जिनकी समाधिस्थ मुद्रा से प्रभावित सिंह-गौ एक घाट पानी पीते रहे। इतिहास बताता है कि हमारे कृषि नीवार-भोगी थे अर्थात् ऐसा अनाज खाते थे, जो बिना बोये पैदा होता था । अहिंसा की यह सर्वश्रेष्ठ भारतीय अभिव्यक्ति भी कुछ लोग अहिंसा को कायरता का पर्याय मानते हैं, किंतु यह भूल है अहिंसा का स्पष्ट अर्थ है प्रमादपूर्वक किसी के प्राणों की हानि करना । गोवध-बंदी को लेकर जो भी कदम उठाये जाने की पहल होती है, हुई है; उसका सीधा मतलब होता है देश की अपार पशु- संपदा की रक्षा । पशु और पेड़-पौधे सिी भी देश की बहुमूल्य संपदाएं कही जाती हैं। इनकी रक्षा हर देशवासी का कर्त्तव्य माना जाता है। कहा प्रायः यही जाता है कि व्यापक वन -समारोह होने चाहिये और वृक्ष लगाये जाने चाहिये, किंतु हम करते इसके विपरीत
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ही हैं। वृक्ष लगाये जाते हैं, किंतु कुछ दिनों बाद उजड़ जाते हैं । हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम महत्ता किसी भी संदर्भ की जानते हैं । किन्तु आचरण में उसे बहुत कम प्रतिबिम्बित करते हैं। हम जानते हैं कि यदि वनस्पति नहीं होगी तो देश उजड़ जाएगा, मरुस्थल बन जाएगा । झाड़-पेड़ धरती को मरुस्थल होने से रोकते हैं। उसे हरा-भरा रखते हैं । सांप जैसा विषैला प्राणी भी खेती का मित्र है । वस्तुतः संसार का ऐसा कोई अस्तित्व नहीं है, जो संसार को सुन्दर बनाने में, उसे समृद्ध करने में अपनी भूमिका अदा न करता हो, किन्तु आदमी है कि इस एवज में उसके प्राणों का अपहरण करता है । खरगोश सुन्दर है, तो उसे आदमी खा जाना चाहता है; हरिण नयनाभिराम है तो आदमी उसका शिकार करता है; मतलब, जो सुन्दर है आदमी उसे दंडित करने पर तुला हुआ है।
आदमी के इस रुख से अन्ततः धरती की हानि ही है। वास्तव में सृष्टि का अपना एक स्वाभाविक सन्तुलन है, जिसे मनुष्य अपने अविवेकपूर्ण कृत्यों द्वारा बिगाड़ना चाहता है, बिगाड़ रहा है। यह धरती के चारों ओर मढ़ी हरी खोल को नष्ट करना चाहता है, जो आगे चल कर उसकी आगामी पीढ़ी को खतरे में डाल देगी। शायद हम नहीं जानते कि आदमी द्वारा उत्पन्न प्रदूषण को प्राणि-जगत् बहुत झेल रहा है। पेड़-पौधे वह सब खा रहे हैं, जो आदमी का उच्छिष्ट है, परित्यक्त है। कई पशु हमारे द्वारा विसर्जित सामग्री का उपभोग करते हैं और धरती के आगामी ज़हर को अमृत में बदलते हैं । सार-सार हम खा रहे हैं, और जो प्राणि-जगत् निस्सार को ग्रहण कर रहा है, उसे उपयोगी पदार्थों में बदल रहा है, उसके प्रति कृतज्ञ होने की जगह हम उसके प्राणों का संहार कर रहे हैं। देश में आज जितने कसाई पर हैं, उतने पहले कभी नहीं रहे। यह परोपकारी प्राणिजगत् के प्रति मनुष की लता है।
यह मानना कि कसाईखाने कोई अनिवार्यता है और पशुओं की आबादी पर एकमात्र नियंत्रण साधन हैं, मूर्खतापूर्ण धारणा है । पश्चिम अब अपनी भूल समझने लगा है, और प्राकृतिक जीवन की ओर लौटने की ओर क़दम उठा रहा है, वहाँ शाकाहार बढ़ रहा है; किन्तु भारत पश्चिम की नक़ल पर है, यहाँ आमिष भोज बढ़ रहा है। मांस-मछली का आज अधिकाधिक उपयोग होता है । यह शुभ शकुन नहीं है। जो लोग आहार-विज्ञान के विशेषज्ञ है, वे मांसाहार से होने वाले अनगिन असाध्य रोगों की जानकारी दे सकते हैं ये आहार-विज्ञानी न केवल मांसाहार की कायिक प्रक्रिया की बात करते हैं वरन् मन पर होने वाले असर और परिणाम की जानकारी भी देते हैं। भारत में तो यह कहावत है कि "जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन्न"। तामस भोजन तामस स्थितियों को उत्पन्न करता है । नित प्रति होने वाले गृह कलह, कत्ल, खून-खराबे, नईनई किस्म के अपराध तामसिक आहार के ही नतीजे हैं। उधर चिकित्सा शास्त्र ने भी यह कहना शुरू कर दिया है कि मांसाहार शराब तथा अन्य मादक द्रव्यों का उपयोग अनेक असाध्य रोगों को उत्पन्न करता है । इनका त्याग किया जाना चाहिये । चारों ओर से आदमी को विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं उन खतरों के प्रति जो उसके
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असंतुलित और अविवेकपूर्ण खानपान की वजह से उसके चारों ओर मंडरा रहे हैं। मैं अपने एक ऐसे मित्र को जानता हूँ जो अव्वल दर्जे के पर्वतारोही है, किन्तु कट्टर शाकाहारी है। उनका कथन है कि जो लोग आमिष भोजी हैं वे पर्वतारोहण में जल्दी थक कर चूर हो जाते हैं, हॉफने लगते हैं, किन्तु मैं कभी किसी प्रकार की मकान महसूस नहीं करता। इससे यह सिद्ध हुआ कि मांसाहार भले ही हमारी स्वाद- लिता को तृप्त करता हो किन्तु वह हितकर और पौष्टिक नहीं है।
जैनधर्म शताब्दियों से शाकाहार और अहिंसक जीवन-शैली का प्रतिपादन करता आ रहा है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन से मांसाहार का कोई तालमेल नहीं है । इसकी आध्यात्मिकता के साथ तो स्वप्न में भी कोई संगति नहीं है। धर्मं, फिर संसार का वह कोई भी धर्म हो, मांसाहार का पक्षधर नहीं है, वहाँ प्राणिहिंसा का सर्वत्र विरोध किया गया है; किन्तु आज जो हो रहा है वह मनुष्यता को कलुषित-कलंकित करने वाला है। होना वस्तुतः यह चाहिये कि देश के सारे कसाईखाने बन्द कर दिये जाएं, या कम से कम सीमित कर दिये जाएँ और शराब पर कड़ी पाबन्दी लगायी जाए, इससे हमारी खाद्य समस्या उग्र नहीं वरन् सह्य होगी। देखा यह गया है कि जो मांसाहारी हैं वे मांस तो खाते ही हैं, शाकाहार भी लेते हैं और शाकाहारी की अपेक्षा परिमाण में अधिक बाते हैं। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि शाकाहारी मिताहारी होता है, उसकी सात्विकता उसे शरीर से अन्यत्र ले जाती है और आध्यात्मिक होने के कारण वह न तो जिह्वालोलुपी ही होता है और न ही अधिक आहारी; अतः जैनों को जीव रक्षा का जो कार्य आज मन्द-सुस्त पड़ा हुआ है, अधिक रफ्तार से करना चाहिये, क्योंकि हम जानते हैं कि प्रकृति का यह सूत्र सदैव हमारे साथ है कि "जैसा जो बोया जाएगा, वैसा वह फसल के रूप में सामने आयेगा"। यदि हम हिंसा, बैर बोयेंगे तो हिंसा की फसल ही हमें काटनी होगी। मांसाहार का परिणाम कभी-न-कभी किसी बड़ी बदनसीबी के रूप में प्रकट हुए बिना नहीं रहेगा, इसलिए जैनमात्र को शाकाहार के प्रचार-प्रसार और जीव-रक्षा का एक न्यूनतम कार्यक्रम बनाना चाहिये। इसकी एक रूपरेखा इस तरह हो सकती है
( १ ) शाकाहार के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए ऐसे शहरी और ग्रामीण क्लबों की स्थापना की जाए जो शाकाहार की उपयोगिता के हर पहलू को बतलाते हों और मांसाहार से होने वाली हानियों को तर्कसंगत ढंग से प्रतिपादित करते हो इस तरह की छोटी-छोटी दस्तावेजी फिल्में भी तैयार की जानी चाहिये। कुछ साहित्य भी प्रकाशित किया जाना चाहिये उन लोगों के हृदयपरिवर्तन के लिए भी प्रयत्न होना चाहिये जो जीव-हिंसा के व्यवसाय में लगे हुए हैं, यदि समृद्ध जन समाज उन्हें आजीविका के कोई विकल्प दे सकता हो तो उसे वैसा भी अपने सामाजिक स्तर पर करना चाहिये ।
(२) कसाईघरों को बन्द कराने के लिए व्यापक आन्दोलन करना चाहिये, इस व्यवसाय में व्यस्त व्यक्तियों को कुछ अन्य ( शेष पृष्ठ १९० पर)
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जैन योग : एक
देवेन्द्र मुनि शास्त्री
मनन
भारतीय संस्कृति में योग का अत्यधिक महत्व रहा है । अतीत काल से ही भारत के मूर्धन्य मनीषीगण योग पर चिंतन, और विश्लेषण करते रहे हैं, क्योंकि योग से मानव जीवन पूर्ण विकसित होता है । मानव जीवन में शरीर और आत्मा इन दोनों की प्रधानता है । शरीर स्थूल है और आत्मा सूक्ष्म है । पौष्टिक और पथ्यकारी पदार्थों के सेवन से तथा उचित व्यायाम आदि से शरीर हृष्ट-पुष्ट और विकसित होता है; किन्तु आत्मा का विकास योग से होता है। योग से काम, क्रोध, मद, मोह आदि विकृतियाँ नष्ट होती हैं, आत्मा की जो अनन्त शक्तियाँ आवृत हैं वे योग से अनावृत होती हैं और आत्मा की ज्योति जगमगाने लगती है ।
आत्म-विकास के लिए योग एक प्रमुख साधन है। उसका सही अर्थ क्या है, उसकी क्या परम्परा है, उसके सम्बन्ध में चिन्तक क्या चिंतन करते हैं उनका किस प्रकार का योगदान रहा है आदि पर यहाँ विचार किया जा रहा है । योग शब्द 'युज्' धातु और 'घञ' प्रत्यय मिलने से बनता है । 'युज्' धातु दो हैं, जिनमें से एक का अर्थ है संयोजित करना, जोड़ना और दूसरी का अर्थ है मन की स्थिरता, समाधि । प्रश्न यह है कि भारतीय योगदर्शन ने इन दोनों अर्थों में से किसे अपनाया है ? उत्तर में निवेदन है कि कितने ही विज्ञों ने 'योग' का जोड़ने के अर्थ में प्रयोग किया है तो कितने ही विज्ञों ने समाधि के अर्थ में । आचार्य पातंजलि ने 'चित्तवृत्ति के विरोध को योग कहा है। आचार्य हरिभद्र ने 'जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है,
१. बुजुषी योगे गण ७ हेमचन्द्र धातुपाठ
२. युजिंच समाधौ - गण४, हेमचन्द्र धातुपाठ
३. योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: पातंजल योगसूत्र पा १. स. २
चिन्तन
कर्म - मल नष्ट होता है और मोक्ष के साथ संयोग होता है उसे योग कहा है ।" उपाध्याय यशोविजयजी ने भी योग की वही परि भाषा की है ।" बौद्ध चिन्तकों ने योग का अर्थ समाधि किया है।"
योग्य के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो रूप हैं । साधना में चित्त का एकाग्र होना या स्थिर चित्त होना यह योग का बाह्य रूप है । अहंभाव, ममत्व भाव आदि मनोविकारों का न होना योग का आभ्यन्तर रूप है। कोई प्रयत्न से चित्त को एकाग्र भी कर ले पर अहंभाव और ममभाव प्रभूति मनोविकारों का परित्याग नहीं करता है तो उसे योग की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती । वह केवल व्यावहारिक योग साधना है किन्तु पारमार्थिक या भावयोग साधना नहीं है । अहंकार और ममकार से रहित समत्वभाव की साधना को ही गीताकार ने सच्चा योग कहा है । '
वैदिक परम्परा का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य रूप से हुआ है। ऋग्वेद में योग शब्द का व्यवहार अनेक स्थलों पर हुआ है ।" किन्तु वहाँ पर योग का अर्थ ध्यान और समाधि नहीं हैं पर योग का ४. (क) मोक्खेव (ख) अध्यात्मं मोक्षेण
जोयणाओ जोगो योगविशिका गा - १ भावनाऽऽध्यानं समता वृत्ति संक्षयः योजनाद्योग एवं श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ योगबिन्दु ३१ द्वाशित्रिका
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५. मोक्षेण योजनादेव योगोत्र निरुच्यते । ६. संयुक्त निकाय ५-१० विभंग ३१७-१८ ७. "योगस्य कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।" गीता २/४८
८. ऋग्वेद-- १, ५, ३ १-१८-७ १-३४-८; २-८-१; ९-५८-३; १०- १६६-५.
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अर्थ जोड़ना, मिलाना और संयोग करना है । उपनिषदों में भी जो उपनिषद् बहुत ही प्राचीन हैं, उनमें भी आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द व्यवहृत नहीं हुआ है, किन्तु उत्तरकालीन कठोपनिषद,' श्वेताम्बर उपनिषद आदि में आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है । गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने योग का खासा अच्छा निरूपण किया है। योग वासिष्ठ ने भी योग पर विस्तार से चर्चा की है । ब्रह्मसूत्र में भी योग पर खण्डन और मण्डन की दृष्टि से चिन्तन किया, किन्तु महर्षि पातंजलि ने योग पर जितना व्यवस्थित रूप से लिखा उतना व्यवस्थित रूप से अन्य वैदिक विद्वान् नहीं लिख सके । वह बहुत ही स्पष्ट तथा सरल है, निष्पक्ष भाव से लिखा हुआ है । प्रारंभ से प्रान्त तक की साधना का एक साथ संकलन-आकलन है । पातंजल योगसूत्र की तीन विशेषताएँ हैं--प्रथम, वह ग्रंथ बहुत ही संक्षेप में लिखा गया है, दूसरी विशेषता, विषय की पूर्ण स्पष्टता है और तीसरी विशेषता अनुभव की प्रधानता है। प्रस्तुत ग्रंथ चार पाद में विभक्त है। प्रथम पाद का नाम समाधि है, द्वितीय का नाम साधन है, तृतीय का नाम विभूति है और चतुर्थ का नाम कैवल्यपाद है। प्रथम पाद में मुख्य रूप से योग का स्वरूप, उसके साधन तथा चित्त को स्थिर बनाने के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद में क्रियायोग, योग के आठ अंग, उनका फल और हेय, हेय-हेतु, हान और हानोपाय इन चतुर्पूह का वर्णन है । तृतीय पाद में योग की विभूतियों का विश्लेषण है। चतुर्थपाद में परिणामवाद का स्थापन, विज्ञानवाद का निराकरण और कैवल्य अवस्था के स्वरूप का चित्रण है।
भागवत पुराण में भी योग पर विस्तार से लिखा गया है 14 तांत्रिक सम्प्रदाय वालों ने भी योग को तन्त्र में स्थान दिया है । अनेक तंत्रग्रंथों में योग का विश्लेषण उपलब्ध होता है। महानिर्वाण तन्त्र और षट्चक्रनिरूपण" में योग पर विस्तार से प्रकाश डाला है। मध्यकाल में तो योग पर जन-मानस का अत्यधिक आकर्षण बढ़ा जिसके फलस्वरूप योग की एक पृथक् सम्प्रदाय बनी जो हठयोग के नाम से विश्रुत है, जिसमें आसन, मुद्रा, प्राणायाम प्रभृति योग के बाह्य अंगों पर विशेष बल दिया गया। हठयोग प्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक, योग तारावली, बिन्दुयोग, योगबीज, योग कल्पद्रुम आदि मुख्य ग्रन्थ हैं। इन ग्रंथों में आसन, बन्ध, . ९. कठोपनिषद् २-६-११; १-२-१२
१०. श्वोतश्वतर उपनिषद् ६ और १३ ११. देखिए गीता ६ और १३ वा अध्याय १२. देखिए योग वासिष्ठ -छः प्रकरण १३. ब्रह्मसूत्र भाष्य २-१-३ १४. भागवत पुराण, स्कंध, ३ अध्याय २८, स्कंध ११, अध्याय
१५, १९, २० १५. महानिर्वाण तंत्र : अध्याय ३ और (Tantrik texts) में
प्रकाशित १६. षट् चक्र निरूपण, पृष्ठ ६०, ६१, ८२, ९०, ९१ और १३४
मुद्रा, षट्कर्म, कुम्भक, पूरक, रेचक आदि बाह्य अंगों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। घेरण्ड संहिता में तो आसनों की संख्या अत्यधिक बढ़ गयी है। __गीर्वाण गिरा में ही नहीं अपितु प्रान्तीय भाषाओं में भी योग पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। मराठी भाषा में गीता पर ज्ञानदेव रचित ज्ञानेश्वरी टीका में योग का सुन्दर वर्णन है । कबीर का बीजक ग्रंथ योग का श्रेष्ठ ग्रंथ है।
बौद्ध परम्परा में योग के लिए समाधि और ध्यान शब्द का प्रयोग मिलता है । बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग को अत्यधिक महत्व दिया है। बोधित्व प्राप्त करने के पूर्व श्वासोच्छवास निरोध की साधना प्रारम्भ की थी। किन्तु समाधि प्राप्त न होने से उसका परित्याग कर अष्टांगिक मार्ग को अपनाया ।10 अष्टांगिक मार्ग में समाधि पर विशेष बल दिया गया है। समाधि या निर्वाण प्राप्त करने के लिए ध्यान के साथ अनित्य भावना को भी महत्व दिया है। तथागव बुद्ध ने कहा--भिक्षो ! रूप अनित्य है, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है, संस्कार अनित्य है, विज्ञान अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःखप्रद है। जो दुःखप्रद है वह अनात्मक है जो अनात्मक है, मेरा नहीं है। वह मैं नहीं हूँ। इस तरह संसार के अनित्य स्वरूप को देखना चाहिए।"
जैन आगम साहित्य में योग शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु योग शब्द का अर्थ जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध परम्परा में हुआ है उस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। वहां योग शब्द का प्रयोग मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के लिए हुआ है। वैदिक और बौद्ध परम्परा में जिस अर्थ को योग शब्द व्यक्त करता है उस अर्थ को जैन परम्परा में तप और ध्यान व्यक्त करते हैं।
ध्यान का अर्थ है मन, वचन और काया के योगों को आत्मचितन में केन्द्रित करना । ध्यान में तन, मन और वचन को स्थिर करना होता है । केवल सांस लेने की छूट रहती है। सांस के अतिरिक्त सभी शारीरिक क्रियाओं को रोकना अनिवार्य है। सर्व प्रथम शरीर की विभिन्न प्रवृत्तियां को रोकी जाती हैं, वजन को नियन्त्रित किया जाता है। और उसके पश्चात् मन को आत्म स्वरूप में एकाग्र किया जाता है। प्रस्तुत साधना को हम द्रव्य साधना और भाव साधना कह सकते हैं । तन और वचन की साधना, द्रव्य साधना और मन की साधना भाव साधना है ।
जैन परम्परा में हठयोग को स्थान नहीं दिया गया है और न प्राणायाम को आवश्यक माना है । हठयोग के द्वारा जो नियन्त्रण किया जाता है उससे स्थायी लाभ नहीं होता और न आत्मशुद्धि होती है और न मुक्ति ही प्राप्त होती है । स्थानांग, समवायांग, भगवती, उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में ध्यान के लक्षण और उनके प्रभेदों पर प्रकाश डाला है । आचार्य १७. ज्ञानेश्वरी टीका-छठा अध्याय, १८. अंगुत्तर निकाय, ६३, १९. संयुक्त निकाय ५, १०
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भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में ध्यान पर विशद विवेचन किया है। आचार्य उमास्वाती ने तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान पर चिन्तन किया है। किन्तु उनका चिंतन आगम से पृथक् नहीं है । जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण ने 'ध्यान शतक' की रचना की । जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण जैन ध्यान पद्धति के मर्मज्ञ ज्ञाता थे । उन्होंने स्वयं ध्यान की गहराई में जाकर अनुभव का अमृत प्राप्त किया उसे इस ग्रंथ में उदृ'कित किया है। . आचार्य हरिभद्र ने जैन-योग पद्धति में नूतन परिवर्तन किया। उन्होंने योगबिंदु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, योगशतक,
और षोडशक प्रभृति अनेक ग्रंथों का निर्माण किया । इन ग्रंथों में जैन परम्परा के अनुसार योग साधना का विश्लेषण करके ही संतुष्ट नहीं हुए, अपितु पांतजल योग सूत्र में कणित योग साधना और उनकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन-योग साधना की तुलना की है और उसमें रहे हुए साम्य को बताने का प्रयास किया है ।
आचार्य हरिभद्र के योग ग्रंथों की निम्न विशेषताएं हैं१. कौन साधक योग का अधिकारी है ? और कौन योग
का अनधिकारी है ? २. योग का अधिकार प्राप्त करने के लिए पहले की जो
तैयारी अपेक्षित है उस पर चितन किया है ? ३. योग्यता के अनुसार साधकों का विभिन्न दृष्टि से विभाग
किया है । और उनके स्वरूप और अनुष्ठान का भी
प्रतिपादन किया गया है। . ४. योग साधना के भेद-प्रभेदों का और साधन का वर्णन
और व्यवहार ये दो भेद किये गये हैं । योगविंशिका में धर्म साधना के लिए की जाने वाली क्रियाओं को योग कहा है और योग की, स्थान, ऊर्ज, अर्थ, आलंबन और अनालंबन ये पाँच भूमिकाएँ बतायी हैं।
आचार्य हरिभद्र के पश्चात् जैन योग के इतिहास के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं आचार्य हेमचन्द्र जिन्होंने योगशास्त्र नामक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का निर्माण किया है । इस ग्रंथ में पातंजलि योग सूत्र के अष्टांग योग की तरह श्रमण तथा श्रावक जीवन की आचार साधना को जैन आगम साहित्य के प्रकाश में व्यक्त किया है । इसमें आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी वर्णन किया है और मन की विक्षुप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन इन चार भेदों का भी वर्णन किया है जो आचार्य की अपनी मौलिक देन है।
आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र का नाम आता है। ज्ञानार्णव उनकी महत्त्वपूर्ण रचना है । सर्ग २९ से ४२ तक में प्राणायाम और ध्यान के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया हैं । प्राणायाम आदि से प्राप्त होने वाली लब्धियों पर परकायप्रवेश आदि के फल पर चिन्तन करने के पश्चात् प्राणायाम को साध्यसिद्धि के लिए अनावश्यक और अनर्थकारी बताया है।
उसके पश्चात् उपाध्याय यशोविजयजी का नाम आता है। वे सत्योपासक थे । उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार बत्तीसी, पातंजल योगसूत्र वृत्ति, योगविंशिका टीका, योग दृष्टि नीसज्झाय आदि महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं । अध्यात्मसार ग्रंथ के योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रकरण में गीता एवं पातंजलि योग सूत्र का उपयोग करके भी जैन परम्परा में विश्रुत ध्यान के विविध भेदों का समन्वयात्मक वर्णन किया है। अध्यात्मोपनिषद में शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग के संबंध में चिंतन करते हुए योगवाशिष्ठ और तैत्तरीय उपनिषदों के महत्त्वपूर्ण उद्धरण देकर जैन दर्शन के साथ तुलना की है । योगावतार बत्तीसी में पातंजल योगसूत्र में जो योग साधना का वर्णन है उसका जैन दृष्टि से विवेचन किया है और हरिभद्र के योगविशिका और षोडशक पर महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखकर उसके रहस्यों को उद्घाटित किया है । जैन दर्शन की दृष्टि से पातंजल योग सूत्र पर भी एक लघु वृत्ति लिखी है। इस तरह यशोविजयजी के ग्रंथों में मध्यस्थ भावना, गुणग्राहकता व समन्वय दृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
सारांश यह है कि जैन परम्परा का योग साहित्य अत्यधिक विस्तृत है । मूर्धन्य मनीषियों ने उस पर जमकर लिखा है। आज पुनः योग पर आधुनिक दृष्टि से चिंतन ही नहीं किन्तु जीवन में अपनाने की आवश्यकता है। यहां बहुत ही संक्षेप में मैंने अपने विचार व्यक्त किये हैं। अवकाश के क्षणों में इस पर विस्तार से लिखने का विचार है ।
योगबिंदु में योग के अधिकारी अपुनर्बन्धक, सम्यक्-दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति ये चार विभाग किये । और योग की भूमिका पर विचार करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृतिसंक्षय ये पांच प्रकार बताये । योगदृष्टिसमुच्चय में
ओघ दृष्टि और योग दृष्टि पर चिन्तन किया है । इस ग्रंथ में योग के अधिकारियों को तीन भागों में विभक्त किया है-प्रथम भेद में प्रारंभिक अवस्था से विकास की अंतिम अवस्था तक की भूमिकाओं के कर्म-मल के तारतम्य की दृष्टि से मित्रा, तारा, बला, दीप्ता, स्थिरता, कान्ता, प्रभा और परा में आठ विभाग किये हैं । ये आठ विभाग पातंजलि योग सूत्र के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि तथा बौद्ध परम्परा के खेद, उद्वेग आदि अष्ट पृथक् जनचित दोष परिहर और अद्वेष, जिज्ञासा आदि अष्ट योग गुणों के प्रकट करने के आधार पर किये गये हैं । योग शतक में योग के निश्चय २०. समधिरेष एवान्यैः संमज्ञोऽभिधीयते ।
सम्यक्प्रकर्षरूपेण वृत्यर्थ ज्ञानतरस्तथा ।। असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिगीयते परैः । निरुद्धशेष वृत्यादि तत्स्वरूपानुणेधक ॥
-योगबिंदु ४१९-४२०.
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अध्यात्म वैभव
मुनि नरेन्द्र विजय
अनादि अनन्त काल से आत्मा संसार में परिभ्रमण कर रही है। आत्मा यद्यपि कर्म का कर्ता है व्यवहार नय के आधार पर । किन्तु निश्चयनय की शुद्ध अपेक्षा से तो जीव कर्म का कर्ता व भोक्ता नहीं है। आत्मा केवल निज गुणों में रमण करने वाला है । वह निज गुण 'चतुष्टय गुण' के नाम से जैन दर्शन के आगम ग्रन्थों एवं प्रकरण ग्रन्थों में उल्लेखित है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सामर्थ्य, अनन्त चरित्र। फिर भी आत्मा एवं कर्म का संयोग कब से हुआ? यह प्रश्न सहज ही मन में हो सकता है । इस प्रश्न के समाधान में उदाहरण के साथ प्रवचनकारों ने शास्त्र में फरमाया है कि स्वर्ण एवं मिट्टी कब से साथ में हुए? इसकी कोई नियमित कालगणना निर्धारित नहीं है । उसी तरह से आत्मा एवं कर्म भी अनादि काल से साथ हैं । आत्मा एवं कर्म का संबंध क्षीरनीरवत् है।
किन्तु हाँ ! यह बात नहीं कि “आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त नहीं हो सकती ।" अवश्य ही अनन्त आत्माएँ मुक्ति को प्राप्त हुई हैं । वर्तमान में भी हो रही हैं (अन्य क्षेत्र में) और भविष्य में भी आत्मा मुक्त होवेंगी । व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा कर्म का कर्ता, भोक्ता एवं मुक्ता भी है । ध्यान देने जैसी बात तो यह है कि जैन . दर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है । “स्वयं करो, स्वयं फल पाओ" । इसलिए तो कर्म बन्धन से मुक्त होने के उपाय भी इस दर्शन के अनेक ग्रंथों में उपलब्ध हैं । और इसी तथ्य को लक्ष्य में लेकर अनेक महापुरुषों ने कर्मावरण से मुक्त होकर पुरुष से महापुरुष, मानव से महामानव एवं आत्मा से परमात्मा बने हैं । परमात्म शक्ति स्वयं में भी मौजूद है, किन्तु वह सत्ता में है उदय में नहीं। इसी अमूल्य अध्यात्म सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन भी प्रस्तुत किया है । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र उमास्वातिस्वामी विरचित है, वे इस सूत्र में प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही लिखते हैं कि
"सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः"
व्याख्या सरल है(१) सम्यग्दर्शन-अर्थात् सीधा देखना (१) सम्यग्ज्ञान-सीधा जानना (३) सम्यक्चारित्र---अर्थात्-सदाचार को अपनाना।
ये हैं सही मानों में अध्यात्म वैभव ! अमूल्य रत्नत्रय हैं ये। भवरूप उदधि से तिराने के लिये ये तीर हैं।
आत्मा स्फटिकवत् निर्मल एवं विमल है, किंतु उसने अपने स्वयं को भूलकर कुछ भूल भरी बातें स्वीकार करली हैं । इसलिये उसका दर्शन गण मिथ्यात्व के आवरण से आवरित है। जैसे दीपक में प्रकाश फैलाने की शक्ति निहित है, पर हम दीपक पर बाल्टी अथवा अन्य कुछ आवरण कर दें तो प्रकाश सीमित हो जाता है, एवं अप्रत्यक्ष हो जाता है । उसी तरह से आत्मा में भी दर्शन गुण की अनंत-अनंत प्रकाश किरणें विद्यमान हैं। किन्तु कर्मावरण के कारण आत्मा सत्य एवं तथ्य वस्तु स्थिति को देखने के लिये उत्सुक एवं इच्छुक भी नहीं होती। इस मूलगुण पर कर्म ने कुठाराघात कर जीव को सदा पर भाव में रत रखा है। स्वभाव दशा से विमुख होकर हम विषम स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं, हम समझते हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं किन्तु आश्चर्य की बात है वह घाणी का बैल, दिन भर चलता है, थकता भी है परन्तु चल-चल कर कहाँ पहुँचेगा?" जी कहाँ पहुँचेगा? "वही धाणी और वही गोल चक्कर"। आजकल यही स्थिति बड़ी ही तीव्र गति से फैल रही है। हाहाकार मचा हुआ है केवल मात्र विषमता के कारण सही दृष्टिकोण ही सही लक्ष्य केन्द्र पर पथिक को पहुंचाता है। दृष्टिकोण में ही अगर विष घुला है तो बताइये अमृतफल कहाँ से मिलेगा? हम दूसरों को गिराकर आगे बढ़ना चाहते हैं, दूसरों के लिये प्रपंच उत्पन्न कर स्वयं प्रपंच मुक्त होना चाहते हैं, हम दूसरों का अपमान कर स्वयं की मान रक्षा चाहते
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हैं तोक्या सम्यग्दृष्टि यही है? ..... क्या कथनी क्या करणी"! इस विषम दृष्टि ने ही हर समाज में, हर देश में, हर राष्ट्र में, हर मानव के हृदय में असमाधि फैलाई है। अगर हम इस असमाधि से मुक्त होना चाहते हैं तो समाधि स्थल रूप सम्यग्दर्शन के मार्ग पर चलें, यही अध्यात्म वैभव का एक रत्न है जो अंधकार में प्रकाश करता है।
जो ज्ञान आत्मा में शान्ति एवं क्षमता उत्पन्न करे वह सम्यग ज्ञान । और जो ज्ञान अन्य व्यक्ति को एवं स्वयं को भी अशांति में ले जावे वह मिथ्या ज्ञान । सम्यग्ज्ञान आत्मा को अपने निज गुण में ले जाता है। किन्तु मिथ्या ज्ञान अर्थात् दंभ पूर्वक ज्ञान, आत्मा को गहरे गह्वर में पटक देता है एवं आत्मा को हैरान परेशान कर देता है। केवल स्वयं को ही नहीं अपितु दूसरे अमोघ भाव वाले भव्यात्माओं को भी वह ले डूबता है। ज्ञान इसलिये नहीं कि हम अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर लोक मनरंजन करें व वाद-विवाद को बढ़ावा दें। ज्ञान इसलिये भी नहीं कि हम
दूसरों को ही बोध देते फिरें एवं अपने हृदय कमल में उसका कुछ भी सार ग्रहण नहीं करें। वह ज्ञान भी ग्राह्य नहीं जो इच्छित वस्तु की व्याख्या में दूसरों का खंडन करे । नय' की परिभाषा में स्पष्ट स्पष्टीकरण है कि, जो इच्छित वस्तु की व्याख्या करे वह नय और अनिच्छित वस्तु का खंडन करे वह नयाभास । तात्पर्य यह है कि हम अध्यात्म वैभव के इस ज्ञान मार्ग को प्राप्त कर स्वयं व पर दोनों को हित में रखकर ही जिन शासन में उसका उपयोग करें। वह ज्ञान कदापि प्रशंसनीय नहीं है जो ज्ञान आपस में विवाद फैलावे, असामयिक भाव को उत्पन्न करे, कलह, रोष, को आविर्भत करे। सम्यग्ज्ञान की यह व्याख्या भी दर्शन ग्रंथों में समझने एवं जानने के योग्य है।
उसी प्रकार सम्यक आचरण भी जीवन विकास में महत्वपूर्ण भाव अदा करता है जिसके बिना गति, प्रगति' असंभावित है।
(जीव-रक्षा : सृष्टि-संतुलन . . . 'पृष्ठ १८५ का शेष)
(६) अन्य प्राणी किस तरह हमारे जीवन के साथ बंधे हुए हैं, वे हमारा क्या-क्या हित करते हैं, उनकी हिसा हमें अपने ही स्वार्थ के लिए क्यों नहीं करनी चाहिये इत्यादि तथ्य भी लोगों के सामने उघाड़े जाने चाहिये।
विकल्प भी दिये जाने चाहिये। अहिंसा का वातावरण बनाने के लिए इस प्रकार के ग्रन्थों को अल्पमूल्य में उपलब्ध कराना चाहिये।
(३) विदेशों में जहाँ भी शाकाहार को लेकर जो भी प्रयोग हुए हैं, हो रहे हैं, उनकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये और उनका व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिये। हमारी संस्थाएँ इस कार्य को युद्धस्तर पर कर सकती हैं।
(४) बौद्धिक और सामान्य स्तर पर कुछ ऐसी सभा-संगोष्ठियां भी की जानी चाहिये जो अहिंसक जीवन-मूल्यों के महत्व को प्रतिपादित करती हों और शाकाहार के लाभों को बताती हों।
(५) अन्धविश्वासों और भ्रामक धारणाओं का भी वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत खण्डन किया जाना चाहिये। आज भी कई गांवों में बलि-प्रथा प्रचलित है।
इस तरह जहाँ भी, जिस-जैसे स्तर पर शाकाहार और जीवरक्षा के प्रचार-प्रसार का एक व्यापक कार्यक्रम हमें तय करना चाहिये और उसके क्रियान्वयन में अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देनी चाहिये । जैन धर्म की प्रभावना का इससे बड़ा कोई अन्य कार्यक्रम नहीं हो सकता। मुझे विश्वास है समस्त जैन-समाज मेरे द्वारा ऊपर सुझाये गये कार्यक्रम पर गंभीरता से विचार करेगा और अहिंसा के एक उपेक्षित व्यवहार पक्ष को जल्दी ही मूर्त रूप देगा।
जिस प्रकार मिट्टी से बनी कोठी को ज्यों-ज्यों धोया जाता है, उसमें से गारा के सिवाय सारभुत वस्तु कुछ मिलती नहीं, उसी प्रकार जिस मानव में जन्मत: कुसंस्कार घर कर बैठे हैं, उसको चाहे कितनी ही अकाट्य युक्तियों द्वारा समझाया जाए, वह सुसंस्कारी कभी नहीं होता ।
विविध सांसारिक वेशों को चुपचाप देखते रहो, परन्तु किसी के साथ राग-द्वेष मत करो । समभाव में निमग्न रह कर अपनी निजता में लीन रहो, यही मार्ग तुम्हें मोक्षाधिकारी बनायेगा ।
-राजेन्द्र सूरि
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ललितविस्तरागत वस्तुविचारः तत्कर्तुश्च समासतः परिचयः
भवनतिलकसूरीश्वरान्तेवासी भद्रङ्करसूरिः
वीतरागैः सर्वजैः सूत्रीयविधिना विधीयमानाश्चैत्यवन्दनादि क्रियाः, मिथ्यादर्शनमथनत्वेन सम्यग्दर्शनविशुद्धिजनकत्वेन प्ररू पिता: सन्ति।
चैत्यवन्दनसूत्रस्योपरि नानावृत्तयो विद्यन्ते तत्र सर्वाभ्यो वृत्तिभ्यः प्राचीनवृत्तेर्नाम 'ललितविस्तरे'ति प्रसिद्ध प्रवर्तते, यस्याश्च, रचयितारः सुगृहीतनामधेया: सुविहितशिरोमणयः समर्थशास्त्रकारा आचार्याभगवन्तः श्रीहरिभद्रसूरयो विजयन्ते । __ अस्या वृत्तेर्माहात्म्यं जनशासने निश्चितं विश्रुतमेवंविधमस्ति यत्, उपमितिभवप्रपञ्चाया: कर्तार आचार्या सिद्धर्षिगणयः कथयन्ति। 'अनागतं परिज्ञाय, चैत्यवन्दनसंश्रयामदर्श निर्मिता येन वृत्तिललितविस्तरा' इत्येनं विषयं समर्थयन्तः पू. पा. श्रीमनिचन्द्रसूरयो ये सिद्धराजजयसिंह महाराजस्य राज्यसंसदि समर्थपादित्वेन प्रथिताः पू. श्री वादिदेवसूरीणां गुरव आसन्, ते ललितविस्तरायामुपरि पञ्जिकानामक लघु टीका रचयन्तो मङगलाचरणे 'अखिल व्याख्यातचूडामणिः सुगतप्रणीतशास्त्राभ्यासा प्रचलितचेतनः सिद्धर्षिनामक: साधु पुङ्गवः यां-ललितविस्तरां बुद्धा प्रबुद्धः, उपमितिभवप्रपञ्चाकथाकृतिरूप स्वकृतौ यत्कर्तुःललितविस्तराकत्तुर्हरिभद्र सूरेगुरुतयाऽसौ नमस्यां चक्रे, तस्या वृत्तेविधृति का कः समर्थः ? तथाप्यात्मनः स्मृत्ययतिष्येऽहम्, इत्या ख्यातवन्तः।
चैत्यवन्दनमेकं तादृशमनुष्ठानमस्ति यद् पू.पा. श्रीमद्भगवद् गणधरेन्द्रः साधुसाध्वीभिनिरन्तरं क्रियमाणावश्यक कर्मणि निहितमस्ति । 'चैत्यवन्दनतः सम्यक् शुभो भावः प्रजायते, तस्मात्कर्मक्षयः सर्वः, ततः कल्याणमश्नुते'।।
अद्याप्यदं युगीना जैनशासने परः सहस्रा: परोलक्षाश्चजनाश्वत्यवन्दनक्रियां नियमत: कुर्वन्तो दृश्यन्ते तत एषाचैत्यवन्दनक्रिया जीवन्ती विद्यते तथापि भावित चित्तवता पुरुषेण कार्येति
यता भावितचित्तेन भवन्ती क्रिया सक्रियात्वेन शास्त्रण स्वीक्रियते, स एव शुद्धचत्यवन्दनं करोति यस्य चैत्यवन्दन सूत्रस्यार्थतात्पर्यमस्ति। ललितविस्तरानामकोग्रन्थो मात्रसिद्धर्षेरुपकारकोनास्ति, सादरमभ्यस्यतश्च, अभ्यासेन सत्यतत्वबोधकसर्वजीवस्य सिद्धर्षिवदुपकारा भवति । अतो ललित विस्तराग्रन्थे सातत्येनाभ्यासादरः श्रद्धालुभिः कर्तव्यः।
श्रीमन्तस्तीर्थकरा 'धर्मरयनायका धर्मरथस्य सारथयो धर्म साम्राज्यस्य सार्वभौमाः' इत्यादि तीर्थंकरमहत्त्वसम्बन्धि तत्वं, ललितविस्तरायाः विशिष्ट बोधं विनाऽन्यतोज्ञातुमशक्यमतो ललितविस्तरायाः सम्यग्ज्ञानतो विश्वोपकारिणः परमात्मनस्तीर्थकरान् प्रति भक्तिभावोल्लासोऽवश्यं जागत्यैव ।
अद्यास्माभिः स्वीकर्तव्यमेवयत् त्रिसन्ध्यं चैत्यवन्दनीय सूत्रः, चैत्यवन्दनादिक्रियाकर्तारो जैना लक्षाधिक संख्यायां विद्यन्ते परन्तु तदर्थरहस्येन सह, भावतस्तत्कर्तारः कतिपयेऽपि, क्वचित् सन्त्यपि सम्भाव्यते ।
तादृश परिस्थिते: परिवर्तन कृते एतस्य ललितविस्तराग्रन्थस्याध्ययनकारिणां संख्यावृद्धिः कर्तव्या, तदर्थ प्रयत्नोऽपि कर्तव्यः ।
जगतः सर्वशासनातिशायि जैन शासनं जयति यत् इदं शासनं सर्वथा व्यवस्थितं सर्वथा सर्वकल्याणकरं कर्ममहासत्ताया अधःस्थितानां जीवानां कर्मपरसत्तातो मोचकं च सर्वदुःखमात्रता - मोचकमस्ति। ___ श्रीमत्या ललितविस्तराया मूलरूप उद्दश्य एवमस्ति यत्, चैत्यवन्दनस्य चारुक्रियायां यानि चैत्यानि वन्दनीयानि भवन्ति तानि श्रीमतां भगवतामहतां बिम्बान्येव तेषां बिम्बानां चैत्यमितिनाम कथं कथ्यते ? तत्प्रत्युत्तरमेतदस्ति । तेभ्यश्चैत्यभ्य: कृतवन्दनादिः, प्रशस्तसमाधि विशिष्ट चित्तं सम्पादयत्येव श्रीमदर्हद्धिष्वेषु प्रशस्त समाधि विशिष्टचित्तोत्पादन सामर्थ्य भावार्हद्भयः सम्पद्यत् इति ।
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'पुरुषविश्वासे वचनविश्वास' इति न्यायानुसारेण ज्ञानज्योतिः पुञ्जसमश्वाचार्य हरिभद्रसूरेः परिचयं प्राप्य तत्कृत ग्रन्थस्य महत्ता ज्ञातव्येति।
श्रीप्रभावकचरित्रानुसारेण समासतो हरिभद्रसूरेश्चरित्रमुल्लिख्यते ।
श्रीमान् हरिभद्रसूरिश्चित्रकूटनगरस्य राज्ञो जितारेः पुरोहित आसीत्, स्वयं प्रकाण्डपण्डितोऽत एव पाण्डित्य महत्त्वहेतुना स भगवान् 'येन कथितं मया ज्ञातं न स्यात्तदा तस्याहमन्तेवासी भविष्यामीति महाभीष्मप्रतिज्ञां कृतवान्।
तस्मिन्नवसरे चित्रकूटनगरे जिनभटसूरिनामको जैनाचार्यों निवसतिस्म, तस्य सम्प्रदाय महत्तराबिरुदविराजिता 'याकिनी' त्यभिधा धारिणी साध्वी मुख्या साध्वी विराजतेस्म ।
एकदा हरिभद्रपण्डितपुङगवेन सरस्वतीमूर्ति स्वाध्याय निरत महत्तरायाकिनी साध्वीवदनकमलत उच्चार्यमाणा 'चक्कि दुर्ग हरिपणगं' इत्यादि गाथा, श्रवणविषयीकृता, ततः स तस्या गाथाया अर्थो नज्ञातोऽतः साध्वीसकाशे समागत्य, तदर्थज्ञापनकृते साध्वी विज्ञप्ता, शास्त्राज्ञाधीनया साध्व्या, अस्मद्गुरोजिनभट सरे: पुरोगमनाय तस्मै कथितम् तदनन्तरं श्रीहरिभद्रपण्डित आचार्य जिनभटसूरेः पार्श्व गत्वा तस्या गाथाया अर्थ सादरं पप्रच्छ।
जैनी दीक्षां गृहीत्वा विधिपूर्वकं जैनागमं यः पठति तस्यैव सूत्रार्था ज्ञाप्यन्ते नान्यस्येति । श्रीमता तेनाचार्येण प्रत्युत्तरितम् प्रतिज्ञापालनदक्षेण योग्य पुरुषशिरोमणिना तेन हरिभद्र पण्डितशिरोमणिना जैनीदीक्षा कक्षीचक्रे। तत आचार्येण तस्मै तस्या महत्तरायाकिन्याः परिचयो दत्तः, हेतुनाऽनेन श्रीहरिभद्रपण्डितेन प्रकाशितं यत् 'अनय देवता स्वरूपिण्या धर्ममात्राऽहं प्रतिबुद्धोऽस्मीति ।
ततः कतिपयैदिनैः सर्वेषु जैनागमेषु परमप्रवीणः समजायत; श्रीगुरुणा परमयोग्याय श्रीहरिभद्रमुनीश्वराय पण्डितमूर्धन्यायाचार्यपदं प्रददे, दत्त्वा आचार्यपदं स्वीयपट्टधरश्चक्रेतराम् ।
श्री हरिभद्रसूरेहंसपरमहंसनामानो द्वौ शिष्यावभवताम्, यौ संसारपक्षे भागिनेयावास्ताम् । तत्र तयोर्दीक्षा, शास्त्राध्ययनं च बौद्ध तर्क शास्त्राध्ययनाय बौद्धानां नगरे गमनं, तत्र तयोः परीक्षा, ततश्चलन, मार्गे बौद्धैः सह युवा हंसस्य मरणं, परमहंसस्य सूरपालस्य राज्ञः शरणे गमनं, बौद्धैः सहवादः, ततः प्रणम्य चित्रकूट गत्वा जातं व्यतिकरं कुर्वतः परमहंसस्यमरणं, हरिभद्रसूरिः क्रुद्धः, ततः सुरपालराजसभायां बौद्धः सह वादः, प्रतिज्ञाऽनुसारेण बौद्धानां तप्ततैलकुण्डे पतनं, जिनभटसूरि द्वारा श्रीहरिभद्रसूरेः कोपप्रशान्तिस्तथाऽपि मनोमन्दिरे शिष्य विरहवेदना न शाम्यति। . अम्बिकादेवी, समागत्य सूरि सान्त्वयति, कथयामास च शिष्यसन्ततियोग्यःपुण्य प्राग्भारो युष्माकं नास्ति, तस्माद्ग्रन्थ सन्ततिरेव युष्माकं भाग्येऽस्ति, ततो ग्रन्थ सार्थ निर्माणमेव भगवान् भवान् करोतु इति देव्यावचः सूरिणा जगृहे। अथ सूरिः चतुश्चत्वारिंशदधिक चतुःशतोत्तर सहस्र संख्यकानि समरादित्य चरित्रादिगम्भीर ग्रन्थ प्रकरणानि रचयांचकार।
शिष्य विरह सूचक विरह शब्देनान्तेऽङिकतानि कृतानि च एतं ग्रन्थ राशि लेखयित्वा तत्प्रचाराय रिणा 'कार्णसिको' गृहस्थो धूर्ताख्यान द्वारा उपदिश्य जैनःकृतः सूरिवचोऽनुसारेण तेन व्यापारेण लब्ध द्रव्य द्वारा सूरेन्थान् लेखयित्वा सर्वत्र ग्रन्थाः प्रसारिताश्चतुर शीतिदेवकुलिका मण्डितः एको महाजिनालयो निर्मापितो, हरिभद्रसूरिणा महानिशीथ सूत्रस्योद्वारो विहितः । ... अनेक ग्रन्थ प्रणेता, वादिविजेता, प्रावनिक पुरन्दरः, नैमितिकपुङ्गवः, योगिवरेण्योयुगप्रधान: श्री हरिभद्र सूरीश्वरः सततं जिनशासने विजयताम् ।
जैसे तुम्बे का पात्र मुनिराज के हाथ में सुपात्र बन जाता है, संगीतज्ञ के द्वारा विशुद्ध बाँस से जुड़ कर मधुर संगीत का साधन बन जाता है, डोरियों से बन्धकर समुद्र तथा नदी को पार करने का निमित्त बन जाता है और मदिरा-मांसार्थी के हाथ पड़कर रुधिर-मांस का भाजन बन जाता है। वैसे ही कोई भी मनुष्य सज्जन या दर्जन की संगति में पड़कर गण या अवगुण का पात्र बन जाता है ।
-राजेन्द्र सूरि
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राजेन्द्र- ज्योति पंचम खण्ड
जैन तीर्थं / शिल्प / कथाएँ
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आध्यात्मिक और भौतिक वातावरण में झूम उठने, खो जाने के लिए धर्म और तत्संबन्धी संस्कारों को समायोजित करने में जैन शिल्प कला ने अच्छा योगदान किया है और एक सुदृढ़ ऐतिहासिक भूमिका निभायी है।
-राम सरि
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भूरचंद जैन
रेगिस्तान का प्राचीन तीर्थ श्री भांडवाजी
राजस्थान प्रदेश के जालोर जिले का प्राचीन ऐतिहासिक गति विधियों के साथ साथ धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान रहा है । जालोर का स्वर्णगिरि दुर्न धार्मिक सहिष्णुता का अनोखा स्थल बना हुआ है। जिसकी गोद में हिन्दुओं के पवित्र मंदिर, मुसलमानों की मस्जिदों एवं जैन धर्मावलंबियों के श्रद्धास्थल, जैन मंदिरों की भरमार है । इस जिले के अन्दर जैन धर्मावलम्बियों के अनेकों ख्यातिप्राप्त मंदिरों के ऊंचे-ऊंचे शिखर दृष्टिदोर होते हैं। इन मंदिरों के अतिरिक्त जिले के सांचोर भीनमाल जैसे स्थानों पर प्राचीन जैन मंदिर विद्यमान हैं जो तीर्थस्थानों के लिए लोकप्रिय बने हुए हैं। जिनकी शिल्पकला, वास्तुकला, प्राचीनता देखने योग्य है । इसी तरह जिले का चरली तीर्थ प्राचीनता के लिए इतना ही विख्यात है जितना आधुनिक शिल्पकला एवं बनावट के लिए मांडोली नगर में नवनिर्मित भी शांतिसूरीश्वरजी महाराज साहब का स्मृति गुरु मंदिर । इस जिले के तीर्थों की कड़ी को जोड़ने में भांडवा तीर्थं आज अधिकाधिक लोकप्रिय बनने के साथ साथ श्रद्धा एवं भक्ति का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है जो जिले के रेगिस्तानी क्षेत्र में आया हुआ है। इसकी प्राचीनता, मूर्ति का चमत्कार, मंदिर की बनावट, मेले की व्यवस्था के कारण यहां यात्रियों का निरन्तर तांता लगा रहता है।
भांडवा इस समय एक छोटा सा गांव है जो जालोर जिले के सायला पंचायत समिति का अंग है। यहां आने के लिए जोधपुर से रानीवाडा रेल्वे लाईन पर स्थित गोदरा स्टेशन पर उतरना पड़ता है यहां से यह स्थल २२ मील दूर उत्तर-पश्चिम में सड़क यातायात से
जुड़ा हुआ है। जोधपुर-बाडमेर सड़क मार्ग पर स्थित आलोतरा से ३५ मील दूर पारलू बीवाणा होते हुए भांवडा कच्चा सड़क मार्ग बना हुआ है। इसी प्रकार जोधपुर वाडमेर सड़क मार्ग पर सिणधरी से २६ मील दूर भांडवा जाने के लिए कच्चा सड़क मार्ग बना हुआ है । जालोर से यह स्थल पक्के सड़क मार्ग से ३६ मील दूर है ।
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इन सभी स्थलों से नियमित बसों का आवागमन होता है। मेले के दिनों में जालोर - सायला आदि स्थलों से भांडवा पहुंचने हेतु विशेष बसों की समुचित व्यवस्था की जाती है। रेगिस्तानी क्षेत्र होने के कारण यहां के आसपास के दियापटी के लोग ऊंटों, बैलगाड़ियों आदि पर चढ़कर इस भारत विख्यात जैन तीर्थ की यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं ।
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भांडवा गांव के एक किनारे पर विशाल पक्की चार दीवारी के अन्दर १० वीं शताब्दी में निर्मित श्री महावीर स्वामी का भव्य मंदिर, अनेकों धर्मशालाओं सहित विद्यमान है। इस मंदिर के एक स्तम्भ पर वि. सं. ८१३ श्री महावीर स्वामी लिखा हुआ विद्यमान है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान महावीर स्वामी के इस मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा का संबंध इस संयत से है क्योंकि यह प्रतिमा जालोर क्षेत्र में वेसाला गांव से यहां आई बताई जाती है । वेसाला पर मेमन धाड़ेतियों ने आक्रमण कर गांव को लूटा और वहां बने प्राचीन महावीर मंदिर को नष्ट किया। लेकिन संयोगवश मूल महावीर स्वामी की प्रतिमा खंडित होने से बच गई। जिसे कोमला गांव के जैन संघ मुखिया पालाजी संघवी लेकर यहां आए। इन्हें देवी चमत्कार से यहां मंदिर बनाने और महावीर स्वामी की प्रतिमा की मूल रूप से प्रतिष्ठित करने का संकेत मिला।
संघवी पालवी ने समस्त जैन श्री संघ के सहयोग से यहाँ वि. सं. १०१५ में मंदिर का निर्माण करना आरंभ किया। जिसकी प्रतिष्ठा वि. सं. १२३३ माघ सुदी ५ को गुरुवार को भव्य समारोह के बीच संपन्न हुई । वर्तमान में यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। जिसके प्रवेश द्वार पर विशाल हाथियों के अतिरिक्त दोनों ओर शेर की प्रतिमाएं विराजमान हैं । द्वार पर नगारे बजाने हेतु सुन्दर झरोखा बना हुआ है मंदिर के मूल गम्मारे में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की मूल प्रतिमा विराजमान है। जिसके आज
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बाजू की शांतिनाथ एवं श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमाएं हैं। नूठ मण्डप में अधिष्ठायक देवी की प्रतिमा एवं देवताओं के चरण पादुकाएं विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त भाग में दोनों ओर दरवाजे हैं जिनके पास ही प्राचीरों पर समवसरण, शत्रुज्य, अष्टापद, राजगिरी, नेमीनाथ प्रभु की बरात सम्मेद शिखर, गिरनार पावापुरी के सुन्दर एवं कलात्मक पट्ट लगे हुए हैं। आगे चार-चार खम्भों पर आधारित सभा मण्डप है। जिसकी गोलाकार गुमटी में नृत्य एवं वाद्ययंत्रों को बजाती नारियों की मूर्तियां खड़ी हुई हैं। जिसके आगे एवं प्रवेश द्वार के समीप ऐसा ही छोटा शृंगार मण्डप है जिसके निचले भाग में संगीत यंत्रों को बजाती नारियों की आकृतियां मूर्तिरूप धारण किए हुए हैं।
मूल मंदिर के चारों और पार कृतिकाओं के शिखर दृष्टि गोचर होते हैं। प्रत्येक देव कृतिकाओं में तीन तीन जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं को वि. सं. २०१० ज्येष्ठ शुक्ला दसमी सोमवार को आचार्य देव श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब की निश्रा में भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव के बीच प्रतिष्ठित किया गया है। इसी मूल मंदिर के शिखर के पीछे एक लम्बी तीन घुमटियों वाली साल बनी हुई है जिसमें भी पार्श्वनाथ प्रभु की चार सुन्दर, कलात्मक प्रतिमाओं के साथ एक प्रतिमा श्री गौतम स्वामी की प्रतिष्ठित की हुई है। इस साल में श्री पार्श्वनाथ स्वामी की तीन प्रतिमाएं श्यामवर्णी हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार के आन्तरिक भाग के दोनों किनारों पर बनी देव कुलिकाओं के आसपास दो छोटी डेरियां बनी हुई हैं जिसमें आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनसुन्दरसूरीजी एवं आचार्यदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी की प्रतिमाएं विराजमान की हुई हैं। प्रवेश द्वार के आंतरिक मंदिर भाग में बने छोटे आलों में श्री मातंग यक्ष एवं श्री सिद्धायिका देवी की प्रतिमा भी प्रतिष्ठित की हुई है। चारों देव कुलिकाएं आमने सामने हैं जिसके बीच में ग्यारह ग्यारह खम्भे बने हुए हैं।
वि. सं. १०१५ में निर्मित श्री महावीर स्वामी के इस मंदिर की पहली प्रतिष्ठा वि. सं. १२३३ में हुई । इस मंदिर का पहला जीर्णोद्धार वि. सं. १३५९ में करवाया गया । दियाबटी पट्टी जैन श्री संघ ने दूसरी बार वि. सं. १६५४ में एवं तीसरी बार जीर्णोद्धार वि. सं. १९८८ में आचार्यदेव श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के सद्उपदेश से जैन श्री संघ द्वारा करवाया गया। इन्हीं आचार्य महाराज की प्रेरणा से वि. सं. २०१० में भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुआ जिसमें चार नवीन देवकुलिकाओं, लम्बी साल एवं गुरु प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई । इस मंदिर की प्राचीरों एवं प्रतिमाओं आदि स्थानों पर वि. सं. १२०१, १२२५,
१२५९, १५१६ एवं १७५७ के कुछ प्राचीन शिलालेख भी विद्यमान हैं। मंदिरों की प्राचीरों, खम्भों आदि पर आसलेट की बड़ाई करने से प्राचीनता अवश्य ही लुप्त हो चुकी है। मंदिर के संपूर्ण फर्श पर संगमरमर के पाषाण जोड़े गए हैं।
भांडवा का मंदिर जितना पुराना है उतना ही यह गांव भी प्राचीन है । इस गांव की स्थापना जावाली जालोर निवासी परमार भांडूसिंह ने वि. सं. ३ के अंत में की थी। जिसके कारण इस स्थल का नाम भांडवा पड़ा। जो प्राचीन समय में विशाल नगरी होने के कारण भाण्डवपुर के नाम से भी विख्यात रहा है। परमारों से यह स्थल वि.सं. १३२२ में दईया राजपूत बुहेडसिंह ने लिया । जिसके पश्चात् यह क्षेत्र दईया पट्टी दया पट्टी के नाम से परिचायक बना | लम्बे समय के पश्चात् यह स्थल वि. सं. १८०७ में दइया राजपूतों से निकल कर आणा गांव के ठाकुर भाटी मालमसिंह के अधीन रहा । वि. सं. १८६४ में यह प्राचीन स्थल जोधपुर राजघराने की अधीनता में भी रहा । भारत स्वतंत्र होने के पश्चात् आजकल यह राजस्थान प्रदेश के जालोर जिले का सर्व विख्यात भाण्डवपुर जैन तीर्थ के नाम से परिचायक बना हुआ है ।
जैन धर्मावलम्बियों के २४ वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का यह तीर्थस्थल होने के कारण यहां प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला १३ से १५ तक विशाल पैमाने पर मेले का आयोजन होता है इस मेले में देश के विभिन्न क्षेत्रों से करीबन दस हजार से अधिक यात्री एवं दर्शनार्थी भाग लेने एकचित होते हैं। मेले में धार्मिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त नाना प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है । इस तीर्थ पर विशाल धर्मशालाएं बनी हुई हैं जिसके अन्तर्गत करीबन २०० आवासीय कोठरियां बनी हुई है। यात्रियों के ठहरने, खानेपीने, बर्तन बिस्तरों आदि की समुचित व्यवस्था है । यहां बिजली, पीने के पानी एवं पक्की सड़क के निर्माण कार्यों की भावी योजना बन चुकी है । यदि ये सुविधाएं यहां उपलब्ध हो जायेंगी उस समय यह स्थल अधिक आगन्तुकों के आवागमन का केन्द्र बन जावेगा। यहां सदैव श्रद्धालु भक्तों की भीड़ लगी रहती है । इस मंदिर के आसपास रहने वाले सभी जाति धर्म एवं संप्रदाय के लोग बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से इस मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान महावीर स्वामी पर आस्था रखते हैं। यहां के लोगों ने मंदिर के एक मील के दायरे में शिकार खेलना निषेध कर रखा है और इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के पेड़-पौधों का काटना भी मना कर रखा है । इस सम्पूर्ण तीर्थ की देखभाल करने के लिए एक व्यवस्थापक समिति का गठन भी किया हुआ है।
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चमत्कारों की दुनिया में श्री मुहरि पार्श्वनार्थ म.
पू. मनिप्रवर श्री राजरत्नसागरजी महाराज
आध्यात्मिक और भौतिक वातावरण में झूम उठने, खो जाने के लिए धर्म और संस्कारों का जतन करने में शिल्पकला ने अच्छा योग दान प्रदान किया और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। __ आर्य संस्कृति का चाहक आर्य देश अपने स्थापत्यों को, शिल्पों को सुरक्षित रखता आया है। जरूरत पड़ने पर उसे जीर्णोद्धार के रूप में संवारा, सजाया, संजोया भी है।
भारतीय संस्कृति अपनी विशिष्ट और अनोखी शिल्पकला से आज दुनिया में सिर उन्नत किए हुए है। उसमें भी जैन संस्कृति की शिल्पकला के आदर्शों का तो कहना ही क्या?
कई ऐसे प्राचीन मंदिर एवं मूर्तियां हैं, जिनकी कला-कौशलता, शान, शालीनता और चमक-दमक अवर्णनीय अनुमोदनीय है।
हमारे पूर्वज महापुरुष सर्वजन हिताय ऐसे ऐसे कार्य कर गए हैं जिसे देखते ही हम आश्चर्यमुग्ध हो जाते हैं, दंग रह जाते हैं।
जब हम एक ओर इस सर्व मंगलकारी आदर्श का चिन्तन करते . हैं और उसी वक्त विश्व में ठोर-ठोर संघर्ष, असहिष्णुता, ईर्ष्या, मत्सर, असूया देखते हैं, तब विचार शक्ति कुण्ठित हो जाती है, सिर चक्कर खाने लगता है लेकिन ऐसे समय अत्यन्त क्षीण किन्तु दढ़ आवाज में श्रद्धा कहती है कि वीर वि. सं. १००० के दरम्यान चार भयंकर दुष्काल, अनेक राज्य विप्लवी, राजकीय अंधाधुंधी और साम्प्रदायिक द्वेष ज्वाला के होते हुए भी हमारे पूर्वजों को श्रद्धा और प्राणों का बलिदान देकर सुरक्षित किए गए ठोस आज भी अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध हैं।
श्री मुहरि पार्श्वनाथ एक ऐसा तीर्थ है जो न केवल प्राचीन है बल्कि चमत्कारिक और ऐतिहासिक भी है।
श्री मुहरि पार्श्वनाथ प्राचीन होने के प्रमाण
हमारे अनन्त लब्धि निधान श्री गुरु गौतमस्वामीजी ने अष्टापद तीर्थकर चैत्यवंदन के समय श्री जगचिन्तामणि सूत्र की तीसरी गाथा में जो "मुहरिपास दुह दुरिअ खंडण" पंक्ति से स्तवना वर्ग है वहीं श्री मुहरि पार्श्वनाथ प्रभु अभी टिंटोई में विराजमान हैं। टिंटोई से मुहरि नाम का गांव सिर्फ ५ माईल की दूरी पर है। मुहरि गांव में और उसके आसपास की जमीम पर कई खण्डहर और भग्नावशेष हैं वहां एक बावन जिनालय का खण्डहर भी है यहां से कई बार लोगों को सुवर्ण की मुहरें मिली ऐसी लोकोक्ति है । यहां के खण्डहर देखने से अन्वेषकों का अन्दाज है कि २५००-३००० वर्ष पहले यहां एक बड़ा शहर होगा।
इसी गांव में प्राचीन समय की हिगालोगिया रंग की ओर अभी पत्थर से भी ज्यादा मजबूत १८x१० इंच की १० किलो से भी ज्यादा बजन की आखी और टूटी हुइ ईंटें आज भी इधर-उधर बिखरी हुई २-३ माईल तक देखने में आती है। करीबन ५५ साल पहले इसी जगह से ३० फीट की ऊंचाई वाला मनुष्य का हाड़ पिंजर प्राप्त हुआ था। यहां से १०० मील दूर शाभलाती जैनेतर तीर्थ है। यहां एक समय बावन जिनालय मंदिर होंगे ऐसा देखने से अनुमान लगता है इस गांव से ९ माईल दूर नागकणावाली भव्य मूर्ति आज भी विद्यमान है। जो दिगम्बरों के कब्जे में है। सैकड़ों वर्ष पहले यहां समतल भूमि थी, धरती कंप होने से ये वर्तमान परिस्थिति
किसी लेखक का कथन है कि ये मुहरि पार्श्वनाथ मथुरा के जानना लेकिन विद्यमान श्री मुहरि पार्श्वनाथ भगवंत का आकार प्रकार और महुआ वंदर (सौराष्ट्र) में विराजमान थी जीवित स्वामी श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा का आकार प्रकार, शिल्पकला मुखारविंद मिलता-जुलता होने से प्राचीन होने का प्रमाण है ।
वी. नि. सं. २५०३
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जीवित स्वामीजी की मूर्ति भगवान महावीर स्वामियों की हयाती में उनके ज्येष्ठ बन्धु श्री नन्दीवर्द्धनीजी ने बनवाई थी अत: दोनों प्रतिमाजी की साम्यता कला कारीगरी के आधार पर समकालीन होना कहा जा सकता है।
किसी अन्वेषक का कहना है यह मूर्ति संप्रति महाराज के समय की होनी चाहिए। क्योंकि संप्रति महाराजा ने भरवाई हुई मूर्तियों के समान टेके आदि हैं। लेकिन टेके होने मात्र से संप्रति महाराजा के समय की है यह नहीं कह सकते, कारण संप्रति महराजा के पूर्व मूर्ति पर टेका नहीं किया जाता था यह कहने का कोई साधन या सबूत उपलब्ध नहीं है। श्री महरि पार्श्वनाथ नाम कैसे रहा ?
श्री मुहरि पार्श्वनाथ भगवंत के चरण तल में सुवर्ण मुहर समा सके इतने बड़े खड्डे हैं अतः मुहरि पार्श्वनाथ नाम पड़ा। किसी का
चमत्कार
टिटोई में श्री मुहरि पार्श्वनाथ जैन मंदिर की बाई ओर एक जेनेतर परिवार रहता था उस परिवार के एक व्यक्ति वर्ग की मृत्यु हो गई। जब श्मशान यात्रा निकली तो जैन संघ के आगेवानों का कहना रहा कि श्मशान यात्रा को पिछले मार्ग से निकालो प्रभुजी के समक्ष से लाश ले जाना अच्छा नहीं। लेकिन जैनेतर होने से उन्होंने यह राय नहीं मानी। इस पर दोनों पक्ष अड़ गये आखिर जिसका जोर उसका शोर के अनुसार मंदिरजी के सामने से ही श्मशा यात्रा निकली। संघ के श्रावकों को बड़ा दुख हुआ। यह श्मशान यात्रा श्मशान तक पहुंची ही थी, इसी बीच एक घटना घटी उसी परिवार का एक और व्यक्ति मर गया। हाहाकार मच गया। उस जनेतर परिवार को अपनी जिद का पछतावा हुआ। उसने मंदिरजी के. सामने साष्टांग प्रणाम कर सजल नेत्रों से अपराध की क्षमा मांगी।
इसी प्रकार एक चमत्कार फिर हुआ। टिटोई के ठाकुर का एक अलमस्त घोड़ा मर गया। उसकी खबर लगते ही संघ के आगेवानों ने ठाकुर साहब से विनंती की घोड़े की मृत देह को मंदिरजी के सामने से न ले जाया जावे इसके साथ पहले घटी हुई घटना का भी ख्याल दिया। लेकिन ये तो ठाकुर ठहरे इन्होंने संघ की एक बात न मानी उस समय उन ठाकुर साहब के पास अच्छी जमीन जागीरी थी। सत्ता थी क्यों माने संघ वर्ग की विनंती । आजीजी और अनुनय का जल उस सत्ता की गर्मी वाले ठाकूर साहब के दिल पर न टिके बह गया। संघ ने मौन धारण किया । घोड़े की मृत देह को वहीं से ले जाया गया। उसे जलाकर लोग कोठी पर आए तो दूसरा घोड़ा मर गया । फिर भी न माने मंदिर के सामने से ही ले जाया गया । इस प्रकार ३ घंटे में ३ घोड़े मर गए। फिर ठाकुर साहब नरम पड़े
और पार्श्वनाथ प्रभु की मानता कर क्षमा मांगी। इस तरह से प्रकट प्रभावी श्री मुहरि पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमाजी आल्हादक और आलोकित है। जैन जेनेतर कई लोग यहां की मानता रखते हैं । यहां के अधिष्ठायक देव भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं।
तीर्थ तो संसार से तिरने में सहायक बनता है जो शुभ भाव से तीर्थ की पवित्रता को बनाए रख आत्म कल्याण के ध्येय से यात्रा करे तो क्या लाभान्वित नहीं।
लेकिन यात्रार्थ जाते हैं स्वार्थ वृत्तियां लेकर, भौतिक लालसा की मांग लेकर, थोड़े बहे हुए आंसू थोड़ी दर्शाकर रखी हुई किसी की याद, किसी से मिली हुई ठोकरें, विद्रोह और कषाय इतना कूड़ाकचरा दिमाग में घर कर जाते हैं फिर कैसे किनारा लगे।।
भक्ति की विफलता का यदि कोई कारण हो तो वह यह है भक्ति के बदले में हम कुछ चाहते हैं इच्छित फल की अपेक्षा रखते हैं कुछ मिले कोई दे इस तरह भक्ति की शर्त को हम भूल जाते हैं।
भक्ति के लिए तो रावण मंदोदरी की तरह एकतान होकर नाच सके और चन्दनबाला जैसे अंतर की उष्मा से रो सके ऐसी भक्ति मुक्ति को आकृष्ट करती है।
अंत में इस परिचय से परिचित होकर एक बार तीर्थ यात्रा के भाव के साथ उस अलबेले मुहरि पार्श्वनाथ को पूजकर जीवन को सही दिशा में संचालित करें यही मंगल मनीषा।
कहना है मुहरि गांव के नाम से मुहरि पार्श्वनाथ नाम पड़ा। एक कथन और भी प्रचलित है मेवाड़ के राजा एक सुवर्ण मुहर लेकर दर्शन करने देता था इसलिए मुहरि पार्श्वनाथ नाम प्रसिद्ध हुआ। वर्तमान में श्री मुहरि पार्श्वनाथ तीर्थ ___ साबरकांठा जिले में टिटोई गांव है यहां वि. सं. १८२८ के साल में एक मुनिराज को स्वप्न आया था। मुहरि पार्श्वनाथ प्रभु अमुक स्थल पर हैं। इसके आधार पर श्रावकों ने तलाश की और पहाड़ियों के बीच गहरी खाई में से ये प्राचीन आलोकित और चमत्कारिक मूर्ति प्राप्त हुई, साथ में यक्ष और पद्मावती देवी की मूर्ति प्राप्त हुई। इन मूर्तियों को टिटोई लाया गया और एक भव्य उत्तुंग शिखर वाले मंदिर का निर्माण कर प्रतिष्ठित किया गया।
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श्री लक्ष्मणजी तीर्थ एक प्राचीन जैन तीर्थ है। विक्रम की सोलहवीं सदी में यह तीर्थं विद्यमान था । कतिपय प्रमाण लेखों से इस तीर्थ की प्राचीनता कम से कम दो हजार वर्षों से भी अधिक पूर्वकाल की सिद्ध होती है ।
जब मांडवगढ़ यवनों का समरांगण बना तब इस बृहतीर्थ पर भी यवनों ने आक्रमण किया और यहां के मंदिरादि तोड़ना प्रारम्भ किया। इस प्रकार यावनी आक्रमण के कारण यह तीर्थ पूरी तरह नष्ट हो गया और विक्रम की १९ वीं सदी में इसका केवल नाममात्र ही अस्तित्व में रह गया और वह भी बिगड़कर लखमणी हो गया तथा उस जगह पर भीलभिलालों के बीस-पच्चीस टापरे ही अस्तित्व में रह गये ।
तीर्थक्षेत्र श्री लक्ष्मणीजी
एक समय एक भिलाला कृषिकार के खेत में से सर्वांगसुंदर ग्यारह जन प्रतिमाएं प्राप्त हुईं। कुछ दिनों पश्चात् उसी स्थान से दो-तीन हाथ की दूरी पर से तीन प्रतिमाएं और निकली; उनमें से एक प्रतिमाजी को भिलाले लोग अपना इष्ट देव मान कर तेल सिंदूर से पूजने लगे ।
१. श्री पद्मप्रभस्वामी
२. श्री आदिनाथजी
मुनि जयंतविजय 'मधुकर'
भूगर्भ से प्राप्त इन चौदह प्रतिमाओं के नाम और उनकी ऊँचाई का विवरण इस प्रकार है
नाम
२. श्री महावीर स्वामीजी
४. श्री मल्लीनाथजी
५. श्री नमिनाथजी
६. श्री ऋषभदेवजी ७. श्री अजितनाथजी ८. श्री ऋषभदेवजी
९. श्री संभवनाथजी
वी. नि. सं. २५०३
ऊंचाई (चों में
३७
२७
३२
२६
२६
१३
२७
ܐ
१३
૨૦
१०. श्री चंद्रप्रभ स्वामीजी ११. श्री अनन्तनाथजी १२. श्री चौमुखजी
१३. श्री अभिनंदन स्वामीजी १४. श्री महावीर स्वामीजी
१०
तेरहवीं और चौदहवीं प्रतिमाजी खंडित अवस्था में प्राप्त
१४
१३५
१५
St
हुए ।
चरम तीर्थाधिपति श्री महावीर स्वामीजी की बत्तीस इंच बड़ी प्रतिमा सर्वांगसुंदर है और श्वेत वर्ण वाली है। इस प्रतिमा पर कोई लेख नहीं है। फिर भी उस पर रहे चिह्नों से यह जात होता है कि ये प्रतिमाजी महाराजा संप्रति के समय में प्रतिष्ठित हुई होंगी ।
श्री अजितनाथ प्रभु की पन्द्रह इंच बड़ी प्रतिमा बालूरेती की बनी हुई है और प्राचीन एवं दर्शनीय है ।
श्री पद्मप्रभुजी की प्रतिमा जो संतीस इंच बड़ी है वह परिपूर्णांग है और श्वेत वर्णी है। उस पर जो लेख है वह मंद पड़ गया है 'संवत् १०१३ वर्षे वैशाख सुदी सप्तम्यां केवल इतना ही भाग पढ़ा जा सकता है; शेष भाग बिल्कुल अस्पष्ट है। श्री मल्लीनाथजी एवं स्थान श्री नवनाथजी की छम्बीसछब्बीस इंच बड़ी प्रतिमाएं भी उसी संवत् में प्रतिष्ठित की गई हों ऐसा आभास होता है। उपरोक्त लेख से ये तीनों प्रतिमाएँ एक हजार वर्ष प्राचीन सिद्ध होती हैं।
श्री आदिनाथजी २७ इंच और श्री ऋषभदेव स्वामी की १३-१३ इंची बदामी वर्ण की प्रतिमाएँ कम-से-कम सात सौ वर्ष प्राचीन हैं और तीनों एक ही समय की प्रतीत होती हैं। श्री आदिनाथ स्वामी की प्रतिमा पर निम्नलिखित लेख है
" संवत् १३१० वर्षे माघ सुदी ५ सोम दिने प्राग्वाट ज्ञातीय मंत्री गोसल तस्य चि. मंत्री आ (ला) लिंगदेव तस्य पुत्र
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गंगदेव तस्य पत्नी गंगादेवी तस्याः पुत्र पदम तस्य भार्या मांगल्या
प्र.।"
शेष पाषाण प्रतिमाओं के लेख बहुत ही अस्पष्ट हो गये हैं; परन्तु उनकी बनावट से ऐसा जान पड़ता है कि वे भी पर्याप्त प्राचीन हैं। उपरोक्त प्रतिमाएं भूगर्भ से प्राप्त होने के बाद श्री पार्श्वनाथस्वामीजी की एक छोटी सी धातु प्रतिमा चार अंगुल प्रमाण की प्राप्त हुई। उसके पृष्ठभाग पर लिखा है कि"संवत् १३०३ आ. शु. ४ ललित सा.” यह बिंब भी सात सौ वर्ष प्राचीन है।
विक्रम संवत् १४२७ के मार्गशीर्ष मास में जयानंद नामा जैन मुनिराज अपने गुरुवर्य के साथ निमाड़ प्रदेश स्थित तीर्थ क्षेत्रों की यात्रार्थ पधारे थे। उसकी स्मृति में उन्होंने दो छंदों में विभक्त प्राकृतमय 'नेमाड़ प्रवास गीतिका' बनाई। उन छंदों से भी जाना जा सकता है कि उस समय नेमाड़ प्रदेश कितना समृद्ध था और लक्ष्मणी भी कितना वैभवशील था।
मांडव नगोवरी सगसया पंच ताराउरवरा विस-इग सिंगारी-तारण नंदुरी द्वादश परा। हत्थिणी सग लखमणी उर इक्क सय सुह जिणहरा, भेटिया अणुबजणवए मुणि जयाणंद पवरा ॥१॥ लक्खातिय सहस विपणसय, पण सहस्स सगसया; सय इगविस दुसहसि सयल, दुन्नि सहस कणयमया । गाम गामि भक्ति परायण धम्मा धम्म सुजाणगा,
मणि जयाणंद निरक्खिया सबल समणो वासगा ।।२।। - मंडपाचल में सात सौ जिन मंदिर एवं तीन लाख जैनों के घर; तारापुर में पांच जिन मंदिर एवं पाँच हजार श्रावकों के घर; तारणपुर में इक्कीस मंदिर एवं सात सौ जैन धर्माव• लंबियों के घर; नांदूरी में बारह मंदिर एवं इक्कीस सौ श्रावकों के घर; हस्तिनी पत्तन में सात मंदिर एवं दो हजार श्रावकों के घर और लक्ष्मणी में १०१ जिनालय एवं दो हजार जैन धर्मानुयायियों के घर । धन-धान्य से सम्पन्न, धर्म का मर्म समझने वाले एवं भक्ति परायण देखे। इससे आत्मा में प्रसन्नता हुई। लक्ष्मणी, लक्ष्मणपुर, लक्ष्मणीपुर आदि इसी तीर्थ के नाम है, जो यहाँ पर अस्त व्यस्त पड़े पत्थरों से जाने जा सकते हैं। लक्ष्मणी का पुनरुद्धार एवं प्रसिद्धि
पूर्व लिखित पत्रों से यह मालूम होता है कि यहाँ पर भिलाले के खेत में से चौदह प्रतिमाएँ प्राप्त हुई तथा श्री अलिराजपुर नरेश श्री प्रतापसिंहजी ने वे प्रतिमाएँ तत्रस्थ श्री जैन श्वेतांबर संघ को अर्पित की। श्री संघ का विचार था कि ये प्रतिमाएँ अलिराजपुर लाई जायें, परन्तु नरेश के अभिप्राय से वहीं मंदिर बंधवा कर मूर्तियों को स्थापित करने का विचार किया, जिससे उस स्थान का ऐतिहासिक महत्व प्रसिद्ध हो।
उस समय श्रीमद् उपाध्यायजी श्री यतीन्द्र विजयजी-आचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज वहाँ बिराज रहे थे। उनके
सदुपदेश से नरेश लक्ष्मणी के लिए-मंदिर, कुआँ, बगीचा, खेत आदि के निमित्त पूर्व-पश्चिम ५११ फीट और उत्तर-दक्षिण ६११ फीट भूमि श्री संघ को बिना मूल्य भेंट स्वरूप प्रदान की और आजीवन मंदिर खर्च के लिए इकहत्तर रुपए प्रतिवर्ष देते रहना और स्वीकृत किया।
महाराजश्री का सदुपदेश, नरेश की प्रभुभक्ति एवं श्रीसंघ का उत्साह-इस प्रकार के भावना-त्रिवेणी संगम से कुछ ही दिनों में भव्य त्रिशिखरी प्रासाद बन कर तैयार हो गया। अलिराजपुर, कुक्षी, बाग, टांडा आदि आस-पास के गांवों के सद्गृहस्थों ने भी लक्ष्मी का सद्व्यय करके विशाल धर्मशाला, उपाश्रय
ऑफिस, कुआँ, बावड़ी आदि बनवाये एवं वहाँ की सुंदरता विशेष विकसित करने के लिए एक बगीचा भी बनवाया; उसमें गुलाब, मोगरा, चमेली, आम आदि विविध पेड़-पौधे भी लगवाये। ___ इस प्रकार जो एक समय अज्ञात तीर्थस्थल था वह पुनः उद्धरित होकर लोक-प्रसिद्ध हुआ।
मिट्टी के टीले की खुदाई में प्राचीन समय के बर्तन आदि बहुत ही ऐतिहासिक वस्तुएँ भी प्राप्त हुई। बगीचे के निकटवर्ती खेत में से मंदिरों के चार पाँच प्राचीन पब्बासन भी प्राप्त हुए हैं। प्रतिष्ठाकार्य
पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज-जो उस समय उपाध्यायजी थे-ने वि.सं. १९९४ मार्गशीर्ष शुक्ला १० को अष्ट दिनावधि अष्टाह्निका महोत्सव के साथ बड़े ही हर्षोत्साह से शुभ लग्नांश में नवनिर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा की। तीर्थाधिपति श्री पद्मप्रभ स्वामीजी गादीनशीन किये गये और अन्य प्रतिमाएँ भी यथास्थान प्रतिष्ठित की गई। प्रतिष्ठा के दिन नरेश ने दो हजार एक रुपये मंदिर को भेंट स्वरूप प्रदान किये और मंदिर की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। सचमुच सर प्रतापसिंह नरेश की प्रभुभक्ति एवं तीर्थ प्रेम सराहनीय है।
प्रतिष्ठा के समय मंदिर के मुख्य द्वार-गर्भगृह के दाहिनी ओर एक शिलालेख संगमरमर के प्रस्तर पर उत्कीर्ण किया गया। वह इस प्रकार है
श्री लक्ष्मणी तीर्थ प्रतिष्ठा प्रशस्ति-- तीर्थाधिप श्री पद्मप्रभस्वामी जिनेश्वरेभ्यो नमः ।
श्री विक्रमीय निधि वसुनन्देन्दुतमे वत्सरे कातिकाऽसिताsमावस्यायां शनिवासरेऽति प्राचीने श्री लक्ष्मणी-जैन-महातीर्थे बालु किरातस्य क्षेत्रतः श्री पद्मप्रभजिनादि तीर्थेश्वराणामनुपम प्रभावशालिन्योऽतिसुन्दरतमाश्चतुर्दश प्रतिमाः प्रादुरभवन् । तत्पूजार्थ प्रतिवर्ष मेकसप्तति रूप्यक संप्रदानयुतं श्री जिनालय धर्मशालाss रामादि निर्माणार्थं श्वेतांबर जैन श्री संघस्याऽलिराजपुराधिपतिना राष्ट्रकूट वंशीयेन के. सी. आई. ई. इत्युपाधिधारिणा सर प्रतापसिंह बहादुर भूपतिना पूर्व-पश्चिमे ५११ दक्षिनोत्तरे ६११ फूट परिमितं भूमिसमर्पणं व्याधायि, तीर्थ रक्षार्थमेकं सुभटं (पुलिस) नियोजितञ्च ।
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तत्राऽलीराजपुर निवासिना श्वेतांबर जैन संघेन धर्मशालाss राम कृपद्वय समन्वितं पुरातन जिनालयस्य जीर्णोद्धारमकारयत् । प्रतिष्ठा चास्य वेदनिधिनन्देन्दुतमे विक्रमादित्य वत्सरे मार्गशीर्ष शुक्ला दशम्यां चन्द्रवासरेऽतिबलवत्तरे शुभलग्न नवांशेऽष्टाह्निक महोत्सवैः सहाऽऽलीराजपुर जैन श्री संघेनैव सूरिशकचऋतिलकाय मानानां श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छावतंसकानां विश्वपूज्यानामाबालब्रह्मचारिणां प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वराणामन्तेवासीनां व्याख्यान वाचस्पति महोपाध्याय बिरुदधारिणां श्रीमद्यतीन्द्र विजय मुनि पुङ्गवानां करकमलेन कारयत् ।।
इस प्रकार लक्ष्मणी तीर्थ पुनः उद्धरित हुआ। इस तीर्थ के उद्धार का संपूर्ण श्रेय श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को ही है। लक्ष्मणी तीर्थ का वर्तमान रूप
यह तो अनुभव सिद्ध बात है कि जहाँ जैसी हवा एवं जैसा खानपान व वातावरण होता है वहाँ रहने वाले का स्वास्थ्य भी उसी के अनुसार होता है। आधुनिक वैद्य एवं डॉक्टरों का भी यही अभिप्राय है कि जहां का हवापानी एवं वातावरण शुद्ध होता है। वहाँ पर रहने वाले लोग प्रसन्न रहते हैं।
लक्ष्मणी तीर्थ यद्यपि पहाड़ी पर नहीं है। फिर भी वहाँ की हवा इतनी मधुर, शीतल और सुहावनी है कि वहाँ से हटने का दिल ही नहीं होता। वहाँ का पानी पाचन शक्ति बर्धक है; इसलिए वहाँ रहने वाले का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।
इस समय तीर्थ की स्थिति बहुत अच्छी है। आवास, निवास और भोजन की सुविधा वहाँ उपलब्ध है। विशाल धर्मशाला है और भोजनशाला भी है। यहाँ पर पूज्य श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज-गुरु मंदिर है और पावापुरी जलमंदिर की
संगमरमर प्रस्तर प्रतिकृति भी बनाई गई है। इसके अलावा श्रीपाल और मयणासुंदरी के जीवन प्रसंगों पर आधारित भित्ति पट्ट भी तैयार किये गये हैं; जो दर्शनीय हैं।
लक्ष्मणीजी जाने के लिए दाहोद रेल्वे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। दाहोद स्टेशन पश्चिम रेल्वे के बंबई-दिल्ली मार्ग पर स्थित है। दाहोद से अलिराजपुर के लिए बस-सेवा उपलब्ध है। अलिराजपुर से लक्ष्मणी के लिए भी बस सेवा उपलब्ध है। लक्ष्मणीजी तीर्थ में भी बिछौने-बर्तन आदि सब साधन यात्रियों के लिए उपलब्ध हैं।
पूज्यपाद श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज द्वारा उद्धरित लक्ष्मणी तीर्थ आज एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थान बन गया है।
यहां पर जो गुरु मंदिर बनाया गया उसके निर्माण में अलीराजपुर की श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की शाखा ने सराहनीय सहयोग दिया। परिषद के सदस्यों ने बड़ी मेहनत उठाई। उसी प्रकार श्री पन्नालालजी, श्री भूरालालजी, श्री जिनेंद्रकुमारजी, श्री कुंदनलाल काकडीवाला, श्री जयंतीलालजी श्री नथमलजी, श्री ओच्छवलालजी तथा श्री सुभाषचन्द्रजी आदि अलीराजपुर निवासियों का इस तीर्थ के प्रति लगनशील उत्साह है। तीर्थ व्यवस्था एवं देखभाल के लिए ये लोग समय समय पर तीर्थ की यात्रा करते रहते हैं।
इसी लक्ष्मणी तीर्थ में श्री अखिल भारतीय राजेन्द्र जैन नवयुवक परिपद का दसवां अधिवेशन बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में देश के कोने कोने से सैकड़ों प्रतिनिधियों ने भाग लिया था ।
सांडेराव के जिनमंदिर
वैद्यराज चुनीलाल
२. श्री आदिजिन मंदिर ___ संवत् १९७३ में उपाध्यायजी श्री मोहनविजयजी महाराज के उपदेश से यहां के वांकली वास में शाह मोतीजी वरदाजी फालनीया के परिवार द्वारा श्री आदि जिन प्रसाद का महर्त हआ था। संवत १९८८ में माघ सुदी ६ के दिन शा. गणेशमलजी जवेरचन्दजी गुलाबचन्दजी के श्रेयार्थ जवेरचन्दजी के दत्तकपुत्र श्री ताराचन्दजी और उनकी माता हांसीबाई द्वारा इस मंदिर की प्रतिष्ठा की गई और ध्वजदण्ड चढ़ाया गया।
सांडेराव एक प्राचीन नगर है और फालना रेल्वे स्टेशन से छह मील की दूरी पर स्थित है। सांडेराव का प्राचीन नाम संडेरक नगर है। संडेरगच्छ की स्थापना यहीं पर हई थी। यहां त्रिस्ततिक संप्रदाय के तीस घर हैं और राजेन्द्र भवन नामक उपाश्रय भी है। १. श्री शांतिनाथ जिन मंदिर
इस मंदिर में पहले भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी। लगभग एक हजार वर्ष पहले परम प्रभावक तपस्वी श्री यशोभद्रसूरीजी महाराज ने यह प्रतिमा जीर्ण हो जाने के कारण इसे उत्थापित कर इसकी जगह भगवान महावीर की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। पर यह प्रतिमा भी जीर्ण हो जाने के कारण लगभग पांच सौ साल पहले इसकी जगह पर मूल नायक श्री शांतिनाथ भगवान की मति प्रतिष्ठित की गई थी।
यह मंदिर जमीन की सतह से छह फीट नीचे है और वर्षा का सब पानी जमीन के अंदर ही निकालने की चमत्कारिक व्यवस्था है। इस मंदिर के अधिष्ठायक श्री माणिभद्रजी का यहां बड़ा प्रभाव है। कई यात्री यहां यात्रार्थ आते रहते हैं ।
करीब पन्द्रह साल पहले शा. प्रतापमलजी जसाजी फालनीया के श्रेयार्थ उनके दत्तक पुत्र श्री केसरीमलजी ने एक विगढ़ युक्त चवरी बनाई है उसमें बीच में श्री पार्श्वनाथ भगवान के बिंब की ओर दो जिनबिब स्थापित किये जायेंगे।
मंदिर के पीछे के बगीचे में शाह बरदीचन्दजी मियाचन्दजी थाणे की पावड़ीवालों ने समवसरण बनवाया है वहां श्री ऋषभदेव भगवान की पादुकाएं स्थापित की जायेगी।
बी.नि.सं. २५०३
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जैसलमेर के जैन मंदिर एवं उनकी कलात्मक समृद्धि
विजयशंकर श्रीवास्तव
मरुस्थल की गोद में बसा एवं राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी सम्भाग में प्रहरी रूप में अवस्थित जैसलमेर प्राचीन समय से ही जैन धर्म एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है। यहां के विशाल जैन ग्रंथ-भण्डार, कलात्मक जैन मंदिर एवं उनमें उत्कीर्ण एवं सुरक्षित असंख्य प्रस्तर एवं धातु मूर्तियां हमारे देश की कलात्मक निधियां हैं। विभिन्न जैन आचार्यों, श्रावक-श्राविकाओं एवं श्रेष्ठि-वर्ग ने जैसलमेर को जैन संस्कृति के प्रमुख गढ़ के रूप में प्रतिष्ठित कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यद्यपि जैसलमेर के भाटी राजवंश की आस्था हिन्दू धर्म में थी, परन्तु उन्होंने जैन धर्म, कला एवं संस्कृति के विकास तथा प्रसार में सदा धार्मिक सहिष्णुता एवं सहृदयता का परिचय दिया।
१२ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जैसलमेर नगर की स्थापना के पूर्व शहर से लगभग १६ किलोमीटर दूरस्थ लोद्रवा या लोद्रपुर इस राज्य की राजधानी थी। यहां का भगवान पार्श्वनाथ का मंदिरजैसलमेर परिसर का प्राचीनतम जैन मंदिर है। यह अपनी प्राचीनता एवं कलात्मक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। मूलतः इस मंदिर का निर्माण ११ वीं शताब्दी में हुआ प्रतीत होता है । गर्भगृह का द्वारखंड, सभा मण्डप के स्तम्भ एवं वाह्य तोरण-द्वार तथा अन्य कुछ संभाग अद्यावधि अधिकांश रूप में अपने मूलस्वरूप में विद्यमान हैं। परम्परानुसार इस मंदिर का निर्माण वि. सं. १०९१ में सागर के पुत्र श्रीधर व राजधर ने करवाया और उसकी प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा सम्पन्न हुई। मोहम्मद गोरी जैसे आक्रांताओं का कोपभाजन लोद्रवा को होना पड़ा जिसके परिणामस्वरूप इस मंदिर को पर्याप्त क्षति पहुंची । कालान्तर में १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भणशाली गोत्रीय खीमसिंह और उनके पुत्र पूनसिंह ने मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रयत्न किया परन्तु आशातीत सफलता न मिली, अतः पूनसिंह के पुत्र सेठ थाहरूशाह ने इस मंदिर की प्राचीन नीबों पर विशालस्तर पर निर्माण कार्य करा वर्तमान मंदिर निर्मित किया। कसौटी पत्थर की श्यामवर्णी सहस्रफणी श्री
चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित हुई जिसका परिसर श्वेत संगमरमर विनिर्मित है। उसकी चरणचौकी पर उत्कीर्ण लेख से विदित होता है कि थाहरूशाह ने अपनी पत्नी व पुत्रों सहित इस मूर्ति का निर्माण करा आचार्य श्री जिनराजसूरि द्वारा उसकी प्रतिष्ठा वि. सं. १६७५ मार्गशीर्ष सुदी १२ गुरुवार को करवाया। ये आचार्य श्री खरतरगच्छ के प्रमुख आचार्य थे।
इस मन्दिर के बाह्य एवं आभ्यन्तर संभागों पर उकेरी हुई मूर्तियां प्राचीनता की द्योतक हैं तथा शिल्पकारों के कुशल तक्षणकला की परिचायक हैं। मन्दिर का अलंकृत तोरण-द्वार विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके दोनों स्तंभ लगभग हजार वर्ष पुराने हैं जैसा कि उन पर उकेरी गई मूर्तियों से सुस्पष्ट है। पुराने स्तम्भों पर १७ वीं शताब्दी में थाहरूशाह ने कलात्मक तोरण बनवाया जिसके मध्यवर्ती भाग में आसनस्थ तीर्थंकर विराजमान हैं। मंदिर के प्रांगण के चारों कोनों में अपनी पत्नी, पुत्रों व पौत्रों के पुण्यार्थ वि.सं.१६९३ में थाहरूशाह ने लघु जिनालय बनवाए जिनमें आदिनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ एवं चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं आचार्य जिनराजसूरि द्वारा वि. सं. १६७५ में प्रधान मंदिर की प्रतिष्ठा के साथ ही पधराई गयीं। निकट में ही अष्टापदजी के भाव की विशालकाय एवं धातु-विनिर्मित कलात्मक कल्पवृक्ष बना हुआ है। मूल मंदिर के सभामंडप में सहजकीर्तिगणि नामक जैन विद्वान विरचित शतदल पद्म यंत्र की प्रशस्ति का अभिलेख लगा हुआ है जो मंदिर की प्रतिष्ठा के समय वि. सं. १६७५ में रचा गया था। अलंकार शास्त्र की इस अपूर्व प्रशस्ति में शाहरूशाह और उनके पूर्वजों का गुणगान किया गया है। लोद्रवा के जैन मंदिर में प्रस्तर व धातु की अनेक मूर्तियां विद्यमान हैं। मकराने की गणपति मूर्ति के लेख से ज्ञात होता है कि वि. सं. १३३७ में समस्त गोष्ठिका के आदेश पर पं. पद्मचन्द्र ने अजमेर दुर्ग में जाकर सच्चिका व गणपति सहित जिन-बिम्ब निर्मित कराया।
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मुस्लिम आक्रांताओं के अनवरत आक्रमण के कारण लोद्रवा को असुरक्षित समझकर, भाटी जैसल द्वारा जैसलमेर नगर की स्थापना वि. सं. १२३४ के लगभग हुई। नगर व दुर्ग का निर्माण कार्य उनके पुत्र शालिवाहन के समय भी चलता रहा। प्रारम्भ से ही जैसलमेर का जैन-धर्म से प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो गया । 'खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली' में वि. सं. १२४४ के वर्णन में अन्य नगरों के साथ जैसलमेर का भी उल्लेख है जैसलमेर भंडार में सुरक्षित पूर्णभद्र द्वारा वि. सं. १२८५ में रचित 'धन्यशाली भद्र चरित' (हस्तलिखित ग्रंथ सं. २७०) में भी जैसलमेर दुर्ग का जैन धर्म से सम्बन्ध सिद्ध है। जब वि. सं. १३४० में आचार्य जिन प्रबोध सूरि का आगमन जैसलमेर हुआ तो तत्कालीन भाटी-नरेश कर्णदेव अपने उच्चाधिकारियों, सेना व परिवार सहित उनके स्वागत को गये और राज्य में चातुर्मास व्यतीत करने का आग्रह किया। आचार्य श्री ने लोगों को दीक्षा दी। इसी प्रकार वि. सं. १३५६ में राजाधिराज जैत्रसिंह ने आचार्य जिनचन्द्रसूरि के आगमन पर स्वयं जाकर उनका स्वागत किया और अगले वर्ष बड़े उत्साह के साथ मालारोपण उत्सव सम्पन्न हुआ । वि. सं. १३५८ में तोला ने अनेक जिन-प्रतिमाओं को प्रतिष्ठापित कराया। जैसलमेर खरतरगच्छ का प्रधान केन्द्र बन गया ।
जैसलमेर दुर्ग के जैन मंदिर धार्मिक प्रवणता एवं कलात्मकता की निधि है । वि. सं. १२७५ में लिखित 'दश श्रावक चरित' की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जैसलमेर दुर्ग में पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण क्षेमेन्द्र के पुत्र जगधर द्वारा कराया गया। दुर्ग में आठ जैन मंदिर हैं जो १५ वी, १६ वीं शताब्दी की अनुपम कलाकृतियां हैं । १५-१६ वीं शताब्दी में मंदिर निर्माण का जो पुनर्जागरण राजस्थान व गुजरात परिसर में हुआ उसमें जैसलमेर के इन मंदिरों का विशिष्ट योगदान है। नागर शैली में विनिर्मित शिखरबद्ध ये मंदिर अपनी कलात्मक समृद्धि एवं मूर्तियों की भावभंगिमा की दृष्टि से मनमोहक हैं । मरुस्थली की गोद में एक ही शताब्दी में एक के बाद एक क्रमशः बने ये मंदिर - जैसलमेर की समृद्ध कलात्मक एवं स्थापत्य परम्परा के निदर्शक हैं ।
इनमें ५२ जिनालयों से युक्त चिन्तामणि पार्श्वनाथ का पीतवर्णी पाषाण विनिर्मित मंदिर प्राचीनतम एवं प्रमुख है। ऐसा भास होता है कि अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय इस प्राचीन मंदिर को पर्याप्त क्षति हुई अतः १५ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में पुरानी नींव पर वर्तमान मंदिर का निर्माण हुआ । इस मंदिर की नींव खरतरगच्छ के आचार्य जिनराजसूरि के उपदेश से श्री सागरचन्द्र सूरि ने वि. सं. १४५९ में डाली थी और चौदह वर्षों तक मंदिर का निर्माण कार्य निरन्तर चलता रहा। फलतः वि. सं. १४७३ में जिनवर्द्धन सूरि द्वारा मंदिर की प्रतिष्ठा की गयी। इस भव्य मंदिर के निर्माण का श्रेय ओसवाल वंशीय रांका गोत्र के श्रेष्ठि जयसिंह तथा नरसिंह को है। मंदिर में लगी दो प्रतियो हैं जिनमें इस मंदिर को बरतरासाद चूड़ामणि व 'लक्ष्मणविहार' की संज्ञा दी गई है । इसे 'वास्तु विद्या के
बी. नि. सं. २५०३
अनुसार निर्मित कहा गया है। तत्कालीन भाटी नरेश लक्ष्मणसिंह के नाम पर मंदिर का नामकरण 'लक्ष्मण विहार' कर- जैसलमेर के जैन समुदाय ने अपनी निष्ठा एवं श्रद्धा अभिव्यक्त की है। मूलनायक के रूप में भगवान पार्श्वनाथ की भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित है जो लोद्रवा से लाई गई है । संरचना की दृष्टि से मंदिर में सुन्दर तोरण, अपि मूलप्रसाद तथा ५२ जिनालय हैं। स्तंभ व वितान की कारीगरी उल्लेखनीय है । गर्भगृह के बाहर एक ओर जैसलमेर के पीले पत्थर से बनी सागरचन्द्राचार्य की हाथ जोड़े मूर्ति जड़ी हुई है जिनकी प्रेरणा से इस मंदिर का समारम्भ हुआ था । वि. सं. १५१८ में बनी शत्रुंजय, गिरनार एवं गंदीवर पट्टिका महत्वपूर्ण है। मंदिर का तोरणद्वार सुन्दर कलाकृति है।
संभवनाथ मंदिर अपने विशाल जैन ग्रंथ भण्डार के लिए संसार प्रसिद्ध है। जिन भद्रसूरिजी के उपदेश से चोपड़ा गोत्रीय सा. हेमराज पूना आदि ने मंदिर वि. सं. १४९४ में प्रारम्भ कराया जिसे कुशल कारीगरों ने तीन वर्षों में सम्पूर्ण किया । वि. सं. १४९७ में आचार्य मिनभरि द्वारा इस मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े समारोहपूर्वक की गयी, जिसमें महारावल वैरिशाल स्वयं उपस्थित रहे। आचार्य श्री ने इस अवसर पर ३०० मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। इस मंदिर में पीले पाषाण पर खुदी हुई तपपट्टिका (२ फीट १० इंच x १ फुट १० इंच ) सुरक्षित है जिसे वि. सं. १५०५ में शंखवाल गोत्रीय श्रेष्ठि षेता ने बनवाया । इसमें बाएं तरफ २४ तीर्थंकरों के चार कल्याणक तिथियां (च्यवन, जन्म, दीक्षा एवं ज्ञान ) तथा दाएं ओर तप के कोठे बने हैं । नीचे के भाग में उद्योतनसूरि से जिनभद्रसूरि तक खरतरगच्छ के आचार्यों की नामावली अंकित है। आबू पर्वत में भी ऐसी तपपट्टिका विद्यमान है। मंदिर के रंगमंडप की छत (वितान) और उसमें उकेरी मूर्तियां ( Bracket - Figures ) भव्य एवं मनमोहक है। मंदिर के प्रवेश की दोनों ओर कृत्रिम गवाओं ( False Window- Screens ) को जैन अष्ट मांगलिक चिन्हों से समलंकृत कर कलाकार ने अपने सौन्दर्य-बोध को मूर्त रूप प्रदान किया है। इस मंदिर की एक सपरिकर मूर्ति (नाहटा बीकानेर जैन लेख संग्रह, अभिलेख संख्या २७०१, पृ. ३८४) का निर्माता कलाकार सूत्रधार सांगण था जिसने वि. सं. १५१८ में उसे निर्मित किया ।
शीतलनाथजी के मंदिर का निर्माण डागा गोत्रीय लूणसाभणसा ने वि. सं. १५०९ में कराया था। इस मंदिर के श्वेत संगमरमर के जिनेन्द्र-पट्ट पर चतुविशति तीर्थंकरों का अंकन है तथा एक अन्य पट्टिका पर शत्रुंजय गिरनार के तीर्थों का भव्य लक्षण विद्यमान है। चंद्रप्रभस्वामी का मंदिर तिमंजना है जिसके प्रत्येक तले में चौमुखी प्रतिमा प्रतिष्ठित है। गर्भगृह की प्रधान मूलनायक प्रतिमा आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की है जिसकी चरण-चौकी पर उलेख के अनुसार निरि ने वि. सं. १५०९ में उसकी प्रतिष्ठा की थी। इसे भणसाली गोत्रीय सा. वीदा ने बनवाया था । स्थापत्य की दृष्टि से
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चन्द्रप्रभस्वामी का यह मंदिर महत्वपूर्ण है-उसमें प्रभूत अलंकरण व कारीगरी विद्यमान है। उसकी छत (वितान) भी समलंत है । संरचना की दृष्टि से यह मंदिर सुप्रसिद्ध राणकपुर के चौमुखा मंदिर का लघु-प्रतिति प्रतीत होता है। गर्भगृह के द्वारखण्ड पर देवी प्रतिमाएं बनी हैं जिनके निर्माता कलाकार सूत्रधार लषाधीरा तथा परबत सूरा थे । अर्द्धमंडप की स्थानक शिव तथा नर्तन करती रमणी का निर्माता सूरा तथा स्थानक चतुर्बाहु कुबेर प्रतिमा का कलाकार धीरा थे । ये निश्चयतः जैसलमेर के प्रमुख शिल्पी रहे होंगे । ऋषभदेव के मंदिर का निर्माण गणधर चोपडा गोत्रीय सा. सच्चा के पुत्र धन्ना ने महारावल देवीदास के राजत्व में वि.सं. १५३६ में कराया। इस मंदिर के वाह्य वेदीबंध पर आसनस्थ पार्वती की मूर्ति बनी है जिसे सूत्रधार लक्ष्मण ने बनाया था। इस मंदिर में धातुप्रतिमाओं का भी विशाल संग्रह है जो ११ वी से १६ वीं शताब्दी की हैं। इस मंदिर के चौभूमिये के तोरण पर वि. सं. १५३६ का लेख है जिसका सूत्रधार देवदास (नाहटा-बीकानेर लेख संग्रह, लेखांक २७३८, पृ. ३८८) था। महावीर स्वामी का मंदिर
ओसवाल-वंश के वरडिया गोत्रीय सा. दीपा द्वारा वि. सं. १४७३ में निर्मित कराया गया। यह मंदिर साधारण एवं सादगी लिए
कराई जो आज भी विद्यमान है। प्रशस्ति में इस मन्दिर को 'उतांग तारण जैन प्रासाद' तथा 'बिभूमिक अष्टापद महातीर्थ प्रासाद' कहा गया है । लेख में विष्णु के दशावतार सहित लक्ष्मीनारायण की मूर्ति निर्मित होने का भी उल्लेख है। हिन्दू विग्रह की मूर्ति की जैन मंदिर में स्थापना-धार्मिक सहिष्णुता का अन्यतम उदाहरण है। यह सफेद संगमरमर में बनी मूर्ति मंदिर के प्रांगण में आज भी विद्यमान है। इसमें प्रधान मूर्ति के रूप में लक्ष्मीनारायण का अंकन है तथा निचले भाग में वराह व नृसिंह अवतार अंकित है। ऊपरी संभाग में दाएं कोने में खड्गधारी व अश्वारोही अचुप्ता देवी तथा बाएं कोने में आसनस्थ तीर्थंकर बने हैं। कुंथुनाथजी के मंदिर के बाह्य मंडोवर पर जो विभिन्न मुद्राओं में सुन्दर मदनिकाएं (कंदुक क्रीड़ा, सिंह युद्धरत आदि) उत्कीर्ण हैं-उनका कलाकार सूत्रधार भोजा है। शान्तिनाथ मंदिर के विभिन्न मंडपों के वितान एवं संवरणा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आदिनाथ मंदिर का निर्माण भी शांतिनाथ मंदिर के साथ उसी वर्ष में हुआ।
जैसलमेर शहर में भी अनेक जैन मंदिर, देरासर, उपासरे व ग्रंथ भण्डार हैं परन्तु शहर से लगभग ६ किलोमीटर दूरस्थ एवं अमर सागर पर स्थित तीन जैन मंदिर-यद्यपि अधिक पुराने नहीं हैं परन्तु अपनी उत्कृष्ट कला के कारण वे निस्संदेह विशाल मरुभूमि में शिल्प' की अनुपम निधियां हैं । इन तीनों मंदिरों में मूलनायक के रूप में आदीश्वर भगवान प्रतिष्ठित हैं और ये मन्दिर १९ वीं शताब्दी के परिष्कृत मंदिर-स्थापत्य कला के उल्लेखनीय उदाहरण हैं । एक मन्दिर पंचायत द्वारा वि. सं. १९०३ में महारावल रणजीतसिंह के समय बना । अन्य दो मंदिरों के निर्माण का श्रेय जैसलमेर के सुविख्यात बापना जाति के सेठों को है जिनकी पटवों की हवेलियां अपने जाली व झरोखों के लिए प्रसिद्ध हैं। छोटा मंदिर बापना सवाईराम ने वि. सं. १८७० में तथा बड़ा मंदिर बापना हिम्मतराम ने वि. सं. १९२९ में निर्मित कराया। इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के आचार्य जिनमहेन्द्र सूरि ने की। छज्जों और गवाक्षों की कारीगरी की छटा अनुपम है तथा मंदिर में जन-जीवन की झांकी प्रस्तुत करने वाली मूर्तियां १९ वीं शताब्दी की राजस्थानी शिल्पकला की अन्यतम निधियां हैं जो जैसलमेर की कलात्मक समृद्धि की निदर्शक हैं।
जैसलमेर दुर्ग में एक ही प्रांगण में विनिर्मित शांतिनाथ एवं अष्टापदजी के मन्दिर उत्कृष्ट कला के उदाहरण हैं । ये द्विभूमिक प्रासाद हैं । ऊपर के भाग में शान्तिनाथ एवं नीचे के अष्टापद मन्दिर में १७ वें तीर्थकर कुंथुनाथ प्रतिष्ठित हैं । इन दोनों मंदिरों की एक ही प्रशस्ति है जो राजस्थानी में है। इससे ज्ञात होता है कि जैसलमेर के दो श्रेष्ठि संखवालेचा गोत्रीय पेता तथा चोपड़ा गोत्रीय पांचा-जिनके मध्य वैवाहिक सम्बन्ध था-ने मिलकर इन मंदिरों का निर्माण करा वि सं. १५३६ में उसकी प्रतिण्ठा खरतरगच्छ आचार्य जिनसमुद्र सूरि द्वारा करवाई। संघवी घेता ने सकुटुम्ब शत्रुजय, गिरनार, आबू आदि तीर्थों की कई बार यात्रा की थी, और संभवनाथ मंदिर की सुप्रसिद्ध तपपट्टिका की प्रतिष्ठा कराई थी। उनके पुत्र संघवी वीदा ने मन्दिर में प्रशस्ति लगवाई तथा वि. सं. १५८० में अपने माता-पिता सरसती तथा सं. षेता की धातु-मूर्तियां पाषाण के हाथी पर मंदिर के प्रांगण में प्रतिष्ठित
जिस प्रकार आधा भरा हुआ घड़ा झलकता है, भरा हुआ नहीं; कांसे की थाली रणकार शब्द करती है, स्वर्ण की नहीं; और गदहा रेंकता है, घोड़ा नहीं; इसी प्रकार दुष्ट स्वभावी दुर्जन थोड़ा भी गुण पाकर ऐंठने लगते हैं और अपनी स्वल्प बुद्धि के कारण सारी जनता को मूर्ख समझने लगते हैं।
-राजेन्द्र सरि
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चित्र और संभूति
दो भाई जो कि दोनों एक-दूसरे से अति सुन्दर सूरत, शकल से मिलते-जुलते, कद में एक समान, वाणी जिनकी बहुत मृदु, सरल, और मनभावन है । हस्तिनापुर के बीच चौक में जनता का जमाव इनके चारों तरफ जम रहा है, भीड़ भी जम रही है । इनके सुमधुर गीत के झंकार से सब लोग अपना कार्य छोड़छोड़ के यहां एकत्रित हो गये हैं । एक भाई मानो वीणा का स्वरूप ही है तब दूसरा वीणा के स्वर स्वरूप है ।
इस स्थान पर कई गवैयों के पहले रोचक गीत सुमधुर हुए हैं किन्तु इसकी वाणी में जो मिठास हृदयग्राहीना है उसने पिछले सब गवैयों को पीछे छोड़ दिया है। पुरुष, महिलाएं, बालकबालिकाएं सब इनकी ओर उमड़ पड़े हैं सबको मंत्रमुग्ध बना दिया है ।
यह समाचार राजदरबार और मंत्री तक पहुंचे। इनकी गीत कला की स्वर लहरी हस्तिनापुर के घर-घर में पहुंच गई, जनता ने इनका बड़ा आदर सत्कार किया । संगीत की माधुरी के साथ इनके स्वभाव की मधुरता ने जनहृदय में गहरी छाप जमा दी।
प्रतिदिन इनके अलग-अलग स्थानों पर कार्यक्रम योजित किये गये । एक दिन ऐसा भी आया कि हस्तिनापुर के महाराजा के सामने इनकी स्वर गंगा बही, महाराजा इनके सुमधुर गीतों को सुनकर मंत्र मुग्ध बन गये । इस दिन मंत्री बाहर गये हुए थे । राजदरबार में इनकी वाणी के झंकार ने सबको चमत्कृत कर दिया और यह निश्चय किया गया कि मंत्री के बाहर से आने के बाद एक वक्त पुन: महाराजा के सामने इस कार्यक्रम का आयोजन अच्छे रूप में दिया जाय ।
बी. नि. सं. २५०३
मुनि
राजमल लोहा
दो चार दिन बाद मंत्री जब बाहर से आये तब महाराजा ने इस कार्यक्रम को पुनः जमाने का आदेश दिया क्योंकि उस दिन की स्वर लहरी ने महाराजा के हृदय में अपना स्थान बना लिया था ।
कार्यक्रम का दिन निश्चित किया गया, हजारों जनता की मेदिनी उपस्थित थी। महाराजा, मंत्री, कर्मचारी भी अपने-अपने स्थानों पर बैठे हुए थे कि दोनों भाई अपनी वीणा लेकर राजदरबार में उपस्थित हो गये । उन्होंने अपना भजन कीर्तन शुरू किया जिसको सुनकर सब मुग्ध बन गये। मंत्री उन दोनों को बार-बार घूर घूर कर देख रहा था वह एक टक लगाये से था और सोच रहा था कि ये कौन हो सकते हैं? थोड़ी देर में उसने उनको पहिचान लिया कि ये दोनों चित्र और संभूति चाण्डाल के पुत्र हैं । मंत्री ने महाराजा से कहा कि ये चाण्डाल के बेटे हैं जल्दी ही जनता के कानों तक यह समाचार पहुंच गये । नगर निवासियों ने जान लिया कि ये दोनों कुमार कुलीन वंश के नहीं है एक चाण्डाल के लड़के हैं तो सबकी नजरों में गिर गये । जनता का प्रेम समुद्र की लहरों की तरह होता है एक समय मानव भेदिनी जिसके चरण धोती है वही किसी समय उसको घृणा की दृष्टि से देखने लगती है और किनारे के एक तरफ फेंक देती है।
जब पता चला कि चित्र और संभूति दोनों चाण्डाल हैं तो उनको मंत्री ने धुत्कार कर नगर से बाहर निकाल दिया । हस्तिनापुर की जनता मानो पाप का प्रायश्चित करती हो इस प्रकार इन दोनों भाइयों के सिर पर सितम की झड़ी लग गई । चाण्डाल के घर जन्म लेना यह उस जमाने में एक अक्षम्य अपराध माना जाता था ।
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चित्र और संभूति चाहे कितने ही सुशील और मधुर हों चाहे उनका स्वर कितना ही हृदयग्राही और आनन्दमयी क्यों न हो उनके सिर पर चाण्डाल के घर पर जन्म लेना उस समय मानव रूप में भी उनको मानने के लिये युग तैयार नहीं था। वे पशु से भी गये बीते माने जायेंगे, उनसे हर प्रकार का परहेज किया जाता था। यदि उनका जन्म किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वेश्य कुल में हुवा होता तो वे एक महाराजा से बढ़कर हमेशा के लिये जनता के स्नेह-श्रद्धा के भाजन बन जाते, यह अपराध एक ऐसा माना जाता कि कोई भी कलीन इसे माफ नहीं करता।
चित्र और संभूति को हस्तिनापुर से निकालने और धुत्कारने का सबसे पहला काम महाराजा के मंत्री नमूची ने किया । यदि नमूची ने यह रहस्य नहीं खोला होता तो चित्र और संभूति आदर प्राप्त करके जैसे आये थे वैसे वापिस चले जाते । उनके, सिर पर यह महान दुःख का पहाड़ नहीं आ पड़ता । किसी को भी यह शंका नहीं होती कि ऐसे उगते फूल जैसे कुमार चाण्डाल के कुल में पैदा हुए हैं।
दोनों भाइयों के चाण्डाल होने का रहस्य खोला और अपमान कर नगर से बाहर निकाला । ... दोनों भाई चाण्डाल कुल में जन्म लेते हुए भी संसार जिसको खानदानी कहता है वह इन दोनों भाइयों के खून में पाई जाती है । इसी से पिता की आज्ञा का उल्लंघन करके नमूची को जीवन दान दे दिया था। दोनों भाई इस भय से अपने घर न जाकर अज्ञातवास में चले गये। नमूची के कारण ही अपने माता-पिता की शीतल छाया को तिलांजलि दी । नमुची को बचाने के लिये गाँव-गाँव शहर-शहर भटकता भिक्षा के टुकड़ों पर जीवन यापन करना स्वीकार किया ।
नमूची ने यह रहस्य क्यों खोला ? नमूची तो हस्तिनापुर महाराजा का मंत्री था, उसको इन सुकुमार बालकों से क्या वेर था?
कुलीन कुल में भी चाण्डाल पैदा होते हैं । यह नमूची बुद्धिमान था कुलवान था किन्तु चारित्र से अतिशिथिल व भ्रष्ट मनुष्य था। यह काशी के महाराजा के यहां विश्वासपात्र था जब उसके काले कारनामों का पता काशी महाराजा को लगा तो उन्होंने उसको जल्लाद के सुपुर्द कर दिया और कहा कि मैं इसका मुंह नहीं देखना चाहता हूं तुम इसे जगत में ले जाओ और इसका काम तमाम कर दो।
यदि नमूची में थोड़ा भी खानदानी का अंश होता या कृतज्ञता होती तो वह कभी भी इन दो भाइयों को हेय स्थिति में उतारने की हिम्मत नहीं करता । चित्र और संभूती का तो इसके ऊपर इतना उपकार था कि यदि यह अपनी चमड़ी के जते बनाकर इनको पहिनाता तो भी इसको आनन्द प्राप्त होता।
हस्तिनापुर की तमाम जनता के एक दिन प्रिय और श्रद्धालु बने हुए दोनों भाई नमूची के कारण लोकनिदित घृणित बन गये । यहां तक कि कोई उन्हें एक समय रोटी तक खिलाने को तैयार नहीं । चित्र और संभूति दोनों निराश होकर हस्तिनापुर से निकलकर जंगल की ओर चल पड़े । दोनों भाई जंगल में बैठकर विचार करते हैं कि किसी भी बस्ती में अब अपने को आश्रय नहीं मिल सकता है, यदि कहीं स्थान मिल जाय और कुल की बात मालूम हो जाय तो पूरी जनता के कोप भाजन बन जायें जब इसमें कोई संशय नहीं है ऐसी स्थिति में अब अपने को कहां जाना, किसका आश्रय लेना, संपूर्ण विश्व के घोर अंधकार में अपने को डूबते हुए दोनों भाइयों ने देखा।
विचार विमग्न हो गये, अपने आपको कोसने लगे और इस घनघोर जंगल में हमेशा के लिये जीवन का अन्त करने में ही अपने आपको सुखी मानने लगे। जीवन का अन्त किस प्रकार किया जाय इसका उपाय सोच ही रहे थे कि एक घनघोर झाड़ी में एक तपस्वी मुनि को ध्यान करते हुए देखा । दोनों भाई तपस्वी शांत चित्त मुनि की ओर आगे बढ़े । मुनि के मुख मण्डल की तेजस्वता के दर्शन करते ही दोनों भाइयों के मुख पर वैसी ही प्रफुल्लता बह गई।
मुनिराज के पास पहुंचते ही जब उनके मस्तिष्क में यह बात आई कि हम चाण्डाल के पूत्र हैं. संसार में कहीं भी अच्छी जगह हमारा स्थान नहीं है उनके मुख मण्डल पर दीनता व मलिनता छा गई । दोनों भाई आपस में एक दूसरे का मुह देखने लगे । मुनिराज का ध्यान पूरा हुआ, उन्होंने दोनों कोमल जिज्ञासु नवयुवकों को देखा और कहा कि महानुभाव ! निर्भय रहो, हमारे यहां किसी का कोई ऊंच-नीच का भेद नहीं है। यहां आने का, पूछने का, वार्तालाप करने का कोई भेद-भाव नहीं तुमको चर्चा करने का पूर्ण अधिकार है ।
जल्लाद को इसके ऊपर दया आई और वह नमूची को अपने घर लाया और राजा से छिपाकर कितने ही दिन अपने घर में रक्खा । जिस जल्लाद ने इसको आश्रय दिया उसने उसके साथ भी अवांछनीय बर्ताव किया इससे जल्लाद को भी क्रोध आ गया और उसने भी अपने दो पुत्रों को आज्ञा दी कि इसको दूर जंगल में ले जाकर इसका शिरच्छेद कर दो ।
दोनों पुत्र पिता की आज्ञा मानकर नमची को लेकर जंगल में गये परन्तु विचार करने लगे कि यह नमूची हमारे घर में अतिथि रूप में रहा । इसने हमको विद्यादान दिया हमारे, साथ प्रेम का बर्ताव किया, अब हम इसका वध कैसे करें । उनका हाथ थम गया और दोनों भाई गहन विचार में पड़ गये व दोनों आपस में विचार करने लगे कि एक तरफ पिता की आज्ञा है और दूसरी ओर विद्यादान करने वाला गुरु है, हमें किस ओर अपना कदम बढ़ाना चाहिये, अन्त में उन्होंने नमूची को छोड़ दिया। ' नमूची वहाँ से रवाना हुआ और अपने बुद्धिबल से हस्तिनापुर महाराज का मंत्री बन गया, इसी मंत्री नमूची ने इन
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तपस्वी ध्यानी तो अपनी आत्म-शुद्धि में निमग्न रहते हैं, उनके सामने चाण्डाल या व्याधि की उपस्थिति कोई विघ्न करने वाली नहीं होती है । उस समय दोनों भाई अपने अन्तरंग में सोचते हैं कि इन महात्मा की वाणी बड़ी मीठी है। सबका कल्याण करने वाली है किन्तु जब इनको यह जानकारी मिलेगी कि हम दोनों चाण्डाल हैं, अस्पृश्य हैं, नीच कुल की सन्तान हैं, तो इनकी त्योरियां चढ़ जायगी, क्रोध की अग्नि ज्वाला प्रज्वलित हो जायगी । हमको तिरस्कृत कर देंगे इस प्रकार सोचते-सोचते कुछ संकोचकर हिम्मत करके एक भाई ने बड़े ही धीमे स्वर से बोला:
स्वामी नाथ ! हम चाण्डाल के पुत्र हैं हम आपकी शरण में कैसे आ सकते हैं ?
यह सुनते ही मुनिराज बड़ी ही गंभीर आकृति बनाकर मीठे शब्दों में बोले-क्या चाण्डाल मनुष्य नहीं होता है, क्या कुलीन जैसे-मिट्टी से इनका निर्माण नहीं हुआ है तथा इनको अपना आत्म कल्याण करने का अधिकार नहीं है, परमात्मा के नाम से ये कैसे वंचित रह सकते हैं, आओ यहां मेरे पास आओ और अपनी इस बात को भूल जाओतुम मेरे समान मनुष्य हो।
ऐसे मीठे वचन सनकर मन में संकोच होते हुए भी दोनों भाई मुनिराज के पास आकर बैठ गये और सोचने लगे, यह मानव इस लोक का प्राणी नहीं हो सकता, सचमुच यह तो देवताओं के संघ में से कोई मानव आकर यहां बैठ गया है ।।
चित्र और संभूति दोनों ने अपनी आत्मकथा मुनिराज को सुनाई, मुनिराज ने बड़े ही ध्यान से उनकी कथनी को सुना । कुशल वैद्य की तरह चित्र और संभूति को सान्त्वना प्रदान की, संसार के असंख्य दुःख-दर्द और भव-भव के बन्धनों से छुटकारा पाने का राजमार्ग बताया। ___ संसार और संसारियों के अनेक उपद्रव सहन करते हुए आत्मा को उच्च श्रेणी पर आरूढ करने का सद्भाग्य कोई विरले प्राणी को ही मिल सकता है । तुमको भाग्य से यह सुअवसर प्राप्त हुवा है। इसको हाथ से न जाने दो, अनन्तकाल के हिसाब से यह दु:ख और यह क्षणिक जीवन किस गिनती में है। वीरता से इस दु:ख और कष्ट का सामना करो, इस प्रकार संसार के सुख-दुःख को भी अपने दासानुदास जैसे बना दो।
चित्र और संभूति दोनों भाइयों को तपस्वी मुनिराज का यह उपदेश बहुत रुचिकर हुवा और उन्होंने उनके चरणों में अपना शीश नमाकर उद्धार करने की प्रार्थना की। मुनिराज ने उनको भगवती दीक्षा देकर उनका चाण्डालपने का मेल धो डाला । दोनों भाइयों ने अपनी इसी देह से पुनर्जन्म ले लिया । ___अब दोनों मुनिराज निर्भय रूप से तप चर्या करते हैं कहीं क्रोध, मान, माया लोभ की कलुषित हवा आत्मा को न लग जाय इसलिये जगत की घनघोर झाड़ियों में, गिरी कन्द
राओं में रात-दिन आत्म साधना करते हैं मास क्षमण की तपस्या करते हैं। महीने में एक समय नगर में आहार की आशा से आते हैं तमाम चिन्ता फिक्र छोड़ दी है आत्म नन्दी बन गये हैं ।
एक दिन मास क्षमण के मुनि संभूति आहार लेने के लिये हस्तिनापुर नगर में जा रहे हैं, उनके मुख से तपश्चर्यों की कांति झलक रही है जो भी इनको देखता वह नत मस्तक हो जाता है, नीची दृष्टि करके मनिराज जा रहे हैं कि सामने से नमूची मंत्री आ रहा है, उसने संभूति मुनि को देखा और पहिचान लिया, उसी समय विचार किया ओहो यही बह चाण्डाल है जो मुनि का वेश धारण करके जनता को अपने चंगुल में फंसाना चाहता है संसार के मनुष्यों को धोखा देना चाहता है, लूटना चाहता है, पीछे से आकर मनि का गला पकड़ा और कहने लगा साधु का वेश पहिन कर लोगों के साथ ठगी करता है, चला जा यहां से, ऐसे आक्रोश के वचन कहकर एक जोर का धक्का मारा, संभूति मुनि गिरते-गिरते बच गये।
उन्होंने अपने सामने नमूची को देखा, देखते ही उनकी आंखें लाल हो गई क्योंकि क्रोध और तप का बहुत पुराना सम्बन्ध है । तपस्वियों की आंखों में जब ज्वाला निकलती है तो इस ज्वाला ने क्या-क्या अनर्थ नहीं किये है, लम्बी तपश्चर्या के प्रभाव से संभूति मुनि को गुप्त शक्ति प्राप्त हो गई है वे नमूची के इस व्यवहार को सहन नहीं कर सके उन्होंने नमूची पर तेजी से तेश्या छोड़ी। नमूची जलने लगा इतना ही नहीं पूरे हस्तिना पुर में आग की ज्वालाएं धधकने लगी ऐसा आभास होने लगा। महाराजा के महल में जब ये समाचार पहुंचे तो सनत्कुमार चक्रवर्ती वहां दोड़े आये और हाथ जोड़कर तपस्वी मुनि से विनती करने लगे। महाराज आप तो ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, हमारे अपराधों को क्षमा करो।
इतने ही में चित्र मुनि वहां आ पहुंचे, उन्होंने संभूति मुनि की क्रोध ज्वाला के ऊपर शांत सुधारस के अमीका सिंचन किया, सबको शांत किया । नमूची भी अपने किये हुए का प्रायश्चित करने लगा और संभूति मुनि के चरणों में गिरकर अपने दुष्कृत्यों की क्षमा याचना करने लगा । चित्र मुनि ने सबको शांत किया और सब जगह सुखमय वातावरण फैल गया।
चित्र और संभूति मुनि जंगल में लौट गये और प्रतिदिन के कार्यक्रम में संलग्न हो गये । संभूति मुनि की आंखों के सामने नमूची का वही गला पकड़ने का दृश्य बार-बार घूमने लगा, उस दृश्य को वे भूलना चाहते हैं किन्तु भूला नहीं जाता है। मुनि अपने साधना मार्ग से ऐसे गिरे कि पुनः ऊपर नहीं उठ सके। पतन की भी परम्परा होती है इसलिये साधक मामूली रखपन से भी अपने आपको बहुत संभाल कर चलते हैं । साधना की सीढ़ी इतनी ही कोमल और चिकनी होती है कि एक वक्त फिसलने के बाद संभलना बहुत मुश्किल होता है और धीरे-धीरे नीचे ही आकर खड़ा हो जाता है।
वी.नि.सं. २५०३
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चित्र मुनि ने संभूति को बहुत समझाया और कहा कि किये हए पाप की आलोयणा लेकर एक समय फिर निर्मल हो जाओ, परन्तु प्राप्त की हुई लब्धि का मुनि को नशा चढ़ा गया है जिससे संभूति मुनि को चित्र मुनि की सलाह ने कोई असर नहीं किया।
दोनों मुनि आचार और व्रत का पालन एक समान करते हैं किन्तु दोनों की अन्तर दृष्टि अलग-अलग है । बाहर से दोनों एक पथ के पथिक दिखाई देते हैं परन्तु इनका दृष्टिकोण बदल गया है एक लोकोत्तर सुख प्राप्ति के नियम से तमाम व्रतों का आचरण करता है तो दूसरा लौकिक सुख की कामना से संयम के कष्ट सहन करता है।
जिस प्रकार दबी हुई अग्नि किसी भी दिन अपना स्वरूप प्रकट करती है उसी प्रकार संभूति के उपर वासनाओं ने अपना आधिपत्य जमाना शुरू किया। कुछ समय पश्चात् हजारों नागरिकों के साथ सनत्कुमार चक्रवर्ती अपनी सबसे सुन्दर रानी सुनन्दा सहित मुनि श्री संभूति के दर्शन वंदन करने आये।
संभूति मुनि जब रानी सुनन्दा को सुन्दर वस्त्रों सहित सुगंधित द्रव्यों से युक्त आंख में काजल, मस्तक पर लाल तिलक को देखा तो उनका संयम का किला उस दिन से धीरे-धीरे ढहने लगा। सुनन्दा ने मुनि का वंदन किया उस समय उसके बालों का सहज उनके चरणों में स्पर्श हो गया। इससे मुनि के जीवन का मन्थन करके बुद्धि का जो संचय किया था उसका भी उल्लंघन हो गया । वासना ने उग्ररूप धारण कर लिया और संभूति मुनि के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। उसी समय उन्होंने अपने मन में निश्चय किया कि यदि मेरे तप का प्रभाव हो तो मुझे इस भव में नहीं तो परभव में भी सुनन्दा जैसी स्त्री प्राप्त हो ।
इधर चित्र मुनि को जब इस बात की जानकारी हुई तो उनका हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने संभूति मुनि को बहुत समझाया की एक कांच के टुकड़े के लिये दुर्लभ तपश्चर्या का संयम रूप भण्डार क्यों लूटा देते हो। तुमने किस उच्च आशय से संयम मार्ग ग्रहण किया, किस आदर्श से आज तक संयम का पालन किया, तपश्चर्या से इन्द्रियों का निग्रह किया, अपने आप पर विजय प्राप्त की, अब पुन: आत्मा बुद्धि की ओर कदम बढ़ाओ, अपने आप पर विजय प्राप्त करो । संभूति मुनि के ऊपर चित्र मुनि के उपदेश का कोई असर नहीं हुवा और उन्होंने जो निश्चय किया उस पर अडिग रहे । मनुष्य के जिस समय जिस कर्म का उदय होता है उस समय उसकी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है और वह काम भी वैसा ही करने लग जाता है इसमें विजय प्राप्त करने वाले दुर्लभ प्राणी ही होते हैं।
इस निश्चय के परिणाम से संभूति मुनि दूसरे भव में कापिल्यपुर नगर में ब्रह्मदत्त नामक बारहवें चक्रवर्ती हुए। चित्र मुनि केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में गये।
दोनों भाइयों ने एक ही आशय से संयम अंगीकार किया, एक ही गुरु के उपदेश से मुनि दीक्षा अंगीकार की, दोनों ने समान रूप से तपश्चर्या की किन्तु उसका फल मनोभावना अलग-अलग होने से जुदा जुदा प्राप्त किया । संभूति मुनि दुर्लभ बोधि भावना के कारण अलग रास्ते चले गये और चित्र मुनि सुलभ बोधि भावना के कारण मोक्ष में चले गये।
वन्दन हो चित्र मुनि की भावना को ।
अपनी मति को सदैव वैराग्य-रस में ओत-प्रोत रखो, जिससे जन्म-मरण सम्बन्धी दुःख मिटता जाए और आत्मा सुखमय बनती जाए।
मिथ्यात्वी काले नाग से भी भयंकर है। काले नाग का जहर तो मन्त्र या औषधि द्वारा उतारा जा सकता है, किन्तु मिथ्यात्व-ग्रसित व्यक्ति की वासना कभी अलग नहीं की जा सकती।
-राजेन्द्र सूरि
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राजेन्द्र-ज्योति
षष्ठम खण्ड
0 आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन
0 परिषद् के प्रति शुभकामनाएँ
0 परिषद् : विविध कलम से
। परिषद् के उदीयमान लेखक
- परिषद् : बोलती तस्वीर
परिषद्-दर्शन
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0 "जिसका संगठन मजबूत है, वह बड़ी ताकत को भी जीत सकता
है, यह प्रायः सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है। वर्तमान के विषम समय में समाज का संगठन और भ्रातृत्व का निर्माण करने के लिए आज हमारे सम्मुख युग की आवाज है।
-यतीन्द्र सूरीश्वर : प्रथम अधिवेशन. वि. सं. २०१६
7 “परिषद् हमारे नवयुवकों के लिए धर्म का साधन है। जब तक
हमारा संगठन नहीं होगा, धार्मिक भावनाएँ नहीं आ सकेंगी।
-संघ-प्रमुख मुनिराज विद्याविजयजी;
चतुर्थ अधिवेशन, वि.सं २०१९
0 "वैसे सभी एक विचार-धारा के नहीं होते; फिर भी सभी से सहयोग
व सद्भावना रखते हुए परिषद् की भावना को साकार करने का लक्ष्य दृष्टि के सामने रखकर सकिय हो काम करें।
-वर्तमानाचार्य विजय विद्याचन्द्र सूरि;
नवम अधिवेशन, वि. सं.२०३१
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स्व. गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वर जी
म. सा. व्दारा परिषद् को प्रदत्त शुभाशीर्वाद
यग संगठन का है-प्रेम से भाई-भाई को गले लगाने का है, जिसका संगठन मजबूत है वह बड़ी ताकत को भी जीत सकता है, यह प्रायः सर्वत दृष्टिगोचर हो रहा है। वर्तमान के विषम समय में समाज का संगठन और भ्रातृत्व का निर्माण करने के लिये आज हमारे सम्मुख युग की आवाज है। यह जानकर अतीब प्रसन्नता हो रही है कि जिन क्षतियों की पूर्ति होना परम आवश्यक है उनकी पूर्ति हेतु समाज के नवयुवकों में नवचेतना प्रस्फुटित होकर कार्य करने की भावना जागृत हुई है। समाज संगठन के अतिरिक्त अन्य बातों की पूर्ति के लिये 'श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्' का संचालन धन्यवादाह है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह तन, मन, धन से सहयोग देकर समाज सेवा के महायज्ञ को सफल बनावें। परम योगी पूज्य गुरुदेव श्री के. पावन पुण्य प्रताप से परिषद् अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफलता पाप्त करे यही मेरी हार्दिक शुभकामना है।
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, पौष सूद ७ (गुरु सप्तमी) वि.सं. २०१६
वी. नि. सं. २५०३
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द्वितीय अधिवेशन, रतलाम के अवसर पर प्रेषित संदेश
होनहार नवयुवको ! आपके संघोन्नति कार्यों की सराहना करते हुए मैं आपसे यह आशा करता हूँ कि आप अपनी दृष्टि सर्व प्रथम धार्मिक शिक्षा प्रचार, समाज संगठन एवं समाज के मध्यमवर्ग की प्रगति पर केन्द्रित कर ठोस कार्यक्रम को ले कर आगे बढ़ायें । परिषद् का कार्य विशुद्ध सामाजिक है अतः आप प्रत्येक कार्यकरों के हृदय में मैं उस उत्साह को देखना चाहता हूँ कि जो स्थायी और संगठनात्मक हो । मेरे एक से अधिक अनुभव हैं कि समाजोन्नति के लिये जो संस्थायें स्थापित होती हैं और अपने उदयकाल में ही वे कार्यकर्ताओं के पारस्परिक अनैक्य और शिथिलता के कारण मृतप्रायः हो जाती हैं । अतएव आप अपने प्रत्येक कदम में स्थाइत्व लेकर चलिये, सफलता तुम्हारे साथ है। मैं संघस्थ प्रत्येक श्रावक-श्राविकाओं से आशा करता हूँ कि वे आपके प्रत्येक काम में आपको तन-मन-धन से सहयोग देकर समाजोन्नति के कार्य में हाथ बटावे । अन्त में मैं आप सभी परिषद् के कार्यकरों से यही चाहूँगा कि अपने सर्व कल्याणकर कार्यों से पूर्वजों की कीर्ति को प्रकाशित करें।
परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्री के पुण्य प्रताप से आप सभी प्रगति के पथ पर निरन्तर अग्रसर हों यही मेरी शुभकामना ।
मोहनखेड़ा तीर्थ राजगढ़ (धार)
- विजययतीन्द्र सरि ता. १४-५-६०
राजेन्द्रज्योति
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परिषद् की स्थापना के साथ ही
पू. पा. गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की शुभ प्रेरणा
परिषद् की प्रगति समाज की प्रगति है, मैं इसकी सफलता चाहता हूं । परिषद् समाज में नव चैतन्य, नव जागरण और प्रबुद्धता का संचार करे । परिषद् की ओर से धार्मिक पाठशालाओं का संचालन हो और परिषद् का अपना अनूठा अभ्यासक्रम हो ।
परिषद् की स्थान-स्थान पर शाखाएं स्थापित करवाई जायें और उसके माध्यम से सामाजिक कार्यों का संचालन किया जाय ।
परिषद् को समाज का हर एक व्यक्ति तन-मन और धन से सहयोग देकर मजबूत करे । परिषद् के सदस्य निःस्वार्थ भाव से काम करें और अपना कर्त्तव्य समझ कर दक्ष रहें । परिषद् को किसी भी प्रकार की दलबन्दी व समाज को हानिकारक वातावरण से दूर रखा जाना चाहिये ।
परिषद् अपने कृतसंकल्पों को साकार करे, यह मेरी हार्दिक शुभकामना है । श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
कार्तिक पूर्णिमा, २०१६
वी. नि. सं. २५०३
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- विजय यतीन्द्र सूरि
५
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॥ ॐ नमः श्री वीतरागाय ॥
सुदृढ़ संगठन, शिक्षा प्रचार, कुरूढ़ियों में सुधार
के
महामंत्रों को लेकर प्रस्थापित
अखिल मालव- मेवाड़ प्रान्तीय
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का प्राचीन नगर ( रत्नपुरी) रतलाम के प्रांगण में
द्वितीय अधिवेशन
विक्रम सं० २०१७ ज्येष्ठ कृष्णा ४-५ ( गुजराती वैशाख वदि ४ - ५ ) तदनुसार दिनांक १४ - १५ मई, १९६० शनिवार, रविवार को श्री सौभाग्यमलजी सेठिया बी. ए., एल. एल. बी. की अध्यक्षता में रतलाम नगर में सम्पन्न होने जा रहा है ।
समाज की प्रगति के पुण्य पथ पर अग्रगामी होने के लिये अनेकविध मार्गदर्शन एवं प्रस्तावों को कार्यान्वित किये जायेंगे ।
समीपस्थ श्री सगोदियाजी तीर्थ, बोबडोद, करमदी आदि तीर्थों की यात्रा का अभूतपूर्व लाभ प्राप्त हो सकेगा । साथ ही नगर में स्थित श्रीजिन मन्दिरों की यात्रा का लाभ भी मिल सकेगा ।
सम्मेलन में परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की शुभाज्ञा से मुनिराज श्री कल्याण विजयजी म०, मुनिश्री हेमेन्द्र विजयजो, मुनिश्री सौभाग्य विजयजी, मुनिश्री रसिक विजयजी, मुनिश्री जयन्त विजयजी, मुनिश्री जयप्रभ विजयजी, मुनिश्री पुण्य विजयजी, मुनिश्री लक्ष्मण विजयजी पधार रहे हैं ।
स्थान-स्थान से अधिक संख्या में प्रतिनिधिगण को सम्मेलन में भाग लेने के लिये आने की सूचनाएं प्राप्त हो गई हैं । ध्वजवन्दन एवं उद्घाटन के लिये समाज के गणमान्य महानुभावों से चर्चा की जा रही है ।
आपके नगर से भी सर्वानुमति से अपने प्रतिनिधियों को चुन कर भेजियेगा ।
श्री लीमड़ावाला उपासरा रतलाम (म. प्र. )
भवदीय-
सम्मेलन व्यवस्थापक समिति
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, रतलाम शाखा
राजेन्द - ज्योति
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सद्भावना में विचरें सभी, सौन्दर्य होवे परिषद् व्यवस्था, स्नेही बनावें सब को हमेशा आमोद में मंगल गीत गावें ॥१॥
बी. नि. सं. २५०३
परिषद् के प्रति शुभ कामना
( पू. पा. संघ प्रमुख श्री विद्याविजयजी म.
खाचरौद अधिवेशन मेंवि. सं. २०१८
युवक मंडल की परिषद् की बनी अधिक हो अब वृद्धि सदस्यों की सुहित हो इसमें सबका भला, हो सबकी शुभकामना
सफल
उत्थान बेला अब रम्य आई प्रेमी वनों की परिषद् बनाई आज्ञा निभाना अनिवार्य होगा सोना बुरा है अब नींद त्यागो ॥२॥ |
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पधारिये !
पधारिये !!!
पधारिये !! ॥ शासनाधीक्ष श्री वर्द्धमान स्वामिने नमः ॥ ॥अनन्त लम्बिनिथानाय भी मौतम स्वामिने नमः ।।
समाज संगठन धार्मिक शिक्षा प्रचार
समाज सुधार भार्थिक स्थिति सुधार
के चतुर्मुखी मंगलमय सिद्धान्तों को लेकर के प्रस्थापित
- अखिल मालव मेवाड़ प्रान्तीय ---- 2 श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद का C.
तृतीय-अधि वे श न
स्थाचरोद नगर (म. प्र.) के प्रांगण में दिनांक १६, २० मई ६१ प्रथम ज्येष्ठ सुदी ५, ६ शुक्र, शनिवार को श्री सोभाग्यमलजी सेठिया की. ए. एल एल. बी. निम्बाहेड़ा निकासी की अध्यक्षता में सम्पन्न होने जा रहा है।
卐
ॐ
इस पुण्य अवसर पर कधि कोविद श्रादरणीय मुनिराज सर्वश्री विद्या विजयजी महाराज
की प्राज्ञा से मुनिराज सौभाग्य विजयजी म., मुनि देवेन्द्र विजयजी,
मुनि रसिकविजयजी मुनि जयन्त विजयजी. मुनि जयम विजयजी, * - पुण्य विजयजी, मुनि भुवन विजयजी महार रहे हैं। साथ ही शाखा परिषद के प्रतिनिधि समाग के प्रयगण्य श्रेष्ठिकर मोर गुरु मक्तसज्जम पधार रहे हैं। अधिक संख्या में पधारिये और अधिवेशन को सफल बनाइये। अधिवेशन में
अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर विचार किया जायमा ।
निवेदकअधिवेशन व्यवस्थापक समिति, मोरसली, प्रामगीपारा, स्वानरीद (म.प्र.)
(तृतीय अधिवेशन पर प्रकाशित पोस्टर का प्रति मुद्रण)
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पूज्य मुनिराज श्री विद्याविजयजी महा. द्वारा में दिया गया सन्देश;
परिषद् के चतुर्थ अधिवेशन के उद्घाटन समारोह वि. सं. बि. सं. २०१९
महानुभावी !
अति हर्ष का विषय है कि आकोली नगर में दो-दो कार्यक्रम सम्पन्न होने जा रहे हैं। उधर प्रतिष्ठोत्सव का कार्य आठ दिन से चल रहा है और इधर आज श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का वार्षिक अधिवेशन हो रहा है। अधिवेशन चीज जो है वह क्या है ? इसको हमें समझना है और इसे समझकर आगे बढ़ना है। गुरुदेव जब तक मालवे में रहे तो उन्होंने इस परिषद् को कार्य करते हुए संदेश दिया तथा नवयुवकों ने अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया ।
आज हमारे नवयुवक एक दूसरे ही मार्ग पर चल रहे हैं, उन्हें एक दूसरा ही नया मार्ग मिल गया है। उनसे धर्म का कार्य नहीं होता। परिषद् हमारे नवयुवकों के लिये धर्म का साधन है जब तक हमारा संगठन नहीं होगा धार्मिक भावनाएं नहीं आ सकेंगी। हम पीछे हैं । यदि दूसरे समाज को देखें तो वे हमारे समाज से आगे बढ़ रहे हैं। हमारा समाज उत्कृष्ट और श्रेष्ठ है यदि यह
भी पीछे रह जाय तो क्या हो सकता है ? भगवान महावीर के संदेश सबके लिये हैं। गुरुदेव ने जो परिषद् स्थापित की मारवाड़ में आज उसका पहिला दिवस है । आशा है आप परिषद् को सहयोग देंगे तथा आगे बढ़ने की कोशिश करेंगें। जगह-जगह पाठशालाएं नहीं हैं, परिषद् को इसके लिये पुष्ट बनावें तथा पूर्तियां करें । यही हमारा ध्येय है । इसके लिये मारवाड़ श्रीसंघ तथा नवयवकों
से निवेदन है कि तन-मन-धन से कार्य करेंगे तथा धर्म की प्रवृत्ति में सफलता प्राप्त करेंगे । जिससे लाभ होगा ।
श्री. नि. सं. २५०३
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शुभ-सन्देश
श्रद्धालु महानुभाव !
यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि जिस भूमि से परिषद् का प्रादुर्भाव हुआ था उसी पुण्य स्थली पर पुनः परिषद् का अधिवेशन होने जा रहा है । ।
वर्तमान की स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं तो हम सभी को भलीभांति प्रतीत हो रहा है कि समाज धार्मिक प्रवृत्तियों में किस प्रकार शिथिल होता जा रहा है ? सर्वत्र धार्मिक शिक्षा का अभाव दिख रहा है जिससे अपन सभी का सर्वागीण विकास अवरुद्ध हो रहा है।
स्व० परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्री ने इस क्षति को दूर करने के लिये ही इस परिषद् की स्थापना की थी। मुझे प्रसन्नता है कि आप सभी उस बात को पूरा करने के लिये कृतसंकल्प हैं। ___ गुरुदेव श्री के उन आदेश एवं उपदेशों का आचरण एवं प्रचार करना हर एक श्रद्धालु का परम कर्तव्य है। इसीलिये मैं चाहता हूं कि परिषद् की प्रगति में हर व्यक्ति तन, मन और धन से सहयोग देकर इसको उन्नत करे।
अन्त में कार्यकर्ताओं को धन्यवाद देता हुआ परिषद् के प्रति मेरी हार्दिक शुभ कामना प्रकट करता हूं और समाज की ओर से परिषद् को सम्पूर्ण सहयोग मिलेगा ऐसा विश्वास करता हूं। शुभम् ।
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
राजगढ़ (धार) दिनांक १६-१७ मार्च
--विजय विद्याचन्द्र सूरि
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pe
AdSAAT
AAAAA
राजिन्द्रKA
OWधयुवक
वाम
समाजसुधार, आर्थिक विकास.6)
SONGRENNIRNIRATIONERINUVOTON
पधारिये! पधारिये!!
पधारिये !!! अनन्तलम्बिनिधानाय श्री गौतमस्वामिने नमः
प्रातः स्मरणीय प्रभु श्री राजेन्द्रसूरीश्वर सद्गुरुवरेभ्यो नमः समाज संगठन, धार्मिक शिक्षा प्रचार, समाज सुधार, आर्थिक विकास
इन चतुर्मुखो मंगलमय उद्देश्यों को लेकर प. गरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसरीश्वरजी महाराज द्वारा प्रस्थापित समाज गठन सिक शिक्षाप्रारी l अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जेन नवयुवक परिषद् का -
अधिवेशन :--
दिनांक १६, १७ माप, प्रथम चैत्र युति ३, ४ सोम, मंगलवार को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की पुण्य भूमि पर जैनाचार्य श्रीमहि जय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के तत्वावधान एवं श्री सौभाग्यमलजी सेटिया बी०ए० एल-पल.बी. की अध्यक्षता में सम्पन्न होने जारहा है। इस शुभ भवसर पर चतुर्विध संघ का संगम होगा। शाखा परिषद के सदस्य समाज के अग्रगण्य महानुभाव और कार्यकर्ता इसमें भाग लेहे हैं,
आप भी आइये भोर अधिवेशन को सफल नाहये । भधिवेशन में अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर विचार किया जायगा।
निवेदन:श्री मोहनबड़ा तीर्थ
संयोजक-अधिवेशन व्यवस्थापक समिति राजगढ (धार) म०प्र०
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् . TEKWERKGEWINNUNAROCITEKWEPRENEREERUNTERHEROKEERATURAL
(पंचम अधिवेशन १९६४ ई. के अवसर पर प्रकाशित पोस्टर का प्रतिमुद्रण)
वि.नि. सं. २५०३
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१२
नवम अधिवेशन पर प्रदत्त संदेश
यह जानकर पदम प्रसन्नता हुई कि गुरुदेव श्री भद एक विजय राजेन्द्र सूरी 29 जी महाराज के क्रियो द्वार स्थल नवनिर्मित श्री राजेन्द्र सूरि जैन दादावाड़ी के प्राङ्गण - (जवस) में उन ४८ श्री राजेन्द्र जैन नवयुक्त परिसिद् का नवम अधी देशन दि. ४-५ मई को होने সটা
परिषद् का यह अधिवेशन गुरुदेव के पवित्र एवं प्रदान सिद्धाकों के अनुरूप समाज को उन सुसंगठित बनाने में प्रेरक हो तथा सभी एकता के सूच मे आबद्ध होकर ऐसा रचनात्मक करें- जो समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये जाए लाসদখী सिद्ध होसके। इसी हार्दिक संभावना के साथ इस अधिवेशन की सफलता के लिये शुभाशीर्वाद श्री विजय विद्या चैन्द्रि
– श्रीविजय विद्या चन्द्रसूरि)
बिहारका मन्दसौर
२३-४-७४
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श्री विश्वपूज्य प्रभु राजेन्द्र सूरीश्वर गुरुभ्यो नमः
'अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
शाह फतेलाल जैन
स्वागताध्यक्ष
|| श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥
वी. नि. सं. २५०३
जावरा नगर (म. प्र. ) स्थित श्री राजेन्द्रसूरि जैन दादावाड़ी की रम्यभूमि पर अ. भा. राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का नत्रम् वार्षिक अधिवेशन दिनांक ४ एवं ५ मई १९७४ वैशाख सुदी १३ व १४ शनिवार, रविवार को मुनिराज श्री जयन्तविजयजी म. "मधुकर" आदि मुनि मंडल के सान्निध्य में व डॉ. प्रेमसिंह राठौड़ (भू. पू. स्वास्थ्य मंत्री मध्यभारत) की अध्यक्षता में सम्पन्न होने
जा रहा है ।
सामाजिक एवं धार्मिक जीवन जागृति का उद्घोष करने वाली इस संस्था के अधिबेशन में अधिक से अधिक संख्या में सदस्यगण एवं समाजसेवी महानुभाव आ समाज सेवा का लाभ उठाइये ।
रहे हैं, आप भी आइये और
का
नवम वार्षिक - अधिवेशन
निवेदक
मदनलाल कर्नावट स्वागत-मंत्री
जेठमल रूनवाल
बसन्तीलाल पोखरना
अध्यक्ष
अध्यक्ष
राजेन्द्र जैन श्वे. ट्रस्ट, जावरा राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, जावरा
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विश्व पूज्य प्रभुश्री राजेन्द्र सूरीश्वरेभ्यो नमः
.पा. आ. श्री विद्या चन्द्रसूरीश्वरजी म.का. समाजकेनाम
|| शुभ सन्देश ॥
युग संगठन का है; संप स्नेह और सद्भावना बढ़ने पर ही संगठन हेढ होता है और ऐसा दृढ संगठन ही समाज, संघ और राष्ट्र के लिये आशीर्वाद रुप बन सकता है 1
स्व॰ ५० गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीधर जो मासे प्रेरणा पाकर समाज के युवकोंने ऐसा संगटन बनाया जो ० भा० श्रीश जेन्द्र जैन नवयुक्त परिषद् के नाम से सक्रिय हुआ और पू पाठ गुरुदेव श्री से मार्गदर्शन पाकर गतिविधियां संचालित की। मुझे प्रतुलता है कि गुरुकृपा से समाज की यह संस्था अभी स्थिर रह सकी है। समयानुसार उतार चढ़ाव आते ही २हते हैं फिर भी युवा पीढी व युवक विचारधारा के गुरुभक्तोंने इससे स्था के प्रति अपनी निष्ठा कायम रखा है। मै समाज के हव्यक्ति से यही चाहता हैं कि आप तन, मन, धन से समाजकी इस संस्था कोपू रार सहयोग देकर प्रगतिशील बनाने और हर गांव नगर में इसकी शाखाएं स्थापित कर संगठन को दरबनावे!
समस्त गुरुमतांजनों ! धर्मलाभ
परिषद्द्वारा आयोजित किये जा रहे हर सामाजिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों में आप सभी का पूरा पूरा योग रहना चाहियो आग ने युवक ही तो भविष्य की आशाएं बने हुए
उनको गतिशील बनाने का काम समाज का है !
きゅう
मैं चाहता हूँ प्रत्येक गांव मे परिषद् के माध्यम से धार्मिक शालाएं, वाचनालय, समय र पर अन्य धार्मिक उत्सवों कोभी
संचालित किया जाय और उस में समाज की ओर से सर्व प्रकार से सहयोग दिया जाया
देश, काल की स्थिति हमें जागृत होने का जोरों से आहवान कर रही हैं, हम जागें और सक्रिय कार्यकर्ता उसबे को पूरा योगदान दें।
खाचरौदै दि ७।४।७४
विजय पिता चंद्रमोरे का धर्मलान
राजेन्द्र ज्योति
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परिषद् के समस्त कार्यकर्तागण !
धर्मलोभ
मुझे अतीव ही प्रसन्नता है कि तुम सभी स्व-पू० पा० गुरुदेवश्री के सन्देश ध्यान में रखते हुए समाजव संघ के कार्य करने में उत्साहित हैं। वैसे सभी एक विचार धारा के नहीं होते फिर भी सभी से सहयोग व सद् भावना रखते हुए परिषद् की भावना को साकार करने का लक्ष्यदृष्टि के सामने रखकर सक्रिय हो काम करें।
All 99 प्रभु श्रीराजेन्द्र सूरीश्वर गुरुभ्यो नमः अखिल भारतीय
हि श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
समस्त शाखाओं के नाम
५० पा० गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद्विजयविद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजका
शुभ सन्देश ॥
मैं आप सभी से यही अपेक्षा करना हूँ ।
श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामी को २५०० जाँ निर्वाण उत्सब भी आ रहा है उस प्रसंग को भी रचनात्मक कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न करने की दिशा में कदम बढ़ाना है। परिषद् कार्यालय से समय र पर सूचना ऐमिलती रहेगी, तदनुसार कार्यक्रम की सफलता के लिये आप सभी अवश्य ही संकल्प कर लें।
मैं
उत्साही के रूप में देखना चाहता हूँ कि गुरुदेव द्वारा हमे आप सभी को निरुत्साही नहीं किन्तु प्रबल
यह निश्चित मान लें
'चलें यही कर्तव्य
जो मार्ग मिला है उस पर हढ़ता फालन का सध्या स्वरूप है!
वी. नि. सं. २५०३
सभी कार्यकर्ताओं को धर्मलाभ कहे। धर्म उद्यम रखें ।
विजयविद्याचंद्रसूर का धर्मलला
m
खाचरौद दि. ७७४।७४
१५.
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अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नव्युवक परिषद् । समस्त कार्यको गण ।
घमंडाभ।
श्रीलक्ष्मणी तीर्थ की पावन स्थली पर परिषद का अधिवेशन हो रहा है एलदर्थ मेरी ओर से हार्दिक शुभचिदिहै कि आप सभी स्व. सुरुदेवी दा7 प्रर्शत मार्ग परउमंग, उत्साह से पारस्परिक पेम, संप के सार आ रहें । समाज का उत्थान करनेवाली हर योजना को कार्यान्वित करें। यही मेरी शुभ कामना ।
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वि. सं. २०३२
राजेन्द्र-ज्योति
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वी. नि. सं. २५०३ / ख ६
ॐ अर्हम् नमः प्रभु श्रीमद्विज राजेन्द्रसूरी गुरुभ्यो नमः
अ. भा. राजेन्द्र जैन नव युवक परिषद का अधिवेशन जो निम्बाहेडा में हो रहा है उसकी सफलता चाहता हूं | विशेष समाज को ध्यान देना चाहिये कि अधिवेशन के कार्य को सफल बनावें, मैं समाज की ओर दृष्टि करता हूं तो मुझे वहाँ कुसंप और फुट दृष्टि गोचर होती है । यह कुसंप मिटे और संपदा बढ़े यही मेरा संदेश है। श्री राजेन्द्र सुरि ज्ञानमंदिर
विक्रम विद्याचंद्रसूरि
तन पोल हाथी खाना अहमदाबाद
ताः - २४-४-८७
For Private
Personal Use Only
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ॐ परम पूज्य प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वराय नमः ॥
संगठन का शंखनाद गूंज रहा है !
सामाजिक तरक्की का दौर शुरू हो चुका है। बुजुर्गों-युवकों-सन्नारियों में जागरण की हिल्लोर ! समाज के उपवन में श्रम व पुरुषार्थ की किल्लोर !
® समाज संगठन धार्मिक शिक्षा प्रसार ® समाजसुधार ® आर्थिक विकास के
महान् उद्देश्यों को लेकर
पू. गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा
संस्थापित
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का वार्षिक
एकादश अधिवेशन
दिनांक २६ व ३० मई, १६७७ रविवार, सोमवार को निम्बाहेड़ा जिला चितौड़गढ़ (राजस्थान) में
परम पूज्य कविरत्न वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. के शुभाशीर्वाद
से पूज्य विद्वान मुनिराज श्री जयन्तविजयजी म. 'मधुकर' के सान्निध्य में सम्पन्न होने जा रहा है ।
अधिकाधिक संख्या में भाग लेकर समाजोन्नति के महायज्ञ को सफल बनाइये।
निवेदक
डॉ. प्रेमसिंह राठौड़ सी.बी. भगत कनकमल जैन ज्ञानेन्द्र कुमार सिंगवी मनोहरलाल बिराणी कुन्दनमल डाँगी अध्यक्ष महामंत्री मंत्री
अध्यक्ष
स्वागत-मंत्री स्वागताध्यक्ष अ. भा.श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक
निम्बाहेड़ा निम्बाहेड़ा परिषद् (केन्द्रीय)
परिषद् (शाखा) निम्बाहेड़ा
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् (केन्द्रीय कार्यालय श्री मोहनखेड़ा तीर्थ)
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अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
के निमित्त प्राप्त शुभ संदेश
पं. मनिराज श्री कल्याण विजयजी महाराज
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् अपने विशाल समाज संगठन के उद्देश्य को लेकर ही स्थापित की गई है । यद्यपि समाज का क्षेत्र विशाल कार्यक्रम से परिपूर्ण है तथापि सामाजिक विकास के हेतु इस तरह के संगठनों के द्वारा समाज संगठन की पूरी-पूरी सारी तैय्यारी जब हो जाती है तब वह अपनी इस शक्ति के द्वारा समाजगत अन्य संस्थाओं से अपना सम्पर्क साधकर संगठन की दिशा में आगे बढ़कर समाज को उन्नतिशील बना सकती है। परिषद् अपने लक्ष्य को पूर्ण करने में सफल बने ।
-पू. पंडितवर मुनि श्री कल्याण विजयजी म. आज के वैज्ञानिक समय में हमें एकत्रित होना आवश्यक है। आपने "श्री राजेन्द्र नवयुवक परिषद्” के नीचे सारे जैन समाज का ध्यान खींचा है। अपने समाज को एक ही बनाकर 'ए' समूह में यह परिषद् अवश्य रख सकेगी। मेरी शुभ मनोकामना है कि पू. गुरुदेव ने जो मार्ग दिखलाया है उस मार्ग को आप साहब सफल बनायेंगे।
जैन समाज का संगठन, और धर्म की उन्नति यह परिषद् की सफलता है।
-पोपटलाल धंरू, भराद, श्री सेठियाजी जैसे कर्मठ एवं सुयोग्य अध्यक्ष की अध्यक्षता एवं आप जैसे सेवाभावी महानुभावों की सुव्यवस्था में परिषद् का यह अधिवेशन अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सर्वथा सफल हो अभिनव आदर्श उपस्थित करेगा ऐसा मेरा परम विश्वास है। आपके अधिवेशन की सफलता के हेतु मैं अपनी मंगल कामनाएं प्रेषित कर रहा हूँ।
-मदनलाल जोशी, मंदसौर मने परिषद तरफ थी आमंत्रण मल्यं ते मारा अभिनन्दन । समाज नी उन्नति ने माटे आजे धार्मिक संगठननी जरूरत छ । पू. गुरुदेवना उपदेशे आपे जे कार्योनी आरंभ करयो अने आज तेनु
तृतिय अधिवशन आप भरी रहया छ। तेरला समाज की प्रगति बतावे छ, वैज्ञानिक युग मां बारबार पलटा आवता रहे छे. आजे साथे धार्मिक क्षेत्र पण प्रगति थती रहे अणे आपणी जैन समाज आगल आवे ते वांछनीय छे.
__-जवेरीभाई भूदरभाई, थराद गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के उपदेश व आशीर्वाद से निर्मित व स्थापित इस अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नव. परिषद् की नींव ऐसी लगे (महावीर स्वामी से प्रार्थना करता हूँ) कि यह परिषद् न केवल राजस्थान या भारत के चरित्र निर्माण का ही काम करे लेकिन विश्व के मानव के कल्याण का संदेश लेकर काम करने का अवसर इस परिषद् को प्राप्त हो ।
. -बैरिस्टर श्री शिवलाल टी. पोरवाल, जोधपुर महत्व ना कामो ना लीधे हुं आवी सकुं तेम नथी तो मने माफ करयो अने गुरु महाराज नी दया थी, आपना सामे जो आ दुनिया मां हयाती हसे तो चोकस आप श्री जे प्रमाणे कहेशो ते प्रमाणे सेवा करवानी खात्री आपुं छु, परिषद् नी सफलता इच्छु छु ।
-परिख चन्दुलालजी दलसुखभाई, बम्बई "आमंत्रण मल्यु महावीर देवनां प्ररुपेला जैन मार्गानुसारी राह ने आज काल ना नवयुवानों भूले छ, कलिकालनी छाया मां अज्ञानी रत्नत्रयी थी विमुखता जाये छ, तेवा समय आं परिषद् द्वारा समाज ना पतित जनो नी उद्धार करी जैन धर्म नी उन्नति नां धेयकारी मार्गो जनता आंगल रंजु थसे. परिषद् नी सफलता इच्छु छ । प्रभु तेमारा कार्य मां सहायक थरो ऐसी प्रार्थना।"
-पुनमचन्दजी नागरलाल दोशी, डीसा जि. बनासकांठा परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि जो अधिवेशन होने जा रहा है उसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हो ताकि परिषद् चतुर्मुखी उन्नति करे।
-राजमलजी पोरवाल, नीमच
वी.नि.सं. २५०३
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"अधिवेशन का आमंत्रण पत्र मिला । अधिवेशन का कार्य शांति से पूर्ण हो यह मैं चाहता हूं । इस अवसर परठोस कार्य करें।"
-श्री उदयभानजी प्रेमचन्दजी, बम्बई
"Best Wishes Adhiveshan Success"
-श्री मांगीलालजी "किसान नेता", मंदसौर
"आपनी आमंत्रण पत्रिका भली, अधिवेशन मां आवा माटे बहुत इच्छा हती, पण अनिवार्य संजोग अनुसार आवी शकेल नथी।"
अधिवेशन नी दरेक रीते सफलता इच्छु छ अने जेजे कार्यवाही थाय ते दरेक रीते सफल नीबडे तेनी आशा राखं छु।
-देसाई चन्द्रकांत केशवलाल, पालनपुर (गुजरात)
दुःख एवं वेदना है इस मन को अधिवेशन में सम्मिलित न होने के कारण । यहीं से शुभकामनाएं एवं सदिच्छाएं है हमारी उस कार्यक्रम के लिए जो वहां सम्पन्न होने जा रहा है। गुरुदेव श्री राजेन्द्र के शुभाशीर्वाद से सब कार्य मंगलमय व सानन्द संपन्न हो ऐसी शुभकामनाएं हैं हमारी।
-श्री मनोहर सुराना, नीमच-छावनी सफलता के लिए मेरी शुभ-कामनाएं स्वीकार करें।
-श्री पन्नालाल लोढा, टांडा वार्षिक अधिवेशन होने के समाचारों से अवगत हुआ। मेरी अधिवेशन में सक्रिय भाग लेने की हार्दिक इच्छा थी, लेकिन कार्याधिक्य होने की वजह से आने में असमर्थ हूँ। अधिवेशन को सफलता चाहता हूँ।
-श्री बाबूलाल जैन, बड़ो सादड़ी (राजस्थान) “अनिवार्य कारणो ने लीधे हुँ आवीशकु तेम नथी, शुभ प्रसंग पू. गुरुदेव नी कृपा थी सफल नीवडो, परिषद् पोताना उद्देश्य ने लक्ष्यमा राखी मालवा, मारवाड़ अने गुजरातमां तेनो नाद जोर-शोर से रजु करशे तेवी प्रार्थना गुरुदेव प्रत्ये कर्क छ।
-श्री पोपटलाल धरूं, थराद
__"शुभ कार्यों की हम अनुमोदना करते हैं तथा अ. भा. श्री रा. जे. नवयुवक परिषद् के अधिवेशन के लिये शुभेच्छा दर्शाते हैं। समाज की उन्नति हो।
-पंडित लालचन्द्र भगवान गांधी बड़ौदा
ग्यारहवें परिषद्-अधिवेशन पर प्राप्त शुभ संदेश
मुझे प्रसन्नता है कि आप अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् अधिवेशन आगामी दिनांक २९ और ३० मई, १९७७ को मनाने जा रहे हैं । मैं आपके इस अधिवेशन की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभ कामनाएं भेजता हूँ।
-श्री बा. दा. जत्ती
उपराष्ट्रपति, भारत, नई दिल्ली अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के वार्षिक अधिवेशन का उद्घाटन करने के लिए आपने मुझे आमंत्रित किया इसके लिए मैं अत्यन्त आभारी हूं। खेद है कि परिषद के इस समारोह में उपस्थित होना मेरे लिए संभव नहीं हो सकेगा। अधिवेशन और परिषद् की सफलता के लिए मेरी हार्दिक शुभ-कामनाएं स्वीकार करें।
-श्री लालकृष्ण अडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री, नई दिल्ली भारत
समाज, संगठन, सेवा एवं संस्कार प्रदान करने की दृष्टि से परिषद् का कार्य अत्यन्त उपयोगी एवं स्तुत्य है। इस कार्य को आगे बढ़ाने वाले आप तथा अन्य सभी सहयोगी बन्धु प्रशंसनीय एवं वंदनीय कार्य कर रहे हैं।
मैं आपके प्रयत्नों की हृदय से सफलता चाहता हूँ साथ ही कामना करता हूँ कि श्री वीर प्रभु की वाणी एवं पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद आपका मार्ग सुगम और प्रशस्त करे।
-श्री सुन्दरलाल पटवा,
विधायक, मन्दसौर
अधिवेशन में क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित करवा कर उनके अनुरूप कार्य करने का युवकों को आव्हान करेंगे।
-श्री तगराजजी होराणी Heartiest greetings and best wishes for success of adhiveshan.
(1) Bangalore Parishad (2) Shri V. Mangilal
Bangalore (3) Shri Champalal
Thanks invitation. Regret inability, Wish the function very success and Homage to the great soul.
-Vijayaraje Scindia
Gwalior.
अधिवेशन की सफलता के लिए हार्दिक शुभ-कामनाएं।
-पुष्पराज मेटल स्टोर्स, बैंगलोर
अधिवेशन की सक्रिय सफलता चाहती हूं।
-साध्वी श्री विलक्षणश्रीजी, जयपुर
राजेन्द्र-ज्योति
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विकास के चौखटे में
परिषद् की तस्वीर
केन्द्रीय कार्यालय द्वारा
"समाज का विकास समाज के प्रत्येक अंग की समुन्नति पर निर्भर है और उसके अभ्युदय का आधार प्रत्येक व्यक्ति की सक्रियता है।" इसी उक्ति की पृष्ठभूमि से समाज की प्रगति तथा विकास की योजना का आविर्भाव हुआ । अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के रूप में उस योजना ने आकार गृहण कर किया । ___ संवत् २०१६ का चतुर्मास, परमपूज्य स्व. गुरुदेव श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की जावरा में स्थिरता हुई। पूज्य गुरुदेव को समाज की चारों दिशाओं में तिमिर की परतें दिखाई दे रहीं थीं। उनने पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर' को निर्देश दिया कि समाज को संगठन के आलोक से भरने के लिये वे परिषद का ज्योति पुँज अपने हाथों में थामें । पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी ने गुरु की भावना को तत्काल शिरोधार्य किया और युवकों में शक्ति तराशना प्रारम्भ की। पूज्य गुरुदेवश्री ने पूज्य मुनिराजश्री में न केवल ज्ञान व आचार के अपितु समाज संगठन के शिल्पीकार की उठाव खाती योग्यता का आभास भी कर लिया, पूज्य गुरुदेवश्री का आगमन रतलाम हुआ। वे वहाँ से जावरा पधारे । पुनः रतलाम आने के उपरांत पूज्य गुरुदेवश्री ने राजगढ़ विहार किया । पूज्य मुनिराज श्री रतलाम ही रहे । पूज्य मुनिराजश्री में ज्योतिपुंज को प्रज्ज्वलित करने की इच्छाशक्ति गतिशील होने लगी। रतलाम के युवकों के सम्मुख उनने भावना प्रकट की और ज्योतिपुंज को समाज-शिखर तक आरोहित करने की चुनौती दी । रतलाम में कर्मठ युवक अगली पंक्ति पर आये । एक संकल्प का उद्घोष करने के लिये वे 'करमदी, की ओर बढ़ गये। रात्रि का नीरव शान्त वातावरण । चारों ओर कालिमा का विस्तार । दिखावे व प्रदर्शन से कोसों दूर शान्त-गंभीर वातावरण । मन्द-मन्द बयार बहने लगी । युवक अपने उद्देश्यों के निर्णायक बिन्दु पर पहुँचे । घनघोर अन्धेरे को चीर
कर ज्योतिपुञ्ज सार्थक संगठन के रूप में स्थापित हो गया । युवकों ने प्रतीज्ञा कर ली कि इस समाज चेतना की मशाल का उद्योत वे समाज के घर-घर तक पहुँचावेंगे।
पूज्य गुरुदेवश्री के साथ पूज्य मुनिराज श्री मधुकरजी का पदसंचलन राजगढ़ की ओर हुआ। संवत् २०१७ की कार्तिकपूर्णिमा को श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद का प्रथम अधिवेशन श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में आमंत्रित कर लिया गया। युवकों में जागृति की लहर बल खाने लगी । मालव, निमाड़ के कोने-कोने से प्रतिनिधियों में भाग लेने की होड़ लगी। पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में परिषद् ने विधिवत् स्वरूप प्राप्त कर लिया । अधिवेशन की अध्यक्षता श्री सौभाग्यमलजी सेठिया (निम्बाहेड़ा) ने की। प्रथम कदम के रूप में परिषद का कार्यक्षेत्र मालव-मेवाड़ प्रान्तीय निर्धारित किया गया। लक्ष्य यह निश्चय हुआ कि कदम बढ़ते रहेंगे। और विकास का विस्तार अखिल भारतीय स्तर तक हो जावेगा।
परिषद् ने अपनी स्थापना के साथ ही चार उद्देश्यों-समाज संगठन, धार्मिक शिक्षा, प्रसार, समाज सुधार तथा आर्थिक विकास का घोष किया। साथ ही मार्गदर्शिकाएँ भी निश्चित की, जिसके अनुसार सामाजिक क्रान्ति को जन्म, समानता व सद्भाव का विकास, संगठन की वाणी का अनुनाद, प्राचीन साहित्य का प्रकाशन, जैन संस्कृति की अद्वितीय विधाओं का अनुसन्धान, धार्मिक शिक्षा के साधनों का योग, समाज संहारी कुरीतियों का विसर्जन, स्वस्थ व सुदृढ़ समाज की संरचना, आर्थिक योजना का क्रियान्वयन, एक आदर्श समाज के संजीवन की स्वीकारोक्ति की गई।
युवा शक्ति से समाज आन्दोलन की तरंगें टकराने लगीं। स्वयंयुवक जुड़ने लगे, अपनी समाज से, अपनी संस्था से । जिन
वी.नि.सं. २५०३
२१
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नगरों अथवा ग्रामों में श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक सभा, श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मण्डल, श्री राजेन्द्र जैन सेवा संघ आदि विभिन्न नामों से युवा संगठन संस्थाओं के रूप में संचालित हो रहे थे । वे में आबद्ध होने लगे । जहाँ कोई युवा संगठन नहीं था, एकसूत्र वहाँ परिषद् का बीज आरोपित करने का प्रयत्न किया गया। फलतः एक साथ सत्रह शाखाओं का अस्तित्व उभर कर दैदीप्यमान हो गया ।
परिषद् के प्रति समाज के स्नेह की धाराएँ प्रभावित होने लगीं । पदाधिकारियों के दौरे हुए। प्रवृत्तियों का जन्म होने लगा, योजनाएँ मूर्तरूप तक पहुँचने लगीं, कदम निरंतर अग्रशील होते गये । बुजुर्गों से आशीर्वाद बौछारों की भांति उछलने लगे । समाज के हर व्यक्ति में एक अनूठा सामाजिक स्पन्दन पैदा हो गया । द्वितीय अधिवेशन का प्राचीपुरुष रतलाम के प्रांगण में झांकने लगा, दिशादर्शन के लिये पूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के पास श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर श्री सौभाग्यमलजी सेठिया तथा रतलाम के कार्यकर्ता पहुँचे । गुरुदेवश्री का आशीर्वाद प्राप्त कर अधिवेशन का कार्य प्रारंभ किया। पूज्य मुनिराज श्री कल्याणविजयजी महा., मुनि श्री हेमेन्द्र विजयजी म., मुनि श्री सौभाग्य विजयजी म., मुनि श्री रसिक विजयजी म., मुनि श्री जयन्तविजयजी म. 'मधुकर', मुनि श्री जयप्रभविजयजी म., मुनि श्री पुण्य विजयजी म., मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी अधिवेशन में विद्यमान थे। श्री सौभाग्यमलजी सेठिया की अध्यक्षता में द्वितीय अधिवेशन १४ व १५ मई १९६० को दो दिवसीय कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न हुआ । परिषद् के कार्यकर्ताओं ने संगठन व सेवाओं की शपथ ली। परिषद् का शव तुतलाने
लगा ।
सेवा के संकल्प का साकार दृश्य समाज के धरातल पर उतरने लगा। परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर उपधानतप का आयोजन हुआ। परिषद् शाखाओं से स्वयंसेवकों के दल उपधानस्थल की ओर उमड़ने लगे । श्रम तथा पुरुषार्थ का इतिहास अपना अध्याय अंकित करने के लिये सामग्री जुटाने लगा । परिषद के कार्यकर्ता तप कर खरे उतर आये । पूज्य गुरुदेवश्री ने स्वयं परिषद् कार्यकर्ताओं की कर्मठता की प्रशंसा प्रदान की । साथ ही परिषद् ने समाज सुरक्षा की दृष्टि को आंजने का भी प्रयास किया । भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित रिलिजियस ट्रस्ट बिल का तीव्र विरोध किया । गाँवों व शहरों से सैकड़ों विरोध पत्र भेजे गये। देवनार में प्रस्तावित थाने की राक्षसी योजना का परिषद् ने प्रतिकार किया। श्री भोयणीजी तीर्थ पर लगाये गये यात्री दर्शन कर के विरुद्ध अलख जगाया। जबलपुर में गुण्डों द्वारा किये गये ध्वन्स के विरुद्ध जनमत जागरण किया। लगातार प्रगति का अभियान समाज शिखर का आरोहण करने के उद्देश्य से अग्रसर होता रहा।
समाज में अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। दो वर्ष का कार्यकाल अपने प्रति समाज में विश्वास संचालित करने के लिये पर्याप्त था ।
२२
इस मध्य त्रिस्तुतिक समाज तथा परिषद् पर तीव्र वज्रपात हुआ पूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजय पतीन्द्र यूरीश्वरजी महाराज का दुःखद स्वर्गवास हो गया। अपने जन्मदाता को खोकर परिषद् कर्तव्य हो गई पुनः आत्मविश्वास के साथ उसने
अपना कदम संभाला ।
,
तृतीय अधिवेशन को बिगुल खाचरौद नगर में गूंजने लगी । १९ व २० मई १९६१ परिषद् जीवन के अमृत-दिवस सिद्ध हुए । मार्गदर्शन से अमृत वृष्टि करने के लिये इन्दौर बिराजित पूज्य गणाधीश मुनिराज श्री विद्याविजयजी महाराज से अध्यक्ष महोदय व प्रधानमंत्री महोदय मिले व उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर लौटे । पूज्य मुनिराज श्री सौभाग्य बिजयजी महा., मुनि श्री देवेन्द्र विजय जी म., मुनि श्री रसिक विजयजी म. मुनि श्री जयन्तविजयजी म. 'मधुकर', मुनि श्रीजयप्रभ विजयजी महा., मुनि श्री पुण्यविजयजी महा., मुनि श्री भुवन विजयजी महा. का सान्निध्य परिषद् अधिवेशन को प्राप्त था। इसी अधिवेशन में परिषद् को अखिल मालवा मेवाड़ प्रान्तीय सीमा से विस्तृत कर अखिल भारतीय रूप में अंतरित करने का ऐतिहासिक निर्णय किया गया। इसी अधिवेशन में “नवयुवक" शब्द को लेकर उग्र विचार विर्मश हुआ एवं अन्त में यही निश्चय किया गया कि परिषद् के नाम की यथास्थिति बनाई रखी जावे ।
तृतीय अधिवेशन के तत्काल बाद केन्द्रीय अध्यक्ष श्री सौभाग्यमलजी सेठिया तथा केन्द्रीय प्रधानमंत्री श्री भंवरलालजी छाजेड़ ने परिषद् प्रचारार्थ दौरा प्रारम्भ किया । इन्दौर में गणाधीश पूज्य मुनि श्री विद्याविजयजी महा. (बाद में आचार्य) तथा पूज्य मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज से आशीर्वाद प्राप्त कर उन्होंने राजगढ़ से निमाड़ क्षेत्रीय दौरा प्रारम्भ किया। वे टाँडा, बाघ, कुक्षी तथा अलीराजपुर होते हुए दोहद से गुजरात में प्रविष्ट हुए। गुजरात में पहली शाखा के रूप में आनन्द ने अखिल भारतीय स्वरूप का शुकुन किया। वहाँ से उनने अहमदाबाद तथा थराद जाकर परिषद् का ज्योतिपुञ्ज आलोकित किया ।
1
इस सारी अवधि के दर्मियान परिषद् शाखाओं की संख्या में अभिवृद्धि होती गई । शाखाएँ अपने यहाँ गतिविधियों के द्वारा समाज जागरण को एक के बाद दूसरी उपलब्धियों से संयुक्त करने लगी । उत्सव आयोजनों के अन्तर्गत महावीर जयन्ती, राजेन्द्र जयन्ती यतीन्द्र जयन्ती भूपेन्द्र जयन्ती धनचन्द्र जयन्ती कार्तिक पूर्णिमा आदि पर्वो को कार्यक्रमों से सजाया जाने लगा । स्थान-स्थान पर धार्मिक पाठशालाओं की स्थापना हो गई। तीसरे वर्ष के अन्त तक इन पाठशालाओं में छात्रों की संख्या पांच सौ तक पहुँच गई । केन्द्रीय कार्यालय ने स्वयं भी सहायता देकर पांच नवीन पाठशालाओं का शुभारम्भ करवाया । पाठशालाओं के साथ ही स्वाध्याय मण्डल, वाचनालय, पुस्तकालय, भाषणमालाएँ, हस्तलिखित पत्रिकाएँ, व्यायाम केन्द्र भी परिषदों के माध्यम से जन्म तथा जीवन पा गये। इन प्रवृत्तियों की संख्या बराबर बढ़ती गई। परिषद् की केन्द्रीय कार्यसमिति की बैठकें समय-समय पर
राजेन्द्र- ज्योति
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होती रहीं जो अपने निर्णयों से शाखाओं को मार्ग दर्शन परिपत प्रचारित करती रहीं । पदाधिकारियों के दौरे से समग्र परिषद् शाखाएँ तेजी से अपने लक्ष्य प्राप्त करने हेतु प्रेरित हो उठीं । समाज का सम्पूर्ण सहयोग व विश्वास परिषद् के साथ जुड़ता गया। कोई नहीं जानता था कि एक भावुक विचार व्यावहारिक धरातल पर युवकों के जीवन का सम्बल बन जावेगा ? परिषद् की सदस्य संख्या का आँकड़ा निरन्तर बढ़ता जा रहा था । शाखाओं के विधिवत् चुनाव केन्द्रीय प्रतिनिधियों की उपस्थिति में किये जाते रहे । विधान और उसकी परम्पराओं का निर्वाह परिषद् कार्य समिति की बैठकों व अधिवेशनों के निर्णयों के प्रकाश में होने लगा। परिषद् का सन्देश सर्व तक पहुँचाने के आन्दोलन ने गति पकड़ ली । वह सामाजिक समस्याओं की गहराई तक पकड़ करना चाहती थी उदाहरणार्थ परिषद् केवल पाठशालाएँ ही नहीं बनाना चाहती थी, उन्हें एक सुव्यवस्थित मनोवैज्ञानिक गुणात्मक पाठ्यक्रम भी देना चाहती थी। आर्थिक विकास की दृष्टि से उद्योग केन्द्र अप योजना, सिलाई प्रशिक्षण मालाएँ आदि बनाने के लिये परिषद् की प्रेरणा प्रवाहमान थी।
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नवयुवक परिषदों के साथ ही बाल व कन्या परिषदों का निर्माण भी हुआ। कई स्थानों पर बालकों व कन्याओं ने इन शाखाओं का फैलाव किया । इनके द्वारा भी विभिन्न प्रवृत्तियों का कार्य हाथों में सूत्रित किया गया ।
मरुधर की ओर परिषद् क्रान्ति की लहरें बढ़ने लगीं। चौथा अधिवेशन परिषद् ने मरुधर में करने हेतु जालोर जिले की वागरा तहसील के एक ग्राम आकोली का चयन किया । वहाँ श्री राजेन्द्र प्रतिष्ठोत्सव का कार्यक्रम पूज्य मुनिराज गणाधीश श्री विद्याविजयजी महाराज के सान्निध्य में सम्पन्न हो रहा था जिसमें हजारों धर्मभक्तों के भाग लेने की संभावना थी। परिषद् को मरुधर प्रदेश में प्रचार हेतु एक उत्तम प्रसंग की प्राप्ति हुई और उसने उसका उपयोग धर्म प्रभावना के साथ संगठन शक्ति सबल करने के लिये भी कर लिया। अखिल भारतीय स्वरूप देने के एक वर्ष में ही जहाँ उसका गगनघोष गुजरात में गूंजा, वहीं उसका अधिवेशन दिनांक ७ व ८ मई ६२ को मरुधर में सफलता प्राप्त करने लगा। अधिवेशन को मार्ग-दर्शन प्रदान करने हेतु पूज्य मुनिराज श्री विद्याविजयजी महा ने उपस्थिति प्रदान की। प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर परिषद् के स्वयंसेवक दल ने भी तनतोड़ काम किया जिससे सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त हुई । मरुधर में परिषद् के उद्देश्यों के सम्बन्ध में रुचि बढ़ने लगी । अधिवेशन की अध्यक्षता श्री सौभाग्यमल जी सेठिया ने की।
पांचवां अधिवेशन पुनः परिषद् की जन्मभूमि श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर हुआ । श्री मोहनखेड़ा पर स्वर्गस्थ आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के वस्त्र का प्रतिष्ठोत्सव २० फरवरी १९६४ को सम्पन्न हुआ। उसी प्रसंग पर आचार्य पाटोत्सव का समारोह भी हुआ एवं पुष्य गणाधीश श्री विद्या विजयजी महाराज को पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के रूप में पदासीन किया गया। इस
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अवसर पर परिषद् के सैकड़ों कार्यकर्त्ताओं ने तनझोंक कर उत्सवों की शानदार व्यवस्था में अपनी सेवा समर्पित की। इनके उपरांत नूतनाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की पवित्र निश्रा में मोहनखेड़ा तीर्थ पर १६ व १७ मार्च १९६४ को परिषद् का पाँचवां अधिवेशन श्री सौभाग्यमलजी सेठिया की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। पूज्य नूतनाचार्य श्री ने परिषद् को आशीर्वाद प्रदान करते हुए इसकी सफलता के लिये अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त की । उनके आशीर्वाद से परिषद् में नवीन उत्साह दौड़ने लगा ।
परिषद् की एँ चलती रहीं। प्रवृत्तियां समाज की उन्नत करने के लिये क्रियाशील रहीं लेकिन पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज, 'मधुकर' के गुजरात प्रदेश में विचरण से परिषद् की गति मन्द हो गई । शिथिलता ने परिषद् के किनारों को प्रभावित कर लिया। फलतः पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर' ने इसे जागृत करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने १९६५ में अहमदाबाद में परिषद् के समस्त कार्यकर्त्ताओं की एक विशाल बैठक आमंत्रित की। परिषद् के कार्यकर्त्ता नयी दिशा प्राप्त करने अहमदाबाद की ओर अग्रसर हो गये । उनका अभियान शिथिल अवश्य हुआ था किन्तु अपने संकल्पों के प्रति समर्पण की भावना उनमें जीवित थी । अहमदाबाद की बैठक में परिषद् की पिछली समस्त गतिविधियों का अवलोकन किया गया एवं नये सिरे से कार्य में जुट जाने का आव्हान किया गया ।
गतिविधियों में उठाव आया । परिषद् की शाखाओं में जीवन फूंका जाने लगा । उन्हें कन्द्रीय कार्यालय से परिपत्र जारी किये गये । बैठकें नियमित होने लगीं। पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर का चातुर्मास रानापुर में हुआ । २१ अगस्त १९६६ को पूज्य मुनिराज की मित्रा में परिषद् कार्यकर्ताओं की एक विशाल बैठक आयोजित की गई। इसी ने छठे अधिवेशन का भी रूप ले लिया । अध्यक्ष श्री सौभाग्यमलजी सेठिया ने अपने समस्त पदाधिकारियों सहित त्यागपत्र प्रस्तुत कर दिया। श्री सेठियाजी परिषद् की स्थापना से अध्यक्ष पद पर थे। उनने पूरी निष्ठा व कर्त्तव्य परायणता के साथ अपने पद का निर्वाह किया । व्यस्तता के कारण उनने अपने पद से निवृत्त होने की इच्छा प्रकट की । भारी हृदय के साथ सभी ने श्री सेठियाजी व उनके सहयोगियों का त्यागपत्र स्वीकार कर लिया । 'केन्द्रीय कार्य समिति के स्थान पर एक तदर्थ समिति नियुक्त कर दी गई । परिषद् के केन्द्रीय संयोजक पद पर थी शांतिलालजी भंडारी (झाबुआ ) नियोजित हुए। श्री भंडारीजी ने परिषद् को पुनर्गठित करने का प्रयत्न किया । १९६७ में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर पुनः परिषद् की बैठक हुई जिसमें श्री हुकुमीचन्दजी पारिख ( इन्दौर ) संयोजक मनोनीत किये गये । रानापुर चातुर्मास के पश्चात् पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर' ने चातुर्मासों के लिये राजस्थान तथा गुजरात की ओर प्रयाण कर दिया। अपने प्रेरणा केन्द्र से सम्पर्क टूट जाने के कारण परिषद् गतिहीन होने लगी । प्रवृत्तियाँ लगभग शून्यता की ओर बढ़ने लगी। परिषद् भी जहां की तहां रुक गई ।
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कार्यकर्तागण अपने व्यावसायिक कार्यों में ही संरत रहने लगे। केन्द्रीय कार्य समिति की बैठक भी नहीं हुई । कहीं-कहीं शाखाएँ कार्य करती रहीं किन्तु उनमें विशेष प्राण नहीं था। मार्ग-दर्शन के अभाव में परिषद् के जीवन का कृष्ण पक्ष प्रारम्भ हो गया । आपसी सम्पर्क टूटने लगा । नियमित सदस्यता अवरुद्ध हो गई। फिर भी परिषद् दीप की टिमटिमाती लौ मारवाड़ बागरा (राजस्थान) में तेजी से ऊवित होती रही। बागरा शाखा परिषद् ने समाज क्रांति के निनाद की प्रतिध्वनि की । पूरी ढंढार पट्टी में एक चेतना सी फैल गई । समाज के पुराने बन्धन चरमराकर गिरने लगे । सुधार का परिवर्तन सामने आया ।
पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज मधुकर' ने पुन: मालव क्षेत्र में पदार्पण किया। १९७० तक परिषद् धुंधली हो चुकी थी। उनने कार्यकर्ताओं को जगाकर समाज सेवा के महायज्ञ में जुटने के लिये प्रेरित किया । परिषद् के कार्यकर्ता श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर एकत्र हुए। श्री मधुकरजी की मधुरवाणी ने कर्तव्यपथ पर जुट जाने की गर्जना की । कार्यकर्ताओं ने अलसायापन दूर करने की तत्परता दिखाई । सभी ने खड़े होकर पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के समाधि मन्दिर के सम्मुख प्रतिज्ञा की कि वे कर्त्तव्यमार्ग से पराङ मुख नहीं होंगे। बैठक में इस तथ्य के प्रति काफी खेद था कि जिस परिषद् ने उन्हें विकास से परिपूर्ण किया है, उस परिषद् के प्रति वे उदासीन हो गये । एक ही स्वर गूंजने लगा । जब जागे तभी सवेरा ।" नैराश्यता व उदासीनता को समाप्त करने की तैयारी से परिषद् के प्रति आशाओं का नया धरातल खड़ा हो गया। नई तदर्थ समिति का गठन किया गया । श्री भंवरलालजी छाजेड़ (नीमच) संयोजक के रूप में मनोनीत किये गये।
इसके साथ ही परिषद् के मुखपत्र 'शाश्वत धर्म' का प्रकाशन भी नियमित किया गया । उसके प्रकाशन में आर्थिक अभाव के कारण गतिरोध ने जन्म ले लिया था । इस अवरोध को दूर करने हेतु पूज्य मुनिराज श्री जयंतविजयजी महाराज ‘मधुकर' ने सदुपदेश दिये । शाश्वत धर्म को पाक्षिक रूप में प्रकाशित करने के लिये निर्णय किया गया । शाश्वत धर्म की स्थापना भी पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने की थी। वे अपने सामने ही इसे एक सशक्त, समुन्नत एवं स्तरयुक्त साहित्यिक तथा सामाजिक प्रवक्ता के रूप में देखना चाहते थे । पूज्य श्री मधुकरजी ने उनकी इस कल्पना को शाश्वत धर्म के कलेवर में साकार करने के लिये इसे जीवनदान दिया।
नव पीढ़ी में धार्मिक संस्कारों के सिंचन एवं युवाओं को ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्रभावना से श्रद्धायुक्त सम्बन्धित करने के लिये त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर समाज में जैन धार्मिक शिक्षण शिविर का पहला प्रयोग पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महा. के सदुपदेश से अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् ने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में करने की घोषणा की । परमपूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर जी महा. के तत्वावधान में
१९७१ के मई-जून मास में शिविर का एक मास की अवधि के लिये श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर आयोजन सम्पन्न हुआ। जिसे पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर' ने वाचना प्रदान की। शिविर का संचालन श्री सुरेन्द्र लोढ़ा (मंदसौर) ने किया। शिविर में ८४ छात्रों ने नियमित दिनचर्या, आध्यत्मिक हवामान तथा नैतिक वातावरण के मध्य जैन संस्कृति के विविध विषयों का पारदर्शन प्राप्त किया। इस अवसर पर अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की बैठक हुई जिसमें श्री महेन्द्रकुमार भंडारी (झाबुआ) को संयोजक नियुक्त किया गया।
पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज "मधुकर" के उज्जन चतुर्मास काल में ही शिविरार्थियों का सम्मेलन आयोजित किया गया । इसी अवसर पर अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का आठवां अधिवेशन सम्पन्न हुआ। शिविरार्थियों ने परिषद् के कार्य संचालन में भाग लेने का आश्वासन अर्पित किया।
इन समस्त प्रयत्नों के बावजूद परिषद् पर लगा कृष्ण पक्ष व्यतीत नहीं हुआ। समय की नियति प्रबल है । जिस परिषद् के नाम पर समाज का कण-कण उबाल लेता था, उसमें पुनर्गठन के प्रयत्न बारम्बार निरुपयोगी बन रहे थे । समाज स्वयं अपेक्षा कर रहा था कि परिषद् के अन्तरिक्ष में विकास का चन्द्र उदित होगा और शुक्ल पक्ष का चक्र गतिमान होगा । अपेक्षा वर्षों तक आस लगाये बैठी रहती है । महिने और समय के चक्र के साथ वर्ष व्यतीत होने लगे । परिषद् की कतिपय शाखाओं में सक्रियता आने लगी। कार्यकर्ता स्वतः इसकी आवश्यकता अनुभूत करने लगे । पूज्य मनिराज श्री मधकरजी का दिव्य उपदेश रंग लाने लगा। १९७४ के मई मास की चार व पांच तारीख को जावरा में परिषद् का नवां अधिवेशन आयोजित किये जाने का साहस किया गया। दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास के साथ उठाया गया इस बार का कदम परिषद् के ग्रयोगों को बदलने वाला साबित हुआ । इससे पूर्व रतलाम नगर में परिषद् कार्यकर्ताओं की एक बैठक सम्पन्न हुई जिसमें पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' ने कार्यकर्ताओं को गुरुदेव की वाणी, परिषद् के उद्देश्य, परिषद् कार्यकर्ताओं द्वारा एकाधिक लिये गये संकल्पों का स्मरण करवाया। खाचरौद में सम्पन्न परिषद् कार्यसमिति की बैठक में जावरा परिषद् की ओर से आमंत्रण दिया गया कि गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी महाराज की क्रियोद्धारभूमि पर निर्मित विशाल दादावाड़ी के पवित्र प्रांगण में ही परिषद् का पुनर्जन्म किया जावे । रतलाम की बैठक में डॉ. श्री प्रेमसिंह जी राठौड़ (रतलाम) को परिषद् का संयोजक मनोनीत किया गया। म. प्र. राज्य परिवहन कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी। यातायात साधन ठप्प पड़े हुए थे। शिविर स्थल तक पहुँचने में काफी असुविधा थी लेकिन भारी संख्या में कार्यकर्ता एकत्र हुए। पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर', पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी म., पूज्य मुनिराज श्री नित्यानंद, श्री विजयजी तथा पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर
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विजयजी के सान्निध्य तथा डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़ की अध्यक्षता में अधिवेशन भारी सफलता के साथ सम्पन्न हुआ । अधिवेशन के साथ ही परिषद् की नसों में नया रक्त प्रवाहित हो गया। समस्त शाखाएँ सक्रिय हो उठीं। इससे पूर्व समस्त शाखाओं में विधिवत् चुनाव करवाये गये और उनके अधिकृत प्रतिनिधियों ने उसी हैसियत में सम्मेलन में भाग लिया। आठ वर्षों के उपरांत परिषद् की केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति तथा पदाधिकारियों के निर्वाचन हुए। डॉ. श्री प्रेमसिंहजी राठौर केन्द्रीय अध्यक्ष पद पर आरुढ़ किये गये ।
इस अधिवेशन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि समाज के साधनहीन छात्रों के लिये श्री राजेन्द्र छात्रवृत्ति योजना का अस्तित्व उभरा। साथ ही तीर्थंकर देव श्री महावीर स्वामी के २५०० वें निर्वाण वर्ष की स्मृति में चांदी के सिक्के बनवाने का निर्णय किया गया। यह भी निश्चय किया गया कि इनके एक पहलू पर अभिधान राजेन्द्रकोप की छवि एवं राजेन्द्र संवत् अंकित किये जावें । साथ ही इस अधिवेशन में महिला प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। श्री राजेन्द्र जैन महिला परिषद शाखाएँ गठित करने का मंगल प्रारंभ भी हुआ। कुछ स्थानों पर महिला परिषदों के गठित हो जाने की सूचना भी प्राप्त हुई। परिषद् के विधान को युक्तियुक्त बनाने हेतु कई संशोधन किये गये । परिषद की केन्द्रीय कार्यसमिति में महिला प्रतिनिधियों का समावेश किया गया । जावरा का अधिवेशन परिषद प्रगति की राह में नया सीमा चिन्ह बन गया । परिषद् की गति को दक्षिण भारत की ओर प्रवृत्त करने हेतु प्रयत्न किया गया । भूतपूर्व अध्यक्ष श्री सौभाग्यमल जी सेठिया तथा कोषाध्यक्ष श्री शान्तिलालजी सुराणा ने मद्रास तथा बैंगलोर क्षेत्र की यात्रा की। यह दौरा १९७५ के नवम्बर मास के द्वितीय सप्ताह में हुआ। समाज के महानुभावों ने परिषद् को अपनाने का आश्वासन दिया ।
दसवें अधिवेशन की तैयारी परिषद् की अलिराजपुर शाखा ने श्री लक्ष्मणीतीर्थ की पवित्र भूमि पर की। इस अधिवेशन को सान्निष्य पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी मधुकर ने प्रदान किया । अध्यक्षता डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़ ने की । १८ व १९ दिसम्बर १९७५ को प्रतिनिधिगण दूर-दूर से श्री पद्मप्रभु स्वामी की छत्रछाया में समाजोत्थान पर विचार विमर्श करने के लिये एकत्र हुए। प्रथम बार दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों की उपस्थिति भी महत्त्वपूर्ण रही । परिषद् का दक्षिण भारत में प्रवेश हो गया । इसी अधिवेशन से परिषद् की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने हेतु एक स्थायी कोष करने की शुरुवात हुई । भेट के रूप में परिषद् को विभिन्न बोलियों तथा नकरों के माध्यम से उल्लेखनीय राशि प्राप्त हुई। जावरा अधिवेशन में चांदी के सिक्के निर्मित करवाने का जो निर्णय किया गया था, वे सिक्के भी इस अधिवेशन में प्रसारित कर दिये गये। इस अवसर पर 'शाश्वत धर्म' का एक विशेषांक भी प्रकाशित हुआ । पारित किये गये प्रस्तावों में राजेन्द्र बचत योजना संचालित कर समाज के अध्यक्ष व कमजोर वर्ग के आर्थिक विकास के उद्देश्य की परिप्राप्ति की दिशा में ठोस कार्य
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करने का कदम उठाया गया। शाखा वार प्रगति का आकलन किया गया ।
ये दोनों अधिवेशन परिषद् के लिये वरदान बन गये । पाठशालाओं को अनुदान दिया जाना प्रारम्भ किया गया। इससे कई शाखाओं द्वारा संचालित लड़खड़ाती धार्मिक पाठशालाओं को सम्बल मिल गया । परिषद् के माध्यम से गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति एवं गुप्तदान भी मिलने लगा । भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण वर्ष की स्मृति में मन्दसौर शाखा परिषद् द्वारा निर्मित श्री महावीर प्याऊ हेतु एक हजार रुपया अनुदान स्वीकृत किया गया। केन्द्रीय परिषद् ने समय-समय पर साहित्य प्रकाशन भी किया।
तीर्थंकर श्री महावीर देव के २५०० वें निर्वाण वर्ष की स्मृति में परिषद् द्वारा 'शाश्वत धर्म' ने चार सौ पृष्ठों का एक विशाल विशेषांक निकाला जो अपने आप में जैन साहित्य के मध्य उल्लेखनीय स्थान स्थापित करने में सफल हो गया ।
शाखाओं की गति को त्वरण देने के उद्देश्य से दि. ७ नवम्बर १९७६ से १६ नवम्बर ७६ तक महामंत्री श्री सी बी भगत ने मालव व निमाड़ क्षेत्रीय शाखाओं का दौरा किया। आपके साथ दौरे में भू. पू. अध्यक्ष श्री सौभाग्यमलजी सेठिया तथा कोषाध्यक्ष श्री शान्तिलालजी सुराणा भी रहे।
परिषद् पुनः एक सशक्त संगठन के रूप में सामने आ गयी है । कार्यकर्त्ताओं की शक्ति का सामंजस्य सकारात्मक बिन्दु पर विश्राम ले रहा है। शाखाएँ परिषद् उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये उपलब्धियों के मंगलसूत्र समाज को समर्पित कर रही है । पाठशालाओं की शृंखला गूंथ गई है। साथ ही महिलाओं के लिये सिलाई केन्द्र चल रहे हैं । केन्द्रीय परिषद् ने सिलाई केन्द्रों को मशीनें अनुदान के रूप में दी हैं । धर्मार्थ औषधालयों का निर्माण व संचालन भी परिषद् शाखाएँ कर रही हैं। अस्पतालों में बीमारों को निःशुल्क दवा वितरण कर मानव कल्याण की भावना को जीवन्त किया जा रहा है । पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के रजत सिक्के प्रसारित किये जा चुके हैं । जालोर के स्वर्णगिरि पर प्याऊ संचालन हेतु केन्द्रीय परिषद् ने अनुदान दिया है।
परिषद् का म्यारवां अधिवेशन इसी वर्ष निम्बाहेड़ा ( राजस्थान) में सम्पन्न हो चुका है । इस अधिवेशन को सान्निध्य पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर', पूज्य मुनिराज श्री तथा पूज्य मुनिराज श्री नित्यानन्दविजयजी महा ने प्रदान किया एवं परिषद् के अध्यक्ष श्री डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़ ने इसकी अध्यक्षता की। निम्बाहेड़ा अधिवेशन की शाखाओं की प्रवृत्तियों को प्रगति का आयाम प्राप्त हुआ है । इस अधिवेशन के उपरान्त प्रगति का दौर बढ़ता जा रहा है। परिषद् द्वारा धार्मिक रेकार्डस तैयार करवाई गई हैं जिनमें गुरुदेव की आरती तथा नमस्कार मंत्र धुन सम्मिलित हैं । सिलाई केन्द्रों की संख्या बढ़ गई है। वर्तमान में सैकड़ों छात्र धार्मिक अध्ययन कर रहे हैं। श्री
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भंवरलाल जी छाजेड़ नव अवधि के लिये अध्यक्ष निर्वाचित हुए और उन्होंने अपना कार्यभार सम्हाला ।
पूज्य मुनिराज श्री जयन्ती महा 'मधुकर के रखलाम चातुर्मास में केन्द्रीय परिषद् द्वारा स्थानीय स्तर पर धार्मिक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन हुआ है। साथ ही धार्मिक निबन्ध प्रतियोगिता भी सम्पन्न हुई। परिषद् ने धार्मिक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता की प्राथमिक सफलता से उत्साहित होकर इसे अखिल भारतीय स्तर पर संचालित करने की घोषणा कर दी है। रतलाम चातुर्मास के अन्तर्गत एक दस दिवसीय धार्मिक शिक्षण शिविर का आयोजन परिषद ने श्री राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक ट्रस्ट कार्यकर्त्तागण रतलाम के सहयोग से किया है । इस शिविर में तीस छात्रों ने दस दिनों तक ज्ञान की आराधना की। परिषद् द्वारा आगामी शिविर जालोर में आयोजित किया
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"मधुकर" मधुमय जीवन कर दो
गुरुदेव के पुण्य प्रताप से
जैन धर्म की जय जय को
जग में गुंजित कर दें !
शोषित, दलित, पतित मानव कोआओ हम सब मिलकर गरिमा से मण्डित कर दें ! अंधकार को मेट मिटाकर
हृदय कलुष को, पापों को आओ हम खण्डित कर दें ! भाव वृद्धि कर शुद्धि के स्वर से - एक हृदय हो जायें हम सब अब तन मन पावन कर लें !
उच्च कोटि के जीवन मूल्य समझकर जागृत पेता होर के हम मधुकर मधुमय जीवन कर दें !
यश-सौरभ से रतन ललाम कोआओ हम सब मिलकर जग मग जग मग हर्षित कर दें ।
-निर्मल सकलेचा
जा रहा है । साथ ही 'राजेन्द्र ज्योति' के रूप में एक उल्लेखनीय ग्रंथ प्रकाशित करने का निर्णय भी महत्त्वपूर्ण है।
परिषद् युवकों की जीवन गंगा बन गई है । समाज के कायाकल्प का प्रतिबिम्ब इसकी हिल्लौरों के साथ धरातल पर चमक रहा है। जीवन के क्षेत्रों से जुड़ी, जीवन के क्षेत्रों में मिली व जोवन के क्षेत्रों से उठी परिषद् एक स्थायी शक्ति के रूप में विकसित हो रही है। युवकों की पंक्तियां इसे अपना रही हैं। युवकों का उन्नत उल्लास इसका श्रृंगार कर रहा है । बाधाओं और प्रतिरोधों की चट्टानें परिषद् प्रवाह की मार से बिखर कर विलुप्त हो रही है। पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का स्वप्न निरर्थक नहीं है, उसका सामाजिक परिपक्व होता जा रहा है । समाज, अब समाज के लिये जिन्दा हो रहा है ।
प्रार्थना
जैन
मुनियों, धर्मगुरुओं, मान की एक किरण देना । कंकर में भी चमन के,
फूल विकसित तुम ही करना ॥ १ ॥
दिव्य ज्योति संघ को देना, माया मोह से इसे हटाना । धर्म की हो जय जयकारी, प्रेरणा ऐसी ही देन
गांव-गांव इस दीप को तुम, प्रज्वलित करते ही रहना । ज्ञान के अन्तर सब को एक करते ही रहना ||३||
पुहासे
॥२॥
उज्ज्वलसी एक किरण देना, अन्धकार से हमें हटाना । धर्म के इस अखण्ड दीप को, ज्योति जगमग करते जाना ॥४॥
- राजमल नांदेचा
राजेन्द्र ज्योति
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O
MGNRIWRMIRMANCE
परिषद्
मुनि श्री लक्ष्मणविजय 'शीतल'
राजेन्द्र जैन नवयुक परिषद,
धार्मिक पाठशालाएं खोली, जन जागरण को करती है।
सिलाई केन्द्र चलवाये हैं। भला करेगी समाज देश का,
समाज उत्थान के सभी,
सिद्धान्तों को अपनाये हैं।। ऐसा वादा करती है ।।१।।
कर्म करेगी जैसी दुनिया,
वैसा ही फल को पाती है ॥४॥राजे।। परिषद के माध्यम से युवक, एक सूत्र में आये है ।
दहेज ना मागेंगे हमतो, गुरुदेव राजेन्द्र सूरि के,
आज प्रतिज्ञा करते हैं।
मृत्यु भोज न खायेंगे, वचनामृत मन भाये हैं।। संगठन में शक्ति है रहती ,
प्रण ये दिल में धरते हैं। प्रचार परिषद करती है।।२।।राजे.।।
मन घोड़े पर जब हो काबू
तब कामना सब फलती है ।।५।।राजे.।। विधवा और गरीबों की,
है प्रार्थना गुरुदेव अबतो, हमदर्द परिषद बनी हुई।
बल दो और बलवान करो। समाज के भले के खातिर,
परिषद के भण्डारों में कमर बांध कर तनी हुई।
धन देकर धनवान करो। हमकों आशा बंधी है, ऐसी,
बूं-बूंद पानी से ही, अब नाव हमारी तिरती है ॥३॥राजे.।।
मटकी सारी भरती है।६।राजे.।। दुःख में दुःखी न होंगे हम सुख में फूले न समाएंगे। राजेन्द्रसूरि के नाम स्मरण से, भव सागर तिर जाएंगे, लक्ष्मण विजय गुरु वाणी अब, सबके मन को हरती है।।।७।। राजे.।।
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आत्मशुद्धि गीत
मंगल गीत
वैरों को भूलकर मंत्री जगालो, आज हृदय में क्षमा बसालो ।।
बड़े भाग्य से हमने मनु जन्म पाया फिर क्यूं मन में तू राज को लाया मिटाले दुर्गंध क्रोध और अभिमान की फैलादे सौरभ सभी ओर क्षमा की
मनुष्य तो हैं हमें मानव बनालो आज हृदय में क्षमा बसालो ।।
क्षमा लेकर सजाले निज आतम को क्षमा कर पा ले परमातम को वीर वही है जिसने इसे अपनाया प्रभु महावीर ने यही फरमाया
"जीयो और जीने दो" की ज्योति जलादो आज हृदय में क्षमा बसालो ।।
"राजेन्द्र ज्योति" के जगमग से, जग का कण-कण जगमगा उठे ।
हो त्रिविध ताप से मुक्त विश्व,
___शठता, जड़ता, संताप ढहे । यह ज्योति तिरोहित तमकरत जिसमें "जयन्त" सत सम्बल है वरदान "विजय" श्री से मंडित,
मुनि का समष्टि देवी बल है। युग की विभूति राजेन्द्र सूरि, "अभिधान कोष” गौरव थाती साहित्योदधि का सुधा स्रोत,
मानवता आंक नहीं पाती । अध्यात्म उफनता है जिससे दर्शन की दिव्य ज्योति न्यारी अंतस में जिसे उतार मनुज,
बन सकता संयत सुविचारी । यह सुधर सलोनी सृष्टि बने, मानव प्रतिपल हो उपकारी, प्राणी-प्राणी की रक्षा रत,
बस बदल जाय दुनिया सारी । सत-शील-अहिंसा सम्बल से, संसार समन्वय की गरिमा । शम-दम-व्रत-संयम मूर्त रूप,
श्रद्धाभिभूत गुरुवर महिमा । गुरुवर सुस्वप्न साकार हुआ, राजेन्द्र नवयुवक परिषद से । जिसमें की प्राण प्रतिष्ठा है,
मुनि “मधुकर" ने गौरव पद से । मुनिराज जयन्त विजयजी का लोकोपकार मंगलकारी ।। राजेन्द्र नवयुवक सुमनों से
बस दमक उठे धरती सारी ।
प्रायश्चित के तप से कंचन बनेंगे मृदुता के जल से पावन बनेंगे खुशियों की हरियाली जमीं पर होगी हर दिल में सुख की कलियां खिलेंगी
जीवन में प्यार का नीर बहालो । आज हृदय में क्षमा बसालो !!
गुरु “राजेन्द्र' के चरणों की छाया मिली 'यतीन्द्र" को तब सही पथ पाया स्नेह के रंगों में खेलें आज होली भर दो क्षमा से "शलभ' की झोली
प्यार के गहनों से तन मन सजा लो । आज हृदय में क्षमा बसालो ।।
-महेन्द्र भण्डारी "शलभ"
-डॉ. शोभनाथ पाठक
राजेन्द्र-ज्योति
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संस्था परिचय
अखिल भारतीय राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्
मुनि लेखेन्द्रशेखर विजय, 'शार्दूल'
अखिल भारतीय राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद एक ऐसी संस्था है, जिसका उद्देश्य जैन समाजान्तर्गत कुरीतियों को दूर कर उसे एक आदर्श समाज बनाना है। पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब एक आदर्श समाज चाहते थे इसलिये आपने उपरोक्त संस्था की स्थापना श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर की। पूज्य गुरुदेव आज हमारे बीच में नहीं हैं पर उनका यह स्मारक आज भी मौजूद है और अपना काम कर रहा है।
पूज्य गुरुदेव श्री के स्वर्गवास के बाद पुज्य मुनि श्री जयन्त विजयजी "मधुकर" महाराज ने अपने प्रयत्नों से इस संस्था की नींव सुदृढ़ की और संस्था का कार्यक्षेत्र विस्तृत किया । आज गांव गांव में परिषद की शाखाएं हैं जो केन्द्रीय कार्यालय से जुडी हुई हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु और कर्नाटक में परिषद की शाखाएँ विस्तारित हैं।
जिन उद्देश्यों को लेकर परिषद की स्थापना हई वे हैं:-सामाजिक संगठन, धार्मिक शिक्षा प्रचार, सामाजिक सुधार और समाज का आर्थिक विकास । परिषद ने अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अथक प्रयास किया। परिषद ने गांव गांव में पाठशालाएं खोली, वाचनालय और सिलाई केन्द्र शुरू किये और समाज को संगठित किया। मृत्युभोज जैसी सामाजिक कुरीतियां परिषद ने बंद करने की कार्यवाही की और ज्ञान प्रकाश फैलाकर अज्ञानान्धकार को दूर करने का प्रयास किया । परिषद ने आज तक जो कुछ भी किया है वह बहुत सुन्दर किया है आगे भी हम परिषद से बहुत आशा रखते
परिषद का प्रथम सम्मेलन पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब की अध्यक्षता में मोहनखेड़ा तीर्थ में सम्पन्न हुआ। उस अधिवेशन में पूज्य गुरुदेव ने यह घोषणा की थी कि परिषद् के विकास में ही समाज का विकास है । परिषद का अधिवेशन हर वर्ष होता है। इस वर्ष का अर्थात ई० सं० १९७७ का वार्षिक अधिवेशन निम्बाहेडा (राजस्थान) में हुआ। इस अधिवेशन के समय विशाल जनसमूह की उपस्थिति में अनेक नई योजनाएं बनाई गई जो अब कार्यान्वित हो रही हैं।
चरम तीर्थकर भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी महोत्सव के अवसर पर परिषद् ने भगवान महावीर के चांदी के सिक्के निकाले तथा अपने मुखपत्र पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के चांदी के सिक्के निकाले। ... ___अब तक परिषद् के ग्यारह अधिवेशन पूर्ण रूप से सफल हुए हैं। परिषद अनेक प्रकार की योजनाएं बनाती है और कार्यान्वित करती है। हम परिषद के कार्यक्षेत्र को और भी अधिक व्यापक बनाना चाहते हैं अत: आपसे तनमन धन का सहयोग चाहते हैं। आपके सहयोग से ही परिषद् और अधिक आगे बढ़ सकेगी। आप आपके नगर में परिषद् की शाखा खोलकर हमें सहयोग दें। इससे भविष्य में एक धार्मिक, नीतिमान और प्रगतिमान समाज का निर्माण होगा।
एक बात और । मुनि श्री लक्ष्मण विजयजी महाराज ने सं० २०२७ में अलीराजपुर में नगर समाज के आर्थिक विकास हेतु श्री महावीर अल्पबचत बैंक की स्थापना करवाई है। इसी प्रकार की बचत बैंकों की परिषद के माध्यम से आप अपने नगर में स्थापना कर मध्यम वर्ग की उन्नति में सहायक बनेंगे तो संघ समाज की चतुर्मुखी प्रगति होगी।
पूज्य गुरुदेव ने ''शाश्वतधर्म" मासिक पत्र भी चलाया था जिसका उद्देश्य जिन प्रवचन को जन जन तक पहुंचाना था । गुरुदेव के स्वर्गवास के बाद परिषद ने इसे जारी रखा। आजकल यह पाक्षिक रूप से निकलता है। यह त्रिस्तुतिक समाज का प्रतिनिधि पत्र है।
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अ. भा. श्री जैन नवयुवक परिषद् के उद्देश्य
कांतिलाल जैन
"संस्था" शब्द ही से स्पष्ट होता है कि उसका एक विधान होगा, संगठन के नियम होंगे, उसके कार्य के निश्चित उद्देश्य होंगे। संस्था की अपनी एक परिधि अथवा सीमा होती है। ___ अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् परम पूज्य जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की अनुयायी संस्था है जिसके निम्न उद्देश्य हैं:
१. धार्मिक शिक्षा २. समाज संगठन ३. समाज सुधार
४. आर्थिक विकास समाज हित में बनाए गए उद्देश्य पर कार्य करना एक जीवित संस्था का लक्ष्य रहना चाहिए। उद्देश्यों के अनुसार संस्था के कई अधिवेशन सम्पन्न हुए और संपूर्ण भारत में अनेक शाखाएं स्थापित हैं। स्थान स्थान पर धार्मिक विद्यालयों की स्थापनाएं हई, जिनमें हजारों छात्र-छात्राएं जैन धर्म का ज्ञान ग्रहण कर रहे हैं। समाज में एकता बनी रहे, इस दृष्टि से सौहार्द्र, समता, एकता, स्नेह वृद्धि के लिए परिषद आयोजन करती रही है तथा समाज की एक विश्वसनीय कड़ी के रूप में वह संस्था उभर रही है। आज समाज के अनेक कार्यों की संचालक संस्था बन रही है। इसके माध्यम से ही सामाजिक
कार्य होते हैं। समाज के जीवन में इसका पूर्ण एकाकार हो गया है। परिषद समाज, व समाज परिषद, एक सिक्के के दो पहलू हैं। परिषद समाज की प्रतिनिधि संस्था है। सामाजिक सुधारों की दृष्टि से हमारे नवयुवक परिषद से नई दिशा ग्रहण कर रहे हैं। पर्दाप्रथा, दहेज, सुशिक्षा, मृत्युभोज आदि बुराइयों की समाप्ति की दिशा में कार्य हो रहा है। मैं समझता हूं परिषद यदि प्रगतिशील रही तो इस दिशा में इतना अधिक कार्य होगा जिसका लेखा रखना ही कष्ट साध्य हो जाएगा। परिषद ने आर्थिक विकास के लिए अब तक जो कार्य किया है, उनमें परिषद सहायता निधि, मध्यमवर्गीय परिवारों की सहायता बुकबक आदि प्रमुख हैं। संस्था आवश्यकतानुरूप इस दिशा में संलग्न है।
यथार्थ में परिषद समाज की अभिन्न अंग है। समाज में परिषद ही एक ऐसी संस्था है जो पूज्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी के मिशन को पूरा कर रही है। फिर यह संस्था तो अखिल भारतीय है इसमें पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व है, जो बंधु इससे अलग-थलग हैं वे संस्था में आयें और सेवा भावना में जुट जावें । संस्था के लिए अपना सुख त्यागना होता है तब समाज के लिए कुछ बनता है। बैठकर, आलोचना कर हम समाज का हित न कर सकेंगे। समाज की प्रतिनिधि संस्था किसी एक से नहीं निखर सकती उसके लिए हजारों हाथों के स्पर्श की आवश्यकता होती है ।
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परिषद की उपलब्धियाँ
श्री सौभाग्यमल सेठिया
किसी भी संस्था की उपलब्धियों का आकलन करने से पूर्व यह विचार मन में स्वाभाविक रूप से उठता है कि वह संस्था किसकी उपलब्धि है और क्यों ? जब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता तब तक संस्थागत उपलब्धियों का आकलन ठीक रूप से करने में बाधा उपस्थित होती है, अतः इस प्रश्न का निराकरण करते हुए ही उपलब्धियों का विवेचन किया जाना चाहिये ।
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स्वर्गीय पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी महाराज साहब के अंतिम दिनों के चिन्तन की समाज को जो भेंट प्राप्त है; वह है -- 'अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन युवक परिषद इसके उद्देश्य से ही लक्षित होता है कि वे चारों उद्देश्य समाज को सही चिंतन की ओर अग्रसर कर समाज को सही दिशा बोध देते हुए संगठित कर उसे जैन दर्शन एवं जैन संस्कृति से अधिकाधिक अंशों में अवगत कराते हुए, सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर करते रहें । यही कामना उनके मन में रही। उसके फलस्वरूप परिषद का उद्भव समाज में हुआ ।
जिज्ञासा जागृत होगी कि परिषद का उद्भव कब हुआ और उसके चार उद्देश्य कौन से हैं? परिषद की जन्मस्थली किस स्थान पर रही हुई है ? इसका संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है-
पूज्यपाद आचार्य प्रवर श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब ने मोहनखेड़ा तीर्थ ( राजगढ़ - धार) में कार्तिक शुक्ला १५ संवत् २०१६ के दिन परिषद की स्थापना कर समाज को अपने चिन्तन के नवनीत के रूप में परिषदरूपी संस्था समाज के उत्थान के लिए स्थापित की। इस संस्था की सबलता के द्योतक चार स्तंभ रूप चार मूल उद्देश्यों की उद्घोषणा समाज के समक्ष करते हुए समाज को साग्रह कहा--' इस संस्था से यदि कुछ उपलब्धियां प्राप्त करना चाहो तो निम्नलिखित आधार रूप चार
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स्तंभ समान उद्देश्यों का निरन्तर यथाशक्ति सिंचन -सृजन लगातार करते रहना पड़ेगा; तभी संस्था फलीभूत होकर फलदात्री बनेगी । संस्था मात्र के गठन करने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाया करती । जिस प्रकार किसी स्थान पर खड़े होकर किसी अन्य स्थान का विचार मात्र करने से उस स्थान पर बिना चले नहीं पहुँचा जा सकता उसी प्रकार बिना सृजन- सिंचन के पौधे पल्लवित, पुष्पित तथा फलदाता नहीं बन पाते। उसी क्रम में यदि अपने श्रम से समाज का प्रत्येक घटक सृजन नहीं करेगा तथा अपने त्याग से सिंचित नहीं करेगा तब तक संस्था परसवित पुष्पित एवं फलदात्री नहीं बन पायेगी ।
अब इसके उद्देश्य क्या हैं, यह जानना होगा। बिना आवश्यकता के आविष्कार नहीं होता। किसी चीज का अभाव एक आवश्यकता की अनुभूति देता है। अनुभूति होने पर उस अभाव की पूर्ति करने के लिए आविष्कार किया जाता है। उसी प्रकार समाज में विद्यमान अभावों को निःशेष करने के लिए परिषद के चार आत्मार्थीपरमार्थी लक्ष्य निर्धारित किये गये वे निम्नलिखित है-(१) सामाजिक संगठन ।
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(२) धार्मिक शिक्षा का प्रसार --अज्ञान तिमिर को ज्ञान रूपी सूर्य से निःशेष करना ।
(३) समाज सुधार -- समाज में छाई हुई कुप्रवृत्तियां और कुरीतियों का उन्मूलन करना । जिनके कारण समय और धन का अपव्यय होता है ।
(४) समाज का आर्थिक विकास - अर्थाभाव को समाज से दूर हटाना ।
नवयुवकों ने गुरुदेव की वाणी में रहे हुए रहस्य को अनुभव कर अपने आपको संस्था के प्रति समर्पित करने की निष्ठापूर्वक शपथ ग्रहण की।
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अब जब संस्था अस्तित्व में आ गई है तो सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि संस्था के आविर्भाव के संवत् २०९६ से संवत् २०३४ तक के दीर्घकाल में समाज को परिषद से क्या क्या उपलब्धियाँ प्राप्त हुई। इसका भी विशद विवेचन न करते हुए एक ही प्रश्न पुन: मैं सामने रखना चाहूंगा कि जो भी व्यक्ति परिषद के सामने आया; उसने परिषद को उसके कार्यकर्ताओं के माध्यम से किस रूप में पाया ? उत्तर सहज ही सामने आयेगा कि नगर-नगर, गाँव-गाँव में जो कि भारत के अंचल की चारों दिशाओं में स्थित है। वहां पर परिषद नाम की एक संस्था स्थापित है और उसके कार्यकर्ताओं का अन्यत्र स्थित परिषद के कार्यकर्ताओं की एक दूसरे से जान-पहचान से लेकर केन्द्रीय परिषद के माध्यम से कार्य करने की प्रणाली तथा अपनी अपनी क्षमता का परिचय एक दूसरे को हुआ।
इसका तात्पर्य यह निकला कि समाज में संगठित होने की भावना भौतिक रूप में प्रकट हुई अर्थात् कार्यकर्तागण एक जुट, एकमन होकर कार्य की सिद्धि में लग गये । जब अपने पहले उद्देश्य की ओर निष्ठावान और कर्मठ कार्यकर्तागण अग्रसर हुए तो उनको दूसरे उद्देश्य की पूर्ति आवश्यक प्रतीत हुई अर्थात् ज्ञानाभाव का अनुभव हुआ। अतः परिषद ने जगह जगह धामिक पाठशालाएँ, वाचनालय, पुस्तकालय, लेख प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कर समाज के नन्हे नन्हे किशोरों से लेकर वयोवृद्ध तक को मुखरित कर दिया। क्या यह सच्चाई नहीं? इस सत्य का प्रत्यक्ष प्रमाण हमारी परिषद द्वारा आयोजित कार्यकरिणी की मीटिंगों के स्थल तथा अधिवेशन स्थल हैं । जहाँ समाज के नवयुवकों की नवचेतना के दर्शन होते हैं । जब जागृति आई और पाठशालाएँ, वाचनालय, पुस्तकालय, कला-केन्द्र आदि चलने लगे तो उनको सुव्यवस्थित एवं समुचित रूप से चलाने के लिए द्रव्य की आवश्यकता परिषद शाखाओं को अनुभव हुई। परिषद शाखाओं ने केन्द्रीय कार्यालय को अपनी आवश्यकताओं से अवगत कराया। केन्द्रीय कर्यालय ने यथाशक्ति आर्थिक सहायता देकर परिषद शाखाओं द्वारा संचालित प्रवृत्तियों को गतिमान बनाया।
इसी प्रकार परिषद की कई शाखाओं ने अपने-अपने गाँवों के छात्रों को धार्मिक ज्ञान की शिक्षा देकर जैन तत्त्वज्ञान विद्यापीठ पूना और जैन धार्मिक शिक्षण संघ बम्बई की परीक्षाओं में
बिठाया । कई छात्र परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए और कइयों ने पुरस्कार भी अर्जित किये। इससे यह कहा जा सकता है कि परिषद अपने उद्देश्यों में सफलता प्राप्त कर रही है। परिषद गतिशील है । यदि गति में कहीं बाधा दिखाई पड़ती है तो परिषद के कार्यकर्तागण दौरे करके सम्बन्धित प्रवृत्ति को पुनः पुनः गतिमान बनाते हैं और रुकावट हटा देते हैं ।
दौरे करते समय केन्द्रीय पदाधिकारी यह भी ध्यान रखते हैं कि किसी परिषद शाखा की क्षमता अधिक है तो वहाँ नई प्रवृत्ति भी प्रारंभ करवाते हैं और यदि किसी परिषद शाखा की क्षमता का समुचित उपयोग नहीं हो रहा हो तो उन्हें मार्गदर्शन करते हैं और समाज को समुन्नत करने की प्रवृत्ति चालू करवाते हैं।
परिषद के माध्यम से हमारी समाज में आपसी जान पहचान बढ़ी है और परिषद एक संगठित संघ के रूप में समाज के सामने आयी है । जो कार्य जहां कहीं भी परिषद को सौंपा गया उस कार्य को समाज के कर्मठ कार्यकर्ताओं ने पूर्ण निष्ठा से सम्पन्न कर समाज के हृदय में परिषद ने अपना स्थान बनाया है।
समाज के समक्ष परिषद ने जिन उत्सव, महोत्सव, प्रतिष्ठाओं तथा तपाराधन में सहयोग दिया है। उनमें से कुछ कार्य निम्नलिखित हैं
(१) स्वर्गीय पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की निश्रा एवं उपदेश से आयोजित उपधान तप में सेवा करना तथा आकोली प्रतिष्ठोत्सव में सेवा करना ।
(२) श्री मोहनखेड़ा में पूज्य गुरुदेव श्री यतीन्द्रसूरिजी महाराज की मूर्ति का प्रतिष्ठोत्सव ।
(३) वर्तमानाचार्य श्री विद्याचंद्रसूरिजी का पाटोत्सव महोत्सव।
(४) साध्वीजी प्रियदर्शनाश्रीजी का दीक्षा महोत्सव आदि प्रसंगों पर नययुवक एक सूत्र में बंधकर संगठित रूप इन सब कामों में सहयोग जो परिषद की उपलब्धि है, जिससे सभी ने अनुशासनबद्ध हो काम किया।
परिषद गुरुदेव प्रदर्शित मार्ग पर निरंतर बढ़ती जायेगी और उससे संघ समाज को और अनेक उपलब्धियां प्राप्त हो सकेंगी।
हाट, हवेली, जवाहरात, लाड़ी, वाड़ी, गाड़ी, सेठाई और सत्ता सब यहीं पड़े रहेंगे । दुःख के समय, इनमें से कोई भी भागीदार नहीं होगा और मरणोपरान्त इनके ऊपर दूसरों का आधिपत्य हो जाएगा।
-राजेन्द्र सूरि
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श्री राजेन्द्र नवयुवक परिषद् का उद्गम एवं विस्तार
भंवरलाल छाजेड़
मानव स्वभाव बड़ा विचित्र है। क्षण भर में जिस वस्तु की आशंका होती है वह प्राप्त होते ही नई वस्तु की आकांक्षा पुनः अंकुरित हो उठती है । जीवन भर यही क्रम चलता रहता है और मनुष्य जीने के प्रयत्न में ही उसे समाप्त कर देता है ।
प्रवर्तमान भौतिकवादी युग में मनुप्य की लोभ लिप्सा में वृद्धि हुई है। आचरण में गिरावट आई है और आदर्श दिखावा मात्र का रह गया है। समाज विशृंखलित हुवा है तथा भौतिक सुख साधनों की होड़ में मनुष्य स्वकेन्द्रित होता जा रहा है। उसे न भूखे पड़ौसी की चिन्ता है न दुःखी समाज की। उसे केवल अपनी चिंता है। दूसरे का शोषण करके किस प्रकार अधिक सुख सुविधाएं प्राप्त की जा सकती हैं इसी प्रतिस्पर्धा में मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है । जो भावी विश्व एवं समाज के लिये चुनौती है।
विश्व में अनेक सामाजिक संस्थाएं समाज को आदर्श रूप में परिवर्तित करने हेतु सतत प्रयत्नशील हैं। कुछ सामाजिक संस्थाओं ने कठोर परिश्रम करके समाज के कई अंगों को पतानोन्मुख होने से बचाया है। फिर भी आज ऐसी अनेक संस्थाओं की आवश्यकता है जो समाज को सुशिक्षित, सुसंगठित, समृद्ध और सुसंस्कृत बनाने के प्रयत्न करे।
महापुरुषों की चेतना बड़ी विलक्षण होती है । वे भविष्य को वर्तमान में ही मूर्तरूप में देखने की क्षमता रखते हैं। भविष्य की कठिनाइयों एवं आपदाओं को हमारे समक्ष प्रदर्शित कर जाते हैं।
इन्हीं सभी संभावनाओं को देखते हुए प्रात: स्मरणीय परम पूज्य श्री आचार्यदेव १००८ श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब ने अखिल मालव मेवाड़ प्रान्तीय श्री राजेन्द्र जैन नवयवक परिषद की स्थापना कर अखिल भारतीय होने की आशा के साथ अपने आशीर्वाद के साथ समाज को नई चेतना, संगठन, सुशिक्षा, समृद्धि
के भाव समाज के कर्णधार नवयुवकों में उत्साहित करके एक अलौकिक प्रेरणा का संचार किया।
गुरुदेव ने परिषद की स्थापना में इस बात पर विशेष बल देते हुए कहा कि समाज में ऐसी कई संस्थाओं का उदय हुआ और वे अस्त हुई। उसका मुख्य कारण यह रहा कि उनको सबल, स्वस्थ मार्ग दर्शन का अभाव रहा था उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया गया। जिससे वे समाज की सेवा नहीं कर सकीं । अतः हमें राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की स्थापना के साथ इसके उद्देश्यों के दीपप्रज्वलित करना पड़ेंगे जिनके प्रकाश में यह संस्था समाज का मार्ग प्रशस्त करती रहे और अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त कर सके। गुरुदेव ने परिषद की स्थापना के साथ उसके साथ चार उद्देश्यों को बताते हुए उस तरफ गतिशीलता का संदेश दिया।
चार उद्देश्य हैं:१. समाज संगठन, २. समाज सुधार, ३. धार्मिक शिक्षा प्रसार एवं
४. आर्थिक विकास। हमारी सबकी उपस्थिति की शुभ घड़ी में दीप प्रज्वलित करके इसका सारा बोझ समाज के कर्णधारों, सतत प्रयत्नशील नवयुवकों के कंधों पर डाल दिया गया।
तबसे समाज के कर्णधार उत्साही समाज सेवा एकजुट होकर जी-जान से इस प्रयत्न में लग गये कि वह रोशनी बुझ न जाये बल्कि उसके प्रकाश में समाज का छोटा से छोटा प्राणी भी अमन चैन की सांस ले सके तथा धार्मिक भावनाओं को मन में संजोये हुए कुरीतियों तथा निष्कर्षों को त्यागता रहे । मन, वचन, काया से सन्मार्ग का अनुसरण कर सके।
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गुरुदेव श्री के स्वर्गवास के बाद खाचरोद में परिषद का अधिवेशन संघ प्रमुख श्री श्रीमद् वर्तमानाचार्य के शुभ आशीर्वाद के साथ मुनिराज श्री सौभाग्यविजयजी, मुनिराज श्री जयन्तविजयजी, मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनिराज श्री भुवनविजय जी के सान्निध्य में सम्पन्न हुवा और वहीं परिषद को अखिल भारतीय रूप दिया गया। ____ उसके बाद संघ प्रमुख श्री के सान्निध्य में आकोली (राजस्थान) में परिषद का अधिवेशन हुवा और परिषद राजस्थान में विस्तृत हुई। उसके अनुपम उद्देश्यों को ज्ञात कर सभी प्रभावित हुवे ।
परिषद का अधिवेशन उसके बाद पू. पा. वर्तमानाचार्य श्री के आचार्य पदोत्सव के बाद श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर आचार्यवर्य श्रीमद विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. के सानिध्य में हुआ। आप श्री के शुभाशीर्वाद से परिषद गतिशील हुई और स्व. गुरुदेव की परिषद के लिये भविष्य की धारणाओं को साकार करने का उत्तरोत्तर प्रयास किया और अखिल भारतीय स्तर पर कार्यक्रम एवं व्यवस्था होती गई।
परिषद के उद्भाव से हम अभी तक कितना आलोकित हए हैं एवं कितना मार्ग प्रशस्त हुआ है इसका सिंहावलोकन करते हैं तो हमारी यह संस्था संगठन के क्षेत्र में सुसंगठित एवं सुदृढ़ है। इसकी प्रत्येक शाखा के सदस्यों में अपने समाज को एकता के सूत्र में बांधते हुए उनमें धार्मिक भावनाओं की ओर प्रेरित करने की क्षमता है।
धार्मिक शिक्षा प्रचार इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य है आबाल वृद्धों को धार्मिक शिक्षा के लिये प्रेरित करना अच्छे आचरण का विकास करना तथा भविष्य में समाज को जागृत रखने हेतु समाज सेवी तरुण युवकों का प्रादुर्भाव होता रहे । प्रत्येक शाखा परिषद इस ओर पूरा ध्यान दे रही है तथा इसमें सफलता भी प्राप्त होती जा रही है।
समाज के आर्थिक विकास पर भी इस संस्था ने ध्यान दिया है। गुरुदेव की कृपा तथा समाज के सहयोग से हमें सफलता अवश्य
मिलेगी। हमारे आर्थिक सहयोग के अनेक पहलू हैं। जिनमें __ महिलाओं के अमूल्य समय का सदुपयोग करना अर्थात् सिलाई
केन्द्रों, हस्तकला केन्द्रों की स्थापना करना । बचत बैंकों के द्वारा सहायता प्रदान करना इत्यादि आर्थिक सहायता के कुछ पहलू हैं जिनमें परिषद सक्रिय होकर कार्य कर रही है। ___ समाज सुधार के क्षेत्र में परिषद व्याप्त बुराइयों को अच्छाइयों में परिवर्तित करना चाहती है-परदा प्रथा, मृत्युभोज एवं दहेज प्रथा कुछ ऐसी बुराइयां हैं जिनके प्रति नवयुवकों में रोष है एवं वह दिन दूर नहीं जबकि इन प्रथाओं का उन्मूलन हो जावेगा।
परिषद के अन्तर्गत बाल परिषदों की स्थापना के लिये संस्था प्रयत्नशील है। नन्हें मुन्हे बालक जो भविष्य में समाज के कर्णधार बनेंगे उनको इन चार उद्देश्यों के सांचों में ढालने का अधिक प्रयत्न किया जाना आवश्यक है।
परिषद के संचालन करने वाले स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों की मदद करने को सदा तत्पर रहते हैं। उन्होंने काफी त्याग किया है, कर रहे हैं और करते रहेंगे।
महिला परिषदों में भी अधिक उत्साह है और वे सामाजिक उत्थान तथा धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हुई प्रगति के पथ की ओर बढ़ रही हैं।
परिषद के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये समाज के धर्म प्राण गुरुजनों एवं मुनिराजों का प्रेरणारूपी अमृत सदैव मिलता रहा है और मिलता रहेगा। पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी "मधुकर" जिस समर्पण की भावना से इस परिषद को सहयोग दे रहे हैं वह व्यक्त करना असंभव है उनका प्रेरणादायक मार्गदर्शन ही परिषद की सफलता की कुंजी है।
परिषद की चहुंमुखी उन्नति की कामना करते हुवे परिषद के सभी सदस्यों, पदाधिकारियों एवं मार्गदर्शकों का इस अवसर पर मैं अभिनन्दन करता हुआ आभार प्रदर्शित करता है।
प्राप्त दौलत से सुकृत करो, वह तुम्हें आगे भी सहायक सिद्ध हो सकेगा।
मनुष्य जैसा हराम-सेवन और संग्रहवृत्ति में तल्लीन हो जाता है, वैसा वह यदि प्रभु-भजनमें रहा करे तो उसका बेड़ा पार होते देर नहीं लगती ।
-राजेन्द्र सूरि
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इस अणुयुग में जहां एक ओर समाजवाद के नारे लगाये जा रहे है। वहीं दूसरी ओर गरीब और अमीर के बीच की बाई तो बड़ती ही जा रही है किन्तु मध्यमवर्ग की समस्याएं भी बढ़ती ही जा रही हैं। जहां इन्सान अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु नित नये आविष्कार करता जा रहा है वहां स्वार्थभावना व्याप्त होती जा रही है, नीति भुलायी जा रही है। इन्सान के हृदय में सच्चा प्रेम मिलना दुर्लभ हो गया है। हम अपने दिल के झरोखे में झांककर देखें तो पता चलेगा कि कितनी दूर रह गई है हमसे मानवता । चंद चांदी के टुकड़ों के खातिर लोभ में हम अपना ईमान बेचने को तैयार हो जाते हैं हमारी संस्कृति को सरेआम नीलाम होता देखकर भी हम चैन की निद्रा सो रहे हैं। ईर्ष्या का साम्राज्य चारों ओर व्याप्त हो चुका है। भौतिकवाद की तेज आंधी में हम अपनी मंजिल से भटककर गुमराह हो गये हैं। समाज में फैली कुरीतियां दहेज प्रथा आदि से हम आज तक पीछा नहीं छुड़ा सके हैं। एक ओर हमारे कई साधर्मिक बन्धुओं की आर्थिक हालत खराब है दूसरी ओर हमारी युवा पीढ़ी सही मार्गदर्शन के अभाव में भटक रही है। आध्यात्मिक (धार्मिक) ज्ञान के अभाव में यह वर्ग धर्म विमुख होता जा रहा है । यही शक्ति कुमार्ग पर लगती जा रही है जिसके नित नये किस्से सुनकर हमारा कलेजा थम जाता है ।
बी.नि.सं. १५०३
परिषद् की समाज में आवश्यकता
जुगराज के. जैन
अगर यही विषम हालत हमारी रही तो आने वाला समय हमें कभी माफ नहीं करेगा । अपने भव्य और अमूल्य संस्कृति के वारसे को खोकर हम अपने आपको मानव कहलाने के हकदार भी नही होंगे ।
इन सब समस्याओं का समाधान है-परिषद ।
अखिल भारतीय राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के नाम से परम पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय पतीन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा संस्थापित यह संस्था — संगठन में शक्ति है का शंखनाद करती हुई हमें जाग्रत कर रही है अपने महान उद्देश्यों (समाज संगठन, धार्मिक शिक्षा प्रचार, समाज सुधार, आर्थिक विकास) को लेकर हमें प्रगति व विकास करने का आव्हान दे रही है ।
अब समय आ गया है हर गांव का हर व्यक्ति इसका सदस्य बनकर इसके कार्यक्रम को विशाल पैमाने पर कार्यान्वित करे। पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद हमारे साथ है। श्रद्धा व भक्ति का बल लेकर परिषद द्वारा समाज के कार्य में लग जाये ।
आओ परिषद के माध्यम से हम हर मानव को प्रेम का संगीत सिखायें । समाज में फैली कुप्रथाओं को हटाकर समाजोत्थान द्वारा उज्ज्वल भविष्य बनायें ।
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परिषद् : क्रान्ति का शंखनाद
परिषद् का नाम सुनते ही समाज के विभिन्न स्तरों पर एक ही प्रतिक्रिया होती है कि संस्था कुछ कर रही है । उसके प्रति प्रेम, विश्वास और आत्मीयता के भाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। हां, कहीं कहीं विरोध के स्वर भी उभरते हैं, पर वे सैद्धान्तिक या कार्यप्रणाली के कम और व्यक्तिगत अधिक होते हैं। विरोध ही इस बात का सूचक है कि संस्था जीवित है, क्रियाशील है, और प्रतिष्ठा प्राप्त है ।
डॉ. प्रेमसिंह राठौड़
परम पूज्य गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. के अनुयायी जो "त्रिस्तुतिक समाज" के नाम से जाने जाते हैं मुख्यतः मालवा, मारवाड़ और गुजरात में हैं एवं सुदूर दक्षिण के कई भागों में बने हुए हैं। परमपूज्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी कान्ति दर्शी थे । उन्होंने अनुभव किया कि इस बिखरे हुए समाज की "मणियों की माला " बनाने से ही समाज का संगठन मजबूत होगा एवं भावात्मक एकता संभव होगी। ऐसे प्रति वर्ष गुरु सप्तमी को मोहनखेड़ा तीर्थ पर गुरुभक्त बड़ी संख्या में एकत्रित होते हैं, पर इस अवसर पर समाज हित की चर्चा करने का गंभीर वातावरण नहीं बन पाता । इसी को लक्ष्य में रखकर गुरुदेव की प्रेरणा से उनके सन्नद्ध में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर परिषद की स्थापना हुई ।
परिषद को अठारह वर्ष हुए हैं। अपने शैशवकाल और उभरती हुई जवानी के क्षणों में संस्था उठी, लड़खड़ाई, गिरी और पुनः अपने पांवों पर खड़ी हुई । परिषद ने भविष्य में पूर्ण आस्था रखकर हर विपरीत परिस्थिति में अडिग रहकर निष्ठावान आगेवानों एवं कार्यकर्ताओं ने आज परिषद को जिस मजबूत और सम्माननीय स्थिति में पहुंचा दिया है, वह सदैव चिरस्मरणीय रहेगी ।
समाज मुख्यतः व्यापारी वर्ग का है, पर युवा पीढ़ी शिक्षित है। देश-विदेश की बदलती हुई परिस्थितियों में अपने आपको सार्थक करने की उनकी अभिलाषाएं हैं। मेरी नजर में परिषद की उपलब्धियों में सबसे प्रमुख स्थान "सामूहिक सामाजिक चेतना निर्माण" को है । समाज की सर्वांगीण उन्नति का महत्व, स्वयं की व्यक्तिगत उन्नति से कम नहीं है, यह बात अब सर्वमान्य हो गई है।
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परिषद के कार्यकर्ता गांव-गांव, नगर-नगर में सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक कार्यक्रमों को यथाशक्ति एवं स्थानीय परिस्थितियों
के अनुकूल पूरा कर रहे हैं: समय-समय पर आयोजित सम्मेलनों एवं बैठकों में समस्याओं की गहराई तक पहुंच उनके समाधान की प्रवृत्ति संस्था की प्रौढ़ता का सूचक है।
महिलाएं एवं बालकों में भी जाति हो रही है। अब तो केन्द्रीय कार्यकारिणी में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व है एवं महिला परिषद् तथा बाल परिषदों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। महिला सहमहामंत्री इस ओर विशेष ध्यान दे रही हैं ।
आर्थिक क्षेत्रों में " बचत बैंक" योजना लोकप्रिय हुई है एवं शाखा परिषदों का मार्गदर्शन करने के लिये "बैंकिग मंत्री" सक्रिय है। समाज में जिस किसी को सहायता की आवश्यकता हुई, परिषद के माध्यम से उनकी यथासंभव मदद की जाती है ।
धार्मिक शिक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। ऐसा पाठ्यक्रम निर्माण किया जा रहा है, जिसमें हर सूत्र एवं क्रिया संबंधी सभी प्रश्नों, निज्ञासाओं एवं शंकाओं का युक्तिपूर्वक सम् विवेचन होगा। इससे बुद्धिजीवी युवा पीढ़ी जो सामायिक प्रतिक्रमण, देववंदन आदि से कतराती रहती है, वह इन पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से उन क्रियाओं का महत्व, महिमा और गरिमा को समझ कर उनके करने में गौरव का अनुभव करेंगे एवं आत्म विश्वास की ओर अग्रसर होंगे।
धार्मिक पत्राचार पाठ्यक्रम को मूर्तरूप देने के पूर्व स्थानीय धार्मिक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता एवं अखिल भारतीय धार्मिक ज्ञानवर्धक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जो अत्यन्त ही लोकप्रिय और उत्साहवर्धक रही धार्मिक शिविर के विधियों को पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी म. "मधुकर" द्वारा रचित "भगवान महावीर ने क्या कहा" पुस्तक दी गई है। एक वर्ष तक प्रतिमाह प्रश्न पत्र दिए जायेंगे। इन सब प्रयोगों का प्रयोजन सर्व साधारण में स्वाध्याय के प्रति रुचि पैदा करना है ।
संक्षेप में परिषद स्व. आचार्यदेव श्रीमद् विजय पतीन्द्रसूरी श्वरजी म. साहब के स्वप्नों को पूरा करने के लिए दृढ़ संकल्प से निर तर अग्रसर हो रही है। पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज "मधुकर" का मार्गदर्शन परिषद के लिये संजीवनी रूप है ।
राजेन्द्रज्योति
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समाज में परिषद् का आर्थिक योगदान
शान्तिलाल सुराणा
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की मिती कार्तिक पूर्णिमा सं. २०१६ वि. को पू. पा. गुरुदेव श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी म. की प्रेरणा से स्थापना हुई । स्थापना के साथ ही आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयास प्रारम्भ हुए।
सर्वप्रथम निम्नानुसार प्रमुख रूप से परिषद् को आर्थिक योगदान प्राप्त हुवा :१. श्री गोडी पार्श्वनाथ मण्डल आहोर से दिनांक रुपये ३-१२-५९ को प्राप्त
१५०) २. उपधान के अवसर पर श्री मोहनखेड़ा तीर्थ से दिनांक २८-१२-६१ को प्राप्त
५०१) ३. श्री जैन श्वेताम्बर संघ, थराद से दिनांक १९-१०-६१ को प्राप्त
१०१) ४. श्री जैन संघ बागरा से दिनांक ५-१०-६२ को प्राप्त १००१) ५. श्री जेठमल खुमाजी बागरा से दिनांक ५-१०-६२ को प्राप्त
३००) ६. श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी सुरा . (राजस्थान) से दिनांक ५-११-६२ को प्राप्त ५००१) परिषद् का मुख-पत्र “शाश्वत धर्म"
उक्त आर्थिक कोष से परिषद् ने अपने कदम आरंभ किये यद्यपि यह धनराशि अल्प थी लेकिन समाज का उत्साह इससे झलकता है कि युवक परिषद्, समाज का एक अभिन्न अंग है। ___ "शाश्वत धर्म" जो समाज का मुखपत्र है। उसके प्रकाशन का भार परिषदों के कंधों पर था। इसके प्रकाशन में उक्त धनराशि का अधिकांश भाग व्यय हुआ। अतः परिषद् की आर्थिक स्थिति के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई।
नवीन उन्मेष
सन् १९७३ के २० अक्टूबर को केन्द्रीय परिषद् के पदाधिकारियों तथा कार्यकारिणी की बैठक का आयोजन रतलाम नगर में हुआ। इस बैठक में प्रत्येक उपस्थित महानुभावों ने आर्थिक योगदान की घोषणा की। महत्त्वपूर्ण प्रवास
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया और मैंने दक्षिण भारत का प्रवास नवम्बर'७५ में किया। इस प्रवास के मध्य मद्रास परिषद् से ७००१) तथा बैंगलोर परिषद् से ५००१) धनराशि केन्द्रीय कोष को प्रदान करने की स्वीकृति प्राप्त हुई। परिषद् का दशम अधिवेशन
परिषद् का दशम अधिवेशन परमपावन मनोरम स्थली लक्ष्मणी तीर्थ की गोद में संपन्न हुवा। इस अधिवेशन के मध्य आर्थिक स्थिति पर विशेष ध्यान आकर्षित हुआ। इस अधिवेशन के अखिल भारतीय स्तर प्रतिनिधियों का आगमन हुआ। यहां यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत (बैंगलोर, मद्रास, आंध्र) गुजरात, राजस्थान आदि प्रान्तों के प्रतिनिधि भी उपस्थित थे।
___ अधिवेशन उद्घाटन के विभिन्न अवसरों पर बोलियां-घोषणाएं की गई जिनमें प्रमुख श्री मांगीलाल जैन, बैंगलोर, श्री सी. बी. भगत बैंगलोर, श्री तगराज हिराणी रेवतडा (राज.), श्री चन्द्रकान्त वुदरजी बम्बई, श्री चन्दुभाई दलसुखलाल भाई बम्बई, श्री हजारीमल गज्जाजी धानसा (राज.), एवं जैन रत्न सेठ श्री मंगल भाई संघवी (अहमदाबाद) पाटन नवयुवक परिषद्, पाटन । थराद नवयुवक परिषद् नडियाद आदि ने उल्लेखनीय आर्थिक योगदान किया।
वी. नि.सं. २५०३
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रजत-मुद्राओं का निर्माण
भगवान महावीर की २५ सौंवीं निर्वाण शती, पूज्य जैनाचार्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी एवं अभिज्ञान राजेन्द्र कोष की स्मृति में रजत मुद्राएं निर्मित हुई उसमें नैनाबा श्री संघ (गुजरात) परिषद् शाखा रिंगनोद ने अपूर्व सहयोग प्रदान किया। इन रजत मुद्राओं से प्राप्त धनराशि परिषद् कोष में एकत्रित हुई। कुक्षी व बाग की ओर से विशेष सहायता मिली । परिषद् सहायता निधि
केन्द्रीय साधारण सभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर परिषद् सहायता निधि मंजूषा का निर्माण किया गया जो प्रत्येक शाखा परिषदों को वितरित की गई।
परिषद् की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने हेतु ५१) या इससे अधिक रुपए प्रतिवर्ष प्रदान करने वाले महानुभावों ने घोषणाएं की। यह धनराशि तीन वर्ष निरन्तर देंगे । यह योजना निरन्तर है। परिषद् द्वारा अनुदान
इस अभियान से परिषद् का कोष भरने लगा। और आय के स्थायी स्रोत आरम्भ हुए तब परिषद् ने विभिन्न शाखा परिषदों को आर्थिक अनुदान की घोषणाएं आरम्भ की । सर्वप्रथम शाखा परिषद् मन्दसौर शिलालेख के निर्माण हेतु, अलिराजपुर को जैन विद्यालय हेतु, जावरा महिला परिषद को संगीत वाद्य क्रय करने हेतु अनुदान प्रदान किया गया। महामंत्री का मध्यप्रदेश प्रवास
धार्मिक रेकार्डस् ___मेंगलवा और चौराउ निवासियों ने परिषद् को धार्मिक रेकार्डस् बनाने में सहयोग दिया । यह कार्य श्री सी. वी. भगत की देखरेख में बैंगलोर में संपन्न हुवा । इन रेकार्डस् का विक्रय चालू है।
श्री तगराज हिराणी और मैंने मंगलवा प्रतिष्ठा के अवसर पर जालोर जिले का प्रवास किया। श्री जैन संघ मेंगलवा ने प्रेरणा स्वरूप परिषद् को धनराशि भेंट की, जो अब तक प्राप्त धनराशि में सर्वाधिक है। स्वर्णगिरि तीर्थ दुर्ग जालोर में कार्यकारिणी की बैठक
केन्द्रीय कार्यकारिणी की बैठक स्वर्णगिरि तीर्थ दुर्ग जालोर में फरवरी '७७को हई। परिषद की आय के आधार पर केन्द्रीय कार्यकारिणी ने विचार-विमर्श किया। जालोर जिले के एक महाविद्यालयीन छात्र को ७५) प्रतिमाह छात्रवृत्ति, जालोर नगर के चिकित्सालय के सार्वजनिक रोगियों की सहायता हेतु २००१) तथा दुर्ग मार्ग पर स्थित प्याऊ हेतु १५०१) की आर्थिक सहायता केन्द्रीय परिषद् द्वारा दी गई। इस प्रकार परिषद् आर्थिक योगदान के माध्यम से जनजीवन में घुल-मिल गई। एकादश अधिवेशन
निम्बाहेड़ा नगर में परिषद् का एकादश अधिवेशन संपन्न हुवा । शासकीय उ. मा. विद्यालय निम्बाहेड़ा के वाचनालय कक्ष के निर्माण हेतु २५०१) तथा शाखा परिषदों के धार्मिक विद्यालयों सिलाई केन्द्रों व संगीत विद्यालयों के लिए अनुदान घोषित किए गए। मध्यमवर्गीय परिवारों को सहायता
परिषद् ने समाज के मध्यमवर्गीय परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधारने हेतु योजना बनाई। इसके अन्तर्गत गुप्त रूप से १००) या अधिक प्रतिवर्ष देने वाले सदस्य बनाये गये। वह प्राप्त धनराशि गुप्त रूप से देने हेतु परिषद् के शाखाध्यक्ष को अधिकृत किया गया । उनकी अनुशंसा के आधार पर सीधे उन परिवारों को आर्थिक सहायता भेजी जा रही है। बचत बैंक
समाज की आर्थिक स्थिति के सुधार हेतु परिषद की एक विशिष्ट उपलब्धि बचत बैंक । बचत बैंक द्वारा समाज के लिए एक नया आर्थिक स्रोत आरंभ हआ। विभिन्न शाखा परिषदों में इस योजना का स्वागत किया गया।
इसी उद्देश्य को लेकर निम्बाहेड़ा अधिवेशन के अवसर पर एक केन्द्रीय बैकिंग मंत्री पद का निर्माण किया। वर्तमान में राणापूर, अलिराजपुर, पाया आदि स्थानों पर बचत बैंके कार्यशील हैं। "राजेन्द्र-ज्योति प्रकाशन"
पूज्य जैनाचार्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के १५० वीं जन्म सार्ध शताब्दी की स्मृति में "राजेन्द्र ज्योति" नामक स्मारक ग्रन्थ का प्रकाशन केन्द्रीय परिषद् द्वारा किया जा रहा है । इस ग्रन्थ के प्रकाशन के प्रति परिषद में सर्वत्र अदम्य उत्साह है। यह परिषद् की अद्वितीय उपलब्धि प्रमाणित होगी। आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन
परिषद् की इन गतिविधियों के लिए समय-समय पर वर्तमान आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का प्रेरणा स्वरूप आशीर्वाद तथा पूज्यपाद मुनिराज जयन्तविजयजी 'मधुकर' का मार्गदर्शन मिल रहा है। केन्द्रीय परिषद् और शाखा परिषदें कृतज्ञ हैं और ऋणी हैं।
अनन्तर समस्त शाखाओं में व्यवस्थित गतिविधियां संचालित हो उसके लिए ७-१०-७६ से महामंत्री श्री सी. वी. भगत श्री सोभाग्यमल सेठिया और जावरा शाखा मंत्री श्री पन्नालाल हरण और मैंने श्री सोभाग्यमल मध्यप्रदेश क्षेत्र का प्रवास किया। इस प्रवास के मध्य श्री सी. बी. भगत ने समाजोत्थान, धार्मिक शिक्षण, संगीत शालाओं तथा समाजोपयोगी गतिविधियों के लिए लगभग बीस हजार रुपये अनुदान प्रदान करने की घोषणाएं की। इन घोषणाओं में धार छात्रावास को ८००१) रुपये तथा विभिन्न शाखा परिषदों के धार्मिक विद्यालयों के संचालनार्थ ५०) तथा ७५) प्रतिमाह दिये जाने की घोषणाएं प्रमुख हैं। पश्चात् सिलाई केन्द्रों को मशीनें भेंट की गई। इस प्रकार परिषद में स्थायी रूप से अनुदान देने के लिए प्रथम प्रयास आरम्भ हुआ वह गतिशील है। राजस्थान प्रवास
श्री तगराज हिराणी (केन्द्रीय उपाध्यक्ष) का राजस्थान क्षेत्र में प्रवास हुवा । इस अवधि में केन्द्रीय परिषद् को रेवतडा (राज.) तथा सामला से नो सिलाई मशीनें प्राप्त हुई तथा धार्मिक विद्यालयों को अनुदान दिये जाने हेतु धानसा तथा रेवतडा के भाइयों ने प्रसन्न होकर प्रतिमाह (एक वर्ष के लिए) सहयोग देने की घोषणा की।
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राजेन्द्र-ज्योति
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परिषद क्यों ?
बालचन्द जैन
यह उस समय की बात है जब पू. यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा. जो त्रिस्तुतिक-समाज के मुख्य आचार्य थे एवं उनकी वृद्धावस्था के कारण "समाज के कुछ विचारकों में विचार मन्थन हुआ किसमाज के उत्थान हेतु कोई ऐसी सामाजिक संस्था स्थापित की जावे जो पूरे समाज को एक रूप प्रदान कर सके तथा समाज के विकास का विचार करने में समर्थ संस्था बन सके।
राजेन्द्र जैन युवक परिषद का उदय श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में महाराज श्री के सान्निध्य में समाज के प्रबुद्ध लोगों का एक सम्मेलन बुलाया गया तथा साथ ही वर्तमान मुनि-मंडल भी उपरोक्त सम्मेलन में आशीर्वाद हेतु उपस्थित था। पू. महाराज श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी ने समाज के लोगों को आव्हान किया कि मेरी वृद्धावस्था है मेरे रहते कोई सामाजिक संस्था का निर्माण समाज के युवकों ने करना चाहिये जिससे समाज का सर्वागीण विकास हो सके सर्वानुमति से तय हुआ कि - "श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् " की स्थापना की जावे। तब ही से परिषद का उदय श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में हुआ ।
अखिल भारतीय विस्तृतिक समाज का संगठन परिषद् ने अपने वार्षिक कार्यक्रमों के आधार पर समाज के युवकों को प्रेरणा - दी और निरन्तर प्रयास किया गया कि परिषद् समाज की मुख्य संस्था बन सके ।
परिषद् के वार्षिक अधिवेशनपरिषद् ने अपनी समाज के युवकों को समय-समय पर विभिन्न स्थानों पर अपने सम्मेलन आयोजित किये और अनेक विद्वानों को अपने सम्मेलनों में आमंत्रित किये और उनकी प्रेरणा से समाज उत्थान के विभिन्न विषयों पर विचार गोष्ठियां आयोजित की और युवकों को कर्त्तव्य बोध कराया ।
आपसी परिचय - अनेक व्यक्तियों के मन में परिषद के प्रति यह शंका है कि आखिर "परिषद्” ने क्या किया ? मैं अपने विचार से
- बी. नि. सं. २५०३
कहता हूं कि परिषद ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए हजारों युवकों का आपसी मिलन करवाया तथा उनमें समाज सेवा व संगठन के प्रति आस्था जगाई और इसी का परिणाम है कि लगभग समाज के दस हजार युवकों का संगठन बन गया है ।
स्थान-स्थान पर शाखाएं-जहां२ समाज के घर थे उन स्थानों पराने पहुंचकर "परिषद" की स्थापना की और परिषद ने उन स्थानों पर अपने विकास हेतु अनेक कार्यक्रम आयोजित किये ।
जैन पाठशाला की स्थापना -- परिषद के युवकों ने अपने जैनधर्म की शिक्षा के हेतु अपने २ गांवों में पाठशालाएं स्थापित की और अनेक पाठशालाओं का संचालन करवाया है। जिसमें बालक और बालिकाएँ अपने धर्म की शिक्षा का अध्ययन कर जीवन विकास के कार्य में अग्रसर होते जा रहे हैं।
आर्थिक सहायता -- समाज में अनेक ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो साधन-हीन हैं- उन्हें परिषद ने उनकी मांग के अनुसार विचार कर अनेक लोगों को गुप्त रूप से सहायता दी है और परिषद का लक्ष्य है कि ऐसा एक आर्थिक आयोजन स्थाई रूप से किया जावे जिससे निरन्तर समाज के कमजोर अंगों को सहायता दी जा सके ।
सेमीनार का आयोजन- विशेष तौर पर शिक्षित वर्ग को अपने धर्म के संस्कारों की जानकारी हेतु शिविरों का आयोजन किया और धर्म व समाज के विभिन्न विषयों पर देश के प्रबुद्ध विद्वानों को बुलाकर उनके बौद्धिकों का आयोजन किया और अनेक धार्मिक एवं सामाजिक विषयों पर चर्चाएं होती हैं और युवकों को उससे एक मानसिक तृप्ति का आभास होता है वे अपने मन के विचारों को खुलकर बोलते हैं और थोड़े ही समय में सरलता से अनेक विषयों की जानकारी इन शिविरों के माध्यम से युवकों में फैलाई जाती है ।
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परिषद् के पदाधिकारियों का चुनाव--परिषद् अपने वार्षिक सम्मेलनों में पदाधिकारियों के कार्य संचालन हेतु चुनाव करती है और सर्वानुमति से भिन्न-भिन्न भागों के लोगों को यह अवसर दिया जाता है।
परिषद् का लक्ष्य-परिषद यह चाहती है कि अपने पूरे त्रिस्तुतिक समाज का सुदृढ़ संगठन कुछ वर्षों के प्रयास से बना लिया जावे और इस संगठन के माध्यम से समाज-विकास के कार्यक्रम जगह २ आयोजित किये जावें।
पू. मुनि श्री जयंत-विजयजी का परिषद् के प्रति हार्दिक लगावजब से इस परिषद् की स्थापना हुई है तब ही से निरन्तर महाराज श्री का पूर्ण सहयोग एवं प्रेरणा समाज के युवकों को मिलती रही है और महाराज श्री का लक्ष्य है कि पूरा समाज एक परिवार के रूप में परिवर्तित हो जाय तो समाज की फिर कोई ऐसी समस्या नहीं रह सकती जिसका हल न निकाला जा सके।
समाज से निवेदन है कि-त्रिस्तुतिक-समाज इस परिषद् को अपनी संस्था मानकर इसमें निरन्तर सहयोगी बने तो कुछ ही वर्षों में यह समाज एक शक्ति-शाली समाज के रूप में खड़ा हो जावेगा और अनेक विद्वान इस समाज-गंगा में से उत्पन्न होकर समाज सेवा के कार्य में अग्रसर होंगे।
परिषद् का नाम राजेन्द्र जैन-युवक परिषद् क्यों रखा गयाइस संस्था का नाम राजेन्द्र जैन-युवक परिषद् इसीलिये रखा गया कि-श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज-श्वेताम्बर जैनसमाज में एक क्रान्तिकारी साधु हुए हैं। उन्होंने अपने जीवन-काल में जैन समाज को अपने मुख्य लक्ष्य का बोध कराया और शास्त्रानुकूल उन सिद्धान्तों को प्रति-पादित किया है-जिनका गंभीर विवेचन जैन-आगमों में किया गया है। महाराज श्री ने अपने जीवन-काल में ही समाज के हजारों व्यक्तियों को अपने सिद्धान्तों के पालन हेतु प्रेरित किया है और उसी का नतीजा है कि-श्वेताम्बर जैन समाज में त्रिस्तुतिक-जैन-समाज एक व्यवस्थित संगठन का रूप लिये हुए है और समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने गुरु के प्रति हार्दिकश्रद्धा का भाव लिये हुए है।
अतएव समाज के प्रत्येक विचारवान व्यक्ति को चाहिये कि वह परिषद् को अपनी संस्था मानकर उसका सदस्य बने और उसकी कार्य-प्रणाली में रुचि ले ।
आशा है समाज का युवा वर्ग इस पवित्र गंगा को सहयोग देकर इसे उन्नति-शील बनाने में अपना योग-दान देगा ।।
रे मान मत कर
सुख को न पाया है कहीं, विषय में कोई अभिमान कर । आज तक देखा गया है, अभिमानियों को बेछज अंत पर ॥१॥ जब कुज्ञान का नशा, चढ़ जाता है मानव पर। जन्म भर मदहोश हो जाता, सुध बुध अपनी खोकर ।।२।। मदमस्त हो अभिमान में, धर्म विरुद्ध भाषण करता । यह अर्थ का अनर्थ कर, स्वयं निज मान्यता से गिरता ।।३।। इस तरह के मानवी, इस संसार में गिरते रहे । कई देखे ऐसे अभिमानी, निज धर्म को खोते रहे ॥४॥ मद में छके अभिमानी, धर्म की आड़ में पलते रहे । संसार की निगाहों में गिरते हुए, प्राण को खाते रहे ।।५।।
करता क्यों ऐ मानवी, उपार्जन अभाव का । मिट जायेगा एक दिन, घड़ा भर जायगा पाप का ।।६।। जहां संप है वहां क्लेश ही, तू पनपाता रहा । अभिमान में ही तू स्वयं को, सुज्ञ समझाता रहा ॥७॥ पर जानती है दुनिया तुझे, कि तू है कितना सही । अभिमान से गुण विनय का, होता हमेशा नाश ही ॥८॥ होता नहीं अभिमान युत को, ज्ञान का आभास कभी । ऐ मानवी गुरु चरणों में आजा, ज्ञान पावेगा तभी ।।९।। "बुरड" की है यह विनय, छोड़ अपने मान को । जैन धर्म पाया है तुमने, प्राप्त कर सद्ज्ञान को ।।१०।।
जन
-मांगीलाल बुरड
राजेन्द्र-ज्योति
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परिषद् की चौखट से
सुरेन्द्र लोढ़ा
अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के रूप में सामाजिक क्षेत्र को एक सकार कदम प्राप्त हुआ है। परिषद ने युवकों की ऊर्जा को निर्माण की दिशा में केन्द्रित किया है। इसके माध्यम से समाज की तस्वीर नये रंगों से रंजित हो रही है। समाज के कायाकल्प का स्वप्न साकार बनता जा रहा है। यह तस्वीर तरक्की और एकता की है एवं स्वप्न आदर्श समाज की रचना का है। ऐसा समाज जो भगवान महावीर के अमर मार्गदर्शन की ज्योति हस्तगत कर उसके आलोक से अशिक्षा, अन्धविश्वास एवं अभावग्रस्तता के अंधेरे को मिटाने हेतु प्रयत्नशील हो। ऐसी तस्वीर जिसमें समाज की आशाओं तथा आकांक्षाओं की सही छाया झांकती हुई दिखाई दे।
समाज के बहुमुखी विकास का दौर परिषद के माध्यम से उठाव ग्रहण कर रहा है, अन्ततः हमें तय करना है कि हमारी समाज का भविष्य किन रेखाओं से मण्डित होगा। ये रेखाएं परिषद को अपने परिश्रम, प्रवास तथा पुरुषार्थ से स्वयं निर्मित करना है। इन्हें आयाम देने का कार्य भी उसे ही करना है। इन्हीं रेखाओं के आधार पर समाज के शुभ तथा कल्याण की
रचना होगी। अभी इन रेखाओं का सामाजिक धरातल प्राप्त • किये जाने का प्रयत्न निरन्तर है।
परमपूज्य गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की वैचारिक शृंखलाओं ने इन्हीं रेखाओं को खिचाव किया था वे चाहते थे कि समाज की ऐसी अनुशासित संगठित तथा जीवनमानी प्रतिनिधि संस्था की स्थापना हो जो आगे बढ़कर समाजोत्थान की चुनौती को स्वीकार कर ले। अखिल भारतीय श्री यतीन्द्र जैन नवयुवक परिषद नाम में उन्हें वैसी विद्युत धारा प्रवाहित होती हुई अनुभूति हुई। उनने स्पष्ट शब्दों में उद्घोषित कर दिया कि “परिषद की प्रगति ही समाज की प्रगति है।" पूज्य गुरुदेव श्री ने परिषद स्थापना के साथ ही
समाज में निर्देश स्थापित किया कि समाज व परिषद भिन्नभिन्न नहीं है। परिषद सामाजिक शक्तियों तथा साधनों का दोहन करेगी एवं समाज में उससे चेतना तथा समृद्धि का विस्तार होगा। पूज्य गुरुदेव श्री ने परिषद को किसी पृथक् संगठन की स्थिति से नकार दिया एवं अपने संदेश में फरमाया "परिषद समाज का अंग है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति की यह अपनी संस्था है।" पूज्य गुरुदेव श्री समाज के मंच में उभरने वाली युवाशक्ति के महत्व को उचित रूप से दर्शित कर चुके थे अतएव उनने समाजोन्नति के महामंत्र को सफल बनाने हेतु युवकों को आव्हान किया तथा अपने निर्देशन में ही युवकों का पहला सम्मेलन श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर आयोजित कर उन्हें उनकी चुनौती स्वीकार करने की प्रेरणा दी। पूज्य गुरुदेव श्री की दूरदृष्टि व संगठन क्षमता ने एक स्वप्न को कल्पना लोक से वास्तविक धरातल पर ला उतारा। हजारों युवक एक ही स्वर की प्रतिध्वनि से लहर की भांति उठ खड़े हो गये।
युवाशक्ति समाज की रीढ़ है। युवाशक्ति के उदासीन होने पर कोई समाज अपने पतन को रोकने में समर्थ नहीं हो पाया । युवकों की सामाजिक कार्यों में भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है, उनने समाज की जन्म-कुण्डलियों का निर्माण किया है एवं उसके फलितार्थों पर अपना बलपूर्ण प्रभाव प्रभावित किया है। युवकों के इस महत्वपूर्ण स्थान को निरस्त करना ऐतिहासिक भूल है, समाज का अक्षम्य अपराध है। युवक, सामाजिक धमनियों को नवरक्त संचारित करने एवं नये जीवन की ललाई भरने पूरने वाली शक्ति है। वह न तो आयु मर्यादा से जुड़ी हुई है और न ही शारीरिक स्थितियों से संदर्भित है। अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की अपने विधानानुसार यह मान्यता है कि जिसमें कार्य करने की इच्छा शक्ति हिल्लोर ले रही है, वह युवक है। युवा पीढ़ी से संबंधित
वी.नि.सं.२५०३
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धिक दर्दीली नस को छूने का प्रयत्न किया है। आर्थिक विषमता ने ही हिंसा अन्याय एवं घृणा को अपनी कुंख से जन्म दिया है। समाज के सारे समीकरण आर्थिक असमानता के तीव्र झोंके से ही डगमगाये हुए हैं। परिषद अपने चौथे उद्देश्य की पगडण्डी से अग्रसर होती हुई समाज के अभावग्रस्त तथा अर्थहीन समुदाय को आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर, आत्मवेष्टित तथा आत्मसम्मानी बनाने के लिये संकल्पबद्ध, है। इस दिशा में बैंक की स्थापना, बचत योजनाओं का संचालन उद्योगों तथा व्यापार के लिये ऋण-सुविधा, रोजगारहीन व्यक्तियों को उपलब्ध करवाने आदि जैसे कार्य परिषद की नीति सूची में सम्मिलित हैं।
है, यवावर्ग को प्रतिनिधि है। वह हर व्यक्ति जो खुशनुमा सुबह का स्वागत करने के लिये प्रार्थी के स्वर्णपुरुष की देहरी पर खड़ा है तथा सामाजिक बेहबुदी की सुनहरी दोपहरी का इंतजार कर रहा है तथा जो अपनी जिन्दगी को सामाजिक जिदगी से जोड़ता जा रहा है, युवक है। परिषद ऐसे नवयुवकों के जीवन से संबंधित हो गई है और उन्हें कर्त्तव्य पक्ष पर निरन्तर गतिशील रहने के लिये प्रेरणा दे रही है।
अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद समाज की जीवन्त समस्याओं का समाधान है “सुलगते सवालों का जवाब है। उसकी स्थापना श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा संवत् २०१६ को एक प्रतिनिधि युवक सम्मेलन में हुई। परम पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने इसे जन्म नाम तथा उद्देश्य प्रदान किये। परिषद अपने चार दिव्य व छः उद्देश्यों के खम्भों पर खड़ी की जाने वाली अट्टालिका बन गई। संगठन धार्मिक शिक्षा प्रसार, समाज सुधार, तथा आर्थिक स्थिति का विकास इन चार उद्देश्यों ने चारों दिशाओं से इस अट्टालिका को सुशोभित कर दिया। संपूर्ण सामाजिक चितन को अपने आप में समाहित कर लिया ___ समाज संगठन का संकेत विघटन तथा क्लेष व विवादों से विकृत हुए वातावरण की शुद्धि करने से है। संगठन के अभाव में समाज समग्र साधनों तथा स्रोतों का उपयुक्त उपयोग करने में अपने आपको असहाय पाती है। संगठित समाज ऐसी ताकत के रूप में उभरता है जो भागीरथी कार्य भी आसानी से सम्पन्न कर अपना रास्ता स्वयं प्रशस्त कर लेता है। सामाजिक संगठन के बिना प्रगति का पहला कदम भी अग्रगामी नहीं बनता है। दूसरे उद्देश्य के रूप में परिषद ने धार्मिक शिक्षा प्रचार को अपने अभियान का महत्वपूर्ण मुद्दा बनाया है। जब तक तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी तथा जैन मनीषियों के पवित्र उद्देश्यों की शिक्षा, छात्रीय जीवन में ही समन्वय प्राप्त नहीं करेगी तब तक नई पीढ़ी के चारित्रिक तथा आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास युक्तियुक्तपूर्ण नहीं हो सकता। पाठशाला संचालन, जैन साहित्य प्रकाशन तथा प्रशिक्षण शिविर आयोजनों के रूप में यह उद्देश्य अपनी सार्थकता प्राप्त कर सकता है। परिषद विचार की तीसरी दिशा को देखने पर वहां क्रांति रंग से अंकित “समाज सुधार" शब्द की तेजस्विता दृश्यमान हो रही है। सामाजिक बुराइयां, कुरीतियां तथा कुरूढ़ियां समयवाद का लाभ प्राप्त कर समाज की जड़ों में सड़ान्ध पैदा करने में कामयाब होती गई। फलतः मृत्युभोज, दहेज, मृत्युरस्म, जन्मदिवस पर अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग, विवाहों में अनावश्यक खर्ची आदि ऐसे चक्र गतिशील हो गये जिनने समाज के मध्यम तथा कमजोर वर्ग को पीस कर रख दिया। परिषद इन सभी को दूर कर, कुरीतियों के संचरण का अपना विश्वस्त मूर्त करना चाहती है। सूरीतियों का परकोटा बनाये जाने पर ही समाज को शुद्ध प्राणवायु प्राप्त हो सकती है। चौथे उद्देश्य के रूप में परिषद ने समाज की सर्वा
अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद अपनी । स्थापना का डेढ़ दशक से अधिक समय व्यतीत कर चुकी है। परिषद का जन्म सामाजिक गतिहीनता तथा निर्वाह के वाताबरण में हुआ था। परिषद ने इन्हें दूर करने के लिये कदम बढ़ाये। पहिला अधिवेशन पवित्र तीर्य श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की पुण्यस्थली में श्री सौभाग्यमलजी सेठिया की अध्यक्षता में हुआ। पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज तथा पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज "मधुकर" इसे दिशा निर्देशक के रूप में प्राप्त हुए। श्री सौभाग्यमलजी सेठिया (निम्बाहेड़ा) ही इसके प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित हुए, परिषद का कार्य क्षेत्र मालवा तथा निमाड़ प्रारंभिक रूप में निर्धारित किये गये। केन्द्रीय परिषद की स्थापना के साथ ही ग्राम स्तर तक परिषद की शाखाएं स्थापित होना प्रारम्भ हो गई। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ से जो संगठन-तरंगें उठी उनने पूरे क्षेत्र के युवकों को आडोलित कर दिया। सैकड़ों युवकों ने शाखाओं के माध्यम से सदस्यता ग्रहण करली। दूसरा अधिवेशन रतलाम में हआ जिसमें परिषद का संविधान विधिवत रूप से संशोधित रूप से स्वीकृत किया गया। इसी अधिवेशन में संस्था के प्रतीक ध्वज तथा गीत का निर्धारण कर उन्हें स्वीकृति प्रदान की। उपरान्त खाचरौद में परिषद का अधिवेशन आयोजित व सम्पन्न हुआ। यह अधिवेशन परिषद के लिये काफी प्रेरणादायक बना क्योंकि इस अधिवेशन में नवयुवक शब्द की विस्तृत व्याख्या हुई। परिषद ने नवयुवक शब्द को व्यापक संदर्भो में ग्रहण किया। परिषद अधिवेशनों का काम निरन्तर रहा। परिषद विस्तृत तथा व्यापक बनती गई। मालवा और निमाड़ में जागृति का शंखनाद करने के पश्चात् उसके कदम मरुधर की ओर बढ़े। चौथा अधिवेशन पहली बार राजस्थान में जिला जालौर के एक ग्राम आकोली में हुआ जहां से इसे अखिल भारतीय रूप मिल गया। राजस्थान में भी परिषद की प्रगति के द्वार खुल गये। वर्तमानाचार्य पूज्य श्रीमद् विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज (तब गणाधीश मुनिराज श्री विद्याविजयजी) ने स्वयं अधिवेशन में पधार पर समाज से आव्हान किया कि "समाज परिषद को पुष्ट बनावे" अधिवेशन में मालवा तथा राजस्थान के दूर दूर से प्रतिनिधि सम्मेलन में
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उपस्थित थे। पांचवां अधिवेशन पुनः श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर हुआ और इसे सान्निध्य वर्तमानाचार्यदेव पूज्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने तथा दिशा निर्देशन पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजयजी "मधुकर" ने प्रदान किया। छठा अधिवेशन राणापुर में सम्पन्न हुआ। सातवां अधिवेशन पुनः श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ पर संपन्न हुआ। अष्टम अधिवेशन उज्जैन में सम्पन्न हुआ।
परिषद की गतिविधियां मध्य में शिथिल हो गई लेकिन पुनः उसने जावरा में आयोजित नवें परिषद अधिवेशन से अंगड़ाई ली । प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की स्मृति में नवनिर्मित दादावाडी के पवित्र प्रांगण में इस अधिवेशन ने नया चमत्कार किया। परिवार शाखाएं एकदम सक्रिय हो गईं। डा. प्रेमसिंहजी राठौड़ (रतलाम) परिषद के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और दस की संख्या को पूर्णता देने वाला परिषद का अधिवेशन श्री लक्ष्मणीजी तीर्थ (अलीराजपुर) में श्री चन्द्रप्रभु स्वामी की पावन प्रभाव छाया में संपन्न हुआ। इस अधिवेशन में पहली बार दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। परिषद के कदम उत्तर भारत के बाद दक्षिण भारत के धरातल पर भी मुद्रित दिखाई देने लगे। वर्तमान ग्यारहवां अधिवेशन निम्बाहेड़ा (जिला चित्तौड़गढ़ राजस्थान) में हो रहा है। जिसके निर्णय परिषद की प्रगति के लिए अनूठे कदम होंगे। जीवन प्रणाली के बदले हुए संदर्भो में परिषद को नवीन उत्तरदायित्वों का वहन करना है। आशा है वह पूरी तरह इस हेतु सक्षम तथा सुयोग्य सिद्ध हो पाएगी।
परिषद तथा समाज के संबंधों के विषय में स्व. पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज संस्था की स्थापना के समय ही तेजोमय प्रकाश प्रसारित कर गए हैं। यह सवाल उठाना ही गैर मौजू है कि क्या परिषद समाज से पृथक कोई इकाई है क्योंकि परिषद कोई नूतन चिन्तन या विचार नहीं बल्कि समाज का वैज्ञानिक व्यवहार है, परिषद समाज की आशाओं का क्रियात्मक स्वरूप है, परिषद समाज की मान्यताओं के मूल्यों की संशोधक तथा संवाहक है। परिषद समाज की प्रहरी और सामाजिक चेतना की उद्गम बिन्दु है। परिषद तो समाज में सेवा का मंत्र सिद्ध करने वाली माध्यम मात्र है। वह समाज को ऊंचा ले जाना चाहती है। उसकी ऊंचाइयों का लक्ष्य तथ्य परक एवं गठनतापूर्ण है। समाज व परिषद • को पृथक् देखने का विचार ही विनाशकारी है। परिषद समाज के लिए निर्मित है और समाज का भरपूर विश्वास इसे प्राप्त है । परिषद के समस्त अधिवेशनों में समाज के अग्रगण्य नेताओं तथा कार्यकर्ताओं की पूरी उपस्थिति रही है। परमपूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज "मधुकर" का स्पष्ट कथन है कि "परिषद का संबंध समाज के साथ मछली तथा पानी की तरह है।" परिषद समाज के प्रति समर्पित है और उसका यह समर्पण भाव समाज की तरक्की तथा खुशहाली के लिए ही है। युवावर्ग समाज का ऐसा अंग है जिसकी उपेक्षा असह्य है। जिसकी क्षमता का उपयोग समाज के लिए वरदान है। ऐसी स्थिति में परिषद युवकों का समुदाय
बनकर ही नहीं रही है, अपितु उसने समाज के समस्त दायित्वों को निर्वहित करने की कोशिश की है। परिषद व समाज एक दुसरे के पर्यायवाची शब्द बन गए हैं।" आज भी समाज का स्नेह परिषद को बराबर प्राप्त हो रहा है। परिषद जिन शुभ भावनाओं पर निर्मित है, उसकी ज्योत्सना समाज तक अखंडरूप में पहचती रहेगी और समाज उससे लाभ प्राप्त कर अपने मंगल व सद् के लिए परिषद को प्रयुक्त करती रहेगी।
परिषद ने केवल संगठनात्मक वातावरण बनाने का ही प्रयत्न नहीं किया है। वह कई उत्तरदायित्वों को निर्वहित करने हेतु सक्रिय भी रही है। परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने अपने देहत्याग से पूर्व परिषद को दिशा निर्देशन करने हेतु परमपूज्य विद्वान मुनिराज पं. श्री अनन्त विजयजी महाराज को निदिष्ट किया था साथ ही त्रिस्तुतिक समाज के मुखपत्र "शाश्वतधर्म" के संचालन का जिम्मा भी सौंपा था। परमपूज्य मनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज की अटूट उत्साहशीलता तथा उसकी दिव्या प्रेरणाओं से आज परिषद प्रगतिगामी है तथा शाश्वतधर्म का संचालन कर रही है। "शाश्वतधर्म" पाक्षिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है तथा समस्त जैन समाज के समाचारों व तीर्थंकर प्रणीत विचारों को प्रसारित करने के अपने कर्तव्य की पूर्ति कर रहा है।
परिषद की देश भर में फैली हुई शाखाएं इसके उद्देश्यों की सम्पूर्ति के लिए कार्य कर रही हैं। जिनका विवरण अन्यत्र दिया गया है। परिषद का अखिल भारतीय कार्यालय उन्हें परामर्श देता है, उन्हें नियमित बनाए रखता है तथा आवश्यक होने पर योगदान भी देता है। इन शाखाओं द्वारा पाठशालाओं, विद्यालयों, पुस्तकालयों, बचत योजनाओं व औषधालयों का संचालन किया जा रहा है। स्वयंसेवक दल भी इनके अन्तर्गत गठित हैं। समाज के विभिन्न समारोहों के समय सेवाकार्य एवं विभिन्न पर्यों पर समारोहों का आयोजन परिषद शाखाएं प्रमुखता के साथ करती हैं। वे सेवा का मंच, त्याग का यज्ञ तथा कर्तव्य भावना का क्षेत्र बन गई हैं। परिषद द्वारा धार्मिक शिक्षा को युवकों में क्रांति की तरह विकसित करने के लिए श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर जैन धार्मिक शिविर का आयोजन किया गया जिसमें लगभग ८० छात्रों ने एक मास तक आध्यात्मिक धार्मिक एवं नैतिक जीवन पद्धति का शिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त किया तथा वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के आचार्य महोत्सव, यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के समाधि मंदिर प्रतिष्ठात्सव के समय परिषद स्वयंसेवकों ने सेवा व परिश्रम के द्वारा अपनी अद्भुत निष्ठा का परिचय दिया, जिसकी प्रशंसा समाज द्वारा सर्वत्र की गई।
समाज के जागरूक और परिषदों को जीवनदायी बनाए रखने के उद्देश्य से संस्था के पदाधिकारियों ने विभिन्न प्रांतों में दौरे किये जिनका परिणाम काफी विधेयात्मक प्राप्त हुआ। परिषद व समाज के मध्य अधिकाधिक समन्वय की भावना प्रेरित हुई । अधिवेशनों के अवसर पर परिषद के उद्देश्य तथा प्रणाली पर बार-बार बहस हुई एवं परिषद के साधनों का मंथन किया गया।
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परिषद् : उद्भव, प्रेरणा, प्रगति
हस्ति सी. कर्नावट
श्री राजेन्द्र जैन जगती के प्रेरणामूर्ति आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी ने वि० सं० २०१६ को श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के गठन के शुभ अवसर पर शुभाशीर्वाद देकर न केवल संगठन शक्ति वरन् युवकों में जागृति के लिये एक अपूर्व अवसर प्रदान किया । अथक प्रयत्नों से परिषद ने अखिल भारतीय स्वरूप लेकर देश के विभिन्न राज्यों में युवा उद्गार और राजेन्द्र जैन वाणी को गुंजायमान कर दिया है।
कार्तिक पूर्णिमा की धवल श्वेत चन्द्रिका की पूर्व रात्रि में परिषद् का उद्भव हुआ और दीप ज्योति रूप नवयुवा हृदय में सामाजिक जागृति का प्रज्ज्वलन हुवा। मालव आंचल की डगर-डगर में और धार के कण-कण में परिषद ने प्रगति और संगठन का शंखनाद किया है जिससे नई चेतना और नये आयामों ने जन्म लिया है।
नई पीढ़ी को समुचित सुसंस्कृत बनाने, संगठित कर सामाजिक कुरीतियों को मिटाने व भौतिक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक कार्यक्रमों को समयानुकूल संचालित करने के परिषद के प्रयत्न अनवरत चल रहे हैं।
अगर समाज के प्रत्येक युवक को समर्पित भावना से व्यक्तित्व एवं सामाजिक चेतना में अभिवृद्धि करना है तो आइये अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के सदस्य बनें और सामाजिक मानदण्डों से अपना और परिवार के साथ ही समाज और राष्ट्र का गुणात्मक विकास कर पारस्परिक संबंधों को मधुरतम बनाने के लिये परिषद के चार दिव्य उद्देश्यों को अपनाएं ।
समाज संगठन एवं समाज सुधार हेतु जैन जाग्रति अपनी सौधर्म बृहत्तपागच्छिक परम्पराओं में तो अग्रणी है ही। साथ ही संगठनात्मक अनुशासन और सामाजिक क्रियाशीलता को नई दिशा देने के लिये परिषद् की गतिविधियां धार्मिक पर्व जयंतियों के सोद्देश्य आयोजन तथा बाल और महिला शाखाओं की स्थापना समाज जागृति
की दिशा में अनूठा कदम है। समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया जाता है।।
शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में धार्मिक, आध्यात्मिक व्यावहारिक, संगीत, सिलाई प्रशिक्षण, स्वाध्याय मण्डल, साहित्य प्रकाशन आदि कार्यक्रम क्रियाशील हैं। इस दिशा में परिषद की शाखाएँ कोई न कोई कार्यक्रम क्रियान्वित कर रही हैं जिससे समाज में एक नई दिशा एवं सामूहिक परस्पर सहयोग की चेतना उभर रही है।
समाज का आर्थिक उत्थान:--इस दिशा में कुछ स्थानों पर बचत बैंक योजना चालू की गई है। इस योजना को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए एक अलग से केन्द्रीय मंत्री की नियुक्ति निम्बाहेड़ा अधिवेशन में की गई । परिषद् आर्थिक विकास को कितना महत्व देता है यह इस नियुक्ति से स्पष्ट होता है।
परिषद् अधिवेशन मोहनखेडा, रतलाम, खाचरोद, आकोली, श्री मोहनखेडा तीर्थ, जाबरा, लक्ष्मणीजी निम्बाहेड़ा आदि स्थानों पर हुवे । प्रत्येक अधिवेशन के बाद कार्यकर्ताओं में एक नई चेतना नया उत्साह परिषद के उद्देश्यों के प्रति दृढ़ निष्ठा और उसके कार्यक्रमों को पूरा करने की संकल्प भावना बलवती हुई । नित नये स्थानों पर परिषद की शाखाएं खुल रही हैं। सुदूर दक्षिण में परिषद अधिकाधिक लोकप्रिय हो रही है। महिला परिषद् की स्थापना एवं केन्द्रीय कार्यकारिणी में महिला सदस्यों का होना महिला जागरण का प्रतीक है।
युवावस्था चिरस्थाई नहीं है किन्तु विचार शक्ति स्थाई हो सकती है। अतः मानसिक युवा विचार पर परिषद में बल दिया जा रहा है। परिषद नूतन चिंतन और युवा विचार धारा को सामाजिक एवं आध्यात्मिक उत्थान का जीवन दर्शन मानती है हम सबकी सेवा करते हुए स्वकल्याण के पथ पर अग्रसर हों यही परिषद् का उद्देश्य उसका महामंत्र है। आइये। हम अधिक से अधिक संख्या में इसके सदस्य बनकर उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति में सहयोगी बनें।
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परिषद् की उपादेयता
सुजानमल जैन
विस्तृतिक सिद्धान्त के समुद्धारक विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के परम शिष्य व्या०वा० श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की स्थापना करके समस्त त्रिस्तुतिक समाज पर महान उपकार किया है । यह परिषद मानो एक दिव्य प्रकाश-पुंज है। इसका प्रकाश पाकर भारत में सुदूर तक फैला हवा समस्त त्रिस्तुतिक समाज एकता के सूत्र में बंधा दिखता है। परिषद ने अज्ञान के अंधकार में भटकने वालों को ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया है।
समय समय पर राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की बैठकें विभिन्न प्रान्तों में आयोजित होती रहती हैं। परिषद् के निर्णयानुसार समाज में शैक्षणिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक विकास हेतु कार्यक्रम निर्धारित किये जाते हैं और तदनुसार स्थानीय परिषदों द्वारा उस पर आचरण किया जाता है। इस प्रकार समाज निरन्तर प्रगति की ओर उन्मुख होता रहता है।
गांव-गांव में परिषद की शाखाएं हैं। शाखा के अध्यक्ष, मंत्री एवं अन्य पदाधिकारी समाज के द्वारा निर्वाचित होकर नियमानुसार शाखाएं चलाते हैं । इन शाखाओं का प्रमुख कार्य धार्मिक शिक्षा का प्रसार करना है, इसलिये जगह जगह पर पाठशालाएं चलाई जाती हैं और बालकों को धार्मिक ज्ञान दिया जाता है । इसके अलावा परिषद के द्वारा जो भी कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं उससे समाज संगठित होता है। इस प्रकार परस्पर स्नेह और आनन्द की वृद्धि होती है।
हमें इस बात का गौरव है कि हम सब राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के सदस्य हैं। हम परिषद के प्रति उत्तरदायी हैं। हम सब गुरुदेव के द्वारा निर्देशित नीति-रीति का पालन करते हुए स्व-पर का कल्याण करते हैं।
जीवन विकास में आध्यात्मिक ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। समय-समय पर परिषद द्वारा शिविरों का आयोजन किया जाता है, इन शिविरों में दूर दूर से विद्यार्थी आकर भाग लेते हैं और धर्म एवं
संस्कृति का परिचय प्राप्त करते हैं। शिविर का महत्व समझते हुए धनिक लोग शिविर हेतु यथाशक्ति आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं।
त्रिस्तुतिक समाज के लोग दूर दूर तक बिखरे हुए हैं। उन लोगो में एकता का भाव निर्माण करने का प्रमुख साधन परिषद् ही है। परिषद् द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए वे निश्चित स्थान पर एकत्रित होते हैं परस्पर विचार विनिमय करते हैं और कार्यक्रम सम्पन्न करते हैं । इस प्रकार परस्पर में प्रेमभाव भी बढ़ता है।
समाज के आर्थिक विकास हेतु भी परिषद् द्वारा प्रयत्न किया जाता है। समाज के अभावग्रस्त परिवारों की उनकी मान मर्यादा ध्यान में रखते हुए यथाशक्ति मदद की जाती है। उन्हें उनकी आजीविका के लिए साधन भी प्रदान किये जाते हैं। कहीं-कहीं सहकारी बैंक की भी स्थापना की गई है। उसमें स्थानीय सदस्य समय समय पर पूंजी जमा करते रहते हैं और आवश्यकतानुसार सदस्यों को कम व्याज पर ऋण देकर सहयोग प्रदान करते हैं । ऋण लेने वाले सदस्य ऋण का भुगतान निधारित किश्तों में समयावधि में ही करते हैं। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में भी परिषद् ने अपना एक कदम आगे बढ़ाया है।
हम जानते हैं कि समाज की बिखरी हुई शक्ति को संगठित करने और एकता की कड़ी में पिरोने का अनुपम कार्य परिषद कर रही है। इसमें प्राण फूंकने का सबसे महान कार्य मुनि श्री जयन्तविजयजी "मधुकर" कर रहे हैं। उनके सान्निध्य से परिषद का न केवल स्थायित्व प्राप्त हुवा है अपितु परिषद स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव के सपनों को साकार रूप देने में भी सफल हो रही है और विकास के पथ पर अग्रसर हो रही है।
इस प्रकार पूज्य गुरुदेव द्वारा संस्थापित परिषद की उपादेयता सर्वश्रुत है। परिषद मूलभूत उद्देश्यों की पूर्ति में ही समाज की उन्नति निहित है इसमें ही "जीओ और जीने दो" सूत्र की सार्थकता है और इसी में ही स्व-पर का कल्याण है।
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आचार्य श्री यतीन्द्र और परिषद्
सुजानमल सोनी
परिषद की स्थापना कैसे?
कई वर्षों की बात है कि समाज में संगठन नाम की कोई संस्था नहीं थी। चारों ओर सूना सूना था, फीका वातावरण था। एक स्वधर्मी दूसरे स्वधर्मी को पहचान नहीं सकता था, कोई माध्यम नहीं था पहचान का । समाज में शैथिल्यता की स्थिति थी। ऐसा लगता था मानो वृक्ष के सब पत्ते पीले होकर झर गये हों और वृक्ष नग्न हो गया हो, एका की रह गया हो।
ऐसी स्थिति समाज की बन गई थी तब पूज्य गुरुदेव १००८ यतीन्द्र सूरीश्वरजी सूखे, एकाकी, ठंठ वृक्ष में नई चेतना लाने, हरे-भरे, फलने-फलने के लिए, अपने अंतिम दिनों में कहा करते थे, प्रेरित करते थे और सामाजिक उत्थान के लिये उत्साहित करते थे ।
समाज की दयनीय अवस्था के समय मुनिराज श्री जयंतविजय 'मधुकर' के मालव प्रदेश बिहार के समय रतलाम आगमन हुआ। मालव प्रदेश में रतलाम का महत्वपूर्ण स्थान और गौरव है।
रतलाम नगर के युवकों के मन में पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा कार्य कर रही थी और समाज के लिए एक पीड़ा थी । पूज्य मुनिराज श्री जयंत विजयजी से भेंट कर अपनी व्यथा सुनाई। समाज में भी एक ऐसा संगठन होना चाहिए जो समाज चेतना तथा उत्थान का कार्य करे, लम्बी चर्चा के पश्चात् पूज्य मुनिराज श्री ने निर्देश दिया कि यदि ऐसी बात है तो आप युवक एक निश्चय के साथ करमदी (तीर्थ जो रतलाम नगर से २ किलोमीटर दक्षिण में है) आना। यह एक परम योग था कि रात्रि भी व्यतीत नहीं होने दी और ११ बजे (रात्रि) पूज्य मुनिराजश्री के सान्निध्य में श्री मदनलाल सुराणा, श्री हस्तीमल सुराणा श्री जेठमलजी लुणावत, श्री नाथुलालजी सोनी और मैं आदि जन पहुंच गये। संक्षिप्त चर्चा के पश्चात् पूज्य आचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के नाम से संस्था का निर्माण किया जावे। इसकी
शाखाएं सम्पूर्ण भारत में हो ऐसा सर्व सम्मत निश्चय किया गया। रात्रि के १२ बज रहे थे, चन्द्रमा अपने पूरे प्रकाश से जगमगा रहा था, सर्वत्र चांदनी फैली हुई थी। झरना अपनी कल-कल ध्वनि बिखेर रहा था। ऐसे मनोरम क्षणों में गुरुदेव की समाज हितध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वैशाख शुक्ला ७ सं. २०१६ की रात्रि १२-१ बजे के मध्य श्री राजेन्द्र जैन नवयवक परिषद' की सर्वप्रथम करमदी तीर्थ (रतलाम) में स्थापना हो गई । बीज का वपन हुआ । आज वही बीज वट वृक्ष के रूप में विद्यमान है।
पूज्याचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के पास से परिषद के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु मुनिराजश्री के साथ प्रतिनिधि गण श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पहुंचे । आचार्य श्री का आशीर्वाद ____ पूज्य मुनिराजश्री के साथ आचार्य श्री के पास पहुंचे। आचार्य श्री से निवेदन के पश्चात् कहा अरे भाई ! बहुत सी संस्थाएं बनी और बिगड़ गई। मेरा अनुभव है अनेक ग्रामों (गांवों) में बहुत से नाम की संस्थाएं बनी और बिगड़ी। कई मंडल के बंडल बन गये। वे अभी तक नहीं खुले । दीर्घ चर्चा के पश्चात् गुरुदेव ने संस्था को अशीर्वाद प्रदान किया। गुरुदेव से चर्चा करना असाधारण कार्य
पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री के निकट पहुंचना और उनसे चर्चा करना अत्यन्त ही कठिन कार्य था। पूज्य मुनिराजश्री के माध्यम से हम निश्चित चर्चा करते रहे । पूज्य आचार्यश्री की भावना थी कि नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में धार्मिक विद्यालय संचालित हों और समाज को धार्मिक ज्ञान प्राप्त हो। मध्यमवर्गीय परिवारों को आर्थिक सहायता मिले। उनके कष्ट में हमारे कार्यकर्ता कार्य करें, वे पिता की भांति अपने पुत्रवत् घंटों समझाते थे। वे दिन अब स्मृति बन गये हैं।
राजेन्द्र-ज्योति
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परिषद की स्थिति
पूज्य आचार्यश्री की कृपा से परिषद सम्पूर्ण भारत में जाल की भांति फैल चुकी है। इसकी जड़ें गहरी हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तामिलनाडु, आंध्र आदि प्रदेशों में परिषद की शाखाएं कार्यरत हैं। आज पूज्य आचार्य हमारे बीच होते तो उनके आनंद का पारावार न रहता परिषद के विकास को देखकर। __सर्वप्रथम श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में परिषद का अधिवेशन हुआ। द्वितीय अधिवेशन रतलाम नगर में निर्विघ्न सफलीभूत हुआ। कठिनाइयां तो आती हैं लेकिन पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद से बाधाएं दूर होती रही हैं। आज असहयोगी भी समर्पित हो गये।
रतलाम वह स्थली है जहां अभिधान राजेन्द्र कोष तथा राजेंद्र ज्योति जैसे अमर तथा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों का प्रकाशन हुआ । पूज्य मुनिराजश्री को कोटिशः वंदन । मेरी भावना
जे वैर वृत्ति राखशे हुं तेहथी करि मित्रता, नहीं दिल दुखाऊं कोई नुं राखी हृदय पवित्रता, बस एज नु झरणुं सर्वदा मझ उर विशे बहेतु रहे,
करूँ त्राण हुँ सहु जीवनुं सहुं मृत्यु थी जीवन लहे ।। परिषद्-शाखाएँ
मद्रास मद्रास की त्रितुतिक जैन समाज में एकता, प्रगति तथा समाजोस्थान की भावनाएं लहर की भांति अंगड़ाई खा गई। श्रीमद् राजेन्द्र सूरी जैन ट्रस्ट की स्थापना के छह मास उपरान्त ही युवक वर्ग ने श्री राजेन्द्र जैन परिषब् का बीजारोपण कर दिया। मद्रास नगर की जैन समाज में वैसे ग्यारह मण्डल कार्यरत हैं जो सामाजिक प्रसंगों तथा जयन्ती-उत्सवों पर सेवा व संगीत के आयोजन करते हैं लेकिन परिषद की स्थापना सामाजिक क्षेत्रों को अनूठी देन रही। वहां लोकगीत भजनावली गाने वाला एक भी मण्डल नहीं था जो अपनी राग में गाता और अपनी भाषा में समझाता । परिषद ने इस दिशा को अपनाया और उसका परिणाम काफी सकारात्मक आया। प्रथम वर्ष में ही परिषद ने महावीर जयन्ती पर बरछोड़ में झांकी प्रदर्शित की तथा संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया। दोनों में ही मद्रास परिषद् को प्रथम स्थान पुरस्कार के प्राप्त हुए। अपनी जनता, अपनी भाषा, अपना वेश (झिब्बा, धोती व केशरिया साफा) परिषद् के परिचायक के रूप में उठा । सेवा भक्ति तथा अंगरचना से परिषद की कर्मठता परिलक्षित होने लगी। मद्रास में प्रथम बार पन्द्रह हजार विविध पुष्पों से भगवान श्री चन्द्रप्रभुस्वामी की अंगरचना पर्युषण में अनोखी शान के साथ की गई। तीस हजार श्रद्धालुओं ने उसका दर्शन किया ।
कार्तिक पूर्णिमा तथा चैत्री पूर्णिमा के केशरवाड़ी मेलों में परिषद् ने उल्लेखनीय सेवा प्रदर्शित की । इससे पूरे शहर में परिषद
पर वाह वाह की शाबाशी बरसने लगी । पपरषद् के प्रति दक्षता व क्षमता का विश्वास समाज में जाग गया। आसपास के बहुत से शहरों में प्रतिष्ठा प्रसंगों, पूजा आयोजनों व मेलों में कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिये परिषद को आमंत्रित किया जाने लगा। मण्डल ने सिनेमा की छिछली तरज व ओछे अरथ को छोड़कर नया भक्ति युग पैदा कर दिया।
उपरान्त परिषद के तत्वावधान में ४५० यात्रियों की स्पेशल ट्रेन कार्तिक शुक्ला ९ के शुभ मुहूर्त में भारत की प्राचीन कल्याण भमियों, तीर्थों की यात्रा के लिये निकाली गई। यह कार्यक्रम काफी सफल रहा व उत्तमता प्राप्त कर गई। इस शुभ कार्य में यात्रियों ने सामूहिक रूप से लगभग छह लाख रुपया व्यय किया। उज्जैन के श्री राजेन्द्र सूरि ज्ञान मंदिर में लगे चित्रपट इस यात्री संघ की स्मृति को सदियों का जीवंत रखेंगे। श्री सम्मेदशिखर धर्मशाला में पच्चीस कमरे एक साथ इन्हीं यात्रियों ने लिखवाये। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर भी यात्रियों ने काफी कमरों के लिये धनराशि दी। वर्तमान में संगीत बाल विभाग भी खोला गया हैं जिसमें विविध साज संगीत के प्रसाधनों का प्रबंध है। वाद्य यंत्रों व नृत्य कला का प्रशिक्षण इसके अन्तर्गत दिया जाता है।
श्री राजेन्द्र गीत माला का प्रथम पुष्प यात्री संघ के समय पूर्ण हुआ था, द्वितीय पुष्प प्रकाश्य है। सेवा विभाग, आंगी विभाग, संगीत विभाग तथा प्रसार विभाग का कार्य भी सुचारु रूप से चल रहा है। गत वर्ष भी महावीर जयन्ती पर आयोजित झांकी प्रतियोगिता में श्री मद्रास जैन संघ ने प्रथम पुरस्कार की शीला प्राप्त की थी। सदस्यों में उत्साह अच्छा है। परिषद् को काफी ज-प्रियता प्राप्त हो गई है।
बैंगलोर भारतवर्ष के शहरों में बैंगलोर का इसके सौन्दर्य व वातावरण के कारण अपना विशिष्ट स्थान है। यह एक उन्नत व्यावसायिक केन्द्र भी है। इस कारण राजस्थान एवं समस्त उत्तर भारत के लोग इस क्षेत्र की ओर आकर्षित हो रहे हैं । व्यावसायिक प्रगति के साथ यहां पर उत्तर भारतीय जनता की संख्या भी बढ़ने लगी। इनमें जैन धर्मावलम्बियों की संख्या अपेक्षा त ज्यादा है । अतः जनसंख्या की बढ़ती आवश्यकतानुसार यहां पर जैन मंदिर, धर्म शालाओं व अन्य धार्मिक स्थानों का निर्माण होता रहा है। वर्तमान में यहां पर सात बड़े मंदिर एवं १५ छोटे व गृह मंदिर हैं। दो मंदिर निर्माणाधीन हैं। कई वर्षों से गुरु र की मंदि कमी महसूस हो रही थी, वह भी करीब चार वर्ष पहले दूर हो गई। चार वर्ष पूर्व श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर के रूप में गुरु मंदिर का स्थापना हुई । इसके साथ ही अखिल भारतीय श्राराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की शाखा की भी स्थापना हुई। ___ संवत् २०३० के चैत्र कृष्णा १ शनिवार तारीख ९-३-७४ को परिषद् शाखा की स्थापना हुई। उस वर्ष में निम्न कार्यक्रमों का आयोजन सफलता पूर्वक हुआ ।
वी. नि. सं. २५०३
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(१) चैत्र सुदी १३ के दिन कई जीवों को अभयदान दिलाया गया। यह विशेष हर्ष को बात रही कि इसी वर्ष हमारे जीवन में कभी न आने वाला विशेष त्योहार चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का २५०० सौवां निर्वाण वर्ष मनाया जा रहा था।
(२) बैण्ड मण्डल की स्थापना - इस मण्डल ने शहर के कई समारोहों में अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसमें से सामूहिक निर्वाण दिवस, वरघोड़ा एवं धर्मचक्र प्रभावना के विशाल जुलूस में विशेष ख्याति प्राप्त की। स्थानीय कार्यक्रमों के अलावा के. जी. एफ. होसुर, गौरी बिदर, कुनिगल चित्रदुर्जा, मैंगलौर आदि शहरों में जाकर भी अपनी सेवाएं अर्पित की हैं।
(३) बैंगलोर शहर में पौष शुक्ला सप्तमी को प्रथम बार जयन्ति का आयोजन किया गया। आगामी दो वर्षों के कार्यकाल में परिषद् की ओर से गुरु जयन्ति आरोजन के साथ ही चैत्र पूर्णिमा के दिन चैत्य परिपाटी के अन्तर्गत बैंगलोर के समस्त जैन मंदिरों के दर्शन का कार्यक्रम भी सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ ।
वर्तमान वर्ष में एक संगीत मण्डल की स्थापना की गई। इस मण्डल ने अल्प समय में स्थानीय चिकपेट के श्री आदिनाथ जैन मंदिर व केरोनमेंट (बैंगलोर) के मुनीसुव्रत जैन मंदिर में जिन भक्ति के दो सफल कार्यक्रम प्रस्तुत किये।
इसी वर्ष श्री राजेन्द्र भक्ति धारा नामक स्तवन संग्रह की पुस्तक का प्रकाशन करवाया गया है। जिसमें करीब ८०-९० स्तवन आदि हैं । इस पुस्तक के प्रकाशन में कई महानुभावों ने विज्ञापन देकर कार्य को सुलभ बनाया है। इस कार्य की सफलता के लिये पदाधिकारियों व सदस्यों का पूर्ण सहयोग मिला हैं। भविष्य में सभी के सहयोग से और अधिक कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न होंगे ऐसी आशा है ।
वर्तमान में अध्यक्ष श्री भंवरलालजी चौपड़ा, मंत्री श्री चंपा लालजी जैन हैं। श्री सी. बी. भगत केन्द्रीय परिषद् में महामंत्री पद को सुशोभित कर रहे हैं और उनकी सेवाएं परिषद् के लिए अमूल्य हैं वे अपने मूल्यवान समय को परिषद् की सेवा में समर्पित कर रहे हैं।
निम्बाहेड़ा
मेवाड़ के सिंहद्वार पर स्थित निम्बाहेड़ा (जिला चित्तौड़गढ़, राजस्थान) अपनी अनमोल गतिविधियों के द्वारा संगठन शक्ति रूपी परिषद् का अभिषेक कर रहा है। केन्द्रीय परिषद् की स्थापना साथ ही निम्नाहेड़ा में शाखा परिषद् संचालित हो रही हैं। शाखा केन्द्रीय प्रतिनिधि श्री सौभाग्यमलजी सेठिया पांच वर्षों तक परिषद् के प्रथम केन्द्रीय अध्यक्ष पद पर रहे हैं। शाखा परिषद् ने केन्द्रीय कार्यसमिति की बैठकें आयोजित की एवं इसी वर्ष में परिषद् का अखिल भारतीय अधिवेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न करवाया । इस अधिवेशन की विशेषता यह रही कि परिषद की प्रगति कई नई दिशाओं में प्रसारित होने लगी ।
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शाखा - परिषद् की ओर से श्री राजेन्द्र जैन पाठशाला का संचा लन किया जाता है। नगर के मध्य चौक का नाम श्री राजेन्द्र चौक किया गया है। पाठशाला के लिये शाखा ने विधिवत् एक संरक्षण समिति का गठन किया है जो निर्देश देती है। परिषद् सहायता निधि की पेटियां लगाई गई हैं। दिनांक ५ दिसम्बर ७६ को परिषद् की ओर से एक बालकवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें पैंतालीस बालकवियों ने भाग लिया। दिनांक १४ नवम्बर ७६ को श्री राजेन्द्र प्रदर्शनी का आयोजन 'धरती के फूल' नाम से किया गया। प्रदर्शनी को लगभग पांच हजार व्यक्तियों ने देखा तथा सराहना की । शाखा परिषद् उत्सवों के आयोजन में पूरे नगर का विश्वास प्राप्त कर चुकी है। राजेन्द्र जयन्ती तथा महावीर जयन्ती के अवसर पर कार्यक्रमों का आयोजन होता है ।
वर्तमान में शाखा के पदाधिकारी इस प्रकार कार्यरत हैं:श्री ज्ञानेन्द्र कुमारजी संघवी (अध्यक्ष), श्री भंवरलाली बड़ारा तथा श्री लेखराजजी पटवारी ( उपाध्यक्ष), श्री कनकमलजी जैन (मंत्री), श्री मावजी पालेचा ( सहमंत्री), श्री श्रीपालजी नायक ( उपसहमंत्री), श्री ओमप्रकाशजी डांगी ( संगठन मंत्री ), श्री सज्जनसिंहजी सोड़ा (शिक्षा मंत्री श्री कुशाही बोला ( कोषाध्यक्ष), श्री मनोहरलालजी सिसौदिया ( सूचना व प्रसार मंत्री), श्री ऋषभकुमारजी पटवारी ( व्यवस्था मंत्री) तथा श्री शान्तिलालजी रांका ( स्वागत मंत्री ) । केन्द्रीय प्रतिनिधि श्री सौभाग्यमलजी सेठिया, श्री भंवरलालजी तेजावत तथा श्री सज्जनसिंहजी लोढ़ा हैं ।
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नीमच
म.प्र. के मंदसौर जिलान्तर्गत नीमच राजनीति, धर्म, समाज और राष्ट्रचेतना से ओतप्रोत है। यहाँ श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद स्थापित है। इस परिषद के पदाधिकारी इस प्रकार हैं:
(१) श्री चांदमलजी नागौरी (२) राजमलजी पोरवाल (३) हस्तीमलजी चौधरी सरदारमलजी पगारिया भैरूलालजी सेठिया
(४) (५),
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(१) श्री (२),
केन्द्रीय प्रतिनिधि
भंवरलालजी छाजेड़ माधवसिंहजी चौधरी
अध्यक्ष उपाध्यक्ष मंत्री कोषाध्यक्ष
शिक्षामंत्री
यह परम सौभाग्य का विषय तथा नीमच शाखा का गौरव है कि श्री भंवरलालजी छाजेड़ केन्द्रीय परिषद् में क्रमश: प्रचारमंत्री, सहमहामंत्री, महामंत्री संयोजक और वर्तमान में केन्द्रीय परिषद में अध्यक्ष पद को सुशोभित कर रहे हैं।
परिषद वर्तमान में वाचनालय, धार्मिक विद्यालय अन्य धार्मिक गतिविधियां संचालन कर रही है। यहाँ केन्द्रीय कार्यकारिणी की अनेक बैठकें संपन्न हुई हैं।
राजेन्द्र- ज्योति
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केन्द्रीय परिषद द्वारा विद्यालय संचालन हेतु ५० रु. प्रति ३ माह अनुदान दिया जाता है। यहाँ २५ कुटुम्ब त्रिस्तुतिक मान्यता के हैं। महिला परिषद तथा बाल परिषद भी स्थापित
मन्दसोर प्रगतिशील शाखाओं में मंदसौर (म.प्र.) की परिषद शाखा का भी सम्मानपूर्ण रूप से उल्लेख किया जाता है। ३० अगस्त १९५८ को श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक सभा के रूप में युवाओं का एक सशक्त मंच तैयार हुआ। अखिल भारतीय प्रयत्नों के फलतः परम पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज'मध कर' की। प्रेरणा से इसका विलय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद में किया गया। सभा के प्रथम अध्यक्ष श्रीमदनलालजी मेहता थे। परिषद द्वारा आयोजित किये गये विराट् स्मारकों तथा सामाजिक कार्यों में दिखाई गई कर्मठता के फलस्वरूप इसको छबि निखरती गई। १९६० में शाखा परिषद् ने हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया जो १९७४ तक चलता रहा। किसी भी हस्तलिखित पत्रिका ने इतना दीर्घ जीवन प्राप्त नहीं किया। शाखा परिषद ने ही सर्व प्रथम परिषद शाखाओं के मंत्रियों का सम्मेलन आयोजित किया जिसे पूज्य मुनिराज श्री जयंतविजय जी महाराज ने मार्गदर्शन दिया। परिषद द्वारा समाज कल्याण के कई कार्य किये गये जो इस प्रकार हैं:--
(१) परिषद द्वारा १९६६ में जैन विद्यालय प्रारम्भ किया गया जो आज शिक्षा महाविद्यालय से बाल मंदिर तक विस्तृत है। वर्तमान में छात्र संख्या एक हजार है।
(२) तीर्थंकर श्री महावीर देव के २५००वें निर्वाण वर्ष की स्मृति में नगर के मुख्य गांधी चौराहे पर एक सार्वजनिक महावीर प्याऊ का निर्माण किया गया जिस पर लगभग पांच हजार रुपये व्यय आया। इस हेतु केन्द्रीय परिषद ने एक हजार एक रुपया तथा महामंत्री श्री सो.बो. भगत ने एक हजार एक रुपया प्रदान किया।
(६) परिषद शाखा द्वारा श्री राजेन्द्र बचत योजना भी प्रारम्भ की गई जिसका संचालन अब जैन शिक्षण प्रसार समिति द्वारा किया जा रहा है।
इनके अतिरिक्त परिषद शाखा द्वारा गुरु सप्तमी का आयोजन किया जाता है। समय-समय पर विचार गोष्ठियां तथा भाषणमालाएं आयोजित की जाती रही हैं। तीन वर्षों तक शाखा परिषद को सर्वोच्चता का प्रथम पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
भविष्य की योजनाओं में परिषद शाखा श्री वर्धमान जैन औषधालय को समुन्नत व समृद्ध अस्पताल में परिणित करना चाहती है, राजेन्द्र जैन बैंक, सर्वधर्म उपकरण विक्रय केन्द्र, श्री राजेन्द्र विद्या निकेतन की स्थापना करने के संकल्प लिये हैं। शाखा परिषद ने नगर के बाहर भूमि भी क्रय कर ली है। श्री राजेन्द्र सूरि समाधि मंदिर का आधुनिक शैली पर निर्माण किये जाने की भावना है।
परिषद शाखा में निम्नांकित पदाधिकारी कार्यरत हैं::श्री शान्तिलालजी चपरोत (अध्यक्ष), श्री दलपतसिंहजी बाफना (उपाध्यक्ष), श्री मदनलालजी मेहता (सचिव), श्री पारसमल जी डोसी-(उपसचिव), श्री पारसमलजी लोढ़ा (कोषाध्यक्ष), श्री राजमलजी डांगी (साहित्य मंत्री) तथा श्री शान्तिलालजी कोठारी (प्रचार मंत्री) केन्द्रीय प्रतिनिधि श्री सुरेन्द्रकुमारजी लोढ़ा तथा श्री बहादुरमलजी करनावट हैं। श्री राजमलजी लोढ़ा अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के केन्द्रीय शिक्षा मंत्री पद पर हैं।
कचनारा जिला मन्दसौर (मध्यप्रदेश) के ग्राम कचनारा में अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयवक परिषद की शाखा धार्मिक पाठशाला का संचालन कर रही है। इसका उद्देश्य' बालकों को सुसंस्कारित तथा सुसंस्कृत बनाना है। उपाश्रय व जिनालय का जीर्णोद्धार हो रहा है। इनकी व्यवस्था परिषद के कार्यकर्ताओं द्वारा ही की जाती है। शाखा परिषद के पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार हैं
अध्यक्ष-श्री नानालालजी सुराणा, उपाध्यक्ष-श्री कन्हैयालालजी ओस्तवाल, संयोजक-श्री रतनलालजी मेहता, सचिवडा. ललितकुमारजी कर्नावट, कोषाध्यक्ष व केन्द्रीय प्रतिनिधिश्रीमदनलालजी सुराणा, विशेष प्रतिनिधि-श्री हस्ती सी. कर्नावट, प्रचार मंत्री-श्री राजेन्द्रकुमार सुराणा, सह सचिव श्री पारसमल
ओस्तवाल, समाज सुधार व संगठन मंत्री-डा. सोहनलालजी सुराणा, शिक्षा व साहित्य मंत्री-श्री शान्तिलालजी खारीवाल। श्री मदनलालजी सुराणा वर्तमान में कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं। -
ग्राम में श्री राजेन्द्र जैन महिला परिषद का गठन भी किया गया है जिसके पदाधिकारी इस प्रकार हैं--श्रीमती तारादेवी सुराणा (अध्यक्ष), शकुंतला देवी ओस्तवाल (उपाध्यक्ष),
(३) नगर में समाज के कमजोरवर्ग की आवास समस्या हल करने के उद्देश्य से शाखा परिषद के माध्यम से श्री तीर्थकर महावीर गृह निर्माण सहकारी समिति का गठन एवं पंजीयन करवाया गया। समिति ने लगभग तीस हजार रुपये में भूमि क्रय कर ली है जिसका विकास किया जा रहा है।
(४) कमजोर वर्ग की आरोग्य सुविधा हेतु शाखा परिषद द्वारा श्री वर्धमान जैन औषधालय का शुभारम्भ किया एवं वर्तमान में उसका संचालन किया जा रहा है।
(५) परिषद शाखा द्वारा वर्षों तक श्री आदर्श जैन वाचनालय तथा पुस्तकालय की स्थापना कर संचालन किया गया। इन दिनों यह बन्द है।
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चन्द्रकान्ता सुराणा (कोषाध्यक्ष), विमलाबाई खारीवाल (सचिव) रोशनदेवी कर्ना (संयोजक), केन्द्रीय प्रतिनिधि-श्रीमती-माणकदेवी ओस्तवाल। महिला परिषद की गतिविधियों में सामूहिक प्रतिक्रमण व पूजन, दहेज व अन्य कुप्रथाओं के विरुद्ध जनजागरण तथा जैन तीर्थयात्रा हेतु प्रयत्न शामिल हैं।
सामाजिक कार्यक्रमों की व्यवस्था में श्री राजेन्द्र जैन बाल परिषद सहयोग देती है। इसके पदाधिकारियों में श्री अनिल सुराणा (अध्यक्ष), श्री अभय मेहता (उपाध्यक्ष) श्री अशोक ओस्तवाल (संयोजक), श्री विजय कर्नावट (सचिव) शामिल हैं। बाल परिषद का गठन श्री पारस ओस्तवाल के निर्देशन में हुआ।
नयागांव नयागांव मालव और राजस्थान की संधि स्थल पर निम्बाहेड़ा से १० किलोमीटर दूर अजमेर-खण्डवा मार्ग पर स्थित है। यहाँ १० कुटुम्ब जैन समाज के हैं।
यहाँ पर अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा स्थापित है और उसके मुख्य पदाधिकारी इस प्रकार हैं:(१) श्री लक्ष्मीलाल चौधरी
अध्यक्ष (२) " राजमलजी डंगरवाल
नयागांव राजस्थान और मालवा के मध्यमार्ग में है अतः समय-समय पर साधुसंतों की सेवा करने का सौभाग्य इस परिषद को मिलता रहता है। __ यद्यपि गांव छोटा है किन्तु धार्मिकता कूट-कूटकर भरी है। शाखा केन्द्रीय परिषद के कार्यक्रमों में भाग लेती रहती है।
नारायणगढ़ मंदसौर जिलान्तर्गत नारायगढ़ स्थित है। अभी-अभी यहाँ शाखा परिषद की स्थापना हो चुकी है। श्री चंदनमलजी रुंगरेचा जो इस शाखा के संयोजक हैं, के नेतृत्व में शाखा परिषद् के नये निर्वाचन के सदस्य बनाने का कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा।
रतलाम प्राकृतिक सौंदर्ययुक्त ऐतिहासिक नगर रतलाम बम्बई दिल्ली मार्ग के मध्य स्थित है । रतलाम भारत का हृदय स्थल होने के फलस्वरूप परिषद् की महत्वपूर्ण गतिविधियों का संचालन केन्द्र
मंत्री
यहां समाज के २०० कुटुम्ब हैं। इन अधिकांश परिवारों में परिषद् सहायता निधि मंजूषाएं स्थापित हैं । पदाधिकारी ___ सक्रिय परिषद् के निम्न पदाधिकारी हैं(१) श्री डाड़मचंड वोरा अध्यक्ष (२) , शांतिलाल खेमसरा उपाध्यक्ष (३) ,, कांतिलाल दुग्गड़ मंत्री
,, सज्जनमल सुराणा सहमंत्री (५) ,, चंद्रसेन डोसी शिक्षामंत्री (६) , विजयकुमार संघवी प्रचार मंत्री (७) , नाथुलाल सोनी संगठन मंत्री
शाखा परिषद् के प्रथम अध्यक्ष श्री मदनलाल सुराणा रहे । कार्य (१) समाज के सहधर्मी बंधुओं की सेवा एवं सहायता करना (२) पूजा आयोजन । (३) पyषणपर्व व्यवस्था । (४) नवपद आराधना तथा वैयावृत्य तपस्वियों की सेवा । (५) धार्मिक विद्यालय के विद्यार्थियों की परीक्षा व्यवस्था तथा
पुरस्कार वितरण । (६) सदस्यों द्वारा समय-समय पर तीर्थयात्रा एवं नगर के जिन
मंदिर व उपाश्रय की यात्रार्थ सामुहिक समारोह का आयोजन । (७) पर्पूषण पर्व की आराधना में जिनेन्द्र पूजा, पौषध, सामायिक,
प्रतिक्रमण, सुबह शाम सदस्यों द्वारा सामुहिक रूप से पर्दूषण पर्यत उपाश्रय में रात्रि विश्राम कर के पर्व आराधना में
योगदान देते हैं। उल्लेखनीय कार्य
वीर निर्वाण की २५ वीं शती के समय जैन रत्न सेठ कस्तुर भाई लालजी भाई (अहमदाबाद) इंदौर अधिवेशन में भाग लेने पधार रहे थे तब रतलाम स्टेशन पर उनका आगमन हुआ । उस समय अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा रतलाम के कार्यकर्ता स्वागतार्थ पहुंचे।
ऐसे क्षणों में अन्य मूर्तिपूजक व्यक्तियों ने उनका घोर अपमान किया तथा अपशब्द कहे । सेठ श्री को शारीरिक चोंटे पहंचाने का असफल प्रयास किया ।
इस अवसर पर परिषद् के सदस्यों ने भी साहस के साथ विघ्न संतोषियों की योजना को असफल कर दिया। इस मध्य परिषद् के सदस्यों ने अपने पर लगी शारीरिक चोटों का ध्यान न करते हुए, पारषद् के उद्देश्यों का ध्यान रखते हुए भगवान महावीर की वाणी का अनुसरण किया व किसी प्रकार का विवाद न किया।
पूज्य मुनिराज श्री जयंत विजयजी मधुकर का चातुर्मास रतल। नगर में सन् १९७७ में सम्पन्न हुआ तथा इनके मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से राजेन्द्र ज्योति स्मारक ग्रन्थ का प्रकाशन रतलाम से हुवा इन महत्वपूर्ण कार्यों में परिषद् को समुचित श्रेय प्राप्त है।
परिषद् का द्वितीय वार्षिक अधिवेशन यहीं सम्पन्न हुआ। आचार्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के विद्यमान रहते रतलाम शाखा की स्थापना हुई । गतिविधियां
परिषद् द्वारा श्री राजेन्द्र जैन विद्यामंदिर अखण्ड ज्योति का संचालन होता है। परिषद् शाखा के अतिरिक्त महिला, बाल तथा बालिका परिषदें यहां कार्यरत हैं । केन्द्रीय परिषद् के सहयोग से चौमुखी पुल के चतुर्मुखी मार्ग पर ट्रेफिक छत्री का निर्माण गतिशील है।
- राजेन्द्र-ज्योति
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महिला परिषद्
महिला परिषद् का भी यहां गठन हुआ है जिनके पदाधिकारी व सदस्य के नाम इस प्रकार है(१) श्रीमती मनोरमा छजलानी--अध्यक्ष (२) , चंदनबाला बरभेचा--मंत्री (३) , शशिकला ओहरा--कोषाध्यक्ष
,, प्रेमलता राठौड़-केन्द्रीय प्रतिनिधि (५) , सुशीला संघवी (६) , सुशीला लुनावत प्रचार मंत्री सदस्य १. श्रीमती शान्ता जैन
कान्ता आंचलिया तारा जैन हेमलता ओरा मोहनबाई वोहरा
शकुन्तला लुनावत ७.
निर्मला भटेवरा ८. कु. सुमन जैन बाल परिषद्
बाल परिषद् के पदाधिकारी इस प्रकार हैं:१. कु. त्रिशला रांका--अध्यक्ष २. राजेशकुमार दुग्गड़--उपाध्यक्ष ३. कु. किरण बोराना--मंत्री . ४. कु. उषा लुनावत-उपमंत्री ५. कु. सुनीता आंचलिया--कोषाध्यक्ष ६. कीर्तिकुमार सोनी--प्रचारमंत्री ७. चिरंजन लुणावत--सहप्रचारमंत्री ८. कु. आश। आंचलिया--सांस्कृतिक मंत्री ९. कु. मीना गादीवा--संगठन मंत्री १०. कु. अंगुर बाला रांका ,
जावरा
नगर के निकट स्थित है। जावरा के लिये योग की ही बात है कि महान आत्माएं (संत समुदाय) आते जाते जावरा को अपना लाभ पहुँचाती रहती हैं। - शाखा परिषद के ५२ सदस्य हैं और सौधर्म वृहत्तपागच्छीय के ३०० परिवार हैं । शाखा परिषद के पदाधिकारी इस प्रकार हैं(१) श्री बसंतीलालजी पोखरना
अध्यक्ष (२)" भूपेन्द्रकुमारजी कांठेड़
उपाध्यक्ष " प्रकाशचन्द्रजी कांठेड़
मंत्री " सुरेशचन्द्र सुराना
सहमंत्री (५)" योगेन्द्रकुमार मेहता
कोषाध्यक्ष (६)” अनिलकुमार चोपड़ा प्रचार एवं संगठन मंत्री केन्द्रीय प्रतिनिधि(१) श्री जेठमलजी रुनवाल (२) " शांतिलालजी सुराणा (३) " मदनलालजी कर्नावट (४) " पारसमलजी चपरोत
परिषद अपने कार्य में गतिशील है। यहाँ पर निम्न गतिविधियां संचालित हैं(१) बाल परिषद (२) महिला परिषद (३) बालिका परिषद
परिषद् सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं बौद्धिक कार्यक्रम आयोजित करती रहती है। विपन्न परिवारों को आर्थिक सहायता केन्द्रीय परिषद् से दिलाई जाती है तथा बालमंदिर की योजना के लिये दृढ़ संकल्प है। जावरा महिला परिषद्
जावरा नगर में राजेन्द्र जैन महिला एवं बालिका परिषद् का कार्य सुचारु रूप से चल रहा है । इस महिला परिषद् की स्थापना ११ जुलाई ७५ को गई थी। महिला एवं बालिका दोनों शाखा परिषदों के पदाधिकारियों के नाम निम्नानुसार हैंमहिला परिपद् ____ अध्यक्ष-विमला बेन धारीवाल, उपाध्यक्ष-लीला बेन बापना, मंत्री-पारसमणी मारवाड़ी, कोषाध्यक्ष-सम्पतबाई कांठेड़, सदस्य संख्या-१५ बालिका परिरद् ____ अध्यक्ष कैलाश बेन कर्नावट, उपाध्यक्ष-चन्द्रकान्ता चोपड़ा, मंत्री-निर्मला मारवाड़ी, सहमंत्री-चमेलीबाई संघवी, सदस्य संख्या३५ है।
महिला-परिषद् का संगीत दल विभिन्न धार्मिक स्थानों पर प्रभु पूजन-भक्ति के लिए आमंत्रित किया जाता है । अभी तक परिषद् खाचरौद, मन्दसौर, नागदा, रिंगनोद आदि गांवों में पूजन-भक्ति एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिये जा चकी है एवं अपने सरल
. जावरा नगर पूज्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी महा. के अनुयायियों के लिये एक प्रसिद्ध तीर्थ है। इस भूमि पर पूज्य गुरुदेव ने क्रियोद्धार कर जावरा की श्रेणी को ऊंचा बनाया। आज उसी स्थान पर दादावाड़ी निर्मित है। उसकी हमेशा स्मृति बनी रहती है। ऐसे पावन स्थल पर अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन न. परिषद का होना और उसका सक्रिय होना स्वाभाविक है।
अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन न. परिषद का वार्षिक अधिवेशन सन् १९७८ में इसी दादावाड़ी के पवित्र प्रांगण में संपन्न हुआ। इसका श्रेय शाखा परिषद तथा श्री जैन संघ जावरा को प्राप्त हुआ। जावरा अजमेर-खंडवा छोटी लाईन के मध्य रतलाम
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कार्यक्रमों द्वारा परिषद् ने आशातीत सफलता भी प्राप्त की है। शाखा परिषद् की उन्नति के लिये गत वर्ष २५०/- रुपये का केन्द्रीय अनुदान भी प्राप्त हुआ था। वर्तमान में महिला एवं बालिका परिषद् का मुख्य ध्येय अपने कार्यक्रमों को उन्नति की ओर अग्रसर करने का व परिषद संगठन को मजबूत बनाने का है। इसके लिये कई नवीन योजनाएं बनाई जा रही हैं। ___ महिला परिषद् प्रति रविवार को गुरु भक्ति के लिये एकत्रित होती है। बालिका परिषद् की प्रशिक्षण कक्षा प्रति गुरुवार एवं रविवार को लगती है । परिषद् में आय महिलाओं की फीस द्वारा होती है । भविष्य में महिला परिषद कई सेवाकार्य प्रारम्भ करना चाहती है जैसे विधवाओं को सहायता देना, सिलाई स्कूल स्थापित करना, वाचनालय-पाठशाला आदि में सहायता करना आदि ।
रिंगनोद रतलाम जिले की जावरा तेहसील से १८ किलो मीटर दूर महू नीमच रोड़ से ८ किलो मीटर पूर्व में ग्राम रिंगनोद स्थित है। ग्राम अति प्राचीन है। जब यहां जैन धर्म काफी व्यापक था उस समय यहां पर पांच सौ जैनों के घर तथा ५ जिनालय तीर्थ थे परन्तु समय के साथ गांव की अवनति होने से धर्मावलम्बियों की संख्या काफी कम होती गई । वर्तमान में यहां २५ जैनों के घर तथा २ जिनालय तीर्थ हैं परन्तु उनकी अवस्था शोचनीय हैं। उनमें पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण समय ७०० वर्ष पूर्व का है। यहां की प्रतिमाजी बड़ी चमत्कारी व मनोहर एवं दिन में तीन रूप बदलती है। सभी प्रतिमा संगमरमर की दिव्य तथा मन को लुभाने वाली हैं। भगवान पार्श्वनाथजी की प्रतिमा ९ मुखी शेष नागधारी है। जो पूरे देश में गिनी चनी है। दूसरा जिनालय-तीर्थ नेमिनाथ भगवान का है, मंवत् १९७२ में एक आश्चर्यजनक चमत्कार हुआ। भगवान नेमिनाथ तथा पांच अन्य स्वयं भू से प्रकट हुई। ये प्रतिमाएं ग्राम रिंगनोद में गांधी गली में नाई के ओटले से प्रकट हुई। सभी प्रतिमाएं संगमरमर की चमकदार आकर्षक तथा चमत्कारी हैं । ___ दिनांक १९-९-७४ के शुभ दिवस उत्साही नवयुवकों ने वर्तमान केन्द्रीय प्रतिनिधि श्रीमान् भीकमचन्दजी चौपड़ा की प्रेरणा से एकत्र होकर जैन नवयुवकों का एक संगठन श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मण्डल के नाम से स्थापित किया। युवकों में उत्साह व उमंग थी व कार्य करने की प्रबल इच्छा थी। पवित्र भावना से संगठित होकर समाज सुधार व समाज में व्याप्त कुरीतियों व बुराइयों को दूर करने का लक्ष्य था। इस प्रकार समाज हित को ध्यान में रखकर जैन नवयुवकों का एक संगठन बनाया गया। उक्त नाम से कार्य दिनांक २५-८-७५ तक चला। इस कार्यकाल में जावरा निवासी श्रीमदनलालजी कर्नावट के सम्पर्क में आने पर जावरा मण्डल से सम्पर्क बना।।
दिनांक १८-६-७५ को मण्डल के अध्यक्ष श्री सागरमलजी ललवानी व मंत्री श्रीमान सुरेन्द्र कुमारजी श्रीमाल मोहनखेड़ा तीर्थ में मंदिरजी की नींव के शुभ महर्त पर आचार्य श्री के
दर्शनार्थ पहुंचे। श्रीमान मदनलालजी कर्नावट मुनिराज श्री जयन्त विजयजी 'मधुकर' से सम्पर्क करवाया गया। मुनिराज श्री से चर्चा करने पर अखिल भारतीय स्तर पर जैन संगठन का परिचय प्राप्त हुआ। मुनिराज श्री ने समस्त जानकारियां उपलब्ध करवाकर केन्द्र से सम्पर्क स्थापित करने की प्रेरणा दी। दिनांक ३०-८-७५ को उक्त मण्डल का नाम अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद शाखा रिंगनोद में नामांतरित हो गया। वर्तमान में परिषद की सदस्य संख्या ३०है। ___धार्मिक पाठशाला की स्थापना:-- परिषद के उद्देश्य जैन धर्म की शिक्षा के प्रसार की पूर्ति के लिए दिनांक ९-१०-७४ को श्री राजेन्द्र जैन पाठशाला की स्थापना की गई। दिनांक १४ अक्टूबर १९७४ को पाठशाला का शुभारम्भ किया गया। वर्तमान में पाठशाला में ४१ छात्र व छात्राएं अध्ययनरत हैं। छात्र-छात्राओं की परीक्षा प्रतिवर्ष श्री जैन तत्वज्ञान विद्यापीठ पूना द्वारा ली जाती है। १९७६ की प्रबोधिनी परीक्षा का परिणाम ९७ प्रतिशत रहा। पाठशाला संचालन में केंद्रीय परिषद् की ओर से प्रतिमाह ७५) रु. प्राप्त होते हैं।
(२) महिला परिषद् की स्थापना:-दिनांक ७ नवम्बर १९७६ को केन्द्रीय महामंत्री श्री सी. बी. भगत के मालवा प्रवास के दौरान रिंगनोद आगमन पर श्री राजेन्द्र जैन महिला परिषद् की स्थापना की गई।
(३) श्री राजेन्द्र जैन पौधधशाला का नवनिर्माण कार्य:स्थानीय पौषधशाला भवन पूज्य वर्तमानाचार्य श्रीमद् विद्याचन्द सूरीश्वरजी की आज्ञावर्ती साध्वीजी श्री उत्तमश्रीजी के सदुपदेश से चौपड़ा श्री जड़ावचन्दजी रतनलालजी के सुपुत्र श्री भीकमचन्दजी चौपड़ा तथा मुलीबाई ने धर्म ध्यान के लिये आषाढ़ शुक्ला ७ सम्वत् २०१५ को जैन समाज को समर्पित किया। उक्त भवन कच्चा मिट्टी का बना है। परिषद् के द्वारा इसके नव निर्माण का लक्ष्य बनाया गया है। इस ओर परिषद् द्वारा प्रयास करने पर श्री जेठमलजी रूणवाल जावरा निवासी के सहयोग से विद्युत व्यवस्था की गई । परिषद् द्वारा मुख्य हाल का फर्श तथा दीवालें पक्की बनाई गई। शेष कार्य के लिये प्रयास चल रहे हैं। अभी तक उक्त कार्य के लिये आर्थिक सहायता के रूप में ४५००/- रुपये का संग्रह मुनिराज श्री जयन्त विजयजी मधुकर के आशीर्वाद से हुआ। कुल निर्माण कार्य को अनुमानित लागत व्यय ५०,०००/- रुपया है । इस और दानदाताओं से सहयोग की अपेक्षा की है।
(४) जिनालयों का जीर्णोद्धार करवाना:-श्री नेमीनाथ तीर्थ मंदिर में रंगाई का कार्य श्रीमान सुजानमलजी आंचलिया निवासी जावरा के सहयोग से करवाया गया। वर्तमान में श्री आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी अहमदाबाद से सम्पर्क चल रहा है। परिषद् के प्रयास से मंदिर के कुए पर विद्युत पम्प लगाया गया ।
(५) प्रचलित सामाजिक कुरीतियों को दूर करना:-दिनांक १९ जून १९७७ को मनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' के
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रिंगनोद आगमन पर समाज व परिषद् के सदस्यों ने दुर्व्यसन आदि का त्याग करने का संकल्प लिया। कुरीतियों को दूर करने में आपसी सहयोग द्वारा प्रयास किया जा रहा है।
(६) स्वधर्मी सहायता:-समाज में निर्धन वर्ग के लिये परिषद् केन्द्रीय सहायता कोष द्वारा जरूरत मन्द समाज के सदस्यों को सहायता दिलवाई व आगे भी प्रयास जारी हैं । दिनांक ११ अक्टोबर १९७७ को केन्द्रीय महामंत्री श्री सी. बी. भगत का आगमन हुआ। साथ में भूतपूर्व अध्यक्ष श्री सौभाग्यमलजी सेठिया तथा केन्द्रीय कोषाध्यक्ष श्री शान्तिलालजी सुराणा पधारे । आपके पधारने पर सकल संघ व परिषद के सदस्यों में भारी उत्साह व उमंग रहा । आपका भव्य स्वागत किया गया। दिनांक १९ जून १९७७ के शुभ दिन में ग्राम रिंगनोद में १७ वर्ष पश्चात् मुनिराज जयन्तविजयजी 'मधुकर' का आगमन हुआ। साथ में नव निर्वाचित अध्यक्ष श्रीमान भंवरलालजी छाजेड़, केन्द्रीय शिक्षा मंत्री श्रीमान राजमलजी लोढ़ा व श्रीमान राजमलजी खाबिया मन्दसौर निवासी आदि महानुभावों का आगमन रिंगनोद में प्रथम बार हुआ । श्री खाबियाजी द्वारा सिलाई केन्द्र का उद्घाटन किया गया। केन्द्रीय परिषद की ओर से एक सिलाई मशीन भी प्राप्त हुई।
श्री चान्दमलजी डूंगरवाल आलोट निवासी, जावरा से श्री मदनलालजी कर्नावट, श्री जेठमलजी रूणवाल, श्री कन्हैयालालजी धाड़ीवाल, श्री बाबूलालजी कांठेड़ तथा अन्य सदस्यगण समय समय पर पधारकर पाठशाला तथा परिषद् की कार्यवाही का निरीक्षण कर मार्गदर्शन देते रहते हैं।
श्री सागरमलजी मांगीलालजी शाखा परिषद् के प्रथम अध्यक्ष हैं। वर्तमान में निम्नलिखित पदाधिकारी हैं:
अध्यक्ष-श्री पारसचन्दजी जड़ावचन्द डूंगरवाल, उपाध्यक्षश्री सागरमलजी मांगीलालजी ललवानी, कोषाध्यक्ष-श्री बसन्तकुमारजी मोतीलालजी खारीवाल, मंत्री-श्री यशवन्तकुमारजी मनोहरलालजी नांदेचा, सहमहामंत्री-श्री सुरेन्द्रकुमारजी रतनलाल जी श्रीमाल, प्रचार मंत्री-श्री शान्तिलालजी नाथूलालजी डूंगरवाल, शिक्षामंत्री-श्री मनोहरलालजी छगनलालजी ललवानी एवं परामर्शदाता-श्री कांतिलालजी दसेड़ा, श्री भीखमचन्द्रजी चोपड़ा तथा श्री जड़ावचन्दजी गुलाबचन्दजी डूंगरवाल केन्द्रीय प्रतिनिधि निर्वाचित हुए।
पिपलोदा जिला रतलाम (म.प्र.) के अन्तर्गत पिपलौदा परिषद की शाखा दिनांक ४ अगस्त १९७७ को पुनर्गठित अस्तित्व में आई। शाखा परिषद ने स्थापना के साथ ही धार्मिक पाठशाला स्थापित कर दी जिसमें बालक बालिकाएं प्रतिदिन धार्मिक अध्ययन करते हैं। शीघ्र ही शाखा संगीत मण्डल स्थापित करने का संकल्प किये हुए हैं। शाखा परिषद समाज में आध्यात्मिक चेतना, सामाजिक सुधार तथा समाज विकास की ठोस योजनाएं विकसित करने का प्रयत्न कर रही हैं। परिषद के एक सदस्य
द्वारा मंदिर में दीवाल घड़ी दिये जाने की भी घोषणा की गई है। महावीर जयन्ती, पर्युषण पर्व एवं तीर्थंकरों के जन्म कल्याण कार्यक्रमों सहित मनाये जाते हैं। भक्ति भाव किया जाता है। शाखा परिषद की सदस्य संख्या इकत्तीस है।
वर्तमान में निम्नांकित पदाधिकारी कार्यरत हैं:-अध्यक्षश्री निर्मलकुमार जी धींग, उपाध्यक्ष-श्री कन्हैयालालजी बोहरा, सचिव श्री सरदारमलजी बोहरा, कोषाध्यक्ष-श्री राजमलजी नांदेचा, प्रचारमंत्री,,श्री छोगालालजी बावेल तथा केन्द्रीय प्रतिनिधि श्री चिमनकुमारजी पुखर। जमलजी ।
आलोट पवित्र पावन श्री नागेश्वर तीर्थ की यात्रा के लिये विहार करते समय लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज का आलोट नगर में आगमन हुआ। तीर्थयात्रा के पश्चात जावरा हेतु प्रस्थान करते समय आलोट से पांच माईल दूर ग्राम भूतिया में समाज संगठन, कुरीति निवारण, गरीव वर्ग के आर्थिक तथा उत्तम कार्यक्रमों के संचालन हेतु आपने श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की शाखा स्थापित करने का उपदेश दिया। पूज्य मुनिराज श्री की प्रेरणा से तत्काल परिषद गठन का निश्चय किया गया एवं अध्यक्ष के रूप में श्री माणकलालजी पारिख को चुना गया। इससे सभी के हृदय प्रसन्नता से भर गये। स्थापना के बाद से आलोट परिषद समाज सेवा में अथक प्रयत्नशील हैं। तीर्थकर श्री महावीर स्वामी के जयंतीउत्सव को मनाने हेतु सम्पूर्ण समाज को एक किया तथा एक विशाल जुलूस निकाला गया। आलोट के इतिहास में इतना भव्य जुलूस अभूतपूर्व था। पूरे नगर में इस आयोजन ने परिषद के लिये प्रशंसा जुटाई। परिषद शाखा द्वारा गरीबों को भी काफी संख्या में भोजन कराया गया। यह कार्य शाखा परिषद ने चन्दा एकत्र कर किया तथा एक विशाल आमसभा आयोजित की जिसमें नगर के विद्वानों के श्री महावीर स्वामी के जीवन पर प्रवचन हए। यहां परिषद सहायता निधि की पेटियां लगी हुई हैं। परिषद की ओर से गरुदेव समाधि मंदिर के सामने अखण्ड ज्योत प्रकट की जाकर स्थायी स्वरूप दिया गया है। प्रत्येक गुरु सप्तमी को गुरु महाराज की आरती सामूहिक रूप से की जाती है। समाज के श्री भेरूलाल जी भगाजी पारिख द्वारा संचालित ट्रस्ट की ओर से पाठशाला तथा सिलाई केन्द्र चलते हैं।
शाखा परिषद काफी सक्रिय है। वर्तमान में पदाधिकारी इस प्रकार हैं:-अध्यक्ष श्री माणकलालजी पारख, मंत्री श्री मोतीलालजी धाड़ीवाल, कोषाध्यक्ष-श्री शिवकुमारजी पारिख तथा केन्द्रीय प्रतिनिधि श्री सौभाग्यमलजी श्रीमाल।
बड़नगर
- बयासी सदस्यों की विशाल शाखा के रूप में बड़नगर (जिला उज्जैन, म. प्र.) की शाखा परिषद का परिचय दिया जा सकता
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खाचरौद
है । इसका पुनर्गठन २३ नवम्बर १९७६ को ससमारोह सम्पन्न हुआ। नवगठित परिषद् ने वाचनालय तथा पाठशाला प्रारम्भ कर दिये हैं। पाठशाला के अन्तर्गत औसतन तीस छात्र-छात्राएं धर्माध्ययन कर रहे हैं। वैसे बड़नगर में धार्मिक पाठशाला एवं वाचनालय सन् १९४० से स्थापित हैं किन्तु बन्द हो चुके हैं । पुस्तकालय में आठ सौ पुस्तकें हैं। जिनमें से अधिकांश गुजराती, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं में हैं। पाठशाला को गतिशील रखने के लिये छात्रों को पुरस्कारों के माध्यम से प्रेरित रखा जाता है । शाखा पाठशाला के संचालन में केन्द्रीय परिषद् की ओर से प्रति माह रु. ७५) मिलते हैं। शाखा ने परिषद सहायता निधि की पेटियां स्थापित कर रखी हैं।
शाखा द्वारा साहित्यिक व सांस्कृतिक अभिरुचि विकसित करने के लिये बच्चों के खेलकूद तथा नवयुवकों हेतु काव्य-गोष्ठी एवं धार्मिक विचार-चर्चा आयोजित किये जाते हैं। गुरु सप्तमी पर परिषद् शाखा के माध्यम से यात्रार्थ मोटर गई। परिषद की शाखा ने संगीतशाला का संचालन भी किया व उसे निरंतर रखने का प्रयत्न जारी है । समाज में व्याप्त असंतोष के कारण मंदिर पर ध्वजादण्ड चढ़ाने का कार्य अवरुद्ध है। परिषद हल करने हेतु प्रयत्नशील है। धर्मशाला एवं पूज्य प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर महाराज की सुशिष्या पूज्य गुरुणी श्री प्रेम श्री जी महाराज की छत्री पर आवश्यक निर्माण करवाने का उद्देश्य है ताकि छत्री का सौन्दर्य विकसित हो सके। संगीतशाला के लिये वाद्ययंत्र क्रय करने तथा सिलाई स्कूल खोलने हेतु भी शाखा परिषद योजनारत
अ. भा.श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के इतिहास में खाचरौद का नाम अविस्मरणीय रहेगा। यहां पर परिषद् का तृतीय अधिवेशन सम्पन्न हुआ था। उसी स्थल पर परिषद् श्री विमलकुमार चौधरी की अध्यक्षता में कार्यरत है। श्री बाबूलालजी भारतीय इस संस्था के मंत्री हैं। गतिविधियों का स्तर चढ़ाव उतार की ओर परिलक्षित है। संभावनाएं तो अनेक हैं किन्तु भावनाएं अभी बनना शेष हैं । खाचरौद की डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय एम. ए., पी. एच. डी. अ. भा. सह महामंत्री है। यहां समाज की ओर से धार्मिक पाठशाला चल रही है। खाचरौद महिला परिषद्
ईस्वी सन् १९७४ में श्रीमती कोकिला भारतीय के मार्गदर्शन में खाचरौद महिला परिषद् की स्थापना के साथ ही निरंतर पूजा, भक्ति एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन का क्रम प्रारम्भ हुआ। पर्याप्त कोष के अभाव के बावजूद परिषद ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सफलतापूर्वक आयोजन किया। अ. भा. श्री राजेन्द्रजैन नवयुवक परिषद के महामंत्री श्री सी. बी. भगत के आगमन के समय महिला परिषद् ने एक जुट होकर स्वागत किया तथा प्रथम बार सामूहिक स्वल्पाहार का आयोजन किया गया। महिला परिषद् अतिशीघ्र संगीतशाला स्थापित करना चाहती है। इस हेतु केन्द्र से पांच सौ रुपये का अनुदान प्राप्प हो चुका है।
वर्तमान में महिला परिषद् के पदाधिकारियों में अध्यक्ष--श्रीमती चन्द्रकन्ताबाई हींगड़, कोषाध्यक्ष-श्रीमती चन्द्रकान्ताबाई वागरेचा, प्रचार मंत्री श्रीमती राजुलबाई बजवासवाला, मंत्री श्रीमती प्रकाश बाई खमेसरा तथा केन्द्रीय प्रतिनिधि श्रीमती कोकिला भारतीय, श्रीमती चन्द्रकान्ताबाई हीगड़ व श्रीमती चन्द्रकान्ताबाई वागरेचा कार्यरत हैं । बालिका परिषद् का संचालन भी महिला परिषद् के अन्तर्गत हो रहा है। जिसके पदाधिकारी इस प्रकार हैं:कु. प्रतिभा हींगड़ (अध्यक्ष), कु. चन्द्रकान्ता मेहता (मंत्री), कु. सरिता कांकरिया (कोषाध्यक्ष) तथा सुभद्रा वागरेचा व आशा सुराना (प्रचार मंत्री)।
बड़ावदा
बड़नगर वह स्थान है जहां पूज्य' प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का अन्तिम चातुर्मास हुआ था। त्रिस्तुतिक समाज का भारतीय सम्मेलन भी इस नगर में हो चुका है । गत पयूषण पर्व में ही शाखा परिषद ने पूज्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का एक बड़ा फोटो बनवाकर पौषधशाला में स्थापित किया। इस उपलक्ष में परिषद ने गुरुदेव की पूजा का आयोजन तथा लड्डू की प्रभावना वितरित की गई। महावीर जयन्ती, गुरु सप्तमी आदि पर्व आयोजित किये जाते हैं।
वर्तमान में शाखा परिषद् में पदाधिकारी श्री कन्हैयालालजी चौपड़ा (अध्यक्ष), श्री सुरेन्द्रजी जैन व श्री छगनलालजी खाबिया उपाध्यक्ष), श्री सोहनलालजी चौपड़ा (कोषाध्यक्ष), श्री हंसमुखलालजी चौरड़िया (साहित्य एवं सांस्कृतिक मंत्री), श्री लालचन्द जी सर्राफ (पर्यटन मंत्री), श्री नरेन्द्रजी जैन (निर्माण व विकास मंत्री), श्री प्रकाशचन्द्र चौपड़ा (संगीत मंत्री), तथा श्री प्रकाशचंदजी मोदी (प्रचार मंत्री) ) हैं । केन्द्रीय प्रतिनिधि के रूप में श्री कन्हैया लाल चौपड़ा, श्री सुरेन्द्रजी जैन, श्री पुखराजजी कावड़िया श्री राजकुमारजी गोखरू तथा श्री सोहनलालजी चौपड़ा नियोजित किये गये हैं।
जब से शाखा परिषद् का पुनर्गठन हुआ है, तेजी से विकास के कदम बढ़ते जा रहे हैं।
रतलाम (म.प्र) जिले के ग्राम बड़ावदा में परिषद् की शाखा १९ फरवरी १९७६ को पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज की प्रेरणा से अस्तित्व में आई। इस अवसर पर श्री मदनलालजी कर्नावट, जावरा ने परिषद् के उद्देश्यों एवं कार्य प्रणाली पर प्रकाश डाला । स्थापना के बाद स्थानीय शाखा ने कई कार्य किये।
स्थानीय समाज के बालक बालिकाओं के लिए धार्मिक पाठशाला की स्थापना की गई। इस पाठ शाला में ३३ बालक-बालिकाएं धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पाठशाला की वित्त व्यवस्था स्थानीय समाज द्वारा दिये जाने वाले दान एवं केन्द्रीय कार्यालय से
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परिषद् सहायता निधि मंजूषाएं विभिन्न घरों में स्थापित हुई हैं । धार्मिक विद्यालय की स्थापना के लिए परिषद् प्रयत्नशील
धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पाठशाला की वित्त व्यवस्था स्थानीय समाज द्वारा दिये जाने वाले दान एवं केन्द्रीय कार्यालय से मिलने वाली ५०) रु. प्रति मास अनुदान राशि से की जाती है । विद्यालय दो शिफ्टों में चलाया जाता है । प्रतिमाह संचालक मंडल द्वारा परीक्षा ली जाती है । बालकों में मिठाई वितरण व उपहार बांटे जाते हैं।
परिषद् द्वारा संचालित सिलाई केन्द्र में १७ बालिकाएं सिलाई सीख रही हैं । २ मशीनें हैं । एक परिषद् शाखा बड़ावदा ने जुलाई व दुसरी केन्द्रीय कार्यालय से प्राप्त हुई ।
परिषद् के समाज उत्थान के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए स्थानीय समाज के व्यक्ति को १२५१/- का वित्तीय सहयोग दिया गया है । इस राशि में ५००/- केन्द्रीय कार्यालय द्वारा, ५००/श्रीमान् भगत सा. द्वारा तथा २५१/- स्थानीय समाज द्वारा दिए गये हैं। हमें प्रसन्नता है कि अब समाज के व्यक्ति इस राशि से व्यापार कार्य चलाकर अपनी जीविका उर्पाजन कर रहे हैं । व साथ में एक और समाज के व्यक्ति को एक क्विटल गेहूं ऋण के रूप में दिलाये गये ।
बालोदा लक्खा १४ फरवरी १९७६ बालोदा लक्खा के लिये एक स्वर्णिम दिवस था । इस दिन संयोग से पू. मुनिराजश्री जयंत विजयजी का वहां आगमन हुआ और जिनालय की प्रतिष्ठा के साथ ही परिषद् की स्थापना हुई।
परिषद् के सभी युवक उत्साही हैं और निरंतर समाज संगठन के कार्य में संलग्न है। परिषद् के पदाधिकारी इस प्रकार हैं:--
(१) श्री इन्द्रमल खाबिया अध्यक्ष (२) श्री रतनलालजी बोहरा उपाध्यक्ष (३) श्री अशोककुमार जैन मंत्री (५) श्री अनोखीलाल जैन कोषाध्यक्ष
केन्द्रीय प्रतिनिधि (१) श्री रमेशचन्द्र पीरूलालजी (२) श्री अशोककुमारजी जैन
विभिन्न स्थानों पर परिषद् सहायता निधि स्थापित की गई है और धार्मिक विद्यालय की स्थापना के लिए परिषद् प्रयत्नशील
सामाजिक सद्भाव व एकता के लिए यहां पर क्षमापना दिवस स्थानक व मंदिर वासी का सामूहिक रूप से मनाया गया । स्थानीय परिषद् शाखा ने स्वल्पाहार आयोजित किया। कार्तिक पूर्णिमा पर स्वामीवात्सल्य परिषद् के माध्यम से हुआ। महावीर जयन्ती पर्व भी स्थानक व मंदिर वासी द्वारा सामूहिक मनाया गया। विवाह आदि में सदस्यगणों द्वारा समाजसेवा की दृष्टि से भाग लिया जाता है । साथ में विवाह आदि समारोहों में स्थानीय शाखा द्वारा सामग्री भी दी जाती है। प्रतिमास बैठक होती है । परिषद् शाखा द्वारा सात सहायता पेटियां लगाई गई हैं। शाखा सदस्य संख्या सोलह है। महिला परिषद् का गठन भी हो चुका है। महिला परिषद् की सदस्य संख्या भी सोलह है। वर्तमान में पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार हैं:- श्री कोमलसिंहजी बापना (अध्यक्ष), श्री शान्तिलालजी चत्तर (उपाध्यक्ष), श्री निर्मलजी सकलेचा (मंत्री), श्री समरथमलजी जैन (कोषाध्यक्ष) तथा श्री अनोखीलालजी (प्रचार मंत्री) । केन्द्रीय प्रतिनिधियों में श्री पुखराजजी सकलेचा, श्री श्रीपालजी सकलेचा तथा निर्मलजी सकलेचा सम्मिलित हैं।
खरसोद कलां
भाटपचलाना भाटपचलाना दि. १५ मार्च १९७६ का शुभ दिन शाखा परिषद् की स्थापना के साथ जोड़ा गया । यह ग्राम खाचरौद के निकट स्थित है। यद्यपि यह ग्राम छोटा है किन्तु यहां के युवकों में अथाह उत्साह है । परिषद् के १८ सदस्य है।
परिषद् के पदाधिकारी इस प्रकार हैं(१) श्री रतनलाल गिरिया अध्यक्ष (२) श्री सुजानमलजी
उपाध्यक्ष (३) श्री मिश्रीमलजी बुपभ्या सचिव (४) श्री जयंतिलालजी कटलेचा । कोषाध्यक्ष
___ केन्द्रीय प्रतिनिधि (१) श्री शांतिलालजी गिरिया
यहां पर एक धार्मिक विद्यालय का संचालन किया जा रहा है जिसमें समाज के छात्र-छात्राएं अध्ययन करते हैं । केन्द्रीय परिषद् की ओर से अनुदान ५०) रु. नियमित रूप से प्रदान किया जाता है। ग्राम में वार्षिक उत्सव, नाटक, शुक्क पक्षीय चतुर्दशी, को आइंबिल पूजन, जन्मोत्सव, स्वाभिवात्सल्य, महावीर जयंती आदि कार्यक्रम होते रहते हैं। अनेक स्थानों पर परिषद् सहायता निधि मंजूषाएं स्थापित हुई हैं । गुरु मंदिर तथा धर्मशाला बनाने की योजना बनाई जा रही है। __शीघ्र ही बाल परिषद् महिला परिषद् की स्थापना केन्द्रीय पदाधिकारी के निर्देशन में स्थापित की जा रही है।
. अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् खरसोद कलां (उज्जैन म. प्र.) का १७ सितम्बर १९७७ को श्री सूरजमल चौधरी की प्रथम अध्यक्षता में पुनर्गठन हुआ।
परिषद् के ११ सदस्य हैं और श्री चौधरी की अध्यक्षता में परिषद् का संचालन हो रहा है। शाखा परिषद् के श्री प्रकाश चन्द्र जैन केन्द्रीय प्रतिनिधि हैं और गांव में २५ कुटुम्ब पूज्य श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी के अनुयायी हैं।
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उज्जैन
ऐतिहासिक तथा पौराणिक नगर उज्जैन में अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा स्थापित है।
श्री माणकलालजी गिरिया इस शाखा के अध्यक्ष हैं और इनके 'नेतृत्व में उज्जैन शाखा कार्यरत है। यहां पर धार्मिक विद्यालय का संचालन किया गया था जिसमें अनेक छात्र-छात्राएं अध्ययन -करते थे और समय समय पर उनकी परीक्षा ली जाती थी और श्रेष्ठ छात्रों को पुरस्कृत किया जाता था। कुछ समय से अभी बन्द है जो शीघ्र शुरू किया जायगा ।
श्री राजेन्द्र जैन महिला परिषद नागदा
रतलाम - उज्जैन मार्ग के मध्य नागदा स्थित है। यह एक औद्योगिक नगर के रूप में विस्तार पा रहा है। एक समय ऐसा होगा जब इसकी म.प्र. के महत्वपूर्ण नगरों में गणना होगी ।
नागदा नगर में युवक परिषद स्थापित है। इसी उत्साह की शृंखला में श्री राजेन्द्र जैन महिला परिषद में महिलाएँ युवकों से किसी प्रकार कम नहीं हैं। यहां संगीत के विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम होते रहते हैं यहाँ केन्द्रीय परिषद के पदाधि कारियों के प्रवास हुए हैं। श्रीमती कोकिला भारतीय उपमंत्री केन्द्रीय परिषद के प्रयत्न का फल है कि महिला परिषद अत्यन्त गतिशील है । महिला परिषद के निर्वाचन पदाधिकारी निम्नांकित हैं:
(१) श्रीमती दाखाबाई कोलड़
(२) सोहनबाई जैन
(३) भानुमती शाह
(४)
चमेलीबाई
(4) अलका भारतीय
(६) निर्मला बोहरा
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महिलाएं एक सिलाई शिक्षण केन्द्र तथा गृहउद्योग स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील हैं। संभवतः आगामी दो-तीन माह मैं यह कार्य पूर्ण हो जायेगा।
धार
धार नगरी राजा भोज की राजधानी रही है। जहाँ पर परिषद् शाखा स्थापित है। यह भी मोहनखेड़ा तीर्थ का तोरण द्वार है । शाखा के पदाधिकारी इस प्रकार हैं:
(१) श्री गेंदालाल बाफना
(२) कैलाशचन्द्रजी हरण
केन्द्रीय प्रतिनिधि
(१) श्री मांगीलालजी छाजेड़
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प्रकाशचन्द्रजी बाफना
(३) पी.सी. जैन हिम्मतलाल जैन
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अध्यक्ष उपाध्यक्ष मंत्री कोषाध्यक्ष प्रचार मंत्री
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अध्यक्ष
मंत्री
परिषद शाखा की विभिन्न गतिविधियाँ चल रही हैं उनमें विद्यालय, बाल परिषद् मुख्य हैं। छात्रावास, निर्माण हेतु परिषद् ने भूमि क्रय कर ली है और शीघ्र ही भवन का निर्माण कार्य आरम्भ हो जावेगा । प्रति रविवार को गुरुदेव की आरती उतारी जाती है और यहाँ पर धार, झाबुआ जिला परिषद का अधिवशन हुआ जिसमें काफी सदस्य उपस्थित हुए थे। केन्द्रीय पदाधि कारियो के समय-समय पर दौरे होते रहते हैं। सभी सदस्यों का उत्साह अच्छा है ।
राजगढ़ (जिला धार )
अमर शहीद वीर क्रान्तिकारी महाराणा श्री बखतावरसिंहजी के राज्य का प्रमुख नगर राजगढ़ जैसा कि इसके नाम से ही विशिष्टता लगती है। अपने आप में गौरवमय इतिहास समेटे हुए है।
विक्रम संवत् २०१५ का १५ को नगर से जुड़े श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में पं. पूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के आशीर्वाद के साथ समाज के चहुंमुखी विकास के लिये श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की स्थापना की गई। प. पू. गुरुदेव द्वारा अपने वचनामृत से परिषद् की प्राण प्रतिष्ठा की गई और इसी नगरी ने परिषद् का प्रथम अधिवेशन कराने एवं प्रथम महामंत्री श्री राजमलजी सर्राफ को देने का सौभाग्य प्राप्त किया ।
वर्तमान में परिषद् की सदस्य संख्या ३८ है । अखिल भारतीय योजनानुसार यहां ४० के लगभग निधि पेटिकाएं लगी है। परिषद् के कोषाध्यक्ष श्री केसरीमलजी तांतेड़, श्री अमृतलालजी मोदी एवं पूनमचंदजी दौलतरामजी आदि परिषद् के कार्यकर्त्ताओं की देखरेख में एक अखण्ड ज्योत गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वर जी की समाधि (स्वर्गवास स्थल) पर प्रज्वलित है, जिसका प्रज्वलन परिषद् कार्यकर्ता श्री सुगनचन्दजी शोभागमल जी ने अपने धन का सदुपयोग करते हुए किया था। परिषद् के अ.भा. महामंत्री श्री श्रीश्री भगत ने परिषद् कोष में से ५०० रुपये अखण्ड ज्योत में प्रदान किये। माह की प्रत्येक १ व १६ तारीख को सामूहिक गुरुवन्दन एवं आरती इस स्थल पर उतारी जाती है । परिषद् द्वारा समाज के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग को समय समय पर सहायता प्रदान की जाती है। जिसमें सिलाई मशीन आदि प्रमुख है। समाज एवं स्वधर्मी बंधुओं के सहयोग के लिये परिषद् कार्यकर्ता सदैव तत्पर रहते हैं साथ ही गुरु सप्तमी, महावीर जयंती कार्तिक पूर्णिमा एवं चैत्री पूर्णिमा आदि अवसरों पर परिषद के कार्यकर्ता नगर एवं मोहनखेड़ा में व्यवस्था आदि के लिये सक्रिय सहयोग देते हैं। भविष्य की योजनाओं के अन्तर्गत परिषद के माध्यम से समाज के कमजोर वर्ग की आर्थिक सहायता हेतु बैंक खोलने का प्रस्ताव विचाराधीन है। सिलाई केन्द्र महिला एवं विद्यार्थी सहायता कक्ष खोलने के विषय में परिषद् गंभीरता पूर्वक विचार कर रही है।
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शाखा के वर्तमान पदाधिकारी गण इस प्रकार हैं:-श्री सेठ मुथरालालजी खंजाची (अध्यक्ष), कांतिलालजी भण्डारी (मंत्री), श्री केशरीमलजी तांतेड (कोषाध्यक्ष), श्री सुगचन्दजी मामा, (प्रचार मंत्री), श्री जपनलालजी सराफ (सहमंत्री) संरक्षक:श्री प्यारचन्दजी मामा तथा बाबूलाल जी चतर है। केन्द्रीय प्रतिनिधि श्री कान्तिलालजी भंडारी एवं डा. श्री अनोखीलालजी
श्री अजितकुमारजी गुगल्या केन्द्रीय प्रतिनिधि हैं। केन्द्रीय परिषद् लाघव रूप से होने से समस्त गतिविधियों में शिथिलता है लेकिन धार्मिक भाव प्रगाढ़ हैं केन्द्रीय परिषद् के कार्यक्रमों में नियमित भाग लिया जाता है।
रिंगनोद (धार) अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा रिंगनोद (धार) म.प्र. के आदिवासी अंचल में स्थापित है जो पूज्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी का विहार क्षेत्र रहा है जहाँ त्रिस्तुतिक मान्यता के २५ कुटुम्ब अनुयायी हैं। .
परिषद् के ३० सदस्य हैं और उनके पदाधिकारी इस प्रकार
इसके साथ ही कुछ ऐसे नामों का उल्लेख प्रासंगिक होगा जो नींव के पत्थर हैं और आज भी शाखा के मार्गदर्शक हैंश्री फूलचन्दजी मामा, राजमलजी भण्डारी, फूलचन्दजी भंडारी, मीलापचन्द जी जैन।
परिषद् के कार्यकर्ता श्री सेवारामजी संगीत के मर्मज्ञ हैं। जो अपनी सेवाएं सदैव समाज को देने के लिये तत्पर रहते
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दसई अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा दसई (धार म.प्र.) गठन दिनांक ९ फरवरी १९७४ को हुआ। इसके १७ सदस्य हैं और कार्यकारिणी इस प्रकार है :(१) श्री विमलचंद नाहर
अध्यक्ष (२)" सरदारमल मंडलेचा
कोषाध्यक्ष (३)" इन्द्रमल पीपाड़ा
मंत्री (४)" कनकमल नाहर
राहमंत्री केन्द्रीय प्रतिनिधि (१) श्री सरदारमल मंडलेचा (२)" कनकमल नाहर
संस्था की स्थापना श्री विमलचन्द नाहर की प्रथम अध्यक्षता में गांव में जैन समाज के त्रिस्तुतिक मान्यता के २५ कुटुम्ब हैं।
विगत तीन वर्षों की गतिविधियों से आशा की जा रही है है कि यहाँ शीघ्र ही धार्मिक विद्यालय, संगीत मंडल, बाल परिषद् आदि गतिविधियों का शुभारम्भ होगा। परिषद के युवक उत्साही व लगनशील हैं और इन महत्वाकांक्षी योजनाओं को मूर्तरूप देने के लिये दृढ़संकल्प हैं।
समाज की प्रत्येक गतिविधि तथा कार्यक्रमों में गहरी अभिरुचि है। यहाँ पर परिषद् सहायता निधि मंजूषाएं २१ परिवारों में स्थापित हैं।
कड़ोद (धार) कडोद जिला अन्तर्गत धार स्थित है। ग्राम छोटा है किन्तु शाखा परिषद् कार्यरत है। शाखा परिषद् पदाधिकारी इस प्रकार
श्री बाबूलालजी पंवार
अध्यक्ष (२) " पाचूलालजी
उपाध्यक्ष (३)" शैतानमल बांठिया
मंत्री (४) " धनराजजी मेहता
कोषाध्यक्ष केन्द्रीय प्रतिनिधि (१) श्री शांतिलाल केमिस्ट (२) " शैतानमल पंवार (३)" कन्हैयालाल डूंगरवाल ____ यह परिषद् १९५९ से कार्यरत है और अपनी दीर्घ अवधि में अनेक कार्य संपादित कर चुकी है। वर्तमान में श्री राजेन्द्र जैन विद्या मंदिर का संचालन किया जा रहा है। जिसमें अनेक छात्र छात्राएं धार्मिक ज्ञान में प्रगति कर रहे हैं। यहाँ पर भाद्रपद शुक्ला पंचमी महावीर जयंती, दीपावली, ज्ञानपंचमी आदि धार्मिक त्यौहारों के अवसरों पर बधिक तथा कहारों को धनराशि दान दी जाती है। अतः इन अवसरों पर पशुवध नहीं होता है। यह परिषद् का विशिष्ट कार्य है। परिषद् के युवक पूजा, प्रतिक्रमण, गुरु आरती में सक्रिय हैं। उपाश्रय में पूज्य गुरुदेव का अलभ्य चित्र स्थापित है।
परिषद् वाचनालय, संगीतमंडल, बचत योजना आदि गतिविधियों की शुभारम्भ के लिये प्रयत्नशील है जो शीघ्र ही स्थापित होंगे।
परिषद् सहायता निधि मंजूषाएं अनेक परिवारों में स्थापित हैं जिनकी संख्या लगभग २५ है।
कुक्षी
(१) श्री मांगीलालजी नंदरामजी लोढ़ा (२)" माणकलालजी सौभाग्यमली हरण (३) " राजमलजी देवीचंदजी डांगी (४) " मांगीलालजी स्वरूपचंदजी राठौड
अध्यक्ष उपाध्यक्ष कोषाध्यक्ष
मंत्री
अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा कुक्षी (धार म.प्र.) की स्थापना सेठ श्री राजमलजी वीरचंदजी जैन की प्रथम अध्यक्षता के साथ हुई। परिषद् के २४ सदस्य हैं और उसके निम्नलिखित पदाधिकारी हैं:(१) श्री भंवरलालजी भगवानजी
अध्यक्ष (२)" अमोलकचंदजी ताराचंदजी
उपाध्यक्ष
बी.नि.सं. २५०३
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(३) श्री कांतिलालजी बाबूलालजी
मंत्री (४) " प्रकाशचन्द्र चौधरी
कोषाध्यक्ष (५) " मनोहरलाल जैन एडवोकेट
प्रचार मंत्री केन्द्रीय प्रतिनिधि (१) श्री प्रकाशचन्द्र चौधरी (२) " मनोहरलाल जैन एडवोकेट
यहाँ समाज के ७९ कुटुम्ब हैं और सभी त्रिस्तुतिक मान्यता के अनुयायी हैं। यहाँ वर्धमान जैन बालविद्यामंदिर था। श्री राजेन्द्र जैन विद्या मंदिर का संचालन किया जा रहा है जिसमें अनेक छात्रा-छात्राएं अध्ययन कर रहे हैं। महिलाओं में भी काफी उत्साह है। महिला परिषद् की स्थापना शीघ्र ही की जा रही है।
झाबुआ बारह हजार की आबादी वाले जिला केन्द्र झाबुआ में श्वेताम्बर समाज द्वारा निर्मित एवं गुरुदेव राजेन्द्र सूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित बावन जिनालय में मूलनायक प्रभु प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की शोभा निराली है। एक दिगम्बर जिनालय एवं दो स्थानक भी विद्यमान हैं। श्वेताम्बर समाज में प्रतिदिन प्रभुपूजन करने वालों की संख्या ६० से ज्यादा है। एक भव्य पौषधशाखा निर्मित है, साथ ही उसमें वृद्धि हेतु कुछ नब निर्माण भी चल रहा है। गत कुछ वर्षों से आयम्बिल खाता भी निरन्तर चल रहा है।
पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' के सान्निध्य में झाबुआ श्वेताम्बर जैन समाज की एक विचार गोष्ठी दिनांक २९ दिसम्बर १९७५ की रात्रि को ८ बजे आयोजित की गई। गोष्ठी में समाज का पूर्व बिम्ब रखा गया, फलस्वरूप श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का पुनर्गठन किया गया। कुल अड़तीस सदस्यों में से पदाधिकारियों का निविरोध चयन किया गया। परिषद् को एवं पदाधिकारियों को मुनिराज श्री ने आशीर्वाद प्रदान किया।
परिषद् के शिक्षा प्रचार के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जैन आध्यात्मिक पाठशाला का शुभारम्भ हो । प्रतिदिन पचास से अधिक बालक बालिकाएं अध्ययन करते रहे। पाठशाला के माध्यम से समाज के बच्चों का नैतिक एवं आध्यात्मिक स्तर काफी सुधरा। तत्वज्ञान एवं सूत्रों का पठन पाठन कार लाभान्वित होते रहे । अर्थ, अध्यापक, स्थल इत्यादि की कठिनाइयों के बावजूद भी पाठशाला चलती रही। निकट भविष्य में एक आदर्श एवं पूर्ण अनुशासित पाठशाला की स्थायो व्यवस्था की जा रही
पर्धषण आराधना, तीर्थकरों के कल्याण, महावीर जयंती निर्वाण उत्सव आदि कार्यक्रमों में परिषद् के युवक, तथा समाज का उल्लेखनीय योगदान रहता है। परिषद् समाज में एकाकार हो चुकी है और महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में परिषद का प्रतिनिधि रहता है।
यहां समाज में परिषद् सहायता निधि मंजूषा का विस्तार तीव्र गति से हो रहा है और अधिकांश परिवारों में स्थापित हो चुकी है। इससे ऐसा लगता है कि परिषद् समाज का कायाकल्प करने में कटिबद्ध है। - .. कुक्षी में दो गुरु मंदिर हैं। कुक्षी से ३ मील दूर लक्ष्मणी मार्ग पश्चिम में तालणपुर नामक एक तीर्थ स्थान है यहाँ की व्यवस्था श्री पार्श्वनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढी, जिसकी स्थापना मनिराज, श्री जयन्तविजयजी की प्रेरणा से हुई जो कुक्षी के अन्तर्गत है। तालनपुर एक दर्शनीय स्थान है और प्रकृति की गोद में यह तीर्थ स्थान प्रसिद्ध है।
बाग
परिषद के माध्यम से जैन बचत योजना का शुभारम्भ परिषद के केन्द्रीय महामंत्री श्री सी.वी. भगत के करकमलों द्वारा हुआ। समाज के मध्यम वर्ग के उत्थान का उद्देश्य दृष्टि में रखते हुए यह योजना लागू की गई है। भविष्य में इस योजना को द्रुतगति से दृढ़ बनाने का कार्य परिषद् करने हेतु दृढ़संकल्प
बौद्धकालीन गुफाओं के लिये बाग प्रसिद्ध स्थल है जहाँ अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की शाखा स्थापित है जिसमें निम्न मुख्य पदाधिकारी हैं(१) श्री अशोककुमारजी जैन
अध्यक्ष (२)" अमृतलालजी जैन |
मंत्री परिषद् की गतिविधियों में मुख्य रूप से विद्यालय का संचालन है। यहाँ पर स्थान-स्थान पर परिषद् सहायता निधि मंजूषाएँ स्थापित की जा रही हैं। उत्साही कार्यकर्तागण परिषद् के प्रत्येक कार्यक्रम में पूर्ण रूप से भाग लेते हैं। समाज का अच्छा सहयोग रहता है और परिषद् की ओर से विभिन्न धार्मिक पर्व भी आयोजित किये जाते हैं। पुस्तकालय एवं वाचनालय संचालन होता था।
दस न. प. समाज हेतु प्रतिदिन त्याग करने की योजना के अन्तर्गत सोलह परिवारों ने डिब्बे स्थापित किये जिसकी राशि निरन्तर प्राप्त होती रही है। परिषद् शेष परिवारों से इस योजना से अर्थसंग्रह करने के लिये प्रयत्नशील है। . श्री महावीर जैन वाचनालय एवं श्री दिनेश संगीतशाला का शुभारम्भ किया गया था, किन्तु योग्य संचालक एवं संगीत आचार्य के अभाव में दोनों योजना निरंतर नहीं कर सके । वाचनालय संचालन हेतु केन्द्रीय परिषद् ने कुछ आर्थिक सहायता देना स्वीकृत किया है, पौषधशाला नवनिर्माण के पश्चात् तुरन्त ही वाचनालय एवं पुस्तकालय प्रारम्भ किये जायेंगे।
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अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नव. परिषद् की शाखा स्थापित है। श्री मूलचन्दजी रूनवाल अध्यक्ष तथा उनके साथी कार्यकर्ताओं द्वारा शाखा का सफल संचालन हो रहा है। स्थान स्थान पर परिषद् सहायता निधि मंजूषाएं स्थापित कर दी गई हैं। पाठशाला का संचालन किया जा रहा है जिसमें अनेक छात्र छात्राएं अध्ययन कर रहे हैं। परिषद् के कार्यकर्ता एक धर्मशाला के निर्माण में गतिशील हैं।
परिषद् के समाज संगठन के उद्देश्य को ध्यान में रखकर गत वर्ष महावीर जयंती समारोह स्थानकवास, दिगम्बर एवं श्वेताम्बर समाज ने सामूहिक रूप मनाया, जिसके जैन शासन की शोभा में वृद्धि हुई। इस प्रकार के अन्य आयोजन एक मंच पर सामूहिक रूप से करने की योजना है, जिससे व्यर्थ के भेदभाव मिटे एवं एक दूसरे के निकट आयें।
समाज में मृत्यु भोग के प्रसंगों पर परिषद् द्वारा विरोध किये जाने पर विशाल पैमाने पर भोज आयोजित नहीं किये गये। मृत्यभोज में मिठाइयों के स्थान पर सादा भोजन ही तैयार किया गया।
स्थानीय परिषद् कार्यकारिणः की छः बैठक गत वर्ष आयोजित की गई थी। महामंत्री श्री सी.बी. भगत के झाबुआ आगमन पर उनका हार्दिक स्वागत समाज एवं परिषद् द्वारा किया गया। गाखा परिषद ने जैन समाज की विवरणपूर्ण जनगणना का प्रस्ताव भी रखा है जिससे समाज का पूर्ण विवरण परिषद् के पास अंकित रहे।
भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा में जैन छात्रावास, जिनालय में पटचित्र, विधवा एवं अनाश्रित वर्ग को रोजगार इत्यादि का प्रावधान है।
शाखा परिषद के पदाधिकारी इस प्रकार है:
अध्यक्ष-श्री महेन्द्र कुमारजी भण्डारी, आध्यक्ष-श्रा रसमलाल जी मेहता, मंत्री-श्रीधर्मचन्दजी मेहता तथा कोषाध्यक्ष-श्रमागर्मल जी कोठारी। परामर्शदाता के रूप में श्री शान्तिलालज: भण्डारी: तथा श्री रखबचन्दजी संघवी का दिशानिर्देशन प्राप्त होता रहा
राणापुर अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवा परिषद् की शाखा राणापुर (झाबुआ) में स्थापित है। उसके मख्य पदाधिकारी इस प्रकार
अलिराजपुर प्रदेश के सुदूर आदिवासी अंचल में श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा अलिराजपुर जिला झाबुआ में स्थित है । अमराइयों में बसा अलिराजपुर पूज्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी का समर्पित अनुयायी नगर है। परिषद् को यहां से अनेक सक्रिय कार्यकर्ता तथा नेता मिले हैं । यहां का उत्साह सराहनीय है। परिषद् के इतिहास में अलिराजपुर शाखा का महत्वपूर्ण योगदान है। अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन न. पा. का दशम अधिवेशन आयोजित कर एक इतिहास बनाया है। यह अधिवेशन ऐतिहासिक तीर्थ लक्ष्मणी में आयोजित किया गया था। लक्ष्मणी-तीर्थ पू. गुरुदेव का प्रिय तीर्थ स्थल रहा है। परिषद् ने नई प्रेरणा ग्रहण की। यही वह स्थल है जहां अधिवेशन में अ. भा. प्रतिनिधित्व मिला था और परिषद् का केन्द्रीय कोष समृद्ध हुआ था। जिसे समाज-कल्याणकारी योजनाओं को कार्यान्वित किया जा सका।
अलिराजपूर परिषद् शाखा के ३२७ सदस्य हैं और इनके पदाधिकारी निम्नानुसार है:
१. श्री तिलोकचन्द जैन (एडवोकेट) अध्यक्ष २. श्री बाबूलाल जैन
उपाध्यक्ष ३. श्री नथमल जैन
सचिव ४. श्री ओच्छवलाल जैन
कोषाध्यक्ष केन्द्रीय प्रतिनिधि--
१. श्री जयंतीलाल जैन २. श्री सुरेशकुमार जैन ३. श्री शैलेन्द्र कुमार जैन ४. श्री कुंदनमल काकड़ीवाला
विगत ७ वर्षों से एक अभिनव योजना समाज की वित्तीय स्थिति में सुधार हेतु श्री महावीर जैन बचत योजना कार्यान्वित की गई । इस योजना से समाज की गरीबी दूर करने का यह ठोस कदम है जो अखिल भारतीय विस्तृतिक समाज के लिये एक आदर्श रूप है।
परिषद् के युवा सदस्य सामाजिक कुरीतियों जैसे दहेज प्रथा, मृत्युभोज पर समय समय पर प्रहार करते रहे हैं। परिषद् को निम्न गतिविधियां हैं--
(१) श्री राजेन्द्र जैन विद्यालय (२) परिषद् सहायता निधि मंजूषा (३) श्री महावीर जैन बचत योजना
(१) श्री जितेन्द्र कुमारजी जैन
अध्यक्ष (२)" झुमकलालजी रामाजी जैन
मंत्री (३) " शांतिलालजी भंसाली
केन्द्रीय प्रतिनिधि (४) " सुजानमलजी जैन केन्द्रीय प्रतिनिधि और केन्द्रीय
कार्यकारिणी के सदस्य - राणापुर पूज्य मुनिारज श्री जयंत विजयजी का साधना केन्द्र रहा है। जहाँ उनके द्वारा लिखित श्री राजेन्द्र सूरि प्रकाशन मंदिर है। परिषद् विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय है। राजेन्द्र बचत योजना का सफलतापूर्वक संचालन किया जा रहा है जिसके द्वारा मध्यमवर्गीय परिवारों को ऊँचा उठाने में एक महसपूर्ण कार्य हो रहा है।
मेघनगर आदिवासी अंचल में स्थित मेघनगर मोहनखेड़ा तीर्थ का प्रथम द्वार है । यहीं से सभी यात्रियों को प्रस्थान करना होता है । यहां पर
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(४) लक्ष्मणी तीर्थ की व्यवस्था में सहयोग (५) रा. ज. महिला परिषद् (६) बाल परिषद्
धार्मिक विद्यालय में अनेक छात्र-छात्राएं धर्म की ज्ञान गंगा में अवगाहन कर रहे हैं।
श्री राजेन्द्र बाल परिषद् के पदाधिकारी इस प्रकार हैं(१) श्री संजयकुमार जयंतीलाल जैन अध्यक्ष (२) श्री चेतनप्रकाश शैतानमल जैन उपाध्यक्ष (३) श्री इन्द्रमल पन्नालाल जैन मंत्री (४) श्री संजयकुमार तिलोकचन्द जैन कोषाध्यक्ष (५) श्री कमलेशकुमार कुंदनलाल जैन सहमंत्री
काकड़ीवाला परिषद् सहायता मंजूषाएं २० स्थापित हुई है और केन्द्रीय परिषद् से निरंतर मांग की जा रही है।
पारा
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् पारा (जिला झाबुआ) का विधिवत् निर्माण नवम्बर १९७५ श्री मनोहरलालजी कोठारी की प्रथम अध्यक्षता के साथ हुआ। वर्तमान में परिषद् के सदस्यों की संख्या २५ है। कार्यकारिणी इस प्रकार है:
१. श्री झमकलाल भंडारी अध्यक्ष २. श्री राजेन्द्रकुमार कोठारी उपाध्यक्ष ३. श्री कनकमल तलेसरा कोषाध्यक्ष ४. श्री प्रकाशचन्द्र छाजेड़ मंत्री ५. श्री अमृतलाल पोखरना प्रचार मंत्री
केन्द्र प्रतिनिधि १. श्री प्रकाशचन्द्र छाजेड़ गतिविधियां
१. पुस्तकालय २. श्री राजेन्द्र बचत योजना ३. , , जैन विद्यालय ३. ,, ,, संगीत मंडल ५. सामूहिक आरती
प्रतिमाह परिषद् की बैठक का आयोजन किया जाता है और नवीन कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की जाती है। प्रति वर्ष महावीर जयंती का ३ दिवसीय आयोजन होता है उसमें विभिन्न कार्यक्रम होते हैं।
पुस्तकालय में अनेक पुस्तकें संग्रहित हैं और बालक-बालिकाएं रुचि अध्ययन करते हैं। संगीत मंडल से परिषद् में एक नये उत्साह का संचार हुआ है अनेक छात्र छात्राएं संगीत के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं और सीखते हैं । समय समय पर स्तवन प्रतियोगिता का आयोजन भी होता है। यद्यपि परिषद् की स्थापना हुए
अल्प समय हुआ है किन्तु इन गतिविधियों को देखते हुए परिषद् का विस्तार होता जा रहा है । यहां एक गुरु मंदिर है।
गांव में लगभग १६ परिषद् सहायता निधि मंजूषाएं स्थापित की गई है जिसमें स्वधर्मी बन्धु मुक्तहस्त होकर दान देते हैं ।
बामनिया आदिवासी क्षेत्र में स्थित बामनिया बड़ी लाईन का रेल्वे स्टेशन है। यहां पर परिषद् की शाखा स्थापित है । श्री राजमलजी बसंतीलालजी लुणावत के नेतृत्व (अध्यक्ष) में शाखा परिषद् कार्यरत है । ग्राम छोटा है किन्तु केन्द्रीय परिषद् के विभिन्न कार्यक्रमों में परिषद् के कार्यकर्ता भाग लेते है और समय समय पर ग्राम में धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजनों को कार्यान्वित करते हैं। यहां के कार्यकर्ता पाठशाला स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील हैं।
इन्दौर मध्यप्रदेश का औद्योगिक नगर जो राजनीति, धर्म, शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र है। यहाँ परिषद् की शाखा स्थापित हो चुकी है। और श्री हुकुमचन्दजी पारेख के प्रयास से यह कार्य संपन्न हुआ। वर्तमान में इस शाखा के पदाधिकारी इस प्रकार है:
१. श्री सरदारमलजी जैन अध्यक्ष २. श्री हंसमुखराजजी मंत्री ३. श्री हजारीलालजी रांका केन्द्रीय प्रतिनिधि ४. श्री शांतिलालजी जैन कोषाध्यक्ष ५. घेवरचन्दजी मेहता परामर्शदाता
अभी-अभी यह शाखा स्थापित हुई है इसलिए इसकी सम्पूर्ण गतिविधियाँ आरम्भ होने में कुछ समय लगेगा किन्तु यहाँ के कार्यकर्ताओं के उत्साह को देखते हुए प्रदेश की सर्वश्रेष्ठ शाखा सिद्ध होगी।
जालौर राजस्थान अपने प्राचीन वैभव और ऐतिहासिकता के लिए प्रसिद्ध है। जालौर उनमें से एक प्रसिद्ध नगरी है। जालौर पू. गुरुदेव की तपस्या का एक महत्वपूर्ण स्थल रहा है तथा तत्कालीन महाराजा द्वारा प्रभावित होकर जालौर दुर्ग जैन समाज को सौंपा गया था।
स्वर्णगिरि तीर्थ दुर्ग जालौर जो आज हमें देखने को मिलता है वह पूज्य गुरुदेव की ही कृपा है।
१५ फरवरी, १९७७ को पू. मुनिराज श्री जयतविजयजी महाराज की प्रेरणा से परिषद् का गठन हुआ। यह कार्य नगर के प्रसिद्ध समाजसेवी श्री उगमसीजी मोदी के मार्गदर्शन में संपन्न हुआ। स्थानीय परिषद् ने केन्द्रीय कार्यसमिति की बैठक के आयोजन में पूर्ण सहयोग दिया।
वर्तमान में निम्नानुसार पदाधिकारी है१. श्री जसवंतसिंह सोलंकी
अध्यक्ष २. श्री सोहनराजजी बोहरा
सचिव ३. श्री भंवरलालजी गांधी सहसचिव ४. श्री सुकनराजजी साजी कोषाध्यक्ष
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परिषद् के उत्साह और सक्रियता को देखते हुए अल्प समय में भारी प्रगति होगी ऐसी आशा है।
सायला वर्षों से युवक प्रतीक्षा कर रहे थे, ऐसे शक्तिशाली संगठन की जो समाजोत्थान के महायज्ञ का सूत्रधार बन सके। इच्छा शक्ति ने संवत् २०३० में तृप्ति ग्रहण की । पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज ने विहार करते हुए सायला (जिला-जालोर, राजस्थान) की भू-स्पर्शना की । उन्हीं के शुभाशीर्वाद से परिषद् शाखा का जन्म हुआ । प्रारम्भिक शिथिलता के पश्चात् युवकों ने आगे आने का संकल्प किया । भाद्र शुक्ला पंचमी विक्रम संवत् २०३१ को राजेन्द्र भवन में जिला मंत्री श्री उगमसीजी मोदी की अध्यक्षता में परिषद् कार्यालय के उद्घाटन के साथ परिषद् शाखा का पुनर्जागरण हुआ । इसी दिन सायला में गुरु मंदिर की स्थापना भी हुई । सायला निवासी गुरुदर्शन के लिए उमड़ पड़े। परिषद् शाखा कोष में समाज की ओर से लगभग दो हजार रुपए का सहयोग प्राप्त हुआ।
परिषद् शाखा ने गतिविधियों को सजीव करना प्रारम्भ किया
(१) भगवान महावीर का २५०० वा निर्वाण महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। उपरोक्त कार्यक्रम में कई दिन बड़ी पूजा, संगीत, कार्यक्रम व भक्तिभावना आदि रखे गये । मंदिरों को विद्युत्-दीपों से सुसज्जित किया गया एवं कार्तिक पूर्णिमा के दिन विशेष कार्यक्रम रखे गये, जैसे-आम सभा का आयोजन जिसमें कई वक्ताओं ने भगवान महावीर के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला। रात को विशेष संगीत कार्यक्रम में धीनमाल की श्री राजेन्द्र जैन पाठशाला के संगीत मंडल ने भाग लिया। पर्युषण पर्व, महावीर-जयन्ति एवं अन्य धार्मिक पर्वो पर बड़ी पूजा, अंगी रचना एवं संगीतमय भक्ति भावना आदि कार्यक्रम किये जाते हैं। कई महीनों से बन्द श्री राजेन्द्र वाचनालय जो कि सार्वजनिक वाचनालय एवं पुस्तकालय के स्तर पर था फिर से शुरू किया गया। केन्द्रीय कार्यालय द्वारा वितरित सहायता निधि पेटियां कार्यकर्ता एवं अन्य सज्जनों के यहां लगी हुई हैं।
साथ ही परिषद् की स्थापना के पश्चात् उत्साहित कार्यकर्ताओं ने समाज सुधार के कार्यक्रम का शुभारम्भ किया जिसमें दहेज प्रथा एवं मृत्यु भोज का बहिष्कार उल्लेखनीय है।
दहेज प्रथा को बन्द करने के लिए कई सदस्य आगे आये और उन्होंने शपथ ली कि वे दहेज-डोरा-कोल आदि नहीं लेंगे। जिसमें कई बुजुर्गों ने भी साथ दिया। परिषद् ने एक नारा बुलन्द किया'दो किन्तु लो मत'। जब लेने वाले नहीं रहेंगे तो देने वाले अपने आप मिट जायेंगे। ___ गांवों में मृत्यु भोज में रोटियों को घी से भर कर परोसा जाता है जो आज के युग में तो क्या पहले भी अनुचित था । उसके लिए परिषद् कार्यकर्ताओं ने शपथ ली कि मृत्यु या उससे संबंधित भोज में साधारण चुपड़ी हुई रोटी ही लेंगे एवं शोकाकुल घर में पापड़, चाय आदि नहीं लेंगे।
उपरोक्त कार्यक्रमों को देखकर कुछ भाइयों ने युवकों की आलोचना शुरू कर दी और वे तन, मन से विरोध प्रचार करने लगे हैं । बुरे व्यक्ति भले के रास्ते में कांटे बिछाते हैं तो वे भी फूलों की सेज बन जाते हैं। उक्त सार्थक हुई । आलोचकों की आलोचना से अच्छा प्रचार हुआ। सायला के आस-पास के कई ग्रामों के नवयुवक भी अपने-अपने ग्राम में परिषद् की शाखा स्थापना करने के लिए मार्ग दर्शन का आग्रह करने लगे। उपयुक्त समय देख कर शाखा के केन्द्रीय प्रतिनिधि श्री चम्पालालजी गांधी मुथा ने धाणसा में परिषद् शाखा की स्थापना की। वहां भी कई भाइयों ने मृत्यु भोज के बहिष्कार की शपथ ली।
परिषद् की अन्य उपलब्धियां भी उल्लेखनीय हैं:-- (१) गुरु-मंदिर की स्थापना।
(२) सायला में पशु बलि बन्द करना:-सायला में देवी के मंदिर में कई वर्षों से पशु बलि बन्द थी लेकिन वह फिर शुरू हो गई थी और यह बलि रात को चोरी छिपे चढ़ाई जाती थी।
लेकिन जब परिषद् के कार्यकर्ताओं ने अचानक देवी के मंदिर में एक मूक प्राणी की बलि चढ़ी हुई देखी तो उनसे सहा नहीं गया और उन्होंने कानून को हाथ में लेने के बजाये तुरन्त कानून की सहायता ली । स्थानीय पुलिस थाने में इसकी रिपोर्ट दर्ज करायी और लगातार तीन रात-दिनों के अथक परिश्रम के बाद स्थानीय पुलिस थाने में थानेदार श्री प्रेमसिंह की अध्यक्षता में हत्यारों ने परिषद् के कार्यकर्ताओं से क्षमा मांगी। परिषद् के सदस्यों द्वारा दिया गया साधारण किंतु अमिट दंड स्वीकार किया। उन्होंने परिषद् को लिख कर दिया कि भविष्य में हमें या हमारे समाज वाले कभी कोई पशु-बलि नहीं चढ़ाएगा। ऐसा करने पर परिषद् द्वारा दिया जाने वाला कठोरतम दंड भी हमें मान्य होगा। इस तरह कार्यकर्ताओं में परिश्रम से सायला में बलि चढ़ने वाले मक प्राणियों का वध रुक गया।
(३) निर्दोष पक्षी-कबूतरों की सुरक्षाः--ग्राम में चबूतरे की ऊंचाई कम होने के कारण कुत्ते ऊपर चढ़ कर कबूतर व अन्य प्राणियों की हत्या कर उनका भक्षण करते थे। इस हत्या को रोकने के लिए परिषद् ने लगभग ३०००/- (तीन हजार) रुपयों से भी ज्यादा धन खर्च कर लगभग तीन फुट ऊंची मय दरवाजे के आधुनिक डिजाइन की मजबूत जाली बनवाई । इस तरह कई पक्षियों का भक्षण भी रुक गया।
परिषद् के भावी कार्यक्रम एवं सुझाव निम्नानुसार हैं:
(१) श्री राजेन्द्र जैन वाचनालय एवं पुस्तकालयः-जिसमें जैन धर्म से संबंधित कई ग्रंथों का संग्रह होगा एवं धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं की व्यवस्था की जाएगी।
(२) श्री राजेन्द्र जैन धामिक पाठशाला:-योग्य अध्यापक एवं अध्यापिका मिलते ही इसका शुभारम्भ कर दिया जाएगा।
(३) श्री राजेन्द्र जैन बुक बैंक एवं सहायता फंड योजना:इस योजना के अन्त त गरीब छात्रों की जो कि शाखा के प्रधानाचार्य
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द्वारा प्रमाणित किये जायेंगे मुफ्त पाठ्य-पुस्तकें एवं पाठ्य-सामग्री वितरित की जायेगी। जो मेधावी छात्र आर्थिक परिस्थिति के कारण पढ़ाई छोड़ रहे होंगे उन्हें उनकी पढ़ाई जारी रखने के लिए योग्य एवं उचित छात्रवृत्ति दी जायगी।
(४) श्री राजेन्द्र औषधालय:-इसके अन्तर्गत गरीब, असहाय एवं दीन-दुःखियों को मुफ्त औषधि-वितरण की जाएगी।
सियाणा जालौर जिलान्तर्गत सियाणा ग्राम में अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नव. परिषद् की स्थापना हो गई है और इसके पदाधिकारी इस प्रकार है
१. श्री पारसमलजी भंडारी अध्यक्ष . २. श्री हरखचन्दजी पुखराजजी उपाध्यक्ष ३. श्री राजेन्द्रकुमार सिरेमलजी मंत्री ४. श्री बाबूलालजी पूनमचन्दजी उपमंत्री ५. श्री छगनलालजी भानाजी कोषाध्यक्ष ६. श्री वस्तीमलजी पुखराजजी प्रचारमंत्री
परिषद् का अभी-अभी गठन हुआ है और उसकी गतिविधियों में प्रगति आरम्भ हो रही है। सर्वप्रथम उनका लक्ष्य यह है जो विद्यालय बन्द है, उसे आरम्भ किया जाये। ___ वर्ष भर समय अनुरूप धार्मिक कार्यक्रम होते हैं, उनमें परिषद् के कार्यकर्ता सक्रिय भाग लेते हैं।
बागरा (मारवाड़) पूरी ढंढार पट्टी जो सामाजिक कुरीतियों तथा कुरिवाजों से आक्रान्त थी, श्री राजेन्द्र जैन परिषद् ने उनसे संघर्ष किया और अन्तत: समाज को उन बुराइयों को सुधारना पड़ा। परिषद् ने जो कार्य किये हैं वे अमिट रहेंगे। यहां परिषद् स्थापित है और उसके पदाधिकारी इस प्रकार हैं:--
१. श्री किशनलालजी फुलाजी अध्यक्ष २. श्री फूलचन्दजी शोभाजी उपाध्यक्ष ३. श्री ओटमलजी जेरूपजी मंत्री ४. श्री रतनचन्दजी भगवानजी उपमंत्री ५. श्री नथमलजी अमींचरदजी कोषाध्यक्ष
वर्तमान में श्री रतन वन्दजी भगवानजी केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं।
बागरा शाखा के पदाधिकारी प्रायः दक्षिण भारत में व्यापारार्थ जाते हैं इस कारण शाखा परिषद् का कार्य शांत स्थिति में है किंतु यह शांति तूफान की शांति है । जो समय आते ही पुनः सक्रिय हो जावेगी क्योंकि इसका एका इतिहास रहा है।
कुशलगढ़ राजगढ़ के बांसवाड़ा जिले में स्थित कुशलगढ़ को त्रिस्तुतिक समाज दिनांक २२ सितम्बर, १९७७ को उस समय पुलकित हो
उठा जब स्थानीय संघ की बैठक में अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की शाखा का विधिवत् गठन किया गया । परम पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज की प्रेरणा रंग लाई और संगठन की छबि निखरने लगी । शाखा परिषद के लिए निम्नानुसार पदाधिकारी निर्वाचित किये गये--
अध्यक्ष-श्री तेजमलजी मेहता, उपाध्यक्ष--श्री बाबूलालजी मेहता, सचिव--श्री मोतीलालजी रांका, सहसचिव-श्री अनोखी लालजी नाहटा तथा श्री धीरजमलजी मेहता, प्रचार एवं संगठन मंत्री--श्री कन्हैयालालजी जैन, कोषाध्यक्ष--श्री हीरालालजी कावड़िया।
शाखा के सदस्यों ने रतलाम में आयोजित अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की बैठक में भाग लिया। परिषद् के नीतिनिर्देशक तत्वों एवं केन्द्रीय कार्यालय के मार्गदर्शन के अनुसार शाखा परिषद् कार्यरत होने के लिए संकल्पबद्ध है।
जोधपुर श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की स्थापना पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजयजी मधुकर' के चातुर्मास में हुई।। __ मंत्री---श्री पृथ्वीराजजी बोकड़िया, सहमंत्री--श्री विद्यार्थीचंदजी भण्डारी हैं। यहां पर परिषद् के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रति गुरुवार गुरु महाराज की आरती उतारी जाती है।
अहमदाबाद प्राचीन भारत में कर्णवती एक प्रसिद्ध स्थान रहा है। यहां कर्णवती मुसलमान शासकों के आगमन के कारण अहमदाबाद के रूप में नामांतरित हो गई है। कई राजनैतिक उत्कर्ष एवं पराभव इस नगर ने देखे । स्वतंत्र भारत के एक शताब्दि पूर्व से अहमदाबाद में एक राजनैतिक जागरण हुआ और उसका नेतृत्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से हआ | साबरमती के तट पर आश्रम बना कर। ऐसे नगर अहमदाबाद जो कुबेर नगर और जैन नगर भी कहा जा सकता है के मध्य अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नव. परिषद् की स्थापना
अहमदाबाद नगर के सेठ श्री गगलदास हालचन्द संघवी जो समाज के जैन रत्न हैं, अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन न. परिषद् को केन्द्रीय परामर्शदात्री समिति के वरिष्ठ सदस्य हैं, जिनका समय-समय पर मार्ग दर्शन मिलता रहता है।
परिषद् के नवीन गठन हेतु सदस्यता अभियान निरन्तर गतिशील है और शीघ्र ही विधिवत् निर्वाचन संपन्न होंगे।
थराद थराद नगर पू. राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का अनुयायी नगर है। यहां अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन न. परिषद् की स्थापना हो चुकी थी। जिसके तत्कालीन पदाधिकारी इस प्रकार थे-श्री
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नटवरलाल डाह्यालाल वकील--अध्यक्ष, श्री राजमल नागरलाल धरू-मंत्री । थराद में परिषद् की गतिविधियों में पुनः तेजी आई है।
समाज के विराट स्वरूप को देखते हुए परिषद् की सदस्य संख्या वृद्धि के साथ कार्यवाही शुरू होने की सूचना प्राप्त हो गई है।
नैनावा
थराद जैन युवक मण्डल, आनन्द मण्डल को आनन्द की जैन समाज में काफी प्रगतिशील संस्था की दृष्टि से देखा जाता है । मण्डल की महान देन श्री राजेन्द्र सूरि जैन ज्ञान मंदिर का भव्य भवन है जिसका उद्घाटन पूज्य मुनि. श्री जयन्त विजयजी महाराज 'मधुकर' की प्रेरणा से सम्पन्न हुआ। मण्डल सामाजिक कार्यों में पूरी अभिरुचि के साथ कार्य करता है। साथ ही गुरु सप्तमी, महावीर जयन्ती, पर्युषण पर्वो पर भव्य कार्यक्रमों का आयोजन होता है।
थराद जैन युवक मण्डल, नडियाद
उत्तर गुजरात के बनासकांठा जिले में ग्राम नैनावा स्थित है। परिषद् शाखा के परिश्रम से प्रतिष्ठोत्सव में चार चांद लगे और इसकी प्रेरणा के बिन्दु हैं-पू. मुनिराज श्री जयंतविजयजी महाराज।
परिषद् ग्राम जनसंख्या के अनुरूप लघु है और उनके मुख्य पदाधिकारी श्री बाबूलालजी भीमराज--अध्यक्ष और श्री मफत लालजी-मंत्री हैं।
परिषद् सामाजिक तथा धार्मिक गतिविधियों में अग्रणी है और अनेक योजनाओं को कार्यान्वित करने में संलग्न है। आगामी कुछ महीनों में इसका प्रगटीकरण होगा । केन्द्रीय परिषद् के लिए स्थानीय परिषद् का महत्वपूर्ण योगदान प्राप्त होता रहेगा।
पालीताना
यह मण्डल मुनिराज श्री जयन्ताविजय जी म. 'मधुकर' की प्रेरणा से स्थापित किया गया है और मण्डल के माध्यम से नडियाद (उत्तर गुजरात) की त्रिस्तुतिक जैन समाज एक सूत्र में आबद्ध हुई है। जहां पूज्य गुरुदेव श्री के, चित्र स्थापित किये गये हैं। प्रत्येक सप्तमी को गुरुदेव की आरती उतारी जाती है।
राजेन्द्र जैन परिषद् पाटन
परिषद् सामाजिक प्रवृत्तियों में निरंतर गतिशील रहती है। इसकी स्थापना मुनि श्री जयन्त विजय जी की प्रेरणा से की गई है। संस्था के ऑफिस में गुरुदेव का विशाल चित्र मुनिश्री के सान्निध्य में स्थापित किया गया है। श्री छोटालाल अनोपचन्द-प्रमुख, ताराचन्द जी-उपप्रमुख, नरपतलाल वकील-मंत्री और छोटालाल हठीचन्दप्रमुख सलाहकार हैं । परिषद् के सम्मेलन में प्रतिनिधि आते हैं।
सिद्धक्षेत्र परम पुनीत तीर्थ सिद्धाचल पालीताना समग्र जैन समाज का महान केन्द्र है । भगवान ऋषभदेव आदि अनेक तीर्थकरों की यह निर्वाणभूमि रही है । और प्रतिवर्ष लाखों यात्रियों के आगमन तथा अर्चना का केन्द्र है ऐसी पावन भूमि में अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन न. परिषद् का अस्तिव होना चाहिये । इस दृष्टि से पू. मुनिराजजी श्री जयन्त विजयजी मधुकर की प्रेरणा से शाखा स्थापित हुई।
श्री जयप्रकाश जी जैन के संयोजन में यह शाखा कार्यरत है। शाखा की ओर से अनेक संघों का स्वागत अभिनंदन किया जाता है यह प्रयास गतिशील है। यह शाखा अपने संपूर्ण वैभव को प्रदर्शित करे । श्री जयप्रकाश जी इस कार्य में गतिशील हैं। आशा की जाती है कि अपने वांछित लक्ष्यों को शाखा प्राप्त कर लेगी।
राजकोट
थाना महाराष्ट्र स्थित थाना जो बम्बई के निकट है। यहां पर अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की शाखा स्थापित हो चुकी है।
महाराष्ट्र की यह दूसरी शाखा है। परिषद् के लिये गौरव है। यहां के श्री जुगराजजी के. जैन (संघवी) केन्द्रीय परिषद् के उपाध्यक्ष हैं और स्थानीय शाखा के संयोजक हैं। श्री जुगराजजी के नेतृत्व में शाखा प्रगतिशील है और अपनी गति को देखते हुए सुदृढ़ बन जावेगी।
परिषद् सहायता मंजूषा भेजी जा रही है यह वहां की शाखा के कार्यकर्ताओं की भावना के अनुरूप यह योजना कार्यान्वित होगी।
भोपाल
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन न. परिषद् शाखा के पूर्व यहां समाज को एक सूत्र में लाने का महत्वपूर्ण कार्य संपादित किया। पूज्य मुनिराजश्री की प्रेरणा से राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की आरती टीन “ (पत्रा) पर मुद्रित करवा कर सभी गुरु मंदिरों में वितरित की गई। यह कार्य शाखा परिषद् ने किया। अब राजकोट में एक उपाश्रय के निर्माण की योजना चल रही है। परिषद् द्वारा यहां अनेक गतिवियाँ संचालित है।
सहयोगी संस्थाएं (गुजरात) कई संस्थाएं अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् में विलीन नहीं हुई हैं लेकिन परिषद् के साथ पूरक बन कर सहयोग करती आ रही हैं । उन संस्थाओं में कुछ प्रमुख इस प्रकार है
परिषद् के बढ़ते चरण म. प्र. की राजधानी भोपाल में भी पहुँच चुके हैं। यह एक धार्मिक सफलता का द्योतक है। यहां पर अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन न. परिषद् की स्थापना हो चुकी है।
श्री सुरेशचन्द जी जैन (लुकड) शाखा परिषद् के संयोजक के रूप में नियुक्त हैं । श्री जैन के नेतृत्व में निश्चित कार्यक्रम बन रहा है और परिषद् के सदस्यों की वृद्धि का अभियान चल रहा है। आशा की जाती है कि आगामी छः महीनों में परिषद् समग्र रूप में प्रकट होगी। काफी संभावना है इसके समृद्ध होने की। ...
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परिषद् के अधिवेशन
क्रम
वर्ष
स्थान
सानिध्य
अध्यक्ष
१९५९
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया
थी मोहनखेड़ा तीर्थ (म.प्र.) स्व. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र
सूरीश्वरजी महाराज
२.
१९६०
रतलाम (म. प्र.)
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया
पू. मुनिराज कल्याणविजयजी, श्री सौभाग्य- विजयजी महाराज आदि
३. . १९६१
खाचरोद (म. प्र.)
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया
पू. मुनिराज श्री सौभाग्यमलविजयजी महा., पू. म. श्री देवेन्द्रविजय महाराज आदि
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया
आकोली (जि. जालोर, (जि. जालोर, राज.)
संघ प्रमुख पू. मुनिराज श्री विद्याविजयजी महाराज आदि
(जि.
१९६४
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म.प्र.) पू. आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी श्री सौभाग्यमलजी सेठिया
महाराज रानापुर
पू. महाराज श्री जयन्तविजयजी महाराज श्री शांतिलालजी भण्डारी (संयोजक) (जि. झाबुआ म. प्र.)
E.
१९६६
१९७०
१९७४
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म.प्र.)पू. मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज श्री भंवरलालजी छाजेड़ (संयोजक) उज्जैन (म.प्र.) पू. आचार्य श्रीमद् विजयविद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. श्री महेन्द्रकुमारजी भण्डारी (संयोजक) जावरा (म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़ श्री लक्ष्मणी तीर्थ (म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज डॉ. श्री प्रेमसिंहजी राठौड़ श्री निम्बाहेड़ा (राज.) पू. मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज डॉ. श्री प्रेमसिंहजी राठौड़
१९१५ १९७७
११.
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अध्यक्ष श्री सौभाग्यमल सेठिया (१९५९-१९६५)
केन्द्रीय अध्यक्ष एवं संयोजक
श्री महेन्द्रकुमार भंडारी
संयोजक (१९७१)
श्री शान्तिमल भंडारी संयोजक (११६६-६९)
श्री हुकमचंद पारेख संयोजक (१९७३)
श्री भंवरलाल छाजेड़ संयोजक (१९७०) वर्तमान अध्यक्ष
डॉ. प्रेमसिंह राठौड़
संयोजक (१९७४) अध्यक्ष (१९७४-१९७७)
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उपाध्यक्ष एवं मालव प्रान्तीय अध्यक्ष
श्री माधौसिंह चौधरी (१९५९-६१)
श्री शोभागमल लोढ़ा
केन्द्रीय उपाध्यक्ष
श्री तगराज हीराणी (१९७४-७६)
श्री जे. के. संघवी
(१९७७)
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श्री बालचन्द जैन (१९५९)
श्री भंवरलाल छाजेड़ ( १९६१-६५)
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केन्द्रीय महामंत्री
श्री राजमल सराफ (१९६०)
श्री सी. बी. भगत (१९७५-७७) एवं वर्तमान
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विधि मंत्री
शिक्षा मंत्री
श्री भंवरलाल जैन एडव्होकेट
(१९६२-६३)
श्री राजमल लोढ़ा (१९६०-६१ १९७५-७७ एवं वर्तमान)
केन्द्रीय मन्त्री
प्रचार मंत्री
श्री मदनलाल कर्नावट (१९६०-६१)
श्री कुन्दनमल जैन (१९६२-६५ १९७५-७७ एवं वर्तमान)
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श्री समीरमल जैन (१९५९-६५)
श्री शान्तिलाल सुराणा (१९७५-७७ एवं वर्तमान)
केन्द्रीय कोषाध्यक्ष
माणकलालजी पारिख, अधिकोष मंत्री
श्री सुजानमल जैन
(१९७४)
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.
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केन्द्रीय संगठन मंत्री
श्री मदन लाल सुराणा
श्री शान्तिलाल पारीख
शान्तिलाल सुराणा
(१९६४-६५)
सह महामंत्री
श्री ओ. सी. जैन (१९७४-७७)
श्रीमती कोकिला भारतीय ( १९७५-७७एवं वर्तमान)
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अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् केन्द्रीय कार्यालय की ओर से संघवी कुन्दनमलजी भूताजी, आहोर को अभिनन्दन पत्र देते हुए श्री शान्तिलाल सुराणा एवं श्री राजमल लोढ़ा
तवतार
अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के उपकेन्द्र (रतलाम) के उद्घाटन प्रसंग
की एक झलक ।
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धार्मिक शिक्षण शिविर, रतलाम के समापन समारोह की झलकियाँ
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परिषद् के केन्द्रीय महामंत्री सी.बी. भगत केन्द्रीय कोषाध्यक्ष शांतिलाल सुराणा व परिषद् के भ.पू. अध्यक्ष
श्री सौभाग्यमल सेठिया का प्रवास
रतलाम उप-कार्यालय
खाचरौद
परिषद के केन्द्रीय महामंत्री का मालव क्षेत्र में प्रवास सफल रहा
रतलाम
राणापुर
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प्रवास दौरे के चित्र
महारा
श्री सी. बी. भगत द्वारा महावीर प्याऊ मन्दसौर का
शिलान्यास
निम्बाहेड़ा
मन्दसौर
मन्दसौर
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अ. भा.श्री राजेन्द्र जैन नवयवक परिषद की ओर से धार्मिक ज्ञानोत्तेजक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया
लिखने में व्यस्त विद्याथिगण
पुरस्कार वितरित करते हुए श्री अवधनारायणसिंह
प्रथम पुरस्कार
द्वितीय पुरस्कार
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अ.भा. श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् केन्द्रीय कार्यालय द्वारा धामिक शिक्षा प्रचार हेतु ज्ञानोत्तेजक प्रतियोगिता में उत्तीर्ण
विद्याथियों को पुरस्कार-वितरण पुलिस अधीक्षक श्री अवधनारायणसिंह जी के द्वारा हुआ उसके दृश्य
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वी. नि. सं. २५०३
श्री पार्श्वनाथ जैन संगीत मण्डल, जावरा (म.प्र.)
शाखा परिषद् जावरा के कार्यरत सदस्य
For Private Personal Use Only
.
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महिला परिषद् रतलाम की कार्यरत सदस्याएं
शाखा रतलाम के कार्यरत सदस्य
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________________
170
GOD
2
महिला परिषद् रिंगनोंद (रतलाम) की कार्यरत सदस्याएं
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् द्वारा संचालित संगीत मण्डल टांडा (धार)
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बाल परिषद् शाखा, रतलाम
शाखा परिषद् रिंगनोंद (रतलाम) के कार्यरत सदस्य
९/०२
शाखा टांडा के कार्यरत सदस्य
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अलीराजपुर (म.प्र.) शाखा परिषद के सदस्थगण कार्यरत सदस्य
नी
कुक्षी शाखा के कार्यरत सदस्य
शाखा दसाई के कार्यरत सदस्य
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अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, आकोली (राज.)
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया की अध्यक्षता में सम्पन्न अधिवेशन दृश्य
अध्यक्षीय शोभायात्रा
अध्यक्षीय शोभायात्रा
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आकोली
श्री उकचन्दजी वकील, भीनमाल द्वारा ध्वजोत्तोलन, आकोली (राज.)
अधिवेशन उद्घाटन श्री जेठमलजी खुमाजी, बागरा द्वारा आकोली (राज.)
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बी. नि. सं. २५०३
तुमदेन सको तो लेने का अधिकास ही
पदाधिकारियों को अध्यक्ष द्वारा शपथ दिलाई गई
श्री
परिषद के संस्थापक
द्विजय यतीन्द्र सम्वरजी गहरा
शाखा परिषद् आकोली के कार्यकर्तागण, जिनने प्रतिष्ठोत्सव में पूर्ण निष्ठा से काम किया
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LLLLL
संघ प्रमुख मुनिराजश्री विद्याविजयजी म. द्वारा अधिवेशन में मंगल सन्देश,
समीप में मुनिराज श्रीकल्याणविजयजी म. बिराजित हैं
कोलो
परिषद् अध्यक्ष एवं कार्यकर्ता
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अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् का अधिवेशन श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ में पू. पा. आचार्य देव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म. के सान्निध्य एवं श्री सेठियाजी
की अध्यक्षता म सम्पन्न
पदाधिकारियों का राजगढ़ श्रीसंघ द्वारा स्वागत
पू.पा. आचार्य देव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्रजी म. अधिवेशन में मंगल प्रेरणा प्रदान
कर रहे हैं
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श्री मोहनखेड़ा तीर्थ अधिवेशन के दृश्य
नवनिर्वाचित पदाधिकारी
अधिवेशन में मुनिजन द्वारा प्रेरणा
अधिवेशन में सक्रिय सहयोग से काम किया वे शाखा परिषद्
राजगढ़ के कार्यकर्ता
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अ.भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, जावरा में डॉ.प्रेमसिंहजी राठौड़ की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ
अध्यक्ष की शोभायात्रा, जावरा
स्वागत जुलूस एवं अधिवेशन मंडप का दृश्य
वी.नि. सं. २५०३
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ܝܐ ܀
जावरा अधिवेशन
खुले अधिवेशन का दृश्य
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श्री मांगीलालजी जैन बैंगलोर निवासी अधिवेशन उद्घाटन
करते हुए
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अ. भा. श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, लक्ष्मणी में सम्पन्न हुआ
मुनिराज श्री जयन्तविजयजी द्वारा अधिवेशन में मंगल प्रवचन
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लक्ष्मणी अधिवेशन के दृश्य
श्री सी.बी. भगत ध्वज वन्दन करते हुए
श्री गगनभाई अहमदाबाद का स्वागत अध्यक्ष डॉ. प्रेमसिंह राठौड़ कर रहे हैं। इन दोनों को अर्धशताब्दि समारोह के अवसर पर
समाज द्वारा क्रमशः जनरत्न एवं जनभषण
उपाधि से विभूषित किया गया
O
श्री राजमल सराफ भक्ति करते हुए
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लक्ष्मणी अधिवेशन के दृश्य
श्री अध्यक्ष द्वारा कार्यकर्ताओं को सम्बोधन
भूतपूर्व अध्यक्ष श्री सेठियाजी का कार्यकर्ताओं को सम्बोधन
वी. नि. सं. २५०३
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निम्बाहेड़ा अधिवेशन
मुनिराज श्रीजयन्त विजयजी 'मधुकर' का अधिवेशन बाबत नगर प्रवेश
अध्यक्षीय स्वागत जुलूस
सह महामंत्री श्रीमती कोकिला भारतीय भाषण देते हुए
स्वागत अध्यक्ष श्री कुन्दनमलजी डांगी स्वागत भाषण दे रहे हैं
अधिवेशन पंडाल का दृश्य
अधिवेशन-पंडाल
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निम्बाहेड़ा अधिवेशन के दृश्य
खुले अधिवेशन का दृश्य
खुले अधिवेशन में भूतपूर्व व वर्तमान अध्यक्ष
अध्यक्ष श्री छाजेड़ भाषण दे रहे हैं
यनिस्वाहडा.
मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' द्वारा कार्यकर्ताओं को प्रेरणा
उपाध्यक्ष श्री जे.के.संघवी भाषण देते हुए
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निम्बाहेड़ा अधिवेशन के दृश्य
अध्यक्ष डॉ. श्री राठौड़ परिषद् का विवरण प्रस्तुत करते हुए
श्री छगनराजजी बुटा आहोर शाश्वत धर्म अधिवेशन विशेषांक का विमोचन करते हुए
अधिवेशन में कोषाध्यक्ष लेखा जोखा प्रस्तुत करते हुए
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अ.भा.श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् की केन्द्रीय कार्यकारिणी की रतलाम बैठक
अध्यक्ष व महामंत्री का स्वागत जुलूस
कोषाध्यक्ष श्री सुराणा आय-व्यय प्रस्तुत करते हुए
अध्यक्ष श्री छाजेडजी भाषण देते हुए
मुनिराज श्री जयन्तविजयजी 'मधुकर' केन्द्रीय अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं प्रमुख परामर्शदाता सेठ श्री कन्हैयालालजी कश्यप
से चर्चा करते हुए
वी नि. सं. २५०३
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बीबजेखननक्युवक
कोवानीमच
उपधान-समारोह के समय उपस्थित परिषद् कार्यकर्तागण श्री मोहनखेड़ा तीर्थ जिन्होंने पूरे श्रम से व्यवस्था में पूरा पूरा योग दिया था
राजेन्द्र-ज्योति
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वर्तमान परामर्शदात्री समिति
जैनरत्न सेठ श्रीगगलभाई हालचंदभाई संघवी थरादी, अहमदाबाद
सेठ श्री कन्हैयालाल जी काश्यप रतलाम
वी. नि. सं. २५०३
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वर्तमान कार्यकारिणी के सदस्य (केन्द्रीय)
Pra
श्री तगराज जी हीराणी, खेतड़ा
श्री सौभाग्यमल सेठिया, निम्बाहेड़ा
श्री उगमसी मोदी, जालौर
श्री फतेलाल कोठारी, रतलाम
श्री पुखराजमल सकलेचा, बड़ावदा
श्रीमती प्रेमलता राठौड़, रतलाम
श्री भीकमचंद जैन, रिंगनोद (रतलाम)
श्री शान्तिलाल जी जैन, रिंगनोद (धार)
श्री मांगीलाल जी छाजेड, धार
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2
श्री शान्तिलाल भंडारी, राजन (धार)
श्री पारस भंडारी सीयाणा (राज.)
वी. नि. सं. २५०३
केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य
श्रीका, बड़नगर
श्री सुजानमल जैन, राणापुर
श्रीमती मधुकान्ता जैन, अलीराजपुर
श्री प्रकाशचन्द्र लोढ़ा, टांडा
श्री प्रेमसिह राड़ीड़, रतनाम
श्री शान्तिलाल भंडारी झाबुआ
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शाखा-अध्यक्ष
श्री झमकलाल जी भंडारी, पारा
श्री तिलोकचन्द जैन, अलीराजपुर
श्री कोमलसिंह बापना, बड़ावदा
श्री इन्द्रमल जी खाबिया, बालौदालखा
श्री बसन्तीलाल जी पोखरना, जावरा
श्री गेंदालाल जी बाफना, धार
श्री बाबूलाल पंवार, रिंगनोद (धार)
श्री पारसचन्द्र जैन, रिंगनोद (रतलाम)
श्री कनकमल जैन, टांडा
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अध्यक्ष
श्री यशवन्तकुमार नांदेचा, रिंगनोद (रतलाम)
श्री एस. एम. संघवी, इन्दौर
श्री भंवरलाल जैन, कुक्षी
श्रीमती श्यामा देवी नांदेचा, महिला परिषद्, रिंगनोद (रतलाम)
श्री शान्तिलाल मन्दसौर
श्री महेन्द्रकुमार भंडारी
श्री डाड़मचंद बोरा, रतलाम
वी. नि. सं. २५०३
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शाखा-सचिव
श्री नथमल जैन, अलीराजपुर
श्री निर्मलकुमार सकलेचा, बड़ावदा
श्री मोतीलाल धाड़ीवाल, आलोट
श्री शेतानमल वांठिया, रिंगनोद (धार)
श्री कैलाशचन्द्र हरण, धार
श्री कान्तिलाल जैन, कुक्षी
श्री सुभाषचन्द्र जैन, टांडा
कुमारी स्नेहलता जैन महिला शाखा
रिंगनोद (रतलाम)
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श्री हँसमुखलाल जैन, इन्दौर
श्री सोहनलाल जी दीवान, बड़नगर
बी. नि. सं. २५०३
शाखा-मंत्री
श्री प्रकाशचन्द्र काठेड़, जावरा
श्री प्रकाशचन्द्र छाजेड़, पारा
श्री कान्तिलाल दुगड़, रतलाम
श्री मठालाल जी धाणसा, (राज.)
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श्री सरदारमल संघवी, केन्द्रीय प्रतिनिधि, रतलाम
श्री शान्तिलाल गिरिया, केन्द्रीय प्रतिनिधि, पचलाना
श्री सौभाग्यमल श्रीमाल, केन्द्रीय प्रतिनिधि, आलोट
श्री शान्तिलाल डूंगरवाल, कोषाध्यक्ष, इन्दौर
श्री इन्द्रमलजी आंचलिया, कोषाध्याक्ष, रतलाम
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भूतपूर्व अध्यक्ष
सम्पादक 'शाश्वत धर्म' एवं भूतपूर्व अध्यक्ष
डा. प्रेमसिंह राठोड़
श्री सौभाग्यमल सेठिया कार्यकारिणी सदस्य एवं दक्षिण भारत के प्रमुख कार्यकर्ता
श्री भंवरलाल बजावत
वी. नि. सं. २५०३
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महिला परिषद् जावरा की कार्यरत सदस्याएँ
श्री चम्पालाल जी पगारिया, बदनावर केन्द्रीय प्रतिनिधि
अखिल-भारतीयराजेन्द्रजेननवयुवक परिषद-पिपलोदाँ
शाखा परिषद्, पिपलौदा के पदाधिकारीगण
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प्रागुरुत्थानमः राजन्ट्रजनन RUVAT.FTER
मेवनगर-शाखा के कार्यरत सदस्य
मेघनगर महिला-परिषद् की कार्यरत सदस्याएँ
वी.नि.सं. २५०३
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धार्मिक ज्ञानोत्तेजक प्रतियोगिता के कार्यकर्ता
धार्मिक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता के कार्यकर्ता
राजेन्द्र-ज्योति
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श्री राजेन्द्र जैन बाल परिषद्, रतलाम की कार्यकारिणी के सदस्य
दसाई-शाखा के क्रमशः अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष एवं मंत्री
श्री तीर्थकरावीरमहा निर्माणसहकारी पितिमी
राजन्द्रजननवयवकपरिषदशाखा
शाखा परिषद्, मन्दसौर के कार्यरत सदस्य
कार्यकारिणी समिति श्री तीर्थकर महावीर गृह-निर्माण
सहकारी समिति मर्यादित, मन्दसौर
वी. नि. सं. २५०३]
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बड़नगर-शाखा के कार्यरत सदस्य
निम्बाहेड़ा अधिवेशन का दृश्य
प्रभाश्री राजेन्द्र जैन
नबमुल्क
A
ITRINATera
आलोट-शाखा के कार्यरत सदस्य
राजेन्द्र-ज्योति
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वी. नि. सं. २५०३
श्री गुरुभक्ति परायणा श्रीमती लुणीबाई श्री श्रीमलजी जैन कुक्षी
वाले इन्दौर
श्री चम्पालालजी ओपचंदजी जैन मंत्री श्री राजेन्द्र जैन
परिषद् शाखा, बैंगलौर
आप धर्माराधनामय जीवन व्यतीत कर रही हैं आपश्री उत्सवलालजी (मनोज ड्रेसेस, इन्दौर) की माताजी हैं एवं आपकी भावना हमेशा धर्ममय बनी रहती है
नवयुवक
अध्यक्ष श्री महावीर निर्वाण समिति मन्दसौर
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लेखक गण
महेन्द्रमुनि 'कमल' खण्ड ४ पेज ७५-७१
अजित मनि 'निर्मल' खण्ड ४ पेज १४९-१५२
आचार्य विजयसुशील सरि खण्ड ४ पेज १५९-१६१
श्री खूबचंद केशवलाल खण्ड ७ पेज १५-३२
जी.व्ही. राजू खण्ड ८ पेज ३३
विनोद संघवी खण्ड २ पेज ६८
नलिन कुमार संघवी खण्ड ६ पेज ६८
कान्तीलाल संघवी
लेखक
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परम गुरुभक्त सेठ श्री कन्हैयालालजी काश्यप
परम गुरुभक्त श्री अशोककुमार काश्यप
एम. ए., बी. कॉम
जन्म वि.सं. १९६९, मार्गशीर्ष कृष्णा १३ निम्नलिखित संस्थाओं का इनके द्वारा संचालन किया जाता है : १. श्री काश्यप कन्हैयालाल झमकुभाई जैन ट्रस्ट रतलाम -
संस्थापक २. श्री अशोककुमार काश्यप जैन ट्रस्ट रतलाम-मैनेजिंग ट्रस्टी ३. श्री घासीराम साधारण ट्रस्ट फण्ड, रतलाम ४. श्री श्वेताम्बर जैन, साप्ताहिक आगरा-संरक्षक ५. श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेत म्बर पेढ़ी तीर्थ श्री
मोहनखेड़ा, राजगढ़ कोषाध्यक्ष ६. श्री जैन विद्या विकास समिति (श्री कन्हैयालाल काश्यप
विद्याभवन) रतलाम, अध्यक्ष ७. श्री पार्श्वनाथ जैन मित्र मण्डल, ट्रस्ट रतलाम-उपाध्यक्ष ८. श्री जैन श्वेताम्बर सौधर्म बृहत् तपागच्छ श्री राजेन्द्र
सूरीश्वर त्रिस्तुतिक ट्रस्ट मण्डल, रतलाम -भूतपूर्व अध्यक्ष,
वर्तमान ट्रस्टी ९ श्री अन्नक्षेत्र बोर्ड, रतलाम, ट्रस्टी १०. श्री रतलाम नगरपालिका विधि महाविद्यालय ट्रस्ट,
रतलाम; ट्रस्टी.
जन्म १२-११-४१ स्वर्ग.१७-७-६४ संस्थापक-श्री अशोककुमार काश्यप जैन ट्रस्ट, रतलाम
वी.नि. सं. २५०३
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श्री हीरानी दरजमल जी, श्री हीरानी हस्तीमल जी, श्री हीरानी उकचंद जी एवं श्री हीरानी तगराज जी रेवतड़ा, जिन्होंने
परिषद् के लिये तन-मन-धन से सहयोग दिया
सुश्रावक गरुभक्त जीवाजी लखाजी
गुड़ा बालोतरा
गुरुभक्त राजमल जी केसरीमल जी जैन गड़ा बालोतरा (राज.) संघयात्रा, उपधान, उजमणा आदि किये, करवाये और आखिर पू. आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वर जी के कर-कमलों से दीक्षा ली
(वर्तमान-मुनि विनयविजय जी)
श्री रतनचंद जी जीवाजी
गुड़ा वालोतरा आपने कई धार्मिक कार्य करवाकर
सद्-व्यय किया
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परम गुरुभक्त संघवी कुंदनमल भूताजी
आहोर (राज.)
परम गुरुभक्त श्री लुणाजी पोरवाड़
आपने पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी 'मधुकर' के सान्निध्य में आहोर से सिद्धाचलजी महातीर्थ का छ,रि पालता संघ सं. २०३३ में निकाल कर अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग किया ।
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के निर्माता संघवी लुणाजी पोरवाड़
राजगढ़ (धार)
वी. नि. सं. २५०३
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परम गुरुभक्त स्व. श्री गंगाराम घासीराम जी पोरवाड़, रतलाम
नीमवाला उपाश्रय, रतलाम के प्रमुख गुरुभक्तों में आपका नाम रहा है। आपने जिन मन्दिरों में अपने स्वभुजोपार्जित प्रय का सद्व्यय किया है और आप श्री मल्लिनाथ घासीराम जैन पेढ़ी, नीमवाला उपाश्रय रतलाम में स्थापित करने में प्रमुख दानदाता रहे हैं और आपने घासीराम साधारण ट्रस्ट फण्ड की स्थापना की, जो आज भी विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं ।
परम गुरुभक्त स्व. श्री मोतीलाल जी श्री श्रीमाल
आप मूल एलची निवासी और वर्तमान में मन्दसौर मय परिवार के रहकर धर्म एवं समाज की सेवा करते रहे हैं। आपके सुपुत्र श्री शान्तिलालजी भी इसी प्रकार समाज सेवा कर रहे हैं।
राजेद्र-क्योति
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परम गुरुभक्त सेठ श्री कालूराम जी पन्नालाल जी वोरा, रतलाम
परम गुरुभक्त सेठ रतनलाल जी उकारलाल जी सुराना, रतलाम
नीमवाला उपाश्रय ट्रस्ट के भूतपूर्व कोषाध्यक्ष एवं त्रिस्तुतिक संघ, रतलाम के प्रमुख कार्यकर्ताओं में हैं। आप के द्वारा श्री नागेश्वर
तीर्थ यात्रार्थ छ'रि पालक संघ निकाला गया ।
पू.पा. गुरुदेव श्री के सम्मुख अखण्ड ज्योति आपके कर-कमलों से प्रज्वलित की गई। आप श्री राजेन्द्र जैन पाठशाला के भूतपूर्व अध्यक्ष भी रहे । आपके द्वारा अनेक धार्मिक कार्यक्रम आयोजित
होते रहे हैं।
वी. नि.सं. २५०३
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परम श्रद्धालु गुरुभक्त समाज सेवी सेठ श्री पन्नालाल जी लोढ़ा एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुगनबाई टांडा, (धार) आपकी सरल भावना एवं गुरुभक्ति परायण वृत्ति रही है। समाज के प्रत्येक कार्य में आप अग्रगण्य रहे
हैं । श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर होने वाले उत्सवों में आप सदा प्रमुख सहयोगी रहते थे ।
परम गुरुभक्त सेठिया छोगमलजी एवं उनके सुपुत्र धर्मवीर सेठिया मोतीलाल जी, खाचरौद सेठिया मोतीलाल जी ने आपने जीवन में अनेक विविध आराधना एवं तपश्चर्या की और कर रहे हैं। आपने ८० ओली वर्धमान तप की एवं नगर के अनेकों नर-नारियों को इस पावन आराधना में जोड़ा। श्रीमद्यतीन्द्र सूरीश्वर जी म. के सान्निध्य में आपने नवपद उद्यापन उत्सव
___अत्यधिक चढ़ते भाव से करवाया
राजेन्द्र-ज्योति
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शेठ श्री धनराज जी मिश्रीलाल जी पारेख
गुरुभक्ति परायणा स्व. श्राविका सुकीबाई धर्मपत्नी
स्व. श्री रतनचन्द्र जो मांडोत, आहोर
१८८१ ई.-१९६० ई. शेठ जसजी पन्नाजी रतलाम के प्रतिष्ठित घराने में; मदुभाषी, मिलनसार, जैन-जैनेतरों में सम्मान; बम्बई में आयातनिर्यात का व्यवसाय, रतलाम में टेक्सटाइल मिल की स्थापना; १९२६ ई. में इन्दौर आगमन, सीमेंट, मिल स्टोर्स, 'अतुल' रंग, 'अनिल' स्टार्चेज और रासायनिकों का बड़े पैमान पर व्यापार; सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में प्रगाढ़ अनुराग, जीव रक्षा समिति के मंत्री जीव-हिसा निषेध सम्बन्धी कानूनों पर एक पुस्तक अपने जीवन काल में त्रिस्तुतिक समाज के एक प्रमुख स्तम्भ ।
आप यावज्जीव धर्माराधनामय जीवन व्यतीत करती रही हैं, परम श्रद्धावन्त जीवन आपका लक्ष्य रहा है । आपने श्री विशस्थानक तपाराधन, नवपदाराधन, वर्षीतप आदि अनेक तप किये और उद्यापन भी किये। जीवन के अन्तिम समय तक आपकी भावना धर्ममय बनी रही।
वी.नि.सं. २५०३
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गुरुभक्ति सम्पन्न श्री हीराचंद जी काना जी सियाणा, (राज.)
चित्रकार श्री तोलाराम जी शर्मा, अहमदाबाद
आप एक गुरुभक्त हैं, गुरुदेव में आपकी अटूट श्रद्धा है
आप कुशल चित्रकार हैं, मूल निवासी मारवाड़ के हैं और अहमदाबाद में रहते हैं। आपकी कलम से 'चरम तीर्थंकर महावीर' के सुन्दर कलामय २७ 'भवों के चित्र बनाये गये। भगवान महावीर ने क्या कहा? पुस्तक के आकर्षक चित्र एवं 'धरती के फूल' में गुरुदेव के सम्पूर्ण जीवन के चित्रों को आपकी कलम ने सुन्दर रूप से चित्रित किया है एवं प्रस्तुत ग्रन्थ के मुखपृष्ठ व गुरुदेव के सब चित्र आपकी कलम से बने हैं।
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परिषद् कार्यसमिति की बैठक
तिथि
स्थान
सान्निध्य
अध्यक्षता
१. ५ जनवरी, १९६० श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म. प्र.) पू. आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महा. श्री सौभाग्यमलजी सेठिया २. ३ अप्रेल, १९६० रतलाम (म. प्र.) पू. मुनिराज श्री कल्याण विजयजी महाराज श्री सौभाग्यमलजी सेठिया ३. २८ अगस्त, १९६० श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म. प्र.) पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रजी श्री सौभाग्यमलजी सेठिया
__ सूरीश्वरजी महाराज ४. २६ मार्च, १९६१ जावरा (म. प्र.) पू. मुनिराज श्री सौभाग्य विजयजी महाराज श्री राजमलजी लोढा ५. २० अगस्त, १९६१ श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री माधवसिंहजी चौधरी ६. २४ मार्च, १९६२ नीमच (म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री सौभाग्यमलजी सेठिया ७. ७ मई, १९६२ आकोली (राज.) संघ प्रमुख पू. मुनिराज श्रीविद्या विजयजी महा. श्री सौभाग्यमलजी सेठिया ८. २० दिसम्बर, १९६२ नीमच (म. प्र.)
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया ९. १४ जून, १९६४ श्री सागोरिया तीर्थ (रतलाम)
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया १०. १९ सितम्बर, १९६४ श्री तालनपुर तीर्थ (कुक्षी म.प्र.)
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया ११. १२ दिसम्बर, १९६५ नीमच
श्री सौभाग्यमलजी सेठिया १२. २१ अगस्त, १९६६ रानापुर (जि. झाबुआ म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री सौभाग्यमलजी सेठिया १३. २६ नवम्बर, १९६६ रानापुर (जि. झाबुआ म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री शांतिलालजी भण्डारी १४. २६ अप्रेल, १९६७. रानापुर (जि. झाबुआ म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज श्री शांतिलालजी भणारी १५. ११ नवम्बर, १९६७ रानापुर (जि. झाबुआ म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज श्री शांतिलालजी भण्डारी
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री हुक्मीचन्दजी पारिख १९७० .
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पू. मुनिराज श्री जयत्तविजयजी महाराज श्री भंवरलालजी छाजेड़ १८. १९ जनवरी, १९७५ श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़ १९. १८ दिसम्बर, १९७५ श्री लक्ष्मणी तीर्थ पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़ २०. १९ दिसम्बर, १९७५ श्री लक्ष्मणी तीर्थ पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़
(विशेष अतिथि-श्री गगलभाई हालचन्द) २१. १७ मई, १९७६ अहमदाबाद
पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड़ २२. १२ फरवरी, १९७७ जालोर (राज.) पू. मुनिट्ठाज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री तगराजजी हीराजी २३. १४ फरवरी, १९७७ जालोर (राज.) पू. मुनिराज श्री जयन्त विजय जी महाराज श्री सौभाग्यमलजी सेठिया २४. ३० मई, १९७७ निम्बाहेड़ा (राज.) पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री भंवरलालजी छाजेड़ २५. २५ सितम्बर, १९७७ रतलाम (म. प्र.) पू. मुनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज श्री भंवरलालजी छाजेड़
वी..नि. सं. २५०३/ख-६
६५
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केन्द्रीय पदाधिकारी
सन् १९५६ अधिवेशन राजगढ़ (धार) श्री सोभागमलजी सेठिया निम्बाहेड़ा अध्यक्ष ,, माधवसिंहजी चौधरी नीमच उपाध्यक्ष ,, समीरमलजी जैन टांडा
कोषाध्यक्ष , बालचन्दजी जैन राजगढ़ प्रधानमंत्री ,, राजमलजी जैन
राजगढ़
सह-महामंत्री ,, भंवरलालजी छाजेड़ नीमच प्रचार-मंत्री ,, अमृतलालजी पारीख कुक्षी शिक्षामंत्री सन् १९६० अधिवेशन रतलाम श्री सोभागमलजी सेठिया निम्बाहेड़ा अध्यक्ष ,, माधवसिंहजी चौधरी नीमच उपाध्यक्ष ,, राजमलजी जैन राजगढ़
महामंत्री ,, भंवरलालजी छाजेड़ नीमच सह-महामंत्री ,, समीरमलजी जैन टाण्डा
कोषाध्यक्ष राजमलजी लोढा मन्दसौर शिक्षामंत्री ,, मदनलालजी कर्नावट जावरा प्रचारमंत्री ,, मदनलालजी सुराणा रतलाम संगठनमंत्री ,, माधवसिंहजी वकील निम्बाहेड़ा विधिमंत्री सन् १९६१ अधिवेशन, खाचरोद श्री सोभागमलजी सेठिया निम्बाहेड़ा अध्यक्ष ,, माधवसिंहजी चौधरी नीमच उपाध्यक्ष ,, भंवरलालजी छाजेड़ नीमच ,, राजमलजी जैन
राजगढ़ सह-महामंत्री , समीरमलजी जैन टाण्डा
कोषाध्यक्ष ,, शांतिलालजी पारीख कुक्षी संगठनमंत्री , राजमलजी लोढा मन्दसौर शिक्षामंत्री ,, मदनलालजी कर्नावट जावरा प्रचारमंत्री ,, चांदमलजी मेहता उज्जैन विधिमंत्री
सन् १९६२ एवं १९६३ अधिवेशन, आकोली राजस्थान श्री सोभागमलजी सेठिया निम्बाहेडा अध्यक्ष ,, भंवरलालजी छाजेड़ नीमच महामंत्री ,, माधवसिंहजी चौधरी नीमच उपाध्यक्ष एवं मास व
मेवाड़ प्रदेशाध्यक्ष ,, चन्दुभाई दससुखभाई बम्बई उपाध्यक्ष एवं गुजरात
प्रदेशाध्यक्ष ,, जेठमल खुमाजी वागरा उपाध्यक्ष एवं मारवाड़
प्रदेशाध्यक्ष , मदनलालजी कर्नावट जावरा । मालवमेवाड़ प्रदेश
महामंत्री ,, हीराभाई पारीख अहमदाबाद गुजरात प्रदेश महामंत्री , उदेचन्दजी ओखाजी आहोर मारवाड़ प्रदेश महामंत्री ,, कुन्दनमलजी काकड़ीवाला अलीराजपुर प्रचारमंत्री , राजमलजी सराफ राजगढ़ संगठनमंत्री ,, राजमलजी लोढा मन्दसौर शिक्षामंत्री ,, समीरमलजी जैन टाण्डा कोषाध्यक्ष सन् १९६४ एवं १९६५ के अधिवेशन श्री मोहनखेड़ा तीर्थ श्री सोभागमलजी सेठिया निम्बाहेड़ा अध्यक्ष , भंवरलालजी छाजेड़ नीमच महामंत्री ,, सोभागमलजी जैन टाण्डा मालव प्रांत प्रदेशाध्यक्ष ,, उदयचन्दजी ओखाजी आहोर मारवाड़ प्रांत प्रदेशाध्यक्ष ,, गगनभाई हासचंदजी संघवी अहमदाबाद गुजरात प्रांत प्रदेशाध्यक्ष ,, घेवरचन्दजी मुथा आहोर ___मारवाड़ प्रांत महामंत्री ,, छोटेलाल अमोलम देसाई थराद गुजरात प्रांत महामंत्री ,, राजमलजी सराफ राजगढ़ मालव प्रांत प्रदेशाध्यक्ष ,, शांतिलाल श्री श्रीमाल बड़नगर कोषाध्यक्ष ,, राजमलजी लोढा मन्दसौर शिक्षामंत्री , मांगीलालजी कटारिया बड़नगर विधिमंत्री
महामंत्री
जन
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जोग
श्री शांतिलालजी सुराणा रतलाम संगठनमंत्री ., शांतिलालजी भंडारी झाबुआ संयोजक १९६६-६९ ,, भंवरलालजी छाजेड़ नीमच संयोजक १९७० ,, महेन्द्रकुमार भंडारी झाबुआ संयोजक १९७१-७२ ,, हुकमचन्दजी पारेख इन्दौर संयोजक १९७३ ,, डॉ. प्रेमसिंहजी राठौड रतलाम संयोजक १९७४ ,, मदनलालजी मेहता मन्दसौर महामंत्री , ,, सुजानमलजी जैन राणापुर कोषाध्यक्ष , सन् १९७४-७५ अधिवेशन जावरा श्री डा. प्रेमसिंहजी राठौड रतलाम अध्यक्ष हकमचन्दजी पारेख इन्दौर उपाध्यक्ष तगराजजी हीराणी बंगलोर उपाध्यक्ष ,, शांतिलालजी भंडारी झाबुआ
महामंत्री ,, शांतिलालजी सुराणा जावरा कोषाध्यक्ष ,, विमलकुमारजी चौधरी खाचरोद प्रचारमंत्री ,, ओ. सी. जैन
रतलाम सह-महामंत्री श्रीमती कोकिला भारतीय खाचरोद सह-महामंत्री सन् १९७५-७६ अधिवेशन लक्ष्मणीजी तीर्थ श्री डा. प्रेमसिंहजी राठौड रतलाम अध्यक्ष
हकमचन्दजी पारेख इन्दौर उपाध्यक्ष , तगराजजी हीराणी बैंगलोर उपाध्यक्ष
सी.बी. भगत बैंगलोर महामंत्री ,, शांतिलाल सुराणा जावरा कोषाध्यक्ष ,, कुन्दनमलजी जैन अलीराजपुर प्रचार मंत्री ,, राजमलजी लोढा मन्दसौर शिक्षा मंत्री ,, ओ. सी. जैन रतलाम सह-महामंत्री श्रीमती कोकिला भारतीय खाचरोद सह-महामंत्री वर्तमान पदाधिकारी एवं कार्यकारिणी
सदस्य सन् १९७७ अधिवेशन निम्बाहेडा १. श्री भंवरलालजी छाजेड़
अध्यक्ष २. ,, हुकमीचंदजी पारेख इन्दौर उपाध्यक्ष ३. , जे. के. संघवी
थाना (बंबई) उपाध्यक्ष ४. ., सी. वी. भगत बंगलौर महामंत्री ५. ,, शांतिलाल सुराणा जावरा कोषाध्यक्ष , कुन्दनमल जैन
अलीराजपुर प्रचारमंत्री ,, राजमलजी लोढा मन्दसौर शिक्षा मंत्री ,, माणकलालजी पारीख आलोट बैंकिंग मंत्री ,, उगमसी मोदी जालौर (राज.) कार्यकारिणी
सदस्य १०. , ओटमल धर्माजी धानसा ११. , पारसमल भंडारी
सियाणा
१२. श्री चांदमलजी मोदी निम्बाहेड़ा सदस्य १३. ,, सोभागमलजी सेठिया निम्बाहेड़ा १४. ,, चम्पालाल पुखराजजी गांधी सायला १५. , तगराजजी हीराणी खेतड़ा १६. ,, शेषमलजी चिमनाजी मद्रास १७. ,, वी. टी. वजावट
मद्रास १८. ,, जीतमलजी हीराणी मद्रास १९. ,, घेवरचन्दजी भेसाली बैंगलोर २०. , चम्पालालजी तलेसरा
बैंगलोर २१. , रतनचंदजी भगवानजी कुडप्पा २२. ,, घेवरचन्दजी हजारीमलजी राजमहेन्द्री
पोरवाड़ २३. ,, जवेरचन्दजी कपूरचन्दजी एलूर २४. , छगनलालजी बुटा गुन्टूर २५. , चन्द्रकांतजी वोरा बम्बई २६. ,, तिलोकचंदजी चुन्नीलालजी बम्बई
(नेनावावाला) २७. , भंवरलालजी नांदेचा नीमच २८. ,, जेठमलजी रुनवाल जावरा (रतलाम) २९. श्रीमती प्रमिलादेवी आंचलिया जावरा (रतलाम) ३०. , प्रेमलता राठौड
रतलाम ३१. श्री फतेलालजी कोठारी रतलाम ३२. ,, डा. प्रेमसिंहजी
रतलाम ३३. , भीकमचंदजी चोपड़ा रिंगनोद (रतलाम) ३४. ,, पुखराजमल सकलेचा बड़ावदा ३५. , शांतिलालजी धीरिया पंचसाना (उज्जैन), ३६. , कन्हैयालालजी चोपड़ा बड़नगर (उज्जैन) ३७. ,, मांगीलालजी छाजेड़ धार
,, कांतिलालजी भंडारी राजगढ़ (धार) ,, शांतिलालजी केमिस्ट रिंगनोद (धार) ,, प्रकाशचन्दजी लोढा टाण्डा (धार) ,, अमृतलाल चांदमलजी बाग (धार)
,, कांतिलाल बाबूलालजी कुक्षी (धार) ४३. ,, शांतिलालजी भंडारी झाबुआ ४४. ,, प्रकाशचन्दजी छाजेड़ पारा (झाबुआ) ४५. , सुजानमलजी जैन राणापुर (झाबुआ) ४६. , मूलचन्दजी स्नवाल मेघनगर (झाबुआ), ४७. श्रीमती मधुकांता जैन अलीराजपुर
(झाबुआ) परामर्शदात्री समिति १. श्री जैन रत्न गगलदास हालचन्द भाई अहमदाबाद २. श्री कन्हैयालालजी कश्यप
रतलाम ३. श्री दरजाजी हीराणी
खेतड़ा ४. श्री लक्ष्मीचन्दजी सुराणा
जोधपुर ५. श्री खीमराजजी रखबचन्दजी
बम्बई ६. श्री सुखराजजी दानाजी
तखतगढ़ ७. श्री डाह्यालाल धनजीभाई
धानेरा
नीमच
वो.नि. सं. २५०३
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प्रतियोगिताएँ : एक रपट
नलिनकुमार संघवी
उक्त दो प्रतियोगिताओं के लिए मुझे तथा श्री शैलेन्द्र दलाल को संयोजक के रूप में नियुक्त किया गया था। ३. अ.भा. धार्मिक ज्ञानोत्तेजक प्रतियोगिता
पूर्व में आयोजित धार्मिक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता की भारी सफलता से प्रभावित होकर परिषद् ने दिनांक ६ नवम्बर को अ. भा. धार्मिक ज्ञानोत्तेजक प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। जिसके भारत के विभिन्न केन्द्रों पर परीक्षा का आयोजन होगा। प्रविष्ठियां इस प्रकार हैं:१. बैंगलोर (दक्षिण)
१२५ २. सायला (राज.)
पारा थाना (महाराष्ट्र) झाबुआ खाचरोद राणापुर रिंगनोद (धार) मेघनगर
धार्मिक ज्ञान मनुष्य के चरित्र का निर्माण कर संस्कार उत्पन्न करता है और सामाजिक व्यवस्था जो बनती है, इसके पीछे इन्हीं संस्कारों की मुख्य भूमिका होती है।
इन संस्कारों का बाल जीवन में वपन हो तो अच्छे समाज की आशा करना चाहिये। इस दृष्टि को सामने रखकर पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजय "मधुकर" ने हमें इस संबंध में प्रेरणा प्रदान की और इस दिशा में उत्साही नवयुवकों ने विशिष्ठ रूप से कार्यक्रम आयोजित किये जो अविस्मरणीय रहेंगे १. धार्मिक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता
रतलाम नगर में अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् ने दिनांक १८ सितम्बर, १९७७ को धार्मिक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन किया । प्रतियोगिता में विभिन्न विद्यालयों से ३७६ छात्र-छात्राओं ने भाग लिया तथा २७५ परीक्षार्थी सफल रहे । मुनि श्री नित्यानन्दजी विजय ने १०० प्रश्न तैयार किये थे। इन्हें मुद्रित कर प्रत्येक छात्र को पूर्व में दिये गये पश्चात् परीक्षा में २५ प्रश्न पूछे गये। परीक्षा का समय एक घण्टा था। इस प्रतियोगिता की मुख्य विशेषता यह थी कि सभी जाति, सम्प्रदाय के छात्र-छात्राओं ने इसमें भाग लिया और सफलता अर्जित की। उनमें प्रमुख थे बोहरा,अग्रवाल, माहेश्वरी, महाराष्ट्रीय, ब्राह्मण, राजपूत, सिक्ख, मुसलमान, सिन्धी आदि।
उत्तर पुस्तिकाएं पूज्य मुनिराज श्री द्वारा परीक्षित हुई, रतलाम के पुलिस अधीक्षक श्री ए. एन. सिंह ने पुरस्कार वितरण किये। सर्वाधिक प्राप्त करने वाली छात्रा कु. सुमन श्रीश्रीमाल थी उसने एक अलार्म घड़ी पुरस्कार में प्राप्त की । अन्य सफल प्रतियोगियों ने प्रावीण्यानुसार पुरस्कार प्राप्त किये । लगभग १५ पुरस्कार वितरित किये तथा प्रत्येक सफल प्रतियोगी को प्रमाण-पत्र प्रदान किया गया ।
इस प्रतियोगिता से प्रभावित होकर नगर के दिगम्बर जैन समाज ने भी इसी प्रकार एक प्रतियोगिता का दिनांक २५-९-७७ को आयोजन किया। २. निबन्ध प्रतियोगिता
दिनांक २-१०-७७ (राष्ट्रपिता बापू जन्म दिवस) को एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन केन्द्रीय परिषद् ने किया जिसमें ८८ प्रतियोगी थे। जो १५ वर्ष से ऊपर के थे । विषय इस प्रकार थे:
१. वर्तमान युग में महावीर वाणी का महत्व, २. युवा पीढ़ी और धार्मिक भावना, और ३. मानव जीवन में धर्म का महत्व ।
निबन्ध प्रतियोगिता में राजस्थान के श्री बसन्तीलाल बागरा ने प्रथम स्थान अजित किया।
१५.
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अलीराजपुर कुक्षी टाण्डा धार नीमच जालोर (राज.) सुराणा (राज.) थराद (गुजरात) आलासन (राज.) जावरा बड़ावदा बदनावर बड़नगर रतलाम भाटपचलाना पिपलोदा रिंगनोद (रतलाम) राजगढ़ कुशलगढ़
कुल
८९७
६८
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'शाश्वत धर्म' : पाक्षिक
सुरेन्द्र लोढा
'शाश्वत धर्म ने वाङमय और विधा के बन्धनों से दूरियाँ स्थापित कर विभिन्न क्रांतियों के ऊंचे स्तर से टकराने का प्रयास किया । एक चौथाई शताब्दी के समय फासले में शाश्वत धर्म की मूक वाणी विभिन्न विषयों को प्रतिपादित करती रहीं, दर्शन-चिन्तन तथा संस्कृति के लिये सामग्री जुटाती रही, सामाजिक परिवर्तनों की रेखाओं को जागृति से परिपूर्ण बनाती रही एवं जीवन के शाश्वत मल्यों के लिये वैचारिक तरंगों का प्रगहन करती रही। 'शाश्वत धर्म' ने समग्र जैन संस्कृति को परिमाजित करने का उपक्रम एक कर्तव्य की तरह निर्वहित किया। उसका अभिषेक साहित्यवेदी को पवित्र बनाता रहा। विचारोत्तेजित धाराएँ बार-बार जीवन धरातल की सीमाएँ तैयार करती रहीं।
ईस्वी सन् उन्नीस सौ बावन में पूज्य गुरुदेव स्वर्गीय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के रूप में 'शाश्वत धर्म' को उदार संस्थापकदेव प्राप्त हुए । स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव का साहित्य अनुराग जैन समाज के लिये एक गौरवशाली परिप्राप्ति है। आपके निर्देशन में ही अभिधान राजेन्द्र कोष का मुद्रण कार्य सम्पन्न हुआ और साहित्य पटल पर उसकी दीप्ति स्थिति निर्मित हो पाई। शाश्वत धर्म ने प्रथम अंक से ही सामाजिक चेतना के आन्दोलन का श्रीगणेश किया। यह आन्दोलन अपनी विभिन्न परतों से आयोजित कर अग्रशील होता गया। _ 'शाश्वत धर्म 'के पृष्ठों में किस विषय ने महत्व प्राप्त नहीं किया? राष्ट्रीय चेतना, समाज सुधार, संस्कृति-उत्थान एवं संगठनात्मकअभ्युदय का प्रत्येक स्वर वर्णमाला के अक्षरों के माध्यम से उतरकर साकार हुआ। प्रारंभ से ही तूफानों ने इसे डगमगाने की कोशिश की, आँधियाँ इसे इसके मार्ग से विचलित करने के लिये बढ़ीं, किंतु गुरुदेव श्री की कृपा ने पूर्व में और पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर' के स्नेहसिक्त अनुग्रह ने इसे जीवन्त बनाये रखा। श्री सूरजचंदजी डांगी 'सत्यप्रेमी' का इसके प्रथम सम्पादक के रूप में उल्लेख किया जाना प्रासंगिक है। निम्बाहेड़ा (जिला चित्तौड़गढ़, राजस्थान) से इसका प्रकाशन हुआ। सामाजिक पत्र होने के कारण सम्पादक मण्डल में क्रमगत परिवर्तन आया। श्री दौलतसिंहजी लोढा, श्री सौभाग्यसिंहजी गोखरू, श्री परदेशीजी, श्री शिवनारायणजी गौड़, श्री लक्ष्मी चंद्रजी जैन तथा पं. श्री मदनलालजी जोशी इसके सम्पादक मण्डल में रहे । श्री कुन्दनलालजी डांगी ने प्रबंध सम्पादक का कार्यभार निर्वहित किया। उनकी कर्मठता के कारण शाश्वत धर्म की परम्परा शृंखलावत होती गई। हर अंक ने एक कड़ी के रूप में जुड़ना प्रारंभ कर दिया। १९६१ में अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् ने पूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज 'मधुकर' की प्रेरणा से 'शाश्वत धर्म' को मखपत्र के रूप में स्वीकृत किया। श्री सौभाग्यमलजी सेठिया को सम्पादक पद का दायित्व
सौंपा गया एवं प्रकाशन कार्यालय का स्थानान्तर मंदसौर (म. प्र.) पर हो गया। श्री राजमलजी लोढा को प्रकाशक के रूप में मनोनीत किया गया । उपरांत श्री सुरेन्द्र लोढा भी सम्पादन कार्य में सम्मिलित किये गये। जो वर्तमान में इस उत्तरदायित्व को पूर्ण कर रहे हैं। वर्तमान में श्री सौभयग्यमलजी सेठिया एवं श्री सुरेन्द्रजी लोढा 'शाश्वत धर्म' के सम्पादक हैं। सम्पादक मण्डल में कलम के कुशल लेखकों के हस्ताक्षर प्राप्त कर शाश्वत धर्म समाज का सद्भावपात्र बन गया। ___शाश्वत धर्म के विशेषांकों की अनूठी परम्परा रही है । इस पत्र ने कई विशेषांक प्रकाशित किये, जिन्हें काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई। परिषद् के अधिवेशनों के अवसर पर जो विशेषांक प्रकाशित हुए उनमें खाचरौद, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जावरा, श्री लक्ष्मणी तीर्थ तथा निम्बाहेड़ा में सम्पन्न परिषद् अधिवेशनों की गणना की जा सकती है । स्वर्गीय गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में समाधि मंदिर की प्रतिष्ठा तथा वर्तमानाचार्यदेव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के आचार्य पाटोत्सव की स्मति में शाश्वत धर्म का १६० पृष्ठों का विशेषांक प्रकाशित हआ। आकोली (जिला जालोर),राजस्थान में आयोजित श्री आदीश्वर जिनेन्द्र प्रतिष्ठोत्सव की सम्पूर्ण कार्यवाही को चित्रित करते हुए 'शाश्वत धर्म' का जो विशेषांक प्रकाशित हुआ उसकी पृष्ठ संख्या १६४ है। कामठी (महाराष्ट्र) में श्री आदीश्वर जिनेन्द्र प्रतिष्ठोत्सव के महत्वपूर्ण महोत्सव के कार्यक्रमों को समाज तक पहुँचाने के लिये शाश्वत धर्म ने १०२ पृष्ठों का विशेषांक समाज को अर्पित किया। सूरा (जि. जालोर) के प्रांगण में श्री पाच जिनेन्द्र प्रतिष्ठोत्सव की जानकरियाँ लेकर ८६ पृष्ठों का विशेषांक 'शाश्वतधर्म' ने पाठकों तक पहुँचाया। श्रीमद् राजेन्द्रसूरि अर्द्ध शताब्दि समारोह के अवसर पर भी डेढ़ सौ पुष्ठों का विशेषांक प्रकाशित हुआ। 'शाश्वत धर्म' के विशेषांक उत्सवों तथा आयोजनों तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि श्री सम्मेत शिखर तीर्थ को अधिगृहीत करने का आपत्तिजनक कदम जब बिहार, राज्य सरकार ने उठाया तब शाश्वतधर्म' का 'श्री सम्मेदशिखर सुरक्षा विशेषांक' क्रांति-वाणी लेकर सामने आया। इस विशेषांक में १०४ पृष्ठ हैं । 'गाश्वत धर्म' का वृहद् विशेषांक तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी की स्मृति में उनके २५०० वें निर्वाण वर्ष के उपलक्ष में प्रकाशित हुआ। इसमें पांच सौ पृष्ठ हैं तथा जैन पत्र-पत्रिकाओं द्वारा इस स्मृति में प्रकाशित समस्त विशेषांकों में यह विशालता की दृष्टि से सर्वोच्चता का दावा कर सकता है।
वर्तमान में शाश्वत धर्म पाक्षिक रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके पच्चीस वर्षीय अंकों में जो विभिन्न विषयों पर सामग्री प्रकाशित
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हुई है, उसके विभिन्न अंशों का यहां आलेखन किया जाना भी प्रासंगिक होगा--
अगर प्रबल शक्ति प्राप्त करना है तो गम्भीरता और धीरता से अपने पैरों पर खड़े रहना सीबो, दूसरों के आश्रय की राह न देखो । सम्पूर्ण शक्तियों का सम्बन्ध दृढ़ता पर निर्भर है, यदि बार-बार भी असफलता मिले तो भी निराश नहीं होना चाहिये। अपने पक्ष से विचलित होकर आय की अपेक्षा रखना कर्तव्यनिष्ठ पुरुषों के लिए शोभाजनक नहीं है। जब तक आत्मा निर्भय न हो, अपनी शक्ति को न समझ ले, तकलीफों को न सह ले और सत्यमार्ग पर अटल न रहे तब तक वह किसी जगह आराम नहीं पा सकती और न कोई कार्य कर सकती।
-पू. आचार्य श्रीमद् यतीन्द्र सूरि
(अंक जनवरी, १९६०)
कर्म का फल अटल है। 'कडाण कम्माण ण मुक्ख अत्थि' किये कर्मों को भोगे बिना छुटकारा असम्भव है। खून किया तो फांसी ही होगी । सामायिक करने से धैर्य और सहन शक्ति मिलेगी परन्तु फांसी नहीं बच सकती। निराश्रित कर्म नहीं हुए तो मूली का सिंहासन और आग का जल भी हो सकता है पर सीता तथा सुदर्शन को मोक्ष नहीं मिला । मोक्ष तो गज सुकुमार को ही प्राप्त हुआ। सिर पर रखी हुई आग फूल नहीं बनी। (संपादकीय)
-सूरजचन्द डांगी 'सत्यप्रेमी'
(अंक जुलाई, १९६१)
प्रेम तो वहीं होता है जहां राग नहीं होता। ममता मिटी कि समता आई। आत्म-निरीक्षण कर बताएं कि प्रतिवर्ष आ कर मैत्री का सन्देश देने वाले पर्दूषण पर्व की सभी आराधना कब हो सकेगी?
-शांतिदास डांगी 'सत्यदास'
(अंक सितम्बर, १९५७)
महाविभूति शासन-प्रभावक, स्व-पर समयज्ञ जैन-जनेतर सभी विषयों के मर्मज्ञ जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की अमर आत्मा इस पार्थिव शरीर को छोड़ देने पर भी विश्व में एक अनोखी देन जो दे चुकी है, वह संसार के लिये चिरस्मरणीय रहेगी। आपका निर्मल यश इतिहास के पृष्ठों पर सदा उज्ज्वल सितारों की भांति चमकता रहेगा। आपका जीवन अनेक शासन प्रभावना के कार्यों से ओतप्रोत रहा। (स्व. गुरुदेव श्री के स्वर्गवास पर लिखित श्रद्धांजलि से)
-पुनि पाल्याण विजय (स्व.)
(अंह फरवरी, १९६१)
जो आत्मा अपने आत्मबल पर मुस्ताक बन कर कर्म-सत्ता के सामने अहिंसा, सत्य, अस्तेयादि सात्विक आयुधों से सज्ज होकर क्षमा रूपी तलवार लेकर साधना रूप मैदान में कर्मसत्ता से संग्राम कर उसके दुर्भेद्य दुर्ग को भेद कर विजयी बन कर मोहराज और उसके सैन्य को भगा देती है, वही आत्मा आत्म-विकास के चरम चरण को प्राप्त कर सकती है और वही आत्मा वीर है, महावीर है।
-मुनि देवेन्द्र विजय
(अंक नवम्बर, १९५७) महापुरुष जब जन्म लेते हैं तो उनके साथ ही उनकी जीवन कहानी का भी जन्म होता है। उनका जीवन यहां विकास पाता है और जब वह संसार यात्रा पूरी कर परलोक गमन करते हैं तो अपनी कहानी संसार में छोड़ जाते हैं, जो जनजीवन के मन और मस्तिष्क में अपना घर कर लेती है। उनकी जीवन कहानी से दूसरों को मार्गदर्शन होता है।
(संपादकीय) -कुन्दनमल डांगी
(अंक मई, १९५७) __जीवन में अमृत है और महारसायन स्वरूप परम उदार भावों के संगम से महदानन्द की अनुभूति ही, उसका परिणाम है। उस अनुभूति का आदर्श प्रदर्शन ही नहीं किंतु आस्वाद का आनन्द प्राप्त करने के लिए कह रहे थे वे उपास्य अपने निकटतम उपासकों की स्थिति ऐसी है अभी, तमसाकृत अभी सारा स्थल हो जावेगा और इसलिए कटिबद्ध हो जाओ एवं 'दीपक में भर लो तैल ।'
-मुनि जयन्तविजय 'मधुकर (अंक सितम्बर, १९६१)
शाश्वत धर्म पाक्षिक, मासिक विभिन्न रूपों में आत्मा में सबसे बड़ी मलीनता है अज्ञान की । आत्मा के स्वरूप को भूल जाना और अनात्मी भावों या पदार्थों को अपना याने आत्मा मान लेना ही मिथ्यात्व या अज्ञान है। जो पदार्थ अपने नहीं हैं, उन पौद्गलिक पदार्थों को अपना मान लेने से ही सारी गड़बड़ हो जाती है। जैसे धन, जन, शरीर आदि अपने नहीं हैं।
-अगरचन्द नाहटा (अंक जून १९५९)
-- राष्ट्रीय जीवन की सफलता प्रामाणिकता एवं उन्नत चरित्र पर निर्भर है। देश में हिंसक प्रवृत्तियों व गतिविधियों के कारण
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जिस अराजकता का जन्म हुआ है, वह हमारी सही जीवन पद्धति के प्रति उदासीनता के कारण है। भारत जैसे आध्यात्मिक देश का व्यक्ति यदि अपने कर्त्तव्यों से भ्रष्ट होता है तो यह हमारे उज्ज्वल भविष्य का परिचायक नहीं है।
अनुशासन हमारी जीवन प्रणाली में होना चाहिये । अनुशासनहीनता के कारण हमारे व्यक्तिगत एवं समूहगान जीवन में विकृतियां आ गई हैं। आखिर भारत का आम नागरिक अपने दैनिक जीवन
में
-संपादकीय से
( अंक सितम्बर १९७०)
अनुशासन को छोड़ कर विकास की अपेक्षा कैसे करता है। भारत आज कानून, नियम तथा संविधान के पालन की ओर तभी प्रवृत्ति हो सकता है जबकि यहां का हर व्यक्ति मर्यादा व अनुशासन को माने । - सम्पादकीय से
(जून १९७१ अंक)
हमारी सामाजिक कुरीतियां हमें खोखला बनाये आ रही हैं। देश में दहेज के विरुद्ध जो चेतना उठी है, युवा शक्ति उसका डर कर विरोध कर रही है एवं सार्वजनिक तौर पर उसके उच्छेदन का संकल्प ले रही है, पर शुभ लक्षण है दहेज के कारण देश का कमजोर वर्ग गिरता जा रहा है। इस गिरावट को रोक कर हम उसे उसके आर्थिक विकास का रास्ता दिखा सकते हैं। -संपादकीय से ( अंक अगस्त, १९७६)
शराब बग्दी के रूप में देश को अब पवित्र आचरण की ओर प्रवृत्त होने का एक पवित्र मंत्र मिल गया है। शराब की बढ़ती हुई प्रवृत्ति ही देश को पतन के गर्त में ले जा रही है। शराब बन्दी का मंत्र हम अधिकाधिक व्यापक बनावें और हमारा जीवन पवित्रता की ओर बढ़े, यह आवश्यक है । -सम्पादकीय से ( अंक फरवरी, १९७७ )
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चीन ने आक्रमण कर भारत के शूर सपूतों को ललकारा है । अहिंसा-संस्कृति में विश्वास करने का तात्पर्य कायरता नहीं है । कर्त्तव्य पथ पर देश तथा संस्कृति की रक्षा के लिए शस्त्र भी उठाये गये हैं । अपनी जन्मभूमि पर हम आततायियों को सहन नहीं कर सकते। राष्ट्र एकजुट हो तथा राष्ट्रीय रक्षा कोष की झोली को लबालब परिपूरित कर दे। - सम्पादकीय से ( नवम्बर, १९६२ के अंक से )
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सन्तों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे श्रावक-समाज को एक सूत्र में बांधे और उन्हें संगठन का महत्व बतलायें। छोटे-छोटे दृष्टांतों द्वारा धर्म के वास्तविक तत्व को उनके दिलों में उतारने का सद्प्रयत्न करें। अपने प्रवचनों में ऐसी कोई बात न आने देनी चाहिये जो साम्प्रदायिकता के विष को फैलावे और जो समाज के लिये अहितकर व अरुचिकर हो । - सम्पादकीय से -सौभाग्यसिंह गोखरू ( अगस्त, १९५९)
WIT
शाश्वत धर्म विशेषांक विविध रूपों में
सावधान ! खबरदार !
जाग उठा है जैन समाज
Sum
बिहार सरकार ने शिखरजी पर कब्जा किया और जैन समाज ने संघर्ष के लिए कमर कसी।
- सम्मेत शिखर रक्षा विशेषांक में शीर्षक ( अंक दिसम्बर, १९६४)
परिषद् के पदाधिकारियों ने गुरुदेव से आशीर्वाद प्राप्त कर परिषदों के निरीक्षणार्थ दौरे प्रारम्भ किये जैन संस्कृति पुन: पल्लवित करने हेतु जगह-जगह पाठशालाएं स्थापित होने लगी- कई स्थानों पर वाचनालय, पुस्तकालय स्थापित हुए। भाषणमालाएं चलीहस्तलिखित पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ और वे समाज के अग्रज, श्रेष्ठिवर्गों द्वारा सम्मानित तथा पुरस्कृत हुई ।
- सौभाग्यमल सेठिया ( मई-जून, १९६४ )
उपासना के द्वारा उपासक अपने उपास्य की प्राप्ति करता है तथा उपासना के लिए जो साधन है उनमें मूर्तिपूजा सर्वोत्कृष्ट साधन है । जिनालय में जाकर जिस आत्मशांति का अनुभव साधक को होता है, यदि वह शांति उसके जीवन में उतर जाए तो साधना सदैव के लिए सार्थक हो जाती है। जिनेश्वर के गुणगान और उनकी स्तवना के द्वारा 'सिद्धा सिद्धि मम दिसन्तु' की मांग का भावोल्लास ही उसे धर्माराधन की उच्च भूमिका पर ले जाकर स्थापित कर देता है (सदीय से' )
- सुरेन्द्र लोढ़ा ( अंक सितम्बर, १९६५ )
शाश्वत धर्म के विशेषांकों की अपने परम्परा रही है। जाज्वल्यमान श्रृंखला की यह कड़ी किती प्रभावपूर्ण है, इसके सही परीक्षक हमारा विशाल पाठक वर्ग है। हम अपने समस्त प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगियों के प्रति हार्दिक आभारी हैं। (सम्पादकीय)
- २५०० वां निर्वाण वर्ष विशेषांक ( सितम्बर, १९७६ )
पाक्षिक 'शाश्वत धर्म' समग्र जैन जन गण के प्रखर प्रवक्ता रूप में निखर कर समाज की धारा को शाश्वत आध्यात्मिक तथा नूतन परिष्कृत मूल्यों के साथ जोड़ना चाहता है।
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परिषद् के चार उद्देश्य * समाज संगठन : धार्मिक शिक्षा प्रचार - समाज सुधार
: आर्थिक विकास
चार दिशाओं से उठी आवाज विश्व के कण-कण में व्याप्त हो भूतल को गुंजित कर देती है, चार कोनों से झंकृत स्वर पूरे प्रांगण में संदेश प्रदान करते हैं और चार उद्देश्यों से बनी योजना समाज के भविष्य को यशस्वी बनाती है। श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के चार उद्देश्य आज समाज की उन्नति और प्रगति के लिए उन हिल्लोर खाती तरंगों और लहरों के समान है जो बंजर भूमि में प्रवाहित होकर जन-जन को शांति और सुख प्रदान करती है।
समाज संगठन संगठन युग की मांग है और समय की आवाज विगठित समाज उस रूपमती भिखारिन के समान है जो दर-दर की ठोकरें खा कर विश्व में अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है। वह समाज जो प्रेम और सद्भाव के प्रति लगाव न रखती हो, जिसे संगठन में विश्वास न हो वह इस बीसवीं सदी के वातावरण में जीवित रह सके यह बिलकुल असंभव है। निरे स्वप्न के अलावा कुछ नहीं । आज विश्व के अस्तित्व के लिए भी भावनात्मक एक्यता, बन्धुत्व भाव और सहृदयता पर जोर दिया जाने लगा है। आज प्रत्येक राष्ट्र अपने को प्राणवान बनाये रखने के लिए विभिन्न भाषा, धर्म, संस्कृति और सभ्यता के आराधकों के बीच की दिवालें तोड़ कर पास-पास लाने का प्रण प्राण प्रयत्न करने लगा है। वहां एक ही धर्म, एक ही विचार और एक ही आचार के मामने वाले संगठन से दूर और विषमताओं के पास जाते रहें यह एक विडम्बना ही है। युवक समाज की सम्पत्ति है तथा वर्तमान और भविष्य का सुन्दर संचालन ही उसी के हाथों सन्निहित है। युवकों की सुदृढ़ता और निष्ठा ही समाज के भावी भविष्य के लिए अपेक्षित है । जिस समाज के नवयुवक अपने कर्तव्यों को भूल कर भौतिकवादी अन्धकार की गलियों में भटक गये उस समाज की पौ बारह पच्चीस ही समझिए। जिन नवयुवकों ने समाज के बुजुर्गों के आशीर्वाद से समाज संचालन नहीं सीखा उनकी समाज का विकास हो सका हो यह न भूत में सम्भव हुआ न वर्तमान में हो सका न भविष्य में हो सकेगा। इसलिए परिषद् ने समाज के निष्ठावान कार्यकर्ताओं का जिनमें समाजसेवा और समाजोत्थान के लिए एक लगन थी संगठन किया और समाजोन्नति के लिए उन्हें संदेश दिया परिषद् का प्रथम उद्देश्य 'समाज संगठन' है। इसका तात्पर्य यही है कि समाज की विषमताओं, झगड़े-टन्टों तथा मतभेदों का समापन हो और संगठन की शीतल पावन धारा प्रवाहित हो जिससे समाज का सब मैल धुल जाय और वह उज्ज्वलित रूप में विश्व के सम्मुख प्रस्तुत हो । जब तक संगठन नहीं होगा। समाज के विकास की बात सोचना केवल हवाई किलों के अलावा कुछ नहीं। अतएब परिषद् को सहयोग देकर सबल बनाना समाज के संगठन को ही नहीं अपितु अस्तित्व को भी मजबूत बनाना है।
धार्मिक शिक्षा समाज के संगठन के बाद उसके सुसंचालन और उसकी सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसका प्रत्येक बालक, प्रत्येक किशोर और प्रत्येक युवा शिक्षित हो, उसमें धर्म के सिद्धांतों की शिक्षा कूट-कूट कर भरी हो जिससे वह स्वतंत्रतापूर्वक समाज के भविष्य पर सोच सके । इस हेतु ग्राम और नगर-नगर में पाठशालाओं का संचालन अपेक्षित है। धार्मिक शिक्षा प्रसार हेतु पाठशालाओं की स्थापना करना परिषद् का प्रमुख उद्देश्य है तथा इसके द्वारा ही समाज के बालकों में धार्मिक संस्कार पैदा किये जा सकते हैं। पाठशालाओं के साथ-साथ युगकालीन पाठयक्रम भी होना चाहिये। इनके अलावा जैन दर्शन के प्रचार तथा प्रसार के साहित्य प्रकाशन का लक्ष्य हो । इन्हीं समस्त उपलब्धियों की प्राप्ति हेतु परिषद् द्वारा द्वितीय उद्देश्य धार्मिक शिक्षा प्रसार कर रहा जिससे कि समाज की हर प्रकार से प्रगति होती रहे।
___ समाज सुधार अन्ध-विश्वास तथा अन्धानुकरण के वशीभूत हो समाज में चल रही रूढ़ियों तथा रीतियों में जो समाज की नींव को हिला रही है जब तक समूल परिवर्तन नहीं हो जाता आदर्श समाज का स्वप्न भी साकार नहीं हो सकता। समाज के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए इन कुप्रथाओं के स्थान पर सुप्रथाओं का संचार होना ही चाहिए । समाज में सुरीतियों तथा सुरूढ़ियों के संचार से ही समाज प्रगतिशीलता की सीढ़ियों को पार कर सकता है। इसलिए परिषद् का तृतीय ध्येय समाज सुधार से संबंधित रहा ताकि पुराने अन्य रिवाजों और तरीकों में परिवर्तन किया जा सके। बिना इस क्रांति के समाज आज के प्रगतिशील युग में जीवित नहीं रह सकती यदि उसे शान और आन से जिन्दा रहना है तो अपनी संस्कृति की रक्षा करते हुए समय के साथ चलना पड़ेगा।
आर्थिक स्थिति का विकास आज समाज के कई व्यक्ति आर्थिक थपेड़ों की मारों से कराह रहे हैं।। उनकी आर्थिक स्थिति के विकास के लिए योजनाएं बनना ही चाहिए। लघु उद्योग, गृह उद्योग और कुटीर उद्योग के प्रचार से इस गिरी हुई स्थिति को ऊंचा उठाना चाहिये। एक ऐसी आदर्श कमशियल बैंक होना चाहिए जिससे समाज का मध्यमवर्गीय समुदाय लाभान्वित हो सके। इन्हीं सब स्थिति को दृष्टिगत कर और इन्हीं सब योजनाओं को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए परिषद् का चतुर्थ उद्देश्य समाज के मध्यम वर्ग का आर्थिक विकास रहा । समाज में आर्थिक विकास के लिए योजनाएँ प्रारम्भ करना इसका ध्येय रहा।
इस चतु:दिव्य उद्देश्यों पर परिषद की स्थापना हई है, वर्तमान में उसका शिशुकाल है तथापि उसके द्वारा इनकी सम्पूर्ति हेतु समुचित प्रयत्न किये गये हैं। इनकी सफलता और सबलता तभी निर्भर है जब कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसमें योगदान देकर इसकी प्रगति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहे।
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यज्ञ का घोड़ा
मनुष्य के अहंकार-अभियान की कही सीमा है ? मानो सारी दुनिया के जीवों में वही बुद्धिमान है धर्म कर्म में मानो वही समझता है ज्ञान व ध्यान का मानो वही स्वामी है ? पाप पुण्य के विवेचन में वही पारंगत है।
हमें शीघ्र भृगुच्छ (मोच) पहुंचना है। भगवन ! ऐसा क्या आवश्यक है ?
भंवरलाल नान्देचा
एक दिन बीसवें तीर्थंकर (मुनिसुव्रतस्वामी) ने अपने बड़े गण धराशिष्य ने मानो मनुष्य का यह घमण्ड उतारने के लिए ही न कहा हो
में जंगल हैं । कई गहन वन हैं। आती हैं। गणधर देव ने कहा ।
भृगुकक्छ क्या यहीं है ? ठीक ढाई सौ योजन दूर है । बीच समुद्र समान सरिताएं बीच में
बीसवें तीर्थंकर ने कहा- इन सबको मार करके भृगु कच्छ पहुंचना है एक भाग्यवार जीव को प्रतिबोध देना है । बहुत जरूरी है ।
स्वयं भगवान जिसके कल्याण के लिये इतनी चिंता करते हैं उस भाग्यवान व्यक्ति का नाम क्या है ? क्या वह मनुष्य है या देव है ? प्रभो ! उसके तो भाग्य खिल गये । बड़े गणधर ने पूछा । प्रभु ने कहा- वह न मनुष्य है न देव है । वह तो तिर्यंच प्राणी है ।
जानवर । और उसे प्रतिबोध देने के लिए प्रभु इतना लंबा प्रवास करने को तैयार हुए हैं। गणधर के आश्चर्य की सीमा न रही।
जो बांधे, उसी की तलवार, जो धारण करे, उसी का धर्म, इतना कहकर प्रभु ने अपने शिष्य समूह के साथ विहार प्रारंभ किया । ढाईसो योजन का रास्ता बरसती हुई आग में या जोर से चलती हुई हवा में नंगे पैर या खुले सिर प्रभु ने वह रास्ता तय
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किया और कच्छ आ पहुंचे वहां कोरंट वन में ठहरे और धर्मसभा (समवसरण हुई।
भृगुकच्छ बड़ा नगर है। राजा का नाम जितशत्रु है । इस बड़े नगर के बड़े राजा ने स्वर्गवासी देवों का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये एक बड़ा यज्ञ किया है। उसने दूर-दूर के देशों से वेद और वेदों के जानकार कई ब्राह्मणों को निमंत्रित किया है। सात पवित्र नदियों से पानी मंगवाया है । और कितना ही थी, अन्न तथा पकवान तैयार करवाया है। भेड़ों और बकरों की संख्या है अगणित । ये सब यज्ञ में होम के लिये हैं, अग्नि की गगन गामिनी ज्वालाएं प्रकट हो चुकी थी ।
अग्नि देवताओं का मुख कहा जाता है। सभी यह मानते थे कि इस अग्निमुख के द्वारा देवता अपनी बलि लेते हैं और बदले में बलि देने वाले की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं।
ऐसे बड़े यज्ञ में जिसे अश्वमेघ यज्ञ कहते हैं अंतिम दिन सर्वांग सुन्दर घोड़ा भी अग्नि में होमा जाता है । यह घोड़ा यज्ञ का अश्व कहा जाता है। इस घोड़े को स्नान कराकर खूब श्रृंगार सजाये जाते हैं उसे स्वर्ण के गहने तथा जरी के वस्त्र पहनाये जाते हैं। और उसे पुष्पहार से लादकर खुला छोड़ दिया जाता है।
वह घोड़ा मनमानी जगह पर घूमता है जहां उसे जाना हो वहां वह जाता है और जहां उसे चरना हो वहां चरता है चाहे वह गन्ने का खेत में, चाहे अनाज के भरे खेत में घूमे। चाहे वह किसी चरागाह में चरता रहे। नगर में गांव में या जंगल में जहां उसे घूमना हो वहां वह घूमता है और चरता है उसे कोई पकड़ता नहीं, रोकता टोकता नहीं अथवा निकालता भी नहीं । जो उसे पकड़ता है, निकाल देता है उसे राजा दण्डित करता है और उस घोड़े के साथ राजा की सेना भी रहती है ।
कोरंटवन में यज्ञ का वह घोड़ा घूम रहा था वहीं बीसवें तीर्थकर ने अपनी धर्म सभा में उपदेश देना प्रारंभ किया । वन
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पालक ने शहर में जाकर बधाई दी कि प्रभु पधारे हैं। राजा भी स्वर्ण रथ में बैठकर बड़ी शान से वहां आया । सामंत तथा सरदार भी बड़े आनन्द से वहां आये । पंडितजन पालकी में बैठ कर शिष्य समूह से शोभित वहां पधारे । नगर के स्त्री पुरुष भी वहां उपस्थित हुए। वषदा में (सभा में) खाली जगह न रही ।
यज्ञ का घोड़ा भी घूमता-घूमता वहां आ पहुंचा । आकर एक कोने में शांति से खड़ा हो गया। उसके मनोहर कान ऊंचे हो गये। मानो वह भी भगवान के उपदेश अमृत का पान कर रहा हो । सभा में तो सभी तरह के मनुष्य होते हैं । घोड़े को इस तरह खड़ा हवा देखकर कुछ लोग हंसे और मजाक में बोले यह पशु क्या समझता होगा? भगवान की वाणी समझना क्या आसान काम है ? बड़े-बड़े ज्ञानी भी नहीं समझ पाते।
गंगा नदी के स्वच्छ प्रवाह की तरह प्रभु की वाणी अमृत धारा-सी बह रही थी । सागर में सरिता समा जाती है वैसे ही प्रभु की वाणी भी नीरव शांति में समा गई सभी उठने की तैयारी में थे कि बड़े गणघर ने भगवंत से पूछा
हे प्रभु ! आपके आज के उपदेश से कौनसा नया प्राणी धर्म को प्राप्त हुवा? प्रश्न बड़ा जिज्ञासा जागृत करने वाला था। सभी अपने नये स्वधर्मी बंधु का नाम जानने को उत्सुक थे। बीसवें तीर्थंकर ने गंभीर स्वर में कहा-आज के मेरे उपदेश से जिस शत्रु राजा के भगवन कहते कहते जरा ठहरे । राजा अपना नाम सुनकर प्रसन्न हो उठा। सभा भी सोचने लगी कि बड़े के भाग्य बड़े । भगवान ने भी इस तरह बड़े को अपना शिष्य बनाया। किंतु भगवान ने अपूर्ण वाक्य को पूर्ण करते हुए कहा-आज के मेरे उपदेश से जिन शत्रु राजा के यज्ञ के घोड़े के सिवाय और किसी को भी धर्म प्राप्त नहीं हुवा । उसे योग्य जीव जानकर ही मैंने ढाई सौ योजन का रास्ता तय किया है। मेरा श्रम सफल हुवा।
प्रभु की वाणी सुनकर सारी सभा ने शर्म महसूस की । राजा को काटो तो भी खून न निकले । सभी सोचने लगे, मनुष्य से भी पश अधिक अच्छा है। अरे ? हमारा मनष्यत्व का अभिमान ही व्यर्थ है। सचमच पशु तो पश् ही है पर हम तो पशुता धारण कर बैठे हैं। एक दूसरे को कष्ट देते हैं । एक दूसरे की चोरी करते हैं और एक दूसरे को मारते हैं। वे तो जन्म से पशु हैं पर हम तो आचरण से पशु बने हुए है।
भृगु कच्छ के राजा ने भरी हुई पर्षदा में खड़े होकर कहाहे प्रभु ! धन्य आपकी वाणी ! मनुष्य से भी पशु का हृदय इतना
नरम । उस हृदय की आपको इतनी चिंता ? इसके लिये आपने कैसा पंथ काटा ? यह घोड़ा आज से मेरा स्वधर्मी बंधु बना । इस मूक प्राणी का यज्ञ में होमकर में स्वर्ग देना चाहता था । मैं कैसी मूर्खता कर रहा था ? पर आज आपके उपदेश से हम सभी समझ गये कि जीवन सबको समान रूप से प्रिय है। धर्म में मानव तथा पशु का भेद नहीं है। हमारे पाप दूसरों की हत्या से मिथ्या नहीं होंगे । सच्चा यज्ञ तो आत्मा का होता है, इसमें काम-क्रोध रूपी पशुओं का हवन करे तभी स्वर्ग मिल सकता है। आज तक यह धोड़ा यज्ञ के लिए था, आज से मैं हमेशा के लिये बंधन मुक्त करता हूं।
घोड़ा भी कैसा है । खड़ा खड़ा मानो वचनामृत पी रहा है । मूक प्राणी को वांचा नहीं है पर आंखो की भी एक भाषा तो है न ? उस भाषा में वह बहुत कुछ कह रहा है।
बीसवें तीर्थकर तो आषाढ़ के भरे हुए बादल की तरह बरस कर चले गये । वह घोड़ा भी बंधन मुक्त हो गया। पर वह तो अस्तबल छोड़कर कहीं न गया ।
वह अब हरे खेत या जंगलों में नहीं भटकता, गंदे पानी में मुंह नहीं डालता, अपने घास चारे में से भी अशक्त और पंगु पशुओं को खिलाता है क्या ही उसकी शांति है और कहते हैं । "वाह भाई बड़ा धर्मी घोड़ा है यह तो।" ___अपनी जाति के और अपने सभी काम खुद करता है। सुख
और दुःख में प्रीति और विरोध में मन को समान रखता है। छोटे बच्चे भी उसके पैरों के पास निर्भय होकर खेलते हैं भगवान के मरत को उनको कल्याण करने वाली वाणी को वह हमेशा याद करता है तथा जहां पर पर्षदा भरी गई थी वहां जाकर रोज प्रदिक्षणा देता है।
आयु पूर्ण होने पर वह शांति से अपनी देह छोड़ता है । उस स्थान पर नगर जन तीर्थ की रचना करते है वह स्थान आज भी लोगों में उच्च बोधि तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है ।
इस तीर्थ की यात्रा को आने वाले सभी यात्री यही भावना करते हैं-यह पशु तथा यह मनुष्य, ऐसे संवेग तथा पूंछवाले भेद ठीक नहीं है जन्म से नहीं पर आचरण से ही मनुष्य मनुष्य बन सकता है। धर्म में ऊँच-नीच का भेद नहीं है, पर्व उसी का है जो पालन करे, धर्म उसी का है जो धारण करे ।
राजेन्द्र-ज्योति
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हमें गन्तव्य पर पहुँचना है
फकीरचन्द जैन
भारत देश ऋषि-मुनियों का देश है। इसके कण-कण में व्याप्त महावीरों की वीरवाणी कल-कल करती हुई सरिताओं की निर्मल धारा के समान बहने वाली गुरुवाणी से मन के क्लेशों को दूर करने वाली इस पुण्य भारत भूमि की गरिमा को साकार कर रही है परन्तु आज की विषम परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए मनुष्य आध्यात्मिकता को छोड़कर भौतिकवाद की ओर मुड़ गया । ईश्वर क्या है इसकी ओर से बिल्कुल विमुख हो चुका है। विमुख होने का एक ही कारण नजर आता है कि मनुष्य आधुनिक वातावरण के फैशन के चक्कर में पड़ जाने से आध्यात्मिकता को छोड़कर भौतिक साधनों में फंस जाने के कारण ईश्वर को मानने से इंकार करता है और कहता है कि ईश्वर कहां है ? क्योंकि ऐसा कहने वालों को सत्संग का वातावरण नहीं मिला या यों कहें कि उन्हें ऐसे संस्कार नहीं मिले ऐसा कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ___सर्वप्रथम हमें अपने घर के संस्कार ही उस धार्मिक प्रवृत्ति की ओर ले जाते हैं जिस ओर ईश्वर की आराधना होती है, दूसराअपने गुरुओं के बताए सन्मार्ग पर गुरु के सत्संग में रहकर हम .आध्यात्मिकता की ओर बढ़कर ईश्वर क्या है जान सकते हैं । इसको जानने के लिये ही हमारे गुरुओं ने देवस्थानों की रचना की है। महज इसलिये कि मनुष्य अपने दैनिक व्यस्त कार्यकलापों का अवलोकन करते हुए कि मैंने दिन भर में क्या-क्या कार्य किये हैं उनको ध्यान में रखते हुए कुछ समय अपने आराध्य देव का स्मरण करते हुए मंदिरों में प्रार्थना करेगा। क्योंकि हमारे सामने एक लक्ष्य रहेगा। जिस तरह एकलव्य ने अपने गुरु की मूर्ति को अपना लक्ष्य बनाकर उनके समक्ष तीर कमान चलाना सीखा, उसी तरह बिना लक्ष्य बनाये हम ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते हैं अतः मंदिरों की स्थापना की गई कि मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में से
कुछ समय निकालकर अपने आराध्य देव का लक्ष्य बनाकर गुरु के बताये हुए सन्मार्ग पर चल कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं । इसी तारतम्य में परम श्रद्धेय विश्व पूज्यनीय प्रभ श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी के शिष्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी के द्वारा एक अखिल भारतीय राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की स्थापना की गई है। - आज का नवयवक भौतिकवाद के चक्कर में पड़कर अपने लक्ष्य से कोसों दूरच ला जा रहा है । नवयुवकों को सही मार्गदर्शन के अभाव में अपने माता-पिता, गरुवर आदि के आदर का पात्र नहीं बन पाते हैं । इसलिये हमें सही मार्ग दर्शन की अत्यन्त आवश्यकता है । सही मार्ग दर्शन प्राप्त करने के लिये हमें परिषद जैसे माध्यम की अत्यन्त आवश्यकता है। दूसरा-अपने गरु पर आस्था, विश्वास व उनके बताये मार्ग पर चलने से हमें सुख शान्ति व अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है जहां सुख-शांति है । वहीं ईश्वर का वास है।
परन्तु आज का नवयुवक सुख-शांति को पाने के लिये दौड़ लगा रहा है । भौतिक साधनों में उलझा यवक बिना लक्ष्य के सुख-शांति भी नहीं प्राप्त कर सकता और हम अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुंच सकते । अतः हमें अपने गन्तव्य स्थान प्राप्त करना है तो हमें अपने माता-पिता व गुरु के बताये मार्ग पर चलना होगा तभी हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं । हम अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के माध्यम से अपने समाज का व देश का उत्थान कर सकेंगे। बिना माध्यम के हम अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुंच पायेंगे और न ही समाज की व देश की उन्नति कर पायेंगे और इसी माध्यम से जो हम भौतिकवाद की ओर दौड़ रहे हैं, उस ओर नहीं दौड़ते हुए हम आध्यात्मिकवाद की ओर बढ़ते हुए अपने लक्ष्य को परिषद के माध्यम से प्राप्त करते हुए हम अपने मनुष्य जीवन को सफल बनाने में समर्थ हो सकेंगे। -
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जैन दर्शन वार्तालाप
श्रीमती चन्द्रकान्ता भण्डारी
सुधा :
मीरा :
सुधा :
आज प्रत्येक जैन परिवार में आनन्द छाया हुआ है प्रत्येक जैन का तन-मन का कण-कण हर्ष से नाच उठा है। सारे नगर में चहल-पहल प्रारंभ हो गई है क्योंकि आज श्रमण भगवान महावीर का जन्म दिवस है।
सुधा भी अपनी प्रिय सहेली मीरा को जिन दर्शन तथा अंगरचना की झांकी दिखाने के लिये जिन मंदिर में लाती है । मीरा प्रभु की विरागता में पूर्ण प्रतिभा को देखकर मुग्ध हो जाती है। बाद सुधा उसे अपने घर भोजन के लिए ले जाती है और अपने द्वारा बनाये व्यंजन परोसती है जिनमें मिठाइयां, नमकीन भी हैं । मीरा और सुधा दोनों साथ-साथ भोजन करने बैठती हैं । मीरा सुधा से कहती है। नमकीन में मुझे आलुबड़ा सबसे अधिक पसंद है । सुधा कहती है लेकिन हम आलू आदि जमीकन्द का सेवन नहीं करते हैं।
हँसते हुए : तू भी पढ़ी लिखी होकर इतनी भोली है भला आलू में ऐसा क्या है जिसको खाने से पाप लगता है । अरे । झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, मनुष्य को नहीं सताना यही मानव धर्म है किन्तु जमीकंद खाने से पाप लगना अपनी समझ में
नहीं आया। सुधा : आलू अनन्त काय जमीकन्द है। अनन्त जीवों का
समावेश है इसमें मीरा अपनी जबान के स्वाद हेतु
असंख्य जीवों का भक्षण करना, यह तो महापाप है। मीरा : सुधा ये बातें मैंने तुझसे आज ही सुनी हैं बहुत
दिलचस्प हैं और शिक्षाप्रद भी, जैन लोग इसीलिए
आलू नहीं खाते हैं। सुधा : हां मीरा । जैन धर्म प्राणीशास्त्र की रक्षा करने वाला,
सबको समान मानने वाला सूक्ष्म धर्म है। गहन वार्ता का मर्म जानने वाला सर्वोपरि धर्म है यह भक्ष अभक्ष, कृत्य अकृत्य, हेय ज्ञेय उपादेय, इन सबका बोध
कराता है। मीरा : मुझे इस सूक्ष्म जैन धर्म कर्म के बारे में जानने की
जिज्ञासा जाग्रत हुई है। क्या जैन धर्म और शासन के बारे में समझाओगी?
वैसे तो मुझे अल्पज्ञातव्य है जैन धर्म का वही तुम्हें भी बताये देती हूँ। जैन धर्म प्राणीमात्र का कल्याणकारी वह धर्म है जो मात्र स्वयं को पहचानने की शक्ति दर्शाता है। आत्मा का धर्म है न कि किसी व्यक्ति का सम्प्रदाय का । अब प्रश्न है जैन किसे कहते हैं ? तो जीवों की जयणा (रक्षा) करने वाला एवं जिनेश्वर देव के बताये मार्गों पर चलने वाला ही जैन कहलाता है । जिनेश्वर देव वे हैं जिन्होंने कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है, वे ही महान आत्माएं जिनेश्वर देव कहलाते हैं । अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने वाले और प्राणीमात्र का भला चाहने वाले ही जिनेश्वर देव हैं। मैंने अपनी पाठ्य पुस्तिका में २४ वें तीर्थंकर महावीर स्वामी के बारे में पढ़ा था तो महावीर स्वामी जिनेश्वर देव हैं या नहीं? जिनेश्वर तीर्थकर, वीतराग, अरिहन्त ये सब एक ही हैं मात्र शब्द अलग है। सर्व जीवों का हित चाहने वाले अनन्तगुणी, आत्मा, राग द्वेष से मुक्त आत्मा, वीतराग परमात्मा कहलाती है। अरिहन्त परमात्मा के हृदय में अमंग अखण्ड सदा शाश्वत, ऐसी मैत्रीय भावना होती है । तीर्थंकर को उपमा इसलिये देते हैं कि वे तीर्थ की स्थापना करते हैं तीर्थ याने चतुर विद्य संघ । जीवकाल के परिवर्तन से मनुष्य अपने सही पथ से भटक जाता है तो तीर्थंकर प्रभु उत्कृष्ट चारित्र से अपने को तपाकर आत्म शत्र राग द्वेष, इत्यादि कषायों पर सदा सर्वदा के लिये विजय प्राप्त करते हैं और अपनी अमृतमयी वाणी से परम्मागत धर्म को सतत चलाने की भावना से चतुरविदि संघ की स्थापना करते हैं । इस चतुरविधि संघ में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका होते हैं। आज का दिन मेरे जीवन के लिये सच्चे ज्ञान की स्वणिम रश्मियां लेकर आया । अब मैं जैन धर्म के स्वरूप को समझ कर आत्म कल्याण हेतु इसे आचरण में लाने का सफल प्रयास करूंगी, अच्छा अब कल मिलेंगे।
मीरा:
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१. ३००१ ) श्री थराद नवयुवक मण्डल एवं त्रिस्तुतिक सौधर्म वृहत्तयागच्छीय श्रीसंघ अहमदाबाद (गुजरात) ३००१) श्री त्रिस्तुतिक संघ जौधपुर (राजस्थान )
२.
२५०१) श्री हीरानी भंवरलालजी हस्तीमलजी रेवतड़ा ( राजस्थान )
३.
४. २००१) श्री जैन शिक्षण प्रसार समिति मन्दसौर (म. प्र. )
५.
२००१) एक गुरु-सद्गृहस्थ नेनावा (गुजरात)
२०००) श्री जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक संघ, धराद (गुजरात)
२००१) श्री शांतिनाथ राजेन्द्र जैन पेढ़ी ज्ञान खाता, तणुकु (आंध्र प्रदेश)
१५०१ ) श्री ज्ञान भंडार त्रिस्तुतिक संघ नीमवाला उपाश्रय, रतलाम (म. प्र. )
९.
१५००) श्री पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, कोशेलाव ( राजस्थान )
१०.
१५००) श्री खुशालचन्दजी हीराचन्दजी, जौधपुर (राजस्थान )
११.
११११) श्री धनराज एण्ड कम्पनी, इन्दौर (म. प्र. )
१२.
११११) श्री शाह ओटमलजी वेलाजी, बेंगलोर (मैसूर)
१३. ११००) श्री हीराचन्दजी कानाजी, सियाणा (राज.)
१४.
११०१) श्री सुकनराज नेमीचन्दजीरिया (मद्रास)
१५. ११०१) श्री कायालाल मकुबाई जैन ट्रस्ट, रतलाम (म.प्र.)
१६.
१७.
१८.
वी. नि. सं. २५०३
६.
ग्रन्थ- प्रकाशन में इनके उदार एवं तत्पर सहयोग के लिए हम कृतज्ञ हैं
७.
८.
११०१) श्री अशोक कुमारजी काश्यप, जैन ट्रस्ट, रतलाम (म. प्र. )
११०१) श्री मुनिराज हेमविजयणी की स्मृति में सेठ सुखराजणी, भंवरलालजी हेमराजजी शांतिलालजी लूनिया, आहोर (राज.)
११०१) श्री लालचन्दजी रतनलालजी सुराणा, रतलाम (म. प्र. )
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१९. ११०१) श्री कालूरामजी पन्नालालजी, डाड़मचन्दजी ओरा, रतलाम (म. प्र.) २०. ११०१) श्री रायचन्दजी, छगनराजजी मोन्डात, कालुपुरा रोड, आहोर, गन्टूर (आन्ध्र)
११०१) श्री रतनचन्दजी पारसमलजी जीवाजी, गुडा बालोतरा, (राज.)
११०१) श्री मोतीलालजी शांतिलालजी ऐलचीवाला, मन्दसौर (म.प्र.) २३. ११०१) श्री पन्नालालजी चम्पालालजी एवं श्रीमती सुगनबाई ह. प्रकाशचन्द्र टांडा (म.प्र.)
११०१) श्रीमती तूणीबाई मिश्रीमलजी जैन, कुक्षी वाले, इन्दौर हस्ते उत्सवलाल, मनोज ड्रेसेस, इन्दौर
११०१) श्री मोहनलालजी कचराभाई पटेल, ऊंझा (गुजरात) २६. ११०१) श्री मोरखिया गगलदास गुमानभाई, लाखणी (गुजरात) २७. ११०१) श्री पनरराजजी सोमतराजजी, भीनमाल (राज.) २८. ११०१) श्री मेहता सुमेरमलजी पुखराज, रमेशकुमारजी, राजेन्द्र कुमार, दुधराज, शैलेषकुमार, मुकेश, दिनेश, विनोदकुमार बेटा पोता
हस्तीमलजी मेहता, भीनमाल (राज.) २९. ११०१) श्री सरेमलजी राजेन्द्र कुमारजी, सियाणावाला, ताडपत्री (आ.प्र.) ३०. ११००) श्री पक्षाल कारपोरेशन, हैदराबाद ३१. ११००) श्री संघवी कुन्दनमलजी भूताजी, आहोर (राज.) ३२. ११०१) श्री घासीरामजी साधारण ट्रस्ट फण्ड, रतलाम (म. प्र.) ३३. ११०१) सेठिया छोगमलजी मोतीलालजी, खाचरौद (म. प्र.) ३४. १०००) श्री राजेन्द्र सूरि साहित्य प्रकाशन मन्दिर ह. मांगीलालजी बूरड, राणापुर (म. प्र.)
१०००) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा, बड़नगर (म.प्र.) ७०१) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा, बेंगलोर ६०१) श्री चुन्नीलालजी कोजाजी नेनावा (गुजरात) ५०१) श्री राजमलजी शांतिलालजी, उज्जैन (म.प्र.) ५०१) श्री ओटमलजी उत्तमचन्दजी, सुमेरपुर (राजस्थान) ५०१) श्री जीतमलजी हिरानी, मद्रास ५००) श्री सी. बी. भगत महामंत्रीजी, बेंगलोर ५०१) शाह लखमीचन्दजी बनेचन्दजी दलीचन्दजी वोरा, बेटा पोता बाकरा (राजस्थान) ५०१) श्री घेवरचन्दजी चम्पालालजी तिलेसरा, कराड (आ.प्र.) ५०१) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् शाखा दसाई (म.प्र.) ५०१) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, शाखा-मन्दसौर (म.प्र.) ५०१) श्री राजेन्द्र जैन नत्रयुवक परिषद्, शाखा-आलोट (म.प्र.) ५०१) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, शाखा-जावरा (म.प्र.) ५०१) श्री राजमलजी भंवरलालजी, नयागांव (मन्दसौर (म.प्र.) ५०१) श्री भंवरलालजी भगवानजी, कुक्षी (म.प्र.)
५०१) श्री राजेन्द्र जैन परिषद्, शाखा-पाटन (गुजरात) १. ५००) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, शाखा-सायला (राजस्थान) ५२. ५०१) श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्, शाखा-रिंगनोद (धार) ५३. ११००) पेन्टर तोलारामजी, गणेशदासजी शर्मा, अहमदाबाद (गुजरात)
वन्दना निधि १०१) श्री समीरमलजी जैन टांडा (म.प्र.) १०१) श्री वरदीचन्द भुवानीराम चोंदमल लुनिया, कसरावद (म.प्र.) १०१) श्री घेवरचन्दजी विमलचन्द कीर्तिकुमार मेहता, बेटापोता जेठमलजी, आहोर (राज.)
५१) श्री हस्तीमलजी वरमेचा, रतलाम (म.प्र.) १०१) श्री भारतमलजी भगाजी, रेवतड़ावाला, बेंगलोर १०१) श्री समरथमलजी बम, रतलाम (म.प्र.)
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राजेन्द्र-ज्योति
सप्तम खण्ड
गुजराती
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लकीर के फकीर' बनवू अमने बिलकुल पसंद हतुंज नहि, अने अटले ज अमणे सुप्त मानव महेरामणने जागृत करवा अने मानवजीवनर्नु मूल्यांकन समजाववा अप्रतिबद्ध विहार पण करेल । अनेक कष्टो सह्या अने महावीर ना उपदेशनो खूब दृढ़ताथी प्रचार करेल ।"
-मुनि श्री जयन्तविजय ‘मधुकर'
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પરમ રોગી શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરિજી મ.
આવો ! આજ દેખીએ જીવની પરમ પૂજય કૃપાળુ ગુરુદેવશ્રીની.
એમનું નામ પ્રસિદ્ધ છે વિશ્વ આખાયમાં. એમણે કર્યા છે ભગીરથ કામ પૃથ્વીના પાટલે. જેવું નામ તેવાં કામ. પાછળથી નહિ પરંતુ પ્રારંભથી જ. જન્મના સાથે જ મળ્યા આદર્શ સંસ્કાર, અને મળ્યાં સંસ્કાર સિંચન કરનાર માતાપિતા. ભરતપુર શહેર આજ પણ પ્રસિદ્ધ છે. રાજસ્થાનનું ગૌરવવંતુ એ ધામ.
ત્યાં રહે શેઠ “ષભદાસ.” દેવગુરુ ભકિતકારક અને ધર્મધ્યાની. ભાર્યા હતા તેમની સુગુણવતી કેશરદેવી.' શીલાદિ ગુણો વડે પરિમલ પ્રસારનારી. શ્રેષ્ઠિ દંપતીને જીવન સંસાર હત સહુ કોઈને અનુકરણીય. બધુંય હોવા છતાં વિરકત ભાવના.
હામ, દામ અને દામ હતાં તે પણ જીવનની સાચી સફળતા કરવાની ઝંખનાવાળા હતાં.
અઢારસો ત્યાસીની સાલ. પિષ સુદિ ૬ની રાત્રિ અને સાતમનું પરોઢિયું. ભાગ્યશાળીના ઘરે જ રત્નનો આવિર્ભાવ થાય. બધા ય પહાડોમાં કંઈ માણિકય રત્ન હોતાં નથી. બધા ય હાથીઓના ગંડસ્થળમાં કંઈ મૌકિકો હતા નથી? કમળ કંઈ બધા ય સરોવરમાં ઊગતાં નથી. એવી જ રીતે, શ્રેષ્ઠિ ક્ષભદાસના ગૃહાંગણે, શુભ દિવસે અર્ધાગના કેશરદેવીએ રત્નપુંજ સમા પુત્રરત્નને જન્મ આપ્યો.
જાણે રત્ન જ ન મળ્યું હોય પોતાને, પરિવારના લોકોએ નામ પણ એ જ આપ્યું રત્નરાજ.
રત્નરાજ યોગ્ય લાલન પાલનમાં વૃદ્ધિ પામતા ગયા, પાઠશાળામાં પ્રવેશ કરાવ્યો.
વ્યવહારિકના સાથે ધાર્મિક અધ્યયન તરફની રુચિ વિશેષ. એટલે ધાર્મિક અધ્યયનમાં પ્રગતિ કરી અને ટૂંક સમયમાં જ પ્રકરણ અને તાત્ત્વિક ગ્રન્થનું અધ્યયન કરી લીધું.
વડીલ ભાઈ માણેકચંદ હતા.
માતા પિતાની આજ્ઞા લઈ બન્ને ભાઈ ગયા ધુલેવાની યાત્રા કરવા માટે.
ઉંમર અલ્પ છતાં શકિત ઘણી. પુદ્ગલ નાનું હતું છતાં માનસ વિકસ્વર થયેલ હતું. પગપાળા જવાનું છતાં રત્નરાજ હિમત ન હાર્યા. શાના હારે? હજુ તો ઘણું કરવાનું હતું. ગયા સંકુશળ કેશિરિયાજી, કરી યાત્રા અને થયા ધન્ય ! પાછા ફરતાં રસ્તામાં રોમાંચક અને ભયજનક પ્રસંગ દેખાયો. જયપુર પાસે “અંબર” એવું ગામ. ત્યાં વસતા શેઠ કહૈયાલાલજી એમનું નામ. પિતાની એકની એક પુત્રી. સહકુટુંબ આવેલા યાત્રા કરવા,
[] પૂ. મુનિશ્રી જયન્તવિજય “મધુકર” મ. પાછા વળતાં ઘેરી લીધા એમને ભીલ લોકોએ. - આશાભરી યુવતીને ભીલો પજવવા માંડયા.
ઘણી દયનીય સ્થિતિ, છતાં આવા ભયંકર વનપ્રદેશમાં સહાયક કોણ?
રત્નરાજ આવી રહ્યા હતા, એમનાથી આ ન દેખી શકાયું.
કર્મોને હરાવવા વીરના પંથે વિચરવાની કામનાવાળા બાલવીરથી આ સહન ન થયું! મટાભાઈની આજ્ઞા લીધી અને નિર્દયી, પજવનારા ભીલ સામે મેદાને પડયા. બાલ્યવય છતાં પોતાના પરાક્રમે ભીલને ભગાડયાં અને શેઠને શાંત્વના આપી.
શેઠ પણ હવે એક વાત ઉપર આવ્યા. જે પુત્રીને તમે બચાવી એનું વેવિશાળ પણ હવે તમારા સાથે જ કરવું છે. તેને સ્વીકાર કરો!
ત્યાગના પંથે વિચરનારને ક્યાં આવી ખપ હતી. સમજાવીને આગળ વધ્યા,
હેમખેમ ઘેર પહોંચ્યા, પોતાના પુત્રના સાહસની વાતથી માતાપિતા પ્રસન્ન થયાં.
હજુ બાકી હતું ઘણું.
વડીલભાઈના સાથે ધંધાર્થે સિંહલદ્વીપ (સિલેન) ગયા. તેમનું મન આ માર્ગ હતું જ નહિ અને એટલે જ ત્યાંથી કલકત્તા આવ્યા. થોડો સમય વ્યતીત કરી ત્યાંથી સીધા ઘેર પહોંચ્યા.
અને માતાપિતાએ ક્રમશ: મહાપ્રયાણ કરી દીધું.
ભારેલા અગ્નિ પ્રગટ થઈ જાય હવાના ઝપાટામાં જેમ તેમ રત્નરાજને વૈરાગ્ય - ભાવ જાગૃત થઈ ગયો.
વૈરાગ્યના બીજને વિકસાવનારા અને સિચન કરનારા શ્રીપૂજ્ય શ્રીપ્રમેદસૂરિજી પધાર્યા ભરતપુરમાં.
ઉપદેશામૃતનું પાન કરી લુપ્ત થયા. મેઘગર્જનાથી મયુર નાચવા માંડે તેમ વીતરાગવાણી સાંભળીને રતનરાજને મન-મયૂર પ્રફુલ્લ થઈ ગયો. - માતાપિતાના દેહોત્સર્ગ પછી ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ જેમ નંદીવર્ધન ભાઈની આશા લઈને સંયમ સ્વીકાર્યું તેમ વડીલભાઈ શ્રી માણેકચંદની આજ્ઞા લીધી અને સં. ૧૯૦૩ માં ઉદયપુરના આંગણે ચારિત્રરત્નને સ્વીકાર્યું. પ્રારંભમાં સાનિધ્ય મળ્યું યતિશ્રી હેમવિજ્યજી મહારાજનું
જયજયકાર કરી દીધો જનસમુદાયે. જ્યજયકારથી ભરી દીધું નમંડળ. નવદીક્ષિત રત્નરાજ હવે થઈ ગયા, ‘મુનિ રત્નવિજ્ય.
કાળનું કામ કાળ કર્યો જતો હતો. અને વહો જતો હતો પૂરવેગમાં વહેતી વર્ષાકાળની સરિતાના જેમ.
મુનિશ્રી પોતાનું જ્ઞાન સંપાદન કરવા પાછળ દત્તચિત્ત થઈ ગયા હતા.
વ્યાકરણ, કાવ્ય, અલંકાર ! ન્યાય, દર્શન, જયોતિષ ! વૈદક, કોષ અને આગમ!
રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
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કોઈ વિષય અણઆવડે ન રહેવો જોઈએ.
સં. ૧૯૦૯માં વડીદીક્ષા, અને પંન્યાસ પદવી આપવામાં આવ્યા ઉદયપુરના આંગણે.
આગમશાસ્ત્રનું ગહન અધ્યયન કરવા માટે ગયા ખરતર ગીય શ્રી સાગરચંદ્રજી મ. પાસે.
દાક્ષિણ્ય અને વિનયાદિ ગુણોથી યુકત યોગ્ય પાત્ર દેખીને સાગરચંદ્રજીએ પ્રસન્નતાપૂર્વક ખૂબ ખૂબ આખું.
વિશેષ મનન - પરિશીલન કરવા માટે આવ્યા તાત્કાલીન તપગચ્છીય શ્રીપૂજ્ય દેવેન્દ્રસૂરિજી પાસે.
મુનિ રતનવિજ્યજી ટૂંક સમયમાં જ શ્રીપુજયજીના પ્રીતિપાત્ર થઈ ગયા.
વિદ્યા, વિનય, વિવેકાદિ ગુણો કોને નથી આકર્ષિત કરતા?
શ્રી પૂજયજીનો જયારે જીવન દીપક ટમટમી રહ્યો હતો ત્યારે રત્નવિજયજી અને પોતાના શિષ્ય ધીરવિજ્યજીને પોતાની પાસે બોલાવ્યા અને કહ્યું:
રત્ન ? આ ગચ્છનો ભાર હમણાં તમારા ઉપર છે. “ધીરને ભણાવી, યોગ્ય કરીને ગાદીનશીન કરવાનું અને ગરછીય વ્યવસ્થા સંભાળવાનું તમને સોંપું છું.
અને શ્રી પૂજ્યજીનો જીવનદીપ સદાના માટે બુઝાઈ ગયો.
શ્રી રત્નવિજ્યજીએ શ્રી પૂજયજીની આજ્ઞાનુસાર ભણાવ્યા ધીરવિજયજીને, કર્યા પ્રવીણ અને બનાવ્યા શ્રી પૂજય ! નામકરણ કર્યુંશ્રી પૂજય શ્રી ધરણેન્દ્રસૂરિ.
પોતાનું ઘડતર કરનાર એવા રત્નવિજયને એમણે આપ્યું દફતરી પદ.
આ પદ તે કાળ અને તે સમયમાં ઘણું ઊંચું અને મહત્ત્વપૂર્ણ ગણાતું.
ગચ્છીય સર્વસત્તા દફતરીની રહેતી.
દફતરીજીએ પોતાની પ્રતિભા અને કૌશલ્યથી બંધ થયેલ છડી, ચામર, પાલખી આદિ રાજાઓ પાસેથી પાછા અપાવ્યાં.
આમ દિવસે જઈ રહ્યા હતા, ગાડી ચાલતી હતી.
ઘણા યતિઓને પં. શ્રી રત્નવિજયજી ભણાવતા હતા. જેવું શાનિઓએ કહ્યું તેવું.
અભ્યાસી અને મુમુક્ષુ યતિઓ અવાર નવાર પૂછતા.
મહારાજશ્રી! ત્યાગીને રાગીના જેવા રાગ અને રાગના સાધને ભગવાને વજિત કર્યા છે ત્યારે, આપણે ત્યાં તે બધું ય ચાલે છે.
એ કહેતા. ભાઈ! વાત તદન સાચી છે પણ સાચાને આચરવા માટે કોઈ તૈયાર નથી.
કેમ નહિ? મહારાજશ્રી! જો કોઈ તૈયાર થાય સાચા માર્ગને સ્વીકારવા તો અમે પણ તૈયાર છીએ.
આત્માર્થીઓની આવી ઈચ્છા દેખીને એ કહેતા, હું ઈચ્છું છું આવી શિથિલતાને દૂર કરવા પરંતુ અવસરે દેખાશે.
જો આપ કંઈ પણ કરો તો એની અમને પણ અવશ્ય સૂચના કરશે, આવી વાતો અભ્યાસી યુનિવરો યદા કદા કહેતા.
પં. શ્રી રત્નવિજયજી પણ એમને જવાબ આપીને સંતેષતા. છતાંય ઊંડે ઊંડે આટલી શિથિલતા એમને ડંખતી રહેતી. ભાગ, વૈરાગ્યની ફેરમ પ્રસરાવનાર ઉપાશ્રય સુગંધી અત્તર
અને તેલથી મહેકી રહેતા.
સુંદર રંગબેરંગી ગાલીચાઓનો છૂટથી ઉપયોગ થતું.
ભાર જેવું જીવન એમને કલ્યાણના બદલે અકલ્યાણ કરનારૂ દેખાવા માંડયું.
પણ અવધિનય કો આવે છે. સં. ૧૯૨૩નું ચોમાસું. મરૂભૂમિમાં ઘાણરાવ નગર. મૂછાળા મહાવીર ભગવાનનું ધામ.
શ્રી પૂજય ધરણેન્દ્રસૂરિજી, દફતરી પં. શ્રી રત્નવિજયજી યતિમંડળ સહ ચાતુર્માસ રહેલા.
પર્વોના રાજા જેવાં આવ્યાં પર્વાધિરાજ પર્યુષણ. ધર્મારાધનાની છોળો ઊછળી રહી હતી. દફતરીજી મહારાજની વ્યાખ્યાન શૈલી અનુપમ હતી.
જનમાનસને આરાધનામાં આગળ વધવા અને કંઈક કરી લેવા માટે દિવ્ય પ્રેરણા આપનારી હતી.
અષ્ટાલ્ફિકા વ્યાખ્યાન પૂરું થયું. કલ્પસૂત્ર વાંચન આરંભ કર્યું. શ્રોતાઓની ભીડ હેકડે ઠઠ જામતી હતી.
આજ ભાદરવા સુદિ ૨ (તેલાધર) ને પવિત્ર દિવસ, ભગવાન મહાવીરદેવનું જીવન ચરિત્ર વાંચન ચાલુ હતું.
ભગવાન દરેક જાતના રાજવૈભવોને સર્પકંચુકવત ત્યાગ કરીને ત્યાગ માગે પ્રવૃત્ત થયા, જન સમુદાય દેખતે જ રહ્યા અને ભગવાન યોગીરાજના જેમ ચાલી નીકળ્યા.
વ્યાખ્યાનમાં અજબ રંગ આવ્યો હતો, ભગવાનના ત્યાગનું વર્ણન કરનાર દફતરીજી મહારાજના શબ્દોને સાંભળીને સભાજનો ભાવવિભોર બની ગયા હતા.
વ્યાખ્યાન પૂરું થયું, ભગવાન મહાવીરની જયજયકાર સાથે લોકો વિખેરાયા.
પ્રવચનકાર પહોંચ્યા સીધા શ્રી પૂજયજી પાસે.
ચિત્ત ચોંટી ગયું હતું વીરના ત્યાગ માર્ગના વિચારોમાં. પરંતુ શ્રી પૂજયજી પાસે જુદો જ અનુભવ થયો.
લેરત્નવિજ્યજી! દેખે તો, અત્તર કયુ સારૂં છે? આપણે કઈ જાત ખરીદવી? શબ્દો સાંભળતાં જ એમનાથી ન રહેવાયું. મહારાજ! આપના મોઢે આ શબ્દો ન શોભે! શ્રી પૂજયજીએ પુન: પ્રશ્ન કર્યો, એટલે શું?
મહારાજ! ત્યાગીને વળી અત્તર કેવાં અને અત્તરની ગંધ કેવી ?
રત્નવિજયજી! એ તો ઠીક છે. હવે લાંબુ વેતર્યા વિના પૂછેલ વાતનો જવાબ આપોને ?
મહારાજ ! હું તો કંઈ કહી શકું તેમ નથી. હા, એટલું જાણું છું કે ત્યાગીને મન અત્તર અને ગધેડાનું મૂત્ર (મૂતર) બને સરખાં છે. ગૃહસ્થનું ભૂષણ ત્યાગીના માટે દૂષણ છે.
રત્નવિજયજી! બસ કરો. આશા નહોતી કે તમે આમ જવાબ આપશો, પણ અમારા આશ્રયે રહીને અમારા સામે આવા શબ્દો બોલો છો એ ખરેખર દુ:ખદ છે. - શ્રી પૂજ્યજી! સાચું કડવું હોય છે અને સાચાને કહેનાર કડવો ઝેર જેવું લાગે છે.
રાજેન્દ્ર તિ
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રત્નવિજયજી! હવે વધુ બોલવું બંધ કરો અને કરી બતાવે ઉત્કૃષ્ટ ત્યાગ પછી ત્યાગભર્યા શબ્દો સંભળાવજો !
ભાવતું હતું અને વૈદ્ય કહ્યું ! અત્તરની એક શીશીએ પરિવર્તન કર્યું ધરમૂળથી, વિચાર, વાણી અને વ્યવહાર બદલાયા. રજનો ગજ અને પાંખના પારેવા જેવો ઘાટ થઈ ગયો.
પં. શ્રી રત્નવિજ્યજીએ તો ત્યાં જ શ્રી પૂજયજીથી વિદાય લીધી અને આવ્યા આહોર, પોતાના ગુરુવર શ્રી પ્રમેદસૂરિજી પાસે.
હકીકતથી વાકેફ કર્યા. ગુરુએ શિષ્યની પ્રતિભા દેખી. વિચારોમાં દૃઢતા દેખી. ત્યાગ માર્ગ રક્ષવાની તમન્ના દેખી ! ભાવિના ગર્ભની ભવ્યતા પારખી.
થી પૂજ્ય શ્રી મેદસૂરિજીની વૃદ્ધાવસ્થા હતી. ગચ્છનો ભાર સંભાળવાની શકિત શિષ્યમાં નિહાળીને શ્રી સંધની સાક્ષીએ ઉત્સવ પૂર્વક શ્રી પૂજ્ય પદવી આપી અને પિતાના પટ્ટધર તરીકે ઘોષિત કર્યા.
આહાર ઠાકોરે છડી, ચામર, પાલખી, દુસાલા, સૂરજમુખી આદિની ભેટ આપી.
૫. રત્નવિજયજી હવે થયા શ્રી પૂજય શ્રીમદ્ રાજેન્દ્રસૂરિજી મહારાજ.
પ્રસિદ્ધિ વધવા માંડી. યશ ચોમેર ફેલાવા માંડયો.
કીતિકથા શ્રી પૂજય ધરણેન્દ્રસૂરિજી સુધી પહોંચી. શ્રી પૂજય શ્રી પ્રદસૂરિજી પોતાના છેલ્લા વર્ષોમાં આયંબિલની તપશ્ચર્યામાં રહેતા હતા.
સુશિષ્ય ગુર આજ્ઞા લઈ નીકળ્યા.
રાજસ્થાનમાં ફર્યા. લોકોના હૃદયને જીતનારા શ્રી પૂજ્યજી મેવાડ અને માળવામાં પહોંચી ગયા.
ત્યાગવૃત્તિ અને દૃઢપણે આચરણા, જનમાનસને પારખવાની શકિત અને ઉગ્ર વિહારી
માનવ મહેરામણ શ્રી પૂજય શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિશ્વરજી મહારારાજના તરફ ઊમટી પડયો.
ટોળે ટોળાં દર્શનાર્થે આવી રહ્યાં હતાં.
વાત વધી રહી છે અને બાજી બગડી રહી છે આવું જાણીને શ્રી પૂજય ધરણેન્દ્રસૂરિજીને ચિંતા થવા માંડી.
સમાધાન કરી લેવા તૈયાર થઈ બે યતિઓને પત્ર આપી મકલ્યા જાવરામાં.
શ્રી પૂજયજીએ વળતા ઉત્તરમાં જણાવ્યું કે મને આવું કંઈ પણ ગમતું નથી. મારે તે કરવો છે ક્રિોદ્ધાર, ઘણા સમયથી ભાગ માર્ગ પર છવાયેલ પડલને દૂર કરવાં છે, સુષુપ્ત જનમાનસને જાગૃત
એક વખતના રત્નરાજ, રત્નવિજ્યજી, પંન્યાસ શ્રી રત્નવિજયજી, દફતરી શ્રી રત્નવિજયજી, શ્રીપૂજય શ્રીમદ રાજેસૂરિજી અને આજ બન્યા શુદ્ધ ક્રિયાના પાલક, સુવિહિત માર્ગ સંરક્ષક જૈનાચાર્ય પ્રવર શ્રીમવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ !
ગામ નગરને પાવન કરતા આચાર્યશ્રી વિચરવા લાગ્યા અને
પરાવલંબી થઈ ગયેલા જૈનોને સ્વાવલંબી થવા માટે જિનેન્દ્ર ભગવંતને ઉપદેશ આપવા માંડયા
જિર્ણ મંદિરોને જિર્ણોદ્ધાર, આવશ્યકતાનુસાર નૂતન મંદિરોનું નિર્માણ આપના ઉપદેશથી થવા માંડયું.
જેવું જ્ઞાન તેવી ક્રિયા.
જેમ બને તેમ યુગનો વિરોધ કરતા, આશ્રવથી દૂર રહી ને સંવરવર્ધક સ્વ-સાધનામાં ઉદ્યમવંત રહેવા માંડયા. પૂજય શ્રીમદ્ ગુરુદેવ શ્રી !
ઉપદેશ પ્રવાહ વહેતે થયો. એકના કાનથી બીજાના કાને પહોંચતો થયો. ગુર, જ્ઞાની છે એક કહેતા. બીજા કહેતા ભાઈ! ધ્યાની પણ છે.
ત્રીજા કહેતા અરે ભાઈ ! ગુરુદેવ તે ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્રના પાલક છે.
ફરી કોઈ કહેતું ભાઈ! “પથીમાના રીંગણા” જ નહિ પરંતુ જેવું કહે છે તેવું કરીએ બતાવે છે.”
સાચી જ વાત છે. સિયાણા (મારવાડ)ના ઉપાશ્રયમાં એક શ્રાવિકાએ પ્રશ્ન પૂછયો અને તેના જવાબમાં પોતે છીંકણી સુંધતા હતા અને જે વગર નહોતું ચાલતું તેને એક ક્ષણમાં જ સદાના માટે તિલાંજલી આપી દીધી હતી.
પણ ભાઈ! ધ્યાન કેવું? ગજબ છે ને?
મોદરા (મારવાડ)ના બહાર ભયંકર ચામુંડ વન, જયાં જંગલી જાનવરો અને શિકારીઓ જ ફરતા રહે નિરંતર ! તેવામાં જઈ કલાકો સુધી અડગપણે ઊભા રહી આત્મચિંતન કરતા !
વળી કોઈ કહેતું ત્યાં તે અજબ બિના બની હતી !
એક ભીલ આવ્યો હતો અને એણે તે સફેદ સફેદ દેખી ને દુરથી જ તીરોને વરસાદ કરવા માંડયો. પણ એકેય તીર એ ધ્યાનસ્થ ગુર દેવના દેહને સ્પર્શ્વ જ ન હતું ! એ આવ્યો દોડતો અને ઢળી પડયો ગુરુદેવના ચરણોમાં, અને અપરાધની ક્ષમા માંગી.
ગુરુ તે ક્ષમાના સાગર અને દયાના દરિયા એમને શું ?
પણ ભલા ઉપદેશ પણ અંતરને ભિજવી દે એવે છે, આત્મવિભેર કરી દે એવો છે.
હોય જ ને, ફરી કોઈ ટાપસી પૂરતું. જો ન હોય એમના ઉપદેશમાં એટલું બળ તે જાલેર (મારવાડ)માં એક સાથે ૭૦૦ ભાગ્યશાળીઓને મૂર્તિપૂજાના માર્ગે વાળવા અને એમાં સ્થિર કરવા એ કંઈ નાની સૂની વાત છે ? - વળી સંભળાનું ગુર જ્ઞાની તો છે જ પરંતુ સંસ્કૃતિને ટકાવી રાખવા ઘણી જહેમત ઉઠાવે છે. - એની કોણ ના પાડે છે ભાઈ! કોઈક જવાબ આપતા કે જો એટલી ધગશ સંસ્કૃતિના સ્તંભો પ્રત્યે ન હોત કે આરાધના કેન્દ્રો પરત્વે ન દાખવી હોત તો રાજય કબજા હેઠળના અને શસ્ત્ર તથા દારૂગળાથી ભરેલા જાલેરના કિલ્લાના ભવ્ય મન્દિરની રક્ષા કાજે સર્વ રીતે રાજય સરકારથી બાથ ભીડવી, એ મંદિરો ખાલી
કરવું છે.
જો હું કહું તે શરતો કબુલવા તમે તૈયાર છે તે હું આ બધુય છોડી દેવા તૈયાર છું.
શ્રી પૂજ્ય ધરણેન્દ્રસૂરિજીએ નવ કલમે મંજૂર કરી અને વિક્રમ સં. ૧૯૨૪માં અષાડ સુદી ૨ના રોજ જાવરા (મ. પ્ર. )માં પોતે કિયોદ્ધાર કર્યો અને શ્રી પૂજય સંબંધી ઉપકરણો બધાંય ત્યાં શ્રી સુપાર્શ્વનાથ ભગવાનના દહેરાસરમાં સમર્પિત કર્યા.
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જેને બૃહદ્ વિશ્વકોશના નામથી જાણે છે સહુ. એનું નામ છે “અભિધાન રાજેન્દ્ર” કોષ એક નહિ, સાત ભાગમાં વહેંચાયેલ છે.
વિશાળકાય આ ગ્રન્થરાજને દેખતાં જ એમની શકિતની અભિવ્યકિત અને જ્ઞાનનાં દર્શન થાય છે.
ન્યાય, દર્શન, જયોતિષ, તર્ક, ધર્મ, સાહિત્ય, અલંકાર, વૈદક ઈત્યાદિ વિષયક પ્રમાણો આ ગ્રન્થસાગરમાંથી ઉપલબ્ધ થાય છે. | શબ્દ, વ્યુત્પત્તિ અને લિંગભેદના સાથે તે કયા ઠેકાણે કયારે શું અર્થમાં વપરાયો છે તેનું સ્પષ્ટ વર્ણન આ ગ્રન્થરાજમાં દેખી શકાય છે.
એ સાહિત્ય સાધકે “પ્રાકૃત વ્યાકૃતિ' શ્લોકબદ્ધ તૈયાર ક્રીને ઘણી જ સુલભ રીતે પ્રાકૃતનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવામાં મહત્ત્વપૂર્ણ સહાય
કરાવી જૈન સંઘને ઍપાવવા એ કાંઈ સાધારણ બિના કહેવાય ? આવી તે કેટલીએ વાતે એ ગુર દેવના જીવનમાંથી મળી શકે છે. ' કયાંકથી એવો સૂર આવતો અલ્યા એ ! નથી સાંભળ્યું કે ધ્યાન યોગના બળે ભવિષ્યના ગર્ભમાં રહેલું પણ કહે છે એ ગુરુ દેવ !
ઉત્તર વાળનાર કહેતા હા, ભાઈ હા ! એ કેમ ભૂલી શકાય ? ૧૯ દિવસ અગાઉ કુક્ષીમાં અગ્નિ પ્રકોપ થશે અને એને પ્રારંભ ગંગારામ બ્રાહ્મણના ઘરથી થશે. ગુર દેવની આ વાત સાચી પડી. આવી વાત કહેવી એ કંઈ મામુલી વાત કહેવાય ?
આમ તે ઘણી વાતો જાણવા મળે છે. એમના જીવનની.
કેમ ભલા! અમદાવાદમાં વાઘણ પોળના શ્રી મહાવીર સ્વામી ભગવાનની પ્રતિષ્ઠા વખતે પણ એ પૂજ્યશ્રીએ જ સૂચન કરેલ કે જે પાછળથી સત્ય થયું.
આમ દિવસે દિવસે એ શુદ્ધ ક્રિયાપાલક, સન્માર્ગના ઉપદેશક, સદ્ગુરુદેવની ગુણ ગિરિમાં સર્વત્ર મહેકી ઊઠી.
ચંદ્રકળાની જેમ કીર્તિ પ્રસરવા માંડી. સમુદ્રની ગંભીરતાનાં એમનામાં દર્શન થવા માંડયા.
એક તરફ સુપ્ત સમાજમાં ક્રાન્તિ અને બીજી તરફ શિથિલાચારનું ઉમૂલન !
હચમચાવી મૂકે એવી પરીક્ષાની પળે પણ એ અડગ રહ્યા સૂરિદેવ !
શું ઝંઝાવાત મેરૂ પર્વતને કયારે ડોલાવી શક્યો છે? શું પોતાના દંતશૂળથી હાથી પહાડને હલાવી શકયો છે?
શું વાદળે આડા આવીને પણ સૂર્યની તેજસ્વીતાને ઢાંકી શક્યાં છે?
“કર્તવ્યને આનંદ જેને હૃદય ઓસરતો નથી. કર્તવ્ય પંથે ચાલતાં જે ઠોકરો ગણતો નથી. કલ્યાણ જગનું એ છે જેના સૌખ્યની પારાશિશિ એ વિભુતિ વંદનીય દર્શનીય દિન નિશિ.”
પરિષહો અને ઉપસર્ગો આવતા રહ્યા પરંતુ અંતે યોગીરાજના સામે પરાસ્ત થવું પડયું એમને !
જેઓ નિરત રહૃાા પિતાની સાધનામાં, જે સાધનામાં રત રહે એને સિદ્ધિ મળે જ છે.
પરંતુ સાધકે સિદ્ધિની ઉત્સુકતા છોડીને સાધનામાં રત રહેવું જોઈએ..
પૂજયપાદ ગુરુદેવ શ્રીમવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ અપૂર્વ સાધક હતા.
જે કલાકો સુધી ધ્યાનમાં મગ્ન રહી આત્મચિંતનમાં ગરકાવ થઈ જતા હતા. - સખત ઠંડી અને પ્રચંડ ગરમીમાં દેહાધ્યાસથી મુકત થઈ આત્માભિમુખ થવાનું એમનું ધ્યેય હતું!
એ અજોડ સાહિત્યકાર હતા!
એમના વિશાળકાય ગ્રન્થોને ભારતીય અને પાશ્ચાત્ય વિદ્રાને ઘણા જ આદરથી સ્વીકારે છે અને આવા સાહિત્યકારની મુકત કંઠે પ્રશંસા કરે છે. એટલું જ નહિ એમને નમી પડે છે.
એમની કૃતિઓમાં પ્રમુખ રૂપે પ્રસિદ્ધ છે,
“કલપસૂત્રાર્થ પ્રબોધિની' સંસ્કૃત ટીકા અને કલ્પસૂત્ર બાલાવબંધની સરસ પ્રાસાદી આપીને મહાનતમ કાર્ય કર્યું છે એ ક્ષેત્રમાં.
એમના ઉપદેશમાં સ્વાવલંબી રહેવાને અને આત્માભિમુખ થવાનો હંમેશા ઝંકાર રહેતો.
એ અપૂર્વ ત્યાગી હતા.
શ્રમમાં જીવનના નિયમોને અટલપણે સાચવવા અને એના માટે કંઈ પણ ત્યાગ કરવો પડે તો તે માટે તત્પર રહેવું એમનો મુદ્રાલેખ હતો.
પિતાની વાત જ સાચી છે એ દુરાગ્રહ એમના જીવનને સ્પર્યો નહોતે ! વીતરાગના વચનોમાં સંગત થાય એવો જ એમને ઉપદેશ હતો.
એમની વ્યાખ્યાન પદ્ધતિ ખરેખર અદ્રિતીય જ હતી. કુક્ષીના ચાતુર્માસ દરમ્યાન ૪૫ જેનાગમ વ્યાખ્યાનમાં સંભળાવેલ, જે એમની પ્રખરતાનો પરિચય આપે છે.
વિવિધ પ્રકારી આરાધનાઓ દ્વારા પોતાના જીવનને સમુજજવલ કરતા એ પૂજય ગુરુદેવશ્રીને સં. ૧૯૬૩ના પિષ સુદિ 9ના દિવસે રાજગઢ (મધ્યપ્રદેશ)માં સ્વર્ગવાસ થયો.
પુણ્યભૂમિ શ્રી મેહન ખેડા તીર્થભૂમિ બની ગઈ જયાં ગુરુદેવશ્રીને અગ્નિસંસ્કાર કરવામાં આવ્યો.
અંધકારને દૂર કરનાર દિવાકર અસ્ત થઇ ગયો એ ગયા પણ તત્ત્વનું પાન કરાવી ગયા અજ્ઞાનનું ભાન કરાવી ગયા. ભૂલેલાની શાન ઠેકાણે લાવી ગયા. વીતરાગના માર્ગને સમજાવી ગયા. એ ગયા છતાં એમની જયોતિ કાયમ રહી. એમના કરેલા પુનીત કાર્યો અમર રહા.
છે, અને રહેશે. 'એ વિશ્વવંદ્ય, વિરલ વિભુતિ, પરમ યોગી પરમ જ્ઞાની પ્રતિક્ષણાનુંસ્મરણીય પૂજય ગુરુદેવ પ્રભુ શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજને ભાવ ભકિતભર્યા હૈયે આ પુષ્પાંજલી સાદર સમપિત કરી શત શત વંદન કરીએ
રાજેન્દ્ર જયોતિ
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સ્વાવલંબનની પ્રેરણામૂર્તિ જીવનધોરણના વિકાસ માટે વીતરાગવાણી અને તેમાં રહેલ સૂરીશ્વરજી મહારાજ થયા. જેમણે આગમોનું ગહન રીતિએ અધ્યયન, સવમય મધુર રસનું પાન અત્યંત જરૂરી છે. ભ્રમરો ફૂલના મનન અને ચિંતન કર્યું. દ્રવ્ય, ભાવનું વિષદ વિશ્લેષણ કર્યું, વીતરાગ પમરાટને પામી તે બાજુ જઈ પરાગનું પાન કરે છે. તેને જે રસ દેવની આજ્ઞા અને ઉપદેશનું સાર્થક સ્વરૂપ સમજાવ્યું. તેમણે ભગવતી છે તેમાં મશગુલ બની જાય છે. કારણ એ જ કે તે પોતે સર્વ વીતરાગ વાણીની સાક્ષીએ કહ્યું કે બાહ્યા અને અત્યંતરમાં ભેદ છે, અને તત્ત્વને ગ્રાહક છે. તેવી જ રીતે ભવ્ય જીવો વીતરાગ વાણીમાં રોગનિવારણ માટે ઔષધિઓ છે; પરંતુ તેમની સેવનની વિધિઓ રહેલ અમૃતરસનું પાન કરતા રહે છે અને સ્વ-સાધનામાં આગળ જુદી જુદી છે. દરેક જગ્યાએ એક જ ક્રિયા અને વિધિથી કામ પગલા માંડતા હોય છે.
લેતાં ઔષધિનું મહત્ત્વ ઘટશે. રોગ ન ઘટીને ઉલ્ટો વધશે એમાં સંશય વીતરાગના શાસનમાં એક મહાન તત્વ રહેલ છે અને નથી. તે પ્રાપ્તિમાત્રને સર્વાધિકારની પ્રાપ્તિ અર્થાત પ્રત્યેક જીવાત્મા દરેક વિધિને અનુષ્ઠાન પણ કહે છે, તેમણે કહ્યું આત્મતત્વને સ્થાન પર જવા માટે શકિતવંત છે પરંતુ તેમાં જોઈએ આલંબનને સંલક્ષીને કરાવાતી ક્રિયા વિધિ થા અનુષ્ઠાન, આત્માનુષ્ઠાન છે, ભાવાપકડી સ્વાવલંબી બનવાની ચેષ્ટા, અને આત્મોન્નતિના શિખરે નુષ્ઠાન છે. એ અનુષ્ઠાન કરતી વખતે આત્મશકિતને તાગ નિકળપહોંચવાની ઉત્કૃષ્ટ અભિલાષા.
વાને છે, આત્મનિર્મળતાને અને નિર્ભગ્યતાને પરિચય આપવાને જયાં સુધી સ્વાવલંબી બનવાની આત્મપ્રેરણા નથી જાગતી છે. આત્મિક સુખની અનુભૂતિ કરવાની છે. અને પરાવલંબી રહી સ્વ-શકિતને દબાવી રાખવાની વિચારસરણી
સામાયિક જેમાં સમભાવની પ્રાપ્તિ અને વિષમ ભાવોનો બની રહે છે ત્યાં સુધી જીવનધોરણની પ્રગતિક્રમ અટકેલો જ રહે છે. નિકાલ કરવાનું છે. પ્રતિક્રમણ જેમાં ભૂલ્યા ત્યાંથી ફરી ગણીને જૈન સિદ્ધાંતમાં ઉન્નતિની આધારશીલા “સ્વાવલંબન”ને બતાવાઈ છે. પાછા પ્રશસ્ત પથ પર પ્રચલન કરવાનું બતાવ્યું છે. આ ક્રિયાઓ કે
ઈષ્ટનું આલંબન સ્વાવલાંબન-પ્રાપ્તિમાં અભૂતપૂર્વ સાથ ભાવ અનુષ્ઠાને આત્માથી સંબંધ રાખનારા છે અને એટલે જ આપે છે. માનવજીવનની મહત્તાના દર્શન કરતાં અને તેની ઉત્કૃષ્ટ- તે કરતી વખતે કોઈ પણ જાતની ન્યૂનતા કે હીનતા બતાવવાની તાનું અવલોકન કરતાં સહેજે જણાઈ આવે છે કે આટલા મોંઘા જરૂર નથી. એક તરફ સર્વ-મિત્રતાના ભાવ અને બીજી બાજુ નરભવને સાર્થક કરવા માટે સ્વાવલંબી બન્યા વગર ચાલી શકે શત્રુ નાશ થાઓના ક્ષુદ્ર વિચારો સમભાવની ક્રિયામાં બેસીને કરવા જ નહિ.
એ વીતરાગના ઉપાસકો માટે લજજાસ્પદ કહેવાય. એટલા માટે છતાં આજ વહેમ, અંધશ્રદ્ધા અને આશાતૃષ્ણાની ભૂતાવળે સ્વશકિતની ઓળખાણ કરાવી વર્ધમાનના માર્ગે આગળ વધવાની વધી રહી છે. સ્વાવલંબનના પ્રથમ પગથિયાને ભૂલીને મહેલ પ્રબળ પ્રેરણા આપવા માટે એ પ્રેરણા મૂર્તિનું અવતરણ થયું હતું. ઉપર ચડવાના સોણલા સેવાઈ રહ્યાં છે. વીતરાગના ઉપાસકો પણ એ જેમણે વીતરાગ-વાણીના સંદેહનમાંથી દોહન કરી ભ્રમિત માનસને વાતને વિસરી રહ્યા છે કે એક વખત પણ ભાવપૂર્વક ‘નમો સ્થીર થવા ઉપદેશ આયો. અરિહંતાણ” પદને બોલનારો નિર્ભીક બની શકે છે. કોઈ પણ વિદન લકીર કે ફકીર' બનવું એમને બિલકુલ પસંદ હતું જ નહિ. એના કાર્યને રોકવા સમર્થ નથી એ પદની શકિત સ્વાવલંબી અને એટલે જ એમણે સુખ માનવ મહેરામણને જાગૃત કરવા અને બનાવે છે અને પછી તો એની શકિતને આંબવાની કોઈની તાકાત માનવજીવનનું મૂલ્યાંકન સમજાવવા અપ્રતિબદ્ધ વિહાર પણ કરેલ. નથી રહેતી.
અનેક કષ્ટો સહ્યા અને મહાવીરના ઉપદેશને ખૂબ દઢતાથી પ્રચાર - જૈન દર્શનમાં (સિદ્ધાંતમાં) દર્શાવેલ એવા સ્વાવલંબનના કરેલ. - પ્રખર હિમાયતી વીસમી સદીમાં જૈનાચાર્યવર્ય શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્ર
વિ. નિ. સં. ૨૫૦૩
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[વર્તમાન કાળમાં, શ્રી સંઘના ચારે અંગામાં ઓછા-વધતા અંશે પ્રવર્તતી ‘સુખશીલતા'ની વૃત્તિ કે આવી વૃત્તિની કારણભૂત મનોદશા કે પ્રવૃત્તિ ઈચ્છનીય આવકાર્ય વાસ્તવિકના ની કે આ ‘અવાસ્તવિક’ પરિસ્થિતિ પ્રદૂષણ બને તે પહેલાં, સમસ્ત શ્રી સંઘે વાસ્તવિકતા અને શાસકષિત આચરવાના પુન: પ્રત્યક્ષીકરણ કરવું અનિવાર્ય છે.
મૂલ્યોનું
૫. ગુરુદેવની સ્મૃતિથી સર્જન
સ્વ. પૂજયપાદ ગુરુદેવે તેમના યુગમાં શ્રી સંઘમાં પ્રવર્તતી શિથિલતાના નિવારણની મંગલેચ્છાથી જ “ક્રિયાદ્વાર” કરી શ્રી સંઘના તે સમયના જર્જરીત કલેવરના કાયાકલ્પ કર્યો હતો. આ કાયાકલ્પની પ્રક્રિયાની પુન: પ્રતિષ્ઠાની આજના શ્રી સંઘને પ્રકર્ષ આવશ્યકતા છે. આ કોષકારક સત્યના પુનરુચ્ચારણ અને પુન: આલેખન દ્વારા પરિણતીયુકત પ્રવૃત્તિની અનિવાર્ય આવશ્યકતા પ્રતિ, ભાવનાશીલ લેખકે સવિશેષ રૂપે ધ્યાનાકર્ષણ કર્યું છે, જે આવકાર્ય છે. સંપાદક ]
મને ગૌરવ છે કે, હું જૈન ‘કુળ’માં જન્મ્યો છું. મને ગૌરવ છે કે, હું ત્રિસ્તુતિક છું અને મને ગૌરવ છે કે, મારા ગુરુદેવ સ્વ. પૂ. આ. દે. ી વ. તીનું સૂ મ. હતાં.
પ્રાત:સ્મરણીય પ્રભુ શ્રી. વિ. રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ કે, જેઓશ્રીના જન્મ આજથી ૧૫૦ વર્ષ પૂર્વે થયા હતા, તેઓશ્રી મારા ગુરુદેવના પૂ. ગુરુદેવ હતા.
સ્વ.પૂ. ગુરૂદેવની ૧૫૦મી જન્મ—સંવ-સુરીના શુભ પ્રસંગે પુ લવ ટ્રારો યાપિત એ ભા. શ્રી રાજેન્દ્ર જૈન નવયુવક પરિષદ દ્વારા પ્રકાશીત થનાર “ શ્રી રાજેન્દ્ર જયોતિ ” નામના સ્મારક ગ્રન્થ માટે સ્વ. પૂ. ગુરુદેવેશને શ્રાદ્ધાંજલિ રૂપ એક કૃતિ માટે આમંત્રણ આવ્યું ત્યારે, મને મૂંઝવણ થઈ કે, મારા પૂ. ગુરુદેવના પરમ ઉપકારી પૂ. ગુરુદેવેશના વિષે એમના અનેક શિષ્યોમાંના એક, હું, શું લખું? અનેક શંકા-આશંકાઓ વચ્ચે પણ મનમાં એક ભાવના બળવત્તર બનવા લાગી કે, પૂ. ગુરુદેવેશ કે જેઓશ્રીએ મને જિનેશ્વર ભગવંતના ધર્મનું યથાર્થ સ્વરૂપ સમજાવ્યું છે. એના કારણે મારા પર તે મુવીનું જે થાક, ત્રણ છે તે ઋણ કિચિતરૂપે અદા કરવાનો આ અવસર છે. આ ભાવનાથી સ્વ. પૂ. ગુરુદેશને આ મુખ્યાબંધ સમિપત કરવાનો મારો નમ્ર ભાવ છે—પ્રયાસ છે.
ત્રિસ્તુતિક સમાજ પ્રતિ આસ્થા અને નિષ્ઠા ધરાવનારાઓ આજે મુખ્યત્વે, રાજસ્થાન, મધ્ય પ્રદેશ અને ગુજરાતના થરાદ વિસ્તારમાં વસે છે. આ પ્રદેશની પ્રજ્ વ્યવસાાય મુંબઈ, મદ્રાસ, કલકત્તા, અમદાવાદ, મહારાષ્ટ્ર, કર્ણાટક, બિહાર, બંગાલ બધે જ આછી વધતી સંખ્યામાં વસેલા છે. આ સ્થળોમાં. સ્વ. પૂ. ગુરુ દેવેશની
દ
[] ત્રે. શ્રી કીના હાલચંદ વોરા, ગાંધીધામ -કચ્છ )
સ્મૃતિની ઝાંખી કરાવતા અનેક સ્મારકો તથા ધર્મસ્થાનો છે. છતાં એ વાત અફ્સાજનક છે કે, સદ્ગુરુદેવના આપણને યોગ મળ્યો છતાં એ પૂ. ગુરુદેવના ઉપકારક ઉપદેશને આપણે ધાર્યું. રૂપે આચરણમાં અનુસરતો નથી.
આજે વાતાવરણ વિજ્ઞાનયુગનું છે. સર્વત્ર વિજ્ઞાનની વા' ઠસોઠસ ભરાવા લાગી છે. આ વિજ્ઞાનની સવિશેષ જાણકારી આજથી ૧૦૦ વર્ષ પહેલાં સ્વ. પૂ. ગુરુદેવેશ શ્રી. વિ. રાજેન્દ્ર સૂ. મ. પાસે હતી. એમના અગાધ જ્ઞાનની સર્વાંગીણ સાક્ષી સમાન “અભિધાન રાજેન્દ્ર કોષ" જેવા માન.ગ્રા. આપણી વચ્ચે મોજુદ છે, જેના દુનિયાભરમાં વાવો થયો છે. આજ પણ તેની માંગ ચાલુ હોવાથી જેના પુન:મુદ્રણની આવશ્યકતા ઊભી થઈ છે.
આવા અસીમ જ્ઞાની પૂ ગુરુદેવેશનું જીવન કેવું હતું ? આ પૂજય પુરુષને પ્રાપ્ત થયેલી જીવન જીવવાની શ્રેયકારક કળાને આપણે આંશિક રૂપે પણ અનુસરીએ તો આપણા મનને ભ્રમિત કરતી સાંસારિક આધિ-વ્યાધિ કે ઉપાધી સંસારમાં રહેવા છતાં આપણો આધાર વિચારને ભ્રમિત કે દૂષિત કરી શકે નહીં, આજના વિજ્ઞાનયુગમાં માનવની હાલત “સુએ તો ‘સમાધી’ અને ઊઠે તે ‘ઉપાધી' જેવી છે." આજના ઉપાધીગ્રસ્ત માનવ જાગૃત અવસ્થામાં એક પળ સમાધી એટલે કે આત્માની શાંતિ, આત્માનું એકપણ માણી શકતો નહી. આનું કારણ એ છે કે 'એ' દિન-પ્રતિદિન સંસારની સંસારની માયાજાળમાં વધુ ને વધ લપેટાતો જાય છે.
વિજ્ઞાન યુગનો વિકાસ થયો છે એમાં શંકા નથી પરંતુ
રાષ્ટ્ર જાતિ
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આ વિકાસની સાથે સાથે વિનાશની શકયતાઓ અને વિકરાળતા દિન પ્રતિદિન વધતી જ જાય છે. એક પુરાતન’ પંકિત છે કે ?
“ભગતજી વિચારે બેટા, હાય, હવે શું થાશે ? દુનિયા તો પલટાતી ચાલી, હાય, હવે શું થશે ? જૂનાં ગાડા છોડી લોકો ઊડે છે આકાશે દરિયાને તળીયે જઈ મહાલે, મરતા ના અચકાશે,
હાય હવે શું થાશે ?” આ પંકિતએ તો આજે જૂની’ થઈ ગઈ છે. આજે તો માનવી હવાઈ જહાજ કે દરિયાઈ જહાજથી પણ આગળ વધી અંતરીક્ષયાત્રા કરી ચંદ્ર ઉપર પહોંરયો' છે. અને સૂર્યને નાથવાના પ્રયત્નો કરી રહ્યો છે. આમ છતાં, મને થાય છે કે, હું ૧૮મી સદીમાં જન્મ્યો હોત તે ‘સારું હતું. આજની વિષમ કૃત્રિમતાથી અને વિજ્ઞાને પેદા કરેલી વિકારાળતાએથી તો બચવા પામ્યો હોત. આજે તો કૃત્રિમ ખરાક, કૃત્રિમ હવા, કૃત્રિમ પાણી, કૃત્રિમ કૃત્રિમ વાત, કૃત્રિમ વહેવાર. કયાંય સચ્ચાઈનો રણકાર દેખાતો નથી. નિસર્ગને નિજાનંદ નજરે પડતો નથી. જાણે કે માનવ આગળ વધવા માટે માનવ મટી દાનવ બનવા માંડયો છે. કયાંય “આપણાપણા”ની કે “સ્વસ્વભાવ સ્થિતિ” ની ભાવના કે પરિણતી શોધી જડતી નથી. જયાં જુઓ ત્યાં ફકત હું અને તમે, તારૂ અને મારૂં આગળ વધીને કહીએ તે “મારૂં મારા બાપનું અને તમારામાં મારો ભાગ” જેવી દરેકની મનેદશા તથા પ્રવૃત્તિ છે.
આવી પરિસ્થિતિમાં સ્વ. પૂ. ગુરૂદેવેશના જીવનના અનેક પ્રસંગે સ્મરણપટ પર આવે છે. આ સર્વ પ્રસંગોનું સ્મરણલેખન કરે તો તે આ સ્મારક ગ્રન્થ પણ તેનાથી જ ભરાઈ જાય એટલે એક-બે પ્રસંગોનું આલેખન કરવું જ અહીં ઉચિત સમજું છે
આ પ્રસંગ છે મોહન ખેડાને, સ્વ. પૂ. ગુરુદેવેશના જીવન કાળના અંતિમ દિવસોની આત્મ-સાધનાના અનુપમ અવસરને. પોષ મહિનાની કડકડતી ઠંડીના અંધારીયા પક્ષના એ દિવસો હતા રાજગઢના ઉપાશ્રયમાં પૂજયશ્રી સ્થિરતા કરી રહ્યાં હતા. અનેક અનુયાયીઓ, અનુરાગીઓ તથા શ્રદ્ધાળુ સ્ત્રી-પુરુષો દૂર દૂરથી ગુરૂદેવેશને “શાતા પૂછવા” આવતા હતાં. દિવસે પણ પૂરું અજવાળું ન પહોંચે એવા આ ઉપાશ્રયમાં રાત્રે આવનાર કે જનાર એકબીજા, એકબીજા સામે અથડાતાં હતા. આ જોઈને કોઈકને થયું કે, એક નાનો દીવડો કયાંક મૂકીએ તો સગવડ રહે. આમ વિચારી એક કોડીયાને દીવડે એક બાજુ મૂકવામાં આવ્યો કે જેની પૂ. ગુરૂદેવેશને જાણકારી પણ ન હતી. તેઓશ્રી તો આત્મ-સાધનામાં લીન હતાં. થોડો સમય પસાર થયો ત્યાં એક ભાઈ આવ્યા. આ ભાઈએ ઉપાશ્રયમાં દીવડો જોઈ કહ્યું કે:
આજે તો અહીં એક કોડીયાને દી મૂકવામાં આવ્યો છે કાલે તે કોઈ ઈલેકટ્રિક બત્તીઓ મૂકી દેશે.”
ગુરૂદેવેશે આ સાંભળ્યું અને સાધુઓ અગ્નિકાયની હિંસા કરતો દી ન વાપરી શકે તેવો ઉપદેશ આપનાર તેઓશ્રીએ આ દીવો ત્યાંથી તુરત જ દૂર કરાવ્યો.
“હું માનું છું કે, જમાના પ્રમાણે આગળ વધો. પરંતુ જમાનાના આંધળા અનુચર ન બને અને આડંબર દેખાડવા જીવહિંસા થાય
એવી પ્રવૃત્તિ ન કરો. તે ગુરૂદેવેશના અનુયાયી થયાં સાર્થક. પ્રસંગથી પૂજ્યશ્રીમાં રહેલી સમતા તથા સાર-ગ્રહણની ભાવના સ્પષ્ટ દેખાઈ આવે છે. એક નાને માણસ પણ સાચું કહે છે, એ સ્વીકારતાં તેમને આનંદ થતો.
આવો જ બીજો પ્રસંગ છે કે, “અકલમંદ કો ઈશારા કાફી” એ કહેવતને યથાર્થ પુરવાર કરે છે.
એક વખત, પૂ. ગુરૂદેવેશ વ્યાખ્યાન આપી રહ્યા હતાં અને એ વ્યાખ્યાનમાં વ્યસનત્યાગનો ઉપદેશ ચાલી રહ્યો હતો. પૂજ્યશ્રી ફરમાવી રહ્યાં હતાં કે, વ્યસનના ગુલામ ન બને. વ્યસન વિકતિઓના ઘાતક અને પ્રતીક છે. ચા, પાન, બીડી, સિગરેટ તમાકુ, દારૂ, જુગાર, વિ વ્યસનની પરાધીનતા પર પૂજયપાદ શ્રી વિવેચન કરી રહ્યા હતા. આ વિવેચના ચાલુ હતી અને તેઓશ્રીએ છીંકણી સુંધી, આ જોઈ એક વૃદ્ધાએ ટકોર કરી કે :
ગુરુદેવ ! ક્ષમા કરજો પણ આપ પોતે છીંકણીના વ્યસનથી બદ્ધ છે અને વ્યસનત્યાગને ઉપદેશ આપી રહ્યા છે. આ બન્ને વાતનો મેળ બેસતો નથી”
આ ટકોર સાંભળી સ્વ ગુરુદેવેશે એ જ ઘડીથી છીંકણીને ત્યાગ કરી, પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ પુરું પાડયું, કે જે કોઈ પણ જીવ, પોતાની આત્મશકિતથી નિર્ણય કરે તો ગમે તેવા વ્યસન પર ક્ષણ માત્રમાં વિજય મેળવી શકે છે. આવી વિનમ્રતાપૂર્ણ ત્યાંગવૃત્તિમાં તેઓશ્રીની ઉદાત્તતા સમાયેલી હતી જ્યારે આજે કોઈ કોઈને ટકોર કરે એ ગમતું જ નથી. - પૂજયશ્રીમાં અપરિગ્રહ વ્રતની આચરણા આદર્શ હતી. તેઓશ્રીએ આદર્શ અને આચરણાને એકરૂપ બનાવી દીધા હતા. પૂજયપાદ પોતાની ‘ઉપધી’ સિાધુને રોજની વાપરવાની કે ઉપયોગ કરવાના સાધન-સામગ્રી] એટલી સ્વલ્પ રાખતા હતા કે જેથી ખુદ ઉપાડી શકે. શિષ્ય તેમને સામાન—ઉપધી' ઉપાડે એ તેઓશ્રીને રુચતું ન હતું. એને પણ તેઓશ્રી પરાધીનતા કે પરાશ્રયીપણાનું પ્રતીક માનતા હતા.
પૂ. ગુરુદેવેશ આજે સ્વદેહે વિચરતા હોત તો ? આપણને સાચા રાહબરની – રાહબરીનું સૌભાગ્ય સાંપડત. આત્મસાધનાના માર્ગમાં આજે જે ક્ષતિઓ દૃષ્ટિગોચર થાય છે તે ન થાત. હવે શું ?
, ગુરુદેવેશ આજે હયાત નથી પણ તેઓશ્રીના જ્ઞાન અને ઉપદેશામૃતનું આબેહયાત (સ્વર્ગ) તો અમર છે.
પૂ. ગુરુદેવેશના “આ આબે-ધ્યાત”નું અમરત્વ પ્રાપ્ત કરવા આપણે જ્ઞાનયુકત આચરણાનો માર્ગ સ્વીકારવો પડશે.
આ માર્ગે સમાજનું, શ્રી સંઘના પ્રત્યેક અંગનું નવસર્જન થશે. આ નવસર્જન સ્વ ગુરુદેવેશે કરેલા ક્રિયા દ્વાર રૂપી સમાજના કાયાકલ્પને ક્રાંતિ અને કાંતિયુકત બનાવશે.
આ ક્રાંતિ અને કાંતિની સાધના-પરિતાપને પશ્ચાત્તાપની પ્રક્રિયામાં પૂજયપાદ પ્રભુ શ્રી રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ. ની સ્મૃતિ સૃજનતાની સાધક બનશે.
કાયરો અને ભીરુજનોની સ્મૃતિમાંથી શેષ એટલે કે બાદબાકીમાંથી વધેલ અવશેષ જ રહે છે. જયારે મહાપુરુષની સ્મૃતિ સર્જનકર્તા બને છે.
સ્વ. પૂજ્યપાદ તે મહાપુરુષોમાં પણ મહાયોગીરાજ હતા !
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
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શ્રેયમાગી શ્રાવિકા યાને આદર્શ આરાધિકા – સુલસા
[સાંપ્રત સમાજમાં મોટા ભાગના શબ્દો તેના અર્થ ખાઈ બેઠા છે. આનાં કરતાં પણ, આ વિષયમાં નગ્ન સત્ય ન કહેવું હોય તે પણ આ સ્પોકિત તો અનિવાર્ય જ છે કે, મોટા ભાગના શબ્દોનો ઉપયોગ તેના સાચા પરિપ્રેક્ષ્યમાં (in proper perspective) થતા નથી. આ કારણથી જ આજે શબ્દોનો જે ખોટા પરિપ્રેક્ષ્યમાં ઉદ્યોગ ાય છે તેના કારણે માનવ-મનની અભિવ્યક્તિનું આ માધ્યમ (medium) ક્લુષિત બન્યું છે. આ કલુષિતતાના કારણે સમાજના આચરણમાં પણ કલુષિતતા અને વિસંવાદિતા વ્યાપ્ત બની ગઈ છે. આનાં ઉદાહરણો શોધવા જવાં પડે તેમ નથી. આવું એક ઉદાહરણ છે—શ્રદ્ધા શબ્દનો ઉપયોગ. શબ્દકોષમાં શ્રદ્ધા શબ્દનો અર્થ શું થાય છે તેની ચર્ચા અહીં અસ્થાને છે. સાધક આત્મા માટે શ્રદ્ધા શબ્દની સમુચિત પરિપ્રેક્ષ્યમાં સાચી અભિવ્યકિત તા એક જ હોઈ શકે. આ અભિવ્યકિત છે : “શ્રદ્ધા એવે સમાજના કોક્ષમાર્ગી વિશ્વાસ”. જે વિશ્વાસમાં સમજણ અને શ્રેય નિહિત નથી તે વિશ્વાસને શ્રાદ્ધા કહી શકાય નહી.
સાંપ્રત સમાજમાં અને તેમાં પણ ‘શ્રી સંઘમાં સમ્યક શબ્દનો ઉપયોગ તેના વાસ્તવિક પરિપ્રેક્ષ્યમાં તે નથી, જેના કારણે સમ્યક દર્શન અને ચારિત્ર્યના આચરણામાર્ગ આવરિત ભૂમિલ બન્યો છે. આ આવરણથી આવેલી ભૂમિકતાના કારણે આજના વૈતિક કે ચોક્કસ વર્ગના આચાય જ. આચારધર્મની આધારશીયા બની ગયા છે. આનાથી નિવેશ' આવે છે એ સર્વશ કથિત સનાતન સત્ય છે. શ્રાવિકા સુલસાનું શ્રી ચતુર્વિધ સંઘમાં જે વિશિષ્ટ સ્થાન છે તે એની શ્રેયકારક સમ્યક શ્રદ્ધાના કારણે છે. સમ્યક્ શ્રદ્ધાની તેની સાચી સમજના કારણે સર્વજ્ઞ એવા ભ મહાવીરે પણ તેને “ધર્મલાભ” પાઠવ્યો કે જે સામાન્ય રીતે અપ્રત્યાશીત ઘટના છે.
આ અપ્રત્યાશીત ઘટના અનન્ય છે. કારણ કે સર્વજ્ઞ કામણ મહાવીર દેવે, શ્રાવિકા સુવાને ધર્મલાભ' પાઠવવાના માધ્યમથી સમ્યક-શ્રાદ્ધાવાન વ્યકિતનું શ્રી સંઘમાં શું સ્થાન છે તેના વ્યવહારીક નિર્દેશ જ નથી કર્યો પરંતુ શ્રી સંઘમાં શ્રાદ્ધાવાન વ્યકિતઓના સ્થાનની સ્વયં પ્રતિષ્ઠા કરી છે.
શ્રાદ્ધાવાન
આ સાથે એ હકીકત પણ એટલી જ મહત્ત્વની છે કે, શ્રાવિકા સુવાને પોતાના ષિત આચરણ દ્વારા વ્યકિતએ, શ્રાદ્ધાને આચરણના માધ્યમથી જ અભિવ્યકિત આપે છે એ સત્યની સાબિતી કરાવી આપી છે. શ્રાદ્ધા શુષ્ક ન હોઈ શકે. શ્રાદ્ધા સક્રિય જ હોય. સક્રિયતા અને શ્રાદ્ધા એક જ સિક્કાની બે બાજુઓ છે.
સાંપ્રત સમાજમાં આવી હોયકારક શ્રાદ્ધા સાકાર થાય એ હથી. કાવિકા સુસાના આરાધકળાયાનું આલેખન કરી ભાઈ શ્રી દોશીએ આરાધક ભાવની ઉપાદેયતાને ઉજાગર કરી છે.
સંપાદક)
[] લેખક: શ્રી પુનમચંદ નાગરદાસ દોધી ડીસા-બનાસકાંઠા |
“ગરજનો ! સાંભળજો, આજે સાક્ષાત બ્રહ્માજી સપરિવાર ઉદ્યાનમાં પધાર્યા છે. દર્શનાભિલાષીએ આ અમૂલ્ય અવસરના અવશ્ય લાભ લે.” રાજગૃહી નગરીના મહોલ્લે, મહાલ્લે ઢોલ પીટીને ઢોલી નગરજનોને આ સંદેશ સંભળાવી રહ્યા હતા.
સંશયના પડઘા પાડતા માનવમહેરામણ ઊભરાયો. શું બ્રહ્માનું રૂપ! આડંબરપૂર્વક બિરાજેલા બ્રહ્માનું ઐશ્ચર્ય અને આજસ જોઈ જનગણ અંજાઈ ગયો. આખું નગર હર્ષ-હિલાળે ચઢયું. ચારે ને ચાટે એક જ ચર્ચા થતી દેખાઈ. ભ્રમણામાં રાચતો જનસમાજ “ઈશ્વર-દર્શન”થી કૃતાર્થ થયો! છતાં એક ન ગઈ સતી શ્રાવિશ્ર સુલસા !!!.
હું સુવસા મુખ્ય હતી? શું સુવાના કૈંયામાં શ્રી સહજ કુત્તુહલવૃત્તિ પણ ન હતી?
ના, ના, સુલસા સર્વજ્ઞપ્રણિત સમ્યક શ્રદ્ધાની ધારક, “નારી તું નારાયણી'ના ભાવને જાગૃત કરનાર આદર્શ નારી હતી. અરિહંત પરમાત્મા ભ. મહાવીરના સાધના માર્ગની ઉપાસિકા હતી, નારીસહજ કોમળતા અને વાત્સર્ગની મતિ હતી. રાજગુડીના પ્રમુખ નાગરિક શ્રેષ્ઠી નાગસારથીની જીવનસંગીની હતી. શ્રદ્ધાના સહારે એણે સર્વજ્ઞકથિત સત્ય તત્ત્વો અને દર્શનનો ઊંડો અભ્યાસ કર્યો હતો. અન્યના સ્વાનુભવથી સુકમામાં એ તબ તાકાર વર્ષ ગયું હતું કે, પ્રત્યેક આત્મા જ્યારે કર્મ-મળથી શુદ્ધ થઈ સ્વ-સ્વરૂપસ્થિતિ પ્રાપ્ત કરે છે ત્યારે સ્વયં પરમાત્મસ્વરૂપ બની જાય છે. આવું પરમાત્મસ્વરૂપ પરથી નવી તું. પરંતુ સ્વ-રૂપાની પ્રાપ્ત થતું સ્વત્વનું શુદ્ધ સ્વાશ્રયી સ્વરૂપ છે. આવી પરિણતીવાળા આત્મા અરિહંત કે સર્વા ભગવંતનું શરણ સ્વીકારે એ નવિવાદ સત્ય છે. આવી શરણાગતીમાં આત્માના સ્વત્વ કે સત્વનું સમાપન નથી હતું. આ કારણથી આવી શરણાગતી. ત્યારે જ સોંપૂર્ણ બને છે કે જ્યારે પોતાના આત્મામાં નિહિત સ્વત્વ અને કર્મનિર્જરા માટે આવશ્યક એવું આત્મિક, સત્ત્વ, આત્માના આંતરિક ગુણ-અનંતવીર્યથી આજસવાન બની સ્વયં પ્રકાશીત બને છે.
આવી નિષ્ણ જ્યારે પ્રત્યક્ષ અનુભવનો વિષય બને ત્યારે જ માનવું કે સર્વજ્ઞકથિત સત્યદર્શન અને સત્યધર્મની શાશ્વત સ્વરૂપે અર્થાત ભાવિક સમતિની પ્રાપ્તિ થઈ છે.
આવા માયિક સકિતનો સ્વામી હોય એ આત્માની અતિષના એ હોય છે, કે અરિહંત પદને પામેલ કોઈ વ્યકિત કે આત્માના તે વ્યકિતરાગી નથી હોતો. પરંતુ અરિહંતપદ પ્રાપ્ત કરેલ આત્મા વ્યવહાર નયને આઝાયીને જે નામથી ઓળખતા હોય છે તે નામથી પણ ક્ષાયિક સમકિતના સ્વામી અરિહંતાશ્રિત આત્માના શુદ્ધ સ્વરૂપના જ પૂજક હોય છે નહીં કે કોઈ નામથી ઓળખાતા દેહધારી આત્માના કર્માશ્રયી દેહના.
સુલસામાં આ સત્ય તદાકાર હતું તેથી જ બ્રહ્માનું બ્રહ્મસ્વરૂપ કે લોકોનો તેના પ્રતિનો અહેાભાવ સુલસાના આત્મપ્રદેશને સ્પર્શી શકયો નહીં. આત્માની આંતરિક શકિત પ્રતિ શ્રાદ્ધાવાન આત્મા બાહ્ય ચમત્કારો કે ક્ષણિક સુખ કે આનંદના આકાંક્ષી ન હોય. એ તો હાય શાશ્વત સુખ અને આનંદનો ઉપાસક.
આવી આત્મપ્રતિતિયુકત નિશ્ચલ સમ્યક શ્રદ્ધામાંથી જન્મેલી આસ્થાનો આજના સમાજને પ્રત્યક્ષ અનુભવ થઈ શકે તેવું વાતાવરણ અને ઉજ્જવળ પરંપરાનું પુનરૂત્થાન કરવાનું કોય
રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
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જો કોઈ પણ સાધક આત્માને ફાળે જવું હોય તો એવા શ્રેયનાં સાધક હતાં સ્વ. પૂજ્યપાદ શ્રી રાજેન્દ્ર સૂ. મ. આ મહાપુરૂષે ભગવાનના શાસનના સાધના માર્ગમાં સમકિત દષ્ટિ, દેશવિરતી અને સર્વવિરતીના ધારક આત્માઓની ગુણવત્તાની અવસ્થાના કારણે પ્રાપ્ત થતાં સ્થાનની ભૂંસાતી જતી મર્યાદાખાઓને સજીવ કરી. તેઓશ્રીએ આ મર્યાદાખાઓ સજીવ કરી એટલું જ નહીં પણ પ્રત્યેક આત્માના સ્વ-પુરૂષાર્થ દ્વારા પ્રાપ્ત થતાં સ્થાનની પુન: પ્રતિષ્ઠા કરનારી પરંપરાને પ્રાણવાન બનાવી.
આવી પાવન પરંપરાના સંવાહક પ્રણેતા ભ. મહાવીરના સંદેશ અને સુલતાના આત્મામાં સાકાર થયેલી સમ્યક શ્રદ્ધાની કસોટી કરનાર અંબડે કેવી કેવી ઐન્દ્રજાળીક છલના કરી તે જોઈએ. સાથે સાથે આવી કસોટીઓનું કારણ – નિમિત્ત બનનાર ભ. મહાવીરને સંદેશો કેવો હતો તે જોઈએ.
એ સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ચંપાપુરીમાં સમસ્ય હતાં. સમતાની સૂરીલી બંસરીના નાદે અનેક આત્માઓ આત્મસાધનાના માર્ગે વિચરવા કટીબદ્ધ બનતા હતાં.
પરિવ્રાજક સંબડ પણ આત્માના અંતરંગ સ્વરૂપને આવિષ્કાર કરનાર અરિહંત પરમાત્મા ભ. મહાવીરને આરાધક અને ઉપાસક બન્યો હતો. ભગવાનની દેશના સાંભળી અંબડ રાજગૃહી નગરી તરફ આવતો હતો ત્યારે અંબડના આત્માને સમ્યક શ્રદ્ધાની પ્રતિતિ કરાવવાનો અવસર જાણી શમણ મહાવીરે તેની સાથે શ્રાવિકા સુલસાને “ધર્મલાભને સંદેશ પાઠવ્યો. - આત્માશ્રયી એવા અરિહંત મહાવીર પણ જે શ્રાવિકાને ધર્મલાભ” પાઠવે તે શ્રાવિકા સુલસાની ધર્મભાવના કેવી ઉત્તમ હશે? આવી ઉત્તમ ધર્મભાવનાની અગ્નિપરીક્ષા કરવાની અંબડને કોડ જાગ્યા.
પરિવ્રાજક અવસ્થામાં અબડે અનેક પ્રકારની ઈહલૌકિક ચમત્કાર સર્જી શકે તેવી સાધનાઓ સિદ્ધ કરી હતી. આ સાધનાના બળે તેણે રાજગૃહીના પૂર્વ દિશાના દરવાજે બ્રહ્માનું સ્વરૂપ સર્યું. ઈહલૈકિક ચમત્કારોમાં પોતાના પુરૂષાર્થની ઈતિશ્રી માનનારો જનસમૂહ બ્રહ્માના રૂપમાં રહેલ એબડને નમસ્કાર કરવા લાગ્યો.
બીજા દિવસે દક્ષિણ દિશાના દરવાજા બહાર ‘ચક્રધારી વિષણુ’નું રૂપ વિકુર્તી અબડે જનતાને આકર્ષ. ત્રીજા દિવસે રાજગૃહીની પ્રજાને ભાગ્ય ઊઘડી ગયા. જટાધારી શંકર નગાધિરાજ હિમાલયથી સ્વયં સાક્ષાત આવ્યા. નગરજનો મેટી સંખ્યામાં પહોંચ્યા ત્યાં પણ, એક ન આવી સુલસા.
ત્રણ ત્રણ દિવસથી રાજગૃહીની પ્રજા ઈશ્વરના ‘પ્રત્યક્ષ સાક્ષાત્કારોથી માંડી ઘેલી અને ભાવવિભોર બની ગઈ. આમ છતાં અંબડની આકાંક્ષા કે આશંકાની પૂર્તિ કે નિવારણ ન થયું. થોકે થાક ઊમટતી આનંદઘેલી પ્રજામાં અંબડને સુલસા શોધી છતાં, જડી નહીં.
અંબાની આશંકાની અગ્નિને પરિતાપ તેને પોતાને પ્રજળાવવા લાગ્યો. આશંકામાંથી જન્મેલી અગ્નિપરીક્ષાની અબડની ભાવના તેના ચરમ શીખરે પહોંચી. તેણે પ્રિય થાય એવા પ્રશ્રય-દંભનો આરંભ કરવાનો નિશ્ચય કર્યો.
ચોથે દિવસે અંબડે પોતાની ઈન્દ્રજાળથી ભ. ૨૧માં તીર્થકર સમવસરણમાં બિરાજી દેશના આપતા હોય તેવો આભાસ પેદા કર્યો. અરિહંતનું સ્વરૂપ કોઈ વિદુર્વી શકે નહીં એ સ્વરૂપ તે આત્મશકતિના આવકારથી જ પ્રાપ્ત થાય એ સત્ય પણ, રાજગૃહીની જનતા ભૂલી ગઈ. અંબડે ઊભા કરેલા આભાસમાં પ્રજા અંજાઈ ગઈ. નિરાશ થયેલા અબડના દિલમાં આશાનો ઉદય થયો કે
આજે તો સુલસા જરૂર આવશે. તીર્થકરનું નામ સાંભળી સુલસી દોડી આવશે. પણ આવું કાંઈ જ ન બન્યું. અંબડે આખે દિવસ રાહ જોઈ છતાં સુલસા આવી નહીં.
જે આત્મામાં સાચી શ્રદ્ધા આવી હોય, સત્યની પ્રતીતિ થઈ હોય તે આત્મા દંભ, ચમત્કાર કે છલના શિકાર થતો નથી. અસત્ય, અર્ધસત્ય કે મિશ્નસત્ય આવા આત્માની હૂત તંત્રીના તારોને ઝણઝણાવવામાં અસમર્થ નીવડે છે. શુદ્ધ સુવર્ણના સ્વામીને ભલે કરોડો આદમી એમ કહે કે આ કથીર છે છતાં જેવી રીતે એ સુવર્ણનો ત્યાગ કરતો નથી કે કથીર માની ફેકી દેતો નથી. તેવી રીતે જેને સત્યની પ્રાપ્તિ થઈ છે તે અસત્યનો આશ્રય તો ઠીક પણ એને ઓછાયો પણ લેતો નથી.
થાકેલે એવો અંબડ છેવટે થાકીને પોતે જાતે સુલસાને ઘેર ગયો અને ભ. મહાવીરનો ધર્મલાભને સંદેશો’ સુલસાને આપ્યું.
કામણ ભ. મહાવીરનો સંદેશ સાંભળતા જ સુલતાને આત્મા આનંદવિભોર બની ગયો. સંદેશમાં હતો “ધર્મલાભ' જ પણ સુલસ ગાંડીઘેલી બની ગઈ. સમ્યગ્દર્શન, સમ્યક જ્ઞાન કે સમ્યક ચારિત્ર્ય પ્રતિની અર્થાત સત્ય દર્શન, સત્ય જ્ઞાન અને સત્યાચારણ કરનાર વ્યકિતને જ્યારે સત્યને સર્વાગી સ્વરૂપે પ્રકાશીત કરનાર સર્વજ્ઞને સામાન્ય એવો સંદેશ પ્રત્યક્ષ કે પરોક્ષ રૂપે મળે છે ત્યારે તેના આત્માને એક એક અણુ પ્રલ્લિત થઈ જાય છે. આ છે સત્ય સાથેનું આત્માનું સંધાન.
અંબડ! શું મારા નાથે મને યાદ કરી ?” તુલસાએ પૂછ્યું. એના અવાજમાં આત્મિકમિલનના આનંદની આકાંક્ષાની આતુરતા હતી.
અંબડ અચંબામાં પડી ગયો. એની ઐન્દ્રજાળીક માયાથી જ્યારે રાજગૃહીની પ્રજા ઘેલી બની ત્યારે જે સુલતાનું એક રેવાડું પણ ફરકયું ન હતું તે સુલસા શ્રમણ મહાવીરને સંદેશો માત્ર એક શબ્દને સંદેશ સાંભળી ગાંડીઘેલી બની ગઈ.
સુલસા ! ભગવાન તો ચંપાપુરીમાં બિરાજમાન છે. પ્રભુ મહાવીર ત્યાં ઉપકારકે દેશના દ્વારા અનેક જીવોના આત્મકલ્યાણને માર્ગ પ્રશસ્ત કરી રહ્યા છે. સતી સુલસી ! મારી એક શંકાનું નિવારણ કરો. આ નગરીમાં બ્રહ્મા, વિષ્ણુ મહેશ સાક્ષાત આવ્યા. રાજગૃહીની સમગ્ર જનતા દર્શનાર્થે ઉમટી પણ તમે એક જ ન આવ્યાં આનું કારણ શું? - “અંબડ! આત્માના સ્વ-સ્વરૂપ પ્રતિ પ્રીતિ ઉત્પન્ન થતા તેના નિજાનંદની મસ્તીમાં મહાલતા આત્મામાં અસત અને અશાશ્વત તો કે દ્રવ્યો પ્રતિની આસકિતઓ વિલય પામે છે. આવી આસકિતઓના વિલય થતાં દેહાત્મભિન-ભાવની પ્રતીતિ થાય છે. આ પ્રતીતિમાંથી જન્મતી પરિણતીના પ્રતાપે જડ પદાર્થો તથા પુદ્ગલ પ્રતિની સરાગદશાના સ્થાને વિરકતી અથવા સાક્ષીભાવનો સાક્ષાત્કાર થાય છે. આ સાક્ષાત કાર સર્વ પ્રરૂપિત સત્યદર્શનના આધારે આવતી અધ્યવસાય શુદ્ધિથી થાય છે. આવી અધ્યવસાયશુદ્ધિવાળો આત્મા ઈહલૌકિક કે અશાશ્વત શકિતઓ કે ચમત્કારોમાં આસ્થા કે કુતૂહલવૃત્તિ નથી રાખતા. આવો આત્મા પુદગલાનંદી ન હોય, પણ સ્વ-સ્વરૂપના શાશ્વત આનંદમાં જ એ રમા હાય” સુલસાએ જવાબ આપ્યો.
માની લઉં છું, કે સ્વ-સ્વરૂપના નિજાનંદની મસ્તીમાં તમે મસ્ત છે પણ આવી મસ્તીના માર્ગદર્શક એવા ૨૫માં તીર્થકર સાક્ષાત્ આ નગરીમાં સમવસર્યા છતાં તમે ન આવ્યાં. શું આ તમારી ભૂલ નથી ?” અરિહંત કે અરિહંતની આજ્ઞાની પ્રત્યક્ષ કે
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
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પરોક્ષરૂપે કરવામાં આવતી અવજ્ઞા એમની આશાતના જ લેખાય એ સત્યને નિર્દેશ કરતાં અંબડે સુલતાને ફરી પ્રશ્ન કર્યો. - “સમ્યક શ્રદ્ધા એટલે સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત શાસન અને સત્ય સાથેનું આત્મસંધાન. આવા આત્મસંધાનથી પ્રત્યેક આત્મામાં એક એવી બુદ્ધિ અને શકિતને ઉદય થાય છે કે જે બુદ્ધિ સત્યાસત્યને સહજભાવે વિવેકપૂર્ણ નિર્ણય કરી શકે છે. આ નિર્ણયને તે પિતાની આ શકિતના સામર્થ્યથી સ્વાભાવિક વ્યવહારમાં, આચરણના રૂપમાં પણ તેનું પરાવર્તન કરી શકે છે.
આથી જ જ્યારે મેં સાંભળ્યું કે ૨૫માં તીર્થકર નગર બહાર સમવસર્યા છે ત્યારે તેમાં રહેલા અસત્યના કારણે મારા આત્મપ્રદેશો રોમાંચિત થયાં નહીં. સત્યની સમુપસ્થિતિને સમય આવે ત્યારે સત્યને સમપિત થયેલાઓને કોઈ સાદ કે આવાજની જરૂર નથી હોતી. સત્યની સમુપસ્થિતિથી તેઓ સ્વયં આવી પહોંચે છે. અસત્ય તેમને આકર્ષી શકતું નથી. એ ભૂલો નહીં અંબડ!
વળી, આ અવસર્પીણીમાં ભ. મહાવીર એ ચરમ તીર્થકર છે એવા સર્વજ્ઞના કથનને શું તમે સાવ વિસરી ગયા ? પરપદાર્થમાં પ્રિતીવાળો આત્મા પ્રમાદી હોય પણ આત્મસ્વરૂપાકાંક્ષી આત્મા તો અપ્રમત્તભાવે જ આત્માની આલબેલ પુકારતા ને અજ્ઞાનને પડકારતો અડીખમ ઊભે હોય એ કેમ ભૂલે છે ?” તુલસાએ પોતે સ્વયં કેમ ત્યાં ગઈ નહીં તેનું કારણ કહેતાં કહેતાં પણ સ્વના અહમ નું વિલોપન અને સમકિત દૃષ્ટિ આત્મામાં રહેનારી સત્યનિષ્ઠાને સમાદર કરી પોતાના સંસારનું આંશિક વિસર્જન કર્યું.
આ કથન દ્વારા સતી સુલસાએ પોતાના સંસારનું આંશિક વિસર્જન કર્યું એ હકીકત પ્રતિ અહીં અંગુલી નિર્દેશ એ માટે કર્યો છે કે, સાંપ્રત સમાજમાં, સતી સુલસીના જીવનમાં બનેલ આ સત્ય ઘટનાના આ કોયકારક પાસાની અભિવ્યકિત આજે અવ્યકત બનતી જાય છે.
અવ્યકત બનતી આ અભિવ્યકિત એ છે કે ભગવાનના શાસન પ્રતિની અવિહડ શ્રદ્ધાની સ્પષ્ટ અભિવ્યકિત ત્યારે જ શકય બને છે કે જ્યારે કોઈ પણ આત્મામાં પોતાનામાં રહેલી આચરણની અશકિત અર્થાત પોતાનામાં રહેલા અચારિત્રીપણા પ્રતિ અભાવ પેદા થાય છે. આ અભાવ” જ આવા આત્મામાં ચારિત્ર્યની પ્રવૃત્તિને સંચાર કરાવનાર બને છે.
કર્મજન્ય કુતૂહલવૃત્તિ એવી તે વિચિત્ર હોય છે કે, સત્ય સ્પષ્ટરૂપે જાણવા મળે છતાં પણ એને ઊલટાવીને કે અન્ય કોઈ પણ રીતે નાણી જેવાની અનધિકાર ચેષ્ટા કર્યા સિવાય માનવીની વૃત્તિ શમન પામતી નથી !!
અંબડે વળી પાછું સુલતાને પૂછયું કે “એ વાતને સ્વીકાર કર' છું કે ૨૫માં તીર્થકરના આગમનથી તમને આત્મલ્લાસ ન થયો પણ શું તમે એ પણ વિચાર ન કર્યો કે, ધર્મ-પ્રભાવનાનું કારણ-નિમિત્ત બને તેવા કોઈ પણ પ્રસંગમાં તમારે હાજર રહેવું જોઈએ-સમ્મિલીત થવું જોઈએ?”
“ધર્મને વાસ કોઈ વ્યકિત કે સ્થાનવિશેષમાં નથી પણ અધ્યાવસાય શુદ્ધિમાં અને તદનુસારની પ્રવૃત્તિમાં જ છે. આવી શુદ્ધિ હોય ત્યાં પરિણતી વગરની પ્રવૃત્તિ કયાં તો અભિનય વૃત્તિમાંથી પેદા થયેલી નાટકીય પ્રવૃત્તિ હોય છે અથવા કર્મજન્ય વિકૃતિઓમાંથી પેદા થયેલા પ્રપંચને જ એક પ્રકાર હોય છે. આવી પરિણતીહીન પ્રવૃત્તિ કે પ્રપંચના માધ્યમથી ધર્મપ્રભાવના થઈ શકે નહીં કે
પરિણતી આવી શકે નહીં. ધર્માનુકુલ પ્રવૃત્તિ પરિણામ વિશુદ્ધિના પાયા પર જ કરી શકાય.
બાલજીને સમ્યક માર્ગની પ્રાપ્તિ થાય તેવા અનેક ઉપાયો શાસ્ત્રકારોએ બતાવ્યા છે. આવા ઉપાયોની અભિવ્યકિત આકર્ષક બને તેના માર્ગો કે પ્રકારો પણ સર્વજ્ઞ ભગવંતોએ વર્ણવ્યા છે. આવા માર્ગો કે પ્રકારો વર્ણવતાં, આ ઉપકારી લોકોત્તર પરમ પુર એ સર્વપ્રથમ એ સ્પષ્ટતા કરી છે કે આવી અભિવ્યકિતની આકર્મકતા અધ્યવસાય શુદ્ધિ અને સાધનશુદ્ધિના વિવેકથી યુકત હોવી અનિવાર્ય છે, અન્યથા એવી પ્રવૃત્તિ કે અભિવ્યકિત અનર્થદંડની અભિવ્યકિત બને છે.
અશુદ્ધ સાધનેનાં માધ્યમથી કરવામાં આવેલી કોઈ પણ પ્રવૃત્તિ કે પ્રરૂપણા શુદ્ધતા-સાધક બની શકે નહીં. અશુદ્ધ આલંબન કે માધ્યમથી પણ શુદ્ધ તવ કે સત્ય સમીપ પહોંચી શકાય છે, પ્રાપ્ત કરી શકાય છે એવી વાત કે માન્યતા અભિનિવેશમથથી ઉત્પન્ન થયેલી આત્મવંચક ભ્રમણા છે.
આત્મકલ્યાણની ભાવના આવતાં જ બાલજીવનું બાળપણું બાહ્યા અજ્ઞાન નાશ પામે છે અથવા નહીંવત બને છે. આત્મકલ્યાણને ઈચ્છક અશુદ્ધ કે અનધિકારી માધ્યમને ઉપયોગ કરે જ નહી. સુલતાએ સમ્યક શ્રદ્ધામાંથી સાકાર થયેલી સાધ્ય અને સાધનશુદ્ધિની પ્રતીતિ પ્રગટ કરી.
સુલસાની આ પાવન પ્રતીતિમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા પ્રકાશપૂંજના તેજથી અંબડના આત્મામાં રહેલ આશંકાને અંધકાર દૂર થયો. આ અંધકાર દૂર થતાં જ અબડને આત્મભાન થયું–પશ્ચાત્તાપ થયો કે “મેં અશુદ્ધ સાધને દ્વારા ઈન્દ્રજાળથી આડંબરયુકત પ્રવૃત્તિ કરી પાપને બંધ કર્યો છે.” પાપના આ બંધને છેદવા માટે બડે અહમ ને ત્યાગ કરી સુલસા પાસે પોતાની અસત પ્રવૃત્તિનો એકરાર કરી મિથ્યા માર્ગગમન બદલ મિચ્છામિ દુક્કડમ દઈ કરેલા પાપની ગહ કરી. પોતાની શ્રદ્ધાને શુદ્ધ કરી આત્મકલ્યાણકારી આચરણા માર્ગનું અનુસરણ કર્યું.
સમ્યક દર્શનમાંથી જન્મેલી સમ્યક શ્રદ્ધાના માધ્યમથી સમ્યક જ્ઞાનની અભિવ્યકિત તથા સમ્યક આચારના પાલનથી શ્રાવિકા સુલસાએ સર્વજ્ઞ એવા મહાવીરદેવની આજ્ઞાના પાલન અને આસ્થાથી આત્મામાં પ્રગટતી પારદર્શી તત્તશોધક દષ્ટિ અને પરિણતીનું પ્રત્યથા પ્રમાણ પૂરાં પાડયું.
આવી પારદર્શીતા જ આત્માને સંસાર પારગામી બનાવે અને પાપપુનાશક બને તથા પુન્યપ્રવૃત્તિમાંથી વિરકિતની ભાવનાથી વીતરાગતા અપાવે.
શ્રાવિકા સુલસાના આત્મામાં રહેલી આવી સત્યનિષ્ઠાને સાંપ્રત સમયના શ્રીસંઘમાં સમગ્ર માનવ સમાજમાં સાક્ષાત કરવાનો પુરુષાર્થ કરવાની આજના સમયમાં અનિવાર્ય આવશ્યકતા.
આ અવશ્યકતાની પૂર્તિ અરિહંતના શાસનની વિશુદ્ધ આરાધનામાં જ નિહીત છે. આ આત્યંતિક સત્યમાં સમાજને પથ-પ્રદર્શન કરવાની ક્ષમતા શાશ્વત સ્વરૂપે રહેલી છે, એ એક શ્રેયકારી વાસ્તવિકતા છે. કોઈ પણ વાસ્તવિકતાને વિચારવાથી વિભાવિકતા અને વિકૃતિ આવે છે.
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રાજેન્દ્ર જયોતિ
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જૈન ધર્મના પ્રચાર માટે નાટક-કલાનો ઉપયોગ (પ. પૂ. આ. શ્રી વિજયસૂર્યોદય પૂરીશ્વરજી મ.ના શિષ્ય) *
લે. પૂ. મુનિશ્રી શીલચન્દ્ર વિજય મ.
ભારતીય કલાના ચિત્ર, નૃત્ય, સંગીત અને નાટક વગેરે
પ્રકારોને ઉપયોગ મુખ્યત્વે આ ત્રણ હેતુસર થાય છે : (૧) ભાવકના ચિત્તમાં રસનિષ્પત્તિ કરવા દ્વારા તેનું રંજન; (૨) ઐતિહાસિક કે કાલ્પનિક ઘટનાઓના માધ્યમે, લેકભાગ્ય શૈલીમાં, પ્રજાને અભિષ્ટ એવા રાજકીય કે વ્યાવહારિક હેતુઓની સિદ્ધિ અથવા ધાર્મિક સિદ્ધાંત અને ઉપદેશને પ્રચાર - પ્રસાર, (૩) ભારતીય (પ્રાચીન અર્વાચીન) સંસ્કૃતિનું સંરક્ષણ તથા સંવર્ધન.
જેમ ચિત્ર, નૃત્ય અને સંગીત, તેમ નાટક પણ આ ત્રણે હેતુઓને બર લાવવાનું પ્રબળ અને શ્રેષ્ઠ સાધન મનાય છે. માત્ર અર્વાચીન યુગમાં જ નહિ, પણ પ્રાચીન ઈતિહાસકાળથી નાટકને આ હેતુઓ માટે ઉપયોગ થતો રહ્યો છે. હા, યુગભેદે તેમાં ભાષા અને રજુઆત વગેરેમાં અનેક પરિવર્તન થતાં આવ્યાં છે.
સામાન્યત: કોઈ પણ નાટક-પછી તે રાજકીય ઘટના પર આધારિત હોય કે ઐતિહાસિક કે ધાર્મિક કથાવસ્તુ પર આયોજિત હોય તેનું ધ્યેય ‘રસનિષ્પત્તિ દ્વારા મનોરંજન’ જ હોય છે. એમાં જે સફળ ન થાય તે નાટક બીજા બે હેતુઓને ભાગ્યે જ પાર પાડી શકે છે, એટલે ખરી વાત એ છે કે “રસ નિષ્પત્તિ દ્વારા મનોરંજનનું કાર્ય સાધીને જ કોઈ પણ નાટક, તેના બાકીના બે હેતુને પાર પાડવા શકિતમાન બને છે.
જ્યારે કાન્યકજનરેશ આમ રાજાના મનમાં, પોતાના ગુર. સિદ્ધ–સારસ્વત જૈનાચાર્ય શ્રી બપ્પભટ્ટસૂરિજીના ગુરબંધુઓ
અને મહાન જૈનાચાર્યો-ગોવિંદસૂરિ તથા નમ્નસૂરિના ચારિત્ર્ય વિશે શંકા ઊપજી, ત્યારે તેનું નિવારણ કરવાને તે બન્ને આચાર્યોએ મોઢેરકથી કાન્યકુબ્ધ જઈ, નટવેષ ધારણ કરી, રાજસભામાં પિતાની ઉત્કૃષ્ટ અભિનયકળા દર્શાવવા દ્વારા વીર રસની એવી તે “વિચલિતવેદાન્તર” અનુભૂતિ કરાવી કે જેના પરિણામે ચાલુ નાટકે જ સભામાં બેઠેલા આમ રાજા વગેરે ક્ષત્રિયો રંગભૂમિને રણમેદાન સમજી બેઠા ને તલવાર ખેંચીને યુદ્ધ કરવા તૈયાર થઈ ગયા. એ જ વખતે પોતાનું ‘વિર: જો વા રસ : પોfuત :' આ વાત આમ રાજાને સમજાવવાનું મુખ્ય પ્રયોજન પૂરું થયું જોઈને બન્ને આચાર્યોએ નાટક, સમેટી લીધું. નાટકનો સામાન્ય પ્રયોજન'રસનિષ્પત્તિ અને તે દ્વારા મનોરંજનના માધ્યમથી ઉદ્દેશ સિદ્ધિ' નું આ ઉમદા ઉદાહરણ છે.
(૨) માલવપતિ રાજા ભોજ જયારે અન્ય દેશ પર ચડાઈ કરવાનું વિચારતા હતા ત્યારે, તેનું આક્રમણ ખાળવાના એક રાજકીય ઉપાય તરીકે, તૈલંગણના રાજા તૈલપદેવના હાથે થયેલા માલવપતિ મુંજના ઘેર પરાજય અને દયાજનક અને મૃત્યુના પ્રસંગોને આવરી લેતું એક નાટક ભોજરાજાને દેખાડવામાં આવેલું અને તેથી એ નાટકના પ્રયોજકને રાજકીય હેતુ-ભેજ રાજાના આક્રમણના પ્રવાહને અન્યત્ર વાળવાને-બરાબર સફળ થયો-બર આવી ગયો.
(૩) અને, ભારતીય સંસ્કૃતિનાં સંરક્ષણ અને સંવર્ધન માટે નાટકનો ઉપયોગ જેમ આજે થાય છે તેમ પ્રાચીન કાળમાં પણ થતો જ હતે. આપણાં પ્રાચીન, પ્રાચીનતમ નાટયશાસ્ત્રનાં ગ્રન્થ આ વાતના પુરાવા આપે છે.
જેમ, આ બધા હેતુઓ સર નાટકો પ્રજાય છે, તેમ
ધાર્મિક સિદ્ધાંત અને ઉપદેશોને જન સાધારણ સુધી પહોંચાડીને વ્યવહાર રીતે અમલી બનાવવા માટે પણ નાટક-કલાને આશ્રય સૈકાઓથી લેવાતો આવ્યો છે. આ બાબતથી જૈનધર્મ પણ વેગળ નથી રહ્યો. કલિકાલસર્વજ્ઞ શ્રી હેમચન્દ્રાચાર્યના યુગમાં અને મંત્રીશ્વર વસ્તુપાળ-તેજપાળના સમયમાં, ગુજરાતમાં પ્રવતે લા સંસ્કારિતાના સુવર્ણયુગમાં જેમ ઈતર સાહિત્ય અને ઈતર નાટક સાહિત્ય રચાયું છે તેમ જૈન નાટક-સાહિત્ય પણ રચાયું છે. એટલું જ નહિ, પણ રંગભૂમિ પર તેની અસરકારક અને લોકરંજક રજૂઆત પણ થઈ છે. આવી રચનાઓમાં મુદ્રિતકુમુદચન્દ્ર, મહરાજ પરાજય, પ્રબુદ્ધ રૌહિણેય વગેરે નોંધપાત્ર છે. કલિકાલસર્વજ્ઞના પટ્ટધર અને સ્વતંત્રતાના પરમપૂજક આચાર્ય રામચંદ્રસૂરીજીએ જ સો જેટલાં સાહિત્ય પ્રબંધો રચ્યાં હતાં, જેમાં સંસ્કૃત નાટકોની સંખ્યા ગણનાપાત્ર હોવાનું શકય છે.
આ જૈન નાટકો (જે મુખ્યત્વે સંસ્કૃત ભાષામાં છે)ને મુખ્ય ઉદ્દેશ અહિંસા, અપરિગ્રહ, ત્યાગ અને વૈરાગ્યની ભાવના, આત્મશાંતિ અને એ બધાં વડે ‘પ્રાપ્તવ્ય’ એવા મેક્ષ વગેરે વગેરે જૈન ધર્મના મૌલિક સિદ્ધાંતો અને તેને અનુસરનારા ઉપદેશની લોકહૃદયમાં સ્થાપના-પ્રભાવના કરવી, એવું છે. આ માટે જૈન નાટકોના પ્રણેતાઓએ, કયારેક સંસારની અસારતા અને તેથી જ તેના તરફની આસકિતને ત્યાગ કરવા પૂર્વક સંવેગ અને નિર્વેદથી ભરપૂર વૈરાગ્યરસની ગ્રાહ્યતાનું નિરૂપણ કરતી કાલ્પનિક રૂપકકથાઓનું આલંબન લીધું છે. દા. ત. મહરાજ પરાજય નાટક; તે તેમાં કયારેક ધર્મક્ષેત્રે બની ગયેલી ઈતિહાસપ્રસિદ્ધ ઘટનાઓને આધાર લીધે છે. દા. ત. પ્રબુદ્ધ રૌહિણેય નાટક,
નાટક જયારે ઐતિહાસિક ધર્મકથા પર આધારિત હોય ત્યારે તેની પાત્રસૃષ્ટિમાં, કથાની સાથે અને એથી જ નાટકમાં સંકળાયેલા ધર્મપુરુષોને પણ તેમાં સમાવેશ કરવો આવશ્યક થઈ પડે છે. પણ આમ કરવા જતાં એ ધર્મપુરુષની અને એ દ્વારા ધર્મની આશાતના થઈ જવા ન પામે, તેમ જ ધર્મના અનુયાયીઓની ધાર્મિક લાગણી દુભાવા ન પામે એને નાટકકારે ખાસ ખ્યાલ રાખવો પડે છે. એવી ચીવટપૂર્વક કરાયેલી પાત્રકલ્પના, નાટકની કથાવસ્તુને તથા રજૂઆતને કોઈ અનેરો જ ઉઠાવ આપે છે.
આવા જ એક ઉઠાવદાર નાટક કદ્ર રોયમાં નાટકકર્તાએ ખુદ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરદેવને પાર્શ્વ- પાત્ર તરીકે થાક્યા છે. આવા પાત્રનું સંયોજન કરવાની નાટકકારની કુશળતા દાદ માગી લે તેવી છે.
ઝવૃદ્ધ રોયિ ના પ્રણેતા, વિક્રમના બારમા સૈકામાં થયેલા અને તેરમા સૈકામાં દિવંગત થયેલા બૃહદ્ગછીય મહાન જૈનાચાર્ય શ્રી વાદી દેવસૂરિ મહારાજની પટ્ટધર સૈદ્ધાંતિક શિરોમણી આચાર્ય શ્રીજ્યપ્રભસૂરીજીના શિષ્ય, મધુરવાણીના ઉદ્ગાતા મુનિ રામભદ્ર છે. તેમણે રચેલું આ નાટક, તેરમા શતકમાં ગુજરાતના પાટણ શહેરમાં શ્રી યશવીર અને શ્રી અજયપાલ નામક બે કોષ્ઠિબંધુઓએ કરાવેલા શ્રીયુગાદિદેવ પ્રસાદની અંદર, પ્રથમ રજૂઆત પામ્યું હતું.
જયારે મગધ દેશ પર સમ્રાટ, શ્રેણિક બિંબિસારનું શાસન પ્રવર્તતું હતું. ભારતવર્ષમાં અહિંસામૂર્તિ, પ્રેમાવતાર, ભગવાન મહાવીરનું ધર્મચક્ર પ્રસરી ચૂક્યું હતું, પિતાની વિદ્યાશકિત વડેથી
વિ. નિ. સં. ૨૫૦૩
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અભયકુમાર જેવા બુદ્ધિનિધાન મંત્રીને પણ કાનની બૂટ પકડાવનાર ચાર રોહિણેયના ચેરજીવનની કથા લઈ, એનાં હૃદય પરિવર્તનની ઘટનાને કેન્દ્રબિંદુ બનાવીને રચાયેલું આ નાટક : ____ दर्शन ध्यान संस्पर्श :, मत्सी कूर्मी च पक्षिणी।
વારમઝાન્ન, તથા કાન સંજતિ : // તેમ જ સત્યંતિ : કથા વા ન રતિ વસ” આવી ઉકિતઓમાં વર્ણવેલી સત્સંગતિની અજાયે ને અનિચ્છાએ પણ થઈ ગયેલી અનુભૂતિ કે સ્પર્શનનાં ફળ કેવાં મીઠાં નીપજે છે ! આ હકીકત, તેનું જવલંત દષ્ટાંત પૂરું પાડે છે. આ ઉપરાંત ભગવાન મહાવીરે પ્રબોધેલા, સૂક્ષ્મ કે ભૂલ કોઈ પણ વસ્તુ, તેના માલિકની અનુમતિ સિવાય લેવા રૂપ અસ્તેયના સિદ્ધાંતને પાઠ પણ આડકતરી રીતે શીખવે છે.
રૌહિણેયને અનિચ્છાએ પણ સત્સંગતિ કઈ રીતે થઈ ગઈ? તે જાણવા માટે પ્રસ્તુત નાટકમાં વર્ણવેલી એના જીવનની ઘટનાઓ આપણે ટૂંકાણમાં જોઈએ:
રૌહિણેયને પિતા લેહખુર નામે મગધનો પ્રખર ચેર છે. અનેક ચોરોને એ નાયક હોવા ઉપરાંત ‘અદશ્યકારિણી' વગેરે વિદ્યાઓ પણ જાણતા હતા. આ જ કારણે એ દુધ અને દુજોય થઈ ગયો હતો. એણે પિતાનાં મરણ વખતે, ચૌર્યવિદ્યામાં પોતાથી યે સવાયા પારંગત પુત્ર રોહિણેયને એક પ્રતિજ્ઞા લેવડાવી કે : “રૌહિણેય ! તારે પ્રાણાંતે પણ શ્રમાણ મહાવીરનું વચન સાંભળવું નહિ ને તેને પરિચય કરવો નહિ.” દુનિયા માટે દુજોય ગણાતો લોહખુર એકમાત્ર ટામણ મહાવીરથી ખૂબ ડરતો. એને ખબર હતી કે મહાવીરના નજીવા પરિચયે પણ માણસમાં આમૂલ પરિવર્તન આવી જાય છે. ને જે એમ થાય તે પેતાને વારસાગત ચારીને ધંધો ને તેના કારણે મેળવેલી પ્રતિષ્ઠા પળવારમાં ખંડિત થઈ જાય. આ એની દહેશત હતી. એટલે એ પોતે તો જીવનભર મહાવીરથી દૂર જ રહેશે, પણ પોતાના પુત્રને પણ તેણે એમનાથી દૂર રહેવાની આવી પ્રતિજ્ઞા કરાવી. પ્રતિજ્ઞા લેવરાવતાં પૂર્વે તેણે મહાવીર વિપે રૌહિણેયને અગણિત વિચિત્ર કાલ્પનિક વાત કહી. આ બધાથી દોરવાયેલા રૌહિણેયે પ્રાણના ભાગે ‘પણ’ પાળવાનું વચન આપીને આ પ્રતિજ્ઞા લીધી. એથી સંતોષ પામેલે લોહખુર નિરાંતે મર્યો.
એ પછી સ્વતંત્રપણે આરંભાયેલી રૌહિણેયની મગધના મહાચોર તરીકેની કારકિર્દી જયારે ટોચે પહોંચી અને તેને પકડવામાં મગધની તમામ દંડશકિત નાકામિયાબ પુરવાર થઈ ત્યારે મહામંત્રી અભયકુમારે પ્રજાને ભયમુકત કરવા માટે પોતે જ રૌઢિાયને પકડવાનું બીડું ઝડપ્યું. લોકોને લાગ્યું કે હવે ચોરનું આવી બન્યું !
અને બન્યું પણ એવું જ. જ્યારે અભયકુમાર પોતાની જાસૂસી જાળ ને સૈન્યશકિતને હબદ્ધ ગઠવી રહ્યા હતા, ત્યારે જ રૌહિણેયને રાજગૃહીમાં ચોરી કરવા જવાનું સૂઝયું. તે રાજગૃહી ભણી નીકળી તો પડ્યો પણ ધૂનમાં ને ધૂનમાં તેને એ ખબર ના રહી કે માર્ગમાં મહાવીરનું સમવસરણ છે ને તેમને ઉપદેશ ચાલી રહ્યો છે. સમવસરણની તદન નજીક પહોંચ્યો ત્યારે જ તેને આ વાતનો ખ્યાલ આવ્યો કે પ્રતિજ્ઞાભંગ થઈ જશે. આ વિચારથી તે વિહ્વળ થઈ ગયો. પણ હવે કોઈ ઉપાય ન હતો. ગમે તે તરફ જાય પણ મહાવીરના શબ્દો કાને પડવાના જ. જીવનનું કોઈ મહાન પાપ પોતે કરી રહ્યો છે એમ તેને લાગ્યું. આ પાપથી બચવા ખાતર તેણે પોતાના બનને કાનમાં આગળી ખેચી દીધી ને ખેતર કે રસ્તે જોયા વગર આડેધડ દોડવા લાગ્યો. પણ ઝડપથી દોડવા જતાં પગમાં ધારદાર સોયા જેવી કાંટાની શૂળ ભેંકાઈ ગઈ, તે કાઢયા વિના ચાલવું અશક્ય બન્યું. એ
કાઢવા માટે તેણે મોં વતી પ્રયત્ન કર્યો પણ નિષ્ફળ. એને માટે ધર્મસંકટ ખડું થયું. કાંટો કાઢ્યા વિના ચલાય નહિ ને કાંટે કાઢવા માટે કાનમાંથી હાથ છુટો કરે તે મહાવીરનું વચન કાને પડી જાય તે પ્રતિજ્ઞાભંગ થાય. પણ જો હવે જલદી આગળ ન વધે તો પકડાઈ જવાને પણ સંભવ હતો. એટલે તેણે એક હાથ છૂટો કર્યો ને કાંટો ખેંચી કાઢયો.
પણ, આમ કરવામાં વીતેલી ગણતરીની પળોમાં પણ એના કાને ભગવાન મહાવીરનાં વેણ પડી જ ગયાં. અત્યારે એ જેને સાંભળવામાં મહાપાપ માનતા હતા, એ જ વેણ ભવિષ્યમાં એની રક્ષણઢાળ બની ગયાં, એટલું જ નહિ, એના હૃદય પરિવર્તનનું પણ મહાન નિમિત્ત બની ગયાં. આ રહ્યા ભગવાનના એ શબ્દો : દવોને પરસેવો થાય નહિ, દેવોને થાક લાગે નહિ, દેવને રોગ થાય નહિ, દેવાની ફૂલમાળા કરમાય નહિ; દેવો પૃથ્વીથી અદ્ધર ચાલે, દેવોની આંખમાં પલકારા ન હોય; દેવ-વસ્ત્ર સદા વપરાય છતાં નિત્ય નૂતન રહે; દેવના શરીર સુગંધયુકત હોય, દેવ, વિચાર માત્રથી ધાર્યું કાર્ય કરી શકે,
આ વચન, પ્રવુ રળિય માં મુનિ રામભદ્ર સાક્ષાત ભગવાન મહાવીરના મુખે બેલાઈ રહ્યાં હોય તે રીતે એક શ્લોકમાં પરોવી દીધાં છે. જોવાની ખૂબી તો એ છે કે આવા લોકોત્તર પુરુષનું પાત્ર પણ તેમણે નેપથ્યમાં (પા-પાત્ર તરીકે રજૂ કર્યું છે એટલે કાંટો કાઢી રહેલા રૌહિણેયના કાનમાં નેપથ્યમાંથી ભગવાન મહાવીરની ધીર અને મેઘગંભીર વાણી પ્રવેશી રહી છે :
निःस्वेदाङगा : श्रमविरहिता नीरुजोऽम्लानमाल्या, अस्पृष्टोविलयचलना निनिमषाक्षिरम्या : । शश्वभ्दोगेड प्यमलवसना विस्रगन्ध प्रमुक्का
श्चिन्तामानोपजनितमनोवाम्छितार्थाः सुराः स्युः ।। અને આ સાંભળનાર રોહિણેયનું પાત્રો આ વખતે વિચારે છે કે અરેરે ! મારી અનિચ્છા છતાં આ (મહાવીર-નાં પાત્ર)નું વચન મારાથી સંભળાઈ ગયું. મેં પિતાને આપેલું વચન પણ હું ન પાળી શકયો ! ધિક્કાર હો મને !
અને, આમ વિચારતો તે નગરમાં ચાલ્યો જાય છે.
અહીં એ સમજાય તેવી વાત છે કે નાટકકારે ભગવાન મહાવીરનાં વચન ઉચ્ચારનાર એક પાત્રની કલ્પના કરી છે, જેને રૌહિણેયનું પાત્ર ‘મહાવીર’ સમજે છે પણ આવા લોકોત્તર ધર્મતીર્થકરની અશાતના ન થવા પામે, એ વાતને બરાબર લક્ષમાં રાખીને જ નાટકકારે “મહાવીર’ના પાત્રને રંગમંચ ઉપર સાક્ષાત (પ્રગટપણે) રજૂ ન થવા દઈને, તેને નેપથ્યમાં ગોઠવીને જાણે, દિવ્યગાન ચાલી રહ્યું હોય તેમ
શ્લોકગાનને જ પ્રસારિત થવા દીધું છે. પણ આનો અર્થ એ નથી થતું કે રોહિણેય (નું પાત્ર અને પ્રેક્ષકjદ પણ, એ શ્લોકગાનને પ્રભુ મહાવીરના મુખે ઉચારાતાં વચનરૂપ નથી સ્વીકારતું. એ બધાં તો એમ જ સમજે છે કે, આ સાક્ષાત મહાવીર પ્રભુ જ બોલી રહ્યા છે અને એમ સમજીને તેઓ પોતાને ધન્ય પણ માની રહ્યા છે. આમ થાય એમાં જ નાટકનો ‘ભાવકના ચિત્તમાં વિગલિવેદ્યાંતર અને બ્રહ્માનંદ સહોદર રસની સમાધિ નીપજાવવાન’ ઉદેશ સફળ બને છે. વળી, નાટકકારની પાત્રગુંફનની કુશળતા પણ ભાવકના મનમાં રોચક અને ઊંડી છાપ અવશ્ય પાડી જાય છે.
આ પછી તો રોહિણેય અભયકુમારની જાળમાં આબાદ ફસાઈ જાય છે. પણ પકડાવા છતાં તેને ચાર રાબિત કરે એવો
૧૨.
રાજેન્દ્ર જયોતિ
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કોઈ દાર્શનિક પુરાવો નથી મળતો એટલે રાજા તેને, ચારને કરાતી સજા નથી કરતા, પણ અભયકુમાર આથી નાસીપાસ નથી થતા. તે તો નવીન યુકિત જ અજમાવે છે. રૌહિણેયને ઉત્કટ પ્રકારને મધ પાઈને બેહોશ બનાવે છે ને પછી રાજમહેલમાં સ્વર્ગનું. જીવંત વાતાવરણ રચી દે છે. સ્વર્ગના એક દેવવિમાનના સ્વામી તરીકે બેહોશ રૌહિણેયને ગોઠવી દે છે. ચોપાસ સ્વર્ગની અપ્સરાઓને દેવદેવીઓ રૂપે સુનિપુણ સેવકગણને ગેટવે છે. એ બધા કર્ણમધુર શબ્દોથી રોહિણેયને જગાડે છે. અર્ધજાગૃત દશામાં આ બધું સાંભળીને રૌહિણેયને, પોતે સાચે જ દેવગતિમાં હોવાને ભ્રમ-ઘડીભર થાય છે. ઈશિતાકારથી જ માનવ મનને પરખનારા સેવકો આ સમજી જાય છે ને તેઓ સાવધપણે-ભૂલ ન થાય તેની તકેદારીથી, પૂછે છે : હે સ્વામિન ! અમને દેવલોકના અધિપતિ ઈન્દ્રમહારાજાએ મેલ્યા છે, અમારે અહીં નવા ઉત્પન્ન થનાર દેવને યોગ્ય કૃત્યો કરવા લઈ જવાનાં છે; પણ એ પૂર્વે આપ કૃપા કરીને અમને કહો કે ગતજન્મમાં આપે કયા કયા શુભ-અશુભ કૃત્યો કરેલાં?
રૌહિણેય બડભાગી હતો, જો હેજ વધુ સમય તેની અર્ધભાનાવસ્થા ચાલુ રહી હોત તે તે બધું જ પિતાનું ચોર-ચરિત્ર કહી દે. પણ તેના મગજ પરથી પેલા ઉત્કટ મઘની અસર ધાર્યા કરતાં વહેલી ઉતરી ગઈ. સેવકોને પ્રશ્ન સાંભળતાં જ તે એકદમ સાવધાન થઈ ગયા. ઘડીભર આ બધું તેને સાચું તે લાગ્યું પણ વળતી જ પળે તેને શંકા જાગી કે આ બધી અભયકુમારની માયાજાળ તે નહીં હોય? તે નક્કી તો ન કરી શકો પણ તેણે ચેતીને ચાલવાનો નિર્ણય તે કર્યો છે. આ જ વખતે, અનાયાસે એને પેલા શ્રમણ મહાવીરનાં અનિચ્છાએ સંભળાઈ ગયેલાં વચન યાદ આવી ગયાં. એણે વિચાર્યું: દેવનું સ્વરૂપ વર્ણવતાં ભગવાન મહાવીરે જે વાત કહેલી, તે જો આ લોકમાં સંભવતી હોય તે આ બધું સાચું, અન્યથા અભય મંત્રીની માયા.
એણે ભગવાનનાં વચને યાદ કરી કરીને બારીકાઈથી બધું જોવા માંડયું. તરત એને પ્રતીતિ થઈ કે ના, આ લોકો ‘દેવ” ને હોઈ શકે. આ લોકો તે ભગવાન મહાવીરે વર્ણવેલા દેવા કરતાં વિપરીત સામાન્ય માણસ જેવા લાગે છે! બસ, હવે માયાનો જવાબ માયાથી આપવાનો રોહિણેય નિશ્ચય કરે છે.
નિષ્ફરોમાં પણ નિષ્ફર મનાતા મહાચોર રૌહિણેયનાં હૃદયપરિવર્તનનું પ્રારંભિક બીજ એની આ વિચારણામાં જોવા મળે છે. જે વ્યકિતને પડછાયો પણ એને ત્યાજ્ય હતો, જેને માટે એ “મહાવીર’ કે ‘શમણ મહાવીર' જેવા શબ્દોને તે પણ હૈયામાં હોય તેટલી સઘળી તોછડાઈથી પ્રયોગ કરતો હતો, એવા એ જ મહાવીર માટે આ પળમાં એના અંતરમાં ઊંડે ઊંડે અવ્યકત આદર અનાયાસે જ ઊગતો દેખાય છે. એ આદર જ એને “દેવનું સ્વરૂપ વર્ણવતાં ભગવાન મહાવીરે જે વાત કહેલી” એવો અને “આ લોકો તો ભગવાને વર્ણવેલા દેવે કરતાં વિપરીત એવો વિચાર કરવા પ્રેરે છે. જો એને મહાવીર પ્રત્યે અવ્યકત આદર જાગ્યો ન હોત તો એ એક વિચારનિપુણ માનવીને છાજે તેવી સભ્ય વિચારણા ન કરી શક્યો હોત અને મહાવીરને માટે આદરસચક ‘ભગવાન' શબ્દને સ્વાભાવિક પણ ન કરી શક્યો હોત. એના મનમાંથી “મહાવીર” પ્રત્યેની તોછડાઈ નામશેષ બની રહી હતી, એનું સૂચન “ભગવાન” શબ્દ કરે છે. નાટકમાં પણ મુનિ રામભદ્ર “જટકોઢારવોિજિતં મનવા : સંafથ” તેમ જ “દો ! માવાતા સ્વર વાઘા nતે” આમ લખીને રૌહિણેયનાં હૃદયપરિવર્તનનો પ્રારંભ, પૂરી સાહજિકતાથી ગૂંથી દીધો છે, પ્રેક્ષકો માટે પણ, આ બીના, રોહિણેયને પિતાને માટે આ ભકિત જેટલી અવ્યકત છે, તેટલી જ અવ્યકતા રહે છે.
અને પ્રેક્ષકોને સ્પષ્ટપણે ભાન ન થાય કેમ કે એવું ભાન થાય તે રસ-ક્ષતિ થાય) એ રીતે હૃદયપરિવર્તનને પ્રારંભ થવા દે, એમાં જ નાટકકારની નિપુણતા છે ને!
અહીં બીજી પણ એક વાત છે. નાટકમાં અભિનય કરનાર વ્યકિત, તે જે પાત્રને અભિનય કરતી હોય, તેની સાથે સહજઅકૃત્રિમ ભાવે એકાકાર બની જાય એટલે કે ઈતિહાસ કાળમાં થઈ ગયેલી તે વ્યકિત “હું પોતે જ છું – એવો અનુભવ - પૂરી સાહજિકતાથી, કરે તો જ તે અભિનેતા. વ્યકિતનો અભિનય પૂર્ણતયા સફળ બને અને પ્રેક્ષકો પણ તદાકાર બનીને રસાનુભવ કરે. બન્ને સૈયિ માં પણ, નેપથ્યમાં વિરાજેલું ભગવાન મહાવીરનું પાત્ર ખૂબ સહજતાથી પોતાનું “મહાવીર સાથેનું તાદામ્ય અનુભવનું લાગે છે, ને એ તાદામ્ય જ એની પાસે ધીરગંભીર સ્વરે કગાન કરાવવાનું સામર્થ્ય ધરાવે છે. એ તાદામ્ય જ પ્રેક્ષકોને ‘વીર’–વાણી સાંભળી રહ્યાાની અનુભૂતિ કરાવે છે. એ અનુભૂતિ કરતી વખતે કે તેમાંથી બહાર નીકળ્યા પછી પણ પ્રેક્ષકોને એવો વિચાર નથી આવતો કે “હ, આ તો વીતરાગની આશાતના, કરી!' બલકે, આ સંયોજન એમને સુશિષ્ટ, સાંસ્કારિક અને સ્વાભાવિક જ લાગે છે, જે નિતાંત નિર્દોષ હોઈ શકે, એ તાદામ્યનાં કારણે અત્યારની છેલ્લી પરિસ્થિતિમાં રૌહિણેયને ‘ભગવાન તો તે દિવસે જદું કહેતા હતા, ને આ લોકોનું સ્વરૂપ તે જદું છે' એવી પ્રતીતિ સંભવે છે.
તો, રૌહિણેયને અભિનય કરતી વ્યકિત પણ પોતે જુદી વ્યકિત છે. રૌહિણેય નથી.' એવો અનુભવ જો કરતી હોત તે તેને અભિનય કાં તો કૃત્રિમ બનત, કાં તો તે શિથિલતા ભાગવત. પરિણામે પ્રેક્ષકોને રસાસ્વાદ ન મળત. પણ અહીં એવું નથી. અહીં તો પ્રેક્ષકો માત્ર રસાસ્વાદ જ નહિ પણ રસની સમાધિ મેળવી ચૂકયા જણાય છે, અને અભિનેતામાં પણ શિથિલતા કે કૃત્રિમતા નથી લાગતી, એ જોતાં સમજાય છે કે, એ અભિનેતાએ સ્વાનુભવથી જ સંવેદ્ય એવી સહજતાથી ઈતિહાસકાલીન “રૌહિણેય’ નામની વ્યકિત સાથે અભેદ સાધ્યો છે.
આ જ નાટકકારની ઉદ્દેશસિદ્ધિ છે.
પાછા મૂળ વાત પર આવીએ. પેલા દેવની કૃત્રિમતા પારખીને રોહિણેય પણ એમને કૃત્રિમ જવાબો આપીને અભયકુમારની ધારણાને ધૂળમાં મેળવે છે. સામ દામ દંડ - ભેદ અજમાવીને થાકેલા અભયકુમાર રાજાને સૂચવે છે કે “આ ચેર છે એવી ખાતરી નથી થતી, માટે એને છોડી દેવા જોઈએ, પણ તે પહેલાં આપ એને અમન્સરભાવે સાચી વાત પૂછો તે સારું'. આમ કરવા માટે રાજાની સંમતિ મળતાં જ રૌહિણેયને રાજા સમક્ષ હાજર કરાય છે. એ વખતે રાજા ને મંત્રી સિવાય કોઈ હાજર નથી રહેતું. - રાજાએ પૂછ્યું: “ભાઈ! અમને ખાતરી છે કે તમે જ રૌહિણેય ચાર છે, પણ પુરાવાના અભાવે તમને છોડી મૂકવા પડે છે. તમને શિક્ષા કરવા કે બાંધી રાખવા અમે અસમર્થ છીએ પણ તમે મારી એક વાતને સાચો જવાબ આપશો? શું ખરેખર તમે રૌહિણેય નથી? ડરશો મા, તમને અભયદાન છે, જે સત્ય હોય તે કહેજો.”
રાજા પુછે છે. વિશ્વાસથી પૂછે છે. ઉભયનું ગૌરવ જળવાય એ રીતે પૂછે છે. એની પૂછવાની રીત અને તે વખતનું એકાંત, એ બધું જોતાં લાગે છે કે માનવ જીવનમાં વિશ્વાસ એ અદ્વિતીય અને અમોઘ શકિત તત્ત્વ છે. કઠોર કે પાપી જન ઉપર પણ તમે વિશ્વાસ મૂકો તો તે પોતાનાં કુકર્મોના એકરાર કરતાં નહિ અચકાય. બલકે કુકર્મો કરવાનું છોડી પણ દેશે. કારણ કે સાચો વિશ્વાસ હમેશાં પ્રેમ મૂલક જ હોય છે. -લક નહિ જ
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
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ગુપ્તવાસમાં લઈ જઈ, ચેરેલો ધનમાલ તથા બાન પકડેલાં સ્ત્રીપુરુષે સુપરત કરી દઈ, રાજાશા પ્રાપ્ત કરીને ભગવાન મહાવીરના ચરણમાં આત્મસમર્પણ કરી દે છે અને એ સાથે જ આ નાટકકથા સમાપ્ત થાય છે.
રહિણેય તે પ્રથમથી જ ધારી બેઠો હતો કે પોતે હવે જલદી છૂટી જ જશે. પણ જે ઘડીએ એ અભયકુમારનાં ચાતુર્યને નિષ્ફળતામાં ફેરવી શકો, તે જ ઘડીએ એના હૃદયમાં એક તુમૂલ મંથન શરૂ થઈ જાય છે. એને થાય છે: ‘રે ભગવાનનાં વચન સાંભળવાને ને દર્શન કરવાને મારા પિતાએ મને કડક પ્રતિબંધ કર્યો, તે ભગવાનનાં એક જ વચનમાં આટલી બધી તાકાત? જે એ વચન મારા કાને પરાણે પણ ન પડયું હોત તો આજે હું ઘોર શિક્ષા વેઠતો હોત? ઓહ, મારા પિતા કેવા ગેરમાર્ગે દોરવાયા અને મને પણ દોરતા ગયા !
રૌહિણેયનું આ હૃદયમંથન, રાજાની પાસે પોતાનું સાચું સ્વરૂપ કબૂલ્યા પછી પોતાના જીવનનું બયાન આપતી વખતે બોલાયેલા પ્રસ્તુત નાટકના થતા ૪ ફૂટ હૂિવવનપ્રસ્તનના मयापास्तं जैनं वचनमनिशं चौर्यरतिना । हहापास्याम्राणि प्रवर रसपूर्णानि तदहो !, कृता काकेनेव प्रकटकटुनिम्बे रसिकता ॥३४॥ चौर्य निष्ठापहिष्ठस्य धिगादेशं पितुर्मम । बञ्चितोऽस्मि चिरं येन, भगवद्वचनामृतात् ।।३५॥
આ શ્લોકોમાં પ્રાકટય પામતું જોવાય છે. અને એ હૃદયમંથન એટલે કે હૃદયપરિવર્તનની પરાકાષ્ઠા એના મુખે બોલાયેલાં.
"देव ! कमपि प्रेषय पूरुषम् । यथा वैभारगिरि गह्वरन्यस्तं लोप्नं समय तत्र भ्रमयत: श्रीवर्धमानस्वामिन : क्रमाम्भोजसपर्यया
ની સતા નથfમ' આ વાકયમાં જોવા મળે છે. - માત્ર આ બોલીને રૌહિણેય નથી અટકતે. એ તો તરત જ પિતાની સાથે આવવા તૈયાર થયેલા રાજા અને મંત્રી વગેરેને પોતાના
સમગ્ર રીતે પ્રવુ પtfzય ૧ નો સાર વિચારીએ તો લાગે છે કે આ નાટક, જૈન ધર્મના “અસ્તેય’ ના સિદ્ધાંતને અને “લકોત્તર ધર્મતીર્થંકરની વાણીના શ્રવણના અમોઘ મહિમા નો પ્રચાર - પ્રસાર કરવાના જીવંત સાધન તરીકે પ્રયોજાયું છે.
આવા ઉદ્દે શ માટે પ્રયોજાતાં નાટકો અનેક છે. આ તે તેનું એક ઉદાહરણ છે. જેમ પ્રાચીન કાળમાં, તેમ આજે પણ ધર્મ સિદ્ધાંતે તથા ઉપદેશોના પ્રચાર માટે વિવિધ પદ્ધતિઓ અખત્યાર કરાય છે. દા. ત., ધાર્મિક ઉત્સવાદિ પ્રસંગોએ યંત્રની મદદથી ધાર્મિક કથાઓ પર આધારિત માટી કે કાષ્ઠની હાલતી ચાલતી રચનાઓ, જેમાં તીર્થકર વગેરે લોકોત્તર પુરુષની પ્રતિકૃતિમાં પણ યંત્રસહાયથી સજીવારોપણ કરાય છે. અનેક શિષ્ટ, સંસ્કારી, અભિનય કલાવિદો આજે પણ વિદ્યમાન છે જેઓ અભિનયના માધ્યમથી ધર્મપ્રસારના પોતાના હેતુને સફળ કરવા માટે પુરુષાર્થ ખેડતા જોવાય છે.
(૧) પ્રઢ રળિય જૈન આત્માનંદ સભા (ભાવનગર) દ્વારા મુદ્રિત (વિ. સં. ૧૯૭૪), આગમ પ્રભાકર મુનિશ્રી પુણ્યવિજ્યજી દ્વારા સંપાદિત.
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રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
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શ્રી જિનાગમ અને જૈન સાહિત્ય
જિનેશ્વર ભગવંતના શાસનમાં જ્ઞાનના પાંચ પ્રકાર કહેલ છે. ૧. મતિજ્ઞાન, ૨. ગુનાન, ૩. અવિધાન, ૪. મન:પર્યવ જ્ઞાન અને ૫. કેવલ જ્ઞાન.
શ્રી
તે પાંચ શાનૌ પૈકી મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન ઈત્ર્યિો અને મનની મદદથી થાય છે જયારે અવિધ, મન:પર્યવ અને કેવલજ્ઞાન આત્માથી પ્રત્યક્ષ થાય છે.
જૈનશાસ્ત્રોમાં આ પાંચ જ્ઞાનાનું સવિસ્તર વર્ણન આપવામાં આવેલ છે. વર્તમાનકાળે આ ક્ષેત્રમાં મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન મુખ્યપણે છે.
તેમાં શ્રુતજ્ઞાન મુખ્યપણે બે ભાગમાં વહેંચાયેલું છે: ૧. અંગ પ્રવિષ્ટ અને ૨. અંગ બાહ્ય.
૧. અંગપ્રવિષ્ટ શ્રુત:- શ્રી તીર્થંકર પરમાત્મા પરમતારક તીર્થની સ્થાપના કરે છે તે વખતે વિવાહ પ્રકારની બુદ્ધિના શ્રેણી ગણધર ભગવંતો કિ નન" તત્ત્વ શું?) એ પ્રમાણે પ્રભુને પૂછે છે. તેના ઉત્તરમાં તીર્થં’કર પરમાત્મા “પૂનેઈવા, વિગમેયા, વૈઈ વા" (= દરેક પદાર્થ ઉત્પન્ન થાય છે. વિનાશ પામે છે અને સ્થિર રહે છે) એ ત્રિપદી આપે છે. એ ત્રિપદીના આધારે બીજ બુદ્ધિના ધણી ગણધર ભગવનો તે જ સમયે દ્વાદશાંગીની રચના કરે છે તે અંગવિધ ને કહેવાય છે.
૨. અંગબાહ્ય શ્રુત :– તીર્થપ્રવર્તન બાદ યથાસમયે ગણધર ભગવંત કે અન્ય સ્થવિર મુનિઓ જે સૂત્રરચના કરે છે તે સર્વ ગળાચક ત કહેવાય છે.
અંગસૂત્રોમાં આ મસ્વરૂપની સન્મુખ થવા માટેની યોગ્ય પ્રવૃત્તિઓના પ્રકારોના વિધિ હોય છે. ઉપાંગસૂત્રામાં અંગસૂત્રોમાં કહેલ આચારની ભૂમિકાને જીવનમાં પરિપક્વ બનાવી વિકાસ કરનાર મહાપુરુ ષોની ચર્ચાનું વર્ણન હોય છે અને અન્ય સૂત્રેામાં બાકીની ખી વાતનું વર્ણન પ છે.
વ
આ રીતે શ્રી તીર્થંકર પરમાત્માની વાણી જે શાસ્ત્રોમાં સ્થિત રીતે ગૂંથી લેવામાં આવી છે તે આગમ કહેવાય છે. પૂર્વે અનેક આગમા હતા, પરંતુ વર્તમાનકાળે ૪૫ આગમો છે,
૧. અગિયાર અંગસૂત્ર:- શ્રી સૌર્ય પ્રભુ પાસેથી ત્રિપદી પ્રાપ્ત કરી ગણધર ભગવંતો વિશિષ્ટ તાના બળથી ગીની રચના કરે છે. તેમાંનું ૧૨મું દ્રષ્ટિવાદ રંગ હાલ વિચા, પામેલ હોવાથી વર્તમાનકાળે અગિયાર અંગો વિદ્યમાન છે. તે આ પ્રમાણે:૧. આચારાંગ, ૨. સૂત્રકૃતાંગ, ૩. સ્થાનાંગ, ૪. સમવાયાંગ, ૫. વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ (ભગવતી સૂત્ર), ૬. શાતાધર્મકથાંગ, ૭. ઉપાસક દશાંગ, ૮. અંતકૃદશાંગ, ૯. અનુત્તરૌપપાતિકદશાંગ, ૧૦, પ્રશ્નવ્યાકરણ અને ૧૧. વિપાકશ્રુત ંગ.
નીર્થંકર પરમાત્માની એકાંત હિતકર વાણીને સંગ્રહ કરનાર આ અગ્યાર અંગોમાં અનુક્રમે ૧. આચાર, ૨. સંયમની નિર્મળતા, ૩, હેય-શૈય- ઉપાદેયનું સ્વરૂપ, ૪, અનેક પદાર્થોની વિવિધ માહિતી, ૫, ગણધર શ્રી ગૌતમસ્વામીએ પૂછેલા પ્રશ્નો અને પ્રભુએ આપેલ ઉત્તરો, દે. અનેક ચરિત્રા અને દર્શન, ૭. દેશ મહાકાવાની વિગત જીવનચરિત્રા, ૮, કેવળજ્ઞાન પામી તરત જ મોક્ષે જનાર મહામુનિઓનાં ચરિત્રા, ૯, સંયમની આરાધના કરી પાંચ અનુત્તરમાં જનાર
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
[] લેખક : શ્રી કપૂરચંદ રણછોડદાસ વાયા, પાલિતાણા, મામુનિઓન વનચરિત્રો, ૧૦, નિસા વગેરે પાપના વિપાકો અને ૧૧. કર્મોનાં શુભાશુભ વિપાકો આદિનાં સવિસ્તર વર્ણના છે.
૨. બાર ઉપાંગસુત્રો:- દશાંગીમાં વર્ણવેગ અનેક વિષયોમાંથી અમુક અમુક વિષય ઉપર વિશેષ વિવેચન કરનારા શાસ્ત્રો તે ઉપાંગ ૧૨ છે. તે આ પ્રમાણે :- 1. ઔપતિક, ૨ રાજપ્રનીય, ૩. જીવાજીવાભિગમ, ૪. પ્રજ્ઞાપના, ૫. સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિ, ૬. જંબુદ્રીપ પ્રજ્ઞપ્તિ, ૭. ચંદ્ર પ્રાપ્તિ, ૮. નિરયાવલિકા, ૯. પાવ નસિકા, ૧૦, પુષ્પિકા, ૧૧. પુષ્પચૂલિકા અને ૧૨. વૃષ્ણિ દશા.
આ બારઉપાંગોમાં અનુક્રમે ૧. દેવાની જુદી જુદી યોનિઓમાં કયા કયા જીવા ઊપજે તેની માહિતી, ૨. પ્રદેશી રાજા અને કેશી ગણધરનો સંવાદ તથા ભદેવે ભગવાનની આગળ કરંગ બત્રી નાટકોની માહિતી. ૩. વ-અવનું સ્વરૂ૫, ૪, જીવ અને પુદગલ સંબંધી ૩૬ પદોનું વર્ણન, ૫. સૂÎસંબંધી વર્ણન, ૬. જબૂ દીપ સંબંધી નાની - મોટી અનેક હકીકતો, ૭. ચંદ્ર સુધી વર્ગને, ૮. ચેડા મહારાજા અને કોણિક મહારાજાના યુદ્ધમાં શ્રેણિક મહારાજાના કાલ - મહાકાલ વગેરે દશ પુત્ર મરીને નરકમાં ગયા તેનું વર્ણન, ૯. કાલ - મહાકાલ વગેરે દશ ભાઈઓના પદ્મ-મહાપદ્મ વગેરે દર્શ પુત્રા સંયમની આરાધના કરી દશમા દેવલાકે ગયા તેનું વર્ણન ૧૦, વર્તમાન ા૨ે વિદ્યમાન સૂર્ય - ચંદ્ર શુક્ર વગેરેના પૂર્વભવો તથા બહુ પુત્રિકા દેવીની કથા વગેરે, ૧૧. જુદી જુદી દેશ દેવીઓના પૂર્વભવોનું વર્ણન અને ૧૨, વાસુદેવનો મોટાભાઈ બળદેવના નિષધ વગેરે બાર પુત્રાના સંયમની આરાધનાને સમજાવનાર જીવનચરિત્ર આદિ વર્ણન આપવામાં આવેલ છે.
૩. છ છંદસૂત્ર:- સંયમ માર્ગે પ્રયાણ કરતાં મુનિજીવનમાં થઈ જનાર દોષોની વિશુદ્ધિ માટે પ્રાયશ્ચિત આદિની વ્યવસ્થા દર્શાવનાર સૂત્રેા તે છેદસૂત્ર કહેવાય. તે હાલ છ છે. ૧. નિશીથ, ૨. બૃહત્કલ્પ, ૩. વ્યવહાર, વા, જે ૪. દશાશ્રુતસ્કંધ (હાલ જે પર્યુષણા મહાપર્વમાં પત્ર- બારસસૂત્ર નિયમિત પંચાય છે તે આ સૂત્રનું આઠમું અધ્યયન છે), ૫. જીતકલ્પ અને ૬. મહાનિશીથ. આ સૂત્રામાં મુખ્યત્વે સાધુવનના આચાય, તેમાં લાગતા તો, તે દોષોની શુદ્ધિ માટે પ્રાયશ્ચિત્ત, આદિના વિધાના બતાવી સંયમજીવનની આરાધનાની નિર્મળતા, પરિણામશુદ્ધિ, આચારશુદ્ધિ અને પ્રાયશ્ચિતશુદ્ધિ આદિનું સુંદર વર્ણન છે,
૪. ચાર મૂલ સુત્રો: શાસનની ઉત્પત્તિ, સ્વિતિ અને રક્ષણના પ્રાણસમા ચારિત્રના પાયાને મજબૂત કરનારા, શ્રુતજ્ઞાનના સાચા અધિકારી બનવાની યોગ્યતાનું ઘડતર કરનાર સંયમી જીવનના મૂલગ્રંથો આ પ્રમાણે ચાર છે:- ૧. આવશ્યક સૂત્ર, ૨. દશવૈકાલિક સૂત્ર, ૩. ઓઘનિર્યુકિત- પિડ નિર્યુકિત, અને ૪. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર.
આ સૂત્રેામાં અનુક્રમે સામાયિક આદિ છ આવશ્યકનું સ્વરૂપ, ૨. સાથે સાધ્વીના મૂળભૂત આચારોનું વર્ણન, ૩. માં ગ્રહણ કર્યા પછી કેવી રીતે બોલવું, ચાલવું, ગાચરી કરવી વગેરે સંયમજીવનને ઉપયાગી બાબતો અને ૪. પરમાત્મા શ્રી મહાવીરદેવની અંતિમ દેશના આદિનું સુંદર વર્ણન છે.
૫. દશ પ્રકીર્ણકો ૫૫ના ચિત્તના આરાધભાવને જાગૃત કરનાર નાના - નાના ગ્રંથો તે પ્રકીર્ણક દશ છે. તે આ પ્રમાણે :૧. ચતુશરણ, ૨. આતુર પ્રત્યાખ્યાન, ૩. મહા પ્રત્યાખ્યાન, ૪,
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તપરિક્ષા, ૫. નગારિક, ૬. સઁસ્તાર, ૩ ગાચાર, દ. ગણ વિદ્યા, છૅ. વેદ્રસ્તવ અને ૧૭, મરણરામાય
આદશ પ્રકીર્ણકમાં અનુ મે ૧. ચાર શરણ, ૨. સમાધિ મરની પૂર્વ તૈયારી રૂપે આરાધના, ૩. અનશન માટેની તૈયારીની માહિતી, ૪. ચાર આહારના ત્યાગ માટેની ઉચત મર્યાદા, ૫. જીવની ગર્ભાવસ્થા પછીની ક્રમિક અવસ્થા વગેરે, ૬. અંતિમ સમયે ચાર આહારનો ત્યાગ કરી સંથારો કેવી રીતે કરવા ? ૭. સાધુઓના આચારની મર્યાદા અને સુવિહિત સમુદાયનું સ્વરૂપ, ૮. આચાર્ય ભગવંતોને જરૂરી એવા જયોતિષ - મુહૂર્ત આદિની માહિતી, ૯. તીર્થંકર ભગવંતની ભકિત કરી જીવન સફલ બનાવનાર ઈંદ્રોનું વર્ણન અને ૧૦. મરણ સમયે સમાધિ જાળવવાની માહિતી આદિના વર્ણનો આપેલ છે.
૬. બે ચૂલિકા સૂત્રેા :– ૧. નંદી સૂત્ર, ૨. અનુયોગ દ્વાર સૂત્ર, આ બંને આગમ, દરેક આગમાના અંગભૂત છે. નંદીસૂત્ર દરેક આગમાની વ્યાખ્યાના આરંભે મંગલરૂપે છે અને અનુયાગદ્ગારસૂત્ર આગમાની વ્યવસ્થિત વ્યાખ્યા માટે સવિસ્તર માહિતી આપનાર વ્યાખ્યા ગ્રંથ છે. આ બે સૂત્રાના વ્યવસ્થિત અભ્યાસ વિના જૈન આગમાનું સાચું રહસ્ય જાણી શકાતું નથી.
આ પ્રમાણે વર્તમાન ૪૫ આગમોનો અભ્યાસ કરવાનો અધિકાર તે તે આગમના યોગાદુદ્ઘન કરનાર પૂછ્યું મુનિભગવનાનો છે. પૂજ્ય સાધ્વીજી મહારાજે પણ યોગોઇન કરી આમાંના કેટલાક આગમાના અભ્યાસ કરી શકે છે. શ્રાવક -શ્રાવિકાઓ ગુરુ મુખેથી સાંભળી તે તે આગમનો અર્થ જાણી શકે છે, પણ તેઓને માટે યોગાનૢહનનું વિધાન ન હોવાથી જાતે અભ્યાસ કરી શકે નહીં,
આ આગમાનાં ૧.મૂળસૂત્રા, ૨. તેની નિર્યુકિતઓ, ૩. ભાષ્યો, ૪. સૂણિઓ અને ૫. ટીકાઓ, વૃત્તિઓ અવસૂરિ એમ દરેકના પાંચ અંગો છે તે પાંચાંગી તરીકે સુપ્રસિદ્ધ છે અને તે દરેક પ્રમાણભૂત ગણાય છે.
આ ભાગમ સાહિત્યના આધારે પૂર્વના જ્ઞાની મહાપુષોએ જવાનું એકાંત હિન કરવાની ભાવનાથી પ્રાર્થ સંસ્કૃત, પ્રાકૃત આદિ ભાષાઓમાં લાખા- ક્રોડો શ્લોક પ્રમાણ દ્રવ્યાનુયોગ, ગણિતાનુયોગ, ચરિતાનુયોગ અને ચરણકરણાનું યોગરૂપે અનેક પ્રકારના સાહિત્યની રચના કરી છે.
અભ્યાસની દષ્ટિએ વિચારીએ તે (મૈં) પંચ પ્રતિક્રમણ, જીવવિચાર આદિ ચાર પ્રકરણ, ત્રણ ભાષ્ય, પ્રાચીન તથા નવ્ય કર્મ ગ્રંથો, ખેંચ સંગ્રહ, કર્મ પ્રકૃતિ, તત્ત્વાર્થસૂત્ર, બૃહત ત્રસમાસ, વિશેષાવશ્યક ભાષ્ય, સપ્તતિકા ભાષ્ય વગેરે સાત્ત્વિક પ્રકર તો, (બ) લઘુ હેમપ્રક્રિયા, સિદ્ધહેમ લઘુવૃત્તિ, બૃહદ્વ્રુત્તિ વગેરે જૈન વ્યાકરણ.
(૩) સ્વાડ્રાદ માંજરી, અનેાંય પતાકા, રત્નાવતારિકા, પદ્મદર્શન સમુચ્ચય, સ્યાદૃાદરત્નાકર, સમ્મતિતર્ક, દ્રાદશાર નયચક્ર વગેરે જૈન ન્યાયગ્રન્થો.
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(૬) વાગ્ભટ્ટાવકાર, કાનુશાસન, નાટ્યદર્પણ વગેરે સાહિત્ય શાસ્ત્રના જૈન ગ્રન્થેા.
(૩) ત્રિષધિ શલાકા પુરુષ ચરિત્ર, પ્રબંધ ચિંતામણિ, પ્રબંધકોશા પટ્ટાવલી વગેરે જૈન ઈતિહાસના ગ્રન્થે.
(૩) જ્ઞાનસાર, અધ્યાત્મસાર, પ્રશમરતિ, સંવેગ રંગશાળા, ઉપદેશ પ્રાસાદ, ઉપદેશ રત્નાકર, ઉપદેશ માળા, સમ્યકત્વ સપ્તતિકા વગેરે જૈન ઉપદેશના ગ્રંથો.
(બ) શાવિધિ, ધર્મસંગ્રહ, ધર્મરત્નપ્રકરણ, વિધિમાર્ગપુરા, વિચારસાર પ્રકરણ, ઉપદેશપદ, પંચાશ, પ્રવચનપરીક્ષા, ધર્મપરીયા, અધ્યાત્મમત પરી, પંચવસ્તુ, ઉપદેશ રહસ્ય, પોડા, વિશી, બત્રીશી વગેરે જૈન વિચારણાના થશે.
(દ) હીરસૌભાગ્ય, દવાશ્રય, શાંતિનાથ મહાકાવ્ય, પાર્શ્વનાથ મહા કાવ્ય, પાંડવચરિત્ર મહાકાવ્ય, વગેરે પદ્યકાવ્યો, કુવલયમાળા, તિલકમંજરી, પમિતિભવ પ્રપંચ, વૈરાગ્ય કલ્પલતા, વગેરે જૈન ગદ્ય કાવ્યો.
(5) પ્રાકૃત પ્રવેશ, પ્રાકૃત વ્યાકરણ વગેરે પ્રાકૃત વ્યાકરણો. () વિરચંદ કેવલરિય, પમ ચરિત, સુરસુંદરી ચરાં, સુદંરણા રિ, વસુદૈવાડી, સમરાઈચ્ચ કહા, ચપન મહાનુપુરિસ ચરિયું વગેરે પ્રાકૃત જૈન કાવ્યો.
(૬) અન્ય હરિશ્ચંદ્ર, મુનિકુમુદચંદ્ર, નગવિંગાર વગેરે જૈન
નાટક ગ્રન્થો.
(i) શ્રી વીતરાગ સ્તોત્ર, મહાદેવ સ્તોત્ર, સિસૈનકૃત દ્વાત્રિંશિકા, શોભન સ્તુતિ ચાવીશી, ઐન્દ્ર સ્તુતિ ચાવીશી, ધનપાલ કૃત ષભ પંચાશિકા વગેરે જૈન સ્તુતિ ગ્રન્થા.
(ગ) છંદોનું શાસન વગેરે છંદશાસ્ત્રના ગ્રંથો
(1) પ્રતિમાલેખ ચા, પાકીને લેખાં વગેરે જૈન સંશોધનના ગ્રંથો,
(f) વિવિધ તીર્થંકા વગેરે તીર્થોની મહત્તા અને મહત્ત્વના સ્થળ દર્શાવનારા ગ્રંથો.
(ત્ર:) અર્ધતિ વગેરે જૈન રાજનૈતિક ગ્રંથો.
(૬) વાસ્તુશાસ્ત્ર, પ્રાયમંડન વગેરે જૈન શિલ્પના ચા (1) શુદ્ધિ, દિનશુદ્ધિ, નિષ્ઠા, રંગસિદ્ધિ વગેરે જૈન જ્યોતિષના ગ્રંથો
(ગ) ધ્વજદંડ, પ્રતિવિધાન, અર્ઘદભિષેક, અર્થપૂજન, સિધ્ધપૂન, શાંતિના, અણેની સ્નાત્ર, વગેરે જૈન
વિધિ-વિધાનના ગ્રંથો.
(વ) અર્હચૂડામણિ, અષ્ટાંગ નિમિત્ત, અંગવિદ્યા વગેરે જૈન નિમિત્ત શાસ્ત્રના ગ્રંથા.
(ડ) પદ્માવતી કલ્પ, ચક્રશ્ર્વરી, સૂરિમંત્ર ૫, ઉવસગ્ગહર કલ્પ, નમિણ કલ્પ વગેરે જુદા જુદા મંત્ર કલ્પના જૈન ગ્રંથો.
(પ) સ્વર શાસ્ત્ર, સ્વપ્ન શાસ્ત્ર, સામુદ્રિક શાસ્ત્ર, વિવેકવિલાસ બહુ સંહિતા વગેરે જુદા જુદા વિજ્ઞાનના ગ્રંથો,
રાષ્ટ્ર તિ
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(૪) યોગશાસ્ત્ર, યોગબિંદુ, યોગષ્ટિ સમુચ્ચય, ધ્યાનશતક, જ્ઞાનાર્ણવ વગેરે જેન યોગના ગ્રંથ.
* (7) અભિધાન ચિંતામણી, ધનંજય નામમાળા, દેશી નામમાળા, “અભિધાન રાજેન્દ્ર” વગેરે શૂબ્દકોશે તથા અનેકાંત રત્નમંજૂષા (જેમાં એક શ્લોકના ૮ લાખ અર્થ આપેલ છે) શતાર્થ વીથી (જેમાં એક શ્લેકના સે અર્થ કર્યો છે) વગેરે શબ્દ - ચમત્કૃતિના ગ્રંથો. | (7) જૈનશૈલીને અનુસરતા સંગીતશાસ્ત્ર, જૈનવૈદ્યક, જૈન આહાર વિધિ, ભક્ષાભક્ષ્ય વિવેક, ચૈતન્ય વિજ્ઞાન, કર્મ વિજ્ઞાન, સમાજ શાસ્ત્ર, અર્થશાસ્ત્ર, માનવ શાસ્ત્ર, નીતિ શાસ્ત્ર આદિ ગ્રંથો. * આ રીતે દરેક પ્રકારના જુદા જુદા પ્રકારની યોગ્યતાવાળા આત્માઓ જુદા જુદા પ્રકારને અભ્યાસ કરી શકે તે માટેનું વિપુલ જૈન સાહિત્ય પૂર્વના મહાપુરુષોએ રચેલ છે.
ગુજરાતી આદિ દેશી ભાષાઓમાં પણ જુદા જુદા રાસાઓ ૧૨૫-૧૫૦-૩૫૦ ગાથાના સ્તવનો, નાના-મોટા સ્તવન-સજઝાયના ઢાળિયાએ, સ્તવન ચોવીશીઓ, ચૈત્યવંદન ચોવીશીએ સ્તુતિ વીશીઓ, સ્તવન વીશીઓ, સમુદ્ર-વહાણ સંવાદ, ચૈત્યવંદન સ્તુતિ-સ્તવન-સજઝાય આદિ વિપુલ સાહિત્ય પૂર્વના મહાપુરૂએ રચેલ છે.
વર્તમાનમાં પણ સ્વ. આ. શ્રી વિજયપ્રેમસૂરીશ્વરજી મ. શ્રીની
પ્રેરણાથી તેમના શિષ્ય-પ્રશિષ્યાદિએ લાખ શ્લોક પ્રમાણ કર્મ - વિષયક જૈન સાહિત્ય સંસ્કૃત-પ્રાકૃત ભાષામાં નિર્માણ કરેલ છે.
આ શું થાના અભ્યાસ માટે વ્યવસ્થિત મોજના કરવામાં આવે અને તેમાં રસ લેનાર વિદ્યાર્થીઓની પરીક્ષા લઈ, ઉચ્ચ પ્રકારના ઈનામે અને પ્રમાણપત્રો આપવામાં આવે, તે તે ગ્રંથોના વ્યવસ્થિત અભ્યાસ માટે કેન્દ્રો ઊભા કરવામાં આવે તે પૂર્વના મહાપુએ રચેલ ભિન્ન ભિન્ન વિદ્યાના જુદા જુદા શાસ્ત્રને અભ્યાસ ચાલુ થવાથી તે તે વિષયના જાણકાર પુરુષો મળી રહેશે.
તે તે ગ્રંથોનું પઠન-પાઠન ભવિષ્યમાં ચાલુ રહેશે તો જૈન શૈલી અનુસાર નવા વિવેચને, સ્પષ્ટીકરણો અને સંશોધનો ઉમેરાશે અને આપણી આ ઉપકારક પ્રાચીન વિદ્યા ચિરકાળ જીવંત રહેશે.
આપણી પાસે હજારો વર્ષોથી પૂર્વાચાર્યોએ રચેલાં જ્ઞાનનાં લાખ પુસ્તકો વિદ્યમાન છે, છતાં તેના અભ્યાસની યોગ્ય દિશા હાલમાં લગભગ બંધ પડી છે. શ્રી યશોવિજયજી જૈન સંસ્કૃત પાઠશાળા--મહેસાણા, તે અંગે આંશિક કાર્ય કરી રહી છે, પણ તેને વિશિષ્ટ રીતે ચાલુ કરવામાં આવે તે માનવજગતને અત્યંત ઉપકારક નીવડે તેમ છે. શકિતસંપન્ન આત્માઓ એ માટે યોગ્ય પ્રયત્ન કરે એ જ અભ્યર્થના
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દ્વાદશાર નયચક, એક ચિંતન
0 લેખક: ૫. પા. તીર્થપ્રભાવક આચાર્યદેવ શ્રી વિમસૂરીશ્વરજી મ. સા.
રદ વાદની વિશિષ્ટતા : જૈનદર્શન એટલે સર્વસાપેક્ષ દષ્ટિએાનું કેન્દ્રસ્થાન. જગતની માત્મવાદમાં માનનારી સઘળી વિકાસ પતિએાને વાસ્તવિક સમન્વય એમાં લે છે. તલસ્પર્શી માન કરવાથી એનું અનંત ભંડાણ સ્પષ્ટ બને છે. જગતમાં પ્રત્યેક દર્શનની તટસ્થ વિવેચના એમાં સ્પષ્ટ સમાયેલી છે. એક ન્યાયાધીશની જેમ જેનદર્શન અત્યંત ચોક્કસાઈપૂર્વક તટસ્થપણે પ્રત્યક દર્શનને ન્યાય આપે છે. એકાંત આગ્રહના કારણે અન્ય દરેક દર્શનમાં પ્રતિપક્ષી દર્શનને ન્યાય માપવામાં અાવ્યો નથી. જેનદર્શન એકાન્તમાં ન અટવાતાં મધ્યસ્થપણે જે અપેક્ષાને જેની વાત સાચી હોય તે અપેક્ષાએ તેની વાત સ્વીકારી પ્રત્યેક દનને પૂરતો ન્યાય આપે છે. ઘી બધાં જ માટે આરોગ્યપ્રદ છે બા એકાન્ત.
એકાન્ત એટલે અસત્ય. અથવા અર્ધસત્યની સત્ય તરીકે ભ્રમણા તેમ જ પ્રરૂપણા. ઘી પચાવી શકનાર માટે આરોગ્યપ્રદ છે અને તેને ન પચાવી શકનાર માટે તે આરોગ્યપ્રદ નથી, એ જ અનેકાન્ત.
અનેકાન્ત એટલે જયાં જ્યાં જે સત્ય હોય ત્યાં ત્યાં તેને સ્વીકાર અને સમર્થન. પચાવી શકનાર માટે ધી આરોગ્યપ્રદ છે એ વાત જેટલી સાચી છે, તેટલી જ સાચી વાત પચાવી ન શકનાર માટે ધી આરોગ્યપ્રદ નથી તે છે. આ બંને અપેક્ષાઓ યથાર્થપણે સમજી ન શકનાર ઘીને યથાયોગ્ય ઉપયોગ નહીં કરી શકે. તેમ જ કરાવી પણ નહીં શકે અને સ્વપરને હાનિ કરી બેસશે. ધીનું ઉદાહરણ સ્થૂલ ભૂમિકા પર છે. પણ તેનાથી સિદ્ધ થતી હકીકત સૂક્ષ્મ ભૂમિકા પર પણ એટલી જ સાચી છે. એક અપેક્ષા સ્વીકારી બીજી અપેક્ષા પ્રત્યે તિરસ્કાર સેવનારની ગણતરી ખાહીમાં થાય છે અને આગ્રહી સત્યશોધક બની શકતો નથી. શતની ઘેધ અનેકાન્ત દ્વારા જ શકય બને છે.
અનેકાન્તવાદ જૈનદર્શનની વિશિષ્ટતા છે. જૈનદર્શન એકાન્ત કોઈ પણ દર્શનનું ખંડન કર્યા વગર જે જે અપેક્ષાએ જે દર્શનની વાત સત્ય હોય તે તે અપેક્ષાએ તે તે દર્શનની વાત સ્વીકારી સર્વને ન્યાય અને આવકાર આપે છે. આ એની અપ્રતિમ વિશાલ દષ્ટિ અને ઉદારતાનું પ્રતીક છે. એની આ ખૂબીને અન્ય કોઈપણ દર્શન સ્પર્શી પણ શકયું નથી. જગતને વિનાશપંથે પરી રહેલા વાદવિવાદો એકાન્તના આગ્રહમાં હોવાથી અન્ય વાદોને સમાવવા અસમર્થ છે. જયારે જૈનદર્શનની અનેકાન દષ્ટિ તે સઘળાંને શાંતિપૂર્વક સમાવવા સમર્થ છે. અનેકાન્તવાદ અપનાવી આજે પણ જગત ન્યાય શાંતિ અને સુખનું મંગલ સામ્રાજ્ય
સ્થાપી શકે છે. આ માટે જ જૈનદર્શનમાં નોની ચર્ચા છે અને પ્રસ્તુત ગ્રંથથી નયચક્રને વિષય જોતાં એ વાત સ્પષ્ટપણે સમજાઈ જાય છે.
અમારા મતે વિક્રમની પાંચમી શતાબ્દીમાં થયેવ મહાપુરુષ વાદપ્રિભાવક પૂ. આ. દેવ મલવાદી સૂ. મ. જેનદર્શનની નય વિચારણાના પ્રાચીન અને વિચક્ષણ તાર્કિક છે. તેઓ પોતે જ પિતાનાં આ ગ્રન્થમાં જેનદર્શનની ચાલી આવતી નય વિચારણાઓ કેટલી સૂક્ષ્મ હતી તે બતાવે છે. તેઓ ખૂદ જ લખે છે કે આ ગ્રંથ પૂર્વ મહોદધિ સમૃસ્થિત નયપ્રાભૂત તરંગાગમ પ્રમુખ ક્લિષ્ટાર્થ કણિકા માત્ર છે (ભા. ૧. ૫. ૯ મુદ્રિત).
આથી નયપ્રાભૂત જેવા પૂર્વો અને “સપ્તનયશતાર” જેવા છે એ પ્રાચીનકાળમાં પણ જૈન નયવાદના અખૂટ ખજાનાઓ હતા. મા તે ખૂદ ગ્રંથકાર જ આ પિતાના ગ્રંથને પૂર્વરૂપ મહાસમુદ્રમાંથી ઉછળેલા નયપ્રાભૃતરૂપ તરંગથી છૂટી પડેલી એક જનકણિકા સમાન કહે છે. તે તેની પાસે નથની પૂર્વપરંપરા કેવી ભવ્ય હશે ?
તેમનાં સ્તાવ : આ શાસનપ્રભાવક જ્ઞાનક્રિયાયોગી મહાપુરુષના નામને ઉલ્લેખ સર્વપ્રથમ હરિભદ્રસૂરિ મ. ની અનેકાન જયપતાકામાં તથા ગબિદુની પણ ટીકામાં દેખાય છે. શાંતિસૂરિ મહારાજે તે ન્યાયાવતાર વાતિકની વૃત્તિમાં મલ્લવાદીસૂરિ મહારાજની એક કાવ્યમાં પણ અદભુત સ્તુતિ કરી છે. અને વાદિવેતાલ શાંતિસૂરિ કૃત ઉત્તરાધ્યયન સુત્રની પ્રાકૃત ટીકામાં તે નયચક્રના નામને ઉલ્લેખ અને નયચક્રની યુકિત પણ મળે છે. ભદ્રેશ્વર સૂ. મ. જે પ્રાકૃત કથાવલીમાં નયચક્ર અને મલવાદીને ગ્ય પરિચય આપ્યો છે. મલધારી હેમચંદ્રાચાર્ય કૃત વિશેષાવશ્યક ભાગની ટીકામાં નયચકને નિર્દેશ છે. કલિકાલસર્વશે તે ‘અનુમલવાદિન તાર્કિકા :' કહીને સિદ્ધહેમવ્યાકરણમાં એમની તાર્કિકતાની સર્વોત્કૃષ્ટતા ગાઈ છે. તે પછી સહસ્ત્રાવધાની મુનિસુંદરસૂરિ વિગેરે અનેકાનેક આચાર્ય ભગવંતેએ નયચક્ર તથા મલ્યવાદીસૂરિને વ્યા છે. છેવટના ન્યાયાચાર્ય ન્યાયવિશારદ યશોવિજય ઉપાધ્યાયજીએ આઠ પ્રભાવકની સજઝાયમાં મલ્લવાદીસૂરિને વાદીપ્રભાવક તરીકે સ્તવ્યા છે અને દ્રવ્યગુણપર્યાયના રાસમાં પ્રતિપાદન કર્યું છે કે નયચક્રના એક અરમાં બારે અર ઊતારી શકાય છે. આમ ગ્રંથ અને ગ્રંથકારને અનેકાનેક જૈનાચાર્યોએ સ્તવ્યો છે.
આ વાદિપ્રભાવક સૂરિશ્વરની વાદશકિત, તર્કશકિત ખરેખર તેમના કાળમાં પરવાદીરૂપ તારલાઓ માટે મધ્યાહનકાળના તપતી સૂર્ય જેવી હતી. એમની રચના પણ એટલી અદભુત છે કે તેમના કાળમાં અને તે પૂર્વમાં રચાયેલા ગ્રંથે અને ગ્રંથકારોના મર્મને લઈ એમનાં જ વચનનો આધાર લઈને તેમનાં વાદોને કે સિદ્ધાન્તોને અલૌકિક શૈલીએ અને કોઈ પણ કઠોર વચનને પ્રયોગ કર્યા વગર વ્યાજય કોટીએ પહોંચાડવાનો પ્રયત્ન કર્યો છે. એમણે લીધેલા કેટલાક ગ્રંથ એવા છે કે જે હાલમાં ઉપલબ્ધ થતાં નથી અને વર્તમાનમાં ઉપલબ્ધ થતા ગ્રંથોમાં જોવા ન મળે એવા લાંબા લાંબા પૂર્વપક્ષો અને લાંબી લાંબી ચર્ચાઓ કે જે જટિલ હોવા છતાં સરસ અને સરલ રીતિએ રજૂ કરી દુર્ભે ઘા યુકિતઓથી નિરાકરણ કરવામાં સિદ્ધહસ્ત છે. એમના ગ્રન્થના વાંચનાર અને ભણનારને તરત જ ગ્રાહ્ય થઈ પ્રકાણ્ડ વાદી બનાવી દે છે. એ આ વિશાળ અને ગંભીર ગ્રન્થરત્ન જેન જગતમાં અપૂર્વ છે.
આ વિશાળ ગ્રન્થરાશિનું પૂનિત સંપાદન મારા ગુરુદેવ પૂ. નાચાર્ય દેવ શ્રીમદવિજ્ય લબ્ધિસૂરિશ્વરજી મહારાજે કરેલ છે. તેના ચતુર્થ ભાગનું ઉદઘાટન ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનના નિષ્ણાત છે. શ્રી રાધાકૃષ્ણનના હાથે થયેલ છે. ત્યાર બાદ વિદ્રવર્ય શ્રી જંબુવિજયજીએ પણ આધુનિક અનેક સાધનને પરિશ્રમપૂર્વક ઉપયોગ કરી, નયચક ગ્રન્થનું પ્રકાશન આરંભ્ય છે. બે ભાગ બહાર પડયાં છે અને ત્રીજો હજી બાકી છે તેમ જાણવામાં આવ્યું છે. હજુ અભ્યાસની દષ્ટિએ આ ગ્રન્થને વિદ્વાનોએ બહુ વિચારવા જેવો છે. માત્ર અતીવ સંક્ષેપથી કંઈક તેના વિષયને ખ્યાલ
રાજેન્દ્ર તિ
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આવે તે હેતુથી, ચતુર્થ ગ્રન્થની મારી પ્રસ્તાવનામાં જે કેટલાક વિષય આપે છે તે વિસ્તૃત પ્રસ્તાવનામાં આ ગ્રન્થના કર્તા તેમ જ અન્ય ઐતિહાસિક પુરુષને સમય નક્કી કરવાનો મેં યત્કિંચિત પ્રયાસ પણ કર્યો છે.
અને તે શૈલિ ડો. આદિનાથ ઉપાબે જેવાઓને વિચારપૂર્ણ લાગી છે તેવું પણ જાહેર થયેલ છે, માટે જૈન ઈતિહાસના રસિયાએ તે ઐતિહાસિક નિરૂપણ તે ગ્રન્થની પ્રસ્તાવનામાં જ વાંચે. - અત્યારે તો તેમાં કરાયેલ નિરૂપણની આછી રૂપરેખા જ અહીં આપવામાં આવે છે.
નયની વ્યાખ્યા : અનેકાન્તવાદનું જ્ઞાન નય જ્ઞાન વિના શકય નથી. નય ‘ની' ધાતુથી બનેલે એક શબ્દ છે “નીયતે પ્રાપ્યતે તત્ત્વ અને ઈતિ નય:' આ છે એની વ્યુત્પત્તિ. હવે આપણે એને રૂપાર્થ એઈએ. પ્રત્યેક પદાર્થના અનંત ધર્મો છે. જુદી જુદી દષ્ટિએ આ ધમે જુદા જુદા છે. આમાંને ઈષ્ટ ધર્મ સમજવા માટેની દષ્ટિ વિશેષ તે નય. પ્રત્યેક નય બે પ્રકારે છે. નય અને દુર્નય એક પદાર્થના ચોક્કસ ધર્મનું પ્રતિપાદન તેના અન્ય ધર્મોની ઉપેક્ષા કર્યા વગર કરે ત્યારે તે નય કહેવાય છે અને વિપરીત પણ કરે ત્યારે તે દુય કહેવાય છે. જેમ કોઈ કહે કે “વસ્તુ સરૂપ જ છે” તે વાત દુર્નય છે કેમ કે તે વાદમાં અસરૂપતાને નિષેધ કરીને માત્ર સરૂપતાને જ બતાવવામાં આવે છે અને ‘વસ્તુ સત છે એમ કહેવામાં આવે તે વાદ નય છે. કારણ તેમાં અસરૂપતાને નિષેધ કરાતો નથી.
નય અને પ્રમાણની વ્યવસ્થા : વસ્તુ અનંતધર્માત્મક છે તે વસ્તુ એક ધર્મ દ્વારાએ પણ જાણી શકાય છે અને અનેક ધર્મ દ્વારા પણ જાણી શકાય છે. અનેક ધર્મ દ્વારા વસ્તુનું જે જ્ઞાન કરાય તે પ્રમાણ કહેવાય છે. એક ધર્મ દ્વારા વસ્તુનું જે જ્ઞાન કરાય તે નય કહેવાય છે. તે બન્નેથી વસ્તુનું જ્ઞાન થાય છે. “પ્રમાણ નવૈરધિંગમ” (તાવાર્થ-૧-૬) પ્રમાણથી વસ્તુનું પરિપૂર્ણ જ્ઞાન થાય છે. નયથી એક અંશનું જ્ઞાન થાય છે. બંને વસ્તુનું તત્ત્વ જ્ઞાનમાં ઉપBગી છે. વસ્તુનું પરિપૂર્ણ સ્વરૂપ દર્શાવનાર પ્રમાણ છે. આંશિક સ્વરૂપને દર્શાવનાર નય છે. પરસ્પર નિરપેક્ષ નો એકાન્તવાદ રૂપ હોવાથી જગતને માટે અનુપયોગી છે. જગતને ઉપગી ત્યારે જ બને કે પરસ્પરથી સાપેક્ષ ભાવે દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ અને ભાવથી તેની નાની અવસ્થાઓને વિચાર કરવામાં આવે તે જ વિચાર અને એકાન્તવાદ અથવા સ્વાદવાદ કહેવાય છે. જગતને રક્ષક હોવાથી સ્યાદવાદ લેકનાથ પણક હેવાય છે. નયચકને આ જ અભિપ્રાય છે એમ સ્થાને સ્થાને અને અંતમાં સુચારૂ રૂપથી નિરૂપણ કરી જૈન શાસનની સત્યતા સાબિત કરી છે. ચકની ઉપમા અને નયનચક્રની ઉત્કૃષ્ટતા :
આ ગ્રંથરત્નનું નયચક્ર નામ અન્વર્થ જ છે. સર્વોપરી ચક્રવતી બનતાં પહેલાં જેમ સમસ્ત ભરતના રાજવીઓને રાજા જીતી લે છે, કારણ કે ચક્રરત્ન જેની પાસે હોય તેને પરાજય કોઈ કરી વ. નિ, સં. ૨૫૦૩
શકતું નથી. તે સદા વિજયી જ રહે છે. આ ગ્રંથરત્નનું પણ એવું જ છે. જેમ શસ્ત્રયુદ્ધમાં ચક્રરત્ન શ્રેષ્ઠ છે તેમ શાશ્વયુદ્ધમાં આ નય રત્ન કોણ છે. ચક્રરત્ન વડે રાજા - મહારાજાઓમાં ચક્રવર્તી થવાય છે તેમ આ નયચક્ર વડે વાદિમાં ચક્રવર્તી થવાય છે. સામર્થ્યની આ સમાનતા સિદ્ધ કરવા જ પ્રસ્તુત ગ્રન્થરત્નને નયચક નામ આપવામાં આવ્યું હશે એમ અનુમાન કરી શકાય. નયચક્રકાર પણ ગ્રંથના અંતમાં એમ જ કહે છે કે “જેમ ચક્રવતીને ચક્રવર્તીપણું પ્રાપ્ત કરવા સારું ચક્રરત્નની આવશ્યકતા પડે છે તેમ વાદિ ચક્રવતપણાને મેળવવા માટે આ નયચક રત્નની આવશ્યકતા છે.
ખાસ નોંધપાત્ર વાત તો એ છે, કે સામર્થ્યની અપેક્ષાએ એની અને ચક્રરત્નની વચ્ચે જેવી સામ્યતા છે તેવી જ સામ્યતા રચનાની અપેક્ષાએ એની અને જૈનદર્શનમાં કાલની ગણતરી માટે સ્વીકારાયેલા કાલચક્રની વચ્ચે છે. નયચક્રમાં બાર એર છે. કાલચક્રમાં પણ બાર અર છે. જેમ નયચક્રમાં દ્રવ્યાર્થિક અને પર્યાયાચિક એમ બે વિભાગ છે. તેમ કાલચકમાં પણ ઉન્નપિણી અને અવસર્પિણી એમ બે વિભાગ છે. કાલચક્રના આ બન્ને વિભાગ છ છ અને ધરાવે છે. તે ક્રમસર એક પછી એક અવિરામપણે આવ્યા જ કરે છે. તેથી નયચક્રને સામની અપેક્ષાએ ચકરત્નની અને રચનાની અપેક્ષાએ કાલચક્રની ઉપમા યથાર્થપણે ઘટે છે. ચક્રરત્નના ધારક મહાસમર્થ ચક્રવર્તી ઉપર સંસારમાં કોઈ પણ વિજય પામી શકતું ન હોવા છતાં કાલચક્ર એને સહજમાં ભરખી જાય છે. તેથી ચક્રરત્ન કરતાં કાલચક્રની ઉત્કૃષ્ટતા સિદ્ધા થાય છે પણ (ચક્રોમાં) નયચક્ર રત્ન સર્વોત્કૃષ્ટ છે. તે ફકત સર્વપ્રકારના વાદને જ વિજય નથી અપાવનું પણ ભવભ્રમણામાંથી આત્માને મુકત કરી કાલચક્રની અસરથી આપણને પર કરી તેના પર પણ વિજય અપાવે છે. નની સત્યાસત્યતા : કેમ કે નયચક્રને પ્રધાન વિષય આ જ છે. “વિધિનિયમભગવૃત્તિવ્યનિરિકતવાદનર્થક વચેવત! જૈનાદન્યચ્છાસનમનુ ભવતીતિ વૈધર્મમ”
આ સૂત્રરૂપ કારિકામાં આજ વસ્તુ બતાવવામાં આવી છે. વિધિ અને નિયમના આધારે બાર ભંગ થાય છે. તે બાર ભંગ બાર નય (સહ) છે. તે બધાં પરસ્પર નિરપેક્ષ થઈને અજેનશારાની જેમ વિચાર કરે તે અસત્યાર્થીને પ્રકાશ કરવાથી અસત્ય છે અને તે બધાં પરસ્પર મળીને અવિરોધપણે વિચાર કરે તે તે જેનશાસનની સાપેક્ષ વિચારણારૂપ હોવાથી સત્ય છે. કેમ કે વસ્તુ સામાન્ય વિશેષાઘનન્સ : ધર્માત્મક છે. તે જ રૂપે બધા નથએ મળીને સાપેક્ષાપણે વિચાર કરવો જોઈએ. સાપેક્ષ નિરપેક્ષ વિચાર જ 'ગ્રંથકારે આ ગ્રંથમાં દર્શાવ્યો છે. આ ગ્રંથમાં કોઈ પણ સ્થળે નય અને દુર્નયના ભેદની વિચારણા કરી નથી ફકત નાની વિચારણા કરી છે. જો કે સંમતિતર્કમાં સિદ્ધસેનદિવાકર સૂ. મ. ના ગ્રંથમાં આ ભેદ જોવામાં આવે છે છતાં મલ્લવાદિ સૂ. મ. આ ભેદોને કેમ સ્થાન નથી આપ્યું?
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આ એક મહત્ત્વના પ્રશ્ન છે. આ બાર અર વિધિ અને નિયમના ભંગ છે. પ્રથમ ચાર અર વિધિભંગ છે. આગળના ચાર અર ઉભયભંગ છે. આ દ્રિતીય માર્ગ છે. શેષ ચાર અર નિયમભંગ છે. આ તૃતીય માર્ગ છે. આ માર્ગ તુત્વ કૃતાકૃતત્ત્વ કૃતક સ્વરૂપ હજુ દ્વારા નિત્વત્વ નિન્જાનિય - અનિત્યત્વની સ્થાપના કરે છે. આ બાર નય જયારે એકમત થઈને પરસ્પર અપેક્ષા રાખીને વર્તન કરે છે. “સાન્નિત્ય: “સ્યાન્નિત્યાનિત્ય, સ્યાદનિત્ય” શબ્દ એવી પ્રતિજ્ઞા કરે છે. ત્યારે પરિપૂર્ણ અર્થના પ્રકાશ કરાવનાર હાવાથી સત્ય સ્વરૂપને બતાવનાર થાય છે. એમ નયચક્રના તુમ્બમાં વિવેચન કરવામાં આવ્યું છે. આ જ નયચક્ર શાસ્ત્રનું મુખ્ય પ્રતિપાદ્ય છે.
સ્યાદવાદ રૂપી તુમ્બ : આ બધા નયોની તમામ યુકિતઓને અખંડિત જાળવી રાખનાર સ્યાદ્વાદરૂપી સુખની રચના કરવામાં આવી છે. જે બાર બાર નયાના (અરોનો) આધાર છે. એ તુમ્બ સિવાય નપો ટકી શકતા નવી. એમ સુસ્પષ્ટ અનેક હેતુ દ્રાસ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, આ તુમ્બસ્વરૂપ સ્યાદવાદ વિના કોઈ નન્ય વિજપી બની શકતો નધી. સુંદોપદાથે પરસ્પર વિરોધી પ્રકૃત થઈ જાય છે. આ વિરોધને હઠાવીને સ્યાદવાદ બધા નયનું રક્ષણ કરે છે. એટલે આ સ્યાદવાદ લોકને આધીન બનાવવામાં સમર્થ બધા નયવાદાના પરમેશ્વર છે. કેમ કે પરસ્પર નયાનાં એકાન્તરૂપ વિરોધ દર કરીને એકીકરણ કરે છે. આ એકીકરણ સ્યાદવાદ જ કરી શકે છે. આ સ્યાદવાદને અનુસરીને નવા વસ્તુનું નિરૂપણ કરે તો જ તે પ્રમાણમાં સ્થાન પામી શકે છે. સ્વતંત્રપણે નિરૂપણ કરે ત્યારે એકાન્ત પકડવાથી નિષ્ફળ જાય છે. આમ ગ્રંથકાર નોનું નિરૂપણ કરનાં સ્થાને સ્થાને દર્શાવ્યું છે.
નામની યથાર્થતા તથા ગ્રંથની રચના પદ્ધતિ : યવાદને છેડો આવી શકતો નથી. એની ન આદિ છે ન અન્ત. એક ચક્રની જેમ તે સદા ફરતા રહી ખંડન અને મંડન કર્યા જ કરો હાવાથી ગ્રંથકાર મા.ષઓએ એની રચના ચાકાર કરી અને નયચક્ર એવું નામ અર્પણ કર્યું છે. આ નાચક્રરત્નમાં બાર અર છે. પ્રત્યેક બે અર વચ્ચે એક અન્તર એવા બાર અંતર છે. પ્રત્યેક ચાર અર પર એક નેમિ (માર્ગ) એમ ત્રણ નેમિ છે અને છેલ્લે સઘળાં અને પોતાનામાં સમાવનારું ખરેખર તો સઘળા અરનું અને આગળ વધીને કહીએ તો સમગ્ર ચક્રનું આધાર - સ્થાન એક તુમ્બ છે. પ્રત્યેક અર એક સ્વતંત્રના છે.
વાય
આ ચક્રના છ અર દ્રવ્યાર્થિક દષ્ટિ વિશેષના છે અને બીજા છ અર પર્યાયાર્થિક દષ્ટિ વિશેષનાં છે. પ્રથમ એક નયના આધાર લઈને સામાન્ય વિશેષ અને સામાન્ય વિશેષોભયવાદિઓના વાદ્ય લેવામાં આવ્યાં છે. તે પછી તેનું ખંડન કે જે દર્શાવવા અન્તરની રચના કરવામાં આવી છે તે કરી અન્ય નય મત શરૂ કરવામાં આવે છે. એ અન્ય નયમત પ્રથમ બીજા વાદિઓના મતમતાંતરોનું અંતરમાં ખંડન કરી પછી પોતાના વિષનું નિરૂપણ કરે છે. તે તે અરના અંતે ગ્રંથકારે તે તે નયના સંગ્રહાદિ સાત નયાના કયા નયમાં સમાવેશ થાય છે તે બતાવીને તે નયને સમ્મત શબ્દ તથા તદર્થને બતાવીને તે તે નયનો મૂળ આધાર જૈન આગમ છે. એમ નિરૂપણ કર્યું છે. એટલે બધાં નયો આગમના એક એક વાક્યના વિષયને લઈને પેાતાના અભિપ્રાય મુજબ એકાન્ત વર્ણન કરે છે એમ દર્શાવ્યું છે. દ્રવ્યાધિક છ નયોમાં દૃશ્ય અને પર્યાય શબ્દનો જો જય અર્થ દર્શાવવામાં આવ્યો છે. એમ પાંચ છ નવોમાં પણ દ્રવ્ય અને પર્યાયનો જુદો જુદો અર્થ બતાવવામાં આવ્યો છે. આમ બારમા અર પૂર્ણ થયા પછી તેનું અંતર (ખંડન) ગમે તે નય કરી શકે છે. તે નયનું પણ અંતર તેના પછીના નય; એવી રીતે ખંડનમંડન ચાલ્યા કરે છે. તેના અંત આવતા નથી. માટે જ તેને ચક્ર કહેવામાં આવ્યું છે.
આશા છે કે અહીં અપાયેલ ટૂંક નોંધ પણ તે વિષયના જિજ્ઞાસુને ગ્રન્થમાં આગળ વધવા પ્રેરણા કરશે.
અને ખાસ કરીને તેમણે પ્રાચીન પદ્ધતિ પર વિકસાવેલ તેમના પોતાના વિશિષ્ટ અભિગમના ધણ સુધી પહોંચશે.
અમને પ્રાપ્ત થતાં ઉલ્લેખથી અમે એટલું તો જાણી શક્યો છીએ કે પૂ. ઉમાસ્વાતિ મ. તથા પૂ. યશોવિજયજી મ.ને આ ગ્રેચ હું જે પછીના કાળમાં મળ્યો હશે. કારણ કે તેઓના ધામાં આ વિશિષ્ટ અભિગમ અંગે નહિવત જ માર્ગદર્શન પ્રાપ્ત થાય છે.
જો આ સમયે ગ્રંથકારે આ દિશામાં પ્રકાશ પાથર્યો હોત તે જેમ આજે જૈનશાસન અન્ય નવ્યન્યાયની દિશામાં ચમકે છે તેમ આ દિશા પણ ચમકી ઊઠી હાત. એટલે અત્યારે તે આ ગ્રંથના વિશે અભ્યાસીઓ પોં એ જ આશા રાખીને આ લઘુ લેખની સમાપ્તિ કરુ છું.
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રાજેન્દ્ર ત્ત્પતિ
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જય શ્રી સ્થંભન
લિયુગમાં કલ્પવૃક્ષ સમાન અચિત્ય પ્રભાવશાળી સુરેન્દ્રોઅસુરન્દ્રો અને માનવેન્દ્રોથી પૂજાયેલાં શ્રી સ્તંભન પાર્શ્વનાથ પ્રભુના નામથી પ્રસિદ્ધિ પામેલા. શ્રીસ્થંભનપુર (ખંભાતનું) સ્થાન ગુર્જર ભૂમિમાં અદ્રિતીય અને ધાર્મિક ઈતિહાસમાં અનુપમ છે. શ્રી સ્થંભન પાર્શ્વનાથ પ્રભુ ભાવિ કાળમાં જગતમાં ઘણા પ્રભાવિક થશે. એ પ્રમાણે નાગદેવતાએ શ્રી કૃષ્ણને જણાવ્યું હતું. કૃષ્ણના એ પ્રાણ ત, જીવન હતા, રામચંદ્રજીને પણ વિભીષણને કહેલ કે આ ભગવાન અમારા જીવનું જીવન છે. પ્રાણનું રૌતન્ય છે. સંસાર સાગરથી પાર ઉતરવાને અર્થે આ ભગવાનની સદાય જેવા કરવી જોઈએ. ભારાજની પાટનગરી ધામનગરીમાં નાંગી ટીકાકાર શ્રીમાન અભયદેવસૂરિના જન્મ થયો. એ મહાપુરૂષ શ્રી સુધર્મા સ્વામીની પાંત્રીસમી પાટે થયેલા શ્રી ઉદ્યોતનસૂરિના શિધ્ધ શ્રી વર્ધમાનસૂરિ, તેમના શિષ્ય શ્રી જિનેશ્વરસૂરિ ને બુદ્ધિસાગરસૂરિ હતા. તેમાં શ્રી જિનેશ્વરસૂરિના શિષ્ય શ્રી અભદેવસૂરિ હતાં. સોળ વર્ષની વયમાં ગુરુએ તેમને આચાર્ય પદવી આપી,
પાર્શ્વનાથ – એક
વિક્રમ સંવતના ૧૦૦૦ વર્ષ વીતી ગયાં. ત્યારે એ સૈકાના માં અભયદેવસૂરિ વ. વિ. સં. ૧૦૮૮માં સોળ વર્ષની ઉં‘મર તેઓ આચાર્ય બન્યાં, શાસનની અધિષ્ઠાયિકા દેવીના વચનન સહાયથી નવ અંગની ટીકાની રચના કરી. મહાન પુરુષનું નવાંગી વૃત્તિનું કાર્ય પૂર્ણ થયું; પરંતુ અસાતાના ઉદયે સૂરિજીના શરીરમાં ક્રુષ્ટ રોગે મળ્યા કર્યાં. શ્રી ધરણેન્દ્ર રાત્રે આવી શ્વેત સર્પનું રૂપ કરી પ્રિત ચૂસી લીધુ અને શ્રી સ્થંભન પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પ્રતિમા સેઢી નદીના કીનારે ખાખરાના વૃક્ષ નીચે નાગાર્જુન યોગીએ ભંડારેલી છે તે પ્રતિમા પ્રગટ કરવાની સૂચના કરી, સકલ સંઘ સહિત સૂરિજી ત્યાં પધાર્યા. એકાગ્ર ચિત્તે જયતિહુઅણુ કાવ્યની રચના કરી. ૩૨-ગાથા કહી. ૩૩-મી ગાથા બોલતાં તરત જ શ્રી નાગરાજના પ્રભાવમાં જમીનમાંથી અલૌકિક, અત્યંત તેજસ્વી, નીલરનથ કી રક્ષાને પાર્શ્વનાથ ભગવંતનું બિબ પ્રગટ થયું. બ્લ્યુ જય ચાલતાં પ્રભુના દર્શનથી સહુ આનંદવભોર બન્યાં. સાં સંઘે મહાન ચમત્કારી શ્રીસ્થંભન પાર્શ્વનાથની ઉત્પત્તિ સૂરિશ્વરજીને પૂછી. મંદ-મધુર સ્વરે સૂરિજી બાલ્યા કે, પૂર્વ આ ભગવંતની પ્રતિમા સ્વ-પરના કલ્યાણાર્થે ગઈ ચોવિસીના સેાળમા ભગવાન શ્રી નમિસર પ્રભુના શાસનમાં શ્રી આષાઢી નામન ધર્મવીર શ્રાવકે ભરાવી, પછી સૌધર્મનું અને વરૂણદેવે અગિયાર વખ વર્ષ સુધી પૂ. તે પછી રામ-લક્ષ્મણે પૂજી. એંસી હજાર વર્ષ સુધી તક્ષક નાગે પૂજી, છેલ્લા વાસુદેવ શ્રીકૃષ્ણે પૂજી. દ્વારિકાના દાહ સમયે અધિષ્ઠાયક દેવે સમુદ્રમાં પધરાવી. તે કેટલેક કાર્યો કાન્તિનગરીના સાઇવાડના વહાણો સમુદ્રમાં સાંબી જવાથી વવાણીથી સાર્યવાહ ધનપતિએ બહાર કાઢી, કાન્તિનગરીમાં ભવ્ય મંદિર બંધાવી ભકિતથી પૂ. તે પછી નાગાર્જુન નામના યોગીએ આ પ્રતિમાનું હરણ વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
પરિચય
કર્યું અને તેણે આ પ્રભુના સાનિધ્ય ને પ્રભાવી વાઇરસની સિદ્ધિ કરી અને પ્રતિમાને રોતી નદીના કીનારે. ખાખરાના યાની નીચે જમીનમાં ભંડારી દીધી, ત્યાં પણ તે પ્રતિમા યોાથી પૂજાતી રહો. આજે અનુક્રમે ધરણેન્દ્રના વચનથી એ પ્રતિમા અહયા છે. એમ જાણી સિંહણ કાળ વડે મેં સ્તુતિ કરી. તે પ્રતિમા આપણા પૂણ્યોદયે જમીનમાંથી પ્રગટ થઈ. લગભગ છ લાખ વર્ષ પૂર્વે શ્રી રામચએ રાવણના પંજામાંથી સૌને મુક્ત કરવા સાત માસને નવ દિવસ એકાગ્ર ચિત્તે ધ્યાન ધર્યું. દશમા દિવસના મંગળ પ્રભાતે શ્રી નાગરાજ પ્રસન્ન થયા તે વખતે સમુદ્રનાં જળ સ્થંભી ગયાંની વધામણી આવી. પછી શ્રી રામચંદ્રજીલક્ષ્મણ –વિદ્યાધરોની સાથે ભગવંત પાર્શ્વનાથના મંદિરમાં આવ્યા. પૂજા-અર્ચા કરી ભાવપૂર્વક સ્તુતી કરી “ફ્રી સ્થંભન પાર્શ્વનાથ” નામ આપી હર્ષથી વધાવ્યા. અને ત્યારથી ભગવન આ જગતમાં દેવ-મનુષ્યો અને વિદ્યાધરોથી પૂજાતા ‘શ્રી સ્થંભન પાર્શ્વનાથ” નામે વિખ્યાત થયા. તે શ્રી શાશ્વનાથ પ્રભુ હતા હતાં. સહુનું કલ્યાણ કરો, અમારી મેાક્ષ લક્ષ્મિને માટે થાઓ.
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આ પ્રતિમાજીના હવણ જળથી સૂરિજીના રોગ નષ્ટ થયો. તે પછી સંઘે ત્યાં આગળ ઘણું દ્રવ્ય ખરચીને સ્થંભન નામે ગામ વસાવ્યું. મોટા મહોસવપૂર્વક મંદિર બંધાવી પ્રતિષ્ઠા કરી. વિ. સં. ૧૩૬૮માં એ પ્રભુજીનું બિબ સ્તંભતીર્થ (ખંભાત)માં આવ્યું. ખંભાતનો શ્રી સંઘ ખારવાડાના મંદિરમાં પ્રતિષ્ઠાપૂર્વક બિરાજમાન કરી પ્રભુની સેવા કરવા લાગ્યો. ત્યાર બાદ વિ. સં. ૧૯૫૨માં તારાપુરના સાનીઓ આ બિંબનું રણ કર્યું. શ્રી સંઘ શાકથી ઘેરાઈ ગયો. ધર્મવીર સં થી પાપભાઈ તથા કોઠી પુરૂષોત્તમભાઈના સતત પ્રયાસથી નિર્ધનને ધનની પ્રાપ્તિ, ભૂખ્યાને ભોજનની પ્રાપ્તિની જેમ ભકતોને ભગવાન મળ્યા. પ્રભુજીના દર્શન કરી સહુ હર્ષિત બન્યાં.
વિ.સં. ૧૯૫૫માંતપાગચ્છાધિરાજ શાસન સમ્રાટ શ્રી વિશ્વ નેમિસૂરિશ્વરજી મ. સાહેબના પુનિત હને પ્રતિષ્ઠા કરાવી. સમયનાં વહેણની સાથે મંદિર જીર્ણ બન્યું. ખંભાતના શ્રી સંઘે એ જ સ્થાને ત્રણ શિખરનું નૂતન વિશાળ મંદિર બંધાવવું શરૂ કર્યું. લાખોના ખર્ચે ભવ્ય મંદિર તૈયાર થયું અને નૂતન જિનાલયમાં વિ. સં. ૧૯૮૪ ના ફાગણ શું. ત્રીજના માંગલિક દિવસે ભાવભીના માન્સવર્વક તપાગચ્છાધિરાજ શાસન સમ્રાટ ૫, પૂ. આ. કે. વર્ષે નેમિસૂરિશ્વરજી મ. ના વરદ હસ્તે પ્રાચીન શ્રી સ્થંભન પાર્શ્વનાથ પ્રભુના બિંબની પ્રતિષ્ઠ કરાવી. સ્તંભન તીર્થંના નિલમણિ આભૂષણરૂપ શ્રી સ્તંભન શમનાથ પ્રભુના દર્શનાર્થે હજારો ભાવિકો આવે છે. ખંભાતના શ્રી સંઘ પણ રોજ દર્શન, પૂજન સ્તવન કરી આત્માને ધન્ય બનાવે છે. ✰✰✰
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ભગવાન મહાવીરે ચીધેલો મળ માર્ગ
| _ લેખક: પૂ. મુનિશ્રી અમરેન્દ્ર વિજયજી મ. સુખપુર, (તા. ભૂજ, કચ્છ) આજે ટોચના મનોવૈજ્ઞાનિકો આ વાત ઉચ્ચારી રહ્યા છે. આજની સમસ્યાઓને ઉકેલ - ધ્યાન ? કે સંવાદી અને સુરિલા માનવજીવન માટે રોટલા અને એટલા
પ્રસન્ન, મધુર અને સંવાદી જીવનને આધાર શો છે ? જેટલી જ ધર્મની પણ આવશ્યકતા છે. પણ સામાન્યત: આપણા ભૌતિક સમૃદ્ધિ સાથે એને કંઈ સંબંધ નથી એ આજે પુરવાર કાને એ ફરિયાદ વારંવાર અથડાય છે કે આજે માનવીને ધર્મ
થઈ ચૂકેલું તથ્ય છે. પશ્ચિમમાં આજે ભૌતિક ઐશ્વર્ય અને સુખ જોઈતો નથી. આમ કેમ? ધર્મનતાઓએ સંશોધન કરીને
સગવડની વિપુલ સામગ્રી વચ્ચે પણ માનવીને ચેન નથી, તેનું
ચિત્ત અશાંત છે. અપાર સમૃદ્ધિ વચ્ચે પણ જીવન તેને નિરર્થક આનું કારણ શોધવું જોઈએ.
નિરસ અને અસુરક્ષિત લાગે છે. નિત નવા મનરંજનના સાધને આજની માગ: પ્રયોગ દ્વારા પ્રતીતિ
અને માદક દ્રવ્યો પણ એની એ અશાંતિ અને અજંપે દૂર કરવામાં
વિફળ ગયાં. ત્યારે આજે એની મીટ લેગ તરફ મંડાયેલી છે. થવ દાયકાઓ પૂર્વે જેની સંભાવના પણ હસી કાઢવામાં યોગસાધનામાં એને આશાનાં કિરણો દેખાયાં છે. આવતી એવા ટેલિફોન, રેડિયે, ટેલિવિઝન, ટેપ રેકેડર વગેરે
યુનિવર્સિટી કક્ષાએ થઈ રહેલાં સંશોધનોએ શારીરિક અનેકાનેક આવિષ્કારો આજે પ્રજાજીવનમાં વણાઈ ગયા છે.
સ્વાથ્ય માટે યોગાસનની અને ચિત્ત શાંતિ અર્થે ધ્યાનની ઉપએની પાછળ કયું તથ્ય કામ કરી રહ્યું છે? વૈજ્ઞાનિકો પોતાની
યોગિતા સ્વીકારી છે, જેના પરિણામે અમેરિકાની સ્કૂલો અને સામે આવેલ કોઈ નવી વાતને પ્રયોગ શાળામાં પ્રયોગના આધારે
કૅલેજોમાં યોગાસનના અને દયાનના શિક્ષણને અભ્યાસક્રમમાં ચકાસે છે અને પછી એનો ઉપયોગ વ્યવહારમાં કરી દેખાડે છે.
સ્થાન અપાયું છે. ત્યાંના આરોગ્ય, શિક્ષણ અને સમાજકલ્યાણ પરિણામે કેટલાંયે, ઉપેક્ષિત કે અજ્ઞાત તથ્યો પ્રતિષ્ઠા પ્રાપ્ત કરે
ખાતા હેઠળની ‘નેશનલ ઇન્સ્ટિટયુટ ઓફ મેન્ટલ હેલ્થ” તરફથી છે, તેમ આજે “ધર્મજીવન’ના રહસ્યોને વૈજ્ઞાનિક ઢબે છતાં
ધ્યાન શીખવતી હાઈસ્કૂલને ગ્રાંટ (આર્થિક મદદ ) મળે છે. કરવામાં આવે તે, ઈલેકિટ્રસિટી, રેડિયો, ટેલિવિઝન આદિ વૈજ્ઞાનિક
ધ્યાનની સૈદ્ધાંતિક ભૂમિકા વિષયક અભ્યાસક્રમને (કોર્સ) ને શોધો અને આવિષ્કારોની જેમ, આધ્યાત્મિક માર્ગના ઉપેક્ષિત
સાયન્સ ઓફ ક્રીએટિવ ઈન્ટેલિજન્સ' એ નામ હેઠળ સ્ટેનફર્ડ, તો પણ સમાજમાં શીધ્ર પ્રતિષ્ઠા પ્રાપ્ત કરી શકશે. આજના
હાર્વર્ડ, વેલ, યોર્ક અને કેલિફોર્નિયા તથા કોલેરેડોનાં વિશ્વ વિદ્યાયુગમાં અને વિશેષ કરીને નવી પેઢીને ધર્મનું અને સંયમી જીવ
લયોમાં સ્થાન મળ્યું છે. અમેરિકાના નકાળમાં માનને ખાસ નનું મહામ્ય માત્ર શાસ્ત્ર–વચને ટાંકીને કે પારિભાષિક શબ્દોની
કોર્સ દાખલ કરવામાં આવ્યો છે અને અમેરિકન એર ફોર્સના શાસ્ત્રીય વ્યાખ્યાઓ આપીને નહિ ઠસાવી શકાય, શ્રમણોએ પિતાના
બજેટમાં પણ ધ્યાનના કોર્સ માટે વાર્ષિક અઢાર લાખની જોગવાઇ જીવન દ્વારા એ પ્રતીતિ કરાવવી રહી.
છે. ત્યાંની રાજ્ય સરકારો દ્વારા પણ એ પ્રવૃત્તિને પ્રોત્સાહન વ્યવહારની કસોટીએ ન ચડેલો ઉપદેશ વિજ્ઞાનની બેલ
મળ્યું છે. બાલામાં ઉછરેલી યુવા પેઢીના માનસમાં શ્રદ્ધાનું નિર્માણ કરવામાં
માત્ર અમેરિકામાં જ નહિ પણ વિશ્વભરમાં પચાસ જેટલી વિફળ રહે છે. આજની બુદ્ધિપ્રધાન યુવા પેઢીને ધર્મની રુચિ
વૈજ્ઞાનિક સંસ્થાઓમાં ધ્યાનના પ્રાગે થઈ રહ્યા છે, અને તેમાં કે ભૂખ નથી એવું નથી. પણ ગોખેલો ઉપદેશ, અહં–મમ પ્રેરિત
જર્મનીની વિખ્યાત યુનિવર્સિટી ઓફ કોલોન અને ઈંગ્લાંડની ફુલ્લક વાદ - વિવાદો અને ચિત્તશુદ્ધિ કે વ્યવહારશુદ્ધિમાં ન
યુનિવર્સિટી ઓફ સસેક સનો પણ સમાવેશ થાય છે. માનવ પરિણમતાં પ્રાણહીન ક્રિયાકાંડોમાં એને રસ રહ્યો નથી. એનાથી
શરીર અને મન ઉપર ધ્યાનની કેવી અદભુત અસર થાય છે તે એના માનસનું સમાધાન નથી થતું, ત્યારે એ આધ્યાત્મિક શાંતિ
આ સંશોધનોએ પુરવાર કરી આપ્યું છે. સમત્વ સાથે થાન અને માટેની પોતાની ભૂખ સંતોષવા ફાંફા મારે છે. તે જાતે ચિત્તા
કાન્સર્ગને જે સંબંધ છે તે પ્રયોગ વડે પ્રસ્થાપિત થાય એ આજના શુદ્ધિને અને સમતાને અનુભવ કરી શકે એવી પ્રક્રિયા તે શોધે
યુગની માગ છે. સમભાવની વૃદ્ધિ થતી રહે એવી સામાયિકની કે છે. તે એને મળશે તો એની ઝંખના સંતોષાશે ને એ ધર્મ–માર્ગ
કાઉસગ્ગની - કાયોત્સર્ગની પ્રક્રિયા આજે જેન કામણો બતાવી તરફ તે સ્વયં ખેંચાશે. આત્મ-તત્ત્વનો સ્પર્શ કરાવી આપતી
શકશે તો આજને અશાંતિગ્રસ્ત માનવ એ ધર્મને શરણે દોડયો સાધના - પ્રક્રિયા પ્રયોગાત્મક રીતે એની સામે આપણે ધરીશું તો
આવશે. તે ઉત્સાહભેર એને અપનાવશે. એક વર્ષને ચારિત્ર્ય પર્યાય થતાં મુનિ ઉચ્ચતમ દેવોના
ભગવાન મહાવીરની સાધનાનું કેન્દ્ર પરમ સુખને પણ ટપી જાય છે' એવું શાસ્ત્રવચન સાંભળીને
જગતને સુધારવાને કોઈ પ્રયાસ ન કરતાં, પહેલાં સાડા બાર આજના બુદ્ધિજીવી માનસને સંતોષ કે પ્રતીતિ થતી નથી. એની વર્ષ સુધી મૌન રહી, એકાંતમાં ધ્યાન અને કાયોત્સર્ગની સાધના આગળ એ શાસ્ત્ર વચને રયે રાખવાથી કોઈ અર્થ સરતો નથી દ્વારા પોતાની જાતને પૂર્ણ શુદ્ધ કરવાના પ્રયાસમાં ડૂબી જનાર એ તો પ્રશ્ન કરે છે : “આજે સ્થિતિ શી છે? ચારિત્ર્ય-પર્યાય ભગવાન મહાવીરની સાધના માત્ર ત્યાગ, તિતિક્ષા અને ઉપસાથે પ્રથમ સુખને કોઈ અનુપાત ratio વર્તમાન મુનિ જીવન વાસમાં સીમિત નહોતી રહી. જ્ઞાનથી રસાયેલ ત્યાગ, તિતિ ક્ષા માટે આપી શકાય તેવું આજે રહ્યું નથી એની સખેદ નોંધ લઈ, ઉપવાસ ઉપરાંત એકાંત, મૌન, ધ્યાન અને કાઉસગ - કાયોત્યાગી વર્ગો અને સંઘનાયકોએ ચારિવ્ય-પર્યાય સાથે પ્રશમ- સર્ગ ભગવાનની સાધનાનાં મુખ્ય અંગે હતાં. કાન્સર્ગ એટલે સુખની વૃદ્ધિ લાવનાર કયું તત્ત્વ વર્તમાન મુનિ જીવનમાં ખૂટે છે કાયાને ઉત્સર્ગ - ત્યાગ; અર્થાત ધ્યાનાદિ દ્વારા દહાત્મ-ભાવથી તે શોધી કાઢવા તટસ્થ આત્મનિરીક્ષણ તથા તે તત્વની પૂર્તિ પર થવું કે દેહાત્મ-ભાવથી પર રહેવું એ ભગવાનની સાધનાનું કઈ રીતે શક્ય છે તે અંગે સંશોધન કરવું જોઈએ.
કેન્દ્ર હતું.
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ના રાજેન્દ્ર જાતિ
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સાડાબાર વર્ષની ઉગ્ર સાધનામાં એ અપ્રમત્ત સાધકે કેટલું અને કયું બાહ્ય તપ કર્યું તેની વાત હોંશે હોંશે કરનારાઓ પણ, એ સમય દરમ્યાન, દિવસે, ૫ખવાડિયાં અને મહિનાઓ સુધી આહારને ત્યાગ કરીને ભગવાને અપ્રમત્ત ભાવે અંતરમાં જે ડૂબકી લગાવી તેની વાત કરતા નથી - કોઈ વાર કદાચ કરે છે તે પણ શુન્યમનસ્કપણે. એટલે ભગવાને ઘોર ઉપસર્ગો સહન કર્યા એની વાત કરે ત્યારે પણ ભગવાનની પ્રબળ ઈચ્છા શકિત કે સહનશકિત જ એમની આંખ સામે તરવરે છે, ભગવાનની ઊંડી અંતર્મુખતા - આત્મલીનતા નહિ પરંતુ હકીકત એ છે કે પરિષહ, ઉપસર્નાદિ બાહ્ય વિષમ પરિસ્થિતિ, ઊંડી અંતર્મુખતા કે આત્મલીન વૃત્તિના બળે, સહજ રીતે, સમભાવે પાર કરી શકાય છે. આપણા સૌને અનુભવ છે કે આપણે કોઈની સાથે રસમય વાતચીતમાં તલ્લીન હોઈએ છીએ ત્યારે આજુ બાજુ ચાલી રહેલ અન્ય પ્રવૃત્તિ કે વાતચીત પ્રત્યે આપણે સાવ બધિર બની જઈએ છીએ. આપણા માથા ઉપર જ ટીંગાતા ઘડિયાળના ટકોરા પણ આપણને તે સમયે સંભળાતા નથી ! એ જ રીતે શરીરમાં કંઈ પીડા હોય તે પણ આવી જ કોઈ રસમય પ્રવૃત્તિમાં આપણે પરોવાઈએ છીએ ત્યારે વિસારે પડી જાય છે એવું ઘણી વાર નથી બનતું? તેમ “ધ્યાનાદિ અંતરંગ સાધનાના બળે જ્યારે ચિત્ત આત્મામાં લીન થાય છે ત્યારે બહાર શરીરને શું થઈ રહ્યું છે એને બોધ આત્મલીન સાધકને હોતો નથી.”
આ રીતે જ પૂર્વ મહાપુરુષોએ સમભાવે ઉપસર્ગો પાર કર્યા છે. (જુઓ અધ્યાત્મસાર, સમતાધિકાર શ્લેક ૯-૧૦). મહાવીર પ્રભુએ દારૂણ ઉપસર્ગો સમભાવે પાર કર્યા એની પાછળ પણ ધ્યાનાદિ અંતરંગ સાધના વડે એમને પ્રાપ્ત થયેલ સમત્વ અને અંતર્મુખતાને મુખ્ય ફાળે હતો - આ વાત જે ઉપદેશકોના હૈ ધ્યાન બહાર રહેતી હોય તે રોતાજને સુધી તે એ પહોંચે જ શી રીતે?
આના ફળસ્વરૂપે જેન સંધના સામાન્ય જનસમૂહનું અને આરાધક વર્ગના પણ મોટા ભાગનું લક્ષ માત્ર બાહ્ય તપ, ત્યાગ અને તિતિક્ષા ઉપર જ કેન્દ્રિત રહે છે, એના અંતરમાં ભગવાનની જેમ ઉગ્ર તપશ્ચર્યા અને પરિષહ - ઉપસર્ગ સહન કરવાના મનેરો જાગે છે; કિંતુ, કેવળ સહનશકિત અને ઈચ્છાશકિતના જોરે જ નહિ પણ ઊંડી અંતર્મુખતાના કારણે જ ઉપસર્ગો અને પરિષહીને સમભાવે પાર કરી જવાય એ તથ્યથી અજાણ હોવાના કારણે, પરની ચિતા મૂકી દઈ પ્રભુની જેમ ધ્યાનાદિ અંતરંગ સાધનામાં ડૂબકી લગાવવાના કોડ એને થતા નથી. પણ હવે, એ વાત પ્રત્યે એનું લક્ષ ખેંચ્યા વિના ચાલશે નહિ.
ત્યાગી વર્ગે પણ આજે માત્ર શાસ્ત્રાધ્યયન, ચિંતન - મનન અને સાહિત્ય સર્જન કે ઉપદેશથી સંતોષ માનવો પરવડે તેમ નથી. સાધનાને હવે પ્રાયોગિક રૂપ અપાવું જોઈએ. શ્રમ
એ એ ભૂલવું ન જોઈએ કે જૈન ધર્મ નિર્દિષ્ટ સઘળીએ બાહ્ય- વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
ચર્ચાનું લક્ષ ચિત્ત શુદ્ધિ, સમત્વને વિકાસ તથા ધ્યાનમાં પ્રવૃત્તિ અને પ્રગતિ દ્વારા આત્મદર્શન અને અંતે સ્વરૂપ રમણતા છે. “આત્મશાન અર્થે ધ્યાન આવશ્યક છે અને ધ્યાનની પૂર્વ તૈયારી રૂપે બાકીનું બધું, વ્રત, નિયમ, તપ, સંયમ, ભાવના, સ્વાધ્યાય, જપ વગેરે છે. (ઉપમિતિ, પ્રસ્તાવ ૮, શ્લોક ૭૨૫-૭૨૬) પૂર્વ તૈયારી : સ્વાર્થ વિસર્જન અને ચિત્ત શુદ્ધિ
પ્રારંભિક કક્ષામાં નીતિમય જીવન તથા દાનાદિનો અભ્યાસ અને પછીથી એમની સાથે ઉમેરાતાં વ્રત - નિયમ અને ધાર્મિક અનુષ્ઠાને વ્યકિતના જીવનમાંથી વિચાર વર્તન ને સ્થૂલ અશુદ્રિએને દૂર કરીને ક્રમશ: સ્વાર્થવૃત્તિ, વાસનાઓ અને વિકારોને ક્ષીણ કરી તેના ચિત્તને નિર્મળ, શાંત અને ધર્મધ્યાનને યોગ્ય બનાવવા માટે છે. અર્થાત ધ્યાન સુલભ બને એવી મનેભૂમિકા ઘડાય એ આ સમગ્ર ચર્યાને ઉદેશ છે. વ્રત, નિયમ અને ધાર્મિક અનુષ્ઠાને પાછળ રહેલ આ હેતુ ખ્યાલમાં રહે, ‘તે જ', તેનું હાર્દ હાથમાં આવે.
વ્યવહારશુદ્ધિ અને ચિત્તશુદ્ધિમાં ન પરિણમતાં પ્રાણહીન ક્રિયાકાંડ પૂરાં કરવાથી કે શાસ્ત્રોકત અર્થાત પોતાના સંપ્રદાયને માન્ય દાર્શનિક સિ વાતની માન્યતાને મનમાં કટ્ટરતાથી ઠાંસી લેવા માત્ર જન થઈ જવાતું નથી. એ જૈન છે. કે જે કંદમૂળ નહિ ખાય'ની જેમ “એ” બેટું નહિ બોલે, એ અન્યાય - અનીતિ નહિ આચરે એ જૈન છે.” એવી છાપ પણ ઉપસવી જોઈએ.
મહાવીર પ્રભુના માર્ગને અનુસરવા ઈચ્છતી વ્યકિત માટે સૌથી પહેલો નિયમ એ છે કે તેણે ન્યાય, નીતિ અને પ્રામાણિક વ્યવસાયથી આજીવિકા રળવી. શ્રેયાથી અર્થાત માર્ગાનુસારી માટેના નિયમમાં આ પ્રથમ નિયમ છે અને, શ્રાવકના આગવ્રતમાં પહેલા અહિંસા વ્રતમાં એટલે જ નિયમ છે કે નિરપરાધ ત્રસ જીવને ઈરાદાપૂર્વક ન માર. ઉપલક દષ્ટિથી સામાન્ય લાગતા આ નિયમમાં મને વૈજ્ઞાનિક દષ્ટિએ ઊંડું રહસ્ય છુપાયેલું છે. વ્યકિતની, સમાજની, દેશની અને વિશ્વની શાંતિ, ઉન્નતિ, સુવ્યવસ્થા, અને આબાદીનું બીજ તેમાં રહેલું છે. કૌટુંબિક, સામાજિક, રાષ્ટ્રીય અને આંતરરાષ્ટ્રીય સંઘર્ષો અને અશાંતિને ઉગમ વ્યકિતગત સ્વાર્થમાંથી છે. વ્યકિતને સ્વાર્થની પકડમાંથી મુકત કરી તેના અંતરમાં નિ:સ્વાર્થ વૃત્તિને ઉઘાડ કરવાની યોજના રૂપ આ અને તે પછીના અન્ય અણુવ્રત છે. જેની સ્વાર્થવૃત્તિ પ્રબળ હોય તે વ્યકિત અહિંસક ન રહી શકે. અહિંસાને મૂળ સ્રોત પ્રેમ છે. સ્વાર્થ આવે ત્યાં નિર્મળ પ્રેમ પાંગરી ન શકે. કોઈ વ્યકિત દેખીતી રીતે કંઈ હિંસા કરતી ન હોય પણ તેનું ચિત્ત સ્વાર્થથી અતિદૂષિત હોય તે તે સ્વાર્થપૂર્ણ અતિ મલિન "વિચારથી ખદબદતું રહેવાનું. જ્ઞાનીઓ આવી વ્યકિતની બાહ્ય
અહિંસાનું બહુ મૂલ્ય આંકતા નથી, અશુદ્ધ ભાવ એ જ પારમાર્થિક દષ્ટિએ હિંસા છે, હિંસા અહિંસાને આધારે માત્ર સ્થૂળ કર્મ નથી પણ આંતરિક વિવેક છે. અહિંસાનું લક્ષ તે નિર્વિક૯૫ ઉપ
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ચોગમાં કથીર કરવાનું છે. પારમાધિક દષ્ટિએ ભાવાની અશુદ્ધિ એ જ હિંસા છે, આથી, ધર્મ માર્ગે પ્રગતિ ઈચ્છનારે એ બરાબર સમજી લેવું જોઈએ કે ધર્મ એ છે કે જે સ્વાર્થથી પર થવામાં સહાયક
હાય. નીતિના પાયા સ્વાર્થથી પર થવામાં રહેલા છે. અતિ સ્વાર્થી વ્યકિત નીતિના પાલનમાં ટકી ન શકે. એટલે ધર્મ માર્ગે ગ મૂકનાર માટે – જૈન પરિભાષામાં કહીએ તો માર્ગાનુસારી માટે – એ પ્રથમ શરત છે કે તેની આજીવિકા બીજાના શાષણ ઉપર નિર્ભર ન હોવી જોઈએ.
આમ, ન્યાય નીતિપૂર્વક આજીવિકા રળવાની ટેંકથી શરૂ થતી ધર્મયાત્રા, વિશ્વને લિંગના નિ:સ્વાર્થ નિર્વ્યાજ પ્રેમની અખંડ અનુભૂતિ સ્વરૂપ પૂર્ણ અહિંસાના રાજમાર્ગે થઈને આત્મજ્ઞાનાદિ ઉચ્ચ આધ્યાત્મિક ભૂમિકાઓના સ્પર્શ કરતી અંતે આત્મરમણતામાં પિગમે છે.
અહિંસાનો મૂળ સ્રોત: પ્રેમ આત્મિયતા
મહાવીરને અનુસરવા ઉત્સુક વ્યકિતને મહાવીરની અહિંસાનું જ્ઞાન હોવું આવશ્યક છે, એવા શ્રી મહાનિશીથ સૂત્ર અંતર્ગત, “ પઢમં નાણું તઓ દયા સૂત્રેાના બુલંદ ઉદ્ઘોષ છે. બીજા જીવામાં હોતા તુલ્ય આત્મા વિલસી રહ્યા છે એ ભાનપૂર્વકની આત્મીયતા – વાત્સલ્ય – પ્રેમ અહિંસાના મૂળ સ્રોત છે. એ પ્રેમ હોય ત્યાં, કોઈને પણ લેશ માત્ર દુ:ખ ન પહોંચે એ રીતે જીવવાની કાળજી સ્વાભાવિક રહે, એટલું જ નહિ, સહાનુભૂતિ, સહકાર અને સહિષ્ણુતા અર્થાત સામાના હિત - સુખ અર્થે જાતે થાડી અગવડ કે કષ્ટ વેઠી લેવાની વૃત્તિપૂર્વકના જીવન વ્યવહાર પણ એની સહજ ફલશ્રુતિ હોય; એટલે, મહાવીરના અનુપાવી ન્યાય, નીતિને અડગ નિશ્ચયપૂર્વકના ઉદ્યમથી પ્રાપ્ત દ્રવ્યનો પણ કેવળ પોતાનાં સુખ - સગવડમાં જ વ્યય ન કરી નાખતાં, જરૂ
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રિયાતવાળા અન્ય જીવોને સાયભૂત થવા ઉલ્લાસપૂર્વક પ્રયત્ન શીલ રહે – અતિથિ સંવિભાગ કરે; એટલું જ નહિ, પરિગ્રહપરિમાત્ર વ્રત દ્વારા સંચયવૃત્તિને પણ તે અંકુશમાં લઈ લે,
આ ‘પાસા ના ગંભીરતાથી વિચાર કરવો અનિવાર્ય છે. આમ આચરણમાં આત્મિયતા મૂલક અહિંસા અને વિચારમાં અનેકાંતદષ્ટિ પ્રેરિત પણ સિંહષ્ણુતા મહાવીરના અનુયાયીનું જીવનસૂત્ર હોય, 'બીજાનો મત બેટો છે, પણ હું નમાવી વઉં છું' એવી ગુરુતા ગ્રન્થિ પ્રેરિત- અહં પ્રેરિત પરમ સહિષ્ણુતા નહિ, પણ વસ્તુના અનંત ધર્મો છે અર્થાત સત્યને અનંત પાસાં છે.
છે, પોતાને એ બધા પાસાનું જ્ઞાન ન હોઈ શકે. કોઈ પાસાનું જ્ઞાન બીજાની પાસે હોવું સંભવ – એ રીતે, પોતાની અપૂર્ણતાના ભાન નિત પરમ-ક્રિષ્ણુતા ચાિ જીવનવ્યવહારમાં આત-પ્રોત ન થઈ હોય તો મહાવીરના અનુયાષી વાના દાવા થઈ શકે ખરો ? અનેકાંતવાદના ઉદ્ઘોષક ભગવાન મહાવીરના અનુયાયી અહં - મમ પ્રેરિત ક્ષુલ્લક આગ્રા અને વિવાદોમાં જીવન પૂરું કરે – વેડફે ખરો?
અંતર્મુખ સાધનોની પૂર્વ તૈયારી અને પાયારૂપે ચિત્ત શુદ્ધિ, અને ચિત્ત શુદ્ધિ અને સંયમ, અહિંસા, પ્રેમ, કરુણા અપરિગ્રહવૃત્તિ અને અનેકાંત દષ્ટિ ઉપર આધારિત જીવનપતિ ભગવાન મહાવીરે ચીંધી છે. આ વનમૂલ્યોને રોજિન્દી બન વ્યવહારમાં વણવાના નિષ્ઠાભર્યા પ્રયત્ન વિના જાતને “જૈન ’ કહેવડવી શકાય, * શ્રાવક ' કે ' મુનિ ' નું બિરુદ પણ મેળવી શકાય. પણ ચચા અર્ધમાં “ જૈન * – જિનના અનુયાયી ( અનુ + ય = પાછળ પાછળ ચાલનાર ) બની શકાતું નથી, એથી પોષાય છે કેવળ ભ્રાંતિ. આ ભ્રાંતિમાં જીવન વિતાવવું એ, ધર્મ ન પામ્યા હાવા કરતાંયે વધારે ખતરનાક છે.
“‘હું દેહ ' એ ભાનમાં જીવનાર વ્યકિત ચાહે તે જૈન હોય કે અજૈન, ગૃહસ્થ હોય કે સાધુ – મિથ્યા દષ્ટિ છે. મુકિતની વાટે તે ચડી જ નથી. પ્રાકૃતિથી પર અર્થાત, કર્મકૃત દેહ, મન, બુદ્ધિ, અહંકાર ાદિ સર્વ અવસ્થા અને આભારીાથી પરા વિશુદ્ધ ચૈતન્ય છું,' એ ભાવમાં જીવનારા જૈન હોય કે જૈન એ સમ્યગ દશ છે. એ વિસ્તાર ન હોય તો કે મુકિત પથના ગતિશીલ પ્રવાસી છે. “
લેખક કૃત : “ આત્મ જ્ઞાન અને સાધના પથ ”માંથી ઉષ્કૃત
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કર્મવાદની સામાન્ય રૂપરેખા
] લેખક : શ્રી ખૂબચંદ કેશવલાલ પારેખ (વાવ, બનાસકાંઠા)
ત્ર માનવની જ નહીં પરંતુ જીવમાત્રની દરેક પ્રવૃત્તિના
આ મૂળમાં સુખ કે પ્રસન્નતાની પ્રાપ્તિની જ ભાવના રહેલી હોય છે એ નિર્વિવાદ સત્ય છે. પ્રત્યેક જીવ, આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ પોતાની પરિણતીની આધારશીલા પર સ્વ- ક્ષયોપશમના સહારાથી કરે છે. આવી પ્રવૃત્તિ અને પરિણતી જેટલી ‘યથાવત’ સ્વરૂપે સમજવી જરૂરી છે એના કરતાં પણ વધુ સ્પષ્ટ રીતે આવી પ્રવૃત્તિ તથા પરિણતીના ઉદ્ભવ, ઉદય, પ્રભાવ તથા પરિણામની પરંપરાના મૂળ કારણ રૂપ ઑપાર્જીત કર્મ તથા અન્ય કર્મના સિદ્ધાંતને સર્વાગીણ રૂપે સમજવું જરૂરી છે. કર્મવાદની સર્વાગીણ સમજથી દરેક મનુષ્ય પોતાના વ્યવહારિક, ધાર્મિક અને આધ્યાત્મિક જીવનમાં-વ્યવહારમાં શાંતિ-પ્રસન્નતા અને મૈત્રીને મધુર આનંદ અનુભવવા સમર્થ બને છે. આટલું જ નહીં પણ આવી સાચી સમજણથી, સમતાભાવની જાગૃતિથી સાંસારિક અને આત્મસાધનાની પ્રવૃત્તિમાં સંવાદિતાની સમતુલા પ્રાપ્ત થાય છે. આ સમતુલા, આત્માના કર્મ સાથેના સંબંધથી પેદા થતી પ્રવૃત્તિ અને પરિણામેની સાચી સમજણ માટેની સારાસારની વિવેકબુદ્ધી તથા ક્ષમતાનું સર્જન કરે છે.
આજને માનવ પૃથ્વીનું પરિભ્રમણ કરનાર સ્થળચર જ નથી રહ્યો; પરંતુ વિજ્ઞાને કરેલી યાંત્રિક શોધાના પરિણામરૂપ નૈતિક સાધનેની સહાયથી આધુનિક વર્તમાન યુગનો માનવ, સાગરના પેટાળના અતલ ઊંડાણમાં જઈને પણ, ધરતી પરના, સર્વ સાધનયુકત મહેલમાં જે મોજમજા માણે છે તેવી જ, મેજ અને આનંદ માણી શકે છે. આજને માનવ ધરતી પર રહીને જે રીતે અનેક પ્રકારની ઉપભેગની સામગ્રીને “આનંદ” લૂંટે છે એ જ રીતે અથવા એથી પણ અદકેરી ઉપભેગની સામગ્રીને ઉપગ આકાશમાં ઉડતાં ઉડતાં પણ કરી શકે છે. આ બધી વિજ્ઞાનની દેન અને ભેટ છે. ગઈકાલે જે દિવાસ્વપ્ન લાગતાં હતાં તે આજની અનુભૂતિ બની ગઈ છે. આજે જે અવાસ્તવિક કલ્પનાઓ લાગે છે તે આવતી કાલે વાસ્તવિકતા નહીં બને એમ કહેવાની હિંમત કરવી કે કહેવું એ આજના સમયમાં સમુચિત નથી જ. આવી ‘સુખદ’ નૈતિક સિદ્ધિઓનું શ્રેય આજના વિજ્ઞાનવાદ સિવાય બીજું કોઈ લઈ શકે તેમ નથી. આ વાસ્તવિકતા કોઈને ગમે કે ન ગમે પણ વાસ્તવિકતા એ વાસ્તવિકતા જ છે અને રહેશે એમાં શંકાને સ્થાન નથી.
આ નક્કર વાસ્તવિકતા સાથે એ પણ એટલી જ સત્ય હકીકત છે કે, આમ છતાં આજનું વિજ્ઞાન માનવને સુખ કે શાંતિનો અનુભવ કરાવવામાં તે શું પણ એને આભાસ કે ઝાંખી કરાવવામાં પણ સરિયામ રીતે નિષ્ફળ નીવડયું છે.
આજના વિજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલી અનેક સફળતાઓ અને સિદ્ધિઓ માનવ માત્રને આશ્ચર્યમૂઢ બનાવી દે તેવી હોવા છતાં વિજ્ઞાનનું ક્ષેત્ર ભૌતિક ઉપલબ્ધિઓ પૂરતું જ સિમિત રહ્યું છે. વિજ્ઞાનનું આ એકાંગીપણુ માનવમાં રહેલા આત્માને કે આત્માના આલ્હાદ ને સ્પર્શી શકતું નથી જેના કારણે આવી અનેક સિદ્ધિઓ અને સફળતાઓ જીવને, માનવજગતને શાંતિ, શાશ્વત સુખ કે સ્વાશ્રયી પણ આપી શકતી નથી. વિજ્ઞાનની આ એક્ષમતામાં જ તેની નિષ્ફળતા અને પિકલતા (Hollowness) સમાયેલી છે.
સુખ અને શાંતિ સમતાયુકત ક્ષમતા દ્વારા જ પ્રાપ્ત કરી શકાય છે. આવી ક્ષમતા સામર્થ્ય પ્રાપ્ત કરવા માટે સંસારમાં દરેક જીવને કર્મવાદની યથાર્થ સમજણ હોવી અનિવાર્ય છે. કર્મવાદની
યથાર્થ સમજણ જ આત્મશાંતિને માર્ગ પ્રશસ્ત કરી શકે તેમ છે. આવી સમજણથી આત્મસંવાદિતા દ્વારા હરકોઈ વ્યકિત પોતાની જાત પ્રતિનું જ નહીં પણ સમાજ, રાષ્ટ્ર, વિશ્વ અને સમગ્ર જીવજગત પ્રતિનું તેનું ઉત્તરદાયિત્વ અદા કરવા શકિતમાન બને છે.
ભૌતિકવાદી દષ્ટિકોણથી જીવન વ્યતિત કરતો માનવ યા જીવ આત્માની અંદર રહેલી અનંતશકિતના સામર્થ્યને વિસરી જાય છે યા એનાથી અનભિન્ન રહે છે જેના કારણે સ્વોપાર્જીત કર્મોથી તેના આત્માને આવરતા કર્મના સ્વરૂપ તથા બંધનાથી અજ્ઞાત રહી તેની ઉપેક્ષા કરે છે. આ ઉપેક્ષાના ફળસ્વરૂપ અજ્ઞાન અને મિથ્યા પ્રવૃત્તિની આવી પરિણતીવાળો જીવ ઈદ્રિયજન્ય અનુકૂળતાઓ અને સુખમાં જ પોતાની રમણતા અને ઉદ્યમ રાખે છે. સ્વછંદતા અને સુખશીલતા એક જ સિક્કાની બે બાજુ છે. આવી પ્રવૃત્તિની સફળતાને પોતાના જીવનની સિદ્ધિ કે ઈતિશ્રી માની લે છે. આવી માન્યતા જીવને (માનવને) સ્વકેન્દ્રી (self - centered) બનાવે છે. આવું સ્વ-કેન્દ્રીપણું સ્વાર્થાભિમુખતાં લાવે છે. સ્વાર્થીભિમુખતા માનવમાં રહેલી આ સત સત ની વિવેકબુદ્ધિને યથાર્થ રૂપે કાર્યાન્વિત થવા દેતી નથી. અયથાર્થતાની આવી આસકિતથી આત્માના શાશ્વત મૂલ્યોને, નૈતિક તથા સામાજિક મૂલ્યોને કયાં તે દ્વારા થાય છે અથવા તે તેમાં અવાસ્તવિકતા આવે છે. અવાસ્ત વિકતા અને હાસ-ક્ષતિથી આત્માની પ્રવૃત્તિમાં ‘સ્વ-સ્વરૂપ” પ્રતિની પ્રિતી તથા નિષ્ઠામાં નિર્બળતા-પરાશ્રયીપણાની વૃત્તિ આવે છે. આ પરાશ્રયીપાશું પ્રત્યક્ષ વયવહારમાં અવ્યવસ્થાને આકાર આપે છે. જેના પરિણામે રાગ-દ્વેષ કષાય અને કલેશની પરિણતી સાકાર થાય છે. ફળ સ્વરૂપે માનવ માનવ વચ્ચેની મૈત્રીની શૃંખલા તૂટી જાય છે ને તેના સ્થાને અવિશ્વાસ અને વિષયવૃત્તિની વૃદ્ધિ થાય છે. આવી વિષમવૃત્તિઓને પ્રભાવ એક વ્યકિત સુધી સીમિત નથી રહેતો પણ સમાજમાં વ્યાપે છે. જેના પરિણામે પારિવારિક, સામાજિક રાષ્ટ્રીય અને આંતરરાષ્ટ્રીય શાંતિ વિલુપ્ત થતી જાય છે. વૈયકિતક વિષમતાઓનું વિઘટન ન થતાં આ વિષમતાઓ કેવું વ્યાપક સ્વરૂપ ધારણ કરી વિનાશક પરિણામ લાવે છે તેનું આ સાક્ષાત ઉદાહરણપ્રમાણ છે.
આવી વિષમ વિકૃતિઓ આજના વિજ્ઞાનને પડકારતી ઊભી છે પણ આજ દિવસ સુધી વિજ્ઞાન આવી વિકૃતિઓ સામે લાચારી જ અનુભવી રહ્યું છે. આ નરાતલ સત્યને ઈનકાર કરવાનું સામર્થ્ય કોઈ પણ વૈજ્ઞાનિકમાં નથી.
વિરાટ ને વામન બનાવતા વિજ્ઞાનમાં એવું તે શું ખૂટે છે કે જેના કારણે વિજ્ઞાન અને વૈજ્ઞાનિકોમાં આવી અસમર્થતા આવે છે?
આને જવાબ એક જ હોઈ શકે. આ જવાબ એ છે કે સર્વજ્ઞકથિત શાશ્વત સત્યોની ઉપેક્ષા અને અસત_
તની ઉપાસના, ઉપયોગ તથા અશાશ્વત મૂલ્યો પ્રતિની અજ્ઞાનમૂલક આસ્થા, આત્મા અને આત્માની અનંતશકિતઓની અસ્વિકૃતિ.
આત્મા અને એની અનંતશકિતઓનું ભાન કરાવતાં કર્મવાદના અજ્ઞાનના કારણે આજને માનવ-વિશ્વ અશાંત છે, દૈતિક સુખાની પ્રચૂરતા હોવા છતાં તેમાં પણ ઊંડે ઊંડે દુ:ખને અનુભવ થઈ રહ્યો છે.
ઈતિહાસ એવી અનેક હકીકતોને સાક્ષી છે; એટલું જ નહીં પણ આપણે ખુદ આપણાં રોજ-બરોજના જીવનમાં એ વાતને
વિ. નિ. સં. ૨૫૦૩
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અનુભવ કરીએ છીએ કે સમર્થ વ્યકિત પાંગળી બને છે. લોકપ્રિયતાના શિખરે પહોંચેલી વ્યકિત, આંખ મીંચતાં અને ખેલતાં
જેટલો સમય લાગે એટલા ટૂંકા સમયમાં અપ્રિય બની જાય છે. ધનવાન એક એક પૈસાની ભીખ માગતા જોવામાં આવે છે. વિદ્રાનબુદ્ધિમાન મુખ ભાસે છે. સાધુ સંસારી બને છે. સંસારી સાધુતાના ચરમ શીખર પર પહોંચી જાય છે. સત્તાને શિકાર બનેલો બંદીવાન, આપણી આંખ સામે સત્તાધીશ બને છે. આજે જે મિત્ર છે તે કાલે શત્રુ બને છે. શત્રુ મિત્ર બને છે. આવા આકસ્મિક આશ્ચર્યજનક અથવા તો પ્રયત્નથી સાધ્ય પરિણામેનું કારણ શું? બાહ્યા કારણો અનેક હોઈ શકે પણ મૂળ કારણ શું?
આ મૂળ કારણ જો કોઈ પણ હોય તો તે છે જીવના સ્વોપાર્જીત કર્મો. કર્મજન્ય પુન્ય કે પાપના પ્રભાવના કારણે જીવની ‘વૈભાવિક' અને “સ્વાભાવિક” વૃત્તિઓના વિકાસ અને સંકોચની “પરિણામ” રૂપી સમયસારણીને આ બધો પ્રતાપ છે. “વૈભાવિક” વિકાસથી જીવ રાગ, દ્વેષ, વિષય, કષાયજન્ય અશુભ ભાવોના કારણે હિંસા, પરિગ્રહ, મૈથુન, આગ્રહબદ્ધતા, અનાચાર ઈત્યાદિ ‘અકરણીય પ્રવૃત્તિમાં રાચતો થાય છે. જ્યારે સ્વાભાવિક વૃત્તિ-અવસ્થા પ્રતિ જેટલા અંશે પ્રીતિ કે પરિણતી વધે ત્યારે તેટલા પ્રમાણમાં અહિંસા અપરિગ્રહ, નિરાગ્રહતા, સમ્યક તત્તે પ્રતિની આસ્થા અને તદ નુરૂપ પ્રવૃત્તિ તેમ જ દહાત્મ-ભિન્નભાવની અનુભૂતિ વધે છે. આવી સત પ્રવૃત્તિ કે સત પરિણામો અને પરિણતીના કારણોથી કર્મના બંધનો જેટલા અંશે હળવા બને તેટલા પ્રમાણમાં આત્માની સ્વ-સ્વરૂપની રમણતા અને સ્થિરતા અનુક્રમે વધે છે તથા થાય છે. આ પ્રક્રિયા જ્યારે ઉત્કટ સીમાએ પહોંચે છે ત્યારે આત્મા કર્મમુકત બની સ્વ-સ્વરૂપમાં સ્થીર બને છે. આ પ્રક્રિયાની અનોખી વિશિષ્ટતા એ છે કે જેટલા પ્રમાણમાં દેહાત્મભિન્ન ભાવની પરિણીતી થતી જાય તેટલા પ્રમાણમાં રાગદ્વેષની પરિણતી હળવી થતી જાય છે. રાગ-દ્વેષની પરિણતી હળવી થતાં પરાધીનતા, પરાશ્રયીપણા અને પરદોષારોપણની વૃત્તિ તથા પ્રવૃત્તિ નહીંવત થતી જાય છે. આ ‘નહીંવત ની વૃત્તિ નિમિત્તોની સમજણ પ્રતીતિના સ્તરની વાસ્તવિકતા બનાવે જેના કારણે સહજભાવ તથા સાક્ષીભાવની પરિણતી પ્રત્યક્ષ થાય છે. આ પ્રકારનો સહજભાવ તથા સાક્ષીભાવ દેહાત્મભિન્નભાવની પ્રતીતિથી જન્મે છે. એટલું જ નહીં પણ આ બે ભાવ
ત્યના કારણે સંસારમાં રહેલા જીવના કર્મના બંધને હળવા થતાં ક્રમશ: જીવ પરમશુદ્ધ સ્વરૂપનો સ્વામિ બને છે. આવા શુદ્ધસ્વરૂપની પ્રાપ્તિ પહેલાં પણ સંસારમાં તેને વ્યવહાર સંવાદિતા અને સમતાયુકત બને છે. આવી અંતરમાંથી જન્મેલી સમતા અને સંવાદિતા જ સાચી અને શાશ્વત શાંતિ લાવી શકે છે.
બાહ્ય રીતે સહિષશુતાથી સંવાદિતા આવે છે. સંવાદિતા સમતાના ભાવને અંતમાં શાશ્વત સ્વરૂપ આપે છે. સંવાદિતા અને સમતા જ્યારે કોઈ પણ પ્રકારના ચોક્કસ આકાર, પ્રકાર, વિચાર કે પ્રવૃત્તિમાં અભિવયકિત પામે છે ત્યારે તે અભિવ્યકિતના પ્રમાણમાં in-proportion શાંતિ, અર્થાત કર્મ બંધનમાં કે કર્મજન્યપરિણામે સહજભાવે કે સાક્ષીભાવે સહન કરવાની ક્ષમતા આવે છે. આ ક્ષમતાના ન્યૂનાધિકપણા પર જ આત્માની અનન્યભાવની વૃદ્ધિ કે ક્ષતિ આધારિત છે. એટલું જ નહીં પણ અનેકાંતવાદની આચરણાત્મક અનુભૂતિનું માધ્યમ છે. અનેકાંતવાદની આવી આચણાત્મક અનુભૂતિ ત્યારે જ શકય બને છે કે પ્રત્યક્ષ થાય છે, કે જ્યારે સમ્યક જ્ઞાન અને સમ્યક દર્શનની એકાત્મભાવે as an inseperable entity પ્રાપ્તિ થાય છે. આવી નિવિકલ્પ ભાવના આવતાં જીવની સાંસારિક પરિણતી અને પ્રવૃત્તિ સ્વ૫ થતી જાય છે એટલું જ નહીં પણ સુખ કે દુ:ખની અનુભૂતિમાં સાક્ષીભાવ પ્રત્યક્ષરૂપે આવે છે.
આત્મવાદ અને કર્મવાદ.
આ વિશ્વમાં વિદ્યમાન સર્વ દર્શન અને વિચારધારાઓમાંથી જે જે દર્શન કે વિચારધારા આત્માના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરે છે એ સર્વને એક યા અન્ય રીતે કોઈ નામથી કર્મવાદને સ્વીકાર કર્યા સિવાય બીજો માર્ગ નથી. આત્માના અસ્તિત્વનો વાસ્તવિક અર્થાત યથાર્થ સ્વીકાર ત્યારે જ સંપૂર્ણ બને છે કે જ્યારે કર્મવાદની યથાર્થ અને સાચી સમજણ આવે છે. આવી યથાર્થ સમજ-બોધ સિવાય આત્માના અસ્તિત્વની સ્વીકૃતિ અયથાર્થ, અર્ધદગ્ધ કે અસામંજસ્યયુકત પોકળ માન્યતા જ સાબિત થાય છે. આવા પ્રતિપાદનના મૂળમાં, અભિનિવેશયુકત કે અનભિજ્ઞ,આત્માઓને આગ્રહને આભાસ થતો દેખાય એવું પણ બને. આથી આત્યંતિક સત્યની, સ્થિતિ, સ્વરૂપ કે સમિચીન અભિવ્યકિતના આકાર, પ્રકાર કે પરિણામમાં કોઈ પણ પ્રકારના પરિવર્તનને લેશ માત્ર પણ અવકાશ નથી જ. ટૂંકમાં જે કોઈ પણ દર્શન કે વિચારધારા આત્માના અસ્તિત્વને કે કર્મમાંથી એકને સ્વીકાર કરે છે તેને આ બન્નેને સ્વીકાર કર્યા સિવાય છૂટકો જ નથી. આત્મા અને કર્મનું અસ્તિત્વ અનુક્રમે સ્વ-સ્વરૂપરૂપે કે પદાર્થરૂપે અ ન્યાશ્રયી Interdependant નથી આમ છતાં આત્માની “સ્વાભાવિક its own સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરવા અને કર્મજન્ય પરિણામોથી મુકિત મેળવવા આત્માનું તત્ત્વસ્વરૂપે તથા કર્મનું પદાર્થ સ્વરૂપે યથાર્થ જ્ઞાન અને બોધ તથા વિવિધ પ્રકારની પરિણતી કે પ્રવૃત્તિની પ્રબુદ્ધ સમજણ અનિવાર્ય છે. યથાર્થ સમજ માટેની અપરિહાર્ય પરિણતી
આવી યથાર્થ સમજ માટેની પ્રાથમિક ભૂમિકા ત્યારે જ સર્જાય છે કે જ્યારે જીવમાં ઈશ્વર અર્થાત આત્માની વિશુદ્ધ અવસ્થા અને સ્વરૂપરૂપે શ્રદ્ધા જાગૃત થાય છે. આવી શ્રદ્ધા જાગૃત થઈ છે એમ ત્યારે જ કહી શકાય કે જ્યારે જીવ ઈશ્વર કનૃત્વવાદની અવાસ્તવિક આસ્થા કે માન્યતામાંથી મુકિત મેળવી તદનસારા પરિણતી પ્રાપ્ત કરે. કર્મવાદની સાચી સમજ પ્રાપ્ત કરનાર આત્મા ઈશ્વર કડું વવાદની માન્યતા કે આસ્થાથી અનિવાર્યપણે અલિપ્ત હોય. ઈશ્વર કવવાદના આંશિક કે ક્ષણિક સ્વીકાર સાથે જ આત્માના યથાર્થ સ્વરૂપનો અસ્વીકાર આવી જાય છે. ઈશ્વર અર્થાત આત્માની વિશુદ્ધ કર્મ મુકત અવસ્થામાં અવિહડ શ્રદ્ધા (irrivocable faith ) આવતાં જ કર્મવાદની સમજની સાચી ભૂમિકા સર્જાય છે અને ઈશ્વર ભકિત આવે છે.
મોટા ભાગને દર્શનકારો તથા વિચારકો તેમ જ બાળ-જ અભિનિવેશ, આગ્રહ કે અજ્ઞાનના કારણે એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે જૈન દર્શન, વિચારધારા અને આચારમાર્ગમાં ઈશ્વરનું કોઈ સ્થાન જ નથી. અર્થાત ઈશ્વર કન્વવાદના અસ્વીકારના કારણે જેને “નિરીશ્વરવાદી” નાસ્તિક છે. આવું પ્રતિપાદન કે માન્યતા શ્રેમમૂલક અશાન [ignorance)માંથી આવે છે. કર્મવાદી તે ઈશ્વરવાદી અને “ઈશ્વરવાદી” તે કર્મવાદી.
અકાય એવી હકીકત એ છે કે, જેનદર્શન ઈશ્વર તવમાં એકલી આસ્થા જ નથી રાખતું. જૈનેના પ્રત્યેક વિચાર અને આચાર ‘ઈશ્વર ની આસ્થા અને ઉપાસના પર જ આધારિત છે. સમજ માટે સત્યના સ્પષ્ટીકરણની આવશ્યકતા હોય જ નહીં, કારણ કે સત્ય સ્વયં સ્પષ્ટ છે. આમ છતાં અસત્યનાં અંધારામાં રહેતા કે રહેલા જીવોને સત્યનું દર્શન કરાવવું એ સ્વ-પર માટે શ્રેયકારી છે. આ વિષયમાં સત્યદર્શન એ છે કે, જૈન દર્શનમાં જ નહીં પરંતુ જૈન આચાર માર્ગમાં પણ આસ્તિકતા અને ઈશ્વરની આસ્થા એટલી તે અભિન્ન છે કે જો જૈન દર્શન અને આચાર
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રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
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માર્ગને નિરીશ્વરવાદી કે નાસ્તિક કહેવાની ધૃષ્ટતા કરવામાં આવે તો એમ જ કહેવું રહ્યું કે, આમ કહેનારા કે આવું પ્રતિપાદન કરનારા ખદ પોતે નાસ્તિક જ નથી, પરંતુ નાસ્તિકતા અને નિરીશ્વરવાદના પ્રચ્છન્ન વચનથી પ્રચ્છન્ન પ્રચારક છે અને આસ્તિકતા તથા ઈશ્વરના પ્રત્યક્ષ ઉછેદક છે. આ પ્રત્યાક્ષેપ કે પ્રત્યાક્રમણ નથી. પરંતુ જેનેની આસ્તિકતા અને “ઈશ્વર” ની આચરણાત્મક આસ્થાનું યથાર્થ પ્રતિબિબ છે- પ્રતિઘોષ છે.
કર્મવાદના સિદ્ધાંતની સાચી સમજ સિવાય “ઈશ્વર' ની યથાર્થ સમજ કે યથાર્થતા અશકય છે. ‘ઈશ્વર ની યથાર્થ સમજ તથા ‘ઈશ્વરસ્વ” ની અપ્રત્યાશિત આરાધનાની ઉત્કટતામાં કર્મવાદની સાચી સમજ નિહીત છે. આથી યથાર્થ ઈશ્વરવાદી કર્મવાદી જ હોય અને કર્મવાદી ઈશ્વરવાદી જ હોય એ વ્યવહાર, વાસ્તવિકતા (rcality) અને હકીકત (fact) છે.
કર્મવાદના સિદ્ધાંતની વ્યવહારિક (Practical) સમ થી જ ઈશ્વરની સર્વોપરિતા તથા સર્વશ્રેષ્ઠતા સાધ્ય બને છે. એવી જ રીતે ઈશ્વરની સર્વોપરિતા અને સર્વશ્રેષ્ઠતા સિદ્ધ કરવાને કઠીન પણ કાળજા સોંસરવે ઉતરી જાય એ કોઈ ઉપાય કે પ્રમાણ હોય તે તે એ છે કે આત્માની સ્વ-સ્વરૂપ સ્થિતિ અર્થાત યથાર્થ સ્વરૂપમાં ઈશ્વરત્વની પ્રાપ્તિ યાને કર્મમુકિતના પુર ષાર્થમાં પૂર્ણ સફળતા. ઈશ્વરવાદ”ને આધાર કર્મવાદ.
“ઈશ્વરવાદ” કે “ઈશ્વર” ના અસ્તિત્વને આધાર અર્થાત અભિવ્યકિત કર્મવાદના માધ્યમથી જ સાધ્ય છે.
કર્મવાદના આધાર સિવાયને “ઈશ્વર' પરાધીન અને પરાશ્રયી છે. આ ‘ઈશ્વર’ પોતાના જ સર્જનમાંથી સતી સ્વચ્છંદતા અને વિષયાસકિત અર્થાત અસત તને પરિપાલક છે – પોષક છે અથવા વધુમાં વધુ આવી સ્વછંદતા અને અસત તેની સમયાશ્રયી સંહારક છે!! સ્વ-સ્વરૂપને સમાહર્તા ને સંહારક જ આવો ઈશ્વર!! આત્મવાદીઓમાં કર્મવાદને સાર્વત્રિક સ્વીકાર:
આમ છતાં, આનંદને વિષય એ છે કે અભિનિવેશની ઓછી વધતી તીવ્રતા અનુસાર દુનિયાના દરેક આત્મવાદી દર્શનાએ એક યા અન્ય રીતે અને નામભેદથી પણ કર્મને સ્વીકાર કર્યો છે. કોણ કેટલા અંશે કર્મ કે કર્મના પ્રભાવને વાસ્તવિક
સ્વરૂપમાં યથાર્થરૂપે સમક્યું છે કે સમજે છે એ તથ્યાતધ્યના વિવેકના યથાયોગ્ય ઉપયોગ ને સમ્યક જ્ઞાનની પરિણતીની માત્રા પર આધાર રાખે છે. આ હકીકતથી એક નોંધપાત્ર ફળીતાર્થ એ નીકળે છે કે, આત્મા જેવું કોઈ તત્ત્વ (substance) છે એવું માનનાર દરેક દર્શનકારે આત્માને આવરનાર અંધકાર તરીકે કર્મવાંદને સ્વીકાર કરવું પડયો છે. આવી સ્વીકૃતિમાં જ સત્યની સ્વીકૃતિ સમાયેલી છે. પછી ભલે એ સ્વીકૃતિ આંશિક, અર્ધદગ્ધ કે અર્ધ અથવા મિશ્રા સ્વીકૃતિ હોય. આનો અર્થ એ થયો કે સત્યને અવગણી શકાતું નથી. જૈનેતર દર્શનમાં કર્મના નામભેદ.
- જૈનેતર દર્શનકારોએ પોતપોતાના દર્શનમાં “કમ” ને ભિન્ન ભિન્ન નામથી નિર્દેશ કર્યો છે તેમ જ તેની તાત્ત્વિક દષ્ટિએ
અલગ અલગ પ્રકારની વ્યાખ્યા કરી છે. ‘ક’ ની આવી ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારની, માયા-અવિદ્યા-પ્રકૃતિ-વાસના-અદષ્ટ-સંસ્કાર-દૈવ અને ભાગ્ય વિ. નામ-શબ્દથી ઓળખાણ આપવામાં આવી છે‘જ્ઞાન કરાવવામાં આવ્યું છે.
કર્મની ત્રણ અવસ્થાએ:
જૈન દર્શનમાં પ્રત્યેક કર્મની (૧) બધ્યમાન, (૨) સત અને (૩) ઉદયમાન એ પ્રકારે ત્રણ અવસ્થાની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે. આ અવસ્થાને ક્રમશ . (૧) બન્ધ (૨) સત્તા અને (૩) ઉદય માનવામાં આવે છે.
અન્ય દર્શનમાં પણ આ ત્રણ અવસ્થાને ભિન્ન નામ અને તવ ભેદથી વર્ણવવામાં આવેલ છે. બધ્યમાન કર્મને (૧) ક્રિયમાણ', સત્તા સ્થિત કર્મને (૨) સંચિત અને ઉદયમાનવિપાકોદયને (૩) પ્રારબ્ધ તરીકે પણ ઓળખવામાં આવેલ છે. કર્મની માન્યતા સવાંગીણ હોવી જોઈએ:
અજ્ઞાનથી અધૂરપ (in - completeness) આવે. અધૂરપ અપૂર્ણતાની દ્યોતક (indicative) છે. આ પ્રમાણે કર્મની અધૂરી કે અધકચરી સમજ = tત્માને કર્મના બંધનમાં જકડનારી છે. સમ્યક જ્ઞાન કે દર્શનવાળો આત્મા અપૂર્ણતામાં રાચે નહીં પણ પૂર્ણતા પ્રાપ્ત કરવા સતત પ્રયત્નશીલ હોય. એના આ પ્રયત્નથી આત્મા પરિણતીવાન બને. આવી પરિણતી આત્માને પૂર્ણતા પ્રાપ્ત કરાવ્યા વગર રહે નહીં, પ્રત્યેક પદાર્થનું યથાવત જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવાની તેની પ્રવૃત્તિ હોય. આવી પ્રવૃત્તિવાળા આત્મા-જીવ પોતાની કે અન્ય જીવની બાહ્ય કે દશ્યમાન-વ્યવહારિક દશાની પ્રવૃત્તિ કે વિવિધતાના આધારે જ કર્મની માન્યતા, સ્વરૂપ કે પ્રભાવને ન માને. કર્મના બાહ્ય આકાર કે પ્રભાવથી તો કર્મનું બાહ્ય કારણ જાણવા મળે અને તદ અનુસારની માન્યતા બંધાય. આવી માન્યતા એકદેશીય અને અધૂરી (Partialor one-sided and in-complete) હાય. કોઈ પણ વિષય, વસ્તુ કે પદાર્થનું સાચું જ્ઞાન તો ત્યારે જ થાય કે
જ્યારે સર્વદેશીય અને સર્વવ્યાપી (all sided and all purvasive) સ્વરૂપ અને પ્રવૃત્તિ કે પ્રભાવનું સર્વતોમુખી શાન થાય. આત્મા અને કર્મના સંયોગનું મૂળ સમવાયી કારણ કર્મની બન્ધ સત્તા અને ઉદય એ ત્રણે અવસ્થાઓ તથા આત્મા અને કર્મની આ ત્રણે સંગી અવસ્થાઓ (attached or conjuctive conditions) ના કારણે જીવનું વિવિધ ગતિમાં પરિભ્રમણ, સુખ-દુ:ખની વિવિધ પ્રકારની ભિન્નભિન્ન માત્રામાં અનુભૂતિ વિ. કર્મ સંબંધી સર્વ પ્રકારનું જ્ઞાન હોવું જરૂરી છે. આવું જ્ઞાન એ સંયોગમાં આવનાર પદાર્થઅર્થાત કર્મનું જ્ઞાન થયું. આવું જ્ઞાન ત્યારે જ આવે કે જ્યારે સંયોગ કરનાર અર્થાત કર્યાનું જ્ઞાન થાય. આત્માની કર્મ-વિષયક ત્રિવિધ પ્રવૃત્તિ:
આ કર્તા કોણ? આ કર્તા આત્મા સિવાય અન્ય કોઈ નથી, કોઈ ન હોઈ શકે. આથી આત્મા-જીવનું મૂળ સ્વરૂપ શું? મુખ્યગુણ ને મુખ્ય ક્રિયા શું તેનું પણ જ્ઞાન હોવું અનિવાર્ય છે. કર્મ મૂળ સ્વભાવત: જડ હોવાના કારણે પરાશ્રયી છે. પરાશ્રયી પદાર્થ
જ્યાં સુધી ચેતનના સંપર્કમાં ન આવે ત્યાં સુધી પોતાનો પ્રભાવ દેખાડી ન શકે. એટલું જ નહીં પણ, તેના આ પ્રભાવની માત્રા કે પ્રમાણ ( quality or quantity )ને આધાર તેને આશ્રય આપનાર ચેતના પર જ અવલંબિત છે. ટૂંકમાં કર્મને કર્તા, ભકતા અને પરિહર્તા પણ આત્મા પોતે જ છે.
ઘણી વાર માનવ-જીવનમાં એવું બને છે કે માનવે પોતે સજેલી પરિસ્થિતિને જ તે પોતે કેદી બની જાય છે. વળી કોઈક વખત એવું પણ બને છે કે માણસ પોતાની જ અનિર્ણાયક અનિશ્ચિતતાને બંદી-ગુલામ બની જાય છે તેવી રીતે આત્મા સ્વોપાર્જીત કર્મને કેદી બને છે. પોતાના સ્વોપાર્જીત કર્મના ઉદયના કારણે જીવસ્વ-સ્વભાવાન્તર્ગત જ્ઞાનને વિસરી જાય છે ને તેની દશા “કાંખમાં છોકરું પણ ગામ આખામાં શોધ્યું” તેના જેવી થાય છે. અર્થાત
વિ. નિ. સં. ૨૫૦૩
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એ વિસ્મૃતિમાંથી ઉત્પન્ન થયેલ અજ્ઞાનની અનિર્ણાયક દશાના આત્મા ભાગ બને છે.
કર્મની કવિગણ સમજનું સાચું - મૂળ કારણ:
આવ... અને બીજા અનેક કારણોથી આત્માની કર્મજન્ય અવસ્થાઓ તથા કર્તા ભાકના અને પરિકર્તાપણાનું સર્વાંગી જ્ઞાન થતાં કર્મવાદનું સર્વાંગી શાન બાહ્માંતર રૂપે થાય છે. કર્મવાદના આ બાહ્યાંતર જ્ઞાનના સર્વાંગીપણાના આધાર પણ આત્માની પોતાની બહિરાત્મ દશા અને અંતરાત્માવસ્થાના જ્ઞાન અને તેની પ્રતીતિ પર જ આધારિત છે. આત્માના આ બન્ને બહિરાત્મ અને અંતરાત્મ ભાવનું ભાન થતાં જ દેહાત્મ–ભીન્ન ભાવની પ્રક્રિયાના પ્રારંભ થાય છે. આ પ્રક્રિયા એની પરાકાષ્ટાએ પહોંચે છે ત્યારે દેહાત્મભાવ વિસરાઈ જાય છે અને આત્મભાવ પ્રગટે છે. આવા આત્મભાવ અનન્યતાની સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરવામાં સહાયક બને છે.
સાચા પરિપ્રેક્ષ્યની સમજ માટેની પાયાની આવશ્યકતા:
જ્યાં સુધી જીવમાં હિરાત્મભાવ પ્રવર્તે [ purvades ] છે ત્યાં સુધી આત્મા કર્મજન્ય કલુષિતતાથી કલુષિત બને છે. આત્માની બહિરાત્મભાવની અવસ્થાને કારણે તે વૈભાવિક ક્રિયાઓ કરે છે કે પુદ્દગલાનંદી પ્રવૃત્તિમાં રાચે છે. આત્માની આ પરકીય પદાર્થોની પ્રીતિના કારણે આવતી પ્રવૃત્તિ અને “પરિણામ”થી જ કર્મના બંધ
થાય છે
કર્મબન્ધન, કર્મની સત્તાસ્થિતિ અને કર્મોદયના કારણ રૂપ પરિણામ અને પ્રવૃત્તિ, ઉદીર્ઘા અને વિપાકો, કર્મના આકાવ અને આત્માના સંવરભાવ, સત્તાસ્થિત કે ઉદયમાં આવેલા કર્મની નિર્જરા આ બધી અવસ્થા અને આવી અવસ્થાના કારણો તથા ભાવોનું વર્ષશાન જે આત્માની કર્મમુકિતની પ્રક્રિયાનો પ્રારંભ કે પરિપૂર્ણતા પ્રાપ્ત કરાવવા સમર્થ બને છે. આ સામર્થ્ય ત્યારે જ સમ્યક બને છે કે જ્યારે આ વિષયનું જ્ઞાન તેના સાચા પરિપ્રેક્ષ્યમાં
થાય.
આવી સાચા પરિપ્રેક્ષ્યની સમજ, જ્ઞાન કે પરિણિતી ત્યારે જ પ્રત્યક્ષ થાય કે જ્યારે પારમાર્થિક અને વ્યવહારિક અવસ્થા-દશાનું પરિમાણ મુલ્યાંકને પારમાર્થિક અને વ્યવહારિક નયનો યથાર્થ સ્થાને યથાયોગ્ય રીતે ઉપયોગ કરવાની આત્મામાં ક્ષમતા અને પરિણતી આવે. આ બન્ને સ્થિતિઓને સમજવા માટે આ બન્ને નયની થાયોગ્ય સમતુલા મેં વિવેકપૂર્ણ ઉપયોગ અનિવાર્ય છે. પારમાર્થિક અને વ્યવહારિક દશાની સમજ-જ્ઞાનમાં આ બન્ને નયની અનિવાર્ય આવશ્યકતા સાથે આ નયોના યથાયોગ્ય ઉપયોગ પણ એટલો જ આવશ્યક છે. ટૂંકમાં આ મૂળભૂત પાયાની આવશ્યકતા છે. આ આવશ્યકતાની પૂતિના પ્રકારમાં, પ્રયાસમાં કે પ્રગટીકરણમાં જેટલી ખામી કે અધૂરાશ કે અવ્યક્તપણુ આવે એટલા પ્રમાણમાં આત્મસાધનાનો માર્ગ આર્ટીઘૂંટીવાળા અર્થાત વિકટ અને વિષમ બનવાને. આ વિષમતાથી વ્યાપ્ત બનતી વિભાવદશાના કારણે જીવની બાહ્યાંતર બન્ને પ્રકારની પરિણતી અને પ્રવૃત્તિ વૈભાવિક અવસ્થાની વૃદ્ધિનું જ કારણ બને છે, વૈભાવિક અવસ્થાના વિનિપાતથી વિગત:
આવી વૈભાવિક અવસ્થાથી વિવેકના વ્યવસ્થિત વિધ્વંસ થાય છે આ વ્યવસ્થિત વિધ્વંસથી આત્માના પરિણામે નિાંસ બને છે. આ પરિણામ નિધ્વંસનાના કારણે આત્મા નયવદની નિર્મળતાની પવિત્રતાના આધારે થતી પાપ-પ્રનાશક પરિણતી અને અધ્યવસાયશુદ્ધી કયાં તે નાશ પામે છે અથવા સ્વલ્પ બને છે જેના પરિણામે વની ગઢની પરિણની વધું કે પરિણામે આત્મા કર્મના બન્ધનાથી લપેટાય છે. આથી જ શાસ્ત્રકાર ભગવંતાએ કહ્યું છે કે,
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परिणामे बन्ध" “પરિણામથી કર્મના બન્ધ થાય છે.” આવા બન્ધથી જીવની ‘ભવસ્થિતિ’–સંસારમાં ભ્રમણ વધે છે. આ ભ્રમણ આત્માની વૈભાવિક સ્થિતિ અને રમણતાનું ઘોતક છે— અર્થાત વિનિપાત છે.
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સ્વ-સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરવાના સાધન-ય:
રાયપની સૂક્ષ્મ પરિણતીના કારણે જો બાંધેલા કર્મ તથા તેના ઉદયથી કરેલી પ્રવૃત્તિઓમાંથી મુકિત પ્રાપ્ત કરવા માટે દરેક આત્માએ ઓછા-વધતા પ્રમાણમાં કે પ્રત્યક્ષ અથવા પરોક્ષ રૂપે (૧) સમ્યજ્ઞાન, (૨) તદ્દન્ય પરિણતી અને (૩) આત્મપુરુષાર્થ આ સાધનત્રયના ઉપયોગ કરવો અનિવાર્ય છે. આ સાધનયમાં સમ્યકક્ષાનનું સ્થાન પાવાનું છે. મ્યાનની પ્રાપ્તિ સિવાય સમ્યક દર્શન આવ્યું હોય તો પણ સ્થાયીરૂપે રહી શકતું નથી. તેવી જ રીતે કર્મવિનાશક પરિણતી પણ પરિપકવ બનતી નથી. એ જ પ્રમાણે સમ્યકશાન અને તદ્જન્ય પરણતી સિવાયનો આત્માના પુર પાર્થ પાંગળી અથવા પ્રાણવિહીન હોય છે. અર્થાત, કમ્મલય માટે પ્રભાવક બની શકતો નથી. પઢમં નાળ તો ચા અર્થાત પ્રથમ જ્ઞાન પછી દયા' આ શાસ્ત્રવચન ઉપરોકત વાત-કથનના આધારે છે. આમ છતાં આ સંસારમાં એવાં અનેક જીવા છે કે જે પોતાનામાં રહેલી કર્મજન્ય અશકિત અને અજ્ઞાનના કારણે કર્યાં તે એકલા જ્ઞાનરૂચીવાળા કે એકલા ક્રિયારૂચીવાળા હોય છે એટલું જ નહીં પણ તદનુસારની પ્રરૂપણા તથા વિવિધ શાસ્ત્રાજ્ઞાની તેમની પરિણતી અનુસાર અર્થઘટન કરે છે.
સ્વ-પરિણતી અનુસારનું અર્થ ઘટન અનર્થકારી છે:
થાય.
આવું એકાંતિક કે ગણતા અથવા પ્રાધાન્યતા દર્શાવનાર સ્વ-પરિણની અનુકારનું અર્થઘટન મામાને અંધકારમાં શખે છે અને ભવભ્રમણ વધારનાર થાય છે. સર્વજ્ઞકથીત આત્મકલ્યાણના સાધનામાર્ગમાં આત્માને કર્મના બન્ધનામાંથી મુકિત અપાવનાર દરેક સાધન કે પરિબળાનું સ્થાન તથા મર્યાદા સુનિશ્ચિત છે. આત્મસ્યાણકારી સાધના કે પરિબળોનાં સ્થાન માં મર્યાદાઓનું જેટલું સ્પષ્ટ જ્ઞાન અને ભાન હોય એટલું એનું શ્રેય—–મુકિત સત્વર ટૂંકમાં આત્માની પોતાની કર્મબદ્ધ અવરથાની, પરિણતી અનુસારનું જ્ઞાન કે અર્થઘટન અથવા ક્રિયાઓનું આચરણ આત્માને મુકિત અપાવવા શકિતમાન નથી પણ આ શકિત કે ક્ષમતા ફકત સર્વજ્ઞભગવંત કર્યોત સત્યની આશા કે મર્યાદા અનુસારની પરિણતી જ આત્માને બધનાવસ્થામાંથી મુક્ત કરી સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ કરાવી શકે. બીજા શબ્દોમાં કહીએ તો સત્યના સાક્ષાત્કાર સિવાય સ્વ-સ્વરૂપ પ્રપ્તિના સાધના માર્ગના ઉપાયોની આધીકારિક-સત્તાવાર ઘોષણા કરવાનો કોઈને પણ હક્ક નથી.
આટલું જ નહીં પણ સત્યને જેને સાક્ષાત્કાર થયો છે તેવા સર્વજ્ઞભગવંત કથીત સત્યવચનના આધાર સિવાયની કોઈ પણ પ્રરૂપણા કે પ્રવૃત્તિથી આત્માનું ક્યા કે કર્મ-નિર્દેશ સંભવી શકે જ નહીં. આ શાશ્વત સત્ય પ્રતિ જેની નિષ્ઠા જીવંત હોય તે પોતાનામાં રહેલા અજ્ઞાનથી અનભિજ્ઞ હોય જ નહીં અર્થાત પોતાની છદ્મસ્થ અવસ્થાનો ખ્યાલ અને એનું ભાન આવા આત્મામાં અભિન્નપણે રહેલું હોય. આ અભિજ્ઞતાના કારણે એ આત્માનો અહંકાર અભિમાન ઓગળી ગયું હોય અથવા બિલકુલ નહીંવત હોય. આ રીતે આવેલા અહંકારના અભાવ અથવા અત્ય૫પણાના કારણે સત્યનિષ્ઠા ધરાવતો કોઈ પણ આત્મા સર્વજ્ઞકથીત સત્યની નિર્ભેળ અને સ્પષ્ટ સમજણ સિવાય તેમ જ એવા સત્યના સ્પષ્ટ આધાર સિવાય અન્ય કોઈ પણ આત્માની પ્રરૂપણા કે પ્રવૃત્તિને એકાંતે અસત્ય કે અહિતકારી કહે જ નહીં. આવી
રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
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પ્રરૂપણા કરવાનો કે અભિપ્રાય આપવાના અવસર ઊંભા થાય ત્યારે સર્વજ્ઞના શાસનને પામેલા આત્મા પોતાની સલામતી ખાતર એમ જ કહે કે ‘સ્વ-ક્ષયોપશમ મુજબ સર્વજ્ઞની આજ્ઞા કે આદેશને જે રીતે સમજી શકું છું તે મુજબ... આમ હોય કે હોવું જોઈએ.” આવું કથન કરતી વખતે પણ દરેક ાત્માએ એ વાતની સંપૂર્ણ સાવધાની રાખવી જોઈએ કે “પાતાની સમજથી ભિન્ન માન્યતા કે આચરણા કરનાર આત્માના પરિણામ કે અધ્યવસાય અંગે કોઈ પણ તેનું નિર્માવાત્મક કે ચોક્કસ (definate) વિધાન ન કરે." આવું વિધાન ન કરવાનું મુખ્ય કારણ એ છે કે, સર્વજ્ઞ વચનની જાણકારી કે બાધ માત્રથી જ કોઈ પણ આત્મામાં અન્ય આત્માના અધ્યવસાયો કે પરિણામો જાણવાની ક્ષમતા આવતી નથી. આવી ક્ષમતા ા ત્યારે જ પ્રાપ્ત થાય કે જ્યારે આત્મા સ્વપુરુષાર્થ કરી ચોક્કસ પ્રમાણમાં કર્મનિર્જરા દ્વારા પોતાના આત્માને અવારનવાર અજ્ઞાનના અંધકાર આંશિક રીતે કે સંપૂર્ણપણે દૂર કરે. આત્મજ્ઞાન અનુમાનાના આધારે આવતું નથી. એ તો સ્વ-પુર પાર્થના આધારે થતી. આત્મપ્રતીતિથી જ આવે છે.
આવી. આત્મ પ્રતીત કે અન્ય પ્રકારની જાણકારી આત્માને કેવી રીતે થાય છે.
આત્માની સ્વમાગી કે પીય પ્રવૃત્તિનું મૂળ જા આધાર
સર્વજ્ઞ-કથીત સ્વયંસિદ્ધ સત્ય એ છે કે જીવ-આત્માના મૂળભૂત ગુણામાં અર્થાત સ્વભાવ સ્વરૂપે જ્ઞાનના ગુણ રહેલા છે જ. આ ગુણના પ્રગટ સ્વરૂપમાં ન્યૂનાયિકના (આા-વધતાપણ) ઈ શકે અને હોય છે. એ સામાન્ય અનુભવની વાસ્તવિકતા છે. આત્માની આંતરિક કે બાહ્ય અથવા સ્થૂળ કે સૂક્ષ્મ પરિણતી તથા પ્રવૃત્તિની આધારશીલા અન્ય ગુણા તથા કારણેામાં આ જ્ઞાનને। ગુણ પણ મૂળમાં આધાર રૂપે છે.
જ્ઞાનના બે મુખ્ય પ્રકાર:
સમગ્ર વિશ્વના તથ્યો તથા તત્ત્વાના પદાર્થ-બાધ જેમને હસ્તામલકવત હતો તેવા સર્વજ્ઞ ભગતોને આ ‘પદાર્થપાય’| નિરુપણ કરતાં કહ્યું છે કે સમસ્ત સંસાર ચેતન (જીવ) અને જડ (અજીવ) એમ બે મુખ્ય તત્ત્વોની ‘યથાવત ’ સમજણથી સમજી શકાય છે અને તેના પ્રત્યેક રહસ્યો જાણી શકાય છે.
આ બે મુખ્ય તત્વોમાંથી જીવનું લક્ષણ ચૈતના અત્યંત આત્માની અંદર સડેલી જ્ઞાનશક્તિનું વર્ણન કરતાં શાનના બે મુખ્ય ભેદત કેળવી ભગવતોએ કા છે. (1) ઇન્દ્રિયશ્ચિત માન અને (૨) ઈન્દ્રિયાતીત જ્ઞાન. (અહીં ઈન્દ્રિયાતીત એટલે ઈન્દ્રિયની સહાય માધ્યમ સિવાયનું જ્ઞાન એમ સમજ્યું).
ઈન્ધિ | s su | શાન દરેક આત્માની કર્મબહ અવસ્થાની સ્થિતિ અર્થાત સ્વાપાર્જીત કર્મની તીવ્રતા કે હલકાપણા પર આધારિત છે. બીજી રીતે કહીયે તે એમ પણ કહી શકાય કે ઈન્દ્રિયજન્ય કે ઈન્દ્રિયાશ્રીત જ્ઞાન કે એનો બાધ “પ્રવાહી પરિસ્થિતિ” ( fluid condition )
એના આકાર-પ્રકાર
( shapes and modes) વિવિધ પ્રકારના છે. જ્યારે ઈન્દ્રિયથી ભિન્ન એવી જીવની મૂળ જ્ઞાનશકિત તત્ત્વત: અર્થાત તાત્ત્વિક રૂપે તથા ગુણરૂપે (substantially and qualitatively) પ્રત્યેક આત્મામાં એકસરખી જ છે. “અભવી” આત્માઓ આમાં અપવાદ રૂપે હોઈ શકે એમ માનવાને કારણ છે, પરંતુ એ માટે સ્પષ્ટ શાસ્ત્રાધાર હજી સુધી જોવામાં કે સાંભળવામાં આવ્યા નથી. સમ્યક દર્શનની સરળ છતાં સ્પષ્ટ વ્યાખ્યા :
રાશીત સાક્શન પ્રતિ ક્ષણિક રૂપે (momentary) પણ
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
શ્રાદ્ધા થવી અર્થાત સમગ્ર વિશ્વના પદાર્થો તથા તત્ત્વો વિશે સર્વજ્ઞભગવંતોએ જે પ્રરૂપણા કરી છે તેને વિશેષરૂપે જાણીને કે જાણ્યા વગર પણ, સર્વજ્ઞ ભગવંતોએ કહેલ વચન કે વાણી સત્ય છે તેવી ક્ષણીક પ્રતીતિ પણ સમ્યક્દર્શનની ઉપરધ્ધિ તેિટલા સમય પૂરતી પર્યાપ્ત છે. બીજા શબ્દોમાં કહીએ તે જ્ઞેય પદાર્થોના સામાન્ય ધર્મને “યથાવત ” જાણવું તેનું નામ સમ્યકદર્શન.
સમ્યક જ્ઞાનનું સ્વરૂપ, વ્યાખ્યા :
દરેક પદાર્થમાં સામાન્ય અને વિશેષ ધર્મ હોય છે. સામાન્યનું જ્ઞાન થયા પછી વિશેષ ધર્મનું જ્ઞાન મેળવવા ધાર્યું કરવાની ઈચ્છ થાય અને એના પરિણામે શેષ પદાર્થના વિશેષ ધર્મનું શાન થવું કે મેળવવું એને સમ્યકજ્ઞાન કહેવાય છે. ટૂંકમાં શેય પદાર્થોના સ્વરૃપ અને સ્વભાવનું પચાવત' જ્ઞાન થવું તેનું નામ સમ્પક, જ્ઞાન, આત્માની ચૈતન્યશકિતનું દ્વિપક્ષી સ્વરૂપ :
આત્માના મૂળ ગુણ રૂપ ચૈતન્યશકિતનું સ્વરૂપ સ્વભાવ-ત્ર્યયુકત અર્થાત ત્પિપક્ષી છે. આત્માની ચૈતન્યને એકલી 'જ્ઞાનસ્વરૂપે' જ વિદ્યમાન નથી હોતી; પરંતુ જ્ઞાન અને દર્શન એમ સંયુકત સ્વરૂપે હોય છે. આ સંયુકત સ્વરૂપાત્મક ચૈતન્યશકિત કહેવા પાછળના તર્ક અને તથ્યયુકત કારણામાંથી પ્રથમ કારણ એ છે કે, કોઈ પણ પદાર્થ એક ધર્મી હોતો નથી. પરંતુ સામાન્ય અને વિશેષ એમ બન્ને ધર્મસ્વરૂપયુકત જ હોય છે. બીજું કારણ એ છે કે, સામાન્ય પદાર્થબાધ થતી વખતે પણ જીવના આત્માપયોગ ચઢતા અને ઉતરતા એમ બે પ્રકારે હાય છે. ઉદાહરણ તરીકે જ્યારે કોઈ પણ માનવી પર આપણી દિષ્ટ પડે છે ત્યારે સામાન્ય રૂપે એ માનવ છે એમ અનુભવીઓ છીએ પણ એની સાથે સાથે વ્યકત કે અવ્યકત રીતે પણ એ માનવ છે એટલે જીવયુકત અને વિવિધ અંગવાળા તથા બુદ્ધી શકિતવાળા છે એ પણ જાણીએ છીએ. આવી વ્યકિતની માત્ર માનવી તરીકેની ઓળખાણ ખાસ કરીને સામાન્ય ઓળખાણની સાથે જ વિશેષ ઓળખ પણ આવે છે તેનું કારણ આમાની ચૈતન્યશનિનું આ સ્વરૂપાત્મક હોવું એજ છે.
સમ્યક દર્શનની સામાન્ય વ્યાખ્યા :
આ જ્ઞાનશકિતથી જીવને જ્ઞેય પદાર્થના ખ્યાલ પેદા થાય છે તેમાં પ્રાથમિક ખ્યાલ પણ જ્ઞાનના દર્શન કહેવાય છે. પદાર્થબાધની પ્રથમ ભૂમિકા તે દર્શન છે તેમાં વસ્તુના ખાસ સ્વરૂપના ભાસ નહિ થતાં ફકત વસ્તુની સત્તાનું જ ભાન થાય છે. સર્વ શેય પદાર્થો સામાન્ય અને વિશેષ એમ બન્ને ભાવયુક્ત હોય છે સામાન્ય વિના વિશેષ હોઈ શકે નહિ. જેમ કે વિવિધ ફળો પૈકી આંબાનું ફળ દષ્ટિ સન્મુખ થતાં પ્રથમ તો કેરી સ્વરૂપે સામાન્ય બોધ થાય ત્યાર પછી તે કેરી મેોટી છે, મીઠી છે, પરિપકવ છે, વિગેરે કેરી અંગેના વિશેષ બોધ થાય છે. આ ફળમાં કેરી સ્વરૂપ સામાન્ય ભાવ છે, તો જે મોટાઈ, મીઠાશ, પરિપકવતા વિગેરે વિશેષ ભાવા છે. જયાં કેરી સ્વરૂપ સામાન્ય ભાવ જ ન હોય તો પછી ત્યાં મોટાઈ મીઠાશ વગેરે વિશેષ ભાવનું અસ્તિત્વ જ કયાંથી હાય ? માટે સામાન્ય અને વિશેષ એ બન્ને ભાવો પ્રત્યેક વસ્તુમાં સંલગ્ન છે. જેથી દરેક પદાર્થને બોધ, પ્રથમ સામાન્ય અને પછી વિશેષ થાય છે. તેમાં શેયના વિશેષ ધર્મને જાણવાવાળા આત્માના જે છે ગુણ તે શાન છે. શેયના સામાન્ય ધર્મને જણવાવાળા આત્માના જે ગુણ
છે તે દર્શન છે.
ગુણય : આ રીતે પદાર્થ બાધ થતી વખતે ચડતા ઊતરતા વિવિધ પ્રકારના આત્માપયોગરૂપ ભેદના વ્યવસ્થિત અને વિસ્તૃત રીતે થતો ખ્યાલ ચુકાઈ ન જાય તે માટે આત્માની ચૈતન્યકિતને
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માત્ર એક જ્ઞાનસ્વરૂપે જ નહિ ઓળખાવતા શાન અને દર્શન એમ બન્ને સ્વરૂપે કડી છે.
ચારિત્ર્ય : આ જ્ઞાન અને દર્શન ઉપરાંત આત્માને ત્રીજો ગુણ છે. વની ચકિત, ચેતના અને વીર્યાદિની પરિવૃતિનું પ્રવર્તન, સ્વભાવમાં વર્તે છે તેને ચારિત્ર્ય કહેવાય અથવા રાગ-દ્રુ યની પરાધીનતા રહિત આત્માની જ્ઞાન અને દર્શનશકિતનો ઉપયોગ તેને ચારિત્ર્ય કહેવાય. રાગ-દ્વેષ એટલે આત્મામાં વર્તતા ક્રોધાદિ કષાયો. આક્રોધાદિ કષાયોના ત્યાગને જ ચારિત્ર કહેવાય.
આત્મિક શકિત--અનંત વીર્ય ! આત્માનો ચોથો ગુણ "વીર્ય" કહેવાય છે. વીર્ય એ જૈન પારિભાષિક શબ્દ છે. તેનો અર્થ, યોગઉત્સાહ-બળ-પરાક્રમ – શકિત ઈત્યાદિ થાય છે. અર્થાત આત્માની શકિત--બળ -પરાક્રમ તે વીર્ય કહેવાય છે. તેના (૧) લબ્ધિ વીર્ય અને (૨) કરણ વીર્ય; એમ બે પ્રકાર છે. તેમાં આત્મામાં શકિતરૂપ હેલું વીર્થ તે સબ્ધિ વીર્ય છે. અને તે લબ્ધિવીર્યની પ્રવૃત્તિમાં નિમિત્તભૂત જે મન-વચન અને કાયારૂપ સાધન તે કરણ વીર્ય છે. કરણ વીર્યમાં આત્મિક વર્ષના વાહનરૂપથી વીર્ય શબ્દનો ઉપચાર વ્યવહારિક ઉપયોગ છે. આત્મજ્ઞાન રહિત જીવને વીર્ય ગુણની પ્રાથમિક સમજ, તે ણવીર્ય દ્વારા જ આપી શકાય છે. લબ્ધિવીર્ય પ્રગટ થવામાં કરણ વીર્ય સંબંધ ધરાવે છે. માટે તે ઉપચાર યોગ્ય છે. વીર્યના સત્ય સ્વરૂપથી અજ્ઞાત લોકો, શરીરની તાકાતનેબનેં જ વીર્યસ્વરૂપમાં સમજે છે. પરંતુ શરીરની અંદર ઓ વીર્ય નો પુલમાંથી બનેલું હોવાથી તેનો પૌગિક વીર્ય કહેવાય છે. આ પૌદ્ગલિક વીર્યની પ્રગટવાનું કારણ આત્માના વીર્યગુણ (લબ્ધિવીર્ય)ના પ્રગટીકરણ ઉપર છે.
શકિતના મુખ્ય બે ભેદ :
જગતના નાના મેાટા સર્વ પ્રાણીઓની મન-વચન તથા શરીરની સ્થૂલ યા સૂક્ષ્મ પ્રવૃત્તિમાં આત્માનું વીર્ય જ કામ લાગે છે. મન-વચન અને કાયા તા જડ હોવાથી આત્માના વીર્ય વિના કોઈ પણ પ્રકારની ક્રિયા કરી શકતા નથી. આત્મા જયારે શરીરના ત્યાગ કરીને ચાલ્યો જાય છે, ત્યારે મભૂતમાં મભૂત શરીર પણ કારની માફક થઈને પડયું રહે છે. એટલે સ્પષ્ટ રીતે સિદ્ધ થાય છે કે આત્મિક વીર્યના અભાવે શારીરિક બળ વ્યર્થ છે. શરીરગત પૌઢગત્રિવીર્ય, એ બાધવીર્ય છે. આ બાઘવીર્ય એ આત્મિક વીર્યના અનેક બાહ્ય સાધનામાંનું એક બાહ્ય સાધન છે. અથવા આત્મિક વીર્યના પ્રવર્તન રૂપ આત્મપ્રયત્નમાં બાહ્યવીર્ય પણ સંબંધ ધરાવે છે. એટલે વાસ્તવિક રૂપથી તે વીર્ય એ એ શરીરની નહિ પણ આત્માની વસ્તુ છે. એ શરીરને ગુણ નહિ હોતા શરીરનું સર્વ પ્રકારનું સંચાલન કરવાવાળા જે આત્મા, શરીરમાં રહેલા છે તેના ગુણ છે.
સ્વાભાવિક ગુણો :
આ પ્રમાણે જ્ઞાન-દર્શનચારિત્ર અને વીર્ય એ આત્માના સ્વ-માલિકીના, બહાર, કોંધણી નિહ આવેલા સ્વાભાવિક ગુણો છે. એ જીવ માત્રના ગુણા હોવા છતાં પણ તે દરેકનું અસ્તિત્વ દરેક જીવોમાં એક સરખું નહિ. વાથી ન્યૂનાધિકપણે વર્તનું જોવામાં આવે છે, આવી વિવિધતાનું કારણ શું ? એ પ્રશ્ન બુદ્ધિમાન મનુષ્યોના હૃદયમાં ઉપસ્થિત થાય એ સ્વાભાવિક છે. પરંતુ આ પ્રશ્નનું સમાધાન કર્યા પહેલાં તે એ સમજી લેવું જોઈએ, કે જે કરે વસ્તુના વિકાસમાં ક્રાનિવૃત્તિ દેખાય તે વસ્તુમાં પ્રકર્ષતા અથવા સંપૂર્ણતા યા અન્તિમ વિકાસ પણ હોવા જોઈએ. એ હિસાબે જ્ઞાનાદિ ચારે ગુણોની પ્રકર્ષતા અર્થાત સંપૂર્ણતાના પણ ભાસ થઈ શકે છે.
૩૦
આત્માને આવરતી શકિત
વાદળ ઘેરાપી આદિત બની જતા સૂર્યના તેજની ધૂન વકતા, આચ્છાદક એવા વાદળના સમૂહને અનુરૂપ હોય છે. વાદળ ઘટા વધારે તેમ સૂર્યનું તેજ ઓછું, અને વાદળ ઘટા ઓછી તેમ તેજનું પ્રમાણ વધુ હોય છે અને વાદળઘટા સર્વ વિખરાઈ ગી સુર્યનું તેજ બિલકુલ આચ્છાદન રવિન સંપૂર્ણપણે પ્રગર છે. અહીં વાદળની આચ્છાદિતતાની અવસ્થામાં કંઈ સૂર્યનું તેજ નષ્ટ થઈ જતું નથી અને વાદળ ઘટા બિલકુલ વિખરાઈ જતાં કંઈ તે તેજ નવું ઉત્પન્ન થતું નથી કે બહારથી આવતું નથી. પરંતુ વાદળ ઘટા વખતે તે તેજ આચ્છાદિત (ઢંકાઈ જવાપણે) રૂપમાં વર્તે છે અને ઘટા બિલકુલ ઘટા બિલકુલ વિખરાઈ જમી ને તેજ પ્રગટ થઈ પૂર્ણ સ્વરૂપે પ્રકાશે છે. એ રીતે આત્માના જ્ઞાનાદિ ચાર ગુણો અને તેના આચ્છાદક તત્ત્વ, કર્મ અંગે સમજવું. કર્મના મુખ્ય બે ભેદ:
જીવના પારમાર્થિક યા સ્વાભાવિક સ્વરૂપ જ્ઞાનાદિ ચાર આત્મિક ગુણને આચ્છાદિત બનાવી રાખનાર કર્મને જૈનદર્શનમાં ઘાતી કર્મ તરીકે ઓળખાવ્યા છે અને જીવની વ્યાવહારિક યા દશ્યમાન અવસ્થાની અનુકૂળતા તથા પ્રતિકૂળતા સર્જક કર્મને અઘાતી કર્મ તરીકે ઓળખાવ્યા છે. ઘાતી કર્મો આત્મિક ગુણાનું આચ્છાદન કરે છે. જયારે અઘાતી કર્મોથી તે જીવ મનુષ્ય, દેવ, જાનવર અને નરકના ભવનું, આયુષ્યનું, શારીરિક સુખ-દુ:ખનું અને ગાત્ર વગેરેનું સર્જન થાય છે. આત્માના જ્ઞાન દર્શન, ચારિત્ર અને વીર્યગુણના આચારક એવા ઘાતી કર્મના નામ અનુક્રમે : (૧) જ્ઞાનાવરણીય (૩) દર્શનાવરણીય (૩) મેદનીય અને (૪) અતરાય જીવને ભય-જીવન-મર્યાદા સુખ-દુ:ખ અને ગોત્રના સંયોગા પ્રાપ્ત કરાવનારા અઘાતી કર્મોનાં નામે અનુક્રમે: (૧) નામ કર્મ (૨) આવુ કર્મ (૩) વંદનીય કર્મ અને (૪) ગોત્ર કર્મ છે. ઘાની કમીનું કામ જીવને ગતિ આદિ બાહ્ય સંજોગોની અનુકૂળતા પ્રતિકૂળતાને પ્રાપ્ત કરાવવાનું છે. જયારે ઘાતી કર્મોનું કામ આત્મિક ગુણોને આચ્છાદન કરવાનું છે.
અઘાતી કર્મના કારણે પ્રાપ્ત, ભવ-આયુ આદિ સંયોગિક છે અશાશ્વત છે, નાશવંત છે. આત્માની સ્વાભાવિક, અસલી અને સ્વ-માલિકીની ચીજ નથી. બહારથી આવેલ છે. અસલી ચીજ તે આત્માની અક્ષય સ્થિતિ આવ્યા બાદ અરૂપીપણુ અને અગુરુ લઘુ પશુ' છે. જીવને શાશ્વત શાંતિની પ્રાપ્તિ તો ઉપરોકત ચાર અવસ્થામાં જ છે. એ અવસ્થા પ્રાપ્ત ન થાય ત્યાં સુધી જીવને મનુખ્યાદિ ભવમાં, તે ભવની સ્થિતિની મર્યાદામાં, શારીરિક સુખદુઃખના સંયોગામાં અને વિવિધ અવસ્થામાં ભટકતા જ રહેવાનું છે. કયાંય કાયમી વસવાટ નથી. ફેરબદલા કરતા જ રહેવાનું છે. આવી અસ્થાયી સ્થિતિના સદાના માટે છૂટકારો તે અઘાતી કર્મના સંબંધથી સર્વથા મુકત બનવામાં જ છે. પરંતુ તે છૂટકારો પ્રથમ તે ઘાતી કર્મના છૂટકારાથી જ થાય છે અને ઘાતી કર્મના છૂટકારો તો અઘાતી કર્મનાં સંબંધથી - સર્વથા મુકત બનવામાં જ છે. પરંતુ તે છૂટકારો પ્રથમ તો ઘાતી કર્મના છૂટકારાથી જ થાય છે અને ઘાતી કર્મોને છૂટકારો ચાર ઘાતી કર્મો પૈકીના મેાહનીય કર્મના ટકારાથી જે થાય છે.
અંધકારમાંથી પ્રકાશ તરફ-ગુણસ્થાનક :
મેાહનીય કર્મની વિવિધ અવસ્થાના સંબંધથી અમુક ક્રમે ક્રમે સર્વથા છૂટવા માટે આત્માના થતા પ્રયત્નથી પ્રાપ્ત દશાને જૈનદર્શનમાં સ્થાનક તરીકે ઓળખાવી છે. કઈ દશામાં ગુણાનકમાં કર્મના બંધ-ઉદય-ઉદીરણા અને સત્તા સ્વરૂપ સંબંધ આત્માને
રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
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કેવો બની રહે છે અને અને ગુણસ્થાનકમાં આગળ વધતાં અનંત સુખને ઝરો પોતાના આત્મામાં જ નિર તર સ્થાયી હોવા મેહનીય કર્મને સર્વ પ્રકારનો સંબંધ, આત્મામાંથી હંમેશના માટે છતાં એ પૌગલીક રજકણોના સંબંધથી પરાધીન બનેલા આત્માને કેવી રીતે વિલીન બને છે ત્યાર બાદ અલપ સમયમાં જ શેષ પિતાનું સ્વતંત્ર સુખ ભૂલાઈ ગયું છે. અને પૌગલીક સુખે જ ત્રણ ઘાતી કર્મ આત્મામાંથી સર્વથા નષ્ટ કેવી રીતે બને છે અને સુખી થવાની ઘેલછાવાળ બની રહ્યો છે. આ રજકણ અતિ સૂક્ષ્મ અને અઘાતી કર્મો સ્વયં કેવી રીતે છૂટી જવાથી આત્મા અજર છે અને દષ્ટિગોચર થઈ શકે તેવા નથી. એટલે વૈજ્ઞાનિકોએ માની અમર સ્થાનને કેવી રીતે પ્રાપ્ત કરે છે... આ બધી હકીકત સ્પષ્ટ લીધેલ આણુ કરતાં પણ અત્યંત સુક્ષ્મ એ આ રજકણ સમૂહ અને હૃદયગમ્ય રીતે જૈનદર્શનના કર્મશાસ્ત્રમાં જાણવા મળે છે. મહાશકિતવંત હોય તેમાં શું આશ્ચર્ય ? કર્મ-વર્ગણા:
કર્મની આવરક શકિત – પ્રભાવ અને તેની રોક: જૈનદર્શનમાં કર્મવિષયની રસપ્રદ હકીકતો દર્શાવવા ઉપરાંત આ રજકણ સમૂહમાંથી તૈયાર થતું તત્ત્વ, તેને જ કર્મ કર્મવર્ગણાને અમુક સમય સુધી ઉપશાન્ત બનાવી રાખવા રૂપ કહેવાય છે. જેમ ઔષધની ગોળી માણસના શરીરની અંદર જઈને ઉપશમ શ્રેણિનું તથા તે વર્ગખાને આમૂલચૂલ ઉખેડી નાખવાની મહત્ત્વનું કાર્ય કરે છે, તેમ આ રજકણો પણ જીવમાં પ્રવેશીને પયિા સ્વરૂપ ાપક શ્રેણિનું સ્વરૂપ એટલી સુંદર શૈલીએ સમજાવ્યું એના ઉપર અનેક પ્રકારની અસર કરે છે. જીવની સર્વશતાને છે કે ભલભલા વૈજ્ઞાનિકોની બુદ્ધિ પણ ચક્કરમાં પડી જાય. આ અને સર્વશકિતમત્તા ઢાંકી દે છે અને તેથી એનામાં (જીવમાં) ઉપશમ કોણી અને ક્ષપક કોણિમાં આત્મ શકિત કેવું કામ કરે છે, માત્ર પરિમિત જ્ઞાન અને પરિમિત શકિત રહે છે એ એને દુઃખ કર્મવર્ગણાના પુત્રની તાકાત કેવી હતપ્રાય: બની જાય છે આપે છે. તેથી જીવના સ્વાભાવિક ભાવને - અવસ્થાને એટલા અંશે અને અન્ને આત્મશકિતની પૂર્ણતાની ઉજજવલ જયેત કેવી રીતે સ્વાસ્યનો નાશ થાય છે. જીવ એ અસ્થિર શરીરો વીંટાળે છે. પ્રગટે છે તે બધી હકીકત સમજનાર બુદ્ધિશાળી મનુષ્યનું મસ્તક એને જિંદગી અને મોહ આપે છે અને એનું પ્રારબ્ધ બંધાવે છે આ વિષયના પ્રરૂપક સર્વજ્ઞ ભગવંત પ્રત્યે સહેજે ઝુકી જાય છે. કે પછી અમુક સમય સુધી એ જીવે માણસ, તિર્યંચ, સ્વર્ગવાસી અને જૈન દર્શન કથિત કર્મવાદની મહત્તા સ્વહૃદયમાં અંકિત બને છે. કે નરકવાસી એ ચારમાંની કોઈ પણ યોનિમાં અવતરવું પડે છે. કર્મના પરિણામેનું મુખ્ય વર્ગીકરણ :
આ રીતે આ પુદ્ગલ (મેટર) અણસમૂહ જીવમાં પ્રવેશીને બધાં પ્રત્યેક સંસારી આત્મા સાથે લહાગ્નિવત યા ક્ષીરનીરવત
પ્રાણીના જન્મ અને અસ્તિત્વ માટે ભારતના બધાં તત્ત્વદર્શનાએ સંલગ્ન બની રહેલ વિવિધ કર્મનું અસ્તિત્વ જીવને વિપાક દર્શા
સ્વીકારેલું એવું એક ગૂઢ તત્ત્વ -કર્મ તૈયાર કરે છે. આ કર્મ સંબં
ધથી જ જીવની ઉપરોકત સ્થિતિ સર્જાય છે. વવામાં એક સરખા સ્વભાવવાળું નહીં હોવાના કારણે તેની વિવિ
આ કર્મસ્વરૂપે પરિણામ પામતાં રજકણ-સમૂહો જીવમાં પ્રવેશ્યા ધતાને અનુલક્ષીને તેના મૂળ આઠ ભેદ અને ઉત્તર ૧૫૮ ભેદ
પહેલાં કઈ જાતના પુદ્ગલમાંથી તૈયાર થાય છે, કોણ તૈયાર કરે છે, દ્વારા કરેલું વર્ગીકરણ એટલું બધું સુંદર છે, કે તેના દ્વારા સંસારી
શા માટે તૈયાર કરે છે, જીવમાં પ્રવેશ્યા પહેલાં તેનું અસ્તિત્વ આત્માની અનુભવસિદ્ધ ભિન્ન ભિન્ન અવસ્થાઓને ખુલાસો
કયાં અને કેટલી જગ્યા પ્રમાણ છે, આવા સૂક્ષ્મ સ્વરૂપે અસ્તિત્વ જૈનદર્શનમાં બતાવેલ કર્મતત્વના આ વિજ્ઞાન દ્વારા સરળતાથી
ધરાવતાં અન્ય રજકણસમૂહનું અસ્તિત્વ બ્રહ્માંડમાં કેવા કેવા સ્વરૂપે થઈ શકે છે. આ બધા ભેદે: (૧) પુન્ય અને (૨) પાપ; એમ બે
અને કેવા કેવા કાર્યમાં ઉપયોગી બની શકવાની યોગ્યતાવાળું છે; કેવા વિભાગમાં પણ સમાઈ જાય છે.
પ્રકારનું કર્મ, વધુમાં વધુ અને ઓછામાં ઓછા કેટલા સમય નવ તત્ત્વ:
આત્માની સાથે ટકી શકે? કર્મ સ્વરૂપે આત્મામાં સંબંધિત બન્યા કર્મવર્ગણાથી થતી આત્માની અનર્થતાને અનુલક્ષીને જ
પછી તે કેટલા સમય સુધી તેને વિપાક દેવામાં અસમર્થ રહી શકે, જૈનદર્શનમાં નવ તત્ત્વનું સુંદર આયોજન છે. આ નવ તત્ત્વનું
- વિપાકના નિયત સમયમાં પણ પલટો થઈ શકે કે કેમ, કઈ જાતના જ્ઞાન જ માનવમાં માનવતા સજે છે. આધ્યાત્મિક દૃષ્ટિએ જે આત્મ પરિણામથી આ પલટો થઈ શકે, બંધ સમયે વિવક્ષિત કોઈ મહાપુર પ થઈ ગયા છે, તે સવે આ નવ તત્ત્વમાં હેય-રોય કર્મમાં જે સ્વભાવનું નિર્માણ થયું હોય તે સ્વભાવને પણ પલટા અને ઉપાદેયના વિવેકી બનવાથી જ આત્મ-સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરી વિપાક સમયે થઈ શકે કે કેમ, સ્વભાવ પલટો થઈ શકતી હોય તો શકયા છે. આ નવ તત્ત્વને વિષય, ચેતન અને જડ પદાર્થ સંબંધી જ કેવી રીતે થઈ શકે. કર્મને વિપાક રોકી શકાય કે કેમ, રોકી શકાતે જડ પદાર્થમાં પણ મુખ્યતા તે કર્મવર્ગણા અંગેની જ છે.
હોય તો કેવા આત્મ -પરિણામથી રોકી શકાય, દરેક પ્રકારના કર્મને જૈન દર્શનના પ્રકાશક વીતરાગ બનેલ સર્વજ્ઞ મહાપુરુ એ વિપાક રોકી શકાય કે અમુકને જ ? જીવ, પોતાની વીર્યશકિતના વિશ્વના પ્રાણીઓ સમક્ષ રજૂ કર્યું છે કે આ વિશ્વમાં એવા પણ આવિર્ભાવ દ્વારા સૂક્ષ્મ અણુસમૂહરૂપ કર્મને આત્મ-પ્રદેશ પરથી કર્મવર્ગણાના પુદ્ગલ (અણુસમૂહ) નું અસ્તિત્વ વર્તી રહ્યું છે ઉઠાવીને કેવી રીતે ફેંકી શકે, આત્મા પોતાનામાં વર્તમાન પરમાત્મછે કે જેણે સંસારી આત્માની અનંત શકિતને આવરી લીધી છે. ભાવને દેખવા માટે જ્યારે ઉત્સુક બને છે, તે સમયે આત્મા અને વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
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કર્મ વચ્ચે કેવું યુદ્ધ જામે છે. છેવટે અનંત શકિતત આત્મા કેવા પ્રકારનાં પરિણામેથી બળવાન કર્મોને કમજોર બનાવી પોતાના પ્રગતિ માર્ગને નિષ્ક ટક બનાવે છે, કયારેક કયારેક પ્રગતિશીલ આત્માને પણ કર્મ કેવી રીતે નીચે પટકી દે છે, કયા કર્મને બંધ, ઉદય કઈ અવસ્થામાં અવયંભાવી, અને કઈ અવસ્થામાં અનિથત છે, આત્માના અનંત જ્ઞાનાદિ ચતુષ્ક ગુણોના આચ્છાદક કર્મને કયા કમથી હટાવી શકાય, જીવ કર્મફળ સ્વયં ભગવે છે કે ઈવરાદિ અન્ય કોઈની પ્રેરણાથી, સર્વથા કર્મ સંબંધથી સદાના માટે રહિત આત્માઓ કરતાં અન્ય કંઈ પણ વિશેષતાવાળી અન્ય કોઈ વ્યકિત હોઈ શકે ખરી? હોઈ શકતી ન હોય તે નહિ હોવાનું કારણ શું? એક જીવે બાંધેલ કર્મ અન્ય જીવ દ્વારા નષ્ટ થઈ શકે ખરાં? ઈત્યાદિ સંખ્યાતીત પ્રશ્નનું સંતોષકારક બુદ્ધિગમ્ય સુખદ સમાધાન તથા શરીર-વિચાર અને પાણીના નિર્માણમાં કેવા પ્રકારની આકર્ષણ શકિતથી તેને યોગ્ય અણુસમૂહો ખેંચાય છે? આકર્ષિત તે અણુસમૂહોમાંથી યથાયોગ્ય થતી રચનામાં જીવ પ્રયત્ન અને પ્રયત્નશીલ બની રહેલ તે જીવનાં કર્મો કેવી રીતે ભાગ ભજવે છે? પ્રાણી માત્રની શરીર રચના, વિવિધ ચૈતન્યશકિત, પ્રાણીઓમાં વર્તતી રાગ-દ્વેષની અનેકવિધ વિચિત્રતા, ઈન્દ્રિયોની જૂનાધિકતા, ઈન્દ્રિયો આદિ સંયોગે હોવા છતાં બુદ્ધિમાં વિવિધતા, સાંસારિક સુખ-દુ:ખનાં સંયોગોની અનુકૂળતા, આત્મબળની હાનિ-વૃદ્ધિ વિગેરે અનેક વિચિત્રતા, કર્મસમૂહને હટાવવા જૈન ધર્મના આરાધકોમાં કરાતી બાહ્ય ક્રિયાઓની મહત્તા, આવી અનેક બાબતોને હૃદયગમ્ય ખુલાસો જૈનદર્શન-કથિત કર્મ વિજ્ઞાન દ્વારા જ મળી શકશે. જૈન દર્શનમાં કર્મવાદનું સ્થાન:
કેટલાક લોકો એવી માન્યતા ધરાવે છે કે જેનદર્શન તે માત્ર કર્મવાદી જ છે. પરંતુ માત્ર કર્મવાદી જ છે, એમ માની
લેવું તે ભૂલ ભરેલું છે. કેમ કે કાર્યની ઉત્પત્તિમાં જૈનદર્શન એકલા કર્મને જ કારણ માનનાર નથી પરંતુ કાળ, સ્વભાવ, નિયતિ, પ્રારબ્ધ અને પુરુષાર્થ એ પાંચે સમવાયી કારણોને માનનાર અનેકાન્તવાદી દર્શન છે. આમ છતાં કેટલાકને આવી ભ્રામક માન્યતા ઉભવવાનું મુખ્ય કારણ એ છે, કે ઉપરોકત પાંચ કારણો પૈકી કર્મનું સ્વરૂપ, શેષ ચાર કારણો કરતાં અતિ વિશાળ રૂપે જેન શાસ્ત્રમાં વર્ણવાયેલું જોવામાં આવે છે અથવા પ્રચલીત છે. કર્મવાદની સિમિત જાણકારી
વર્તમાન જૈન આગમમાં તે કર્મવાદનું સ્વરૂપ અમુક પ્રમાણમાં જ વર્ણવેલ છે. કર્મવાદનું મૂળ તો જૈનદર્શનમાં, લુપ્ત થયેલ દષ્ટિવાદ નામના બારમા અંગના ચૌદ પૂર્વવાળા ચેથા પૂર્વમાં છે. તેમાં કર્મપ્રવાદ નામનું એક આખું પૂર્વ છે. આ પૂર્વ પણ લુપ્ત થયેલ છે. પરંતુ તેમાંના કેટલાક વિચારો પરંપરાએ ઉતરી આવેલ છે અને સંઘરાઈ રહ્યા છે. ઉપરોકત શાસ્ત્રના આધારે પૂર્વાચાર્યોએ નિર્માણ કરેલ કર્મવાદના સાહિત્ય દ્વારા આજે પણ કર્મવાદનું સ્વરૂપ સંપૂર્ણપણે તો નહિ, પણ અમુક અંશે તો જાણી સમજી શકાય છે. વર્તમાન કાળે આ રીતે અમુક અંશે વિદ્યમાન એ કર્મવાદ અત્યંત વિશાળ બુદ્ધિગમ્ય અને હૃદયસ્પર્શી છે.
કર્મ સત્તા ઉપર વિજય મેળવીને જીવે પરમાત્મ પદ પ્રાપ્ત કરવા માટે ધર્મતત્ત્વની અદ્ભુત શકિતઓને ઉપયોગ કેવી રીતે કરવો જોઈએ. તેનું સચોટ પ્રતિપાદન જૈનદર્શનમાં સરળ અને સુંદર રીતે સમજી શકાય તેવી રીતે કરવામાં આવ્યું છે. એટલું જ નહિ પરંતુ દશ્ય જગતની રચના કોણ કરે છે? કેવી રીતે કરે છે? શા માટે કરે છે? તે સંબંધી વાસ્તવિક હકીકત પણ જૈન દર્શનકથિત આ કર્મવાદ ઉપરથી વાસ્તવિક રીતે સમજી શકાય છે.
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રાજેન્દ્ર જયોતિ
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સાધના–માર્ગના સક્રિય શુભારંભ
' અર્થાત્ દેશ વિરતી ધર્મ (બાર વત)
[] લેખક: સાધ્વી શ્રી સ્વયંપ્રભાશ્રીજી, કલ્પલતાશ્રીજી
૫રમ તારક શ્રી વીતરાગ પરમાત્માએ આત્માના કલ્યાણની સાધનાને - સ્વ - સ્વરૂપપ્રાપ્તિનો માર્ગ દર્શાવતાં કહ્યું છે કે, “હે ભવ્ય જીવ ! તારી મુકિત તારા જ હાથમાં છે. મુકિત કોઈની આપી મળતી નથી અને કોઈનાથી મુકિત આપી શકાય જ નહીં.” અર્થાત આત્મકલ્યાણને માર્ગ આત્મ-પુરુષાર્થને [self-efforts છે. આવો પુરુષાર્થ ત્યારે જ શકય બને છે કે જ્યારે આત્મામાં પરિણતી આવે. પરિણતી વગરની પ્રવૃત્તિ સ્વયં - સંચાલિત યંત્રની પ્રવૃત્તિ જેવી નિર્જીવ પ્રવૃત્તિ જ સાબિત થાય. સાચી પરિણાતી આવી ત્યારે જ કહેવાય કે જ્યારે તદનરૂપ પ્રવૃત્તિ આવે. એવી પરણતી કયારે અને કેવી રીતે પ્રાપ્ત થાય?
આપણે, દરેક જીવાત્મા અનાદિ અનંતકાળથી કર્મના બંધનેથી બંધાયેલ છે. આવા સતત [contineous] બંધનના કારણે આત્માની પરકીય પદાર્થો પ્રતિની પ્રીતિ (attachme-t) અને તદનુરૂપ પ્રવૃત્તિ સાહજિક [ Natural] બની ગઈ હોય એવો આભાસ [ illusion] ઉત્પન્ન થાય છે પરંતુ વાસ્તવિકતા [reality]
આ આભાસનું કારણ છે- આત્માનું પોતાની શકિત અને સ્વરૂપ વિશે અજ્ઞાન’ આમાં સમ્યક દર્શન અને સમ્યક જ્ઞાનની થન્કીંચિત પ્રાપ્તિ થતાં અજ્ઞાન, દૂર થાય છે. આ અજ્ઞાન દૂર થતાં આત્માનું અસલી સ્વરૂપ તથા શકિતઓનું આપણને “યથાવત ” જ્ઞાન થાય છે. પણ, આવું જ્ઞાન થવા માત્રથી આત્માનું કલ્યાણ શકય નથી. જેવી રીતે કોઈ પણ રૂ. ૧,000 રૂપિયાની નોટ ઓળખી શકે છે પણ રૂ. ૧,૦૦૦ રૂપિયાની નોટ કમાવવા કે મેળવવા માટે આવડત, પુરુષાર્થ અને પ્રારબ્ધ આ ત્રણેને સંયોગ થવો જરૂરી છે, તેવી જ રીતે મેણા માર્ગની સંપૂર્ણ આરાધના કરવા માટે સમ્યક દર્શન, સમ્યક જ્ઞાન અને સમ્યક ચારિત્ર્યની આવશ્યકતા અનિવાર્ય છે. સમ્યક દર્શન અને સમ્યક જ્ઞાનની પ્રાપ્તથી માનસિક કે વૈચારિક પરણિતી પ્રાપ્ત થાય છે પણ આ પરિણતી પૂર્ણ ત્યારે જ બને કે જ્યારે તે પ્રવૃત્તિમાં પરિણમે- અર્થાત સમય, ચારિત્ર્યનું પાલન થાય કે પ્રાપ્તિ થાય.
આવી પરિણતી સક્રિય પ્રયત્નોથી જ સાધ્ય બને છે. આ પ્રયત્નોની પરંપરા પૂર્ણ ત્યારે જ બને કે જ્યારે આત્મા સર્વ- વિરતીપણું પ્રાપ્ત કરે અથવા એ પ્રાપ્ત કરવા પ્રતિજ્ઞાબદ્ધ થાય. સર્વ - વિરતીપણુ એટલે સંસારની સર્વ પ્રકારની બાહ્ય પ્રવૃત્તિથી નિવૃત્ત થવાય તે માટે સ્વીકારેલી સ્વેચ્છાપૂર્વકની મર્યાદાઓ. આવી સ્વૈચ્છિક મર્યાદા સ્વીકારવાની જેમની શકિત અને / અથવા ભાવના
નથી તેવા આત્માઓનું શું? શું આવા આત્માઓનું આત્મ - કલ્યાણનું અભિયાન અટકી જાય ? ના, પરમ ઉપકારક શ્રી જીનેશ્વર ભગવંતની આજ્ઞાને અંશત: (Partially) અનુસરવાથી પણ આત્મોન્નતિ અટકતી નથી જ. આવી મર્યાદિત શકિતવાળા જીવો માટે શ્રી વીતરાગ પરમાત્માએ દેશવિરતીને | શ્રાવક ધર્મને ] માર્ગ ચીંધ્યો છે. મર્યાદિત ભાવના અને શકિતવાળા જીરે માટે સર્વજ્ઞ ભગવંતે ૧૨ વ્રત અંગીકાર કરવાની આજ્ઞા ફરમાવી છે. આ બાર વ્રત આ પ્રમાણે છે:
૧) સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રત, (૨) સ્થૂલ મૃષાવાદ વિરમણ વ્રત, (૩) સ્થૂલ અદત્તાદાન વિરમણ વ્રત, (૪) સ્થૂલ મૈથુન વિરમણ વ્રત, (૫) સ્થૂલ પરિગ્રહ વિરમણ વ્રત, (૬) દિક - પરિમાણ વિરમણ વ્રત, (૭) ભેગોપભોગ વિરમણ વ્રત, (૮) અનર્થ દંડ વિરમણ વ્રત, (૯) સામાયિક વ્રત, (૧૦) દેશાવગાસિક વ્રત, (૧) (૧૧) પૌષધોપવાસ વ્રત, (૧૨) અતિથિ સંવિભાગ વ્રત.
હવે આપણે આ ૧૨ વ્રતનો વિગતવાર વિચાર કરી સમજીએ :(૧) સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત વિરમલ વ્રત:
પ્રાણાતિપાત એટલે પ્રમાદવશતાના કારણે થયેલી હિંસા. આ હિંસા બે પ્રકારની હોય છે. (A) સ્થૂલ હિંસા (B) સૂક્ષ્મ હિસા. માનવી જ્યાં સુધી સંસારમાં રહે છે અર્થાત ગૃહસ્થાવસ્થામાં હોય છે ત્યાં સુધી સૂક્ષ્મ હિંસાને ત્યાગ તેનાથી થઈ શકતો નથી. સ્કૂલ હિંસા એટલે બે ઈન્દ્રિયો ધરાવતાં જીવોથી માંડી ત્રસકાયના સર્વજીવની થતી જે હિંસા એનું નામ સ્કૂલ હિંસા. આ વ્રત સ્વીકાર્યા પછી ગૃહસ્થ ઘેર આરંભ સમારંભવાળા તથા જેમાં ત્રસકાયના જીવોની પ્રત્યક્ષ કે પરોક્ષ હિંસા થતી હોય તેવા વ્યાપાર ઉદ્યોગને ત્યાગ કરે અને તેમાં ભાગ ન લે. દરેક વસ્તુ લેવા - મૂકવામાં જયણા. - પ્રયત્નપૂર્વકની એવી કાળજી રાખે કે જેના કારણે હિંસા ન થાય. પોતે પાળેલા ઢોર અને જાનવરોને ત્રાસ ન થાય તેવી રીતે પશુઓ પાસેથી કામ લે. પોતાના આશ્રિત વર્ગનું મન દુ:ખ થાય નહીં. તેના માટે સતત પ્રયત્નશીલ રહે. પોતાના આહાર - વિહારમાં શકય તમામ રીતે હિંસાથી દૂર રહેવા જાગૃત પ્રયાસ કરે. આ વ્રતના પાંચ અતિચારો પૂજયપાદુ હરિભદ્ર સૂ. મહારાજે આ પ્રમાણે વર્ણવ્યા છે: (૧) બાંધવું, (૨) તાડન કરવું, (૩) શરીરને છેદવું (૪) અતિ ભાર ભર અને (૫) અન્ન પાનને અટકાવ કરવો.
(૨) સ્થૂલ મૃષાવાદ વિરમણ વ્રત: જે વસ્તુ, પદાર્થ કે તત્વ
વિ. નિ. સં. ૨૫૩
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જે સ્વરૂપમાં હોય તે પ્રમાણે એટલે કે “યથાવત” ન કહેતાં કોઈ પણ કારણથી કે કોઈ પણ હેતુથી અસત્ય ભાષણ કરવું તેનું નામ મૃષાવાદ. આ પ્રકારની મૃષાવાદથી સર્વ - વિરતીધારી જ પર રહી શકે પરંતુ શ્રાવક અથવા ગૃહસ્થાવસ્થામાં રહેનાર જીવે સ્કૂલ મૃષાવાદને ત્યાગ કરવો રહ્યો. આવા સ્થૂળ મૃષાવાદનાં પાંચ અતિચારો-ક્ષતિઓ શારાકારોએ બતાવી છે: (૧) મિથ્થા ઉપદેશ, ખે ઉપદેશ આપવો કે ખાટી પ્રરૂપણા કરવી. એકાંતવાદી વચન બાલવું. (૨) રહસ્યાભ્યાખ્યાન, પોતે કે બીજા કોઈએ પણ એકાંતમાં (ગુપ્ત રીતે) કરેલી પ્રવૃત્તિનું રહસ્યોદ્ઘાટન કરવું. (૩) કૂટલેખન, કોઈ પણ પ્રકારના ખોટા દસ્તાવેજો કે કાગળો તૈયાર કરવા. (૪) થાપણ ઓળવવી. કોઈની પણ અનામત પૈસાની કે અન્ય કોઈ પણ પ્રકારની થાપણ કેળવવી. (૫) સ્વદારા મંત્રભેદ એટલે પોતાની સ્ત્રી કે બીજાના રહસ્યો ખેલવા કે જાહેર કરવા.
આ ઉપરાંત ખેટા તેલ - માપને ઉપયોગ કરે, કર - ચેરી કરવી વિ. પ્રવૃત્તિથી દૂર રહેવું.
| (૩) સ્થૂલ અદત્તાદાન વિરમણ વ્રત: જે ચીજ પોતાની હોય નહીં તે લેવી. અણહક્કનું લેવું અથવા કોઈ પણ ચીજ વસ્તુ તેના માલિકની રજા લીધા સિવાય લેવી, મેળવવી કે સંગ્રહ કરવો તેનું નામ અદત્તાદાન. આવા અદત્તાદાનથી દૂર રહેવું. ગૃહસ્થ માટે શકય નથી. તેથી ગૃહસ્થ સ્થૂલ અદત્તાદાનથી દૂર રહેવું. આવા સ્થૂલ અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતમાં નીચે જણાવેલા પાંચ ભયસ્થાને કે આચરણની ક્ષતિઓથી સુશાએ દૂર રહેવું.
(૧) ચેરને મદદ આપવી અથવા અમુક સ્થળે ચોરી કરવા કહેવું, (૨) ચોરીયાઉ વસ્તુ ખરીદવી કે સંઘરવી, (૩) જે રાજ્યમાં રહેતા હોઈએ તે રાજ્યની વૈધાનિક (કાયદાની) વ્યવસ્થાથી વિરુદ્ધ વર્તન કરવું, (૪) કોઈ પણ ચીજ વસ્તુઓના આદાન પ્રદાનમાં ઓછું આપવું, વધારે લેવું કે ખોટા માપ–તેલ વાપરવા, (૫) હલકી વસ્તુ આપી વધુ મૂલ્ય લેવું કે સારી વસ્તુ કહી ખરાબ વસ્તુ આપવી.
(૪) પૂલ અબ્રહ્મચર્ય વ્રત: (સ્વદારા સંતેષ) મન, વચન, કાયાથી વિષયની અનુભૂતિ કે અભિવ્યકિતથી પર-દૂર રહેવું તેનું નામ મૈથુન વિરમણ વ્રત. કામાવેગનું આવું નિયમન ગૃહસ્થાવસ્થામાં રહેનાર વ્યકિત માટે શકય નથી. આમ છતાં હકીકત અથવા શ્રેયકારક તે એ જ છે કે, વિષયવૃત્તિ -કામાવેગનું નિયમન -સંયમ કરવામાં આવે. આ હેતુને ‘આચરણાત્મકરૂપે ગૃહસ્થ આચરી શકે તે માટે ગૃહસ્થ પોતાની પત્ની પૂરતી જ કામ-પ્રવૃત્તિને સિમિત રાખવી અર્થાત સ્વ-દારામાં જ સંતોષ માનવે. આ વ્રતમાં જે વર્ષ પ્રવૃત્તિ છે, તે આ પ્રમાણેની છે : (૧) બીજાના વિવાહ-લગ્ન વિ. કરાવી આપવા કે એવી પ્રવૃત્તિમાં સવિશેષ રસ લેવો. (૨) કોઈ પણ સ્ત્રીને “રખાત” તરીકે રાખવી અને તેની સાથે અયોગ્ય સંબંધ બાંધવો. (૩) પર-સ્ત્રી, અવિવાહીત સ્ત્રી કે વેશ્યા સાથે વ્યભિચાર સેવ કે
તે હેતુથી અયોગ્ય સંબંધ બાંધવો. (૪) આપ્રાકૃતિક મૈથુન સેવવું. (૫) કામ-જોગ સંબંધમાં વધારે આસકિત રાખવી કે અતિ-સંગ કરવો.
(૫) સ્થૂલ પરિગ્રહ વિરમણ વ્રત : કોઈ પણ પદાર્થ પ્રતિને મમત્વભાવ હોવો તેનું નામ પરિગ્રહ. મમત્વભાવને સર્વથા ત્યાગ કરવો સંસારી માટે શકય નથી. સંસારી ગૃહસ્થ પોતાની આજીવકિર્થે તથા આશ્રિતોના ભરણપોષણ તેમજ તેના સાંસારિક વ્યવહારને ચલાવવા જરૂર પૂરતું ધન યોગ્ય રીતે કમાય અને ધન-સંપત્તિના માલિક કે દાસ તરીકે ન રહેતા તેના સંરક્ષક તરીકે રહે એનું નામ સ્કૂલ પરિગ્રહ વિર મણવ્રત. આવા સ્થૂલ પરિગ્રહ વિરમણના વ્રતના પાલનમાં નીચે જણાવેલા પદાર્થો પરના સ્વામિત્વ હક્કનું નિયમન કરવું: (૧) હીરા, માણેક, ઝવેરાત, સુવર્ણ વિ.ના સિક્કા, (૨) સર્વ જાતના ધાન્ય (૩) અલંકાર અને વગર ઘડેલું સુવર્ણ (૪) જમીન, ગામ, શહેર ઉદ્યાન (૫) અલંકાર અને વગર ઘડેલું રૂપું (૬) મહેલ, ઘર-હાટ, દુકાન, વખાર વિ. (૭) નોકર, દાસ, વિ. (૮) ગાય, ભેંસ, હાથી, ઘોડા તથા અન્ય વાહન વિગેરે અને (૯) ગૃહ-વ્યવહારને ઉપયોગી અન્ય તમામ ચીજ-વસ્તુઓ.
આ નવ પ્રકારના સ્વામિત્વમાં આ વિશ્વની સર્વ વસ્તુઓનો લગભગ સમાવેશ થઈ જાય છે.
જીવ જ્યાં સુધી આ સંસારમાં છે - કર્મબદ્ધ છે ત્યાં સુધી આ બધી ચીજ-વસ્તુઓની એક યા અન્ય રીતે અથવા પ્રત્યક્ષ કે પરોક્ષ રીતે ઓછા-વધતા પ્રમાણમાં જરૂરિયાત રહે છે અને રહેવાની આમ છતાં શાસ્ત્રકારોએ આ બધી વસ્તુઓ પરના મમત્વભાવને “પરિગ્રહ’ કહો છે. જ્યાં મમત્વભાવ આવ્યો ત્યાં મનના પરિણામે અશુદ્ધ થવાના, એવા અશુદ્ધિના સવિશેષ કોઈ ખાસ નિમિત્તો ન મળે એ માટે આ બધી વસ્તુઓને પરિગ્રહ ન કરવો જોઈએ. આત્માના માટે આ હિતાવહ (advisable or t nov lant) છે એમ શાસ્ત્રકારોએ ફરમાવ્યું છે. ન છૂટકે જીવન વ્યતિત કરવા કે ટકાવવા જે વસ્તુઓની અનિવાર્ય આવશ્યકતા ઉભી થાય તે વસ્તુનો ઉપયોગ સ્વામીભાવથી ન કરતાં સાક્ષીભાવે કરવે જેથી કરીને કર્મને બંધ થાય તો પણ સર્વથા સ્વલ્પ થાય. આવી પરિણતી ક્રમશ: કેળવાય એ માટે શ્રાવકધર્મનું પાલન કરનાર વ્યકિત પરિગ્રહનું પરિમાણ-પ્રમાણ નક્કી કરે એ ઈચ્છનીય છે.
(૬) દિક-પરિમાણ વિરમણ વ્રત : માનસશાસ્ત્રીઓ આજે, અબજોના ખર્ચ અને અનેકાનેક પ્રયોગો પછી પણ માનવ-મનના રહસ્યોને પામી શકયા નથી. માનવ-મન સંબંધીની તેમની શોધ અને ઉપાયો અનુક્રમે સિમિત તથા અધૂરા છે. સર્વજ્ઞ ભગવંતોએ પોતાના અતીન્દ્રીય જ્ઞાનબળથી માનવને માંકડા (વાનર) જેવો બનાવનાર મનની તોફાની વૃત્તિઓને તાગ સ્પષ્ટપણે મેળવી લીધા હતો. આથી જ શાસ્ત્રકારોએ ‘મનેનિગ્રહ’ પર સવિશેષપણે સર્વ સ્થળોએ ભાર મૂકયો છે.
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રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
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માનવના પિતાના સાધન કે સંપત્તિ, મર્યાદિત કે અપૂરતા હોવા છતાં તે પોતાના મનમાં “સેનાની લંકા હોય તે તેને સ્વામિ બનવાના સ્વપ્ન સેવતો થઈ જાય છે.”
એવી જ રીતે પુણ્યના યોગે માનવીની પાસે સંપત્તિ અને સાધનની કમી ન હોય તો કાર્યવ્યસ્તતાના કારણે કે શારીરિક અશકિતએના કારણે પણ આવો માનવ પોતાને પ્રાપ્ત થયેલી સંપત્તિ કે સાધનોનો ઉપયોગ કે ઉપભેગ કરવામાં અસમર્થ બને છે.
આવી વાસ્તવિકતાઓ, માનવ પોતાના જીવનમાં પ્રત્યક્ષ રીતે અનુભવતા હોવા છતાં પોતાના મનની કે શારીરિક પ્રવૃત્તિઓ તે ઠીક પણ શરીરની એકદેશીય પ્રવૃત્તિ જેવા પરિભ્રમણની સ્વનિમિત મર્યાદા સ્વેચ્છાએ સ્વીકારવા આનાકાની કરી, મનની મહેલાતે રચી આત્મવંચક આનંદ પ્રાપ્ત કરે છે.
જીવની આવી અમર્યાદિત મનોવૃત્તિ અને તજન્ય પ્રવૃત્તિ કે પરિણામે પાપના બંધનું કારણ બને છે. આ સત્યથી માનવ જાગૃત રહે એ હેતુથી શ્રાવકના ૧૨ વ્રતોમાં આ છઠ્ઠા દિક-પરિમાણ વિરમણ વ્રતનું આચરણાત્મક વિધાન ઉપકારી શાસ્ત્રકારોએ કર્યું છે
આ વ્રત ગ્રહણ કરનાર વ્યકિત દરેક દિશાનું પોતાનું આવાગમન (યાતાયાત) મર્યાદિત કરે છે. આ દિશાઓમાં ઉર્વલોક અને અધલેકની પોતાની પ્રવૃત્તિ અને મુસાફરીની મર્યાદા પણ બાંધે છે. આ મર્યાદા સાથે આવન-જાવનમાં ઉપયોગમાં આવતા વાહનના પ્રકાર અને સંખ્યાની મર્યાદા પણ સ્વીકારી શકાય છે.
આ રીતે સ્વેચ્છાએ મર્યાદા સ્વીકાર કરવાથી માનવી “મનેનિગ્રહ”ની પ્રવૃત્તિથી પોતાના કર્મના બન્ધના દ્વારનું આંશિક [ Partial] નિયંત્રણને સક્રિય પ્રયત્ન કરે છે. (૭) ભેગે પગ વિરમણ વ્રત:
આ વ્રત દ્વારા શ્રાવક પોતાની માનસિક, વાચિક અને ખાસ કરીને શારીરિક સુખાકારી સગવડ તથા આનંદ-પ્રમોદના સાધનોના ઉપયોગની મર્યાદાનો સ્વીકાર કરે છે. (૮) અનર્થદંડ વિરમણ વ્રત:
જે કોઈ પણ વિચાર કે પ્રવૃત્તિ સાથે માનવને પોતાને લાગતું વળગતું નથી અથવા જે સુખ-સગવડ તેની પિતાની ઉપલબ્ધિની સીમામાં આવતા નથી તેના વિશે પણ અનુપયોગી વિચારણા કે પ્રવૃત્તિ કરવાની માનવ મનની વૃત્તિઓનું નિયમન કરવામાં આ વ્રત અતિ ઉપયોગી નીવડે છે.
આ વ્રતને સ્વીકાર કરવાથી શ્રાવક નિવારી શકાય છતાં, તેના નિવારણના નિર્ણયના અભાવથી જે કર્મબંધ કરે છે તેમાંથી મુકિત પ્રાપ્ત કરે છે. (૯) સામાયિક વ્રત: " આ વ્રતના સ્વીકારથી શ્રાવક પોતાની પરિણતી અને પ્રવૃત્તિને સમતાયુકત બનાવવા પ્રયત્નશીલ બને છે. એની સાથે એ પણ સમજવું રહ્યું કે શ્રાવક જ્યારે સામાયિક લે છે ત્યારે તે બે ઘડી અર્થાત ૪૮ મિનિટ સુધી સાધુ-શ્રમણ જેવી જ આચરણ કરવા પ્રયત્નવાન રહે. બીજા શબ્દમાં સામાયિક સાધુ-ધર્મના પાલનની પ્રયોગાત્મક તૈયારી છે. (૧) દેશાવગાસિક વ્રત:
આ વ્રતના સ્વીકાર સાથે શ્રાવક પોતાની રોજની વ્યકિતગત જરૂરિયાતો પર ‘જયણાપૂર્વકનું નિયંત્રણ સ્વીકારે છે એટલું જ નહીં પણ, દરરોજ સવારના આ જરૂરિયાતની ધારણા કરે છે અને સાંજના
પ્રતિકમણના સમયે આ ધારણાનું બરોબર પાલન થયું છે કે નહીં તેના લેખા-જોખા કરે છે.
આવી રોજની તેની વૈયકિતક આવશ્યકતાઓમાં વ્રતધારી શ્રાવક સચિત્ત અચિત્તને વિવેક, ખાવાની ચીજોની સંખ્યાની મર્યાદા સ્વીકૃતિ, વિગઈઓને વિવેક, સૂવા, બેસવા, ઉઠવા વિ.માં ઉપયોગમાં લેવાના સાધનેની મર્યાદા જેવા બીજા નિયમોનો સમાવેશ થાય છે. (૧૧) પોપવાસ વ્રત:
પૌષધવ્રતની સીધી સાદી વ્યાખ્યા કરીએ તે એમ કહેવાય કે, ઓછામાં ઓછા ૧૨ કલાક–એક દિવસ કે અહોરાત્રી પૌષધમાં ૨૪ કલાક માટે સાધુ-શ્રમણ જેવું જીવન જીવવાની અર્થાત સાધક ભાવથી સર્વ પ્રકારની બાહ્ય (ગૃહસ્થ ધર્મની) પ્રવૃત્તિમાંથી નિવૃત્તિ લઈ આત્મસાધક વૃત્તિનો આચરણાત્મક આચરણ યુકત પ્રયોગ.
ઉપવાસના તપથી દેહ અને શરીરની બાહ્ય તથા આંતરિક વૃત્તિઓનું નિયંત્રણ કરવાનો પ્રયત્ન. (૧૨) અતિથિ સંવિભાગ વ્રત:
આ વ્રતના પાલન માટે શ્રાવકે અહોરાત્રિ પૌષધ દ્વારા સાધુશમણ જીવનની ૨૪ ટકા પૂરતી સ્વાનુભૂતિ કરવાની રહે છે. આ સ્વાનુભૂતિએ સંસ્કારનું સ્વરૂપ લીધું છે કે નહીં તેની પરીક્ષા બીજ દિવસે થાય છે. કારણ કે, આ અહોરાત્રિના સાધક જીવન વ્યતિત કર્યા પછી શ્રાવક ઘરમાં પાછો જાય છે. સાંસારિક આધી-વ્યાધિ, ઉપાધી અને સાંસારિક મેહમાયા તથા રાગ-દ્વેષયુકત વાતાવરણમાં પણ “એકાસણા ના તપની તથા સુપાત્ર દાનની ભાવના બનાવી રાખવી પડે છે. આ પછી પણ પાછું “ચૌવિહાર”નું પચકખાણ કરી શારીરિક સુખને અને વિશેષ કરીને ખાનપાનને સ્વૈચ્છિક ત્યાગ કરવાનો રહે છે.
આ પ્રક્રિયાનું મનૌવૈજ્ઞાનિક તથા શરીરશાસ્ત્ર અને માનવીય વ્યવહારના ( Human b. haviour ) આધારે વિશ્લેષણ કરીએ તે ખ્યાલ આવે કે આપણી (જૈન) ક્રિયાઓ, વ્રત-નિયમ તથા તપમાં વૈજ્ઞાનિક ( scientific realities) તથ્યોને કેવો વ્યવસ્થિત છતાં શ્રેય-સાધક ઉપયોગ કરવામાં આવ્યો છે. આ વિશ્લેપણથી આ લેખ સવિશેષ લાંબો થાય એ કારણથી અહીં આટલો નિદે શ (Indication cr Pointer) જ પર્યાપ્ત (suffic ) છે
અંતમાં શ્રાવકના ૧૨ વ્રત અર્થાત દેશ વિરતી ધર્મની આરાધનાને સરળ છતાં સ્પષ્ટ અને સત્યદર્શન કરાવતે અર્થ એ છે કે, જે જીવમાં આંશિક આત્મવીર્યનું પ્રગટીકરણ થયું છે તેવા આત્માએ માટે મર્યાદિત ફળ આપનાર છતાં સ્વેચ્છાએ સ્વીકારેલ “મને નિગ્રહ”ની આચરણાલુકત પ્રવૃત્તિથી જીવની કર્મબદ્ધ અવસ્થામાં અધ્યવસાય શુદ્ધિ અને આચરણા શુદ્ધિની પ્રવૃત્તિથી આત્માના સાધના–માર્ગને શુભારંભ થાય છે. બીજા શબ્દોમાં સર્વ વિરતીપણાની
UOUCH' (Experimental cr Practical) ugzudah મહાવ ( Practice 1 ) થાય છે.
આવો મહાવરો પૂર્ણરૂપથી મનોનિગ્રહની પરિણતી અને પ્રવૃત્તિમાં નિશ્ચયથી ( definately or Positively) સહાયરૂપ નીવડે છે. જે અંતમાં શ્રેય સાધનાની સિદ્ધીથી શાશ્વત સુખ અપાવવા સમર્થ બને છે.
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
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રાજનગર અને ગુરૂદેવ
[] બચુભાઈ ચીમનલાલ ધારૂ.
અમદાવાદ, રાજનગર !
જયાં જૈનેના ઘણી આબાદી અને ઘણા જૈન ધર્મસંસ્થાને. ધર્મ-ધુરંધર, પ્રકાંડ પંડિત પ્રવર જૈનાચાર્યોના પાદ કમળથી પાવન થતી આવી આ ભૂમિ.
વિસમી સદીમાં વિચરનારા જૈન શાસનના પ્રખર વિદ્વાન યોગી ઉત્કૃષ્ટ ત્યાગી ગુરુદેવ પ્રભુ શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિશ્વરજી મનું નામ જગતપ્રસિદ્ધ છે. વિહાર કરતા તેઓ અમદાવાદ પધાર્યા અને સં. ૧૯૪૧નું મારું અમદાવાદમાં થયું.
એ વખતે વાઘણપોળના શ્રી મહાવીર સ્વામીજીના દેરાસરની પ્રતિષ્ઠા થઈ રહી હતી. મુહૂર્ત બરાબર ન જણાતાં પૂ. ગુરુદેવશ્રી એ પ્રતિષ્ઠા રોકવા જણાવ્યું છતાં ન માન્યું. ગુરુદેવશ્રીએ અગ્નિપ્રકોપની જાહેરાત કરી અને ભયંકર અગ્નિપ્રકોપ થયો. જે રાજનગરના તે વખતના વૃદ્ધો સારી રીતે જાણે છે.
રાજનગરના આંગણે (થિરપુર) થરાદ નગરના હજારો ભાઈબહેને આજ નિવાસ કરી રહ્યા છે, થરાદ અત્યંત પ્રાચીન નગર છે, જ્યાં વર્ષોથી ત્યાંના નિવાસી ત્રિસ્તુતિક સિદ્ધાંતને માનનારા રહ્યા છે. જે લોકો કહે છે કે ત્રણ થય શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિશ્વરજીએ કાઢી છે એ વાત બિલકુલ અસત્ય છે.
અમદાવાદમાં એક સમય એવો હતો કે જ્યાં થરાદ નિવાસીએની સંખ્યા અત્યંત થોડી હતી. પરનું પરમ કૃપાળુ પૂજ્ય ગુરુદેવ પ્રભુ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરિશ્વરજી મહારાજની પરમ કૃપા દષ્ટિ અને એમના ઉપરની અટૂટ શ્રદ્ધાએ સંઘની વૃદ્ધિ કરી અને વર્તમાનમાં સંઘના ભાઈઓની ખૂબ સારી સ્થિતિ છે.
સં. ૧૯૯૪ની સાલમાં અહીં વસતા ભાઈઓએ ‘શી થરાદ જૈન યુવક મંડળની સ્થાપના કરી અને મંડળના ઉપક્રમે ધાર્મિક પ્રવું
ત્તિઓ અવાર નવાર થતી રહેતી હતી. ખાસ કરીને પર્યુષણ પર્વની આરાધના સામૂહિક સંઘ સ્વરૂપે કરવાની મંડળની પ્રવૃત્તિ અને લક્ષ્ય દર વર્ષે રહેતું હતું.
વર્ષો વીતતા ગયા અને મંડળના આગેવાનોએ ત્રિસ્તુતિક સંઘના ઉપાશ્રય બાંધવાનો નિર્ણય કર્યો. રતનપળ, હાથીખાનાના ચોકકામાં જમીન લેવામાં આવી.
પૂ. પા. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય યતીન્દ્ર સૂરિશ્વરજી મહારાજની પરમ કૃપા, પ્રેરણાથી શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જૈન જ્ઞાનમંદિરની યોજના સાકાર અને સંપન્ન થઈ! ભવ્ય જ્ઞાન મંદિરનું નિર્માણ થયું. મુનિરાજ શ્રી જયવિજય જીના સાનિધ્યમાં તેનું ઉદ્દઘાટન થયું. અને તેઓશ્રીનું મુનિ શ્રી પુન્યવિજયજી સહિત અહીંયા ચેમાસું થયું. એ સિવાય મુનિરાજશ્રી કલ્યાણવિજયજી મ., મુનિરાજ શ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી તેમ જ સાધ્વીજી શ્રી મુકિતશ્રીજી, લલિતકીજી, લાવણ્યશ્રીજી, સ્વયંપ્રભાશ્રીજી આદિ સાધ્વીજી મહારાજનાં ચોમાસાં થયાં. જેમની પ્રેરણાથી ધર્મ કાર્યની વૃદ્ધિ થતી રહી છે.
પૂજય ગુરુદેવ પ્રભુ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરિશ્વરજી મહારાજના નામમાં એ અદ્દભુત ચમત્કાર છે જેનું વર્ણન મારાથી થઈ શકે તેમ નથી. અમદાવાદમાં વસતા થરાદવાળા ભાઈઓ તેમ જ ખુદ અમદાવાદમાં વસતા ભાઈઓ ગુરુદેવને વિરલ વિભૂતિ તરીકે માને છે.
વર્તમાનાચાર્યદેવ શ્રીમદ વિજ્ય વિદ્યાચન્દ્રસૂરિશ્વરજી મહારાજની પ્રેરણા અને આદેશાનુસાર શ્રીસંધ દિવસે દિવસે પ્રગતિ પ્રયાણ કરતો રહે એ જ મંગળકામના છે.
સંઘના આગેવાનોમાં સંઘવી ગગલદાસ હાલચંદની સેવાઓ ઉલ્લેખનીય છે.
રાજેન્દ્ર જ્યોતિ
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ગૌરવવંતી ધરતી-થરાદની
0 લે. શ્રી ચંદ્રકાન્ત ભૂદરદાસ વોરા.
વિક્રમ સંવત ૧૦૧ માં ભીનમાલથી નીકળેલ થિરપાળ આ
• નગર વસાવ્યું હતું. થિરપુર, ચિરાદ, થિરા, થરાદ્ર અનેક નામો આ નગરનાં રહ્યાં છે. ઇતિહાસ પ્રસિદ્ધ આ ભૂમિને ‘લઘુકાશમીર' નું બિરુદ મળેલું છે.
થિરપાળ ધરૂનાં બહેન શ્રીમતી હરકુભાઈએ વિશાળ કાય ૧૪૪૪ માં સ્તંભનું જિન મંદિર બંધાવ્યું હતું. જે આક્રમણોને ભાગ બની ભૂમિ શરણ થયું હોય એવું સ્પષ્ટ જણાય છે. અહીંથી નીકળતી મોટી ઈટો, પથ્થરો અને કુંભીએ - એની એંધાણી રૂપ દેખાય છે.
થિરપાળ ધરૂના વંશજો એ સાતમી – આદમી શતાબ્દી સુધી અહિયા રાજ્ય કર્યું. એ પછી એમના ભાણેજ નાવેલના ચૌહાણ વંશજોએ છ પેઢી સુધી રાજ્ય ધુરાને સંભાળી. શાહબુદ્દીન ઘેરી અને કુતુબુદ્દીન ઈબરના બારમી તેરમી સદીના આક્રમણમાં ચૌહાણ વંશના છેલ્લા રાજા પુંજાજી રાણાનું મૃત્યુ થયું. એ પછી મુલતાની મુસલમાનોનું રાજય પણ થયું
ધરતીને કોઈ ધણી નથી થયો, જે થયા તે રહ્યા અને ગયા. અંતે ધરતી અહિંની અહિં જ રહી.
ઐતિહાસિક વર્ણન દેખતાં આ નગર અનેક રીતે પ્રતિભાસંપન્ન અને પ્રભાવશાળી પ્રવૃત્તિઓથી પરિપૂર્ણ હતું.
ચંદ્રકુળના આચાર્યદેવ શ્રી વટેશ્વર સૂરીશ્વરજી મહારાજાએ આ નગરના નામથી ‘થિરા૫દ્ર’ ગચ્છની સ્થાપના કરી હતી. આ સમયમાં આ નગરી ખૂબ જ જાહોજલાલીવાળી હતી એ નિ:સંદેહ છે.
મહારાજા કુમારપાળે પણ અહિયાં વિશાળકાય જિનાલય બંધાવ્યાનો ઉલ્લેખ પ્રબંધોથી જાણવા મળે છે.
અહીંના આરાધના પરાયણ સંઘવી આભુએ શ્રી સિદ્ધાચળ તીર્થનો રિ પાળતો મોટો સંઘ કાઢયો હતો. પેથડ શાહના પુત્ર ઝાંઝણ શાહ પણ સંઘ લઈને પાલિતાણા આવેલ, ત્યાં બને સંઘવીને ભેટો થયો હતો. * નાગરથી પુનડ શ્રાવકે વિશાળ સંધયાત્રાનું આયોજન કર્યું. સિદ્ધાચળજી જતાં થરાદ થઈને જવાનું હતું. પૂર્વ સૂચના ન હોવા છતાં જે સંધભકિત અહીં થઈ તે ઈતિહાસમાં આલેખાયેલ છે.
અહીં વિશાળકાય ભગવાન શ્રી પાર્શ્વનાથનું જિનાલય હોવાને શ્રી વિનયપ્રભ ઉપાધ્યાયીએ પિતાની તીર્થમાળામાં Tifક પાણી' લખીને કરેલ છે.
અહીંથી કડવાગરછીય યતિવર્ગને ખૂબ પ્રભાવ રહ્યો છે, ૧૬, ૧૭, અને ૧૯ શતાબ્દીમાં આ ગચ્છની અહીંયા પ્રભાવકતા વિદ્યમાન હતી. ૨૦ મી સદીમાં પણ આ ગચ્છના અનુયાયી હતા. અહીંના નિવાસી બધાય જેને, જેની માન્યતા ત્રિસ્તુતિક સિદ્ધા
નાની હતી, “દેવેપાસના વીતરાગવાણીથી વિપરીત પ્રવૃત્તિ છે' આ ગચ્છને મુખ્ય ઉદેશ્ય, ધ્યેય હતો.
વિક્રમ સં. ૧૯૩૬ માં કડવા ગચ્છીય શ્રી ધનજી સાજીજીએ પૂ. પા. ગુરૂદેવ પ્રભુ શ્રીમદ્ વિજ્ય રાજેન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજશ્રીને ધાનેરા મુકામે જઈ થરાદ પધારવા માટે સવિશેષ આગ્રહ કર્યો. કડવા ગચ્છની અને પૂ. પા. ગુરૂદેવશ્રીની ત્રિસ્તુતિક માન્યતાની ઐકયતાએ એમને ગુરૂદેવ પાસે જવા પ્રેર્યા હતા અને ગુરૂદેવના પદાર્પણથી સવિશેષ લાભ થવાનાં એમને ચિન્હો દેખાયાં હતાં.
પૂ. પા. ગુરૂદેવ પ્રભુશ્રીનું પદાર્પણ થરાદ સંઘના માટે ઉજવળ ભાવિની એંધાણી સમું દેખાઈ રહ્યું હતું. ગુરૂદેવશી પધાર્યા થરાદ (થિરપુર)ના આંગણે. ઉલ્ક ત્યાગ અને જ્ઞાન, ધ્યાનની સાક્ષાત મૂર્તિ સમા ગુરૂદેવના ચરણે શ્રીમાન સાજીજી અને સંપૂર્ણ સંઘે સ્વયંને સમર્પિત કર્યા અને ગુરૂદેવના પાસેથી શુદ્ધ સમ્યકત્વ પામી જીવનને વિકાસના માર્ગે વાળ્યું. અંધકારમાં પ્રકાશને મેળવ્યો.
સં. ૧૯૪૪ ના ચાતુર્માસ પૂ. પા. શ્રીમદ્ ગુરૂદેવશ્રીનું થરાદમાં થયું. અહિં. પૂ. ગુરૂદેવશ્રીની પ્રભાવક વાણીએ પારેખ અંબાવીદાસ મોતીચંદની ભાવનાને વેગ આપ્યો. શ્રી સિદ્ધાચળ-ગિરનાર તીર્થને છરિ પાળા સંઘ ગુરૂદેવશ્રીના સાનિધ્યમાં નીકાળવાનો પાવન નિર્ણય થયો. પારેખ અંબાવિદાસ સંઘપતિ બન્યા. એક હજાર યાત્રીઓ આ સંઘયાત્રામાં જોડાયા હતા. ૧૨૫ વિભિન્ન ગચ્છના સાધુ સાધ્વીજી હતા.
સં ૧૯૮૪ માં પૂ. પા. આર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજ્ય ભૂપેન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજનું ચાતુર્માસ થયું. તેઓશ્રીના સાનિધ્યમાં ઉપધાન થયું. અને તેઓશ્રીની શુભ પ્રેરણાથી શ્રી ધનચન્દ્ર સૂરિ જૈન પાઠશાળાની સ્થાપના થઈ જે આજ સુધી બરાબર ચાલી રહી છે.
સં. ૧૯૮૫માં ઉપા. શ્રીમદ્ મુનિરાજશ્રી યતીન્દ્રવિજ્યજી મ.નું ચાતુર્માસ થયું. આપશ્રીના પ્રભાવક અને પ્રેરક પ્રવચનેએ સંઘમાં શાન્તિનું વાતાવરણ સ્થાપિત કર્યું સંઘમાં ચાલતા લાંબા ગાળાના હિસાબી વિવાદોનો અંત કર્યો.
સં. ૧૯૯૫ માં મુનિરાજશ્રી હર્ષવિજયજી મહારાજના વરદ હસ્તે રસુથારા શેરીમાં શાન્તિનાથ ભગવાનની પ્રતિષ્ઠા થઈ અને તેઓશ્રીનું ચાતુર્માસ પણ થયું.
સં. ૨૦૦૧ માં મુનિરાજશ્રી હર્ષવિજ્યજી મહારાજના વરદ હસ્તે શ્રી આદિનાથ (ઋષભદેવ) ભગવાનની પ્રતિષ્ઠા થઈ. મુનિશ્રીનું ચાતુર્માસ પણ થયું.
સં. ૨૦૦૩ માં પૂ. પા. ગુરૂદેવ શ્રીમદ વિજય યતીન્દ્ર સુરીશ્વરજી મહારાજનું મુનિમંડળ સહ ચાતુર્માસ ઝવેરી ભૂદરમલ
વી. નિ. સં. ૨૫૦૩
૩૭.
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ત્રિભુવનદાસના વંડામાં થયું તથા સાધ્વીજી શ્રી કમળશીજી, હેતશ્રીજીનું ચાતુર્માસ પણ થયું. - સં. ૨૦૦૪ માં પૂ. પા. શ્રીમદ્ વિજ્ય યતીન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજ તથા મુનિરાજ શ્રી હર્ષવિજ્યજી મહારાજનું ચોમાસું શ્રી સંઘ તરફથી થયું. ચોમાસા પછી શ્રી મુનિસુવ્રત સ્વામીના દેરાસરની પૂ. આચાર્યશ્રીના વરદ હસ્તે પ્રતિષ્ઠા થઈ
સં. ૨૦૦૫ માં ગુણીજી શ્રી ગુલાબશ્રીજનું ચોમાસું થયું.
સં. ૨૦૦૭માં પૂ. પા. ગુરૂદેવ શ્રી વિજય યતીન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મ. નું ચોમાસું થયું. ચોમાસા પછી માહ સુદ ૬ ના રોજ શ્રી મહાવીર સ્વામી ભગવાનના વિશાળકાય બિબની પ્રતિષ્ઠા ભવ્ય ઉત્સવ સાથે પૂ. પા. આચાર્યશ્રીના હસ્તે કરવામાં આવી એ જ મુહુર્તમાં શ્રી અભિનંદન સ્વામીના દેરાસરની પ્રતિષ્ઠા પૂ. મુનિરાજ શ્રી હર્ષવિજ્યજી મહારાજના વરદ હસ્તે થઈ. સુથારા શેરીમાં પૂ. ગુરૂદેવ પ્રભુશ્રી રાજેન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મ. તથા શ્રીમદ્ ધનચન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મ.ની મૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી અને સેનારા શેરીમાં શ્રીમદ્ વિજ્ય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહાની મૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી
સં. ૨૦૦૮ માં સાધ્વીજી શ્રી ફલશ્રીજી, મગનશ્રીજી ઉત્તમશ્રીજીનું ચોમાસુ થયું - સં. ૨૦૧૧ માં પૂ. મુનિરાજ શ્રી હર્ષવિજ્યજી મ.નું ચોમાસું થયું અને મુનિશ્રીના સાન્નિધ્યમાં ઉપધાન તપ કરાવવામાં આવ્યું.
ગુરૂણીજી શ્રી હેતશ્રીજી, મુકિતશ્રીજીનાં ચાતુર્માસ થયાં. સાધ્વીજ
શ્રી હીરશ્રીજી લાલિત શ્રીજી આદિનાં ચેમાસાં થયાં. અનેક પ્રકારની ધાર્મિક પ્રવૃત્તિઓથી નગરમાં આનંદની છોળો ઉછળતી રહી છે.
સં. ૨૦૨૩નું માસું મુનિરાજ શ્રી શાંતિવિજ્યજી મુનિરાજ શ્રી જ્યન્તવિજ્યજી “મધુકર”નું ચોમાસું થયું અને સં. ૨૦૨૮ નું ચોમાસું પૂ. પા. આચાર્ય દેવશ્રી વિઘાચન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજનું થયું
સં. ૨૦૩૧ માં ૧૫૧ છોડનું ભવ્ય ઉજમણું શ્રી સંઘ તરફથી કરવામાં આવ્યું જે થરાદના ઈતિહાસમાં અવિસ્મરણીય કામ થયું.
ભવ્ય દીક્ષાઉત્સવો, અઠ્ઠાઈ ઉત્સવ, પ્રતિષ્ઠા ઉત્સવો અને ઉઘાપન ઉત્સવો ખૂબ સારી સંખ્યામાં અહિયા થયેલ.
અહિથી દીક્ષિત થયેલ પુણવાન આત્માઓ:
(૧) મુનિ શ્રી ચારિત્રવિજ્યજી (૨) મુનિ શ્રી જ્યનવિજ્યજી મધુકર” (૩) મુનિ શ્રી પુન્યવિજયજી, (૪) મુનિ શ્રી મુકિતચન્દ્રવિજ્યજી.
(૧) સાધ્વીજી શ્રી મનરંજનશ્રીજી, (૨) સાધ્વીજી શ્રી દર્શનશ્રીજી (૩) સાધ્વીજી શ્રી હીરાકીજી (૪) સાધ્વીજી શ્રી ભુવનપ્રભાશ્રીજી (૫) સાધ્વીજી શ્રી પ્રેમલતાશ્રીજી. (૬) સાધ્વીજી શ્રી પૂર્ણ કીરણાશ્રીજી (૭) સાધ્વીજી શ્રી કનકપ્રભાશ્રીજી (૮) સાધ્વીજી કશી કિરણપ્રભાશ્રીજી, (૯) સાધ્વીજી શ્રી કલ્પલતાશ્રીજી (૧૦) સાધ્વીજી શ્રી કુશલપ્રભાશ્રીજી (૧૧) સાધ્વીજી શ્રી હેમલતાશ્રીજી (૧૨) સાધ્વીજી શ્રી શશિકલાશ્રીજી (૧૩) સાધ્વીજી શ્રી શશિપ્રભાશ્રીજી
પ્રક્ષા સલામ -
પ્રકાશક : પૂજ્યપાદ મુનિપ્રવર શ્રી જયંતવિજ્યજી મ. “મધુકર”ની શુભ પ્રેરણાથી શ્રી “રાજેન્દ્ર તિ” વતી શ્રી શાંતિલાલજી સુરાણા.
રતલામ, - ૪૫૭C0૧. (મધ્ય-પ્રદેશ) ગુજરાતી વિભાગ : સ્ટેટ્સ પીપલ પ્રેસ, ઘોઘા સ્ટ્રીટ, ફોર્ટ, મુંબઈ-૪૦૦૦૦૧ (ફોન નં. ૨૫૫૮૩૧)
મા , પૈયા સ્ટ્રીટ ઠું, '
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RAJENDRA-JYOTI
ENGLISH SECTION
अष्टम खण्ड
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"The object of learning through reading scriptures is to destroy vices like pride, malice, jealousy, greed and desires in general. If these remain even after learning, then there is hardly any difference between a learned man and a fool. If one wants to become truly learned, he should take care to remove these vices from his heart.
-Rajendra Suri
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ROLE OF JAINISM IN MODERN INDIA
DR. B. H. KAPADIA
According to Jain Cosmography our present India is known as Bharatakhand, situated in the Jambudvipa. It is known and designated as Bharatakhand after the name of Bharata, the son of Lord Rsabhadeva, the first Tirthankara out of the twenty-four Tirthankaras of this "Avasarpini", a long aeon of time. The Jainas have divided time i.e. the Kalacakra into two main parts known as 'Utsarpini' and 'Avasarpini'. Each of these is divided into six aras', corresponding to the spokes of a wheel. The first Tirthankara, Lord Rsabhadeva taught to the then living humanity the three Rs. i. e. Reading, Writing and Arithmetic besides 'Brahmi' and other 'lipis' to the human world. Thus the seeds of culture and civilization were sown for the future generations of the humanity.
Jainism is a very old religion accoding to the Jainas. Lord Mahavira was a historical being, so also Lord Parsva and Lord Neminatha, the 22nd Tirthankara of the Jainas. Lord Neminatha is said to be related to and contemporary of Lord Krisna Vasudeva of the Hindus. Taking Lord Rsabhadeva as the first Tirthankara and the time that has lapsed between these Tirthankaras as is given in the Sacred literature of the Jainas. Jainism enjoys a hoary antiquity. There is reference to Jainism and its Tirthankara in the Bhagavata Purana of the Hindus. Not quarreling over its antiquity, we can safely surmise that the sacred land of Bharata is sanctified and purified by the trinity of three rivers in the form of Hinduism, Jainism and Buddhism. These three great religions of India have gone a long way in
bringing about a cultural synthesis and have established and developed and shaped Indian Culture and Civilization The cultural, social, economic and educational under-currents of these three streams have so undistinguishable merged with one another that it is next to impossible to pin point one or many things that has been solely contributed by one current only. The unision of these under currents is indivisible. Each one ultimately aim at 'moksa', absolution or Nirvana. Call it by any name it aims at the same goal.
The pristine purity and spiritual attainment of Jainism is indisputable. Right up from the early records of ancient history and antiquity the glorious might and contribution of Jainism is beyond dispute. Jainism and therein can be included Jain monks, religious pontifs, lay-men and women too who have added to preserve and sustain Indian Culture. The first Tirthankara, Lord Rsabhadeva taught his subjects cooking, building, construction, reading, writing etc. which enabled them to lead a happy social life. Kings like Kumarapala and Kharvel made Jainism a state religion. Personalities like Siddharaja patronised Jainism and gave impetus to literature, art, sculpture, painting, music etc. Even the muslim monarch Akbar listened to Jain pontifs and encouraged Jainism in developing Indian culture. Jain Saints like Haribhadra Suri and Kalikala Sarvajna Hemachandra arya are too well-known for their literary accomplishments. Such Jain monks have tried their deft hand on each and every genere of literature. Jains have written Mahakavyas,
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Kavyas, dutakavyas, samasyapuraka-Kavyas, dvisamdhana and saptasamdhanakavyas, puranas, grammear, works on rhetorics, kathas, akhyayikas, dramas, caritas, prabandhagranthas, scientific literature on astronomy, astrology, prosody, didacotic literature, commentaries on Sanskrit works etc. etc. To illustrate this by mentioning a few of the outstanding works will serve the purpose. Such works are Trisatisalakapurusacaritam, Upamitibhavaprapancakatha, Siddhahema, Kavyanusasana, Ganitatilaka, Paumacariyam, Desinamamala, Kathakosa, Joisasara, Karalak hana, Ristasamuccaya. Paialacchinamamala, Tattvarthasutra, etc. The Jains have written in all the principal languages of India They have written in Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa, old Gujarati, Gujarati, Hindi, Marathi, Tamil, Telugu, Malayalam, Kannada etc. South Indian languages owe a good deal for development as literary languages to Jainism and Jain saints. Apabhramsa language is the sole sphere of Jain authors. Jains have not lagged behind in art, architecture, sculptur, painting etc. The beautiful and world famous tcmples on Mount Atu, Acalgadha, Sammetsikhara, Satrunjaya, Girnar are enough to show the patronage and enthusiasm given to art and sculpture. Even among lay men we have such historical personalities like Jagadushah, Vastupala and Tejpal and in our modern times Jain monks like Vijay vallabhsuri, the Kesari of Punjab, Aga moddharak Sagaranandsuri, Muni Kasturvijayaji, Bhuvanavijayaji, Jamburijayaji etc, and philantropic Sheth Sri Kasturbhai Lalbhai.
Jainism is noted for activism. Its monks and nuns are ever vigilant and active. Buddhism that was born in India was propagated and promulgated outside India has been almost driven out from India; whereas Jainism has remained to this day in India on account of its Anekantavada, Ahimsa, and strict rules of conduct both for monks, nuns and laity.
atmana atmanam uddharet. So religion and spiritualism depends on an individual. Norms for this have been laid down but they cannot be rigorously pursued and executed.
Out of the four purusarthas of the Hindus Artha and Kama are of effect in the evolution of a state socially and econonically. The world of to-day has not remained isolated. The world has become much more complex as well as narrow in its geographical sense. One cannot show apathy to any event that may happen at a place thousands of miles away. It is bound to take effect socially and economically. The food habits, the way of wearing dress both of men and women, the cinemas, the T. V., the press etc. are slowly, succintly and imperceptibly mould the life of people in society. Let us take an example. The modern dress of ladies. One has to change the orthodox mode of thinking and accept this with standards of decency in view of its usefulness, utility and urgency as it helps fast walking, climbing, running etc. Similarly taking food before Sun-set. Even though one wished in a city of Bombay for men and women in service it is not feasible on account of distance. According to the Hindus the present aeon is Kaliyuga and according to Jainism it is the fourth ara of the avasarpini. Things are bound to shape in this way willy hilly. What I want to derive from these stiay examples is that religion has to evolve different norms otherwise the younger generation will go a way from religion and be apathetic to it. Just as in our temples we have brought in electricity, just as for lay men use of telephone, radio, T. V. etc. can never remain a taboo, just as going abroad cannot be stopped, so also religion if it has to survive in the present circumstances, it has to evolve differently!
Jainism is equated with Ahimsa. In our modern times it is useful in its threefold aspects. Practicing Ahimsa, will help the country. Jainism has another "Vrata' in the form of Aparigraha'. To-day people live and spend extravagantly because of black money. This 'aparigraha' will go a long way in moulding the life both socially and economically. If one has money and if he wants to spend why not give this extra money as donations to schools, colleges, Universities, hospitals, etc. Everybody has to be educated to-day. If money pours into such educational institutions, the society and the country is to benefit by it. Jainism has another 'vrata' in 1. There are. ANUVRATAS for Shravak and
Shravikas which they can practice according to their wish and circumstances. - Editor
Singing the past glory of a thing cannot be useful to us. The question that should haunt our mind is the roll of Jainism in our modern times. What can be its contribution in the development of India, culturally, socially, economically and spiritually.
The Sanskrit word for religion is dharma. It is derived from the root/dhr to sustain, to support and hence we have dharanat dharma ucyate. Jainism defines it as : durgation prapatanpranim dharyate its dharmah. All religions ultimately aim at absolution and it is to be attained by one's own endeavour as
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the name of Brahmacharya'. By effective practicing this Jainism can contribute in reducing the size of the family. During the history of last two thousand years the population has enormously increased in tne last century or so. Was India able to effectively control population owing to this important fifth *varta'? Jainism should look at these socio-economic problems that confront our country.
Jainism was and is noted for its largeness of heart. It has flung its door open to all irrespective of caste, colour and creed. So it has no problem of untouchability. Personalities like Harkesbhali & Matarya could embrace Jainism and attain the goal of mortal life even though down trodden and in servitude. The vast monetary funds with persons, institutions can be channelised to help youths to get jobs, setting up of new industries etc. and reducing the problem of employment. Jainism had a glorious past and it can effectively curve out a still glorious future it is can just accommodate the new values set up by the Government and change the routine attitude and perspective. The citizens are tempted to lead a free life, each illegitimately, indulge in a moral sexual life, eat and drink without restrictions and indulge in all sorts of sensual pleasures as a want of following five .Mahavratas' according to Jainism, 'Pancasila' according to Buddhism and salutary ‘vratas' like 'yama', 'niyama' etc. in Hinduism. Population explosion is the crux of the problem. As a result of this all the evils discussed so far cor
rodes the life of individuals. Jainism can give orientation, guidance and pin point the dangers during the course of religious discourseex in upasaras etc. For laxity in life, dress, drinks, foods etc. is even visible on religious occasions like Paryusana' also.
Thus to conclude, Jainism which has enjoyed such a glorious past in every sphere and walks of life can continue its past glorious heritage by playing the role of a religion which fosters aims, aspires for the goal that the present Indian Government endeavours to attain and realise. The 'vratas', the religious ceremonies, religious practices have to be so rationalised and re-oriented that they can well fit in with the change in time Religions cannot remain isolated from society and economic life; it has to be dynamic and not static. Jainism should feel the pulse of changing time and its needs if it wants to translate its past glory into a permanent reality. In the past Jainism was embraced and encouraged by Kings as I think it could translated its well-known philosophy known as Syadvada or Anekantavada. This philosophy of understanding and respecting the view-points of others is the crux of Jainism. If Jainism in modern times is able to bring about a synthesis between its ancient doctrines and social, economic, cultural and political needs of our present century, then it will shine with its glory and grandeur.
RELIGION The art of religion is the best of all arts, the story of religion is the best of all stories, the strength of faith is the greatest of all sources of strength and the happiness of salvation is the finest of all plesures.
JAINISM
Jainism is society-oriented and condemns individualism. It dispels falsc logic, it is true for all times and a destoryer of the darkness of ignorance.
-Rajendra Suri
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JAINISM IN SOUTH
There may not be any other religion in India which is as much misunderstood and misrepresented as Jainism. Many scholars have asserted that it is an off-shoot of Buddhism and a revolt from Hinduism. Even an eminent historian like Arnold Toynbee has asserted that Bhagavan Mahavira is the "founder of Jainism" and that the Jainas were "amongst the fossilized relics of similar societies now extinct." He has also said that the Jainas of India could be seen to be fossils of Indian society developing under the Mauryan Empire. Mrs. Sinclair has opined that "both Buddhist and Jaina orders arose about the same time, the sixth century B. C., a period when constant wars between various little kingdoms must have made the lot of the common people hideous with suffering and oppression; and a man might well have longed to escape from all fear of rebirth into such a sorrowful world......"
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T. K. TUKOL
Popular opinions like these have been oblivious to the advances that have been made by numerous research scholars, both Eastern and Western. The Vedas, which according to Hinduism are a revelation, contain verses in adoration of Surya, Indra and Agni. Jainism rejects the authority of the Vedas but the Vedas, however, refer to some of the Tirthankaras. The Rigveda contains references (astak 2, Varga 17) to Arishtanemi, the twenty-second Tirthankar while the Yajurveda refers to three Tirthankaras; Rshabha, Suparsva and Neminath (cantos 25 and 92). Dr. S. Radhakrishna accepts the tradition of the Jainas who ascribe the origin of their system to Rshabhadeva who lived many centuries back. He also
INDIA
mentions that the Bhagavat Purana endorses the view that Rshabhadeva was the founder of Jainism. The Manusmrti contains a verse which states that in the beginning of the age (yuga) was born the first Jina to Marudevi from the eighth Nabhi Manu, who was the hero of action, saluted by the Gods and demons and propagated the rules of ethics. Besides mentioning these facts, the Bhagavat Purana gives details of advice which Rshabha gave to his sons; that advice is consistent with the principles of Jainism.
The finds in the excavations at Harappa and Mohanjadaro offer convincing support to the view that Jainism is an ancient religion, quite independent of any other. Sir John Marshall's monumental works refer to the seals found during the excavations of Mohanjadaro. The figures on plates xii and cxviii have been studied and are found to resemble Jaina yogis in the Kayotsarga posture. Prof. Prana Nath Vidyalankar has said that the inscription on Indus seal No 449 reads according to his decipherment as "Jinesharah." These excavations are said to be more than 4000 years old. "There can be little doubt" observed Sir C. V. Kumarswami Sastriar, the Chief Justice of the Madras High Court, the Jainism as a distinct religion was flourishing several centuries before Christ." One can, therefore conclude, without fear of contradiction that Jainism is a pre-vedic religion which flourished in India even before the advent of the Aryans to this country.
While the aforesaid conclusion is unassailable, there is not that convincing evidence about the
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cxistence of Jains in the South even prior to the advent of the Aryans. Dr. P. B. Desai, while writing about the existence of "Jainism in South India" has mentioned that literary tradition in the Andhra Desa testifies to the visit of Lord Mahavira in the 6th century B. C. to the northern frontiers of Andhra Pradesha, then known as Kalinga desa for the propagation of his gospel. Nayasena, a Kannada poet who composed his Dharmamitra in 1112 A D. had referred to Dhanada, a Jain prince of the Ikshvaku family, ruling over the Vengi Mandala which is identified with the territory of the Andhra Pradesha lying between the rivers Godavari and Krishna. There is evidence to show that Samprati, the grandson of Ashok had sent Jaina missionaries to preach their religion to this part of the country The Satavahanas who ruled over the Andhra Pradesh were known to be patrons of Jains. There are many legends and traditions characteristic of Jaina faith attributed to this period of history.
Mahavamsa which is a Buddhistic work expressly refers to the prevalence of Jainism in Ceylon during the 4th century B. C. There is no reason to doubt the veracity of the references in the book. The inevitable conclusion to be drawn from these references is that the followers of the Jaina faith must have migrated to the South much prior to the 4th century B. C. and also settled in Ceylon.
That the Jainas migrated in large numbers is further strengthened by the fact that Bhadrabahu migrated to the South along with his royal disciple Chandragupta Maurya and about 1200 monks and nuns, when he foresaw with his insight that there was to be a severe famine in the North. An inscription of the 6th century A. D. found on the Chandragiri Hill at Sravanabelgola reads as follows: "Success, be it well. Victory has been achieved by the venerable Vardhamana, the establisher of the holy faith and the embodiment of the nectar of happiness resulting from the perfection attained; who has acquired supreme honour in the world by his inconceivable greatness and has attained the great position of an Arhat by the abundance of his religious merit which procured for him the name of Tirthankara...... Now indeed, after the sun of Mahavira ...... had set, Bhadrabahuswami, of a lineage rendered illustrious by a succession of greatmen who came in regular descent from the venerable supreme rishi Gautamaganadhara, his immediate disciple Loharya, Jambu, Vishnudeva, Aparajita, Govardhana, Bhadrabahu, Visakha, Proshthila, Krittikarya, Jayanama, Siddhartha, Dhritishena, Budhila, and other
teachers, who was acquainted with the true nature of the eight-fold great omens and a seer of the past, present and future, having learnt from an omen and foretold in Ujjayani a calamity lasting for a period of twelve years, the entire sangha (or Community) set out from the North to the South and reached by degrees a country counting many hundreds of villages and filled with happy people, wealth, gold, grain, and herds of cows, buffaloes, goats and sheep.... Then separating himself from the Sangha, an acharya Prabhachandra by name, perceiving that but little time remained for him to live and desiring to achieve samadhi, the goal of penance associated with right conduct, on this high-peaked mountain--which forms an ornament to the earth and bears the name Katavapra....bade farewell with the herds of boars, pathers, tigers... dismissed the sangha in its entirety, and in the company of a single disciple, mortifying his body on the wide expanse of cold rocks accomplished samadhi..... And in course of time seven hundred rishis similarly accomplished samadhi.... Victorious be the doctrine of Jina."
The hill acquired the name of Chandragiri on account of association with Chandragupta Maurya. The oldest temple on the hill is called Chandragupta basti. There is a cave in which there are foot-prints carved out and is known as Bhadrabahu cave. There are thirty-one inscriptions on this hill which refer to Bhadrabahu and Chandragupta.
These inscriptions cannot be brushed aside as referring to a fictitious incident. Vincent Smith, who has written a history of ancient India, admits the historicity of this event as having a “solid foundation in fact." While subscribing to this view, Prof. S. R. Sharma states that it was a period of vigorous prosperity."' B. L. Rice R. Narasimhacharya and Dr. S. A. Saletore have accepted the trustworthiness of the historical events as recorded in the inscriptions at Sravanabelgola. It would be most reasonable to infer that there must have been good population of Jains in South India to welcome Bhadrabahu, his twelve hundred disciples as also his royal devotee. Bhadrabahu would not have thought of the South in case he wanted to save the Sangha from starvation and hardship. There must have been sufficient number of religious-minded and rich Sravakas and Sravakis who could look after the munisa ngha.
It is expressly stated in the inscription at Sravanabelgola that many of the saints in the Sangha went further to the South Like Asoka, his grandson Samprati spread the Jaina religion by construction of
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temples and stupas. We find inscriptions in the Brahmi script in the caves of Ramanad and Tinnavalli situated within state of Tamilnadu. Even the Tamil literature establishes the existence of Jainism in this part, since apcient times. The last lamented Prof. Chakravarti held the view that the most famous book Tirukkurul was composed by Kundakundacharya. Tolkappiyam another old book in Tamil literature bears the most striking impress of Jaina concepts of religion and the universe. Dr. P. B. Desai has observed that another Tamil work Naludiar is couched in Jaina associations. According to tradition, this work is a composite composition of eignt thousand Jaina monks departing from the Pandyan kingdom against the wishes of its ruler who was attached to their faith, as stated by Prof. Chakravarti in his book on Jaina Literature in Tamil
Even to this day, we find numerous remniscences of Jainism speaking of its glory in the Tamilnadu. King Pandukabhaya who ruled this part in the fourth century BC. constructed in and round about his capital Anuradhapura many caves and rest houses for the Nirgrantha munis, as borne out by the Prakrit inscriptions. He also erected a temple in the city. This is an important landmark in the history of Jainism. Rajawalikathe, a Kannada composition of Devachandra, contains a number of collections of legends and traditional accounts of the Chola and Pandyan rulers of ancient Tamilnadu. There is epigraphic evidence to show that Visakhacharya visited this part of the country along with his disciples, as directed by Bhadrabahu and preached the tenets of Jainism to the inhabitants who were already familiar with the doctrines of that religion. This shows that even in the third century B. C. there were people who were followers of the Jaina religion. The research scholars of the Ephigraphist's office at Madras have discovered many caves on various hills; those caves contain beds carved out in rocks. Such caves are to be found in the hilly regions of Pudukottai, Madura and Tinnevelly districts of the state. There are water facilities near the caves, thus implying that ascetics must have lived in seclusion in these caves. Near the caves found on the hills like Annamalai, Marugaltalai and Sittannavasal, there are inscriptions carved in the Brahmi script but the language is Paisachi Prakrit.
Dr. P.B. Desai has noted that near the caves at Tirupparankuram, there are naked figures with cobra hoods indicating that they must be of Parsvanath Tirthankara. In the caves of Muttupatti, there are sculptures of Jaina deities on the boulders sheltering the beds. Many Jain idols have been sculptured in the
rocks on the Poygaimalai Hill. There are many other hills which abound in Jaina relics of early age. There are many such relics on hills in the districts of Arcot, Madura and other districts.
Kanchi and the area round about seem to have been the resort of Jainas under the Pallava Kings. Near Kanchi, there was the monastery of a Jaina monk by name Dharmasena; there are two temples dedicated to the Tirthank ars Vrshabhadeva and Vardhamana, which are supposed to have been installed by Mahendravarman I, the Pallava King at the instance of his teachers Mallishena and Vamana. At a distance of two miles from Conjcevaram, we have a place called the Jaina Kanchi where there is the big idol of Bhagavan Vardhamana popularly called Trailokyanathswami. There is a large number of Jaina icons preserved in this place. One strange feature is that in this area there are many figures of Yaksha and Yakshinis carved out in many temples, leading to the inference that the worship of these guarding dieties was.current in 800 A.D. or so.
Tirumalai hill hear Polur is a famous centre of Jaina antiquities. The village has a number of Jaina families. They are in possession of a number of Jaina scriptures on palm leaves in original Samskrit or Prakrit with Tamil commentary: Trailokya Chudamani, Tattvarthasutram, Jeevandharacharitamu, Gunabhadra's Mahapurana etc. There are epigraphs which relate to the period of Krishna Ill of the Rashtrakuta period (957 A.D.). Ponnur appears to have been an important centre where there is big idol of Adinatha Tirthankara; there are many icons of which the notable icon is that of Jwalamalini. A Dravida monk by name Helacharya is reputed to be the originator of the cult of Yaksha and Yakshini worship which is more popular in the South han in the North. There are many places in the North Arcot, South and Chingelput Districts where Jains are found in good numbers.
Of all the States in the South, the Karnataka State is undoubtedly the richest from the points of Jaina Art, Architecture and literature. Sravanabelgola which was hallowed by the visit of Bhadrabahu in third century B. C later became the centre of pilgrimage when Chamundaraya erected the monolithic statue of 571 ft. in height on the Vindhyagiri Hill in about 981 A. D. It is unique from the point of its magnificence, grandeur and divine expression of smile on its face. A similar statue of Bahubali measuring 41 ft. is to be found at Karkala installed in 1432 A.D, while a third one measuring 35 ft. in height at Venur was erected in 1604.
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of twenty-four tirthankaras with the most beautiful carved images of Dharnendra and Padmavati. Perhaps, the images seem to have been carved by the same sculpture who made identical images at Sriranagpatna situated at a distance of ten miles from Mysore.
It is worthy of notice that each of the three has been carved out of a single rock and "commands respectful attention by their enormous mass and expression dignified serenity". They are all colossal statues of unrivalled dignity, as if preaching the Jaina message of Ahimsa and truth from the hilltops to the entire world. Kannada poets, ancient and modern, have sung the glory and grandeur of their monolithic calm and perfect harmony. The facial expression of each of these statues is one of dep contemplation. They however differ in the degree of perfection attained by the artist, the one at Sravanabelgola being superb in every respect.
The Jaina temples erected all over the South India are another contribution of Jainism to the architecture of India, if not, of the world. The manasthambhas or the tall standing pillars in front of most of the temples are wonderful conception. "In the whole range of Indian art", observes Smith, "there is nothing, perhaps, equal to these Kanara pillars for good taste", and decorative sculpture. The temples at Mudabidri have left a permanent impress on Indian architecture. Fergusson who is an authority on Indian architecture has observed that "nothing can excel the richness or the variety with which they are carved. No two pillars are alike, and many are ornamented to an extent that may almost seem fantastic. Their massiveness and richness of carving bear evidence to their being copies of wooden models. The Tribhuvanatilaka Jinalaya temple is a marvel of Jaina architecture". There are temples of exquisite beauty at Coorg. The temples at Sravanabelgola, Jananathpura, Hansoge and Halebcedu are spacious with individuality of their own. The pillars in the Shantinath Temple at Halebeedu have been so polished that the reflections of the individuals looking at them convey different figures both in size and posture. Similarly, the pillars of the temple at Belgaum are highly polished and strongly magnetic. The Chaturmukha-bastis at Mudabidri Laxmeshwar and Gersoppa are the best models of four-faced temples.
There are numerous temples at Aihole, but today there are Jaina images only in three temples, the Meguti temple being the most famous. The temple at the darga area of Bijapur has the idol of Bhagavan Parsvanath with a thousand-hooded Cobra. Banavasi and Bhatkal which were ones ruled by Jaina Kings have exquisite temples. At a distance of ten miles from Bhatkal, there is a place called Haduhalli deep in the midst of hills surrounding the area, there are three temples; one of them has beautiful images
In a short article like this, it would be impossible to give details of the numerous temples to be found in Karnataka and Tamilnadu. The temple adjoining the Math at Sravanabelgola and the cave temple at Badami bear witness to the wall-paintings which are clearly visible on the walls inspite of the lapse of hundreds of years. In the former, we have a picture of a Samvasarana with Bhagavan Parsvanath preaching the eternal doctrines of Jainism. The others illustrate the Jaina concept of lesyas of samsara and other puranic stories. There are some wall paintings at Kanchipuram and Tirumalai in the State of Tamilnadu. Aparat from these wall-paintings, we have manuscripts of Kalpasutra and of Bhaktamarastotra which illu trate the subject by means of paintings on the palm-leaves.
All the unique art and architecture would not have flourished in the South or the dakshinapatha if it had not been the stronghold of Jainism "since a hoary antiquity". Nandas, Mauryas and Satavahanas were rulers of the Deccan who patronised Jainism and promoted its spread. The Kadambas and Gangas were Jaina Kings. The Kadambas of Banavasi and the Chalukyas who suceeeded Pallavas, were undoubtedly Jains. It is noteworthy that Simhanandi who was a famous Jaina Acharya was the Guru of the Ganga Kings, Madhava and Dadiga. Their capital was Kuvalalapura which is identified with modern Kolar in Karnataka. They ruled in about 250 A. D. Harivarma, the grandson of Kongunivarma (or Madhava) shifted his capital to Talahadu. Avinita, who hailed from this dynasty, was a great ruler of learning and earned a name for his just administration. Vijaya keerti who was wellversed in the Jaina scriptures was his Guru and adviser. Avinita's son Durvinita ruled in 482 A.D. under the guidance of the famous Jaina Acharya Pujyapada. Gangas were also a famous Jaina dynasty of Kings who ruled over Karnataka for about 300 years and had extended their kingdom as far as Nepal. Marasinha-1 was a famous ruler whose prowess finds description in the inscriptions at Sravanabelgola in 866 A.D. (No. 38). He was a brave king and defeated the Chera, Chola and Pandya kings. He was not only learned in the Jaina scrip
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tures but also became a monk by being initiated into sanyasa by Guru Ajitascna who resided in the temple at Bankapura which is still standing as a monument in memory of the great Acharya and of the death by Sallekhana by Marasimha II in 975 A.D. as testified to by an inscription.
Chamundaraya was the Prime Minister of Marasimha and served the latter's son Rachamalla in that capacity as also in the capacity of a general. Anybody who has read the Ephigraphia Caranatica Vol. I will know how much Chamundaraya has been extolled for his valour, generosity and statesmanship. It is he who got the image of Bahubali at Sravanabelgola carved out. His Guru Nemichandra who is famous as a Siddhant-Chakravarti wrote a book on Jaina philosophy which he named as Gommatasara. Chamundaraya was himself a learned scholar and the purana that he wrote is known as Chamundaraya Purana. He also wrote a book in Samsrit known as Charitrasara. His contribution to Jaina art, culture, religion and philosophy is unique, not equalled by any other political figure in history.
The Chalukyas who ruled from 419 to 1156 A.D. were great patrons of Jainism in Karnataka. Among them Pulakesi I is very famous in history. He is also called Satyasraya and was the patron of Ravikirti whose famous inscription in Samskrit found at Aihole is noted for its diction, poetic grandeur and linguistic excellence, comparable only with that of Kalidasa. Vikramaditya II of this family is also famous in history. His queen Jakaladevi was a Jaina and built a temple at Ingalagi. It is this dynasty that patronised Pampa, the great poet and author of Adipurana.
acts of piety and religion to advance the cause of Jainism. One of his generals was a Jaina lady by name Jakkiyabbe who was compared to Sita and Rukhmini. The treasurer was Hulla who built the famous temple Bhadrachudamani at Sravanabelgola, having installed idols of 24 Tirthankaras. He granted many lands in charity to the temples at Sravanabelgola, Koppal and Bankapur.
The period of Rashtrakutas (757 A.D. to 973 A.D.) was a glorious period in the history of Karnataka Jainism. Amoghavarsha was a Saina. He was also called Nrpatunga. His book Kavirajamarga which is the first work in Kannada, mentioning the earlier writers. The Jayadhavala-tika was written by Virasenacharya under his patronage. Jinasena, the author of Parsvabhyudaya, was his Guru and has blessed his royal pupil at the commencement of his book. Amoghavarsha is credited with the authorship or Rainamalika and has been praised by his co-pupil Gunabhadra for his wisdom and learning. Dr. R. G. Bhandarkar has stated that of all the Rashtrakuta kings, Amoghavarsha was the greatest patron of Jainism... "There are many other kings of this dynasty who ruled in different parts of Karnataka.
The Hoysala Kings were also Jainas. The first king Poysala studied under a Jain monk by name Sudatta. Vinayaditya Il was the most powerful king of this dynasty and Shantideva Muni was his Guru. Ballala was another king of this line. Bittideva who was a famous king was converted to Vaishnavism by Ramanuja but his famous queen Shantaladevi who continued to remain a Jaina was the patron of art and literature. She built temples at Sravanabelgola and Halebeedu with the blessings of her Guru Prabhachandra. She adopted the vow of Sallek hana and died at Shivaganga as is borne out by an inscription at Sravanabelgola, though Shri K. V. lyer has wrongly stated in his novel entitled Shantala that she committed suicide. Bittideva's goneral and prime minister Ganagaraja was a Jaina who under the guidance of his Guru Subhachandra did many
Among the Kalachuri kings that ruled (1156-83 A.D.) over Karnataka, mention must be made of Bijjala. He was a king of great religious tolerance and had Basaveshwar of the Veerssaiva faith as his minister. In a contest between Jainas and Lingayats at Ablur, Bijjala is credited to have given a decision in favour of the latter. He ruled at Kalyana which is today named as Basava-Kalyana. It is most unfortunate that Bijjala was murdered and a large number of Jainas were converted into Virasaivas. The Ratta kings were another dynasty of Jaina rulers who have left their mark at Suandatti, Huli and Belgaum where they constructed some temples. The inscriptions traced from this area speak of their faith. Under the Vijayanagar Kings, there were many Jaina ministers and generals. During the periods of Ramanuja in Karnataka and of Saivas in the Tamilnadu, there were many persecutions of Jains who were converted to Vaishnavism or Saivism.
As Dr. Maurice Winternitz has observed, "it would take a fairly big volume to give a history of all that the Jainas contributed to the treasures of Indian literature. "The most noted writer in South India is Kundakunda whose numerous works on various aspects of Jaina philosophy, metaphysics,
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epistomolgy and logic number more than 84. Umaswati's Tattvarthasutra is known as the Jaina Bible. Pujyapada, Akalanka, Vidyananda, Prabhachandra and Srutasagara are some of the Jaina commentators from the South on Tattvarthasutra. Samantabhadra's Ratnakarda nda-Sravakachara is a popular work on Jaina ethics. He has written many other books. Prabhachandra and Vidyananda are the other writers in Samskrit whose names must be mentioned with respect. Jinasen's Adipurana is quite popular.
Dr. Saletore has stated that "the Jaina teachers. as the intellectual custodians of the Andhradesa, the Tamil land, and Karnataka most assiduously cultivated the vernaculars of the people, in wrote in them great works of abiding value to the country. Almost all the early Jaina writers were profound scholars in Samskrit and the renowned classics in Tamil, Telugu and Kannada were produced by them. "So far as Kannada literature is concerned, R. Narsimhacharya who has written three volumes of Kannada literature, has called the period of Jaina writers as the Augustan Age of Kannada literature". I have already referred to the earliest work : Kaviraja-marga which is the only work that mentions the boundaries of Karnataka as having spread from Godavari to Kaveri. The author has mentioned the names of earlier writers who were also Jainas. Pampa, Ponna and Ranna are called the Ratna-tray as of Kannada literature. Each of them composed a secular work as also a religious purana to serve the cause of the public as also of their own religion. Pampa's Vikamrarjuna-Vijay and Adipurana, Ponna's Bhuvanaik aramabhyudaya and Shantipurana and Ranna's Gadaddhya and Ajitapurana occupy a special place of pride in Kannada literature on account of their poetic excellence and grandeur of conception. All the three poets flourished in the tenth century. Then came Nagachandra or Abhinava Pampa whose Ramayana and Mallinathapurana are unique for their descriptive power and facility of expression. E. P. Rice considers the Ramayana as unique since it preserves the Jaina version of that epic. Wadduradhane of Shivakotyacharya and Chamundaraja Purana of Chamundaraya are the only two earliest works in prose. Kabbigarakava of Andayya and Dharmamrita of Nayasena are two works which were written in pure Kannada without the use of Samskrit words. Nemichandra's Lilavati is a beautiful poem.
The contribution of Jaina writers and poets to Kannada literature has been so rich and varied that it forms a glorious chapter in the history of Kannada
literature. Kesiraja's Sabdamanidarpana is a standard work on grammar and linguistics and stands unequalled to this day. Bhattakalanka Deva has written another valuable work on grammar, prosody and linguistics. Sridharacharya wrote a book on astrology while Jagaddala Somanath has written a book entitled : Kalyana-Karaka on medicine. Rajaditya has written a book on mathematics. Brahma Kavi has written a book called Samaya Pariksha on Jaina ethics. Bharatesha Vaibhava of Ratnakar Varni is a marvelous poem on the life of Bharat.
I have already referred to a few important works of Jaina poets in Tamil. Yasodhara Kavya, Chudamani, Udayanan Kathai, Nagakumara Kavyam and Neelakeshi are some of the Kavyas written by Jaina authors. Sripurana is a popular poem among the Jaina.
There were some Jaina writers and posts in Telugu but many of their works have not been availavie. As Dr. S. Krishnaswami Iyengar says: "There must be a Jaina period in Andhya Literature before thc IIth century as in Kannada Literature, the absence of which is a mystery to be solved by historians. "Adharvanacharya was a poet well-versed in Samskrit and Telugu. He is said to have written a book on prosody and grammar at the beginning of the 13th century. Gokarna is another poet who wrote a book entitled "Kavijanasraya" Padma Kavi has written Jinendra Purana while Sarvadevayya has written Adipurana.
It is a unique feature of Jaina writers that they have contributed works of literary merit in all Indian languages. As Dr. Maurice Winternitz has said : "It would take a fairly big volume to give a history of all that the Jainas have contributed to the treasures on Indian literature." There is no Indian language in which the Jainas have not contributed to the secular or religious literature of different languages in our country. They were men of broad outlook, identified themselves with the people of the region where they settled and tried their best to enrich the spiritual, social and literary thoughts of that region. This speaks of their catholicity and mastery of languages.
Today....the followers of Jainism are an insignificant religious minority in these areas in contrast to the rich contributions which the Jaina monks and laymen have all along made to the cultural heritage of this part of our land. There are Jaina caves on secluded but inspiring spots; there are temples which are fine specimens of art, sculpture
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JAINISM
IN TAMILNAD
S. Gajpathi Thiruppahamoor,
ON THE AGE OF JAJNISM IN TAMILNAD
Dhammo varthusahavo khamadi bhavo ya dasaviho dhammo Rayanattyam ca dhammo jivanam rakkhanam Dhammo
Dharma means nature of substance and that is same as the ten virtues (supreme forbearance, modesty, etc.) the three gems (right belief, right knowledge and right conduct) and non-violence.
Sri Mylai Seeni Venkatasami in his book "Samanarum Tamilum (Jainism and Tamil literature) writes that Lord Krishna sent 18 velirs to the Tamil coun. try and that they established Jainism in South India. He has also mentioned that from the Buddhist work Mahavamsa it is learnt that Jainism was a prominent religion in Ceylon before the 4th century B.C. It also adds that Pandukabayau who ruled over Ceylon from 377 to 307 B.C. arranged for the construction of monastaries for Jain monks at Anuradhapuram
These are the true characteristics of the pure self. Thus the term Dharma particularly refers to the nature of the soul substance. It is because that the selves only possess knowledge and in the absence of knowledge the whole universe will remain unknown and that state of the universe is as good as its non-existence.
Whether, Jainism the science of nature, was taught in the land of the Tamils by the omniscient Jinas personally or the Jaina ascetics, the torch bearers is the question.
Tradition claims the Lord Rishabha, the first Thirthank ara (provider of the vessel to cross the ocean of Samsara or the cycle of births and deaths) also known as Adi Bhagwan, Adinatha etc., propo. unded Dharma all over Bharat and princes from the Tamil country too were stated to be present in his Samavasarana (preaching hall). Jaina Harivamsa Purana written by Jinasenacharya I mentions Lord Neminatha, a cousin of Lord Krishna, visited Southern Madhura and that only there that the Pandvas took up to asceticism under him.
Sri S. Padmanabhan in his book The Forgotten History of The Land's End writes that presumably the Jaina monks who were in Ceylon migrated from India through Kanyakumari, to the south of which was a large mass of land. subsequently swallowed by sea. The facts that the Jaina doctrines do not allow the monks to cross the sea must be remembered here.
All these are quite probable because that without existence of a stronghold of Jainism in Tamil Nad, and that it takes a long time for a place to become a stronghold of any one faith, Srutakevali Bhadrabahu would not have ventured to send the Sangha of 1200 monks under Visakacharya to the Pandya kingdom in near about 300 B.C. This event of course is admit. ted as an historical fact.
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Jainism being the science of natural, mathematics, physics, astronomy etc. are its allied subjects. As Jainism needs a good vocabulary for the precise expression of all these subjects, perfection of literature. lexicon and grammar are inevitable. Jaina ascetics did rise to the occasion. Major works on Tamil literature, lexicons and grammar are the contributions of the Jainas. These will be detailed later on.
Jaina Doctrine of Non-Violence Deep Rooted in Tamil Culture
Nature is beginningless and endless. As nature is inherent in the substance, souls and other substances are self-existent, self-sufficient. unalterable and indivisible.
Like the beginninglessness of souls and sub particles of matter their bondage too is beginningless. But not endless because like milk and water the bondage is a mixture and hence separable. Therefore all the souls are heading towards attaining their pristine purity, the natural state termed as God. In other words it is the effort of Jivatma to become Parmatma Merging with God is not different from becoming God in sense. Nature may differ in different substances, but not among the individuals of a class substance like souls and sub-praticles of matter. Hence Godhood is attainable by every self. Therefore Jainism accords great sanctity to every form of life. Non-violence to himself and to every other living being its main theme of ethics or right conduct and the perfect observance of it leads to the goal of life.
The triple defects delusion, desire and aversion cause violence to the very self having them by way of renewing the Karmas and perpetuating the cycle of births and deaths and it is only that passionate self who behaves violently with others. Observance of non-violence on other living beings is curbing of desire and aversion and that is same as observing non-violence on himself to a limited extent. Conquering of delusion or becoming enlightened of the reality and the elimination of desire and aversion is observance of perfect non-violence on himself and other living beings.
Irrespective that Jainism lost its vast majority of direct adherents; its main theme, the principle of nonviolence is deep rooted in almost every one in Tamil Nad. Nowhere in India excepting in Tamil Nad that the Brahmins are vegetarians and lose not the observance of this sacred principle wherever they go and live. All the higher communities in Tamil Nad are
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vegetarians. Vegetarian food is known as Saiva food in Tamil Nad. Saivism and Vaisnavism of the Tamil country, the off shoots of Jainism observe strict vegetarianism and non-violence. The Saivaites proclaim Anbe Sivam' meaning love is God.
Mr. S. Padmanabhan writes (page 44 'Forgotten History of The Land's End') "They have adopted many doctrines of Jainism especially vegetarianism and concentrated on temple worship in place of Yogas to attract people. Thus the Hindu religion swallowed Jainism by absorbing all its doctrines."
It is not the Saiva Siddhanta and Visistadvaita that in any way affected Jainism but the Bhakti Cult munis their thoughts insisted on good conduct in addition. As an example Peria Puranam states Silam Ilare Eninum Tiruniru Cerndaraijnalam Pugalum i. e. even if the person is obsolutely devoid of good conduct just if he applies the ash cover his forehead and body that forms the sign of his devotion to Siva) it is enough that the world praise him.
Jainism too insists on Bhakti or devotion to the path finder Jina. It is one step in the ladder of selfrealisation but not all in all as in the Bhakti cults. Appreciation of the qualities of the realized self that is same as God is devotion in Jainism. It is worship of the ideal and not the idol. Godhood is attained by the distruction of delusion, desire and aversion. Devotion to God also is desire as it concerns an external object. It is desirelessness that leads to self-realization (Ava Nippin Annilaiya Pera Iyarkai Tarumtirukkural-370)
Sri Puliyur Kesigan in his preface to his book A Clear Commentary on Naladiyar writes that in the fertile and prosperous land of the Tamils in ancient times prevailed drinking, gambling, meat eating and prostitution. The Jaina monks writing many ethical works in Tamil have sown the seed of culture Even though the Jains have disappeared in Tamil Nad their culture has become one with the Tamils. Jain Contribution to Tamil Literature:
We are able to understand from the verses quoted by the commentators in their commentaries that many Jaina Tamil works are lost to the world. Major ones are Valayapati, Naradar Caridam, Santi Puranam, Rama Khadai, Purana Sagaram, Mal'inatha Puranam, Vardhamanam and many other works on grammar, music, drama, mathematics and astrology. The list is long
Peragattiyam the great grammatical work of Agastiya is available in fragments. The publisher
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Sri Bhavanandam Pillai has given the original prayer verse. The substance of it is Worshipping the feet of the Lord (Jina) of the eight supreme qualities infinite knowledge, infinite perception etc. I shall explain the (rules of) grammar.' This proves that it is a Jaina work.
The phrase Ella Nattilum I valuadu Pakatam appears in this work. Commenting on it Prof. A. Chakravarti writes in his book Taina Literature in Tamil' on page 18 as follows:
"A reference to this in Tamil grammar as a language spoken all over the land is a very significant fact in as much as it would imply the early introduction of Prakrat literature and the migration of Prakratspeaking people into the Tamil land. Another relevant fact is the description of Vadakkiruttal or Sallek hana found in some of the so called Sungam collections. This Vadakki, uttal is said to be practiced by some kings who were followed by their friends. An important religious practice associated with the Jainas is known as Sallekhana."
Tolkappiyam: This is the earliest authoritative work on Tamil grammar now available in full and it is the oldest of all the Tamil works now available.
The author is praised as "Padimaiyon' and this term refers to Pratima Yoga of Jainism. This work classifies the living beings according to the number of sense organs possessed by them as the one sensed, the two sensed, etc. and the examples given are same as what are mentioned in Tattavartha Sutra, the Jaina bible. Such classification of the living beings is particularly Jaina. The definition given for the first work (original work) in this book is Vinaiyiningi Vilangiravarivin Munaivan Kandadu Mudanulagum (Tolkappiyam Sutra 649) conveying that the basic or first work is what is revealed by the Lord of Jnana obtained after liberation from (obstructive) Karmas i.e. knowledge received by the Sarvajna after Karmak saya. It is a well known fact that every Jaina writer traces the first source of his information to the Tirthankara himself and the above passage also points to the same. The term 'Kandazi' appearing in the work has been explained by the commentators as the one who reached the highst spiritual stage after destroying the Karmas.
All the above information reveal that the author of Tolkappiyam is a Jain. The persons who reject this suggestion have cited no serious arguments in support of their view. This work is assigned to the 3rd Century B. C.
Prof. Chakravarti writes in Jain literature in Tamil on page 24 "This grammatical treatise consists of three great chapters Eluttu, Sol and Porul-letters, words and meaning respectively. Each chapter consists of nine Iyals or sections. On the whole it contains 1612 Sutras. This forms the foundation of the later grammatical works in the Tamil language. Unlike the Sanskrit grammar or Vyakarana which has the first and second alone this contains three chapters, the third being Porul. This 3rd chapter contains a lot of extra-grammatical matter dealing with love and war, and thus offers many useful suggestions for reconstructing the history of the early Dravidians."
Naladiyar and Tirukkural: These are ethical works. From these quoted in all the Kavyas. Hence their antiquity is established.
In connection with the work Nuladi yar it is stated that 800 Jaina monks who came and settled in the Pandya kingdom on account of the famine in North India while leaving the place one night, each recording a stanza on a palm leaf and left behind. Four hundred out of the collection of these stanzas constitute this book. This may be taken to refer to the Sanga of monks who visited Pandya kingdom under the leadership of Visakacharya in near about 300 B.C. On this count this work can be placed prior to Tirukkural, the work of Kundak undacharya the leader of the Dravida Sanga during the 1st century A. D.
The verses of Naladiyar are quatrains. Hence it is named as Naladiyar (Four lines verse). Rev. G.V Pope translated into English both Naladiyar and Tirukkural. He writes as follows:
I have felt sometimes as if these must be a blessing in store for a people that delight soutterly in composition, thus remarkably expressive of a hunger and thurst after righteousness. They are the foremost among the people of India, and the Kural and Naladi have helped to make them so."
The above two works Tirukkural and Naladi var come under the collection of eighteen minor poems Padinen Kilkanakku.
Sri A. V. Subramania Iyer in his book "Tamil Studies' (1st series page 64) writes "The authors of the more important of the class of 18 poems known as Pathinen Kilkanakku have been Jains. The top work of this class is Tiruvalluvar's Tirukkural which has high place among the world's best books. Two other important works of this group of which the authors were Jains are Naladiyar and Pazamozhi by Munrurai Araianar."
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To convey some idea of the beauty of the work Naladiyar the substance of some of the verses are given below:
Muni the commentator of the work Neela Kesi freely quotes from KURAL and states as is mentioned in our scripture (emmottu) and claims it as a Jaina work.
Kural Verse 1. Worship of Adi Bhagawan (Lord Rishabha). All the letters of the alphabet have the letter 'a' as the beginning. Similarly the world has its beginning the first Lord, the all-knower - Adi Bhagvan.
Verse 61. On keeping patience:
Good people give respect to every one. But the bad ones show disrespect even to the worthy people, In the same manner that we disregard the dirty insect fly treading with its feet on our head, we should disregard and not get angry with those who despise us, as anger begets sorrow to himself and the other.
Verse 65. On Supreme forbearance.
Control of the five senses in youth is real sense control; the charity of the person of limited means the real charity and the forbearance of the monk who attained miraculous power or great Tapo-Bala is real forbearance.
Verse 68. On the subsidence of anger.
Even after lipse of long long time the low born's anger only inflames while the great one's anger, like the water made hot that by itself gets cold, vanishes by itself in no time. Verse 36. Advice to practice Dharma without
delay. Leave doubting whether death will come while young or while old or in the middle age but know hat it is standing just behind you and avoid vice and follow virtue.
Bhagavan : The Sanskrit word - means the allknower. It does not refer to a creator. Adi Bhagaran the first Sarvajna is fitting with the Jaina tradition which speaks of Lord Rishabha as the first Tirthankara. The Tamil term ulagu means human society especially the cultured. The first tirthankara Lord Rishabha who is spoken of as Adi Bhagavan, according to Maha Purana, is responsible for the sociopolitical organisation of society and also for revealing the religious path for salvation. No wonder therefore that he is spoken of as the beginning of the worl] secular and religious. (Extract from Tirukkural English co.nmentary by Prof. A. Chakravarti).
Kural 2 :
of what avail is their learning if they do not adore the benevolent feet of the Lord, the All-knower parexcellence.
Verse 135. Concentrate on the study of works
that reveal the truth or reality. There is no end to learning but our life is short. If examined even in that short life diseases often intervene and give trouble. Therefore like the Hamsa bird that leaves water and drinks milk alone, concentrate on the study of works that reveal the truth or reality.
Verse 119. The truth.
A critical examination will reveal that there none who is free from despise. that there is none who do not live by trick, that there is none who has not suffered in his whole life and that there is none who enjoyed his whole wealth.
In verse 24 the transient life is pitied in the phrase Centari Cavar Cumandu i. e. those who are going to die carry the dead.
TIRUKKURAL : According to the Jaina tradition this is the work of Kunda Kundacharya of the 1st Century A. D. Samaya Divakara Vamana
Jains' devotion to the omniscient Jina is in gratitude for the Lord who revealed the path to selfrealization. Next is admiration of his supreme qualities, that is same as the liking to acquire them for themselves. Lastly as a means of eliminating bad thoughts and acquiring good thoughts. These benefits will not accrue if not devoted to the Omniscient Lord is emphasized here.
Kural 6.
Those who walk the faultless path of righteousness ordaind by the Lord who conquered the five senses will live for ever in happiness.
Jina, the victor over passions is also called as Jitendriya, the one who conquered the senses. the observance of the code of conduct prescribed by Jitendriya for the house-holder and the homeless monk leads to eternal happiness. In addition to worshipping the Jinas the necessity of the observance of right conduct is emphasized here. Right conduct is the final step, especially the internal one that is elimination of delusion, desire and aversion achieved through selfmeditation. Bhakti alone will do is refuted.
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Tirukkural defines the liberated state as the immutable natural state of the self (Peraviyarkai) in the abode of the liberated that is over the world of the celestials (Vanorkuyarnda Ulagam).
The way of attainment of liberation is stated as complete desirelessness (Ava Nippinannilaiye Peraviyarkai Tarum). The nature of the pure-self is desirelessness. This will occur if affection is shown to the pure nature of the self or reality (Vaimai Venda Varum) ( Kural 364).
Jivatma the empirical self becomes Parmatama or God by realizing his pure self and that self all others worship, is stated in Kural 268. It is as follows:
Who attains his pure and perfect self, him all the other persons worship in adoration.
These views are purely Jaina. Tamil scholars with philosophical knowledge understand these and accept Jaina authorship of Tirukkural.
Jainas and the Jaina ascetics are teachers of humanity. Unless the author of Tirukkural is understood as a Jain, its true meaning cannot be grasped. This is the Tamil Jains plea to the Tamil scholars.
Attaining liberation from the cycle of births and deaths is the aim of Jainism (Piravamai Vendum-Kural 362). Without the practice of penance liberation cannot be attained. Without the help of the householder to provide the homeless monks with food and drink, they cannot be penance. Without the teaching of the monks the householder cannot learn the truth or reality. Hence their help is mutual in treading the path of liberation. This fact is made evident in Kural 263.
Probably in the eagerness to feed and help the ascetics some of the good house-holders forgot to help themselves this course of discipline and penance.
The home life is composed of the husband and wife. Their affection should make them one in mind to discharge their duty to the homeless monks and keep living the path way to liberation that they themselves have to tread one day. This is the subject matter of the third section of Tirukkural-Kamattuppal (love).
Home life needs earning through some occupation as well as saving and possession of property. Their stability rests on a good Government. In the middle section Porutpal is described the state craft. Thus the three sections are inter-connected with one another.
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Tirukkural verses are couplets of seven words each with four in the first line and three in the second.
Aranericcaram: The essence of the way of virtue is the work of Tirumunaippadiar. The verses are quatrains.
Mutual help between the Jaina ascetic and the householder that sustain both the Dharmas is explained in verse 15.
In the same manner that the wooden pillar and the wooden frame support each other, the (Jaina) ascetic support the householder (by enlightening him on Dharma) and the householder in turn supports the ascetic (by providing him with food, drink, shelter and books). Thus jointly they sustain both the Dharmas in this world surrounded by oceans.
On the impermanence of body and wealth (verse 20).
Those living to-day may die this very day and their properties will belong to others the same day. Thus oh! brother! you are living in the clutches of cruel death, beware! and observe Dharma.
Dharma cannot enter the bad man's heart (verse 30).
Even if stone remains in water daily it cannot become soft. Similarly the bad person even if he hears Dharma daily his heart will remain harder than the stone.
Verse 189.
What is to be destroyed is vice, what is to be shown is kindness, what is to be eaten often is right knowledge and what is to be constantly thought of is liberation.
The very person is the cause of his progress and downfall (Verse 151).
Oneself is his own enemy and friend; oneself earns his happiness here and in his next birth; oneself reaps his own Karmas and one self the witness of his own Karmas.
Palamoli or Proverbs:
Prof. Chakravarti writes in his book 'Jaina Literature in Tamil' page 45, "The author is a Jaina by name Munruraiaraianar. It contains 400 quatrains of Venba metre like Naladiyar. It consists of valuable old sayings containing not merely principles of conduct, but also a good deal of worldly wisdom.
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It is assigned a third place in the enumeration of the eighteen didactic works which begins with the Kural and Naladiyar".
Verse 41.
After making prosperous all friends and after suppressing all the enemies and living the homely conjugal happy life for a long time, if one does not renounce then for what use is of his body.
Verse 377.
Oh! good dweller of the fertile hilly region with streams wetting the corn field! What do you think of that person's attitude who renounced all his kith and kin and all his earned property still evincing attachment to his body? This is exactly what is meant by that good old saying (the bulky body of the) elephant itself went through but its tail cannot go through. (Yanri Poi Val Pogavaru).
Triukadukam: In this work each verse contains three good thoughts or advices that cure mental ills like the medicine of the combination of dry ginger, pepper, and long pepper that cure ailments. The medicine of these three ingrediants is known as Trikadukam and the work too. One example is given below:
Married life with a chaste woman, company with a good person of good lineage and friendship with the learned person of corrective words, these three from the medicine, like Trikadukam.
Sirupancamulam: There are give medicinal herbs that cure several diseases. Five good things are described in each verse that are cures for mental worries like the herbs.
Having compassion is the beauty of the eyes, not walking the path of vice is the beauty of the legs, giving the correct figure is the beauty of the science of mathematics, appreciation from the listeners the beauty of music and not harming the subjects is the monarch's beauty.
Eladi: This is also a medicine of six ingredients. In each verse of this work six truths are explained.
The nature of the state of liberation is explained in one verse.
The nature of the liberated state of the self is all pure, calm, indescribable, immutable, free from down fall and ever blissful. This is the verdict of the faithful, enlightened in the truth or reality.
Dr. Devadatta writes in Daiva Tamizh that Inna Narpadu Iniyavai Narpadu, Nanmanikkadigai, Acarakovai, etc. are also Jaina works. Some differ here.
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Even granting that is so all these works emphasize only the Jaina principles is quite evident.
Now let us look into the Kavya literature.
There are five major Kavyas and five minor Kavyas Cintamai, Silappadikaram, Manimekalai, Valaiyapati and Kundalakesi are the five major Kavyas Cintamani is the greatest of all the Kavyas while Silappadikaram is the oldest. These two and Valaiyapati are Jaina works. The rest two belongs to the Buddhists. Valaiyapati and Kundalakesi are lost to the world.
Dr. U. V. Swaminatha Iyer records in his autobiography that he saw the palm leaf manuscript of Valaiyapati in the library of Tiruvaduturai Mutt. But later it is missing.
Silappadikaram: It is a very important Tamil classic. Its author is the Chera prince, who became a Jaina ascetic, by name Ilangovadigal.
One day when this ascetic prince was in the temple of Jina situated at Vanji, the Chera capital, some members of the hill tribe came and narrated to him the strange vision they had witnessed relating to the heroine Kannagi. How Indra appeared before her, how her husband Kovalau was introduced as a Deva, and how finally Indra carried both of them in a divine charriot.
Kulavanigam Sattan the renowned author of Manimekalai who was with Ilangovadigal then narrated the full story of the hero and heroine. The story contained three valuable truths in which the royal ascetic took great interest. First if a king deviates from the path of righteousness, even to a slight extent, he will bring down upon himself and his kingdom a catastrophe as a proof of his inequity; secondly a woman walking the path of chastity is deserving adoration and worship not only by human beings but also by Deva and Munis. and thirdly the working of Karma is such that there is an inevitable fatality from which no one can escape, and the fruits of one's previous Karmas must necessarily be experienced in a later period. In order to illustrate these three eternal truths the royal prince undertook the task of composing this story for the benefit of mankind. The story is associated with the great mercantile family of Puhar, the capital of Cola empire. (Extract from Jaina literature in Tamil by Prof. Chakravarti).
Sri A. V. Subramania Iyer writes in his book "Tamil Studies." The author of Silappadikaram another ancient Tamil masterpiece the first of the five great epics. "Elango Adigal is claimed to be a Jain, with some degree of probability though not a certainty."
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I would like to add here that the publication of almost all the Tamil works are by the non-jains. The whole quarrel as to the authorship whether Jaina or non-Jaina is amongst them. The impartial scholars admitted Jaina authorship of the Jaina works published by them while the interested ones raised doubts. It is only of late Prof. A. Chakravarti and Sri Jeevabandu T. S. Sripal presented conspicuous points that support Jaina authorship of Tirukkural and Silappadikaram respectively.
Silappadikaram was written in the 2nd century A.D.
Cintamani : The author of this Maha Kavya was Thiruthakka Devar. Devar is the honorific title of Jaina Munis of Tamil Nad. Devar singly refers to the author of Tirukkural and no one else.
Father Beschi writes "Thiruthakka Devar is a prince among poets.
The story of Cintamani is found in the Maha Purana also known as Trisasti Salaka Purusa Carita. The hero's name is Jivendra there and the Tamilized name is Jivakan. Many Sanskrit Kavyas Ksatra Cudamani Gadya Cintamani and Jivendra Campu etc. depict this story.
Jivakan's father engrossed in the beauty of his wife leaves his duties with his minister, who kills him later. The pregnant queen escapes in a mechanical flying machine made in the form of a peacock and in the city's burial ground gave birth to a son. Luckily the merchant-king of that city who was returning after burying his dead child takes this new born child, left alone by his mother for that purpose. He brings up the boy in all kingly ways.
Later the boy Jivakan well versed in all the different arts marries many kings and merchants daughters. Taking their and his uncle's help Jivakan defeats the minister and regains his kingdom. He married eight wives and all are romantic marriages. Finally Jivakan crowns his eldest son, takes up asceticism under Lord Mahavira and attains liberation
The king's (Jivakan's father) advice to his wife at his critical moment is applicable to all of us.
under rate Kamban's indebtedness to the Jivaka Cintamani for his poetry.
Inspite of these, the poem is a great one. Its poetry is its chief merit. The metrical skill of the poet and the exquisite music of the language constitute a marvel of poetic achievement. The simplicity and sweetness of the flowing stanzas are unfailing in their appeal to lovers of Tamil poetry. The work contains a considerable quantity of love poetry which though written accordance with conventions laid down by the ancient grammarians has not lost its power of appeal or beauty. For the first time in Tamil literature, poetry attains, in this book, a level of finish, form and melody which it had not reached before."
Siddha Stuti the first prayer verse of Cintamani is pregnant with meaning. The substance is given below:
I worship the holy feet of the Siddha, the God of Gods, adored by the celestials and men of the three worlds that are beginningless and endless and who is immersed in infinite bliss springing from himself or inherent (like the brightness of gems and the smell of flowers) and possessed of incomparable eternal qualities.
In this one verse Thiruthakka Devar has given the basic principles of Jainism. The three first words of the verse Muva Mudala Ulagam points to the beginninglessness and endlessness of the universe. This clears off the supposition of the creator God and his creation theory. This establishes that the substances composing the universe are eternal, self-existent, self-sufficient, unalterable and fixed in number. Mentioning of the celestials and men of the three worlds points to the cycle of births and deaths of the empirical selves. The adoration of the Siddha points to the truth of liberation. Siddhas' inherent bliss pictures the state of the liberated self is not merely freedom from sorrow but full of bliss.
Prof. Chakravarti writes "In grandeur of conception, in elegance of literary diction and in beauty of description of nature it remains unrivalled in Tamil literature.......
Kamban characteristic of intellectual courage and honesty, acknowledged his debt with the following words "Yes I have sipped a spoonful of the nectar from Cintamani."
Kamban the great poet is the author of Ramayana in Tamil. Dr. Krishnaswamy Iyengar in Beginning of South Indian History' writes The interval between the composition of Silappadikaram and Cintamani was only about 60 or 70 years."
Birth and death are caused by Karmas. Origination and disappearance the nature of substance. Feeling of affection and sorrow for these exhibit ignorance of the truth.
Sri A. V. Subramania Iyer writes in his book *Tamil Studies' (Page 22). “But no Tamil scholar can
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It means that it is a 3rd century A. D. work. But some place it between the 5th to the 9th century A.D. Five Minor Kavyas :
Yasodara Kavya. The author except that he is a Jaina ascetic, nothing else is known. The story is what is found in the Maha Kavya Yasastilaka of Somadeva in Sanskrit.
Prof. Chakravarti writes in Jaina Tamil Literature' "The moral value of conduct depends upon the harmony between thought, word and deed. In this particular form of ritualism, though the actual deed is avoided, there is still lacking the harmony and co-operation of the other two. The desire to sacrifice an animal and to pronounce the necessary Mantras being there, the substitution of a mock-animal would not relieve an agent of any of his responsibility for animal sacrifice. This seems to be the main theme of this story in which incidentally many of the doctrines relating to Jaina religion are introduced (Page 84 and 85).
The description of Canda Mari in it.
(Maridatta the King of Rajapura) arrived the place of that terribly wicked and furiously angry Goddess Canda Mari, worshipped only by the ignorant disciples who never heard of the truth or reality.
Neelakesi: We know nothing of this author, a Jaina philosopher poet. This is a logical work than a Kavya. Its logical theories are same as found in Prame yakamala Martanda and Syadvada Manjari. This work is a refutation of the Budhhist work Kundalakesi that is lost.
Plants have life or souls have been proved scientifically here. Several theories of physical science too are found in it. The book properly is a refutation of obsolutism and establishment of non-absolutism. There are discussions of every philosophy of the Upanisads but not Advaita Saiva Siddhanta etc. Thus it is a work written before their origin or growth
While discussing the theory of Indian materialism known as Carvaka philosophy it brings in the theory of cause and effect and established the truth of souls. Neela Kesi questions the Bhuta Vadi whether the five Bhutas are substantial cause or instrumental cause.
If these are substantial causes, in the absence of instrumental cause there will result no effect. If these are the instrumental causes necessarily that he has to posit souls as substantial cause.
It is Prof. Chakravarti who published this work along with the famous commentary of Samaya Divakara Vamana Muni.
As explained above Neelakesi indicates the reality of the soul against materialism. The 'work advocates the nobility of Ahimsa against Vedic vitualism and the dietic purity of vegetarianism against the Buddhists addiction to meat eating.
The other two minor Kavyas are ordinary ones.
Perungathai : The author of this great work that is available only in parts was Kongu Velir the king of Kongu Nadu, modern Vijayamangal-Am. Pulavar Somasundaranaar considers this Kauya as older to Silappadikaram.
The story of this work concerns Prince Udayanan the son of king Satanika of Kosambi and Queen Mrugavati. Mrugavati is the younger sister of Trisala Devi, mother of Lord Mahavira. Gunadya's Brihat Katha is states as the original source for its story.
Udayanan talented in Vina music and other fine arts and war marries four wives. After ruling for a long time he crowns his eldest son Narayanadatta and takes up to aceticism and attains liberation.
Substance of another verse : What is to be accumulated is virtue. What is to be destroyed is anger. What is to be attended to is knowledge of the truth. What is to be guarded is the vows.
This work is born to uphold the supreme virtue i.e. non-injury to other living beings. The idea that fine art kindles sexual love is evident from this work.
Culamani : This stands foremost among the five minor Kavyas According to Tandi Asirinyar this work has all the worth of a major Kavya. The author is known as Tolamoli Devar.
This also takes its story from Mahapurama. It concerns one of the past lives of Lord Mahavira as Triprista Vasu Deva. This Kavya has all the beauties of Cintamani.
Infinite bliss of the liberated self is self-springing is explained with examples (Verse 2075).
The infinite bliss enjoyed by the liberated self enamates from himself like the brightness of the gems; the sweet smell of the cut piece of the sandal wood and the fragrance of a blossomed flower.
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Udayanan's minister and friend is Yugi. His talent and faithfulness make him par with the hero. An advice to women folk from it is givin below:
Even if their loving husbands give the worst of troubles forbearance is praiseworthy for those born as women.
Merumandira Puranam : The author of this important classic of the Tamil language is Vamana Muni. He was a contemporary of Bhukkarayd's minister Hirugappa of the 14th century. The source of this story too is Mahapurana. Meru and Mandira are the Ganadaras of Lord Vimalanatha the 13th Tirthankara.
The story is used a frame work for expounding A to Z of the philosophical doctrines relating to Jainism.
This work was also published by Prof. Chakravarti in the year 1923. It consists of 1405 stanzas on the whole.
No other Jaina philosophical work impresses on the importance and adduces proof of the truth of the existence of the medium of motion and the medium of rest known as Dharma Drauya and AdharmaDravya respectively as in this work.
If there exists not a substance of limited dimension allowing motion of the moving bodies (Dharma Dravya of innumerable space points unlike space substance of infinite dimension) then the souls and sub-particles of matter will disperse into the infinity of space. Thus there will be neither bondage nor liberation and no universe will exist (Verse 89).
If there is no medium of restor AdharmaDravya the sixty three heavenly regions, the seven internal earths the mountain Meru and earth will not remain stable. (V. 91).
Clue to self-meditation (Verse 412)
I or self is the soul free from eight Karmas and possessed of the four infinites infinite knowledge, infinite perception, infinite bless and infinite energy). (As the substance and its qualities are inseparable) taking the self and the four infinites as inseparable whole and meditating that I am the Self and the four infinites are mine will lead to liberation from Karmas. On the contrary if it is thought that my body is the Self and the relatives and all properties are mine then the eight Karmas will continue.
Sri Puranam : It is a translation of Maha Purana in an enchanting prose style in mixed Tamil and Sanskrit (Mani Pravala).
Vapparun Gala Karikai and Yapparungala Vritti: These two works are on Tamil prosody. The author is Anirthasagara.
Neminatham: A short work on Tamil grammar by Gunavira Pandithar. This work is available with a good commentary.
Nannul: This is the most popular grammar of the Tamil language. The author Bhavanandi Muni is well versed in Sanskrit and Tamil. This book is prescribed as text in Colleges and Schools. This work belongs to the 12th century AD.
Agapporul Vilakkam : The author's name is Narkaviraya Nambi. The work is based on the Porul Ilakkanam in Tolkappiyam. It is an exposition of the psychological emotion of love and vallied experiences.
Nighantus : Lexographical works. There are three works Divakara Nighantu, Pingala Nighantu and Cudamani Nighantu. The first is lost to the world. The last is most popular and its author is Mandala Purusa
After advent of the Westerners and the compiling of dictionaries in alphabetical order the usage of the Nighantu became obsolete.
Kalingattuparani : The author is Jayankondar. It is written to celebrate the Kalinga victory of the Cola general Karunakara Tondaiman of Knlothunga I at the beginning of the 12th century A.D.
There are few minor Tamil works. The important ones are Tirunurrantadi and Thirukkalambagam.
Tirunnurrantadi : Contains 100 poems. It is a devotional work addressed to God Neminatha of Mylapore Jain temple, swallowed by the sea some 400 years ago. Hence the work was written 400 years before by Avirodhi Nathar. These devotional songs are as exquisite as Bhaktamara Stotra.
Verse 36 :
Oh ! My Lord Knower of the three worlds' I do not beg thee my Lord to give me gold, gems and clothing etc. but to regain my eight inherent qualities (infinite knowledge, infinite perception etc.) that I beg these my lord.
Verse 70 :
Those wearing number of garlands, holding weapons and with ladies seated on the right and the left are the Gods of the ignorants. But our Gods are the ascetics having as their three eyes, the three gems (right belief, right knowledge and right con. duct) revealed by the Jina.
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Verse 85:
Oh good mind! Just think of (Jina) the God under the Asoka tree, praise him and practice a little of right conduct (prescribed by him) and these are quite enough. Jina lifts all of those who reach him to his own status that needs no more worship of Jina too and hence he will make you like him in no time or shortly.
Thirukkalambagam: is another devotional work by Udisi Devar the Jaina ruler of Arpaga : in Vellore Taluk. This is composed of verses of different metres. Hence known as Kalambagam.
Verse 2:
If I decorate the holy feet of the Lord seated over the golden lotus with the garland of my verses strung of mean words in affection, can it stand worth before the praises of the 100 Indras each with their 1000 Vikriya mouths ?
Temples and Caves of Tamil Nad
Arungulam (Tiruttani Taluk) contains an ancient and big temple dedicated to the 15th Tirthankara Dharmanatha.
Even though history records existence of over 100 Jain temples in the 5th century A.D. in the Pallava capital Kanchipuram, now there is only one temple at Jina-Kanchi dedicated to Lord Vardhamana honorific name Trilokyanatha. The place is also known as Thirupparuttikunram. Here are inscriptions and foot prints and paintings on the ceilings. Dr. Ramchandran, the Director of Archaeology, brought out some fifty years ago the book the Thirupparuttikunram Temple Paintings. He has explained that the paintings depict episodes of Lord Mahavira's birth, his anointing ceremony, Indra's dance etc. The Lokantika Devas extolling Lord Rishbha's decision to renounce. Nami and Vinami demanding kingdom from the ascetic Rishabha and Dharmendra crowning them kings at Vijayarta. Also episodes from Lord Neminatha and Lord Krishna's Bala Lila.
Arpakkam About five miles from Kanchipuram at Arpakkam, there is an old temple dedicated to Lord Rishabha Deva.
Karandai Munigiri Temples: Twelve miles from Kanchipuram are the Karandai-Tiruppanamoor villages. There is a very old temple dedicated to Lord Kunthu Tirthankara. In the same temple exists the Samavasarana type temple dedicated to Lord Vardhamana Mahavira. In both the Garba Grahas there are large mortar built images of Lord
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Kunthunatha and Lord Mahavira respectively. On the walls surrounding it are the figures of Indra and Devas etc. Even though they are over a thousand years old yet they look fresh. The Samavasarana temple has 27 steps.
Ponnur Hills: Next in importance is this place situated five miles from Wandiwash town. There are at the foot of the hills Dharmasala and temple. On the hill top exists the old foot prints of Kundakundacharya.
Cittamur: This is the seat of the pontiff Lakshmi Sena Bhattaraka Bhattacharya Varya Swamigal of Jina-Kanchi Cittamur Mutt. There is a very big and old temple here. It is a temple dedicated to Lord Neminatha.
Vallimalai Cave Temple : Vallimalai is in North Arcot district. Inside the cave are rock cut images of Lord Mahavira, Lord Parswanatha etc.
Panca Pandavar Malai: This is near Arcot town. Here are also rock cut images and inscriptions.
Ennayiram: This is near Tindivanam. In the caves are foot prints.
Tirumala Tirumalai hills and the temple is four miles from Vadamadi Mangalam Railway station. On the top of the hill stands the rock cut images of Lord Neminatha of 16 ft. high In the temple down below exists a cave and paintings. Kundavi Devi a Cola princes took interest in the development of this temple. It is known from the inscriptions.
There is a rock cut image of Lord Parsvanatha on the hill near Tirakkoil near Wandiwash town.
Thrunarungondai: This is most famous in Tamil Nad. This is also a hill temple with cave and old inscriptions. The deity is Lord Parsvanatha. It is near Villuppuram in South Arcot District.
Vijayamangalam: This is near Erode. There is an old temple here. Excepting the priest there are no Jains.
There are several hills surrounding southern. Madhura. They are Samanar Malai, Alagar Malai, Anai Malai, Thiruppar angunram etc. There are caves with beds of stone for the Jaina ascetics. Rock cut images and inscriptions are abundant.
Rock cut images are in Uttama Palayam also. Tiruccaranam Hills :
Sri N. P. Hariharan in the Swadesa Mitran weekly dated 14-12-1958 has written that there existed a Jain University at Tiruccaranam (Citral). There are lot of rock cut beautiful Jaina images.
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According to Sri Padmanabhan at the bottom of the hanging rock there is a hall, veranda and a temple. The temple is of three parts. In one cell there is Lord Mahavira's idol. In another Lord Parswatha's idol exists. In the third should have existed Padmavati's idol. It was removed and Bhagavati was installed in 1913.
Kalugumalai: This is in Tirunelveli. It has many rock cut beautiful images of Tir thankaras and Yaksis. The inscriptions here and at Tiruccaranam are of the same period.
During this Caturmas (rainy season 1977) the Nirgranta Acharya Nirmal Sagar's Sangh is staying in Kalugumalai. This is an historical event.
Siddhannavasal : This is in Pudukottah state and near Tirochirappali. The excavation of the cave temples and the paintings here are done by Mahendra Pallava in the 7th century A.D. The paintings equal that of the Ajanta caves.
There are stray Tirthank ara images on the banks of tanks, street corners, fields etc. in several places all over Tamil Nad. It proves that there existed a number of temples in Tamil Nad once. Some collections are in the Madras Museum.
Mr. Padmanabhan writes in his book "The Forgotten History of the Land's End" But it is astonishing to note that the sacred place Kanya Kumari was once a centre of Jain pilgrimage. One of the twin rocks now named after Swami Vivekananda has been held in veneration from very ancient times. Apart from its having assumed the Swamy's name latterly the rock has been traditionally known as Sripaada paarai'. Sripaada means sacred feet and paarai is rock. In all probability we can say that the Jain monks on the way to Ceylon consecrated a shrine of Sripaada on the rock which was part of the main land.
Ajita Tirthankara's time. It agrees with the story found in the Trisasti Salaka Purusa Caritra (Translated into English by Mrs. Helen, M. Johnson).
In order to protect the Jaina temples at Kailas built by the first Chakravarti Bharata the sons of emperor Sagara with the help of the Danda Ratna dug a very deep mote or ditch around the temples and diverted the water of the river Ganga to fill them with water. The result was that the water submerged the under world of the Nagakumara Devas. There Indra Jivalanaprabha was enraged and he comes with his Naga Kumara Devas and with their fire emitting eyes burnt to ashes the 60000 sons of the Emperor Sagara. The news made the emperor sorrow-ful. In the meantime Ganga water filling up the ditch overflowed and submerged the surrounding villages. People of those areas came and complained this to the Emperor who ordered his youngest son Bhagiratha to divert the Ganga water to the ocean. Accordingly he with the help of Danda Ratna carries out the order. It is this story carved on the rock.
When actually any one goes through the full explanation of the Jaina carving given by Mylai Soeni Venkatasami in his illustrated Tamil book 'Jaina Carving at Mahabalipuram he will be wonder struck with the genius and the efforts of the author.
Let us now turn our attention to the present conditions. In all there are about 20000 Tamil Jains now. They are spread in several villages of the two District North Arcot and South Arcot. Those in twons and cities are emigrants from the villages.
Since last 250 years traders both Jains and nonJains came from Rajasthan and Gujarat and settled in Tamil Nad. The major bulk of the wholesale trade is in their hands.
The North Indian Jains are now spread in all the cities and towns of Tamil Nad. They have built new temples at Madras and some other towns.
Their settlement enabled several Suriji Maharaj visit Tamil Nad and propogate Jainism here. By the effort of Suriji (Shri Gambira Vijayjee Maharaj, if I remember correct) in near about 1926, The South Indian Humanitarian League' was established to propogate and stop animal sacrifice before the temple altars. The organisation had in one Sri T.S. Sripal the necessary genius for this magnificient task, who was the propogandist of the league.
Shri T.S. Sripal by his tireless effort and oratory skill succeeded in stopping animal sacrifice in area
In the same book is mentioned that the serpant shrine of Nagarcoil, which is considered to be a Hindu temple was originally a Jain one. Evidence of the Jain origin of the temple is seen in the inscriptions and sculptural images found in it.
Mahabalipuram: This is a sea shore 30 miles south of Madras where there are the famous rock cut temples of Mahendra Pallava.
On the side of a low rock there are carvings. It is the genius of Sri Mylai Soeni Venkatasami for having identified the carvings as Jaina, an episode of Bhagiratha son of Chakravarti Sagara of Lord
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after area, year after year and completely eradicated it all over Tamil Nad. By his effort the Government of Tamil Nad enacted laws prohibiting animal sacrifice in the temples of Tamil Nad.
In recognition of the humane services of Sri T.S. Sripal the Tamil public honoured him with the title Jeeva Bandu. This was followed by the title Jaina Samaya Kavalar (Protector of Jainism) conferred upon him by the Tamil Nad Jains in recognition of his services to the community. Few years back the Delhi Jains conferred on him the honour Samaja Ratna. Finally the President of Indian Union awarded him the title 'Prani Mitra'.
The visit of the great Acharya Tulsi Maharaj few years ago is a land mark in the history of Tamil Nad.
and architecture; there are statues which have thrilled and inspired the society by their artistics grandeur and religious composure; there are numerous inscriptions unfolding the history of the land and glorifying the saints who instilled humanitarian values into the society and those great men lived for the benefit of others; above all, the Jainas enriched the languages of the people with literary compositions replete with great moral lessons for the erring humanity...." Dr. A. N. Upadhye.
V. N. S. 2503
The credit goes to Shri Rikhabdassji lovingly called as Swami to have developed the ancient Jain temple at Red Hills ten miles from Madras city. It is the very same gentleman who brought about close tie between the Tamil Nad Jains and the North Indian Jains.
Of late there are cases of taking and giving their girls in marriage among these two.
Sri Rikhabdossji is no more and it is difficult to replace him. In spite of it let the tie between these two grow stronger.
I offer my humble homage to the revered Shri Rajendra Suri Maharaj.
(Jainism in South India Contd. from page 11)
Books Referred to:
(1) Mediaeval Jainism by Dr. B.A. Saletore, Karnatak Publishing House, Bombay.
(2) The Religion of Tirthankaras, by Dr. Kamta Prasad Jain, The World Jain Mission, Aliganj (U. P.).
(3) Jainism and Karnatak Culture, by Prof, S. R. Sharma, Karnatak Printing Works, Dharwar. (4) Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs by Dr. P.B. Desai, Jaina Samskrti Samrakshaka Sangha, Sholapur. O
DETACHMENT
Deeds, good and sinful, are chains of gold and iron, Both are hindrances to seeking salvation. The wise man learns to detach himself from both through experience.
COMPASSION
To make other creatures happy is greatest happiness; but to give them pain, or to remain callously indifferent to their suffering is the greatest misery.
-Rajendra Suri
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THE ATTENDANT DEVIS OF OF JINAS
(Inscribed to the sacred memory of Late Tumuluri Anjaneyulu)
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Dr. C. L. Prabhakar
Sakalajinati shyah pavanebhyah namah sannayanavaradebhyah Sarvada Stutebhyah Samadhigatanugibhyo devavrndadgariyo nayanarava radebhyah Sarvadastu tebhyah-Caturvimsika. Sl. 66
Among the stotras1 of Jaina literature, Caturvimsika, by Sobhanamuni, marks a significant stage of merit and distinction. Caturvimsika seems to be a type of Stotra composition, wherein praise and prayer for all the twenty four jinas of the religion is incorporated. This type has a set standard and Sobhanamuni attained a distinction for such a composition. Normally jinas are extrolled together
1. See "Jaina Stotra Sahity (Hindi)" by Vinayasagar, "Sardha satabhdhi Smrtigrantha", Calcutta, 1965.
2. See QJMS, Vol. LXIII and LXIV, 1973, Bangalore. Published with text and curika and introduction by Prof. S. K. Ramchandra Rao, Bangalore.
3. (a) See QJMS Vol. LXIII. intr: by Prof. S. K. Ramchandra Rao.
(b) Also "A critical note on caturvimsatika of Sobhana muni", by Dr. C. L. Prabhakar OJMS. No. 3, 4 July-December, 1975.
4. Cf. Prof. S.K. De: "Aspects of Sanskrit Literature" pp. 118.
with their attendant deities. Such type of storas occupy an enviable place in the curriculam of worship by jains.
Sobhanamuni seems to have derived inspiration from the magnanimity and greatness attained by the respective jinas and he became poetic in order to re-emphasise their greatness together with the advantages that jainism promises to its followers. At 10th century his work should have inspired, several and turn to the worship of the Jinas Jainism, underwent several stages from time to time. Hereunder the mythological aspect of the Stotra is described.
Jainism takes a different phase of deities who are familiar even in Hinduism. Many times this jainism projects a view that Devis and other Galaxy of devas are not superior before Jinas. Jinas are the Supreme personalities who have gained control over the objects of the universe and the various regious of the worlds.
5. See "Jina puja ka mahatva" (Hindi) by Mohanlal Parsan, in Smrti grantha, pp. 53; as referred in ENI.
6. See "Vedism and Jainism" Dr. C. L. Prabhakar "Pathway to God", Belgaum, 1976.
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Jainism underwent a great gap and chances to lapse itself in its importance and prominence in the midst of other competitive religions. At right period, jinas have influenced the people and attracted their attention by their sweet pronounciation of valuable doctrines regarding this religion.
Jinas, by virtue of their austenties and attainments, have transcended all limitations and they enjoyed a stete just similar to Parabrahma of Hinduism; Jainism expects such jinas to be supported and that they would take care of the ardent devotees, who approach them with folded hands and with a surrendered attitude. Before jinas nobody is anything.
Jinas are known for their unmatchable qualities and virtues which are ordinarily impossible for the normal folk. A jina is known for self-control. Through that discipline, he would have a command over his senses and other attributes of human body. Since through experience and deep meditation, they learnt that, unless one raises above these considerations, a kind of happiness of immortal stnndard would be something impossible. Most of the jinas are Ksatriyas and kings who gave up their wealth and took to renunciation for spiritual attainment.
Jinas are to be guarded. So Jainism believes in the tradition that each of the 24 jinas enjoy the attendance and care by Devis. Their blessings are invoked. There are only two Jinas who are attended by Yakshas. The detailed mythology in respect of these Devis and Yakshas could be vast. But hereunder, it is proposed to present a view of Sobhanamuni together with certain details of the respective Devis and Yakshas in order to mark the ruling characteristics of devis of Jain mythology.
In a length of 24 slokas, Sobhanamuni, of tenth century A.D. has extolled the Devis as a part of concluding verse, of each of the Jinas, in his stotra work viz. Catur vimsika. The only extant available work of Sobhanamuni is caturvimsika an eulogy running into ninty six verses wherein the twenty four tirthankaras are praised and their blessings are invoked. Sobhanamuni is regarded as mahakavi and as an author of several other works also. But unfortunately none of others are available. The special contribution of Sobhanamuni lies in exclusively characterising the female deities attendant on these Jinas.
An exclusive discussion over these dieties as presented by this muni, is presented below and this would help to descriminate the mythology of these deities as presented by the others. Narmally "Bhakti" becomes the determining factor with respect to Devi and visualisation of the same. Moreover, a strong belief too reigns over their an throphomorphic features and their abstract powers over mankind. Further, through these descriptions, the superiority of jinas in general become established. The very fact that Devi's blessings become expedient to the jinas and the jainas, indicates the importance of these deities. Moreover, there is also a method to invoke the blessings of all the jinas collectively, a special practice introduced by Sobhana Muni. The stuti by Sobhana Muni incidentally attracted the scholarship of Dhanapala who wrote 'Curika' (Notes) for the same. As a result Sobhanamuni becomes better uuderstood by people at large. Also the intrinsic intentions of this muni too become evident. It is so because this muni has paraded all his poetic wealth and rich imagination and also his good command over the Sanaskrit language and its stylistic turns. His style marks a note of distinction and that contributes to the value of Jaina works in Sanskrit of that century.
From his stotra, one can notice the deep erudition he had irrespect of the religion and philosophy. In a length of ninty six Slokas, symmetrically distributed. this muni is successful in providing the essense and the message of Jainism and its influence over people. He seems to be a stuanch advocate of Jainism of those times. Hereunder let us note certain details in brief about the Devis in particular and jinas in general.
- II. The twenty four tirthankaras and the connected female Deities are as follows: Jinas
Devis 1. Rishabha
Sruta Devi 2. Ajita
Manasi Devi 3. Sambhava
Sri Vajrasrunkhala 4. Abhinandana
Rohini 5. Sumati
Kali 6. Padmaprabha
Gandhari 7. Suparsva
Mahamanasi 8. Candraprabha
Vajrakshi 9. Suvidhi
Jvalanayudha 10. Sitala
Manavi 11. Sreyamsa
Mahakali 12. Vasupujya
Sri Santi
7. See "The Contribution of Sobhanamuni to
the propagation of Jainism” by Dr. C. L. Prabhakar, (under press).
8. Same as FN 3b.
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13. Vimala
'Rohini 14. Ananta
Acyuta Devi 15. Dharmanatha
Prajanaptir 16. Santinath
Brahmasanti (Yaksha) 17. Kunthu
Purushadatta Devi 18. Ara
Chakradhara Devi 19. Mallinatha
Kapardi (Yaksha) 20. Suvrata
Gauri 21. Nami
Kali 22. Nemi
Amba 23. Parsva
Yata Devi 24. Vardhamana
Ambika The list above points out Rohini Devi and Kali Devi are common to two of jinas each. But the poet's description in the stotra marks a special distinction and that would be noted elsewhere. The iconographical and other details of these respective deities may be noted below in brief.
1. Sruta Devi: Sruta Devi is believed to be the personification of the doctrine of jinas themselves and as a part of managalasamsana, her blessings are primarily sought at several occasions. This further clarifies, the respect unto Jaina Sarasvati' that the religion held all along.
causes good to those free from sin. This Devi attends upon Sambhavajina who is famous for victory over enemies both internal and external and who grants happiness to devotees.
4. Rohini Devi : She bears a bow in her hands. Also she holds arrows and conch. She has driven away many enemies of her devotees. She is white in her complexion. This diety is connected with Abhinandanjina who is capable of destroying all unauspicious luck belonging to devotees. The very sight of this jina was a matter of joy to celestial beings too.
5. Kali Devi : She wields a mace, she is highly bright. She is as dark as the cloud. She is a terror to her opponents and those who neglect her worship. Kali is attendant upon Sumatijina who blesses people known for devotion and poised mind. Correspondingly this jina is known for anger against non-givers and non-worshippers.
6. Gandhari Devi : She wields a pestle, a deeply strong one, in her hands. She is dark blue in her complexion. She has her sway of power over the regions viz. earth and neither world. This goddess is pertained to Padma Prabhijina who extends bliss (pramoda) to his worshippers.
7. Mahamanasi Devi : It is interesting to note that this Muni leaves choice to the deity herself when he says "oh Goddess, let you protect those whomever you liked". She is envying sun in the lustre of her body. She bears sword in her hand. She throws all her enemies into the mouth of lion. This devi is connected with Suparsvajina who had exercised rigorous discipline and controlled senses and in view of his magnanimity, all the beings revere him with folded hands,
8. Vajrankusi Devi : She is requested to put forth every effort in safeguarding the interests of all animals. She holds Kulisa (Vajra) in her hands. (Kulisabhrt). Probably in view of the ayudha, she is designated as Vajrankusi Devi. She caused amassment of wealth to devotees. She by herself, is as lustrous in body as gold. She seats over a rutty and best elephant as her vehicle (Vahana). She is connected with Chandraprabhajina who was revered by host of intellectuals who knew not self-pride.
9. Jvalanayudha Devi : She is requested to extend happiness and blessings to deities. The poet becomes conscience of her slimness, a mark of beauty, in her body. He describes her as having beautiful slim waist. She is white in her complexion. She bears dark and thick plait of hair. She is having face as bright as that of moon. She rides a kind of devine vehicle
This Devi is supposed to be connected with Rsabha, the erstwhile jina of this religion. His life was at distant past.
Sruta Devi is requested to extend protection from all evils. She is pure and lustrous with white complexion and her hair too quite fragrant. Such a devi is requested to protect all devotees. The poet is impersonifying himself and on behalf of devotees, he is making prayer to the goddess for over all protection. Moreover, she seems to be the very life of Jainism personified.
2. Manasi Devi; She rides a swan. She bears a thunderbolt in her arms. That thunderbolt is highly lustrous and powerful. She is never defeated even by those enemies exalted for their pride. She extends happiness todevotees. She is connected with Ajitajina who has a great lustre and who drove away all sins belonging to his devotees.
3. Vajrashrunkhala Devi : She is known for her beautiful golden complexion of her body. She is highly worshipped by all. She seats herself on a lotus. With subdued pride, all devotee salute her. She
9. Devis with common names but different in
characteristics and relations with jinas.
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which has seat, a broad one, for comfortable sitting. This diety is eonnected with Suvidhijina whose feet is respected by all, who would grant prosperity to all his devotees.
10. Manavi Devi : She is bright and lustrous. She is in association with divine and lustrous beings viz. gods. She wields a best weapon (name not specified). She shares with fruits and sacred leaves for worship. She is seated cn a lotus. She is connected with Sitalatirtha, a jina known for his association with spiritual beings.
11. Mahakali Devi She bears Vajra, fruit, japamala (rosary) and Ghanta, a kind of weapon. She has enlightened several ascetics with the grace of knowledge. She is syamavarna (dark-blue) unlike 'Kala Vana of earlier deity. She is pure. She controls the unhappiness like worry, dirt, sin, oldage etc. of earthly beings. She gives rise to the king with her lotus hands. She is connected with Sreyamsajina who has his fame due to sense control and other attainments.
12 Shanti Devi She bears in her hand the rosary (akshamala) and a Kundika as well as white lotus. She bestows peace of mind/prosperity upon devotees. She drives away all evil belonging to his devotees viz. Rakshas and Kshudra energies, grahas and other enemy kings etc. She has matted hair. This deity is connected with Vasupujya jina who has a special distinction upon jinas and who has reached successfully the farthest point viz., emancipation in the road of spiritual practices.
13. Rohini Devi This deity is requested to bestow fulfilment and auspiciousness in the devotees. A peculiar epithet to her beings, acapala and abhimana viz., free from fear in the mind. This deity's description by the poet deserves a sepcial attention in a sense that human weakness and other relevant facts are shown and denial for the same is pointed out in the verse in favour of this devi.
Rohini devi wards off sins and other evil. Only with reference to this deity the poet viz., Sobhana muni turns selfish and makes a mention that in him the deity should keep prosperity. She is exclusively described as one bestowing amalatv over a devotee. She is connected with Vimalajina who bestows prosperity and luck over devotees.
14. Acyuta Devi: She is perfect. She bestows happiness on people. She has goldenlike complexion. She holds a bow, arrow and sword. She rides a horse. She is connected with Anantajina whose
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consecration is referred in the poem. He is requested to bestow on devotees prosperity and luck.
15. Prajnapti Devi: She is prayed such that she volunteered to bestow profits to devotees (aprarthita labhan dadyat). She is seated on peacock (kekistha). She wields Sakti, a kind of weapon. She is connected with Dharmanathajina who is pure and who grants prosperity to devotees and who is known for compassion and self control.
16. Brahmashanti: He is a Yaksha, a semimythical being. He bestows happiness upon people. He holds a staff (Danda) umbrella and a Kamandala in his hands. He is respected by several munis. He is connected with Santinathajina who is known as a distinguished one among jinas.
17. Purusadatta Devi: She is described to be as beautiful and lustrous as the lightening (Vidyut). A special request is made that her blessings must be effectful at right sessions. (tava prasadah sadasi phalakara bhavantu). Her laughter is graceful (abhimahase). But it is fierceful to enemies. She holds a sword and khetaka weapons. She is connected with Kunthanathajina who removes yet ignorance from munis known for their rigid sense
control.
18. Cakradhara Devi: She is seated on the back of an eagle (garuda). The eagle is known for variegated colours (Vinatatmaja prstham adhistha). Her complexion of the body was as bright as fire. She would bestow happiness muda. She has heroic attainments. She has killed enemies on earth belonging to devotees as well in other regions. The class of enemies, she quelled belong to such heroes known for pride and terror. The poet/muni seems to be a bit partial to this deity as he spends more attention on highlighting this deity. Cakradharadevi is described as connected with Arjina who had renounced the emperorship and took to the path of spiritual awareness and attainment.
19. Kapardi: He is a Yaksha, attendant upon Mallinathajina. He is the second who attends upon another Jina. He is requested to take seat in the mind of devotees (here the muni applies to refer if to himself only). It implies the devotee who prays the deity with that verse. He rides the elephant viz. Airavata. He resides in a tree devoid of serpents. He is lustrous and hence the quarters too turn bright due to him.
20. Gauri Devi: She rides an animal by name godhika (toad). Her face is golden in hue. She has
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tilak on her forehead, She has lotuses in her hands. She has beautiful tresses of hair. She is described with reference to Munisuvrath jina who is capable of protecting devotees from the mire of samsara. She destroys those who destroy good. She is the unique Devi to whom 'tilak' is mentioned by the poet.
21 Kali Devi : She quells down the armies of enemies. She bears mace (Jada) and rosary in her hands. She is highly unmatching in her beauty. She has her pure lotus feet that is respected. She is dark in complexion like that of the dark cloud. She has friends with Lakshmi, the daughter of ocean. This devi is connected with Namijina known for destroying the sins of devotees.
22. Amba Devi : She bestows wealth bhuri in devotees. She bears a mango creeper in her hand. With her roar she frighten enemies. She has lustre that of gold. She rides a lion. She is fond of mango-groves. She is connected with Nemijina known for heroism in battles once, but attained spiritual heights for the good of his devotees,
23 Yala Devi : She is highly victorious in literary sessions. She has her rich dark hair highly beaming with brilliance. She is respected by celestial ladies even. She protects devotees from fear. She is the consort of Nagapati. She has bodily lustre like that of lotuses, she is free from pride but graceful to devotees. She is described while Parsvajina is eulogised by Sobhanamuni. This jina is capable of destowing happiness and protection upon devotees.
24. Ambika Devi : Sobhana muni seems to be biased towards this devi as well Mahaveera on whom this deity shown her special attendance.
Ambika's lotus feet is revered by several women belonging to celestial regions. Merely, with her roar, this deity drove away in fear all the enemies and became victorious. She is brilliant. She bestows protection. She is addressed as lioness, indicating her lion-like activity. She is recognised as best in granting emancipation from this world. She is herself seated on lion, the best enemy of best lions. She is connected with Vardhamana Mahavira who is capable of granting happiness of Nirvana to the sincere devotees.
III The foregoing description of these female deities and two Yakshas reveal the characteristics of the
respective deities in nutshell. It is interesting to note that only two jinas are having Yakshas, male beings as their respective attendants. A glance at the deities further shows out that each deity has a brilliant stature and powers enough to protect the respective devotees of jinas besides safeguarding the interests of the respective jinas.
Sobhanamuni with his effectful poetic composition has enlightened even non-jainas by describing the jinas, jinatati and jainism and the attendant deities in a very crisp manner. The scheme is appreciable. Due to his such solitary work which acclaimed unique position in many aspects, Sobhanamuni remains immortal in the minds of the followers of this religion. Although the names of these deities are familiar in Hinduism, there are several characteristic differences which would be described at another occasion. It is not, however, to be disputed in respect of comparisons of levels. After all belief is the foundation of religion and religion is the chief strength of unity and solace among people. No religion proclaims in an unrighteous way. The goal of all religions is to elevate mankind into better regions of behaviour and happiness. Nirvana is ultimate. Mahavirajinalo blesses devotees the same in case one is assiduous towards that.
"Sa Jinottam agamah Sampadam disatu"
(Let that speech of great jinas direct us into prosperity)
10. Jinas are like Avtars. Each jina rejuvinated
the spirits of the religion and its followers from time to time and maintained the popularity and existance of the religion, although it was threatened to that in the annals of history in India. All the Jinas put together, have been a chief source of inspiration. Each jina explained impermanence of material wealth and on the other promoted happiness through renunciation, self control, sense control and such other virtues. Sobhanamuni is specifically emphatic to propagate the sacrifice and virtues of jinas that should form lessons to the humanity at large which known in general misery and suffering.
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EVOLUTION OF THE SANSKRIT STAGE
-Dr. N. P. Unni
bration of a victory. Naturally the temple of the God or the palace of the king was chosen as the venue for the performance. References to dancing balls and music rooms are numerous in Sanskrit dramas and tales. Kalidasa himself has referred to such halls in his works. In Ramgarh hill in Nagpur, Central India, the remains of a Cave which seems to have been used as a stage have been noticed by scholars. It is supposed to date back to the second century B.C. The Naryasastra has mentioned such places as suitable venue for enacting dramas and hence it scems to be a remnant of the hoary past suggesting histrionic activities in the land long before the Christian era.
Anything that has its origin in the history past and beyond the comprehension of the historian is invariably attributed to divine blessing. It is the nature of the Indian mind, and it is only natural that the origin of the Indian theatre is attributed to God Brahman the creator of the universe according to Hindu mythology. This traditional view is preserved and handed down through centuries by the various authors of Indian dramaturgy. Sage Bharata, the author of Natyasastra, the first and foremost authority on the art of histrionics has preserved to us a detailed account of the origin and development of the art of dramaturgy. According to him, "the Natyasastra originally composed by Brahma was too much theoretical, too unwiedly and too obscure to be of any practical use. Bharata was then approached and requested to make the work simple, practical and useful". So Bharata proceeded to compose the work dealing with almost all aspects of histrionics including the stage in which this art form is to be enacted. In fact Bharata could not claim to be the pioneer in this field since his work presupposes a flourishing dramatic literature in Sanskrit. The available text of Bharata containing about 6000 verses divided into 36 chapters also contains several references to ancient writers on histrionics. Ancient Indian Theatre :
What exactly was the nature of the stage in which the Sanskrit dramas were put on in those ancient days ? Usually a drama is enacted on an occasion of special significance such as the festival of a God, royal marriage or coronation ceremony or the cele
Bharata's Stage :
The second chapter of the Natyasastra deals with the architecture and construction of the ancient Indian theatre giving the length and breadth of the theatrical adifices in cubits or hastas. The theatre building is variously called as Nariavesma, Natyamandapa and Preksagrha. According to Bharata, Viswakarman, the creator conceived appropriate theatres for this world in his mind's eye and enunciated the only three possibilities of constructing the theatre in a scientific manner. The three possible types are Vikrsta-rectangle, Catura-Squre and Tryasratriangle and they have the three possible sizes namely Jyestha-the large, Madhyama-the middling and Avarathe small. The dimensions of these edifices also vary. Thus Vikrsta-the rectangular one and of the large size has a dimension of 108 hasta units or
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cubits. The Catura or square type of the middle variety consises of 64 hasta units while Tryasra-the triangular one of smaller size consists of only 32 hasta units. It is also prescribed that the large is fit for Gods, the middling for kings and the small for all other human beings. For dimensional purposes one hasta is fixed as 18 inches. According to some scholars nine possible types are suggested by Bharata, resulting from a permutation and combination of the three types with their shape, size and dimension. But this seems to be too exaggerated since only three types are repeatedly referred to by Bharata.
The largest theatre conceived according to the Hindu authors is the Vikrsta type (10864 hastas or 162' x 96'). This may well be compared to a modern theatre with all modern gadgets. But in the olden days it is not preferred for humans for it will be difficult for them to hear the actor speaking from a distance of 162 feet especially when he indulges in speaking to himself.
The second or the middling is said to be the best for human beings since both speech and music can be heard very well in such a theatre of the normal size1. The triangular shape of this type is intrinsically expressive and therefore appropriately suited. The size of the theatre is 96 x 48 feet.
The third type-the small one-though ordained for human beings is too small to serve the purpose and hence it is not favoured by Bharata.
We may safely conclude that these three varieties of theatres were in vogue in those days at least theoretically. But it seems strange that the author does not specifically refer to any stage with reference to any particular region. Probably a theatre as such as we know in the modern sense was not available for him to refer to. Such edifices perhaps formed the part of a royal palace or a temple with its paraphernalia like the dancing hall, the feeding house, flagstaff and the ornamental gates in several stories. Fortunately some of these temple theatres are available even now and form the venue for putting on histrionic performances on festive occasions.
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1. The Natankusa-a critique on dramaturgyprobably composed in the fifteenth century by an anonymous Kerala author prefers the middle variety and states प्रेक्षागृहाणां सर्वेषां प्रकृष्टं मध्यमं भवेत् ।
Construction of the Theatre:
Bharata has provided an accurate account of constructing the theatre. Selection of the land where the edifice is to be built up is of primary concern. The ideal location is where the land is even, durable, hard and with black or white soil. After marking out the divisions of the building the inauguration of the work is to be done to the accompaniment of musicial instruments. On that occasion all undesirable persons like religious hypocrities wearing red garments, persons who are defective in limbs etc. should be driven out from the scene. On the night of the installation oblations like foodstuffs, flowers etc; should be offered to the deities guarding the cardinal directions.
The theatre consists of three parts viz. the greenroom or Nepathyagrah, located behind the stage, Rangasirsa, the stage proper and the auditorium. Towards the back of the stage a painted curtain is hung-the colour of the curtain being usually in harmony with the dominant sentiment of the play. The height of the stage is generally fixed as four feet. The front portion of the stage is to be decorated with carvings of elephants in rut and this portion is technically referred to as Mattavarani. The wood work of the theatre deserves careful consideration. It must have many artistic elements, so as to form quadrangles ornamented with carvings of wildanimals.
The auditorium is the biggest part of the theatre where rows of seat are to be provided. It is divided into several parts by the pillars erected between several rows. Thus a white pillar marks a number of rows reserved for the Brahmins, a red pillar for the Ksatriyas and an yellow pillar marks the seats of the Vaisyas. The blue-black pillar shows the seating arrangements provided for the Sudras. It shows that those who belonged to the upper stratum of the society with a better understanding of the art were privileged to watch the show from a vantage point while others had to take a back row. But the design of the theatre was such that everybody was able to witness and hear the performance.
2. It is doubtful whether the term has any reference to the carvings of elephants. But the foundations of some of the temple-theatres dug up in Kerala revealed some interesting finds. Thus from the Srivallabha temple in Tiruvalla a small elephant made of Pancaloha the five metal alloy was unearthed. Similarly in the Subrahmanya temple at Haripad, a golden elephant with ruby eyes was found underneath the floor of the theatre. -See Kerala Society Papers, Trivandrum, Series II p. 70.
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The shape of the roof of the theatre is referred to as gable in contrast with a flat roof. This is preferred because of its acoustical advantage. The necessity in adorning the theatre as a whole is also stressed by the ancient writers.
Theatres of the Later Period:
Following Bharata some later writers on architecture, histrionics and poetics have dealt with the various aspects of ancient Indian theatre including its construction. While some of them have treated the subject in detail others have only made a passing reference giving information on some aspects.
him by the term Rangamandapa where musical concerts and dramatic representations were carried out, seem to have been popular in those days. The stage designated as Vratta (of circular type) is attended by the king accompanied by connoisseurs and citizens to watch the performance. Caturasra—the square shaped stage is attended by the king in the company of courtesans, ministers, merchants, senior army personnels, friends and princes. The triangular theatre is to witness performance for the king along with the queen, preceptors, religious teachers and ladies of the harem Thus the occasion on which a particular stage is resorted to is made clear by Saradatanaya. It is also of special interest to note that it is he who mentions a circular stage for the first time.
Thus the Visnudharmottara, often referred to as an Upapurana-a work of encyclopaedic charactercompiled by a Kashmirian Vaisnava author somewhere between 450 and 650 A.D. has mentioned about Natyamandapa-a theatre. In the third and last section of the work he says that Lasya or dance may be performed either in a theatre or in an open space, as suited to the occasion. But he is emphatic that Natya-the dramatic performance should be held always inside the theatre. According to him the theatre can be of two types, viz: Ayata-the rectangular and Caturasra the square shaped one. The dimensions of the square type is given as 32 x 32 hastas or 48 x 48 feet. The exact dimension of the rectangular type is not referred to by him though he has stressed that both these types should not be too big or too small because of various reasons. Too big a theatre would be of no use since the dramatic performance consisting of action as well as singing could not be properly seen or heard by the audience. In case the theatre is too small then again the performance will be affected by echoes and similar other factors.
Manasara a well known work on architec ure composed between the 11th and 15th century A.D. has devoted a chapter on theatres attached to royalpalaces. The work mentions the various materials like wood, stone, brick and various kinds of metals used for constructing the theatre though the dimensional details of it are not mentioned. The importance of decorating the theatre with carvings and sculptural beauties is stressed by him. The figures of leographs (Vyali) and crocodiles (Makara) are mentioned in this connection.
Naryasarvasvadipika of unknown date more or less follows the classification of theatre made by Bharata mentioning the three varieties. The only difference in the view is that the Vikrsta type is given a greater dimension than in Bharata. According to the work the largest type of theatre should have a length of 128 hastas or 192 feet.
Sangitamak aranda attributed to Narada, dealing with Sangita and Nrtya in four chapters on each of the topics, incidentally gives the dimensions of the theatre. The work, probably composed in the 11th century A.D. refers to a single type of theatre which is square in shape and having a dimension of 96 x 96 hastas. It may be pointed out that he differs in this respect from Bharata and others.
Bhavaprakasand of Saradatanaya composed between 11-13 century A.D. mentions three types of theatres probably attached to royal palaces. According to him the theatre may be Caturasra, Tryasra and Vrtta. But the dimensions of these varieties are not given by him. These theatres referred to by
There are quite a number of Sanskrit works described under the general titles music and dancing' giving information on the different easpects of the stage and stage-craft. Most of them more or less follow the authoritative work of Bharata. It is not easy to give a comprehensive account of the literature within a limited space. So vast is the material and so diverse the intrinsic merit and variety. Generally theatres are described as a part of the royal palaces though occasionally we find a few references to theatres outside the walls of the palace.
Temple Theatres of Kerala :
Coming to Kerala we get descriptions of temple theatres where Sanskrit dramas were put on from a very early period. Works dealing with the structural
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details of the temple include provision for the theatre which is usually designated as Kuttampalam.3
Despite a vast number of kingdoms and principalities with its numerous palaces of ancient Kerala, the temples were regarded as the centres of culture and arts. Though occasionally members of the royal palace were inclined to witness a performance of actors within the walls of their enclosures, as a general rule they preferred the temple theatre. Hence they themselves have caused numerous temple-theatres to be built in the various prominent temples of Kerala, some of them dating back to 9th century A. D. As a rule every major temple will be having at least one permanent stage where the Cak vars (a class of professional actors of Kerala belonging to the group of temple servants called Ampalavasis) used to put on Sanskrit dramas on the occasion of festivals. The existence of such theatres on a permanent foot. ing has naturally resulted in a rich dramatic heritage of Kerala by not only preserving the old Sanskrit plays but also giving impetus to compose new ores for the stage. Ancient kings of Kerala like Kulasekharavarman and others wielded the pen successfully and enriched the dramatic heritage of the land bringing out works like Tapatisamvarana and Subhadradhananjaya. This feature of the temple was so permanent and essential that manuals on temple architecture began to incorporate the dimensional aspects and structural details of theatres in their fold.
This according to Tantrasamuccaya of Cannas Narayana Namputiri (born in 1428 A.D.) the Natyamandapa is to be located to the right side of the temple facing the principal deity? Towards the rear part of the edifice the stage proper is to be 3. There are tracts which deal with the renovation
of temple-theatre. Manuscript No. 17444 of the Kerala University Manuscripts Library entitled Nartanaranganavik arana vidhi prescribes the mode of renovating the stage in the Kerala temples. Manuscript No. 21883 of the Kerala Universities Manuscripts Library entitled Natabhisekavidhi deals with the caremonial inauguration of the
actors on the Kerala stage. 5. See Dr. N.P. Unni, Sanskrit Dramas of Kulase
khara-A study, College Book House, Trivandrum
1977, for details. 6. Trivandrum Sanskrit Series No. 151, 169 and 200.
The work is a digest in 12 Patalas dealing with the consecration and worship of the major Hindu deities.
built, the shape of which shall be square with four pillars supporting the roof. Just behind the stage is the place for accommodating singers and their accompanists. The green-room is located behind this place. Thus the theatre will be having the greenroom, the place for musicians, the stage-proper and the auditorium where the spectators are admitted It is to be noticed that no proper seats are provided for them. They have to sit on the level ground which of course is some two or three feet above the actual ground level over which the theatre is built. It is also laid down that the actual size of the Natyamandapa should have some proportion to the circumference of the sanctum sanctorum. But this proportion is different according to different authorities and hence a uniformity in its size is seldom met with. About five different methods to arrive at this proportion is to be found. The roof of course, is provided with titles or copper sheets. But the theatre should have three stupas or ornamental domes of pyramidal shape one of which should be directly above the centre of the stage proper. Such kind of stages called Kuttampalams are to be noticed in some of the major temples of Kerala. At present there are about twenty such theatres in the temples of this region.
Many of these temple theatre can be compared with the Vikrasta type propounded by Bharata. As in the case of the above type it is also rectangular in shape. The only noteworthy difference is its dimension. Whereas the Natyasastra is specific regarding the dimension of the types of theatres, the dimension of the Kerala temple theatre is determined in relation to the circumference of the strine. Thus about half a dozen dimensions can be postulated for the temple stage. Still one may say that it has its origin in the prescription of Bharata.
It must be admitted that these temple theatres have gone a long way in preserving the theatrical traditions in India. Theatres forming an integral part of royal houses having been gone inaccessible to the people at large, temple theatres brought the art of histrionics closer to them. Undoubtedly it has resulted in the growth of dramatic literature in this part of the country. It has also caused to preserve ancient dramas like the thirteen Trivandrum plays ascribed to Bhasa.
The formation of the temple stage may well be termed as an evolution in Indian theatrical traditions. For the first time it brought literature and art as the common heritage of all the people. Masses
(Contd. on page 37)
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JAINISM IN SOUTH INDIA
G. V. Raju. M. A. (Hons)
In South India, Jainism is little more than a name. Even serious students of religion in India paid little attention to it. In a population of nearly 60 crores of people, Jainas may constitute nearly some 3 million people. But the influence it wields, its contribution to the development of Indian culture, commerce and industry is out of proportion to their population. Jainological material is so rich and varied and so much extended in time it is impossible to write about it in few pages. Because of this limitation the paper will be simply a fringe study and a general survey.
In this brief paper an attempt is made to trace the rise of Jainism as religio-philosophical system, its contribution to Indian Philosophy, Religion, Metaphysics and Logic, Art and Architecture, languages and literatures, and also a brief summary of its history in Andhra Pradesh.
The Jainas claim hoary antiquity for their religion. Vishnu and Bhagavata Puranas also mention this fact. The tradition says that during the time of the Mahabharata War Jaina order was led by Neminatha, the 22nd Thirthankara and he belonged to Yadava family. The order gained strength during 8th century B. C., under Parsvanatha, the 23rd Thirthankara
In Parsvanatha we have the first historical beginnings of Jainism. Mahavira was born in the middlo of the 6th century B.C. It appears he was influenced to a great extent by Gosala and the followers of Ajivaka sect also. According to one tradition there were 5 heretical sects. They are :
1. Akriyavadins of Purana Kassapa, 2. Anuvadins of Pakuda Kaccayana, 3. Ajivakas of Makkhali Gosala, 4. The materialists of Ajita Kesa Kambalin, and 5. The sceptics of Sanjaya Belattiputta.
All these systems including Buddhism and Jainism were considered as Non-Brahmanic or Sramanic systems. The common feature of these systeins are : 1. They challenged the Vedas 2. Admitted all members to their community 3. Observed a set of ethical principles 4. Practiced a detached life to get liberation 5. Accepted renunciation.
These sects indicate there were two trends of thought, Brahmanic and Non-Brahmanic even from earlier times and these two trends influenced Indian Philosophy and Religion equally. 2. Agnosticism of Sangaya influenced Mahavira's
Syadvada. Agnanavada declares that of thing beyond our experience the existence or nonexistence or simultaneous existence and nonexistence can neither be affirmed nor desired. Prof. Oldenberg is of the view that even the Buddhist conception of Nirvana was influenced by agnosticism.
1. The Digambaras are found chiefly in South India,
North Western provinces, East Rajasthan and Punjab; The Svetambaras in Gujarat and western Rajasthan and a sprinkling of them all over India.
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The records of the Buddhists and Jainas about the philosophical ideas of those days are of great importance to the historian of religions. The similarity between some of those heretical doctrines on the one side, and Jaina or Buddhist ideas on the other, favours the assumption that the Buddha as well as Mahavira owed some of their conceptions to these very heretics. Contribution to the development of Languages :
The Jainas have played a very important role in the linguistic development of the country. Sanskrit has all along been the medium of sacred writings and preachings of the Brahmanas and Pali that of the Buddhists. But the Jainas utilised the prevailing language of the area for religious purposes. Thus they developed Prakrit and other regional languages.
of late rich literature produced by the Jainas came to light. The literature in Apabhramsa is worth mentioning. This language is a link between the Sanskrit, Prakrit, the classical languages on the one hand and modern Indian languages on the other. It is surprising to note that the earliest literature in Kannada and Tamil is also of Jaina authorship Jaina Ethics :
Contribution of Jaina ethics to Indian ethical theories is also note worthy. It is different from the Bhakti Marga of the Bhagvatas, Jnana Marga of the Vedantins and Karma Marga of the Mimamsakas. Jainism holds that all the three must coexist in a person, if he is to walk along the path of salvation. Taking the analogy of medicine, faith in its efficacy, knowledge of its use, and the actual taking of the medicine. All these three are essential to effect a cure. Similarly the suffering soul can be cured by Ratnatraya, the three principles of Right faith, Right knowledge and Right conduct. The doctrine of Ahimsa though found in the epics, was preached on extensive scale, by the Jainas and Buddhists. Ahimsa must be observed both by the saints and the laymen according to Jainas and Buddhists, where as in classical Hindu tradition it was meant only for the Sanyasis.
In metaphysics there is some general likeness between Sankhya and yoga on the one hand and Jainism on the other. Dualism of matter and Soulis accepted by all these systems. Souls are like substances like Monads and they are characterised by intelligence. The actual difference between the souls is caused by their connection with the matter. Jainas and Sankhyas believe matter to be of indefinite nature and it can become anything.
The summarise Jaina philosophy the living and the non-living, by coming into contact with each other forge certain energies which bring about birth, death and various experiences of life. This process could be stopped and energies already forged destroyed by a course of discipline leading to salvation. A close analysis leads to 7 propositions : 1. There is something called living, 2. Something called non-living, 3. the two come into contact with each other, 4. The contact leads to production, 5. This process of contact could be stopped, 6. The existing energies could be exhausted, 7. The salvation could be achieved.
Those seven propositions are called seven tattvas or realities by the Jainas. “The first two great truths are that there is a jiva or soul and that there is an ajiva or non-soul. These two exhaust between them all that exists in the Universe. Contribution to Literature :
The contribution of the Jainas to Sanskrit and other Indian languages is noteworthy. Dr. Winterniz says that there was a close connection between Jaina and post Vedic literature. The story of Jajali and Tuladhara (M. bh. XXII, 261-64) the fable of the Hunter and the pigeons (M. bh XXII, 143-49) and the legend of Mudgala in Mahabharata (V, 23-40) indicate this close relation
Prof. Hertel has shown that their contribution to narrative and story literature is much. He says that the Jainas have preserved much of Indian tales that otherwise would have been lost to use. They have also compiled great collection of tales. Kathakosa by Subhasilagani, Kathankakosa by Jinesvara, Kathamahodadhi by Somachandra (1448 AD) Katharatnakara by Hema Vijaya (1600 A.D.) are some of them.
Metaphysics :
The tenets of Jainism are not always casy to grasp mainly due to two reasons. Firstly on account of our relative unfamiliarity with the ancient background and secondly on account of highly complex and perplexing system of innumerable divisions and sub divisions in the Jaina order.
3. Jaina contribution to Indian Literature, Winter
nitz, p. 6. 4. Ibid, p. 10 See also the literature of the Svetam
baras of Gujarat, Prof. Hertel (1922)
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They wrote many charitas and Prabhandas. The charitas are legendary biographies of the Thirthankaras, Chakravartins and Rishis. Prabhandas contain stories of famous monks and laymen of historical times. Sthaviravalicarita, Prabhandhacintamani of Merutunga and Prabandhakosa of Rajasekhara gives us a glimpse of the social and cultural history of those times.
Some of the novels are Somaraiccakaha of Dhanavala (romantic epic in Apabhraírsa) and Somadeva Suri's (959 AD) Yasastilaka are of this type. It has also been shown by Prof, Hertel that the popular recensions of Pancatantra are the works of the Jainas. Dhananjaya Srutakirti wrote to prove his mastery in sleshas by writing Raghavapandaviya (1123-1140 A.D.)
The Jainas have some books written in drama styple also. Mohaparajaya of Yasopala narrates the story of Kumarapala's conversion to Jainism Many of the poetical works are written in the apabhramsa dialect. The Jainas also have lexicographical writings. Their contribution to grammar is also noteworthy. According to some scholars the grammatical writing Siddha-Hemchandra by Hemchandra is in many respects better than that of Panini's Grammar. The oldest Prakrit lexicon is the work of a Jaina scholar, Paiyalacchi Namamala of Dhanapala (972 A.D.)
Arts and Architecture :
The Jainas have a due share in the development of Arts in the country. In honour of their saints they erected Stupas as the Buddhists with their accessories of stone railings, umbrellas, decorated gateways and pillars and statues. The Gomateswara statue at Sravana Belagola (10th Century), the collosal reliefs carved on the rock face near Gwalior (15th Century A.D.), the Hathi Gumpha caves in Orissa, Pava puri, Rajagiri in Bihar, Girinar and Palitana in Kathiawar, possess temples and architectural monuments of different ages. The Jaina marble temples at Mount Abu in Rajasthan belonging to the eleventh century and later. carry to its highest perfection the Indian genius for the invention of graceful patterns and their application to the decoration of Masonry. Andhra's Contribution to Jainsm :
For the spread of Jainism the south played a vital role. We find evidence for it in Jaina literature. During the reign of Chandragupta Maurya (4th Century B.C.) Magadha was ravaged by a 12 year long famine. Some Jainas under the leadership of Bhadrabahu came to the South and by that time Jainism was a flourishing religion in the South.
In "Hari Bhadriya Vritti” it is written that the King of Kalinga who ruled during the time of Vardhamana mahavira was a friend of Vardhamana's father and Mahavira came to Kalinga and preached his religion.
Dharmamrita, a classic of 12th century A.D., mentions that even during the times of 12th Thirthankara, Vasupujya Jainism was prevalent in the Andhra country. Tradition also says an Anga king come with his three sons to Vengi who later became Jainas and built a city known as Pratipala pura which is some where near modern Bhattiprolu.
The Jaina tradition also mentions that Asoka's grandson Samprati became a Svetambra Jaina and spread the religion in Kalinga. The Andhra and the Kalinga countries might have been strongholds of non-Vedic religions for long, for Bodhayana says that whoever goes to Kinga must perform Prayschitta",
During the regime of Kharavela (2nd century B.C.), Jainism spread into many regions of Northern Andhra and Orissa. The rock caves at Khandagiri and Udayagiri bear testimony to the same. The 5. Bodhayana 1.1.30, 31. 6. See M. Somasekhara Sarma's article in Telugu,
in Vijnana 'Sarvasvam' Vol. III.
Jaina's philosophical literature is rich. Umasvati whom Prof. Suali would place as early as 300 A.D., in his Tattvarthathigama Sutra expounds the doctrine of categories and theory of Pramanas.
Siddhasena Divakara in his Nyayavatara wrote for the first time a treatise on the means of proof (pramana) and the methods (Naya) of comprehending things from particular stand points. Devasuri (1086-1169 A.D.) wrote Syadvada Ratnakara. Even in 17th century we have great logician in Yaso Vijaya Gani who wrote great number of works on Logic.
Another commendable thing in some of these Jaina philosophical works is their liberal attitude towards other religious beliefs. A study of Shaddarshanasamucchaya reveals this. They dealt about many of the sciences and even on politics Jaina contribution is noteworthy, Somadeva Suri, the author of Niti Vakyamrta can be compared well with the classical Indian Niti writers like Kautilya and Sukra.
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Satavahana rulers of Pre-Christian era who ruled a vast territory which now comprises of Andhra, Maharashtra and Karnataka states were also influenced by Jainism. "Kalakasuri prabandha' writes that one of the Satavahana rulers of Pratistanapura used to attend a Jaina monk's discourse.
JAINISM IN KARNATAKA Even before the reign of Chalukya king Pulakesi the (7th Century A.D.) Jainism was a dominant religion in the Karnataka. All the later kings like Vinayaditya, Vijayaditya helped jaina saints in spreading their religion. During Vatapi Chalukyas and Rashtrakutas in whose kingdoms much of Andhra (mainly Rayalasema and Telangana regions) was a territory influenced by Jainism as these kings were great patrons of this religion.
During the Rashtrakuta king Nitya Varsha Indra Vallabha (915-927 A.D.) Bodhan was his capital and even now it is considered by the jainas as one of their Adima Thirthas. The famous Jaina Acharya Somadevasuri of that time wrote many books and spread the faith the Telangana region. From 2nd century B.C. upto 800-900 A.D., there
were no inscriptions bearing the dates of that period. It might be the period of Jaina decline in Kalinga and it was only during that period the Vedic and the Buddhistic religions began to flourish in Kalinga.
Tradition says that in a village known as Gangaperuru in Rayalasema, a Jaina monk known as Simhanandi Acharya lived. The princes who fled from a town known as Vijayapura in northern India, sought his protection and later founded the famous Ganga dynasty with his blessings. Excavations conducted at Danavulapadu in Cuddapah district revealed the extent of spread of Jainsin in that area.
The founder of Eastern Chalukya dynasty Kubjavishnuvardhana (624-641 A.D.) was brother of Pulakesi II. During his period Vijayawada was a great Jaina centre. His Danasasana (762 A.D.) indicates that he was a great portion of Jaina religion.
khapatnam Dt. was having Jaina temples. In Nellore district upto 13th Century there were Jaina temples. Spread of Saivism and Vaishnavism and decline of
Jainism :
During the 12th and 13th centuries Saivism began to spread in Andhra and there used to be religious debates over these religious faiths. There were many clashes between the followers of these faiths and of the Jaina Bastis (centres)' were destroyed by the Saivites. Panditaradhyacarita of Palkuriki Somanatha and Sivaratrimahatmya of Srinatha gives evidence to this fact.
It is a wonder that though Jainism was prevalent for more than 1500 years in Andhra only one book written a by a saint of this area is available now. It is Jinendra Kalyanabhyudaya by Appayacharya (1241 Saka era).
While Saivism became popular during Kaltiya kings, Vaishnavism became popular during Vijayanagara kings. Spread of these religions led to the decline of the Jaina faith. But Jainas have their piligrim even now. Kollipaka in Nalgonda district is a jaina kshetra and Penugonda in Anantapur district is one of the Jaina chaturdasa mahavidya sthnams.
For an Archeaologist and epigraphist who wishes to study Jaina history Andhra provides a rich sources
*Padu' were all Jaina villages. In many places in Andhra we find wells known as Jainabavulu. They are of a particular type of construction. They are covered by lids so that animals in the streets may not fall in the nights. Similarly in many villages we find idols called as 'Sanyasi Demullu. All such villages were once Jaina villages. Many such villages are found in Coastal
Andhra. Its relevance :
To understand Indian Philosophy and culture in broader perspective study of Jainism is essential. As Prof. Hopkins puts it, Jainism "represents a theological mean between Brahmanism and Buddhism. Then assuredly a serious study of Jainism becomes incumbent on all who may seek to understand aright either the early. Brahamnic ritual or
Ramatirtham in Visakhapatnam district was both a Buddhist and Jaina kshetra and now it is a famous Hindu kshetra. Excavations at Penugonda in East Godavari district revealed that it was once a Jaina religious centre. At the time of Kullotunga Chola son of Raja Rajanarendra, Munugodu in Sattenapalli taluq was a Jaina kshetra. Another inscription of 1178 A.D., reveals that Bhogapuram in Visa
7. Basti means a village flourishing with Jainas and
Jaina temples. 8. It is said that many of the towns with a suflix 9. E.W. Hopkins, The Religions of India, p. 283.
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the trenchant and for long effective Buddhist protest which that elaborate ritual evoked"10.
The interest of Jainism to the stuudent of religion lies in the fact that it goes back to a very early period and to primitive currents of religious and metaphysical speculations, which also gave rise to the oldest Indian philosophies like Sankhya, Yoga and Bu9dhism. It also shares their theoretical passimism and the practical ideal of liberation 11
Jaina approach to truth saying that it has many facts leads to relativism though not to pluralism. Their acceptance of the uniqueness of each soul and stress on individual effort to reach kaivalya makes it a humanistic religion. The ills of the 20th century are absolutism and ideological dogmatism. These attitudes will lead the world to catastrophy and more so in a nuclear age.
The Jainas say our affirmative predication is dependent on Svadravya, Svakshetra, Svakala and Svabhava. If it is paradravya, parakshetra, parakala and parabhava it can be negatively predicated. This approach to understand alien religions, cultures, political and social systems will lessen the tensions in the world and improve our quality of life and make this planet a better place to live. As Ratnasekhara in Sambodhasattari says "No matter whether he is a Svetambara or a digambara, A Buddhist or a follower of any other creed, one who has realised the self sameness of the soul, i.e., looks on all creatures as his own self, attains salavation"12. O 10. Mrs. Sinclair Stevenson, The Heart of Jainism
p. XI. 11. See Jainism' in Encyclopaedia of Religion and
Ethics. 12. Radhakrishnan, "Indian Philosophy", Vol. I,
p. 328.
AVADHU ATMAJNAN MEN RAHANA
(ray ! 37TATA EFT!) Avadhu, live in the realization of soul
never say anything to anyone One who realizes the self, knows all beliefs
fighting In the heart does not keep onesidedness,
sees two-coloured wings All sorrows and sickness end, becomes
immortal and unchanging Does not believe in muum and tuum
breaks the worldly bondage He keeps in his mind and soul the form
which is invisible, incomparable, ultimate He forsakes the pleasures of physical sight,
with determination follows intuition One thief is very active and militant
he is found all over the world in sly One has to keep vigilent and not permit
him to enter the house secretly One who leaves one and takes up the other
only fans the fires of passion Suri Rajendra's saying you ponder
keep yourself on vigil, well-equipped.
(Contd. from page 32 ) were attracted to the campus of the temple to witness epics and Puranas of India, were also put on the performances. The Hindu shrine, being the centre
stage with suitable arrangements and adaptations. of culture, formed the appropriate venue for the
In short, the stage went on to preserve a lively trastage.
dition of an art which is rightly called by Kalidasa
as the only source of pleasure in different ways to The activity of this stage was not limited to
men of different tastes. 10 dramatic performances alone. Praband has and Campus in Sanskrit, drawing their theme from the 10. Malauikagnimitra, 1.4.
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RAJENDRA SURI : A REFORMER AND REVIVALIST
-B. N. LUNIYA
Seven hundred years of foreign rule in medieval period had sapped the political vitality of the Hindus, and uprooted whatever national consciousness they ever possessed. Their civil and religious rights were constantly trampled down, their property often plundered, and their blood was wantly shed. They were reduced to the position of hewers of wood and drawers of water. All this led to a general deterioration in Hindu society and religion. The society was honeycombed with caste, sub-caste and rigid distinctions. The characteristic of the society were a rigid caste-system with its attendant restrictions about touch, food, and marriage, and the strict prohibition of the re-marriage of the widows, Sati-system, rigid untouchability and the old inequitous attitude towards the lower castes. Dishonesty and corruption were rampant and the people were selfish and devoid of conscience. The purity of domestic life was threatened by luxury and debauchery, fashionable in the court, aristocracy and well-to-do families, and the sensual literature that grew up under such patrons.
So far as the Hindu masses were concerned, religion meant only an unending series of rituals and ceremonies, performed ins trict accordance with scriptural rules. Many abnoxious rites were practised by the common people and immoral customs, with belief in witchcraft and sorcery, were in vogue. These were partly legacies of tantric beliefs and practices which had a strong hold in the country. Religion, as a source of moral purity and spiritual force, exercised little influence ever a large section of the common people. In fact, religion had become the handmaid of voice and folly.
The British rule in India introduced English education and western culture. English education opened the floodgates of the western ideas which almost overwhelmed the Indians at the beginning of the nineteenth century. It brought in a spirit of rationalism which seeks to inquire and argue before accepting any thing. It made the Indian mind revolt against the tyranny of domgmas and traditional authorities, beliefs and customs. The impact of western culture and English education affected many aspects of Indian life and society, and the Brahma Samaj was its early outcome. Its founder Raja Ram Mohan Ray challenged the current religious beliefs and social practices of the Hindus as not being in consonance with their own scriptures. He openly protested against the blind acceptance of whatever passed current on the authority of priesthood or its interpretation of scriptures. He set in motion that liberalism in thought and action which has enabled Indians to shake off the fetters of ages. His Brahma Samaj effectively helped the progress of the Hindu society and religion by holding a living example of society, based on progressive and liberal views, and religion based, on rationalistic principles. Two main planks of the Samaj were theistic worship and social reform--such as abandonment of caste-system, introduction of widow remarriage, encouragement of female education, and the abolition of Purdah and child-marriage.
Like Brahma Samaj in Bengal, Prarthana Samaj was established in Bombay and it had its branches in Bombay and Madras Presidencies. The Prarthana Samaj did not regard the Vedas as divine or infallible,
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nor believe in the doctrine of transmigration and incarnation of God. It drew its nourishment from the Hindu scriptures and used the hymns of the old Maratha poet-saints in the prayers.
But more important than the Brahma Samaj and the Prarthana Samaj was the 4rya Sumuj, socioreligious movement of the second half of the nineteenth century. It was founded by Dayanand Saraswati. The Arya Samaj condemned polytheism and monotheism as preached by Christianity and Islam. If the Brahma Samaj appealed to the English educated classes, the Arya Samaj appealed to the emotion of the masses. The Arya Samaj laid down that the Vedas are the books of True Knowledge which everyone shouldstudy. It tried to inculctate virtue and morality to which no religion can possible take any exception. It aimed at the reform of religion and society by reviving Vedic rituals and institutions, rejecting the hereditary castc-system, and not recognising the authority and superiority of the Brahmans merely on the ground of birth. The Samaj denounced the worship of gods and goddesses and preached that only the Supreme Being should be worshipped; it proclaimed the right of every body to study the Vedas and Hindu scriputures, it encouraged inter-caste marriage and adopted a brisk programme of education, especially female education.
vasana) and lure for gold and women and turning all thoughts and actions towards God. He believed in the harmony of all religions. He demonstrated by precept and example that all the different religions are true in their essence and may lead to salvation if properly persued. He said that the different creeds are but different paths to reach the same God. He put on a high pedestal the virtue of toleration and reverence for all religions. The catholicity of view is great contribution of Ramkrishna to the modern world which religion has divided into so many watertight compartments. He said, "In whatsoever form or name you desire to call God, in that very form or name you will see Him." The teaching of Ramkrishna gave the Hindu Revivalism a moral sanction, a philosophical basis, and a new spiritual significance of immense value. Swami Vivekanand, the worthy and noble disciple of Ramkrishna, stressing unflinching faith in Hindu religion. carried the divine message of Ramkrishna far and wide all over the world. He aimed at the elevation of masses by means of education based on religion and for this purpose he established new organisation Ramkrishna Math and Mission the greatest spiritual force and centre of social service in Modern India. Vivekanand and Ramkrishna Mission saved Hinduism from destruction by the reactionary elements. It placed Hinduism on high pedastal and resisted onslaughts of Christanity and Islam.
A new religious movement called neo-Hinduism also came in the lime light in the second half of the nineteenth century. Its common characteristic was the glorification of Hindu religion and society in their current forms and a spirited defence of these against hostile criticism both by Indian reformers and Europenan missionaries. it sought to reconcile ancient Hindu ritualism and medieval Hindu faith with modern science, and it made people feel a new pride in their culture and religion, Pundit Sasadhar Tarka-Chudamani, Krishan Prasanna Sen, and Bankim Chandra Chatterji were great advocates of neo-Hinduism.
Another important religious movement of the last century was the Ramkrishna Math and Mission. Ramkrishna, a priest and saint of Dakshineswar Temple near Calcutta realised divinity in humanity and emphasized the service of mankind as a means to salvation. He expressed the highest wisdom or greatest truth in simple sentences and parables. The theme of all his discourses was the realisation of God as the highest human ideal, attainable only by development of high spiritual life. This was only possible by discarding desire for material prosperity (vishaya
The religious movements in the nineenth century led to similar movements in other sects of Hinduism, Jainism, Sikhism, etc. Various existing religious sects reacted in the same way to the new spirit of the age. The Madhavas of South India, the Shrivaishnavas of Mysore, the followers of Chaitanya cult in Bengal, the Shaivas, the Lingayats, the Smartas, the Radhaswami Satsang in Uttar Pradesh etc. launched their reformation and revival movements, to preach the principles of their sects and to strengthen and defend their position.
Jainism did not lag behind in this age of religious reform and revival. It also breathed the new spirit of the age. Jainism in the last century was divided and sub-divided into narrow sects. Superstition and dogmas rather than true rational principles of religion dominated them. The holy scriptures of Jainism including Agamas were stored in dark dingy cells in temples and Upashrayas, and they were forgotten. The study of holy books was callously neglected. To masses Jainism was an unending series of rituals and ceremonies, a rigid observance of certain beliefs,
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practices and fasts. Religious knowledge was based upon blind faith impervious to reason. Religion as a source of ethical values, moral parity and spiritual forces exercised little influence over a large section of Jain community. The Jains was expected to observe non-possession (aparigrah) and non-violence (ahimsa) in their daily life. They were to follow certain ethical code and moral values, but they set them at naught. Greed of possession and lust of gold were rampant in the Jain society. The Jain temples, which once were resounded with the recitation of prayers to Tirthankaras, songs of devotion and sayings from the holy saints and verses from scriptures, were now in dilapidated conditions, and were neglected. Some of them were in the custody of non-Jains and were used as armoury. Various types of arms were stored in them. There was a general deterioration amongst the Jain yatis, monks and they were divided into different narrow sects. The life of a Jain monk was over burdened with the observance of rigid beliefs and practices. They neglected the study of holy books. The institution of Jain yati had degeneraten considerably. The yaris were expected to be pious in life, observe celibacy, and be custodian of Jain scriptures. They were to be earnestly devoted to the cause of preaching and propagation of the principles of Jainism. But in the last century, the yatis were callously indifferent to the noble ethical code of Jainism. They neglected teaching and preaching. They lived in palacial mansions, surrounded by bond of admirers. They indulged in princely luxurious life and enjoyed all the privileges and pastimes of wealthy persons. The life of pati Dharnendrasuri bears testmony to all this. Jainism, therefore, needed reformers and revivalists like other religious sects in the nineteenth century and Providence provided one in Ratna Raj, better known as Rajendrasuri. Reformation of Jainism was one of the main currents of the religious movements of the century.
Ratna Raj was born on the 3rd of December, 1827 at Bharatpur (Rajasthan) in a family of business man named Rishabhadas Parakh. Having religious bent of mind he renounced the worldly life and was initiated as Jain yati by Hemvijayaji at Udaipur in 1846 and he was now known as Rajendrasuri. He had studied diligently the Jain scriptures, philosophy, literature, grammar, rhetoric, lexicography, etc. under Pramodsuri and Sagarchandji, the well-known yatis of the age and soon he acquired proficiency. Shri Dharanendrasuri yati was so much impressed by the profound scholarship of Rajendrasuri that he appointed him his daftari and entrusted the task of teaching the groups of yari disciples. But soon Rajendrasuri was disgusted with the princely and luxurious life of Dharanendrasuri, it was an utter disregard and
contradiction to the Jain principles of non-possession and non-violence. Consequently Rajendrasuri left Dharanendrasuri in 1864 and this was a turning point in the life of Rajendrasuri.
Now he raised his voice against the corrupt and luxurious life of the yatis and condemned their abundance of possession and insisted on a pious ideal life in accordance with the principles laid down by Jain Tirthankaras and Jain holy scriptures. After prolonged deliberations, he issued nine-point manifes to for the purpose and explained to the Jain world the significance of his nine principles of reform that the yatis had to follow. It was a vigorous attempts to reform the institution of yati and place it on sound, simple and rational principles and get rid of its age. old traditions and superstitions. Though opposed in the initial stages, the attempts of Rajendrasuriji were ultimately crowned with success. His nine-point manifesto was accepted and recognised by the leading yatis of the age and even Shri Dharanendrasuriji also signed it. As a result of this the yatis had given up their worldly life and surrendered their princely symbols like silver rods, chanwar, palkhi, arms, etc. to the Jain temples, and took solemn oath to lead a life of purity, simplicity, celebacy, non-possession, nonviolence, teaching and preaching. Thus Rajendrasuri reformed and simplified the yari institution, tin thui sect of Jainism, and a new life of revivalism was infused in them.
Rajendrasuri did not end at the reformation of the yati institution, it was his first task of revival movement. His other achievements were restoration and reconstruction of Jain temples and installation of Jain images and establishment of different socio-religious organisations for the uplift of the Jains and propagation of Jainism. Like a pious, true, diligent monk, devoted to the cause of Jainism, he walked from place to place in Rajasthan, Gujarat, Malwa, etc. teaching, preaching and infusing new spirit of the age among the people. He appealed to the massess by delivering his discourses in simple dialects of the people, the common spoken languages of the masses-Malwi, Gujarati, Marwari, etc. He inspired the Jain monks to study profoundly the Jain scriptures. He himself devoted to the deep study of Jain works. He was bitterly opposed to the storage of Jain works in isolated places; he eagerly desired to bring them to light for the propagation of Jainism. He himself wrote collected and edited certain important Jain works. He compiled the famous Jain encyclopaediaAbhidan-Rajendra. It is a monumental work in seven volumes. This worrk itself places Rajendrasuri on a high pedestal of Jain scholars and pioneers of religious movements of the nineteenth century.
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SAMITALI
Pाजेन्योति
T.G.SHARMA
आशीर्वचन
श्रीमद विजयविद्याचन्द्रसूरीश्वरजी
Fivalespersonal use only
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YA-30
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नामद राजेन्टसरि जन्म साईशताब्दीग्रन्थ मुनि जयन्तविजय मधुकर
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माहन खड़ानतीय
नालारामजार
प.अ.भा.श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद केन्द्र- श्रीमोहनरखेड़ा तीर्थ
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भक्ति का प्रतीक है यह ग्रन्थ
स्व. पू. पा. गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी। म. के द्वारा परिषद को स्थापित किया गया और परिषद अपने लक्ष्य में गतिशील है, यह सर्वविदित है । अनेकविध । प्रवत्तियों में परिषद का इस ग्रन्थ-प्रकाशन का कार्य समाज । के इतिहास-पृष्ठों पर अमिट रूप से अंकित रहेगा। इस । कार्य को संपन्न करने में सम्पादक-मंडल ने सराहनीयः । पुरुषार्थ किया है । यह तो स्पष्टतः विदित है ही किन्तु इसमें परिषद् के कर्मठ कार्यकर्ता एवं भू. पू. अ. भा. परिषद् के । अध्यक्ष डॉ. श्री प्रेमसिंहजी राठौड़ एव परिषद् के कोषाध्यक्ष श्री शांतिलालजी सुराणा का अभिनन्दनीय सहयोग, लगन । एवं दक्षता को कभी भलाया नहीं जा सकेगा।।
__डॉ. श्री नेमीचन्दजी जैन, परिषद् के महामंत्री श्री। सी. बी. भगत एवं श्री ओ.सी.जैन का सहयोग अविस्मरणीय । रहेगा।
परिषद को गतिविधियों से समाज का प्रत्येक गुरुभक्त सुपरिचित है, उसकी उत्तरोत्तर प्रगति की प्रक्रिया चल रही है। गुरुदेवश्री ने जिन विचारों को साकार रूप । देने का कहा था उन्हें लक्ष्य में रख कर यह संस्था इसी प्रकार । के उल्लेखनीय-स्मरणीय कार्यों को करने के लिए भी अपने । को जागत चेता बनाये रखेगी ऐसी आशा ही नहीं पूर्ण । विश्वास है।
ग्रन्थ-प्रकाशन में परिषद-शाखाओं ने एवं परिषद्-प्रेमी। गरुभक्तों ने जो लाभ लिया है, अवश्य उन्होंने धन्यवादाह । लाभ लिया है । शुभम्
नीमवाला उपाश्रय, रतलाम ज्ञान पंचमी बी. नि. सं. २५०३
-जयन्तविजय 'मधुकर
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________________ ITTTTTTTTTIWIKIWARITTHALILM प.पा.कविरत्नजआचार्यदेवेशा श्रीमदविजयविद्याचन्द्र सूरीश्वरजीम. प्रेरणा:- मुनिराज श्रीजयन्तविजयजीमधुकर प्रकाशक:-अभाधीराजेन्द्र जैननवयुवकपरिषद केन्द्रः श्रीमोहनखेड़ाती मूल्य-३१-रूपये तोलाराम.जी.शर्मा Jain Education Intemen suunal Use Only www.jainelibrary.