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सर्वांश रूप में ज्ञान तो व्यवहार नय से होता है और मात्र निश्चय नय से नहीं होता। दोनों नय सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं।
जब व्यवहार नय से कथन किया जाता है तब निश्चय नय गौण रहता है । दोनों नय अपनी अपनी जगह मृतार्थ और सत्यार्थ माने गये हैं। एक नय दूसरे नय को गौण तो कर सकता है पर वह उसका विनाश नहीं कर सकता। यदि ऐसा होने लगे तो सभी नय निरपेक्ष हो जायेंगे तब नयों का जो साक्षेपवाद सिद्धान्त है वह असत्य सिद्ध होगा।
नय के प्रमुखतः २ भेद हैं--व्यवहार नय और निश्चय नय अथवा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायाथिकनय ।
व्यवहारनय (पर्यायाथिकनय) भेद दृष्टि से लेकर कथन करता है और निश्चयनय अभेद दृष्टि को लेकर कथन करता है कहा भी है:
"स्वाश्रितो निश्चय: और पराश्रितो व्यवहारः।" वस्तु को ज्ञात करने की दृष्टि को दोनों नयों की जानकारी अनिवार्य है। एक ही नय को समझ लेना, एक ही नय को मान लेना, एक ही नय से कथन करना और इसको ही संपूर्ण मान लेना एकान्त है और दोनों नयों को समझकर दोनों रूप में वस्तु को कहना सो अनेकान्त है। जहां अनेकान्त दृष्टि है वहां सभी तरह के विवाद, संघर्ष एवं कलह स्वयमेव शान्त हो जाते हैं और जहां अनेकान्त नहीं है वहां संघर्ष, विद्रोह कलहादि सब कुछ हैं।
जीव अनादिकाल से अज्ञानभाव के (विभाव परिणति) कारण अशुद्ध दशा में रहता है लेकिन ज्ञानभाव के (स्वभाव परिणति) कारण जीव की शुद्ध दशा रहती है। इस दृष्टि से जीव शुद्ध भी है और अशुद्ध भी है।
अब कोई यहां ऐसा कहे कि जीव तो शुद्ध ही है सिद्ध ही है सो कैसे ? हां ! मुक्त जीवों के लिये संभव नहीं । संसारी जीव सिद्ध समान स्वभाववाले तो हैं, पर वे स्वयं सिद्ध नहीं हैं । क्योंकि सिद्ध होने में बाधक विभाव परिणति जो काम कर रही है । जब इस परिणति को नष्ट किया जाये तभी जीव सिद्ध हो सकता है अन्यथा नहीं। ___ जीव और कर्म का अनादिकाल से ही संयोग संबंध या निमित्त नैमित्तिक संबंध चला आ रहा है। जीव अनादिकाल से ही मुक्त नहीं है, यदि मुक्त होता तो अनादि से संसार का और संसार बन्धन का प्रश्न ही नहीं होता । संसार एक बन्धन है । इस बन्धन को काटना ही मुक्ति है। बन्धन की ही मुक्ति होती है, मुक्ति की मुक्ति नहीं होती। संसार में संसरण, विभाव, परिणति के द्वारा होता है, संसार ही व्यवहार है । व्यवहार से निश्चय की प्राप्ति होती है । निश्चय की प्राप्ति में व्यवहार साधन है।
व्यवहार साधन है, निश्चय साध्य है। दोनों में कार्यकारण का भेद है । जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाण साधन हैं सुवर्ण साध्य है । उसी प्रकार निश्चय व्यवहार को समझना चाहिये।
आचार्य कहते हैं कि भव्य जीवो ! यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को सम्मुख रखो क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ (व्यवहार मार्ग) और निश्चय के बिना तत्व (मार्गफल) का नाश हो जायेगा। यहां मार्ग साधन है और मार्गफल (गन्तव्य स्थल पर पहुंचना) साध्य है।
सुद्धो सुद्धा देखा, णायव्यो परमभावदरिसीहि । व्यवहार देसिदापुण, जेदु अपर मेढ़ि दाभावे ॥१२॥
समयसार गाथा ।।१२।। जो परमभाव में स्थित है, यानी दर्शन-ज्ञान-चारित्र है उनको शुद्ध आत्मा का उपदेश करने वाला शुद्ध नय जानने योग्य है। और जो अपरमभाव में स्थित है यानी दर्शन-ज्ञान-चरित्र की पूर्णता को नहीं पहुंचे हैं वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। यह अवस्था (अपरभाव) जीवन की साधक दशा मानी गई है। साधक दशा क्षीणमोह १२वें गुणस्थान तक रहती है । साधकः जिस साध्य प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ कर रहा था उस साहस की सिद्धि का फल (केवल ज्ञान) उसे सयोगकेवली १३ वे गुणस्थान में प्राप्त होता है यह गुणावस्था अरहन्तावस्था की है। शिष्य ने भगवन्त कुन्दकुन्दाचार्य से प्रश्न किया है कि भगवान यदि परमार्थ का ही उपदेश सब कुछ है तो फिर व्यवहार का उपदेश किस लिये दिया जाता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य गाथा कहते हैं
जह जवि सक्कमणज्जो, अण्ज्जभासंविणा उ गाहेउ। ___तह ववहारेण विणा, परमत्थुवारसण मसक्कं ।।८।।
--समयसार। जैसे अनार्य (म्लेच्छ) जन को अनार्थ भाषा (म्लेच्छ भाषा) के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने के लिये कोई समर्थ नहीं है । उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है अर्थात् जो लोग परमार्थ या शुद्ध नय को नहीं जानते हैं उन्हें व्यवहार पूर्वक परमार्थ का उपदेश देना चाहिये । जैसे एक पंडितजी ने एक म्लेच्छ से कहा “स्वस्तिरस्तु" तब म्लेच्छ उसको घूरकर या टकटकी लगाकर देखने लगता है। क्योंकि म्लेच्छ ''स्वस्तिरस्तु" का अर्थ नहीं जानता। उसी समय एक दुभाषिये ने कहा कि पंडितजी कहते हैं कि तेरा कल्याण हो । तब म्लेच्छ स्वस्ति का अर्थ समझकर प्रसन्न होता है।
अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से आती है । मल में द्रव्य अन्य रूप नहीं होता । मात्र पर द्रव्य के निमित्त से अवस्थामलिन (अशुद्ध पर्याय) हो जाती है। द्रव्य दृष्टि से देखा जाय तो वही है और पर्याय दृष्टि से देखा जाय तो मलिन है । जीव की यह अवस्था पुदगल कर्म के निमित्त से रागादि रूप मलिन पर्याय है। द्रव्य दृष्टि से तो जीव में ज्ञायकत्व ही है, जड़त्व नहीं।
जिनमात्र स्याद्वाद रूप है । वह जीव को न सर्वथा शुद्ध मानता है और न सर्वथा अशुद्ध किन्तु वह वस्तु के शुद्ध अशुद्ध दोनों धर्म को मानता है । क्योंकि वस्तु में अनंत धर्म समाये हुए हैं, वस्तु को सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व होता है। इसलिये स्यावाद की शरण लेकर वस्तु को सभी धर्मों से (विभिन्न नयों से)
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