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________________ हैं। मुनि और त्यागियों के लिये अहिंसा धर्म महाव्रत के तौर पर पालन करना चाहिये । हिंसा के स्थूल रूप से चार प्रकार बतलाये गये हैं । आरम्भी, उद्यमी, विरोधी और संकल्पी ऐसी चार तरह की हिंसा होती है। गृहस्थाश्रमी को सिर्फ संकल्पी हिंसा का त्याग बतलाया गया है । पंचसूता और कृषि वाणिज्यादि रूप आरंभ कार्यों में तो किसी व्यक्ति विशेष के प्राणघात का कोई संकल्प ही नहीं होता, विरोधी हिंसा अपने प्राण, धन, जनप्रतिष्ठा तथा शीलादि की रक्षा के लिये जो करनी पड़े यह भी गृहस्वामी को अनिवार्य है। उद्यमी हिंसा खेती, व्यापार कारखाना और कला कौशलादि धंधा करने में जो हिंसा संकल्प न रहते हुए होती है वह स्वेच्छा से न होने के कारण गृहस्थाश्रमी को अनिवार्य है । दक्षिण भारत का इतिहास देखने से पाया जाता है कि धार्मिक श्रावकों ने भी देशरक्षा व धर्म संरक्षण के लिये युद्ध किये थे । इसी तरह गुजरात और राजस्थान में भी जैनियों ने युद्ध किया था इसका इतिहास मिलता है। प्राणिमात्र के लिये दयाभाव रखना, अहिंसा पालन करना यह परम तत्व है । हमारा चरित्र ध्येय के अनुसार होना चाहिये और जो ध्येय हमारा होता है उसी के अनुसार हमारा परिव रहना चाहिये हमारे नैतिक जीवन का अध: पतन होने से जाति और समाज की प्रतिष्ठा कम होती है । अगर हमारे ध्येय में अनिश्चितता है हमारे नतिक ध्येय में निश्वितता नहीं है तो किसी जाति, समाज और राष्ट्र के लिये स्वाभिमान से जिन्दगी बिताने की कोई उम्मीद नहीं है । हमारे मन, वचन, काय के विचार, उच्चार और कृति में अहिंसा भाव होना चाहिये। अगर हमारी ध्येयनिष्ठा और नैतिक स्तर में तफावत हो तो जाति, समाज और राष्ट्र के अभ्युदय के लिये हम कोई उम्मीद नहीं रख सकते । ध्येय में निष्ठा रखने वाले थोड़े ही लोग क्यों न हों वे आदरणीव हैं । जैन मुनि त्यानी महिमा और अपरिग्रही वृत्ति के होते हैं। समाज के लिये वे आधार स्तम्भ हैं। जैन मंदिर, जैन मुनि और शास्त्र ये जैन धर्म और अहिंसा तत्व में निष्ठा कायम रखने के लिये समाज में अत्यावश्यक हैं। जैन लोग जिनको ईश्वर मानते हैं। वे जिन भगवान वीरानी और निस्पृही होते हैं। ऐसे ईश्वर को क्या दे सकते हैं ? जैन धर्मावलंबी जो पूजन करते हैं उसका उद्देश्य सिद्ध अवस्था प्राप्त करना होता है । सिद्धावस्था ही जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है और सिद्ध परमात्मा ही ईश्वर है। सिद्धभगवान इस सृष्टि का निर्माण नहीं करते हैं और संसार से उनको कोई संबंध नहीं है। वे न किसी पर मेहरबान होते हैं और न किसी को सजा देते हैं, सिद्धावस्था आत्मा की शुद्धावस्था है। सिद्ध परमात्मा अनंत दर्शन, अनन्तज्ञान, अंनत वीर्य, और अनंत सुख के धारक हैं। हर आत्मा में ये शक्तियाँ हैं, हम प्रार्थना, पूजन और भक्ति जो अरिहंत भगवान के सामने करते हैं हमारी इन सुप्त शक्तियों के विकास के वी. नि. सं. २५०३ Jain Education International लिये करते हैं और अरिहंत भगवान से हमारी कोई अपेक्षा नहीं है। जैन धर्म में जो निरूपण है उसके अनुसार हर जीव की जो क्रियायें या कृतियाँ होती हैं उसके कारण कर्म का आस्रव, बंध और निर्जरादि स्वयं चलित अनादि है। हर जीव अपने विचार, उच्चार (वचन) और कृतियों का जिम्मेदार है। हर जीव की क्रियायें शुभ या अशुभ हुआ करती है। कर्म अनादिनिधन है यही तो जैन धर्म का वैशिष्ट्य है, स्वयं की प्रेरणा से कुछ नियमानुसार जीव चलता है ऐसे जीव अल्पसंख्यक ही रहते हैं । जैनियों को अपने धर्म के अनुसार चलना चाहिये जिसके कारण वह आदरणीय मुख शुद्ध और आदर्श जीवन बिता सकता है-धर्म के अनुसार चलने से हमारी सद्-असद् विवेक बुद्धि जागृत रहती है। हम सद्गुणी बनते हैं। जिसके कारण मानसिक सन्तुष्टता और आध्यात्मिक समताभाव हमको प्राप्त होता है। जैन धर्म ने तीन महान तत्वों का प्रतिपादन किया है-अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह वृत्ति ये ही तीन तत्व हैं। अहिंसा का अर्थ किसी जीव पर जुल्म या अन्याय नहीं करना है, अनेकांत तत्व के अनुसार सत्य अनेकविध प्रकार का है। दूसरों की क्या मतप्रणाली है इसको समझने के लिये धर्म सहिष्णुता की जरूरत है। अहिंसा धर्माचरण यह सामाजिक ध्येय है और अनेकांत यह तत्व बौद्धिक क्षेत्र का ध्येय है । जैनधर्मी लोग जिस समय के घटक हैं उनको अपने परिग्रह का, अपने स्वामित्व का, स्थावर जंगम इस्टेट का, धन-धान्यादि के उपयोग का प्रमाण करना चाहिये । अपने अनावश्यक जरूरीयात के अनुसार ही स्थावर जंगम इस्टेट पर कब्जा करना चाहिये। कुछ दश प्रकार के परिग्रह, क्षेत्र, वास्तु, धनधान्य, द्विपद, चतुष्पद, शयनासन, पान, सर्व प्रकार के वस्त्र और सब प्रकार की धातु के बर्तन हैं- इन सब परिग्रहों का अपनी शक्ति, परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार प्रमाण करना यह परिमित परिग्रह कहलाता है । इस प्रमाण से जो परिग्रह ज्यादा है उसको चर्तुविधदान में खर्च करना हर जैनी का कर्तव्य है, स्वयं ही इस व्रत को स्वीकार करने से यह समाजवाद, सामाजिक समता को कायम रखता है । "जीओ और दूसरे जीवों को जीने दो" यह अहिंसा के पालन का तरीका है। जब हम दूसरों के मत से सहमत नहीं रहते, ऐसी अवस्था में दुभिन्न मतवालों के विचारों को हमें सहानुभूति पूर्वक सुनना चाहिये । जैनियों की यह सर्वधर्म सहिष्णुता है। जैन धर्म की विविध और विपुल उपाधियों को जाने समझे बिना भारतीय संस्कृति का ज्ञान परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता । जैन धर्म ने वर्ण, जाति, रूप, समाज विभाजन को कभी महत्व नहीं दिया । यह बात राष्ट्रीय दृष्टि से ध्यान देने योग्य है । आज की ईर्ष्या और संघर्ष की आग से दग्ध संसार को जीव मात्र के कल्याण और उत्कर्ष की भावनाओं से ओतप्रोत इस उपदेशामृत की बड़ी आवश्यकता है । For Private & Personal Use Only ९९ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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